Home Blog Page 703

मायानगरी में योगी के दौरे का मकसद

दिसंबर के शुरू में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ का मायानगरी यानी फिल्म सिटी मुम्बई का दौरा कई मायनों में खास माना जा रहा है। कुछ जानकारों का कहना है कि योगी आदित्यनाथ उत्तर प्रदेश को फिल्म उद्योग की स्थापना करना चाहते हैं। इस मामले में उन्होंने वहाँ फिल्मजगत से जुड़ी कई हस्तियों से चर्चा भी की। जानकारों की मानें, तो उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने इसकी शुरुआत मुम्बई में बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का घंटा बजाकर कर दी है। हालाँकि बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज का घंटा बजाकर योगी ने लखनऊ म्यूनिसिपल कार्पोरेशन का बॉन्ड लिस्ट कराया, जिससे उन्होंने 200 करोड़ रुपये जुटाये। बताया जा रहा है कि इस पैसे को लखनऊ से जुड़ी तमाम विकास योजनाओं में लगाया जाएगा। दो दिन के दौरे के दौरान योगी आदित्यनाथ ने नोएडा स्थित फिल्म सिटी को और बुलंदी पर पहुँचाने की बात कही। इस सिलसिले में उन्होंने कई फिल्मी सितारों से मुलाकात भी की। उन्होंने कहा कि उत्तर प्रदेश चाहता है कि गंगा किनारे का छोरा गंगा की धरती से ही सिल्वर स्क्रीन की चमक बिखेरे। नोएडा में फिल्मों की शूटिंग, प्रोडक्शन आदि हो और मायानगरी मुम्बई की तरह उत्तर प्रदेश की धरती भी सितारों से गुलज़ार हो। हालाँकि इस दौरान अभिनेता राजपाल यादव ने आदित्यनाथ से गुज़ारिश की कि फिल्म सिटी पीलीभीत को बनाया जाए। फिल्मी सितारों से मुलाकात के बाद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने कहा कि उत्तर प्रदेश में हम वल्र्ड क्लास फिल्म सिटी का निर्माण कर रहे हैं। इसलिए हमने फिल्म जगत के तमाम लोगों से व्यक्तिगत रूप से भी और सामूहिक रूप से भी चर्चा की।

बता दें कि उत्तर प्रदेश का औद्योगिक क्षेत्र और देश की राजधानी दिल्ली से सटा एनसीआर का विकसित क्षेत्र नोएडा फिल्म सिटी सेंटर के लिए खासी पहचान रखता है। यहाँ कई फिल्मी हस्तियों ने स्टूडियो आदि काफी समय से बनवाये हुए हैं। टी.सीरीज़ का मुख्य स्टूडियो नोएडा में ही स्थापित है। नोएडा के अलावा उत्तर प्रदेश के सोनभद्र क्षेत्र में भी कई साल से फिल्म सिटी के निर्माण की चर्चा चलती आ रही है। हालाँकि सोनभद्र में भोजपुरी फिल्म उद्योग की स्थापना की चर्चा रही है। बता दें कि पहले भी कई बार इस बात की चर्चा रही है कि मुम्बई बहुत अधिक जनसंख्या घनत्व वाला शहर हो चुका है, जिसके चलते फिल्म उद्योग यहाँ से उत्तर प्रदेश की ओर जाना चाहता है। हालाँकि इन खबरों की कभी कोई पुष्टि नहीं हुई। लेकिन अब उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री का मुम्बई जाकर फिल्मी सितारों से मिलना और नोएडा का रुख करने का खुलकर न्यौता देना एक बार फिर इस चर्चा को तूल दे गया है कि उत्तर प्रदेश में फिल्म उद्योग की स्थापना होगी। कब तक? कहा नहीं जा सकता। स्थापना होगी या नहीं? यह भी अभी विश्वास के साथ नहीं कहा जा सकता

पोस्टर वॉर

मुम्बई के जिस होटल में उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ठहरे थे, उसी के बाहर राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की ओर से एक पोस्टर लगाया गया था। इस पोस्टर पर लिखा था- ‘कहाँ राजा भोज, कहाँ गंगू तेली। कहाँ महाराष्ट्र का वैभव और कहाँ यूपी की दरिद्रता। मुम्बई के उद्योग को यूपी ले जाने आया ठग।’ हालाँकि इसे लेकर जब विवाद बढ़ा, तो इस पोस्टर को हटा लिया गया।

किसान आन्दोलन का बढ़ता दायरा

किसानों के अधिकारों को असत्य के रास्ते दबाने का प्रयास किया जा रहा है; लेकिन सत्य कभी अपमानित नहीं होता। किसानों का कहना है कि सरकार कितना भी क्यों न कर ले अत्याचार, लेकर रहेंगे अपना अधिकार।

8 दिसंबर किसानों का भारत बन्द से साफ हो गया कि किसान देश के इतिहास में एक नयी इबारत लिख रहे हैं। दिल्ली-हरियाणा के सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलनकारी किसान हरप्रीत ने तहलका संवाददाता को बताया कि सरकार सत्ता के नशे में इस कदर चूर है कि देश के अन्नदाता-किसान की माँगों को सुनने को तैयार नहीं है। उन्होंने बताया कि भारत बन्द के किसानों के ऐलान के बावजूद सरकार ने माँगों को मानना तो दूर, सुनना भी नहीं चाहा। किसानों को लाठियों से पिटवाया। इस दिन को किसान कभी नहीं भूलेंगे। बात करते-करते जग्गी किसान का मोबाइल गिरकर टूट जाता है, लेकिन वह इसकी फिक्र न करते हुए कहते हैं कि अभी तो मोबाइल टूटा है, कल हम भी टूट जाएँ, तो भी कोई चिन्ता नहीं है; लेकिन जब तक कृषि कानून वापस नहीं हो जाते, तब तक किसानों का यह आन्दोलन नहीं रुकेगा। अन्य किसानों का भी यही कहना है। किसानों ने कहा कि आन्दोलन और सरकारी नीतियों से असहमति लोकतंत्र का अभिन्न अंग होता है; लेकिन आज सरकार तानाशाही कर रही है। हम सब किसानों से सरकार ऐसे बर्ताव कर रही है, जैसे हम किसान नहीं, आतंकवादी हों। भारत बन्द को लेकर केंद्र सरकार ने सियासत की है, जबकि वह अच्छी तरह जानती है कि किसान गलत नहीं हैं। हमने जब 26 नवंबर को देशव्यापी आन्दोलन का आह्वान किया था, तब सरकार की ओर से कोई बात करने को भी राज़ी नहीं था। सरकार के कुछ बिचौलिये आन्दोलन को समाप्त करने के लिए दबाव बना रहे हैं।

हरपाल किसान का कहना है कि यह सरकार चन्द पूँजीपतियों के सामने इस कदर गिरवी रखी है कि वह उन्हें ही लाभ देने के सिवाय कुछ नहीं सोच रही। किसान रात-दिन खेतों में मेहनत करके देशवासियों का पेट भरने का काम करता है। उस पर तमाम मुसीबतें टूटती रहती हैं। कभी फसल नष्ट हो जाती है, तो कभी सूखा पड़ जाता है। जंगली जीवों, ज़हरीले साँपों के बीच उसकी ज़िन्दगी बीतती है। इसमें कई किसानों की जान भी चली जाती है। इसके बाद भी वह देश सेवा की भावना से अपने अन्नदाता के धर्म का पालन करता है, मगर सरकार उस पर ध्यान देने की बजाय उसे ही लूटने में लगी है। हरपाल किसान पूछते हैं कि ऐसी कौन-सी मुसीबत सरकार के सामने आ गयी कि कोरोना-काल में चुपके से नये काले कानून थोपकर वह किसानों को कमज़ोर करने पर अड़ी है।

बताते तीन नये कृषि कानूनों अस्तित्व में आने पर सितंबर, 2020 से ही किसान इनका विरोध कर रहे हैं। सरकार किसानों के विरोध को हल्के में लेती आ रही है और उसे कुचलने का प्रयास करती रही है। किसानों का कहना है कि अगर सरकार ने समय रहते किसानों की नहीं मानी, तो यह आन्दोलन आर-पार की नौबत तक जा सकता है। किसान नेता पुल्ली चंदेला ने कहा कि सरकार भले ही इसे सियासी आन्दोलन कहकर लोगों का ध्यान भटकाना चाहती है, लेकिन यह पूरी तरह किसान आन्दोलन है। उन्होंने कहा कि अब किसान तब तक चुप नहीं बैठेंगे, जब तक उनकी माँगों को नहीं मान लिया जाता है। सरकार दावा कर रही है कि ये कानून किसानों के हक में हैं, जबकि सच यह है कि इन कानूनों से खेती पर कॉर्पोरेट का कब्ज़ा हो जाएगा। यही वजह है कि वह जबरन कानून लाना चाहती है। किसान चाहते हैं कि तीनों कानून वापस हों और न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) को कानूनी रूप दिया जाए।

तहलका संवाददाता को कृषि विशेषज्ञ राहुल तिवारी ने बताया कि देश में जब 2016 में नोटबन्दी हुई थी, तब देश का किसान टूटा था। उसके बाद कोरोना वायरस के चलते लगे लॉकडाउन और उसके बाद तमाम बंदिशों से किसान को काफी परेशानियों का सामना कर रहे हैं। इतनी मुसीबतों के बाद अब सरकार किस मंशा से नये कृषि कानूनों को थोपकर किसानों के साथ क्या करना चाहती है? सरकार को सोचना चाहिए कि जब देश की अर्थ-व्यवस्था रसातल में जा रही थी, तब देश के किसानों के खून-पसीने के दम पर ही जीडीपी को बल दिया था। राहुल तिवारी का कहना है कि वैसे ही तमाम परेशानियों के चलते किसान आत्महत्या कर रहे हैं, जिस इस पर सरकार गौर नहीं करती है। इस समय कृषि विधेयकों में सुधारों की ज़रूरत थी, तब सरकार उन्हें और किसान-विरोधी बनाकर हालात बिगाडऩे का काम कर रही है, जो देश हित में कतई नहीं है।

इधर, पश्चिमी उत्तर प्रदेश के किसानों का कहना है कि सरकार मौज़ूदा किसान आन्दोलन को पंजाब-हरियाणा का आन्दोलन न समझे, यह पूरे देश के किसानों का आन्दोलन है। किसान शंकर यादव ने बताया कि उत्तर प्रदेश सरकार ने हमें दिल्ली जाने से रोकने का जो भी प्रयास किया है, वो उसकी दमनकारी नीतियों की पोल खोलता है। लेकिन किसान किसी भी सूरत में पीछे नहीं हटेंगे। अब हर गाँव, हर कस्बा, हर शहर की गली-गली में किसान आन्दोलन करेंगे।

किसान नेता चन्द्रपाल सिंह का कहना है कि मंडी समिति कानून (एपीएमसी) मूलत: 2003 में तत्कालीन प्रधानमंत्री अटल बिहारी बाजपेयी सरकार का बनाया हुआ कानून है। तब देश के कृषि मंत्री नीतीश कुमार और खाद्य मंत्री शरद यादव थे। ये दोनों नेता ग्रामीण पृष्ठभूमि के ही माने जाते हैं, जो किसानों के हक के लिए तत्पर रहते थे। किसानों की समस्या को अपनी समस्या मानकर उनकी माँगों को समाधान करते थे। इन दोनों नेताओं का मानना था कि किसानों को फसल का सही मूल्य मिले, तब फसलों का न्यूनतम मूल्य निर्धारित किया गया था, जिससे किसान खुश थे। लेकिन अब नये कानून के आने के बाद से किसानों को शंका और डर है कि सरकार न्यूनतम समर्थन मूल्य से छुटकारा पाना चाहती है। जबकि आज भी भाजपा की सरकार है। किसानों का कहना है कि देश में किसान समय-समय अपनी माँगों को लेकर आन्दोलन करते रहे हैं। उन्होंने कहा कि महेन्द्र सिंह टिकैत के ज़माने में सरकारें किसानों के आगे झुकी हैं। अब फिर किसान भाजपा की केंद्र सरकार को झुकाकर रहेंगे और उसे नये कानून वापस लेने होंगे।

किसान संगठन से जुड़े नेता सूरज सिंह जत्थेदार ने बताया कि सरकार एक साज़िश के तहत किसानों की ज़मीन को पूँजीपतियों के हवाले करना चाहती है, ताकि बड़े कॉर्पोरेट जगत के लोग आसानी से खेती की ज़मीन को कब्ज़ा लें। नये कृषि कानूनों से मंडी व्यवस्था कमज़ोर होगी। किसान निजी मंडियों के जाल में फँस जाएगा। धन्नासेठ तानाशाही करके किसानों को लूटने में लग जाएँगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता व किसान नेता राकेश टिकैत ने सरकार को चेताते हुए कहा कि अगर सरकार ने माँगें नहीं मानीं, तो तब तक आन्दोलन जारी रहेगा, जब तक देश का किसान ज़िन्दा है।

किसानों के समर्थन में आयी महिलाओं ने सरकार को जमकर कोसा। महिला कुलविंदर सिंह ने बताया कि सरकार ने अपनी ज़िद नहीं छोड़ी, तो महिलाएँ भी सड़कों पर उतरने को मजबूर होंगी, जिसमें छात्राएँ भी भाग लेंगी। इधर कांग्रेस के किसान नेता रामाधार यादव का कहना है कि भाजपा को छोड़कर अन्य लगभग सभी दल के इस आन्दोलन के समर्थन में हैं। भाजपा के नेता किसानों के आन्दोलन को सियासी आन्दोलन कहकर इसमें सेंध लगाना चाहते हैं, ताकि आन्दोलन फीका पड़ जाए; पर ऐसा नहीं होगा। इधर, किसानों के उग्र आन्दोलन को देखते हुए केंद्र सरकार कुछ हद तक घबरायी लगती है। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह ने इने-गिने 13 किसान नेताओं से बात की और कहा कि किसानों के हित में सरकार हर फैसला लेगी। लेकिन किसान नेताओं ने दो टूक जबाब दिया कि जब तक नये कानून वापस नहीं होते, तब तक आन्दोलन जारी रहेगा। इन 13 नेताओं में राकेश टिकैत, हन्नान मुल्ला, गुरनाम सिंह, शिवकुमार काका, बलबीर सिंह, रुलदू सिंह मानसा, मंजीत सिंह राय, बूटा सिंह, हरिन्द्र लखोवाल, दर्शन पाल, कुलबंत सिंह संधू, भोग सिंह मानसा और जगजीत सिंह डल्लेवाल शामिल थे। राकेश टिकैत  का कहना है कि सरकार के अपने दावे लुभावने हैं, पर किसान तब तक नहीं मानेंगे, जब तक किसान विरोधी नये काले कानून वापस नहीं हो जाते।

किसान नेता किशन पाल का कहना है कि सरकार की पूँजीवादी नीतियों को देखते हुए किसान सहमे हुए हैं। छोटे किसान, जिनके पास दो, चार, छ: बीघा ज़मीन है; वे भी अब बड़े किसानों के साथ हैं और आन्दोलन में पूरा साथ दे रहे हैं। उन्होंने यह भी कहा कि यह दुर्भाग्य की बात है कि कुछ किसान संगठन अपने निजी स्वार्थ के चलते सत्ता से मिलकर किसानों में दरार डालकर आन्दोलन में सेंध लगाना चाहते हैं। किसानों आन्दोलन के समर्थन में कांग्रेस के नेता राहुल गाँधी, एनसीपी प्रमुख एवं पूर्व कृषि मंत्री शरद पवार, वरिष्ठ नेता सीताराम येचुरी और डी. राजा ने राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को एक ज्ञापन सौंपा हैं। ज्ञापन सौंपने के बाद राहुल गाँधी ने कहा कि पूरा विपक्ष किसानों के साथ खड़ा है। देश का किसान देश का आधार है और उसी के खिलाफ कानून लाये जा रहे हैं। उन्होंने कहा कि आज देश के किसान भरी सर्दी में अपने अधिकारों के लिए सड़क पर हैं और सरकार झूठे आश्वासन देकर किसानों को परेशान कर रही है। किसानों को दवा, खाना और रहने की व्यवस्था दिल्ली सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी ने बॉर्डर पर डटे किसानों के लिए की है। सिख गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी के अध्यक्ष मनजिंदर सिंह सिरसा ने बताया कि हम हर रोज़ किसानों की समस्याओं से अवगत होते हैं। उन्हें जो भी ज़रूरत होती है, उसकी पूर्ति करने का प्रयास करते हैं; रजाइयों, कंबलों की भी व्यवस्था की गयी है; ताकि कड़ी सर्दी में कोई परेशान न हो। कुछ अन्य संगठन भी किसानों की मदद में लगे हैं।

