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ज़िन्दगियाँ छीन लेने वाला धन्धा!

मोबाइल एप्लीकेशन (ऐप) से तुरन्त कर्ज़ का चलन ब्लू व्हेल जैसा ही है। यह भी उसकी तरह मौत का पर्याय बनने लगा है। ब्लू व्हेल में कोई टास्क दिया जाता था, जिसे पूरा करने के चक्कर में देश में कई मौतें हुईं। ऐसी भयावह मौतें, जिन्हें सुनकर या अहसास करने भर से रूह काँप उठती है। उस विदेशी मोबाइल ऐप के बाद अब चीन के कुछ मोबाइल ऐप फिर से जानलेवा साबित होने लगे हैं। इनमें किसी तरह का टास्क तो नहीं, बल्कि इंस्टेट लोन (हाथों-हाथ कर्ज़) देने का चक्कर है। एक बार जो इस कर्ज़ के चक्कर में फँस गया, उसका हश्र मौत या बर्बादी के रूप में होता है।

दरअसल एक हज़ार से 10 हज़ार रुपये का कर्ज़ लेने वाली कुछ कम्पनियाँ यह गोरखधन्धे में लगी हैं। कई लोग इनके चक्कर में आने के बाद लाखों रुपये के देनदार हो गये। फिर इन कम्पनियों के रिकवरी एजेंटों और कारिदों ने उनका समाज में जीना दुश्वार कर दिया। करीब एक साल से मोबाइल ऐप के ज़रिये तुरन्त कर्ज़ लेने का चलन जिस तेज़ी से बढ़ा है, वह बेहद खतरनाक है। केंद्र सरकार को तुरन्त प्रभाव से ठोस नतीजे वाली कार्रवाई करके उन लोगों को बेनकाब करना चाहिए, जो इस धन्धे में लगे हैं। फिर फास्ट ट्रेक अदालतों में इनके खिलाफ मामले चलाकर इन्हें कड़ा दण्ड दिलाने की व्यवस्था हो। क्योंकि यह एक तरह का साइबर क्राइम है, जो देश में जड़ें जमा रहा है। हैदराबाद, गुरुग्राम और बेंगलूरु में इन कम्पनियों के दफ्तर हैं। इन कम्पनियों के वसूली के दबाव और अपमान के कारण देश में अनेक लोग खुदकुशी कर चुके हैं। तेलंगाना के रंगारेड्डी ज़िले के सुनील नामक व्यक्ति ने एक मोबाइल ऐप से कुछ हज़ार का कर्ज़ लिया, लेकिन समय पर भुगतान नहीं कर सका। घोर सामाजिक अपमान के चलते उसने छ: माह के बेटे का गला दबाकर खुद फाँसी लगा ली। लॉकडाउन के दौरान सुनील की नौकरी नहीं रही। ज़रूरत के लिए उसने किसी ऐप से पैसा लिया; लेकिन तय समय में पैसा नहीं लौटा सका। अन्त में कम्पनी ने उसे इतना तंग और अपमानित किया कि उसे जान गँवानी पड़ी।

हैदराबाद की किरनी मोनिका ने एक ऐप से पाँच हज़ार का कर्ज़ लिया। समय पर भुगतान नहीं कर सकी, तो कम्पनी वालों ने उसका जीना हराम कर दिया। उसने दूसरे ऐप से कर्ज़ लेकर पहले वाला कर्ज़ चुकता किया। फिर तीसरे और चौथे ऐप से कर्ज़ लेती गयी और करीब 50 से ज़्यादा ऐप से उसने कर्ज़ लिया। नतीजतन पाँच हज़ार का कर्ज़ लाखों में पहुँच गया। अन्त में उसने ज़हर खाकर खुदकुशी कर ली। कृषि अधिकारी रही किरनी ने यह कर्ज़ अपने लिए नहीं, बल्कि किसानों की बीज-खाद की मदद वास्ते लिये।

हज़ारों करोड़ रुपये के लेन-देन के ऐसे गोरखधन्धे में चीन की कुछ कम्पनियाँ संलिप्त है। चार चीनी नागरिक गिरफ्तार भी हुए हैं। मोबाइल ऐप से तुरन्त कर्ज़ में लगी ज़्यादातर कम्पनियाँ रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों की ज़रा भी पालना नहीं कर रही। सैकड़ों ऐप गूगल के प्ले स्टोर पर है, जिन्हें वहाँ नहीं होना चाहिए। दस्तावेज़ों के आधार पर कोई कम्पनी कर्ज़ देती है, तो उसके लिए बाकायदा रिजर्व बैंक के दिशा निर्देश है। कम्पनी किस बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी के साथ सम्बद्ध है, इसका उल्लेख होना चाहिए। प्ले स्टोर के अलावा गूगल पर सैकड़ों कम्पनियाँ हैं, जिन्हें डाउनलोड किया जा सकता है।  तेलंगाना पुलिस ने 150 से ज़्यादा ऐसे मोबाइल ऐप की पहचान कर गूगल से इन्हें तुरन्त हटाने को कहा है। बहुत-से ऐप हटा भी लिये गये हैं। बावजूद इसके अब भी ऐसे ऐप बहुत हैं, जिन पर कार्रवाई करने की ज़रूरत है। प्रवर्तन निदेशालय और रिजर्व बैंक ने इस दिशा में कार्रवाई तो शुरू कर दी है, लेकिन करोड़ों का यह धन्धा अब भी चल रहा है। मोटे ब्याज वसूलने वाली कम्पनियाँ खूब चाँदी काट रही हैं, जबकि ज़रूरतमंद या अनजान लोग इनके चक्कर में बर्बाद हो रहे हैं।

एक सप्ताह से एक माह की राशि पर 30 से 40 फीसदी तक ब्याज वसूला जा रहा है। ब्याज की राशि कम्पनी पहले ही काट लेती है, फिर मूलधन के लिए इतने इतने तकाज़े करती है कि उपभोक्ता को कुछ समझ ही नहीं आता कि वह क्या करे और क्या नहीं? भुगतान की देय तिथि के बाद न केवल उपभोक्ता के, बल्कि उसके मोबाइल के कॉन्टेक्ट नम्बरों पर फोन कर अभद्र भाषा में बात की जाती है, बल्कि गालियाँ दी जाती हैं। कॉन्टेक्ट नंबर वाला जब तक माजरा समझे, तब तक उसका बहुत अपमान हो चुका होता है। उसके आधार कार्ड और पेन कार्ड का इस्तेमाल कर दूसरी कम्पनी से कर्ज़ भी ले लिया जाता है। फिर दूसरी कम्पनी वाले उससे अदायगी का तकाज़ा करने लगते हैं।

मोबाइल ऐप वाली कम्पनियाँ एक हज़ार से 50 हज़ार रुपये तक का कर्ज़ एक सप्ताह से एक महीने तक के लिए देती है। पाँच हज़ार रुपये का कर्ज़ लेने वाले के 1180 रुपये या कहीं-कहीं इससे ज़्यादा पहले ही काट लिये जाते हैं। उपभोक्ता के खाते में 3820 रुपये आये; लेकिन वसूली पाँच हज़ार रुपये की होगी। देय तिथि के अगले ही दिन कम्पनी वालों के फोन आने शुरू हो जाते हैं। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाएगा, सख्ती और दायरा बढ़ता चला जाता है। रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों के फोन आने शुरू हो जाते हैं। कर्ज़ की बात गोपनीय नहीं रह पाती। सोशल मीडिया पर बदनामी होने लगती है। मोबाइल ऐप से कर्ज़ लेना बहुत आसान है।

पाँच से सात मिनट में सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इसके लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों में आधार कार्ड और पेन कार्ड ज़रूरी होता है, इसके अलावा किसी की कोई गारंटी आदि की कोई ज़रूरत नहीं होती है, जबकि बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों में इतना आसान नहीं होता। कर्ज़ की जल्दी में उपभोक्ता कम्पनी की शर्तों को स्वीकार करता चला जाता है। सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद कम्पनी वालों के पास न केवल आधार और पेन कार्ड, बल्कि फोन के कॉन्टेक्ट नम्बर कब्ज़े में आ जाते हैं। अगर कम्पनी की सभी शर्तों का पालन न हो तो कर्ज़ मंज़ूर नहीं हो पायेगा, इसीलिए उपभोक्ता मानते चले जाते हैं। रोहन को किसी काम के लिए तीन हज़ार रुपये की ज़रूरत पड़ी, तो उसने तुरन्त मोबाइल ऐप की मदद ली। एक सप्ताह के बाद जब कम्पनी वालों ने भुगतान के लिए कहा, तो उसने दूसरे ऐप से कर्ज़ लेकर भुगतान कर दिया। फिर क्या था, वह इस चक्कर से निकल नहीं सका। उसकी राशि डेढ़ लाख रुपये से ज़्यादा की हो चुकी थी। पिता के पास रिकवरी एजेंट का फोन आया, तब कहीं जाकर पूरे माजरे का पता चला।

पिता ने किसी तरह पूरी कर्ज़ अदा करके रोहन को इस दुष्चक्र से निकाला। रोहन के मुताबिक, उसे कॉन्टेक्ट नंबर के हैक होने का पता नहीं था। कम्पनी किन शर्तों को मंज़ूर करा रही है? देखना ज़रूरी नहीं समझा। वह एक बड़ी मुसीबत से बाहर निकल गया है, भविष्य में न केवल खुद, बल्कि अन्य लोगों को भी मोबाइल ऐप से कर्ज़ न लेने को जागरूकता अभियान चला रहा है।

पुलिस, प्रवर्तन निदेशालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की कार्रवाई के बावजूद मोबाइल ऐप कम्पनियाँ धड़ल्ले से करोड़ों रुपये का कर्ज़ बाँट रही है और भुगतान न होने पर उपभोक्ता के गोपनीय दस्तावेज़ों को सार्वजनिक कर रही है। कर्ज़ वसूलने के लिए कम्पनी के कारिंदे सोशल मीडिया पर उपभोक्ता की फोटो डालकर डिफाल्टर या चोर साबित कर रहे हैं। उसके कॉन्टेक्ट नंबरों पर फोन करके न केवल अभद्रता से बात करते हैं, बल्कि गाली-गलौज करते हैं। बैंक खाता ब्लॉक करने और कानूनी कार्रवाई जैसी धमकी दे रहे हैं, जिसकी वजह से हज़ारों लोग बेहद मुश्किल में हैं।

केंद्रीय पोर्टल पर इनके खिलाफ शिकायत की जा सकती है, लेकिन कितने इस बारे में जानते हैं। एक हज़ार से पाँच हज़ार रुपये का एक सप्ताह का 15 दिन का कर्ज़ ऐसे लोग ले रहे हैं, जिन्हें 30 से 40 फीसदी ब्याज से ज़्यादा चिन्ता अचानक आया काम है। वह काम तो हो गया, लेकिन तय अवधि के बाद पैसा कहाँ से आयेगा? क्या इसकी भी कोई व्यवस्था है उनके पास?  बिना ज़्यादा औपचारिकता के तुरन्त कर्ज़ का यह व्यवस्था बेहद खतरनाक है। अगर कोई बहुत मुश्किल में है और काम ऐसा आ पड़ा, जिसमें तुरन्त पैसा चाहिए और कहीं से मिलने की कोई उम्मीद नहीं, तब तो बात अलग है। फिर भुगतान का प्रबन्ध भी होना चाहिए। एक कम्पनी का लोन उतारने के लिए दूसरी से लेना और फिर दूसरी का तीसरी से उतारने का चलन मौत के कुएँ जैसा ही है। गूगल को गहन जाँच के बाद ऐसे ऐप तुरन्त प्रभाव से प्ले स्टोर से हटाने की शुरुआत अपने आप कर देनी चाहिए। रिजर्व बैंक की सूची में सैकड़ों कम्पनियाँ पंजीकृत हैं, लेकिन इंटरनेट पर तो हज़ारों हैं; जिनका पंजीकरण तक नहीं है। झूठे दस्तावेज़ों के आधार पर वे गूगल प्ले स्टोर में कैसे आ गयीं? यह भी बड़ा सवाल है। पैसे की रिकवरी के लिए आठ से 10 हज़ार रुपये के कारिंदों को इंसेटिव मिलता है, जिसके लिए वे उपभोक्ता के साथ कुछ भी कर गुज़रते हैं।

मोबाइल ऐप के ज़रिये तुरन्त कर्ज़ की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। वरना देश के हर हिस्से से खुदकुशी की घटनाएँ होती रहेंगी और हज़ारों करोड़ रुपये के इस गोरखधन्धे को चलाने वालों को भी उनके अंजाम तक पहुँचाना होगा। हज़ारों करोड़ के इस धन्धे में आधार और पेन कार्ड जैसे ज़रूरी दस्तावेज़ इन कम्पनियों के पास है, जिनका वे दुरुपयोग कर रही है। कर्ज़ के लिए एग्रीमेंट ज़रूरी होता है, जो इन कम्पनियों के पास नहीं होता। प्ले स्टोर से हटने के बाद ये कम्पनियाँ लिंक से भुगतान माँग रही है और लोग अदा करने पर मजबूर है। इस दिशा में वृहद स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने और ठोस कार्रवाई को अंजाम देने की ज़रूरत है। इसकी पहल हो गयी है, लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है।

 फंडिंग की जाँच

उपभोक्ता से पैसे वसूलने के लिए हर हथकंडा अपनाने वाली इन कम्पनियों के खिलाफ यकीनी कार्रवाई होनी चाहिए। इस धन्धे में निजी और राष्ट्रीयकृत बैकों की भूमिका की भी जाँच होनी चाहिए। रिजर्व बैंक इस बाबत जाँच कर रही है कि कहीं इनकी साठगाँठ से तो यह धन्धा नहीं चल रहा। इन कम्पनियों को धन कौन मुहैया करा रहा है? इसका भी खुलासा होना चाहिए और उसकी जानकारी रिजर्व बैंक के पास होनी चाहिए। उपभोक्ता से गलत हथकंडें अपनाकर पैसा वसूल करने के आरोप बजाज फाइनेंस जैसी पंजीकृत और नामी कम्पनी पर भी ढाई करोड़ रुपये का ज़ुर्माना लगा है।

नागनाथ और साँपनाथ

इंटरनेट पर कर्ज़ देने वाले ऐप की भरमार है। ज़्यादातर कम्पनियाँ नागनाथ और साँपनाथ सरीखी हैं। मोटा ब्याज पहले वसूल कर बाकी रकम के लिए यह जो कुछ कर रहे हैं, वह डसने जैसा ही है। नौकरी बचाने के लिए ये लोग क्या-क्या कर रहे हैं? इन्हें पता ही नहीं चल पा रहा। रुपी लक्ष्मी, आई क्रेडिट, कैश ट्रेन, केश मामा, मेरा लोन, मंकी लोन, धनाधन लोन, हेयर फिश, रूपी टाइम, गो केश और रुपी लोन सरीखी सैकड़ों कम्पनियाँ हैं। ये सभी कम समय में आकर्षक ब्याज दरों पर कर्ज़ का दावा करती हैं; लेकिन कोई भी कसौटी पर खरी नहीं हैं। लोएबो नामक चीनी नागरिक को पुलिस ने दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार किया। वह देश में अपनी कम्पनियों के प्रमुख के तौर पर काम कर रहा था। तीन अन्य चीनी नागरिक भी अब पुलिस के कब्ज़े में है। इनके अलावा हमारे यहाँ की कम्पनियों के कई लोग गिरफ्त में है।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान के बावजूद घट रहा बच्चियों का अनुपात

