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मुसीबत में अरुण शौरी

पत्रकारिता के क्षेत्र की सबसे असरदार शिख्सयत और सियासी सिद्धांतकार के रूप में अपनी खास पहचान बना चुके पूर्व विनिवेश मंत्री अरुण शौरी क्या इतने नौसिखिया हो सकते हैं कि अपने ऊपर फरेबी राजनेता की मुहर लगवा लें। फिलहाल तो शौरी अपने कार्यकाल में हुई गम्भीर अनियमितताओं के कुहासे में घिरे हुए हैं। सूत्रों की मानें तो निजीकरण पर राजनीतिक दो-मुँहापन ही शौरी के लिए मुश्किलें पैदा करता रहा। भारत एल्युमिनियम कॉर्पोरेशन (बाल्को) के निजीकरण पर तो इतना कोहराम मचा कि वाजपेयी सरकार के हाथ-पाँव ही सुन्न पड़ गये? सन् 2002 में वाजपेयी सरकार में विनिवेश मंत्री रहते हुए शौरी ने उदयपुर स्थित लक्ष्मी विलास होटल को निजी क्षेत्र के उपक्रम भारत होटल लिमिटेड को कौडिय़ों के भाव साढ़े सात करोड़ में बेच दिया; जबकि मूल्यांकन के हिसाब से लक्ष्मी विलास होटल की कीमत 252 करोड़ से भी ज़्यादा की थी।

इस मामले में सीबीआई कोर्ट ने शौरी के विरुद्ध एफआईआर दर्ज करते हुए जाँच के आदेश दे दिये हैं। बताते चलें कि उदयपुर की फतेहसागर झील के मुहाने पर स्थित पूर्व राज-परिवार की सम्पत्ति लक्ष्मी विलास पाँच सितारा होटल था। अब इसे ललित लक्ष्मी विलास पैलेस के नाम से जाना जाता है। इस मामले में पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल को भी आरोपी बनाया गया है। हालाँकि सीबीआई के निशाने पर भारत होटल के मुख्य प्रबन्ध निदेशक ज्योत्सना सूरी का भी नाम है। लेकिन सीबीआई के सूत्रों का कहना है कि ज्योत्सना का नाम प्राथमिकी में तो नहीं है; लेकिन इस मामले में उनकी भूमिका को संदेहास्पद माना जा रहा है। उधर अपने बचाव में शौरी का कहना है इस मामले में नियम संगत प्रक्रिया अपनायी गयी थी।

पूर्व विनिवेश सचिव प्रदीप बैजल भी यही बात दोहराते हैं कि सब कुछ नियमानुसार हुआ है। बहरहाल सीबीआई कोर्ट के फैसले के बाद होटल को उदयपुर ज़िला प्रशासन ने अपने कब्ज़े में ले लिया है। इसके साथ ही बाहर लगाये गये बोर्ड में इसे राज्य सरकार की सम्पत्ति घोषित करते हुए लग्ज़री होटल प्रदर्शित किया गया है। उदयपुर ज़िला प्रशासन ने इस होटल के रखरखाव के लिए केंद्र सरकार को सूचित करते हुए रिसीवर नियुक्त कर दिया है। करीब 18 साल लम्बी चली इस कवायद की पृष्ठभूमि को लक्ष्मी विलास पैलेस के एक पूर्व कर्मचारी अंबालाल नायक ने तैयार किया। नायक की अनथक कोशिशों का ही नतीजा था कि सीबीआई को इसमें हस्तक्षेप करना पड़ा। प्रकरण में लम्बी चली पड़ताल में सीबीआई को मानना पड़ा कि करोड़ों की इमारत कोडिय़ों में बेच दी गयी। होटल की वास्तविक कीमत और ललित सूरी को बेचे गये दामों में भारी अन्तर था।

सवाल है कि मंत्री रहते हुए शौरी की नीतिगत व्यवस्था क्यों उन्हें कटघरे में खड़ा करती रही? एक मंत्री की मान्यताओं और मंत्रालय की अपेक्षाओं के बीच चौड़ी खाई विरले ही देखने को मिलती है। विश्लेषकों का कहना है कि विनिवेश मंत्रालय और अरुण शौरी तो एक-दूसरे के लिए बने ही नहीं थे। विनिवेश के मामले में एक मंत्री की अक्षमता कितनी कीमत ले सकती है? लक्ष्मी विलास होटल की बिक्री को इसका स्पष्ट उदाहरण माना जा सकता है। नतीजतन शौरी सीबीआई के सामने फुटबॉल बने हुए हैं। लक्ष्मी विलास होटल के अतिरिक्त एक और मामला इन दिनों सुर्खियाँ बटोर रहा है। अडानी परिवार को कोयला भुगतान के मामले में राज्य के ऊर्जा विभाग ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया है। असल में मामला समझें तो अडानी परिवार का कोयला भुगतान के मामले में राजस्थान डिस्कॉम सुप्रीम कोर्ट में हार गया था। डिस्कॉम को अनुबन्ध के तहत निर्धारित बकाया राशि क्षतिपूर्ति शुल्क के रूप में 5200 करोड़ रुपये चुकाने थे। इस अनुबन्ध को समझें तो अडानी पॉवर ने राजस्थान के कवई में 1320 मेगावाट का संयंत्र लगाया था। लेकिन जब विदेश से कोयला मँगाये जाने पर कम्पनी ने अन्तर राशि का तकाज़ा किया, तो डिस्कॉम लम्बी प्रक्रिया का हवाला देकर पीछे हट गया। नतीजतन डिस्कॉम ने सुप्रीम कोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया।

कोर्ट ने इस मामले में राज्य सरकार को 50 फीसदी भुगतान के अंतरिम आदेश दे दिये। बहरहाल सुप्रीम कोर्ट के आदेशों के बावजूद डिस्कॉम भुगतान में हीला-हवाली कर रहा है। डिस्काम के अधिकारियों का कहना है कि कम्पनी कोयला कहीं से भी मँगवाये, उसे भुगतान अनुबन्ध की निर्धारित दरों से ही किया जाएगा। जबकि अडानी परिवार का कहना है कि उसे तो कोयला उपलब्ध ही नहीं कराया गया। नतीजतन उसे स्थानीय स्तर पर कोयला का इंतज़ाम करना पड़ा। इसके लिए उसे ज़्यादा भुगतान करना पड़ा। सूत्रों का कहना है कि ऊर्जा विभाग अपनी जगह सही भी हो सकता है; लेकिन सुप्रीम कोर्ट में तो अपना पक्ष सही ढंग से नहीं रख पाया। यह अक्षमता तो ऊर्जा मंत्रालय को ही भारी पड़ेगी।

जन-समर्थन के लिए जम्मू और लद्दाख पहुँचा कश्मीर का गुपकार गठबन्धन

6 नवंबर को गुपकार घोषणा के लिए छ: दलों के मज़बूत पीपुल्स यूनियन गठबन्धन के नेता शीतकालीन राजधानी जम्मू भी पहुँचे। वहाँ उन्होंने अनुच्छेद-370, जिसमें जम्मू कश्मीर को भारतीय गणराज्य के भीतर विशेष दर्जे का प्रावधान था; की बहाली के लिए अपने संघर्ष को जनता से समर्थन माँगा। नेशनल कॉफ्रेंस के नेता फारूक अब्दुल्ला और उनके बेटे पूर्व मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने अपने कार्यकर्ताओं के साथ बैठक करने के लिए जम्मू की यात्रा की, तो पीडीपी की नेता और जम्मू-कश्मीर की पूर्व मुख्यमंत्री महबूबा मुफ्ती भी जम्मू पहुँचीं, जिसने वहाँ की राजनीति में हलचल पैदा कर दी। पार्टी के वरिष्ठ नेताओं और कार्यकर्ताओं सहित प्रान्तीय अध्यक्ष देवेंद्र सिंह राणा ने अब्दुल्ला और उमर का पार्टी कार्यालय में स्वागत किया। 5 अगस्त, 2019 को अनुच्छेद-370 को निरस्त किये जाने के बाद वे पहली बार जम्मू पहुँचे थे। कश्मीर के विपरीत, जहाँ वे किसी भी राजनीतिक गतिविधि को रोक नहीं सकते हैं; जम्मू में वे कार्यकर्ताओं को स्वतंत्र रूप से सम्बोधित कर सके और उनकी बात पिछली बैठकों से कहीं अधिक प्रभावी रही।

फारूक अब्दुल्ला ने जम्मू में कहा कि वे (भाजपाई) हमें पाकिस्तान जाने के लिए कहते हैं। अगर हमें पाकिस्तान जाना होता, तो हम सन् 1947 में वहाँ जा सकते थे। हमें कोई नहीं रोक सकता था। फारूक ने आगे कहा कि उस समय शेख मोहम्मद अब्दुल्ला (उनके पिता और नेकां के संस्थापक) ने लोगों को बताया था कि हमारा भाग्य महात्मा गाँधी के भारत के साथ है। हम भी यही कहते हैं कि हमारा भाग्य गाँधी के हिन्दुस्तान के साथ है; न कि भाजपा के हिन्दुस्तान के साथ।

उन्होंने आज के सत्तासीन भाजपाइयों से पूछा कि वे तब कहाँ थे, जब वह (फारूक) पूर्व प्रधानमंत्री और भाजपा नेता अटल बिहारी वाजपेयी के साथ जिनेवा में भारत का मामला लड़ रहे थे। अब्दुल्ला ने कहा कि तब वाजपेयी वहाँ बोलने में सक्षम नहीं थे। आज हमें पाकिस्तानी कहा जाता है!

उमर अब्दुल्ला ने जम्मू वासियों को चेताया कि बाहर के लोग कश्मीर में ज़मीन खरीदने से पहले जम्मू में खरीदेंगे। क्योंकि कश्मीर का रास्ता जम्मू से होकर गुज़रता है। उन्होंने कहा कि नये भूमि कानूनों के तहत कृषि भूमि संरक्षित है। नये भूमि कानून में स्पष्ट रूप से उल्लेख किया गया है कि कृषि भूमि को गैर-कृषि भूमि में परिवर्तित करके बेचा जा सकता है।

महबूबा मुफ्ती (जो जम्मू अलग से गयीं) की बयानबाज़ी अधिक उग्र थी। उन्होंने कहा कि लोगों की आवाज़ के दमन ने जम्मू-कश्मीर में प्रेशर कुकर जैसी स्थिति पैदा कर दी है। लेकिन जब प्रेशर कुकर में विस्फोट होता है, तो यह पूरे घर को जला देता है। समय आयेगा, जब केंद्र लोगों से हाथ जोड़कर पूछेगा कि वे पूर्व राज्य की विशेष स्थिति की बहाली के अलावा और क्या चाहते हैं?

गुपकार गठबन्धन के कश्मीरियों के लिए विशेष अधिकारों की बहाली के लिए संघर्ष करने के लिए समान विचारधारा वाले दलों के साथ परामर्श करने की भी सम्भावना है। इससे पहले गठबन्धन ने लद्दाख में मुस्लिम बहुसंख्यक कारगिल का दौरा किया था; ताकि उनके संघर्ष के लिए उनका समर्थन मिल सके। गुपकार घोषणा (पीएजीडी) के एक प्रतिनिधि मण्डल ने उमर अब्दुल्ला के नेतृत्व में कारगिल का दौरा वहाँ के राजनीतिक समूहों से बात करने के लिए किया, जो अनुच्छेद-370 के फैसले को वापस लेना चाहते हैं और लद्दाख के फिर से जम्मू-कश्मीर के साथ जुडऩे के हक में हैं।

9 अक्टूबर को कारगिल में राजनीतिक और सामाजिक-धार्मिक संगठनों के एक संग्रह ने जम्मू-कश्मीर गुपकार घोषणा समूह (पीएजीडी) के नये कारगिल डेमोक्रेटिक अलायंस (केडीए) के गठन की घोषणा की। कारगिल के एक वरिष्ठ नेता नेशनल कॉफ्रेंस के कमर अली अखून के अनुसार, गठबन्धन के दो एजेंडे हैं। एक, हम अनुच्छेद-370 की बहाली चाहते हैं; लेकिन जब तक ऐसा नहीं होता, हम लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश के लिए पूर्ण राज्य का दर्जा माँगते हैं। यह चीज़ लद्दाख को दो सोचों में विभाजित करती है; क्योंकि इसका एक और ज़िला (बौद्ध बहुमत वाला लेह) केंद्र शासित प्रदेश की स्थिति के साथ संतुष्ट है।

हालाँकि छठी अनुसूची के तहत प्रदान किये गये संवैधानिक सुरक्षा उपायों की माँग करता है। लेह हाल ही में अपनी स्वायत्त पहाड़ी ज़िला परिषद् में भाजपा को सत्ता में वापस लाया है। इससे स्थिति वास्तव में जटिल हो गयी है। लद्दाख में यह लेह बनाम कारगिल बन गया है, जबकि जम्मू-कश्मीर में यह मोटे तौर पर कश्मीर बनाम जम्मू है। लेह और जम्मू में बहुमत अपनी ज़मीन की सुरक्षा चाहता है और अनुच्छेद-370 की बहाली का समर्थन नहीं करता, जबकि कश्मीर और कारगिल इसकी माँग करते हैं।

हालाँकि यह भी सच है कि हाल के महीनों में जम्मू और लेह ने अनुच्छेद-370 के बाद के हालत पर असन्तुष्टि का स्पष्ट इज़हार किया है। जनसांख्यिकीय परिवर्तन, नौकरियों की हानि, भूमि अधिकारों और पहचान की बढ़ती सम्भावना ने लोगों को असहज कर दिया है। लेकिन जम्मू में अभिव्यक्ति को मौन करते हुए लोग लेह में अपने अधिकारों के बारे में मुखर रहे हैं। वास्तव में केंद्र शासित प्रदेश में सभी दलों ने हाल में बाहरी लोगों के प्रवेश के खिलाफ एकजुटता दिखायी है। अगर केंद्र संविधान की 6वीं अनुसूची के अनुदान की तरह सुरक्षा उपायों का वादा नहीं करता, तो उसने चुनावों के बहिष्कार की धमकी दी थी। केंद्र ने कश्मीर के लिए अपने दृष्टिकोण के विपरीत लद्दाख को इन सुरक्षा माँगों का भरोसा देने में देरी नहीं लगायी। लेकिन जब तक केंद्र वास्तव में इन सुरक्षा उपायों को अनुदान नहीं देता, तब तक लेह के मन में आशंका तो बनी रहेगी।

इसी समय कारगिल में मुस्लिम, जो लद्दाख केंद्र शासित प्रदेश में सबसे अधिक बहुमत में हैं; इन सुरक्षा उपायों में रुचि नहीं रखते हैं। कश्मीर में अपने समकक्षों की तरह वे भी अनुच्छेद-370 को वापस चाहते हैं और लद्दाख को फिर जम्मू-कश्मीर के साथ जोडऩे के हक में हैं।

दूसरी ओर जम्मू में भाजपा के अलावा अन्य पार्टियों में राज्य की वर्तमान घटनाओं को लेकर अलग विचार हैं। हालाँकि पैंथर्स पार्टी जैसे स्थानीय दल अनुच्छेद-370 को खत्म करने का समर्थन करते हैं; लेकिन अनुच्छेद-370 जैसी सुरक्षा की गारंटी भी जम्मू के लिए चाहते हैं। कश्मीर गठबन्धन के लिए कांग्रेस ने अनुच्छेद-370 की बहाली और कश्मीरियों के अधिकारों का समर्थन किया है। वह वास्तव में गुपकार गठबन्धन की घटक है; लेकिन उसने इसकी हालिया बैठकों में हिस्सा नहीं लिया है। ज़ाहिर है इसका कारण देश के अन्य हिस्सों में उसकी राजनीतिक मजबूरियाँ हैं।

इससे एक सम्भावना यह है कि तीनों क्षेत्र एक सामान्य न्यूनतम एजेंडे पर सहमत हो सकते हैं। और ऐसा होता है, तो यह छ: पार्टियों के गठबन्धन के लिए एक बड़ी उपलब्धि होगी और इससे राष्ट्रीय स्तर पर उसका मामला मज़बूत होगा। साथ ही जम्मू-कश्मीर के अधिकारों के मुद्दे पर एक व्यापक क्षेत्रीय सहयोग कश्मीर में नेताओं को राजनीतिक गतिविधि के लिए अधिक स्थान देगा। इस तरह के गठबन्धन को जम्मू और लद्दाख में प्रतिनिधित्व देने के लिए प्रभावशाली स्थानीय नेताओं की भी आवश्यकता होगी।

लेकिन क्षेत्रीय सहयोग के अवसरों के बारे में अनिश्चितता अभी भी बनी हुई है। इसका कारण गहरी परस्पर विरोधी राजनीतिक संस्कृतियाँ हैं और तीनों क्षेत्रों के बड़े पैमाने पर विरोधाभासी हित हैं। यहाँ तक कि लद्दाख के मामले में, जहाँ मुसलमान थोड़े बहुमत में हैं; उनका राजनीतिक वज़न बौद्धों के लिए केंद्र के समर्थन ने हल्का किया है। इसलिए क्षेत्रीय गठजोड़ के लिए ऐसी सभी विरोधी ताकतों को सामंजस्य स्थापित करना होगा। यह एक आसान काम नहीं होगा।

