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पीएम मोदी ने बाइडन को बधाई दी, हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग को लेकर साझा प्राथमिकताओं पर भी चर्चा

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बुधवार अमेरिका के नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन को फोन करके बधाई दी। इस बातचीत के दौरान मोदी ने कोविड-19, जलवायु परिवर्तन से लेकर विभिन्न द्विपक्षीय मसलों पर चर्चा की और दोनों देशों के बीच रणनीतिक द्विपक्षीय साझेदारी बनाए रखने के प्रति अपनी प्रतिबद्धता जताई। मोदी ने नवनिर्वाचित उप राष्ट्रपति भारतीय मूल की कमला हैरिस से फोन पर बात कर उन्हें बधाई दी।

ट्वीट के अलावा पीएमओ की तरफ से जारी एक ब्यान में कहा गया है कि दोनों नेताओं ने हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग को लेकर साझा प्राथमिकताओं और चुनौतियों पर भी चर्चा की। अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में बाइडन की जीत के बाद दोनों नेताओं के बीच यह पहली बातचीत है।

पीएमओ के बयान में कहा गया कि मोदी ने बाइडन को चुनाव में जीत की बधाई दी और इसे अमेरिका की लोकतांत्रिक परंपरा की मजबूती का द्योतक करार दिया। बयान में कहा गया कि प्रधानमंत्री मोदी ने 2014 और 2016 में अमेरिका की आधिकारिक यात्रा के दौरान बाइडन के साथ हुई मुलाकात को याद किया। बयान के मुताबिक 2016 में जब मोदी ने अमेरिकी कांग्रेस के संयुक्त अधिवेशन को संबोधित किया था तब उसकी अध्यक्षता बाइडन ने की थी।

बातचीत में दोनों नेताओं ने भारत-अमेरिका समग्र वैश्विक रणनीतिक साझेदारी को विस्तार देने का लिए मिलकर काम करने के प्रति सहमति जताई। दोनों नेताओं ने कोविड-19 की रोकथाम, किफायती टीके की उपलब्धता को बढ़ावा देने, जलवायु परिवर्तन और हिंद-प्रशांत क्षेत्र में सहयोग पर चर्चा की।

उधर अपने ट्वीट में मोदी ने कहा कि वार्ता के दौरान पीएम मोदी ने बाइडन को हिंद-प्रशांत क्षेत्र में दोनों देशों के बीच चल रहे आपसी सहयोग की भी याद दिलाई। बाइडन ने उन्हें अपनी तरफ से पूरा सहयोग किए जाने के प्रति भरोसा दिया।  बता दें कि अमेरिका में राष्ट्रपति पद के लिए हुए चुनाव में जो बिडेन की जीत के बाद दोनों नेताओं के बीच यह पहली बातचीत है।

मोदी ने उपराष्ट्रपति कमला हैरिस को भी फोन पर बात कर बधाई दी। पीएम मोदी ने इसकी जानकारी ट्वीट कर दी है। उन्होंने कहा – ‘उनकी सफलता भारतीय अमेरिकी समुदाय के लिए गर्व और प्रेरणा की बात है। यह समुदाय भारत-अमेरिका सबंधों की मजबूती का महत्वपूर्ण स्रोत है।’

मोदी का ट्वीट –
Narendra Modi
@narendramodi
Spoke to US President-elect @JoeBiden on phone to congratulate him. We reiterated our firm commitment to the Indo-US strategic partnership and discussed our shared priorities and concerns – Covid-19 pandemic, climate change, and cooperation in the Indo-Pacific Region.

भाजपा सांसद रीता बहुगुणा की पोती पटाखों से झुलसी, मौत

इलाहाबाद से भाजपा सांसद डॉ. रीता बहुगुणा जोशी की छह साल की पोती कियाना की सोमवार देर रात को मौत हो गई। बच्ची किया दिवाली की रात पटाखा जलाने के दौरान चिंगारी से बुरी तरह से झुलस गई थी। प्रयागराज के निजी अस्पताल में उसका इलाज चल रहा था। हालत और बिगड़ती देख उसे इलाज के लिए दिल्ली ले जाने की तैयारी थी, लेकिन उससे पहले ही बच्ची की मौत हो गई। रीता बहुगुणा के बेटे मयंक जोशी की बेटी थी। डॉक्‍टरों और परिवार के सदस्‍यों ने इस बारे में और कोई जानकारी शेयर करने से इनकार कर दियाा है। परिजनों ने मामले में निजता बनाए रखने का आग्रह किया है।

सांसद रीता बहुगुणा ने बच्ची को बचाने के लए रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से बात कर उसे दिल्ली ले जाने की तैयारी की थी। मंगलवार सुबह कियाना को एयर एंबुलेंस से दिल्ली के मिलिट्री हॉस्पिटल ले जाना था, लेकिन सोमवार रात 1.30 से 2 बजे के बीच ही बच्ची ने दम तोड़ दिया।

रोशनी के पर्व दिवाली पर कियाना मां के साथ प्रयागराज कैंट में अपने ननिहाल गई थी। शनिवार की शाम किया दूसरे बच्चों के साथ घर की छत पर खेल रही थी। इसी दौरान छोड़े जा रहे पटाखों से उसके कपड़ों में आग लग गई, जिससे वह गम्भीर रूप से करीब 60 फीसदी झुलस गई। मासूम हाल ही में अपनी मां और दादा-दादी के साथ कोरोना का इलाज कराने के बाद घर लौटी थी। मयंक जोशी की शादी 2007 में प्रयागराज कैंट के अशोक नगर में रहने वाली ऋचा जोशी से हुई थी। किया इकलौती संतान थी।

बता दें कि 71 वर्षीय रीता बहुगुणा जोशी ने वर्ष 2016 में कांग्रेस छोड़कर भाजपा की सदस्यता ग्रहण की थी। वे वर्ष 2007 से 2012 तक यूपी प्रदेश कांग्रेस की अध्‍यक्ष रह चुकी हैं। 2019 के लोकसभा चुनाव से उन्‍होंने यूपी की इलाहाबाद सीट से भाजपा उम्‍मीदवार के रूप में जीत हासिल की थी। रीता यूपी के पूर्व सीएम हेमवती नंदन बहुगुणा जोशी की बेटी हैं।

बिहार में मंत्रालयों का बटवारा, गृह विभाग नीतीश के ही पास रहेगा, प्रसाद को वित्त

बिहार में मंत्रिमंडल के सहयोगियों के बीच विभागों का बटवारा कर दिया गया है। मुख्यमंत्री नीतीश कुमार नई सरकार में गृह विभाग अपने पास ही रखेंगे जबकि उपमुख्यमंत्री तार किशोर प्रसाद वित्त मंत्री होंगे। प्रसाद पहली बार मंत्री बने हैं लिहाज यह उनके लिए काफी चुनौती वाला काम होगा।

अन्य मंत्रियों में मेवा लाल को शिक्षा मंत्रालय जबकि मंगल पांडेय को स्वास्थ्य मंत्रालय का जिम्मा सौंपा गया है। मंगल पांडेय को स्वास्थ्य मंत्रालय के साथ साथ सड़क और  परिवहन मंत्रालय का जिम्मा भी दिया गया है। अशोक चौधरी को भवन निर्माण और अल्पसंख्यक कल्याण मंत्रालय दिया गया है।

मेवालाल चौधरी शिक्षा मंत्री हिन्ज जबकि विजय कुमार चौधरी को ग्रामीण विकास और ग्रामीण कार्य मंत्रालय का जिम्मा मिला है। संतोष मांझी लघु और जल संसाधन मंत्री होंगे।

तारकिशोर प्रसाद को वो सभी महकमे दिए  तत्कालीन उप  देख रहे थे। इनमें वित्त, वाणिज्य और अन्य प्रमुख मंत्रालय शामिल हैं। शीला कुमारी को परिवहन विभाग मंत्रालय दिया गया है जबकि उप मुख्यमंत्री रेणु देवी महिला कल्याण विभाग का काम देखेंगी।

सरकार गठन के साथ ही काम शुरू कर रही सरकार की पहली कैबिनेट बैठक  मंगलवार को हुई, जिसमें 23 नवंबर से विधानमंडल का पहला सत्र बुलाने पर सहमति बनी। बैठक में जीतन राम मांझी को प्रोटेम स्‍पीकर बनाने पर भी सहमति बनी। अब आगे पहले सत्र में प्रोटेम स्‍पीकर नए सदस्‍यों को शपथ दिलाएंगे। फिर, स्‍पीकर का चुनाव होगा।

याद रहे कल शाम नीतीश कुमार ने सातवीं बार मुख्यमंत्री पद की शपथ लेकर सत्ता की बागडोर संभाली है। राजभवन में आयोजित शपथ ग्रहण समारोह में राज्यपाल फागू चौहान ने नीतीश कुमार के अलावा चौदह मंत्रियों को पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। नीतीश सरकार में विजेंद्र यादव, मंगल पांडेय को छोड़कर लगभग चेहरे सभी नए हैं। कहा जा रहा है कि विधायक नंद किशोर यादव विधानसभा के नए अध्यक्ष होंगे।

बिहार विधानसभा चुनाव परिणाम में एनडीए गठबंधन ने 125 सीटों पर बहुमत हासिल की है वहीं महागठबंधन को 110 सीटें मिलीं। आरजेडी 75 सीटों पर जीत दर्ज कर बिहार चुनाव में सबसे बड़ी पार्टी के रूप में उभरी है, कांग्रेस को 19 सीटें हासिल हुई हैं वहीं वाम दलों ने 16 सीटों पर झंडा गाड़ा है। एनडीए में भाजपा 74 सीटें जीतकर दूसरी बड़ी पार्टी बनी है और सहयोगी जेडीयू महज 43 सीटें हासिल कर तीसरे नंबर की पार्टी रह गई है। हम और वीआईपी पार्टी को चार-चार सीटें मिली हैं।

बिहार में हार पर कांग्रेस कोर कमेटी की आज बैठक, चर्चा की संभावना

वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल के हाल के चुनावी नतीजों में कांग्रेस के खराब प्रदर्शन पर आये बयान के बीच कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी की गठित विशेष कोर कमेटी की आज बैठक होने जा रही है जिसमें तमाम हालत पर चर्चा की जाएगी। कांग्रेस की अंतरिम अध्यक्ष सोनिया गांधी की अध्यक्षता में वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए यह बैठक शाम 5 बजे होगी।

बिहार के वरिष्ठ कांग्रेस नेता तारिक अनवर के बाद वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल ने भी हार को लेकर कुछ सख्त टिप्पणी की है। इसके बाद आज की बैठक में हार पर मंथन किया जा सकता है। यह देखना दिलचस्प होगा कि बैठक में नेताओं का सिब्बल के ब्यान पर क्या प्रतिक्रिया आती है। यूपी, जहाँ प्रियंका गांधी को प्रभारी बनाया गया है वहां भी उपचुनावों में कांग्रेस की हालत खराब रही है।

बिहार में बहुत उमीदों के बीच कांग्रेस को 70 लड़ी गयी सीटों में से महज 19 ही मिली हैं जबकि 2015 में उसने 27 सीटें जीती थीं। इस बार बिहार में भले कांग्रेस का वोट प्रतिशत पिछली बार के 6.5 से बढ़कर 9.5 फीसदी हो गया है और चुनाव में उसे 39 लाख से ज्यादा वोट मिले हैं, इसके बावजूद सीटों के मामले में उसका बिहार और दूसरे राज्यों के उपचुनावों में प्रदर्शन काफी खराब रहा है। देश के अलग-अलग राज्यों में 59 सीटों पर उपचुनाव हुए थे, जिसमें से भाजपा ने 40 सीटें जीत लीं जबकि कांग्रेस को ज्यादा नहीं मिली हैं।

आज की बैठक में देखना होगा कि पार्टी भविष्य के लिए क्या फैसला करती है क्योंकि कांग्रेस का संगठन राज्यों में लचर अवश्था में पहुँच गया है और वह अपने बूते चुनाव जीतने की हालत में नहीं रह गयी है जिससे आम कांग्रेस कार्यकर्ता चिंतित है। यह सब तब है जब मोदी सरकार अर्थव्यवस्था संभालने में विफल रही है और लॉक डाउन के दौरान करोड़ों लोगों की नौकरियां चली गयी हैं। मोदी सरकार के नए कृषि  कानूनों  के खिलाफ देश के किसानों में बेचैनी है और वे खुद को ठगा महसूस कर रहे हैं।

