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वैक्सीन की हड़बड़ी, न कर दे गड़बड़ी

कोरोना महामारी से उपजे संकट और कोरोना से निजात दिलाने के लिए सरकार प्रयासरत है। माना जा रहा है कि वैक्सीन के आते ही कोरोना वायरस पर काफी हद तक काबू पा लिया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि कोरोना-टीका जल्द आने वाला है। केंद्रीय स्वास्थ्य महकमा बाज़ार में इसकी जल्द उपलब्धता के लिए लगा हुआ है।

इधर आईएमए, डीएमए, एम्स, डीएमसी सहित तामाम मेडिकल संस्थानों से जुड़े डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना-टीका के लिए सरकार कुछ ज़्यादा ही जल्दबाज़ी में है। आईएमए के पूर्व महासचिव व डीएमसी के सांइटिफिक कमेटी के अध्यक्ष डॉ. नरेन्द्र सैनी का कहना है कि कोरोना-टीके को लेकर किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है। लेकिन यह कब आयेगा? यह नहीं कहा जा सकता। अभी ट्रायल चल रहा है। इसे मरीज़ों तक पहुँचने में काफी समय लगेगा। उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस एक नयी महामारी है, जिसके बारे में अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि यह कहाँ और कैसे जन्मी है। ऐसा भी नहीं कि वैक्सीन (टीका) के आने भर से कोरोना चला जाएगा।

डीएमसी के वाइस चैयरमैन डॉ. नरेश चावला का कहना है कि इस महामारी ने मेडिकल क्षेत्र के सामने एक चुनौती पेश की है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दुनिया भर के शोध संस्थान दिन-रात टीके की खोज में जुटे हैं और सफलता पाने की ओर अग्रसर हैं। लेकिन भारत में सरकार, दवा व्यापारियों के दबाव में अगर जल्दबाज़ी में टीका लेकर आ रही है, तो मुसीबत भी खड़ी हो सकती है। अभी तक के इतिहास में किसी भी देश ने किसी भी वैक्सीन को बनाने में कई-कई साल तक शोध किया है, तब जाकर सफलता हासिल की है। बताते चलें कि अनेक देश और आईसीएमआर यह कह चुके हैं कि सालों-साल लग जाएँगे, तब जाकर कोरोना-टीका हासिल होगा। लेकिन न जाने ऐसा क्या हो गया कि हर देश जल्द-से जल्द कोरोना-टीका लाने की होड़ में लगा है और सफलता के दावे कर रहा है। डॉ. चावला का कहना है कि भारत में टीका स्वदेशी हो या विदेशी, मगर असरदार हो; जिससे लोगों को सही मायने में उसका लाभ मिल सके। अन्यथा दुष्परिणाम ही सामने आएँगे, जो आ भी रहे हैं।

एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि सरकार को भली-भाँति मालूम है कि कोरोना-टीका आने में कई साल का समय लग सकता है। बता दें कि एम्स ने ही कई मर्तबा कहा है कि इसमें कम-से-कम दो साल का समय लगेगा। लेकिन अब एम्स ही कहना लगा है कि कोरोना वैक्सीन आने वाली है। एम्स के कई सीनियर डॉक्टरों का कहना है कि वैक्सीन कब और कहाँ किसे मिलेगी? इस पर तमाम तरह के संशय हैं; लेकिन सरकार की दखलंदाज़ी के कारण जल्दबाज़ी की जा रही है, जो कि ठीक नहीं है। उनका कहना है कि कोरोना के नाम पर देश के जाने-माने संस्थानों का राजनीतिकरण हुआ है, तो टीका भी राजनीतिकरण के चंगुल से कैसे बच सकता है? डॉक्टरों का कहना है कि टीके के पीछे दवा व्यापारियों का बड़ा खेल चल रहा है।

दवा व्यापारियों का कहना है कि उनका व्यापार कम हुआ है, क्योंकि लोग कोरोना वायरस के डर से अन्य बीमारियों का इलाज तक नहीं करा रहे हैं। इधर बड़े दवा निर्माता समूह कोरोना-टीका को बड़े व्यापार के रूप में देख रहे हैं और अपना-अपना बाज़ार बनाने में लगे हैं, ताकि इससे मोटा मुनाफा कमाया जा सके। भागीरथ पैलेस दिल्ली के दवा व्यापारी कैलाश का कहना है कि कोरोना की कोरोना-टीका और दवा को लेकर सरकार की रूपरेखा कैसी होगी और कैसे मरीज़ों को इसे उपलब्ध कराया जाएगा? इसका पता सरकार के दिशा-निर्देश आने के बाद ही चलेगा।

इधर, सरकार के कोरोना-टीका के जल्द लाने के आश्वासन के बाद लोगों में इसे लेकर उत्साह देखा जा रहा है; भले ही टीका जल्द आये, या न आये। वहीं कुछ लोग यह भी मान रहे हैं कि महामारी के बीच सरकार कोई दाँव खेल रही है। कोरोना वायरस के नाम पर आम लोगों को डराया-धमकाया जा रहा है। लोगों को दिलासा दिया जा रहा है कि कोरोना की वैक्सीन आने वाली है। सब ठीक हो जाएगा।

अगर मास्क की बात करें, तो दिल्ली से लेकर दूसरे शहर में लोग कोरोना वायरस के डर से नहीं, बल्कि चालान के डर मास्क लगा रहे हैं। लेकिन गाँवों में लोग अब मास्क नहीं लगा रहे हैं। गाँव के चन्द्रपाल का कहना है कि कोरोना एक सियासी खेल है। मार्च से मई तक लोगों ने सरकार पर भरोसा जताया था कि कोरोना है और उन्होंने सरकार के कहने पर उसका साथ भी दिया। लेकिन जनता ने देखा कि सियासतदाँ रैलियाँ कर रहे, पार्टी की बैठकें कर रहे हैं, आन्दोलन हो रहे हैं, तो वह समझ गयी कि कोरोना वायरस पर सियासत हो रही है। दिल्ली के व्यापारी रत्नेश जैन का कहना है कि दिल्ली में कोरोना के मामले कब बढऩे लगें और कब घटने लगें? कुछ कहा नहीं जा सकता। उनका कहना है कि वह व्यापारी हैं और दवा व्यापारियों से उनकी बातचीत है। कोरोना-टीके को लेकर इसलिए जल्दबाज़ी दिखायी जा रही है, ताकि सियासी खेल से पर्दा न उठ जाए और लोग टीका लगवाने से मना न कर दें।

दिल्ली में दवा का बड़े स्तर पर कारोबार होता है। भागीरथ पैलेस, लाजपत नगर, अंसारी नगर और एम्स के आस-पास बड़े दवा कारोबारी हैं। कई दवा व्यापारियों का कहना है कि कोरोना वायरस  के अलावा अन्य बीमारियों से हर रोज़ कई मरीज़ों की मौत होती है। देश में स्वास्थ्य सेवाएँ पहले से ही लचर थीं, महामारी के फैलने से स्थिति और डावाँडोल हो गयी  है। ऐसे में सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार न करके कोरोना-टीके के नाम पर लोगों गुमराह कर रही है, जो कि गलत है। इन दवा व्यापारियों का कहना है कि फिलहाल वैक्सीन आने की उम्मीद कम ही है।

संदेह के घेरे में कोरोना-टीका

प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने 4 दिसंबर को सर्वदलीय बैठक में संकेत दिया कि देश में कोरोना-टीका (वैक्सीन) कुछ सप्ताह में तैयार हो सकता है और वैज्ञानिकों की हरी झण्डी मिलते ही देश में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो जाएगा। लेकिन 5 दिसंबर को ही टीवी चैनलों व सोशल मीडिया में हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री व गृहमंत्री अनिल विज की कोरोना-टीका लगवाने के बाद संक्रमित होने वाली खबर तेज़ी से देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गयी। इस खबर से पहले चेन्नई में कोविशील्ड वैक्सीन की खुराक लेने वाले एक प्रतिभागी ने न केवल वैक्सीन के दुष्प्रभावी होने के आरोप लगाये, बल्कि पाँच करोड़ रुपये का हर्ज़ाना भी माँगा है। इसके साथ ही प्रतिभागी ने टीके के परीक्षण, उत्पादन और वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है।

याद रखना होगा कि इस कोविशील्ड वैक्सीन का निर्माण पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में हो रहा है और इसे ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनका ने मिलकर विकसित किया है। प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कोविड-19 वैक्सीन की तैयारियों के बाबत जिन तीन कम्पनियों का दौरा किया था, उनमें पुणे की सीआईआई भी शमिल है। अब ऐसी खबरों के बाद कोविड-19 टीके से जुड़ी चर्चा में अहम बिन्दु टीकों के असर और सुरक्षा पर केंद्रित हो गया है। मंत्री के परीक्षण टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। शोध पर फंडिग करने वाले व निर्माता कम्पनियों ने कई वैज्ञानिकों को इस सन्दर्भ में कई तरह के स्पष्टीकरण के काम पर लगा दिया है। दरअसल मेडिकल की दुनिया के अधिकतर लोगों को भी कोविड-19 वैक्सीन बनाने की पूर्ण प्रक्रिया व नतीजों के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है। टीका तैयार करने के आखरी चरण में पहुँच चुकी कई नामी कम्पनियाँ अपनी दवा 90 से 95 फीसदी तक प्रभावशाली होने का दावा कर रही हैं। वैसे अभी ऐसी कोई स्वतंत्र शोध सामने नहीं आयी है, जिसमें यह कहा गया हो कि टीका 50 फीसदी से अधिक कारगार होगा। किसी भी टीके का प्रयोग इंसानों पर होने से पहले जानवरों पर होता है। उनमें एंटीबॉडी विकसित की जाती है कि वह कितना सफल हुआ? इस शोध पर वैज्ञानिक काम करते हैं। उसके बाद जानवरों व इंसानों पर परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के नतीजे सम्बन्धित शोध संस्थानों व सरकारी विभागों के साथ साझा किये जाते हैं। जब इंसानों पर परीक्षण किये जाते हैं, तो बहुत-सी सावधानियाँ बरती जाती हैं। कई निगरानी समूह बनाये जाते हैं। सबसे पहले कोविड-19 टीका बनाने की प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रवाद की भावना वाले माहौल में उसके निर्माण में क्या हुआ तथा क्या हो रहा है? इस बारे में विस्तृत ब्यौरा देने, पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं।

भारत की ही बात करें, तो तमिलनाडु के 40 साल के एक प्रतिभागी ने आरोप लगाया कि कोविशील्ड की टीका लगाने के बाद से उसे वर्चुअल न्यूरोलॉजिकल ब्रेकडाउन की समस्या हुई है और उसके सोचने-समझने की क्षमता कमज़ोर हो गयी है। प्रतिभागी ने एक नोटिस भेजकर कोविशील्ड टीके के परीक्षण, उत्पादन व वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है। बेशक सीआईआई, जिसने ऑक्सफोर्ड के टीके को बनाने के लिए एस्ट्राजेनेका के साथ हिस्सेदारी की है; ने इस आरोप को दुर्भावनापूर्ण और गलत कहकर खारिज कर दिया, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चेन्नई वाला मामला अपनी तरह का पहला मामला नहीं है। प्रतिभागी के आरोप से पहले भी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में एक प्रतिभागी में अज्ञात बीमारी सामने आने के बाद जॉनसन एंड जॉनसन टीके का नैदानिक परीक्षण रोका गया था। लेकिन भारत में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। रूस और चीन द्वारा तैयार हो रहे वैक्सीन के दुष्प्रभाव की भी खबरें सामने आयीं। यानी वैक्सीन की सुरक्षा वाला मसला एक गम्भीर मुद्दा है। विश्व भर में जिन कोविड-19 वैक्सीन की चर्चा हो रही है, उनमें फाइज़र, माडर्ना, ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड, रूस की स्पुतनिक-5, जॉनसन एंड जॉनसन, भारत बायोटैक की कोवैक्सिन, चीन की सिनोवैक आदि हैं। अमेरिकी कम्पनी फाइज़र ने अपनी वैक्सीन को 90 फीसदी कारगर होने का दावा किया है और इसके तीसरे चरण के परीक्षण में अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के 44 हज़ार लोगों पर परीक्षण किया गया।

इसी तरह अमेरिका की ही दवा कम्पनी मॉडर्ना ने अपनेटीके को 94.5 फीसदी प्रभावशाली बताया है। इसके तीसरे चरण में अमेरिका, जापान व यूरोपीय यूनियन के 30 हज़ार लोगों को शामिल किया गया। भारत में बन रही ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड टीके का करीब 20 हज़ार लोगों पर तीसरे चरण का परीक्षण भारत तथा ब्रिटेन में चल रहा है। तमिलनाडु के एक प्रतिभागी के द्वारा आरोप लगाये जाने के बाद यह चर्चा में है। कोरोना-टीका बनाने वाली कम्पनियाँ प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिये चुनिंदा आँकड़े जारी कर रही हैं। यहाँ पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को कुछ ठोस व्यवस्था करनी चाहिए। कम्पनियों द्वारा जारी आँकड़ों और असर की वैज्ञानिक तौर पर दोबारा जाँच होनी चाहिए। कोरोना-टीका  के आने की अहम खबर के साथ-साथ अब यह बिन्दु भी केंद्र में आने लगे हैं कि क्या टीका लगवाने के बाद कोविड-19 संक्रमण अपनी जद में तो नहीं लेगा। लोगों की अक्सर यही धारणा बना दी जाती है कि कोरोना-टीका लगवाने से आप बीमार नहीं पड़ेंगे।

हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज को 20 नवंबर को कोवैक्सिन, जिसे भारत बायोटेक कम्पनी व आईसीएमआर मिलकर विकसित कर रहे हैं; परीक्षण के अन्तिम चरण में लगवायी थी। लेकिन 5 दिसंबर को उन्होंने खुद को कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी और इस खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया।

मंत्री का टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब लोगों की हैरानी को शान्त करने के लिए कोरोना-टीका  बनाने वाली कम्पनियों के आला अधिकारी व शीर्ष सरकारी अधिकारी बचाव की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। भारत बायोटेक ने बयान जारी कर कहा कि कोवैक्सिन की दो खुराक 28 दिन में दी जानी है। दो खुराक के बाद ही यह प्रभावी होगी। वैसे कोवैक्सिन के 60 फीसदी प्रभावशाली होने की बात कही जा रही है।

एक साथ कारगर नहीं होते टीके

एम्स के पूर्व निदेशक एम.सी. मिश्रा का कहना है कि 15 दिन में कोई भी टीका कारगर नहीं होता। ऐसे में अभी टीके पर सवाल उठाना ठीक नहीं। अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, टीका लगवाने के बाद प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने में कुछ हफ्तों का वक्त लग सकता है। टीके के बाद संक्रमण फैलेगा या नहीं? यह सवाल हरेक जानना चाहता है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि इस सवाल के जवाब के लिए अध्ययन करना होगा। यानी इंतज़ार करना होगा। अमेरिकी दवा कम्पनी फाइज़र, जिसने फाइज़र नाम से टीका बनाया है; उसके चेयरमैन अल्बर्ट बोरला ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि जिन लोगों को कम्पनी की तरफ से परीक्षण के तौर पर टीका लगाया गया है, वे अभी भी दूसरों को वायरस फैला सकते हैं या नहीं। अभी इस बाबत और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, टीके के विकास से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि कम्पनी के परीक्षणों ने यह आकलन नहीं किया है कि यह टीका वायरस को कैसे प्रभावित करता है। यानी हमें याद रखना होगा कि कोविड-19 वैक्सीन की रिसर्च का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी टीका 100 फीसदी सुरक्षा की गारंटी नहीं देता, मगर आम जनता इस भ्रम में रहती है कि टीका लगने का मतलब 100 फीसदी बीमारी से निजात।

दरअसल कोविड-19 के टीका कम्पनियों के शेयर बाज़ार में ऊँचाई छू रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन के देशों ने अरबों खुराकों की एंडवास बुंकिग करवा ली है। इन खुराकों के लिए कोल्ड स्टोर, वितरण की रूपरेखा पर काम हो रहा है। ऐसे में कोरोना-टीके से जुड़ी कोई भी नकारात्मक, विवादास्पद खबर जब सुर्खी बनने लगती है, तो दवा कम्पनियाँ, सरकारें अति सक्रिय वाली भूमिका में सामने आ जाती हैं। यह सवाल आज भी बरकरार है कि पहले किसी बीमारी के टीके को बनने में कई साल लगते थे, आज एक साल के भीतर ही कोरोना-टीका कैसे विकसित हो गया। सवाल यह भी है कि एचआईवी, जिसका पता 1980 में लग गया था; का टीका 40 साल बाद भी हम क्यों नहीं विकसित कर पाये। चेचक, हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के टीके ईज़ाद करने में बहुत वक्त लगा।

टीकों के विकास के इतिहास में जाने पर वैज्ञानिक व अन्य विशेषज्ञ दलील देते हैं कि कम्प्यूटर व नयी तकनीक ने जल्दी टीका विकसित करने में खास मदद की है। लिहाज़ा जो सवाल इस बाबत उठाये जा रहे हैं, वो इस महामारी को रोकने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में रुकावट ही डालने का काम करने वाले हैं। विज्ञान प्रगति की ओर अग्रसर है और नयी तकनीक इसमें मददगार साबित हो रही है। बहरहाल समझदार, अनुभवी लोग यही कह रहे हैं कि टीके से अधिक उम्मीद नहीं पालनी चाहिए; यह कोई जादू की छड़ी नहीं है। कोविड-19 का कौन-सा टीका लगने के बाद मानव शरीर में क्या सम्भावित दुष्प्रभाव हो सकते हैं? इस बाबत विस्तार से नहीं पता। क्या ऐसे टीकों पर यह जानकारी मोटे अक्षरों में लिखित रूप में ऐसी भाषा में होगी, जिसे इस्तेमालकर्ता आसानी से समझ ले। वास्तविकता यह है कि कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए टीका विकसित करने वाली कम्पनियाँ अपने टीकों की सफलता का चाहे जितना भी दावा पेश करें, लेकिन वैक्सीन के प्रदर्शन और उसके प्रभावोत्पादकता का सही आकलन आने वाला समय में ही हो सकेगा।

रोशनी घोटाले की उलझनें

जम्मू-कश्मीर में रोशनी कानून के तहत ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों या उन्हें ओने-पौने दामों में खरीदने का मामला अब राजनीतिक रंग लेता जा रहा है। भाजपा कश्मीर के प्रमुख दलों के उन नेताओं, जिनके नाम इस ज़मीन घोटाले में सामने आये हैं; पर लगातार हमलावर है। वहीं घाटी के नेता इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र बता रहे हैं। मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में है। हालाँकि लगता है कि यह मुद्दा खुद भाजपा के गले की भी फाँस बन गया है। क्योंकि रोशनी कानून के तहत ज़मीनों के आवंटन के 70 फीसदी से ज़्यादा मामले जम्मू क्षेत्र में हैं; जहाँ भाजपा का दबदबा है। इस आवंटन के लाभार्थियों में बड़ी संख्या में गरीब भी शामिल हैं। शायद इसे देखते हुए ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अब जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में एक याचिका डालकर गरीबों से जुड़े मामलों की जाँच राज्य के एंटी करप्शन ब्यूरो से करवाने की गुहार लगायी है। आरोप है कि भाजपा इस तरह राजनीतिक आधार पर इस मामले में बंदरबाँट करना चाहती है और विरोधियों को परेशान करना चाहती है।

वैसे तो इस तरह के कानून दूसरे प्रदेशों में भी हैं, जिनमें सरकारी ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों को एक कीमत तय करके स्थायी करने की अभियान चलाये जाते हैं। दिलचस्प यह है कि उनमें भी घोटालों के आरोप लगते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर का मामला घाटी के नेताओं के गुपकार घोषणा के बाद ज़्यादा ज़ोर-शोर से उभरा; क्योंकि भाजपा ने इस घोषणा को देश के खिलाफ बताया है। गुपकार आन्दोलन से जुड़े नेता भी यही आरोप लगा रहे हैं कि रोशनी एक्ट में घोटाले का आरोप उन्हें बदनाम करने की शाज़िश है। हालाँकि पूरा मामला सामने आने के बाद भाजपा के नेता परेशान दिख रहे हैं; क्योंकि उन्हें लगता है कि जम्मू क्षेत्र में बड़ी संख्या में जिन गरीबों से ज़मीन वापस लेने की बात की जा रही है, वो उसके खिलाफ जा सकते हैं।

भाजपा इस मुद्दे को राज्य में चल रहे ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उसके सामने आया कि इस योजना के तहत लाभान्वित होने वाले ज़्यादा लोग उसके प्रभाव वाले जम्मू क्षेत्र से हैं और इनमें भी बड़ी तादाद गैर-मुस्लिमों की है। भाजपा डीडीसी चुनावों में प्रचार करने जब लोगों के पास पहुँची, तो लाभार्थियों ने उनके सामने अपनी ज़मीनें जाने की चिन्ता ज़ाहिर की। भाजपा खेमे में इससे चिन्ता पैदा हुई है। उसे लगता है कि ऐसे लोग उसके खिलाफ जा सकते हैं।

इसके बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 4 दिसंबर को हाई कोर्ट में एक समीक्षा याचिका डाली है। राजस्व विभाग के विशेष सचिव नज़ीर अहमद ठाकुर की तरफ से 4 दिसंबर को दायर याचिका में लगभग दो महीने पुराने फैसले को संशोधित करने के लिए कहा गया है। इस याचिका में कहा गया है कि बड़ी संख्या में आम (गरीब) लोग अनायास ही पीडि़त होंगे; जिनमें भूमिहीन कृषक और छोटे घरों में रहने वाले लोग शामिल हैं। अब कोर्ट बिस याचिका पर सुनवाई करेगा। याचिका में कहा गया है कि लाभार्थियों के बीच आम लोगों और धनी लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। प्रशासन चाहता है कि भूमिहीन मज़दूरों या निजी उपयोग के एक घर के लिए आवंटित भूमि को पहले की स्थिति के हिसाब से रखने की अनुमति दे दी जाए। फिलहाल इस मामले में उच्च न्यायालय ने 16 दिसंबर की तारीख तय की है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, दिलचस्प यह भी है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने रोशनी अधिनियम के लाभार्थियों की अब अलग-अलग सूची जारी करनी शुरू कर दी है। प्रशासन अब रोशनी के लाभार्थियों को गरीब और अमीर की श्रेणी में विभाजित करना चाहता है। आरोप है कि इसके पीछे भाजपा है। अपनी संशोधित याचिका में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने कहा कि इन दो वर्गों के लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। निजी उपयोग में सबसे अधिक आवास वाले घर में भूमिहीन लोगों के हैं। लिहाज़ा प्राथमिक मापदण्ड दो वर्गों के बीच अन्तर करने का होगा। याचिका में भूमिहीन कृषक और एकल आवास मालिकों जैसे लोगों को रोशनी के तहत मिली ज़मीन में बने रहने के लिए एक उपयुक्त तंत्र तैयार करने की अनुमति देने की प्रार्थना की गयी है। यही नहीं इसमें यह आशंका भी जतायी गयी है कि उच्च न्यायालय के फैसले से सीबीआई की पूछताछ लम्बे समय तक चल सकती है।  बता दें इस घोटाले के आरोप राजनीति से शुरू नहीं हुए, बल्कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इसी साल अक्टूबर में 25 हज़ार करोड़ रुपये के इस घोटाले की जाँच सीबीआई को करने के आदेश दिये। यही नहीं, अदालत ने इस कानून के तहत आवंटित सारी ज़मीनों को शुरू से रद्द करने को भी कहा। इस भूमि घोटाले के तहत हुए तमाम आवंटन और प्रक्रियाएँ निरस्त कर दी गयी हैं और जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने इसे पूरी तरह गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट के आदेश के बाद प्रदेश में हड़कम्प मच गया है। क्योंकि इन आवंटन में बड़े लोगों के नाम सामने आये हैं, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य रसूखदार लोग शामिल हैं।

यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि रोशनी कानून कब और कैसे आया था? इसका पूरा नाम जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स का स्वामित्व अधिकार) अधिनियम-2001 को उस समय की नेशनल कॉन्फ्रेंस की फारूक अब्दुल्ला सरकार लायी थी और इसका मकसद पानी आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए पैसा जुटाना था। लिहाज़ा इसे रोशनी नाम दिया गया। कानून के तहत भूमि का मालिकाना हक उसके अनधिकृत कब्ज़ेदारों को इस शर्त पर दिया जाना था कि वे लोग बाज़ार भाव पर सरकार को भूमि का भुगतान करेंगे और इसकी कट ऑफ 1990 तय की गयी थी। आरम्भ में सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले किसानों को कृषि उद्देश्यों के लिए स्वामित्व अधिकार दिये गये थे। बाद में इसके लिए बने अधिनियम में दो बार संशोधन किया गया। यह संशोधन 2002 में बनी मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी-कांग्रेस की साझा सरकार और उसके बाद गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में बनी इसी साझा सरकार के कार्यकाल के दौरान किये गये। जो कट ऑफ पहले 1990 तय की गयी थी, उसके इन संशोधनों में क्रमश: 2004 और फिर 2007 कर दिया गया। इस कथित घोटाले में बड़े राजनीतिकों के अलावा कई बिजनेसमैन और अफसरशाहों के नाम सामने आये हैं। फारूक अब्दुल्ला सरकार के समय आयी इस योजना के तहत 1990 से हुए अतिक्रमणों को इस एक्ट के दायरे में कट ऑफ सेट किया गया, अर्थात् 1990 के बाद हुए सरकारी ज़मीन के अतिक्रमण को स्थायी करके लिए उन लोगों, जिन्होंने उस ज़मीन पर कब्ज़ा किया है; से पैसा लिया जाएगा। बता दें उस दौरान राज्य सरकार ने किसानों को मुफ्त में उन कृषि भूमियों के पट्टे दे दिये थे, जिन पर किसानों ने कब्ज़े किये हुए थे।