नई दिल्ली पर कुछ दबाव बनाने के लिए मुख्यधारा के राजनीतिक समूह के लिए एक विकल्प विशेष दर्जे को खत्म करने के खिलाफ एक निरंतर सार्वजनिक प्रतिरोध को तेज़ करना है। लेकिन इस तरह के प्रतिरोध की गुंजाइश के बारे में वैध संदेह है, जब केंद्र ने क्षेत्र में किसी भी लोकतांत्रिक असन्तोष के लिए जगह को बहुत कम जगह छोड़ी है। और गुपकार गठबन्धन इस तथ्य के प्रति सावधान है। उन्होंने अब तक संयुक्त बयान जारी किये हैं, और खुद को एक नाम दिया है। उनकी संरचना को औपचारिक रूप दिया और एक एजेंडा पर काम किया। लेकिन शान्तिपूर्ण विरोध, सार्वजनिक रैली, एक प्रेस कॉन्फ्रेंस या किसी हद तक हड़ताल जैसे कदमों से वे दूर रहे हैं। साथ ही भले अनुच्छेद-370 की वापसी के खिलाफ पार्टियों को जनता की राय लेनी थी, केंद्र को उसकी नीति में बदलाव के लिए मजबूर करने की उनकी क्षमता न्यूनतम रहेगी। ऐसा करते हुए वे कश्मीर पर नये राष्ट्रीय सर्वसम्मति के खिलाफ होंगे; जो पूर्व राज्य के एकीकरण को एक फंतासी के रूप में देखता है। यह स्वायत्तता, स्व शासन और प्राप्त राष्ट्र के लिए अनुच्छेद-370 की बहाली की माँग करता है। बहुत कुछ इस क्षेत्र की उभरती हुई भू-राजनीति पर भी निर्भर करेगा और इस पर भी कि चीन तथा पाकिस्तान के साथ भारत के समीकरण कैसे आकार लेंगे, और यह भी कि क्या अफगानिस्तान फिर से तालिबान के हाथों में जाएगा।

इस बारे में स्थानीय स्तम्भकार नसीर अहमद का कहना है कि यह अभी भी देखा जाना बाकी है कि ये घटनाक्रम कश्मीर पर क्या प्रभाव डालेंगे? फिलहाल एक कश्मीर पर्यवेक्षक के पास भविष्य के घटनाक्रम के इंतज़ार और ईश्वर से बेहतर की प्रार्थना करने के अलावा कुछ नहीं है।

पहली बार डीडीसी चुनाव

अपने लोकतांत्रिक इतिहास में पहली बार कश्मीर में ज़िला विकास परिषद् (डीडीसी) के चुनाव हो रहे हैं। पहले चरण का मतदान 1 दिसंबर को होगा और मतदान प्रक्रिया 24 दिसंबर तक पूरी होगी। डीडीसी पंचायती राज्य व्यवस्था के तीसरे स्तर पर कार्य करेंगे। यह केंद्र शासित प्रदेश में पूरे 73वें संशोधन अधिनियम के कार्यान्वयन का प्रतीक है। हालाँकि देश और कश्मीर में पंचायत राज प्रणाली के बीच एक महत्त्वपूर्ण अन्तर है। जम्मू-कश्मीर में डीडीसी के सदस्य सीधे ज़िले के 14 क्षेत्रीय निर्वाचन क्षेत्रों से चुने जाएँगे, और वे अकेले डीडीसी में शक्ति का प्रयोग करेंगे। वे परिषद के अध्यक्ष और उपाध्यक्ष को नियुक्त कर सकते हैं और निकाल सकते हैं। हालाँकि विधानसभा के सदस्य और ज़िले की सभी खण्ड विकास परिषदों के अध्यक्ष भी डीडीसी सदस्य होंगे; लेकिन वे कोई शक्ति नहीं बनाएँगे।

अतिरिक्त ज़िला विकास आयुक्त डीडीसी के मुख्य कार्यकारी अधिकारी होंगे। संशोधनों के अनुसार, एससी, एसटी और महिलाओं के लिए सीटें आरक्षित की गयी हैं, जो ज़िला विकास परिषदों के प्रत्यक्ष चुनाव से भरी जाएँगी। जम्मू-कश्मीर के पंचायत सम्मेलन के अध्यक्ष शफीक मीर ने कहा कि नयी त्रिस्तरीय पंचायत प्रणाली ग्राम पंचायतों और बीडीसी की शक्ति को कमज़ोर करने की धमकी देती है। गुपकार गठबन्धन की पार्टियाँ मिलकर डीडीसी चुनाव लड़ेंगी।

निरंकुश हो रहा भारत का लोकतंत्र!

क्या भारत उदार लोकतंत्र से दूर जा रहा है? हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोट्र्स कुछ यही संकेत करती हैं। अब इस शंका को स्वीडन की संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट ने और गहरा दिया है। इस डेमोक्रेसी रिपोर्ट में वी-डेम इंस्टीट्यूट ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने के कगार पर है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि भारत में नागरिक समाज के बढ़ते दमन के साथ प्रेस स्वतंत्रता में आयी कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान हिन्दू-राष्ट्रवादी शासन से जुड़ी है। हाल के महीनों तक हम इन कारणों से लोकतंत्र की घटते ग्राफ की बात करते थे; लेकिन नयी रिपोट्र्स में तो भारत के लोकतंत्र का दर्जा खो देने के खतरे की ही बात कही गयी है; जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। इससे यह भी सवाल पैदा होता है कि क्या भारत एक निरंकुश शासन व्यवस्था की तरफ धकेला जा रहा है?

यह कोई पहली रिपोर्ट नहीं है, जिसमें भारत में लोकतंत्र के गिरते स्तर पर सवाल उठे हैं। इसी साल जनवरी में जारी की गयी इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट की रिपोर्ट में भी भारत 10 स्थान खोकर 51वें नम्बर पर पहुँच गया था। भारत में हाल के महीनों में लागू किये गये कानूनों को भी इसका एक बड़ा कारण माना जा रहा है। दिलचस्प है कि हाल में मानसून संसद सत्र में जब मोदी सरकार ने प्रश्न-काल को शामिल नहीं करने का फैसला किया था। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने इसका जमकर विरोध भी किया था। जनसाधारण से जुड़े मुद्दों पर सवाल पूछने की स्वतंत्रता का यह हनन संसद में ही हो, तो निश्चित ही इसे चिन्ता का बड़ा कारण माना जाना चाहिए; भले इसे कोरोना जैसी महामारी का बहाना बनाया गया हो। कुछ समय पहले जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सरकार विरोधी आवाज़ों के दमन पर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है। अगर आप इस सेफ्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे, तो प्रेशर कुकर फट जाएगा। लेकिन लगता है इस सेफ्टी वॉल्व को विभिन्न परिवर्तनों से धीरे-धीरे हटाया जा रहा है। उनकी बात और चेतावनी अब बहुत सारगर्भित लगने लगी है। देश में लोकतंत्र के स्तम्भ संस्थानों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता का हनन इस चिन्ता को और गहरा करता है, जो सम्भ्रांत और पढ़े-लिखे लोगों में बढ़ी है। मीडिया की मौज़ूदा हालत इस चिन्ता को और पुख्ता करती है।

बता दें कि वी-डेम एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है, जो गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में स्थित है। इसमें हर साल दुनिया भर की एक डाटा आधारित लोकतंत्र रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। वी-डेम की रिपोट्र्स को दुनिया भर में इ•ज़त की नजर से देखा जाता है, जिसका कारण उसका व्यापक अध्ययन है। इस बार की रिपोर्ट में भी डेटा, डेटा एनालिटिक्स, ग्राफिक्स, चार्ट और मैप का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है; जिससे इसमें किये गये गहन अध्ययन का संकेत मिलता है। अब जब संस्था की रिपोर्ट में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक कहे जाने वाले भारत में लोकतंत्र के कमज़ोर पडऩे की बात कही गयी है, तो निश्चित ही यह काफी ठोस है।

क्या है वी-डेम रिपोर्ट में

रिपोर्ट को तैयार करने वाली स्वीडन के गोटेनबर्ग विश्वविद्यालय से जुड़ी संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट के अधिकारी रिपोर्ट में कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र की बिगड़ती स्थिति की उन्हें चिन्ता है। रिपोर्ट में उदार लोकतंत्र सूचकांक में भारत को 179 देशों में 90वाँ स्थान दिया गया है। हैरानी की बात तो यह है कि भारत अपने पड़ोसियों श्रीलंका (70वें स्थान पर) और नेपाल (72वें स्थान पर) से भी खराब स्थिति में है। भले सरकार समर्थक इस रिपोर्ट से सहमत नहीं और उसे वी-डेम की रिपोर्ट पर आपत्ति है; लेकिन बहुत-से अन्य लोग मानते हैं कि हाल के वर्षों में भारत में लोकतंत्र को आघात करने वाली बहुत-सी चीज़ें हुई हैं और रिपोर्ट में जतायी गयी चिन्ता सही है। वी-डेम इंस्टीट्यूट की साल 2020 की डेमोक्रेसी रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए जगह कम हुई है। हम अपने स्तर पर विपक्ष की जगह की बात करें, तो यह भाजपा ही है, जिसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया और इसे अपने ज़मीन स्तर के कार्यकर्ता तक पहुँचा दिया। बहुत-से लोगों का कहना था कि इस नारे से लोकतंत्र के दमन और निरंकुश शासन की बू मिली और कुछ पार्टी समर्थकों के अलावा किसी ने भी इसे पसन्द नहीं किया। इसका कारण यह है कि भारत में किस राजनीतिक दल का चुनाव करना है या उसे पसन्द करना है, इसका अधिकार जनता के पास है। जनता के अधिकार पर डाका डालने का मतलब है- लोकतंत्र पर चोट करना। रिपोर्ट के अनुसार, 2001 के बाद पहली बार निरंकुशतावादी शासन (ऑटोक्रेसी) बहुमत में दिख रहा है। इसमें 92 देश शामिल हैं, जहाँ वैश्विक आबादी का 54 फीसदी हिस्सा रहता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब निरंकुशता की तीसरी लहर का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थ-व्यवस्थाओं को प्रभावित कर रही है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले पिछले 19 साल की तुलना में 31 देशों को प्रभावित कर रहे हैं। साथ ही पिछले 10 साल में निरंकुशतावादी देशों में 13 फीसदी अकादमिक स्वतंत्रता की औसत गिरावट दर्ज की गयी है। इन देशों में भारत को भी शामिल किया गया है। उदारवादी लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आकलन के लिए रिपोर्ट में जनसंख्या को पैमाना बनाया गया है, जो जनसंख्या आकार के आधार पर औसत लोकतंत्र स्तर को मापता है। इससे पता चलता है कि कितने लोग प्रभावित हैं? यह सूचकांक चुनावों की गुणवत्ता, मताधिकार, अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता, संघों और नागरिक समाज की स्वतंत्रता, कार्यपालिका पर जाँच और कानून के नियमों को शामिल करता है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत जनसंख्या के मामले में निरंकुश-व्यवस्था की ओर बढऩे वाला सबसे बड़ा देश है।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में नागरिक समाज के बढ़ते दमन के साथ प्रेस स्वतंत्रता में आयी कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान हिन्दू-राष्ट्रवादी शासन से जुड़ी है। हालाँकि वरिष्ठ भाजपा नेता और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इससे कतई इत्तेफाक नहीं रखते। तहलका से फोन पर बातचीत में धूमल ने कहा कि यह भारत को बदनाम करने की साज़िश का एक हिस्सा है। भारत में मोदी सरकार ने लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत की हैं। यहाँ समय पर चुनाव हुए हैं और हरेक नागरिक को वोट देने का अधिकार है। मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं है। मत भूलें कांग्रेस के समय में सन् 1974 में जब आपातकाल लगा, तो भाजपा के ही नेता थे, जो लोकतंत्र की रक्षा करने पर जेलों में ठूँसे गये थे। धूमल के दावे के इतर सच यह है कि भारत में मीडिया की स्वतंत्रता में हाल के वर्षों में ज़बरदस्त गिरावट आयी है। पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह व मानहानि से लेकर उनकी हत्या के मामले बढऩा इसका सुबूत हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन इस पर चिन्ता जता चुके हैं।

ऐसी स्थिति क्योंं

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाने और उसके खिलाफ देशभर में शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को दबाने की कोशिश, जम्मू कश्मीर में एकतरफा राजनीति के बशीभूत होकर अनुच्छेद-370 खत्म करने और एक राज्य को दो हिस्सों में बाँटकर उसका दर्जा घटा देने और लोगों की आवाज़ दबा देने के लिए वहाँ के नेतृत्व को जेलों में ठूँस देने के अलावा किसानों के विरोध के बावजूद कृषि से जुड़े जबरन कानून बनाने जैसे देश के हाल के फैसले भारत को एक खराब दिशा की तरफ ले जा रहे हैं। वी-डेम की रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के हाल के मामलों और लॉकडाउन और उसके बाद प्रेस स्वतंत्रता पर हमले और सीएए प्रदर्शनकारियों पर दर्ज मामलों को शामिल नहीं किया गया है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हाल में ढेरों सवाल उठे हैं। इसके अलावा विरोधी दलों या राज्यों में उनकी सरकारों को कमज़ोर करने के लिए सरकारी एजेंसियों सीबीआई, ईडी आदि का जैसा दुरुपयोग हुआ है, वह गम्भीर चिन्ता का विषय है। यही नहीं, विपक्ष की सरकारों को हर हालत में गिराने और इसके लिए पैसे के अलावा केंद्र के नियुक्त राज्यपालों के इस्तेमाल से लोकतंत्र पर खतरे के बादल मँडराये हैं। यहाँ यह ज़िक्र ज़रूरी है कि इस साल जनवरी में द इकोनॉमिस्ट ग्रुप की खुफिया इकाई की तैयार की गयी लोकतंत्र सूचकांक रिपोर्ट में भी भारत में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर गम्भीर सवाल खड़े किये हैं। इस रिपोर्ट में भारत को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की सूची में रखा गया था। यह रिपोर्ट भारत में 2019 की स्थिति पर आधारित थी। ज़ाहिर है दो महीने बाद द इकोनॉमिस्ट की 2020 की स्थिति पर जो रिपोर्ट आयेगी, वह और भी चिन्ताजनक हो सकती है। क्योंकि इन महीनों में देश में इस पैमाने पर स्थिति और खराब हुई है।

वर्तमान सत्ता दुनिया की रिपोट्र्स में उभरी चिन्ताओं को फिर भी नहीं समझ पा रही है। इसका प्रमाण हाल के कृषि कानून हैं। इन कानूनों का विरोध आने वाले दिनों में बड़े आन्दोलन का रास्ता खोलता दिख रहा है। गैर-भाजपा राज्य इन कानूनों को मानने को तैयार नहीं। वे विधानसभाओं में इनके खिलाफ प्रस्ताव पास कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि लोकतंत्र को यही चीज़ें नष्ट कर रही हैं। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने को लेकर उठे बड़े विवाद के बावजूद मोदी सरकार अब वहाँ भूमि स्वामित्व अधिनियम सम्बन्धी कानून में बड़ा संशोधन करते हुए नये नया भूमि कानून ले आयी है। इस अधिसूचना में कहा गया है कि अब कोई भी भारतीय जम्मू-कश्मीर में ज़मीन खरीद सकता है। बता दें कश्मीर तो कश्मीर, जम्मू में भी लोग इसके हक में बहुत ज़्यादा नहीं हैं। लद्दाख में तो पहले ही इसका बड़ा विरोध सामने आ चुका है। लिहाज़ा लद्दाख को अभी इस दायरे से बाहर रखा गया है। भारत के लिए डेमोक्रेसी इंडेक्स में हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोट्र्स में ऐसी स्थिति मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए जगह कम होना है। विरोध की आवाज़ दबाने के लिए मोदी सरकार पहले से ही आलोचना के घेरे में थी, लेकिन 2019 में दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद विरोध नये स्तर तक पहुँच गया है। भारत में बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि भाजपा के नेता अहंकार में डूब चुके हैं और लोकतंत्र उनके लिए मज़ाक की चीज़ हो गयी है। वी-डेम की ताज़ा रिपोर्ट मोदी सरकार की आलोचनाओं की पुष्टि करती दिखती है।

रिपोर्ट में कहा गया है भारत लगातार गिरावट के रास्ते पर है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल में जो 10 देश सबसे अधिक निरंकुशता की ओर बढ़े हैं, उनमें हंगरी, तुर्की, पोलैंड, सर्बिया, ब्राज़ील और भारत शामिल हैं। बता दें लोकतांत्रिक स्थिति को लेकर अदालतें भी सरकार को चेताती रही हैं। सन् 2018 में भीमा-कोरेगाँव हिंसा में गिरफ्तार पाँच सामाजिक कार्यकर्ताओं के मामले की सुनवाई के दौरान तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बेंच में शामिल जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था कि विरोध की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता।