कांग्रेस कोर कमेटी की बैठक वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के जरिए शाम 5 बजे होगी जिसमें सोनिया गांधी भी होंगी। कपिल सिब्बल के बिहार चुनावों के बाद दिए सख्त बयान कि कांग्रेस नेतृत्व ने पराजय को ही अपनी नियती मान लिया है, से पार्टी के भीतर हलचल है। बहुत से नेता मानते हैं कि कांग्रेस नेतृत्व को नतीजों को गंभीरता से लेना होगा, नहीं आने वाले समय में पार्टी को रसातल में जाने से कोई नहीं रोक सकता।

आज की बैठक में कमेटी के सदस्य एके एंटनी, अहमद पटेल, केसी वेणुगोपाल और रणदीप सिंह सुरजेवाला और अन्य नेता शामिल हो सकते हैं। पटेल की वैसे तबियत ठीक नहीं है और पक्का नहीं है कि वो बैठक में शामिल होंगे या नहीं।

दिल्ली में जैश के 2 आतंकी पकड़े गए, हथियारों के अलावा नक्शा, पैसे बरामद

दिल्ली पुलिस ने सोमवार देर रात सराय काले खां इलाके से दो आतंकवादियों को गिरफ्तार किया है। उनके पास से एक नक्शा, हथियार और पैसे मिले हैं। दोनों आतंकी संगठन जैश-ए-मोहम्‍मद से जुड़े हैं और दिवाली पर हमला करने की फिराक में थे। बताया गया है कि दिल्ली में इन लोगों के निशाने पर 14 प्रमुख हस्तियां थीं।

जानकारी के मुताबिक दिल्‍ली पुलिस के अनुसार इन दोनों को सोमवार रात करीब सवा 10 बजे मिलेनियम पार्क से पकड़ा गया। पुलिस को जानकारी मिली थी कि दो संदिग्ध वहां मौजूद हैं। पुलिस ने उन्हें पकड़ने के लिए तैयारी की और उन्हें धार दबोचा। यह दोनों जम्‍मू और कश्‍मीर के रहने वाले बताये गए हैं और जैश-ए-मोहम्‍मद से जुड़े हैं।

पुलिस को उनके पास से एक नक्शा, दो सेमी-ऑटोमेटिक पिस्‍टल और 10 जिंदा कारतूस के अलावा पैसे भी मिले हैं। या आपरेशन डीसीपी (स्‍पेशल सेल) संजीव यादव की अगुवाई में किया गया। बता दें पहले से जानकारी थी कि त्योहारों पर दिल्ली में हमले की तैयारी आतंकी संगठन कर रहे हैं। दोनों पकड़े गए आतंकियों से खुफिया एजेंसियों और स्‍पेशल सेल की एक साझी टीम कड़ी पूछताछ कर रही है।

पकड़े गए आतंकियों में एक अब्‍दुल लतीफ (22) बारामूला जिले के डोरू गांव का जबकि दूसरा अशरफ खटाना कुपवाड़ा के हट मुल्‍ला गांव का रहने वाला है। बता दें

नवंबर की शुरुआत में दिल्ली-एनसीआर समेत देश के बड़े महानगरों में आतंकी हमले का खतरा जाहिर किया गया था। ख़ुफ़िया एजेंसियों ने अंतरराष्ट्रीय आतंकी घटनाओं को देखते हुए यह अलर्ट जारी किया था।

नतीजों के मायने

बिहार में एनडीए की सत्ता में वापसी ब्रांड मोदी की जीत है। नीतीश कुमार इस चुनाव में थके और एक पराजित नेता की तरह मैदान में थे; लेकिन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने मोर्चा सँभालते ही हवा का रुख बदल दिया। एक स्पष्ट हार की तरफ जा रहा एनडीए नतीजे आने के बाद जीत की पायदान पर खड़ा हो गया। निश्चित ही बिहार चुनाव और देश के अन्य प्रदेशों में उप चुनावों के नतीजे ज़ाहिर करते हैं कि देश में ब्रांड मोदी का अभी कोई विकल्प नहीं है। नतीजों के बाद मुख्यालय में मोदी ने भाजपा कार्यकर्ताओं को सम्बोधित करते हुए जिस तरह परिवार की राजनीति को देश के लिए खतरनाक बताया उससे साफ ज़ाहिर होता है कि मोदी का निशाना कांग्रेस पर था और उन्होंने उसकी पिच पर खड़े होकर उसे ललकार दिया। ये चुनाव नतीजे यह भी ज़ाहिर करते हैं कि मोदी अभी भी जनता की पहली पसन्द हैं और विपक्ष, खासकर कांग्रेस उसमें अपना भरोसा नहीं बना पायी है। हाल के लॉकडाउन में लोगों के लिए उभरी हज़ारों मुसीबतों के बावजूद यदि बिहार और दूसरे उप चुनावों में भाजपा ने जीत हासिल की, तो इसलिए कि जनता मोदी को अवसर देना चाहती है; क्योंकि उसके सामने विकल्प नहीं है। भले भाजपा को प्रदेशों में अभी सहयोगियों की ज़रूरत हो, देश भर में आत्मनिर्भर बनने की उसकी गति उसके लक्ष्य के प्रति प्रतिबद्धता को ज़ाहिर करती है। इन नतीजों ने विपक्ष, खासकर कांग्रेस को यह सबक दिया है कि उसे ब्रांड मोदी का मुकाबला करने के लिए अभी काफी मेहनत करनी है। इस चुनाव ने बिहार में तेजस्वी यादव को एक नेता के रूप में ज़रूर स्थापित कर दिया है। उन्होंने रोज़गार का नारा देकर जिस तरह चुनाव को नयी दिशा दी, उसी के चलते महागठबन्धन एक सम्मानजनक स्कोर तक पहुँच पाया। हालाँकि उन्होंने एनडीए की जीत को धोखे की जीत माना है। तेजस्वी का कहना है कि प्रधानमत्री नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार धन, बल, छल से इस 31 साल के नौजवान को रोकने में नाकाम रहे और राजद को सबसे बड़ी पार्टी बनने से नहीं रोक पाये। उन्होंने कहा कि जनादेश महागठबन्धन के लिए था। मुख्यमंत्री (नीतीश) चोर दरवाज़े से अन्दर आये हैं।

भाजपा को इस जीत की सख्त ज़रूरत थी। पिछले विधानभा चुनावों में उसे लगातार निराशा मिल रही थी। बिहार में भाजपा ने 74 सीटें जीतीं, जो उसकी 2015 में जीती 53 सीटों से 22 ज़्यादा हैं। भाजपा के साथ चुनाव में उतरी जदयू को 42 सीटें मिलीं, जो सन् 2015 में जीती 71 सीटों से 29 कम हैं। सीटों के इस जमा-जोड़ ने ही 12 घंटे के भीतर भाजपा को बड़ा भाई और जदयू को छोटा भाई बना दिया। शायद इसलिए चुनाव से अगले दिन भाजपा मुख्यालय में प्रधानमंत्री मोदी ने बिहार और अन्य राज्यों में जीत को पार्टी को लोकसभा चुनाव में मिली सफलता को 2019 के चुनाव में मिली जीत का विस्तार बताया। भाजपा भले नाकामियों के मुद्दों को जीत की चादर में छिपा लेना चाहती हो, लेकिन सच यह भी है कि इस चुनाव में 10 लाख नौकरी देने का वादा करने वाले तेजस्वी यादव की पार्टी राजद को भाजपा से भी ज़्यादा 75 सीटें मिलीं। यदि भाजपा का दावा सही होता कि लॉकडाउन में सब कुछ अच्छा हुआ, तो राजद को इतनी सीटें नहीं मिलतीं, जिसका मुख्य मुद्दा ही रोज़गार था।

यह साफ है कि इस चुनाव में बँटा हुआ राजनीतिक जनादेश आया है। यह चुनाव में दलों को मिले मत प्रतिशत से ज़ाहिर हो जाता है। जनता ने किसी भी दल को 25 फीसदी तक भी नहीं पहुँचने दिया। राजद को जनता ने सबसे ज़्यादा 23.1 फीसदी मत दिये। भाजपा को 19.46 फीसदी, नीतीश कुमार की पार्टी जदयू को 15.4 फीसदी, कांग्रेस को 9.5 फीसदी, लोजपा 5.66 फीसदी और एआईएमआईएम को 1.24 फीसदी। जबकि अन्य के खाते में 18.8 फीसदी वोट गये। इस बार नोटा का बटा भी खूब दबा। निश्चित ही इसे बहुत बँटा हुआ जनादेश कहा जाएगा।

भाजपा राजद से 3.64 फीसदी वोट कम मिले। ऐसे में साफ है कि उसे अपने विस्तार के लिए अभी इंतज़ार करना पड़ेगा। उसकी सहयोगी जदयू उससे बहुत पीछे नहीं है, जिसे उससे 4.06 फीसदी वोट ही कम मिले हैं। कांग्रेस को सीटें तो 19 ही मिलीं; लेकिन 70 सीटों पर लडऩे से उसे वोट 9.5 फीसदी मिल गये; जो कम नहीं कहे जा सकते। एआईएमआईएम ने 1.24 फीसदी वोट पाकर भी पाँच सीटें जीत लीं। भाजपा का स्ट्राइक रेट 66 फीसदी और जदयू का 43 फीसदी रहा।

चिराग की पार्टी ने 135 सीटों पर चुनाव लड़ा, जिनमें 133 प्रत्याशी उसने जदयू के खिलाफ उतारे। भाजपा के खिलाफ उसने सिर्फ 6 सीटों पर ही उम्मीदवार दिये। लोजपा ने बड़ी संख्या में अगड़ी जातियों यानी हर 10 में से 4 और गैर-यादव अन्य पिछड़ा वर्ग को टिकट दिये। उसने भाजपा और जदयू दोनों के वोट बैंक में सेंध लगायी; लेकिन उसके अकेले मैदान में उतरने से जदयू को कई सीटें गँवानी पड़ीं और यह भाजपा को फायदा देने वाली बात साबित हुई। नतीजे बताते हैं कि जिन सीटों पर राजद का मुकाबला जदयू से था, वहाँ उसने बेहतर प्रदर्शन किया। इसके विपरीत वह भाजपा प्रत्याशियों को कड़ी टक्कर नहीं दे पायी। नतीजों के विश्लेषण से यह भी ज़ाहिर होता है कि सूबे के हर चार में से एक मतदाता ने दो मुख्य गठबन्धनों के बजाय किसी और को वोट दिया। इसका कारण स्थानीय मुद्दे या जाति-धर्म रहा।

विपक्ष को सँभलना होगा 

केंद्र सरकार की योजनाएँ लक्षित हैं; यह विपक्ष को समझना होगा। गैस चूल्हे से लेकर शौचालय तक की योजना आम जनता को अपील करती हैं। अर्थ-व्यवस्था और इस तरह के पेचीदे मुद्दों से आम जनता को आप अपने पक्ष में नहीं कर सकते। किसानों को उनके खातों में सीधे 2000 रुपये मासिक अच्छे लगते हैं। ऐसे में जनता का रुख बदलना कांग्रेस या दूसरे विपक्षी दलों के लिए आसान नहीं है। उनके लिए सबसे बड़ी समस्या विश्वसनीय विकल्प का जनता को भरोसा देना है; जो वे नहीं दे पा रहे। फिर भी एक बात साफ है कि इस चुनाव में बिहार में एनडीए की जीत ब्रांड मोदी की जीत है और जदयू भी यदि 43 सीटों तक पहुँच पायी, तो इसमें भी मोदी का प्रभाव रहा। जब मोदी ने रोज़गार को मुद्दा बनते देखा, तो उन्होंने 15 साल पहले के जंगलराज की याद जनता को करवाकर हवा का रुख ही बदल दिया।

