निरंकुश हो रहा भारत का लोकतंत्र!

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने कोरोना का बहाना बनाकर संसद सत्र के अहम हिस्से 'प्रश्नकाल’ को खत्म किया था। इस पर काफी हो-हल्ला भी हुआ। हाल के महीनों में देश की प्रमुख संस्थाओं, जिनमें मीडिया भी शामिल है; की स्वतंत्रता को लेकर भी ढेरों सवाल उठे हैं। अब स्वीडन की जानी-मानी संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट ने अक्टूबर के आखिर में दुनिया भर में लोकतंत्र को लेकर एक रिपोर्ट जारी की है और भारत के सन्दर्भ में जो कहा है, वह चिन्ता का विषय है। रिपोर्ट में कहा गया है कि वर्तमान शासन में विभिन्न कारणों से भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने के कगार पर है। भले ही इस तरह की अध्ययन रिपोट्र्स की जानकारी देश के एक बड़े हिस्से तक नहीं पहुँच पाती हैं, लेकिन निश्चित ही यह बेहद चिन्ताजनक रिपोर्ट है। इन्हीं तमाम पहलुओं पर विशेष संवाददाता राकेश रॉकी की पड़ताल :-

क्या भारत उदार लोकतंत्र से दूर जा रहा है? हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोट्र्स कुछ यही संकेत करती हैं। अब इस शंका को स्वीडन की संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट ने और गहरा दिया है। इस डेमोक्रेसी रिपोर्ट में वी-डेम इंस्टीट्यूट ने दावा किया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए कम होती जगह के कारण भारत अपना लोकतंत्र का दर्जा खोने के कगार पर है। रिपोर्ट में उल्लेख किया गया है कि भारत में नागरिक समाज के बढ़ते दमन के साथ प्रेस स्वतंत्रता में आयी कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान हिन्दू-राष्ट्रवादी शासन से जुड़ी है। हाल के महीनों तक हम इन कारणों से लोकतंत्र की घटते ग्राफ की बात करते थे; लेकिन नयी रिपोट्र्स में तो भारत के लोकतंत्र का दर्जा खो देने के खतरे की ही बात कही गयी है; जिसे हल्के में नहीं लिया जा सकता। इससे यह भी सवाल पैदा होता है कि क्या भारत एक निरंकुश शासन व्यवस्था की तरफ धकेला जा रहा है?

यह कोई पहली रिपोर्ट नहीं है, जिसमें भारत में लोकतंत्र के गिरते स्तर पर सवाल उठे हैं। इसी साल जनवरी में जारी की गयी इकोनॉमिस्ट इंटेलीजेंस यूनिट की रिपोर्ट में भी भारत 10 स्थान खोकर 51वें नम्बर पर पहुँच गया था। भारत में हाल के महीनों में लागू किये गये कानूनों को भी इसका एक बड़ा कारण माना जा रहा है। दिलचस्प है कि हाल में मानसून संसद सत्र में जब मोदी सरकार ने प्रश्न-काल को शामिल नहीं करने का फैसला किया था। कांग्रेस के नेतृत्व में विपक्ष ने इसका जमकर विरोध भी किया था। जनसाधारण से जुड़े मुद्दों पर सवाल पूछने की स्वतंत्रता का यह हनन संसद में ही हो, तो निश्चित ही इसे चिन्ता का बड़ा कारण माना जाना चाहिए; भले इसे कोरोना जैसी महामारी का बहाना बनाया गया हो। कुछ समय पहले जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने सरकार विरोधी आवाज़ों के दमन पर चेतावनी दी थी। उन्होंने कहा था कि असहमति लोकतंत्र के लिए सेफ्टी वॉल्व है। अगर आप इस सेफ्टी वॉल्व को नहीं रहने देंगे, तो प्रेशर कुकर फट जाएगा। लेकिन लगता है इस सेफ्टी वॉल्व को विभिन्न परिवर्तनों से धीरे-धीरे हटाया जा रहा है। उनकी बात और चेतावनी अब बहुत सारगर्भित लगने लगी है। देश में लोकतंत्र के स्तम्भ संस्थानों की निष्पक्षता और स्वतंत्रता का हनन इस चिन्ता को और गहरा करता है, जो सम्भ्रांत और पढ़े-लिखे लोगों में बढ़ी है। मीडिया की मौज़ूदा हालत इस चिन्ता को और पुख्ता करती है।