दो पाटन के बीच – किसान आन्दोलन से हरियाणा में भाजपा-जजपा गठबन्धन पर दबाव

किसान आन्दोलन कहीं हरियाणा में भाजपा-जजपा गठबन्धन की बलि न ले ले। कुछ लोग इसकी सम्भावना और कुछ इसकी आशंका जताने लगे हैं। सरकार संकट में है इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता, मगर वह रहेगी या जाएगी? इसको लेकर अटकलों का दौर जारी है। माना जा रहा है कि अगर किसान आन्दोलन लम्बे समय तक जारी रहता है और किसान किसी सम्मानजनक समझौते पर राज़ी नहीं होते हैं, तो जजपा और निर्दलीय (आज़ाद) विधायक सरकार से किनारा कर सकते हैं। दादरी से विधायक सोमवार सांगवान ने न केवल सरकार से समर्थन वापस ले लिया है, बल्कि हरियाणा पशुधन विकास बोर्ड के चेयरमैन पद से भी इस्तीफा दे दिया है। जजपा कमोबेश दो नावों की सवारी कर रही है। कहते हैं कि ऐसा करने वाला अक्सर डूबता ही है। सत्ता का मोह राजनेताओं से क्या कुछ नहीं करा देता। उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला दुविधा में हैं कि वह ऐसा क्या बीच का रास्ता निकालें, जिससे किसानों का समर्थन हो जाए और पार्टी सरकार में भागीदार भी बनी रहे।

नीलोखेड़ी से निर्दलीय विधायक धर्मपाल गोंडर ने किसानों की माँगों को सही ठहराते हुए उनका समर्थन कर दिया है। कई निर्दलीय विधायक किसान आन्दोलन का समर्थन कर चुके हैं; लेकिन अभी सार्वजनिक तौर पर सामने नहीं आ रहे हैं। वे सरकार के साथ बने भी रहना चाहते हैं और किसानों को समर्थन भी दे रहे हैं। बिजली और जेल मंत्री रणजीत सिंह पर किसानों का समर्थन करने का भारी दबाव है, लेकिन वे किसी भी बयान से बच रहे हैं। एक तरफ मंत्री पद है, तो दूसरी तरफ अपने ही समुदाय का आन्दोलन। वह किसान परिवार से आते हैं। वह पूर्व उप प्रधानमंत्री देवीलाल के बेटे हैं और राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला के दादा। दादा-पोते फिलहाल बीच का रास्ता अपना रहे हैं। उनकी इच्छा है कि किसी तरह जल्दी आन्दोलन निपट जाए, लेकिन बात बन नहीं रही है।

जजपा के बरवाला से विधायक जोगी राम सिहाग ने अक्टूबर में हरियाणा हाउसिंग बोर्ड का चेयरमैन पद आन्दोलन के चलते स्वीकार नहीं किया है। नारनौद से पार्टी के वरिष्ठ विधायक और बेबाक टिप्पणी करने वाले रामकुमार गौतम किसान आन्दोलन को जायज़ ठहराते हुए उनके समर्थन में डटे हैं। गुहला चीका से ईश्वर सिंह, जुलाना से अमरजीत ढांढा और शाहबाद से रामकरण काला किसान आन्दोलन के समर्थन में हैं। पार्टी नीति के चलते वह खुलकर विरोध नहीं कर रहे। दुष्यंत समेत सभी 10 विधायकों पर किसान आन्दोलन का साथ देने का भारी दबाव है। कुछ खाप पंचायतें भी इस काम मेंं जुट गयी हैं। इसमें आन्दोलन के साथ राजनीति भी है। सरकार में भागीदार जजपा विधानसभा चुनाव में भाजपा के खिलाफ किसानों के वोटों से ही 10 सीटें जीतने में सफल रही थी। अब वही किसान वर्ग उन्हें अपने साथ आने की कह रहा है।

केंद्र के नये कृषि कानूनों के खिलाफ किसानों का आन्दोलन अब कमोबेश जन आन्दोलन बन चुका है। इसमें आमजन की भागीदारी तो नहीं, लेकिन समर्थन पूरा है। कहीं कोई विरोध नहीं है। इसका कारण आन्दोलन को सुनियोजित तरीके से चलाना रहा। किसान आन्दोलन को हरियाणा, उत्तर प्रदेश, राजस्थान और अन्य कुछ राज्यों के किसानों का समर्थन है। दिल्ली कूच से पहले हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर कहते रहे कि आन्दोलन में हरियाणा के किसान शामिल नहीं हैं। अब तो हरियाणा के किसान भी खुले तौर पर शामिल होने का ऐलान कर चुके हैं।

हरियाणा में सरकार के प्रमुख घटक जजपा (जननायक जनता पार्टी) के विधायकों पर किसानों के समर्थन में बयान जारी करने और कृषि कानूनों को रद्द करने का दवाब बढ़ता जा रहा है। बयान तो जजपा प्रमुख अजय चौटाला दे चुके हैं। वे केंद्र से न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी की अपील कर चुके हैं। उनके पुत्र और राज्य के उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला तो कई बार ऐसा कह चुके हैं, लेकिन लोगों ने उनकी बात अनसुनी कर रखी है। जजपा समर्थकों का एक वर्ग सरकार में बने रहने का इच्छुक है, वहीं कुछ उससे नाता तोड़कर किसान आन्दोलन से जुडऩे के हिमायती हैं।

जजपा अन्तिम समय तक सरकार में बनी रहने की इच्छुक लगती है। वह दो नावों की सवारी जैसा काम कर रही है। वह किसानों की माँगों के समर्थन में भी है; लेकिन खुले तौर पर उनके साथ नहीं आना चाहती। वह न्यूनतम समर्थन मूल्य की माँग को ही प्रमुखता दे रही है; लेकिन किसानों की माँग तो कृषि कानूनों को वापस लेने की है। आशंका इस बात की भी है कि कहीं जजपा में ही दरार न आ जाए। क्योंकि कई विधायकों पर खुले तौर पर किसानों के समर्थन में आने का भारी दबाव है। चार विधायकों ने तो पार्टी लाइन से हटकर समर्थन दे ही दिया है। आन्दोलन का कोई सम्माजनक हल नहीं निकला, तो जजपा पर यह खतरा मँडराता रहेगा और साथ में सरकार पर भी। चाहे अब किसान आन्दोलन में पंजाब की भागीदारी सबसे ज़्यादा है, लेकिन इसकी शुरुआत हरियाणा में हुई। सितंबर के पहले पखवाड़े के दौरान पिपली (कुरुक्षेत्र) में सबसे पहले नये कृषि कानूनों के खिलाफ हरियाणा के किसान ही सड़क पर उतरे। पुलिस से बल प्रयोग से सरकार की काफी किरकिरी हुई। तब सरकार नहीं, बल्कि भाजपा संगठन ने किसानों को समझाने का प्रयास किया। तब तक पंजाब में आन्दोलन की हवा भी नहीं थी। उसके बाद ही पंजाब में किसान यूनियनें सक्रिय हुईं और आन्दोलन को नयी दिशा दी। आन्दोलन में पंजाब सबसे आगे है। इसकी एक वजह वहाँ की कांग्रेस सरकार और मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भी हैं। वह शुरू से किसान आन्दोलन के पक्ष में हवा बना रहे हैं।

किसानों के साथ तो वहाँ शिरोमणि अकाली दल (शिअद) और आम आदमी पार्टी (आप) भी है; लेकिन उन्हें ज़्यादा श्रेय नहीं मिल पा रहा है। शिअद तो मूल रूप से किसानों की ही पार्टी है। शिअद की केंद्र में मंत्री रहीं हरसिमरत कौर बादल पहले ही इस मुद्दे पर इस्तीफा दे चुकी हैं। दशकों से भाजपा के साथ शिअद को इस मुद्दे पर अब सामने खड़ा होना पड़ रहा है। राजनीतिक दल मजबूरी के चलते किसानों के साथ खड़े हैं। उनके राजनीतिक हित भी है। हरियाणा में कांग्रेस सत्ता में आने को उतावली है। वह मौके की तलाश में है; लेकिन वह सरकार बनाने की हालत में बिल्कुल नहीं है। उसके लिए बहुमत का आँकड़ा जुटाना काफी मुश्किल है। ऐसे में फिर से विधानसभा चुनाव ही विकल्प बचता है। वह भी ऐसी सूरत में, जब बातचीत पूरी तरह से नाकाम साबित हो जाए। केंद्र सरकार बीच का रास्ता निकाल आन्दोलन को शान्त करने के प्रयास में जुटी है। उसकी नीति कृषि कानूनों में संशोधन करके किसी तरह किसान यूनियनों को राज़ी करने की है; लेकिन बात बन नहीं रही है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर बात बन सकती है और इसकी सम्भावना सबसे ज़्यादा है।

केंद्र सरकार ने पाँचवें दौर की बातचीत में कृषि कानूनों को वापस न लेने की स्पष्ट बात भी कही। किसान तीनों कानूनों को वापस लेन की माँग पर अड़े हैं। यह किसानों को भी पता है कि समझौता कृषि कानूनों में संशोधन और न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी पर ही होगा, लेकिन वे अन्तिम समय तक दबाव बनाये रखेंगे। भारतीय किसान यूनियन की हरियाणा इकाई के प्रमुख नेता गुरनाम सिंह चढूनी तो दिल्ली चलो अभियान से हतप्रभ हैं। वह कहते हैं कि ऐसी उम्मीद किसी को नहीं थी कि आन्दोलन इतना ज़ोर पकड़ लेगा और हम सरकार को बातचीत के लिए विवश कर देंगे। बहुत बार आन्दोलन सोच के विपरीत बड़े हो जाते हैं और कई बार ऐसे आन्दोलन, जिनके जनान्दोलन बनने की उम्मीद होती है, नाकाम साबित होते हैं। बड़े किसान नेता रहे स्व. महेंद्र सिंह टिकैत दिल्ली में ऐसे कई आन्दोलन कर चुके हैं, लेकिन वह विगत की बात है। अब उनके बेटे राकेश टिकैत किसानों का नेतृत्व कर रहे हैं। कई दशकों में यह पहला किसान आन्दोलन है, जिनमें आम लोगों का पूरी सहानुभूति उनके साथ है। किसान आन्दोलन का कोई एक छत्र नेता नहीं है, बल्कि 40 से ज़्यादा किसान यूनियनें हैं; जिनके पदाधिकारी आन्दोलन चला रहे हैं। इनमें आपसी मतभेद भी हैं, लेकिन अब तक किसी तरह से सहमति बनाये हुए हैं। किसानों ने दिल्ली में प्रवेश किये बिना एक तरह से दिल्ली को चारों तरफ से घेर लिया है। वे कृषि कानूनों के खिलाफ किसी तरह की हिंसा करने के बिल्कुल पक्ष में नहीं है। सरकार भी नहीं चाहती कि आन्दोलन हिंसक हो और बल प्रयोग से उसे दबाने की नौबत आये। बातचीत के कई दौर हो चुके हैं, कहीं भी सहमति नहीं बन रही; लेकिन दोनों पक्षों को समझौते की उम्मीद है।

पंजाब में कांग्रेस एक तीर से कई निशाने साध रही है। कैप्टन ने तो राज्य विधानसभा में केंद्र के तीनों कृषि कानूनों में संशोधन का प्रस्ताव पास करके राज्यपाल को भेज दिया था। केंद्रीय कानून को कोई राज्य सरकार चुनौती नहीं दे सकती। यह बात कैप्टन बखूबी जानते हैं; लेकिन वह दिखाना चाहते थे कि कांग्रेस उनके समर्थन में खड़ी है। वह राज्य में रेल यातायात बहाल कराने में सफल रहे। हरियाणा के रास्ते दिल्ली कूच कर रहे पंजाब के किसानों पर करनाल, पानीपत और सोनीपत में पुलिस के बल प्रयोग पर कैप्टन ने हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर की खूब आलोचना भी की। अब हालत यह है कि मुख्यमंत्री खट्टर को अपने ही गृह क्षेत्र करनाल में भारी विरोध का सामना करना पड़ रहा है।

देखना होगा कि केंद्र कब किसानों को समझौते के लिए राज़ी करती है। न्यूनतम समर्थन मूल्य की लिखित गारंटी और मंडी व्यवस्था को कायम रखने के संशोधन पर किसान यूनियनें सहमत हो सकती है। केंद्र सरकार भी किसानों के धैर्य की परीक्षा ले रही है। आन्दोलन कहीं गलत दिशा में चला गया, तो फिर बातचीत से हल निकलने की कोई सम्भावना नहीं बचेगी। लगभग ढाई माह का आन्दोलन अब सफल होता दिख रहा है, उम्मीद की किरण नज़र आ रही है। देर-सबेर कुछ-न-कुछ रास्ता तो निकलने की उम्मीद है ही।

बहुमत का आँकड़ा

हरियाणा विधानसभा में कुल 90 सीटें हैं। बहुमत के लिए 46 का आँकड़ा होना चाहिए। विस चुनाव में भाजपा को 40, कांग्रेस को 31, जजपा को 10, इनेलो एक, हरियाणा लोकहित पार्टी एक और निर्दलीय विधायकों को सात सीटें मिलीं। किसी को स्पष्ट बहुमत नहीं मिला। जजपा के 10 और सात निर्दलीय विधायकों ने भाजपा को समर्थन दिया, तब आँकड़ा 57 तक पहुँचा और सरकार बनी। अब अगर राज्य में गठबन्धन की सरकार अस्थिर होती है, तो जोड़-तोड़ से कांग्रेस सरकार बनाने की स्थिति में तो आ सकती है; लेकिन यह इतना आसान भी नहीं होगा। जब तक जजपा का समर्थन है, सरकार चलती रहेगी। लेकिन घटनाक्रम बदलता है, तो सरकार खतरे की जद में आ जाएगी।

मध्य प्रदेश में कपास के किसानों से खुली लूट

इन दिनों तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ पूरे देश के किसान एकजुट होकर आन्दोलनरत हैं, जिसकी सबसे बड़ी वजह न्यूनतम समर्थन मूल्य यानी एमएसपी की गारंटी नहीं मिलना है। एक तरफ केंद्र सरकार कह रही है कि किसानों को हर फसल (अनाज) का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलेगा, तो वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह कई बार कह चुके हैं कि मध्य प्रदेश सरकार किसानों की फसलों को खुद न्यूनतम समर्थन मूल्य पर खरीदेगी। लेकिन मध्य प्रदेश में ही कपास के किसानों से सरकारी बिक्री केंद्रों पर ही खुली लूट की जा रही है। मध्य प्रदेश में निमाड़ की मंडियों में कपास (रुई) को औने-पौने दामों में खरीदने की साज़िश की जा रही है। किसानों का आरोप है कि मंडियों में कपास को औने-पौने दामों में, जो कि एमएसपी से काफी कम हैं; खरीदने के पीछे भारतीय कपास निगम के अधिकारियों और मंडी प्रबन्धन की ही मिलीभगत है। उनका कहना है कि भारतीय कपास निगम लिमिटेड (सीसीआई) किसानों की कपास को खराब बताकर या दूसरी कमी निकालकर उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य नहीं दे रहा है। किसानों का यह भी आरोप है कि उनकी अच्छी गाँठों को खराब गाँठों से बदलवाने तक का खेल कर अन्दर चल रहा है। अभी पिछले दिनों इस बात को लेकर किसानों और मंडी के अधिकारियों के बीच छिटपुट झड़पें भी हुईं। अब किसानों ने राज्य सरकार के खिलाफ न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिए मोर्चा खोल दिया है।

बता दें कि कपास की मध्य प्रदेश में इतनी पैदावार है कि उसे सफेद सोना कहा जाता है; क्योंकि यह एक नकदी फसल है। हालाँकि कपास की खेती से किसानों को उतना लाभ कभी नहीं मिल पाता, जितना कि बिचौलिये और अधिकारी मिलकर लूट ले जाते हैं। लेकिन इन दिनों जैसे ही मंडी में कपास की आवक चरम पर होती है, मंडियों के अन्दर किसानों से धोखाधड़ी करके लूट का यह खेल शुरू हो जाता है।

जहाँ तक मध्य प्रदेश में कपास की पैदावार की बात करें, तो गुजरात के बाद मध्य प्रदेश को कपास उत्पादन में गिना जा सकता है। मध्य प्रदेश में कपास सिंचित एवं असिंचित दोनों प्रकार के क्षेत्रों में पैदा होती है। यहाँ कपास की खेती करीब साढ़े सात लाख हेक्टेयर से भी ज़्यादा ज़मीन पर होती है, जिसकी 75 फीसदी पैदावार अकेले निमाड़ क्षेत्र से होती है। इसके अलावा छिंदवाड़ा और देवास भी कपास के प्रमुख ज़िले हैं।