‘तहलका’ की जुटाई जानकारी के मुताबिक, इस योजना के तहत ढाई लाख एकड़ से ज़्यादा अवैध कब्ज़े वाली ज़मीन को हस्तांतरित करने की योजना बनायी गयी। ज़मीन को बाज़ार कीमत की महज़ 20 फीसदी दर पर कब्ज़ेदारों को सौंपने का नियम बना। कुल मिलाकर इसकी कीमत 25,000 करोड़ रुपये बनती थी। आरोप है कि फारूक सरकार के बाद जो सरकारें सत्ता में आयीं, उन्होंने भी इस योजना के तहत लाभ लिये। दिलचस्प यह भी है कि 2016 में भाजपा ने पीडीपी के साथ जम्मू-कश्मीर की सत्ता में साझेदारी की। बाद में सरकार टूट गयी। इसके बाद जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व वाली राज्य प्रशासनिक परिषद् (एसएसी) ने 2018 में रोशनी एक्ट रद्द कर दिया। कहा गया कि इस योजना में जो आवेदन या प्रक्रियाएँअभी अधूरी हैं, उन सबको निरस्त माना जाए। बाद में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में मामला पहुँचा, जिसने रोशनी योजना को गैर-कानूनी, अन्यायपूर्ण, असंवैधानिक और असंगत करार दे दिया। हाई कोर्ट के आदेश के बाद रोशनी के तहत तमाम प्रक्रियाएँ और आवंटन गैर-कानूनी हो गये।

हाई कोर्ट के फैसले के बाद जहाँ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गये, वहीं हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति गीता मित्तल और राजेश बिंदल की पीठ ने इस मामले में सीबीआई जाँच के आदेश दिये। पीठ ने अपने आदेश में हर आठ हफ्ते में मामले की जाँच की स्टेटस रिपोर्ट देने को भी कहा। अब राज्य के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने कहा है कि सभी लोगों से ज़मीन वापस ली जाएगी। इस मामले की शुरुआती जाँच सीबीआई ने इसी 4 दिसंबर को आरम्भ की। प्रथम चरण में जम्मू तहसील के क्षेत्र में 784 कनाल 17 मारला ज़मीन की जाँच शुरू की गयी है। यह ज़मीन जम्मू विकास प्राधिकरण (जेडीए) को हस्तांतरित की गयी थी।

सरकारी मकानों पर भी कब्ज़े

रोशनी ज़मीन घोटाले से इतर जम्मू-कश्मीर में सरकारी आवासों में अवैध रूप से रहने का मामला भी सामने आया है। इसे लेकर अदालत में एक जनहित याचिका दायर की गयी है। यह मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में चल रहा है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की खण्डपीठ ने केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन को पूर्व मंत्रियों, पूर्व विधायकों, निर्वासितों और अन्य सहित सरकारी आवासों के अनधिकृत रहने वालों का पूरा विवरण प्रदान करने का निर्देश दिया। अदालत ने सरकार को ऐसे अवैध रूप से कब्ज़े वाले घरों में किये गये किराये, बिजली और नवीनीकरण के ब्यौरे को प्रस्तुत करने का भी आदेश दिया। अदालत ने 22 दिसंबर को मामले को सूचीबद्ध किया। अभी तक जो सूची प्रशासन ने अदालत में सौंपी है उसमें जम्मू-कश्मीर के भाजपा अध्यक्ष रविंद्र रैना और पूर्व उप मुख्यमंत्री कविंदर गुप्ता सहित कई राजनीतिक व्यक्तियों के नाम हैं। 2 सितंबर, 2020 तक की गयी सूची में भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के कई पूर्व मंत्रियों और विधायकों के नाम शामिल हैं, जो सरकारी आवासों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर रहे थे; जो उन्हें उनकी आधिकारिक क्षमता में आवंटित किये गये थे। इसे लेकर जनहित याचिका प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने दायर की है। राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों के सरकारी आवास पर अवैध रूप से कब्ज़ा करने के मामले में यह जनहित याचिका दायर की गयी थी। यद्यपि जम्मू-कश्मीर सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास प्रदान करने वाले नियमों को समाप्त कर दिया है, लेकिन सम्पत्ति विभाग की प्रस्तुत सूची में उल्लेख किया गया है कि पूर्व मुख्यमंत्री जी.एम. शाह के परिवार का जम्मू के पॉश गाँधी नगर इलाके में एक बंगले पर कब्ज़ा है। इनमें से कई नेताओं को आवंटन का आधार सुरक्षा-कारण बताया गया है।

क्या है मामला

इस मामले की शुरुआत मार्च, 2014 में तब हुई, जब कैग ने उस समय की जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की। यह रिपोर्ट रोशनी कानून से जुड़ी थी। इसमें सन् 2007 से सन् 2013 के बीच कब्ज़े वाली ज़मीनों के हस्तांतरण में अनियमितता का आरोप था। कैग ने कहा कि नेताओं और नौकरशाहों को फायदा पहुँचाने के लिए मनमाने तरीके से कीमत में कटौती की गयी। कैग ने यह भी कहा कि बिजली क्षेत्र में निवेश हेतु संसाधन जुटाने का उद्देश्य धरा रह गया। इसमें लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का था; जबकि महज़ 76 करोड़ रुपये ही जुटे। वैसे इससे भी पहले सेवानिवृत्त प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने एडवोकेट शेख शकील के ज़रिये 2011 में इस मसले पर जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी; जिसमें उन्होंने सरकारी और वन भूमि में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लगाये थे।

यह करीब-करीब 20.55 लाख कनाल (102,750 हेक्टेयर) ज़मीन का मामला थी; जिस पर लोग बसे थे। इसमें से 16.02 लाख कनाल भूमि जम्मू क्षेत्र, जबकि 4.44 कनाल भूमि कश्मीर क्षेत्र में पड़ती थी। वैसे इसमें से महज़ 15.85 फीसदी (6.04 लाख कनाल) ज़मीन ही मालिकाना हक के लिए मंज़ूर की गयी थी, जिसमें से 5.71 लाख कनाल जम्मू और 33,392 कनाल भूमि कश्मीर में थी। इसके बाद अचानक लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाने के लक्ष्य को समेटकर 317.55 करोड़ कर दिया गया; जिसमें से ज़मीन देने के बाद सरकार के पल्ले 76.46 करोड़ रुपये आये। मौज़ूद ब्यौरे के मुताबिक, 76.46 करोड़ रुपये में से 54.05 करोड़ रुपये कश्मीर क्षेत्र से, जबकि जम्मू क्षेत्र से 22.40 करोड़ रुपये ही जुटे। हालाँकि कश्मीर से 123.49 करोड़ रुपये, जबकि जम्मू क्षेत्र से 194.06 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य था। कैग ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया कि नियमों को ताक पर रखते हुए करीब 340,091 कनाल को कृषि भूमि घोषित कर एक भी पैसा लिए बिना हस्तांतरित कर दिया गया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, कश्मीर क्षेत्र में ज़्यादातर ज़मीन व्यापारिक घरानों को और रिहायशी उद्देश्य से दी गयी। कैग रिपोर्ट में यह एक बहुत दिलचस्प बात कही कि रोशनी कानून के तहत 348,160 कनाल के हस्तांतरण के बाद भी ज़मीनों पर कब्ज़े के लिए और मामले आते रहे; क्योंकि नवंबर 2006 में 2,064,972 कनाल की तुलना में मार्च 2013 में 2,046,436 कनाल पर अतिक्रमण था। सरकार ने कैग की रिपोर्ट पर कहा कि इस मामले की छानबीन करके कार्रवाई करेगी; लेकिन कुछ नहीं हुआ।  जम्मू-कश्मीर सरकार ने 23 नवंबर से जम्मू और कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स के लिए निहित स्वामित्व) अधिनियम के तहत लाभार्थियों के नामों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया। ज़ाहिर है जैसे ही नाम सार्वजनिक हुए तो बवाल मच गया। पहली सूची में चार नेशनल कॉन्फ्रेंस नेताओं, एक पूर्व पीडीपी नेता, दो कांग्रेस नेताओं और कश्मीर के पूर्व नौकरशाहों और व्यापारियों के नाम थे। जैसे ही सूची बाहर आयी, भाजपा ने इसे गुपकार घोषणा से जोड़कर कश्मीर के नेताओं को निशाने पर रख लिया। यह सूची डीडीसी चुनावों से ऐन पहले सार्वजनिक हुई; लिहाज़ा विपक्ष ने इस पर सवाल उठाते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताना शुरू कर दिया।

विभिन्न रिपोट्र्स के मुताबिक, इस साल फरवरी तक करीब 30,500 लोगों को रोशनी एक्ट के तहत लाभ हुआ। अतिक्रमण करने वालों की सूची में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और उनके पूर्व मुख्यमंत्री बेटे उमर अब्दुल्ला के भी नाम शामिल हैं। हालाँकि दोनों ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है। इसके अलावा नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस के दफ्तरों को भी रोशनी कानून के तहत मिली ज़मीन पर बना बताया गया है। तीनों पार्टियाँ इन आरोपों को गलत बता चुकी हैं।

पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू और अन्य के नाम हैं। हालाँकि द्राबू भी इसे गलत बता चुके हैं। उनके अलावा कांग्रेस के राज्य कोषाध्यक्ष के.के. अमला और उनके परिवार के तीन सदस्यों, पूर्व मंत्रियों सज्जाद किचलू और हारून चौधरी सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस के चार नेताओं के नाम भी शामिल हैं। आरोप यह भी लग रहे हैं कि भाजपा नेताओं ने भी कथित तौर पर ज़मीन ली है, लेकिन उन्हें बचाने की कोशिश हो रही है और जानबूझकर उनके नाम सूची में सामने नहीं लाये गये हैं। अब सच क्या है? यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा।

न तो श्रीनगर और न जम्मू में बना मेरा घर रोशनी एक्ट के अधीन है। वे (भाजपाई) झूठा मामला बना रहे हैं। इन लोगों को हार का डर सता रहा है, इसलिए ये लोग ऐसी तरकीबें इस्तेमाल कर रहे हैं। वे हमें झुकाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो पायेगा। मुझ पर लगे सभी आरोप बे-बुनियाद हैं। इलाके में सिर्फ मेरा ही घर नहीं है, बल्कि सैकड़ों घर हैं। फारूक अब्दुल्ला

पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेकेएनसी नेता

जम्मू में पीडीपी का कार्यालय एक सरकारी इमारत में है, जिसका पीडीपी मासिक किराया चुकाती है। आपको (मीडिया) भाजपा के दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय के बारे में भी बताना चाहिए। यदि भाजपा ज़मीन हड़पने के मामले में गम्भीर है, तो उसे बड़ी मछलियों के पीछे जाना चाहिए; न कि उन गरीबों के पास, जिनके पास 5 मरले की ज़मीन भी नहीं है।महबूबा मुफ्ती

पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी नेता

हवन – एक प्राचीन, लेकिन अभिनव औषधि वितरण प्रणाली

मानवता को सर्वोपरि हित मानते हुए प्राचीनकाल के सनातन ऋषियों ने बड़े पैमाने पर आजमायी हुई अमूल्य खोजों को सलीके से विकसित किया और उन्हें समाज को दिया, जिनमें मानव जाति के लिए अत्यधिक भविष्यवादी लाभकारी प्रौद्योगिकियों को गहराई से सन्निहित किया गया था। हालाँकि सम्भवत: ये अपने अस्तित्व से जुड़े बेहद कीमती अनुष्ठानों और विधाओं के रूप में थे; फिर भी प्रत्येक और हर निर्धारित अनुष्ठान में उनके साथ अत्यधिक उन्नत लाभार्थी पद्धति जुड़ी थी। हवन एक पवित्र सनातन धर्म अनुष्ठान है, जिसमें अग्नि को आहुति दी जाती है। जैसा कि हम आज जानते हैं इसे किसी भी प्रमुख पूजा का मुख्य हिस्सा बनाया गया था। स्पष्ट रूप से हवन करने की पवित्रता के पीछे गूढ़ उद्देश्य वास्तव में पर्यावरण की शुद्धि ही नहीं था, बल्कि इसके साथ एक उन्नत औषधि वितरण प्रणाली भी काम कर रही थी, जो नासिका मार्ग के माध्यम से जीवन रक्षक दवाओं को संचालित करने के लिए एक नवीन औषधि वितरण प्रणाली के रूप में कार्य करती है।

अग्नि, जिसे ब्रह्माण्डीय चेतना और मानव चेतना के बीच मुख्य कड़ी में से एक माना जाता है। और इस तरह सभी अस्तित्त्व के पाँच प्रमुख घटकों में प्रमुख है, जिसमें एक हवन या होम का मुख्य तत्त्व शामिल है। किसी विशेष हवन के दौरान पवित्र अग्नि को चढ़ायी गयी आहुति पर्यावरण और साथ ही आसपास के लोगों को शुद्ध करने वाली मानी जाती है। किसी भी तरह का हवन सामान्य रूप से आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। इसे 10 नेयमा / पवित्र नियमों या सकारात्मक गुणों में से एक के रूप में देखा जाता है, जो एक भक्त के लिए निर्धारित होते हैं; जो दिव्य के करीब आने की इच्छा रखता है, जो उसके साथ एकता हासिल करना चाहता है। हवन भी देव यज्ञ करने का एक तरीका है, जिसमें सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यक्ति के पाँच दैनिक कर्तव्य शामिल हैं।