बेटियों की संख्या कम होना समाज और देश के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए भी अच्छी खबर नहीं है। देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद बेटियों की संख्या कम हो रही है। इस खबर का स्रोत सोशल मीडिया नहीं, बल्कि सरकार की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर कराया गया सर्वे है। हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पाँचवाँ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के पहले चरण के आँकड़े जारी किये हैं। यह सर्वे पूरे देश में कराया जाता है, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण आयी दिक्कतों की वजह से इस बार यह पूरे देश में नहीं हो सका। अभी देश के 22 राज्यों व 5 केंद्र शासित राज्यों के आँकड़ें ही जारी किये गये हैं। बाकी राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में नवंबर 2020 से काम शुरू हुआ और उम्मीद है कि मई, 2021 तक यह सर्वे पूरा हो जाएगा। जिन राज्यों में यह सर्वे हुआ, उनमें बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलगांना, केरल, मेघालय, नागालेंड, असम, सिक्किम, कर्नाटक, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, अंडमान निकोबार, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख एवं लक्षद्वीप हैं। सर्वे के आँकड़ों में एक सेक्शन बाल लिंगानुपात का भी है और चिन्ता की बात यह है कि आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात पिछले चार साल की अवधि में घटा है। यानी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के दरमियान लड़के-लड़कियों के अनुपात में सुधार होने की बजाय गिरावट दर्ज की गयी है। बता दें कि शून्य से 6 वर्ष के बीच की उम्र में प्रति एक हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या को बाल लिंगानुपात कहा जाता है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में बाल लिंगानुपात 927 था, जो कि 2011 जनगणना में घटकर 919 हो गया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के पहले चरण में शामिल जिन आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी है, उनमें केरल, बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल, मेघालय, गोवा, नागलैंड व दादर व नागर हवेली हैं। केरल राज्य का नाम लेते ही एक आदर्श राज्य की तस्वीर खुद-ब-खुद सामने आ जाती है। इसकी वजह यह है कि यह राज्य मानव सूचकांक में देश के बाकी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करता रहा है। केरल में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों के मुताबिक, वहाँ 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 1,047 थीं। बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में केरल ने उस समय सराहनीय प्रदर्शन किया था, लेकिन हाल ही में जारी सर्वे-5 के आँकड़ें बताते हैं कि यह संख्या अब 951 रह गयी है। यानी 96 अंक का नुकसान हुआ है। सबसे अधिक गिरावट दादर व नागर हवेली में दर्ज की गयी है। यह गिरावट 166 अंक की है। 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, वहाँ प्रति 1000 लड़कों पर 983 लड़कियाँ थीं। लेकिन 2019-2020 में यह संख्या घटकर 817 रह गयी है। गोवा, पर्यटन के लिए दुनिया भर में मशहूर राज्य से भी बाल लिंगानुपात की खबर सुखद नहीं है। यहाँ 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 966 था, चार साल बाद यह घटकर 1000 / 838 रह गया है। यानी 128 अंक की गिरावट। हिमाचल भी पर्यटन के लिए जाना जाता है, सैलानी गर्मी और सर्दी, दोनों मौसम में यहाँ जाते हैं। इस राज्य की साक्षरता दर भी अच्छी है; लेकिन बाल लिंगानुपात में सुधार करने की बजाय यहाँ भी स्थिति बिगड़ी है। 2015-16 में बाल लिंगापुपात 1000 / 937 था, जो कि चार साल में गिरकर 1000 / 875 रह गया है। यानी यहाँ 62 अंक की कमी दर्ज की गयी है। बिहार में भी अनुपात में 20 अंक की कमी आयी है। 2015-16 सर्वे-4 के अनुसार, लड़कियों की संख्या 1000 लड़कों पर 934 थी, जो  2019-2020 में गिरकर 1000 पर 908 रह गयी है। मेघालय जो कि सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में बेहतर राज्य था, वहाँ पहले बाल लिंगानुपात 1000 / 1,009 था, जो अब घटकर 1000 / 989 हो गया है। महाराष्ट्र में 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 924 था, जो 2019-2020 में गिरकर 1000 / 913 पर आ गया है। वैसे महाराष्ट्र में जहाँ 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात में सुधार हुआ था। लेकिन अब 1000 लड़कों पर 11 लड़कियों की कमी हुई है। वहाँ इस मुद्दे पर काम करने वाली समाजसेविका वर्षा देशपांडे की कहना है कि इसका कारण सरकार द्वारा अब प्राथमिकता पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम का पालन नहीं कराना है। नागलैंड में भी बाल लिंगानुपात में 8 अंक की कमी आयी है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों से खुलासा हुआ था कि बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में पंजाब पहले नंबर पर था। उसके बाद केरल ने अच्छा प्रदर्शन किया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 (2005-06) में केरल में बाल लिंगानुपात 925 था, जो कि सर्वे-4 के अनुसार, 1047 पर पहुँच गया था। इसी तरह मेघालय ने बाल लिंगानुपात में 102 अंक और महाराष्ट्र ने 57 अंक का सुधार किया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि सर्वे-4 में जिन शीर्ष छ: राज्यों पंजाब, केरल, मेघालय, हरियाणा, तमिलनाडु व महाराष्ट्र ने बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन किया था, उनमें से तीन राज्यों केरल, मेघालय व महाराष्ट्र में इस बार गिरावट दर्ज की गयी है। यह देश के लिए हैरान कर देने वाली नहीं, बल्कि शर्मनाक खबर है। क्योंकि भारत ऐसा देश है, जिसके राजनेता इसे विश्व में महाशक्ति बनने की बात करते हैं। यहाँ पर प्रधानमंत्री की बेटी बचाओ बेटी, पढ़ाओ योजना पर भी सवाल उठते हैं। गौरतलब है कि देश में बाल लिंगानुपात में गिरावट वाले गम्भीर मुददे को हल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुभारम्भ किया था। इस महत्त्वाकांक्षी योजना का मकसद समाज की बेटियों के प्रति भेदभाव वाली मानसिकता में बदलाव लाना और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना है। यह महत्त्वाकांक्षी योजना त्रिस्तरीय प्रयास है। देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने और उन्हें सशक्त करने के लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) मिलकर इस दिशा में प्रयास करते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना शुरू में देश के उन 100 ज़िलों में लॉन्च की गयी, जहाँ बाल लिंगानुपात बहुत ही खराब था। फिर धीरे-धीरे इसका विस्तार करके इसे देश के सभी 640 ज़िलों में लागू कर दिया गया है। अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बेटी पढ़ाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात क्यों गड़बड़ाया? जबकि ये आँकड़े सरकार की ओर से ही कराये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के हैं। क्या मंत्री, आला अधिकारी इसका खुलासा करेंगे कि इन राज्यों में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का क्या हुआ?

यहाँ पर प्रसंगवश इसका उल्लेख करना संगत लग रहा है कि वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट भाषण में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की भरपूर प्रंशसा करते हुए लड़कियों के स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन के आँकड़ें बहुत गर्व के साथ देश के सामने रखे थे। निर्मला सीतारमण ने बताया था कि देश में लड़कियों की शिक्षा तक लड़कों के समान ही पहुँच के मौके बढ़ाने के वास्ते 5,930 आवासीय कस्तूरबा गाँधी स्कूल खोलने का फैसला लिया गया है। इसी तरह विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग आदि में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के मकसद से देश के शीर्ष संस्थान आईआईटी, एनआईटी आदि में विशेष इंतज़ाम किये गये हैं। परिणामस्वरूप एनआईटी संस्थानों में 2017-18 आकदिमक वर्ष में लड़कियों की संख्या 14 फीसदी थी और 2019-2020 में यह संख्या बढ़कर 17.53 फीसदी तक पहुँच गयी। आईआईटी में बी.टेक कोर्सेस में 2016 में लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात 8 फीसदी था, जो कि 2019-2020 में 18 फीसदी हो गया। याद दिला दें कि प्रधानमंत्री ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना सम्बन्धित एक कार्यक्रम में कहा था कि बेटियाँ बोझ नहीं होती, बल्कि परिवार को उन पर गर्व करना चाहिए। बेटी संग सेल्फी का ज़िक्र भी नरेंद्र मोदी ने किया था और लोगों को बेटियों के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए प्रोत्साहित भी किया था। मगर 2015 से लागू यह योजना कितनी कारगर है? इसका जवाब आठ राज्यों के बाल लिंगानुपात  के आँकड़े आने पर मिल गया है।

दरअसल इस योजना के तहत देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के लिए पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 का कड़ाई से पालन करवाना भी शामिल है। गौरतलब है कि इस अधिनियम के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जाँच पर प्रतिबन्ध है। ऐसे में अल्ट्रासांउड या अल्ट्रासोनोग्रॉफी कराने वाले जोड़े, व्यक्ति, जाँच करने वाले डॉक्टर, लैब कर्मियों आदि को जेल और भारी आर्थिक दण्ड की सज़ा का प्रावधान है। क्या इस कानून का कड़ाई से पालन हो रहा है? तत्कालीन महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने अप्रैल 2015 में इस कानून को बेअसर बताते हुए बाल लिंग की जाँच को वैध यानी कानूनी जामा पहनाने की वकालत कर डाली थी। उन्होंने कहा था कि बीते 20 वर्षों में यह कानून असफल रहा है। बाल लिंग जाँच को कानूनी रूप दिया जाना चाहिए। माता-पिता गर्भ में पल रहे अपने शिशु का लिंग जान लें और फिर सरकारी एंजेसियाँ उनके इस अजन्मे शिशु के विकास को ट्रैक करें। इस बयान की खूब आलोचना हुई। बाद में मेनका गाँधी ने सफाई दी कि यह उनकी निजी राय है, न कि इसका ताल्लुक पॉलिसी स्टेटमेंट से है। लैंगिक बराबरी और बाल लिंगानुपात में सुधार के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों ने मेनका गाँधी की इस मुद्दे पर घेरेबंदी करते हुए उन्हें सलाह दी कि देश भर में 50,000 पंजीकृत अल्ट्रासांउड मशीन हैं, उनकी निगरानी करना आसान है; न कि लाखों गर्भवती महिलाओं का पीछा करना। गर्भवती महिलाओं की पीछा करना उनकी निजी ज़िन्दगी में दखल देना है। दरअसल बाल लिंगानुपात में गिरावट तक ही संकुचित रह जाने वाला मसला नहीं है, इसके किसी भी समाज, देश, दुनिया के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। इतिहास इसका गवाह है।

खतरे में है आपकी निजता?

यदि आप सोशल मीडिया पर हैं, तो आपकी निजता यानी निजी और गोपनीय जानकारी अब खतरे में पड़ चुकी है। ऐसी कुछ खबरें हाल ही में पॉपुलर इंस्टेंट मैसेजिंग ऐप यानी व्हाट्स ऐप उपयोक्ता (उपभोक्ता) के बीच चल रही हैं। कहा जा रहा है कि ऐसा व्हाट्स ऐप की एक ऐसी नयी गोपनीय नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) में कहा गया है।

दरअसल एक और बात सामने आयी कि व्हाट्स ऐप ग्रुप ने अपनी गोपनीयता नीति और नियमों में बदलाव करके अपने उपयोक्ताओं को 4 जनवरी, 2021 को एक मैसेज भेजना शुरू किया कि व्हाट्स ऐप अपनी अभिभावक कम्पनी फेसबुक से सम्बद्ध पाँच कम्पनियों को व्हाट्स ऐप इस्तेमाल करने वालों का डेटा उपलब्ध करायेगा। जो उपभोक्ता इन सेवा-शर्तों पर 8 फरवरी तक अपनी सहमति नहीं देंगे, उनकी व्हाट्स ऐप सेवाएँ से बन्द कर दी जाएँगी। इससे बाद हँगामा मच गया। व्हाट्स ऐप के उपयोक्ता इस नयी पॉलिसी का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं, लेकिन कम्पनी इससे सरोकार नहीं रख रही है, जिससे लोग व्हाट्स ऐप की गोपनियता पर सवाल उठा रहे हैं।

दरअसल, पहले भी इस तरह की कोशिशें हुई हैं और गूगल ने एक बार फिर से निजी व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट के इनवाइट लिंक इंडेक्स किये हैं, जिसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति साधारण सर्च और छोटी-सी कोशिश करने पर विभिन्न निजी चैट ग्रुप में शामिल हो सकता है। हालाँकि इस बात के सार्वजनिक होने से व्हाट्स ऐप कम्पनी के मालिकों को थोड़ी घबराहट भी हुई है। उसने प्राइवेट ग्रुप चैट लिंक पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए गूगल से कहा है कि उसे ऐसी चैट को सार्वजनिक न करने को पहले ही कहा था। उसने अपनी सफाई में यह भी कहा है कि उसने अपने उपयोक्ताओं को सार्वजनिक रूप से सुलभ वेबसाइट्स पर ग्रुप चैट लिंक साझा न करने की सलाह दी है। इसके बाद इंडेक्स व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट लिंक को अब गूगल से हटा दिया गया है। बता दें कि हाल ही में ऐसी खबरें सामने आयी हैं कि व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट इनवाइट ग्रुप को इंडेक्स करके वेब पर कई प्राइवेट ग्रुप की जानकारियाँ उपलब्ध करा रहा था। आरोप है कि व्हाट्स ऐप अपने शुरुआती नियमों और शर्तों से ही मुकरता दिखायी दे रहा है। किसी लिंक को गूगल पर सर्च करके कोई भी, खासतौर पर साइबर अपराधी एक्सेस करके किसी की प्रोफाइल का दुरुपयोग कर सकते हैं। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली, जब गूगल पर व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट इनवाइट के इंडेक्स का स्क्रीनशॉट स्वतंत्र साइबर सुरक्षा रिसर्चर राजशेखर राजाहरिया ने आईएएनएस के साथ साझा किया।

हालाँकि यह पहली बार नहीं है कि व्हाट्स ऐप उपयोगकर्ता का निजी ग्रुप चैट गूगल पर दिखा हो। इससे पहले ऐसा ही दावा अतुल जयराम ने पिछले साल एक बग रिपोर्ट किया था। उस समय गूगल के इनडेक्स पर व्हाट्स ऐप उपयोगकर्ता के फोन नंबर और प्रोफाइल फोटो तक लीक हो गये थे। व्हाट्स ऐप ने अपनी बदली हुई गोपनीयता नीति में कहा है कि वह अपने उपयोगकर्ता का डाटा फेसबुक और उसकी सहयोगी कम्पनियों के साथ शेयर करेगा। दिक्कत और डर की बात यह है कि व्हाट्स ऐप अपने उपयोगकर्ता का जो डाटा शेयर करेगा, उसमें उपयोगकर्ता के अकाउंट की जानकारी, डिवाइस की जानकारी, आईपी नंबर, उपयोगकर्ता की लोकेशन और किये तथा लिये गये भुगतान जैसी गोपनीय जानकारियाँ सार्वजनिक हो जाएँगी या किसी के भी हाथ आसानी से लग जाएँगी। हालाँकि कुछ जानकारों का कहना है कि इससे निजता को खतरा नहीं है। वहीं व्हाट्स ऐप भी अपनी सफाई में विज्ञापन जारी कर रहा है।

चीन के निशाने पर भारतीय

ऐसी खबरें कई बार सामने आयी हैं कि चीन के द्वारा भारतीयों के डाटा का दुरुपयोग किया जाता है। चीन पर पहले कई बार भारतीयों के डाटा चोरी के मौखिक आरोप लग चुके हैं, यहाँ तक कि भारतीयों के बैंक अकाउंट में सेंध लगाने तक के चीन पर आरोप लग चुके हैं। हालाँकि चीन हर बार आरोपों को नकारता रहा है। लेकिन उस पर भरोसा करना भी एक तरह की नादानी ही होगी। विदित हो कि कुछ भारतीयों के बैंक अकाउंट में से व्हाट्स ऐप ने पिछले साल मार्च, 2020 में सेंध सम्बन्धी समस्या को ठीक कर दिया था।