किसानों के साथ आये संगठन

मध्य प्रदेश में कपास के किसानों के साथ अब कई संगठन आ गये हैं। राज्य सरकार से किसानों की माँग ही कि कपास में कमी निकालकर किसानों से की जा रही लूट बन्द करके उन्हें न्यूनतम समर्थन मूल्य, जो कि सरकार ने ही तय किया है, दिया जाए। किसानों के साथ आरएसएस से जुड़े संगठन भी उतर आये हैं। सरकार इस पर चुप्पी साधे हुए है, वहीं अधिकारी अपनी सफाई पेश करने में लगे हुए हैं। वहीं अगर मंडी की स्थिति देखें, तो वहाँ रुई खरीदने में जिस कदर आना-कानी की जा रही है, उसका अंदाज़ा मंडी में लगे रुई से भरे किसानों के अनगिनत वाहनों को देखकर आसानी से लगाया जा सकता है। इन संगठनों ने राज्य सरकार को चेतावनी दी है कि अगर वह किसानों से लूट का खेल करेगी, तो वो विधानसभा का घेराव करेंगे।

किसानों की समस्याएँ

किसानों का कहना है कि मंडियों में कपास की खरीद आराम तरीके से अधिकारियों की मनमानी से होती है। इससे किसानों को काफी तकलीफ होती है। जिन किसानों के भाड़े के वाहन होते हैं, उन पर भाड़ा बढ़ता जाता है। सीसीआई के नियमों के अनुसार कपास में 12 फीसदी से अधिक नमी नहीं होनी चाहिए; लेकिन कई-कई हफ्ते खुले में वाहन खड़े रहते हैं, जिससे रुई पर ओस पडऩे से वह गीली और खराब होने लगती है, जिसे बाद में खराब बता दिया जाता है। इतना ही नहीं उनकी अच्छे रेशे की रुई को मशीनों में जाँच के नाम पर ले जाकर खराब रेशे की रुई से बदलने का खेल भी खूब चलता है। इसके अलावा रेशे की लम्बाई को मशीन से न मापकर हाथ से मापकर मन-मर्ज़ी के दाम किसानों को बता दिये जाते हैं, जिससे किसानों को हज़ारों-लाखों का नुकसान हो जाता है। सीसीआई ने किसानों को दाम करके पहले ही बताने शुरू कर दिये हैं। किसानों का यह भी आरोप है कि निमाड़ में कपास के रेशे की लम्बाई की जाँच करने वाली मशीन है, लेकिन अधिकारी उसका उपयोग नहीं करते हैं और हाथ से कपास के रेशे को मापकर मनमाने तरीके से भाव बताते हैं।

बता दें कि सरकार की तरफ से देश भर में कपास की खरीद के लिए अधिकृत सीसीआई ही तय करती है कि कपास के भाव क्या होंगे? लेकिन इस भाव को न्यूनतम समर्थन मूल्य से कम भी नहीं होना चाहिए। इस बार कपास का न्यूनतम समर्थन मूल्य 5825 रुपये तय था; लेकिन किसानों का आरोप है कि उन्हें कपास की यह कीमत भी नहीं मिल रही, जो कि पहले ही काफी कम है। लेकिन इतने पर भी मंडी में किसानों को 23.5 से 24.5 मि.मी. के कपास का भाव 5365 रुपये प्रति कुंतल और 24.5 से 25.5 मि.मी. रेशे वाली कपास का भाव 5515 रुपये प्रति कुंतल दिया जा रहा है। यहाँ खरीदी के बाद कपास को प्राइवेट जिनिंग प्रेसिंग के लिए भेजा जाता है, जहाँ भ्रष्टाचार का खुला खेल चल रहा है। किसानों का आरोप है कि जिस जिनिंग प्रेसिंग में सीसीआई द्वारा खरीद की गयी रुई (कपास) का गठान किया जाता है, वहाँ उनकी रुई को खराब रुई से बदल दिया जाता है। खरगौन में स्थापित कॉटन एसोसिएशन ऑफ इंडिया में जो रुई जाँच के लिए आती है, गुणवत्ता के हिसाब से उसका न्यूतम समर्थन मूल्य- 23.5 से 24.5 मि.मी. रेशे वाली कपास का मूल्य 5775 रुपये प्रति कुंतल और 24.5 से 25.5 मि.मी. रेशे वाली कपास का मूल्य 5825 रुपये प्रति कुंतल होना चाहिए। लेकिन किसानों को यह भाव भी नहीं दिया जा रहा है। इतना ही नहीं, किसानों की कपास को हल्का या भारी माल, गीला या अधिक सूखा माल कहकर भी उसमें कटौती की जाती है, जिससे किसानों को सीधे-सीधे हज़ारों रुपये का नुकसान हो जाता है। अगर किसानों की बात सही है, तो सवाल यह उठता है कि जब सरकार के न्यूनमम समर्थन मूल्य के आश्वासन के बाद खुद सरकारी कम्पनी किसानों के साथ यह धाँधली का खेल करती है, तो फिर प्राइवेट खरीदारों और दलालों पर लगाम कैसे कसी जा सकती है?

समय पर नहीं होता भुगतान

कपास को नकदी फसल कहा जाता है। सरकार इसे नकद में खरीदने का दावा करती है। लेकिन मंडियों की सच्चाई इससे बिल्कुल अलग है। कपास बेचने वाले किसानों का कहना है कि उनकी कपास उधार में ली जाती है और उसका भुगतान 15-20 दिन से लेकर एक-सवा महीने तक में किया जाता है। किसानों का कहना है कि पहले से ही लूट मचा रही सीसीआई के अधिकारी किसानों को काफी टहलाकर, परेशान करके और काफी टालमटोल के बाद कई-कई दिनों में कपास खरीदते हैं और उसके बाद किसानों को भुगतान के लिए चक्कर लगवाते रहते हैं। किसानों ने माँग की है कि अगर सरकार उनका नकद भुगतान करने को सुनिश्चित नहीं करती है, जो कि पहले से ही तय है; तो किसान इसके खिलाफ आन्दोलन करने को मजबूर होंगे। वहीं देरी से भुगतान को लेकर मंडी अधिकारियों का कहना है कि मंडी में आवक बहुत ज़्यादा है। एक-एक दिन में भारी मात्रा में कपास खरीदी जाती है, जिसके चलते भुगतान में थोड़ी-बहुत देरी हो गयी होगी; लेकिन इसके पीछे किसानों को परेशान करने का कोई मकसद नहीं है। इधर किसानों के समर्थन में उतरे संगठनों का कहना है कि मंडियों में किसानों को हर तरह से लूटा जा रहा है। सरकार का यह खेल बहुत लम्बे समय तक चलने वाला नहीं है।

जाँच कराकर कार्रवाई करे सरकार

कपास को लेकर इन दिनों मंडियों में आरोप-प्रत्यारोपों और हंगामे का दौर जारी है। सीसीआई और मंडी-प्रबन्धन के अधिकारी अपनी सफाई पेश करने में लगे हैं, तो किसान उन पर ठगी और खुली लूट का आरोप लगा रहे हैं। ऐसे में सरकार को चाहिए कि वह मामले की जाँच कराये और किसानों का बाजिव दाम दिलाने की दिशा में पहल करे। जयस से विधायक हिरालाल अलावा ने इस बारे में कहा है कि किसानों को हर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य मिलना ही चाहिए। लेकिन अफसोस कि सत्ता में बैठे लोग अपने फायदे के लिए अधिकारियों के माध्यम से किसानों को सीधे तौर पर लूटते हैं, जो कि गलत है। उनका कहना है कि जब सरकार ने खुद ही हर फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य तय किया है, तो फिर वह किसान को ईमानदारी के साथ दिया जाना चाहिए। इसके लिए सरकार को मंडियों में चल रही कथित धाँधली की जाँच करानी चाहिए और अगर कहीं किसी भी स्तर पर धाँधली चल रही है, तो दोषियों के खिलाफ सख्त-से-सख्त कार्रवाई करनी चाहिए; ताकि किसानों के साथ किसी तरह का अन्याय न हो।

उत्तर प्रदेश में कोविड-19 निगरानी रणनीति की डब्ल्यूएचओ ने की सराहना

योगी आदित्यनाथ की अगुवाई वाली उत्तर प्रदेश सरकार की महामारी प्रबन्धन और निगरानी रणनीति को विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय मान्यता और उच्च प्रशंसा मिली है। राज्य ने दो करोड़ कोविड-19 परीक्षण पूरे करने का ऐतिहासिक काम किया हासिल किया है, जो देश में सबसे ज़्यादा है। इससे राज्य की मज़बूत स्वास्थ्य प्रणाली और प्रबन्धन की झलक मिलती है।

डब्ल्यूएचओ के कंट्री रिप्रजेंटेटिव डॉ. रोडरिको ओफ्रिन ने कहा- ‘सम्पर्क ट्रेसिंग के प्रयासों को आगे बढ़ाते हुए उत्तर प्रदेश सरकार की रणनीतिक प्रतिक्रिया अनुकरणीय रही है और अन्य राज्यों के लिए एक अच्छा उदाहरण बन सकती है।’

वैश्विक स्वास्थ्य निकाय ने मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार द्वारा विशेष रूप से उच्च जोखिम वाले सम्पर्कों पर नज़र रखने के लिए किये गये प्रयासों की सराहना की। कोविड-19 सकारात्मक मामलों के उच्च-जोखिम वाले सम्पर्कों तक पहुँचने के लिए 70 हज़ार से अधिक फ्रंट-लाइन स्वास्थ्य कार्यकर्ताओं ने राज्य भर में काम किया। दिसंबर महीने के लिए राज्य की सीओवीआईडी-19 मामले की सकारात्मकता दर भी 1.5 फीसदी से कम रही है। दैनिक सकारात्मकता दर में भारी गिरावट ने प्रदर्शित किया है कि संक्रमण के प्रसार की दर कम है।

महामारी को नियंत्रित करने के लिए एक आवश्यक सार्वजनिक स्वास्थ्य उपकरण के रूप में सम्पर्क ट्रेसिंग को स्वीकार करते हुए, डॉ. ओफ्रिन ने कहा कि एक उचित तंत्र के माध्यम से सम्पर्कों की व्यवस्थित ट्रैकिंग कुंजी के साथ-साथ निगरानी गतिविधियों को लागू करने के लिए अच्छी तरह से प्रशिक्षित स्वास्थ्य कार्यबल साथ है।

उल्लेखनीय है कि उत्तर प्रदेश सरकार ने कोविड-19 संक्रमणों पर जाँच रखने के लिए परीक्षण में वृद्धि की है और राज्य के लोगों को सतर्क रहने और सभी सावधानियों का पालन करने का अनुरोध किया है। देश में सबसे अधिक परीक्षण करने के लिए उत्तर प्रदेश ने पहले ही देश में एक रिकॉर्ड बनाया है। राज्य में प्रतिदिन औसतन 1.75 लाख से अधिक कोविड-19 परीक्षण किये जा रहे हैं, जो क्षमता निर्माण की वृद्धि को रेखांकित करते हैं, और यह देश में सबसे ज़्यादा हैं।

भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद् के अनुसार, देश में 14.5 करोड़ से अधिक कोविड-19 परीक्षण किये गये हैं, जिनमें से उत्तर प्रदेश दो करोड़ से अधिक परीक्षण करने का दावा करता है, जो कि देश के सभी कोविड-19 परीक्षणों का लगभग 14 फीसदी है।

प्रदेश सरकार की कोविड-19 की तैयारी

महामारी का मुकाबला करने की चुनौती को स्वीकार करते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने ज़मीनी हकीकत का आकलन करने और विश्लेषण करने के लिए शीर्ष अधिकारियों की दैनिक बैठक का आयोजन करते हुए निगरानी शुरू कर दी। सबसे नकारात्मक स्थिति में सकारात्मक होने का उनका सक्रिय दृष्टिकोण स्वास्थ्य प्रबन्धन के एक असाधारण उदाहरण को जोडऩे वाली प्रबन्धन की उनकी मुख्य टीम के लिए बहुत प्रेरणादायी संकेत था; वह भी सबसे भयानक परिस्थितियों में!

खतरे की घंटी बजने से पहले ही तैयारी शुरू हो गयी थी। यह फरवरी 2020 के ही था जब कोविड-19 का पहला मामला सामने आया था। पूरी तरह से यह महसूस करते हुए कि शान्ति के समय में बहाया पसीना युद्ध के समय में खून को बचाता है, योगी सरकार ने तुरन्त अपने स्वास्थ्य ढाँचे का आकलन किया और अन्य राज्यों और यहाँ तक कि दूसरे देशों से भी कोरोना वायरस की जानकारी का संज्ञान लेना शुरू कर दिया।

उत्तर प्रदेश सरकार ने कोविड-19 इसके रोकथाम प्रोटोकॉल, उपचार गति चार्ट और अन्य बिन्दुओं के बारे में चिकित्सा कर्मचारियों के लिए मूल बातें और संगठित प्रशिक्षण के साथ इसकी शुरुआत की। अगला कदम अस्पतालों में काम करने वाले चिकित्सा कर्मचारियों के लिए आवश्यक उपकरण और सुरक्षात्मक गियर खरीदना था। किसी ने भी नहीं सोचा था कि इतिहास बन रहा है; क्योंकि उत्तर प्रदेश में कोरोना प्रबन्धन डब्ल्यूएचओ स्तर पर एक उत्कृष्ट प्रशासनिक सफलता मानी गयी है।

कोविड-19 रणनीति का सफल क्रियान्वयन बहुस्तरीय था, जिसमें वायरस, संक्रमित व्यक्तियों का उपचार, अधिक परीक्षण, प्रवासियों को रोज़गार और राज्य के लोगों की भलाई का ध्यान रखना शामिल था, जिस पर करीब 24 करोड़ के खर्चे का अनुमान था।

टीम-11

एक आदर्श पहल के रूप में, जिसकी झलक बाद में दूसरे राज्यों में भी दिखी; कोविड-19 के प्रबन्धन में सरकार द्वारा किये गये उपायों की समीक्षा करने के लिए मुख्यमंत्री ने 11 शीर्ष वरिष्ठ अधिकारियों से मिलकर एक टीम-11 की स्थापना की। प्रत्येक अधिकारी को अन्य अधिकारियों के समन्वय में उनके द्वारा किये जाने वाले विशिष्ट कार्य दिये गये थे। मुख्यमंत्री रोज़ाना टीम -11 की बैठक लेते थे। इस तरह त्वरित निगरानी ने राज्य को देश के किसी भी अन्य राज्य की तुलना में कोरोना के प्रसार को नियंत्रित करने में मदद की।

कोविड-19 के प्रतिबन्ध के कारण जिन मुद्दों का सामना जनता को करने की सम्भावना थी, उन्हें ध्यान में रखते हुए अधिकारियों / टीम का चयन किया गया। उदाहरण के लिए, कृषि क्षेत्र में यह सरकार के लिए परेशानी मुक्त फसल सुनिश्चित करने के लिए था और औद्योगिक क्षेत्र में इस बात पर ध्यान दिया गया कि सभी महत्त्वपूर्ण उद्योग जैसे दवाइयाँ, चिकित्सा उपकरण बिना किसी कठिनाई के चलते रहें। इसी तरह उन इकाइयों पर ध्यान दिया गया, जो आवश्यक वस्तुओं के साथ जुड़ी थीं।

एक सक्रिय-सुरक्षात्मक उपाय के रूप में मुख्यमंत्री ने देशव्यापी लॉकडाउन लागू होने से पहले ही राज्य की सीमाओं को सील कर दिया था। स्वास्थ्य सेवाओं के पूरक के लिए आवश्यक धन जुटाने के लिए उत्तर प्रदेश सरकार ने कोविड-19 केयर फंड बनाया। कोविड अस्पतालों में बिस्तर की क्षमता बढ़ायी गयी। इन कदमों को 1.3 के रूप में कम रखने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी।

जनता कफ्र्यू के बाद तालाबन्दी

22 मार्च को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की अपील पर देशव्यापी कफ्र्यू लगाया गया था। प्रधानमंत्री ने इसे सबसे अच्छा निवारक उपाय करार दिया था। इस दिशा में आगे बढ़ते हुए मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ तीन दिवसीय लॉकडाउन की घोषणा करने वाले पहले व्यक्ति थे; लेकिन यह सुनिश्चित करने से पहले कि इस अवधि के दौरान नागरिकों को सभी आवश्यक वस्तुएँ मिलें। केंद्र ने 24 मार्च की मध्यरात्रि से देशव्यापी तालाबन्दी की घोषणा की। इस दौरान भी राज्य सरकार ने यह सुनिश्चित करने के लिए लोगों की सभी ज़रूरतों को पूरा किया, ताकि उन्हें अपने घरों से बाहर न निकलना पड़े। सरकार ने इसके लिए एक डोरस्टेप डिलीवरी तंत्र की व्यवस्था की।