क्षेत्र के आधार पर विभिन्न सनातन धर्म अनुष्ठानों के सभी सौम्य रूपांतरों की तरह, स्थानीय मान्यताओं और रीति-रिवाजों, विशिष्ट उद्देश्यों की आवश्यकताएँ जैसे कि विशेष देवताओं को अग्नि भेंट, आकाशीय ग्रह, वांछित वस्तुएँ प्राप्त करना आदि पवित्र हवन के प्रदर्शन से जुड़ी सभी प्रक्रियाएँ उपयुक्त हैं। हवन कुण्ड (रिसेप्टेकल्स) के रूप में भिन्नताएँ, आग जलाने के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ी, जड़ी-बूटियों और अन्य सामग्री जो आहुति / जलने के लिए उपयोग की जाती हैं। ये सभी विविधताएँ एक बहुत ही दिलचस्प अध्ययन प्रस्तुत करती हैं और वास्तव में हाल के दिनों में, आयुष मंत्रालय, नई दिल्ली, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ में राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड द्वारा किये गये अध्ययनों की एक बड़ी संख्या से वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हुए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का रसायन विज्ञान विभाग, नोएडा में महर्षि वेद विज्ञान विश्व विद्यापीठम्, बाबा फरीद स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय, फरीदकोट, व्यावसायिक और पर्यावरण चिकित्सा केंद्र दिल्ली के लोक नारायण जय प्रकाश अस्पताल में दिल्ली विश्वविद्यालय में वल्लभभाई पटेल छाती संस्थान आदि द्वारा किये गये अध्ययन इसे ज़ाहिर करते हैं।

शारीरिक रोगों के उन्मूलन में लगे उपचार की सभी प्रचलित प्रणालियाँ अपनी-अपनी दवाओं को ज़्यादातर मौखिक मार्ग और आपात स्थितियों में इंजेक्शन मार्ग द्वारा संचालित करती हैं। मौखिक मार्ग वाली दवाओं के माध्यम से प्राप्त की गयी सभी दवाएँ केवल पाचन और प्रणाली में अवशोषित हो जाती हैं और मौखिक रूप से ली जाने वाली दवाओं में से कई का पाचन तंत्र द्वारा उपयोग भी नहीं किया जाता है और इस प्रकार यह अनिर्धारित रहती है। ऐसी सभी दवाएँ पाचन प्रक्रियाओं को प्रतिकूल रूप से परेशान कर सकती हैं और लम्बे समय तक गम्भीर दुष्प्रभाव भी डाल सकती हैं। वही कम या ज़्यादा सच है जब अंत:शिरा मार्ग के माध्यम से दवाओं को सीधे रक्त में इंजेक्ट किया जाता है। हालाँकि इंजेक्शन लगाने योग्य मार्ग के माध्यम से दवाओं के  त्वरित परिणाम प्राप्त होते हैं, फिर भी उनके प्रतिकूल दुष्प्रभाव अक्सर अधिक स्पष्ट होते हैं। औषधि प्रशासन प्रक्रियाओं में इस तरह की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए सबसे सुरक्षित और त्वरित औषधि वितरण प्रणाली में अनुसंधान ने वैज्ञानिकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचा दिया है कि औषधि का प्रशासन करने के लिए नाक का मार्ग सबसे अच्छा और हानि-विहीन है।

आधुनिक युग के अधिकांश संशयवादियों के लिए एक सुखद आश्चर्य के रूप में, जो यह मानने के लिए मानसिक रूप से क्रमादेशित हैं कि हमारी प्राचीन धरोहरें, शास्त्रों, रीति-रिवाज़ों, रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं के अनुसार, जो कुछ भी हैं, वह सबका सबब है और यह ज्ञान का केवल आधुनिक पश्चिमी रूप है। जो परम् है, यह जानना एक बौद्धिक जानकारी जैसा होना चाहिए कि हमारे सनातन ऋषियों को नाक मार्ग के माध्यम से औषधि पहुँचाने के गुणों के बारे में अच्छी तरह से पता था और इस तरह पूरी तरह से बिना आक्रामक तरीके से मानव पीड़ा को कम किया जा सकता है और वह भी बिना किसी अतिरिक्त खर्च के और बिना किसी यंत्र के। प्राचीनकाल से ही आयुर्वेदिक ग्रन्थों ने प्रतिपादित किया है कि ‘नासा हि शिरसो द्वारम्’ का अर्थ है नाक सबसे अच्छा मार्ग है; ज़ाहिर है विभिन्न रोगों की दवाओं के उपयोग के लिए।

विभिन्न मानसिक रोगों के उन्मूलन के लिए आवश्यक दवाओं के इष्टतम उपयोग के लिए, उन्हें वाष्पशील या नैनो-रूप में वितरित करना अनिवार्य है; ताकि श्लेष्म झिल्ली के रक्त मस्तिष्क बाधा को पार करके उपचारात्मक उद्देश्यों के लिए दवाओं की अपेक्षित एकाग्रता प्राप्त की जा सके। हालाँकि आधुनिक शोधकर्ता इस उद्देश्य के लिए नाक मार्ग का उपयोग करने के लिए अनुकूलन करने में लगे हुए हैं, फिर भी हमारा स्वयं का समाज हमारे आदरणीय ऋषियों की समृद्ध विरासत को भूल जाता है, जिन्होंने हमें शुभकामनाएँ के रूप में लाखों साल पहले दवा वितरण की यह विरासत दी। हवन को एक प्रक्रिया के रूप में निर्धारित किया गया है, हालाँकि एक धार्मिक विधि में, जिसमें विशेष जड़ी-बूटियों को कूटकर बनी हवन सामग्री को विशेष रूप निर्मित किये गये अग्निकुण्ड में प्रज्ज्वलित औषधीय लकड़ी की अग्नि में डाल दिया जाता है। उपलब्ध साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण विश्लेषण से पता चलता है कि हवन के कई घटकों में कई वाष्पशील तेल होते हैं, जो विशेष रूप से कार्रवाई के एक अभिनव तंत्र के माध्यम से विभिन्न मानसिक विपत्तियों की रोकथाम और उपचार के लिए उपयोगी होते हैं। आग के उच्च तापमान के तहत जड़ी-बूटियों से इन तेलों के वाष्प नाक मार्ग के माध्यम से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रवेश करते हैं। हवन को निर्धारित अंतराल पर करने से शरीर में उपचारात्मक घटकों की शक्ति बनी रहती है और चिन्ता, मिर्गी, मनोभ्रंश आदि जैसी कई मानसिक विपत्तियों को रोकने में मदद मिलती है।

विभिन्न आवश्यक तेलों, जैसे सुगन्धित तेल, नींबू और जम्भी फल (बर्गामोट) का उपयोग करके कई मानसिक विकारों के इलाज के लिए एक विकल्प के रूप में अरोमा थेरेपी के औषधीय उपयोग पर अनुसंधान लगातार प्रगति कर रहा है। अधिकांश अध्ययनों से पता चलता है कि इन आवश्यक तेलों के साँस लेना घ्राणप्रणाली को संकेत संप्रेषित कर सकते हैं और मस्तिष्क को न्यूरोट्रांसमीटर अर्थात् सेरोटोनिन और डोपामाइन को उत्तेजित करते हैं, जिससे आगे मूड को विनियमित किया जाता है। यद्यपि प्राचीन काल से ही आयुर्वेदिक ग्रन्थों में मानव जाति को प्रभावित करने वाले विभिन्न रोगों के उपचार में सुगंधित और औषधीय जड़ी बूटियों के उपयोग का उल्लेख किया गया है, फिर भी वर्तमान में संशयवादियों ने उनके उपयोग के पीछे तथाकथित सत्यापित विज्ञान की इच्छा के लिए उनके नुस्खे को चित्रित किया।

आग में तब्दील होने और एक साथ मंत्रों के जप के साथ, एकचक्र फिर से सक्रिय हो जाता है, जिससे मन और शरीर दोनों के लिए एक कायाकल्प और पुनरुद्धार प्रभाव पैदा होता है। व्यक्ति सकारात्मक विचारों, कार्यों और शब्दों को प्राप्त करता है, जो किसी की सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। हवन को सभी नकारात्मक ऊर्जाओं को दूर के लिए माना जाता है और विश्वास किया जाता है कि जिस घर में हवन किया जाता है, उसके चारों ओर एक सुरक्षा कवच बनाया जाता है।

इस प्रकार किसी भी नकारात्मक या बुरी ऊर्जा को दूर किया जाता है। हवन शान्ति, अच्छे स्वास्थ्य, समृद्धि और विचारों की स्पष्टता, विवेक की बढ़ती शक्ति और मानसिक क्षमताओं के बेहतर उपयोग के लिए प्रेरित करता है। नतीजतन, सफलता उन सभी की ओर आकर्षित होती है, जो इस अनुष्ठान को करते हैं। इष्टतम परिणामों के लिए हवन दैनिक रूप से किया जा सकता है। प्रत्येक परिवार में हवन को सप्ताह में एक बार कम-से-कम परिवार के सभी सदस्यों की उपस्थिति में किया जाना चाहिए। सुबह के शुरुआती घंटों को सभी धार्मिक गतिविधियों के लिए सबसे अनुकूल माना जाता है; क्योंकि उस समय हवा ऊर्जा या महत्त्वपूर्ण बल (प्राण) से चार्ज होती है।

हालाँकि यह अभ्यास ऐसे समय में भी किया जा सकता है, जो सभी के लिए सबसे उपयुक्त है। वेदों की बात करें, तो सामवेद में लगभग 114 मंत्र हवन के महत्त्व के बारे में ज़िक्र हैं। यजुर्वेद में हवन सबसे महत्त्वपूर्ण, आवश्यक और उपयोगी कर्म बताया गया है। वेदों का कहना है कि यज्ञ और गायत्री मंत्र मोक्ष या मोक्षया आत्म-प्राप्ति का एकमात्र तरीका है। चारों वेदों में यज्ञ से सम्बन्धित असंख्य मंत्र हैं। हवन के कई फायदे हैं- हमारे शरीर, मन, आत्मा से लेकर पर्यावरण तक यह न केवल हवा को शुद्ध करता है, बल्कि हमारे मन और शरीर से अशुद्धियों को भी दूर करता है। हवन अग्नि पर ध्यान केंद्रित करने और आवश्यक दिव्य मंत्रों का जाप करने से सभी परेशान और दु:खी विचारों को अग्नि में क्षय हो जाता है; जिसके परिणामस्वरूप शान्ति, मन और आत्मा की समानता होती है। इस प्रकार परिवार और समुदाय में एकता को बनाये रखने मदद मिलती है। आमतौर पर हवन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले हवन कुण्ड (रिसेप्टेकल) का विकल्प एक और दिलचस्प पहलू है जो विभिन्न अनुष्ठानिक स्थितियों और वांछित परिणाम के तहत इसके उपयोग को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है। सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार, हवनकुण्ड की अनूठी आकृति नियंत्रित पीढ़ी और ऊर्जा के बहु-दिशात्मक विघटन को सुनिश्चित करती है, जो आयतों की पेशकश से उत्पन्न होती है। हवन आवश्यक और बहुत शक्तिशाली ऊर्जा क्षेत्रों के जनरेटर के रूप में कार्य करता है और उन्हें अपने आसपास के वातावरण में फैलाता है। अपने सरलतम रूप में कोई भी हवनकुण्ड या अग्नि कुण्ड ईंटों से बना होता है, जिसे आमतौर पर रंगीन फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है। आम तौर पर हवनकुण्ड आयताकार या चौकोर आकार का होता है, लेकिन यह त्रिभुजाकार, वृत्ताकार, अद्र्ध-वृत्ताकार, षट्कोणीय, अष्टकोणीय तारे के आकार का भी हो सकता है, जो कि निर्धारित अनुष्ठानों को करने के द्वारा प्राप्त किये जाने वाले विशेष परिणाम पर निर्भर करता है।

आम के पेड़ की सूखी लकड़ी का उपयोग आमतौर पर मुख्य दहनशील सामग्री के रूप में किया जाता है, जिसे लोकप्रिय रूप से ‘समिधा’ कहा जाता है। अन्य दहनशील सामग्री का उपयोग किया जाता है, जिसे हवन समग्री के रूप में जाना जाता है और  जिसके मुख्य तत्त्व लगभग 70 प्रकार के होते हैं। हवन समग्री की प्रमुख वस्तुएँ अगार की लकड़ी, आँवला, बाख, बहेडा, बावची, बे-पत्तियाँ, इलायची हरी, छारिल, लौंग, दारू-हल्दी, देवर, धवई ऊन, नारियल या सूखा नारियल, नीलगिरी की सूखी पत्तियाँ, गुग्गल, हरड़, हावबर, इंद्र जौ, जरा कुश, जटा मानसी या बालछड़, कमल गट्टा, कपूर कचहरी, नाग केशर, नागरमोथा, जायफल, लाल लकड़ी, संदल की लकड़ी, सुगंधा बाला, सुगंध कोकिला, सुगंध मन्त्री, तंदूर की लकड़ी, तालीश पत्र, तेज बल की लकड़ी, तोमद बीज आदि हैं। हालाँकि विभिन्न आवश्यक तेलों या इसी तरह के अन्य उपचारात्मक सामग्रियों से युक्त विशिष्ट जड़ी-बूटियों, पत्तियों, बीजों, फलों आदि को सावधानी से चुना जाता है और सामान्य समाग्री का हिस्सा बनाया जाता है और वांछित परिणामों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वाष्पशील या नैनो-रूप में ऐसी दहनशील दवाओं के औषधीय घटक इस तरह के बीमार व्यक्तियों को नाक मार्ग के माध्यम से लाभान्वित करने की आवश्यकता अनुसार दोहराते हैं।

यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रदूषित वातावरण मानव जाति के लिए वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। यह न केवल मानव जाति, बल्कि पूरे विश्व के अस्तित्त्व के लिए खतरा है। यद्यपि इस ग्रह के निवासी हाल के दिनों में पर्यावरण के बारे में वास्तव में चिन्तित हैं, जो कि वर्षों में तेज़ी से प्रदूषित हो गया है। फिर भी हमारे वैदिक युग के ऋषियों और महर्षियों ने प्रारम्भिक वैदिक युग से हमें पर्यावरण की शुद्धि प्रक्रिया की सलाह दी। एक हवन की प्रक्रिया। तार्किक रूप से, यदि बड़ी संख्या में लोग एक दिन में कम-से-कम दो बार हवन करते हैं, तो पर्यावरण को शुद्ध करने में इसका बड़ा प्रभाव हो सकता है। लेकिन हमने, हमारे गलत तरीके से परम्परावादियों के रूप में परिभाषित नहीं होने देने के लिए इसे अपने स्वयं के जोखिम के लिए अनदेखा कर दिया है।

यदि हम सभी सनातन धर्म के नियमों का पालन करने और अपने कार्यों का पालन करने का संकल्प करते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि थोड़े समय के भीतर, दुनिया में मौज़ूद रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। इस राष्ट्र के लाखों लोगों की बेहतरी के लिए संसाधनों ने हमारी प्राचीन विरासत की बहुमुखी प्रतिभा, विश्वसनीयता और गहराई को फिर से आँकने, फिर से जाँचने और फिर से स्थापित करने के लिए एक आन्दोलन को गति दी है, जो कम से कम पिछले एक हज़ार वर्षों से है। हमारे आदरणीय ऋषियों और महर्षियों द्वारा बताये गये विभिन्न विवरणों के हवन करने के पवित्र अनुष्ठानों को कम-से-कम अब संदेहवादी पश्चिमी भारतीयों द्वारा भी अपनाया जाता है।

2021 विधानसभा चुनाव पर नज़र – टीएमसी की महिला मतदाताओं को साधने की कवायद

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हालिया घोषणाओं को महिला मतदाताओं तक अधिक से पहुँच बनाने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो के नाते वह चाहती हैं कि पार्टी को महिलाएँ अधिक से अधिक वोट करें। मुख्यमंत्री कई अवसरों पर कह भी चुकी हैं कि तृणमूल कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार राज्य में पुलिस बल में भी लैंगिक अनुपात ठीक करेगी।

2021 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर टीएमसी का राजनीतिक मोर्चा-बंगो जननी पश्चिम बंगाल में ज़्यादा-से-ज़्यादा महिलाओं तक पहुँचने के लिए सामाजिक आन्दोलन के तौर पर सबसे आगे होगा। बता दें कि राज्य में कुल मतदाताओं में महिला मतदाताओं की संख्या 48 फीसदी से अधिक है। 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य के 6.98 करोड़ मतदाताओं में से, 3.39 करोड़ या लगभग 48 फीसदी मतदाता महिलाएँ थीं। इसका मतलब साफ है किसी भी प्रत्याशी को जीत के लिए महिला मतदाताओं को अपने पक्ष में करना होगा। टीएमसी में महिला उम्मीदवारों की संख्या भी सबसे ज़्यादा रही है।

2019 के आम चुनावों में बंगाल में टीएमसी के 41 फीसदी उम्मीदवार में महिला उम्मीदवार थे। 2011 में तृणमूल कांग्रेस के लिए चुनाव लडऩे वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या 31 फीसदी थी, जबकि 2016 में यह संख्या बढ़कर 45 फीसदी हो गयी थी। वास्तव में जब 2019 में तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव, पार्टी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता के लिए अपनी उम्मीदवार सूची जारी की, तब इस पर फोकस किया गया। बनर्जी ने कहा मुझे खुशी है कि अब महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जा रही है। यह हमारे लिए गर्व का पल है। हम महिला सशक्तिकरण पर ध्यान देना चाहते हैं। हमने अपने आप को न्यूनतम 33 फीसदी तक सीमित नहीं किया है, जो सरकार संसद में महिलाओं की संख्या के लिए निर्धारित करने की कोशिश ही कर रही है। मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो ने कहा है कि पार्टी की महिला कार्यकर्ता राज्य के 70,000 ऐसे बूथों पर जाएँगी, जहाँ पर विषम हालात हैं; साथ ही 20 टीमें पार्टी के विकास के ‌कराये कामों से लोगों को अवगत कराएँगी।

टीएमसी ने ‘दीदी के बोलो’ (दीदी को बताएँ) एक पहल शुरुआत की थी, ताकि लोग उसे अपनी चिन्ताओं और शिकायतों को बता सकें। बंगो जननी और राज्य महिला और बाल विकास मंत्री के महासचिव शशि पांजा ने कहा कि बंगो जननी जैसा एक राजनीतिक मंच बेहतर होगा; क्योंकि कई महिलाएँ एक राजनीतिक पार्टी में शामिल होने के लिए अनिच्छुक हो सकती हैं। लेकिन एक राजनीतिक मोर्चे के माध्यम से लडऩा पसन्द करेंगी।

सत्ता सँभालने के बाद से ही महिला सशक्तिकरण ममता बनर्जी सरकार के विकास के मुद्दों का एक मुख्य हिस्सा रहा है। यह उन दर्ज़नों कल्याणकारी योजनाओं के ज़रिये अपनाया गया है, जिनमें सरकार की कन्याश्री योजना भी शामिल है। इसका मकसद नकद प्रोत्साहन का उपयोग करके शिक्षा को बढ़ावा देना और बाल विवाह को रोकना है। वास्तव में पिछले आठ वर्षों में तृणमूल सरकार ने अपनी लोकलुभावन नीति निर्माण में महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से लक्षित किया है।

तृणमूल सरकार द्वारा शुरू की गयी, इस परियोजना ने 13से 18 उम्र के बीच की लड़कियों को नकद राशि प्रदान की जाती है; बशर्ते वे अविवाहित हों और पढ़ाई कर रही हों। इस प्रकार बाल विवाह को रोकने और लड़कियों को स्कूल छोडऩे से रोकने के लिए एक मौद्रिक प्रोत्साहन दिया गया। कन्याश्री योजना ने एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र लोक सेवा पुरस्कार जीता है।

2018 में पश्चिम बंगाल सरकार ने रूपश्री नाम से महिला मतदाताओं को लक्षित एक और बड़े पैमाने पर लोकलुभावन नकद हस्तांतरण योजना शुरू की। इसके माध्यम से आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों की महिलाओं के लिए विवाह सहायता का प्रस्ताव दिया। कन्याश्री की तरह रूपश्री योजना में 18 वर्ष से अधिक आयु की महिला की शादी पर नकदी प्रदान की जाती है।

टीएमसी वर्षों से महिला मतदाताओं को उचित महत्त्व दे रही है। लेकिन सत्तारूढ़ दल के पास अब इनको लुभाने के लिए और ज़्यादा ध्यान देने की समय आ गया है; क्योंकि भारतीय जनता पार्टी महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए जी-तोड़ से लगी है। 2021 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के महिला वोटरों में सेंध लगाने के लिए भगवा पार्टी बूथ स्तर की संगठनात्मक गतिविधियों की व्यवस्था कर रही है; जिसे ममता बनर्जी का महत्त्वपूर्ण आधार माना जाता है। भाजपा का महिला मोर्चा (महिला विंग) हर बूथ और मंडल में पदयात्राएँ आयोजित करता रहा है और युवा मोर्चा कार्यकर्ता साइकिल रैली और प्रभात फेरी (सुबह की रैलियाँ) आयोजित कर रहे हैं।

पार्टी हाईकमान ने हर बूथ और मण्डल समिति में कम-से-कम चार महिलाओं को शामिल करने का भी सुझाव दिया है। पार्टी ने राज्य को पाँच संगठनात्मक क्षेत्रों में विभाजित किया था, ताकि पार्टी में अधिक महिलाओं को काम करने में शामिल किया जा सके। पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने नाटकीय ढंग से अपना पैठ बनायी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल की 42 संसदीय सीटों में से 18 सीटों में जीत हासिल कर इतिहास बनाया। ज़मीन पर इसके प्रयास करके इसे हासिल किया; क्योंकि 2014 के आम चुनाव में उसे सिर्फ दो सीटें ही मिली थीं। टीएमसी को जहाँ 2014 में 34 सीटें मिलीं, वहीं 2019 में 22 से ही संतोष करना पड़ा। राज्य में भाजपा का वोट शेयर (आम चुनाव में) 2019 के आम चुनाव में 40.6 फीसदी हो गया। भगवा पार्टी का यह वोट शेयर टीएमसी के 43.6 फीसदी के करीब पहुँच गया।

देश के सियासी दल महिलाओं के समर्थन के लिए भरपूर मेहनत कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि अब चुनावों में महिलाएँ रिकॉर्ड मतदान कर रही हैं। इससे अब वो परम्परा टूट रही है, जिसमें यह कहा जाता था कि परिवार का मुखिया जो कहेगा वही होगा; यानी पितृसत्ता से मुक्ति मिल रही है। यही वजह है कि देश के मुख्य राजनीतिक दलों ने महिलाओं का समर्थन पाने के लिए वादों की लम्बी पेशकश की है, जिसमें यह भी गारंटी है कि संसद और राज्य विधानसभाओं के निचले सदन में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएँगी। अगर 2014 के मुकाबले 2019 में लोकसभा चुनाव के चार चरणों में कुल मिलाकर हुए मतदान को देखें, तो इससे यह और स्पष्ट हो जाता है। चुनाव आयोग द्वारा जारी किये गये चरण-वार आँकड़ों के अनुसार, कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिला मतदाताओं ने मतदान करने में पुरुषों को पछाड़ दिया है। अरुणाचल प्रदेश में पिछले चुनाव की तुलना में कुल चुनावी मतदान 77.38 फीसदी में 52.05 फीसदी मतदान का हिस्सा महिलाओं का ही था। मणिपुर, छत्तीसगढ़, मिजोरम, ओडिशा, लक्षद्वीप, आंध्र प्रदेश और उत्तराखण्ड में भी पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं ने मतदान किया।

महिला मतदाताओं के महत्त्व को सन् 1960 के बाद से देखा जा सकता है। 1960 के दशक में प्रत्येक 1,000 पुरुष मतदाताओं की तुलना में 715 महिला मतदाता थीं। 2000 के दशक में हर 1000 पुरुष मतदाताओं की तुलना में  883 महिला वोटर हो गयीं। सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं ने बिहार और ओडिशा के साथ कई राज्यों में पुरुष मतदाताओं को पछाड़ दिया। 1962 और 2018 के बीच पुरुषों के मतदान के विपरीत महिला मतदाताओं की संख्या में 27 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि इस दौरान पुरुष वोटरों में महज 7 फीसदी की वृद्धि हुई। हाल ही के वर्षों में महिला मतदाताओं के हिस्सा लेने में बहुत अधिक वृद्धि हुई है और महिलाओं के मुद्दे अब चुनाव अभियानों में प्रमुखता से दिखते हैं। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में लैंगिक समानता के मामले में मूलभूत धुरी के रूप में उभरा है। दरअसल महिला मतदाताओं को एक रुचि समूह या निर्वाचन क्षेत्र के रूप में अलग से लक्षित करना लोकतंत्र में एक नयी घटना है, जहाँ वोट माँगने के लिए अभी तक जाति, धर्म, क्षेत्र और जातीयता सियासी दलों के लिए अहम कारक रहे हैं।

कोटे पर न केरोसिन मिलता है और न चीनी!