बता दें कि वी-डेम एक स्वतंत्र अनुसंधान संस्थान है, जो गोथेनबर्ग विश्वविद्यालय में स्थित है। इसमें हर साल दुनिया भर की एक डाटा आधारित लोकतंत्र रिपोर्ट प्रकाशित की जाती है। वी-डेम की रिपोट्र्स को दुनिया भर में इ•ज़त की नजर से देखा जाता है, जिसका कारण उसका व्यापक अध्ययन है। इस बार की रिपोर्ट में भी डेटा, डेटा एनालिटिक्स, ग्राफिक्स, चार्ट और मैप का बड़े पैमाने पर इस्तेमाल किया गया है; जिससे इसमें किये गये गहन अध्ययन का संकेत मिलता है। अब जब संस्था की रिपोर्ट में दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक देशों में से एक कहे जाने वाले भारत में लोकतंत्र के कमज़ोर पडऩे की बात कही गयी है, तो निश्चित ही यह काफी ठोस है।

क्या है वी-डेम रिपोर्ट में

रिपोर्ट को तैयार करने वाली स्वीडन के गोटेनबर्ग विश्वविद्यालय से जुड़ी संस्था वी-डेम इंस्टीट्यूट के अधिकारी रिपोर्ट में कहते हैं कि भारत में लोकतंत्र की बिगड़ती स्थिति की उन्हें चिन्ता है। रिपोर्ट में उदार लोकतंत्र सूचकांक में भारत को 179 देशों में 90वाँ स्थान दिया गया है। हैरानी की बात तो यह है कि भारत अपने पड़ोसियों श्रीलंका (70वें स्थान पर) और नेपाल (72वें स्थान पर) से भी खराब स्थिति में है। भले सरकार समर्थक इस रिपोर्ट से सहमत नहीं और उसे वी-डेम की रिपोर्ट पर आपत्ति है; लेकिन बहुत-से अन्य लोग मानते हैं कि हाल के वर्षों में भारत में लोकतंत्र को आघात करने वाली बहुत-सी चीज़ें हुई हैं और रिपोर्ट में जतायी गयी चिन्ता सही है। वी-डेम इंस्टीट्यूट की साल 2020 की डेमोक्रेसी रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व वाली सरकार में मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए जगह कम हुई है। हम अपने स्तर पर विपक्ष की जगह की बात करें, तो यह भाजपा ही है, जिसने कांग्रेस मुक्त भारत का नारा दिया और इसे अपने ज़मीन स्तर के कार्यकर्ता तक पहुँचा दिया। बहुत-से लोगों का कहना था कि इस नारे से लोकतंत्र के दमन और निरंकुश शासन की बू मिली और कुछ पार्टी समर्थकों के अलावा किसी ने भी इसे पसन्द नहीं किया। इसका कारण यह है कि भारत में किस राजनीतिक दल का चुनाव करना है या उसे पसन्द करना है, इसका अधिकार जनता के पास है। जनता के अधिकार पर डाका डालने का मतलब है- लोकतंत्र पर चोट करना। रिपोर्ट के अनुसार, 2001 के बाद पहली बार निरंकुशतावादी शासन (ऑटोक्रेसी) बहुमत में दिख रहा है। इसमें 92 देश शामिल हैं, जहाँ वैश्विक आबादी का 54 फीसदी हिस्सा रहता है। रिपोर्ट में कहा गया है कि प्रमुख जी-20 राष्ट्र और दुनिया के सभी क्षेत्र अब निरंकुशता की तीसरी लहर का हिस्सा हैं, जो भारत, ब्राजील, अमेरिका और तुर्की जैसी बड़ी आबादी के साथ प्रमुख अर्थ-व्यवस्थाओं को प्रभावित कर रही है।

रिपोर्ट में कहा गया है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता और मीडिया की स्वतंत्रता पर हमले पिछले 19 साल की तुलना में 31 देशों को प्रभावित कर रहे हैं। साथ ही पिछले 10 साल में निरंकुशतावादी देशों में 13 फीसदी अकादमिक स्वतंत्रता की औसत गिरावट दर्ज की गयी है। इन देशों में भारत को भी शामिल किया गया है। उदारवादी लोकतंत्र सूचकांक (एलडीआई) के आकलन के लिए रिपोर्ट में जनसंख्या को पैमाना बनाया गया है, जो जनसंख्या आकार के आधार पर औसत लोकतंत्र स्तर को मापता है। इससे पता चलता है कि कितने लोग प्रभावित हैं? यह सूचकांक चुनावों की गुणवत्ता, मताधिकार, अभिव्यक्ति और मीडिया की स्वतंत्रता, संघों और नागरिक समाज की स्वतंत्रता, कार्यपालिका पर जाँच और कानून के नियमों को शामिल करता है। रिपोर्ट में कहा गया कि भारत जनसंख्या के मामले में निरंकुश-व्यवस्था की ओर बढऩे वाला सबसे बड़ा देश है।