परीक्षण पर ज़ोर

कोरोना संक्रमित व्यक्ति की पहचान करने के लिए कोविड नमूना परीक्षण एकमात्र तरीका है। प्रारम्भ में उत्तर प्रदेश में पर्याप्त परीक्षण सुविधाएँ नहीं थीं। कल्पना कीजिए, राज्य में 22 मार्च को केवल एक परीक्षण प्रयोगशाला और 60 लोगों की परीक्षण क्षमता थी। यह सब उपलब्ध संसाधनों को मज़बूत करने के बारे में था। इसका परिणाम इस तथ्य से स्पष्ट होता है कि आज राज्य में 131 सरकारी प्रयोगशालाओं सहित 234 से अधिक प्रयोगशालाएँ हैं, जो हर दिन लगभग 1.75 लाख नमूनों का परीक्षण करती हैं। उत्तर प्रदेश ने पहले ही 1.30 करोड़ से अधिक परीक्षण कर लिये हैं।

राज्य सरकार को आईसीयू देखभाल प्रदान करने के लिए पीपीई किट, उच्च प्रवाह नाक नाली (एचएफएनसी), वेंटिलेटर, ऑक्सीजन सिलेंडर जैसे उपकरणों की एक त्वरित खरीद में संलग्न करने के लिए तैयार किया गया था। डॉक्टरों और पैरामेडिक्स को प्रशिक्षण, जो मार्च के शुरू में ही शुरू हो गया था; भी तेज़ हो गया था।

ट्रेसिंग से सम्पर्क

कोविड रोगियों के सम्पर्क ट्रेसिंग के बारे में उत्तर प्रदेश सरकार की रणनीति, जिसने डब्ल्यूएचओ की मान्यता भी हासिल की थी; खतरे को नियंत्रित करने में कारगर रही और एक प्रभावी निवारक उपाय के रूप में स्थापित हुई। रैपिड रिस्पॉन्स टीमों का उपयोग कर एक आक्रामक सम्पर्क ट्रेसिंग रणनीति और कोविड सकारात्मक रोगी के लगभग हर पहचाने गये करीबी सम्पर्कों के लिए परीक्षण सुनिश्चित करना पूरे कोविड प्रबन्धन प्रक्रिया में एक परिभाषित उपकरण के रूप में सामने आया।

रोगियों के घरों, परिचितों और सम्पर्कों का सर्वेक्षण करने के लिए हज़ारों निगरानी दल बनाये गये थे। वास्तव में इंफ्लुएंजा लाइक इलनेस / गम्भीर एक्यूट रेस्पिरेटरी इन्फेक्शन रोगियों की पहचान करने का एक अभूतपूर्व निगरानी प्रयास, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं द्वारा घर के कई दौरों का उपयोग करके कोविड के सन्दर्भ में सम्भावित खतरे की धारणा की पहचान करने के लिए किया गया था। इसने उन्हें परीक्षण करने में मदद की और शीघ्र उपचार के लिए सन्दर्भित किया।

कोविड अस्पताल

राज्य में मार्च में कोई कोविड अस्पताल नहीं था। जब राज्य लॉकडाउन में चला गया और कोविड पॉजिटिव मामलों में बढ़ोतरी शुरू हो गयी थी। समस्या कोविड अस्पतालों की अनुपस्थिति थी। फिर भी चुनौती स्वीकार की गयी और अब उत्तर प्रदेश राज्य में कुल 674 कोविड अस्पताल हैं, जिनमें 571 स्तर के कोविड अस्पताल, 77 स्तर दो अस्पताल और 26 स्तर तीन अस्पताल हैं। इन अस्पतालों में बिस्तरों की कुल उपलब्धता को 1.57 लाख तक बढ़ा दिया गया है, यह मानते हुए कि 24 करोड़ की जनसंख्या को अधिकतम स्तर तक कवर किया जा सके।

इस तरह की ज़मीनी परिस्थिति में स्वास्थ्य के बुनियादी ढाँचे को मज़बूत करने के लिए यह एक बड़ा काम था। आईसीयू बेड / ऑक्सीजन की आपूर्ति / वेंटिलेटर के सन्दर्भ में उपचार के बुनियादी ढाँचे का तेज़ी से निर्माण और सभी ज़िलों में मानक उपचार प्रोटोकॉल का पालन सुनिश्चित किया गया। दवाओं की निर्बाध आपूर्ति और रसद एक और पहलू था, जिसे संकट के दौरान अच्छी तरह से किया गया। यूपी मेडिकल सप्लाई कॉर्पोरेशन ने सुनिश्चित किया कि खरीद कोविड के प्रतिक्रिया प्रयासों में बाधा नहीं बने।

वास्तव में यह स्पष्ट नीति और दिशा-निर्देशों के कारण था, इससे एक मज़बूत स्वास्थ्य पारिस्थितिकी तंत्र बनाने में मदद मिली, जो कि सहजता के साथ इस तरह के चिकित्सा आपातकाल से निपट सकता था। इसी का नतीजा है कि अब तक राज्य के सभी 75 ज़िलों में आईसीयू बेड के प्रावधान वाले कम-से-कम एक या एक से अधिक लेवल-2 कोविड अस्पताल हैं।

नियंत्रण और कमान केंद्र

निगरानी के मज़बूत तंत्र की पहचान करना समय की आवश्यकता होती है। उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री ने राज्य मुख्यालय में राहत आयुक्त के कार्यालय में एकीकृत नियंत्रण और कमान केंद्र (आईसीसीसी) स्थापित करने का निर्देश दिया। सम्बन्धित ज़िला मजिस्ट्रेट और मुख्य चिकित्सा अधिकारी (सीएमओ) द्वारा संचालित होने के लिए प्रत्येक ज़िला मुख्यालय पर इसी तरह के आईसीसीसी भी स्थापित किये गये थे।

आईसीसीसी कॉन्टैक्ट ट्रेसिंग से कोविड प्रबन्धन का केंद्र बिन्दु बन गया। सभी पात्र व्यक्तियों के लिए परीक्षण सुनिश्चित करने के लिए आईसोलेशन केंद्र में रखे गये रोगियों के लिए स्वास्थ्य टीम द्वारा घरों का दौरा सुनिश्चित किया गया। इसके अलावा सीवी हेल्पलाइन के माध्यम से कोविड रोगियों के साथ निरन्तर संवाद बनाये रखा गया था। सभी रोगियों को उनकी भलाई और अस्पताल के स्तर पर सामना करने वाले किसी भी मुद्दे को जानने के लिए फोन किया गया।

इनके अलावा सरकार द्वारा कोविड प्रबन्धन के दौरान सुव्यवस्थित एम्बुलेंस सेवाओं, ऑनलाइन ओपीडी सेवाओं, टेली-मेडिसिन और टेली-परामर्श सुविधाओं की शुरुआत अन्य रसद थी। राज्य सरकार ने यह भी सुनिश्चित किया कि ऑक्सीजन की आपूर्ति शृंखला बनी रहे और कोविड के समय में मोदी नगर और गाज़ियाबाद में एक नये ऑक्सीजन संयंत्र का भी उद्घाटन किया गया। कोविड सकारात्मक रोगियों के लिए अतिरिक्त सुविधा के रूप में एक अद्वितीय पोर्टल- यूपीकोविड19ट्रैक्स (ह्वश्चष्श1द्बस्र१९ह्लह्म्ड्डष्द्मह्य) को रिकॉर्ड समय में विकसित किया गया। यह सभी हितधारकों- राज्य सरकार, परीक्षण प्रयोगशालाओं, अस्पतालों आदि द्वारा हर मरीज़ को लम्बे समय तक ट्रैक करने में मदद करने वाले सूचना के एकल स्रोत के रूप में कार्य करता है, जिसके आधार पर वास्तविक समय की जानकारी प्रदान की जाती है और उसी के आधार पर प्रतिक्रियाओं को गतिशील रूप से समायोजित किया जा सकता है।

प्रवासी संकट

लगभग 40 लाख प्रवासियों की आमद और उनका पुनर्वास सरकार के लिए एक बड़ी चुनौती थी। प्रवासियों को लाने के लिए ट्रेनों को किराये पर देने का सरकार का निर्णय अलग से बड़ी चुनौती थी। विभिन्न स्थानों से प्रवासियों को लाने के लिए ट्रेन के 1660 फेरे हुए। देश के विभिन्न स्थानों से लौटने वाले प्रवासियों की स्थिति भी दयनीय थी। वापसी करने वाले प्रवासियों, जिन्हें उचित चिकित्सा जाँच के बाद घर से भेजा गया था, उन्हें 30-दिवसीय राशन की किट साथ दी गयी। एक दुर्लभ सद्भावना संकेत के रूप में प्रत्येक प्रवासी को घर भेजा जा रहा था और राशन किट के अलावा प्रत्येक को एक हज़ार रुपये का भत्ता दिया गया। इसके अतिरिक्त ग्रामीण क्षेत्रों के लगभग 53 लाख निर्माण मज़दूरों, रेहड़ी आदि लगाने वालों और दैनिक वेतनभोगियों को भी प्रत्यक्ष लाभ अंतरण (डीबीटी) के माध्यम से एक-एक हज़ार रुपये दिये गये।

ज़रूरतमंदों का खयाल

सरकार ने अप्रैल से मुफ्त खाद्यान्न वितरित करने का दावा किया, भले ही लाभार्थी के राशन कार्ड का पंजीकरण कहीं का भी हो। सरकार ने वृद्धावस्था पेंशन, निराश्रित पेंशन, दिव्यांग पेंशन और कुष्ठरोगियों की पेंशन के तहत 86 लाख 71 हज़ार 781 लाभार्थियों को अग्रिम रूप से दो महीने की पेंशन का भुगतान किया। इसके अलावा जून के महीने में पेंशन का भुगतान प्रधानमंत्री गरीब कल्याण योजना पैकेज के तहत किया गया था। लॉकडाउन के दौरान 35 हज़ार 818 ग्राम सेवकों को कुल 225.39 करोड़ का भुगतान किया गया। 53487 ग्राम पंचायतों में 17.64 लाख से अधिक मनरेगा मज़दूरों को रोज़गार दिया गया, जिसमें उन्हें 4508.25 करोड़ रुपये का भुगतान किया गया। इसके लिए 22.90 करोड़ मानव-दिवस अर्जित किये गये। संयोग से इस गिनती में भी देश में उत्तर प्रदेश सबसे ऊपर है।

सभी को रोज़गार

सरकार ने मनरेगा के प्रवासियों और उन लोगों के भी जॉब कार्ड बनाये, जो गाँवों में काम करना चाहते थे। यह सुनिश्चित किया गया कि उन्हें अपने घरों के करीब काम मिले। लगभग 40 लाख मज़दूरों का कौशल मानचित्रण किया गया, ताकि उन्हें उनके कौशल के अनुसार रोज़गार मिले। मज़दूरों की सामाजिक और आर्थिक सुरक्षा के लिए एक श्रम रोज़गार आयोग की स्थापना की गयी थी। आठ लाख से अधिक ऐसे एमएसएमई इकाइयों को कार्यात्मक बनाया गया, जहाँ 51 लाख से अधिक मज़दूर कार्यरत हैं। आत्मनिर्भर योजना के तहत 4.35 लाख औद्योगिक इकाइयों के बीच 10744 करोड़ रुपये का ऋण वितरित किया गया। इसके अलावा 5.81 लाख से अधिक नयी इकाइयाँ शुरू की गयीं और 15541 करोड़ रुपये से अधिक का ऋण आत्मनिर्भर योजना के तहत वितरित किया गया और 25 लाख से अधिक रोज़गार सृजित किये गये। करीब 2447 करोड़ रुपये के ऋण 14 मई, 2020 को एक ही दिन में 98743 इकाइयों को ऑनलाइन वितरित किये गये। सरकार युवाओं को स्वरोज़गार के लिए प्रेरित करने के लिए एक नयी स्टार्टअप नीति लेकर आयी है। इससे लगभग 50,000 लोगों को प्रत्यक्ष और एक लाख लोगों को अप्रत्यक्ष रोज़गार मिलने की उम्मीद है।

वैक्सीन की हड़बड़ी, न कर दे गड़बड़ी

कोरोना महामारी से उपजे संकट और कोरोना से निजात दिलाने के लिए सरकार प्रयासरत है। माना जा रहा है कि वैक्सीन के आते ही कोरोना वायरस पर काफी हद तक काबू पा लिया जाएगा। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा है कि कोरोना-टीका जल्द आने वाला है। केंद्रीय स्वास्थ्य महकमा बाज़ार में इसकी जल्द उपलब्धता के लिए लगा हुआ है।

इधर आईएमए, डीएमए, एम्स, डीएमसी सहित तामाम मेडिकल संस्थानों से जुड़े डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना-टीका के लिए सरकार कुछ ज़्यादा ही जल्दबाज़ी में है। आईएमए के पूर्व महासचिव व डीएमसी के सांइटिफिक कमेटी के अध्यक्ष डॉ. नरेन्द्र सैनी का कहना है कि कोरोना-टीके को लेकर किसी प्रकार का कोई संशय नहीं है। लेकिन यह कब आयेगा? यह नहीं कहा जा सकता। अभी ट्रायल चल रहा है। इसे मरीज़ों तक पहुँचने में काफी समय लगेगा। उन्होंने कहा कि कोरोना वायरस एक नयी महामारी है, जिसके बारे में अभी तक यह प्रमाणित नहीं हो सका है कि यह कहाँ और कैसे जन्मी है। ऐसा भी नहीं कि वैक्सीन (टीका) के आने भर से कोरोना चला जाएगा।

डीएमसी के वाइस चैयरमैन डॉ. नरेश चावला का कहना है कि इस महामारी ने मेडिकल क्षेत्र के सामने एक चुनौती पेश की है। इस चुनौती को स्वीकार करते हुए दुनिया भर के शोध संस्थान दिन-रात टीके की खोज में जुटे हैं और सफलता पाने की ओर अग्रसर हैं। लेकिन भारत में सरकार, दवा व्यापारियों के दबाव में अगर जल्दबाज़ी में टीका लेकर आ रही है, तो मुसीबत भी खड़ी हो सकती है। अभी तक के इतिहास में किसी भी देश ने किसी भी वैक्सीन को बनाने में कई-कई साल तक शोध किया है, तब जाकर सफलता हासिल की है। बताते चलें कि अनेक देश और आईसीएमआर यह कह चुके हैं कि सालों-साल लग जाएँगे, तब जाकर कोरोना-टीका हासिल होगा। लेकिन न जाने ऐसा क्या हो गया कि हर देश जल्द-से जल्द कोरोना-टीका लाने की होड़ में लगा है और सफलता के दावे कर रहा है। डॉ. चावला का कहना है कि भारत में टीका स्वदेशी हो या विदेशी, मगर असरदार हो; जिससे लोगों को सही मायने में उसका लाभ मिल सके। अन्यथा दुष्परिणाम ही सामने आएँगे, जो आ भी रहे हैं।

एम्स के डॉक्टरों का कहना है कि सरकार को भली-भाँति मालूम है कि कोरोना-टीका आने में कई साल का समय लग सकता है। बता दें कि एम्स ने ही कई मर्तबा कहा है कि इसमें कम-से-कम दो साल का समय लगेगा। लेकिन अब एम्स ही कहना लगा है कि कोरोना वैक्सीन आने वाली है। एम्स के कई सीनियर डॉक्टरों का कहना है कि वैक्सीन कब और कहाँ किसे मिलेगी? इस पर तमाम तरह के संशय हैं; लेकिन सरकार की दखलंदाज़ी के कारण जल्दबाज़ी की जा रही है, जो कि ठीक नहीं है। उनका कहना है कि कोरोना के नाम पर देश के जाने-माने संस्थानों का राजनीतिकरण हुआ है, तो टीका भी राजनीतिकरण के चंगुल से कैसे बच सकता है? डॉक्टरों का कहना है कि टीके के पीछे दवा व्यापारियों का बड़ा खेल चल रहा है।

दवा व्यापारियों का कहना है कि उनका व्यापार कम हुआ है, क्योंकि लोग कोरोना वायरस के डर से अन्य बीमारियों का इलाज तक नहीं करा रहे हैं। इधर बड़े दवा निर्माता समूह कोरोना-टीका को बड़े व्यापार के रूप में देख रहे हैं और अपना-अपना बाज़ार बनाने में लगे हैं, ताकि इससे मोटा मुनाफा कमाया जा सके। भागीरथ पैलेस दिल्ली के दवा व्यापारी कैलाश का कहना है कि कोरोना की कोरोना-टीका और दवा को लेकर सरकार की रूपरेखा कैसी होगी और कैसे मरीज़ों को इसे उपलब्ध कराया जाएगा? इसका पता सरकार के दिशा-निर्देश आने के बाद ही चलेगा।

