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कोटे पर न केरोसिन मिलता है और न चीनी!

उत्तर प्रदेश के राशनकार्ड धारकों, मुख्य तौर पर ग्रामीणों को अब केरोसिन (मिट्टी का तेल) और चीनी कोटों के माध्यम से नहीं मिलते। प्रदेश सरकार ने इनका वितरण लगभग बन्द कर रखा है। ग्रामीण जीवन केरोसिन के बिना अधूरा है। लेकिन सरकारी अधिकारियों का कहना है कि जब सरकार ने गैस सिलेंडर दे दिये और बिजली कनेक्शन हैं ही, तो फिर केरोसिन देने का क्या मतलब? वहीं कोटों के माध्यम से राशनकार्ड धारकों को चीनी न मिलने के बारे में पूछने पर अधिकारी चुप्पी साध लेते हैं।

एक कोटा धारक ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि पहले लोगों के लिए सरकार से केरोसिन, चीनी और गेहूँ-चावल सभी कुछ आता था। लेकिन अब चीनी और केरोसिन आना बन्द हो गया है। केरोसिन बहुत कम मिलता है, जो कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों के लिए होता है। कोटा धारक ने बताया कि हमसे आज भी लोग पूछते हैं कि केरोसिन क्यों नहीं मिलता? हम इसका क्या जवाब दें, जब सरकार ने ही देना बन्द कर दिया है। उन्होंने यह भी कहा कि केरोसिन तेल डिपो पर खूब होता है, पर उसकी कालाबाज़ारी की जाती है। कोटा धारक ने बताया कि ग्रामीण जनता को आज भी केरोसिन की बहुत ज़रूरत होती है। ऐसे में जिन लोगों को केरोसिन चाहिए होता है, वो दुकानदारों से खरीदते हैं। यह पूछने पर कि दुकानदार केरोसिन बेचते हैं? कोटा धारक ने कहा- ‘उसे इसके बारे में बहुत जानकारी नहीं है। लेकिन सुनते हैं कि ज़रूरतमंद लोग दुकानों से खरीदते हैं।’ कोटा धारक से यह पूछने पर कि दुकानों पर केरोसिन बेचने की छूट है? दुकानदारों को केरोसिन मिलता कहाँ से है? उन्होंने कहा कि पता नहीं।

क्या कहते हैं ग्रामीण

इस बारे में कुछ ग्रामीणों से बात करने पर इस मामले की और भी परतें निकलकर सामने आयीं। ग्राम ठिरिया के भद्रसेन का कहना है कि उन्हें तकरीबन तीन साल से ज़्यादा समय से केरोसिन नहीं मिल रहा है; जबकि उन्हें हर महीने कम से कम दो-तीन लीटर केरोसिन की ज़रूरत होती है। क्योंकि वह सुबह-सुबह 10 किलोमीटर दूर ड्यूटी पर जाते हैं, ऐसे में सुबह-सुबह उनकी पत्नी को खाना बनाना पड़ता है, जिसके लिए कभी-कभी गैस न होने पर या ईंधन के अभाव में केरोसिन वाले स्टोव का सहारा होता है। लेकिन केरोसिन न मिलने के चलते उन्हें दिक्कत होती है। गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले अंगनलाल ने बताया कि उन्हें भी केरोसिन नहीं मिल पाता, जबकि उनके घर में बिजली कनेक्शन इसलिए नहीं है कि उसका बिल बहुत आता है और वह ईंट भट्ठे पर काम करके इतनी महँगी बिजली नहीं ले सकते। उन्होंने बताया कि उन्हें कभी-कभार एकाध लीटर केरोसिन मिल जाता है, जो पाँच-सात दिन में लालटेन में खत्म हो जाता है। इसके बाद इधर-उधर से जुगाड़ करके तेल या कभी मजबूरी में डीज़ल लेना पड़ता है; जो काफी महँगा पड़ता है। कोटे से चीनी मिलने के बारे में पूछने पर अंगनलाल ने बताया कि चीनी हम गरीबों को कहाँ नसीब होती है, हम तो गुड़ की चाय पी लेते हैं। चीनी 35-40 रुपये किलो मिलती है और गुड़ इतने में डेढ़-दो किलो आ जाता है।

एक दूसरे गाँव ग्वारी गौंटिया के सचिन गंगवार ने बताया कि केरोसिन देखे हुए वर्षों बीत गये और अब तो चीनी भी कोटे से नहीं मिलती। इस बारे में बुज़ुर्ग ग्रामीण लालता प्रसाद ने कहा कि देखिए, जैसा कि आप देख रहे हैं, गाँवों में आज भी बहुत कुछ नहीं बदला है। गाँवों में बिजली पहुँच तो गयी है, लेकिन न तो सभी लोगों के घरों में अभी तक कनेक्शन हैं और न ही बिजली 24 घंटे रहती है। गाँवों में बिजली हफ्ते के हिसाब से आती है। एक हफ्ता रात को और एक हफ्ता दिन को। यह कहने पर कि उत्तर प्रदेश में तो 16 घंटे बिजली रहती है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘सब जुमलेबाज़ी है। बेकार की बात है। जो लोग यह दावा करते हैं, वो गाँव में आकर 10 दिन रहकर देखें। पता चल जाएगा।’ कोटे से चीनी मिलने की बात पर लालता प्रसाद भड़ककर कहते हैं- ‘चीनी! आप चीनी की बात करते हैं, यहाँ गेहूँ-चावल पर मारा-मारी मची रहती है।’ जब उनसे यह पूछा गया कि गेहूँ-चावल तो मिलता है, उसमें क्या दिक्कत है? लालता प्रसाद कहते हैं- ‘आप यह बताइए कि जिनके खेती-बाड़ी है, उन्हें तो एक बार को राशन की दिक्कत उतनी नहीं होती। वैसे जिनकी खेती कम है या जो सब्ज़ियां उगाते हैं या गन्ना आदि करते हैं, उन्हें तो राशन खरीदकर ही खाना पड़ता है। लेकिन दूसरी तरफ, जो मज़दूर हैं या जो लोग छोटी-मोटी नौकरी करते हैं, उन्हें तो सब कुछ खरीदना ही पड़ता है। राशन के कोटे से एक यूनिट पर केवल पाँच किलो गेहूँ-चावल मिलते हैं। आप बताइए कि एक व्यक्ति का महीने भर का खर्चा क्या पाँच किलो ही होता है। वह पूछते हैं कि है कोई नेता, जो महीने भर में केवल पाँच किलो अनाज से गुज़ारा कर ले? यह छोटी-सी बात काहे समझ नहीं आती, इन अधिकारियों और मंत्रियों को कि एक आदमी को कम राशन ही सही, लेकिन जितना चाहिए, उतना तो दें!’

एक विधवा उर्मिला ने बताया कि भैया! यहाँ तो राशन भी कब मिलेगा, कब नहीं, कुछ पता नहीं होता। कभी 5 तारीख को राशन मिलता है, तो कभी 8-10 तारीख को। उनसे पूछा गया कि कितना राशन मिलता है, तो उन्होंने बताया कि एक आदमी पर पाँच किलो मिलता है। उसमें भी कोटे वाला भाँय-भाँय करता है। जल्दी-जल्दी तोलकर भगा देता है। अगर उसकी सही तोल की जाए, तो दो-चार सौ ग्राम कम ही निकलेगा। कोटे वाले से बोलो, तो कहता है कि बोरी में कितना कम आता है, पता है? उर्मिला का कहना है कि हमारे घर में चार लोग हैं, हमें महीने भर में आठ किलो चावल और 12 किलो गेहूँ मिलते हैं। घर में महीने में 30-35 किलो का खर्च है। बाकी हम खरीदकर खाते हैं। अभी लॉकडाउन में ज़रूर महीने में दो बार राशन मिला है, बाकी दिन तो वैसे ही हैं। केरोसिन के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि केरोसिन की छोड़ो, अब तो चीनी भी नहीं मिलती।

राशन के दो भाव!

अंगनलाल ने बताया कि उन्हें तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलता है। इन्हीं के गाँव के ओमवीर ने बताया कि उन्हें भी तीन रुपये किलो चावल और पाँच रुपये किलो गेहूँ मिलते हैं। वहीं जालिम नगला गाँव में राशन के बारे में लोगों से पता करने पर उन्होंने बताया कि उनके यहाँ भाव तो नहीं मालूम, लेकिन दोनों चीज़े इकट्ठे में तीन रुपये किलो पड़ती हैं। इस गाँव के रहने वाले देवेंद्र कुमार ने बताया कि उनके घर में पाँच यूनिट हैं, उन्हें हर महीने 10 किलो चावल और 20 किलो गेहूँ मिलते हैं; जिसके लिए उन्हें हर महीने 90 रुपये कोटे वाले को देने पड़ते हैं। देवेंद्र ने बताया कि अगर कोटे वाले से भाव पूछो, तो बोलता है, बहुत सस्ता है; बाहर से खरीदो, तो पता चलेगा। सरकार का एहसान मानो कि इतने सस्ते में गेहूँ-चावल मिल रहे हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर वह कहते हैं कि वो उन्हें ही मिलते हैं, जो गरीबी में आते हैं, हमें नहीं मिलते। यहीं के गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले रामपाल ने बताया कि हमें कोई कुछ अलग से थोड़े ही मिलता है; जो सबको मिलता है, वही मिलता है। उनसे जब पूछा गया कि आपको किस भाव राशन मिलता है, तो उन्होंने कहा कि राशन तो मुफ्त मिलता है। एक कोटे धारक से बात करने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वाले लोगों को सरकार मुफ्त में राशन देती है, सो हम भी मुफ्त में बाँटते हैं। बाकी लोगों को जो भाव ऊपर से तय है, उस भाव में बाँट देते हैं। केरोसिन और चीनी के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि गरीबी रेखा से नीचे जीवनयापन करने वालों को केरोसिन भी दिया जाता है। चीनी अब आती नहीं, तो दें कहाँ से। यहाँ के कोटे धारक ने यह भी बताया कि जबसे कोरोना फैला है, तबसे महीने में दो बार राशन बँटा है; एक बार मुफ्त में और एक बार पैसे से। इस हिसाब से एक आदमी को महीने में 10 किलो राशन मिल जाता है, जो कि उसके लिए काफी है। इस पर वहाँ खड़े एक व्यक्ति ने कहा कि गाँव में आदमी मेहनत करता है, 10 किलो राशन से उसका पेट नहीं भरता साहिब! आप सरकारी भाषा मत बोलो। हम कोई अफसर नहीं कि दिन भर कुर्सी पर बैठे रहें और दो रोटी खाने भर से काम चल जाए। इस पर वहाँ लोगों में बहस शुरू हो गयी।

