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सौर ऊर्जा विकल्पों के साथ बढ़ेंगे ई-वाहन

अगर अभी से प्रदूषण पर काबू नहीं पाया गया, तो आने वाले समय में इतना प्रदूषण बढ़ जाएगा कि अगले पाँच दशक यानी आधी शताब्दी में बीमारियों की संख्या दोगुनी हो सकती है। वैसे गौर करने वाली बात है कि इस साल कोरोना महामारी ने दस्तक दी, जिसके चलते बीमार लोगों की संख्या बढऩे के साथ-साथ कोरोना के अलावा दूसरी बीमारियों से मरने वालों की संख्या पिछले वर्षों से काफी ज़्यादा रही है। हालाँकि इस बात के पुष्ट आँकड़े अभी आने बाकी हैं, लेकिन एक अनुमान के अनुसार पूरी दुनिया में सभी बीमारियों से डेढ़ करोड़ के करीब लोगों की मौत की सम्भावना जतायी गयी है।

आने वाले समय में भयंकर त्रासदियों से बचने का एक ही उपाय है कि हम प्राकृतिक संसाधनों का उपयोग प्रकृति से बिना छेड़छाड़ के करें और जितना सम्भव हो सके जलने वाले ईंधनों का कम-से-कम उपयोग करें। हालाँकि भारत ने इस दिशा में काफी पहले कदम बढ़ा दिये हैं, लेकिन इसकी रफ्तार अभी बहुत धीमी है।

हाल ही में 14 से 16 अक्टूबर, 2020 के बीच अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबन्धन (आईएसए) का तीसरा वर्चुअल सम्मेलन आयोजित हुआ, जिसमें आईएसए के 34 सदस्य देशों के प्रतिनिधियों ने, जबकि उपस्थिति के रूप में 53 सदस्य देशों और 5 हस्ताक्षरकर्ता एवं भावी सदस्य देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में दो साल के कार्यकाल के लिए भारत को आईएसए का अध्यक्ष और फ्रांस को सह-अध्यक्ष फिर से चुना गया है। आईएसए के चार क्षेत्रों का प्रतिनिधित्व करने के लिए चार नये उपाध्यक्ष- एशिया प्रशांत क्षेत्र के लिए फिजी एवं नाउरू, अफ्रीका के लिए मॉरीशस एवं नाइजर, यूरोप एवं अन्य क्षेत्र के लिए ब्रिटेन, नीदरलैंड, लैटिन, अमेरिका और कैरिबियन क्षेत्र के लिए क्यूबा एवं गुयाना के प्रतिनिधियों को बनाया गया।

इस सम्मेलन में कोएलिशन फॉर सस्टेनेबल क्लाइमेट एक्शन (सीएससीए) के ज़रिये निजी एवं सार्वजनिक कॉर्पोरेट क्षेत्र के साथ आईएसए की भागीदारी को संस्थागत बनाने में आईएसए सचिवालय की पहल को भी मंज़ूरी दी गयी। सम्मेलन के दौरान भारत के 10 सार्वजनिक क्षेत्र के संगठनों में से प्रत्येक ने आईएसए को 10 लाख अमेरिकी डॉलर (करीब 739.1 लाख रुपये) का चेक दिया।

सम्मेलन के समापन के दौरान आईएसए सम्मेलन के अध्यक्ष, भारत के ऊर्जा और नवीन एवं नवीकरणीय ऊर्जा मंत्री आर.के. सिंह ने कहा कि सौर ऊर्जा वैश्विक बिजली में लगभग 2.8 फीसदी योगदान पहले से ही कर रही है। अगर यह जारी रहा, तो 2030 तक सौर ऊर्जा दुनिया के एक बड़े हिस्से में बिजली उत्पादन के लिए सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत बन जाएगी।

उन्होंने बताया कि आईएसए के पास अपने सम्बन्धित कार्यक्रमों के तहत 22 देशों में 2 लाख 70 हज़ार से अधिक सौर पम्पों, 11 देशों में एक गीगावॉट से अधिक सोलर रूफटॉप और 9 देशों में 10 गीगावॉट से अधिक सोलर मिनी-ग्रिडों की माँग है। हाल में आईएसए ने 47 मिलियन (470 लाख) होम पॉवर सिस्टम की माँग को पूरा करने के लिए कार्यक्रम शुरू किये हैं। फ्रांस ने अपनी भागीदारी को दोहराते हुए कहा है कि प्रतिबद्ध 2022 तक आईएसए सदस्य देशों में सौर परियोजनाओं के लिए 1.5 अरब यूरो के वित्त पोषण और इसमें 1.15 अरब यूरो ठोस परियोजनाओं के लिए प्रतिबद्ध है। वर्ष 2020 में आईएसए सचिवालय ने संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन (यूएनआईडीओ) के साथ मिलकर काम करते हुए आईएस सोलर टेक्‍नोलॉजी एंड एप्लिकेशन रिसोर्स सेंटर (आईएसए स्टार सी) नेटवर्क के संचालन पर ध्यान केंद्रित किया है। इसके अलावा 25 से 27 फरवरी, 2020 तक पेरिस में आईएसए स्टार सी परियोजना के विकास पर एक परामर्श कार्यशाला का आयोजन किया गया, जिसकी मेजबानी फ्रांस सरकार द्वारा की गयी। आईएसए को 2030 तक सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करने और जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में काम करने वाला एक प्रमुख संगठन माना जाता है।

इससे पहले 2019 में अंतर्राष्ट्रीय सौर गठबंधन यानी इंटरनेशनल सोलर एलांयस (आईएसए) की आभासी बैठक हुई थी, जिसमें भारत को इसका अध्यक्ष और फ्रांस को सह-अध्यक्ष चुना गया था। भारत की यह ज़िम्मेदारी अब और बढ़ गयी है।

सौर ऊर्जा को बढ़ावा देने के लिए भारत का योगदान

इस समय वैश्विक स्तर पर विद्युतीकरण में सौर ऊर्जा का योगदान करीब 2.8 फीसदी है। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक भारत में इसका योगदान यानी सौर ऊर्जा का उत्पादन और इस्तेमाल कम-से-कम 40 फीसदी तक हो। वहीं आईएसए का लक्ष्य है कि 2030 तक एक ट्रिलियन वॉट (1000 गीगावॉट) सौर ऊर्जा उत्पादन किया जाए। लेकिन इसके लिए भारत और दूसरे सदस्य देशों को इस दिशा में और अधिक गति से काम करना पड़ेगा। इस दिशा में जितने देश आजकल काम कर रहे हैं, उन्हें भी भारत का इसमें सहयोग करना पड़ेगा। अगर ऐसा हो सका, तो बहुत कम कीमत पर लोगों को ऊर्जा मिलने लगेगी और साथ ही सौर ऊर्जा दुनिया के बड़े हिस्से में बिजली उत्पादन के लिए ऊर्जा का सबसे महत्त्वपूर्ण स्रोत बन जाएगा।

फिलहाल सौर ऊर्जा से प्रकाश, सिंचाई और पीने के पानी जैसे छ: कार्यक्रम और दो परियोजनाएँ संचालित की जा रही हैं। इसे देखते हुए पिछले दिनों आईएसए के 22 सदस्य देशों द्वारा 2,70,000 से अधिक सोल पम्पों की माँग की जा चुकी है, जिसमें लगातार इज़ाफा हो रहा है। इनमें 11 देशों में एक गीगावॉट से अधिक सोलर रूफटॉप और 9 देशों में 10 गीगावाट से अधिक सोलर मिनी-ग्रिडों की माँग की गयी है। 2019 में आईएसए ने 47 मिलियन (470 लाख) होम पॉवर सिस्टम (गृह ऊर्जा प्रणाली) के लिए कार्यक्रम शुरू किये हैं। इस योजना से भारत के अलावा सौर ऊर्जा में रुचि लेने वाले सभी देशों के ग्रामीण इलाकों में ऊर्जा की ज़रूरतों को पूरा किया जा सकेगा। 2019 की आईएसए की बैठक में सदस्य देशों ने जलवायु परिवर्तन से लडऩे के लिए यूनाइटेड किंगडम की उस प्रतिबद्धता को याद किया, जिसमें उसने अगले पाँच वर्षों में कोयले के प्रयोग को समाप्त करके 2050 तक सभी ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को शून्य स्तर पर लाने की योजना बनायी है। इसके अलावा सीओपी-26 के दौरान एलायंस / गठबन्धन के लिए एक मंच प्रदान करना, विश्व सौर बैंक के कार्यान्वयन को लेकर व्यवहार्यता-अध्ययन का समर्थन करना, मानव और वित्तीय पम्प आदि प्रदान करके वन सन, वन वल्र्ड, वन ग्रिड की पहल के लिए आईएसए सचिवालय की सहायता करना आदि इसमें शामिल हैं।

फ्रांस की भागीदारी

आईएसए में भागीदारी के रूप में 2022 तक फ्रांस की एक सह-अध्यक्ष के रूप में शामिल है और सदस्य देशों में सौर परियोजनाओं के लिए 1.5 बिलियन (150 करोड़) यूरो की आर्थिक मदद के लिए प्रतिबद्ध है, जिनमें से ठोस रूप में 1.15 बिलियन (115 करोड़) यूरो को वित्त परियोजनाओं पर खर्च किये जाने की योजना है। इसके अलावा फ्रांस ने विश्व बैंक के साथ वित्त पोषण में सहयोग करने के लिए भी समर्थन दिया है। इसके अलावा फ्रांस और यूरोपीय संघ के समर्थन से शुरू सतत् नवीकरणीय जोखिम न्यूनीकरण पहल की शुरुआत की गयी है। यह योजना मोजाम्बिक में लॉन्च की गयी है। माना जा रहा है कि इस योजना से 10 से अधिक गीगावॉट वाली सौर परियोजनाओं के वित्त पोषण के लिए निजी निवेश के माध्यम से 18 बिलियन (180 करोड़) यूरो जुटाने में मदद मिलेगी; जिसकी शुरुआत भी हो चुकी है।

इसके अलावा आईएसए के स्टार-सी कार्यक्रम- फ्रेंच नेशनल इंस्टीट्यूट फॉर सोलर एनर्जी के तहत फ्रांस प्रशांत महासागर के छोटे द्वीप राज्यों को एक विशेष कार्यक्रम के ज़रिये सौर ऊर्जा से जोडऩे की कोशिश में है।

भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन के सम्भावित क्षेत्र

वैसे तो भारत में सौर ऊर्जा उत्पादन के लिए तकरीबन सभी क्षेत्र उपयोगी हैं, लेकिन पहाड़ी, बर्फीले और अधिक वर्षा वाले क्षेत्रों में सौर पैनल उतना काम नहीं कर सकते, जितना कि दूसरे क्षेत्रों में। इस लिहाज़ से सौर ऊर्जा उत्पदान के लिए पंजाब, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, दिल्ली, बिहार, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, आंध्र प्रदेश, तमिलनाडु, केरल, तेलंगाना, राजस्थान, गुजरात, झारखण्ड, छत्तीसगढ़, उड़ीसा, मद्रास, पश्चिम बंगाल, असम आदि राज्य काफी अनुकूल हैं। लेकिन शहरों में घरों की छतों पर सौर पैनल लगाये जा सकते हैं, जबकि देहात क्षेत्र में कृषि भूमि पर इन्हें बहुतायत में नहीं लगाया जा सकता। इसलिए सरकार को सौर पैनल लगाने के लिए बंजर, रेतीली और पथरीली भूमि की तलाश करनी होगी, जहाँ अधिक-से-अधिक सौर पैनल लगाकर बड़ी मात्रा में ऊर्जा उत्पादन किया जा सकता हो। इसके दो फायदे होंगे, पहला यह कि बेकार पड़ी भूमि सौर ऊर्जा उत्पादन के काम आ जाएगी और दूसरी भारत ग्रामीण इलाकों में जहाँ अभी भी विद्युत आपूर्ति ठीक से नहीं हो पाती, वहाँ लोगों को इसका बेहतर लाभ मिल सकेगा। क्योंकि यह एक सस्ता ऊर्जा स्रोत है, इसलिए इसका इस्तेमाल देश की अधिकतर जनसंख्या सस्ते में आराम से कर सकेगी।