इधर, सरकार के कोरोना-टीका के जल्द लाने के आश्वासन के बाद लोगों में इसे लेकर उत्साह देखा जा रहा है; भले ही टीका जल्द आये, या न आये। वहीं कुछ लोग यह भी मान रहे हैं कि महामारी के बीच सरकार कोई दाँव खेल रही है। कोरोना वायरस के नाम पर आम लोगों को डराया-धमकाया जा रहा है। लोगों को दिलासा दिया जा रहा है कि कोरोना की वैक्सीन आने वाली है। सब ठीक हो जाएगा।

अगर मास्क की बात करें, तो दिल्ली से लेकर दूसरे शहर में लोग कोरोना वायरस के डर से नहीं, बल्कि चालान के डर मास्क लगा रहे हैं। लेकिन गाँवों में लोग अब मास्क नहीं लगा रहे हैं। गाँव के चन्द्रपाल का कहना है कि कोरोना एक सियासी खेल है। मार्च से मई तक लोगों ने सरकार पर भरोसा जताया था कि कोरोना है और उन्होंने सरकार के कहने पर उसका साथ भी दिया। लेकिन जनता ने देखा कि सियासतदाँ रैलियाँ कर रहे, पार्टी की बैठकें कर रहे हैं, आन्दोलन हो रहे हैं, तो वह समझ गयी कि कोरोना वायरस पर सियासत हो रही है। दिल्ली के व्यापारी रत्नेश जैन का कहना है कि दिल्ली में कोरोना के मामले कब बढऩे लगें और कब घटने लगें? कुछ कहा नहीं जा सकता। उनका कहना है कि वह व्यापारी हैं और दवा व्यापारियों से उनकी बातचीत है। कोरोना-टीके को लेकर इसलिए जल्दबाज़ी दिखायी जा रही है, ताकि सियासी खेल से पर्दा न उठ जाए और लोग टीका लगवाने से मना न कर दें।

दिल्ली में दवा का बड़े स्तर पर कारोबार होता है। भागीरथ पैलेस, लाजपत नगर, अंसारी नगर और एम्स के आस-पास बड़े दवा कारोबारी हैं। कई दवा व्यापारियों का कहना है कि कोरोना वायरस  के अलावा अन्य बीमारियों से हर रोज़ कई मरीज़ों की मौत होती है। देश में स्वास्थ्य सेवाएँ पहले से ही लचर थीं, महामारी के फैलने से स्थिति और डावाँडोल हो गयी  है। ऐसे में सरकार स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार न करके कोरोना-टीके के नाम पर लोगों गुमराह कर रही है, जो कि गलत है। इन दवा व्यापारियों का कहना है कि फिलहाल वैक्सीन आने की उम्मीद कम ही है।

संदेह के घेरे में कोरोना-टीका

प्रधानमंत्री नरेंद मोदी ने 4 दिसंबर को सर्वदलीय बैठक में संकेत दिया कि देश में कोरोना-टीका (वैक्सीन) कुछ सप्ताह में तैयार हो सकता है और वैज्ञानिकों की हरी झण्डी मिलते ही देश में कोविड-19 टीकाकरण अभियान शुरू हो जाएगा। लेकिन 5 दिसंबर को ही टीवी चैनलों व सोशल मीडिया में हरियाणा के स्वास्थ्य मंत्री व गृहमंत्री अनिल विज की कोरोना-टीका लगवाने के बाद संक्रमित होने वाली खबर तेज़ी से देश-विदेश में चर्चा का विषय बन गयी। इस खबर से पहले चेन्नई में कोविशील्ड वैक्सीन की खुराक लेने वाले एक प्रतिभागी ने न केवल वैक्सीन के दुष्प्रभावी होने के आरोप लगाये, बल्कि पाँच करोड़ रुपये का हर्ज़ाना भी माँगा है। इसके साथ ही प्रतिभागी ने टीके के परीक्षण, उत्पादन और वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है।

याद रखना होगा कि इस कोविशील्ड वैक्सीन का निर्माण पुणे स्थित सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया में हो रहा है और इसे ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनका ने मिलकर विकसित किया है। प्रधानमंत्री ने बीते दिनों कोविड-19 वैक्सीन की तैयारियों के बाबत जिन तीन कम्पनियों का दौरा किया था, उनमें पुणे की सीआईआई भी शमिल है। अब ऐसी खबरों के बाद कोविड-19 टीके से जुड़ी चर्चा में अहम बिन्दु टीकों के असर और सुरक्षा पर केंद्रित हो गया है। मंत्री के परीक्षण टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान उठने लगे हैं। शोध पर फंडिग करने वाले व निर्माता कम्पनियों ने कई वैज्ञानिकों को इस सन्दर्भ में कई तरह के स्पष्टीकरण के काम पर लगा दिया है। दरअसल मेडिकल की दुनिया के अधिकतर लोगों को भी कोविड-19 वैक्सीन बनाने की पूर्ण प्रक्रिया व नतीजों के बारे में विस्तृत जानकारी नहीं है। टीका तैयार करने के आखरी चरण में पहुँच चुकी कई नामी कम्पनियाँ अपनी दवा 90 से 95 फीसदी तक प्रभावशाली होने का दावा कर रही हैं। वैसे अभी ऐसी कोई स्वतंत्र शोध सामने नहीं आयी है, जिसमें यह कहा गया हो कि टीका 50 फीसदी से अधिक कारगार होगा। किसी भी टीके का प्रयोग इंसानों पर होने से पहले जानवरों पर होता है। उनमें एंटीबॉडी विकसित की जाती है कि वह कितना सफल हुआ? इस शोध पर वैज्ञानिक काम करते हैं। उसके बाद जानवरों व इंसानों पर परीक्षण किया जाता है। परीक्षण के नतीजे सम्बन्धित शोध संस्थानों व सरकारी विभागों के साथ साझा किये जाते हैं। जब इंसानों पर परीक्षण किये जाते हैं, तो बहुत-सी सावधानियाँ बरती जाती हैं। कई निगरानी समूह बनाये जाते हैं। सबसे पहले कोविड-19 टीका बनाने की प्रतिस्पर्धा और राष्ट्रवाद की भावना वाले माहौल में उसके निर्माण में क्या हुआ तथा क्या हो रहा है? इस बारे में विस्तृत ब्यौरा देने, पारदर्शिता पर सवाल उठ रहे हैं।

भारत की ही बात करें, तो तमिलनाडु के 40 साल के एक प्रतिभागी ने आरोप लगाया कि कोविशील्ड की टीका लगाने के बाद से उसे वर्चुअल न्यूरोलॉजिकल ब्रेकडाउन की समस्या हुई है और उसके सोचने-समझने की क्षमता कमज़ोर हो गयी है। प्रतिभागी ने एक नोटिस भेजकर कोविशील्ड टीके के परीक्षण, उत्पादन व वितरण पर तत्काल रोक लगाने की भी माँग की है। बेशक सीआईआई, जिसने ऑक्सफोर्ड के टीके को बनाने के लिए एस्ट्राजेनेका के साथ हिस्सेदारी की है; ने इस आरोप को दुर्भावनापूर्ण और गलत कहकर खारिज कर दिया, लेकिन हमें यह नहीं भूलना चाहिए कि चेन्नई वाला मामला अपनी तरह का पहला मामला नहीं है। प्रतिभागी के आरोप से पहले भी जॉनसन एंड जॉनसन के टीके के तीसरे चरण के परीक्षण में एक प्रतिभागी में अज्ञात बीमारी सामने आने के बाद जॉनसन एंड जॉनसन टीके का नैदानिक परीक्षण रोका गया था। लेकिन भारत में ऐसा कोई कदम नहीं उठाया गया। रूस और चीन द्वारा तैयार हो रहे वैक्सीन के दुष्प्रभाव की भी खबरें सामने आयीं। यानी वैक्सीन की सुरक्षा वाला मसला एक गम्भीर मुद्दा है। विश्व भर में जिन कोविड-19 वैक्सीन की चर्चा हो रही है, उनमें फाइज़र, माडर्ना, ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड, रूस की स्पुतनिक-5, जॉनसन एंड जॉनसन, भारत बायोटैक की कोवैक्सिन, चीन की सिनोवैक आदि हैं। अमेरिकी कम्पनी फाइज़र ने अपनी वैक्सीन को 90 फीसदी कारगर होने का दावा किया है और इसके तीसरे चरण के परीक्षण में अमेरिका व यूरोपीय यूनियन के 44 हज़ार लोगों पर परीक्षण किया गया।

इसी तरह अमेरिका की ही दवा कम्पनी मॉडर्ना ने अपनेटीके को 94.5 फीसदी प्रभावशाली बताया है। इसके तीसरे चरण में अमेरिका, जापान व यूरोपीय यूनियन के 30 हज़ार लोगों को शामिल किया गया। भारत में बन रही ऑक्सफोर्ड की कोविशील्ड टीके का करीब 20 हज़ार लोगों पर तीसरे चरण का परीक्षण भारत तथा ब्रिटेन में चल रहा है। तमिलनाडु के एक प्रतिभागी के द्वारा आरोप लगाये जाने के बाद यह चर्चा में है। कोरोना-टीका बनाने वाली कम्पनियाँ प्रेस विज्ञप्ति के ज़रिये चुनिंदा आँकड़े जारी कर रही हैं। यहाँ पर विश्व स्वास्थ्य संगठन को कुछ ठोस व्यवस्था करनी चाहिए। कम्पनियों द्वारा जारी आँकड़ों और असर की वैज्ञानिक तौर पर दोबारा जाँच होनी चाहिए। कोरोना-टीका  के आने की अहम खबर के साथ-साथ अब यह बिन्दु भी केंद्र में आने लगे हैं कि क्या टीका लगवाने के बाद कोविड-19 संक्रमण अपनी जद में तो नहीं लेगा। लोगों की अक्सर यही धारणा बना दी जाती है कि कोरोना-टीका लगवाने से आप बीमार नहीं पड़ेंगे।

हरियाणा के गृह मंत्री अनिल विज को 20 नवंबर को कोवैक्सिन, जिसे भारत बायोटेक कम्पनी व आईसीएमआर मिलकर विकसित कर रहे हैं; परीक्षण के अन्तिम चरण में लगवायी थी। लेकिन 5 दिसंबर को उन्होंने खुद को कोरोना संक्रमित होने की जानकारी दी और इस खबर ने लोगों को हैरत में डाल दिया।

मंत्री का टीका लगवाने के बावजूद संक्रमित होने पर सम्भावित टीकों के असरदार होने पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब लोगों की हैरानी को शान्त करने के लिए कोरोना-टीका  बनाने वाली कम्पनियों के आला अधिकारी व शीर्ष सरकारी अधिकारी बचाव की भूमिका में नज़र आ रहे हैं। भारत बायोटेक ने बयान जारी कर कहा कि कोवैक्सिन की दो खुराक 28 दिन में दी जानी है। दो खुराक के बाद ही यह प्रभावी होगी। वैसे कोवैक्सिन के 60 फीसदी प्रभावशाली होने की बात कही जा रही है।

एक साथ कारगर नहीं होते टीके

एम्स के पूर्व निदेशक एम.सी. मिश्रा का कहना है कि 15 दिन में कोई भी टीका कारगर नहीं होता। ऐसे में अभी टीके पर सवाल उठाना ठीक नहीं। अमेरिका के सेंटर फॉर डिजीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन के मुताबिक, टीका लगवाने के बाद प्रतिरोधक क्षमता विकसित होने में कुछ हफ्तों का वक्त लग सकता है। टीके के बाद संक्रमण फैलेगा या नहीं? यह सवाल हरेक जानना चाहता है, और वैज्ञानिकों का मानना है कि इस सवाल के जवाब के लिए अध्ययन करना होगा। यानी इंतज़ार करना होगा। अमेरिकी दवा कम्पनी फाइज़र, जिसने फाइज़र नाम से टीका बनाया है; उसके चेयरमैन अल्बर्ट बोरला ने कहा कि यह स्पष्ट नहीं है कि जिन लोगों को कम्पनी की तरफ से परीक्षण के तौर पर टीका लगाया गया है, वे अभी भी दूसरों को वायरस फैला सकते हैं या नहीं। अभी इस बाबत और अधिक अध्ययन करने की ज़रूरत है। एक रिपोर्ट के अनुसार, टीके के विकास से जुड़े शोधकर्ताओं का कहना है कि कम्पनी के परीक्षणों ने यह आकलन नहीं किया है कि यह टीका वायरस को कैसे प्रभावित करता है। यानी हमें याद रखना होगा कि कोविड-19 वैक्सीन की रिसर्च का काम अभी पूरा नहीं हुआ है। विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी टीका 100 फीसदी सुरक्षा की गारंटी नहीं देता, मगर आम जनता इस भ्रम में रहती है कि टीका लगने का मतलब 100 फीसदी बीमारी से निजात।

दरअसल कोविड-19 के टीका कम्पनियों के शेयर बाज़ार में ऊँचाई छू रहे हैं। अमेरिका, ब्रिटेन, यूरोपीय यूनियन के देशों ने अरबों खुराकों की एंडवास बुंकिग करवा ली है। इन खुराकों के लिए कोल्ड स्टोर, वितरण की रूपरेखा पर काम हो रहा है। ऐसे में कोरोना-टीके से जुड़ी कोई भी नकारात्मक, विवादास्पद खबर जब सुर्खी बनने लगती है, तो दवा कम्पनियाँ, सरकारें अति सक्रिय वाली भूमिका में सामने आ जाती हैं। यह सवाल आज भी बरकरार है कि पहले किसी बीमारी के टीके को बनने में कई साल लगते थे, आज एक साल के भीतर ही कोरोना-टीका कैसे विकसित हो गया। सवाल यह भी है कि एचआईवी, जिसका पता 1980 में लग गया था; का टीका 40 साल बाद भी हम क्यों नहीं विकसित कर पाये। चेचक, हैजा और प्लेग जैसी महामारियों के टीके ईज़ाद करने में बहुत वक्त लगा।

टीकों के विकास के इतिहास में जाने पर वैज्ञानिक व अन्य विशेषज्ञ दलील देते हैं कि कम्प्यूटर व नयी तकनीक ने जल्दी टीका विकसित करने में खास मदद की है। लिहाज़ा जो सवाल इस बाबत उठाये जा रहे हैं, वो इस महामारी को रोकने की दिशा में किये जा रहे प्रयासों में रुकावट ही डालने का काम करने वाले हैं। विज्ञान प्रगति की ओर अग्रसर है और नयी तकनीक इसमें मददगार साबित हो रही है। बहरहाल समझदार, अनुभवी लोग यही कह रहे हैं कि टीके से अधिक उम्मीद नहीं पालनी चाहिए; यह कोई जादू की छड़ी नहीं है। कोविड-19 का कौन-सा टीका लगने के बाद मानव शरीर में क्या सम्भावित दुष्प्रभाव हो सकते हैं? इस बाबत विस्तार से नहीं पता। क्या ऐसे टीकों पर यह जानकारी मोटे अक्षरों में लिखित रूप में ऐसी भाषा में होगी, जिसे इस्तेमालकर्ता आसानी से समझ ले। वास्तविकता यह है कि कोविड-19 संक्रमण को रोकने के लिए टीका विकसित करने वाली कम्पनियाँ अपने टीकों की सफलता का चाहे जितना भी दावा पेश करें, लेकिन वैक्सीन के प्रदर्शन और उसके प्रभावोत्पादकता का सही आकलन आने वाला समय में ही हो सकेगा।

रोशनी घोटाले की उलझनें

जम्मू-कश्मीर में रोशनी कानून के तहत ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों या उन्हें ओने-पौने दामों में खरीदने का मामला अब राजनीतिक रंग लेता जा रहा है। भाजपा कश्मीर के प्रमुख दलों के उन नेताओं, जिनके नाम इस ज़मीन घोटाले में सामने आये हैं; पर लगातार हमलावर है। वहीं घाटी के नेता इसे अपने खिलाफ षड्यंत्र बता रहे हैं। मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में है। हालाँकि लगता है कि यह मुद्दा खुद भाजपा के गले की भी फाँस बन गया है। क्योंकि रोशनी कानून के तहत ज़मीनों के आवंटन के 70 फीसदी से ज़्यादा मामले जम्मू क्षेत्र में हैं; जहाँ भाजपा का दबदबा है। इस आवंटन के लाभार्थियों में बड़ी संख्या में गरीब भी शामिल हैं। शायद इसे देखते हुए ही जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने अब जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में एक याचिका डालकर गरीबों से जुड़े मामलों की जाँच राज्य के एंटी करप्शन ब्यूरो से करवाने की गुहार लगायी है। आरोप है कि भाजपा इस तरह राजनीतिक आधार पर इस मामले में बंदरबाँट करना चाहती है और विरोधियों को परेशान करना चाहती है।

वैसे तो इस तरह के कानून दूसरे प्रदेशों में भी हैं, जिनमें सरकारी ज़मीनों पर अवैध कब्ज़ों को एक कीमत तय करके स्थायी करने की अभियान चलाये जाते हैं। दिलचस्प यह है कि उनमें भी घोटालों के आरोप लगते रहे हैं। जम्मू-कश्मीर का मामला घाटी के नेताओं के गुपकार घोषणा के बाद ज़्यादा ज़ोर-शोर से उभरा; क्योंकि भाजपा ने इस घोषणा को देश के खिलाफ बताया है। गुपकार आन्दोलन से जुड़े नेता भी यही आरोप लगा रहे हैं कि रोशनी एक्ट में घोटाले का आरोप उन्हें बदनाम करने की शाज़िश है। हालाँकि पूरा मामला सामने आने के बाद भाजपा के नेता परेशान दिख रहे हैं; क्योंकि उन्हें लगता है कि जम्मू क्षेत्र में बड़ी संख्या में जिन गरीबों से ज़मीन वापस लेने की बात की जा रही है, वो उसके खिलाफ जा सकते हैं।

भाजपा इस मुद्दे को राज्य में चल रहे ज़िला विकास परिषदों (डीडीसी) के चुनाव में बड़ा मुद्दा बनाना चाहती थी, लेकिन चुनाव प्रचार के दौरान उसके सामने आया कि इस योजना के तहत लाभान्वित होने वाले ज़्यादा लोग उसके प्रभाव वाले जम्मू क्षेत्र से हैं और इनमें भी बड़ी तादाद गैर-मुस्लिमों की है। भाजपा डीडीसी चुनावों में प्रचार करने जब लोगों के पास पहुँची, तो लाभार्थियों ने उनके सामने अपनी ज़मीनें जाने की चिन्ता ज़ाहिर की। भाजपा खेमे में इससे चिन्ता पैदा हुई है। उसे लगता है कि ऐसे लोग उसके खिलाफ जा सकते हैं।

इसके बाद जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने 4 दिसंबर को हाई कोर्ट में एक समीक्षा याचिका डाली है। राजस्व विभाग के विशेष सचिव नज़ीर अहमद ठाकुर की तरफ से 4 दिसंबर को दायर याचिका में लगभग दो महीने पुराने फैसले को संशोधित करने के लिए कहा गया है। इस याचिका में कहा गया है कि बड़ी संख्या में आम (गरीब) लोग अनायास ही पीडि़त होंगे; जिनमें भूमिहीन कृषक और छोटे घरों में रहने वाले लोग शामिल हैं। अब कोर्ट बिस याचिका पर सुनवाई करेगा। याचिका में कहा गया है कि लाभार्थियों के बीच आम लोगों और धनी लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। प्रशासन चाहता है कि भूमिहीन मज़दूरों या निजी उपयोग के एक घर के लिए आवंटित भूमि को पहले की स्थिति के हिसाब से रखने की अनुमति दे दी जाए। फिलहाल इस मामले में उच्च न्यायालय ने 16 दिसंबर की तारीख तय की है।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, दिलचस्प यह भी है कि जम्मू-कश्मीर सरकार ने रोशनी अधिनियम के लाभार्थियों की अब अलग-अलग सूची जारी करनी शुरू कर दी है। प्रशासन अब रोशनी के लाभार्थियों को गरीब और अमीर की श्रेणी में विभाजित करना चाहता है। आरोप है कि इसके पीछे भाजपा है। अपनी संशोधित याचिका में जम्मू-कश्मीर प्रशासन ने कहा कि इन दो वर्गों के लोगों के बीच अन्तर करने की ज़रूरत है। निजी उपयोग में सबसे अधिक आवास वाले घर में भूमिहीन लोगों के हैं। लिहाज़ा प्राथमिक मापदण्ड दो वर्गों के बीच अन्तर करने का होगा। याचिका में भूमिहीन कृषक और एकल आवास मालिकों जैसे लोगों को रोशनी के तहत मिली ज़मीन में बने रहने के लिए एक उपयुक्त तंत्र तैयार करने की अनुमति देने की प्रार्थना की गयी है। यही नहीं इसमें यह आशंका भी जतायी गयी है कि उच्च न्यायालय के फैसले से सीबीआई की पूछताछ लम्बे समय तक चल सकती है।  बता दें इस घोटाले के आरोप राजनीति से शुरू नहीं हुए, बल्कि जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय ने इसी साल अक्टूबर में 25 हज़ार करोड़ रुपये के इस घोटाले की जाँच सीबीआई को करने के आदेश दिये। यही नहीं, अदालत ने इस कानून के तहत आवंटित सारी ज़मीनों को शुरू से रद्द करने को भी कहा। इस भूमि घोटाले के तहत हुए तमाम आवंटन और प्रक्रियाएँ निरस्त कर दी गयी हैं और जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट ने इसे पूरी तरह गैर-कानूनी और असंवैधानिक करार दिया। कोर्ट के आदेश के बाद प्रदेश में हड़कम्प मच गया है। क्योंकि इन आवंटन में बड़े लोगों के नाम सामने आये हैं, जिनमें पूर्व मुख्यमंत्री, मंत्री, विधायक, ब्यूरोक्रेट्स और अन्य रसूखदार लोग शामिल हैं।

यहाँ यह जानना भी ज़रूरी है कि रोशनी कानून कब और कैसे आया था? इसका पूरा नाम जम्मू-कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स का स्वामित्व अधिकार) अधिनियम-2001 को उस समय की नेशनल कॉन्फ्रेंस की फारूक अब्दुल्ला सरकार लायी थी और इसका मकसद पानी आधारित बिजली परियोजनाओं के लिए पैसा जुटाना था। लिहाज़ा इसे रोशनी नाम दिया गया। कानून के तहत भूमि का मालिकाना हक उसके अनधिकृत कब्ज़ेदारों को इस शर्त पर दिया जाना था कि वे लोग बाज़ार भाव पर सरकार को भूमि का भुगतान करेंगे और इसकी कट ऑफ 1990 तय की गयी थी। आरम्भ में सरकारी ज़मीन पर कब्ज़ा करने वाले किसानों को कृषि उद्देश्यों के लिए स्वामित्व अधिकार दिये गये थे। बाद में इसके लिए बने अधिनियम में दो बार संशोधन किया गया। यह संशोधन 2002 में बनी मुफ्ती मोहम्मद सईद की पीडीपी-कांग्रेस की साझा सरकार और उसके बाद गुलाम नबी आज़ाद के नेतृत्व में बनी इसी साझा सरकार के कार्यकाल के दौरान किये गये। जो कट ऑफ पहले 1990 तय की गयी थी, उसके इन संशोधनों में क्रमश: 2004 और फिर 2007 कर दिया गया। इस कथित घोटाले में बड़े राजनीतिकों के अलावा कई बिजनेसमैन और अफसरशाहों के नाम सामने आये हैं। फारूक अब्दुल्ला सरकार के समय आयी इस योजना के तहत 1990 से हुए अतिक्रमणों को इस एक्ट के दायरे में कट ऑफ सेट किया गया, अर्थात् 1990 के बाद हुए सरकारी ज़मीन के अतिक्रमण को स्थायी करके लिए उन लोगों, जिन्होंने उस ज़मीन पर कब्ज़ा किया है; से पैसा लिया जाएगा। बता दें उस दौरान राज्य सरकार ने किसानों को मुफ्त में उन कृषि भूमियों के पट्टे दे दिये थे, जिन पर किसानों ने कब्ज़े किये हुए थे।

‘तहलका’ की जुटाई जानकारी के मुताबिक, इस योजना के तहत ढाई लाख एकड़ से ज़्यादा अवैध कब्ज़े वाली ज़मीन को हस्तांतरित करने की योजना बनायी गयी। ज़मीन को बाज़ार कीमत की महज़ 20 फीसदी दर पर कब्ज़ेदारों को सौंपने का नियम बना। कुल मिलाकर इसकी कीमत 25,000 करोड़ रुपये बनती थी। आरोप है कि फारूक सरकार के बाद जो सरकारें सत्ता में आयीं, उन्होंने भी इस योजना के तहत लाभ लिये। दिलचस्प यह भी है कि 2016 में भाजपा ने पीडीपी के साथ जम्मू-कश्मीर की सत्ता में साझेदारी की। बाद में सरकार टूट गयी। इसके बाद जम्मू और कश्मीर के तत्कालीन राज्यपाल सत्यपाल मलिक के नेतृत्व वाली राज्य प्रशासनिक परिषद् (एसएसी) ने 2018 में रोशनी एक्ट रद्द कर दिया। कहा गया कि इस योजना में जो आवेदन या प्रक्रियाएँअभी अधूरी हैं, उन सबको निरस्त माना जाए। बाद में जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में मामला पहुँचा, जिसने रोशनी योजना को गैर-कानूनी, अन्यायपूर्ण, असंवैधानिक और असंगत करार दे दिया। हाई कोर्ट के आदेश के बाद रोशनी के तहत तमाम प्रक्रियाएँ और आवंटन गैर-कानूनी हो गये।

हाई कोर्ट के फैसले के बाद जहाँ राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप शुरू हो गये, वहीं हाई कोर्ट की न्यायमूर्ति गीता मित्तल और राजेश बिंदल की पीठ ने इस मामले में सीबीआई जाँच के आदेश दिये। पीठ ने अपने आदेश में हर आठ हफ्ते में मामले की जाँच की स्टेटस रिपोर्ट देने को भी कहा। अब राज्य के लेफ्टिनेंट गवर्नर मनोज सिन्हा ने कहा है कि सभी लोगों से ज़मीन वापस ली जाएगी। इस मामले की शुरुआती जाँच सीबीआई ने इसी 4 दिसंबर को आरम्भ की। प्रथम चरण में जम्मू तहसील के क्षेत्र में 784 कनाल 17 मारला ज़मीन की जाँच शुरू की गयी है। यह ज़मीन जम्मू विकास प्राधिकरण (जेडीए) को हस्तांतरित की गयी थी।

सरकारी मकानों पर भी कब्ज़े

रोशनी ज़मीन घोटाले से इतर जम्मू-कश्मीर में सरकारी आवासों में अवैध रूप से रहने का मामला भी सामने आया है। इसे लेकर अदालत में एक जनहित याचिका दायर की गयी है। यह मामला जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय में चल रहा है। जम्मू-कश्मीर उच्च न्यायालय की न्यायाधीश गीता मित्तल और न्यायमूर्ति राजेश बिंदल की खण्डपीठ ने केंद्र शासित प्रदेश (यूटी) प्रशासन को पूर्व मंत्रियों, पूर्व विधायकों, निर्वासितों और अन्य सहित सरकारी आवासों के अनधिकृत रहने वालों का पूरा विवरण प्रदान करने का निर्देश दिया। अदालत ने सरकार को ऐसे अवैध रूप से कब्ज़े वाले घरों में किये गये किराये, बिजली और नवीनीकरण के ब्यौरे को प्रस्तुत करने का भी आदेश दिया। अदालत ने 22 दिसंबर को मामले को सूचीबद्ध किया। अभी तक जो सूची प्रशासन ने अदालत में सौंपी है उसमें जम्मू-कश्मीर के भाजपा अध्यक्ष रविंद्र रैना और पूर्व उप मुख्यमंत्री कविंदर गुप्ता सहित कई राजनीतिक व्यक्तियों के नाम हैं। 2 सितंबर, 2020 तक की गयी सूची में भाजपा और अन्य राजनीतिक दलों के कई पूर्व मंत्रियों और विधायकों के नाम शामिल हैं, जो सरकारी आवासों पर अवैध रूप से कब्ज़ा कर रहे थे; जो उन्हें उनकी आधिकारिक क्षमता में आवंटित किये गये थे। इसे लेकर जनहित याचिका प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने दायर की है। राजनेताओं और पूर्व नौकरशाहों के सरकारी आवास पर अवैध रूप से कब्ज़ा करने के मामले में यह जनहित याचिका दायर की गयी थी। यद्यपि जम्मू-कश्मीर सरकार ने पूर्व मुख्यमंत्रियों को सरकारी आवास प्रदान करने वाले नियमों को समाप्त कर दिया है, लेकिन सम्पत्ति विभाग की प्रस्तुत सूची में उल्लेख किया गया है कि पूर्व मुख्यमंत्री जी.एम. शाह के परिवार का जम्मू के पॉश गाँधी नगर इलाके में एक बंगले पर कब्ज़ा है। इनमें से कई नेताओं को आवंटन का आधार सुरक्षा-कारण बताया गया है।

क्या है मामला

इस मामले की शुरुआत मार्च, 2014 में तब हुई, जब कैग ने उस समय की जम्मू-कश्मीर विधानसभा में अपनी रिपोर्ट पेश की। यह रिपोर्ट रोशनी कानून से जुड़ी थी। इसमें सन् 2007 से सन् 2013 के बीच कब्ज़े वाली ज़मीनों के हस्तांतरण में अनियमितता का आरोप था। कैग ने कहा कि नेताओं और नौकरशाहों को फायदा पहुँचाने के लिए मनमाने तरीके से कीमत में कटौती की गयी। कैग ने यह भी कहा कि बिजली क्षेत्र में निवेश हेतु संसाधन जुटाने का उद्देश्य धरा रह गया। इसमें लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का था; जबकि महज़ 76 करोड़ रुपये ही जुटे। वैसे इससे भी पहले सेवानिवृत्त प्रोफेसर एस.के. भल्ला ने एडवोकेट शेख शकील के ज़रिये 2011 में इस मसले पर जम्मू-कश्मीर हाई कोर्ट में जनहित याचिका दायर की थी; जिसमें उन्होंने सरकारी और वन भूमि में बड़े पैमाने पर गड़बड़ी के आरोप लगाये थे।

यह करीब-करीब 20.55 लाख कनाल (102,750 हेक्टेयर) ज़मीन का मामला थी; जिस पर लोग बसे थे। इसमें से 16.02 लाख कनाल भूमि जम्मू क्षेत्र, जबकि 4.44 कनाल भूमि कश्मीर क्षेत्र में पड़ती थी। वैसे इसमें से महज़ 15.85 फीसदी (6.04 लाख कनाल) ज़मीन ही मालिकाना हक के लिए मंज़ूर की गयी थी, जिसमें से 5.71 लाख कनाल जम्मू और 33,392 कनाल भूमि कश्मीर में थी। इसके बाद अचानक लक्ष्य 25,448 करोड़ रुपये का राजस्व जुटाने के लक्ष्य को समेटकर 317.55 करोड़ कर दिया गया; जिसमें से ज़मीन देने के बाद सरकार के पल्ले 76.46 करोड़ रुपये आये। मौज़ूद ब्यौरे के मुताबिक, 76.46 करोड़ रुपये में से 54.05 करोड़ रुपये कश्मीर क्षेत्र से, जबकि जम्मू क्षेत्र से 22.40 करोड़ रुपये ही जुटे। हालाँकि कश्मीर से 123.49 करोड़ रुपये, जबकि जम्मू क्षेत्र से 194.06 करोड़ रुपये जुटाने का लक्ष्य था। कैग ने अपनी रिपोर्ट में सवाल उठाया कि नियमों को ताक पर रखते हुए करीब 340,091 कनाल को कृषि भूमि घोषित कर एक भी पैसा लिए बिना हस्तांतरित कर दिया गया। कैग की रिपोर्ट के मुताबिक, कश्मीर क्षेत्र में ज़्यादातर ज़मीन व्यापारिक घरानों को और रिहायशी उद्देश्य से दी गयी। कैग रिपोर्ट में यह एक बहुत दिलचस्प बात कही कि रोशनी कानून के तहत 348,160 कनाल के हस्तांतरण के बाद भी ज़मीनों पर कब्ज़े के लिए और मामले आते रहे; क्योंकि नवंबर 2006 में 2,064,972 कनाल की तुलना में मार्च 2013 में 2,046,436 कनाल पर अतिक्रमण था। सरकार ने कैग की रिपोर्ट पर कहा कि इस मामले की छानबीन करके कार्रवाई करेगी; लेकिन कुछ नहीं हुआ।  जम्मू-कश्मीर सरकार ने 23 नवंबर से जम्मू और कश्मीर राज्य भूमि (ऑक्युपेंट्स के लिए निहित स्वामित्व) अधिनियम के तहत लाभार्थियों के नामों को प्रकाशित करना शुरू कर दिया। ज़ाहिर है जैसे ही नाम सार्वजनिक हुए तो बवाल मच गया। पहली सूची में चार नेशनल कॉन्फ्रेंस नेताओं, एक पूर्व पीडीपी नेता, दो कांग्रेस नेताओं और कश्मीर के पूर्व नौकरशाहों और व्यापारियों के नाम थे। जैसे ही सूची बाहर आयी, भाजपा ने इसे गुपकार घोषणा से जोड़कर कश्मीर के नेताओं को निशाने पर रख लिया। यह सूची डीडीसी चुनावों से ऐन पहले सार्वजनिक हुई; लिहाज़ा विपक्ष ने इस पर सवाल उठाते हुए इसे राजनीति से प्रेरित बताना शुरू कर दिया।

विभिन्न रिपोट्र्स के मुताबिक, इस साल फरवरी तक करीब 30,500 लोगों को रोशनी एक्ट के तहत लाभ हुआ। अतिक्रमण करने वालों की सूची में पूर्व मुख्यमंत्री फारूक अब्दुल्ला और उनके पूर्व मुख्यमंत्री बेटे उमर अब्दुल्ला के भी नाम शामिल हैं। हालाँकि दोनों ने इन आरोपों को सिरे से खारिज किया है। इसके अलावा नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और कांग्रेस के दफ्तरों को भी रोशनी कानून के तहत मिली ज़मीन पर बना बताया गया है। तीनों पार्टियाँ इन आरोपों को गलत बता चुकी हैं।

पूर्व वित्त मंत्री हसीब द्राबू और अन्य के नाम हैं। हालाँकि द्राबू भी इसे गलत बता चुके हैं। उनके अलावा कांग्रेस के राज्य कोषाध्यक्ष के.के. अमला और उनके परिवार के तीन सदस्यों, पूर्व मंत्रियों सज्जाद किचलू और हारून चौधरी सहित नेशनल कॉन्फ्रेंस के चार नेताओं के नाम भी शामिल हैं। आरोप यह भी लग रहे हैं कि भाजपा नेताओं ने भी कथित तौर पर ज़मीन ली है, लेकिन उन्हें बचाने की कोशिश हो रही है और जानबूझकर उनके नाम सूची में सामने नहीं लाये गये हैं। अब सच क्या है? यह तो जाँच के बाद ही पता चलेगा।

न तो श्रीनगर और न जम्मू में बना मेरा घर रोशनी एक्ट के अधीन है। वे (भाजपाई) झूठा मामला बना रहे हैं। इन लोगों को हार का डर सता रहा है, इसलिए ये लोग ऐसी तरकीबें इस्तेमाल कर रहे हैं। वे हमें झुकाना चाहते हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो पायेगा। मुझ पर लगे सभी आरोप बे-बुनियाद हैं। इलाके में सिर्फ मेरा ही घर नहीं है, बल्कि सैकड़ों घर हैं। फारूक अब्दुल्ला

पूर्व मुख्यमंत्री एवं जेकेएनसी नेता

जम्मू में पीडीपी का कार्यालय एक सरकारी इमारत में है, जिसका पीडीपी मासिक किराया चुकाती है। आपको (मीडिया) भाजपा के दिल्ली स्थित पार्टी मुख्यालय के बारे में भी बताना चाहिए। यदि भाजपा ज़मीन हड़पने के मामले में गम्भीर है, तो उसे बड़ी मछलियों के पीछे जाना चाहिए; न कि उन गरीबों के पास, जिनके पास 5 मरले की ज़मीन भी नहीं है।महबूबा मुफ्ती

पूर्व मुख्यमंत्री एवं पीडीपी नेता

हवन – एक प्राचीन, लेकिन अभिनव औषधि वितरण प्रणाली

मानवता को सर्वोपरि हित मानते हुए प्राचीनकाल के सनातन ऋषियों ने बड़े पैमाने पर आजमायी हुई अमूल्य खोजों को सलीके से विकसित किया और उन्हें समाज को दिया, जिनमें मानव जाति के लिए अत्यधिक भविष्यवादी लाभकारी प्रौद्योगिकियों को गहराई से सन्निहित किया गया था। हालाँकि सम्भवत: ये अपने अस्तित्व से जुड़े बेहद कीमती अनुष्ठानों और विधाओं के रूप में थे; फिर भी प्रत्येक और हर निर्धारित अनुष्ठान में उनके साथ अत्यधिक उन्नत लाभार्थी पद्धति जुड़ी थी। हवन एक पवित्र सनातन धर्म अनुष्ठान है, जिसमें अग्नि को आहुति दी जाती है। जैसा कि हम आज जानते हैं इसे किसी भी प्रमुख पूजा का मुख्य हिस्सा बनाया गया था। स्पष्ट रूप से हवन करने की पवित्रता के पीछे गूढ़ उद्देश्य वास्तव में पर्यावरण की शुद्धि ही नहीं था, बल्कि इसके साथ एक उन्नत औषधि वितरण प्रणाली भी काम कर रही थी, जो नासिका मार्ग के माध्यम से जीवन रक्षक दवाओं को संचालित करने के लिए एक नवीन औषधि वितरण प्रणाली के रूप में कार्य करती है।

अग्नि, जिसे ब्रह्माण्डीय चेतना और मानव चेतना के बीच मुख्य कड़ी में से एक माना जाता है। और इस तरह सभी अस्तित्त्व के पाँच प्रमुख घटकों में प्रमुख है, जिसमें एक हवन या होम का मुख्य तत्त्व शामिल है। किसी विशेष हवन के दौरान पवित्र अग्नि को चढ़ायी गयी आहुति पर्यावरण और साथ ही आसपास के लोगों को शुद्ध करने वाली मानी जाती है। किसी भी तरह का हवन सामान्य रूप से आध्यात्मिक के साथ-साथ भौतिक सफलता प्राप्त करने के उद्देश्य से किया जाता है। इसे 10 नेयमा / पवित्र नियमों या सकारात्मक गुणों में से एक के रूप में देखा जाता है, जो एक भक्त के लिए निर्धारित होते हैं; जो दिव्य के करीब आने की इच्छा रखता है, जो उसके साथ एकता हासिल करना चाहता है। हवन भी देव यज्ञ करने का एक तरीका है, जिसमें सनातन धर्म के सिद्धांतों के अनुसार किसी भी व्यक्ति के पाँच दैनिक कर्तव्य शामिल हैं।

क्षेत्र के आधार पर विभिन्न सनातन धर्म अनुष्ठानों के सभी सौम्य रूपांतरों की तरह, स्थानीय मान्यताओं और रीति-रिवाजों, विशिष्ट उद्देश्यों की आवश्यकताएँ जैसे कि विशेष देवताओं को अग्नि भेंट, आकाशीय ग्रह, वांछित वस्तुएँ प्राप्त करना आदि पवित्र हवन के प्रदर्शन से जुड़ी सभी प्रक्रियाएँ उपयुक्त हैं। हवन कुण्ड (रिसेप्टेकल्स) के रूप में भिन्नताएँ, आग जलाने के लिए उपयोग की जाने वाली लकड़ी, जड़ी-बूटियों और अन्य सामग्री जो आहुति / जलने के लिए उपयोग की जाती हैं। ये सभी विविधताएँ एक बहुत ही दिलचस्प अध्ययन प्रस्तुत करती हैं और वास्तव में हाल के दिनों में, आयुष मंत्रालय, नई दिल्ली, राष्ट्रीय वनस्पति अनुसंधान संस्थान, लखनऊ में राष्ट्रीय औषधीय पादप बोर्ड द्वारा किये गये अध्ययनों की एक बड़ी संख्या से वैज्ञानिक रूप से सिद्ध हुए हैं। इलाहाबाद विश्वविद्यालय का रसायन विज्ञान विभाग, नोएडा में महर्षि वेद विज्ञान विश्व विद्यापीठम्, बाबा फरीद स्वास्थ्य विज्ञान विश्वविद्यालय, फरीदकोट, व्यावसायिक और पर्यावरण चिकित्सा केंद्र दिल्ली के लोक नारायण जय प्रकाश अस्पताल में दिल्ली विश्वविद्यालय में वल्लभभाई पटेल छाती संस्थान आदि द्वारा किये गये अध्ययन इसे ज़ाहिर करते हैं।

शारीरिक रोगों के उन्मूलन में लगे उपचार की सभी प्रचलित प्रणालियाँ अपनी-अपनी दवाओं को ज़्यादातर मौखिक मार्ग और आपात स्थितियों में इंजेक्शन मार्ग द्वारा संचालित करती हैं। मौखिक मार्ग वाली दवाओं के माध्यम से प्राप्त की गयी सभी दवाएँ केवल पाचन और प्रणाली में अवशोषित हो जाती हैं और मौखिक रूप से ली जाने वाली दवाओं में से कई का पाचन तंत्र द्वारा उपयोग भी नहीं किया जाता है और इस प्रकार यह अनिर्धारित रहती है। ऐसी सभी दवाएँ पाचन प्रक्रियाओं को प्रतिकूल रूप से परेशान कर सकती हैं और लम्बे समय तक गम्भीर दुष्प्रभाव भी डाल सकती हैं। वही कम या ज़्यादा सच है जब अंत:शिरा मार्ग के माध्यम से दवाओं को सीधे रक्त में इंजेक्ट किया जाता है। हालाँकि इंजेक्शन लगाने योग्य मार्ग के माध्यम से दवाओं के  त्वरित परिणाम प्राप्त होते हैं, फिर भी उनके प्रतिकूल दुष्प्रभाव अक्सर अधिक स्पष्ट होते हैं। औषधि प्रशासन प्रक्रियाओं में इस तरह की सीमाओं को ध्यान में रखते हुए सबसे सुरक्षित और त्वरित औषधि वितरण प्रणाली में अनुसंधान ने वैज्ञानिकों को इस निष्कर्ष पर पहुँचा दिया है कि औषधि का प्रशासन करने के लिए नाक का मार्ग सबसे अच्छा और हानि-विहीन है।

आधुनिक युग के अधिकांश संशयवादियों के लिए एक सुखद आश्चर्य के रूप में, जो यह मानने के लिए मानसिक रूप से क्रमादेशित हैं कि हमारी प्राचीन धरोहरें, शास्त्रों, रीति-रिवाज़ों, रीति-रिवाज़ों और परम्पराओं के अनुसार, जो कुछ भी हैं, वह सबका सबब है और यह ज्ञान का केवल आधुनिक पश्चिमी रूप है। जो परम् है, यह जानना एक बौद्धिक जानकारी जैसा होना चाहिए कि हमारे सनातन ऋषियों को नाक मार्ग के माध्यम से औषधि पहुँचाने के गुणों के बारे में अच्छी तरह से पता था और इस तरह पूरी तरह से बिना आक्रामक तरीके से मानव पीड़ा को कम किया जा सकता है और वह भी बिना किसी अतिरिक्त खर्च के और बिना किसी यंत्र के। प्राचीनकाल से ही आयुर्वेदिक ग्रन्थों ने प्रतिपादित किया है कि ‘नासा हि शिरसो द्वारम्’ का अर्थ है नाक सबसे अच्छा मार्ग है; ज़ाहिर है विभिन्न रोगों की दवाओं के उपयोग के लिए।

विभिन्न मानसिक रोगों के उन्मूलन के लिए आवश्यक दवाओं के इष्टतम उपयोग के लिए, उन्हें वाष्पशील या नैनो-रूप में वितरित करना अनिवार्य है; ताकि श्लेष्म झिल्ली के रक्त मस्तिष्क बाधा को पार करके उपचारात्मक उद्देश्यों के लिए दवाओं की अपेक्षित एकाग्रता प्राप्त की जा सके। हालाँकि आधुनिक शोधकर्ता इस उद्देश्य के लिए नाक मार्ग का उपयोग करने के लिए अनुकूलन करने में लगे हुए हैं, फिर भी हमारा स्वयं का समाज हमारे आदरणीय ऋषियों की समृद्ध विरासत को भूल जाता है, जिन्होंने हमें शुभकामनाएँ के रूप में लाखों साल पहले दवा वितरण की यह विरासत दी। हवन को एक प्रक्रिया के रूप में निर्धारित किया गया है, हालाँकि एक धार्मिक विधि में, जिसमें विशेष जड़ी-बूटियों को कूटकर बनी हवन सामग्री को विशेष रूप निर्मित किये गये अग्निकुण्ड में प्रज्ज्वलित औषधीय लकड़ी की अग्नि में डाल दिया जाता है। उपलब्ध साहित्य के एक महत्त्वपूर्ण विश्लेषण से पता चलता है कि हवन के कई घटकों में कई वाष्पशील तेल होते हैं, जो विशेष रूप से कार्रवाई के एक अभिनव तंत्र के माध्यम से विभिन्न मानसिक विपत्तियों की रोकथाम और उपचार के लिए उपयोगी होते हैं। आग के उच्च तापमान के तहत जड़ी-बूटियों से इन तेलों के वाष्प नाक मार्ग के माध्यम से केंद्रीय तंत्रिका तंत्र में प्रवेश करते हैं। हवन को निर्धारित अंतराल पर करने से शरीर में उपचारात्मक घटकों की शक्ति बनी रहती है और चिन्ता, मिर्गी, मनोभ्रंश आदि जैसी कई मानसिक विपत्तियों को रोकने में मदद मिलती है।

विभिन्न आवश्यक तेलों, जैसे सुगन्धित तेल, नींबू और जम्भी फल (बर्गामोट) का उपयोग करके कई मानसिक विकारों के इलाज के लिए एक विकल्प के रूप में अरोमा थेरेपी के औषधीय उपयोग पर अनुसंधान लगातार प्रगति कर रहा है। अधिकांश अध्ययनों से पता चलता है कि इन आवश्यक तेलों के साँस लेना घ्राणप्रणाली को संकेत संप्रेषित कर सकते हैं और मस्तिष्क को न्यूरोट्रांसमीटर अर्थात् सेरोटोनिन और डोपामाइन को उत्तेजित करते हैं, जिससे आगे मूड को विनियमित किया जाता है। यद्यपि प्राचीन काल से ही आयुर्वेदिक ग्रन्थों में मानव जाति को प्रभावित करने वाले विभिन्न रोगों के उपचार में सुगंधित और औषधीय जड़ी बूटियों के उपयोग का उल्लेख किया गया है, फिर भी वर्तमान में संशयवादियों ने उनके उपयोग के पीछे तथाकथित सत्यापित विज्ञान की इच्छा के लिए उनके नुस्खे को चित्रित किया।

आग में तब्दील होने और एक साथ मंत्रों के जप के साथ, एकचक्र फिर से सक्रिय हो जाता है, जिससे मन और शरीर दोनों के लिए एक कायाकल्प और पुनरुद्धार प्रभाव पैदा होता है। व्यक्ति सकारात्मक विचारों, कार्यों और शब्दों को प्राप्त करता है, जो किसी की सफलता के लिए मार्ग प्रशस्त करते हैं। हवन को सभी नकारात्मक ऊर्जाओं को दूर के लिए माना जाता है और विश्वास किया जाता है कि जिस घर में हवन किया जाता है, उसके चारों ओर एक सुरक्षा कवच बनाया जाता है।

इस प्रकार किसी भी नकारात्मक या बुरी ऊर्जा को दूर किया जाता है। हवन शान्ति, अच्छे स्वास्थ्य, समृद्धि और विचारों की स्पष्टता, विवेक की बढ़ती शक्ति और मानसिक क्षमताओं के बेहतर उपयोग के लिए प्रेरित करता है। नतीजतन, सफलता उन सभी की ओर आकर्षित होती है, जो इस अनुष्ठान को करते हैं। इष्टतम परिणामों के लिए हवन दैनिक रूप से किया जा सकता है। प्रत्येक परिवार में हवन को सप्ताह में एक बार कम-से-कम परिवार के सभी सदस्यों की उपस्थिति में किया जाना चाहिए। सुबह के शुरुआती घंटों को सभी धार्मिक गतिविधियों के लिए सबसे अनुकूल माना जाता है; क्योंकि उस समय हवा ऊर्जा या महत्त्वपूर्ण बल (प्राण) से चार्ज होती है।