क्या न्याय पालिका की अवहेलना कर रहीं सोशल साइट्स

बता दें कि सन् 2016 में भी व्हाटसऐप एक नयी नीति लेकर आया था, जिसमें कहा गया था कि कम्पनी यानी व्हाट्स ऐप ग्रुप अपने उपयोगकर्ता के डाटा का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक फायदे के लिए कर सकता है। व्हाट्स ऐप की इस नयी नीति के खिलाफ श्रेया शेठी और कर्मण्य सिंह सरीन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ताओं की माँग थी कि व्हाट्स ऐप ग्रुप अपनी नयी गोपनीय नीति में बदलाव करे, जिससे उपयोगकर्ता के डाटा का दुरुपयोग न हो। याचिकाकर्ताओं की इस याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद वे सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार करके व्हाट्स ऐप और फेसबुक, दोनों को नोटिस भेजकर उनसे गोपनीय नीति को लेकर जवाब माँगा। सर्वोच्च न्यायालय ने निजता को लोगों का मौलिक अधिकार बताया और कहा कि हमारा संविधान देश के हर नागरिक को निजता का अधिकार देता है, चाहे वह गरीब हो या अमीर। अप्रैल, 2017 में इस मामले की सुनवाई पाँच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंपी गयी। इस बेंच ने सोशल मीडिया पर से उपयोगकर्ता की निजी जानकारी सार्वजनिक करने को लेकर फेसबुक और व्हाट्स ऐप को कड़ी फटकार लगायी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्राइवेसी के एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि फेसबुक, व्हाट्स ऐप अपने उपभोक्ताओं का डाटा किसी भी हाल में किसी तीसरे के हाथ में नहीं दे सकते। इस फैसले के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों कम्पनियों से चार हफ्ते के भीतर एक हलफनामा दायर करने को भी कहा था।

दोबारा सन् 2019 में सोशल मीडिया द्वारा उपयोगकर्ता के डाटा के दुरुपयोग पर सख्त नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फिर कहा कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग खतरनाक हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने साइबर अपराध की श्रेणी में आने वाले संदेशों को ईज़ाद करने वालों का पता लगाने में कुछ सोशल मीडिया मंचों की असमर्थता पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि अब इसमें सरकार को दखल देना चाहिए। समय आ गया है कि केंद्र सरकार इसमें दखल दे। न्यायालय ने केंद्र सरकार से ऐसे मामलों से निपटने के लिए सख्त दिशा-निर्देश बनाने की बात भी कही और तीन हफ्ते के भीतर वह समय-सीमा बताने के लिए कहा, जिसमें सोशल मीडिया पर किसी की प्राइवेसी का दुरुपयोग रोकने के दिशा-निर्देश तैयार किये जा सकें। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी व्यक्ति की निजता का संरक्षण करना सरकार की ही ज़िम्मेदारी है।

सरकार खामोश क्यों

इन दिनों पूरी दुनिया में निजी डाटा सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी हुई है। कई देशों की सरकारें बड़े-बड़े सोशल मीडिया ग्रुप्स को अपने नागरिकों की डाटा सुरक्षा को लेकर चेतावनी दे चुके हैं। लेकिन भारत सरकार की ओर से सोशल मीडिया पर उपयोगकर्ता की निजता के दुरुपयोग पर कोई खास प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आयी है। सवाल यह है कि सरकार इतने बड़े मामले पर खामोश क्यों है? जैसा कि पहले भी कई बार ऐसी खबरें सामने आयी हैं कि सोशल मीडिया के ज़रिये उपयोगकर्ता की निजी जानकारी लीक हो रही है; लेकिन कभी भी इस पर सरकार की ओर से कोई ऐसी रोक नहीं लगी, जिससे कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सोशल साइट्स चलाने वाली कम्पनियों को कानूनी सज़ा या प्रतिबन्ध का डर बैठा हो। बता दें कि सोशल मीडिया की साइट्स चलाने वाली कम्पनियाँ अपने ग्रुप्स के ज़रिये मोटी कमायी करती हैं और उपयोगकर्ता के दम पर ही उन्हें यह कमायी होती है। आपको यह भी हैरानी होगी कि व्हाट्स ऐप और दूसरी सोशल साइट्स पर दुनिया के कई देशों में प्रतिबन्ध है। लेकिन भारत एक ऐसा देश बन चुका है, जहाँ किसी भी सोशल साइट को चलाने की आसानी से इजाज़त मिल जाती है, जिसके चलते यहाँ साइबर क्राइम भी खूब होता है।

धोखे में न रहें सोशल साइट्स

सोशल मीडिया के उपयोगकर्ता की निजता लीक होने का खतरा कोई नयी बात नहीं है। हालाँकि यह गलत और गैर-कानूनी है। लेकिन ऐसा तबसे ही होता रहा है, जबसे इंटरनेट का लोगों ने इस्तेमाल शुरू किया है। लेकिन आज की सभी सोशल साइट्स पर इसकी सम्भावनाएँ और बढ़ गयी हैं। लेकिन फिर भी सोशल मीडिया साइट्स को इस धोखे में नहीं रहना चाहिए कि ऐसा करके उनकी साख बची रह जाएगी। पहले भी व्हाट्स ऐप की तरह उपयोगकर्ता की निजता में सेंध लगाने की कोशिश करने वाली कई साइट्स का आज नाम-ओ-निशान तक नहीं है। अगर आज भी व्हाट्स ऐप या फेसबुक या दूसरी सोशल साइट्स इस तरह की हरकत करेंगी, तो उनका भी अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

व्हाट्स ऐप पर कैसे रहें सुरक्षित

हालाँकि सोशल साइट्स पर निजता की सुरक्षा की गारंटी तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक सोशल साइट्स खुद इसके लिए करार न कर दें। लेकिन फिर भी कुछ उपायों से आप खुद को काफी हद तक सुरक्षित कर सकते हैं। व्हाट्स ऐप पर भी ऐसी ही सावधानियों और अकाउंट मैनेज की कोशिशों से आपको सुरक्षा मिल सकती है। आपकी और आपके मैसेज, फोटो तथा अन्य जानकारी की सुरक्षा के लिए सबसे ज़रूरी कि आपको उन टूल्स और फीचर्स के बारे में जानकारी हो, जिनसे आप सुरक्षित और असुरक्षित हो सकते हैं। पहले तो यह कि जब आप कोई भी ऐप डाउनलोड करें, तो उस ऐप के नियमों और शर्तों को ज़रूर पढ़ लें और यह सुनिश्चित कर लें कि आप उसके नियमों और शर्तों से सन्तुष्ट हैं। हर एक शर्त को आँख बन्द करके यानी बिना पढ़े एलाउ यानी स्वीकृत करते न चलें। अगर ऐसी कोई भी जानकारी अपने किसी साथी, दोस्त या परिचित के साथ सोशल मीडिया पर शेयर न करें, जो अत्यधिक गोपनीय हो। आप उन्हें ऐसी जानकारियाँ ईमेल के ज़रिये भी भेज सकते हैं। व्हाट्स ऐप की सेवा की शर्तों में साफ-साफ बताया गया है कि व्हाट्स ऐप पर क्या करना मना है। जैसे कि व्हाट्स ऐप पर अवैध, अश्लील, धमकी, मानहानि, परेशान करने और नफरत फैलाने वाले सन्देश, नस्ल या जाति के लिए आक्रामक रुख या गैर-कानूनी या अनुचित आचरण करने या करने के लिए दूसरों को उकसाने या प्रोत्साहित करने वाले कंटेंट (स्टेटस, प्रोफाइल फोटो या मैसेज) भेजना / शेयर करना गलत है। व्हाट्स ऐप ने पहले ही कह दिया है कि ऐसा उसकी सेवा की शर्तों का उल्लंघन है। दूसरा व्हाट्स ऐप आपको कुछ ऐसे कंट्रोल टूल्स देता है, जिनका इस्तेमाल करके आप खुद को थोड़ा सुरक्षित रख सकते हैं। जैसे आप अपने अकाउंट की डिटेल को जिसे न दिखाना चाहें, उससे छिपा सकते हैं। ध्यान दें कि आप जिन लोगों या ग्रुप्स से व्हाट्स ऐप पर बात नहीं करना चाहते, आप उन्हें सीधे ब्लॉक भी कर सकते हैं। इतने पर भी आपकी प्राइवेसी कोई जाँच या चुरा रहा है, तो आप व्हाट्स ऐप को रिपोर्ट कर सकते हैं।

ठप हो रहे बाँस उद्योग को बढ़ावा देने की ज़रूरत

पहले के दौर में चीनी मिट्टी, काँच और शीशे की बोट (बड़ी-बड़ी बोतलें और जार) हुआ करते थे, तो वहीं खाने-पीने की सूखी चीज़ें और रोटियाँ आदि रखने के लिए डलियाँ, पल्ले आदि होते थे। इसी तरह बाँस से लोकप्रिय वाद्ययंत्र बांसुरी और बच्चों के खिलौनों तथा बाजा (एक तरह की सीटी) के अलावा बहुत तरह का सामान घरेलू उपयोग के लिए भी बनाया जाता था। इसमें फर्नीचर से लेकर रसोईघर में इस्तेमाल तक का सामान शामिल होता था।

पहले के कच्चे घरों में घरों की छत से लेकर छप्परों में मज़बूती और टट्टी (एक प्रकार का बाँस का दरवाज़ा) तक बाँस से ही बनते थे। आज भी गाँवों में बहुतायत में बाँस की बनी चीज़ें, जैसे चारपाइयाँ, सीढिय़ाँ, कुर्सियाँ आदि मिल जाती हैं। गाँवों में ही क्यों शहरों में बड़े-बड़े घरों और फाइव स्टार होटलों से लेकर रेस्तरां तथा रिसोर्ट तक का साज-ओ-सामान और फर्नीचर तक बाँसों का बना होता है। सड़क किनारे बने बहुत-से ढाबों में भी बाँस से बनी चारपाइयाँ और मेज-कुर्सियाँ आदि बाँस से बनी हुई मिल जाती हैं। हिन्दू धर्म में बाँस की बनी टिकटी पर भी शव को श्मशान तक ले जाने की प्रथा आज भी बनी हुई है। यह इस वजह से भी है, क्योंकि बाँस हल्का, प्रदूषण न फैलाने वाला (न जलाने पर) और टिकाऊ होता है। यह एक ऐसी खोखली लकड़ी होती है, जिसकी पतली-से-पतली खरपच्ची भी लोचदार और मज़बूत होती है। पहले दीपावली पर बाँस की खरपच्चियों से ही कंदील बनाया जाता था, जिसका चलन आज भी बहुत-से गाँवों में है। कहना न होगा कि आज दुनिया भर में बाँसों से बने सामान की बहुत माँग है। लेकिन बाँस उद्योग को उतना बढ़ावा नहीं मिल सका है, जितना कि उसे मिलना चाहिए।

आज दुनिया भर में लोग प्लास्टिक के सामान का बहुतायत में इस्तेमाल करते हैं। हर घर में, चाहे वह कितने भी रईस घर की बात हो; कुछ-न-कुछ प्लास्टिक का सामान ज़रूर रहती है। हालाँकि प्लास्टिक मनुष्य के साथ-साथ वातावरण के लिए कितनी घातक है, यह बात आज अधिकतर लोग जानते हैं। वैज्ञानिक प्लास्टिक से बढ़ते नुकसान के प्रति समय-समय पर चेताते रहते हैं, लेकिन प्लास्टिक हम सबके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, जिसके जीवन से प्लास्टिक दूर हो। ऐसे में प्लास्टिक से छुटकारा पाना तो मुश्किल है, लेकिन बाँस आदि की तरह दूसरी प्राकृतिक चीज़ों के इस्तेमाल से हम प्लास्टिक के सामान के उपयोग को काफी हद तक कम कर सकते हैं। अगर बाँस से बने सामान की बात करें, तो इसके कम इस्तेमाल की कई वजहें हैं। पहली यह कि बाँस से बनी चीज़ें हर जगह इस्तेमाल नहीं हो सकतीं।

दूसरे शब्दों में कहें तो बाँसों से हर वो चीज़ नहीं बनायी जा सकती, जिसका उपयोग हर तरह से किया जा सके। दूसरी वजह यह है कि बाँस का सामान प्लास्टिक से काफी महँगा होता है। ऐसे में हर आदमी उसे नहीं खरीद सकता और तीसरी वजह यह है कि बाँस सीमित मात्रा में उपलब्ध होते हैं। लेकिन फिर भी बाँस से बने कई सामान बाज़ार में उपलब्ध रहते हैं। आजकल बाँस का सामान घर में फैंसी सजावट का हिस्सा बन चुका है। अब तो बाँस के कुछ बर्तन आदि भी बनने लगे हैं।

बहुउपयोगी है बाँस

बाँस एक ऐसी वनस्पतीय पेड़ है, जिसके सैकड़ों उपयोग हैं। अगर बाँसों से बनी चीज़ों और दूसरे उपयोगों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि यह करीब डेढ़ हज़ार तरह की चीज़ों में उपयोग किया जाने वाला बहुउपयोगी पेड़ है। बाँस का उपयोग वाद्य यंत्र और खाद्य पदार्थों से लेकर, फर्नीचर और भवन निर्माण से लेकर सजावट और किचिन में उपयोग की चीज़ों तक में काम आता है। आज बाँस से बनी हस्ताशिल्प वस्तुओं की दुनिया भर में बहुत माँग है। बाँस एक ऐसा पेड़ है, जो हल्का मज़बूत और टिकाऊ होता है। बाँस की लाठियाँ आज भी सर्वाधिक चलन में हैं। बाँस की लकड़ी के अलावा इसके पत्ते भी बहुत ही उपयोगी होते हैं। पत्तों और बाँस के अवशेष की लुगदी से कागज़ से लेकर बोतलें, प्लेट, कप, और किचिन का अन्य उपयोग सामान बनता है, जो काफी मज़बूत होता है। इसके अलावा बाँस का रेशा भी बनता है, जिसके थैले, दूसरे रेशेदार तथा मज़बूत बुनावटी चीज़ें बनायी जाती हैं।

बाँस उद्योग के प्रति निराशा क्यों

बाँसों के सबसे ज़्यादा तकरीबन 80 फीसदी जंगल एशिया में ही पाये जाते हैं। भारत इनमें अग्रणी श्रेणी में आता है और बाँसों की पैदावार के मामले में पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर है। भारत, चीन और म्यांमार करीब 1.98 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँसों के जंगल फैले हैं। भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में बाँसों का वार्षिक उत्पादन तकरीबन 32.3 करोड़ टन है। यहाँ 1.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँस पैदा होता है। यहाँ बाँस की 136 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। लेकिन इस पर खुश होने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि दुनिया का एक बड़ा बाँस पैदावार क्षेत्र हमारे देश में होने के बावजूद हम केवल बाँस का चार फीसदी व्यापार ही कर पाते हैं, जो कि बाँस की कम पैदावार वाले कई देशों से काफी कम है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत में बने बाँस के सामान का निर्यात महज़ 0.11 करोड़ रुपये ही था, जो कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में बढ़कर महज़ 0.32 करोड़ रुपये ही हो सका। जबकि सरकार अगर चाहे, तो इस क्षेत्र को बढ़ावा देकर इसके निर्यात को बढ़ावा देकर कई लाख करोड़ का व्यापार कर सकती है। बाँस उद्योग के प्रति लोगों की उदासीनता की वजह पता करने के लिए जब हमने इस उद्योग से जुड़े उत्तर प्रदेश के धौरांडाटा निवासी कल्लू मास्टर से बातचीत की, तो कुछ समस्याएँ निकलकर सामने आयीं। कल्लू मास्टर ने बताया कि करीब 10-12 साल पहले उन्होंने बाँस उद्योग शुरू किया था। उस समय वे कुर्सियाँ, मेजें और अन्य सामान बनाकर बड़े बाज़ारों में उसे बेचा करते थे; लेकिन काफी मेहनत के बावजूद उन्हें उतनी आमदनी नहीं होती थी, जितनी कि होनी चाहिए। न ही समय पर उनके सामान का पैसा मिल पाता था। इन परेशानियों के चलते वे अपने कारीगरों को सही मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण कारीगर मन लगाकर काम नहीं कर पाते थे। इसके अलावा बाँस से बना सामान हर जगह बिकता भी नहीं था। न ही बाज़ार में बहुत अच्छा दाम उन्हें मिल पाता था। उन्होंने बताया कि हस्तशिल्प वाले जिस कुर्सी को उनसे महज़ ढाई-तीन सौ में खरीदते थे, वही कुर्सी वे एक से डेढ़ हज़ार में उस समय बेचते थे। इन्हीं सब कारणों के चलते उन्हें यह काम बन्द करके खुद भी नौकरी करनी पड़ी। कल्लू मास्टर बताते हैं कि इस उद्योग में मेहनत करने वाले कारीगरों को ठीक से पैसा नहीं मिल पाता इसलिए यह उद्योग ग्रामीण इलाकों में बहुत अच्छा नहीं चल सका। अगर इस उद्योग में काम करने वालों को सही दाम मिलें, तो यह उद्योग गाँवों में आज भी खूब फल-फूल सकता है।