उत्तर प्रदेश के राशनकार्ड धारकों, मुख्य तौर पर ग्रामीणों को अब केरोसिन (मिट्टी का तेल) और चीनी कोटों के माध्यम से नहीं मिलते। प्रदेश सरकार ने इनका वितरण लगभग बन्द कर रखा है। ग्रामीण जीवन केरोसिन के बिना अधूरा है। लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जब सरकार ने गैस सिलेंडर दे दिये और बिजली कनेक्शन हैं ही, तो फिर केरोसिन देने का क्या मतलब? वहीं कोटों के माध्यम से राशनकार्ड धारकों को चीनी न मिलने के बारे में पूछने पर अधिकारी चुप्पी साध लेते हैं।

एक कोटा धारक ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि पहले लोगों के लिए सरकार से केरोसिन, चीनी और गेहूँ-चावल सभी कुछ आता था। लेकिन अब चीनी और केरोसिन आना बन्द हो गया है। केरोसिन बहुत कम मिलता है, जो कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए होता है। कोटा धारक ने बताया कि हमसे आज भी लोग पूछते हैं कि केरोसिन क्यों नहीं मिलता? हम इसका क्या जवाब दें, जब सरकार ने ही देना बन्द कर दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि केरोसिन तेल डिपो पर खूब होता है, पर उसकी कालाबाज़ारी की जाती है। कोटा धारक ने बताया कि ग्रामीण जनता को आज भी केरोसिन की बहुत ज़रूरत होती है। ऐसे में जिन लोगों को केरोसिन चाहिए होता है, वो दुकानदारों से खरीदते हैं। यह पूछने पर कि दुकानदार केरोसिन बेचते हैं? कोटा धारक ने कहा- ‘उसे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन सुनते हैं कि ज़रूरतमंद लोग दुकानों से खरीदते हैं।’ कोटा धारक से यह पूछने पर कि दुकानों पर केरोसिन बेचने की छूट है? दुकानदारों को केरोसिन मिलता कहाँ से है? उन्होंने कहा कि पता नहीं।

क्या कहते हैं ग्रामीण

इस बारे में कुछ ग्रामीणों से बात करने पर इस मामले की और भी परतें निकलकर सामने आयीं। ग्राम ठिरिया के भद्रसेन का कहना है कि उन्हें तकरीबन तीन साल से ज़्यादा समय से केरोसिन नहीं मिल रहा है; जबकि उन्हें हर महीने कम से कम दो-तीन लीटर केरोसिन की ज़रूरत होती है। क्योंकि वह सुबह-सुबह 10 किलोमीटर दूर ड्यूटी पर जाते हैं, ऐसे में सुबह-सुबह उनकी पत्नी को खाना बनाना पड़ता है, जिसके लिए कभी-कभी गैस न होने पर या ईंधन के अभाव में केरोसिन वाले स्टोव का सहारा होता है। लेकिन केरोसिन न मिलने के चलते उन्हें दिक्कत होती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले अंगनलाल ने बताया कि उन्हें भी केरोसिन नहीं मिल पाता, जबकि उनके घर में बिजली कनेक्शन इसलिए नहीं है कि उसका बिल बहुत आता है और वह ईंट भट्ठे पर काम करके इतनी महँगी बिजली नहीं ले सकते। उन्होंने बताया कि उन्हें कभी-कभार एकाध लीटर केरोसिन मिल जाता है, जो पाँच-सात दिन में लालटेन में खत्म हो जाता है। इसके बाद इधर-उधर से जुगाड़ करके तेल या कभी मजबूरी में डीज़ल लेना पड़ता है; जो काफी महँगा पड़ता है। कोटे से चीनी मिलने के बारे में पूछने पर अंगनलाल ने बताया कि चीनी हम गरीबों को कहाँ नसीब होती है, हम तो गुड़ की चाय पी लेते हैं। चीनी 35-40 रुपये किलो मिलती है और गुड़ इतने में डेढ़-दो किलो आ जाता है।

एक दूसरे गाँव ग्वारी गौंटिया के सचिन गंगवार ने बताया कि केरोसिन देखे हुए वर्षों बीत गये और अब तो चीनी भी कोटे से नहीं मिलती। इस बारे में बुज़ुर्ग ग्रामीण लालता प्रसाद ने कहा कि देखिए, जैसा कि आप देख रहे हैं, गाँवों में आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है। गाँवों में बिजली पहुँच तो गयी है, लेकिन न तो सभी लोगों के घरों में अभी तक कनेक्शन हैं और न ही बिजली 24 घंटे रहती है। गाँवों में बिजली हफ्ते के हिसाब से आती है। एक हफ्ता रात को और एक हफ्ता दिन को। यह कहने पर कि उत्तर प्रदेश में तो 16 घंटे बिजली रहती है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘सब जुमलेबाज़ी है। बेकार की बात है। जो लोग यह दावा करते हैं, वो गाँव में आकर 10 दिन रहकर देखें। पता चल जाएगा।’ कोटे से चीनी मिलने की बात पर लालता प्रसाद भड़ककर कहते हैं- ‘चीनी! आप चीनी की बात करते हैं, यहाँ गेहूँ-चावल पर मारा-मारी मची रहती है।’ जब उनसे यह पूछा गया कि गेहूँ-चावल तो मिलता है, उसमें क्या दिक्कत है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘आप यह बताइए कि जिनके खेती-बाड़ी है, उन्हें तो एक बार को राशन की दिक्कत उतनी नहीं होती। वैसे जिनकी खेती कम है या जो सब्ज़ियां उगाते हैं या गन्ना आदि करते हैं, उन्हें तो राशन खरीदकर ही खाना पड़ता है। लेकिन दूसरी तरफ, जो मज़दूर हैं या जो लोग छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, उन्हें तो सब कुछ खरीदना ही पड़ता है। राशन के कोटे से एक यूनिट पर केवल पाँच किलो गेहूँ-चावल मिलते हैं। आप बताइए कि एक व्यक्ति का महीने भर का खर्चा क्या पाँच किलो ही होता है। वह पूछते हैं कि है कोई नेता, जो महीने भर में केवल पाँच किलो अनाज से गुज़ारा कर ले? यह छोटी-सी बात काहे समझ नहीं आती, इन अधिकारियों और मंत्रियों को कि एक आदमी को कम राशन ही सही, लेकिन जितना चाहिए, उतना तो दें!’

एक विधवा उर्मिला ने बताया कि भैया! यहाँ तो राशन भी कब मिलेगा, कब नहीं, कुछ पता नहीं होता। कभी 5 तारीख को राशन मिलता है, तो कभी 8-10 तारीख को। उनसे पूछा गया कि कितना राशन मिलता है, तो उन्होंने बताया कि एक आदमी पर पाँच किलो मिलता है। उसमें भी कोटे वाला भाँय-भाँय करता है। जल्दी-जल्दी तोलकर भगा देता है। अगर उसकी सही तोल की जाए, तो दो-चार सौ ग्राम कम ही निकलेगा। कोटे वाले से बोलो, तो कहता है कि बोरी में कितना कम आता है, पता है? उर्मिला का कहना है कि हमारे घर में चार लोग हैं, हमें महीने भर में आठ किलो चावल और 12 किलो गेहूँ मिलते हैं। घर में महीने में 30-35 किलो का खर्च है। बाकी हम खरीदकर खाते हैं। अभी लॉकडाउन में ज़रूर महीने में दो बार राशन मिला है, बाकी दिन तो वैसे ही हैं। केरोसिन के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि केरोसिन की छोड़ो, अब तो चीनी भी नहीं मिलती।

राशन के दो भाव!

अंगनलाल ने बताया कि उन्हें तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलता है। इन्हीं के गाँव के ओमवीर ने बताया कि उन्हें भी तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलते हैं। वहीं जालिम नगला गाँव में राशन के बारे में लोगों से पता करने पर उन्होंने बताया कि उनके यहाँ भाव तो नहीं मालूम, लेकिन दोनों चीज़े इकट्ठे में तीन रुपये किलो पड़ती हैं। इस गाँव के रहने वाले देवेंद्र कुमार ने बताया कि उनके घर में पाँच यूनिट हैं, उन्हें हर महीने 10 किलो चावल और 20 किलो गेहूँ मिलते हैं; जिसके लिए उन्हें हर महीने 90 रुपये कोटे वाले को देने पड़ते हैं। देवेंद्र ने बताया कि अगर कोटे वाले से भाव पूछो, तो बोलता है, बहुत सस्ता है; बाहर से खरीदो, तो पता चलेगा। सरकार का एहसान मानो कि इतने सस्ते में गेहूँ-चावल मिल रहे हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि वो उन्हें ही मिलते हैं, जो गरीबी में आते हैं, हमें नहीं मिलते। यहीं के गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले रामपाल ने बताया कि हमें कोई कुछ अलग से थोड़े ही मिलता है; जो सबको मिलता है, वही मिलता है। उनसे जब पूछा गया कि आपको किस भाव राशन मिलता है, तो उन्होंने कहा कि राशन तो मुफ्त मिलता है। एक कोटे धारक से बात करने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों को सरकार मुफ्त में राशन देती है, सो हम भी मुफ्त में बाँटते हैं। बाकी लोगों को जो भाव ऊपर से तय है, उस भाव में बाँट देते हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को केरोसिन भी दिया जाता है। चीनी अब आती नहीं, तो दें कहाँ से। यहाँ के कोटे धारक ने यह भी बताया कि जबसे कोरोना फैला है, तबसे महीने में दो बार राशन बँटा है; एक बार मुफ्त में और एक बार पैसे से। इस हिसाब से एक आदमी को महीने में 10 किलो राशन मिल जाता है, जो कि उसके लिए काफी है। इस पर वहाँ खड़े एक व्यक्ति ने कहा कि गाँव में आदमी मेहनत करता है, 10 किलो राशन से उसका पेट नहीं भरता साहिब! आप सरकारी भाषा मत बोलो। हम कोई अफसर नहीं कि दिन भर कुर्सी पर बैठे रहें और दो रोटी खाने भर से काम चल जाए। इस पर वहाँ लोगों में बहस शुरू हो गयी।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है

भारत सरकार की काफी पुरानी योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) है, जो कि एक तरह की भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है। भारत सरकार द्वारा इस योजना को वर्षों पहले लागू किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य देश में भुखमरी से निपटना था। इसके पीछे की सरकार की मंशा थी कि देश में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। इसके अंतर्गत राशन वितरण करने के लिए हर परिवार में एक राशनकार्ड बना और उसमें परिवार के सदस्यों की संख्या उनके नाम सहित दर्ज की गयी। इस तरह इस राशन कार्ड से प्रति व्यक्ति अर्थात् प्रति यूनिट सरकार से लाइसेंस प्राप्त राशन की दुकानों, जिन्हें गाँवों में कोटा कहते हैं; के माध्यम से गेहूँ, चावल, चीनी, केरोसिन आदि वितरित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रक्रिया को घोटालों का घुन लगने लगा और लोगों तक पूरी मात्रा में उनके हिस्से की वस्तुएँ न मिलने में शिकायतें आने लगीं। आज भी यह प्रक्रिया जारी है। हालाँकि अब लोग थोड़े जागरूक हैं, तो हो सकता है कि इसमें बड़े पैमाने पर सेंध न लगती हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा न होने की कोई गारंटी भी नहीं ले सकता। वही अब अधिकतर लोगों को केवल गेहूँ और चावल ही मिलते हैं। केरोसिन और चीनी कोटों से लापता हो चले हैं।

थानों और अपराध शाखाओं में सीसीटीवी लगाने के निर्देश

इस कदम के पीछे की सोच यह है कि जब भी किसी पुलिस स्टेशन या एक जाँच एजेंसी में गम्भीर चोट या हिरासत में मौत की कोई घटना होती है और कोई भी व्यक्ति मानवाधिकार के तहत न्यायालयों में इसकी शिकायत करता है, तो आयोग ऐसी स्थिति में सीसीटीवी फुटेज तलब कर सकता है और उसे सुरक्षित रखने को कह सकता है। इस तरह के फुटेज पीडि़तों को मानवाधिकार के उल्लंघन की स्थिति में उपलब्ध कराये जाएँगे।

न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने निर्देश दिया है कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों (केंद्र शासित प्रदेशों) को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक पुलिस स्टेशन पर सीसीटीवी कैमरे लगाये जाएँ, जिससे सभी प्रवेश और निकास बिन्दु, मुख्य द्वार, सभी लॉक-अप, गलियारे, लॉबी और रिसेप्शन क्षेत्र, लॉकअप रूम के बाहर के क्षेत्रों कवर हों। शीर्ष अदालत ने 2018 में मानवाधिकार हनन की जाँच के लिए पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था।

अदालत ने कहा कि सीसीटीवी सिस्टम को नाइट विजन से लैस किया जाना चाहिए और इसमें ऑडियो के साथ-साथ वीडियो फुटेज भी होना चाहिए। यह केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य होगा कि वे ऐसी प्रणालियों की खरीद करें, जो अधिकतम अवधि- कम-से-कम एक साल तक के लिए डेटा को सुरक्षित रख सकें।