दुनिया के कई देशों में सरकारें या नेता अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते निरंकुश आज़ादी चाहते हैं। ऐसे में उनका सबसे पहला निशाना ऐसे लोग या दल / समूह बनते हैं, जो उनसे अलग या विपरीत सोच रखते हैं। भारत में भी हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि भाजपा नेता उन तमाम नेताओं या राजनीतिक दलों को देशद्रोही कहने लगे हैं, जो वास्तव में उसकी विचारधारा के विरोधी हैं। सोशल मीडिया का भी इस दुष्प्रचार के लिए जमकर दुरुपयोग करके जनता के मन में यह बैठाने की कोशिश की गयी है कि जो उनके (भाजपा) के विरोध में बोल रहे हैं, वे वास्तव में देश के विरोधी हैं। निश्चित ही लोकतंत्र के लिए यह सोच बहुत घातक है। सबसे ज़्यादा हैरानी की बात यह है कि विरोधियों का दमन करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का ही सहारा लिया जाता है; ताकि उनका गलत फैसला भी सही दिखे।

हाल में देश भर के 115 लेखकों-पत्रकारों-कलाकारों और संस्कृति कर्मियों ने बिहार चुनाव में लोगों से अपील की थी कि वे नफरत फैलाने वाली ताकतों के खिलाफ और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की पक्षधर शक्तियों को समर्थन दें। मतदाताओं के लिए यह अपील जारी करने वाले में हिन्दी, मलयालम, मराठी, अंग्रेजी सहित विभिन्न भाषाओं के लेखक शामिल थे। इन लोगों ने कहा था कि इस समय देश आज़ादी के बाद के सबसे मुश्किल और अँधेरे दौर से गुज़र रहा है। लोकतंत्र का वेश धारण किये हुए तानाशाही, साम्प्रदायिक और जन-विरोधी ताकतें हमारे धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को नेस्तनाबूद करके गरीब-साधारण जनों के लिए नित नये संकट पैदा कर रही हैं। उन्होंने देश को झूठ, घृणा, दमन, हिंसा और आर्थिक विनाश के दुश्चक्र में डाल दिया है। यह अपील एक उदाहरण है कि कैसे देश के जागरूक लोग लोकतंत्र को खतरे से चिन्तित हैं।

हाल में इस विरोध की एक बानगी तब भी दिखी थी, जब आभूषणों के जाने-माने ब्रांड तनिष्‍क के एक विज्ञापन को लेकर बवाल खड़ा किया गया। विज्ञापन का विरोध करते समय जानबूझकर इसके एक पहलू को ही देखा गया। सोशल मीडिया में इसे हि‍न्दू समाज की भावनाओं के खिलाफ बताते हुए इसे लव जिहाद को प्रोत्साहित करने वाला बता दिया गया। सवाल उठाया गया कि ऐसा कोई विज्ञापन हि‍न्दू परिवार में मुस्लिम बहू को लेकर कभी क्‍यों नहीं दिखाया जाता। सोशल मीडिया पर बायकॉट तनिष्‍क अभियान ट्रेंड होने पर कम्पनी ने विज्ञापन वापस ले लिया।

इस मसले पर लोग दो खेमों में बँटे दिखे। इसे साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाले वर्ग ने इस बात पर आपत्ति जतायी कि तनिष्‍क ने उस विज्ञापन को कुछ उ‍न्मादी लोगों के दबाव में आकर वापस क्‍यों लिया? इस तरह की घटनाएँ निश्चित ही लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह हैं; क्योंकि ऐसी असहिष्णुता उदार पक्ष पर प्रहार करती है।

हम अपने अध्ययन में एक देश में 400 के करीब इंडिकेटर्स को जाँचते हैं, जिनमें अभिव्यक्ति, मीडिया और सिविल सोसायटी की स्वतंत्रता, चुनावों की गुणवत्ता, मीडिया में अलग-अलग विचारों की जगह और शिक्षा में स्वतंत्रता जैसे प्रमुख इंडिकेटर्स शामिल हैं। हमारे साथ 3,000 से ज़्यादा विशेषज्ञों का मज़बूत नेटवर्क है और उनमें भारत में काम कर रहे शिक्षित जन भी हैं। यह जन सिविल सोसायटी और राजनीतिक दलों से वािकफ हैं। लोकतंत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण स्तम्भ भारत में हाल के वर्षों में कमज़ोर पड़ते गये हैं; खासकर पिछले आठ साल में। मोदी के सत्ता सँभालने के बाद इनमें तेज़ गिरावट आयी है। भारत अब अलोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में आने के बिल्कुल करीब है। पिछले कुछ साल में मीडिया में सरकार का पक्ष लेने का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पत्रकारों को प्रताडि़त करना, मीडिया को सेंसर करने पत्रकारों की गिरफ्तारी और मीडिया की सेल्फ सेंसरशिप की घटनाएँ बड़ी हैं, जिसमें सरकार की भूमिका उजागर होती है।

स्टीफन लिंडबर्ग, निदेशक, वी-डेम इंस्टीट्यूट, स्वीडन

भारत में खत्म होते लोकतंत्र के लिए मोदी सरकार ज़िम्मेदार है। अर्थ-व्यवस्था गहरे संकट में है। देश और भी कई मोर्चों पर मुश्किल में है; लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली के सभी स्तम्भ जिस तरह से निशाना बनाये जा रहे हैं, वो बहुत ज़्यादा चिन्ता की बात है। आज राजनीतिक विरोधी और सिविल सोसायटी के लोग सरकार के निशाने पर हैं। देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी इस कदर खतरे में दिख रही है कि सरकार के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही और आतंकवादी की तरह से पेश किया जा रहा है।

सोनिया गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष

सियासी दलों के लिए पत्रकारिता अफसोसजनक

करीब तीन दशक पहले जब मैं पत्रकारिता में आया, तो तब पत्रकारिता एक विपक्षी की भूमिका में रहती थी। सरकार चाहे किसी की भी हो, लेकिन पत्रकारों की उसकी खामियों पर बराबर नज़र बनी रहती थी। तब पत्रकारों की अपनी एक अहमियत हुआ करती थी। हालाँकि तबसे अब तक सूचना क्रान्ति के विस्फोट के साथ-साथ पत्रकारिता का बहुआयामी विकास हुआ है। अब डिजिटल पत्रकारिता का ज़माना है। तकरीबन 62 हज़ार से ज़्यादा पंजीकृत अखबारों और 600 से अधिक समाचार चैनलों के साथ हमारे यहाँ की पत्रकारिता आज पूरे देश को एक दिशा देने में अहम भूमिका निभा रही है। लेकिन दु:ख इस बात का है कि इनमें से अधिकतर अखबार और चैनल देश के लिए पत्रकारिता न करके सियासी पार्टियों के लिए दरबान का काम करने लगे हैं। आज महसूस किया जा रहा है कि आधुनिक जीवनशैली जीने की चाह और पैसे कमाने की होड़ में पत्रकारिता अपने दायित्व से मुकरती-सी जा रही है। सवाल यह नहीं है कि बदलते दौर में पत्रकारिता ने अपना कलेवर क्यों बदला है? बल्कि सवाल यह है कि अपनी-अपनी पसन्द के सियासी दलों के लिए अब पत्रकारिता क्यों हो रही है? अब चुनावों में खबरें चलाने से लेकर किसी मुद्दे पर बहस होने तक पक्षपाती या हमलावर होती है। बाज़ार में छाये रहने के लिए नये-नये पैंतरे और तरीके अब पत्रकारिता का एक शगल हो गया है।

अभी पिछले दिनों टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी के खेल को लेकर मामला सामने आया, तो अब एक चैनल हैड की गिरफ्तारी को लेकर लड़ाई सियासी पार्टियों की निजता पर आती प्रतीत होती है। उत्तर प्रदेश में दर्ज़नों पत्रकारों पर खबरें दिखाने पर कार्रवाई होना, कई पत्रकारों की हत्या होना और अब तो एक पत्रकार के हाथ-पैर तोड़े जाने की घटना भी इस बात की साफ गवाही देती है कि सत्ताधारी पार्टियाँ भी अब अपने हित की पत्रकारिता चाहती हैं। जो पत्रकार सरकार की पोल-पट्टी खोलता है, उसे या तो जेल होती है या उसके साथ मार-पीट होती है। सवाल यह है कि अपनी जान हथेली पर रखकर पत्रकारिता करने वाले पत्रकारों की हिफाज़त का ज़िम्मा क्या पुलिस, प्रशासन और सरकारों का नहीं है? लोकतंत्र के इस चौथे स्तम्भ को आखिर क्यों इतना खोखला और कमज़ोर बनाया जा रहा है कि जनता के हित में काम करने की बजाय वह पार्टी विशेष के हित में काम करने लगा है? सवाल यह भी है कि क्या इसके लिए केवल सियासी पार्टियाँ या सरकारें ही ज़िम्मेदार हैं? नहीं, कहीं-न-कहीं पत्रकार और मीडिया संस्थान भी इसके लिए उतने ही ज़िम्मेदार हैं। जैसा कि मैंने कहा कि आधुनिक जीवनशैली की चाह और पैसा कमाकर लग्जरी और आधुनिक जीवनशैली जीने की हवस ने पत्रकारिता को आज उस चौराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है, जहाँ से वह हर तरफ से सांसत में हैं। वरना आज से तीन दशक पहले तक एक पत्रकार की इतनी ठसक होती थी कि वह कन्धे पर झोला लटकाये पैदल भी चलता था, तो उसकी हर जगह इ•ज़त होती थी और उसके आने पर सियासी दलों में एक भय बना रहता था कि वह कहीं कुछ उलटा-सीधा लिखकर छाप न दे। तब पत्रकार भी किसी मुद्दे को लेकर चुप्पी नहीं साधते थे और न ही किसी मुद्दे पर फालतू की चिल्लापुकारी करते थे। सन् 1993 में दूरदर्शन के एक कार्यक्रम ‘परख’ के लिए काम करने के दौरान देखने को मिला कि लुटियंस ज़ोन में किसी मंत्री से कुछ बात करनी होती थी, तो वह हमारी टीम की खातिरदारी और सम्मान में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ते थे। आज इस चीज़ का टोटा साफ दिखाई पड़ता है।

उस समय शुरू हुए कार्यक्रमों और निजी चैनलों पर 24 घंटे हाय-हाय वाली खबरें नहीं चलती थीं। एस.पी. सिंह जैसे लोग प्रिंट से टीवी मीडिया का रुख कर चुके थे। तब हर खबर का एक औचित्य होता था; जिसका सरोकार समाज से जुड़ा होता था। समाज को बाँटने की प्रथा तब नहीं थी। देखते-देखते सब बदल गया। अब न पत्रकारों की इ•ज़त बहुत बची है और न पत्रकारिता की। अब अधिकतर चैनलों के पत्रकार उसी परदे के पीछे झाँकने की चेष्टा करते हैं, जिस परदे के पीछे सत्ताधारी पार्टी दिखाना चाहती है। ऐसे चैनलों पर से आम जनमानस के मुद्दे गायब से हो चुके हैं। दूसरे शब्दों में कहें तो पत्रकारिता का नैतिक और चारित्रिक पतन हो रहा है। इसके पीछे सबसे बड़ी वजह भोंपू मीडिया है। इस तरह के पत्रकारों के सवाल भी उनके गुस्से के चलते लाल दिखायी देते हैं। आधुनिक पत्रकारिता का जन्म यूरोपीय देशों में हुआ, लेकिन आज इसका गैर-ज़िम्मेदाराना विकास हमारे देश में हो रहा है; जिस पर अंकुश लगाया जाना बहुत ज़रूरी है। भारत में पत्रकारिता का जन्म स्वतंत्रता संग्राम की भागीदारी से शुरू हुआ था, लेकिन आज वही पत्रकारिता लोगों की स्वतंत्रता में खलल का संसाधन बनती जा रही है। सन् 1920 के दशक में यूरोप में जब पत्रकारिता की सामाजिक भूमिका पर बहस शुरू हो रही थी, तब तक भारत में पत्रकारिता प्रौढ़ अवस्था में पहुँच चुकी थी। तब यहाँ पत्रकारिता के मूल में दो शर्तें थीं- चरित्रवान होना और निष्पक्ष होना। लेकिन अब पत्रकारिता में इन दोनों ही शर्तों का नितांत अभाव होता जा रहा है, जिसके चलते पत्रकारिता विकास के चर्मोत्कर्ष की बजाय पतन की ओर बढ़ रही है। सन् 1827 में राजा राममोहन राय ने लिखा था कि मेरा उद्देश्य सिर्फ यही है कि मैं जनता के सामने ऐसे बौद्धिक निबन्ध उपस्थित करूँ, जो उनके अनुभवों को बढ़ाएँ और सामाजिक प्रगति में सहायक सिद्ध हों। मैं अपने शक्तिशाली शासकों को उनकी प्रजा की परिस्थितियों का सही परिचय देना चाहता हूँ, ताकि शासक जनता को अधिक से अधिक सुविधा देने का अवसर पा सकें और जनता उन उपायों से परिचित हो सके, जिनके द्वारा शासकों से सुरक्षा पायी जा सके और उचित माँगें पूरी करायी जा सकें। लेकिन जैसे ही देश आज़ाद हुआ, भारत की राजनीतिक स्वाधीनता के साथ-साथ पार्टियों की ताकतें बढ़ती गयींं और उन्होंने जनसरोकार के लिए बनी पत्रकारिता को अपनी दहलीज़ का दरबान बनाने की कोशिश शुरू कर दी और आज बड़े अफसोस के साथ कहना पड़ता है कि पत्रकारिता के अधिकतर संस्थानों ने सियासी पार्टियों की दरबानी को स्वीकार कर लिया। मैं नाम नहीं लेना चाहूँगा, लेकिन ऐसे कई संस्थान हैं, जो नेताओं-मंत्रियों, खासतौर से सियासी पार्टियों की दरबानी कर रहे हैं।

मेरा मानना है कि अगर पत्रकारिता को सही रास्ते पर लाना है और समाज को बदलने, उसे तरक्की प्रदान करने वाली पत्रकारिता को फिर से ज़िन्दा करना है, तो उसमें कई बदलाव करने होंगे। सरकार और सूचना-प्रसारण मंत्रालय को इसमें पत्रकारिता का सहयोग करना चाहिए। क्योंकि अगर लोकतंत्र के चौथा स्तम्भ समाज में इसी तरह अपना स्तर खोता रहा, तो सम्भव है कि लोग पत्रकारिता के नाम से और नफरत करने लगें।

शैक्षणिक योग्यता के साथ चरित्र भी ज़रूरी

एक समय था, जब पत्रकारिता में प्रवेश उसी व्यक्ति को मिलता था, जो देश-समाज की तरक्की चाहता था और जिसे निष्पक्ष समझा जाता था। बदलते समय के साथ धीरे-धीरे पत्रकारिता में गुटबाज़ी शुरू हुई। सम्पादकों ने अपनी पसन्द के पत्रकारों और स्टाफ को रखना शुरू कर दिया और उससे अपने-अपने हिसाब से ही पत्रकारिता कराने की कोशिश की जाने लगी। इसके बाद सौदेबाज़ियाँ शुरू होने लगीं। पत्रकार सत्ता की चौखट पर बैठने लगे और अब जो हालात हैं, उन्हें बयान करने की ज़रूरत नहीं है, वह आप सब देख ही रहे हैं। दूरदर्शन एवं तमाम निजी चैनलों के समाचार और करंट अफेयर्स के कार्यक्रमों के लिए वीडियोग्राफी करने से लेकर देश के प्रतिष्ठित समाचार समूहों का सफर तय करते हुए आज एक सुप्रसिद्ध समाचार पत्र में राजनीतिक सम्पादक के पद तक पहुँचने मुझे इस बात का गर्व और सन्तुष्टि होती है कि मैंने अपने आप को पत्रकारिता के मानदंडों पर टिका रहने दिया। हालाँकि इसके लिए काफी मुसीबतें भी झेलीं। कई जगह से अच्छी-खासी नौकरियाँ भी छोड़ीं, पर पत्रकारिता के पैमाने पर समझौता नहीं किया। आज कई नये युवा पत्रकारिता में आकर रातोंरात अमीर बनना चाहते हैं, जिसके लिए वे कुछ भी करने तक को तैयार हो जाते हैं। पहले संस्थानों में पत्रकारिता की पढ़ाई करके आने वाले विरले ही होते थे, लेकिन उनमें चरित्र होता था, उनमें अपने पेशे के प्रति ईमानदारी होती थी। वहीं आज 80 से 90 फीसदी युवा पत्रकार पत्रकारिता की पढ़ाई करके आते हैं, लेकिन उनमें से अधिकतर में न तो चरित्र है और न ही पत्रकारिता के प्रति ईमानदारी। इसलिए मेरा मानना है कि अब पत्रकारिता में योग्यता के साथ-साथ चरित्र का होना बहुत ज़रूरी है।