भाजपा बिहार में बड़े भाई की भूमिका में आना चाहती थी और आ गयी; चाहे जैसे भी आयी। सिर्फ 43 सीटों के साथ तीसरे नम्बर की पार्टी बनकर नीतीश कुमार मुख्यमंत्री होकर भी अब भाजपा के रहम-ओ-करम पर रहने वाले मुख्यमंत्री होंगे। समाजवादी राजनीति की पीढ़ी के कमोवेश अन्तिम मज़बूत स्तम्भ नीतीश के समाजवाद वाले विकास और भाजपा के आधुनिक विकास मॉडल में टकराव न हो, इसका नीतीश को किसी भी कीमत पर खयाल रखना होगा, और हो सकता है कि उन्हें अब बड़े भाई के सामने अपनी सोच की कहीं-कहीं बलि भी देनी पड़े। इसमें कोई शक नहीं कि भाजपा की नज़र बिहार में नीतीश के काडर और ज़मीन दोनों पर है। भाजपा पूरे राज्य में आत्मनिर्भर पार्टी बनना चाहती है। फिलहाल उसे सहयोगियों की देश के कई राज्यों में अभी ज़रूरत है। पिछले कुछ समय में शिवसेना और अकाली दल जैसे मज़बूत दल उससे छिटके हैं। भाजपा अगले लोकसभा चुनाव को लक्ष्य करके चल रही है, और यही उसकी सफलता का राज है।

बिहार के चुनाव में तेजस्वी यादव ने हार के बावजूद एक नेता के रूप में खुद को बिहार की राजनीति में स्थापित कर लिया है। उनकी पार्टी आरजेडी न सिर्फ सबसे बड़ा दल बनी रही है, बल्कि उन्होंने भी एक दिग्गज नेता और बेहतर चुनाव प्रबन्धक के रूप में परिपक्वता भी दिखायी है। इस चुनाव की सबसे बड़ी उपलब्धि असली मुद्दों का उभरना है। जाति-धर्म, हिन्दू-मुस्लिम से इतर यह चुनाव असली मुद्दों पर लड़ा गया है और देश के भविष्य के चुनावों का एजेंडा बदल गया है। यह अब देश के असली मुद्दे होंगे। कुल 243 सदस्यीय विधानसभा में एनडीए (गठबन्धन) को 125 और महागठबन्धन को 110 सीटें मिली हैं, जिससे यह ज़ाहिर होता है कि यह कितना कड़ा मुकाबला था।

भाजपा ने जब चुनाव प्रचार के दौरान ही एनडीए के पोस्टरों से नीतीश कुमार का चेहरा हटा दिया था, तभी यह सन्देश चला गया था कि भाजपा समझ गयी है कि उनकी नैया अब मोदी के सहारे ही पार लग सकती है। उसने इस बहाने यह भी ज़ाहिर कर दिया कि वह नीतीश को बड़ा नेता नहीं मानती और जताना चाहती है कि बिहार में एनडीए को नीतीश कुमार नहीं, सिर्फ नरेंद्र मोदी ही जिता सकते हैं; और ऐसा हुआ भी। इस चुनाव में चिराग पासवान के भूमिका पर भी कई सवाल उठे। यह भी कहा गया कि उन्हें भाजपा ने आगे किया है, ताकि नीतीश को कमज़ोर किया जा सके। लेकिन चुनाव के बाद प्रधानमंत्री मोदी ने साफ कर दिया कि नीतीश ही बिहार के मुख्यमंत्री होंगे।

हालाँकि इसमें कोई दो-राय नहीं कि नीतीश वर्तमान हालत में बेचारगी में जीने को मजबूर हुए हैं। चिराग ठसके से एनडीए में बने हुए हैं। नीतीश समझते हैं कि चिराग के रूप में भाजपा ने उनसे छल किया। चिराग ने चुनाव प्रचार में जी भरकर नीतीश को कोसा। नीतीश इस तौहीन को हज़म कर रहे हैं, तो ज़रूर कोई मजबूरी होगी। यही नीतीश हैं, जिन्होंने कभी नरेंद्र मोदी के साथ मंच साझा करने से मना कर दिया था। आज यही नीतीश पूरा चुनाव मोदी के पोस्टर के भरोसे लड़े हैं।

असली मुद्दों पर बात

भाजपा नतीजों के आधार पर यह सन्देश देना चाहती है कि लॉकडाउन में बेहद खराब इंतज़ामों, 14 करोड़ लोगों के बेरोज़गार होने, दर-दर भटकने, कृषि कानून पर किसानों के विरोध और खस्ताहाल हो चुकी अर्थ-व्यवस्था को लेकर राहुल गाँधी और विपक्ष उस पर जो हमले कर रहा है, उसमें कोई दम नहीं और लोगों ने उसे सही मानते हुए उसे वोट दिया है। लेकिन यह सच नहीं है। बिहार में तेजस्वी यादव ने रोज़गार और दूसरे असली मुद्दों को चुनाव में लाकर देश के आने वाले चुनावों को एक बड़ा एजेंडा दे दिया है।

नतीजों से अगले दिन भाजपा मुख्यालय पर प्रधानमंत्री ने भी यही कहा कि जो ढोल पीटते थे, उन्हें जनता ने नकार दिया। लेकिन सच में क्या यह मुद्दे गौण हो गये हैं? शायद नहीं। इसलिए मोदी ने अपने सम्बोधन में यह जताने की कोशिश की कि बिहार में उसकी जीत विकास की जीत है। हालाँकि उनके सम्बोधन में कहीं भी देश की अर्थ-व्यवस्था, बेरोज़गारी, किसानों की हालत का ज़िक्र नहीं था। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी हाल के महीनों में इन मुद्दों पर बहुत मज़बूती से बोलते रहे हैं; लेकिन उन्हें ट्वीटर से बाहर निकलकर इन मुद्दों को देश की जनता के मुद्दे बनाना होगा; तभी उन्हें जनता का साथ मिलेगा। तेजस्वी ने बिहार चुनाव में राहुल गाँधी और पूरे विपक्ष को एक अवसर दिया है कि वह रोज़गार और अन्य असली मुद्दों को देश की जनता का मुद्दा बना दें।

किसने क्या पाया, क्या खोया

बिहार के चुनाव नतीजों में हार के बावजूद राजद तेजस्वी यादव एक मज़बूत नेता के तौर पर उभरे हैं। अकेले उनके बूते ही महागठबन्धन को 110 सीटें मिली हैं। भाजपा-जदयू और अन्य के गठबन्धन की इस चुनाव में जीत ज़रूर हुई; लेकिन तेजस्वी के नेतृत्व में महागठबन्धन ने उसे कड़ी टक्कर दी।

यह नहीं भूलना चाहिए कि तेजस्वी यादव कुछ साल पहले ही एक नेता के तौर पर सामने आये हैं; जबकि उनके मुकाबले प्रधानमंत्री मोदी और नीतीश कुमार जैसे दिग्गज थे। भले राहुल गाँधी ने भी चंद चुनाव रैलियाँ कीं, लेकिन महागठबन्धन का पूरा दारोमदार तेजस्वी पर रहा, जिन्होंने 300 से ज़्यादा चुनावी सभाएँ कीं।

तेजस्वी ने जिस चतुराई से रोज़गार का मुद्दा उठाया, उसने एक बारगी तो भाजपा के भी पसीने छुड़ा दिये। सच तो यह है कि पहले चरण में महागठबन्धन इसी के बूते अधिकतर सीटों पर जीत दर्ज करने में सफल रहा। इसके बाद ही मोदी और नीतीश कुमार ने अपनी चुनावी सभाओं में जंगलराज का बार-बार डर दिखाया, जिससे साफ तौर पर महागठबन्धन के हक में जा रहा माहौल अचानक बदल गया। हालाँकि इसके बावजूद 15 साल पुराने कथित जंगलराज से लेकर युवा मतदाता तो एनडीए से कनेक्ट नहीं कर पाया; लेकिन महिलाओं और अन्य आयु के लोगों ने इसके बाद अपना रुख बदल लिया। इस चुनाव में युवाओं को अपने साथ जोडऩा तेजस्वी की सबसे बड़ी सफलता है, जो भविष्य में उनके काम आयेगी।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि लगातार 15 साल सत्ता के कारण नीतीश कुमार के खिलाफ बिहार में नाराज़गी थी। नीतीश के 5 मंत्री चुनाव हार गये। लेकिन भाजपा भी पिछली सत्ता में कुछ समय छोड़कर नीतीश के साथ ही थी। फिर भाजपा के खिलाफ क्यों माहौल नहीं बना? इसका श्रेय प्रधानमंत्री मोदी के चतुराई से भरे भाषणों को दे सकते हैं। लॉकडाउन में लाखों लोगों के महीने भर सड़कों पर भटकने और मीलों सड़कों पर पैदल चलकर भूखे-प्यासे अपने घर जाने की ज़िम्मेदार बिहार सरकार नहीं, केंद्र सरकार ज़्यादा थी; लेकिन नुकसान नीतीश को भुगतना पड़ा। भाजपा ने इस चुनाव में लाभ कमाया है, जो उसे अपने विस्तार की योजना में मदद करेगा।

इस चुनाव में कांग्रेस के 70 सीटों पर उतरने के बावजूद सिर्फ 19 सीटों पर जीतने को लेकर उसकी काफी आलोचना हो रही है; लेकिन सच यह भी है कि उसे ऐसी सीटों पर ज़्यादा लडऩा पड़ा, जहाँ राजद का प्रभाव कभी नहीं रहा। इसके अलावा सीमांचल में उसे और महागठबन्धन को असदुद्दीन ओवैसी की पार्टी ने 11 सीटों पर नुकसान पहुँचाया। लेकिन इसमें कोई दो-राय नहीं कि इन नतीजों ने कांग्रेस को राष्ट्रीय स्तर पर नुकसान पहुँचाया है। उसे अपने काम करने का तरीका बदलना होगा। कांग्रेस को राज्यों में खुद को मज़बूत करना होगा। जैसे हालत में कांग्रेस राज्यों में पहुँच रही है, उससे वो अन्य जैसे दलों की स्थिति में जाती दिख रही है; जो एक राष्ट्रीय पार्टी के लिए चिन्ताजनक बात है। वैसे इस चुनाव में प्रियंका गाँधी का प्रचार के लिए न आना भी चर्चा में रहा।

लोजपा के चिराग पासवान की भूमिका आने वाले दिनों में सबकी नज़र में रहेगी। उन्हें सीट भले एक मिली, तो वे 6 फीसदी वोट पाने में सफल रहे हैं; जो कांग्रेस के 9 फीसदी वोट से कुछ ही कम है। चिराग भाजपा के साथ हैं, यह वो बार-बार कह चुके हैं। लेकिन इस सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता कि चिराग को भाजपा के साथ (एनडीए में) बने रहने के लिए मुश्किल पेश आये।

अब महागठबन्धन की कोशिश मज़बूत विपक्ष की भूमिका होगी। एनडीए के पास बहुत मज़बूत बहुमत नहीं है और उसके पास बहुमत से तीन ही सीटें ज़्यादा हैं। ऐसे में हो सकता है कि महागठबन्धन और तेजस्वी यादव एनडीए से बाहर रहे दलों को साथ जोडऩे की कोशिश करें।

नीतीश की भूमिका

चुनाव नतीजों के बाद यह भी चर्चा रही है कि नीतीश कुमार भाजपा के साथ रहने में अब सम्मानजनक महसूस नहीं करते। एनडीए की जीत के बात की चर्चा भी काफी रही है कि यदि वह मुख्यमंत्री बन भी जाते हैं, तो भाजपा के बिहार के नेता उन्हें कितना सम्मान देते हैं? इस पर भी उनका रुख निर्भर करेगा। हालाँकि भाजपाई कभी नहीं चाहते कि किसी और दल का नेता, भले ही वह एनडीए में कितना भी बड़ा सहयोगी दल का और कितना भी महत्त्वपूर्ण क्यों न हो; मुख्यमंत्री बने। जदयू नेता भी मानते हैं कि हाल के महीनों में प्रधानमंत्री मोदी ने तो नीतीश के प्रति सम्मान दिखाया है; लेकिन राज्य के भाजपा नेताओं को उन्हें नीचा दिखाने के लिए खुला छोड़ दिया है। भाजपा की इस नीति से ही नीतीश के भीतर एक गुस्सा तो है ही।