रिपोर्ट के मुताबिक, भारत में नागरिक समाज के बढ़ते दमन के साथ प्रेस स्वतंत्रता में आयी कमी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के वर्तमान हिन्दू-राष्ट्रवादी शासन से जुड़ी है। हालाँकि वरिष्ठ भाजपा नेता और हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल इससे कतई इत्तेफाक नहीं रखते। तहलका से फोन पर बातचीत में धूमल ने कहा कि यह भारत को बदनाम करने की साज़िश का एक हिस्सा है। भारत में मोदी सरकार ने लोकतंत्र की जड़ें मज़बूत की हैं। यहाँ समय पर चुनाव हुए हैं और हरेक नागरिक को वोट देने का अधिकार है। मीडिया की स्वतंत्रता पर कोई अंकुश नहीं है। मत भूलें कांग्रेस के समय में सन् 1974 में जब आपातकाल लगा, तो भाजपा के ही नेता थे, जो लोकतंत्र की रक्षा करने पर जेलों में ठूँसे गये थे। धूमल के दावे के इतर सच यह है कि भारत में मीडिया की स्वतंत्रता में हाल के वर्षों में ज़बरदस्त गिरावट आयी है। पत्रकारों के खिलाफ राजद्रोह व मानहानि से लेकर उनकी हत्या के मामले बढऩा इसका सुबूत हैं। कई अंतर्राष्ट्रीय संगठन इस पर चिन्ता जता चुके हैं।

ऐसी स्थिति क्योंं

नागरिकता संशोधन कानून (सीएए) लाने और उसके खिलाफ देशभर में शान्तिपूर्ण विरोध प्रदर्शनों को दबाने की कोशिश, जम्मू कश्मीर में एकतरफा राजनीति के बशीभूत होकर अनुच्छेद-370 खत्म करने और एक राज्य को दो हिस्सों में बाँटकर उसका दर्जा घटा देने और लोगों की आवाज़ दबा देने के लिए वहाँ के नेतृत्व को जेलों में ठूँस देने के अलावा किसानों के विरोध के बावजूद कृषि से जुड़े जबरन कानून बनाने जैसे देश के हाल के फैसले भारत को एक खराब दिशा की तरफ ले जा रहे हैं। वी-डेम की रिपोर्ट में मानवाधिकार उल्लंघन के हाल के मामलों और लॉकडाउन और उसके बाद प्रेस स्वतंत्रता पर हमले और सीएए प्रदर्शनकारियों पर दर्ज मामलों को शामिल नहीं किया गया है। न्यायपालिका की स्वतंत्रता पर हाल में ढेरों सवाल उठे हैं। इसके अलावा विरोधी दलों या राज्यों में उनकी सरकारों को कमज़ोर करने के लिए सरकारी एजेंसियों सीबीआई, ईडी आदि का जैसा दुरुपयोग हुआ है, वह गम्भीर चिन्ता का विषय है। यही नहीं, विपक्ष की सरकारों को हर हालत में गिराने और इसके लिए पैसे के अलावा केंद्र के नियुक्त राज्यपालों के इस्तेमाल से लोकतंत्र पर खतरे के बादल मँडराये हैं। यहाँ यह ज़िक्र ज़रूरी है कि इस साल जनवरी में द इकोनॉमिस्ट ग्रुप की खुफिया इकाई की तैयार की गयी लोकतंत्र सूचकांक रिपोर्ट में भी भारत में लोकतंत्र की स्थिति को लेकर गम्भीर सवाल खड़े किये हैं। इस रिपोर्ट में भारत को त्रुटिपूर्ण लोकतंत्र की सूची में रखा गया था। यह रिपोर्ट भारत में 2019 की स्थिति पर आधारित थी। ज़ाहिर है दो महीने बाद द इकोनॉमिस्ट की 2020 की स्थिति पर जो रिपोर्ट आयेगी, वह और भी चिन्ताजनक हो सकती है। क्योंकि इन महीनों में देश में इस पैमाने पर स्थिति और खराब हुई है।