सरकारों को होना होगा सर्वग्राही

आपने पढ़ा होगा हाल ही में उत्तर प्रदेश के ललितपुर में एक पत्रकार के हाथ-पैर तोडऩे की घटना फिर घटी है। उत्तर प्रदेश में पहले भी पत्रकारों की पिटाई और उन पर कार्रवाई होती रही है। पत्रकार पर हमला करने वाले सत्ताधारी दल के नेता के पुत्र बताये जा रहे हैं। खबरों के मुताबिक, पीडि़त पत्रकार मनरेगा में गड़बड़ी की कवरेज़ करने गये थे। सवाल यह है कि अगर निष्पक्ष पत्रकारिता करने पर पत्रकारों को पीटा या उन पर जानलेवा हमला किया जाएगा, उनके खिलाफ झूठे मुकदमे लिखें जाएँगे या उनकी हत्या की जाएगी, तो पत्रकारिता के पेशे में कौन ईमानदार व्यक्ति उतरेगा? इसलिए मेरा मानना है कि सरकार को भी पत्रकारिता में दखलंदाज़ी करने से परहेज़ करना होगा और हर सरकार को अपने नेताओं को साफ हिदायत देनी होगी कि पत्रकारों के काम में किसी भी तरह से बाधक न बनें, अन्यथा उन्हें भी सज़ा भुगतनी होगी। इसके साथ-साथ सरकारों को सर्वग्राही होना पड़ेगा। यानी खबर जैसी भी हो, अगर वह सही है, तो अपने खिलाफ होते हुए भी उसे स्वीकार करना होगा।

फर्ज़ी और समाज में फूट डालने वाले पत्रकारों पर हो कार्रवाई

मेरा मानना है कि पत्रकारिता में तब तक सुधार नहीं हो सकता, जब तक फर्ज़ी और समाज को बाँटने या फूट डालने वाले पत्रकारों के खिलाफ कार्रवाई नहीं होगी। क्योंकि ऐसे पत्रकारों की वजह से दूसरे ईमानदार और असली पत्रकारों की इमेज पर खराब असर पड़ता है और लोगों का पत्रकारिता पर से भरोसा उठता है। ऐसे में ज़रूरी है कि पत्रकारिता को सही रास्ते पर रखने के लिए कानून और सरकारों से पहले पत्रकारिता संस्थान ऐसे पत्रकारों पर कार्रवाई करें, जो केवल अपने फायदे के लिए पत्रकारिता के स्तर को गिराने का काम कर रहे हैं।

सही रास्ते से भी होती है तरक्की

पिछले साल देश के एक निजी टीवी चैनल के वरिष्ठ पत्रकार को रेमन मैग्सेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। उन्हें यह बड़ा सम्मान वास्तविक जीवन और सामान्य लोगों की परेशानियों को सामने लाने में दिये योगदान को देखते हुए दिया गया। आज पत्रकारिता में आने वाले युवाओं को लगता है कि उन्हें समाज में सम्मान तभी मिलेगा, जब उनके पास धन-सम्पदा, बड़ी गाड़ी और बंगला होगा। लेकिन मेरे विचार से ऐसा नहीं है। अगर पत्रकारिता सही मायने में की जाए, तो इस पेशे में बेहद सम्मान और भरपूर पैसा, सब कुछ है। लेकिन इसके लिए सब्र और कड़ी मेहनत की आवश्यकता है। क्योंकि असली सम्मान और टिकाऊ पैसा देर से और अधिक मेहनत के बाद ही इंसान की झोली में आते हैं। रातों-रात अमीर होने वाले, रातों-रात परेशानियों में भी फँस जाते हैं; जिसके तमाम उदाहरण हैं। मैं तो कहता हूँ कि ये परेशानियाँ सिर्फ पत्रकारिता में ही नहीं, बल्कि किसी भी पेशे में आने वाले युवाओं को इस बात को हमेशा ध्यान रखना चाहिए।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं। इसी महीने आपको मुंशी प्रेमचंद अवॉर्ड से नवाज़ा गया है।)

हरियाणा : राज्य के युवाओं को 75 फीसदी नौकरियों के विरोध में कॉर्पोरेट जगत

हरियाणा विधानसभा में राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला ने रोज़गार स्थानीय उम्मीदवार विधेयक-2020 पेश किया है। यह विधेयक निजी क्षेत्र में स्थानीय लोगों के लिए 75 फीसदी नौकरी का कोटा प्रदान करने को लेकर है, जो प्रति माह 50,000 रुपये से कम का वेतन प्रदान करते हैं। यह विधेयक राज्य में स्थित निजी कम्पनियों, समितियों, ट्रस्टों और साझा फर्मों पर लागू होता है। बता दें कि राज्य में भाजपा की गठबन्धन सहयोगी, जननायक जनता पार्टी ने पिछले साल अपने चुनावी घोषणा पत्र में हरियाणा के युवाओं को निजी क्षेत्र की नौकरियों में 75 फीसदी कोटा प्रदान करने की प्रतिबद्धता जतायी थी। लेकिन जैसी कि उम्मीद थी, गुरुग्राम में निजी नियोक्ताओं ने हरियाणा सरकार द्वारा राज्य में अधिवासित युवाओं के लिए निजी क्षेत्र में 75 फीसदी नौकरियों (प्रति माह 50,000 रुपये से अधिक का भुगतान करने वाली नौकरियों को छोड़कर) की भर्ती की योजना पर अपनी नाराज़गी व्यक्त की और कहा कि इस कदम से इस क्षेत्र में बाधा आ सकती है। उन्होंने कहा कि इस कदम से शहर का आर्थिक परिदृश्य भी बदल सकता है, जो हरियाणा, दिल्ली-एनसीआर, भारत और यहाँ तक कि दुनिया भर के लोगों को रोज़गार देता है।

दिलचस्प बात यह है कि सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय ने 17 मार्च, 2020 को पुष्टि की थी कि कॉर्पोरेट द्वारा सबसे अच्छा पाठ्यक्रम स्वैच्छिक चुनाव होना चाहिए। सामाजिक न्याय और अधिकारिता राज्य मंत्री रतन लाल कटारिया ने लोकसभा में एक लिखित उत्तर में पुष्टि की थी कि औद्योगिक और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग द्वारा दी गयी जानकारी के अनुसार, अनुसूचित जातियों / अनुसूचित जनजातियों को निजी क्षेत्र में लेकर कार्रवाई के लिए एक समन्वय समिति 2006 में प्रधानमंत्री कार्यालय की तरफ से स्थापित की गयी थी। अब तक समन्वय समिति की 9 बैठकें हो चुकी हैं। पहली समन्वय समिति की बैठक में यह कहा गया था कि सकारात्मक कार्यवाही के मुद्दे पर प्रगति हासिल करने का सबसे अच्छा कोर्स उद्योग द्वारा स्वैच्छिक कार्र्यवाही के माध्यम से है।

निजी क्षेत्र में आरक्षण के सन्दर्भ में उद्योग जगत के प्रतिनिधियों का मानना है कि आरक्षण कोई समाधान नहीं है। लेकिन वे सरकार और उचित एजेंसियों के साथ साझेदारी नीति को बढ़ाने और सीमांत वर्ग के लिए वर्तमान भर्ती नीति का विस्तार करने के इच्छुक हैं; विशेष रूप से एससी तथा एसटी के कौशल विकास और प्रशिक्षण को प्रोत्साहित करने के लिए। इसके बाद शीर्ष उद्योग संघों ने अपनी सदस्य कम्पनियों को शिक्षा, रोज़गार, उद्यमिता और रोज़गार में शामिल करने के लिए स्वैच्छिक आचार संहिता तैयार की है। 9वीं बैठक में उद्योग संघों से पूरे दिन के सत्र आयोजित करने के सन्दर्भ में सकारात्मक कार्रवाई के तहत अधिक सक्रिय कदम उठाने का अनुरोध किया गया था। इस पहल के लिए अपनी सदस्य कम्पनियों के साथ गाँवों को गोद लेना और एससी / एसटी के उद्यमियों को प्रोत्साहन, अनुसंधान विद्वानों को छात्रवृत्ति और जनजातीय छात्रों के लिए करियर मार्गदर्शन कार्यक्रम और कौशल विकास और उद्यमिता मंत्रालय की राष्ट्रीय शिक्षा संवर्धन योजना में समर्थन और योगदान करना और प्लेसमेंट की सम्भावना का भी पता लगाना शामिल है। उद्योग संघों से अनुरोध किया गया कि वे एससी / एसटी समुदाय से कम-से-कम 25 फीसदी प्रशिक्षुओं का नामांकन करें।

स्थानीय आईटी-फर्म के संस्थापक और नैस्कॉम, हरियाणा के प्रवक्ता, मानस फुलोरिया ने कहा कि वर्तमान में अध्यादेश की विशिष्ट शर्तों पर बहुत स्पष्टता नहीं है। हम स्वयं यह पता लगाने की कोशिश कर रहे हैं कि क्या यह केवल अकुशल श्रम या कुशल नौकरियों पर ही लागू होता है। यदि अध्यादेश को पूर्ण आरक्षण के रूप में पारित किया जाता है, तो कई निजी कम्पनियाँ अपने कर्मचारियों को दूसरे शहरों में स्थानांतरित करने का विकल्प चुन सकती हैं; कम से कम कागज़ पर। वर्तमान परिदृश्य में बहुत-सी कम्पनियों के लिए दूरस्थ रूप से काम करना सम्भव होगा। लेकिन मुझे लगता है कि विनिर्माण और रियल एस्टेट जैसे उद्योग इन बाधाओं से बहुत प्रभावित होंगे।

सरकारें व्यापार को आसान करने और श्रम सुधार लाने की बात कर रही हैं। ऐसी स्थिति में अपने उम्मीदवारों का चयन करने के लिए कम्पनियों के आंशिक अधिकारों को छीन लेना अच्छे काम झटका देने जैसा होगा। खिलाड़ी देश में निवेश के प्रति इच्छुक नहीं हैं। ऐसे में आरक्षण को निजी क्षेत्र में विस्तारित करने पर एक व्यापक बहस की ज़रूरत है।

कार्पोरेट क्षेत्र के कई लोगों ने कहा कि इस कदम के परिणामस्वरूप हरियाणा निजी कम्पनियों के लिए कम आकर्षक स्थल बन जाएगा। गुरुग्राम उद्योग संघ के अध्यक्ष पंकज यादव ने कहा कि इस समय, नौकरियाँ पहले से ही कम हैं। उद्योगों को कम-से-कम अगले कुछ वर्षों के लिए अपने विवेक से काम करने की अनुमति दी जानी चाहिए। यह समय पहले से ही कमज़ोर अर्थ-व्यवस्था में इस तरह की अड़चन डालने का नहीं है। हमारे पास स्थानीय लोगों को काम पर रखने के साथ कोई समस्या नहीं है; लेकिन सही कौशल और योग्यता वाले लोगों को खोजना बहुत कठिन हो जाएगा, और सम्भवत: अधिक महँगा भी होगा।

मौत के सौदागर

जित दूध-दही का खाणा से विख्यात हरियाणा अब अन्य कुछ प्रदेशों की तरह शराब के मामले में कमोबेश कुख्यात हो रहा है। राज्य के सोनीपत और पानीपत ज़िलों में ज़हरीली शराब पीने से नवंबर के पहले सप्ताह तक 47 लोगों की मौत हो गयी। सोनीपत में जहाँ 37 लोगों ने दम तोड़ा, वहीं पड़ोसी ज़िले पानीपत में नौ लोग मौत के शिकार हो गये। शराब के ज़्यादा सेवन से कई मौतें तुरन्त हो गयीं, जबकि कुछ ने घर पहुँचकर दम तोड़ दिया। दर्ज़नों लोग इलाज़रत हुए। मरने वालों की पोस्टमार्टम रिपोर्ट में ज़हरीले रसायन की पुष्टि हुई है। यह स्पष्ट संकेत है कि राज्य में सस्ती शराब के नाम पर लोगों को ज़हर बेचा जा रहा है। जितनी सस्ती शराब, उतनी ज़्यादा बिक्री।

राज्य में अवैध शराब का कारोबार करने वाले लोगों का मूल मंत्र चाँदी काटना है। उन्हें किसी की ज़िन्दगी से कोई सरोकार नहीं है। हरियाणा सरकार ने पंजाब में हुई शराब त्रासदी से कोई सबक नहीं लिया। तीन माह पहले वहाँ इसी तरह की रसायन युक्त शराब पीने से 130 से ज़्यादा लोगों की मौत हो गयी थी। बाद में पुलिस ने छापेमारी के दौरान हज़ारों लीटर रसायन बरामद किया; जिसका शराब में इस्तेमाल किया जा रहा था। बता दें कि इस रसायन की ज़्यादा मात्रा से नशा देने वाली शराब ज़हर बन जाती है। स्टॉक रजिस्टर में हेरफेर करके थोक विक्रेता यह रसायन शराब माफिया को बेच रहे थे। लगभग तीन माह बाद अब यह घटना हरियाणा में हो गयी। इसे सरकार की पूरी तरह से नाकामी कहा जा सकता है।

अवैध शराब की बिक्री पर नज़र रखने वाला प्रदेश का आबकारी विभाग तीन-चार माह के दौरान दूसरी बार बिल्कुल नकारा साबित हुआ है। यह विभाग राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के पास है; जो शराब से ज़्यादा राजस्व के लिए तो कोशिश करते हैं, लेकिन शराब की तस्करी और अवैध शराब की बिक्री कैसे रुके? इससे अनभिज्ञ हैं। उन्होंने अब तक कोई बड़ी कार्रवाई नहीं की है। पुलिस अपने तौर पर रुटीन की कार्रवाई कर रही है; जैसा कि हर बड़ी घटना के बाद हुआ करता है।

ज़हरीली शराब त्रासदी के लिए आबकारी विभाग के साथ पुलिस विभाग भी उतना ही ज़िम्मेदार है। सोनीपत की मयूर विहार, शास्त्री कॉलोनी और इंडियन कॉलोनियों में सबसे ज़्यादा मौते हुई हैं। क्या सम्भव है कि सम्बन्धित थाना क्षेत्र की पुलिस को पता ही नहीं कि अवैध शराब की बिक्री धड़ल्ले से हो रही है। जब आम लोगों को इसकी जानकारी है, तो भला पुलिस कैसे अनजान रह सकती है? सस्ती और आसानी से सुलभ अवैध शराब घर बैठे उपलब्ध होती है। पीने वाला जहाँ चाहे फोन के माध्यम से डिलीवरी ले सकता है। यह देसी शराब ठेकों पर मिलने वाली से बहुत सस्ती होती है; लिहाज़ा इसकी ब्रिक्री खूब होती है। इससे आँखें मूँदे रखने की एवज़ में धन्धा करने वाले आबकारी और पुलिस विभाग के लोगों को खुश रखते हैं। मतलब साफ है कि साँठगाँठ से धन्धा चोखा चलता आ रहा है। त्रासदी न होती, तो इसका खुलासा भी नहीं होता कि राज्य में अवैध शराब की बिक्री खूब हो रही है।

लॉकडाउन में करोड़ों रुपये की शराब सरकारी गोदामों से गायब हुई और महँगे दाम पर लोगों तक पहुँची। करोड़ों के वारे-न्यारे हो गये। खूब हो-हल्ला हुआ, तो सरकार ने वृहद स्तर पर जाँच और दोषियों के खिलाफ कड़ी कार्रवाई की बात कही। लेकिन क्या हुआ? सरकार ने वरिष्ठ आईएएस टीसी गुप्ता की अध्यक्षता में तीन सदस्यीय विशेष जाँच टीम (एसईटी) गठित की। लम्बी जाँच के बाद समिति ने रिपोर्ट पेश की, तो निष्कर्ष खोदा पहाड़ निकली चुहिया जैसा रहा। किसी व्यक्ति विशेष का नाम नहीं, बल्कि आबकारी और पुलिस विभाग की निष्क्रियता का उल्लेख किया गया। कहाँ तो आरोप साबित होने पर संतरी से लेकर मंत्री तक कड़ी कार्रवाई की बात कही गयी, मगर रिपोर्ट में कोई भी नाम सामने नहीं आया। अगस्त में आयी रिपोर्ट के दौरान गृहमंत्री ने इस मामले में मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर से आबकारी आयुक्त शेखर विद्यार्थी और आईपीएस प्रतीक्षा गोदारा के खिलाफ कार्रवाई की अनुशंसा की थी।

ज़हरीली शराब त्रासदी में भी क्या सरकार वैसी ही कोई कार्रवाई करने वाली है? अवैध शराब का धन्धा अंतर्राज्यीय स्तर पर चलता है। इस गोरखधन्धे को चलाने वाले कोई छुटभैया नहीं होते, वे तो मोहरा मात्र होते हैं। इसे चलाने वाले ऊपर तक पहुँच रखते हैं। यह करोड़ों का खेल है, जिसमें किसी की ज़िन्दगी कोई मायने नहीं रखती और जान की कीमत कुछ भी नहीं होती। लगभग चार दर्ज़न लोगों की मौत की ज़िम्मेदारी आखिर किसकी है? निश्चित तौर पर सरकार की है; लेकिन वह कार्रवाई तो घटना के बाद कर रही है। जिस पुलिस को अब छापों के दौरान अवैध शराब बनाने की फैक्ट्रियाँ मिल रही हैं, वो पहले क्यों नहीं मिल रही थीं? ये फैक्ट्रियाँ कुछ दिनों में नहीं बनीं, बल्कि बरसों से चल रही थीं। साँठगाँठ से धन्धा चल रहा था; जो त्रासदी में उजागर हुआ।