सरकार ने क्या किया

हमारे देश में बाँसों के जंगल तेज़ी से घट रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके यहाँ बाँस आज भी बहुतायत में पाये जाते हैं। बाँस उत्तर भारत में बहुत अधिक होता है। बड़ी बात यह है कि एक बाँस से धीरे-धीरे बाँसों का झुण्ड हो जाता है। अब तो इसकी पूर्ति के लिए बाँसों की खेती भी भारत में की जा रही है। हालाँकि जिस हिसाब से देश में बाँस उद्योग को रफ्तार मिलनी चाहिए, उस हिसाब से यह बढ़ा नहीं। बाँसों से बना सामान भी कुछेक जगहों पर ही उपलब्ध हो पाता है। हालाँकि केंद्र सरकार ने इस उद्योग को हमेशा बढ़ावा दिया है। उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार भी फिलहाल स्वदेशी सामानों के उत्पादन पर विशेष ज़ोर दे रही है; ताकि लोगों को स्वरोज़गार के अवसर प्राप्त हो सकें और वे आत्मनिर्भर बन सकें। बता दें कि भारतीय वन अधिनियम-1927 में बाँस को वृक्ष की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन सन् 2018 में मोदी सरकार ने बाँस को पेड़ की कैटेगरी से हटाकर इसे खेती में शामिल कर दिया था, ताकि किसान इसकी खेती कर सकें। इसके लिए राष्ट्रीय बैंबू मिशन के तहत तकनीकी सहायता देने के लिए बैंबू टेक्निकल सपोर्ट ग्रुप (बीटीएसजी) का भी गठन किया जा चुका है। हालाँकि मोदी सरकार ने बाँस के आयात पर सीमा शुल्क 10 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया है। लेकिन इसका फायदा यह भी है कि बाहरी बाँस महँगा पडऩे के चलते यहाँ बाँस की खेती को बढ़ावा मिल सकेगा। देश में बाँस की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सन् 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस विभाग को स्वीकृति दी थी, ताकि बाँसों के पौधारोपण की सामग्री से लेकर बागबानी, संग्रह सुविधा, समेकन, प्रसंस्करण, विपणन, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमों, कौशल विकास और ब्रांड कायम करने जैसी पहलों को बढ़ावा मिल सके। इसके अलावा खादी ग्रामोद्योग आयोग भी बाँस से बने उत्पादों को बढ़ावा देता है। खादी ग्रामोद्योग आयोग खादी कुटीर उद्योग के तहत बाँस उद्योग को वर्षों से बढ़ावा दे रहा है। खादी ग्रामोद्योग आयोग लोगों को प्रशिक्षण देकर उन्हें बाँस उद्योग लगाने की प्रेरणा देता है। इसके अलावा राष्ट्रीय बाँस मिशन भी इस काम को बढ़ावा देता है। केंद्र सरकार के अलावा कई राज्यों की सरकारें भी बाँस उद्योग को बढ़ावा देती हैं।

केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम राष्ट्रीय बाँस मिशन द्वारा वित्तीय वर्ष 2006-07 से पिछले साल तक देश भर में 3,61,791 हेक्टेयर भूमि पर बाँस के बाग लगाये जा चुके हैं, जिसमें 2,36,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र और 1,25,091 हेक्टेयर कृषि तथा अन्य भूमि क्षेत्र है। इसके अलावा, बाँस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए गाँवों के पास बाँस के 39 थोक व खुदरा बाज़ार स्थापित करने के साथ-साथ 29 अन्य फुटकर क्रय केंद्र तथा 40 बाँस मंडियाँ भी देश भर में स्थापित की जा चुकी हैं।

हालाँकि अप्रैल, 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस मिशन को स्वीकृति प्रदान करने के दौरान केंद्र सरकार का लक्ष्य था कि वह 2020 तक 1,290 करोड़ रुपये का निवेश करेगी। लेकिन इस उद्योग को वह गति नहीं मिल सकी है, जिसकी ज़रूरत है। अगर राज्यों की बात करें, तो बाँस से बने सामान के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार, तेलंगाना सरकार, महाराष्ट्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार ने भी कई कदम उठाये हैं; लेकिन वे अभी उतने लाभदायक साबित नहीं हुए हैं, जितनी उम्मीद की गयी थी। हमारे देश में आज भी बहुत-सी ज़मीन खाली पड़ी है, जिसमें काफी हिस्सा बंजर और ढलान वाली भूमि का है। सरकार को चाहिए कि वह बाँस उगाने के सघन कार्यक्रम को और रफ्तार देते हुए इन ज़मीनों को बाँस और दूसरी फसलों किसानों को दे। यहाँ पर सरकार को चीन से सीखने की ज़रूरत है, जिसने अपनी खाली पड़ी ज़मीन पर ज़मीन की गुणवत्ता के हिसाब से ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है, जिनका उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा सके। चीन बाँस की खेती को भी काफी बढ़ावा दे रहा है।

पाँच इंद्रियों से प्राप्त संवेदनाएँ भोजन ही हैं

भौतिक और रासायनिक स्तर पर मानव शरीर और इसके तीन स्तरीय रक्षा प्रणालियों के बारे में चर्चा पिछले आलेख में शुरू की गयी थी। रक्षा की तीसरी पंक्ति, अर्थात् प्रतिरक्षा प्रणाली और इसके असंख्य रूपों की गहनता से उन विभिन्न स्तरों पर उत्तेजना उत्पन्न करने से पहले, मानसिक स्तर पर मानव शरीर के रक्षा तंत्र की चर्चा करना अनिवार्य है। भौतिक और रासायनिक स्तर पर खाद्य पदार्थों और अन्य उत्तेजनाओं के लिए प्रतिरक्षा और इसकी प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं के बारे में बात करते हुए मानसिक स्तर पर सभी पाँच इंद्रियों के माध्यम से मानव शरीर द्वारा प्राप्त उत्तेजनाओं का एक समान रूप से महत्त्वपूर्ण पहलू अक्सर अनदेखा किया जाता है, जिससे पूरी तरह से गलत परिणाम सामने आते हैं। हम यह न भूलें कि मानव शरीर पाँचों इंद्रियों में से किसी एक के माध्यम से जो भी मानता है, वह उतना ही भोजन है, जितना कि शरीर द्वारा अन्य भौतिक खाद्य पदार्थ। बल्कि सभी गहरी उत्तेजनाओं द्वारा उत्पन्न गहरा और लगभग स्थायी प्रभाव मानसिक स्तर के माध्यम से होता है।

मानव शरीर माँ प्रकृति द्वारा बनायी गयी अब तक की सबसे बेहतरीन मशीन है, जो किसी भी या सभी पाँच इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त विभिन्न उत्तेजनाओं से निपटने के लिए दर्ज़नों रक्षा तंत्रों का प्रदर्शन करती है। ये स्वाभाविक रूप से रक्षा तंत्र हैं, जिनमें से मुख्य 10 तंत्रों पर यहाँ चर्चा की जाएगी, जिसके माध्यम से एक मानव शरीर खुद को अप्रिय घटनाओं, कार्यों और विचारों से अलग करता है। ये मनोवैज्ञानिक रणनीतियाँ आमतौर पर मानव शरीर को इसके और खतरों या अवांछित भावनाओं के बीच सुरक्षित दूरी बनाने में मदद करती हैं, जैसे अपराध या शर्म। विशुद्ध रूप से मानसिक तल पर शरीर पर बाहरी उत्तेजनाओं के प्रभाव के बारे में हमारे सनातन शास्त्रों में जो विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है, उसके बारे में अत्यधिक संदेह होने के नाते, पहले एक मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत से निकली अवधारणा ऑस्ट्रेलिया के न्यूरोलॉजिस्ट सिग्मंड फ्रूड द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। इस सिद्धांत ने तीन घटकों- आईडी, ईगो और सुपर ईगो के बीच बातचीत के रूप में एक मानव व्यक्तित्व की परिकृपना की। यह सिद्धांत समय के साथ विकसित हुआ है और यह मानता है कि व्यवहार, जैसे रक्षा तंत्र, किसी व्यक्ति के सचेत नियंत्रण में नहीं हैं। वास्तव में अधिकांश लोग मानसिक स्तर पर अपनी रक्षा को बढ़ावा देने के लिए जिस रणनीति का उपयोग कर रहे हैं, उसे साकार किये बिना करते हैं। इस तरह के रक्षा तंत्र मनोवैज्ञानिक विकास का एक सामान्य और प्राकृतिक हिस्सा हैं।

 हालाँकि जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि कई अलग-अलग रक्षा तंत्र हैं, जिनकी पहचान की गयी है। फिर भी कुछ का उपयोग दूसरों की तुलना में अधिक किया जाता है। अधिकांश मामलों में किसी मानव शरीर की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएँ उसके सचेत नियंत्रण में नहीं होती हैं, जिसका अर्थ है कि शरीर यह तय नहीं करता है कि वह किसी विशेष तरीके से प्रतिक्रिया क्यों करता है? जबकि यह किसी भी उत्तेजना का जवाब देता है। इन रक्षा तंत्रों में सबसे पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण बचाव का तरीका है। यह तब होता है, जब शरीर किसी स्थिति की वास्तविकता या तथ्यों को स्वीकार करने से इन्कार कर देता है। बाहरी घटनाओं या परिस्थितियों को मानव मन से अवरुद्ध कर दिया जाता है, ताकि उन घटनाओं या परिस्थितियों के प्रभाव से जूझना न पड़े; इसे दूसरे तरीके से रखने के लिए। इसका अर्थ है कि इस तरह के प्रतिकूल उत्तेजनाओं के भावनात्मक प्रभाव से प्रभावित नहीं हुआ है। यह सबसे अधिक व्यापक रूप से मनुष्यों द्वारा तंत्र का उपयोग किया जाता है; क्योंकि प्रभावित होने के कारण लगातार अस्तित्वहीन होने से इन्कार करते हैं, जो दूसरों के आसपास स्पष्ट होते हैं।

अगला, दमन के अन्य व्यापक रूप से प्रचलित तंत्र आता है। अस्वाभाविक विचार, दर्दनाक यादें या तर्कहीन विश्वास एक इंसान को परेशान कर सकते हैं। लेकिन स्थितिजन्य मुद्दों में शामिल होने के कारण, प्रभावित व्यक्ति अपनी भावनाओं को तुरन्त बाहर नहीं कर सकता है, और जैसे कि उनका सामना करने के बजाय अनजाने में प्रभावित व्यक्ति उन्हें छिपाने का विकल्प चुनता है। उनके बारे में पूरी तरह से भूल जाने के शौकीन आशावादी या समय बीतने के साथ स्थितिजन्य मुद्दों की प्रतीक्षा करें। विडंबना यह है कि इस दमनकारी तंत्र का मतलब यह नहीं है कि सुस्त दर्दनाक यादें पूरी तरह से मानस से गायब हो जाती हैं। ये दमित भावनाएँ प्रभावित होने, व्यवहार को प्रभावित करने और भविष्य के रिश्तों को प्रभावित करने के साथ स्वास्थ्य को बुरी तरह पीडि़त करती हैं। एक मरहम लगाने वाले के रूप में इस लेखक के व्यावहारिक अवलोकन में 80 फीसदी से अधिक बीमारियाँ मूल रूप से मनोदैहिक हैं और इस रक्षा तंत्र में उनकी गहरी जड़ें हैं। बीमारियों की एक लम्बी सूची, जिसे आमतौर पर जीवन के लम्बे समय के रूप में माना जाता है; नकारात्मक मूल भावनाओं के बोतलबन्द होने में उनकी उत्पत्ति है।

प्रतीपगमन (रिग्रेशन) एक अन्य रक्षा तंत्र है, जिसका उपयोग कुछ मानव शरीर तब करते हैं, जब उन्हें खतरा महसूस होता है या वे अपने भविष्य को लेकर चिन्तित होते हैं। इस तरह के तनावपूर्ण मुद्दों से निपटने के लिए वे अनजाने में विकास के पहले चरण में बच सकते हैं। जब भी वे आघात या हानि का अनुभव करते हैं, तो ऐसा तंत्र छोटे बच्चों में बहुत ही कठोर होता है। यह अचानक कार्य करते हैं जैसे कि वे फिर से छोटे हैं। वे बिस्तर गीला करना या अँगूठा चूसना भी शुरू कर सकते हैं। अप्रिय घटनाओं या व्यवहारों का सामना करने के लिए संघर्ष करते समय वयस्क भी वापस आ सकते हैं। वे धूम्रपान, अधिक भोजन ले सकते हैं, पेन या पेंसिल चबा सकते हैं, या फिर मर चुके पशु के साथ सो सकते हैं। ऐसे प्रतिगामी बचाव के साथ वे रोज़मर्रा की गतिविधियों से भी बच सकते हैं; जो उन्हें भारी लगता है।

द्वेष या प्रतिस्थापन या द्वेष का स्थानांतरण शायद मज़बूत भावनाओं और कुंठाओं को समझाने के लिए उपयुक्त अभिव्यक्ति है, जो एक अन्य साथी के प्रति एक प्रभावित होने की भावना को प्रभावित कर रहा है; लेकिन कम खतरे वाले परिदृश्य के तहत। इस रक्षा तंत्र का एक अच्छा उदाहरण एक बच्चे या पति या पत्नी पर गुस्सा होना है; क्योंकि उसका काम पर बुरा दिन था। प्रभावित लोगों की मज़बूत भावनाओं का लक्ष्य इन लोगों में से एक है; लेकिन बेहतर स्थिति या प्राधिकरण में व्यक्ति को प्रतिक्रिया देने की तुलना में उन पर प्रतिक्रिया करना कम समस्याग्रस्त है। मानसिक तल पर यह रक्षा तंत्र सक्षम बनाता है कि कोई प्रतिक्रिया के लिए एक आवेग को सन्तुष्ट कर सके; लेकिन किसी भी महत्त्वपूर्ण परिणाम का जोखिम नहीं उठाता है। एक बच्चे की पिटाई से परेशान माँ या सास-ससुर से पीडि़त पत्नी अपने पति पर चिल्लाती है, जो विस्थापन तंत्र का सबसे सामान्य उदाहरण है।