आईएसए का महत्त्व

वैश्विक स्तर पर बढ़ते प्रदूषण और ओजोन परत में बढ़ते छेद से वैज्ञानिकों, समाजविदों और समाजसेवी संगठनों में बढ़ती चिन्ता का एक बेहतर समाधान सौर ऊर्जा है। ऐसे में आईएसए की पहल से न केवल हरित क्रान्ति को बढ़ावा मिलेगा, बल्कि लोगों की अनेक शारीरिक, मानसिक समस्याओं का समाधान होगा। अब पूरे विश्व में अधिक ठंडक और अधिक गर्मी से बचने के लिए भी सौर ऊर्जा की माँग बढ़ रही है। ऐसे में गर्म और ठंडे स्थानों पर प्रत्यक्ष रूप से सौर विकिरण (सूर्य की किरणों) का इस्‍तेमाल करने और उसका सही इस्तेमाल करने की काफी गुंजाइश है।

हाल ही में 4 करोड़ 7 लाख सोलर होम सिस्टम और अगस्त, 2020 में आईएसए सदस्य देशों के बीच 25 करोड़ एलईडी लैंप वितरित करके आईएसए ने सौर ऊर्जा उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए एक बड़ी पहल की है।

अब वैश्विक स्तर पर आईएसए को 2030 तक सतत् विकास लक्ष्यों को हासिल करने के साथ-साथ जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के उद्देश्यों को प्राप्त करने की दिशा में कार्य करने वाला एक प्रमुख संगठन माना जाता है। बता दें कि आईएसए का पहला सम्मेलन 2 से 5 अक्टूबर, 2018 को ग्रेटर नोएडा (एनसीआर क्षेत्र, भारत) में आयोजित किया गया था। इसका उद्घाटन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने किया था। वहीं आईएसए का दूसरा सम्मेलन 30 अक्टूबर, 2019 से 01 नवंबर, 2019 के बीच नई दिल्ली में आयोजित किया गया, जिसमें 78 देशों ने भाग लिया। इस सम्मेलन में आईएसए ने स्टार-सी परियोजना की शुरुआत की, जिसमें इस परियोजना के परिचालन ढाँचे एवं परियोजना दस्तावेज़ को विकसित करने के लिए संयुक्त राष्ट्र औद्योगिक विकास संगठन के साथ मिलकर कार्य करने की बात कही गयी है। अब इस संगठन का तीसरा सम्मेलन वर्चुअल (आभासी) तरीके से 14 से 16 अक्टूबर, 2020 को हुआ है।

केंद्र सरकार का सौर ऊर्जा मिशन

केंद्र सरकार का राष्‍ट्रीय सौर ऊर्जा मिशन सौर ऊर्जा के उपयोग को बढ़ावा देने के लिए एक बेहतरीन कदम है। इसका उद्देश्‍य ऊर्जा विकल्पों के साथ सौर ऊर्जा को प्रतिस्पर्धी बनाना, बिजली सृजन करना और दीर्घकालिक नीति, बड़े स्‍तर पर परिनियोजन लक्ष्‍यों, महत्त्वाकांक्षी अनुसंधान एवं विकास तथा महत्त्वपूर्ण कच्‍चे माल, अवयवों तथा उत्‍पादों के घरेलू उत्‍पादन के माध्‍यम से देश में सौर ऊर्जा सृजन की लागत को कम करना है। केंद्र सरकार ने देश की फोटोवोल्टिक क्षमता को बढ़ाने के लिए सोलर पैनल निर्माण उद्योग को 210 अरब रुपये की सरकारी सहायता देने की योजना बनायी है।

सरकार ने प्रयास (क्कक्र्रङ्घ्रस् – क्कह्म्ड्डस्रद्धड्डठ्ठ रूड्डठ्ठह्लह्म्द्ब ङ्घशद्भड्डठ्ठड्ड द्घशह्म् ्रह्वद्दद्वद्गठ्ठह्लद्बठ्ठद्द स्शद्यड्डह्म् रूड्डठ्ठह्वद्घड्डष्ह्लह्वह्म्द्बठ्ठद्द) नामक इस योजना के तहत 2030 तक कुल ऊर्जा का 40 फीसदी हरित ऊर्जा से उत्पन्न करने का लक्ष्य रखा है। इसी प्रकार केंद्र सरकार ने किसान ऊर्जा सुरक्षा और उत्थान महा-अभियान (कुसुम) योजना के तहत बिजली संकट से जूझ रहे इलाकों में सौर ऊर्जा पहुँचाने का लक्ष्य रखा है। कुसुम योजना के तहत देश भर में सिंचाई के लिए इस्तेमाल होने वाले सभी डीज़ल/बिजली के पम्प को सोलर ऊर्जा से चलाने की योजना है। कुसुम योजना का ऐलान आम बजट 2018-19 में तत्कालीन केंद्रीय वित्त मंत्री अरुण जेटली ने किया था। इस योजना के तहत 2022 तक देश में तीन करोड़ सिंचाई पम्प को बिजली या डीज़ल की जगह सौर ऊर्जा से चलाने की कोशिश की जा रही है। माना जा रहा है कि कुसुम योजना पर करीब 1.40 लाख करोड़ रुपये की लागत आयेगी। इस योजना के तहत कुल खर्च में से 48 हज़ार करोड़ रुपये का योगदान केंद्र सरकार करेगी, जबकि इतनी ही राशि राज्य सरकार देगी। इस योजना का लाभ लेने वाले किसानों को सोलर पम्प की लागत का केवल 10 फीसदी वहन करना होगा।

भारत में बढ़ेंगे ई-वाहन घट सकते हैं पेट्रोल पम्प

जबसे देश में सीएनजी का उपयोग बढ़ा है, तबसे पेट्रोल की गाडिय़ों की संख्या घटी है। अब देश में ई-वाहनों (इलेक्ट्रिक वाहनों) की संख्या लगातार बढ़ रही है। इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार फेम कार्यक्रम को मंज़ूरी दे चुकी है। भारतीय शहरों में बढ़ते प्रदूषण को कम करने के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण पहल है। केंद्र सरकार का लक्ष्य है कि 2030 तक देश में सार्वजनिक परिवहन पूरी तरह इलेक्ट्रॉनिक हो। 2030 तक सरकार की योजना व्यक्ति परिवहन के लिए इलेक्ट्रॉनिक वाहनों की संख्या भी 40 फीसदी तक पहुँचाने की है। विदित हो कि आज विश्व के 20 सर्वाधिक प्रदूषित शहरों में से 14 शहर भारत के हैं। यही वजह है कि केंद्र सरकार ने अपने ग्रीनहाउस गैस उत्सर्जन को 2030 तक 2005 के स्तर की तुलना में 33 से 35 फीसदी कम करने की प्रतिबद्धता जतायी है। अगर ई-वाहनों की संख्या भारत में तेज़ी से बढती है, तो ज़ाहिर तौर पर पेट्रोल पम्पों की संख्या घटेगी। लेकिन ऐसा करना आसान भी नहीं होगा; क्योंकि बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ डीज़ल-पेट्रोल के धन्धे में उतरी हुई हैं। इतना ही नहीं, केंद्र सरकार भी भारत में पेट्रोल की बिक्री पर मोटा कर (टैक्स) वसूलती है। ऐसे में अगर पेट्रोल पम्पों की संख्या घटती है, तो सरकार के खाते में टैक्स के नाम पर जाने वाली एक मोटी राशि कम होगी, जिसे सरकारी बजट के घाटे के तौर पर देखा जा सकता है। इसके अलावा पेट्रोल पम्प चलाने वाले लोगों का काम बन्द होगा, जिससे देश में इस व्यवसाय से जुड़े लोगों के अलावा लाखों लोग बेरोज़गार होंगे। क्या पेट्रोल का धन्धा करने वाली कम्पनियाँ, पेट्रोल के धन्धे से जुड़े लोग और सरकार यह घाटा सहने के लिए तैयार बैठे हैं? क्योंकि ई-वाहनों के लिए अगर कहीं केंद्र खोले भी जाएँगे, तो न तो उनकी आमदनी इतनी हो सकेगी और न ही उन पर काम करने वालों की संख्या इतनी होगी, जितनी कि एक पेट्रोल पम्प पर होती है।

किसानों की मेहनत पर जमाखोरों की चाँदी

सन् 2014 से पहले महँगाई का रोना रोने वाली राजनीतिक पार्टी भाजपा के किसानों की आय दोगुनी करने के वादे को अब जुमला ही माना जाना चाहिए; क्योंकि अब किसानों की तकलीफें लगातार बढ़ती जा रही हैं। इस बारे में हमने कई छोटे-बड़े किसानों और कृषि विशेषज्ञों से बातचीत की। बड़ी जोत के मालिक 68 वर्षीय रामसेवक चौधरी कहते हैं कि किसानों की दशा सुधारने पर अगर किसी ने काम किया, तो वे लाल बहादुर शास्त्री और चौधरी चरण सिंह थे। इतने पर भी किसानों की दशा में जिस सुधार की ज़रूरत रही है, वह आज तक नहीं हुआ। इसके बावजूद अबकी सरकारें सिर्फ और सिर्फ अपनी जेबें भरने में लगी हैं। हाल ही में आये तीन नये कृषि कानूनों के बाद किसानों को उनकी मेहनत का फल उतना भी नहीं मिलेगा, जितना अब तक मिलता रहा है। रामसेवक का कहना है कि किसानों से उसकी महीनों की कमायी गयी फसल मण्डियों में सस्ते में लूट ली जाती है, वही फसल किसान के हाथों से निकलते ही बाज़ार में रातोंरात दोगुने-तीन गुने भाव में बिकती है। व्यापारी उसे बेचकर रातोंरात किसान से कई गुना ज़्यादा पैसा कमा लेते हैं। देश के अन्दर आज हर चीज़ के दाम तय हैं, मसलन दवा से लेकर दारू तक, लेकिन किसानों की किसी भी फसल का न तो दाम तय है और न ही उसे सही भाव मिलता है। क्या दिन-रात जी तोड़ मेहनत करने वाले किसानों को अपनी फसल का पूरा और सही मूल्य लेने का भी हक नहीं है?