 मृतकों में ज़्यादातर गरीब तबके के लोग हैं। शराब के आदी अधिकतर लोग ठेकों से नहीं, बल्कि बिचौलियों से नकली शराब खरीदते हैं। क्योंकि सस्ती होने के साथ इससे नशा भी ज़्यादा होता है। ज़हरीली शराब के सेवन से अपना भाई खो चुके शख्स के मुताबिक, पूरे राज्य की बात वह नहीं कहते, लेकिन सोनीपत ज़िले में अवैध शराब धड़ल्ले से बिकती है। कौन लोग यह काम कर रहे हैं? कहाँ इनका स्टाक रहता है? सभी को पता है। शिकायत पर कोई कार्रवाई नहीं होती और माफिया यह धन्धा बेधड़कचलाते हैं। अवैध शराब के धन्धे में लोगों का नेटवर्क इतना बड़ा है कि आप कहीं भी शराब मँगवा सकते हैं। ज़िले के गुमड़ गाँव में तीर्थ, जयपाल, प्रदीप, राकेश, सुरेंद्र, विक्रम और शेरा ज़हरीली शराब सेवन से दम तोड़ चुके हैं। पूरे गाँव में मातम का माहौल है। लोगों में आक्रोष है, जिसके चलते सड़क पर शव रख रास्ता जाम किया गया। सरकार ने मृतकों के परिजनों को दो-दो लाख रुपये की आर्थिक मदद देने की घोषणा की है; लेकिन इससे लोगों का रोष कम नहीं हुआ है। वे भविष्य में ऐसा घटना न हो इसके लिए पुख्ता प्रबन्ध करने की माँग कर रहे हैं। कई परिवार हादसे के बाद बेसहारा हो गये हैं, आजीविका चलाने वाला कोई नहीं रहा।

 पुलिस ने दोनों ज़िलों में 20 से ज़्यादा प्राथमिकियाँ दर्ज करके दर्ज़न से ज़्यादा लोगों को गिरफ्तार किया है। इतनी चुस्ती दिखाने वाली पुलिस काफी देर से जागी है। सोनीपत ज़िले में पहली मौत का मामला 2 नवंबर को आया। 3 नवंबर को ज़िले के बरोदा में उप चुनाव था; लिहाज़ा पूरे सरकारी तंत्र का ध्यान वहाँ था। इसके बाद तीन मौतें और हो गयीं। सभी मौतें एक ही वजह से हुईं। पीडि़तों के परिजनों को शराब के सेवन के बाद हालत बिगडऩे की जानकारी थी; लेकिन पुलिस के डर से उन्होंने अन्तिम संस्कार कर दिया।

3 नवंबर के बाद जब एक के बाद एक पीडि़त गम्भीर हालत में अस्पताल पहुँचने लगे और मौतों का सिलसिला बढऩे लगा, तब कहीं जाकर प्रशासन जागा। ज़िला उपायुक्त श्यामलाल पूनिया अस्पताल पहुँचे और पीडि़तों से मिले। अगर समय रहते शुरुआती मौत के बाद पुलिस सक्रिय हो जाती, तो शायद मौतों का आँकड़ा इतना न बढ़ता। ज़हरीली शराब सेवन करने वालों को पता ही नहीं चला कि शुरुआत में मरने वाले चार लोगों की मौत उसी से हुई है। बरोदा उप चुनाव की गहमागहमी में शासन-प्रशासन को पता ही नहीं चला कि लोगों की मौत किन कारणों से हो रही है?

सोनीपत की इंडियन कॉलोनी, शास्त्री विहार और मयूर विहार सभी थाने के दो किलोमीटर के दायरे में है। वहाँ बीट इंचार्ज को भी मौत की वजह का पता नहीं चल सका। कार्रवाई के नाम पर कोर्ट परिसर प्रभारी सुरेंद्र कुमार, मोहाना थाना प्रभारी श्रीभगवान और बीट इंचार्ज को निलंबित कर दिया गया है। पुलिस ने नरेश नामक व्यक्ति को पूरी घटना का मास्टर माइंड बताते हुए गिरफ्तार किया है। इनके अलावा अंकित और साहिल समेत दर्ज़न भर से ज़्यादा की गिरफ्तारी हुई है। आरोप है कि अवैध शराब की सप्लाई सरकारी ठेकों के माध्यम से भी होती है। पुलिस इसकी भी जाँच कर रही है। इसकी पुष्टि होती है, तो यह बहुत ही गम्भीर घटना मानी जाएगी। क्योंकि इससे भविष्य में ऐसी किसी त्रासदी को टालना मुश्किल होगा।

पानीपत ज़िले के धनसौली, नगलापार और राणामाजरा जैसे कई गाँवों में खुलेआम शराब बिकने के आरोप है। लोग करीब के ठेकों का विरोध करते हैं, वहीं शराब माफिया घरों तक शराब पहुँचा रहे हैं। सोनीपत के डीएसपी रविंद्र राव के मुताबिक, घटना के बाद से पुलिस ठोस कार्रवाई को अंजाम दे रही है। धन्धे से जुड़ी एक महिला समेत सात लोगों को तुरन्त गिरफ्तार किया गया है। जैसे-जैसे कडिय़ाँ जुड़ती जा रही हैं, गिरफ्तारियाँ हो रही हैं। इतने बड़े नेटवर्क के पीछे कौन है? इसका खुलासा तो जाँच पूरी होने के बाद ही चल सकेगा। पुलिस और आबकारी विभाग अब शराब माफिया से जुड़े लोगों की धरपकड़ और अवैध शराब के नेटवर्क को खत्म करने का दावा कर रहे हैं; लेकिन क्या हकीकत में वह ऐसा करने की क्षमता रखते हैं? माफिया और दोनों विभागों के इस दुष्चक्र को तोडऩा होगा, तभी भविष्य में ऐसी घटनाएँ रोकी जा सकती हैं।

अवैध शराब फैक्ट्रियाँ

शराब माफिया से जुड़े लोगों से पूछताछ के आधार पर आबकारी विभाग और मुख्यमंत्री उडऩदस्ते की ओर से गाँव ततारपुर और खरखौदा में अवैध शराब बनाने की इकाइयों (फैक्ट्रियों) का पता चला। वहाँ से भारी मात्रा में शराब में मिलाया जाने वाला रसायन, दो ड्रम शराब, हज़ारों बोतलों के ढक्कन और सील लगाने वाली मशीनें मिली हैं। बताया जा रहा है कि यहाँ बरसों से यह काम चल रहा था।

मृतकों में प्रवासी मज़दूर

मृतकों में स्थानीय लोगों के अलावा प्रवासी मज़दूर भी हैं। इनमें नौ परिवारों में कमाने वाला कोई नहीं रहा है। परिजनों का कहना है कि उनकी दुनिया उजड़ गयी। अब शायद उन्हें हरियाणा से पलायन ही करना होगा। शराब सेवन के बाद तीन दर्ज़न से ज़्यादा लोग गम्भीर हुए, जिनमें 18 स्थानीय और 13 अप्रवासी मज़दूर थे। बिहार से रमेश और दलेर चंद रोज़गार के लिए आये, लेकिन ज़हरीली शराब से जान गँवा बैठे।

अब तक शराब से मौतें

देश में ज़हरीली शराब से कमोबेश हर दो साल के अंतराल में किसी-न-किसी राज्य में हादसा होता रहा है। सन् 1978 से वर्ष नवंबर, 2020 तक 19 बड़े मामले सामने आये हैं। सबसे बड़ी घटना सन् 1981 के दौरान कर्नाटक में हुई, जहाँ ज़हरीली शराब सेवन से 308 लोग मौत के मुँह में समा गये थे। सन् 1978 में बिहार में 254, सन् 1981 कर्नाटक में 308, सन् 1982 में केरल में 77, सन् 1991 में दिल्ली में 199, सन् 1992 में ओडिशा में 200, कर्नाटक-तमिलनाडु में 180, सन् 2009 में गुजरात में 136 लोगों की मौत हुई। सन् 2011 में बंगाल में 167, सन् 2012 में ओडिशा में 29, सन् 2013 में उत्तर प्रदेश में 39, सन्  2015 में फिर पश्चिम बंगाल में 167, इसी वर्ष मुंबई (महाराष्ट्र) में 102 और सन् 2016 के दौरान बिहार में 16 लोग ज़हरीली शराब से मरे। 2019 में असम में 168 लोग, 2020 में पंजाब में 130 और अब इसी वर्ष नवंबर तक हरियाणा में 47 लोग ज़हरीली शराब के काल के ग्रास बने हैं।

कोरोना संक्रमित रोगियों पर बढ़ा सीटी स्कैन का दबाव

कोरोना महामारी के दौरान सीटी मशीन और ऑक्सीमीटर का माँग जमकर बढ़ी है। क्योंकि अब ज़्यादातर मरीज़ों को सीटी स्कैन कराने के लिए कहा जा रहा है, जो कि काफी महँगी है। कोरोना महामारी में मरीज़ों, अस्पतालों और विशेषज्ञों से तहलका संवाददाता ने पड़ताल की तो पता चला कि ज़्यादातर सरकारी अस्पतालों में पहले तो सीटी स्कैन की मशीनें हैं ही नहीं! और जहाँ हैं, वहाँ पर मरीज़ों की संख्या के हिसाब से काफी कम है। ऐसे में मरीज़ों को जाँच के लिए कई महीने आगे की तारीखें मिल रही हैं। प्राइवेट अस्पतालों में तो पहले से ही सीटी स्कैन की मशीनें हैं। पर कोरोना महामारी में मरीज़ों की बढ़ती तादाद को देखते हुए, अब कॉर्पोरेट अस्पतालों के साथ-साथ मल्टी स्पेशलिटी अस्पतालों ने भी जमकर सीटी की मशीनें खरीदी जा रही हैं।

बताते चलें कि चिकित्सक अपने अनुभवों के आधार पर कोरोना वायरस का सीटी स्कैन के ज़रिये इलाज कर रहे हैं। दरअसल लोग कोरोना वायरस के नाम पर इस कदर डरे हुए हैं कि जो सम्पन्न हैं, वे प्राइवेट अस्पतालों में इलाज करा रहे हैं।

तहलका संवाददाता को चिकित्सकों ने बताया कि कोरोना महामारी ज़रूर किसी के लिए काल बनकर आयी हो, पर कइयों के लिए तो उत्सव और अवसर के तौर पर आयी है। जैसे सीटी मशीन बेचने वाली कम्पनियों के लिए। सीटी मशीन के ऑडर लेने वाले एजेंटों का अस्पतालों में ताँता लगा रहता है। जैसा एक समय मेडिकल रिप्रेजेंटेटिव (एमआर) का लगा रहता था।

दिल्ली मेडिकल काउंसिल (डीएमसी) के उपाध्यक्ष डॉ. अनिल गोयल बताते हैं कि कंप्यूटरीकृत टोमेग्राफी स्कैन (सीटी या कैट स्कैन) मशीन कोरोना महामारी में ज़रूरी है। क्योंकि एक दौर था, जब अल्ट्रासाउण्ड और एक्स-रे से काम चलाया जाता था। तब बीमारी को पकडऩे में दिक्कत होती थी और समय भी लगता था। लेकिन अब कोरोना जैसी बीमारी और निमोनिया के बीच अन्तर को जाँचने के लिए सीटी स्कैन की ज़रूरत होती है। अब डॉक्टर कोरोना के मरीज़ों की शुरुआती जाँचों में सीटी स्कैन का ही सहारा ले रहे हैं; क्योंकि कोरोना में मरीज़ साँस लेने में परेशानी की शिकायत लेकर ही अस्पताल आते हैं। तो ऐसे में सीटी स्कैन से ही मर्ज़ की सही जानकारी हासिल की जाती है और इसी के आधार पर डॉक्टर तय करते हैं कि मरीज़ को किस तरह का इलाज दिया जाए।

आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि कोरोना एक नयी बीमारी है, इसके इलाज के लिए दवा और वैक्सीन के लिए शोध अभी चल रहा है। तो ऐसे में डॉक्टर अपने अनुभव के आधार पर कोरोना मरीज़ का इलाज कर रहे हैं। जैसे मरीज़ को साँस लेने में दिक्कत है, तो ऑक्सीमीटर से ऑक्सीजन देते हैं, जिससे बाज़ारों में ऑक्सीमीटर की माँग बढ़ी है। उनका कहना है कि कोरोना नामक महामारी को लम्बे समय तक चलने वाला रोग समझकर कई कम्पनियों ने ऑक्सीमीटर बनाने का काम शुरू तक कर दिया है।

डॉ. बंसल का कहना है कि सीटी स्कैन की कमी तो सरकारी अस्पतालों में पहले से ही है, जिसके कारण गरीबों को सीटी स्कैन कराने में काफी दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कहना है भारत देश की आबादी के अनुसार सरकारी अस्पतालों की सुविधाएँ बहुत कम है। सरकार की स्वास्थ्य के क्षेत्र में अनदेखी के कारण हमारे देश की जीडीपी का एक फीसदी ही हिस्सा स्वास्थ्य बजट में जाता है; जबकि विश्व स्वास्थ्य संगठन का कहना है कि विकसित देशों के लिए जीडीपी का 10 फीसदी बजट का होना ज़रूरी है।

बजट के अभाव में सरकारी स्वास्थ्य सेवाएँ लचर हैं। लोगों को पता है कि सरकारी अस्पतालों में इलाज में दिक्कत होगी, सुनवाई नहीं होगी। इससे लोग प्राइवेट अस्पतालों में जाकर इलाज करा रहे हैं। प्राइवेट अस्पतालों में सीटी जाँच तुरन्त होती है। कोरोना में निमोनिया की जाँच में ज़रूर होती है। जो सीटी सकैन से ही सम्भव है।

डॉ. बंसल का कहना है अभी कोरोना को लेकर कोई विशेषज्ञ डॉक्टर नहीं है, इसलिए डॉक्टर कोरोना के मरीज़ के लक्षण के हिसाब से मरीज़ का इलाज किया जाता है। जैसे किसी मरीज़ को साँस लेने में दिक्कत है, तो ऑक्सीमीटर की सहायता से इलाज किया जाता है। अगर किसी को बुखार है, तो पैरासीटामॉल दवा देकर इलाज किया जाता है। अगर किसी को खाँसी-जुकाम है, तो उसका एंटी एलर्जिक दवा के ज़रिये इलाज किया जाता है। उनका कहना है किसी वायरस मरीज़ को एंटीबायोटिक दवा नहीं दी जाती है।

हेल्थ सेक्टर में काम करने वाले संजीव कुमार का कहना है कि जब भी कोई महामारी आती है, तो स्वास्थ्य के क्षेत्र में स्थापित लोगों की चाँदी हो जाती है। उनके एजेंट सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों सेटिंग करके रोग का भय देखते हुए अपने उपकरणों बेचने लग जाते हैं। इस खेल में डॉक्टरों का भी एक दल अहम भूमिका निभाता है; जो पूरे देश में एक संगठित दल के रूप में काम कर रहा है। जैसा कि आजकल सीटी मशीन को लेकर बड़ा खेल खेला जा रहा है। इसलिए सीटी मशीन बिक्री की माँग बढ़ी है; जिसका खामियाज़ा मरीज़ों को अपने इलाज के नाम पर जेब ढीली करके भुगतना पड़ रहा है।

दिल्ली के भागीरथ पैलेस में दवा व्यापारियों ने बताया कि कोरोना महामारी को लेकर जब देश में मार्च से मई मेंं सम्पूर्ण लॉकडाउन लगा था, तब दवा का कारोबार काफी कम हुआ था। इसकी वजह लोगों का घर से न निकलना, परहेज़ करना और महामारी के डर से सामान्य हालत में उसका और अन्य रोगों का इलाज नहीं करवाना थी। क्योंकि लोग डर से अस्पताल जाना नहीं चाह रहे थे, जिससे दवाओं की बिक्री बहुत कम हुई। जून से दवा बिक्री ने गति पकड़ी है।

दरियागंज में मेडिकल उपकरण बेचने वाले अमित चावला बताते हैं कि पहले सीटी स्कैन और एमआरआई की मशीनों को बेचने वाली कुछ प्रतिष्ठित कम्पनियाँ ही अस्पतालों में इन्हें लगाती थीं; लेकिन कोरोना-काल में जो नयी-नयी कम्पनियाँ सामने आ रही हैं, उससे तो लगता है जैसे ये नयी कम्पनियों वाले किसी रोग या कोरोना के इंतज़ार में थे कि कब कोई महामारी दस्तक दे और वे अपनी मशीनों को बेचें।