बेंच, जिसमें जस्टिस के.एम. जोसेफ और अनिरुद्ध बोस भी शामिल थे; ने कहा कि इसके अलावा भारत सरकार को भी केंद्रीय जाँच ब्यूरो, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी, प्रवर्तन निदेशालय, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, राजस्व खुफिया विभाग, गम्भीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफआईओ), अन्य कोई एजेंसी जो पूछताछ करती है और गिफ्तारी की शक्ति रखती है; के दफ्तरों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने के लिए निर्देशित किया जाता है। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि इनमें से अधिकांश एजेंसियाँ अपने कार्यालय (कार्यालयों) में पूछताछ करती हैं। सीसीटीवी उन सभी दफ्तरों में अनिवार्य रूप से स्थापित किये जाएँ, जहाँ आरोपियों से पूछताछ की जाती है और उन्हें पकड़कर रखा जाता है; वैसे ही जैसा एक पुलिस स्टेशन में होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस साल सितंबर में उसने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को मामले में सीसीटीवी कैमरों की सही स्थिति का पता लगाने के लिए और साथ ही 3 अप्रैल, 2018 के अनुसार, ओवरसाइट समितियों के गठन का पता लगाने के लिए कहा था। शीर्ष अदालत ने हिरासत में उत्पीडऩ से जुड़े एक मामले को निपटाते हुए इस साल जुलाई में 2017 के एक मामले का संज्ञान लिया था, जिसमें अदालत ने  सभी पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था; ताकि मानवाधिकारों के हनन की जाँच की जा सके, अपराध स्थल की वीडियोग्राफी की जा सके और साथ ही प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश में इस तरह का एक केंद्रीय प्रवासी समिति या इस तरह का एक पैनल गठित करने को कहा था। अपने 12 पृष्ठ के आदेश में पीठ ने कहा कि 24 नवंबर तक 14 राज्यों ने अनुपालन हलफनामे और कार्रवाई की रिपोर्ट पेश की थी और उनमें से अधिकांश प्रत्येक पुलिस स्टेशन और अन्य जगह सीसीटीवी कैमरों की सही स्थिति का खुलासा करने में विफल रहे हैं। इसमें कहा गया है कि राज्य स्तरीय निरीक्षण समिति (एसएलओसी) में गृह विभाग के सचिव या अतिरिक्त सचिव, वित्त विभाग के सचिव या अतिरिक्त सचिव,  महानिदेशक या पुलिस महानिरीक्षक के अलावा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष या सदस्य शामिल होने चाहिए।

इसमें कहा गया है कि ज़िला स्तरीय निरीक्षण समिति (डीएलओसी) में सम्भागीय आयुक्त या क्षेत्रीय आयुक्त या ज़िले के राजस्व आयुक्त, ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक और ज़िले के भीतर एक नगर पालिका के महापौर या ग्रामीण क्षेत्रों में ज़िला पंचायत के प्रमुख शामिल होने चाहिए।  पीठ ने एसएलओसी के कर्तव्यों को भी निर्दिष्ट किया, जिसमें सीसीटीवी और उपकरणों की खरीद, वितरण और स्थापना और उसके लिए पैसे के आवंटन का इंतज़ाम करना शामिल था। इसमें कहा गया है कि डीएलओसी का किसी भी मानव अधिकार उल्लंघन, जो हुआ तो है, लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं की गयी है; को लेकर स्टेशन हाउस अधिकारियों (एसएचओ) के साथ बातचीत करने और विभिन्न पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी से संग्रहीत फुटेज की समीक्षा करने का ज़िम्मा होगा। इसने कहा कि इसके लिए राज्यों और संघ शासित प्रदेशों द्वारा जल्द-से-जल्द पर्याप्त धन आवंटित किया जाना चाहिए।

आदेश में कहा गया है कि सीसीटीवी के काम, रखरखाव और रिकॉर्डिंग के लिए कर्तव्य और ज़िम्मेदारी सम्बन्धित थाने के एसएचओ की होगी। जिन क्षेत्रों में बिजली या इंटरनेट नहीं है, वहाँ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का यह कर्तव्य होगा कि वे सौर या पवनचक्की या अन्य स्रोतों से बिजली प्रदान करने के किसी भी तरीके का उपयोग शीघ्रता से करें। पीठ ने कहा- ‘जब भी पुलिस थानों में बल का प्रयोग होने की सूचना मिलती है, जिसके परिणामस्वरूप गम्भीर चोट या हिरासत में मौत की घटना होती है, तो यह आवश्यक है कि व्यक्ति इसकी शिकायत और समाधान करने के लिए स्वतंत्र हो।’

पीठ ने आदेश में कहा है कि एसएलओसी और केंद्रीय निरीक्षण निकाय सभी पुलिस स्टेशनों और एजेंसियों को प्रवेश द्वार पर और पुलिस स्टेशनों, सीसीटीवी द्वारा सम्बन्धित परिसर के कवरेज के बारे में जाँच एजेंसियों के कार्यालयों को प्रमुखता से प्रदर्शित करने के लिए निर्देश देंगे और यह अंग्रेजी, हिन्दी और स्थानीय भाषा में बड़े पोस्टरों द्वारा प्रदर्शित किया जाएगा। यह आगे उल्लेख करेगा कि सीसीटीवी फुटेज एक निश्चित न्यूनतम समय अवधि, जो छ: महीने से कम नहीं होगी; के लिए संरक्षित है और पीडि़त को अपने मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में समान सुरक्षित रखने का अधिकार है।

आदेश में कहा गया है कि अधिकारी आदेश को पूरी तरह और यथाशीघ्र लागू करेंगे। पीठ ने इस मामले, जिसकी अगली सुनवाई 27 जनवरी के लिए निर्धारित की है; में कहा है कि प्रत्येक राज्य और संघ राज्य क्षेत्र के प्रमुख सचिव या मंत्रिमंडलीय सचिव या गृह सचिव छ: सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करें, जिसमें आदेश के अनुपालन के लिए सटीक समयरेखा के साथ एक दृढ़ कार्य योजना की जानकारी हो।

शीर्ष अदालत, जिसने पहले मानवाधिकारों के हनन की जाँच के लिए पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था; ने कहा है कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, राजस्व खुफिया विभाग और गम्भीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय सहित अधिकांश जाँच एजेंसियों के सभी कार्यालयों में सीसीटीवी अनिवार्य रूप से स्थापित किये जाने चाहिए।

जाँच एजेंसियों में सीसीटीवी कैमरे लगने से उन लोगों को सुरक्षा ज़रूर मिलेगी, जो बिना कारण या गलत तरीके से उन अधिकारियों या कर्मियों के गुस्से का शिकार हो जाते हैं, जिनकी हिरासत में कोई व्यक्ति होता है।

सुविधाहीन बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर ने माँगी ट्रेनों में भीख

हमने-आपने बहुत-से लोगों को अपने और अपनों के लिए भीख माँगते देखा है। आजकल हमें यू ट्यूब, ट्वीटर, फेसबुक के ज़रिये कई ऐसे मददगार देखने को मिलते हैं, जो कि काफी प्रेरणादायक होते हैं। जैसे एक वीडियो में देखा गया कि कोई फुटपाथ से एक अंजान गंदे, गरीब, बूढ़े को उठाकर अपनी कार में बिठाकर ले जाता है और उसे नहलाकर, बाल कटवाकर, नये कपड़े पहनाकर, बदसूरत से खूबसूरत बनाकर, खाना खिलाकर छोड़ देते हैं। लेकिन एक पढ़ा-लिखा इंसान, वह भी प्रोफेसर अगर ट्रेनों में भीख माँगे, वह भी दूसरों के लिए, तो यह ज़रूर अचम्भित करने वाली बात है।

हम बात कर रहे हैं संदीप देसाई नामक एक मरीन इंजीनियर की। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने मरीन से की और बाद में एस.पी. जैन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च में प्रोफेसर के रूप में काम किया। लेकिन गरीब और वंचित समुदाय के बच्चों की ज़िन्दगी बदलने के उद्देश्य से नौकरी छोड़ ही दी।

नौकरी के समय उन्हें प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में अक्सर गाँव देहातों में जाना पड़ता था, जहाँ का नज़ारा देखकर उन्हें बड़ा दु:ख होता था कि  गाँव के बच्चों की शिक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध नहीं है, जिससे ज़्यादातर बच्चे अनपढ़ ही रहकर अपनी पूरी ज़िन्दगी खेतों में काम करके या मज़दूरी करके काट देते हैं। संदीप इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने सन् 2001 में श्लोक पब्लिक फाउंडेशन नाम से एक ट्रस्ट की नींव रखी। इस ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करना है।

उन्होंने मुम्बई के झुग्गी एरिया में बच्चों की दुर्दशा देखकर सन् 2005 में गोरेगाँव ईस्ट में एक स्कूल खोला, जहाँ आस-पास की झुग्गियों से बच्चे पढऩे आने लगे। कुछ ही समय में इस स्कूल में बच्चों की संख्या 700 तक पहुँच गयी और कक्षा 8 तक पढ़ाई होने लगी। हालाँकि वर्ष 2009 में उन्होंने स्कूल बन्द कर दिया, जब सरकार ने आरटीई एक्ट (6 से 14 साल तक के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) पारित कर प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित कर दीं। उसके बाद के कुछ साल उन्होंने और उनकी संस्था ने अनेक गरीब बच्चों का करीब 4 प्राइवेट स्कूलों में आरटीई एक्ट के तहत दाखिला कराया और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को इस नियम से अवगत भी कराया। बहुत-से स्कूल इसमें आनाकानी करते थे, लेकिन सरकारी कानून का हवाला देने और दाखिला न करने पर स्कूल पर 10 हज़ार प्रतिदिन का ज़ुर्माने की याद दिलाने पर स्कूल प्रबन्धन बच्चों को दाखिला दे देता था।

संदीप ने देखा कि बहुत लोगों को इस नियम की जानकारी नहीं थी। तब उनके मन में एक इंग्लिश स्कूल खोलने का विचार आया, जिसके लिए उन्होंने सूखे की मार झेल चुके और अनेक किसानों की आत्महत्या के गवाह बने महाराष्ट्र के यवतमाल को चुना। यहाँ बच्चों को मुफ्त यूनिफॉर्म, किताबें दी जाने लगीं। अब पिछले साल से बच्चों को खाना भी देना शुरू किया गया है।

संदीप के लिए यह सब आसान नहीं रहा। सबसे बड़ी चुनौती धन की थी। इसके लिए उन्होंने करीब 250 कॉर्पोरेट्स को खत लिखा; लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली। किसी ने पूरे स्कूल को प्रायोजित करने की बजाय सिर्फ वार्षिक समारोह में मदद की बात कही, तो किसी ने अपना खुद का कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) का हवाला देकर मदद से इन्कार कर दिया। लेकिन संदीप जी ने हिम्मत नहीं हारी और सितंबर, 2010 में मुम्बई की लोकल ट्रेनों में जाकर आम यात्रियों से अपने इस नेक काम के लिए मदद माँगनी शुरू कर दी।

एक शाम संदीप अपने सह ट्रस्टी प्रोफेसर नूर उल इस्लाम के साथ गोरेगाँव स्टेशन पहुँचे। दोनों ट्रेन में चढ़ गये। नुर उल इस्लाम ने कहा कि वह दूर खड़े रहेंगे। आप जाकर लोगों से मदद माँगे। संदीप के पास एक बैग था और उसमें प्लास्टिक का डिब्बा था, जिसमें उनकी संस्था का नाम लिखा था। लेकिन चार स्टेशन निकल जाने के बाद भी संकोचवश वह डिब्बा नहीं निकाल पाये। जब ट्रेन सांताक्रूज स्टेशन पहुँची, तब उनके मित्र उनके पास आये और बोले या तो डिब्बा निकालकर लोगों से सहायता माँगो या फिर अगले स्टेशन पर हम उतरेंगे और फिर कभी भी इस तरह का भीख माँगने का विचार मन में नहीं लाएँगे। तब पहली बार संदीप ने अपने बैग से डिब्बा निकालकर लोगों से स्कूल खोलने के लिए ‘विद्या धनम्, श्रेष्ठम् धनम्’ बोलते हुए रेल यात्रियों से मदद माँगी। शुरू में तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन समय बीतने के साथ लोग उनकी मदद को खुद-ब-खुद आगे आने लगे।

संदीप द्वारा इस तरह पैसा इकट्ठा करने की चर्चा अब अखबारों में और टीवी पर भी होने लगी है। अभी तक जो कॉर्पोरेट इनको मदद देने से इन्कार कर रहे थे, अब वो भी इनके साथ जुडऩे लगे और 2016 तक इनकी संस्था को 40 लाख रुपये का कॉर्पोरेट डोनेशन (दान) प्राप्त हुआ। इसके साथ ही सिने अभिनेता सलमान खान ने भी इनको मदद की पेशकश की है।

यह संदीप देसाई की गरीब बच्चों के लिए कुछ करने की लगन ही थी कि वह अपने मकसद में बहुत हद तक कामयाब हुए और समाज के लिए प्रेरणा के सबब बने।

हमारे इस देश में अनगिनत लोग संदीप देसाई की तरह सामाजिक  बदलाव में लगे होंगे, जो पुण्यात्मा ही हैं, जिन्हें कुदरत ने लोगों की सेवा के लिए ही जन्म दिया होता है।

हर शुक्रवार को प्रदर्शित होने वाली फिल्मों में से कई फिल्मों पर दावा किया जाता है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर 100, 200, 300 करोड़ की कमायी की। अगर ऐसे फिल्मी लोगों ने इकट्ठा आकर संदीप देसाई जैसी शिख्सयतों की समाज सेवा की सोच से उनके हाथ में अपना हाथ दिया, तो कितने ही मासूम बच्चे, जो आज भी शिक्षा के वंचित हैं; देश का भविष्य बन सकते हैं।