इसके बावजूद जैसा संयम उन्होंने दिखाया, यह उनकी एक परिपक्व नेता की छवि को सामने लाता है। बिहार में भाजपा का सत्ता में रहना नीतीश पर ही निर्भर करेगा। नीतीश यदि बिदकते हैं, तो भाजपा की खुद को बिहार में मज़बूत करने और पार्टी के विस्तार करने की योजनाओं पर ग्रहण लग जाएगा। और कहीं नीतीश छिटक गये, तो सरकार ही खतरे में पड़ जाएगी। नीतीश की तेजस्वी के साथ कोई बड़ी राजनीतिक दुश्मनी नहीं है; बल्कि नीतीश खुद कभी मोदी के घोर विरोधी रहे हैं। लेकिन शायद उन्हें डर हो कि वह अगर राजद की तरह भाजपा को छिटकते हैं, तो उन्हें राजद अब उस तरह नहीं अपनायेगी। और अगर अपना भी लिया, तो उनन्हें मुख्यमंत्री पद तो कभी नहं मिलेगा।

हालाँकि यह एक कल्पना ही है, क्योंकि नीतीश अब भाजपा को नहीं छोड़ सकते। इसका कारण उनका बचा-खुचा अस्तित्व और भविष्य है। वह जानते हैं कि भाजपा ने उन्हें अपने कन्धे का सहारा लेकर चलने को मजबूर कर दिया है। साथ ही वह यह भी जानते हैं कि अगर अब वह भाजपा से अलग हुए, तो उनकी दुर्गति लालू प्रसाद यादव जैसी हो सकती है। उनके 15 साल के शासनकाल में बहुत-से घोटाले हुए हैं, और भाजपा के लिए किसी नेता को जेल भेजने के लिए कोई एक मुद्दा काफी है।

ऐसी स्थिति में साफ है कि यदि नीतीश भाजपा के साथ ही रहेंगे। भाजपा भी नीतीश को मुख्यमंत्री बनाकर पिछले शासनकाल की अपेक्षा उन्हें अपने एजेंडे के मुताबिक और दबाव के साथ चलाने की कोशिश करेगी। लेकिन वह उन पर रबर की बॉल की तरह भी दबाव नहीं बनायेगी। क्योंकि वह जानती है कि यदि वह उन पर ज़्यादा दबाव बनाने की कोशिश करती है, तो नीतीश को भाजपा के साथ चलने में मुश्किल आयेगी। इसका एक बड़ा कारण यह भी है कि राजनीतिक विचारधारा के तौर पर भाजपा और नीतीश कुमार दो विपरीत ध्रुवों पर खड़े हैं।

चुनाव प्रचार के दौरान जब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने सीएए की बात करते हुए लोगों को देश से बाहर निकलने की बात कहीं थी, तो नीतीश ने इसका कड़ा जबाव दिया था और कहा था कि कोई माई का लाल नहीं, जो आपको देश से बाहर निकाल सके। ऐसे में इसमें कोई दो-राय नहीं कि इस बार बिहार में भाजपा नेताओं और नीतीश के सम्बन्ध तलवार की धार पर रहेंगे।

भाजपा के नये चाणक्य नड्डा

इन चुनाव नतीजों में भाजपा के अध्यक्ष जेपी नड्डा अपने पूर्ववर्ती ताकतवर अध्यक्ष अमित शाह की छाया से बाहर निकलकर एक मज़बूत अध्यक्ष के नाते उभरे हैं। धन्यवाद रैली में प्रधानमंत्री मोदी ने भी इसलिए कहा कि नड्डा जी आगे बढ़ो, हम आपके साथ हैं। अभी तक यही माना जा रहा था कि नड्डा अध्यक्ष बन जाने के बावजूद उभरकर सामने नहीं आ पा रहे। लेकिन बिहार में जैसी रणनीति नड्डा ने बुनी, उसने ज़ाहिर कर दिया किया कि वह एक कुशल चुनाव प्रबन्धक और रणनीतिकार हैं। वैसे भी पटना से नड्डा का कॉलेज समय से नाता रहा है और वह पटना विश्वविद्यालय के छात्र अध्यक्ष रहे हैं। इसके अलावा देश के अन्य राज्यों में भाजपा का जैसा डंका बजा, नड्डा अध्यक्ष के नाते भाजपा के लिए लकी साबित हुए हैं। नड्डा के सामने बिहार एक बड़ी चुनौती के रूप में सामने था। जब तीसरे चरण के मतदान के बाद एग्जिट पोल में भाजपा का सूपड़ा साफ होता दिखाया जा रहा था, वह भाजपा कार्यालय में नतीजों के बाद की तैयारी की रणनीति बुन रहे थे। उन्होंने अपने बड़े नेताओं और बिहार के नेताओं से कह दिया था कि एग्जिट पोल से विचलित न हों; चाहे सामान्य बहुमत ही आये, पर सरकार एनडीए की ही बनेगी। बिहार चुनाव के प्रचार और तीसरे चरण के मतदान के बाद यही रिपोर्ट उन्होंने बड़े नेताओं से साझी की थी कि सरकार एनडीए की ही बनेगी। कहते हैं कि लोजपा को अलग से चुनाव लड़ाना भी उनका ही प्रयोग था; ताकि सत्ता विरोधी मतों का बँटबारा हो। निश्चित ही बिहार चुनाव के बाद नड्डा भाजपा में मज़बूत हुए हैं। उनकी रणनीतिक क्षमता के प्रति बड़े नेताओं में भरोसा बढ़ा है और वह पार्टी के नये चाणक्य बनने की तैयारी में हैं। यहाँ तक कि प्रधानमंत्री मोदी भी उनकी प्रतिभा के कायल हुए हैं। इस चुनाव की जीत के बाद नड्डा डमी अध्यक्ष की छवि से बाहर निकले हैं। मोदी ने जिस तरह खुद उनके नेतृत्व पर मुहर लगायी, वह छोटी बात नहीं है। भाजपा में ऐसा शायद ही पहले कभी हुआ हो, और प्रधानमंत्री के नाते मोदी ने पार्टी के मंच से ऐसा किसी भी अध्यक्ष के लिए कहा हो। जनवरी में उनके कार्यकाल का एक साल हो जाएगा और अगले साल पश्चिम बंगाल का बड़ा चुनाव उनके सामने होगा। भाजपा का अब सबसे बड़ा लक्ष्य पश्चिम बंगाल ही है; जहाँ उनका मुकाबला बहुत ताकतवर और ज़मीनी नेता ममता बनर्जी से होगा। भाजपा अपने हिसाब से वहाँ ध्रुवीकरण की कोशिश है। प्रधानमंत्री मोदी ने धन्यवाद रैली में भाजपा कार्यकर्ताओं की हत्या की बात बंगाल को लक्ष्य करके ही कही थी। इससे समझा जा सकता है कि भाजपा ने पश्चिम बंगाल की चुनावी राजनीति को स्वरूप देने की कोशिश में है। इसे भाजपा और मोदी की चतुराई ही कहा जाएगा कि बिहार की जीत के 20 घंटे के भीतर ही उन्होंने इस जीत के खुमार में डूबने के बजाय अगले चुनाव का बिगुल फूँककर कार्यकर्ताओं को मानसिक रूप से एक और जीत हासिल करने की तैयारी करने के लिए कह दिया। लेकिन भाजपा के लिए पश्चिम बंगाल जीतना बिहार जितना आसान नहीं होगा; पश्चिम बंगाल में बिहार की तरह कई पार्टियाँ नहीं हैं और न ही वहाँ कोई दूसरा फैक्टर चलने वाला। हाँ, वहाँ उपद्रव और राजनीति के बाहर के कुछ चुनिंदा लोगों का इस्तेमाल किया जा सकता है। वहाँ ओवैसी फैक्टर का इस्तेमाल भी किया जाना तय लगता है।

मध्य प्रदेश में बची भाजपा सरकार

उत्तर प्रदेश, गुजरात सहित अन्य राज्यों के उप चुनावों में भी भाजपा को ज़्यादातर सीटें

मध्य प्रदेश में शिवराज सिंह चौहान की सरकार बच गयी। प्रदेश की 28 विधानसभा सीटों पर हुए उप-चुनावों के नतीजों पर उसका भविष्य टिका था। लेकिन जनता ने दलबदल करवाकर बनायी उनकी सरकार की इ•ज़त रख ली। नतीजों से पता चलता है कि कांग्रेस सरकार गिरवाकर भाजपा में गये ज्योतिरादित्य सिंधिया चम्बल क्षेत्र में अपना समर्थन नहीं बचा पाये।

उप चुनाव में भाजपा को 28 सीटों में से 19 सीटों पर जीत हासिल हुई और शिवराज सरकार ने आसानी से बहुमत हासिल कर लिया। कांग्रेस ने 9 सीटों पर जीत दर्ज की है। बता दें राज्य में मार्च में ज्योतिरादित्य ने खुद और उनके समर्थक कांग्रेस विधायकों ने त्याग-पत्र दे दिया था; जिससे कमलनाथ की सरकार गिर गयी और शिवराज सिंह ने मध्य में ही अपनी सरकार बना ली। इनमें से सभी विधायक ज्योतिरादित्य सिंधिया समर्थक थे और वे भी भाजपा में शामिल हो गये थे।

कुल 230 सदस्यों वाली विधानसभा में बहुमत के लिए 116 सीटों की ज़रूरत थी और भाजपा के लिए कम-से-कम 8 सीटें जितनी ज़रूरी थीं। उप चुनाव से पहले भाजपा के पास 107 जबकि कांग्रेस के 87 विधायक थे। अब भाजपा की संख्या 135, जबकि कांग्रेस की 96 हो गयी है। नतीजे आते ही प्रधानमंत्री मोदी ने शिवराज सिंह को फोन करके बधाई दी।

भाजपा अध्यक्ष नड्डा ने कहा कि यह प्रधानमंत्री मोदी की नीतियों की जीत है। गृहमंत्री अमित शाह ने ट्वीट किया कि मध्य प्रदेश उप चुनावों में भाजपा की शानदार जीत पर मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान, प्रदेश अध्यक्ष वीडी शर्मा और मध्य प्रदेश के कर्मठ कार्यकर्ताओं को हार्दिक बधाई। प्रदेश की जनता का भाजपा की विकास-नीति और नरेंद्र मोदी और शिवराज की जोड़ी में विश्वास व्यक्त के लिए धन्यवाद देता हूँ।

जीत के बाद खुद अपने ट्वीट में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान ने ट्वीट में कहा कि यह कांग्रेस के झूठ, फरेब, दम्भ और अहंकार की पराजय है। सत्य परेशान हो सकता है, किन्तु पराजित नहीं। वैसे मध्य प्रदेश उप चुनाव में बड़ी जीत के साथ-साथ भाजपा को झटके भी लगे। शिवराज मंत्रिमंडल में महिला और बाल विकास मंत्री इमरती देवी डबरा विधानसभा सीट से हार गयीं। इमरती देवी को कांग्रेस उम्मीदवार सुरेश राजे ने शिकस्त दी। इमरती चुनाव के बीच तब चर्चा में आयी थीं, जब पूर्व मुख्यमंत्री कमलनाथ की उन्हें लेकर की गयी एक टिप्पणी से बवाल बच गया था।

इस चुनाव में बसपा कांग्रेस के लिए वोट कटवा साबित हुई। इसी कारण से उसने पाँच सीटों पर जीत भाजपा की झोली में डाल दी। यही कारण रहा कि भाजपा 19 सीट जीती और कांग्रेस के हाथ नौ सीट ही आयीं। अगर बसपा-कांग्रेस साथ लड़ती, तो पाँच सीटों पर परिणाम पलट सकता था। ऐसी स्थिति में भाजपा और कांग्रेस गठबन्धन 14-14 सीट जीतकर बराबरी पर रह सकते थे। भांडेर, जौरा, मल्हरा, मेहगाँव और पोहरी जैसी सीटें देखें, तो वहाँ कांग्रेस की हार के लिए बसपा ही ज़िम्मेदार रही। जौरा में बसपा-कांग्रेस के मतों के फीसद को मिला दें, तो यह भाजपा से 20 फीसदी ज़्यादा निकलेगा। लेकिन वोट बँट जाने की वजह से भाजपा आसानी से जीत गयी।

भाजपा अम्बाह, वालियर, भांडेर, पोहरी, बमोरी, अशोक नगर, मुंगावली, सुरखी, मलहरा, अनूपपुर, साँची, हाटपिपल्या, मांधाता, नेपानगर, बदनावर, जौरा, सुवासरा, मेहगाँव और साँवेर में विजयी रही; जबकि सुमावली, मुरैना, दिमनी, गोहद, डबरा, करैरा, ब्यावरा, आगर, ग्वालियर पूर्व की सीटें कांग्रेस ने जीतीं।