प्रस्तुतिकरण और युक्तिकरण अन्य रक्षा तंत्र हैं, जो मानसिक स्तर पर भी उल्लेखनीय हैं। जब कुछ असहज विचार या भावनाएँ, जो किसी दूसरे व्यक्ति के खिलाफ हों; जैसे कि एक सहकर्मी को नापसन्द करना। लेकिन यह स्वीकार करने के बजाय कि यदि प्रभावित व्यक्ति अपने आप को प्रोग्राम करने के लिए चुनता है कि दूसरा उसे नापसन्द करता है, तो दूसरा दूसरे व्यक्ति को नापसन्द करता है। ऐसी क्रियाएँ, जो कोई करना या कहना चाहेगा, यह प्रक्षेपण की व्याख्या करता है। युक्तिकरण में कुछ लोग अवांछनीय व्यवहारों को अपने तथ्यों के साथ समझाने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक को पसन्द किये गये विकल्प के साथ सहज महसूस करने की अनुमति देता है, भले ही कोई दूसरे स्तर पर जानता हो कि यह सही काम नहीं था। एक उदाहरण के रूप में यदि वे जो समय पर काम पूरा नहीं करने के लिए सह-कर्मियों पर नाराज़ हो सकते हैं, इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि वे आमतौर पर देर से बहुत देर से करते हैं।

उदात्तीकरण, प्रतिक्रिया-गठन, वर्गीकरण और बौद्धिकरण मानसिक स्तर पर कुछ उल्लेखनीय रक्षा तंत्र हैं, जो सकारात्मक धारणाओं के साथ हैं। उच्च बनाने की क्रिया में एक मज़बूत भावनाओं या भावनाओं को एक वस्तु या गतिविधि में पुनर्निर्देशित करता है, जो उचित और सुरक्षित है। उदाहरण के रूप में एक व्यक्ति के मातहत पर बाहर ले जाने के बजाय कोई किकबॉक्सिंग या व्यायाम या यहाँ तक कि संगीत, कला या अन्य खेलों में निराशा को चुनता है। एक व्यक्ति जो इस तरह से प्रतिक्रिया करता है। उदाहरण के लिए यह महसूस कर सकता है कि इसे नकारात्मक भावनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहिए। जैसे कि क्रोध या हताशा; लेकिन इसके बजाय अति सकारात्मक तरीके से प्रतिक्रिया करें। कंपार्टमेंटलाइजेशन के तंत्र के माध्यम से कोई व्यक्तिगत जीवन और पेशेवर जीवन की तरह भूमिकाओं के विभिन्न पहलुओं को अलग करता है और एक-दूसरे के क्षेत्र में अपनी घुसपैठ को रोकता है, जिससे व्यावसायिक जीवन की चिन्ताएँ या चुनौतियाँ अपने समायोजन में निजी जीवन के आनन्द से दूर रहती हैं। बौद्धिकरण मानसिक स्तर पर एक और रक्षा तंत्र है, जिसके तहत सभी भावनाओं को एक कोशिश की स्थिति का सामना करने पर एक प्रतिक्रिया से रखा जाता है, जबकि केवल उसी के मात्रात्मक तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करना। यह भी एक सकारात्मक रणनीति है।

बहुत-से लोग इन सभी रक्षा तंत्रों को केवल आत्म-धोखे के एक प्रकार के रूप में मान सकते हैं, जो केवल उन भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को छिपाने के लिए है, जिनसे कोई निपटना नहीं चाहता है। लेकिन सभी या इनमें से किसी भी बचाव को बिना किसी जागरूक होने के बिना अचेतन मन के स्तर पर लिया जाता है, जिस तरह किसी का मन या अहंकार प्रतिक्रिया देगा। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवहार सम्बन्धी प्रतिक्रियाओं को संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है, बल्कि अस्वस्थ रक्षा तंत्र को कुछ तकनीकों के साथ अधिक टिकाऊ और सकारात्मक रणनीतियों में बदला जा सकता है। प्रशिक्षित चिकित्सक अस्वस्थ और नकारात्मक विकल्पों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं, जो किसी भी विशेष स्थिति से निपटने के लिए बनाता है और इसे और अधिक मनमाफिक स्तर पर विकल्प बनाने के लिए सक्रिय प्रतिक्रियाएँ सीखकर सकारात्मक रणनीति में बदल देता है।

यद्यपि किसी भी मानव के लिए मानसिक स्तर पर रक्षा तंत्र सामान्य और प्राकृतिक हैं और इसका उपयोग अक्सर किसी दीर्घकालिक जटिलताओं या मुद्दों के बिना किया जाता है, फिर भी कुछ लोग भावनात्मक कठिनाइयों का विकास करते हैं यदि वे अंतर्निहित खतरे या चिन्ता का सामना किये बिना इन तंत्रों का उपयोग करना जारी रखते हैं। प्रशिक्षित चिकित्सक द्वारा उपचार एक जागरूक स्तर से मुद्दों को सम्बोधित करने में मदद करने पर ध्यान केंद्रित करता है, न कि एक अचेतन पर। मनोचिकित्सा या परामर्श जैसी चिकित्सा के माध्यम से व्यक्ति रक्षा तंत्र के बारे में अधिक जागरूक हो जाता है, जिसका उपयोग सबसे अधिक बार किया जाता है, और इस प्रकार यह अपरिपक्व या कम उत्पादक लोगों से प्रतिक्रियाओं को अधिक परिपक्व, टिकाऊ और लाभकारी लोगों को स्थानांतरित करने में सक्षम बनाता है। इस प्रकार अधिक परिपक्व तंत्रों के उपयोग से व्यक्ति को उन चिन्ताओं और स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है, जो सामान्य रूप से अनुचित तनाव और भावनात्मक दबाव का कारण हो सकते हैं।

मानसिक स्तर पर होने वाले बचाव किसी भी इंसान के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण तंत्र का योगदान करते हैं। अब चाहे ये अंतर्निहित बाधाएँ किसी की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं या इसे आंशिक रूप से कम करती हैं या पूरी तरह से प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करने के हिस्से के रूप में उनकी भूमिका के बारे में जागरूकता पर निर्भर करती हैं। जीवन में होने वाली गहरी दर्दनाक घटनाओं से उत्पन्न गम्भीर समस्याएँ और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका है कि कम-से-कम उसी दिन भावनाओं का सामना करने की आदत डाल ली जाए; जैसा कि एक दिन उन्हें अनुभव होता है- खुद को किसी खतरनाक बीमारी का मरीज़ बनने से रोकने के लिए मौके पर नहीं। कार्य के कारण का नियम यह बताता है कि कोई भी आंतरिक प्रभाव बिना किसी बाहरी कारण के उत्पन्न नहीं हो सकता है और यह प्रभाव ही आगे के परिवर्तनों का कारण बन सकता है। अनारक्षित भावनात्मक मुद्दे जैसे कि दु:ख, दबा हुआ क्रोध आदि शरीर में भावनाओं को बन्धन में रखने से वे दूसरे रूप में सतह पर आ जाते हैं। हमारे भावनात्मक जीवन का उचित संतुलन और विनियमन हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैंसर, गठिया, सोरायसिस, मधुमेह, हाइपोथायरायडिज्म, उच्च रक्तचाप, स्पोंडिलोसिस आदि रोगों में एक चौंकाने वाली वृद्धि, चिन्ता में अपने मूल का उद्गम मानती है, जो कि अगर रोकी नहीं जाती है, तो तनाव की ओर जाती है; जो बदले में स्वप्रतिरक्षा रोगों के विस्तार के तहत आने वाली असंख्य बीमारियों में बदल जाती है। एक पीडि़त मानव को आधुनिक समय के विशेषज्ञों द्वारा केवल एक विशिष्ट रोग सिंड्रोम के रूप में दिखायी देने वाली अभिव्यक्ति के आधार पर इलाज किया जाता है, न कि अंतर्निहित मूल कारण से निपटने और सही करने के बजाय। इसलिए उस विशेष बीमारी को और आजीवन दवा की अस्थिरता को जारी रखा जाता है।

विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2020: भारत में कम हो रहे मलेरिया के मामले

विश्व जनसंख्या के हिसाब से अगर देखें, तो जनसंख्या घनत्व के मामले में भारत का हाल किसी घनी आबादी वाली बस्ती से कम नहीं है। यही कारण है कि यहाँ अनेक तरह की बीमारियों ने पाँव पसार रखे हैं। हाल ही में कोरोना वायरस के संक्रमण से फैली महामारी में काफी कोशिशों के बावजूद भी यहाँ लाखों लोग संक्रमित हो गये थे। लेकिन कुछ पुरानी और खतरनाक बीमारियाँ और भी हैं, जिनके चलते भारत के अस्पतालों में मरीज़ों का तांता लगा रहता है। हाल यह है कि देश में एम्स समेत साढ़े तीन हज़ार से अधिक सरकारी और इनसे तकरीबन 10 गुना ज़्यादा प्राइवेट अस्पताल होने के बावजूद कई अस्पतालों में बेड की कमी है। देश के कई राज्यों में तो सरकारी अस्पतालों में मरीज़ों को बेड तक नहीं मिलते और कई अस्पतालों में एक-एक बेड पर तीन-तीन मरीज़ तक रखे जाते हैं। डॉक्टरों से पूछो, तो वे अपनी मजबूरी बताते हैं; प्रशासन से पूछो, तो इसका कोई जवाब नहीं मिलता।

अगर हम सभी बीमारियों से पीडि़तों और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं की बात करें, तो एक दयनीय और अफसोसजनक तस्वीर सामने आएगी। लेकिन यहाँ हम केवल मलेरिया की बात करेंगे। मलेरिया की रोकथाम के मामले में भारत ने पिछले दो साल में अच्छा प्रदर्शन किया है। यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हाल ही में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कही है। लेकिन बावजूद इसके भारत की स्थिति दक्षिण-पूर्व एशिया में अभी भी काफी दयनीय है। सन् 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया के करीब 106 देशों में मलेरिया का खतरा मँडराता रहता है। इन देशों की जनसंख्या करीब 3.3 अरब है, जिसमें से हर 10वाँ आदमी मलेरिया के खतरे के साये में रहता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, मलेरिया के कारण 2012 में 6 लाख 27 हज़ार मौतें हुईं, जिनमें अधिकतर मौतें अफ्रीकी और एशियाई देशों तथा लैटिन, अमेरिका में हुई। भारत में मलेरिया के सबसे ज़्यादा मामले उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और मेघालय और उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों से देखने में आये। इसी तरह सन् 2015 में दुनिया भर में मलेरिया के करीब 21 करोड़ 10 लाख मामले सामने आये, जिनमें से 4 लाख 46 हज़ार मौतें हुईं। सन् 2016 में दुनिया भर में मलेरिया के 21.60 करोड़ मामले दर्ज हुए, जिनमें करीब 4 लाख 45 हज़ार मौतें हुईं। मलेरिया पर जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की सन् 2017 की रिपोर्ट बताती है कि भारत दुनिया के उन 15 अग्रणी देशों में शामिल है, जहाँ मलेरिया के सबसे अधिक मामले आते हैं। उस समय की एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में केवल मलेरिया से 69 फीसदी मौतें होती हैं। वहीं 2010 में रॉयटर्स द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में हर साल मलेरिया से करीब दो लाख पाँच हज़ार मौतें होती हैं। लेकिन भारत ने पिछले कुछ साल से मलेरिया पर काबू पाया है।

कितना हुआ है सुधार

पिछले ही महीने डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2020 में कहा गया है कि एशिया में मलेरिया के मामले काफी कम हुए हैं। मलेरिया के मामलों की यह रिपोर्ट 87 देशों के सर्वे के बाद जारी की गयी है। यह सर्वे नेशनल मलेरिया कंट्रोल प्रोग्राम एवं अन्य पार्टनर्स के द्वारा जारी सूचना के आधार पर की गया था। हालाँकि रिपोर्ट में 2020 के साथ-साथ 2019 का अधिकतर डाटा है। रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट आयी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट भारत में आयी है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले कुछ वर्षों में मलेरिया के मामलों में 73 फीसदी गिरावट आयी है, जबकि मलेरिया से होने वाली मौतों के मामलों में 74 फीसदी की गिरावट आयी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरी दुनिया में होने वाले मलेरिया के कुल मामलों में तीन फीसदी मामले दक्षिण-पूर्व एशिया में सामने आते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भारत ने मलेरिया पर तेज़ी से शिकंजा कसा है, जिसके लिए भारत की सराहना डब्ल्यूएचओ ने भी की है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में भारत में मलेरिया के मामलों में 18 फीसदी और 2020 में 20 फीसदी की कमी आयी है। वहीं यहाँ पर 2019 और 2020 में मलेरिया से होने वाली मृत्यु दर में भी काफी कमी आयी है।

पर एक निराशाजनक बात यह भी है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में 2019 में मलेरिया के सबसे ज़्यादा 88 फीसदी मामले भारत में ही सामने आये हैं। इतना ही नहीं यह रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया से हुई कुल मौतों में से 86 फीसदी भारत में हुई हैं। लेकिन इसमें आशाजनक और खुशी की बात यह है कि भारत में ही मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट भी दर्ज की गयी है। उम्मीद की जाती है कि अगर भारत ने इसी रफ्तार से मलेरिया पर काबू पाया, तो आने वाले कुछ वर्षों में मलेरिया से भारत को काफी हद तक मुक्ति मिल जाएगी।

घटने के बाद बढ़े हैं मामले

भले ही भारत सरकार ने मलेरिया की रोकथाम के लिए पिछले दो साल में काफी कुछ किया है और इसके नतीजे भी सामने आये हैं, लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले रिकॉर्ड की अपेक्षा अब ज़्यादा मौतें हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 में दुनिया भर में मलेरिया के कुल 20 लाख 9 हज़ार मामले दर्ज किये गये थे, जिनमें कुल 1,005 लोगों की मौत हुई थी। हालाँकि इससे पहले 70 और 80 के दशक में भी मलेरिया से बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं, लेकिन 2001 के बाद धीरे-धीरे मलेरिया के मामलों और इससे होने वाली मौतों में इज़ाफा होने लगा था।

नये प्रयासों से मिल रही सफलता

मलेरिया उन्मूलन के लिए एक तरफ जहाँ डब्ल्यूएचओ ने ठोस कदम उठाये हैं, वही भारत सरकार द्वारा इस दिशा में कई नये प्रयास किये गये हैं। इन प्रयासों की वजह से मलेरिया की रोकथाम कार्यक्रम को सफलता मिलती दिखायी दे रही है।

डब्ल्यूएचओ ने मलेरिया के ज़्यादा मामलों वाले 11 देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, में हाई वर्डन टू हाई इंपेक्ट (एचबीएचआई) नाम की पहल शुरू की है। इस पहल को सबसे पहले 2019 में भारत के चार राज्यों पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में शुरू किया गया।

बता दें कि भारत में मलेरिया उन्मूलन प्रयास 2015 में शुरू किया गया था। 2016 में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन (एनएफएमई) की शुरुआत के बाद मलेरिया उन्मूलन की मुहिम में काफी तेज़ी आयी, जिसके बाद धीरे-धीरे मलेरिया के मामले देश में कुछ कुछ कम होने लगे। इतना ही नहीं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा जुलाई, 2017 में मलेरिया उन्मूलन के लिए एक राष्ट्रीय रणनीतिक योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसके तहत तय किया गया कि अगले पाँच साल यानी 2022 तक मलेरिया के मामलों को रोकने की भरपूर कोशिश की जाएगी। इस योजना के तहत देश में 2030 तक मलेरिया से मुक्ति का भारत सरकार का सपना है।

मलेरिया जैसी गम्भीर बीमारी पर काबू पाने के लिए हर साल 25 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मलेरिया से लोगों को जागरूक और उनकी जान की रक्षा करना है। विश्व मलेरिया दिवस की स्थापना मई, 2007 में 60वें विश्व स्वास्थ्य सभा के सत्र के दौरान की गयी थी।