महाराष्ट्र सरकार का एक साल, थोड़ी खुशी, थोड़ा गम जैसा हाल

देखते ही देखते महाविकास आघाड़ी की सरकार के कार्यकाल का एक साल पूरा हो गया और उसने महाराष्ट्र में गठन की पहली सालगिरह मनायी। शरद पवार के मार्गदर्शन में मुख्यमंत्री उद्धव बालासाहेब ठाकरे सिर्फ 5 वर्ष नहीं, बल्कि पूरे 25 वर्ष सरकार चलाने का दावा कर रहे हैं। गत एक वर्ष में बतौर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने लबालब आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया वही अन्य मंत्री एक सीमित दायरे तक ही सिमट गये। एक तरह से महाराष्ट्र सरकार का हाल थोड़ी खुशी, थोड़ा गम की तरह है।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में भाजपा और शिवसेना का ज़ोर था, वहीं विपक्ष में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस पार्टी और अन्य जमकर लड़े थे। अपेक्षानुसार भाजपा और शिवसेना को अच्छी-खासी सफलता मिली और सरकार बनना तय माना जा रहा था। इस अभियान में मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद हुआ और इसे समय पर रोकने में भाजपा नेतृत्व कम पड़ा। इसका लाभ उठाकर शरद पवार ने पहले शिवसेना को विश्वास में लिया और बाद में कांग्रेस को भी मनाकर महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी का गठन किया। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया गया। आज एक वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् सरकार गिरने वाली है, जैसी खबरें चलाने वाले के मुँह पर कड़ा तमाचा है। भाजपा भी सरकार गिरने का इंतज़ार में थी। पर उसका भी मोहभंग हो चुका है। एक वर्ष का कार्यकाल की समीक्षा करना आसान नहीं है। वैसे आघाड़ी में मुख्यमंत्री के तौर पर उद्धव ठाकरे की प्रतिभा पूरे देश में लोकप्रियता के शिखर पर है और उनकी हर तार्किक बात से जनता भी गम्भीरता से लेती है। लेकिन टीम का कप्तान ठीकठाक हो, तो इतने मात्र से मैच जीतना आसान नहीं होता, जब तक अन्य सदस्य अपना उचित और लाभदायक योगदान न दें। दो-चार मंत्रियों को छोड़ा जाए, तो उनका हर मंत्री, पार्टी का एजेंडा हो या सरकारी निर्णय; इनमें पिछड़ गया है। लॉकडाउन में स्वास्थ्य मंत्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। राजेश टोपे राष्ट्रवादी से आते हैं। इन्होंने पहले कुछ दिन उत्साह दिखाया। लॉकडाउन में गृह विभाग भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। गृह मंत्री अनिल देशमुख फोन पर भी बात करने से कतराते थे। इसी तरह अजित पवार, अशोक चव्हाण, बालासाहेब थोरात, वर्षा गायकवाड़, दादा भिसे जैसे मंत्री भी कुछ खास नहीं कर पाये। ग्रामविकास मंत्री जयंत पाटील, सामाजिक मंत्री धनंजय मुंडे, पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे, वैद्यकीय शिक्षा मंत्री अमित देशमुख, अल्पसंख्यक मंत्री नवाब मलिक, वस्त्रोद्योग मंत्री असलम शेख इनका विभाग सक्रिय दिखायी दिया। कुछ मंत्री सोशल मीडिया पर ही सक्रिय दिखे, जिसका लाभ आम लोगों को नहीं मिल पाया।

वैसे मंत्री और विधायक आम बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उनसे कुछ नहीं हो पाया और दूसरे ही पल कोरोना को ज़िम्मेदार मानकर खुद की असफलता को छिपाते हैं। कोरोना के चलते विकास का काम ठप हुआ। जिन्होंने काम भी किया, उनका बिल अटका हुआ है। कोरोना पर कुल कितनी रकम खर्च की गयी है? इसके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये जा रहे हैं। पारदर्शिता और जबाबदेही से सरकार भाग रही है; जबकि विभाग स्तर पर उसे आँकड़े सार्वजनिक करने चाहिए।

महाविकास आघाड़ी सरकार का रिमोट शरद पवार के हाथ में है, यह चर्चा मुख्यमंत्री ठाकरे और सरकार को प्रभावित करती है। एक बार निर्णय लेने के बाद जब उसे बदला जाता है, तब सरकार की किरकिरी होना स्वाभाविक है। इससे यह भी संकेत मिलते हैं कि तीनों पार्टियों में तालमेल नहीं है। पहली सालगिरह के मौके पर जारी विज्ञापन यथार्थ से दूर थे और सिर्फ प्रचार तक सीमित रहे।

झारखण्ड की शान, लेकिन परेशान

देश में न जानें ऐसी कितनी प्रतिभाएँ हैं, जो खेल के मैदान में तो जीत दर्ज करती हैं; लेकिन सिस्टम उन्हें हरा देता है। झारखण्ड में ऐसे एक-दो नहीं, कई मामले हैं। राज्य की शान बढ़ाने वाले ये खिलाड़ी आज परेशान हैं और अपनी जान हथेली पर लेकर जुनून के साथ मैदान में डटे हैं। उन्हें सरकारी मदद का इंतज़ार है। इनको अगर मदद नहीं मिली, तो राष्ट्रीय फलक पर चमकने वाले ये सितारे गुमनामी और गरीबी में दबकर रह जाएँगे। हालाँकि सरकार का दावा है कि खिलाडिय़ों की मदद और बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मदद की रफ्तार इतनी धीमी है कि खिलाडिय़ों का हौसला डगमगाने लगा है। खिलाडिय़ों के बेहतर भविष्य के लिए सरकार को विशेष ध्यान देने और प्राथमिकता पर योजना को तेज़ गति से बढ़ाने की ज़रूरत है।

राज्य ने दिये कई बड़े खिलाड़ी

झारखण्ड की खेल की दुनिया में एक अलग पहचान है। यह पहचान राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम रौशन करने वाले कुछ खिलाडिय़ों ने बनायी है। इनमें क्रिकेट के पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी, हॉकी में सुमराय टेटे, अंसुता लकड़ा, ओलंपियन निक्की प्रधान, तीरंदाज़ ओलंपियन दीपिका कुमारी, मधुमिता कुमारी और कोमोलिका कुमारी का नाम देखने को मिलता है। इन खिलाडिय़ों ने पूरी दुनिया में परचम लहराया। राज्य में इन विश्वस्तरीय खिलाडिय़ों की तरह कई ऐसी खेल प्रतिभाएँ हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। इनमें से कई राष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँचे हैं। भविष्य में ये देश और राज्य के चमकते सितारे बन सकते हैं; लेकिन गरीबी और मदद नहीं मिलने के कारण ये प्रतिभाएँ दबी पड़ी हैं।

दूसरे काम करने को मजबूर

कराटे के राष्ट्रीय पदक विजेता 26 वर्षीय बिमला मुंडा हडिय़ा (दारू) बेचकर गुज़र-बसर करती थीं। बिमला मुंडा 2011 में 34वें राष्ट्रीय खेलों में रजत पदक विजेता थीं। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार द्वारा 2012 में आयोजित कूडो इंटरनेशनल चैंपियनशिप में भी स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। हालाँकि अब उन्हें सरकार ने कुछ मदद दी है। धनबाद की तीरंदाज़ सोनी खातून कई पदक जीतने के बाद मजबूरी में सब्ज़ी बेच रहीं थीं। लम्बे प्रयास के बाद उन्हें पिछले दिनों सरकारी मदद से लैबोरेटरी में नौकरी मिली है। बोकारो के करमाटांड के रहने वाले गनी अंसारी राज्यस्तर पर वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप 10 स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। मजबूरी में उन्हें खेती करनी पड़ रही है। धनबाद की तीरंदाज़ नाज़िया प्रवीण को हालात ने हाथ से धनुष छुड़ा दिया। वह जूता पॉलिश कर रही हैं। जबकि नाज़िया राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक जीत चुकी हैं। इसी तरह तीरंदाज़ आशीष सोरेन, डेनिस सोरेन, साइक्लिस्ट स्वर्ण सिंह, फुटबॉलर ममता, एथलीट रितिक आनंद, हैडबॉल खिलाड़ी शबनम परवीन जैसे दर्ज़नों खिलाड़ी ऐसे हैं, जो राज्य व राष्ट्रीय स्तर अपना जलवा दिखा चुके हैं। इन्होंने कई मैडल भी जीते हैं; लेकिन गरीबी के कारण इनका भविष्य संकट में है। इनमें आगे बढऩे की तमन्ना है, पर खेल के मैदान में प्रतिभा दिखाने की जगह कोई खेतों में, तो कोई दुकान पर काम कर रहा है। प्रैक्टिस (अभ्यास) के लिए इनके पास सामान नहीं है।

उभरते खिलाडिय़ों की स्थिति भी दयनीय

भारत में होने वाले अंडर-17 वल्र्ड कप महिला फुटबॉल टीम में झारखण्ड की आठ खिलाडिय़ों का चयन हुआ है। इनमें गुमला की सुधा अंकिता तिर्की, सुमति कुमारी, अस्तम उरांव, सालीना कुमारी व अमीषा बाखला, सिमडेगा की पूर्णिमा कुमारी और रांची की नीतू लिंडा व सुनीता मुंडा शामिल हैं।

इन सभी खिलाडिय़ों की पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं है। इन्हें बेहतर प्रशिक्षण और उचित खुराक के लिए सरकार की मदद की ज़रूरत है। कैंप में तो इन्हें सही खुराक मिल भी जाती है, लेकिन छुट्टी में ये खाने को मोहताज हो जाती हैं। अभ्यास पर असर पड़ता है। परिवार की चक्की में पिसती हैं। उन्हें थोड़ी मदद की ज़रूरत है, जिससे वह विश्व फलक पर चमक सकें।

लम्बे प्रयास के बाद, थोड़ी मदद

राज्य की खेल प्रतिभाओं की समस्या को लेकर बीच-बीच में खेल संघ व मीडिया में बातें उठती रही हैं। मामला उठता है, तो फिलवक्त के लिए थोड़ी सरकारी मदद मिल जाती है। पर यह मदद ऊँट के मुँह में जीरा साबित होती है। जिस तरह पिछले दिनों तीरंदाज़ सोनी खातून को 6000 रुपये की निजी अस्पताल में नौकरी दिलायी गयी; हैडबॉल खिलाड़ी शबनम परवीन को अनाज दिया गया; फुटबॉलर पंकज बास्की को 15 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद दी गयी; और इसी तरह थोड़ी-बहुत सहायता कुछ अन्य खिलाडिय़ों को मिली; लेकिन इस तरह की मदद को संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता।

सरकार का दावा चल रही तैयारी

खेल विभाग के अधिकारियों का दावा है कि खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने की तैयारी चल रही है। खेल नीति-2020 बनायी गयी है। खेल को आकर्षक और व्यवहार्य करियर विकल्प बनाने की भी योजना है। खिलाडिय़ों का डाटाबेस तैयार कर अंतर्राष्ट्रीय क्षमता मानक के साथ सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाएँगी। राज्य के 260 खिलाडिय़ों को नकद पुरस्कार राशि और 256 खिलाडिय़ों को खेल छात्रवृत्ति दी गयी है। राज्य में 25 आवासीय क्रीड़ा प्रशिक्षण केंद्र और 89 डे-बोर्डिंग क्रीड़ा प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं। इन्हें और बेहतर बनाया जाएगा। अंडर-17 महिला फुटबॉल विश्वकप के लिए नेशनल कैंप का आयोजन झारखण्ड में किया गया। कैंप में बेहतर सुविधा दी जा रही है। राज्य में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए फुटबॉल फेडरेशन के साथ खेल विभाग जल्द ही एमओयू करेगी। खिलाडिय़ों की सीधी नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। इसके लिए अभी तक 33 खिलाडिय़ों का चयन हो चुका है।

सरकार की मदद से एक निजी अस्पताल में 6000 रुपये की नौकरी मिली है। इससे से किसी तरह से परिवार चल रहा है। मेरे पास धनुष नहीं है। प्रशासन ने कई महीने पहले धनुष दिलाने का वादा किया था, लेकिन अभी तक नहीं मिला है। इस वजह से मेरा अभ्यास भी नहीं हो रहा है। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि मैं खुद धनुष खरीद सकूँ।      सोनी खातून

तीरंदाज़

मैंने स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीता। राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में दो दर्ज़न से अधिक पदक जीते। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) में विशेष ट्रेनिंग शुरू हुई; लेकिन अभ्यास के दौरान जाँघ में चोट लग गयी, जिससे अभ्यास बाधित हो गया। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब है, जिसके चलते मुझे पिताजी के काम (दुकानदारी) में हाथ बँटाना पड़ रहा है। सरकार से कोई मदद नहीं मिली। निजी खर्च पर इलाज करा रहा हूँ।ऋतिक आनंद

एथलीट (लम्बी कूद)

मेरा चयन अंडर-17 वल्र्ड कप फुटबॉल के लिए हुआ है। कैंप में रहने पर अच्छा भोजन मिलता है; लेकिन छुट्टी के समय परेशानी होती है। अभी कैंप से छुट्टी मिली हुई है। अभ्यास भी बन्द है। मेरे पिता किसान हैं। मेरी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। बीच-बीच में थोड़ी आर्थिक मदद प्रशासन से मिल जाती है।

नीतू लिंडा

अंडर-17 वल्र्ड कप फुटबॉल

कैंप खिलाड़ी