उप चुनाव के बाद अब मध्य प्रदेश में मंत्री बनने की दौड़ शुरू हो गयी है। जीतने के लिए जनता से किये वादों को पूरा करने के साथ मंत्री बनने को आतुर नेताओं को लेकर शिवराज सिंह के सामने दिक्कतें आ सकती हैं। कांग्रेस से भाजपा में शामिल हुए तीन मंत्रियों के चुनाव हारने के बाद मंत्रिमंडल में कुल चार मंत्रियों की जगह खाली है। ऐसे में चार नये विधायकों को मंत्री पद सौंपा जा सकता है; लेकिन मंत्री के रूप में चार पदों के लिए भी करीब आठ लोग दौड़ में शामिल हैं।

शिवराज किसे मंत्रिमंडल में जगह देते हैं? और कौन यह मलाई पाने से वंचित रहता है? यह देखने वाली बात होगी। प्रदेश में चल रही चर्चाओं में विंध्य क्षेत्र के विधायकों का खासा दबाव सामने आ सकता है। वरिष्ठ विधायक गिरीश गौतम तो मंत्रिमंडल में शामिल होने के लिए दावेदारी भी ठोक चुके हैं। उनका कहना है कि शिवराज मंत्रिमंडल में विंध्य को तवज्जो मिलनी चाहिए। वहीं शिवराज सरकार के पिछले कार्यकाल में मंत्री रहे संजय पाठक के साथ रामपाल सिंह, राजेंद्र शुक्ला, गौरीशंकर बिसेन, अजय विश्नोई, नागेंद्र सिंह और रमेश मेंदोला भी इस दौड़ में शामिल बताये जा रहे हैं।

हालाँकि मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के लिए यह काम आसान नहीं होगा। सिंधिया भी चाहते हैं कि उनके लोगों को मंत्रिमंडल में जगह मिले। सिंधिया भाजपा के भीतर अपनी स्थिति मज़बूत बनाये रखना चाहते हैं। उन्हें यह पता है कि प्रदेश भाजपा के कई नेता उनके भाजपा में आने से खुश नहीं हैं और उन्हें काटने की हर सम्भव कोशिश करते हैं। लिहाज़ा वह अपने ज़्यादा-से-ज़्यादा मंत्री बनवाकर खुद की ताकत बनाये रखना चाहते हैं।

उत्तर प्रदेश : उत्तर प्रदेश में सात विधानसभा सीटों पर हुए उप चुनावों में भाजपा ने छ: सीटें जीत लीं; जबकि एक सीट समाजवादी पार्टी के खाते में गयी है। भाजपा ने बांगरमऊ, देवरिया, बुलंदशहर, नौगांवा सादत, टूंडला और घाटमपुर में जीत दर्ज की, जबकि मल्हनी सीट सपा के लकी यादव ने जीती है। कांग्रेस को एक भी सीट नहीं मिली। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने जीत का श्रेय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को दिया और कहा कि पार्टी का प्रदर्शन प्रधानमंत्री के मार्गदर्शन और प्रेरणा से हुए सेवा कार्यों का सुफल है।

गुजरात : प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में आठों सीटों पर भाजपा जीत गयी। जीत के बाद गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी ने कहा कि यह प्रदर्शन राज्य में होने वाले विधानसभा चुनावों का ट्रेलर है।

तेलंगाना : तेलंगाना में भाजपा ने टीआरएस से सीट छीनकर उसे चौंका दिया। दुब्बाक विधानसभा सीट पर पार्टी उम्मीदवार माधवानेनी रघुनंदन राव ने सत्ताधारी तेलंगाना राष्ट्र समिति (टीआरएस) के गढ़ में उसे हरा दिया। सीट टीआरएस के विधायक रामलिंगा रेड्डी की मौत की वजह से खाली हुई थी। इस सीट का महत्त्व इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि इसके साथ लगती सीट गजवेल मुख्यमंत्री के चंद्रशेखर राव की है। अब राज्य में भाजपा की दो सीटें हो गयी हैं। प्रधानमंत्री मोदी ने इस जीत को ऐतिहासिक बताया है।

कर्नाटक : दो सीटों पर उप चुनाव हुआ और दोनों भाजपा के खाते में गयींं। सीरा और आरआर नगर विधानसभा सीटों पर कांग्रेस को हार झेलनी पड़ी।

छत्तीसगढ़ : एक मात्र सीट पर हुए उप चुनाव में सत्ताधारी कांग्रेस को जीत मिली। यह चुनाव मरवाही सीट पर हुआ, जहाँ के.के. ध्रुव विजयी रहे। सीट पूर्व मुख्यमंत्री और जनता कांग्रेस छत्तीसगढ़ (जे) प्रमुख अजित जोगी के निधन से खाली हुई थी।

झारखण्ड : झारखण्ड में दो सीटों के उप चुनाव में एक सीट कांग्रेस और दूसरी झारखण्ड मुक्ति मोर्चा (जेएमएम) ने जीती।

ओडिशा : ओडिशा में दो सीटों पर उप चुनाव हुए। दोनों ही सीटें सत्ताधारी बीजू जनता दल के खाते में गयीं।

मणिपुर : नार्थ ईस्ट के राज्य मणिपुर में भी भाजपा का जलवा दिखा। पार्टी ने पाँच में से चार सीटें अपनी झोली में डाल लीं। एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई।

नागालैंड : नागालैंड की दो सीटों पर उप चुनाव हुए थे, जिनमें एक सीट पर निर्दलीय उम्मीदवार की जीत हुई है, जबकि दूसरी सीट पर नेशनलिस्ट डेमोक्रेटिक प्रोग्रेसिव पार्टी की जीत हुई।

किसको, कितने वोट

चुनाव में सबसे ज़्यादा 23.1 फीसदी वोट राजद को मिले। उसे कुल 97 लाख 36 हज़ार 242 लोगों के मत मिले, जिससे वह 75 सीटें जीत सकी। भाजपा को 19.46 फीसदी लोगों ने 82 लाख एक हज़ार 408 मत देकर कुल 74 सीटें दीं। जदयू के पक्ष में 64 लाख 84 हज़ार 414 (15.4 फीसदी) लोगों ने मतदान करके 43 सीटें दीं। कांग्रेस को 39 लाख 95 हज़ार 3 यानी 9.5 फीसदी मतदाताओं ने 19 सीटें प्रदान कीं। लोजपा को 23 लाख 83 हज़ार 457 यानी 5.66 फीसदी मतदाताओं ने अपना मत दिया, लेकिन उसे एक ही सीट मिली। ओवैसी की एआईएमआईएम को 5 लाख 23 हज़ार 279 यानी 1.24 फीसदी मत मिले, जिससे उसे पाँच सीटें हासिल हुईं। इस चुनाव में भाजपा का मत प्रतिशत घटा है; क्योंकि उसे 2015 में 24.42 फीसदी ( 93 लाख 08 हज़ार 15) वोट मिले थे। राजद को इस बार फायदा हुआ; क्योंकि उसे 2015 में 18.35 फीसदी (69 लाख 95 हज़ार 509) वोट मिले थे। कांग्रेस का मत फीसद भी इस बार बढ़ा है; क्योंकि उसे पिछली बार भले उसे ज़्यादा सीटें मिली थीं, लेकिन उसके पक्ष में केवल 6.66 फीसदी मतदान हुआ था। कमाल वामपंथी दलों ने भी किया, जिन्हें महागठबन्धन के साथ लड़कर बहुत अच्छी कुल 16 सीटें मिलीं, जिनमें 12 माले की हैं। वहीं गठबन्धन में शामिल जीतन राम मांझी की हम को चार सीटें और मुकेश सहनी की वीआईपी को चार सीटें मिली हैं। इसके अलावा एक सीट निर्दलीय को और एक सीट बसपा को मिली है।

एनडीए  महागठबन्धन      लोजपा   एआईएमआईएम            निर्दलीय     बसपा

125      110               1           5                            1          1

एनडीए की सीटों की स्थिति

भाजपा    जदयू     हम       वीआईपी

74        43        4          4

महागठबन्धन की सीटों की स्थिति

राजद    कांग्रेस   वामदल

75        19        16

हरियाणा : कमल पर भारी हाथ

हरियाणा के ज़िला सोनीपत के बरोदा उप चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी इंदुराज नरवाल की करीब साढ़े दस हज़ार मतों से जीत और भाजपा प्रत्याशी ओलंपियन पहलवान योगेश्वर दत्त की लगातार दूसरी हार से प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस के लिए संजीवनी साबित हो सकती है। अखाड़े में योगेश्वर दत्त ने बहुत दम दिखाया है, लेकिन राजनीति के मैदान में वह फिसड्डी साबित हो गये। विदेशी पहलवानों को पटखनी देकर देश का नाम ऊँचा करने वाले दत्त दूसरी बार चुनाव हार गये। खेल कोटे से पुलिस में अफसर बनने वाले दत्त राजनीति में भी बहुत कुछ करना चाह रहे थे, जिसके लिए वह इस्तीफा देकर मैदान में आये; लेकिन राजनीतिक अखाड़े में सफल नहीं सके। उनकी छवि को देखते हुए पार्टी को उन पर काफी भरोसा था। यहाँ सरकार और मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की प्रतिष्ठा भी दाँव पर लगी थी, वहीं कांग्रेस के पूर्व मुख्यमंत्री कांग्रेस के भूपेंद्र सिंह हुड्डा के लिए यह नाक का सवाल था। यह सीट लगातार तीन बार के कांग्रेस विधायक श्रीकृष्ण हुड्डा के निधन से खाली हुई थी। दो दशक से यह कांग्रेस की पक्की सीट है।

उप चुनाव में कांग्रेस प्रत्याशी नरवाल की जीत ने बता दिया कि इस दुर्ग में सेंध लगाना बहुत मुश्किल है। जीत को कांग्रेस नेता भाजपा-जजपा गठबन्धन सरकार की उलटी गिनती मानते हैं, वहीं हार को सरकार की नाकामी के तौर पर आँकते हैं। हार के बावजूद गठबन्धन सरकार को कोई खतरा नहीं है; क्योंकि संख्या बल वही रहेगा, जो उप चुनाव से पहले था। यह सीट जीतने के बाद उम्मीद है कि हताश कांग्रेस में नयी स्फूर्ति आयेगी, वहीं भाजपा को बहुत कुछ सोचना पड़ेगा। कोई भी उप चुनाव वैसे भी सत्ताधारी दल के लिए प्रतिष्ठा की बात होती है। हार सरकार की विश्वसनीयता और उसके काम पर सवाल खड़े करती है और जीत उसके किये काम की गारंटी जैसी होती है। हालाँकि आगामी विधानसभा चुनाव में अभी काफी समय है, ऐसे में बरोदा उप चुनाव को सेमीफाइनल नहीं माना जा सकता। फिर भी इस एक सीट के लिए भाजपा के शक्ति परीक्षण से इन्कार नहीं किया जा सकता।

बरोदा उप चुनाव में सरकार ने पूरी ताकत झोंकी हुई थी। पूरा संगठन इस विधानसभा क्षेत्र में सक्रिय था। सरकार की ओर से भाजपा प्रत्याशी की जीत के बाद ज़िले को प्रतिनिधित्व देने और खूब विकास कार्य कराने जैसे वादे भी किये गये, लेकिन यह सब काम नहीं आया। उधर भूपेंद्र सिंह हुड्डा और उनके सांसद बेटे दीपेंद्र हुड्डा ने पूरे चुनाव की कमान सँभाल रखी थी। पहले बरोदा सीट से कपूर सिंह नरवाल को मैदान में उतारा जाना तय हुआ था; लेकिन बाद में हुड्डा के ही समर्थक इंदुराज नरवाल को मैदान में उतारा गया।