सार्वजनिक वितरण प्रणाली क्या है

भारत सरकार की काफी पुरानी योजना सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पब्लिक डिस्ट्रिब्यूशन सिस्टम (पीडीएस) है, जो कि एक तरह की भारतीय खाद्य सुरक्षा प्रणाली है। भारत सरकार द्वारा इस योजना को वर्षों पहले लागू किया गया था, जिसका मुख्य उद्देश्य देश में भुखमरी से निपटना था। इसके पीछे की सरकार की मंशा थी कि देश में कोई भी व्यक्ति भूखा न रहे। इसके अंतर्गत राशन वितरण करने के लिए हर परिवार में एक राशनकार्ड बना और उसमें परिवार के सदस्यों की संख्या उनके नाम सहित दर्ज की गयी। इस तरह इस राशन कार्ड से प्रति व्यक्ति अर्थात् प्रति यूनिट सरकार से लाइसेंस प्राप्त राशन की दुकानों, जिन्हें गाँवों में कोटा कहते हैं; के माध्यम से गेहूँ, चावल, चीनी, केरोसिन आदि वितरित किया जाने लगा। धीरे-धीरे इस प्रक्रिया को घोटालों का घुन लगने लगा और लोगों तक पूरी मात्रा में उनके हिस्से की वस्तुएँ न मिलने में शिकायतें आने लगीं। आज भी यह प्रक्रिया जारी है। हालाँकि अब लोग थोड़े जागरूक हैं, तो हो सकता है कि इसमें बड़े पैमाने पर सेंध न लगती हो, लेकिन ग्रामीण क्षेत्रों में ऐसा न होने की कोई गारंटी भी नहीं ले सकता। वही अब अधिकतर लोगों को केवल गेहूँ और चावल ही मिलते हैं। केरोसिन और चीनी कोटों से लापता हो चले हैं।

थानों और अपराध शाखाओं में सीसीटीवी लगाने के निर्देश

इस कदम के पीछे की सोच यह है कि जब भी किसी पुलिस स्टेशन या एक जाँच एजेंसी में गम्भीर चोट या हिरासत में मौत की कोई घटना होती है और कोई भी व्यक्ति मानवाधिकार के तहत न्यायालयों में इसकी शिकायत करता है, तो आयोग ऐसी स्थिति में सीसीटीवी फुटेज तलब कर सकता है और उसे सुरक्षित रखने को कह सकता है। इस तरह के फुटेज पीडि़तों को मानवाधिकार के उल्लंघन की स्थिति में उपलब्ध कराये जाएँगे।

न्यायमूर्ति आर.एफ. नरीमन की अध्यक्षता वाली पीठ ने निर्देश दिया है कि राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों (केंद्र शासित प्रदेशों) को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि प्रत्येक पुलिस स्टेशन पर सीसीटीवी कैमरे लगाये जाएँ, जिससे सभी प्रवेश और निकास बिन्दु, मुख्य द्वार, सभी लॉक-अप, गलियारे, लॉबी और रिसेप्शन क्षेत्र, लॉकअप रूम के बाहर के क्षेत्रों कवर हों। शीर्ष अदालत ने 2018 में मानवाधिकार हनन की जाँच के लिए पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था।

अदालत ने कहा कि सीसीटीवी सिस्टम को नाइट विजन से लैस किया जाना चाहिए और इसमें ऑडियो के साथ-साथ वीडियो फुटेज भी होना चाहिए। यह केंद्र, राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों के लिए अनिवार्य होगा कि वे ऐसी प्रणालियों की खरीद करें, जो अधिकतम अवधि- कम-से-कम एक साल तक के लिए डेटा को सुरक्षित रख सकें।

बेंच, जिसमें जस्टिस के.एम. जोसेफ और अनिरुद्ध बोस भी शामिल थे; ने कहा कि इसके अलावा भारत सरकार को भी केंद्रीय जाँच ब्यूरो, राष्ट्रीय जाँच एजेंसी, प्रवर्तन निदेशालय, नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, राजस्व खुफिया विभाग, गम्भीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय (एसएफआईओ), अन्य कोई एजेंसी जो पूछताछ करती है और गिफ्तारी की शक्ति रखती है; के दफ्तरों में सीसीटीवी कैमरे और रिकॉर्डिंग उपकरण लगाने के लिए निर्देशित किया जाता है। पीठ ने अपने आदेश में कहा कि इनमें से अधिकांश एजेंसियाँ अपने कार्यालय (कार्यालयों) में पूछताछ करती हैं। सीसीटीवी उन सभी दफ्तरों में अनिवार्य रूप से स्थापित किये जाएँ, जहाँ आरोपियों से पूछताछ की जाती है और उन्हें पकड़कर रखा जाता है; वैसे ही जैसा एक पुलिस स्टेशन में होता है।

सुप्रीम कोर्ट ने कहा कि इस साल सितंबर में उसने सभी राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों को मामले में सीसीटीवी कैमरों की सही स्थिति का पता लगाने के लिए और साथ ही 3 अप्रैल, 2018 के अनुसार, ओवरसाइट समितियों के गठन का पता लगाने के लिए कहा था। शीर्ष अदालत ने हिरासत में उत्पीडऩ से जुड़े एक मामले को निपटाते हुए इस साल जुलाई में 2017 के एक मामले का संज्ञान लिया था, जिसमें अदालत ने  सभी पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था; ताकि मानवाधिकारों के हनन की जाँच की जा सके, अपराध स्थल की वीडियोग्राफी की जा सके और साथ ही प्रत्येक राज्य और केंद्रशासित प्रदेश में इस तरह का एक केंद्रीय प्रवासी समिति या इस तरह का एक पैनल गठित करने को कहा था। अपने 12 पृष्ठ के आदेश में पीठ ने कहा कि 24 नवंबर तक 14 राज्यों ने अनुपालन हलफनामे और कार्रवाई की रिपोर्ट पेश की थी और उनमें से अधिकांश प्रत्येक पुलिस स्टेशन और अन्य जगह सीसीटीवी कैमरों की सही स्थिति का खुलासा करने में विफल रहे हैं। इसमें कहा गया है कि राज्य स्तरीय निरीक्षण समिति (एसएलओसी) में गृह विभाग के सचिव या अतिरिक्त सचिव, वित्त विभाग के सचिव या अतिरिक्त सचिव,  महानिदेशक या पुलिस महानिरीक्षक के अलावा राज्य महिला आयोग की अध्यक्ष या सदस्य शामिल होने चाहिए।

इसमें कहा गया है कि ज़िला स्तरीय निरीक्षण समिति (डीएलओसी) में सम्भागीय आयुक्त या क्षेत्रीय आयुक्त या ज़िले के राजस्व आयुक्त, ज़िला मजिस्ट्रेट और पुलिस अधीक्षक और ज़िले के भीतर एक नगर पालिका के महापौर या ग्रामीण क्षेत्रों में ज़िला पंचायत के प्रमुख शामिल होने चाहिए।  पीठ ने एसएलओसी के कर्तव्यों को भी निर्दिष्ट किया, जिसमें सीसीटीवी और उपकरणों की खरीद, वितरण और स्थापना और उसके लिए पैसे के आवंटन का इंतज़ाम करना शामिल था। इसमें कहा गया है कि डीएलओसी का किसी भी मानव अधिकार उल्लंघन, जो हुआ तो है, लेकिन उसकी रिपोर्ट नहीं की गयी है; को लेकर स्टेशन हाउस अधिकारियों (एसएचओ) के साथ बातचीत करने और विभिन्न पुलिस स्टेशनों में सीसीटीवी से संग्रहीत फुटेज की समीक्षा करने का ज़िम्मा होगा। इसने कहा कि इसके लिए राज्यों और संघ शासित प्रदेशों द्वारा जल्द-से-जल्द पर्याप्त धन आवंटित किया जाना चाहिए।

आदेश में कहा गया है कि सीसीटीवी के काम, रखरखाव और रिकॉर्डिंग के लिए कर्तव्य और ज़िम्मेदारी सम्बन्धित थाने के एसएचओ की होगी। जिन क्षेत्रों में बिजली या इंटरनेट नहीं है, वहाँ राज्यों और केंद्रशासित प्रदेशों का यह कर्तव्य होगा कि वे सौर या पवनचक्की या अन्य स्रोतों से बिजली प्रदान करने के किसी भी तरीके का उपयोग शीघ्रता से करें। पीठ ने कहा- ‘जब भी पुलिस थानों में बल का प्रयोग होने की सूचना मिलती है, जिसके परिणामस्वरूप गम्भीर चोट या हिरासत में मौत की घटना होती है, तो यह आवश्यक है कि व्यक्ति इसकी शिकायत और समाधान करने के लिए स्वतंत्र हो।’

पीठ ने आदेश में कहा है कि एसएलओसी और केंद्रीय निरीक्षण निकाय सभी पुलिस स्टेशनों और एजेंसियों को प्रवेश द्वार पर और पुलिस स्टेशनों, सीसीटीवी द्वारा सम्बन्धित परिसर के कवरेज के बारे में जाँच एजेंसियों के कार्यालयों को प्रमुखता से प्रदर्शित करने के लिए निर्देश देंगे और यह अंग्रेजी, हिन्दी और स्थानीय भाषा में बड़े पोस्टरों द्वारा प्रदर्शित किया जाएगा। यह आगे उल्लेख करेगा कि सीसीटीवी फुटेज एक निश्चित न्यूनतम समय अवधि, जो छ: महीने से कम नहीं होगी; के लिए संरक्षित है और पीडि़त को अपने मानवाधिकारों के उल्लंघन की स्थिति में समान सुरक्षित रखने का अधिकार है।