अब सर्दियों में भी नहीं मरते मच्छर

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मच्छरों के काटने से मलेरिया की बीमारी होती है। यही वजह है कि यह बीमारी गर्मियों और बारिश के मौसम में बहुत फैलती है। लेकिन अब सर्दियों में भी मलेरिया के मामले यदा-कदा सामने आ जाते हैं। क्योंकि अब सर्दियों में भी मच्छर काटने के लिए शरीर के पास मँडराते मिल जाते हैं। बड़े शहरों में अक्सर मच्छर अब पूरे साल ज़िन्दा रहते हैं। इसकी एक वजह शहरों में एयर कंडीशनर और प्रदूषण भी है। पहले के दौर में सर्दियों में मच्छर नहीं रहते थे। भारत में कहा जाता था कि दीपावली के बाद मच्छर खुद-ब-खुद मरने लगते हैं और कड़ी सर्दियों में तो यह बिल्कुल भी नहीं रहते। हालाँकि ऐसा नहीं होता। बस मच्छरों की संख्या सर्दियों में न के बराबर रह जाती है। लेकिन जो मच्छर बच जाते हैं, वो किसी प्रकार अपना अस्तित्व ऐसी जगहों पर रहकर बचाते हैं, जहाँ उन्हें थोड़ी गर्मी मिल सके, जैसे अँधेरी गुफाओं, कंदराओं में छिपकर। वहीं इनका लार्वा सर्दियों में गन्दे पानी में काफी समय तक सुरक्षित रह जाता है। बता दें कि मलेरिया एक प्रकार के परजीवी प्लाजमोडियम से फैलने वाला रोग है, जिसका वाहक मादा एनाफिलीज मच्छर होता है।

डीडीटी का छिड़काव ज़रूरी

पहले गाँवों से लेकर शहरों तक सरकार द्वारा साल में दो या इससे अधिक बार डिक्लोरो डिपेनिल ट्राइक्लोरोइथेन (डीडीटी) का छिड़काव कराया जाता था, लेकिन अब एक धुआँ छोड़ा जाता है, जिससे मच्छर मरते ही नहीं हैं। वो केवल इस धुएँ की धुंध से थोड़ी देर के लिए छिपकर बैठ जाते हैं और धुआँ कम होते ही फिर से सक्रिय हो जाते हैं। भारत सरकार ने सबसे पहले सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम के तहत डीडीटी का छिड़काव शुरू कराया था, जिससे मलेरिया रोगियों की संख्या कुछ कम हुई थी। फिर सन् 1958 से राष्ट्रीय मेलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत डीडीटी के छिड़काव के अतिरिक्त ज्वर पीडि़त व्यक्तियों की खोज करके उनके रक्त की जाँच भी शुरू की गयी थी। सन् 1977 में पुन: राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम की संशोधित योजना लागू की गयी। इस योजना के तहत मलेरिया के मरीज़ों की खोज उनके इलाज और डीडीटी के अतिरिक्त छिड़काव की व्यवस्था की गयी। यह कार्यक्रम भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के आधे-आधे अनुदान पर चलाया जाता था। अब मच्छर पहले से काफी स्ट्रॉन्ग (परिपक्व) हो गये हैं। ऐसे में एक ऐसी दवा के हर जगह छिड़काव की ज़रूरत है, जो मच्छरों को प्रभावी तौर पर खत्म कर सके; ताकि साल 2030 तक मलेरिया को खत्म करने का सरकार का सपना पूरा हो सके।

दशकों से पुनर्वास के इंतज़ार में पोंग बाँध के विस्थापित

हिमाचल प्रदेश में पोंग बाँध के 8000 से अधिक विस्थापित लोग पाँच दशक से अपने पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं। यह 50 साल पहले की बात है, जब 30,000 से अधिक परिवारों को उनके घरों और ज़मीनों से उजाड़ दिया गया था। इनमें से हज़ारों लोग आज भी दर-ब-दर हैं, उनका पुनर्वासन नहीं हुआ है।

पोंग बाँध प्रभावित ग्रामीण अपनी समस्याओं के प्रति अधिकारियों को असंवेदनशील बताते हैं। हज़ारों ग्रामीण आज भी एक भय में जीने को मजबूर हैं। उन्होंने अब सर्वोच्च अदालत (सुप्रीम कोर्ट) में एक याचिका दायर की है। सर्वोच्च अदालत उनकी इस याचिका पर 20 जनवरी को सुनवाई करेगी। इस याचिका में कहा गया है कि करीब 30,000 किसान परिवार पोंग बाँध के विस्थापन से प्रभावित थे; क्योंकि उनकी भूमि बाँध के कारण जलमग्न हो गयी थी। इन करीब 30,000 परिवारों में से कम-से-कम 8,000 परिवारों को अभी भी पुनर्वास की प्रतीक्षा है।

इन 8000 परिवारों को न तो भूमि आवंटित ही की गयी है और न ही उचित मुआवज़ा दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर को राजस्थान और हिमाचल प्रदेश राज्यों और जल शक्ति मंत्रालय के जल संसाधन विभाग की याचिका पर नोटिस जारी किये थे। विस्थापितों की दूसरी पीढ़ी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि राजस्थान सरकार 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत स्थापित विस्थापितों की शिकायतों के लिए बैठक न करके आवंटियों की प्रक्रिया का उल्लंघन कर रही है। पोंग बाँध के विस्थापितों के दशकों लम्बे संघर्ष की कहानी भारत के अक्षय ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने के दृष्टिगत और अहम हो जाती है; क्योंकि यह साल 2030 तक अपने स्थापित बड़े बाँधों की वर्तमान पनबिजली क्षमता को 45 गीगावॉट से कम-से-कम 34 फीसदी बढ़ाकर 60 गीगावॉट तक करना चाहता है। भूमि संघर्ष निगरानी (लैंड कन्फ्लिक्ट वॉच) के मुताबिक, भारत में बाँधों के कारण कम-से-कम 60 मामले चल रहे हैं। यह संस्था भारत में चल रहे भूमि संघर्ष पर डाटा एकत्र करती है। साल 2013 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम ने पहली बार उचित मुआवज़े और पारदर्शिता के अधिकार को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया था।

तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद के वर्षों से अलग-अलग परियोजनाओं को अभी तक विस्थापितों के मामलों को निपटाना है। इनमें स्वतंत्र भारत का पहला बाँध हीराकुंड (ओडिशा), दामोदर (झारखण्ड), भाखड़ा नागल (हिमाचल प्रदेश), सरदार सरोवर बाँध (गुजरात), श्रीशैलम (आंध्र प्रदेश), कृष्णराज सागर (कर्नाटक), टिहरी (उत्तराखण्ड), रेंगाली (ओडिशा) शामिल हैं। अपर कोलाब (ओडिशा), डिमना (झारखण्ड), अपर कृष्णा (कर्नाटक), माखन (गुजरात), करंजा (कर्नाटक) और डिमना (झारखण्ड) शामिल हैं।

पोंग पुनर्वास राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के बीच समझौता ज्ञापन पर निर्भर था; लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। मार्च, 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं (जैसे कि 25 मेगावॉट से कम बिजली उत्पादन क्षमता वाली छोटी पनबिजली परियोजनाओं) के रूप में वर्गीकृत करके बड़े बाँधों को बढ़ावा देने का फैसला किया। साथ ही बिजली दरों को कम करने और इसे अनिवार्य बनाने के लिए नये बाँधों को बजटीय सहायता प्रदान की, ताकि राज्य बाँधों से बिजली खरीद सकें। सरकार के बयान में कहा गया है- ‘भारत 1,45,320 मेगावॉट की बड़ी जल विद्युत क्षमता से सम्पन्न है, जिसमें से अब तक केवल 45,400 मेगावॉट का ही उपयोग किया जा सका है। बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट पर्यावरण के अनुकूल थे। ग्रिड स्थिरता के लिए आदर्श हैं और जल सुरक्षा, सिंचाई, बाढ़ मॉडरेशन और पूरे क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक विकास प्रदान करते हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों ने पिछले कुछ वर्षों में कई बड़ी बाँध परियोजनाओं का प्रस्ताव किया है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश में एटलिन परियोजना, आंध्र प्रदेश में पोलावरम् और छत्तीसगढ़ में बोधघाट शामिल हैं। सन् 1975 में पूरे हुए पोंग बाँध ने व्यास नदी को संयोजित किया और सबसे लम्बे नहर नेटवर्क- इंदिरा गाँधी नहर के माध्यम से राजस्थान के थार रेगिस्तान तक अपना पानी पहुँचा दिया। इस बाँध ने कांगड़ा ज़िले के 339 गाँवों में 75,268 एकड़ में भूमि को जलमग्न कर दिया और लगभग 30,000 परिवारों को उजाड़ दिया। याचिका के अनुसार, 16,352 परिवारों ने अपनी एक-तिहाई से अधिक भूमि खो दी थी। उन्हें राजस्थान में भूमि के वैकल्पिक भूखण्डों पर पुनर्वास के लिए योग्य माना गया था, जिसे राजस्थान नेटवर्क के अनुसार, नहर नेटवर्क द्वारा सरकारी भूमि का आवंटन (पोंग बाँध के लिए सरकारी भूमि का आवंटन) राजस्थान कैनाल कॉलोनी में नियम), सन् 1972 सिंचित किया जाना था। प्रत्येक पात्र को 15 एकड़ भूखण्ड आवंटित किया गया था, जो कि राजस्थान और पंजाब की सरकारों द्वारा स्वीकार किये गये पुनर्वास पैकेज के अनुसार था। बता दें पंजाब हिमाचल प्रदेश राज्य के निर्माण से पहले कांगड़ा को शासित करता था। सन् 1972 के नियमों को हिमाचल प्रदेश सरकार से प्राप्त राजस्थान सरकार की पात्रता प्रमाण पत्र को प्रस्तुत करने के लिए अपदस्थ करने की आवश्यकता थी। राजस्थान सरकार को तब भूमि का आवंटन करना था और सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करानी थीं। लेकिन जो भूखण्ड आवंटित किये गये थे, वो बंजर थे और वहाँ किसी भी तरह की नागरिक सुविधाएँ नहीं थीं। श्रीगंगानगर में आवंटित भूमि को प्राप्त करने के लिए उन्हें घंटों पैदल चलना पड़ा; क्योंकि वहाँ न सड़कें थीं, न पीने का पानी था और न ही बिजली थी। सन् 1980 तक राजस्थान सरकार ने कांगड़ा के केवल 9,196 परिवारों या 56 फीसदी लोगों को ही भूमि आवंटित की थी। इन आवंटनों में से 72 फीसदी को राज्य द्वारा 1972 के नियमों का उल्लंघन करने के लिए रद्द कर दिया गया था। सन् 1993 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा दायर एक हलफनामे में यह बात कही गयी है। न्यायालय ने कहा- ‘उनके पिछले रिकॉर्ड के सम्बन्ध में राजस्व अधिकारियों राजस्थान को कार्य सौंपा नहीं जा सकता है।’ इससे सन् 1992 के संशोधन को नुकसान हुआ, जिसमें कहा गया कि एक निरस्त आवंटन केवल दूसरे बेदखल करने वाले को सौंपा जा सकता है। इसने भूमि को आवंटित करने के लिए राजस्थान की शक्तियाँ भी ले लीं। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव और राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के राज्य प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिए एक समिति को प्रभार सौंप दिया गया। यह समिति सन् 1996 के बाद से कम-से-कम 17 बार मिल चुकी है। याचिका के जवाब में सरकारों को सुप्रीम कोर्ट की प्रारम्भिक समय-सीमा के तीन दिन बाद सबसे आखरी बैठक 14 दिसंबर को थी। बता दें 11 दिसंबर को अदालत ने चार सप्ताह का अतिरिक्त समय दिया था।

एक बैठक में समिति ने राजस्थान के राजस्व सचिव की अध्यक्षता में एक स्थायी समिति नामित की, जिसमें विस्थापित लोगों के प्रतिनिधि शामिल थे। स्थायी समिति को निकाय की शिकायतों को हल करने और भूमि के आवंटन की निगरानी के लिए द्वैमासिक रूप से मिलने के लिए कहा गया था। इसने पुनर्वास के लिए नहर क्षेत्र में उपयुक्त भूमि का चयन करने के लिए विस्थापितों के पाँच प्रतिनिधियों की एक उप-समिति भी बनायी। उप-समिति ने कथित तौर पर राजस्थान में पुनर्वास क्षेत्रों का दौरा किया और पाया कि बहुत-सी भूमि असिंचित थी और अभी भी बिजली, पानी या अन्य मूलभूत सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध नहीं थीं। विस्थापितों के लिए आरक्षित भूखण्ड बिखरे हुए थे और एक क्षेत्र में जिप्सम खनन किया जा रहा था। समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि उसे नहीं लगता कि राजस्थान में सभी विस्थापितों के लिए पर्याप्त सिंचित भूमि उपलब्ध है।

सन् 2018 के बाद से राजस्थान सरकार ने कहा है कि वह बेदखलों को ज़मीन देगी; लेकिन जैसलमेर और बीकानेर ज़िलों में पाकिस्तान की सीमा के साथ। हिमाचल प्रदेश सरकार ने यह कहते हुए इस निर्णय का विरोध किया कि यह भूमि कृषि के लिए अनुपयोगी है, क्योंकि वहाँ महीनों पानी नहीं होता है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी कहा कि हिमाचल प्रदेश के एक कृषक अथवा ग्रामीण के लिए प्रथम दृष्टया यह असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है कि उसे जैसलमेर या बीकानेर ज़िलों के एक दूरदराज़ के इलाके में बसना पड़े; जहाँ वैकल्पिक भूमि की इन्हें पेशकश की जा रही है। अदालत ने सुझाव दिया कि हिमाचल प्रदेश में भूमि उपलब्ध करायी जानी चाहिए और राजस्थान को इसके लिए भुगतान करना चाहिए।

मानव विकास सूचकांक-2020 में और नीचे खिसका भारत

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 189 देशों की सूची में भारत 131वें स्थान पर है। सन् 2019 में जारी इस सूचकांक में भारत को 129वाँ स्थान मिला था; लेकिन इस बार की रैंकिंग में यह दो पायदान और नीचे खिसक गया है। प्रतिवर्ष जारी होने वाले इस मानव विकास सूचकांक में पहले की ही तरह एक बार फिर यूरोपीय देशों ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया है।

नार्वे इस सूचकांक में पहले स्थान पर है, जबकि आयरलैंड दूसरे तथा स्विट्जरलैंड तीसरे पायदान पर हैं। एशियाई क्षेत्र में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर, इजरायल तथा जापान हैं। इस सूचकांग में हॉन्गकॉन्ग चौथे, सिंगापुर 11वें और इजरायल तथा जापान, दोनों 19वें स्थान पर हैं। चार कैटेगरी में विभाजित इस वैश्विक सूचकांक में ये सभी क्षेत्र बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं। दुनिया का प्रभावशाली देश अमेरिका इस सूचकांक में 17वें पायदान पर है, जबकि निम्न मानव विकास श्रेणी में शामिल अफ्रीकी देश नाइजर इस सूचकांक में 189वें यानी अन्तिम स्थान पर है। इसी साल जारी इस रिपोर्ट में भारत का मानव विकास सूचकांक मूल्य 0.645 है। अगर हम सन् 1990 से सन् 2019 तक के मानव विकास सूचकांक मूल्य को देखें, तो यह 0.429 से बढ़कर 0.645 तक पहुँच गया है, यानी इसमें 50.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों में जारी मानव विकास सूचकांक को देखें, तो भारत की रैंकिंग लगभग 130 के आस-पास ही रही है। तेज़ी से उभरती हुई अर्थ-व्यवस्था वाले भारत जैसे देश के लिए यह सूचकांक बेहद महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह जीवन प्रत्याशा, शिक्षा तथा प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय जैसे प्रमुख बुनियादी आयामों पर आधारित होता है।