कपूर नरवाल ने बाद में आज़ाद प्रत्याशी के तौर पर उतरने का मन बनाया; लेकिन भूपेंद्र हुड्डा के समझाने और भविष्य में पूरा मान-सम्मान देने के भरोसे बाद वह मान गये। अगर हुड्डा ऐसा करने में सफल नहीं होते और कपूर नरवाल मैदान में उतर जाते, तो यह कांग्रेस के लिए खतरे की बात होती। उनका क्षेत्र में अच्छा असर माना जाता है, ऐसे में वह कांग्रेस के वोट ही काटते जिसका सीधा फायदा भाजपा प्रत्याशी को मिलना तय था। कपूर नरवाल के मैदान में न उतरने के बाद भाजपा खेमे में कुछ निराशा ज़रूर थी, लेकिन उन्हें फिर भी जीतने का भरोसा था। उसे सरकार में भागीदार जननायक जनता पार्टी (जेजेपी) के वोट बैंक का भी आसरा था। बता दें कि रोहतक और सोनीपत जाट बाहुल्य क्षेत्र है, यहाँ कांग्रेस का अच्छा प्रभाव है। इसकी एक वजह भूपेंद्र सिंह हुड्डा हैं, जिन्होंने मुख्यमंत्री रहते दोनों ज़िलों में खूब काम कराये। जातिगत समीकरण के हिसाब से भी उनका प्रभाव रहा है। इनके मुकाबले में भाजपा के पास ऐसा कोई नेता नहीं था, जिसका क्षेत्र में इतना ज़्यादा प्रभाव रहा हो।  बरोदा उप चुनाव में कुल 14 प्रत्याशी मैदान में थे, लेकिन मुकाबला कांग्रेस और भाजपा में ही था। पहलवानी में देश का नाम रोशन करने वाले दत्त को इस बार जीत की काफी उम्मीद थी। नाम की घोषणा से पहले ही उन्होंने क्षेत्र में सम्पर्क साधने का काम शुरू कर दिया था। कुछ दिन पहले भाजपा प्रदेश अध्यक्ष बनने वाले ओमप्रकाश धनखड़ के लिए उप चुनाव की हार संगठन की कमज़ोरी साबित करता है।

भालू बनाम पहलवान

उप चुनाव में भालू बनाम पहलवान के तौर पर खूब प्रचार किया। कांग्रेस प्रत्याशी इंदुराज नरवाल को लोग भालू के नाम से ज़्यादा जानते हैं। जब वह बच्चे थे, तो गोल-मटोल थे; लिहाज़ा परिवार के लोगों ने उन्हें प्यार से यह नाम दे दिया। बाद में वह इंदुराज से कम भालू के नाम से ज़्यादा जाने गये। उधर भाजपा प्रत्याशी योगेश्वर दत्त तो पहलवानी में नाम कमा चुके हैं। ओलंपिक में पदक जीतकर वह देश और राज्य का नाम रोशन कर चुके हैं। प्रचार में प्रत्याशियों के नामों के साथ ‘भालू और पहलवान के बीच मुकाबला’ होना खूब उछला।

बाइडन के आने से बदलेंगे भारत-अमेरिकी सम्बन्ध!

राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प को मिले 214 मतों की तुलना में 290 मत हासिल करके जो बाइडन अमेरिका के नये ‘बॉस’ यानी राष्ट्रपति चुने गये। जो बाइडन 20 जनवरी, 2021 को संयुक्त राज्य अमेरिका के 46वें राष्ट्रपति के रूप में शपथ ग्रहण करेंगे। हालाँकि निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप सत्ता हस्तातंरण में रुकावट डालने के हथकंडे अपनाने के प्रयास की जुगत में हैं। निर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने चुनाव जीतने के बाद के अपने भाषण में अपनी प्राथमिकताओं का ज़िक्र किया।

अपने संक्षिप्त सम्बोधन में बाइडन ने कहा कि हमें आंतरिक और बाहरी दोनों तरह की चुनौतियों से जूझना होगा। उन्होंने कोविड-19 महामारी के अलावा चुनाव में विभाजित अमेरिकी समाज को एकजुट करने पर ज़ोर दिया। उन्होंने कहा कि बीमार अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाना बड़ी चुनौती होगी। स्वास्थ्य के प्रति लोगों का भरोसा फिर से कायम करना होगा। इतना ही नहीं, उन्होंने कहा कि वह सबके राष्ट्रपति होंगे; चाहे उन्होंने उनके लिए वोट दिया हो या नहीं। अमेरिका के सहयोगियों का भरोसा जीतना ज़रूरी है, भले ही वे ट्रंप प्रशासन के दौरान असहमत रहे हों। संयुक्त राष्ट्र, डब्ल्यूएचओ आदि की गतिविधियों में अमेरिका की भागीदारी सुनिश्चित की जाएगी, विशेषकर जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते को फिर से अमल में लाया जाएगा।

भारत के लिए बड़ी उम्मीदें

हाल के कुछ दशकों में देखा गया है कि नई दिल्ली या वाशिंगटन में शासन के परिवर्तन का भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका के बीच चल रहे मैत्रीपूर्ण सम्बन्धों के साथ खास फर्क नहीं पड़ा है। इसके पीछे दोनों देशों के बीच दोस्ताना सम्बन्ध महज़ कुछ आशंकाओं या यूँ ही नहीं हैं, बल्कि ठोस राजनीतिक आर्थिक पहलुओं पर आधारित हैं; जिनसे राष्ट्रीय हित सधते हैं। क्लिंटन प्रशासन से ट्रम्प प्रशासन तक नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच सम्बन्ध संतोषजनक तरीके से आगे बढ़े हैं और कभी-कभी बीच में पैदा हुई बाधाओं को समय-समय पर विभिन्न द्विपक्षीय चैनलों के ज़रिये सुलझा लिया गया है।

ओबामा प्रशासन के दौरान उप राष्ट्रपति के रूप में कार्य करने वाले नवनिर्वाचित राष्ट्रपति जो बाइडन ने हाल के दिनों में भारत के साथ अमेरिकी सम्बन्धों को बेहतर बनाने की दिशा में अपने झुकाव का उल्लेख किया था। अमेरिका और भारत के बीच ऐतिहासिक परमाणु समझौते के सौदे की मंज़ूरी के समय सीनेट की विदेश सम्बन्ध समिति के प्रमुख जो बाइडन ने कहा था कि अगर वाशिंगटन और नई दिल्ली करीबी दोस्त बन गये, तो दुनिया एक सुरक्षित जगह होगी। सन् 2013 में फिर से जब वह उप राष्ट्रपति के रूप में भारत के दौरे पर आये, तो उन्होंने संयुक्त राष्ट्र-भारत के रिश्तों को 21वीं सदी के साझेदार के तौर पर परिभाषित किया।

कमला हैरिस अमेरिका की पहली महिला उप राष्ट्रपति निर्वाचित हुई हैं। अच्छी बात यह है कि वह भारतीय मूल की हैं। जो बाइडन-कमला हैरिस प्रशासन से अमेरिकी-भारत की मित्रता प्रगाढ़ होने और दोनों देशों द्वारा एक समृद्ध विरासत का निर्माण करने की उम्मीदें जगी हैं। अपने पूरे चुनाव अभियान के दौरान बाइडन-हैरिस की जोड़ी ने भारत के साथ सम्बन्धों को और मज़बूत करने पर ज़ोर दिया। राष्ट्रपति पद के लिए फाइनल बहस में वायु प्रदूषण के संदर्भ में राष्ट्रपति ट्रंप के भारत को गन्दा कहने पर प्रतिक्रिया देते हुए बाइडन ने कहा कि यह आप दोस्तों के बारे में कैसे बात करते हैं? और इस पर नहीं बोलते कि आप जलवायु परिवर्तन जैसी वैश्विक चुनौतियों को कैसे हल करते हैं? 7 नवंबर को प्रकाशित आलेख में बाइडन ने लिखा- ‘हैरिस और मैं गहराई से अपनी साझेदारी को महत्त्व देते हैं और अपनी विदेश नीति के केंद्र में सम्मान वापस करते हैं। निस्संदेह ऐसी ही बेहतर उम्मीदें जतायी जा रही हैं। इसके बावजूद विभिन्न क्षेत्रों में फिलहाल ज़मीनी वास्तविकताओं के उतरने का अभी मूल्यांकन किया जाना है।’

अहम मुद्दे

मानवाधिकारों पर भारत का रिकॉर्ड, उच्च तकनीक का हस्तांतरण, चीन और एच1बी वीजा जैसे अहम मुद्दे हैं। इन पर विशेषज्ञों का मानना है कि आने वाले महीनों में नई दिल्ली और वाशिंगटन के बीच सम्बन्धों के भविष्य की भूमिका को तय करने वाले प्रमुख कारक होंगे। नवनिर्वाचित राष्ट्रपति बाइडन और उप राष्ट्रपति हैरिस मानवाधिकारों पर भारत के रिकॉर्ड के बारे में मुखर रहे हैं। कश्मीर में बदलाव को लेकर विषेष रूप से कह चुके हैं, साथ ही देश के असंतोष का दमन और नागरिकता संशोधन अधिनियम (सीएए) के खिलाफ चल रहे विरोध प्रदर्शनों पर खुलकर अपनी राय रखते रहे हैं। मुस्लिम-अमेरिकी समुदाय के लिए अपने एजेंडे में बाइडन ने चुनाव अभियान में एनआरसी के साथ-साथ देश की धर्मनिरपेक्षता की लम्बी परम्परा और बहु-जातीय धार्मिक लोकतंत्र बनाये रखने के लिए भारत सरकार के लाये नये कानून सीएए की आलोचना भी की थी।

इसमें कोई संदेह नहीं कि भारत लम्बे समय से यह साबित करता आ रहा है कि कश्मीर के हालात देश का आंतरिक मामला है, इसमें बाहरी शक्तियों के लिए मध्यस्थता की कोई जगह नहीं है। कई अवसरों पर निवर्तमान राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप मध्यस्थता के प्रस्तावों दे चुके हैं; लेकिन हर बार उसे अस्वीकार कर दिया गया। फिर भी कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि सार्वजनिक बयानों और नीतिगत बयानों के आधार पर बाइडन और हैरिस दोनों ने स्पष्ट कहा है कि उनका प्रशासन कश्मीर जैसे मामलों को फिलहाल होल्ड कर सकता है।

कुछ विशेषज्ञों ने बाइडन के इस एजेंडे को मुस्लिम-अमेरिकियों के लिए ध्यान आकर्षित करने वाला कहा है; जिसे बाइडन ने अपने चुनावी अभियान में बोला और यह वेबसाइट पर उपलब्ध है। इसमें बाइडन कहते हैं- ‘कश्मीर में कश्मीरियों के अधिकारों को बहाल करने और असंतोष पर लगाये गये प्रतिबन्धों के खात्मे के लिए भारत सरकार को सभी आवश्यक कदम उठाने चाहिए। इनमें बताया गया है कि शान्तिपूर्ण विरोध को रोकना या इंटरनेट पर पाबन्दी लगा देना या गति धीमी कर देना आदि कदम लोकतंत्र को कमज़ोर करते हैं। कमला हैरिस ने अक्टूबर, 2019 में कहा था कि हमें कश्मीरियों को याद दिलाना होगा कि वे दुनिया में अकेले नहीं हैं। यदि हालात नहीं बदले जाते, तो हस्तक्षेप करने की आवश्यकता है। कोई यह कैसे उम्मीद कर सकता है कि भारत में मानवाधिकारों के सम्बन्ध में बाइडन-हैरिस प्रशासन द्वारा इस तरह के आक्रामक दृष्टिकोण को नहीं अपनाया जा सकता है। फिर भी अमेरिका में मानवाधिकार कार्यकर्ता इस सम्बन्ध में नये प्रशासन पर दबाव बना सकते हैं।