आदेश में कहा गया है कि अधिकारी आदेश को पूरी तरह और यथाशीघ्र लागू करेंगे। पीठ ने इस मामले, जिसकी अगली सुनवाई 27 जनवरी के लिए निर्धारित की है; में कहा है कि प्रत्येक राज्य और संघ राज्य क्षेत्र के प्रमुख सचिव या मंत्रिमंडलीय सचिव या गृह सचिव छ: सप्ताह के भीतर हलफनामा दाखिल करें, जिसमें आदेश के अनुपालन के लिए सटीक समयरेखा के साथ एक दृढ़ कार्य योजना की जानकारी हो।

शीर्ष अदालत, जिसने पहले मानवाधिकारों के हनन की जाँच के लिए पुलिस थानों में सीसीटीवी कैमरे लगाने का आदेश दिया था; ने कहा है कि नारकोटिक्स कंट्रोल ब्यूरो, राजस्व खुफिया विभाग और गम्भीर धोखाधड़ी जाँच कार्यालय सहित अधिकांश जाँच एजेंसियों के सभी कार्यालयों में सीसीटीवी अनिवार्य रूप से स्थापित किये जाने चाहिए।

जाँच एजेंसियों में सीसीटीवी कैमरे लगने से उन लोगों को सुरक्षा ज़रूर मिलेगी, जो बिना कारण या गलत तरीके से उन अधिकारियों या कर्मियों के गुस्से का शिकार हो जाते हैं, जिनकी हिरासत में कोई व्यक्ति होता है।

सुविधाहीन बच्चों को पढ़ाने के लिए प्रोफेसर ने माँगी ट्रेनों में भीख

हमने-आपने बहुत-से लोगों को अपने और अपनों के लिए भीख माँगते देखा है। आजकल हमें यू ट्यूब, ट्वीटर, फेसबुक के ज़रिये कई ऐसे मददगार देखने को मिलते हैं, जो कि काफी प्रेरणादायक होते हैं। जैसे एक वीडियो में देखा गया कि कोई फुटपाथ से एक अंजान गंदे, गरीब, बूढ़े को उठाकर अपनी कार में बिठाकर ले जाता है और उसे नहलाकर, बाल कटवाकर, नये कपड़े पहनाकर, बदसूरत से खूबसूरत बनाकर, खाना खिलाकर छोड़ देते हैं। लेकिन एक पढ़ा-लिखा इंसान, वह भी प्रोफेसर अगर ट्रेनों में भीख माँगे, वह भी दूसरों के लिए, तो यह ज़रूर अचम्भित करने वाली बात है।

हम बात कर रहे हैं संदीप देसाई नामक एक मरीन इंजीनियर की। अपने करियर की शुरुआत उन्होंने मरीन से की और बाद में एस.पी. जैन इंस्टीट्यूट ऑफ मैनेजमेंट एंड रिसर्च में प्रोफेसर के रूप में काम किया। लेकिन गरीब और वंचित समुदाय के बच्चों की ज़िन्दगी बदलने के उद्देश्य से नौकरी छोड़ ही दी।

नौकरी के समय उन्हें प्रोजेक्ट्स के सिलसिले में अक्सर गाँव देहातों में जाना पड़ता था, जहाँ का नज़ारा देखकर उन्हें बड़ा दु:ख होता था कि  गाँव के बच्चों की शिक्षा का कोई विशेष प्रबन्ध नहीं है, जिससे ज़्यादातर बच्चे अनपढ़ ही रहकर अपनी पूरी ज़िन्दगी खेतों में काम करके या मज़दूरी करके काट देते हैं। संदीप इन बच्चों के लिए कुछ करना चाहते थे और इसी उद्देश्य को पूरा करने के लिए उन्होंने सन् 2001 में श्लोक पब्लिक फाउंडेशन नाम से एक ट्रस्ट की नींव रखी। इस ट्रस्ट का मुख्य उद्देश्य गरीब बच्चों को मुफ्त शिक्षा प्रदान करना है।

उन्होंने मुम्बई के झुग्गी एरिया में बच्चों की दुर्दशा देखकर सन् 2005 में गोरेगाँव ईस्ट में एक स्कूल खोला, जहाँ आस-पास की झुग्गियों से बच्चे पढऩे आने लगे। कुछ ही समय में इस स्कूल में बच्चों की संख्या 700 तक पहुँच गयी और कक्षा 8 तक पढ़ाई होने लगी। हालाँकि वर्ष 2009 में उन्होंने स्कूल बन्द कर दिया, जब सरकार ने आरटीई एक्ट (6 से 14 साल तक के बच्चों को नि:शुल्क एवं अनिवार्य शिक्षा का अधिकार) पारित कर प्राइवेट स्कूलों में 25 फीसदी सीटें गरीब बच्चों के लिए आरक्षित कर दीं। उसके बाद के कुछ साल उन्होंने और उनकी संस्था ने अनेक गरीब बच्चों का करीब 4 प्राइवेट स्कूलों में आरटीई एक्ट के तहत दाखिला कराया और ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को इस नियम से अवगत भी कराया। बहुत-से स्कूल इसमें आनाकानी करते थे, लेकिन सरकारी कानून का हवाला देने और दाखिला न करने पर स्कूल पर 10 हज़ार प्रतिदिन का ज़ुर्माने की याद दिलाने पर स्कूल प्रबन्धन बच्चों को दाखिला दे देता था।

संदीप ने देखा कि बहुत लोगों को इस नियम की जानकारी नहीं थी। तब उनके मन में एक इंग्लिश स्कूल खोलने का विचार आया, जिसके लिए उन्होंने सूखे की मार झेल चुके और अनेक किसानों की आत्महत्या के गवाह बने महाराष्ट्र के यवतमाल को चुना। यहाँ बच्चों को मुफ्त यूनिफॉर्म, किताबें दी जाने लगीं। अब पिछले साल से बच्चों को खाना भी देना शुरू किया गया है।

संदीप के लिए यह सब आसान नहीं रहा। सबसे बड़ी चुनौती धन की थी। इसके लिए उन्होंने करीब 250 कॉर्पोरेट्स को खत लिखा; लेकिन कहीं से कोई मदद नहीं मिली। किसी ने पूरे स्कूल को प्रायोजित करने की बजाय सिर्फ वार्षिक समारोह में मदद की बात कही, तो किसी ने अपना खुद का कॉर्पोरेट सोशल रेस्पोंसिबिलिटी (सीएसआर) का हवाला देकर मदद से इन्कार कर दिया। लेकिन संदीप जी ने हिम्मत नहीं हारी और सितंबर, 2010 में मुम्बई की लोकल ट्रेनों में जाकर आम यात्रियों से अपने इस नेक काम के लिए मदद माँगनी शुरू कर दी।

एक शाम संदीप अपने सह ट्रस्टी प्रोफेसर नूर उल इस्लाम के साथ गोरेगाँव स्टेशन पहुँचे। दोनों ट्रेन में चढ़ गये। नुर उल इस्लाम ने कहा कि वह दूर खड़े रहेंगे। आप जाकर लोगों से मदद माँगे। संदीप के पास एक बैग था और उसमें प्लास्टिक का डिब्बा था, जिसमें उनकी संस्था का नाम लिखा था। लेकिन चार स्टेशन निकल जाने के बाद भी संकोचवश वह डिब्बा नहीं निकाल पाये। जब ट्रेन सांताक्रूज स्टेशन पहुँची, तब उनके मित्र उनके पास आये और बोले या तो डिब्बा निकालकर लोगों से सहायता माँगो या फिर अगले स्टेशन पर हम उतरेंगे और फिर कभी भी इस तरह का भीख माँगने का विचार मन में नहीं लाएँगे। तब पहली बार संदीप ने अपने बैग से डिब्बा निकालकर लोगों से स्कूल खोलने के लिए ‘विद्या धनम्, श्रेष्ठम् धनम्’ बोलते हुए रेल यात्रियों से मदद माँगी। शुरू में तो लोगों को विश्वास नहीं हुआ, लेकिन समय बीतने के साथ लोग उनकी मदद को खुद-ब-खुद आगे आने लगे।

संदीप द्वारा इस तरह पैसा इकट्ठा करने की चर्चा अब अखबारों में और टीवी पर भी होने लगी है। अभी तक जो कॉर्पोरेट इनको मदद देने से इन्कार कर रहे थे, अब वो भी इनके साथ जुडऩे लगे और 2016 तक इनकी संस्था को 40 लाख रुपये का कॉर्पोरेट डोनेशन (दान) प्राप्त हुआ। इसके साथ ही सिने अभिनेता सलमान खान ने भी इनको मदद की पेशकश की है।

यह संदीप देसाई की गरीब बच्चों के लिए कुछ करने की लगन ही थी कि वह अपने मकसद में बहुत हद तक कामयाब हुए और समाज के लिए प्रेरणा के सबब बने।

हमारे इस देश में अनगिनत लोग संदीप देसाई की तरह सामाजिक  बदलाव में लगे होंगे, जो पुण्यात्मा ही हैं, जिन्हें कुदरत ने लोगों की सेवा के लिए ही जन्म दिया होता है।

हर शुक्रवार को प्रदर्शित होने वाली फिल्मों में से कई फिल्मों पर दावा किया जाता है कि उन्होंने बॉक्स ऑफिस पर 100, 200, 300 करोड़ की कमायी की। अगर ऐसे फिल्मी लोगों ने इकट्ठा आकर संदीप देसाई जैसी शिख्सयतों की समाज सेवा की सोच से उनके हाथ में अपना हाथ दिया, तो कितने ही मासूम बच्चे, जो आज भी शिक्षा के वंचित हैं; देश का भविष्य बन सकते हैं।

महाराष्ट्र सरकार का एक साल, थोड़ी खुशी, थोड़ा गम जैसा हाल

देखते ही देखते महाविकास आघाड़ी की सरकार के कार्यकाल का एक साल पूरा हो गया और उसने महाराष्ट्र में गठन की पहली सालगिरह मनायी। शरद पवार के मार्गदर्शन में मुख्यमंत्री उद्धव बालासाहेब ठाकरे सिर्फ 5 वर्ष नहीं, बल्कि पूरे 25 वर्ष सरकार चलाने का दावा कर रहे हैं। गत एक वर्ष में बतौर मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे ने लबालब आत्मविश्वास का प्रदर्शन किया वही अन्य मंत्री एक सीमित दायरे तक ही सिमट गये। एक तरह से महाराष्ट्र सरकार का हाल थोड़ी खुशी, थोड़ा गम की तरह है।