वर्तमान सत्ता दुनिया की रिपोट्र्स में उभरी चिन्ताओं को फिर भी नहीं समझ पा रही है। इसका प्रमाण हाल के कृषि कानून हैं। इन कानूनों का विरोध आने वाले दिनों में बड़े आन्दोलन का रास्ता खोलता दिख रहा है। गैर-भाजपा राज्य इन कानूनों को मानने को तैयार नहीं। वे विधानसभाओं में इनके खिलाफ प्रस्ताव पास कर रहे हैं। जानकारों का कहना है कि लोकतंत्र को यही चीज़ें नष्ट कर रही हैं। जम्मू कश्मीर में अनुच्छेद-370 खत्म करने को लेकर उठे बड़े विवाद के बावजूद मोदी सरकार अब वहाँ भूमि स्वामित्व अधिनियम सम्बन्धी कानून में बड़ा संशोधन करते हुए नये नया भूमि कानून ले आयी है। इस अधिसूचना में कहा गया है कि अब कोई भी भारतीय जम्मू-कश्मीर में ज़मीन खरीद सकता है। बता दें कश्मीर तो कश्मीर, जम्मू में भी लोग इसके हक में बहुत ज़्यादा नहीं हैं। लद्दाख में तो पहले ही इसका बड़ा विरोध सामने आ चुका है। लिहाज़ा लद्दाख को अभी इस दायरे से बाहर रखा गया है। भारत के लिए डेमोक्रेसी इंडेक्स में हाल की अंतर्राष्ट्रीय रिपोट्र्स में ऐसी स्थिति मीडिया, नागरिक समाज और विपक्ष के लिए जगह कम होना है। विरोध की आवाज़ दबाने के लिए मोदी सरकार पहले से ही आलोचना के घेरे में थी, लेकिन 2019 में दूसरा कार्यकाल शुरू होने के बाद विरोध नये स्तर तक पहुँच गया है। भारत में बड़ी संख्या में लोग मानते हैं कि भाजपा के नेता अहंकार में डूब चुके हैं और लोकतंत्र उनके लिए मज़ाक की चीज़ हो गयी है। वी-डेम की ताज़ा रिपोर्ट मोदी सरकार की आलोचनाओं की पुष्टि करती दिखती है।

रिपोर्ट में कहा गया है भारत लगातार गिरावट के रास्ते पर है, इस हद तक कि उसने लोकतंत्र के रूप में लगभग अपनी स्थिति खो दी है। रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल में जो 10 देश सबसे अधिक निरंकुशता की ओर बढ़े हैं, उनमें हंगरी, तुर्की, पोलैंड, सर्बिया, ब्राज़ील और भारत शामिल हैं। बता दें लोकतांत्रिक स्थिति को लेकर अदालतें भी सरकार को चेताती रही हैं। सन् 2018 में भीमा-कोरेगाँव हिंसा में गिरफ्तार पाँच सामाजिक कार्यकर्ताओं के मामले की सुनवाई के दौरान तत्कालीन प्रधान न्यायाधीश दीपक मिश्रा की बेंच में शामिल जस्टिस डी.वाई. चंद्रचूड़ ने कहा था कि विरोध की आवाज़ को दबाया नहीं जा सकता।

दुनिया के कई देशों में सरकारें या नेता अपनी महत्त्वाकांक्षाओं के चलते निरंकुश आज़ादी चाहते हैं। ऐसे में उनका सबसे पहला निशाना ऐसे लोग या दल / समूह बनते हैं, जो उनसे अलग या विपरीत सोच रखते हैं। भारत में भी हाल के वर्षों में यह देखा गया है कि भाजपा नेता उन तमाम नेताओं या राजनीतिक दलों को देशद्रोही कहने लगे हैं, जो वास्तव में उसकी विचारधारा के विरोधी हैं। सोशल मीडिया का भी इस दुष्प्रचार के लिए जमकर दुरुपयोग करके जनता के मन में यह बैठाने की कोशिश की गयी है कि जो उनके (भाजपा) के विरोध में बोल रहे हैं, वे वास्तव में देश के विरोधी हैं। निश्चित ही लोकतंत्र के लिए यह सोच बहुत घातक है। सबसे ज़्यादा हैरानी की बात यह है कि विरोधियों का दमन करने के लिए लोकतांत्रिक संस्थाओं का ही सहारा लिया जाता है; ताकि उनका गलत फैसला भी सही दिखे।

हाल में देश भर के 115 लेखकों-पत्रकारों-कलाकारों और संस्कृति कर्मियों ने बिहार चुनाव में लोगों से अपील की थी कि वे नफरत फैलाने वाली ताकतों के खिलाफ और धर्मनिरपेक्ष लोकतंत्र की पक्षधर शक्तियों को समर्थन दें। मतदाताओं के लिए यह अपील जारी करने वाले में हिन्दी, मलयालम, मराठी, अंग्रेजी सहित विभिन्न भाषाओं के लेखक शामिल थे। इन लोगों ने कहा था कि इस समय देश आज़ादी के बाद के सबसे मुश्किल और अँधेरे दौर से गुज़र रहा है। लोकतंत्र का वेश धारण किये हुए तानाशाही, साम्प्रदायिक और जन-विरोधी ताकतें हमारे धर्मनिरपेक्ष ढाँचे को नेस्तनाबूद करके गरीब-साधारण जनों के लिए नित नये संकट पैदा कर रही हैं। उन्होंने देश को झूठ, घृणा, दमन, हिंसा और आर्थिक विनाश के दुश्चक्र में डाल दिया है। यह अपील एक उदाहरण है कि कैसे देश के जागरूक लोग लोकतंत्र को खतरे से चिन्तित हैं।

हाल में इस विरोध की एक बानगी तब भी दिखी थी, जब आभूषणों के जाने-माने ब्रांड तनिष्‍क के एक विज्ञापन को लेकर बवाल खड़ा किया गया। विज्ञापन का विरोध करते समय जानबूझकर इसके एक पहलू को ही देखा गया। सोशल मीडिया में इसे हि‍न्दू समाज की भावनाओं के खिलाफ बताते हुए इसे लव जिहाद को प्रोत्साहित करने वाला बता दिया गया। सवाल उठाया गया कि ऐसा कोई विज्ञापन हि‍न्दू परिवार में मुस्लिम बहू को लेकर कभी क्‍यों नहीं दिखाया जाता। सोशल मीडिया पर बायकॉट तनिष्‍क अभियान ट्रेंड होने पर कम्पनी ने विज्ञापन वापस ले लिया।

इस मसले पर लोग दो खेमों में बँटे दिखे। इसे साम्प्रदायिक सौहार्द को बढ़ावा देने वाले वर्ग ने इस बात पर आपत्ति जतायी कि तनिष्‍क ने उस विज्ञापन को कुछ उ‍न्मादी लोगों के दबाव में आकर वापस क्‍यों लिया? इस तरह की घटनाएँ निश्चित ही लोकतंत्र के लिए नुकसानदेह हैं; क्योंकि ऐसी असहिष्णुता उदार पक्ष पर प्रहार करती है।

हम अपने अध्ययन में एक देश में 400 के करीब इंडिकेटर्स को जाँचते हैं, जिनमें अभिव्यक्ति, मीडिया और सिविल सोसायटी की स्वतंत्रता, चुनावों की गुणवत्ता, मीडिया में अलग-अलग विचारों की जगह और शिक्षा में स्वतंत्रता जैसे प्रमुख इंडिकेटर्स शामिल हैं। हमारे साथ 3,000 से ज़्यादा विशेषज्ञों का मज़बूत नेटवर्क है और उनमें भारत में काम कर रहे शिक्षित जन भी हैं। यह जन सिविल सोसायटी और राजनीतिक दलों से वािकफ हैं। लोकतंत्र के कुछ महत्त्वपूर्ण स्तम्भ भारत में हाल के वर्षों में कमज़ोर पड़ते गये हैं; खासकर पिछले आठ साल में। मोदी के सत्ता सँभालने के बाद इनमें तेज़ गिरावट आयी है। भारत अब अलोकतांत्रिक देशों की श्रेणी में आने के बिल्कुल करीब है। पिछले कुछ साल में मीडिया में सरकार का पक्ष लेने का चलन बहुत तेज़ी से बढ़ा है। पत्रकारों को प्रताडि़त करना, मीडिया को सेंसर करने पत्रकारों की गिरफ्तारी और मीडिया की सेल्फ सेंसरशिप की घटनाएँ बड़ी हैं, जिसमें सरकार की भूमिका उजागर होती है।

स्टीफन लिंडबर्ग, निदेशक, वी-डेम इंस्टीट्यूट, स्वीडन

भारत में खत्म होते लोकतंत्र के लिए मोदी सरकार ज़िम्मेदार है। अर्थ-व्यवस्था गहरे संकट में है। देश और भी कई मोर्चों पर मुश्किल में है; लेकिन लोकतांत्रिक प्रणाली के सभी स्तम्भ जिस तरह से निशाना बनाये जा रहे हैं, वो बहुत ज़्यादा चिन्ता की बात है। आज राजनीतिक विरोधी और सिविल सोसायटी के लोग सरकार के निशाने पर हैं। देश में अभिव्यक्ति की आज़ादी इस कदर खतरे में दिख रही है कि सरकार के खिलाफ बोलने वालों को देशद्रोही और आतंकवादी की तरह से पेश किया जा रहा है।

सोनिया गाँधी, कांग्रेस अध्यक्ष