बाइडन प्रशासन के तहत भारत और अमेरिका के बीच सम्बन्धों के पैटर्न को आकार देने में चीन एक अहम िकरदार बनने जा रहा है। लगभग हर अमेरिकी प्रशासन भारत को उच्च तकनीक वाली रक्षा तकनीक हस्तांतरित करने से हिचक रहा है; जैसा कि अतीत में चीन के मामले में हुआ था। ट्रंप प्रशासन के दौरान बीजिंग और वाशिंगटन के बीच तनावपूर्ण सम्बन्ध रहे, जिससे चीन को प्रतिबन्धों का भी सामना करना पड़ा था। भारत और चीन के बीच फिलहाल सैन्य गतिरोध के बीच विशेष रूप से हाल ही में लद्दाख के भारतीय क्षेत्र में चीनी घुसपैठ के मद्देनज़र ट्रंप प्रशासन ने भारत के साथ कुछ रक्षा सम्बन्धी समझौतों पर हस्ताक्षर किये थे। इस तथ्य को देखते हुए कि चीन के साथ सम्बन्धों को सामान्य करने के लिए बाइडन प्रशासन प्रतिबन्धों में ढील देगा। इसके परिणामस्वरूप वाशिंगटन से भारत को उच्च तकनीकी रक्षा प्रौद्योगिकी के हस्तांतरण की सम्भावना धीमी हो जाएगी। हालाँकि इस सम्भावना को कुछ विशेषज्ञ खारिज भी करते हैं। वे तर्क देते हैं कि नया प्रशासन चीन में मानवाधिकार की स्थिति पर भी ध्यान केंद्रित करेगा और नीतिगत उपायों के अधीन होगा। हालाँकि भारत को अपनी ज़रूरतों के लिए रक्षा उपकरणों और सम्बन्धित प्रौद्योगिकी की खरीद के लिए अपनी वास्तविक रणनीतिक आवश्यकताओं के बारे में बाइडन प्रशासन को भरोसे में लेने की ज़रूरत है।

एच1बी वीजा का मुद्दा खासकर तकनीकी रूप से कुशल कर्मचारियों के लिए अत्यधिक महत्त्व का है। एच1बी वीजा परमिट विशिष्ट विदेशी श्रमिकों को तकनीकी कौशल के साथ अमेरिका में प्रवेश और अमेरिकी कम्पनियों में रोज़गार प्राप्त करने में सक्षम बनाता है। आमतौर पर अमेरिकी सरकार द्वारा सालाना 85 हज़ार एच1बी वीजा जारी किये जाते हैं, और संयुक्त राज्य अमेरिका में ऐसे सभी वीजा धारकों में से लगभग तीन-चौथाई भारतीय हैं। भारत-अमेरिका सम्बन्धों के कई पर्यवेक्षकों का कहना है कि वर्क वीजा पर बातचीत बड़े पैमाने पर भारत-अमेरिका सम्बन्धों का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा रही है और जब इस साल जून में ट्रंप प्रशासन ने एच-1 बी वीजा को शेष वर्ष के लिए निलंबित कर दिया और बाद में फिर से इस साल अक्टूबर में ट्रंप प्रशासन ने एच1बी वीजा प्राप्त करने के लिए लॉटरी सिस्टम को समाप्त करने की घोषणा की। इसको एक ऐसे तंत्र के साथ प्रतिस्थापित किया जाना था, जो सबसे ज़्यादा वेतन देने वाली नौकरियाँ प्रदान करता है। भारतीय आईटी क्षेत्र की कम्पनियों ने इस तरह के कदमों पर चिन्ता जतायी थी। नवनिर्वाचित अमेरिकी राष्ट्रपति ने न केवल ट्रंप के फ्रीज किये गये वीजा को हटाने का वादा किया है, बल्कि अस्थायी वीजा प्रणाली को सुधारने में एक कदम और आगे बढऩे की घोषणा की है। अमेरिका में करीब पाँच लाख भारतीयों को नागरिकता देने का बाइडन का वादा एक स्वागत योग्य कदम है।

अमेरिका और भारत के रिश्ते रणनीति और भू-आर्थिक सम्बन्धों के साथ राष्ट्रीय हितों के आधार पर निर्धारित होते हैं। वैश्विक स्तर पर क्षेत्रीय हालात व राजनीति के अलावा आर्थिक हितों को देखते हुए दोनों देशों का साथ होना आवश्यक है। अंतर्राष्ट्रीय शान्ति और सुरक्षा को गति प्रदान करने में दोनों देश लोकतंत्र के मूल्यों को मज़बूती प्रदान करने में अहम भूमिका अदा कर सकते हैं। इससे विश्व को शान्ति, स्थिरता और समृद्धि की ओर ले जाने में मदद मिलेगी।

(वाशिंगटन से विशेष रिपोर्ट)

आत्मचिन्तन की घड़ी

जब भी प्रेस की स्वतंत्रता को खतरा होता है, तो ज़्यादातर पत्रकार साथी पत्रकारों के बचाव में आते हैं। हालाँकि जब रिपब्लिक टीवी के हाई प्रोफाइल सम्पादक अर्णब गोस्वामी को 2018 में अन्वय नाइक और उनकी माँ को आत्महत्या के लिए उकसाने वाले मामले में गिरफ्तार किया गया, तो पत्रकार बिरादरी उनकी पत्रकारिता के तौर-तरीकों और हाल में टीआरपी रेटिंग को लेकर उन पर कथित धाँधली के आरोपों के कारण विभाजित दिखी। वास्तव में यह साबित करने के लिए कि उनकी (अर्णब की) पत्रकारिता को जनता पसन्द करती है और विज्ञापनदाता उनके चैनल पर न्यौछावर हैं, अर्णब अक्सर टीआरपी को एक सुबूत के तौर पर अपने हक में पेश करते थे। जब नाइक की पत्नी अक्षता ने एआरजी आउटलायर के अर्णब गोस्वामी, फिरोज़ाबाद के स्काई मीडिया के फिरोज़ शेख और स्मार्ट वर्क के नितेश सारदा के खिलाफ शिकायत दर्ज करायी और जब इस मामले में गिरफ्तारियाँ हुईं, तो इसे लेकर एक व्यापक जनमत-विभाजन था; जिसमें अधिकतर ने कहा कि यह गिरफ्तारी एक आपराधिक मामले में की गयी है और इसका पत्रकारिता से कुछ लेना-देना नहीं है। जबकि कुछ का कहना है कि अर्णब के खिलाफ मामला राजनीति से प्रेरित है। हाल के दिनों में पत्रकारिता की विश्वसनीयता में गिरावट आयी है। एजेंडा आधारित अभियानों और पत्रकारिता के बीच अन्तर धुँधला गया है।

जैसा कि अपेक्षित था, गोस्वामी ने यह कहने में समय नहीं गँवाया कि उनके खिलाफ एक राजनीतिक मुहिम चल रही है। निश्चित रूप से यह समकालीन पत्रकारिता पर एक दु:खद टिप्पणी है। अर्णब गोस्वामी टेलीविजन पर सबसे चर्चित चेहरों में से एक हैं और काफी राजनीतिक रसूख रखते हैं। उनके लिए जीवन घूमकर वहीं आ गया है और जिस व्यक्ति ने एक साथ जज, वकील और वादी की भूमिका निभाकर कई मौकों पर मीडिया ट्रायल किया, फलस्वरूप पत्रकारिता की संस्था को नुकसान पहुँचाया; अब वही खुद प्रेस विशेषाधिकार की स्वतंत्रता के तहत आश्रय लेना चाहता है।

दरअसल पत्रकार की गिरफ्तारी गलत है; क्योंकि यह एक खतरनाक प्रवृत्ति का रास्ता खोलती है। कोई भी व्यक्ति किसी के पत्रकारिता के तरीके से सहमत या असहमत हो सकता है; उसे पसन्द या नापसन्द कर सकता है; लेकिन राज्य को स्थापित कानून के अनुसार काम करना चाहिए। पत्रकार को तलब किया जा सकता है। अर्णब से भी कथित शारीरिक ज़ोर-जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए थी। संविधान के अनुच्छेद-19 (1)(ए) में प्रेस की स्वतंत्रता का विशेष रूप से उल्लेख नहीं किया गया है और जो उल्लेख किया गया है, वह केवल भाषण और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता को लेकर है। संविधान सभा की बहसों में मसौदा समिति के अध्यक्ष डॉ. अंबेडकर द्वारा यह स्पष्ट किया गया था कि किसी व्यक्ति या नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता प्रेस की तरह ही है। इसमें कोई संदेह नहीं कि अर्णब मामले में एडिटर्स गिल्ड ऑफ इंडिया ने एक बयान जारी किया है; जबकि कई मंत्रियों ने इस कार्रवाई की निन्दा की है।

ज़िम्मेदार प्रेस की भूमिका समाज के पहरेदार के रूप में काम करने की है और ऐसे नैतिक मानदंड हैं, जिनका मीडिया को पालन करना चाहिए। हाल के दिनों में पत्रकारिता की विश्वसनीयता में कमी आयी है। पत्रकारिता व्यक्तिपरक एजेंडा, अभियानों और जनहित-यथार्थ की पत्रकारिता के बीच बँट गयी है। इस पत्रकार की गिरफ्तारी से हमें आत्मचिन्तन करना चाहिए और सच्चाई व जनहित की पत्रकारिता करनी चाहिए, जो स्वतंत्र, स्पष्ट और निर्भीक हो। ‘तहलका’ हमेशा ऐसी पत्रकारिता का प्रहरी रहा है।

जम्मू-कश्मीर में नये भूमि कानून से बदलेगी फिज़ा!

जम्मू-कश्मीर में नये भूमि कानून की अधिसूचना जारी होने के साथ ही सियासत नये सिरे से गरमा गयी है। 70 साल से अधिक समय से कायम भूमि कानूनों को केंद्र सरकार की ओर से खत्म करने को कश्मीरी नेताओं ने बड़ा मुद्दा बना दिया है। इस एकीकृत करने वाले फैसले से केंद्र शासित प्रदेश के लोगों से मिली-जुली प्रतिक्रिया मिली है।

यह कदम जम्मू-कश्मीर से 5 अगस्त, 2019 को संविधान के अनुच्छेद-370 और 35(ए) के मिले विशेष दर्जा को खत्म किये जाने के एक साल बाद आया है। इस पर स्थानीय लोगों की राय थी कि बाहरी आकर ज़मीन पर कब्ज़ा कर लेंगे। इस प्रावधान के रहते भारत के भी राज्य के बाहर के लोग जम्मू-कश्मीर में ज़मीन नहीं खरीद सकते थे।

तमाम आशंकाओं के बावजूद राजौरी और पुंछ के लोग भी इस फैसले से खुश हैं। यहाँ के लोगों को उम्मीद है कि अब उनके क्षेत्र में केंद्र की बड़ी विकास परियोजनाएँ लगेंगी, जिससे क्षेत्र में रोज़गार के मौके मिलेंगे। नयी व्यवस्था के तहत केंद्र शासित प्रदेश में गैर-कृषि भूमि खरीदने के लिए कोई अधिवास या स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र की आवश्यकता नहीं है। केंद्रीय गृह मंत्रालय ने सभी भारतीय नागरिकों द्वारा जम्मू-कश्मीर में ज़मीन खरीदने का अधिकार प्रदान करने का रास्ता खोल दिया है और इसके लिए रियल एस्टेट (विनियमन और विकास) अधिनियम-2016 को भी अधिसूचित किया है। जम्मू-कश्मीर अलगाववाद भूमि अधिनियम (पाँचवाँ संवत् 1995), जम्मू और कश्मीर बड़ा भू-सम्पदा उन्मूलन अधिनियम (17वाँ संवत् 2007), जम्मू और कश्मीर आम भूमि (विनियमन अधिनियम), 1956 को निरस्त कर दिया गया है। जम्मू और कश्मीर समेकन होल्डिंग्स अधिनियम-1962, जम्मू और कश्मीर बाढ़ के मैदान क्षेत्र (विनियमन और विकास) अधिनियम, जम्मू और कश्मीर भूमि सुधार योजना अधिनियम (1972 का 24वाँ), जम्मू और कश्मीर कृषि होल्डिंग अधिनियम के विखण्डन की रोकथाम अधिनियम व अन्य भूमि से जुड़े अधिनियम अब लागू नहीं होंगे।

आर्थिक समृद्धि

फेडरेशन ऑफ इंडस्ट्रीज जम्मू (एफओआईजे) के अध्यक्ष ललित महाजन इस फैसले का स्वागत करते हुए कहते हैं कि इससे स्थानीय और बाहरी दोनों के लिए एक जीत की स्थिति होगी। महाजन ने कहा कि भूमि कानूनों में संशोधन निश्चित रूप से यहाँ औद्योगिक विकास को बड़ा बढ़ावा देगा। राज्य में औद्योगिक क्षेत्र, स्वास्थ्य, चिकित्सा शिक्षा, पर्यटन उद्योग, रियल एस्टेट और अन्य क्षेत्र में भारी निवेश के रास्ते खुलेंगे, जो स्थानीय युवाओं को निजी क्षेत्र में रोज़गार के अवसर प्रदान करेंगे।