महाराष्ट्र में विधानसभा चुनाव में भाजपा और शिवसेना का ज़ोर था, वहीं विपक्ष में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी, कांग्रेस पार्टी और अन्य जमकर लड़े थे। अपेक्षानुसार भाजपा और शिवसेना को अच्छी-खासी सफलता मिली और सरकार बनना तय माना जा रहा था। इस अभियान में मुख्यमंत्री पद को लेकर विवाद हुआ और इसे समय पर रोकने में भाजपा नेतृत्व कम पड़ा। इसका लाभ उठाकर शरद पवार ने पहले शिवसेना को विश्वास में लिया और बाद में कांग्रेस को भी मनाकर महाराष्ट्र में महाविकास आघाड़ी का गठन किया। उद्धव ठाकरे को मुख्यमंत्री बनाया गया। आज एक वर्ष पूर्ण होने के पश्चात् सरकार गिरने वाली है, जैसी खबरें चलाने वाले के मुँह पर कड़ा तमाचा है। भाजपा भी सरकार गिरने का इंतज़ार में थी। पर उसका भी मोहभंग हो चुका है। एक वर्ष का कार्यकाल की समीक्षा करना आसान नहीं है। वैसे आघाड़ी में मुख्यमंत्री के तौर पर उद्धव ठाकरे की प्रतिभा पूरे देश में लोकप्रियता के शिखर पर है और उनकी हर तार्किक बात से जनता भी गम्भीरता से लेती है। लेकिन टीम का कप्तान ठीकठाक हो, तो इतने मात्र से मैच जीतना आसान नहीं होता, जब तक अन्य सदस्य अपना उचित और लाभदायक योगदान न दें। दो-चार मंत्रियों को छोड़ा जाए, तो उनका हर मंत्री, पार्टी का एजेंडा हो या सरकारी निर्णय; इनमें पिछड़ गया है। लॉकडाउन में स्वास्थ्य मंत्री की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। राजेश टोपे राष्ट्रवादी से आते हैं। इन्होंने पहले कुछ दिन उत्साह दिखाया। लॉकडाउन में गृह विभाग भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है। गृह मंत्री अनिल देशमुख फोन पर भी बात करने से कतराते थे। इसी तरह अजित पवार, अशोक चव्हाण, बालासाहेब थोरात, वर्षा गायकवाड़, दादा भिसे जैसे मंत्री भी कुछ खास नहीं कर पाये। ग्रामविकास मंत्री जयंत पाटील, सामाजिक मंत्री धनंजय मुंडे, पर्यावरण मंत्री आदित्य ठाकरे, वैद्यकीय शिक्षा मंत्री अमित देशमुख, अल्पसंख्यक मंत्री नवाब मलिक, वस्त्रोद्योग मंत्री असलम शेख इनका विभाग सक्रिय दिखायी दिया। कुछ मंत्री सोशल मीडिया पर ही सक्रिय दिखे, जिसका लाभ आम लोगों को नहीं मिल पाया।

वैसे मंत्री और विधायक आम बातचीत में स्वीकार करते हैं कि उनसे कुछ नहीं हो पाया और दूसरे ही पल कोरोना को ज़िम्मेदार मानकर खुद की असफलता को छिपाते हैं। कोरोना के चलते विकास का काम ठप हुआ। जिन्होंने काम भी किया, उनका बिल अटका हुआ है। कोरोना पर कुल कितनी रकम खर्च की गयी है? इसके आँकड़े सार्वजनिक नहीं किये जा रहे हैं। पारदर्शिता और जबाबदेही से सरकार भाग रही है; जबकि विभाग स्तर पर उसे आँकड़े सार्वजनिक करने चाहिए।

महाविकास आघाड़ी सरकार का रिमोट शरद पवार के हाथ में है, यह चर्चा मुख्यमंत्री ठाकरे और सरकार को प्रभावित करती है। एक बार निर्णय लेने के बाद जब उसे बदला जाता है, तब सरकार की किरकिरी होना स्वाभाविक है। इससे यह भी संकेत मिलते हैं कि तीनों पार्टियों में तालमेल नहीं है। पहली सालगिरह के मौके पर जारी विज्ञापन यथार्थ से दूर थे और सिर्फ प्रचार तक सीमित रहे।

झारखण्ड की शान, लेकिन परेशान

देश में न जानें ऐसी कितनी प्रतिभाएँ हैं, जो खेल के मैदान में तो जीत दर्ज करती हैं; लेकिन सिस्टम उन्हें हरा देता है। झारखण्ड में ऐसे एक-दो नहीं, कई मामले हैं। राज्य की शान बढ़ाने वाले ये खिलाड़ी आज परेशान हैं और अपनी जान हथेली पर लेकर जुनून के साथ मैदान में डटे हैं। उन्हें सरकारी मदद का इंतज़ार है। इनको अगर मदद नहीं मिली, तो राष्ट्रीय फलक पर चमकने वाले ये सितारे गुमनामी और गरीबी में दबकर रह जाएँगे। हालाँकि सरकार का दावा है कि खिलाडिय़ों की मदद और बढ़ावा दिया जा रहा है। लेकिन हकीकत यह है कि मदद की रफ्तार इतनी धीमी है कि खिलाडिय़ों का हौसला डगमगाने लगा है। खिलाडिय़ों के बेहतर भविष्य के लिए सरकार को विशेष ध्यान देने और प्राथमिकता पर योजना को तेज़ गति से बढ़ाने की ज़रूरत है।

राज्य ने दिये कई बड़े खिलाड़ी

झारखण्ड की खेल की दुनिया में एक अलग पहचान है। यह पहचान राष्ट्रीय व अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर नाम रौशन करने वाले कुछ खिलाडिय़ों ने बनायी है। इनमें क्रिकेट के पूर्व भारतीय कप्तान महेंद्र सिंह धोनी, हॉकी में सुमराय टेटे, अंसुता लकड़ा, ओलंपियन निक्की प्रधान, तीरंदाज़ ओलंपियन दीपिका कुमारी, मधुमिता कुमारी और कोमोलिका कुमारी का नाम देखने को मिलता है। इन खिलाडिय़ों ने पूरी दुनिया में परचम लहराया। राज्य में इन विश्वस्तरीय खिलाडिय़ों की तरह कई ऐसी खेल प्रतिभाएँ हैं, जो अच्छा प्रदर्शन कर रही हैं। इनमें से कई राष्ट्रीय स्तर पर भी पहुँचे हैं। भविष्य में ये देश और राज्य के चमकते सितारे बन सकते हैं; लेकिन गरीबी और मदद नहीं मिलने के कारण ये प्रतिभाएँ दबी पड़ी हैं।

दूसरे काम करने को मजबूर

कराटे के राष्ट्रीय पदक विजेता 26 वर्षीय बिमला मुंडा हडिय़ा (दारू) बेचकर गुज़र-बसर करती थीं। बिमला मुंडा 2011 में 34वें राष्ट्रीय खेलों में रजत पदक विजेता थीं। फिल्म अभिनेता अक्षय कुमार द्वारा 2012 में आयोजित कूडो इंटरनेशनल चैंपियनशिप में भी स्वर्ण पदक जीत चुकी हैं। हालाँकि अब उन्हें सरकार ने कुछ मदद दी है। धनबाद की तीरंदाज़ सोनी खातून कई पदक जीतने के बाद मजबूरी में सब्ज़ी बेच रहीं थीं। लम्बे प्रयास के बाद उन्हें पिछले दिनों सरकारी मदद से लैबोरेटरी में नौकरी मिली है। बोकारो के करमाटांड के रहने वाले गनी अंसारी राज्यस्तर पर वेटलिफ्टिंग चैंपियनशिप 10 स्वर्ण पदक जीत चुके हैं। मजबूरी में उन्हें खेती करनी पड़ रही है। धनबाद की तीरंदाज़ नाज़िया प्रवीण को हालात ने हाथ से धनुष छुड़ा दिया। वह जूता पॉलिश कर रही हैं। जबकि नाज़िया राष्ट्रीय स्तर पर कई पदक जीत चुकी हैं। इसी तरह तीरंदाज़ आशीष सोरेन, डेनिस सोरेन, साइक्लिस्ट स्वर्ण सिंह, फुटबॉलर ममता, एथलीट रितिक आनंद, हैडबॉल खिलाड़ी शबनम परवीन जैसे दर्ज़नों खिलाड़ी ऐसे हैं, जो राज्य व राष्ट्रीय स्तर अपना जलवा दिखा चुके हैं। इन्होंने कई मैडल भी जीते हैं; लेकिन गरीबी के कारण इनका भविष्य संकट में है। इनमें आगे बढऩे की तमन्ना है, पर खेल के मैदान में प्रतिभा दिखाने की जगह कोई खेतों में, तो कोई दुकान पर काम कर रहा है। प्रैक्टिस (अभ्यास) के लिए इनके पास सामान नहीं है।

उभरते खिलाडिय़ों की स्थिति भी दयनीय

भारत में होने वाले अंडर-17 वल्र्ड कप महिला फुटबॉल टीम में झारखण्ड की आठ खिलाडिय़ों का चयन हुआ है। इनमें गुमला की सुधा अंकिता तिर्की, सुमति कुमारी, अस्तम उरांव, सालीना कुमारी व अमीषा बाखला, सिमडेगा की पूर्णिमा कुमारी और रांची की नीतू लिंडा व सुनीता मुंडा शामिल हैं।

इन सभी खिलाडिय़ों की पारिवारिक स्थिति अच्छी नहीं है। इन्हें बेहतर प्रशिक्षण और उचित खुराक के लिए सरकार की मदद की ज़रूरत है। कैंप में तो इन्हें सही खुराक मिल भी जाती है, लेकिन छुट्टी में ये खाने को मोहताज हो जाती हैं। अभ्यास पर असर पड़ता है। परिवार की चक्की में पिसती हैं। उन्हें थोड़ी मदद की ज़रूरत है, जिससे वह विश्व फलक पर चमक सकें।

लम्बे प्रयास के बाद, थोड़ी मदद

राज्य की खेल प्रतिभाओं की समस्या को लेकर बीच-बीच में खेल संघ व मीडिया में बातें उठती रही हैं। मामला उठता है, तो फिलवक्त के लिए थोड़ी सरकारी मदद मिल जाती है। पर यह मदद ऊँट के मुँह में जीरा साबित होती है। जिस तरह पिछले दिनों तीरंदाज़ सोनी खातून को 6000 रुपये की निजी अस्पताल में नौकरी दिलायी गयी; हैडबॉल खिलाड़ी शबनम परवीन को अनाज दिया गया; फुटबॉलर पंकज बास्की को 15 हज़ार रुपये की आर्थिक मदद दी गयी; और इसी तरह थोड़ी-बहुत सहायता कुछ अन्य खिलाडिय़ों को मिली; लेकिन इस तरह की मदद को संतोषप्रद नहीं कहा जा सकता।

सरकार का दावा चल रही तैयारी

खेल विभाग के अधिकारियों का दावा है कि खिलाडिय़ों को बढ़ावा देने की तैयारी चल रही है। खेल नीति-2020 बनायी गयी है। खेल को आकर्षक और व्यवहार्य करियर विकल्प बनाने की भी योजना है। खिलाडिय़ों का डाटाबेस तैयार कर अंतर्राष्ट्रीय क्षमता मानक के साथ सुविधाएँ उपलब्ध करायी जाएँगी। राज्य के 260 खिलाडिय़ों को नकद पुरस्कार राशि और 256 खिलाडिय़ों को खेल छात्रवृत्ति दी गयी है। राज्य में 25 आवासीय क्रीड़ा प्रशिक्षण केंद्र और 89 डे-बोर्डिंग क्रीड़ा प्रशिक्षण केंद्र चल रहे हैं। इन्हें और बेहतर बनाया जाएगा। अंडर-17 महिला फुटबॉल विश्वकप के लिए नेशनल कैंप का आयोजन झारखण्ड में किया गया। कैंप में बेहतर सुविधा दी जा रही है। राज्य में फुटबॉल को बढ़ावा देने के लिए फुटबॉल फेडरेशन के साथ खेल विभाग जल्द ही एमओयू करेगी। खिलाडिय़ों की सीधी नियुक्ति की प्रक्रिया चल रही है। इसके लिए अभी तक 33 खिलाडिय़ों का चयन हो चुका है।

सरकार की मदद से एक निजी अस्पताल में 6000 रुपये की नौकरी मिली है। इससे से किसी तरह से परिवार चल रहा है। मेरे पास धनुष नहीं है। प्रशासन ने कई महीने पहले धनुष दिलाने का वादा किया था, लेकिन अभी तक नहीं मिला है। इस वजह से मेरा अभ्यास भी नहीं हो रहा है। मेरी आर्थिक स्थिति इतनी अच्छी नहीं है कि मैं खुद धनुष खरीद सकूँ।      सोनी खातून

तीरंदाज़

मैंने स्कूल गेम्स फेडरेशन ऑफ इंडिया की राष्ट्रीय प्रतियोगिता में पदक जीता। राज्यस्तरीय प्रतियोगिताओं में दो दर्ज़न से अधिक पदक जीते। भारतीय खेल प्राधिकरण (साई) में विशेष ट्रेनिंग शुरू हुई; लेकिन अभ्यास के दौरान जाँघ में चोट लग गयी, जिससे अभ्यास बाधित हो गया। परिवार की आर्थिक स्थिति खराब है, जिसके चलते मुझे पिताजी के काम (दुकानदारी) में हाथ बँटाना पड़ रहा है। सरकार से कोई मदद नहीं मिली। निजी खर्च पर इलाज करा रहा हूँ।ऋतिक आनंद

एथलीट (लम्बी कूद)

मेरा चयन अंडर-17 वल्र्ड कप फुटबॉल के लिए हुआ है। कैंप में रहने पर अच्छा भोजन मिलता है; लेकिन छुट्टी के समय परेशानी होती है। अभी कैंप से छुट्टी मिली हुई है। अभ्यास भी बन्द है। मेरे पिता किसान हैं। मेरी आर्थिक स्थिति बहुत अच्छी नहीं है। बीच-बीच में थोड़ी आर्थिक मदद प्रशासन से मिल जाती है।

नीतू लिंडा

अंडर-17 वल्र्ड कप फुटबॉल

कैंप खिलाड़ी

अलविदा त्रासदी वर्ष 2020

साल 2020 बीतने को है। हर आदमी इस साल की जल्द-से-जल्द विदाई चाहता है और आने वाले नव वर्ष 2021 के सुखद रहने की कामना के साथ उसका इंतज़ार कर रहा है। साल 2020 को त्रासदी का साल कहा जा सकता है। इस एक साल में जो भी हुआ है, उससे मानव जाति खुद को भयभीत और असुरक्षित पा रही है। आज भी लोगों में कोरोना वायरस का जो डर समाया हुआ है, वह किसी और बीमारी से मरने तक को मजबूर कर रहा है; लेकिन अस्पताल जाने की हिम्मत नहीं दे पा रहा है। 2020 की इस पूरे साल में जो भी हुआ, उस पर एक नज़र अच्छे-बुरे अनुभवों के तौर पर हर कोई रखना चाहेगा; क्योंकि यह साल किसी को भी जीवन भर भुलाये नहीं भुलाया जाएगा।

जिन हस्तियों ने कहा अलविदा

बीत रहे इस साल में कई बड़ी हस्तियों ने इस दुनिया को अलविदा कह दिया, जिनमें कई हस्तियाँ कोरोना की वजह से परलोक सिधार गयीं। इनमें भारतीय राजनेता, पूर्व राष्ट्रपति भारत रत्न से सम्मानित प्रणब मुखर्जी ने भी इस साल दुनिया से विदाई ले ली। वह कोमा में थे। भारतीय नेता पूर्व राज्यसभा साँसद 67 वर्षीय देवी प्रसाद त्रिपाठी ने भी इस साल दुनिया को अलविदा कहा। भारतीय नेता, पूर्व लोकसभा साँसद और पंजाब केसरी ग्रुप के चेयरपर्सन अश्विनी कुमार चोपड़ा ने भी कैंसर से जूझते हुए इस साल दुनिया छोड़ दी। अभी हाल ही में भारतीय राजनेता और वर्तमान केंद्र सरकार में मंत्री रहे रामविलास पासवान ने भी नश्वर शरीर इसी साल छोड़ा। अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार में केंद्रीय मंत्री रहे जसवंत सिंह ने भी

82 वर्ष की उम्र में शरीर छोड़ दिया। वह पिछले छ: साल से कोमा में थे।

असम के पूर्व मुख्यमंत्री तरुण गोगोई ने भी कोविड-19 और कई अंगों के काम न करने के चलते गुवाहाटी मेडिकल कॉलेज और अस्पताल में इसी साल नवंबर में अंतिम साँस ली। वह 84 वर्ष के थे। गुजरात के कांग्रेस नेता और पूर्व साँसद अहमद पटेल ने भी नवंबर में मेदांता अस्पताल, गुरुग्राम में अंतिम साँस ली। वह कोरोना वायरस से संक्रमित थे। कांग्रेस के ही नेता 72 वर्षीय भंवरलाल मेघवाल ने भी मेदांता अस्पताल, गुरुग्राम में अंतिम साँस पिछले दिनों ली। भारतीय राजनीतिज्ञ कर्नाटक और केरल के पूर्व राज्यपाल हंसराज भारद्वाज ने भी 82 वर्ष की उम्र में दुनिया को अलविदा कह दिया।

इसके अलावा आधुनिक गद्य के लेखक कृष्ण बलदेव वैद ने 93 वर्ष की उम्र में अपना चोला छोड़ दिया। पद्मश्री से सम्मानित वरिष्ठ हिन्दी साहित्कार गिरिराज किशोर का भी हृदयगति रुकने से इसी साल देहांत हो गया। भारतीय फुटबॉल खिलाड़ी और प्रबन्धक रहे प्रदीप कुमार बनर्जी का देहांत भी इसी साल दिल का दौरा पडऩे से हो गया। भारत के पूर्व अटॉर्नी जनरल और वरिष्ठ अधिवक्ता अशोक देसाई भी नहीं रहे। भारतीय रंगकर्मी और समाजसेवी ऊषा गांगुली ने भी लम्बी बीमारी के बाद शरीर छोड़ दिया। फिल्म अभिनेता इरफान खान ने भी महज़ 53 साल की आयु में दुनिया इसी साल छोड़ी थी। फिल्म अभिनेता ऋषि कपूर ने भी 67 साल की आयु में नश्वर शरीर छोड़ दिया। वह कैंसर से पीडि़त थे। धारावाहिकों से फिल्मों में पैर जमाने वाले अभिनेता सुशांत सिंह राजपूत ने भी इसी साल शरीर छोड़ दिया। सुशांत महज़ 34 साल के थे और उनकी मौत हत्या-आत्महत्या के विवादों में बहुत दिनों तक उलझी रही। शायर राहत इंदौरी ने भी 70 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। उन्हें दिल का दौरा पड़ा था। हाल ही में मसालों के बड़े कारोबारी एमडीएच के मालिक महाशय धर्मपाल ने भी अस्पताल में अन्तिम साँस ली।

इसके अलावा विदेशी लोगों में डेविड स्टर्न, जो 77 वर्ष के थे। सन् 1984 से सन् 2014 तक नेशनल बास्केटबॉल असोसिएशन के आयुक्त रहे अमेरिकी व्यवसायी डेविड स्टर्न का निधन ब्रेन हेम्ब्रेज की वजह से हुआ। ईरानी मेजर जनरल, कुद्स फोर्स के प्रमुख कासिम सुलेमानी की एक हवाई हमले में मौत हो गयी। वह 62 साल के थे। ओमान के सुल्तान कबूस बिन सईद अल सईद की पेट के कैंसर के चलते इसी साल मौत हुई। एक हवाई दुर्घटना में अमेरिकी पेशेवर और बास्केटबॉल खिलाड़ी कोबी ब्रायंट की महज़ 42 वर्ष की आयु में मौत हो गयी। अमेरिकी गायक, संगीतकार और लेखक केनी रोजर्स ने भी 81 साल की उम्र में दम तोड़ दिया। फ्रांसीसी अभिनेता मैक्स वॉन सिडो ने भी 90 साल की उम्र में इस दुनिया को अलविदा कह दिया। ब्रितानी भाषाविद्जॉन लियोन ने भी इस साल दुनिया छोड़ दी। पाकिस्तानी राजनेता और खैबर पख्तूनख्वा के पूर्व राज्यपाल इिफ्तखार हुसैन शाह ने भी इसी साल दुनिया छोड़ी। उत्तरी आयरलैंड की राजनेता और नोबेल पुरस्कार विजेता 76 वर्षीय बेट्टी विलियम्स ने इसी साल अन्तिम साँस ली।

इसके अलावा भारत समेत पूरी दुनिया के लाखों लोगों ने इस साल कोरोना वायरस या दूसरी बीमारियों की चपेट में आकर या उम्र पूरी होने के चलते इस साल इस दुनिया को छोड़ा।

वीभत्स घटनाएँ

अगर इस साल की वीभत्स घटनाओं पर नज़र डालें तो दिल दहल जाता है। अगर केवल कोरोना-काल की बात करें, तो मध्य प्रदेश में मासूम की सामूहिक बलात्कार करने के बाद आँखें निकाल लेने और उत्तर प्रदेश के हाथ में युवती से सामूहिक दुष्कर्म के बाद उसकी हड्डियाँ तोडऩे और उसकी जीभ काट लेने की घटनाओं ने रूह तक को दहला दिया। इसके अलावा हरियाणा में कई साल तक अपनी पत्नी को टॉयलेट में बन्द रखने की घटना, बिहार की ज्योति की बलात्कार के बाद निर्मम हत्या, कासगंज में जुलाई में हुए तिहरे हत्याकांड, नागपुर में साधुओं की हत्या, उत्तर प्रदेश में दो साधुओं की हत्या, पत्रकारों की हत्या, पत्रकारों पर झूठे मुकदमे दर्ज करना, बलात्कार की रिपोर्ट दर्ज कराने जाने पर पीडि़ता और उसकी माँ की रास्ते में वाहन से कुचलकर हत्या, उन्नाव गैंगरेप के बाद पीडि़ता की जलाकर हत्या, पश्चिमी उत्तर प्रदेश में पुलिस अधिकारी की हत्या, जलगाँव चार नाबालिगों की निर्मम हत्या, बाराबंकी में युवती की बलात्कार के बाद निर्मम हत्या, हाल ही में मिर्ज़ापुर में तीन मासूमों की हत्या, राजस्थान का पुजारी हत्याकांड, मध्य प्रदेश में सरकार द्वारा किसान की ज़मीन छीनने की कोशिश के बाद उसका परिवार समेत ज़हर पी लेने जैसी घटनाओं ने भी लोगों को काफी विचलित किया। वैसे उत्तर प्रदेश की बात करें, तो यहाँ अपराधीकरण साल 2020 में बहुत बढ़ा है।

मौत का सिलसिला

इस साल कोरोना वायरस फैलने से मौत ने तकरीबन मोहल्ले, हर गाँव, हर कस्बे में तांडव किया है। अगर केवल भारत की बात करें, तो कोरोना-काल के शुरू से ही अनेक लोगों की मौत होने लगी थी। अचानक लगे लॉकडाउन ने जहाँ पैदल चल रहे सैकड़ों लोगों की भूख और थकान से जान चली गयी, वहीं इस महामारी और दूसरी बीमारियों से मरने वालों की संख्या भी हज़ारों में रही। अगर 2020 में हुई मौतों के आँकड़े इकट्ठे किये जाएँ, तो पता चलेगा कि इस साल इलाज के बगैर हज़ारों लोगों ने दम तोड़ा होगा। यही नहीं, इस साल आत्महत्या करने वालों और भूख से मरने वालों की संख्या भी बहुतायत में निकलेगी। इसके अलावा पुलिस की पिटाई और मॉब लिंचिंग के अलावा हत्याओं के कारण बड़ी संख्या में लोगों की मौतें हुईं। कह सकते हैं कि कोरोना वायरस नाम की इस महामारी के बीच और भी बहुत कुछ ऐसा हुआ, जिसके चलते पूरे देश में मौत का खुला तांडव हुआ।

चर्चित मामले

इस साल के घटी घटनाओं में कई मामले बहुत चर्चित रहे। इनमें कोरोना-काल में श्रमिकों का पैदल ही अपने-अपने घर लौटना, रेल यात्रा पर चली राजनीति, अधिकतर ट्रेनों का भटकना और उनमें हुई करीब एक दर्ज़न लोगों की मौतें, केरल में एक गर्भवती हथिनी की हत्या, हाथरस में युवती की निर्मम हत्या और पुलिस के द्वारा आधी रात को उसका अन्तिम संस्कार, दिल्ली के दंगे, शाहीन बाग का धरना-प्रदर्शन, जेएनयू में छात्रों की पिटाई, पुलिस और वकीलों के बीच मारपीट, चीन द्वारा भारत की सीमा में अतिक्रमण करना, जम्मू-कश्मीर में उथल-पुथल, नेपाल द्वारा पहली बार सीज़फायर करके चार भारतीयों पर गोली चलाना, उत्तर प्रदेश में पुलिसकर्मियों के हत्यारे विकास दुबे और उसके साथियों का एनकाउंटर, यौन शोषण के आरोपी चिन्मयानंद की जमानत, सुशांत सिंह मौत मामला, कांग्रेस में उथल-पुथल, मध्य प्रदेश में कांग्रेस की सरकार गिराकर भाजपा का सरकार बनाना, ज्योतिरादित्य सिंधिया का करीब दो दर्ज़न विधायकों के साथ कांग्रेस छोड़कर भाजपा में जाना, डॉ. कफील खान रिहाई मामला, राजस्थान में विधायकों की खरीद-फरोख्त मामला, मुम्बई में रिपब्लिक टीवी के प्रबन्ध सम्पादक अर्णब गोस्वामी का गिरफ्तार होना, अयोध्या में रामजन्मभूमि का मन्दिर के लिए शिलान्यास होना, कोरोना-काल में फिल्म अभिनेता सोनू सूद, प्रकाश राज द्वारा जी-जान से लोगों की मदद करना, अर्थ-व्यवस्था का रसातल में चले जाना, बिहार विधानसभा चुनाव में भाजपा द्वारा प्रदेशवासियों को मुफ्त वैक्सीन देने की बात कहना, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, राजस्थान और अन्य कई राज्यों में धर्म-परिवर्तन, जिसे कथित तौर पर लव जिहाद का नाम दिया जा रहा है; पर हंगामा, मुम्बई स्थित एक बैंक घोटाले में लाखों लोगों का पैसा मारा जाना, यस बैंक घोटाला, तेज़ी से कोरोना फैलने से पहले गुजरात में दीवार द्वारा झुग्गी-झोपडिय़ों को मोदी द्वारा आड़ देना, नमस्ते ट्रंप, इलाज के लिए अस्पतालों की बदहाली, कोरोना-काल में प्रधानमंत्री द्वारा लोगों से ताली-थाली बजवाना, बत्ती गुल करवाना आदि के अलावा भारत का भुखमरी देशों की लिस्ट में बुरी हालत में जाना, गरीब देशों की सूची में भी अपना स्तर गँवाना, प्रधानमंत्री का यू-ट्यूब और सोशल मीडिया पर विरोध बढऩा, तबलीगी जमात पर कोरोना फैलाने का आरोप लगना, महामारी में भारत का अमेरिका को हाइड्रोक्सीक्लोरोक्वीन दिया जाना, फेसबुक का रिलायंस जियो में 9.99 फीसदी भागीदारी खरीदना, केंद्र सरकार द्वारा महामारी कानून में बदलाव करते हुए डॉक्टरों, स्वाथ्यकर्मियों या पुलिस पर हमला करने वालों पर कड़ी सज़ा के प्रावधान करना, प्रधानमंत्री द्वारा आपदा में अवसर की बात कहना, आत्मनिर्भरता की बात कहना, आंध्र प्रदेश में विशाखापट्टनम स्थित एक कम्पनी के संयंत्र से गैस लीक होने से कई लोगों की मौत हो जाना, स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन का डब्ल्यूएचओ के कार्यकारी बोर्ड का निदेशक चुना जाना, लॉकडाउन के दौरान अर्थ-व्यवस्था की टूटती कमर को सीधा करने की कोशिश में शराब के ठेकों को खोलने की अनुमति देना, शराब पर मोटी जीएसटी लगाने के बावजूद ठेकों के बाहर मयखोरों की लम्बी-लम्बी लाइनें लगना, फिल्म उद्योग का बन्द हो जाना, फिल्म अभिनेता सलमान खान का खेती करना, टीवी चैनलों द्वारा टीआरपी का खेल करना, उद्धव ठाकरे के सख्त तेवर खासे चर्चा के विषय रहे। और अब सरकार द्वारा जबरन लाये गये तीन कृषि कानूनों के खिलाफ देश भर के किसानों द्वारा किया जा रहा आन्दोलन खासी चर्चा में है।

कहाँ गया पैसा

जब पैसे की बात आती है, तो मन में सबसे पहले सवाल यही उठता है कि आखिर पीएम केयर्स फंड में जमा हुए अरबों रुपये का क्या हुआ? केंद्र सरकार और प्रधानमंत्री ने इस पैसे का हिसाब देने से साफ मना कर दिया था, उसके बाद लोगों ने उनसे सवाल पूछने शुरू कर दिये थे। लेकिन इस पैसे का क्या हुआ? सिवाय केंद्र सरकार के और कोई नहीं जानता।

कहाँ-कहाँ हाहाकार

इस साल कोरोना वायरस फैलने के साथ ही घटते-छिनते रोज़गार, ठप हुए व्यापार, बन्द हुए उद्योग धन्धों, अधिकतर राज्यों की सरकारों, खासकर केंद्र सरकार द्वारा प्रवासियों की मदद न करने, महामारी की उचित इलाज व्यवस्था न होने, अर्थ-व्यवस्था के माइनस (-)23.9 फीसदी खिसक जाने, हाथरस कांड, तीन नये कृषि कानूनों पर किसानों के विरोध, बढ़ती महँगाई पर खूब हाहाकार मचा रहा है।

क्या करती रही सरकार

एक अहम सवाल यह है कि इस साल जब लोगों को त्रासदी ने घेरे रखा और तमाम परेशानियाँ हरेक आदमी को पेश आयीं, तब सरकार क्या करती रही? इसके जवाब की ठीक-ठीक पड़ताल तो हम नहीं कर सकते, लेकिन अगर सरकार के कामों पर मोटा-मोटी नज़र डालें, तो पता चलेगा कि इस साल सरकार ने प्रदेशों में अपनी साख मज़बूत करने, सरकारी संस्थानों के निजीकरण करने, अपने हक में फैसले कराने, लोगों को मुसीबत में छोडऩे और महामारी से निपटने की जगह उसे प्राकृतिक आपदा कहकर हाथ बाँधकर बैठने में अधिक समय बिताया। कोरोना-काल में केंद्रीय मंत्रियों द्वारा खूब राजनीति हुई। इस दौरान केंद्र सरकार ने कई कानून बना डाले, जिसमें तीन कृषि कानूनों का लगभग पूरे देश में विरोध हो रहा है। देश के अधिकतर बच्चों की पढ़ाई भी अभी तक ठप पड़ी है; लेकिन सरकार डिजिटल पढ़ाई के नाम पर अपना पल्ला झाडऩे में लगी रही है।

प्राकृतिक आपदाएँ

इस साल कोरोना वायरस के भय और संक्रमण से बचाव की कोशिश में लोगों ने इस बात पर गौर ही नहीं किया कि और भी प्राकृतिक आपदाएँ इस साल बहुतायत में आयीं। इसका एक सबसे बड़ा उदाहरण है, इस साल के ही शुरू में करीब दो दर्ज़न बार भूकम्प का आना। इसके अलावा कई नयी बीमारियों ने भी इस साल दस्तक दी है।

जन-सामान्य की समस्याएँ

वैसे तो देश की हर समस्या देश के हर नागरिक की है; लेकिन कुछ समस्याएँ ऐसी होती हैं, जो लोगों को सीधे-सीधे प्रभावित करती हैं। इन समस्याओं में निजी जीवन में आने वाली हर वह परेशानी आती है, जिसका सामना व्यक्ति खुद करता है। इसमें बीमारी से लेकर दैनिक जीवन की अनेक समस्याएँ हैं। लेकिन इस साल आम लोग जिन प्रमुख समस्याओं से दो-चार हुए, उनमें बेरोज़गारी, महँगाई और कोरोना नाम की महामारी ही थी।

क्या रहा अच्छा

ऐसा नहीं है कि इस साल सब कुछ बुरा ही बुरा रहा। इस साल भी कुछ बेहतर चीज़ें भी हुईं। इनमें अगर प्रमुखता से ध्यान दिया जाए, तो लोगों में साफ-सफाई की आदत का बढऩा, वातावरण का स्वच्छ होना, जीवन के महत्त्व को समझना, देश को राफेल विमानों का मिलना, लोगों द्वारा घरों में बन्द रहकर कोरोना वायरस पर बहुत हद तक काबू पा लेना काफी बड़ी बातें हैं। इसके अलावा केंद्र सरकार ने लोगों की मदद के लिए 20 लाख करोड़ से अधिक के पैकेज की घोषणा की। हालाँकि इस पैकेज से कितने लोगों को क्या फायदा हुआ या हो रहा है, इस पर कुछ नहीं कहा जा सकता। इसी साल प्रधानमंत्री ने देश की सबसे लम्बी सुरक्षा सुरंग चेनानी-नाशरी का उद्घाटन किया।

दायरों से निकलकर तो देखें

यह साल बीतने वाला है। शुभकामनाओं के साथ नये साल का स्वागत करने को हम सभी उत्सुक हैं। यह बदलाव प्राकृतिक है। अगर हम इंसान पल-दर-पल, सेकेंड-दर-सेकेंड, मिनट-दर-मिनट, दिन-रात, हफ्ता-दर-हफ्ता, महीने-दर-महीने, साल-दर-साल और सदी-दर-सदी इसकी गणना-गिनती न भी करें, तो भी समय इसी तरह बीतता जाएगा। समय का बीतना, ऋतुओं का आना-जाना, वनस्पति का उगना और नष्ट होना, नये जीवों का पैदा होना तथा जीवन जीकर मर जाना, हमारी उम्र का बढऩा बदलाव की ही निशानी है। इसी बदलाव की वजह से अरबों-खरबों साल पुरानी प्रकृति आज भी नूतन लगती है। लेकिन क्या हम खुद में ऐसा कोई बदलाव लाते हैं, जिससे हम इंसान भी हमेशा नूतन बने रह सकें? शायद नहीं! क्यों? क्योंकि हम इंसानों ने खुद को अहं, घृणा, ईष्र्या, वैमनस्य, भेद-भाव, अलगाव, दुराव, संताप, प्रलाप, उल्लास, उपहास, उन्माद, परिहास, प्रमाद, अवसाद, आह्लाद, विवादों, जाति-धर्म-वर्ण आदि के खोलों और जीवन की ज़रूरतों वाली कुछ सीमाओं में कैद कर रखा है। यह स्वाभाविक है; लेकिन हम अगर चाहें, तो इस सबसे बाहर निकल सकते हैं। हालाँकि यह भी सच है कि इन सबसे बाहर निकलना इंसान के लिए इतना आसान भी नहीं है; लेकिन इतना मुश्किल भी नहीं।

इंसानी फितरत ढालने के ऊपर है। कह सकते हैं कि इंसान का स्वभाव पानी की तरह होता है, उसे जैसा साँचा यानी वातावरण मिलता है, या कहें कि वह जैसा वातावरण अपने लिए चुनता है, उसकी आदतें, उसके कर्म उसी तरह के होते चले जाते हैं। यही वजह है कि हम सबकी सोच, व्यवहार और जीवन जीने के तरीके एक-दूसरे से काफी भिन्न होते हैं। जबकि जीवन सबका एक ही तरह का है। सब एक ही तरह पैदा हुए हैं, जीवन जीने की प्रक्रिया भी एक जैसी ही है और सभी को एक ही तरह मर भी जाना है; लेकिन फिर भी जीने के तरीकों में विविधता और आपसी मतभेद हमें एक-दूसरे से अलग करते हैं। हमें आपस में जोड़े रखने की अगर कोई कड़ी है, तो वह है- प्रेम, रिश्तों और स्वार्थ की कड़ी। एक ईश्वर की संतान होते हुए भी हम एक नहीं हैं; क्यों? क्योंकि सब खुद को सही समझते हैं। कोई भी दूसरे के अस्तित्व को बिना स्वार्थ के स्वीकारने को तैयार ही नहीं है। यही वजह है कि हम एक होकर भी अलग-अलग दायरों में बँधे और बँटे हुए हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि हम न तो ईश्वर को बाँट सकते हैं और न उसकी नश्वर संरचना को। नश्वर संरचना! यह समझने की ज़रूरत है। अगर इसे समझ लिया, तो हम इंसानों में भेद करना बन्द कर देंगे। हमें पूरी प्रकृति अपनी लगने लगेगी और स्वार्थ, स्वहित तथा स्वत्व के भाव से स्वयं को निकालकर हम अपनत्व या कहें कि सर्वस्व के भाव में चले जाएँगे; जहाँ न कोई अपना है और न कोई पराया। तब हम निश्छल, निर्भीक, नि:स्वार्थ, निरपराध, निष्काम, निर्मोही और निमग्न हो जाएँगे। उस एक परमात्मा में निमग्न, निश्छल प्रेम में निमग्न और नि:स्वार्थ परसेवा में निमग्न। तब हम भी प्रकृति की तरह ही नित नूतन, नित आनन्दित और नित प्रसन्नचित रहेंगे। लेकिन यह अवस्था प्राप्त करना आसान नहीं है। इस अवस्था को प्राप्त करने के लिए बड़े-बड़े योगी, वैरागी सदियों तक लगे रहते हैं। लेकिन यह अवस्था गृहस्थों में भी कभी-कभी आ जाती है; क्योंकि इसके लिए तन से अधिक मन के वैराग की ज़रूरत होती है। शिशु अवस्था की ज़रूरत होती है, जो मन के चञ्चल होने के बाद वापस पाना असम्भव जैसा हो जाता है।

सवाल आता है कि ईश्वर की नश्वर संरचना कौन-सी है? नश्वर संरचना वह है, जो कभी नष्ट नहीं हो सकती। ऋषियों और विद्वानों ने इसमें पञ्च तत्त्वों को शामिल किया है, जिसमें जल, अग्नि, वायु, पृथ्वी और आकाश शामिल हैं। यह सच है कि सब कुछ नष्ट हो सकता है, पर यह तत्त्व कभी नष्ट नहीं हो सकते और न ही इंसान इनमें से किसी को बाँट सकता है। इसके अलावा कुछ और भी चीज़ें हैं, जिन्हें इंसान नहीं बाँट सकता, जैसे- धूप, प्रकाश, अन्धकार, दिन-रात, जीवन, शारीरिक कष्ट, भाग्य, मृत्यु, अहसास, दर्द आदि। बल्कि इनमें कई तो ऐसी चीज़ें हैं, जो बाँटने से बढ़ती हैं। कहने का मतलब यह है कि इन सबके टुकड़े नहीं किये जा सकते। इसीलिए कहा है कि इंसान को इंसान से भेदभाव, घृणा, ईष्र्या, वैमनस्य आदि कभी नहीं करने चाहिए। ऐसा करना कहीं-न-कहीं ईश्वर का ही अपमान है। कुछ लोग सवाल करते हैं कि अगर कोई इसके ही लायक हो, तब क्या करें? इसके दो भावों के हिसाब से दो उत्तर हैं। पहला यह कि अगर आप उस परम् अवस्था को जा चुके हैं, जो ब्रह्ममय है, तब आपको इस सबसे मतलब ही नहीं रह जाएगा और अगर आप संसार में हैं और सामान्य हैं, तो यह स्वाभाविक है। लेकिन फिर भी जहाँ तक सम्भव हो सके, आपको इन सबसे बचना चाहिए; ताकि आप भी एक पुण्यात्मा होकर ब्रह्ममय हो सकें, अर्थात् ईश्वर के परम् प्रिय हो सकें। कुछ लोग, जो जातिवाद, धर्मवाद और वर्णवाद को मानते हैं, बल्कि मैं कहूँगा कि इस पागलपन में डूबे हुए हैं, वे समझते हैं कि परम्ब्रह्म की अवस्था को हर कोई नहीं जा सकता, यह केवल एक विशेष जाति का जन्मसिद्ध अधिकार है और यह अवस्था उन्हें तब भी प्राप्त होनी है, जब वे कुछ भी- अच्छा, चाहें बुरा करें। मगर यह उनकी सबसे बड़ी मूर्खता है। अगर ऐसा होता, तो उनकी हर कपोल-कथा सिद्ध हो चुकी होती और दूसरे लोगों को कोई ज्ञान भी नहीं होता। लेकिन ऐसा नहीं है। सवाल यह है कि फिर कैसे उस परम्ब्रह्म को प्राप्त किया जाए? इसका जवाब एक ही है कि पहले मन को शिशु अवस्था तक पहुँचाइए, जिसके लिए सबसे पहले आपको मज़हबी दायरों से निकलना होगा, ज़ात-पात के बन्धनों को तोडऩा होगा।

राजस्थान नगर परिषद और नगरपालिका चुनाव में कांग्रेस की बड़ी जीत, भाजपा को जबरदस्त झटका, तीसरे नंबर पर रही

पंचायत चुनावों में भाजपा से पिछड़ने वाली कांग्रेस ने राजस्थान के नगर परिषद और नगरपालिका के चुनाव में जबरदस्त जीत हासिल की है। भाजपा इन चुनावों में तीसरे नंबर पर रही जबकि दूसरे नंबर पर निर्दलीय रहे। इस तरह भाजपा को इन चुनावों में जबरदस्त झटका लगा है।

राजस्थान के 50 निकायों के 1775 वार्डों में कांग्रेस ने सबसे ज्यादा 620 सीटें जीती हैं जबकि 595 सीटों के साथ निर्दलीय दूसरे नंबर पर रहे। भाजपा को बड़ा झटका लगा है क्योंकि वह तीसरे नंबर पर रही और उसे 548 जगह जीत हासिल हुई है। उनके अलावा बसपा को महज 7, भाकपा और माकपा को 2-2 जबकि आरएलपी को एक जगह जीत मिली है। हाल में पंचायत समिति चुनाव में भाजपा ने 4371 सीटों में से 1932 सीटें जबकि कांग्रेस ने 1799 जीते थीं।

शहरी निकायों के लिए हुए चुनाव में कांग्रेस सबसे ज्यादा वार्डों में जीत दर्ज करने में सफल रही है। निर्दलीय प्रत्याशी दूसरे नंबर पर रहे हैं जबकि भाजपा  पिछली बार के  नंबर एक से तीसरे नंबर पर पहुंच गयी। शहरी इलाका भाजपा का परंपरागत वोट बैंक माना जाता है लेकिन इस बार कांग्रेस ने भाजपा का यह गढ़ भेद दिया है। इस बार भाजपा ने अपने कब्जे वाली तीस निकायों में बहुमत गवां दिया है।

याद रहे 2015 के इन 50 निकाय चुनाव में 34 शहरों में भाजपा ने जीत हासिल की थी। अब पांच साल बाद सिर्फ चार स्थानों पर ही बहुमत जुटा पाई है। प्रदेश के तीस ऐसे निकाय हैं, जहां निर्दलीय अहम भूमिका में हैं।

कांग्रेस के पास विपक्ष में रहते हुए इन 50 में से 14 शहरी निकायों में अध्यक्ष थे जबकि  अब 16 में कांग्रेस को स्पष्ट बहुमत मिला है। हालांकि, प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष गोविंद सिंह डोटासरा ने 40 निकायों में अध्यक्ष बनाने का दावा। डोटासरा ने कहा कि भाजपा का तीसरे स्थान पर सरक जाना साफ संकेत देता है कि लोगों के मन से भाजपा दूर होती जा रही है। वैसे पार्टी अपने ही 18 विधायकों और 4 मंत्रियों के क्षेत्रों में बहुमत से दूर रह गई है जहाँ निर्दलीयों ने बाजी मारी है।

श्रीनगर जिले में आतंकियों का पीडीपी नेता के घर हमला, पीएसओ की मौत

कश्मीर के श्रीनगर जिले में सोमवार को आतंकियों ने पीडीपी के एक नेता के घर हमला कर दिया। इस हमले में पीडीपी नेता के पीएसओ की मौत हो गयी है।

जानकारी के मुताबिक आतंकियों ने पीडीपी नेता परवेज अहमद के घर हमला कर दिया और गोलीबारी शुरू कर दी। इसमें नेता का पीएसओ गंभीर रूप से घायल हो  गया। गंभीर हालत में उन्हें अस्पताल ले जाया गया लेकिन उनकी मौत हो गयी। आतंकियों ने यह हमला आज किया। हमले के बाद पूरे इलाके को सुरक्षा बलों ने घेर लिया है और तलाशी अभियान शुरू किया गया है। घटना श्रीनगर जिले के नाटीपोरा इलाके की है जहां आज सुबह आतंकियों ने पीडीपी नेता हाजी परवेज अहमद के घर पर हमला किया। इस हमले में उनके निजी सुरक्षा गार्ड कांस्टेबल मंज़ूर अहमद घायल हो गए। उन्हें इलाज के लिए एसएमएचएस अस्पताल में भर्ती कराया गया लेकिन थोड़ी देर बाद ही उनकी मौत हो गयी।

उधर आतंकियों को पकड़ने के लिए इलाके की घेराबंदी की गई है। पीडीपी नेता परवेज ने घटना को लेकर बताया कि वह, उनके बच्चे, बूढ़ी माँ और अन्य परिजन घर पर थे कि सुबह फिरन पहने दो शख्स मुख्य दरवाजे से दाखिल हुए और वहां तैनात एक पुलिस कर्मी (पीएसओ) पर फायरिंग कर दी। फायरिंग की आवाज सुनकर उनका पीएसओ बाहर निकला और उसने हमलावरों पर जवाबी फायरिंग की। इसके बाद हमलावर भाग गए, लेकिन एक पीएसओ गंभीर रूप से घायल हो गया, जिसकी बाद में मौत हो गयी।

सिंघु बार्डर पर 40 किसान नेता अनशन पर बैठे, कई जगह किसानों का प्रदर्शन

मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों के खिलाफ दो हफ्ते से राजधानी दिल्ली की सीमाओं पर आंदोलन कर रहे किसान संघों के नेता सोमवार को सिंघु बार्डर पर एक दिन के अनशन पर बैठ गए हैं। आज सुबह 8 बजे 40 किसान नेता अनशन पर बैठ गए और वे शाम 5 बजे तक अनशन पर रहेंगे। किसान आज शाम बैठक करेंगे और कल सिंघु बॉर्डर पर सभी संगठन मिलकर अगली रणनीति पर मंथन करेंगे। इस बीच सरकारी स्तर पर सक्रियता जारी है और आज कृषि पर ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स की बैठक शुरू हो गयी है जिसमें  केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर और गृह मंत्री अमित शाह के अलावा अधिकारी भी शामिल हैं।

आज किसान आंदोलन का 19वां दिन भी है और किसानों ने साफ़ कर दिया है कि जब तक तीनों क़ानून मोदी सरकार वापस नहीं लेती है, आंदोलन जारी रहेगा। आज सुबह किसानों ने गाजीपुर बॉर्डर के एनएच-9 पर जाम लगा दिया। उधर कांग्रेस ने किसानों के आंदोलन और आज के अनशन का समर्थन किया है। पार्टी ने कहा कि सरकार को तुरंत तीन विवादस्पद और जल्दी में पास किये गए कानूनों को वापस लेना चाहिए।

आज दिल्ली में आम आदमी पार्टी के नेता भी अनशन कर रहे हैं। सीएम अरविंद केजरीवाल शाम चार बजे पार्टी दफ्तर में अनशन तोड़ेंगे। किसान आंदोलन के समर्थन में उपमुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया, दिल्ली सरकार में मंत्री सत्येंद्र जैन, गोपाल राय और आम आदमी पार्टी के अन्य नेता भूख हड़ताल पर बैठ हुए हैं।

भारतीय किसान यूनियन दोआबा के अध्यक्ष मनजीत ने कहा – ‘हम सरकार को ये संदेश (भूख हड़ताल से) देना चाहते हैं कि जो अन्नदाता देश का पेट भरता है उसको आज आपकी गलत नीतियों की वजह से भूखा बैठना पड़ रहा है।’

किसान नेताओं ने सोमवार को भी अपना आरोप दोहराया कि सरकार उनके आंदोलन तो ख़त्म करने का षड्यंत्र रच रही है और नेताओं को तोड़ने की कोशिश की जा रही है। किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि सरकार को इसमें सफलता नहीं मिलेगी क्योंकि किसान एकजुट हैं। उधर किसान नेता गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने कहा कि सरकार एमएसपी के मसले पर गुमराह कर रही है।

आज ही कृषि मामलों की जीओएम (ग्रुप ऑफ मिनिस्टर्स) की बैठक होनी है। कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर, गृह मंत्री अमित शाह समेत तमाम अधिकारी इस बैठक में मौजूद रहेंगे।

उधर किसान नेताओं ने नए कृषि कानूनों के खिलाफ अनशन शुरू कर दिया है।  दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे प्रदर्शन से और लोगों के जुड़ने की संभावना है।  किसान नेता बलदेव सिंह ने कहा, ‘किसान संगठनों के प्रतिनिधियों ने सिंघु बॉर्डर पर भूख हड़ताल शुरू कर दी है’। जयसिंहपुर खेड़ा बॉर्डर (राजस्थान-हरियाणा) पर भी किसानों का प्रदर्शन जारी है।