दिल्ली के सफदरजंग और लोकनायक अस्पताल में कोरोना के इलाज करा रहे मरीज़ों के परिजनों ने बताया कि देश में स्वास्थ्य सेवाओं को हाल वे हाल है। अब स्वास्थ्य सेवाएँ लडख़ड़ा रही हैं। मरीज़ों को सरकारी अस्पताल में इलाज कराने में दिक्कत हो रही है। दिल्ली के एक दैनिक अखबार के पत्रकार ने तहलका को बताया कि वह कोरोना महामारी को कवरेज करते हुए कोरोना की चपेट में आ गये थे, मई के महीने में उन्होंने शुरुआती दिनों में लोकनायक अस्पताल में भर्ती होकर इलाज करवाया था। लेकिन सरकारी सिस्टम में लापरवाही को देखते हुए अपनी जान बचाने की खातिर वे दिल्ली के नामी-गिरामी अस्पताल में इलाज कराने को मजबूर हुए। उन्होंने बताया कि सरकारी अस्पताल में तो सीटी की जाँच तो बड़ी जाँच इसलिए मानी जाती है कि वहाँ पर कम ही मरीज़ों को सीटी की सेवा उपलब्ध हो पाती है। पर प्राइवेट में इलाज शुरू होने का मतलब है कि सीटी की जाँच, जो हज़ारों रुपये में होती है। ऐसे में गरीबों का हाल बुरा हाल होता है।

दिल्ली के बड़े नामी-गिरामी अस्पतालों के साथ-साथ अब लैबों में सीटी मशीनें लगी हैं। वहीं सरकारी अस्पतालों में बुनियादी चिकित्सा के अभाव में गरीब मरीज़ मर-खप रहे हैंै। लैब टेक्नीशियन महेश कुमार का कहना है कि कोरोना-काल में अगर कोई सेक्टर मज़बूती से उभरा है, तो वो प्राइवेट अस्पताल हैं। क्योंकि पहले कैंसर मरीज़ या अन्य गम्भीर मरीज़ का ही सीटी स्कैन होता था, अब कोरोना-काल में ज़्यादातर डॉक्टर यह जाँच लिख रहे हैं और मरीज़ करवा भी रहे हैं, जिससे अस्पताल वालों की चाँदी हो रही है।

महेश का कहना है कि मेडिकल नैक्सिस तेज़ी से पैर पसार रहा है। अगर समय रहते कोई कारगर कदम नहीं उठाया गया और सरकारी अस्पतालों में सीटी स्कैन मशीनों की सुविधा मुहैया नहीं करायी गयी, तो गरीब मरीज़ों को अपना इलाज कराना मुश्किल होगा। क्योंकि लाखों रुपये की लागत से लगायी जा रही इन मशीनों का पैसा मोटी फीस के रूप में मरीज़ों से वसूला जा रहा है। इसलिए एक सुनियोजित तरीके से डॉक्टर आज मरीज़ों को कोरोना की सम्भावना या साँस लेने में दिक्कत को देखते हुए सीटी की जाँच कराने को कह रहे हैं।

बताते चलें कि कोरोना वायरस अभी भी देश में प्रचंड रूप में है। ऐसे में यह कहना मुश्किल है कि कोरोना वायरस कब तक कम होगा या कब तक इसकी दवा या वैक्सीन आयेगी? इसलिए फिलहाल कोरोना वायरस से संक्रमित होने वाले मरीज़ों को सीटी स्कैन और ऑक्सीमीटर के सहारे ही इलाज कराने को मजबूर होना पड़ेगा, जिसमें उनका खर्चा बढ़ जाएगा।

डिजिटल दुनिया में बच्चे

डिजिटल आज की दुनिया की एक सच्चाई है। कोविड-19 महामारी ने तो इसे और बल दिया। डिजिटलाइजेशन ने दुनिया को बदल दिया है। इसकी दखलंदाज़ी केवल बड़े लोगों व कामकाजी लोगों की दुनिया में ही नज़र नहीं आती, बल्कि बचपन तक इससे अछूता नहीं रहा है। आप सवाल कर सकते हैं कि यह कैसे हो रहा है? इस दुनिया में लाखों बच्चे जन्म लेने वाले पल से ही डिजिटल दुनिया में अपनी उपस्थिति दर्ज करा देते हैं। उनके पैदा होने के वीडियो बनाये जाते हैं। माँ की कोख से बाहर आने पर उनकी पहली झलक वाली तस्वीरों को इंटरनेट पर डाला जाता है। उन्हें डिजिटल संचार और कनेक्शन से जोड़ दिया जाता है।

अस्पतालों में उनकी देखभाल वाली तस्वीरें भी सँजोकर रखी जाती हैं। बड़ी हस्तियों के बच्चों की ऐसी तस्वीरों को तो बड़े-बड़े मीडिया संस्थान, टीवी चैनल भारी रकम में खरीद लेते हैं और उनके प्रकाशन व टीवी पर सबसे पहले दिखाने के कॉपीराइट उनके पास होते हैं। दरअसल बच्चों का डिजिटल दुनिया से वास्ता कई तरह से पड़ता है, जैसे-जैसे उनकी गतिविधियों का विस्तार होता जाता है, वैसे-वैसे वे डिजिटल संसार से जुड़ते जाते हैं। डिजिटल तकनीक के अपने फायदे व नुकसान दोनों है। आज के युग में खुद का इससे अलग कर पाना असम्भव है। क्योंकि यह प्रगति के अपार मौके भी प्रदान करती है।

बच्चों और युवाओं की दुनिया में डिडिटलाइजेशन की दखलंदाज़ी बढ़ती जा रही है। इसलिए एक बहस अपना स्थान मज़बूती से बनाये हुए है कि डिजिटल तकनीक के युग में बच्चों, युवाओं को इससे कितना जुडऩा चाहिए और कहाँ अलग हो जाना चाहिए? इसके लिए एक नाज़ुक और बारीक, लेकिन महत्त्वपूर्ण लक्ष्मण रेखा खींचना क्या ज़रूरी है? हालाँकि इस बहस में एक बिन्दु बच्चों की निजता का भी जुड़ जाता है कि क्या बच्चों पर निगाह रखना उचित कदम माना जाना चाहिए? विश्व बाल स्थिति नामक रिपोर्ट बताती है कि विश्व भर में इंटरनेट इस्तेमाल करने वाला हर तीसरा इंसान बच्चा है। लेकिन उन्हें डिजिटल दुनिया के खतरों से बचाने और इंटरनेट पर सुरक्षित ऑनलाइन सामग्री तक उनकी पहुँच बढ़ाने की दिशा में बहुत कम ही कदम उठाये गये हैं। इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि सरकारों व निजी सेक्टर ने बदलते वक्त के साथ कदम नहीं उठाये, बच्चों को नये खतरों का सामना करने के लिए छोड़ दिया और वंचित समूहों के लाखों बच्चे इस तकनीक का इस्तेमाल नहीं कर पा रहे हैं और वे ज़िन्दगी में पिछड़ते जा रहे हैं। सबसे वंचित इन बच्चों को, जिसमें गरीबी में बढ़े हो रहे भी शामिल है; डिजिटल तकनीक कई तरह के फायदे पहुँचा सकती है। मसलन-सूचना तक उनकी पहुँच बढ़ाकर, डिजिटल कार्यस्थल के लिए उन्हें हुनरमंद बनाकर, कनेक्ट होने व अपने विचारों को दूसरों तक पहुँचाने के लिए मंच प्रदान करके। लेकिन हकीकत यह भी है कि लाखों बच्चे इस डिजिटल दुनिया से बाहर हैं। दुनिया के करीब एक-तिहाई युवा ऑनलाइन नहीं हैं। इससे असमानता बढ़ रही है और डिजिटल अर्थ-व्यवस्था में उनकी भागीदारी के मौके कम कर रही है। बच्चों का ऑनलाइन यौन शोषण का खतरा एक बड़ी चुनौती है। हर तकनीक की तरह इसे भी फायदे व नुकसान दोनों है। जब रेडियो आया,तो यह कहा जाने लगा कि रेडियो लोगों की नींद खराब कर देगा।

टी.वी. आया, तो यह धारणा बन गयी कि टी.वी. बच्चों, युवाओं को खराब कर रहा है। यही नहीं, इतिहास में काफी पीछे लौटें तो पता चलता है कि जब 16वीं सदी में लोगों की यह चिन्ता थी कि लिखना सीख लेने के बाद लोग हर चीज़ भूलने लगेंगे। ऐसे में लोग अपनी याददाश्त का इस्तेमाल कम करने लगेंगे और लिखित सामग्री का इस्तेमाल अधिक होने लगेगा। ऐसे ही क्रम में ऑनलाइन दुनिया पर भी सवाल खड़े हो रहे हैं। इंटरनेट और बच्चों को लेकर कई तरह के सरोकार अपनी जगह बनाये हुए है। इस सबके बीच हमें याद रखना चाहिए कि सूचना और संचार तकनीक यानी आईसीटी ब्राजील, कैमरून के दूर-दराज़ इलाकों और अफगानिस्तान की लड़कियों को शिक्षा प्रदान कर रहा है, जो अपने घर को नहीं छोड़ सकते। मोलदोवा गणराज्य के चिसिनाऊ के पास पोरुबेनी गाँव में 17 साल की गैबरिएल वलाड मोबाइल फोन के ज़रिये अपनी माँ से बात कर रही है। जबकि उसका पालन करने वाली माँ उसे देख रही है।

एक अनुमान कहता है कि मालदीव के 18 साल से कम उम्र के लगभग 21 फीसदी बच्चों के माँ-बाप में से कम-से-कम एक विदेश में काम कर रहा है और अपने परिवार के लिए धन भेज रहा है। डिजिटल तकनीक से बच्चे अपने माता-पिता से संवाद के ज़रिये भावनात्मक रूप से जुड़े रहते हैं। कोविड-19 महामारी में भी इस तकनीक का इस्तेमाल इस मकसद के लिए भी किया गया। केरल का उदाहरण याद आ रहा है। लॉकडाउन के वक्त केरल राज्य सरकार ने प्रवासी मज़दूरों के मोबाइल फोन सरकारी रकम से रिचार्ज करवाये, ताकि प्रवासी मज़दूरों व उनके परिजनों के बीच बराबर सम्पर्क बना रहे। इस महामारी में ऑनलाइन शिक्षा के सैकड़ों उदाहरण आने वाले वक्त में याद किये जाएँगे। दरअसल इस ओर ध्यान देने की ज़रूरत है कि बच्चे डिजिटल मंच का इस्तेमाल कैसे करते हैं? बच्चे डिजिटल अनुभव का लाभ उठा पाते हैं या नहीं और कितना उठा पाते हैं? यह उनके शुरुआती दौर पर निर्भर करता है।

माता-पिता, अध्यापक और समाज बच्चों पर इस दिशा में कितना निवेश करता है? यह अहम है। माता-पिता बच्चों को कितना वक्त देते हैं और उस वक्त में उन्हें क्या सिखाते हैं? यह भी महत्त्वपूर्ण है। भारत सहित कई मुल्क ऐसे हैं, जहाँ माता-पिता बच्चों, युवाओं के साथ एक ही घर में एक ही वक्त में फोन पर संवाद करते हैं। उनके बच्चे सोशल मीडिया का इस्तेमाल किस रूप में करते हैं? यह उनके लिए चिन्ता की बात नहीं होती। जब बच्चे ऑनलाइन मंच का इस्तेमाल करते वक्त किसी समस्या में फँस जाते हैं, तब उनकी आँखें खुलती हैं। अध्ययन यह भी बताते हैं कि जिन परिवारों में माहौल प्रेम व शान्तिप्रिय होता है, उन परिवारों के बच्चे डिजिटल तकनीक का फायदा अच्छी तरह से उठाते हैं; जबकि अवसाद, तनाव और पारिवारिक परेशानियों को झेल रहे बच्चे अपने डिजिटल अनुभवों की वजह से इन समस्याओं को बढ़ता हुआ पाते हैं। यह भी देखा गया है कि डिजिटल मीडिया का बिल्कुल इस्तेमाल नहीं करना या फिर बहुत इस्तेमाल करना दोनों का ही नकारात्मक प्रभाव पड़ता है। ऑनलाइन के खतरे हरेक के लिए हैं। मगर बच्चों और युवाओं के इसकी चपेट में अधिक आने की सम्भावना बनी रहती है। बच्चों की इस बात की समझ नहीं होती कि उनके लिए क्या अच्छा है और क्या बुरा? ऑनलाइन मंच पर ऐसी सामग्री हमेशा पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध रहती है, जो उन्हें गुमराह करने वाली होती है। यौन, पोर्नोग्राफी, साइबर बुलिंग हिंसक वीडियो की भरमार बच्चों के लिए खतरनाक है।

बच्चों के प्रति सरकारों की ज़िम्मेदारी

बच्चों को ऐसे खतरों से सुरक्षा प्रदान करने वाले कानूनों का पालन करवाना सरकारों की ज़िम्मेदारी है। ऑनलाइन दुनिया में यौन उत्पीडऩ का मुकाबला करने के लिए तैयार किये गये वी प्रोटेक्ट ग्लोबल अलायंस के ढाँचे को कई मुल्कों ने अपना लिया है।

इसके तहत एक सामूहिक प्रतिक्रिया की व्यवस्था की गयी है। बच्चों को ऑनलाइन सुरक्षा प्रदान करने के लिए एक विशेष रणनीति पर फोकस करने की आवश्यकता होती है। इस रणनीति में महज़ मौज़ूदा खतरे ही नहीं, बल्कि दूरगामी खतरों को भी भाँपकर कदम उठाने की ज़रूरत होती है। बच्चे अपनी निजी सूचनाएँ सोशल मीडिया पर बहुत जल्दी साझा कर देते हैं और वे इससे होने वाले नुकसानों से अनभिज्ञ होते हैं। कुछ व्यावसायिक एजेंसियाँ और शराराती तत्त्व इसका गलत इस्तेमाल करते हैं। लिहाज़ा यह कम्पनियों का दायित्व है कि वो अपने नियम, शर्तें और निजता नीति को आसान भाषा में व्यक्त करें; ताकि बच्चे भी उसका अर्थ आसानी से समझ लें। सभी बच्चे चाहे वे कहीं भी रहते हों, किसी भी आयु-वर्ग के हों; उन्हें डिजिटल साक्षरता मुहैया कराना राष्ट्र सरकारों का दायित्व है। सरकारी स्कूलों की इस दिशा में पहल करनी चाहिए। उन्हें प्रारम्भिक कक्षाओं से ही डिजिटल साक्षरता की शुरुआत करनी चाहिए।

अभिभावकों की ज़िम्मेदारी

बच्चा ऑनलाइन तो हो जाता है और इस प्रतियोगी माहौल में हर अभिभावक भी चाहता है कि उसका बच्चा ऑनलाइन रहे। लेकिन ऑनलाइन संवाद कैसे करना है? अभिभावकों को इस पर भी ध्यान देना होगा। बेशक इंटरनेट का इस्तेमाल करने वालों में एक-तिहाई बच्चे हैं। लिहाज़ा नीतियाँ ऐसी होनी चाहिए, जो उन्हें सुरक्षा प्रदान करें। उनकी खास ज़रूरतों को पूरा करने वाली व उनके अधिकारों, हितों का संरक्षण करने वाली होनी चाहिए। अक्सर नति निर्माता बच्चों से जुड़े, उनकी ज़िन्दगी को प्रभावित करने वाले मुद्दों पर उनकी राय जानना बहुत ज़रूरी नहीं समझते। पुरानी सोच और अपने नज़रिये के साथ ही नये विषयों पर काम करवाते रहते हैं। इसका खामियाज़ा बाद में भुगतना पड़ता है। समावेशी समाज, समावेशी अर्थ-व्यवस्था, समावेशी शिक्षा पर चर्चा होती रहती है, तो समावेशी डिजिटल शिक्षा भी ज़रूरी है। कोई भी बच्चा इससे नहीं छूटना चाहिए।

हर बच्चे की इस तक पहुँच सुनिश्चित करने की दिशा में राष्ट्र सरकारों को आगे बढऩा चाहिए; बल्कि इसके साथ ही सुरक्षात्मक व गुणात्मक डिजिटल शिक्षा वाला ढाँचे पर भी निवेश करना चाहिए। जिस तरह से डिजिटल तकनीक को बढ़ावा देने के लिए विश्व की टेक कम्पनियाँ काम कर रही हैं, उसके मद्देनज़र कार्यस्थल पर वही टिक पाएगा जो बहु कौशल प्रतिभा का धनी होगा। यानी अर्थ-व्यवस्था का हिस्सा बनने के लिए और अच्छा वेतन पाने के वास्ते डिजिटल तकनीक में पारंगत होना अनिवार्य बनता जा रहा है। ऐसे में बच्चों को इस तकनीक के इस्तेमाल पर शुरू से ही घ्यान देने की दरकार है।

अदावत के अंधड़ में घिरीं वसुंधरा

राजनीति में यादें कभी धुँधली नहीं पड़तीं। लेकिन सियासी दाँवपेच की तेज़ रफ्तार कब, किसे फिसड्डी और किसे माहिर साबित कर दे? इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है। कब, कौन महारथी गुमनामी की खोह में धकेल दिया जाए, तो अचरज नहीं होना चाहिए। फिलहाल तो भाजपा की धारदार नेता वसुंधरा राजे इन अप्रिय स्थितियों के कुहासे में घिरी हुई हैं। हालाँकि यह कहना मुश्किल है कि राष्ट्रीय और प्रादेशिक राजनीति में वसुंधरा की स्थिति क्या है? लेकिन राजनीतिक दृष्टि से विश्लेषण किया जाए, तो ढेरों अप्रिय तथ्य लुका-छिपी करते नज़र आएँगे। आखिर ऐसा क्या हुआ कि हाल ही में पार्टी की राष्ट्रीय मंत्री बनायी गयी अल्का सिंह गुर्जर को तो बिहार चुनाव के स्टार प्रचारकों में शामिल कर लिया गया; लेकिन राजस्थान और राष्ट्रीय राजनीति में लम्बे समय तक केंद्रीय मंत्री से लेकर दो बार मुख्यमंत्री की पारी खेल चुकी राजे को तवज्जो तक नहीं की गयी? इससे पहले भी वसुंधरा को हरियाणा समेत अन्य राज्यों के चुनावी अभियान से दूर रखा गया। साख, लोकप्रियता और रसूख की बात करें, तो वसुंधरा राजे आज भी नूर-ए-नज़र हैं। इसके बावजूद अगर उन्हें सियासी महिफल से दरकिनार किया जाता है, तो साफ इशारा है कि राजे विरोधी लहर एक दुष्चक्र गढऩे में जुटी हुई है। राजनीतिक विश्लेषक सौरभ भट्ट कहते हैं कि राजनीति में कद और पद का बड़ा गहरा रिश्ता होता है। पद जाते ही बड़े-बड़े नेता अज्ञातवास में चले जाते हैं।

वसुंधरा राजे को जिस तरह कॉर्पोरेशन चुनाव समिति और पंचायत चुनाव संचालन समिति से अलग रखा गया। उसके पीछे भी कमोबेश यही विरोधाभासी राजनीति हो सकती है। विश्लेषक कहते हैं कि वसुंधरा राजे की गिनती ऐसे नेताओं में नहीं की जा सकती। उन्हें चुका हुआ मान लेना भाजपा की सबसे बड़ी गलती होगी। राजे सियासत की इस नब्ज़ को बखूबी टटोलना जानती हैं। भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष ओम माथुर भी यही बात दोहराते हैं। लेकिन शब्दों की बाज़ीगरी के साथ कि पार्टी में कोई साइड लाइन नहीं होती। सिर्फ भूमिका बदल जाती है। वहीं विश्लेषकों का कहना है कि वसुंधरा राजे की चुप्पी ने प्रादेशिक राजनीति में एक खालीपन भर दिया है। उनका जैसा राजनीतिक कौशल, दमखम और प्रतिद्वंद्वियों पर प्रहार करने की क्षमता किसी दूसरे नेता में नहीं है। वैसे भाजपा में इस विरोधाभासी राजनीति ने कितना विध्वंस रचा? इस बारे में भाजपा नेता भवानीसिंह राजावत की प्रतिक्रिया बहुत कुछ कह देती है कि निकाय चुनावों में उनकी अनदेखी का ही नतीजा रहा कि पार्टी की ज़बरदस्त दुर्गति हुई।

बावजूद इसके भाजपा की प्रादेशिक राजनीति में वसुंधरा राजे की हैसियत को कम आँकने का क्या मतलब है? प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सतीश पूनिया का बढ़ता हौसला और अप्रत्यक्ष रहकर वसुंधरा राजे पर ताबड़तोड़ हमले सारी कहानी कह जाते हैं। गहलोत सरकार में चले अंतर्कलह पर राजे की चुप्पी को लेकर तो पूनिया ने मौका ताड़ते हुए अभियान छेड़ दिया कि राजे ने गहलोत से हाथ मिला लिया है। उनकी निष्क्रियता का सीधा फायदा डावाँडोल होती गहलोत सरकार को मिल रहा है। निश्चित रूप से यह भाजपा और सहयोगी दल आरएलपी की साझा मुहिम रही होगी। अन्यथा आरएलपी सांसद हनुमान बेनीवाल यह कहने का दुस्साहस नहीं करते कि 20 साल से मिला-जुला खेल चल रहा है। वसुंधरा गहलोत के गठजोड़ की वजह से राजस्थान बर्बादी के कगार पर चला गया है। पूनिया की इस सारी कवायद के पीछे गहलोत सरकार गिराकर कुर्सी हथियाने की बेताबी थी। सरकार गिराओ अभियान में जिस तरह पूनिया दिन-रात एक किये हुए थे, उसमें सबसे बड़ी बाधा तो वसुंधरा राजे थीं। राजनीतिक ताकत के रूप में पूनिया का आकलन करें, तो बेशक पार्टी के केंद्रीय नेतृत्व तक उनकी अच्छी पहुँच है। पार्टी की प्रदेश कार्यकारिणी में भी उनका पूरा दबदबा है और जातिगत समीकरण भी पूरी तरह उनके पक्ष में हैं; लेकिन विधानसभा में गिनती के विधायक ही उनके साथ खड़े हो सकते हैं। राजनीति में बढिय़ा क्षेत्ररक्षण सबसे बड़ा कौशल होता है। इसके लिए एथलीट सरीखी दक्षता अनिवार्य होती है। इस नज़रिये से पहली अहमियत पार्टी में बड़ा गुट होने की होती है। यह ताकत तो सिर्फ वसुंधरा राजे में है। वसुंधरा के पक्ष में विधायकों में गज़ब की एकजुटता है; जो वसुंधरा के इशारे पर कभी भी आक्रामक हो सकते हैं। उसके अतिरिक्त जीतने की जी तोड़ भावना पैदा करने वाली इच्छा को समझें, तो वसुंधरा अकेली राजनेता हैं जो निर्दलियों को भी अपने साथ लाने का चमत्कार कर सकती हैं। कहने का लब्बोलुआब यह है कि वसुंधरा जैसा प्रभाव भाजपा के किसी भी नेता में नहीं है। गहलोत के साथ राजनीतिक गठबन्धन के फरेबी आरोपों से आहत राजे ने केंद्रीय मंत्री राजनाथ सिंह और राष्ट्रीय संगठन महामंत्री बीएल संतोष आदि से मिलकर अपनी राजनीतिक लॉबी को जगाने की कोशिश में कोई कमी नहीं रखी। लेकिन पूनिया ने खट्टे तजुर्बों का इतना डाटा जुटा रखा था कि राजे की उम्मीदों की जड़ों को जमने ही नहीं दिया। नतीजतन राजे की आवाज़ ही अनसुनी कर दी गयी। ज़ाहिर है कि पूनिया को नेतृत्व की पूरी छूट थी।

विश्लेषक कहते हैं कि यह तो सियासी छल-कपट का सर्प है, जो पार्टी की भीतरी सड़ाँध से निकला है। विश्लेषक इस कपट-लीला के लिए भाजपा प्रदेशाध्यक्ष पूनिया के एक साल में आयोजित वर्चुअल कार्यक्रमों के ज़रिये चाटुकारिता से सने जुमलों की भूमिका मानते हैं। कभी वसुंधरा के गुणगान में कीर्तिमान रचने वाले गुलाब चंद कटारिया पूरी तरह पूनिया के पाले में नज़र आये। उन्होंने कहा कि पूनिया श्रेष्ठता की कसौटी पर खरे उतरे हैं। उनकी प्रशंसा केवल शब्दों में नहीं की जा सकती। केंद्रीय मंत्री अर्जुनराम मेघवाल ने पूनिया के रहनुमाई में एक साल को बेमिसाल बताया। विश्लेषकों का कहना है कि पूनिया पार्टी को सिर्फ सपनों के लोक में ले जा सकते हैं। राजनीति में बड़ा खिलाड़ी वही माना जाता है, जो मौकों पर हुनर दिखाये। निगम चुनावों में तो उन्होंने पार्टी को पूरी तरह पराजय की खाई में धकेल दिया।

पिछले दिनों वसुंधरा राजे ने मीडिया से अपना दर्द साझा करते हुए यहाँ तक कहा कि प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया बे-मतलब की राजनीतिक लफ्फाजी पर उतारू हैं। मुझ पर गहलोत के गठबन्धन का आरोप लगा रहे हैं। किसी अध्यक्ष के मुँह से इस तरह की बातें सुनना हैरान करता है। रंजिश में उन्होंने पद की मर्यादा की धज्जियाँउड़ा दीं। सूत्र कहते हैं कि यह तो सीधे-सीधे नेतृत्व को गुमराह करने की साज़िश है। पुरानी सियासत की सबसे बड़ी उलझन है कि उसका अतीत उसकी चुगली खाता है। दूसरी तरफ नयी सियासत की यह मुसीबत है उसके पास ऐसा अतीत नहीं जो उसको भरोसेमंद बना सके। नतीजतन पूनिया के तंज भड़ास बन कर रह गये हैं। राजे भी सम्भवत: सियासत की सनातन इबारत पढ़ चुकी हैं कि सत्ता की राजनीति की लम्बी पारी खेलनी है, तो संगठन के साथ सम्बन्धों में आयी दरारों को भरना होगा। लेकिन संघ उन्हें कोई मौका देने को तैयार ही नहीं है। यह बेखुदी बेसबब नहीं-कुछ तो है, जिसकी परदादारी है। क्योंकि इसके पार भाजपा नेतृत्व की व्यूह रचना साफ नज़र आती है।

नेतृत्व की नज़रें जयपुर राजघराने की राजकुमारी दीयाकुमारी पर हैं। नेतृत्व का मानना है कि दीयाकुमारी अगर वसुंधरा की जगह लेती हैं, तो वह न सिर्फ नया और ताज़ा चेहरा होंगी, बल्कि रॉयल फैमिली से रॉयल फैमिली का बदलाव होने से राजपूत समुदाय को अखरेगा भी नहीं। बताते चलें कि दीयाकुमारी राजसमंद लोकसभा क्षेत्र से सांसद है। उन्हें सक्रिय राजनीति में लाने का श्रेय वसुंधरा राजे को है। दीयाकुमारी ने अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत सवाई माधोपुर विधानसभा क्षेत्र से चुनाव लड़कर की थी। बाद में राजमहल होटल प्रकरण में सम्पत्ति विवाद को लेकर वसुंधरा राजे और जयपुर राजपरिवार के बीच खटास आ गयी।

भाजपा नेतृत्व के लिए बेशक यह नया प्रयोग हो सकता है; लेकिन यह भी नहीं भूलना चाहिए कि राजे को इस बदलाव के लिए रजामंद करना इतना नहीं आसान होगा? बहरहाल विश्लेषकों का कहना है कि भाजपा नेतृत्व के लिए रेतीली राजनीति की ज़मीन पर सबसे बड़ा उलटफेर देखना बड़ा महँगा पड़ सकता है। सवाल है कि वसुंधरा को लेकर प्रदेश अध्यक्ष सतीश पूनिया की पिरामिड सरीखी खुन्नस की वजह क्या है? सूत्रों की मानें, तो पूनिया की कसमसाहट को समझने के लिए चार साल पीछे लौटना होगा। उन दिनों राजस्थान में वसुंधरा राजे का सूरज तप रहा था। राजे अपने मनपसंद सूबेदार की तैनाती को लेकर एक और एक-एक ग्यारह का आँकड़ा बनाने की जुगत में थी। मुद्दा भाजपा प्रदेश अध्यक्ष की तैनाती का था। इस अबूझ दौड़ में संघ की पहली पसन्द माने जाने वाले सतीश पूनिया सबसे आगे थे। जबकि इस प्रतिस्पर्धी मुकाबले में वसुंधरा अपने भरोसेमंद अशोक परनामी की दोबारा ताजपोशी चाहती थीं। इस खेल में राजे का कूटनीतिक कौशल भारी पड़ा और पूनिया को इस तर्क के साथ मैदान से बाहर कर दिया गया कि उनकी तैनाती से सत्ता और संगठन के बीच फासले बढ़ सकते हैं।

दिलचस्प बात है कि कभी इस पटकथा की खिलाफत में तर्क देने वाले राष्ट्रीय संगठन मंत्री वी. सतीश भी पूरी तरह राजे के साथ थे। जबकि वी. सतीश कई बार दोहरा चुके थे कि मुख्यमंत्री आवास को सत्ता और संगठन का साझा केंद्र नहीं होना चाहिए। सूत्र कहते हैं कि अपनी कामयाबी की कहानी में पूनिया ने वसुंधरा राजे को ही रोड़ा समझा और दुश्मनी को भीतर ही भीतर पालते रहे। अब यह दुश्मनी हरी लगाम में बदल चुकी है; जिसका फंदा वसुंधरा राजे को राजनीति से बेदखल करने के लिए कसता जा रहा है। सूत्र कहते हैं कि वसुंधरा राजे किसी के हाथों की खिलौना बन जाएँ, यह तो सोच से परे है। फिलहाल तो शाही चुप्पी ओढ़े वसुंधरा राजे ने ऐसा कवच पहन लिया है, जिस पर हर प्रहार बेअसर है।

राजमहल कांड नहीं भूलीं दीयाकुमारी

राजमहल पैलेस होटल को लेकर वसुंधरा राजे और जयपुर राज परिवार में ठनी जंग का रहस्य क्या था? आखिर नौबत क्यों राजे की गद्दी छिन जाने की दहलीज़ तक पहँुच गयी? महलों से शुरू हुई यह कहानी आखिर कहाँ जाकर पहुँची? उस समय यह अबूझ पहेली भले ही थी, लेकिन देखते-देखते राख में दबी वह चिंगारी अब इस कदर भड़क चुकी है कि वसुंधरा को सत्ता की सियासत से महरूम करने की नौबत आ चुकी है। जयपुर के सिविल लाइंस इलाके में स्थित राजमहल पैलेस राजपरिवार की सम्पत्ति माना जाता रहा है। राजमहल पैलेस होटल को दिवंगत महाराजा मानसिंह ने अपने पुत्र भवानी सिंह को तोहफे में दिया था। सन् 2004 में जयपुर राजपरिवार में लग्जरी होटल गुु्रप सुजान को लीज पर दे दिया; लेकिन सुजान ग्रुप होटल के जैसल सिंह इसे अपनी मिल्कियत समझने का भ्रम पाल बैठे। जैसल सिंह वसुंधरा राजे के करीबी लोगों में गिने जाते हैं। बात का बतंगड़ तब बना, जब राजकुमारी दीयाकुमारी ने राजमहल होटल के नियंत्रण से जैसल सिंह को यह कहते हुए बेदखल कर दिया कि हमें उन पर भरोसा नहीं रहा। अब होटल की बंदोबस्त हम सँभालेंगे। भरोसा खत्म, सौदा खत्म। कहते हैं कि तत्कालीन मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे ने इसे अपना अपमान समझा। नतीजतन उन्होंने जयपुर विकास प्राधिकरण को त्वरित कार्रवाई के आदेश देते हुए होटल के प्रवेश द्वार को मलबे के ढेर में बदल दिया। उसके साथ ही प्राधिकरण ने होटल की 50 करोड़ की 12.5 बीघा ज़मीन को कब्ज़े में लेते हुए सड़क की तरफ खुलने वाले चारों दरवाज़े बन्द कर दिये। यह कार्रवाई दीयाकुमारी को भड़काने के लिए काफी थी। इस मामले में मोर्चा खुला, तो न सिर्फ कोर्ट-कचहरी तक दौड़ चली। यहाँ तक कि राजपूत समुदाय भी भड़क उठा। राजे का यही कदम अब दीयाकुमारी के लिए शूल बन रहा है।

हिन्दू धर्म को समझना (10) – क्या मानव शरीर में केवल कोशिकाएँ ही होती हैं?

दार्शनिक कहते हैं कि मनुष्य एक सूक्ष्म जगत है, या छोटी दुनिया है; जो महान् ब्रह्माण्ड के हर हिस्से से मिलता-जुलता है। जब हम इसकी जाँच करते हैं, तो पाते हैं कि प्रकृति हमें कोई अलग-थलग ब्लॉक नहीं दिखाती, बल्कि यह सम्पूर्ण के विभिन हिस्सों के बीच सम्बधों के एक जटिल जाले के रूप में प्रकट होती है। हममें से कितने लोग महसूस करते हैं कि मनुष्य दुनिया में हर दूसरी जीवित चीज़ से जैविक रूप से जुड़ा हुआ है, चाहे वह सभी आकार और िकस्म के जानवर या पौधे हों। इस प्रकार पृथ्वी पर सभी अणुओं से रासायनिक रूप से जुड़ा होने के कारण, हम ब्रह्माण्ड में सभी परमाणुओं से परमाणु रूप से जुड़े हुए हैं। हम आलंकारिक नहीं हैं; लेकिन सचमुच अद्भुत संसार में हैं। मेरे सहित सभी मानव, असंख्य तरीकों से और कारणों की भीड़ के लिए असीम रूप से मानव शरीर का उल्लेख करते हैं। लेकिन क्या हम में से किसी को अहसास है कि मानव शरीर वास्तव में क्या है?