सम्भावनाएँ

पर्यटन पिछड़े क्षेत्रों के विकास में एक अहम िकरदार अदा करता है और पूरे जम्मू-कश्मीर में इसकी अपार सम्भावनाएँ हैं। ज़मीन खरीद का रास्ता खुलने से निजी व्यक्तियों और बहुराष्ट्रीय कम्पनियों से निवेश आयेगा, जिससे अर्थ-व्यवस्था को बढ़ावा मिलेगा। शिक्षा संस्थाओं का निर्माण करके यहाँ पर युवाओं को पढऩे के लिए मौके प्रदान किये जा सकते हैं। निवेश में वृद्धि से रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे और राज्य में सामाजिक-आर्थिक बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने में मदद मिलेगी। राजौरी शहर के एक स्थानीय दुकानदार ने नये भूमि संशोधन का स्वागत कर कहा कि अनुच्छेद- 370 के खात्मे से सड़कों और संचार सुविधाओं का तेज़ी से विस्तार देखा गया है। कई स्कूलों और कॉलेजों को अपग्रेड किया गया। हालाँकि यहाँ पर लोग नये बदलाव का स्वागत कर रहे हैं; पर जम्मू-कश्मीर में 5 अगस्त, 2019 के बाद से हाई-स्पीड मोबाइल इंटरनेट सेवाओं के बन्द होने के बाद छात्र और युवा हथियार उठा रहे हैं। पिछले साल से, जबसे कम्युनिकेशन सुविधा से राज्य के लोगों को महरूम किया गया है; छात्र और शिक्षक ज़्यादा इससे पीडि़त हैं। जम्मू के युवाओं का कहना है कि देश में नौकरी के अवसरों से भी अपने आपको वंचित रख रहे हैं; क्योंकि इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध नहीं है और कोरोना-काल में ज़्यादातर अवसर ऑनलाइन ही मयस्सर हैं।

कोविड-19 के दौरान छात्र सबसे ज़्यादा पीडि़त हैं; जबकि उनके शैक्षणिक संस्थानों को वर्चुअल कक्षाओं में स्थानांतरित कर दिया गया है। वे कक्षाएँ लेने में खुद को अक्षम पाते हैं; क्योंकि राज्य में सभी के पास ब्रॉडबैंड सेवाएँ नहीं हैं। 12वीं कक्षा के छात्र धनुष शर्मा कहते हैं कि कश्मीर के पापों का भुगतान जम्मू को करना पड़ रहा है। सरकार को चाहिए कि जम्मू में हाई स्पीड इंटरनेट सेवा तत्काल बहाल करे।

11 भूमि कानून किये गये निरस्त

सरकार ने जम्मू-कश्मीर के 11 भूमि कानूनों को निरस्त कर दिया है, जिसमें आधुनिक, प्रगतिशील और लोगों के अनुकूल प्रावधानों वाले कानून के लिए अधिसूचना जारी की है। नये भूमि कानून जम्मू-कश्मीर में 90 फीसदी से अधिक भूमि को न केवल बाहरी लोगों से सुरक्षा प्रदान करेंगे, बल्कि कृषि क्षेत्र को बढ़ावा, तेज़ी से औद्योगिकीकरण, आर्थिक विकास में सहायता करने और जम्मू-कश्मीर में नौकरियाँ पैदा करने में भी मदद करेंगे। जम्मू-कश्मीर सरकार के प्रवक्ता और प्रमुख सचिव सूचना रोहित कंसल ने टिप्पणी की कि पुरानी कृषि आधारित अर्थ-व्यवस्था की सेवा के लिए निरस्त कानून बनाये गये थे और आधुनिक आर्थिक ज़रूरतों के लिए संशोधित किये जाने की आवश्यकता थी। नये भूमि कानून बाहरी लोगों के लिए भूमि खरीदने के लिए पर्याप्त सुरक्षा प्रदान किये जाने के साथ ही आधुनिक और प्रगतिशील हैं। इसी तर्ज पर कई नये कानून, हिमाचल प्रदेश और उत्तराखण्ड जैसे अन्य राज्यों में भी बनाये गये हैं। अब राजस्व बोर्ड का गठन करने, भूमि के उपयोग को विनियमित करने के लिए क्षेत्रीय नियोजन, अलगाव और रूपांतरण, भूमि पट्टे, समेकन और अनुबन्ध खेती के लिए प्रावधान हैं।

जम्मू क्षेत्र की बदल सकती है िकस्मत

जम्मू कश्मीर विश्वविद्यालय में समाज शास्त्र के पूर्व एचओडी प्रोफेसर हरिओम नये जम्मू-कश्मीर भूमि कानून को प्रगतिशील मानते हैं। वह कहते हैं- ‘जम्मू के सियासी दलों और सभी धर्मों के नेताओं को इस अवसर पर उठना चाहिए और जम्मू क्षेत्र के नेताओं जम्मू-कश्मीर के चंगुल से आज़ाद होने के  स्थायी समाधान के लिए काम करना चाहिए। मैं उन कथित नेताओं से पूछना चाहता हूँ, जिन्होंने अक्टूबर, 1949 में महाराज हरिसिंह के जम्मू-कश्मीर को अनुच्छेद 306-ए (अनुच्छेद 370) को अपनाकर राज्य को मुख्यधारा से दूर कर दिया था और शेख अब्दुल्ला की चाहत के मुताबिक ही काम हुआ था। खास प्रावधान से राजनीति के लिए उन्मुखीकरण और डोगरों की विशिष्ट पहचान खत्म की गयी? उन्होंने कहा कि सन् 1950 में डोगरा महाराजा हरि सिंह के कृषि कानूनों को क्षतिपूर्ति के बिना डोगरा समुदाय से कम से 5.4 लाख लोगों से भूमि छीनकर शेख अब्दुल्ला के लोगों को दे दी थी। अब नये कानून में इसे वापस लेने का रास्ता खुल सकता है।’

प्रो. हरिओम कहते हैं कि दुर्भाग्य से जम्मू-कश्मीर की सियासी पार्टियाँ- नेशनल कॉन्फ्रेंस, कांग्रेस, पीडीपी और जेकेएपी नये भूमि कानून के खिलाफ आवाज़ बुलंद कर रही हैं। वे गुपकारियों की भाषा बोल रही हैं, जिनके पाकिस्तान समर्थक और चीन समर्थक होने की बात अच्छी तरह से जानी जाती है और उनका एजेंडा जम्मू प्रान्त के राष्ट्रवादी और शान्तिप्रिय लोगों के बीच भय की भावना पैदा करना है। यहाँ यह उल्लेख करना उचित है कि जम्मू प्रान्त में बेरोज़गार युवाओं की संख्या सबसे अधिक है; जबकि जम्मू-कश्मीर में सरकारी और अर्ध-सरकारी प्रतिष्ठानों में 4.5 लाख नौकरियों में से कश्मीरी युवा पहले से ही लगभग 3.80 लाख हैं। जम्मू के युवा केवल 70,000 नौकरियों पर सेवाएँ दे रहे हैं। कश्मीर में बेरोज़गारी की दर 30 फीसदी से कम है। जम्मू क्षेत्र में यह दर 69 फीसदी से अधिक है। निष्पक्ष आँकड़े देखेंगे, तो पाएँगे कि जम्मू प्रान्त की जनसंख्या कश्मीर की तुलना में कम-से-कम 8 से 10 लाख अधिक है।

नये संशोधनों का स्वागत है

जम्मू स्थित एनजीओ आईआईकेजेयूटी के अध्यक्ष और वकील अंकुर शर्मा ने जम्मू की जनसांख्यिकी को बदलने की कोशिश करने वालों के खिलाफ अभियान का समर्थन करते हुए नये संशोधनों का स्वागत किया है और कश्मीर केंद्रित राजनेताओं पर जम्मू क्षेत्र के राज्य प्रायोजित जनसांख्यिकीय अतिक्रमण में शामिल होने का आरोप लगाया है।

यह पूछे जाने पर कि क्या उन्हें नौकरी के लिए खतरा है? क्योंकि जम्मू में पहले से ही रोज़गार की कमी है। उन्होंने कहा कि अब उन्हें कोई खतरा नहीं है। क्योंकि जो कोई भी निवेश करना चाहेगा, वह निश्चित रूप से जम्मू आयेगा; कश्मीर क्यों जायेगा? ध्यान देने वाली बात यह है कि सन् 2014 में वकील अंकुर शर्मा ने जम्मू-कश्मीर हाईकोर्ट का दरवाज़ा खटखटाया था और रोशनी अधिनियम के तहत राज्य की भूमि के आवंटन में अनियमितता के आरोप लगाये थे। रोशनी अधिनियम के तहत शीर्ष राजनेताओं और नौकरशाहों, प्रभावशाली व्यापारियों और उच्च रैंकिंग वाले सरकारी अधिकारियों को भूमि हस्तांतरण की अदालती निगरानी में जाँच की माँग की थी। आरोप है कि जम्मू शहर में बाज़ार दर से बहुत कम कीमत में मुसलमानों को 50 लाख कनाल ज़मीन आवंटित की गयी थी। हिन्दू बहुल क्षेत्र में पहले से ही मुस्लिम कॉलोनियों और बस्तियों का निर्माण किये जाने को जगह घेर ली गयी है। इससे जम्मू शहर में और आसपास मुस्लिम आबादी को फैलाया जा सके; साथ ही इस पर किसी का ध्यान न जा सके। शर्मा कहते हैं- ‘इससे सरकारी खजाने को 25,000 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। रोशनी अधिनियम को निरस्त करना जिहादी युद्ध को पराजित करने के लिए एक बड़ा कदम था; जो जम्मू क्षेत्र में जनसांख्यिकीय अतिक्रमण के रूप में शुरू होने वाला था। इससे अवैध कब्ज़ेदारों ने राज्य की भूमि पर बहुमंज़िला परिसर, महलनुमा इमारतें, आलीशान घर खड़े कर दिये थे। उन्हें बहुत कम राशि पर आवंटित किया गया।’

बयानबाज़ी से नहीं मिल रहे अच्छे संकेत

31 वर्षों से निर्वासित जीवन बिता रहे पनुन कश्मरी के संयोजक डॉ. अजय चुरंगू ने नये भूमि कानूनों का स्वागत करते हुए खुद को अपनी मातृभूमि यानी कश्मीर में झेलम नदी के उत्तर पूर्वी तट पर बसाने की माँग की है। उनकी भू-राजनीतिक आकांक्षाएँ और सन् 1991 से पहले वाली स्थिति के अनुसार की हैं। जब उनसे पूछा गया कि पहले पुनर्वास किया जाना चाहिए था, फिर नये कानूनों को लागू किया जाता? उन्होंने कहा कि बहुत-सी चीज़ें हैं, जिन्हें किया जाना चाहिए था, जैसे- समुदाय की मान्यता को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। अनुच्छेद-370 का खात्मा, राज्य को दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँटना और जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट (जेकेएलएफ) पर प्रतिबन्ध लगाना, निश्चित रूप से उम्मीदें जगाता है; लेकिन राज्य और केंद्र में ईमानदारी से बहाली की पहल पर बयानबाज़ी से अच्छे संकेत नहीं मिल रहे हैं। जब आप नरसंहार से इन्कार करते हैं, तो यह भी नरसंहार है, जो अपराध है। हिन्दुओं के कश्मीर से छोडऩे को मजबूर किया गया। निर्वासन में रहते हुए विस्थापित हिन्दुओं को अपने नरसंहार से इन्कार करना पड़ा। उन्होंने कहा कि वास्तविक समस्या को हाल ही में तब तक मान्यता नहीं दी गयी थी, जब तक कि जेकेएलएफ पर प्रतिबन्ध नहीं लगाया गया था और सरकार ने पहली बार स्वीकार किया कि जेकेएलएफ कश्मीरी पंडितों के नरसंहार के लिए ज़िम्मेदार था। उन्होंने कहा कि पनुन कश्मीर ने भारत सरकार को पहले ही हिन्दू नरसंहार और अत्याचार निरोधक बिल को सौंप दिया है और उम्मीद की है कि इस विधेयक पर विचार किया जाएगा और भारत की संसद इसे कानून का रूप प्रदान करेगी।