हालाँकि यह अभ्यास ऐसे समय में भी किया जा सकता है, जो सभी के लिए सबसे उपयुक्त है। वेदों की बात करें, तो सामवेद में लगभग 114 मंत्र हवन के महत्त्व के बारे में ज़िक्र हैं। यजुर्वेद में हवन सबसे महत्त्वपूर्ण, आवश्यक और उपयोगी कर्म बताया गया है। वेदों का कहना है कि यज्ञ और गायत्री मंत्र मोक्ष या मोक्षया आत्म-प्राप्ति का एकमात्र तरीका है। चारों वेदों में यज्ञ से सम्बन्धित असंख्य मंत्र हैं। हवन के कई फायदे हैं- हमारे शरीर, मन, आत्मा से लेकर पर्यावरण तक यह न केवल हवा को शुद्ध करता है, बल्कि हमारे मन और शरीर से अशुद्धियों को भी दूर करता है। हवन अग्नि पर ध्यान केंद्रित करने और आवश्यक दिव्य मंत्रों का जाप करने से सभी परेशान और दु:खी विचारों को अग्नि में क्षय हो जाता है; जिसके परिणामस्वरूप शान्ति, मन और आत्मा की समानता होती है। इस प्रकार परिवार और समुदाय में एकता को बनाये रखने मदद मिलती है। आमतौर पर हवन करने के लिए उपयोग किए जाने वाले हवन कुण्ड (रिसेप्टेकल) का विकल्प एक और दिलचस्प पहलू है जो विभिन्न अनुष्ठानिक स्थितियों और वांछित परिणाम के तहत इसके उपयोग को ध्यान में रखते हुए निर्धारित किया जाता है। सनातन धर्म शास्त्रों के अनुसार, हवनकुण्ड की अनूठी आकृति नियंत्रित पीढ़ी और ऊर्जा के बहु-दिशात्मक विघटन को सुनिश्चित करती है, जो आयतों की पेशकश से उत्पन्न होती है। हवन आवश्यक और बहुत शक्तिशाली ऊर्जा क्षेत्रों के जनरेटर के रूप में कार्य करता है और उन्हें अपने आसपास के वातावरण में फैलाता है। अपने सरलतम रूप में कोई भी हवनकुण्ड या अग्नि कुण्ड ईंटों से बना होता है, जिसे आमतौर पर रंगीन फूलों और पत्तियों से सजाया जाता है। आम तौर पर हवनकुण्ड आयताकार या चौकोर आकार का होता है, लेकिन यह त्रिभुजाकार, वृत्ताकार, अद्र्ध-वृत्ताकार, षट्कोणीय, अष्टकोणीय तारे के आकार का भी हो सकता है, जो कि निर्धारित अनुष्ठानों को करने के द्वारा प्राप्त किये जाने वाले विशेष परिणाम पर निर्भर करता है।

आम के पेड़ की सूखी लकड़ी का उपयोग आमतौर पर मुख्य दहनशील सामग्री के रूप में किया जाता है, जिसे लोकप्रिय रूप से ‘समिधा’ कहा जाता है। अन्य दहनशील सामग्री का उपयोग किया जाता है, जिसे हवन समग्री के रूप में जाना जाता है और  जिसके मुख्य तत्त्व लगभग 70 प्रकार के होते हैं। हवन समग्री की प्रमुख वस्तुएँ अगार की लकड़ी, आँवला, बाख, बहेडा, बावची, बे-पत्तियाँ, इलायची हरी, छारिल, लौंग, दारू-हल्दी, देवर, धवई ऊन, नारियल या सूखा नारियल, नीलगिरी की सूखी पत्तियाँ, गुग्गल, हरड़, हावबर, इंद्र जौ, जरा कुश, जटा मानसी या बालछड़, कमल गट्टा, कपूर कचहरी, नाग केशर, नागरमोथा, जायफल, लाल लकड़ी, संदल की लकड़ी, सुगंधा बाला, सुगंध कोकिला, सुगंध मन्त्री, तंदूर की लकड़ी, तालीश पत्र, तेज बल की लकड़ी, तोमद बीज आदि हैं। हालाँकि विभिन्न आवश्यक तेलों या इसी तरह के अन्य उपचारात्मक सामग्रियों से युक्त विशिष्ट जड़ी-बूटियों, पत्तियों, बीजों, फलों आदि को सावधानी से चुना जाता है और सामान्य समाग्री का हिस्सा बनाया जाता है और वांछित परिणामों को प्रभावित करने के लिए इस्तेमाल किया जाता है। वाष्पशील या नैनो-रूप में ऐसी दहनशील दवाओं के औषधीय घटक इस तरह के बीमार व्यक्तियों को नाक मार्ग के माध्यम से लाभान्वित करने की आवश्यकता अनुसार दोहराते हैं।

यह कहने की ज़रूरत नहीं है कि प्रदूषित वातावरण मानव जाति के लिए वर्तमान की सबसे बड़ी चुनौती है। यह न केवल मानव जाति, बल्कि पूरे विश्व के अस्तित्त्व के लिए खतरा है। यद्यपि इस ग्रह के निवासी हाल के दिनों में पर्यावरण के बारे में वास्तव में चिन्तित हैं, जो कि वर्षों में तेज़ी से प्रदूषित हो गया है। फिर भी हमारे वैदिक युग के ऋषियों और महर्षियों ने प्रारम्भिक वैदिक युग से हमें पर्यावरण की शुद्धि प्रक्रिया की सलाह दी। एक हवन की प्रक्रिया। तार्किक रूप से, यदि बड़ी संख्या में लोग एक दिन में कम-से-कम दो बार हवन करते हैं, तो पर्यावरण को शुद्ध करने में इसका बड़ा प्रभाव हो सकता है। लेकिन हमने, हमारे गलत तरीके से परम्परावादियों के रूप में परिभाषित नहीं होने देने के लिए इसे अपने स्वयं के जोखिम के लिए अनदेखा कर दिया है।

यदि हम सभी सनातन धर्म के नियमों का पालन करने और अपने कार्यों का पालन करने का संकल्प करते हैं, तो इसमें कोई संदेह नहीं है कि थोड़े समय के भीतर, दुनिया में मौज़ूद रहने के लिए एक बेहतर जगह होगी। इस राष्ट्र के लाखों लोगों की बेहतरी के लिए संसाधनों ने हमारी प्राचीन विरासत की बहुमुखी प्रतिभा, विश्वसनीयता और गहराई को फिर से आँकने, फिर से जाँचने और फिर से स्थापित करने के लिए एक आन्दोलन को गति दी है, जो कम से कम पिछले एक हज़ार वर्षों से है। हमारे आदरणीय ऋषियों और महर्षियों द्वारा बताये गये विभिन्न विवरणों के हवन करने के पवित्र अनुष्ठानों को कम-से-कम अब संदेहवादी पश्चिमी भारतीयों द्वारा भी अपनाया जाता है।

2021 विधानसभा चुनाव पर नज़र – टीएमसी की महिला मतदाताओं को साधने की कवायद

पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी की हालिया घोषणाओं को महिला मतदाताओं तक अधिक से पहुँच बनाने की कवायद के तौर पर देखा जा रहा है। तृणमूल कांग्रेस सुप्रीमो के नाते वह चाहती हैं कि पार्टी को महिलाएँ अधिक से अधिक वोट करें। मुख्यमंत्री कई अवसरों पर कह भी चुकी हैं कि तृणमूल कांग्रेस की अगुवाई वाली सरकार राज्य में पुलिस बल में भी लैंगिक अनुपात ठीक करेगी।

2021 विधानसभा चुनाव को ध्यान में रखकर टीएमसी का राजनीतिक मोर्चा-बंगो जननी पश्चिम बंगाल में ज़्यादा-से-ज़्यादा महिलाओं तक पहुँचने के लिए सामाजिक आन्दोलन के तौर पर सबसे आगे होगा। बता दें कि राज्य में कुल मतदाताओं में महिला मतदाताओं की संख्या 48 फीसदी से अधिक है। 2019 लोकसभा चुनाव के दौरान राज्य के 6.98 करोड़ मतदाताओं में से, 3.39 करोड़ या लगभग 48 फीसदी मतदाता महिलाएँ थीं। इसका मतलब साफ है किसी भी प्रत्याशी को जीत के लिए महिला मतदाताओं को अपने पक्ष में करना होगा। टीएमसी में महिला उम्मीदवारों की संख्या भी सबसे ज़्यादा रही है।

2019 के आम चुनावों में बंगाल में टीएमसी के 41 फीसदी उम्मीदवार में महिला उम्मीदवार थे। 2011 में तृणमूल कांग्रेस के लिए चुनाव लडऩे वाली महिला उम्मीदवारों की संख्या 31 फीसदी थी, जबकि 2016 में यह संख्या बढ़कर 45 फीसदी हो गयी थी। वास्तव में जब 2019 में तृणमूल कांग्रेस ने लोकसभा चुनाव, पार्टी प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता के लिए अपनी उम्मीदवार सूची जारी की, तब इस पर फोकस किया गया। बनर्जी ने कहा मुझे खुशी है कि अब महिला उम्मीदवारों को प्राथमिकता दी जा रही है। यह हमारे लिए गर्व का पल है। हम महिला सशक्तिकरण पर ध्यान देना चाहते हैं। हमने अपने आप को न्यूनतम 33 फीसदी तक सीमित नहीं किया है, जो सरकार संसद में महिलाओं की संख्या के लिए निर्धारित करने की कोशिश ही कर रही है। मुख्यमंत्री और पार्टी सुप्रीमो ने कहा है कि पार्टी की महिला कार्यकर्ता राज्य के 70,000 ऐसे बूथों पर जाएँगी, जहाँ पर विषम हालात हैं; साथ ही 20 टीमें पार्टी के विकास के ‌कराये कामों से लोगों को अवगत कराएँगी।

टीएमसी ने ‘दीदी के बोलो’ (दीदी को बताएँ) एक पहल शुरुआत की थी, ताकि लोग उसे अपनी चिन्ताओं और शिकायतों को बता सकें। बंगो जननी और राज्य महिला और बाल विकास मंत्री के महासचिव शशि पांजा ने कहा कि बंगो जननी जैसा एक राजनीतिक मंच बेहतर होगा; क्योंकि कई महिलाएँ एक राजनीतिक पार्टी में शामिल होने के लिए अनिच्छुक हो सकती हैं। लेकिन एक राजनीतिक मोर्चे के माध्यम से लडऩा पसन्द करेंगी।

सत्ता सँभालने के बाद से ही महिला सशक्तिकरण ममता बनर्जी सरकार के विकास के मुद्दों का एक मुख्य हिस्सा रहा है। यह उन दर्ज़नों कल्याणकारी योजनाओं के ज़रिये अपनाया गया है, जिनमें सरकार की कन्याश्री योजना भी शामिल है। इसका मकसद नकद प्रोत्साहन का उपयोग करके शिक्षा को बढ़ावा देना और बाल विवाह को रोकना है। वास्तव में पिछले आठ वर्षों में तृणमूल सरकार ने अपनी लोकलुभावन नीति निर्माण में महिलाओं और लड़कियों को विशेष रूप से लक्षित किया है।

तृणमूल सरकार द्वारा शुरू की गयी, इस परियोजना ने 13से 18 उम्र के बीच की लड़कियों को नकद राशि प्रदान की जाती है; बशर्ते वे अविवाहित हों और पढ़ाई कर रही हों। इस प्रकार बाल विवाह को रोकने और लड़कियों को स्कूल छोडऩे से रोकने के लिए एक मौद्रिक प्रोत्साहन दिया गया। कन्याश्री योजना ने एशिया-प्रशान्त क्षेत्र में संयुक्त राष्ट्र लोक सेवा पुरस्कार जीता है।

2018 में पश्चिम बंगाल सरकार ने रूपश्री नाम से महिला मतदाताओं को लक्षित एक और बड़े पैमाने पर लोकलुभावन नकद हस्तांतरण योजना शुरू की। इसके माध्यम से आर्थिक रूप से कमज़ोर परिवारों की महिलाओं के लिए विवाह सहायता का प्रस्ताव दिया। कन्याश्री की तरह रूपश्री योजना में 18 वर्ष से अधिक आयु की महिला की शादी पर नकदी प्रदान की जाती है।

टीएमसी वर्षों से महिला मतदाताओं को उचित महत्त्व दे रही है। लेकिन सत्तारूढ़ दल के पास अब इनको लुभाने के लिए और ज़्यादा ध्यान देने की समय आ गया है; क्योंकि भारतीय जनता पार्टी महिला मतदाताओं को आकर्षित करने के लिए जी-तोड़ से लगी है। 2021 पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव में ममता बनर्जी की अखिल भारतीय तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) के महिला वोटरों में सेंध लगाने के लिए भगवा पार्टी बूथ स्तर की संगठनात्मक गतिविधियों की व्यवस्था कर रही है; जिसे ममता बनर्जी का महत्त्वपूर्ण आधार माना जाता है। भाजपा का महिला मोर्चा (महिला विंग) हर बूथ और मंडल में पदयात्राएँ आयोजित करता रहा है और युवा मोर्चा कार्यकर्ता साइकिल रैली और प्रभात फेरी (सुबह की रैलियाँ) आयोजित कर रहे हैं।

पार्टी हाईकमान ने हर बूथ और मण्डल समिति में कम-से-कम चार महिलाओं को शामिल करने का भी सुझाव दिया है। पार्टी ने राज्य को पाँच संगठनात्मक क्षेत्रों में विभाजित किया था, ताकि पार्टी में अधिक महिलाओं को काम करने में शामिल किया जा सके। पश्चिम बंगाल में पिछले कुछ वर्षों में भाजपा ने नाटकीय ढंग से अपना पैठ बनायी है। 2019 के लोकसभा चुनाव में बंगाल की 42 संसदीय सीटों में से 18 सीटों में जीत हासिल कर इतिहास बनाया। ज़मीन पर इसके प्रयास करके इसे हासिल किया; क्योंकि 2014 के आम चुनाव में उसे सिर्फ दो सीटें ही मिली थीं। टीएमसी को जहाँ 2014 में 34 सीटें मिलीं, वहीं 2019 में 22 से ही संतोष करना पड़ा। राज्य में भाजपा का वोट शेयर (आम चुनाव में) 2019 के आम चुनाव में 40.6 फीसदी हो गया। भगवा पार्टी का यह वोट शेयर टीएमसी के 43.6 फीसदी के करीब पहुँच गया।

देश के सियासी दल महिलाओं के समर्थन के लिए भरपूर मेहनत कर रहे हैं। इसकी वजह यह है कि अब चुनावों में महिलाएँ रिकॉर्ड मतदान कर रही हैं। इससे अब वो परम्परा टूट रही है, जिसमें यह कहा जाता था कि परिवार का मुखिया जो कहेगा वही होगा; यानी पितृसत्ता से मुक्ति मिल रही है। यही वजह है कि देश के मुख्य राजनीतिक दलों ने महिलाओं का समर्थन पाने के लिए वादों की लम्बी पेशकश की है, जिसमें यह भी गारंटी है कि संसद और राज्य विधानसभाओं के निचले सदन में 33 फीसदी सीटें महिलाओं के लिए आरक्षित की जाएँगी। अगर 2014 के मुकाबले 2019 में लोकसभा चुनाव के चार चरणों में कुल मिलाकर हुए मतदान को देखें, तो इससे यह और स्पष्ट हो जाता है। चुनाव आयोग द्वारा जारी किये गये चरण-वार आँकड़ों के अनुसार, कई राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में महिला मतदाताओं ने मतदान करने में पुरुषों को पछाड़ दिया है। अरुणाचल प्रदेश में पिछले चुनाव की तुलना में कुल चुनावी मतदान 77.38 फीसदी में 52.05 फीसदी मतदान का हिस्सा महिलाओं का ही था। मणिपुर, छत्तीसगढ़, मिजोरम, ओडिशा, लक्षद्वीप, आंध्र प्रदेश और उत्तराखण्ड में भी पुरुषों से ज़्यादा महिलाओं ने मतदान किया।

महिला मतदाताओं के महत्त्व को सन् 1960 के बाद से देखा जा सकता है। 1960 के दशक में प्रत्येक 1,000 पुरुष मतदाताओं की तुलना में 715 महिला मतदाता थीं। 2000 के दशक में हर 1000 पुरुष मतदाताओं की तुलना में  883 महिला वोटर हो गयीं। सन् 2014 के लोकसभा चुनावों में महिला मतदाताओं ने बिहार और ओडिशा के साथ कई राज्यों में पुरुष मतदाताओं को पछाड़ दिया। 1962 और 2018 के बीच पुरुषों के मतदान के विपरीत महिला मतदाताओं की संख्या में 27 फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि इस दौरान पुरुष वोटरों में महज 7 फीसदी की वृद्धि हुई। हाल ही के वर्षों में महिला मतदाताओं के हिस्सा लेने में बहुत अधिक वृद्धि हुई है और महिलाओं के मुद्दे अब चुनाव अभियानों में प्रमुखता से दिखते हैं। इसमें संदेह नहीं होना चाहिए कि पश्चिम बंगाल में लैंगिक समानता के मामले में मूलभूत धुरी के रूप में उभरा है। दरअसल महिला मतदाताओं को एक रुचि समूह या निर्वाचन क्षेत्र के रूप में अलग से लक्षित करना लोकतंत्र में एक नयी घटना है, जहाँ वोट माँगने के लिए अभी तक जाति, धर्म, क्षेत्र और जातीयता सियासी दलों के लिए अहम कारक रहे हैं।