मानव विकास सूचकांक के वर्तमान आँकड़े यह बताते हैं कि साल 2019 में भारतीयों के जन्म के समय की जीवन प्रत्याशा 69.7 वर्ष थी। सन् 1990 में जारी पहली रिपोर्ट से लेकर सन् 2019 के दौरान जन्म के समय भारत की जीवन प्रत्याशा में 11.8 वर्ष की वृद्धि हुई है; लेकिन फिर भी यह दक्षिण एशियाई औसत (69.9 वर्ष) की तुलना में थोड़ी कम है। वहीं भारत में स्कूली शिक्षा के लिए प्रत्याशित वर्ष 12.2 थे। सन् 1990 से सन् 2019 के मध्य स्कूली शिक्षा के प्रत्याशित औसत वर्षों को देखें, तो पता चलता है कि इसमें 3.5 वर्षों की वृद्धि हुई है। क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर सन् 2018 में भारत की प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय 6,829 अमेरिकी डॉलर थी, जो सन् 2019 में गिरकर 6,681 डॉलर रह गयी है। लेकिन सन् 1990 से सन् 2019 के दौरान भारत के प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय में लगभग 273.9 फीसदी की वृद्धि हुई है। स्वास्थ्य, शिक्षा और कार्बन उत्सर्जन के क्षेत्रों में सुधार के बावजूद भारत का इस सूचकांक में लगातार मध्यम मानव विकास श्रेणी में बने रहना एक चिन्ता का विषय है, जिसके वैश्विक मायने हैं। हालाँकि यूएनडीपी भारत की प्रतिनिधि शोको नोडा का भारतीय प्रदर्शन पर बयान थोड़ा उत्साह बढ़ाने वाला ज़रूर है, जिसमें उन्होंने कहा कि भारतीय रैंकिंग में गिरावट का अर्थ यह नहीं है कि भारत ने अच्छा नहीं किया, बल्कि इसका अर्थ है कि कुछ अन्य देशों ने बेहतर किया। कुछ भारतीय मीडिया संस्थानों ने इस बात पर ज़्यादा फोकस किया कि इस वैश्विक रैंकिंग में भारत अपने पड़ोसी देशों, जैसे- बांग्लादेश (133वें स्थान पर), नेपाल (142वें स्थान पर) तथा पाकिस्तान (154वें स्थान पर) से आगे है। ऐसे मीडिया संस्थानों पर आश्चर्य होता है कि वो यही बात इतनी गम्भीरता से नहीं बताते कि इसी वैश्विक सूची में भारत अपने अन्य पड़ोसी देशों, जैसे- श्रीलंका (72वें स्थान पर) और चीन (85वें स्थान पर) से बहुत पीछे है।

एचडीआई रैंकिंग को वैश्विक नज़रिये से देखने की ज़रूरत

इसमें कोई शक नहीं कि भारत सार्क और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों में शामिल कुछ देशों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है; लेकिन एक बात हमें गम्भीरता से सोचनी होगी कि क्या वैश्वीकरण के इस दौर में महाशक्तियों के बीच इस दुनिया में हमारी प्रतिस्पर्धा पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों से हैं? 21वीं सदी में आज जब पूरी दुनिया की नज़रें भारत पर टिकी हैं, ऐसे में हमें अपनी सोच का दायरा वैश्विक करने की ज़रूरत है। चूँकि यूएनडीपी का यह सूचकांक किसी राष्ट्र में स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन के स्तर का मापदण्ड है और यह किसी भी देश के मानव विकास को दर्शाता है। ऐसे में अगर हम वर्तमान मानव विकास की रैंकिंग को वैश्विक परिदृश्य में देखें, तो इसके बड़े मायने हैं, जो हमें बताते हैं कि भारत को बुनियादी क्षेत्रों समेत कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बहुत बेहतर करने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत जी-20 और ब्रिक्स जैसे दुनिया के दो बेहद महत्त्वपूर्ण समूहों से जुड़ा है। जी-20 में दुनिया के सभी बड़े औद्योगिक व सम्पन्न विकसित देश तथा तेज़ी से उभरते विकासशील देश शामिल हैं। ब्रिक्स में भारत के अलावा जो अन्य चार देश शामिल हैं, वो सभी जी-20 समूह के भी सदस्य हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों समूहों से जुड़े सभी सदस्य देशों की रैंकिंग भारत से बेहतर है। इन दोनों समूहों से इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और भारत को छोड़कर सभी सदस्य देशों की रैंकिंग 100 के नीचे है। भारत के ही समान तेज़ी से विकास पथ पर आगे बढ़ रहे एशियाई देश इंडोनेशिया और अफ्रीकी देश दक्षिण अफ्रीका की रैंकिंग्स क्रमश: 107वीं और 114वीं हैं। यानी इस समूह से जुड़ा कोई भी देश मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल नहीं है। सभी देश या तो बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं या फिर उच्च मानव विकास श्रेणी में; जबकि भारत इस समूह में शामिल अकेला ऐसा देश है, जो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल है। ध्यान रहे कि 120 से 156 रैंक तक जो देश हैं, वो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं।

ग्रामीण इलाकों पर ज़्यादा ध्यान देना समय की माँग

ऐसा माना जाता है कि भारत में लगभग तीन दशक पहले हुए आर्थिक सुधारों ने देश को अलग-अलग क्षेत्रों में सशक्त किया है; लेकिन हमें विकास की इस प्रक्रिया को ज़्यादा समावेशी बनाना होगा। हाल के विश्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि भारत की वर्तमान आबादी की लगभग 65 फीसदी जनता ग्रामीण इलाकों में निवास करती हैं। ऐसे में हमें ग्रामीण इलकों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। हालाँकि देश में ग्रामीण इलाकों के विकास के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ढेरों योजनाएँ चलायी जा रही हैं, लेकिन अभी भी अपेक्षित बड़े बदलाव दिखने बाकी हैं। सरकार को इन योजनाओं के नाम बदलने से ज़्यादा इनको लागू करने के तरीकों में बदलाव करने की ज़रूरत है। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि जो भी योजना ग्रामीण स्तर तक पहुँचे, उसका लाभ न्यायसंगत तरीके से सभी लोगों तक पहुँचे।

अगर हमें मानव विकास सूचकांक में बेहतर करना है या फिर संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत् विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर गम्भीरता से आगे बढऩा है, तो जनसंख्या की दृष्टि से भारत के बड़े राज्यों, खासकर बीमारू राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा कृषि क्षेत्र को उन्नत करना होगा। इसके साथ ही गरीबी और बेरोज़गारी को दूर करने की ईमानदार कोशिश करनी होगी तथा लैंगिक समानता को हर हाल में बढ़ावा देना होगा। बीमारू राज्यों समेत देश के अनेक राज्यों के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की स्थिति बुरी है। वर्तमान में कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने इन राज्यों की स्वास्थ्य सुविधाओं की भी पोल खोल दी है। इन क्षेत्रों में सुधार से सच्चे अर्थों में भारतीय समाज में फैली सामाजिक असमानता को खत्म करने में हमें मदद मिलेगी तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा मज़बूत होगी। यूएनडीपी की भारतीय प्रतिनिधि का गरीबी की तरफ इशारा यह बताता है कि भारत को अगर आर्थिक और सामाजिक पैमानों पर बेहतर करना है, तो इस दिशा में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में गम्भीरता से कार्य करने की ज़रूरत है। भारत की तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या यकीनन चिन्ता का एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसे सरकार और जनता दोनों को समझना होगा। अगर हम यूएनडीपी द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक की कुछ वर्षों की रिपोट्र्स को ध्यान से देखें, तो पाते हैं कि इस सूची में शीर्ष स्थानों पर मौज़ूद ज़्यादातर देश जनसंख्या की दृष्टि से छोटे हैं। इसी संस्था के पहले के मानव विकास सूचकांक में भारतीय राज्यों की रिपोट्र्स पर नज़र डालने पर पता चलता है कि जनसंख्या की दृष्टि से बड़े राज्यों का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। ऐसे में हमें इन बड़े राज्यों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि यहाँ स्थिति को बेहतर किया जा सके।

हाल ही में वैश्विक स्तर पर जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट में भारत का 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर होना भी बेहद चिन्ता का विषय है। इस रिपोर्ट के अनुसार, श्रीलंका (64वें), नेपाल (73वें), बांग्लादेश (75वें) तथा पाकिस्तान (88वें) स्थान पर हैं, जो भारत से बेहतर स्थिति में हैं। ऐसे में भारत के नीति नियंताओं को भुखमरी और कुपोषण की दिशा में भी गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों के विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जारी लिंग अन्तर रिपोट्र्स को देखें, तो इसमें भी भारत की स्थिति चिन्ताजनक है। इसमें कोई शक नहीं कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में लिंग भेद कम हो रहा है, लेकिन भारत समेत कुछ देशों में महिलाओं और पुरुषों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय और राजनीति में भेदभाव अभी भी मौज़ूद है; जिसे तत्काल दूर करने की ज़रूरत है। वर्तमान समय की माँग है कि देश के, खासकर ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन गुणवत्ता में सुधार करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में उनका कौशल विकास किया जाए, ताकि वे बदलते परिवेश में अपनी दक्षता विकसित करके व्यक्तिगत आय में वृद्धि कर सकें। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक एवं दूसरे सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश भारत को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि सतत् विकास लक्ष्यों पर गम्भीरता से कार्य किये बिना संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास का एजेंडा अधूरा ही रहेगा। भारत का इस दिशा में बेहतर प्रयास वैश्विक रूप से सामाजिक समानता को मज़बूती देगा। यह बेहद शर्म की बात है कि आज़ादी के करीब साढ़े सात दशक बाद भी तमाम विकासात्मक नीतियों के बावजूद देश के अधिकतर नागरिकों को अभी तक बुनियादी सुविधाएँ तक मुहैया नहीं हो पायी हैं। देश का भ्रष्ट शासन-प्रशासन तंत्र, सत्तालोलुप नेता और कुछ गैर-ज़िम्मेदार तथा लालची नागरिक व समाज इसके सबसे बड़े ज़िम्मेदार हैं। पढ़ी-लिखी भारतीय जनता का गम्भीर मुद्दों से प्रत्यक्ष सरोकार होने के बाद भी चुप्पी साध लेना या महत्त्वपूर्ण मुद्दों से अनभिज्ञ रहना भी बेहद दु:खद है।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

शोपीस बनने लगे उज्ज्वला सिलेंडर

जिस समय ग्रामीणों को केंद्र सरकार की तरफ से उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में गैस सिलेंडर वितरित किये गये, तब गाँवों के अधिकतर घरों में गैस चूल्हे पर खाना बनने लगा था। इससे न सिर्फ कच्चे ईंधन से फैलने वाले धुएँ में कमी देखने को मिली थी। जब नये-नये उज्ज्वला गैस कनेक्शन हुए थे, तब अधिकतर घरों में गैस चूल्हे पर खाना बनने लगा था; लेकिन अब अधिकतर घरों में फिर से कच्चे ईंधन (लकड़ी, कंडे आदि) से चूल्हे पर ही खाना बनता दिखने लगा है। अब हाल यह है कि गाँवों के अधिकतर घरों से सुबह-शाम फिर वही धुआँ उठता है। बल्कि सर्दियों में तो अगर देखें, तो और अधिक धुआँ उठता दिखायी देता है। क्योंकि अनेक लोग सर्दी से बचाव के लिए अलाव भी तापते हैं। हालाँकि खेत में पराली और ऊख की पताई जैसे दूसरे अवशेष जलाने पर पाबंदी है। यदि कोई ऐसा करता है, तो उस पर मोटा ज़ुर्माना लगता है और जेल जाने तक की नौबत आ सकती है। लेकिन गाँव तो गाँव हैं, गाँवों की कच्चे ईंधन पर विकट निर्भरता है। इस बात को सरकारों को भी समझना होगा और ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रदूषण को कम करने के लिए विशेष और स्थायी व्यवस्थाएँ बनानी होंगी।

सवाल यह है कि सरकार की वातावरण को शुद्ध करने की कोई भी योजना आखिर परवान क्यों नहीं चढ़ पाती? अब से करीब तीन दशक पहले भी तत्कालीन सरकार ने प्रदूषण कम करने के लिए घर-घर गोबर-गैस की योजना चलायी थी। शुरू में गाँवों के अनेक घरों में गोबर-गैस के प्लांट भी लगे; क्योंकि उन्हें सरकार की तरफ से बनवाया जा रहा था। लेकिन धीरे-धीरे गोबर-गैस के वो प्लांट समूल रूप से नष्ट हो गये। उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में मिले गैस सिलेंडर भी आज गाँवों के अधिकतर घरों में हैं। लेकिन शुरू से ही लोगों को अपने पैसे से सिलेंडर भराने पड़ रहे हैं। केवल लॉकडाउन के समय तीन महीने मुफ्त में सिलेंडर भरे गये थे। इस बारे में कुछ ग्रामीणों से बात करने पर कई ऐसी बातें और परेशानियाँ निकलकर सामने आयीं, जिन पर सरकार को भी विचार करना चाहिए।

क्या कहते हैं लोग

उज्ज्वला सिलेंडर भराने, न भराने के बारे में पूछने पर मीरगंज क्षेत्र के गाँव रसूलपुर के श्याम सिंह कहते हैं कि गाँवों में हर आदमी के पास इन दिनों परेशानी है। बाहर रोज़ी-रोटी कमा रहे बहुत-से लोग इस समय खाली बैठे हैं। मज़दूरों की इतनी आमदनी नहीं होती कि वे हर महीने करीब साढ़े सात सौ की गैस भरा सकें। किसानों पर वैसे ही आफत आयी हुई है। पहले सिलेंडर सस्ता था, कुछ लोग बाहर रहकर पैसा भी कमा रहे थे, तब ज़्यादातर घरों में सिलेंडर भरा लिये जाते थे। अब सिलेंडर भी बहुत महँगा है और कमायी भी नहीं है, तो सिलेंडर कहाँ से भराएँ। अंगनलाल ने इस बारे में कहा कि भैया! सरकार ने सिलेंडर तो दे दिये और गैस महँगी कर दी। हम तो मज़दूर आदमी ठहरे। अकेले कमाते हैं, तो पाँच लोग रोटी खाते हैं। ऐसे में सिलेंडर-बिलेंडर कौन भराये?