सब्ज़ी उगाने वाले तेजराम मौर्य ने बताया कि उनके यहाँ उनके दादा-परदादा के समय से ही बरिहाना (सब्ज़ियों की खेती) होता रहा है। बरिहाने में दिन-रात की कड़ी मेहनत होती है। रात-दिन की रखवाली होती है, तब कहीं जाकर मण्डी में सब्ज़ी पहुँचती है; लेकिन उन्हें तीन-चार महीने की मेहनत का उतना पैसा भी नहीं मिलता, जितना एक घंटे में व्यापारी कमा लेते हैं। तेजराम ने बताया कि इस बार जब गोभी 60 से 80 रुपये बिक रही थी, तब भी उनकी गोभी 15-16 रुपये किलो ही बिक रही थी। अब तो उसके दाम भी 4-5 रुपये किलो से ज़्यादा नहीं मिलते, जबकि गोभी उगाने में जो मेहनत और लागत है, वह इससे कहीं ज़्यादा है। प्याज और आलू के बारे में पूछने पर तेजराम कहते हैं कि प्याज तो हमने तभी बेच दिया था, जब वह एक-दो रुपये किलो बिक रहा था। क्या करें घर में नहीं रख सकते, सड़ जाता है। फिर यह भी कहाँ पता था कि प्याज इतना महँगा बिकेगा। फिर कहते हैं- क्या फायदा? महँगा बिक भी रहा है, तो उसका सही फायदा किसानों को मिलता ही कहाँ है? किसान से तो मुफ्त में सब्ज़ियाँ छीन ली जाती हैं। असली मुनाफा तो व्यापारी ही कमाता है।

ठीकठाक पढ़े-लिखे और आधुनिक खेती करने वाले रामेश दिवाकर कहते हैं कि किसानों के प्रति सरकार की उदासीनता और उनके प्रति भेदभाव की मानसिकता के चलते आज तक किसानों का उद्धार नहीं हो सका है। किसानों की मेहनत का फल बिचौलिये और दलाल मिलकर खाते हैं। मैं इस बात का गवाह हूँ कि मण्डियों में दलाली करने वालों की कोठियाँ बनी हुई हैं, जबकि 50-50 बीघा ज़मीन के मालिक किसानों के पास इतनी भी पूँजी नहीं कि वह अपने बच्चों को अच्छी शिक्षा दिला सके। रामेश कहते हैं कि इसके पीछे सरकार में बैठे मंत्रियों, खासकर कृषि मंत्री की अनदेखी है। रामेश तो यहाँ तक कहते हैं कि सभी मण्डियों से मोटा पैसा रिश्वत के रूप में ऊपर तक जाता है, जिसके चलते किसानों को जितना भी लूटा जाए, कोई कार्रवाई नहीं होती। वह कहते हैं कि मण्डियों में हो रही धाँधली पर अगर शिकायत की जाए, तो भी कुछ नहीं होता। वह कहते हैं कि एक किसान से करदा, कर, सुखान (खाद्यान्न में हवा लगने पर वज़न कम होना) तुलायी (तौल का पैसा) और कई तरह के चार्ज वसूल लिये जाते हैं और किसान बेचारा सीधी गाय की तरह मण्डी से लुट-पिटकर आ जाता है। उस पर उसे अधिकतर नकद पैसा नहीं मिलता। रामेश दिवाकर कहते हैं कि व्यापारी बहुत चालाक होते हैं, किसान की फसल बेचकर उससे मोटा मुनाफा कमाकर, उसकी रकम लौटाते हैं और कई बार तो उसे भी थोड़ा-थोड़ा करके देते हैं, जो किसान के किसी काम नहीं आती। रामेश का कहना है कि जब तक मण्डियों में दलालों पर नकेल नहीं कसी जाएगी, तब तक किसानों की दशा में सुधार नहीं होने वाला।

46 वर्षीय गन्ना किसान सत्य प्रकाश ने बताया कि वह इसलिए गन्ने की खेती करते हैं, क्योंकि गन्ने की फसल से एक मुश्त पैसा मिलने की आस रहती है। लेकिन कोई फायदा नहीं; क्योंकि गन्ना फैक्ट्रियाँ (चीनी मिलें) समय पर कभी भुगतान नहीं करतीं। अभी तक पिछले साल का भुगतान नहीं हुआ है, जबकि इस साल गन्ना फैक्ट्रियाँ फिर उधारी में गन्ना ले रही हैं। गन्ना फैक्ट्रियाँ किसानों के गन्ने से पैसा कमाकर भी भुगतान नहीं करतीं। जिस किसान को एक किलो चीनी भी उधार नहीं मिल सकती, उस किसान से उसका सैकड़ों कुंतल गन्ना बिना वादे के वर्षों के उधार पर ले लिया जाता है, आखिर क्यों? क्या किसान इतना अमीर है कि उसे जब, जैसे चाहो लूटते रहो और वह सहता रहे! सत्य प्रकाश कहते हैं कि अब कोई महेंद्र सिंह टिकैट जैसा नेता भी नहीं, जिसकी एक धमकी से फैक्ट्री मालिक सीधे हो जाते थे। सरकार गन्ना फैक्ट्रियों के मालिकों से मिली हुई है। उत्तर प्रदेश की मौज़ूदा सरकार इस ओर कोई ध्यान नहीं दे रही है।

किसानों से लूट कैसे हो कम

किसानों से मण्डियों में होती लूट को कम करने के सवाल पर कृषि विशेषज्ञ ज्ञान प्रकाश सिंह कहते हैं कि मण्डियों में हो रही धाँधली तब तक नहीं रुक सकती, जब तक मण्डियों में होने वाले अध्यक्ष पद के चुनाव में धाँधली नहीं रुकेगी। ज्ञान प्रकाश ने बताया कि आजकल मण्डी का अध्यक्ष बनने के लिए लोग लाखों रुपये की रिश्वत देते हैं। अमूमन मण्डी अध्यक्ष उसी पार्टी का होता, जिस पार्टी की सरकार प्रदेश में होती है या जिसका दबदबा ज़िले या क्षेत्र में होता है। यह मण्डी अध्यक्ष मण्डी मे जमकर धाँधली कराता है। इसके पीछे भी कई कारण होते हैं। पहला यह कि जो भी अध्यक्ष बनता है, वह बड़ी पहुँच के अलावा मोटा पैसा खर्च करके चुना जाता है, और जब वह अध्यक्ष बन जाता है, तो काली कमायी करना शुरू कर देता है, जिसके चलते व्यापारी या कहें कि बिचौलिये किसानों को मोटी चपत लगाते हैं। दूसरा कारण यह है कि अधिकतर मण्डियों के अध्यक्षों से उनके क्षेत्रीय मंत्री या कहें कि कृषि मंत्री की अपेक्षा रहती है कि वे उन्हें कुछ धन अन्दरखाने भेजते रहें; जिसके चलते वे किसानों का खून चूसने की दलालों को खुली छूट देते हैं। ज्ञान प्रकाश कहते हैं कि जब तक मण्डियों में भ्रष्टाचार खत्म नहीं होगा, किसान लुटता रहेगा। उन्होंने कहा कि इसके दो ही रास्ते हैं, पहला यह कि किसान एकजुट होकर इसका विरोध करें और दूसरा यह कि मण्डी अध्यक्ष किसी ईमानदार व्यक्ति को बनाया जाए, जिसके लिए राज्य की सरकार और खासतौर पर कृषि मंत्री को पूरी तरह ईमानदार होना चाहिए।

क्या कहते हैं किसानी छोड़ चुके लोग

तीन बीघा ज़मीन के मालिक हरिप्रताप मौर्य बाज़ार में सब्ज़ियाँ बेचने का काम करते हैं। उनसे बात करने पर पता चला कि वह किसानी छोड़ चुके हैं। हरिप्रताप मौर्य ने बताया कि उनके पास बहुत थोड़ी खेती है, जिसमें कितनी भी मेहनत करने पर उन्हें हमेशा परेशानियों का सामना करना पड़ता था। करीब तीन साल पहले उन्होंने अपना खेत एक साल के लिए छ: हज़ार रुपये में गलाऊ (जिसमें एक साल पूरा होने पर पैसा नहीं देना पड़ेगा और खेत वापस मिल जाएगा) पर रेहन (गिरवी) रख दिया था। उस पैसे से उन्होंने स्थानीय बाज़ार में सब्ज़ियाँ बेचने का काम शुरू किया था। अब वह खेती करना नहीं चाहते। हर छमाही तीन कुंतल अनाज पर खेत उठा देते हैं, जिससे खाने के लिए अनाज मिल जाता है और बाज़ार में हर रोज़ तीन-चार सौ रुपये कमा लेते हैं। हरिप्रताप कहते हैं कि अब वह और उनका परिवार पहले से सुखी हैं। पहले तीन बीघा खेत में साल भर में बड़ी मुश्किल और दिन-रात की मेहनत के बाद साल भर की कमाई 20 से 25 हज़ार भी नहीं होती थी, लेकिन अब वह हर महीने 12 से 15 हज़ार रुपये आराम से कमा लेते हैं। यह पूछने पर कि अगर दूसरे किसान भी ऐसी ही सोच रखेंगे, तो खेती कौन करेगा? हरिप्रताप मौर्य गुस्से में कहते हैं कि खेती उन लोगों से करानी चाहिए, जो बाबूजी बनकर किसानों को लूटते हैं। हरिप्रताप का गुस्सा कहीं-न-कहीं जायज़ लगता है और किसानों की पीड़ा को दर्शाता है। किसानी छोडऩे वाले रामभरोसे यादव भी यही कहते हैं। वह कहते हैं कि छोटी खेती में कुछ नहीं बचता, बच्चे दाने-दाने को मोहताज रहते हैं। इससे अच्छा हर रोज़ सब्ज़ियाँ बेचकर दो-चार सौ रुपये कमाकर खाना है।

किसानों और आम आदमी की दुर्दशा का कारण भ्रष्टाचार

रामसेवक चौधरी कहते हैं कि पूर्व प्रधानमंत्री लाल बहादुर शास्त्री कहा करते थे कि जब तक देश का हर किसान सुखी नहीं हो जाता, देश सही मायने में तरक्की नहीं कर सकता। आज इस बात पर न कोई प्रधानमंत्री ध्यान देता है और न कोई मुख्यमंत्री। जिसे कुर्सी मिल जाती है, वह यह समझ लेता है कि अब वह जो कहेगा, जैसे कहेगा होगा; अब उसे काम करने की ज़रूरत नहीं है। वह अधिकारियों को हुक्म दे देता है कि उसे इतने लाख करोड़ रुपये चाहिए, उनके मातहत अधिकारी उस पैसे की वसूली अपने नीचे काम करने वाले अधिकारियों से कहते हैं और वे अधिकारी अपने नीचे वाले अधिकारियों से। इस तरह जो वसूली होती है, वह गरीबों, किसानों, मज़दूरों, आम उपभोक्ताओं और देश के मध्यमवर्गीय नागरिकों से होती है। यही वजह है कि नीचे का आदमी हमेशा दु:खी रहता है। उसे उसकी मेहनत का पैसा भी पूरा नहीं मिलता। रामसेवक कहते हैं कि पहले नेता कुछ ईमानदार होते थे, अब ईमानदार नेता घरों में बैठे हैं। भ्रष्ट लोग सत्ताओं पर कब्ज़ा कर चुके हैं, तो आम आदमी कैसे सुखी रह सकता है? जब तक भ्रष्टाचार नहीं रुकेगा, तब तक देश का आखरी आदमी सुखी नहीं हो सकेगा; जो कि लाल बहादुर शास्त्री चाहते थे।

बदहाल स्थिति में भारत का पहला पागलखाना

शायरी की चर्चा हो और उर्दू के जाने-माने शायर असरार उल हक मजाज़ यानी मजाज़ लखनवी की याद न आये यह सम्भव नहीं है। और जब मजाज़ लखनवी की बात हो, तो रांची के दिमागी अस्पताल (पागलखाने) यानी रांची इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूरो साइकाइट्री एंड एलाइड साइंस (रिनपास) का ध्यान आना लाज़िमी है। क्योंकि उनका इससे गहरा नाता रहा है। इसी तरह बंगाल (अब बांग्ला देश) के दिग्गज कवि काज़ी नज़र उल इस्लाम, महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह जैसे लोगों का भी इसी अस्पताल में इलाज हुआ था। लेकिन अफसोस यह ऐतिहासिक अस्पताल न तो अपने धरोहर को सँभाल सका है और न ही वर्तमान को ठीक कर पाया है। अंग्रेजों के जाने के बाद केंद्र और राज्य में एक के बाद एक सरकारें आती-जाती रहीं और यह अस्पताल अपने उद्धार की बाट जोहता रहा।

लखनवी और इस्लाम की रिनापास में हुई मुलाकात

मजाज़ लखनवी ने अपनी शायरी में सांस्कृतिक और तत्कालीन सामाजिक-राजनीतिक दुनिया को ज़ाहिर किया। उनकी मानवता और धर्मनिरपेक्षता उनके इस शे’र में दिखती है- ‘हिन्दू चला गया न मुसलमान चला गया, इंसान की जुस्तजू में इक इंसान चला गया।’ कहते हैं ये शायर बहुत ही संवेदनशील थे। हर बात को दिल पर ले लेते थे। इसलिए मानसिक स्थिति खराब हुई। कुछ लोगों का कहना है कि भारत-पाकिस्तान के बँटवारे और अपने सामने हुई कत्लेआम के कारण उनकी मानसिक स्थिति खराब हुई। हालाँकि कुछ लोग इससे इतर लखनवी को प्रेम में असफल होने के कारण उनकी मानसिक स्थिति खराब होने की बात करते हैं। इसके लिए वे उनके एक शे’र- ‘तेरे माथे पे ये आँचल तो बहुत ही खूब है लेकिन, तू इस आँचल से इक परचम बना लेती तो अच्छा था’ का हवाला देते हैं। ये लोग यहाँ तक कहते हैं कि फिल्म प्यासा उनके ही जीवन पर बनी है।

मजाज़ को मानसिक रोगी होने के बाद इसी पागलखाने में रखा गया। यहीं उनकी मुलाकात बांग्ला के महान् कवि काज़ी नज़र उल इस्लाम से हुई। काज़ी इस्लाम को विद्रोही कवि कहा जाता था। जिसकी झलक उनकी एक कविता में भी है। उन्होंने लिखा है- ‘मैं हिन्दुओं और मुसलमानों को बर्दाश्त कर सकता हूँ, लेकिन चोटी वालों और दाढ़ी वालों को नहीं।’ कहते हैं कि उनकी मानसिक स्थिति भी आज़ादी के बाद हुए बँटवारे और हिंसा से ही गड़बड़ायी। इस अस्पताल में दोनों कवियों की काफी बातचीत होती थी।

नामचीनों का नहीं रहा नामोनिशान

आज हकीकत यह है कि मजाज़ लखनवी हों या नज़र उल इस्लाम इन लोगों का इस रांची रिनपास में कोई नाम-ओ-निशान नहीं है। उनकी मौज़ूदगी की रिनपास में न ही कोई निशानी है और न ही कहीं चर्चा। यहाँ तक कि रिनपास की वेबसाइट पर भी इन बातों का ज़िक्र नहीं है। रिनपास के रिकॉर्ड को खंगालने में यहाँ का प्रशासन असमर्थता जताता है। यहाँ के निदेशक, डॉक्टर या कर्मियों को भी जानकारी नहीं है कि कभी ये दो महान् कवि समेत कोई जानी-मानी हस्तियाँ रिनपास में इलाज के लिए आयी थीं। उन्हें केवल महान् गणितज्ञ वशिष्ठ नारायण सिंह के इलाजरत होने की जानकारी है।

बेहतरी के इंतज़ार में रिनपास

रिनपास का इतिहास काफी पुराना है। वर्ष 1925 इंडियन मेंटल हॉस्पिटल के नाम से रांची के कांके इलाके में इसकी स्थापना हुई थी। इसे पटना से रांची स्थानांतरित किया गया था। उस समय यहाँ 1265 मनोरोगी थे। इसके बाद सन् 1958 में इसका नाम रांची मानसिक आरोग्यशाला रखा गया और सन् 1998 में यह रिनपास बन गया। रिनपास आज भी संकट से जूझ रहा है। मौज़ूदा में अस्पताल में मरीज़ों के इलाज की क्षमता 500 है, जबकि यहाँ 600 के लगभग मरीज़ हैं।

वहीं डॉक्टर और अन्य कर्मियों की 611 पद हैं और कार्यरत लगभग केवल 150 हैं। इतना लम्बा सफर तय करने के बाद भी आज रिनपास बदहाल है और आधुनिक इलाज, सुविधाओं आदि से महरूम है। लम्बे समय से अपने उद्धार का इंतज़ार कर रहा है। समय-समय पर आर्थिक संकट से जूझता रहता है। हालत यह है कि बिहार से आर्थिक मदद नहीं मिलने के कारण अस्पताल प्रशासन ने वहाँ के मरीज़ों का भर्ती करना बन्द कर दिया है।

रिनपास प्रशासन ने झारखण्ड सरकार के पास न्यूरो साइंस से सम्बन्धित सभी तरह के इलाज की व्यवस्था के लिए प्रस्ताव भेजा है, जिससे यहाँ मानसिक सम्बन्धित हर तरह का बेहतर इलाज हो सके और भारत में इसका एक नया स्वरूप उभरकर सामने आये। यह तो आने वाले वक्त में ही पता चलेगा कि इस ऐतिहासिक धरोहर को सरकारों और प्रशासन द्वारा कितना सँभाला जाता है?

सांस्कृतिक कार्यक्रमों में अव्वल था यह पागलखाना

प्रथम विश्वयुद्ध के मनोरोगी अंग्रेज सैनिकों और एंग्लो-इंडियनों के लिए स्थापित इस मानसिक अस्पताल के पहले मेडिकल सुपरिटेंडेंट कर्नल ओवेन एआर बर्कले-हिल थे। इसके दूसरे सुपरिटेंडेंट जेई धनजीभाई की पहल पर सन् 1925 में भारतीय मानसिक रोगियों को भी इसमें जगह मिलनी शुरू हो गयी।

अपनी खास चिकित्सा पद्धति और अनेक कारणों से यह भारत ही नहीं वरन् दुनिया में अपने ढंग का अनोखा मानसिक अस्पताल रहा है। इसके मरीज़ नाटक करते थे; फुटबॉल, हॉकी खेलते थे; गीत-संगीत के कार्यक्रम प्रस्तुत करते थे।

रांची के बाज़ार में खरीदारी करते थे, पिकनिक मनाने जाया करते और सर्कस-जादू, थिएटर का आनंद लेते थे। इतना ही नहीं वे हिन्दी, अंग्रेजी, उडिय़ा, बांग्ला आदि भाषाओं में 10 से ज़्यादा पत्र-पत्रिकाएँ पढ़ते थे।

ब्रिटिश भारत में सिर्फ इसी पागलखाने में एक बहुत बढिय़ा लाइब्रेरी थी, जिसमें पढऩे के शौकीन मानसिक रोगी पूरे विश्व का साहित्य पढ़ते थे। सन् 1933 में जब देश में बहुत कम सिनेमाघर थे, तब इस अस्पताल के पास अपना प्रोजेक्टर, प्रशिक्षित ऑपरेटर और सिनेमा हॉल था। यहाँ पागलों का इलाज बड़े प्यार से सामान्य रोगियों की तरह किया जाता था। यहाँ तक कि उन्हें पार्क आदि में घूमने की छूट थी और उनके साथ परिजनों की तरह पेश आया जाता था तथा खुला सामाजिक माहौल दिया जाता था।

यहाँ मरीज़ों का इलाज दवाओं से ज़्यादा खेल, संगीत, कला, साहित्य, नाटक-रंगमंच जैसी अनेक रचनात्मक गतिविधियों के माध्यम से होता था। इतना ही नहीं किसी भी रोगी को कभी भी मानसिक अथवा शारीरिक प्रताडऩा नहीं दी जाती थी; न ही यहाँ दूसरे मानसिक अस्पतालों की तरह कारागार था और न ही उन्हें बाँधकर रखा जाता था। इसी अस्पताल में रोगियों के पुनर्वास की संकल्पना पहली बार की गयी।

लखनवी या इस्लाम के बारे में तो नहीं, केवल वशिष्ठ नारायण सिंह के इलाज के लिए आने की जानकारी है। अस्पताल में 15-20 साल पुराना रिकॉर्ड तलाशना सम्भव नहीं है। रिनपास के सुधार और बेहतर बनाने की ज़रूरत है। एक योजना तैयार कर प्रस्ताव झारखण्ड सरकार के पास भेजा गया है। मंज़ूरी मिली, तो आने वाले कुछ वर्षों में यह देश का सबसे बेहतर अस्पताल बनकर उभर सकता है।’’

डॉ. सुभाष सोरेन

निदेशक, रिनपास

बदइंतज़ामी में गिरी धरोहर कहलाने वाले शहर हैदराबाद की साख

कितना रोमानी लगता है जब कोई गुनगुनाता है- ‘टिप टिप बरसा पानी, पानी ने आग लगायी।’ यह उम्मीद किसी को कतई नहीं थी कि कुदरत की देन बारिश इतनी भयावह हो जाएगी कि दुनिया के पुराने शहरों में बतौर विरासत गिने जाने वाले हैदराबाद में हाहाकार मच जाए। इंसान के बनाये सदियों पुराने नाले भी इस बारिश के पानी के फैलाव को काबू में नहीं कर पाये। क्योंकि कभी उनकी देख-सँभाल की ही नहीं गयी।

शहर हैदराबाद और आसपास के कई ज़िलों में तकरीबन पूरे सप्ताह तक यानी 13 से 19 अक्टूबर तक बेहद परेशानी का सबब रहा। बंगाल की खाड़ी से पश्चिम-मध्य को बने मानसून के दबाव के चलते मूसलाधार बारिश का आलम रहा। धीरे-धीरे यह कमज़ोर हुआ और पूर्व (आंध्र प्रदेश) और पश्चिमी समुद्री किनारे (उत्तरी कर्नाटक और महाराष्ट्र) को निकल गया।

बारिश ने तेलंगाना की राजधानी की पोल खोल दी। इस बारिश के पानी से सड़कें टूटीं, पुरानी और नयी बस्तियों को उजाड़ा। कई जगह तो तकरीबन 10 से 12 फीट तक जमा इस पानी से यह पता लगा कि पुराने नाले, सीवरेज व्यवस्था और झीलों, जल स्रोतों, तालाबों पर जबरन मन्दिर, मस्जिद, स्कूल और कॉलोनियाँ बना देने और झुग्गी-झोंपडिय़ों को पनपाते रहने देने से प्रकृति की नाराज़गी कैसा कहर ढाती है। इस बारिश से न केवल साढ़े आठ हज़ार करोड़ रुपये से भी ज़्यादा नुकसान हुआ है, बल्कि एक अनुमान के अनुसार 70 से भी ज़्यादा लोगों की मौत हुईं। इसके अलावा विरासत माने जाने वाले कई ऐतिहासिक स्थल अब खण्डहरों में तब्दील हुए दिखते हैं।

सदियों पहले यानी ईसा पूर्व दूसरी शताब्दी में पूरे दक्षिण में सात वाहन वंश यानी यहीं के निवासी राज करते थे। ये लोग दक्षिणी भारत से इधर आये और बसे। ईसा के 1000 साल पहले से यहाँ गौतम बुद्ध की शिक्षा और उनकी लोकप्रियता थी। इस ओर इस धर्म का आगमन पूरे तौर पर तीसरी शताब्दी में हुआ। इस बात का प्रमाण शिलालेखों में मिलता है। सातवीं से 10वीं शताब्दी तक यहाँ चोल राजाओं का शासन था। उनके ही राज में द्रविड़ शैली की भारतीय वास्तुकला का विकास हुआ। राजाओं को 11वीं शताब्दी में काकतीय वंश के राजाओं ने पराजित किया। इनके राज में दक्षिण भारत की वास्तुकला में और भी विकास हुआ। मन्दिरों में खम्भों की योजना तभी से मिलती है। ये विजयनगर राजाओं के तौर पर भी जाने जाते हैं। इस वंश के राजाओं को 16वीं शताब्दी में कुतुब शाही वंश ने पराजित किया।

इन्होंने और आसफ जाही के वंशजों ने हैदराबाद और सिंकदराबाद का विकास किया। िकलों का निर्माण पानी की उपलब्धता और पानी की निकासी सम्बन्धी योजनाओं पर तभी राय-मशविरा और अमलीजामा पहनाया गया। 16वीं सदी में ही कुतुबशाही ने हैदराबाद में पानी को िकल्लत महसूस की। शाही घराने ने गोलकुण्डा का िकला छोडऩे और मूसी नदी किनारे बसने का फैसला किया। हैदराबाद के बसने की शुरुआत तभी से मानी जाती है। इसका केंद्र बिन्दु चारमीनार बना। दिल्ली सुल्तान औरंगज़ेब ने इस नये शहर पर हमला किया। तब यह शहर दिल्ली के अधीन हो गया। लेकिन उसी के एक मनसबदार आसफ जाही ने मुगल सल्तनत के कमज़ोरी का लाभ उठाते हुए हैदराबाद को आज़ाद घोषित कर दिया।

तबसे हैदराबाद में निजाम परम्परा शुरू हुई। यह शहर ललित कला, हस्तकला, शिक्षा और साहित्य का अंतर्राष्ट्रीय केंद्र बना। शहर में नदी, नालों और झीलों के रखरखाव पर ध्यान दिया गया। हैदराबाद संयुक्त राष्ट्र की विरासत माने जाने वाले शहरों की सूची में प्रमुख शहर रहा है। इस शहर में खासतौर पर पानी के लगे रहने की समस्या नहीं थी। बड़े ही करीने से बसे पुराने शहर में तब की मुस्लिम बस्तियों, सदियों पुराने स्मारकों से पूरी बस्ती ऐसी खिली-खिली दिखती थी, मानो किसी शाहज़ादी के पहनावे में सोने और मोतियों की खूबसूरत कढ़ाई की गयी हो।

आज भी एक ओर बने मकबरे, मस्जिदें, महल, सड़कें, पार्क और झील, तालाब आज भी इस शहर की बुलंदी का अहसास कराते हैं। यह शहर हिन्दू, मुस्लिम और बौद्ध परम्पराओं का संगम था। इतिहासकारों के अनुसार, हैदराबाद के संस्थापक मोहम्मद कुली सखशाह और उनके बाद कुतुब शाही और आसिफ जाही ने अपनी दूरदर्शिता से नये बसे शहर में पानी निकासी की व्यवस्था की थी। उनकी व्यवस्था में विशाल नाले बने थे, जिनसे बारिश का पानी नदी में जा सके। अब वह बर्बाद है।

तेलंगाना बनने के बाद बारिश में सड़कों पर और निचले इलाकों में पानी भर जाने की घटनाएँ आम हुईं; लेकिन स्थानीय प्रशासन और राज्य सरकारों में कभी इसे गम्भीरता से नहीं लिया। विभिन्न विभागों के अधिकारियों की कमेटियाँ बनीं; लेकिन उनके सुझावों पर अमल नहीं हुआ। 13 अक्टूबर की बारिश से 2000 से ऊपर कॉलोनियों में नुकसान हुआ। तकरीबन 20 साल पहले जब बारिश 24.5 से.मी. हुई, तब भी ऐसा नज़ारा बना था। हालाँकि इतना ज़्यादा अवैध निर्माण, अवैध कॉलोनियाँ और झुग्गी-झापेडिय़ाँ तब नहीं थीं। ज़्यादातर कॉलोनियाँ, जो तालाबों, झीलों और नालों के आसपास बसीं; उन्हें खासा नुुकसान हुआ। अप्पा चेरू झील, जो छ: एकड़ में फैली थी; आज दो एकड़ में सिमट गयी है। इसी तरह जब सन् 1908 में मूसी नदी में बाढ़ आयी तो निजाम ने नये विशाल रिजर्वेयर बनवाये और ड्रेनेज प्रणाली को विकसित किया, जिससे बाढ़ का प्रभाव शहर पर न पड़े। हैदराबाद और आसपास के ज़िलों में हुई विपदा से यह ज़रूर साफ हुआ कि प्राकृतिक विपदा में नयी बसी बस्तियाँ और विकास ठहरने से राज्य और केंद्र सरकारें कितनी बेबस दिखती हैं। पूरे तौर पर साधन-सम्पन्न होते हुए भी आपात बचाव रसद-राहत का काम करा नहीं पातीं। यह काम ज़्यादातर स्थानीय लोगों ने ही किया। तेलंगाना सरकार ऐसे मौके पर और ज़्यादा आपात कार्य करने चाहिए थे। खुद मुख्यमंत्री को पहल करनी चाहिए थी; लेकिन उसमें चूक रही।

पुराने शहर हैदराबाद और सिंकदराबाद में तेलंगाना राज्य बनने के बाद यह उम्मीद की थी कि शहरों का नियोजित विकास होगा। लेकिन नेताओं और प्रशासन के ही बढ़ावा देने से पुराने पार्कों, तालाबों, झीलों पर नयी कॉलोनियाँ और गगनचुंबी इमारतें बनीं। कहीं भी पानी के बहाव की उचित व्यवस्था नहीं हुई। नतीजा यह रहा कि यहाँ की मशहूर झीलें और बड़े तालाब जहाँ कभी कमल भी खिलते थे; देश-विदेश से तरह-तरह के पक्षी आते थे; वह सब बढ़ते प्रदूषण के चलते काफी कम हो गये। सरकारी एजेंसियों के अनुसार, 13 अक्टूबर को हुई बारिश और तेज़ हवा के चलते दर्ज़नों पेड़ गिरे, हवाई अड्डे को जाने वाली सड़क बह गयी और कई जर्जर इमारतों को और ज़्यादा नुकसान पहुँचा। पूरे देश में प्रसारित वीडियोज में देखा गया कि किस तरह पानी के बहाव में गाडिय़ाँ तक बहीं और एक-दूसरे से टकरायीं। कई निचले इलाकों में तो पानी 10-12 मीटर तक पहुँचा और दो तीन दिन जमा रहा। साथ में आयी गाद भी सड़कों और गलियों पर तथा घरों में जमा रही।

जिन फैक्ट्रियों में निचले तल्ले पर कारीगर काम करते हैं, वहाँ रखे कच्चे माल और मशीनों को खासा नुकसान पहुँचा। छोटे कारोबारी, जिनके यहाँ कताई-बुनाई, नक्काशी और मोतियों का काम होता था; उनको भी खासी परेशानी उठानी पड़ी। अनुमान है कि यह सारा नुकसान कम-से-कम 2,000 करोड़ रुपये का होगा।

इस बारिश से आयी बाढ़ से झीलों के किनारे और बंधों के आसपास बसी झुग्गी-झोंपडिय़ों को जान-माल का खासा नुकसान हुआ। एक अधेड़ महिला ने बताया कि बाढ़ में कैसे उसके बच्चे वह गये। उन्हें बचाने के लिए भागे लोग भी नहीं लौट सके। हर कहीं पानी-ही-पानी और गहराई का अनुमान नहीं लग रहा था। हर कहीं प्रलय जैसा ही रूप था। ऐसा लग रहा था कि शहर की तमाम झीलें, तालाब पानी से उफनकर नदी बनकर पूरे शहर में फैले हैं। हैदराबाद और आसपास के ज़िलों में फसल, पशु धन, इमारतों और सड़कों के नुकसान की एक अहम वजह थी- तीन बड़े तालाबों, मूसी नदी में बारिश के चलते आयी बाढ़ और निचले इलाकों में पानी का भर जाना।

तेलंगाना सरकार के अनुसार, बारिश और बाढ़ से फसलों का ही 8,633 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ। सड़कों का नुकसान 222 करोड़ रुपये और ग्रेटर हैदराबाद म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन का 567 करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। तेलंगाना सरकार ने केंद्र से 1350 करोड़ रुपये की तात्कालिक मदद की गुहार लगायी, लेकिन केंद्र तात्कालिक तौर पर 15 करोड़ की व्यवस्था की थी। राज्य सरकार ने 73 स्थानों पर राहत शिविर लगाये। बारिश-बाढ़ से खासा असर एलबी नगर, चार मीनार, सिकंदराबाद और खैरताबाद क्षेत्र में हुआ।

हैदराबाद के एक नवाब ने बताया कि जिन दिनों हैदराबाद और सिकंदराबाद जुड़वाँ शहर बतौर बसाये गये, तब आसफ जाही का शासन था। तब बड़े तरीके से बड़े-बड़े टैंक और पानी की निकासी के लिए बड़े नाले बने। इन्हें निजाम ने सन् 1902 में दुरुस्त कराया। लेकिन बाद की सरकारों और उनके नौकरशाहों ने उस सिस्टम को ठीक से समझने और उसकी देखभाल करने की ज़रूरत नहीं समझी। आसफ जाही के शासनकाल में यह व्यवस्था थी कि किसानों को झीलों की तलहटी दी जाती। वे देखभाल करते और अच्छी फसल भी लेते।

जब शहरीकरण बढ़ा, तो झीलें, तालाब, जल-स्रोत, कूड़े में तब्दील होने लगे। भवन निर्माताओं ने कॉलोलियाँ काटीं और तमाम गन्दगी सीवरेज लाइन के ज़रिये झीलों-तालाबों में भरने लगी। नतीजा यह रहा कि तालाबों-झीलों की पानी थामने की क्षमता घटी। धीरे-धीरे कमल की जगह खरपतवार बढ़े। मछलियाँ मरने लगीं। झीलों-तालाबों को पाटने का काम हुआ। किसानों ने झीलों के सूखते हिस्सों को भवन-कॉलोनी निर्माताओं को बेचा। टुकड़ों पर शहरी मध्यम वर्ग बसने लगा। फिर तो सरकारों ने भी आउटर रिंगरोड, हैदराबाद मेट्रो वगैरह घोषित कर दिये। रोड डेवलपमेंट प्लान में बुनियादी ज़रूरतों का उचित ध्यान नहीं रखा गया। पानी, सीवरेज की उचित व्यवस्था नहीं की गयी। पूरे राजधानी क्षेत्र की तस्वीर ही बदल गयी। अब हाल यह है कि ग्रेटर हैदराबाद में एक भी झील नहीं है। हुसैन सागर झील खासी सिकुड़ गयी है; जिसके किनारे झुग्गियों की बसाहट है। 13 अक्टूबर की त्रासदी में तीन स्टॉर्म वॉटर ड्रेन के बाँध टूटे। बर्बादी का आलम शुरू हुआ। झीलों, तालाबों, स्टॉर्म ड्रेन के पास बसायी गयी बस्तियों के लोग खासे परेशान रहे। अब ज़रूरत है कि हैदराबाद में बस्तियों और झुग्गी-झोंपडिय़ों की बसाहट का काम सरकार योजनानुसार करे। विभिन्न मंत्रालय के अधिकारी पानी निकासी के पुराने ढाँचे को जान-समझकर उसे दुरुस्त रखें, फिर निर्माण कराएँ। तभी हैदराबाद सुरक्षित रह सकेगा और विश्व के धरोहर माने गये शहरों में उसकी गिनती रह सकेगी।

जल जीवन ही नहीं, हमारा अस्तित्व भी है

अजीब इत्तेफाक है कि जितने फीसदी जल मानव शरीर में होता है, उतने ही फीसदी जल ज़मीन पर भी है। लेकिन अफसोस यह कि हम इंसानों ने इसकी अहमियत को कभी नहीं समझा। अगर हम जीवन में एक छोटी-सी बात गाँठ बाँध लें कि जिस तरह शरीर में पानी की कमी से अनेक रोग जाते हैं, उसी तरह ज़मीन पर पानी कम होने से अनेक आपदाएँ आनी तय हैं, तो शायद हम पानी के महत्त्व को अच्छी तरह समझ सकें और पानी की अनाप-शनाप बर्बादी न करें। लेकिन इस बार दिल्ली सरकार के दिल्ली जल बोर्ड ने इस बात को अच्छी तरह समझ लिया है और पानी की बर्बादी करने वालों के खिलाफ कड़ाई से निपटने के लिए कमर कस ली है। इस सिलसिले में दिल्ली जल बोर्ड के के उपाध्यक्ष राघव चड्ढा ने कहा है कि अब वह पानी का दुरुपयोग करने वालों के खिलाफ बने कानून को सख्ती से लागू करेंगे। उन्होंने कहा है कि पानी का दुरुपयोग करने वाले दोषियों पर भारी ज़ुर्माना लगाया जाएगा। यह बात उन्होंने हाल ही में दिल्ली जल बोर्ड के अधिकारियों की एक बैठक में कही। उन्होंने कहा कि पानी के उपयोग को लेकर सतर्कता बरतने पर ही हम जल संचयन और उसके संरक्षण के बारे में सोच सकते हैं।

राजधानी में पानी की बर्बादी को लेकर दिल्ली जल बोर्ड के उपाध्यक्ष ने सम्बन्धित अधिकारियों की फटकार लगायी है। उन्होंने कहा है कि अधिकारी पानी की बर्बादी अथवा दुरुपयोग करने वालों का चालान काटें, इस मामले में कोताही बर्दाश्त नहीं की जाएगी। उन्होंने यह भी कहा कि पानी की बर्बादी रोकने के लिए दिल्ली जलबोर्ड ज़ुर्माने की रकम बढ़ाने पर विचार कर रहा है। इसके लिए एक महीने का सतर्कता अभियान शुरू किया जाएगा, जिसके तहत अलग-अलग इलाकों में 11 टीमें पानी बर्बाद करने वालों पर कार्रवाई करेंगी। उन्होंने यह भी कहा कि सीवर में गन्दगी डालने वालों के खिलाफ भी तुरन्त सख्त कार्रवाई की जाएगी। इसके अलावा घरेलू पानी का कनेक्शन लेकर उसका व्यावसायिक या अन्य तरह से उपयोग करने वालों के खिलाफ भी कार्रवाई की जाएगी। पानी की बर्बादी या दुरुपयोग की पहली गलती पर दो हज़ार रुपये का ज़ुर्माना लगाया जाएगा और गलती दोहराने पर हर रोज़ 500 रुपये के हिसाब से ज़ुर्माना लगाया जाएगा। इसके अलावा गैर-घरेलू काम के लिए पानी का उपयोग करने वाले लोगों पर पहली गलती के लिए एक हज़ार और न मानने पर हर रोज़ 100 रुपये का ज़ुर्माना लगाया जाएगा। जबकि सीवर पाइपलाइन में कचरा डालने वालों से पहली गलती पर पाँच हज़ार रुपये और बार-बार ऐसा करने पर 100 रुपये प्रतिदिन के हिसाब से ज़ुर्माना वसूला जाएगा। अवैध पानी कनेक्शन या नाले के कनेक्शन से पानी उपयोग करने पर दो हज़ार रुपये तक का ज़ुर्माना वसूला जाएगा।

पानी की बर्बादी करने पर लगाया जाए ज़ुर्माना

सभी देशों की सरकारों और जल बचाने को लेकर काम कर रही सभी संस्थाओं द्वारा पूरी दुनिया में यह संदेश दिया जाता है कि पानी बचाना बहुत ज़रूरी है। क्योंकि पानी नहीं रहने पर मानव अस्तित्व खतरे में पड़ा सकता है। पिछले दो साल में दुनिया के कई देशों में पानी की कमी को लेकर चिन्ता व्यक्त की गयी है। भारत के कई शहर पानी की कमी से जूझने लगे हैं। यहाँ तक कि यहाँ के 70 फीसदी गाँवों में भी ज़मीन का जल स्तर कम हो चुका है। कई जगह खेती-बाड़ी में सिंचाई की समस्या भी पैदा हो गयी है। अगर अभी से इस ओर ध्यान नहीं दिया गया और पानी को नहीं बचाया गया, तो वह दिन दूर नहीं जब लोग पानी के लिए मरने-मारने पर आमादा हो जाएँगे। वैसे भी इस बात की चेतावनी कई बार दी जा चुकी है कि अगला विश्व युद्ध पानी को लेकर होगा। पिछले वर्षों में दक्षिण अफ्रीका के कुछ इलाकों में पानी की कमी को देखते हुए वहाँ की सरकार ने खुद ऊँटों को मारने का फरमान सुनाया था। इसके पीछे सरकार का बयान था कि ऊँट पानी बहुत पीते हैं और जहाँ पानी घट रहा है, वहाँ के लोगों के जीवन को खतरा है। हम लोगों को नहीं मार सकते, इसलिए ऊँटों को मारना ज़रूरी है।

सवाल यह है कि अगर ज़मीन में पानी ज़्यादा कम हो जाएगा या खत्म हो जाएगा, तब क्या इंसान ज़िन्दा रह सकेगा? शायद नहीं। इसलिए ज़रूरी है कि पानी को बचाया जाए। क्योंकि जबसे इंसान ने ज़मीन के पानी का दोहन शुरू किया है, तबसे ज़मीन का पानी लगातार कम होता जा रहा है, जिसे रोकना ज़रूरी है। इसके लिए शहरों में पानी बर्बाद करने वालों के खिलाफ दिल्ली की तर्ज पर भारी ज़ुर्माना लगाया जाना चाहिए। साथ ही लोगों में पानी बचाने को लेकर चेतावनी के साथ जागरूकता फैलाना चाहिए, ताकि लोग पानी की बर्बादी न करें।

पानी की कमी से बिगड़ जाएगा संतुलन

पानी की कमी शरीर में हो या ज़मीन पर संतुलन बिगड़ जाएगा। अगर ज़मीन पर पानी की कमी होगी, तो न तो फसलें उग सकेंगी और न ही बनस्पति। लोगों को खाने के लिए भरपूर और पोष्टिक आहार न मिलने से अनेक बीमारियाँ स्वत: पनप जाएँगी, जिसमें कुपोषण सबसे बड़ी समस्या है। डॉक्टर भी इस बात को प्रमाणित कर चुके हैं कि शरीर के स्वास्थ्य के लिए साफ-सुथरा पानी भरपूर पीना ज़रूरी है। इसी तरह ज़मीन में पानी की कमी होने से भूकम्प आने से लेकर अनेक प्राकृतिक आपदाएँ, जैसे सूखा, तूफान, ऊष्णता, गर्म हवाएँ चलने और जगह-जगह भूस्खलन होने के साथ-साथ ज़मीन बंजर होने के हालात पैदा होंगे।

ज़रूरी है जल संचयन और संरक्षण

अगर हमें अपना भविष्य और अस्तित्व सुरक्षित करना है, तो जल संचयन से लेकर जल संरक्षण पर पूरा ध्यान देना होगा। आपको हैरानी होगी कि इज़राइल भारत के दो बड़े शहरों के बराबर है। लेकिन पानी के सदुपयोग, संचय और बूँद-बूँद पानी से उन्नत खेती की तकनीक ईज़ाद की है, जिससे पूरी दुनिया हैरान है। राजस्थान के जयपुर के पास एक किसान खेमाराम भी बारिश का पानी संचय करके आज रेगिस्तान में खीरे की खेती से हर साल एक करोड़ से अधिक रुपये कमाते हैं। खेमाराम जैसे अगर हर व्यक्ति की सोच हो जाए और सभी पानी बचाने के महत्त्व को समझें, तो पानी की िकल्लत कम हो सकती है। हालाँकि जल संचय हर कोई बड़े पैमाने पर नहीं कर सकता; लेकिन जितना सम्भव हो लोगों को जल का संचयन और संरक्षण करना चाहिए। जैसे छोटे किसान गड्ढा खोदकर बारिश का पानी जमा कर सकते हैं, तो आम लोग अपनी छतों का पानी किसी टैंक या टंकी में इकट्ठा करके उपयोग में ला सकते हैं। वाटर हार्वेटिंग टैंक और तालाब जल संचयन का सबसे बेहतर उपाय हैं। इसके लिए सरकार को आगे आना होगा।

बहुत कम बचे हैं तालाब

एक दौर था, जब हर गाँव, हर कस्बे और हर शहर के आसपास दो-चार तालाब होते थे। इन तालाबों में हर साल होने वाली बारिश का पानी इकट्ठा हो जाता था, जो लोगों के उपयोग के अलावा धीरे-धीरे ज़मीन में रिस जाता था। बारिश के इस पानी की बदौलत न सालभर लोगों को पानी की दिक्कत होती थी और न ज़मीन का जलस्तर कम होता था। लेकिन अब शहरों की तो बात ही अलग, कस्बों और गाँवों में भी तालाब न के बराबर ही रह गये हैं। बारिश का बहता हुआ पानी एकत्र करना हमारे लिए कितना ज़रूरी है, इसे केवल इस बात से समझ लेना चाहिए कि जहाँ पानी नहीं होता, वहाँ हरियाली नहीं होती। मध्य प्रदेश और राजस्थान में पिछले कुछ वर्षों से जिन किसानों ने तालाब बनाकर पानी इकट्ठा कर खेती शुरू की है, वे काफी खुश हैं।

ज़मीन से अतिरिक्त जल-दोहन रोकना ज़रूरी

पहले के ज़माने में नहाने, कपड़े धोने, सिंचाई और दूसरे कार्यों के लिए 80 फीसदी लोग बारिश, झरनों और पोखरों के पानी का उपयोग करते थे। जबकि पीने के लिए भी केवल 60 फीसदी लोग ही कुआँ आदि के पानी का उपयोग करते थे। लेकिन अब 90 फीसदी लोग ज़मीन के पानी का उपयोग करते हैं। केवल पीने के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य कामों के लिए भी। यही वजह है कि ज़मीन से अनाप-शनाप पानी का दोहन किया जाता है। पहले जिन गाँवों, कस्बों में ज़मीन में 30 से 35 फीट नीचे पानी निकल आता था अब वहाँ 70 से 90 फीट नीचे पानी मिल पाता है, कई जगह उसका भी प्रेशर काफी कम होता है। ऐसे में केंद्र और राज्य सरकारों को ज़मीन से किये जा रहे अतिरिक्त जल दोहन को सख्ती से रोकना होगा। अन्यथा अगर इसी तरह ज़मीन का जलस्तर गिरता रहा, तो वह दिन दूर नहीं जब ज़मीन में पानी की मात्रा बहुत कम हो जाएगी और मानव जीवन खतरे में पड़ जाएगा।

बदल रहीं बारिश की स्थितियाँ, बढ़ रहा कार्बन

पिछले पाँच दशक से बारिश में बहुत अधिक बदलाव आया है। अब पहले की अपेक्षा कम बारिश होती है; लेकिन वहीं जहाँ पहले अधिक बारिश होती थी, वहाँ अब कम और जहाँ पहले कम बारिश होती थी, वहाँ अब अधिक बारिश होती है। इसके अलावा बेमौसम अधिक बारिश और कभी बहुत लेट तथा कभी बहुत पहले बारिश होना भी अब एक समस्या बनती जा रही है। अब नदियों में बाढ़ उतनी अधिक नहीं आती और न ही साल भर बड़े तालाब जल से भरे रहते हैं। देश की कई नदियाँ सूखने के कगार पर हैं। इस बारे में कई बार चिन्ता व्यक्त की जा चुकी है। इतना ही नहीं भू-क्षरण से 50 फीसदी अधिक कार्बन डाईऑक्साइड का उत्सर्जन हो रहा है।

पिछले कुछ वर्षों से दुनिया भर के जलवायु वैज्ञानिकों ने पॉजिटिव फीडबैक लूप नामक चिन्ता व्यक्त की है। वैज्ञानिकों के अनुसार, यह वह प्रक्रिया है, जब किसी एक चीज़ में मात्रात्मक बदलाव होने पर दूसरी चीज़ में स्वत: परिवर्तन आ जाता है। इससे ज़मीनी और शारीरिक तौर पर काफी कुछ परिवर्तित होता है, जिससे काफी नुकसान होने का खतरा रहता है। पिछले तीन-चार दशक से मिट्टी में कार्बन उत्सर्जन की मात्रा बढ़ी है, जिससे तेज़ी से गर्मी बढ़ती जा रही है। ताज़ा आँकड़े बताते हैं कि पूरी दुनिया में 3.6-4.4 बिलियन टन कार्बन (कुल उत्सर्जन का 10-12 फीसदी) उत्सर्जन भू-क्षरण के कारण हो रहा है। भू-क्षरण तब होता है, जब ज़मीन पर पानी कम होता है। यानी यह समस्या पानी की कमी से पैदा हो रही है, जिसे जल संचयन और जल संरक्षण के अलावा ज़्यादा-से-ज़्यादा पौधे लगाकर कम किया जा सकता है।

भू-विज्ञानियों का कहना है कि जंगलों का नुकसान रोककर और ज़्यादा-से-ज़्यादा नये पौधे लगाकर हम 2020 से 2050 के बीच 150-200 बिलियन टन कार्बन कम कर सकते हैं, जो कि मानव हित में होगा। नेशनली डिटर्मिंड कंट्रीब्यूशन (एनडीसी) में कार्बन सिंक बढ़ाने में दिलचस्पी दिखायी है। एनडीसी का एक विश्लेषण बताता है कि 100 से ज़्यादा देशों ने जलवायु सुधार के लिए जल और वन संरक्षण पर ध्यान केंद्रित किया है।

भारत प्राकृतिक सम्पदाओं से सम्पन्न देश है; लेकिन पानी के दुरुपयोग और जंगलों के अनाप-शनाप कटान के चलते यहाँ भी जलवायु सम्बन्धी कई समस्याएँ पैदा हुई हैं। ऐसे में ज़रूरी है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ सभी राज्यों की सरकारें जल, जंगल, ज़मीन की सुरक्षा को लेकर सजग हों और लोगों को भी सजग करें।

इंसान को अच्छा बनाने के लिए हैं मज़हब

मैं कई बार सोचता हूँ कि अगर दुनिया में एक ही मज़हब होता, तो शायद कई झगड़े होते ही नहीं। फिर सोचता हूँ कि मज़हबों ने तो इंसानों को अच्छा बनने की ही तालीम दी है, फिर भी इंसान अच्छा नहीं बन पाया। हर आदमी में कोई-न-कोई बुराई आखिरकार रह ही गयी। आखिर इसके पीछे की वजह क्या है? बड़े-बड़े संत इस बात को कहते-कहते चले गये कि ईश्वर एक ही है। सभी मज़हबों ने भी इंसान को सच्चाई, अच्छाई और प्रेम का रास्ता अपनाने को कहा है। सभी मज़हब इंसानियत को ही सबसे बड़ा धर्म बताते हैं। मगर जिसे भी मौका मिला, उसने निजी स्वार्थों के चलते मज़हबों को भी अपने फायदे के लिए इस्तेमाल किया है। आज के अधिकतर सियासतदानों से लेकर फकीर तक अपने-अपने मज़हबों का दुरुपयोग कर रहे हैं। मज़हब तो इंसान को अच्छा बनाने के लिए हैं, फिर मज़हबों का सहारा लेकर इंसान बुरा क्यों होता जा रहा है? इसका सीधा-सा जवाब है- सुख की चाह, लालच और निजी स्वार्थ के लिए।

मेरे बड़े गुरु जी मरहूम रईस बरेलवी साहब से जुड़े ऐसे ही दो वािकयात मुझे याद आते हैं। गुरु जी सभी मज़हबों और मज़हब वालों की इ•ज़त करते थे। उन्हें हर मज़हब की बहुत अच्छी जानकारी थी। नमाज़ बढऩा अमूमन उनकी फितरत में नहीं था। वे जितने शौक से मीठी ईद मनाते थे, उतने ही आनन्द से होली खेलते और दीवाली मनाते। मन्दिर का प्रसाद हो या गुरद्वारे का लंगर, उन्हें सब बराबर थे। उन्होंने भगवान श्रीकृष्ण पर कई गीत और भजन लिखे हैं। घर में कई देवी-देवताओं की तस्वीरें रखते थे। भगवान श्रीकृष्ण की प्रतिमा भी उनके पास हमेशा रहती थी। भगवान राम पर भी उन्होंने गीत लिखे हैं। शायरी के बड़े उस्तादों में शुमार गुरु जी के शागिर्दों में हिन्दू-मुस्लिम सभी शामिल थे। हालाँकि यह अलग बात है कि उनके कई शागिर्द थोड़ा-सा मकाम पाने के बाद आज अपने से उनका नाम भी नहीं जोड़ते। एक बार मुझसे किसी ने कहा कि हम एक कार्यक्रम कर रहे हैं। आप अपने उस्ताद को मना लीजिए, हम उनका सम्मान करना चाहते हैं। मैंने कहा भी कि आप उन्हें निमंत्रण दे दीजिए, वे आ जाएँगे। वह सज्जन बोले- नहीं, वे बहुत बड़े शायर हैं। हम उन्हें बहुत कुछ नहीं दे सकेंगे; इसलिए हमारी हिम्मत नहीं हो रही है। कृपया आप ही मना लें। हमें पता है कि वे आपकी बात नहीं टालेंगे। हाँ, इतना ज़रूर है कि उन्हें लाने-ले जाने का इंतज़ाम कर देंगे और मंच पर सम्मान करेंगे। हालाँकि उन महाशय की बार-बार सम्मान की बात मुझे अच्छी नहीं लग रही थी; क्योंकि जो खुद सर्वथा सम्मानित हों, उन्हें एकाध मंच पर फूल-माला पहनाकर आप उनके सम्मान में भला क्या इज़ाफा कर सकेंगे? लेकिन फिर भी मैंने हाँ कह दी। कार्यक्रम का दिन आया। मैं सुबह से ही गुरु जी के घर था। वहीं भेजन किया और जब समय आया, तो कोई लेने नहीं आया। उन दिनों लैंडलाइन फोन हुआ करते थे। मैंने गुरु जी के घर से उन महाशय के घर फोन किया, तो पता चला कि वो कार्यक्रम में हैं। सूचना भेजने को कहा, तो कोई आधे घंटे बाद सूचना मिली कि आप उन्हें लेकर आ जाइए, मेहरबानी होगी। मुझे काफी गुस्सा आया। लेकिन गुरु जी बहुत शान्त स्वभाव के थे; सो बोले- ‘कोई नहीं बेटे! कार्यक्रम में व्यस्तताएँ होती हैं। चलो हम चलते हैं।’ जब हम मंच पर पहुँचे, तो वहाँ ऐसा कुछ नहीं दिखा, जिससे लगे कि एक बड़े शायर का सम्मान होना है। गुरु जी को देखकर उन महाशय ने माइक अपने हाथ में लिया और गुरु जी के बारे में लोगों को बताया, उन्हें मंच पर आने का निमंत्रण दिया और मंच पर वैठा दिया। एक के बाद एक कई र्कायक्रम हुए। कभी नाच-गाने का, कभी भाषणों का; पर गुरु जी को नहीं बुलाया गया। मुझे गुस्सा आ रहा था और आत्म-गिलानी हो रही थी कि आखिर मैंने गुरु जी की तौहीन क्यों करा दी? गुरु जी से चलने को कहा, तो उन्होंने कहा कि नहीं मेज़बान की तौहीन होगी। अन्त में गुरु जी को तब बुलाया गया, जब लोग ऊबकर घर जाने की तैयारी में थे। लेकिन जैसे ही गुरु जी ने गीत और गज़लें पढऩी शुरू कीं, लोग जम गये। फरमाइश एक फरमाइशें होने लगीं। गुरु जी ने करीब ढाई घंटे से अधिक पढ़ा। अन्त में रात के करीब 10:15 बजे आयोजक को कहना पड़ा कि हम किसी दिन आदरणीय बरेलवी साहब का स्पेशल कार्यक्रम आयोजित करेंगे। अभी हमारा कार्यक्रम दो घंटे ज़्यादा चल चुका है। गुरु जी को निमंत्रण देने वाले महाशय ने माफी माँगते हुए गुरु जी का सम्मान किया। अपनी कार से उन्हें घर छोड़ा। दूसरे दिन कार्यक्रम की रिपोर्ट अखबारों में छपी, जिसमें लिखा था- मशहूर शायर रईस बरेलवी ने बाँधा समां। ताज़ुब हुआ कि जो मुख्य कार्यक्रम था, उसका बाद में थोड़ा-सा ज़िक्र था। इस तरह गुरु जी का सम्मान हुआ।

ऐसे ही भगवान श्रीकृष्ण पर लिखे गये गीतों-भजनों और घर में उनकी प्रतिमा रखने को लेकर बरेली के कुछ मौलवियों ने गुरु जी के खिलाफ फतवा जारी कर दिया। फतवे में कहा गया कि शायर रईस बरेलवी अपने ही मज़हब की तौहीन कर रहे हैं; लिहाज़ा वे काफिर हैं। इस फतवे को लेकर शहर भर में चर्चा फैल गयी। कुछेक कट्टरवादियों को छोड़कर सभी ने फतवा जारी करने वालों को गलत ही कहा। मज़हबी पंचायत बैठी। गुरु जी से कहा गया कि आपको मालूम है कि आप क्या कुफ्र कर रहे हैं? गुरु जी ने बड़ी विनम्रता से कहा- ‘अगर कुरान में कहा गया है कि अल्लाह एक है और वो ज़र्रे-ज़र्रे में है, तब तो मैं कोई कुफ्र नहीं कर रहा हूँ। और अगर यह झूठ है, तो आप लोग इसे कुफ्र कह सकते हैं।’ फतवा जारी करने वाले मौलवियों का पारा चढ़ गया, एक मौलवी साहब ने गुस्साते हुए कहा- ‘मगर मूर्ति पूजा इस्लाम में हराम है।’ गुरु जी ने उसी सादगी से कहा- ‘मैं मूर्ति पूजा करता ही कहाँ हूँ? मैं तो मूर्ति में भी अल्लाह को देखता हूँ।’ गुरु जी की बात पर कुछ लोग हँस पड़े। एक ने कहा- ‘शाइर साहब हैं, इनसे नहीं जीता जा सकता।’ आखिर मौलवियों को फतवा वापस लेना पड़ा। तब गुरु जी ने कहा कि मज़हबों ने हमें इंसान बनने की शिक्षा दी है। इंसानों या दूसरे मज़हबों से बैर करने की नहीं। कुरान भी यही कहता है। सभी खामोश थे। गुरु जी से बहुत-से लोग और भी प्रभावित हुए। करीब आधे घंटे गुरु जी से उन्होंने प्यार और अम्न की बातें सुनीं। बरेली की हिन्दू-मुस्लिम एकता पर कई िकस्से सुने और गुरु जी से माफी माँगते हुए अपने-अपने घरों को रुखसत हो गये।

बिहार में महागठबंधन के 21 हारे प्रत्याशी नतीजों के खिलाफ कोर्ट जाने की तैयारी में

बिहार में नीतीश कुमार के नेतृत्‍व में नई सरकार की शपथ के बीच विपक्षी महागठबंधन के 21 प्रत्याशी चुनाव नतीजों को लेकर कोर्ट का दरवाजा खटखटाने की तैयारी में हैं। बिहार में महागठबंधन के नेता आरजेडी नेता तेजस्वी यादव के निर्देश पर यह फैसला किया गया है। इस बीच बिहार में मिली हार के बाद आरजेडी नेता  शिवानंद तिवारी के कांग्रेस नेता राहुल गांधी को लेकर दिए ब्यान को आरजेडी ने ख़ारिज कर दिया है और कहा है कि यह पार्टी का ब्यान नहीं है।

तेजस्वी यादव ने साफ कर दिया है कि आरजेडी नतीजों में धांधली वाले मामले में पूरी ताकत के साथ खड़ी है और कोर्ट जाने वाले प्रयत्यशियों की हरसंभव मदद करेगी। इन 21 प्रत्याशियों में से सबसे ज्यादा आरजेडी के उम्मीदवार हैं। आरजेडी के 14, सीपीआई माले के 3, सीपीआई के 1 और कांग्रेस पार्टी के 3 उम्मीदवार कोर्ट जाने की तैयारी में हैं।

भाजपा और जेडीयू के भी तकरीबन एक दर्जन उम्मीदवार एक हजार से कम अंतर से हारे हैं। ऐसे में बिहार विधानसभा चुनाव में महागठबंधन को बेशक बहुमत नहीं मिला हो, लेकिन आरजेडी नेताओं ने अभी तक सरकार बनाने की आस नहीं छोड़ी है।  आरजेडी के राज्यसभा सांसद और प्रवक्ता मनोज झा के ट्वीट भी इस बात की ओर इशारा कर रहे हैं।

वैसे सबसे कम अंतर से ज्यादा सीटों पर आरजेडी उम्मीदवारों की जीत हुई है, लिहाजा महागठबंधन के प्रत्याशियों के कोर्ट जाने के बाद एनडीए, खासकर कम अंतर से हारने वाले भाजपा प्रत्याशियों के कोर्ट जाने की संभावना से इंकार नहीं किया जा सकता। हिलसा से आरजेडी प्रत्याशी शक्ति सिंह यादव मात्र 12 वोटों से जेडीयू उम्मीदवार से हार गए थे। भोरे विधानसभा सीट से जेडीयू के सुनील कुमार ने सीपीआई (माले) उम्मीदवार जितेंद्र पासवान को 462 वोट से पराजित किया था।  बेगूसराय के बछवाड़ा विधानसभा सीट पर भाजपा के सुरेंद्र मेहता ने सीपीआई के अवधेश कुमार राय को 484 मतों के कम अंतर से हराया था। चकाई विधानसभा सीट से निर्दलीय सुमित कुमार सिंह ने आरजेडी के सावित्री देवी को 581 मतों के कम अंतर से हराया। सुमित कुमार सिंह एनडीए को समर्थन दे चुके हैं।

बता दें मतगणना के दिन भी महागठबंधन उम्मीदवार ईवीएम में पड़े वोट और वीवीपीएटी की पर्ची में मिलान पर जोर दे रहे थे। मतगणना के 40 दिन तक वीवीपीएटी और ईवीएम का डाटा संभाल कर रखा जाता है।

उधर आरजेडी नेता शिवानंद तिवारी के राहुल गांधी को लेकर दिए ब्यान के बाद  सख्त विरोध जताने के बाद आरजेडी ने तिवारी के बयान से पल्ला झाड़ लिया है और कहा कि पार्टी का इस बयान से कुछ लेना देना नहीं। उधर कांग्रेस नेता प्रेम चंद्र मिश्रा ने कहा कि राजद शिवानंद तिवारी पर लगाम लगाए और कांग्रेस और राहुल गांधी को लेकर उनका ब्यान हमें स्वीकार नहीं।

नीतीश कुमार 7वीं बार बिहार के सीएम बने, 14 और मंत्रियों ने ली शपथ, नंद किशोर स्पीकर बनेंगे

बिहार में सोमवार को नीतीश कुमार 7वीं बार मुख्यमंत्री बन गए हैं। राजभवन में उन्हें और 14 मंत्रियों को राज्यपाल फागू चौहान ने पद और गोपनीयता की शपथ दिलाई। भाजपा ने दो उपमुख्यमंत्री बनाने का फैसला किया है और यह पद तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी को मिलेंगे जिन्होंने नीतीश के बाद सबसे पहले मंत्री पद की शपथ ली। पक्की  संभावना है कि पूर्व मंत्री भाजपा के नंद किशोर यादव नई विधानसभा में स्पीकर बनेंगे। आरजेडी सहित विपक्ष के दलों ने शपथ ग्रहण समारोह का बॉयकाट किया और नीतीश सरकार को ‘मनोनीत सरकार’ बताया।

नीतीश ने आज 7वीं बार प्रदेश का जिम्मा बतौर मुख्यमंत्री संभाला है। तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी ने उनके बाद मंत्री पद की शपथ ली, जिन्हें भाजपा उप मुख्यमंत्री बनाने जा रही है। शपथ ग्रहण समारोह में भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा और केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह भी उपस्थित रहे। शपथ ग्रहण के बाद पीएम नरेंद्र मोदी ने नीतीश  कुमार और अन्य मंत्रियों को बधाई दी और कहा कि मिलकर बिहार का विकास करेंगे।

आरजेडी नेता तेजस्वी यादव शपथ समारोह में शामिल नहीं हुए। दरअसल विपक्ष ने समारोह का वहिष्कार किया और आरोप लगाया कि यह सरकार जनता के समर्थन से नहीं बनी बल्कि छल करके सत्ता में आई है। नीतीश के अलावा 14 अन्‍य ने मंत्री पद की शपथ ली है, जिसमें भाजपा के सात, जेडीयू के पांच, हम और वीआईपी का एक-एक मंत्री शामिल है। साफ़ दिख रहा है कि आकार में भाजपा का पूरा दबदबा रहेगा और नीतीश कुमार स्पीकर भी अपना नहीं बना पाएंगे।
तारकिशोर प्रसाद और रेणु देवी के अलाव आज रामसूरत राय यादव ने मंत्री पद की शपथ ली जो मुजफ्फरपुर के औराई से विधायक हैं। दरभंगा के जाले से विधायक जीवेश कुमार मिश्रा ने मैथिली भाषा में शपथ ली। वह जाले से लगातार दूसरी बार भाजपा विधायक बने हैं।

राजनगर से विधायक रामप्रीत पासवान ने मंत्री पद की शपथ मैथली में ली जिनकी पहचान दलित चेहरे के तौर पर है। आरा से चौथी बार विधायक चुने गए अमरेंद्र प्रताप सिंह मंत्री पद की शपथ ली जो बक्सर जिले के हैं और सामाजिक कार्यकर्ता और किसान के रूप में पहचान रखते हैं। मंगल पांडे पिछली नीतीश सरकार में भी मंत्री पद का दायित्‍व संभाल रहे थे। पांडे बिहार भाजपा के अध्‍यक्ष रह चुके हैं।

विकासशील इनसान पार्टी (वीआईपी) के मुकेश सहनी भी मंत्री बने हैं। वो अंतिम क्षणों में महागठबंधन छोड़ कर एनडीए में शामिल हुए थे और भाजपा कोटे से चार सीटें उन्हें मिली थीं। मुकेश खुद अपनी सीट पर हार गए थे फिर भी मंत्री बने हैं।

बिहार के पूर्व सीएम जीतन राम मांझी के बेटे संतोष सुमन मांझी भी मंत्री बन गए हैं।

फुलपरास से पहली बार जीतकर आई जेडीयू विधायक शीला कुमारी भी मंत्री बनी हैं जिन्हें जदयू का महिला चेहरा माना जाता है। तारापुर सीट से दूसरी बार लगातार जीतकर आए मेवालाल चौधरी के अलावा अशोक चौधरी ने ली मंत्री पद की शपथ ली है। जेडीयू के वे कार्यकारी अध्यक्ष हैं और पहले प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष थे लेकिन पार्टी ने उनकी कद्र नहीं की जिसके बाद वे जदयू में चले गए।

बिजेंद्र प्रसाद यादव भी मंत्री बने हैं जिन्हें नीतीश कुमार का करीबी माना जाता है। वे सुपौल से जीते है और पहले भी नीतीश मत्रिमंडल में ऊर्जा विभाग संभाल चुके हैं।

जेडीयू के प्रदेश अध्यक्ष रह चुके विजय चौधरी इस बार सरायरंजन से जीतकर आए हैं और इस बार मंत्री बने हैं।

इस बीच चर्चा है कि पटना साहिब से जीतकर आए भाजपा के नंदकिशोर यादव इस बार सदन का संचालन करेंगे। भाजपा ने उन्हें विधानसभा अध्यक्ष का पद देने का फैसला किया है।

तेजस्वी यादव का ट्वीट –
Tejashwi Yadav
@yadavtejashwi
आदरणीय श्री नीतीश कुमार जी को मुख्यमंत्री ‘मनोनीत’ होने पर शुभकामनाएँ। आशा करता हूँ कि कुर्सी की महत्वाकांक्षा की बजाय वो बिहार की जनाकांक्षा और NDA के 19 लाख नौकरी-रोजगार और पढ़ाई, दवाई, कमाई, सिंचाई, सुनवाई जैसे सकारात्मक मुद्दों को सरकार की प्राथमिकता बनायेंगे।

दुर्घटना में मौत की स्थिति में बालिग बच्चे मुआवजे के हकदार : हाईकोर्ट

मोटर वाहन हादसे में मारे गए शख्स के बच्चों को केवल इस आधार पर मुआवजे से इनकार नहीं किया जा सकता कि वह बालिग हैं और अभिभावकों पर आश्रित नहीं हैं। पंजाब-हरियाणा हाईकोर्ट ने यह टिप्पणी मोटर एक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल करनाल के फैसले को खारिज करते हुए की है।  1 मई, 2004 को सुमित्रा देवी करनाल के हाईवे पर बच्चों के साथ खड़ी थीं। तभी एक तेज रफ्तार गाड़ी ने उन्हें टक्कर मार दी थी, जिससे घायल होने के बाद अस्पताल में उन्होंने दम तोड़ तोड़ दिया था।

सुमित्रा देवी की मौत के बाद उनके बच्चों ने मुआवजे के लिए याचिका दाखिल की थी जिसके चलते मोटर एक्सीडेंट क्लेम ट्रिब्यूनल करनाल ने केवल 50 हजार रुपये मुआवजा मंजूर किया था। इसको चुनौती देते हुए सुमित्रा के बेटे हाईकोर्ट पहुंचे थे। याचिका का विरोध करते हुए बीमा कंपनी ने कहा कि ट्रिब्यूनल ने जो मुआवजा तय किया है वह पर्याप्त है और इससे अधिक कुछ और नहीं दिया जाना चाहिए।

इसके अलावा तर्क दिया गया कि याचिकाकर्ता बालिग हैं और ऐसे में उन्हें अपनी मां पर आश्रित नहीं कहा जा सकता है और वे मुआवजे के हकदार नहीं हैं। हाईकोर्ट ने इस दलील को सिरे से खारिज करते हुए कहा कि बालिग होना मुआवजे से इनकार का आधार नहीं हो सकता है।

हाईकोर्ट ने कहा कि गृहिणी का घर में योगदान अमूल्य होता है। घर में दी गई सेवाओं का मूल्य 3500 रुपये प्रतिमाह लगाते हुए अन्य सभी पक्षों को देखकर हाईकोर्ट ने मुआवजे की राशि 8,32,500 रुपये तय की है। इस राशि को बीमा कंपनी को 7.5 प्रतिशत ब्याज के साथ याचिकाकर्ताओं को अदान करनी होगी।

72 साल में पहली बार वर्चुअल होगा सालाना निरंकारी संत समागम -5 से 7 दिसंबर तक ऑनलाइन तरीके से आयोजित होगा सत्संग

चंडीगढ़ के मनीमाजरा में आजादी के बाद से 1948 में संत बाबा सज्जन सिंह की याद में शुरू हुए निरंकारी वार्षिक समागम के 72 साल के इतिहास में इस बार कोरोना के चलते पहली बार निरंकारी संत समागम विशाल रूप में न मनाकर वर्चुअल तरीके से मनाया जाएगा। इस दौरान लाखों निरंकारी अपने करतब दिखाते थे साथ ही साफ सफाई का भी विशेष खयाल रखा जाता था।

समागम के ​इतिहास में पहली बार है कि लाखों की संख्या में निरंकारी श्रद्धालु एक साथ एक जगह पर सत्संग न करके वर्चुअल तरीके से यानी वीडियो कॉन्फ्रेंस के जरिये सत्संग का आनंद लेंगे। निरंकारी मिशन प्रेस विभाग की सदस्य राजकुमारी ने बताया, 73वां वार्षिक निरंकारी संत समागम माता सुदीक्षा की छत्रछाया में वर्चुअल रूप में 5 से 7 दिसंबर को आयोजित किया जाएगा।

इस बार इस सत्संग में लोग भले ही सशरीर न शिरकत कर सकेंग, पर दुनियाभर में इसकी पहुंच को और बढ़ाया जा सकता है। दुनियाभर के लाखों श्रद्धालु घर बैठे ऑनलाइन इसमें हिस्सा लेंगे। इसके अलावा इसका प्रसारण धार्मिक चैनल पर भी प्रसारित किया जाएगा।