बेशक यह एक चौंकाने वाला विचार हो सकता है; फिर भी वास्तव में यह बैक्टीरिया, फंगल, वायरल, परजीवी और मानव कोशिकाओं का एक जैविक कॉकटेल है। मानव कोशिकाएँ, जिनमें से प्रत्येक अपने आप में पूर्ण है और एक स्वतंत्र अस्तित्व में सक्षम है, वस्तुत: शरीर में सभी कोशिकाओं का एक अंश है। मानव शरीर अरबों-खरबों कोशिकाओं से बना है- जीवन की मूलभूत इकाइयाँ, जो भ्रूण में अलग-अलग कार्यों को विभाजित करता है, विकसित करता है और अंतत: विभिन्न कोशिका प्रकारों, जैसे- त्वचा कोशिकाओं, यूरॉस या वसा कोशिकाओं का नेतृत्व करता है; जो शरीर के विभिन्न ऊतकों का निर्माण करती हैं। ये ऊतक फेफड़ों और मस्तिष्क जैसे अंगों को बनाने के लिए एक साथ आते हैं। हमारी कोशिकाएँ हमारे शरीर की मूल इकाई हैं- वह चरण जिस पर हमारे जीन अपने ड्रामे को लागू करते हैं। सीधे शब्दों में कहें तो हम वास्तव में हमारी कोशिकाओं को नहीं जानते हैं। ब्रॉड इंस्टीट्यूट के डॉ. अविव रेगेव कहते हैं- ‘इसलिए हम खुद को नहीं जानते।’

क्या यह सादी और सरल माया नहीं है, जो मानव को यह अहसास नहीं होने देती है कि मानव कोशिकाओं की तुलना में शरीर में नौ गुना अधिक जीवाणु कोशिकाएँ हैं? मानव शरीर में केवल 10 ट्रिलियन मानव कोशिकाओं के विपरीत 100 ट्रिलियन बैक्टीरिया कोशिकाएँ हैं। वैक्टीरिया के अलावा शरीर में बहुत अधिक वायरस होते हैं। जहाँ बैक्टीरिया कोशिकाएँ होती हैं, वहाँ बैक्टीरिया से ज़्यादा फंगल पदार्थ मौज़ूद होते हैं। बैक्टीरिया, वायरस और फंगल पदार्थ समुदायों का यह समूह एक-दूसरे के साथ संचार करता है और निश्चित रूप से मानव कोशिकाओं के साथ भी संवाद करता है। इन सभी वैज्ञानिक तथ्यों के बावजूद हम अपने शरीर को मानव शरीर के रूप में सन्दर्भित करते हैं और इसे एक अद्वितीय इकाई के रूप में परिभाषित करते हैं, जबकि वास्तव में यह विविध जीवों का एक समूह है।

फिर भी एक मानव शरीर के रूप में केवल मानव कोशिकाओं से मिलकर इलाज करने की भ्रमपूर्ण धारणा को आगे बढ़ाते हुए एमआईटी के डॉ. रेगेव के नेतृत्व वाले वैज्ञानिकों के एक समूह ने मानव सेल एटलस बनाने की दिशा में पहला महत्त्वपूर्ण कदम उठाया है- हमारे अतिरंजना की पूरी सूची; विविध कोशिकाएँ। इस मानव कोशिका एटलस का उद्देश्य सभी ऊतकों और अंगों में सभी मानव कोशिकाओं के प्रकार और गुणों को एकत्र करना है, स्वस्थ मानव शरीर का एक संदर्भ मानचित्र बनाने के लिए। यह परियोजना जीव-विज्ञानियों, चिकित्सकों, प्रौद्योगिकीविदों, भौतिकविदों, गणना वैज्ञानिकों, सॉफ्टवेयर इंजीनियरों और गणितज्ञों के अंतर्राष्ट्रीय समुदाय को एक साथ लाती है। विविध विशेषज्ञता वाले वैज्ञानिकों का यह समुदाय मानव स्वास्थ्य को समझने और बीमारी के निदान, निगरानी और उपचार के लिए एक आधार के रूप में सभी मानव कोशिकाओं का एक व्यापक सन्दर्भ मानचित्र बनाने के साझा लक्ष्य को साझा करता है।

चूँकि किसी भी मानव शरीर में लगभग 10 ट्रिलियन कोशिकाएँ एक ही जीन को साझा करती हैं; इसलिए किसी को यह जानने की ज़रूरत है कि वास्तव में कौन-सी कोशिकाएँ जीन का उपयोग कर रही हैं। वे कोशिकाएँ कहाँ हैं? वे सामान्य रूप से क्या करती हैं? और बीमारी के मामलों में क्या गलत है? आनुवंशिकीविद् लगातार ऐसे जीनों के बारे में सीख रहे हैं, जो हमारी बीमारी के जोखिम को प्रभावित करते हैं; लेकिन जीन शून्य में प्रदर्शन नहीं करते हैं। वे हमारी कोशिकाओं में प्रदर्शन करते हैं। विभिन्न प्रकार के मानचित्रों के बिना, जहाँ वे शरीर में स्थित हैं और जिन जीनों को वे व्यक्त करते हैं; हम सभी सेलुलर गतिविधियों का वर्णन नहीं कर सकते हैं और उन्हें निर्देशित करने वाले जैविक नेटवर्क को समझ सकते हैं। और ज़्यादातर मामलों में शोधकर्ताओं ने जिस तरह के स्लॉग को सहन किया, उसका जवाब आश्चर्यजनक रूप से यह है- ‘हम नहीं जानते, कोई जानकारी नहीं।’

रोमन विचारक विट्रुवियस ने थेल्स के हवाले से कहा कि उन्हें लगता है कि पानी सभी चीज़ों का मूल तत्त्व है। इफिसुस के हेराक्लिटस ने सोचा कि यह आग थी। डेमोक्रिट्स और उनके अनुयायी एपिकुरस ने सोचा कि यह परमाणु थे, जिन्हें हमारे लेखक शरीर को काटा नहीं जा सकता या, कुछ अविभाज्य बताते हैं। पाइथागोरस के सिद्धांतों का पालन करने वाले खेमे ने हवा और मिट्टी को पानी और आग में जोड़ा। हालाँकि डेमोक्रिट्स ने ठोस अर्थों में उनका नाम नहीं लिया; लेकिन केवल अविभाज्य निकायों की बात की। फिर भी उन्हें लगता है कि ये समान तत्त्व हैं; क्योंकि जब खुद को लिया जाता है, तो उन्हें नुकसान नहीं पहुँच सकता है, और न ही वे विघटन के लिए अतिसंवेदनशील होते हैं, और न ही वे भागों में काटे जा सकते हैं; लेकिन वे हमेशा एक शाश्वत् अनन्तता बनाये रखते हैं।

ब्रिटिश कवि विलियम काउपर, जिनका मत था कि प्रकृति में सबसे अधिक मिनट के डिजाइन का पता लगाने के लिए दिव्य शक्ति के हस्ताक्षर और मुहर, अदृश्य चीज़ों में अदृश्य का पता चला; जिनके लिए एक परमाणु एक पर्याप्त क्षेत्र है। रसायन विज्ञान के सभी छात्रों को पता है कि पानी एच2ओ है, हाइड्रोजन दो भाग, ऑक्सीजन एक भाग है; लेकिन एक तीसरी बात चीज़ भी है, जो पानी बनती है; लेकिन कोई नहीं जानता कि वह क्या है? परमाणु दो ऊर्जाओं को बन्द कर देता है; लेकिन यह एक तीसरी चीज़ है, जो इसे एक परमाणु बनाती है। यहाँ परमात्मा की एक अलग भूमिका है, जिसे कोई भी माया कह सकता है। फिर से हम सभी जानते हैं कि एक पौधा या किसी भी प्रजाति का जानवर, विशेष इकाइयों से बना होता है, जिसमें से सभी उस प्रजाति के रूप में एकत्र होने के लिए आंतरिक योग्यता को ध्यान में रखते हैं, जैसे कि एक नमक के परमाणुओं में एक विशेष तरीके से क्रिस्टलीकरण करने के लिए आंतरिक अभिवृत्ति को बढ़ाता है। वह आंतरिक अभिरुचि क्या है? लोगों को अपनी असंख्य अभिव्यक्तियों का अहसास कराने के लिए यह फिर से मायावी क्रिया है।

हाइड्रोजन के दो भागों और पानी बनाने के लिए ऑक्सीजन के एक हिस्से की आंतरिक अभिवृत्ति को सनातन धर्म द्रष्टाओं और अन्य दार्शनिक विचारों के अभिग्राहकों द्वारा पवित्र बताया गया था, जब पानी के अलावा वे पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति को विभिन्न प्रकार से वास्तविक जीवन मानते थे। जीव, जो केवल एक संवेदना का भाव रखते हैं (एक इंद्रिय जीव); वास्तव में सभी जीवित प्राणियों का एक तर्कसंगत वर्गीकरण हैं; चाहे वह जानवर या पौधे का साम्राज्य हो, एक इंद्री से लेकर पाँच इंद्रियों तक की संख्या के आधार पर किया गया था। यह तथ्य कि सभी मनुष्यों में पाँच इंद्रियाँ होती हैं; सर्वविदित है। स्पर्श की भावना की ओर संकेत करते हुए यह कहना व्यर्थ है कि यह वह ज्ञान है जिसके माध्यम से बर्फ-ठंडा, ठंडा-गर्म, आग से गर्म, बिस्तर-नरम, कपास-हल्का, हल्का-भारी और खुरदरे पदार्थों का ज्ञान तो चमड़ी या पूरे शरीर के माध्यम से जाना जाता है!

सनातन धर्म के प्राचीन द्रष्टा और विभिन्न पूर्वी दर्शनशास्त्र के अन्य विचारकों ने जल को एक इन्द्रीय जीव के रूप में स्थापित किया था; जिसमें जीवन है, उस पानी को साबित करने के लिए सामान्य वैज्ञानिक दृष्टांत में इस अद्वितीय गुण को समाहित करते हुए कुछ वैज्ञानिकों का मत था कि वास्तव में पानी की स्मृति है, और इसकी तुलना संरचना के भीतर डेटा संग्रहीत करने वाले लचीले कम्प्यूटर से की।

डॉक्टर ऑफ अल्टरनेटिव मेडिसिन, जापान के मसारू एमोटो द्वारा किये गये प्रयोगों को अमेरिका में माइक्रो क्लस्टर पानी और चुंबकीय अनुनाद विश्लेषण तकनीक की अवधारणा के लिए पेश किया गया था। उन्होंने पानी के रहस्य की खोज करनी शुरू कर दी। इसमें उन्होंने ग्रह के चारो ओर पानी के व्यापक शोध का काम किया; एक वैज्ञानिक शोधकर्ता के रूप में नहीं, बल्कि एक मूल विचारक के रूप में। डॉ. मसारू इमोटो को पता चला कि यह जन्मे हुए क्रिस्टल के रूप में था; उस पानी ने अपना वास्तविक स्वरूप दिखाया और दुनिया भर में उनकी खोज और अनुसंधान को प्रशंसा प्राप्त हुई कि पानी हमारी व्यक्तिगत और सामूहिक चेतना से गहराई से जुड़ा हुआ है।

डॉ. इमोटो बहुत अधिक बिकने वाली पुस्तकों मैसेजिस फ्रॉम वाटर, द हिडन मैसेज इन वॉटर और द ट्रू पॉवर ऑफ वॉटर के लेखक हैं। इमोटो इन फोटोग्राफिक तकनीकों के माध्यम से पानी में इन आणविक परिवर्तनों का दस्तावेज़ीकरण कर रहे हैं। उन्होंने पानी की छोटी बूँदों को जमा दिया और फिर एक अँधेरे क्षेत्र माइक्रोस्कोप के तहत उनकी जाँच की, जिसमें फोटोग्राफिक क्षमताएँ थीं। इमोटो का मानना था कि पानी हमारी वास्तविकता का ब्लू प्रिंट था और यह भावनात्मक ऊर्जा और कम्पन पानी की भौतिक संरचना को बदल सकता था।

उनके कुछ प्रयोगों में यह स्पष्ट किया गया था कि साफ पहाड़ी झरनों और नालों के पानी ने खूबसूरती से क्रिस्टलीय संरचनाएँ बनायी हैं; जबकि प्रदूषित या स्थिर पानी के क्रिस्टल विकृत हो गये थे। शास्त्रीय संगीत के सम्पर्क में आने वाले आसुत जल ने नाज़ुक, सममित क्रिस्टलीय आकार लिया और अब जब शब्द धन्यवाद आसुत जल की एक बोतल पर टैप किया गया। जमे हुए क्रिस्टल में पानी से बनने वाले क्रिस्टल का आकार समान था, जिन्हें बैख गोल्डबर्ग वैरिएशन- संगीत उस व्यक्ति की कृतज्ञता से बना था, जिसके लिए इसका नाम रखा गया था; के सम्पर्क में लाया गया था।

जब पानी के नमूनों को भारी धातु के संगीत के सम्पर्क में लाया गया या नकारात्मक शब्दों के साथ जोड़ा गया, या जब नकारात्मक विचारों और भावनाओं को जानबूझकर उन पर केंद्रित किया गया था, जैसे कि एडोल्फ हिटलर, तो पानी में क्रिस्टल नहीं बने; लेकिन अराजक, खण्डित संरचनाएँ प्रदर्शित हुईं। लेकिन जब पानी को सुगंधित पुष्प तेलों के सम्पर्क में लाया गया, तो पानी के क्रिस्टल मूल फूल के आकार की नकल करते मिले। पानी की स्मृति की अवधारणा होम्योपैथी जैसी चिकित्सा की वैकल्पिक धाराओं के साथ जुड़ी हुई है। हालाँकि अभी यह बहस है कि क्या पानी में भंग पदार्थों की एक सुस्त स्मृति की यह अवधारणा वैज्ञानिक जाँच तक शामिल है या नहीं? यहाँ यह उल्लेख करना उचित होगा कि सभी हिन्दू अनुष्ठानों और सभी मन्दिरों में एक या दूसरे बर्तन में पानी रखा जाता है और पवित्र मंत्रों का जाप समाप्त होने के बाद, रखा गया पानी पूरी मण्डली और पूरे पर छिड़का जाता है। यह उस दृढ़ विश्वास के साथ किया जाता है कि छिड़का हुआ पानी सभी मंत्रों के पवित्र कम्पन से उनके सभी लाभकारी प्रभाव रखता है।

पानी का एक और बहुत दिलचस्प पहलू है। एक जीवित चीज़ होने के अलावा पानी तीन प्रकार की स्थितियों में मौज़ूद है, जिनमें लोचदार तरल पदार्थ, तरल पदार्थ और ठोस पदार्थ हैं। दार्शनिक रसायन-विज्ञानियों ने हमेशा शरीर को पानी देने का उल्लेख किया है, जो कुछ परिस्थितियों में, तीनों अवस्थाओं को सँभालने में सक्षम है। भाप में यह पूरी तरह से एक लोचदार तरल पदार्थ के रूप में पहचाना जाता है, पानी में एक पूर्ण तरल और बर्फ में पूर्ण ठोस।

पानी, वास्तव में जैविक दूध है- वह पदार्थ जो जीवन को सम्भव बनाता है और जीवित कोशिकाओं के लगभग सभी आणविक घटक, चाहे वे जानवरों, पौधों या सूक्ष्मजीवों में पाये जाते हैं; पानी में घुलनशील हैं। इन अवलोकनों ने स्पष्ट रूप से निष्कर्ष निकाला है, जो सार्वभौमिक रूप से अपनाया गया लगता है कि प्रत्यक्ष परिमाण के सभी हिस्सों, चाहे तरल या ठोस, बहुत छोटे कणों की एक विशाल संख्या में गठित होते हैं, या आकर्षण बल के साथ बँधे पदार्थ के परमाणु जिन्हें सुरक्षित रूप से सर्वव्यापी माया का उदाहरण माना जाता है।

एक प्रमुख तथ्य इस पोटली के अन्य साक्ष्यों से यह दर्शाता है कि जल, अग्नि, वायु और वनस्पति वास्तव में केवल एक ही अर्थ के साथ विभिन्न प्रकार के वास्तविक जीवित प्राणी हैं। यह है कि मानव शरीर के आवश्यक घटक होने के अलावा वे पोषण करने और इसे तब तक बनाये रखने, जब तक यह नष्ट नहीं होता या अन्य तरीकों से अस्तित्व से बाहर नहीं चला जाता; के लिए आसानी से पचाये जाते हैं। इसमें एक शरीर का प्राकृतिक जीवन चक्र शामिल है, जो माया के एक भ्रम के तहत, जीवन की एक अनोखी इकाई प्रतीत होता है। लेकिन यह वास्तव में अरबों-खरबों कोशिकाओं का एक समूह है- मानव, बैक्टीरिया, वायरस, कवक, संचयी; लेकिन जो अपने स्वयं के व्यक्तिगत गुणों के साथ स्वतंत्र अस्तित्व और प्रसार में सक्षम हैं।

(अगले अंक में – माया : अदृश्य कारण और दृश्य प्रभाव)