हमारे वश की बात तो है नहीं। गाँवों में पंडिताई का पेशा करने वाले कस्बा निवासी रामअवतार आर्य कहते हैं कि जो परिवार सम्पन्न हैं, केवल वे ही दोनों टाइम गैस की रोटी खाते हैं। हम जैसे मध्यम परिवारों में एक सिलेंडर भराने के बाद उसे बहुत खास मौके पर ही उपयोग में लाया जाता है; जैसे मेहमान आ जाएँ तो। लेकिन गरीबों के लिए तो सिलेंडर भराना मोटरसाइकिल में पेट्रोल भराने के जैसा है। सरकार हर महीने सिलेंडर के दाम बढ़ा देती है। उसे सोचना चाहिए कि गाँव के लोग अभी उतने सम्पन्न नहीं है कि वे शहरी लोगों की तरह अच्छा जीवन जी सकें। अब तो सब्सिडी भी नहीं आती। पहले की अपेक्षा अब दो से ज़्यादा महँगा सिलेंडर हो गया। बिजली पहले ही महँगी हो रखी है। पेट्रोल, डीज़ल सब तो महँगा है। गाँवों में अधिकतर लोग या तो किसान हैं या मज़दूर। यहाँ नौकरीपेशा 10 फीसदी भी नहीं हैं। ऐसे में किसके वश की बात है कि वह सिलेंडर भराये? किसान खेत में पानी के देने के लिए ट्रेक्टर से जुताई करने और इंजन से पानी देने में ही हाँफ जाता है। अब तो डीज़ल इतना महँगा है कि अपने ही ट्रैक्टर से जुताई बहुत महँगी पड़ती है, अपने ही पम्पसेट से पानी लगाना बहुत महँगा पड़ता है। सोचिए, जो लोग सब कुछ किराये पर लाकर खेती करते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? ऐसे में सिलेंडर भराने की हिम्मत किसकी होगी? जबसे कोरोना आया है, तबसे तो वैसे भी लोगों की रोज़ी-रोटी पर संकट मँडराने लगा है। अब सरकार कह रही है कि नया कोरोना आ गया है। समझ में नहीं आता कि नया कोरोना ही आया है या लोगों की खाल उतारने की तैयारी की जा रही है! कभी-कभी सियासी लोगों पर विकट गुस्सा आता है। लेकिन हम क्या कर सकते हैं? हम गाँव वालों की न तो कोई सुनने वाला है और न ही हम सरकार के खिलाफ जा सकते हैं। दो मिनट में पुलिस डंडे मारकर सीधा कर देगी; चाहे हम कितनी भी सही बात करें।

कुछ को नहीं मिले कनेक्शन

हालाँकि इस बात की हम पुष्टि नहीं कर रहे, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि उज्ज्वला योजना के तहत ऐसे भी कुछ परिवार हैं, जिन्हें सिलेंडर ही नहीं मिले। इनमें अधिकतर परिवार वे हैं, जिनके गैस कनेक्शन पहले से थे या जिनके बड़े परिवार हैं और उनके घर में दो या दो से अधिक चूल्हे जलते हैं। प्रेमवती बताती हैं कि उनके परिवार में उनका बेटा और बहू हैं। जब गैस कनेक्शन मिल रहे थे, तब वे अपने बेटे के साझे थीं। तब उन्होंने बहुत कहा प्रधान से कि उन्हें अलग कनेक्शन दिलवा दें, पर किसी ने नहीं सुनी। अब अगर कल को बहू-बेटा अलग हो जाएँ, तो उन्हें तो बुढ़ापे में दोनों बेरा (समय) चूल्हा ही फूँकना पड़ेगा। हमारे पास उज्ज्वला के एक सिलेंडर के अलावा बड़ा सिलेंडर तो छोड़ो, छोटा भी नहीं है। गाँव के एक व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि सच्चाई तो यह है कि प्रधान और दूसरे सियासी लोगों से जिनके सम्बन्ध अच्छे थे, उनके घरों में हर औरत के नाम कनेक्शन हुए हैं और जिनके सम्बन्ध प्रधान से या दूसरे सियासी लोगों से अच्छे नहीं थे या थे ही नहीं, उनमें या तो एक कनेक्शन हुआ है या तो कनेक्शन ही नहीं मिला है।

यह बात कितनी सच है? हम नहीं कह सकते। लेकिन गाँवों में इस तरह की बहुत-सी शिकायतें लोगों के पास हैं। एक व्यक्ति ने तो यह तक आरोप लगाया कि गैस कनेक्शन में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि चाहे शौचालय हो या प्रधानमंत्री आवास योजना सबमें या तो अपने-पराये को देखकर सुविधाएँ दी गयी हैं या फिर धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव बरता गया है।

किसी-किसी परिवार में कई-कई कनेक्शन

बता दें कि जब उज्ज्वला योजना के कनेक्शन दिये गये थे, तब किताब के नाम पर सभी से सौ-सौ रुपये लिये गये थे। हर परिवार को एक सिलेंडर, एक रेगुलेटर, एक पाइप और एक चूल्हा दिया गया था। लेकिन लोगों का कहना है कि इस गैस कनेक्शन में कुछ जगहों पर अपने-पराये का भेदभाव देखने को मिला था। यह बड़े अफसोस की बात है कि लोगों को जो कनेक्शन सरकार ने हर परिवार मतलब हर दम्पति को दिये थे, उनमें भी बंदरबाँट जैसी स्थिति के बारे में कुछ लोगों ने बताया। गाँव के एक पढ़े-लिखे और गाँव की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि देखिए, गाँवों में हर सरकारी योजना में बड़े पैमाने पर धाँधली होती है। उज्ज्वला योजना में भी खूब धाँधली हुई। इस योजना के तहत हुए गैस कनेक्शनों में देखने को मिला कि जिसके सम्बन्ध प्रधान या दूसरे पहुँच वाले लोगों से थे, उन्हें ज़्यादा लाभ मिला और जिनके सम्बन्ध नहीं थे, उन्हें या कम लाभ मिला या मिला ही नहीं। ऐसे में कई परिवार तो ऐसे हैं, जिनके संयुक्त परिवार में जितने दम्पति जोड़े हैं, उतने ही सिलेंडर मतलब कनेक्शन उन्हें मिल गये। लेकिन कुछ ऐसे भी परिवार हैं, जिनके सम्बन्ध प्रधान या दूसरे सियासी लोगों से नहीं हैं, उनके संयुक्त परिवार में एक ही कनेक्शन दिया गया, जबकि इनमें कई परिवार में दो से तीन-चार दम्पति जोड़े तक हैं। कभी-न-कभी तो  संयुक्त परिवार अलग होंगे ही न! तब क्या उन्हें और कनेक्शन मिलेंगे? उन्होंने कहा कि गाँवों में तकरीबन हर योजना में खूब धाँधली होती है, लेकिन उसकी कोई जाँच नहीं होती; क्योंकि भ्रष्टाचार का जाल नीचे से ऊपर तक फैला हुआ है। उन्होंने तो यह तक कहा कि गाँवों के विकास के लिए आने वाले सरकारी बजट तक का यहाँ बंदरबाँट होता है। इसकी जाँच होनी चाहिए, पर जाँच करे कौन?

अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की चुनौती

कोरोना महामारी के बीच बैंकों को गैर-निष्पादित आस्ति (एनपीए) बढऩे का डर सता रहा है। हालाँकि अनेक कॉर्पोरेट घराने ऋण खातों के पुनर्गठन से परहेज़ कर रहे हैं; क्योंकि उन्हें डर है कि ऋण खातों के पुनर्गठन से बाज़ार में उनकी साख खराब होगी और वे बाज़ार से प्रतिस्पर्धी दर पर पूँजी नहीं उगाह सकेंगे। इसी वजह से अभी तक बहुत ही कम कॉर्पोरेट घरानों ने ऋण खातों के पुनर्गठन के लिए आवेदन किया है। हालाँकि इसे बैंकों के लिए सकारात्मक स्थिति माना जा रहा है। क्योंकि अगर बड़े खातों का पुनर्गठन नहीं किया जाता है, तो बैंकों को एनपीए के मद में ज़्यादा राशि का प्रावधान नहीं करना पड़ेगा।

महत्त्वपूर्ण है कि पुनर्गठित खातों के असफल होने पर कॉर्पोरेट घरानों और बैंक दोनों को नुकसान होगा। यह भी सच है कि यदि पुनर्गठन सफल होता है तो दोनों को फायदा होगा, लेकिन वह उनके असफल होने से कम होगा। इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घराने पुनर्गठन का विकल्प नहीं चुनना चाहते हैं। यह प्रक्रिया बैंक के लिए भी कष्टकारी होगी; क्योंकि पुनर्गठित खातों के संचालन में मानव संसाधन को ज़्यादा वक्त लगेगा और बैंक संसाधन भी ज़्यादा खर्च होंगे।

मौज़ूदा परिदृश्य में बैंक कॉर्पोरेट घरानों को समझाने में सफल रहे हैं कि वे पुनर्गठन का विकल्प नहीं चुनें; क्योंकि इससे उन्हें ज़्यादा नुकसान होगा। यह भी सच है कि 6 महीनों के लिए ब्याज और िकस्त पर स्थगन की व्यवस्था करने और बैंक द्वारा सभी ऋणधारकों को आपातकालीन ऋण दिये जाने से उनके पास अधिशेष राशि उपलब्ध है, जिसकी वजह से अनेक ऋणी अपने ऋण खातों को पुनर्गठित करने की ज़रूरत महसूस नहीं कर रहे हैं।

ऋण के क्षेत्रवार वितरण के विश्लेषण से पता चला है कि धातु और धातु उत्पाद, पेट्रोकेमिकल, ऊर्जा, गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनी (एनबीएफसी), रियल एस्टेट, कपड़ा, एफएमसीजी, फार्मा, केमिकल, स्वास्थ्य, उपभोक्ता टिकाऊ, वाहन आदि क्षेत्रों ने ऋण एवं ब्याज स्थगन का विकल्प चुना है। हालाँकि इन क्षेत्रों का ऋण कम है और वे नकदी की कमी की समस्या का भी सामना नहीं कर रहे हैं। उन्होंने ऐसे कदम सिर्फ मौज़ूदा अनिश्चितता वाले माहौल की वजह से उठाये हैं।

फिलहाल ऋण के िकस्तों एवं ब्याज के स्थगन की वजह से कारोबारियों के पास अधिशेष राशि आ गयी है, जिसका इस्तेमाल वे या तो अपने ऋण की राशि को कम करने के लिए कर रहे हैं या फिर अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए कच्चे या तैयार माल का आयात कर रहे हैं। इसी वजह से विविध वस्तुओं के आयात में बढ़ोतरी देखी जा रही है। आँकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि विगत छ: महीनों में ऋण दर में कोई वृद्धि नहीं हुई है। इतना ही नहीं, इस अवधि में गैर-खाद्य ऋण में मार्च 2020 के मुकाबले सितंबर, 2020 में 1.02 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि हुई है। इस अवधि के दौरान मध्यम उद्यमों और कृषि एवं सम्बद्ध गतिविधियों में ऋण वृद्धि क्रमश: 13.84 फीसदी और 3.17 फीसदी की दर से बढ़ी है।

यह भी देखा गया है कि मार्च, 2020 से सितंबर, 2020 के बीच अधिकांश क्षेत्रों में ऋण वृद्धि दर नकारात्मक रही है। केवल कुछ क्षेत्रों, जैसे- अन्य धातु व धातु उत्पाद, वाहन, वाहन के पुर्जे, परिवहन उपकरण, होटल, रेस्तरां आदि क्षेत्रों में मामूली वृद्धि दर्ज की गयी है; जिसका कारण कारोबारियों द्वारा ऋण एवं ब्याज स्थगन की स्थिति का लाभ उठाते हुए अधिशेष राशि का इस्तेमाल अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए करना और कार्यशील पूँजी चक्र की अवधि में वृद्धि का होना है।

विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि इन क्षेत्रों में 32.6 लाख करोड़ रुपये का जमा अधिशेष (क्रेडिट बैलेंस) है, जिसका कारण इन क्षेत्रों के 15 से 20 फीसदी कारोबारियों द्वारा ऋण के िकस्त एवं ब्याज के स्थगन का विकल्प चुना जाना है। एक अनुमान के अनुसार, पुनर्गठन के नकारात्मक परिणामों को देखते हुए महज़ 15 से 20 फीसदी कारोबारियों ने ही पुनर्गठन के लिए आवेदन किया है। अधिकांश कारोबारियों को डर है कि अगर वे पुनर्गठन का विकल्प चुनेंगे, तो उन्हें बाज़ार से पूँजी जुटाने में दिक्कत आयेगी और रेटिंग एजेंसियाँ उनकी रेटिंग को कूड़ा-करकट में तब्दील कर देंगी। इसलिए कहा जा रहा है कि पुनर्गठन की राशि अधिकतम एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा नहीं होगी।

बावजूद इसके मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में सूक्ष्म, लघु और मझौले ऊधमों (एमएसएमई) और कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में ऋण पर दबाव बना रहेगा। ऐसी स्थिति में एनपीए में बढ़ोतरी की सम्भावना को सिरे से नकारा नहीं जा सकता है। हालाँकि मार्च, 2020 के एनपीए स्तर से सितंबर, 2020 में एनपीए में कमी आयी है; लेकिन आगामी तिमाहियों में इसमें वृद्धि होने अनुमान है। कृषि ऋणों में तालाबन्दी की वजह से बड़ी संख्या में ऋण खातों का नवीनीकरण नहीं हुआ है, जिसकी वजह से तकनीकी तौर पर कृषि ऋण खाते एनपीए में तब्दील हो सकते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट 2020 के अनुसार, ऋण से जुड़े जोखिम के कारण सभी अनुसूचित व्यावसायिक बैंक (एएससीबी) का समग्र एनपीए मार्च 2020 के 8.5 फीसदी से बढ़कर मार्च 2021 तक 12.5 फीसदी हो सकता है। ऋण जोखिम ज़्यादा बढऩे पर यह 14.7 फीसदी के स्तर पर भी पहुँच सकता है।

800 सूचीबद्ध कम्पनियों के वित्तीय परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश कम्पनियाँ अपने ऋण पोर्टफोलियो को कम कर रही हैं, ताकि उन्हें नकदी की कमी का सामना नहीं करना पड़े। वित्त वर्ष 2020-21 की प्रथम छमाही में इन कम्पनियों ने लिक्विड असेट, नकदी और बैंक बैलेंस का इस्तेमाल अपने ऋण पोर्टफोलियो को कम करने में किया है।

एफएमसीजी, एडिबल ऑयल, फार्मा आदि को छोडकर अधिकांश कम्पनियों का चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा है; लेकिन दूसरी तिमाही में उन्होंने बढिय़ा प्रदर्शन किया है।

हालाँकि सूचीबद्ध कम्पनियों, जैसे- सीमेंट, कैपिटल गुड्स, पैकेजिंग, ऑटोमोबाइल, उपभोक्ता टिकाऊ आदि क्षेत्रों के वित्तीय परिणाम अच्छे रहे हैं। 800 सूचीबद्ध कम्पनियों में से रिफाइनरीज़ और टेलीकॉम को छोड़कर सभी ने ईबीआईडीटीए और पीएटी दोनों में लगभग 10 फीसदी की वृद्धि दर्ज की है। वित्त वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही की तुलना में दूरसंचार क्षेत्र के राजस्व में लगभग 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि उसके नुकसान में 90 फीसदी की कमी आयी। होटल और रेस्तरां, एयर ट्रांसपोर्ट, सेवा, विनिर्माण, खुदरा क्षेत्र, टेक्सटाइल, डायमंड, जेम एंड ज्वेलरी, चमड़े आदि क्षेत्रों ने राजस्व सहित प्रमुख वित्तीय विकास मानकों में दोहरे अंक में वृद्धि दर्ज की है। इन क्षेत्रों में लागत में कमी लायी गयी है। कई क्षेत्रों में कर्मचारियों की लागत में 5 फीसदी से 30 फीसदी तक की कटौती की गयी है। वित्त वर्ष 2021 की दूसरी तिमाही में कुछ क्षेत्रों में पिछली तिमाही के मुकाबले निर्यात में तेज़ी आयी है। उदाहरण के लिए चावल के निर्यात में क्रमिक रूप से 12 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है, जबकि वर्ष दर वर्ष के आधार पर 65 फीसदी की वृद्धि हुई है। मीट एवं डेयरी, आयरन ओर, जेम एंड ज्वैलरी, ड्रग एंड फार्मा, टेक्सटाइल क्षेत्र में कॉटन यार्न, फैब्रिक्स, हैंडलूम उत्पाद आदि में निर्यात में वर्ष दर वर्ष के आधार पर सात फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि 93 फीसदी की क्रमिक वृद्धि हुई।

कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी के कारण अर्थ-व्यवस्था को अनापेक्षित नुकसान पहुँचा है। सरकार अर्थ-व्यवस्था को संकट से उबारने के लिए पूरी कोशिश कर रही है; लेकिन अभी अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं।