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सर्दी में हार्ट और अस्थमा रोगी बरतें सावधानी

राजधानी –दिल्ली में गत दो दिनों से कपकपाती ठंड से लोगों का हाल बेहाल होने लगा है। ऐसी सर्दी में जरा सी लापरवाही हार्ट रोगियों और अस्थमा रोगियों के लिये घातक हो सकती है।

मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डाँ विवेका कुमार ने तहलका संवाददाता को बताया कि कहने को तो सर्दी का मौसम हेल्दी माना जाता है। पर इस मौसम में ठंड के कारण मांसपेशियों में अकड़नपन की शिकायतें एक आम बात होती है। सर्दी के मौसम में रक्त का संचार हाई कोलेस्ट्राल वालों को दिक्कत करने लगता है। जिससे उच्च रक्त चाप की शिकायतें बढ़ने लगती है।इसलिये सर्दी के मौसम में बचाव के तौर पर गर्म कपड़ों को पहनें । कोरोना काल चल रहा है। घर से तभी निकलें जब बहुत जरूरी है। सीने में दर्द को नजरअंदाज ना करें।

इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डाँ आर एन कालरा का कहना है कि ज्यादा सर्दी और ज्यादा गर्मी में अस्थमा और हार्ट रोगी को विशेष सावधानी बरतनी चाहिये। मधुमेह यानि गंभीर और मीठी बीमारी है। इसमें रोगी को कई बार दर्द तक नहीं होता है। जो सांइलेंट मौत हो जाती है। डाँ कालरा का कहना है कि कोरोना काल में लोगों ने डर के मारे, स्वास्थ्य का चैकअप तक नहीं कराया है। डाँ कालरा ने जागरूकता पर बल देते हुये कहा कि नियमित व्यायाम करें , तलीय पदार्थों का सेवन कम करें। अगर सीने में दर्द के साथ बैचेनी हो, जबड़ें में दर्द और वाये हाथ में खिचाव हो तो उसे नजरअंदाज ना करें। ये हार्ट रोग के लक्षण हो सकते है।

किसान आंदोलन में गर्म कपड़ों की बिक्री, रेहड़ी –पटरी वालो का धंधा पनपा

कहते है कि,आपदा-विपदा में भी व्यापारी अपना धंधा निकाल ही लेते है। किसान आंदोलन टिकरी बार्डर, सिंधू बार्डर और गाजीपुर बार्डर पर चल रहा है। जो कि दिल्ली के बार्डर से सटे है। यहां से किसान दिल्ली में प्रवेश नहीं कर पा रहे। दिल्ली में इन दिनों कड़कड़ी सर्दी से लोगों का हाल बेहाल है। वहीं किसानों को रात काटने में काफी परेशानी हो रही है। किसानों का कहना है कि अपनी मांगों के खातिर वे रात को भी खुले आसमान में इस सर्दी में पड़े रहते है। हजारों की संख्या में किसानों को देखते हुये रेहड़ी –पटरी वालों ने गर्म कपड़ो , साल, स्वेटर, जर्सी और कम्बलों की बिक्री शुरू कर दी।

किसान जमकर गर्म कपड़ो की बिक्री भी कर रहे है। इन तीनों बार्डरों में जहां पर किसानों का आंदोलन चल रहा है। वहां पर छोटे बाजार की शक्ल भी देखने को मिल रही है। रेहड़ी पर गर्म कपड़ों को बेचने वाले धीरज ने बताया कि वे दिल्ली में साप्ताहिक बाजारों में रेहड़ी- पटरी लगाकर अपने परिवार का पालन –पोषण करते है। अब यहां पर उन्होंने देखा कि किसानों को गर्म कपड़ों की जरूरत है। सो उन्होंने रेहड़ी लगा ली। किसान जग्गी और इन्दरजीत ने बताया कि सर्दी के मौसम से बचाव के लिये अगर यहां पर सामान व गर्म कपड़े मिल रहे है। तो ये खुशी की बात है।किसान हरप्रीत सिंह ने बताया कि सरकार की तानाशाही का नतीजा है कि किसानों को खुले आसमान के नीचे रात गुजारनी पड़ रही है। उन्होंने किसानों की ओर से सरकार को चेतावनी देते हुये कहा कि अगर सरकार ने कृषि कानून को वापस नहीं लिया तो ये आंदोलन उग्र होता जायेगा।

चिंता बरकरार : खुदरा महंगाई गिरी, पर थोक कीमतों में उछाल

पिछलों दिनों जहां खुदरा महंगाई से लोग हलकान थे, तो अब थोक महंगाई ने आगे फिर से कीमतों में उछाल के संकेत दे दिए हैं।  खाद्य वस्तुओं की कीमतों में नरमी से खुदरा महंगाई नवंबर में गिरकर 6.93 फीसदी हो गई। अक्तूबर में यह 11 फीसदी पर थी। हालांकि, इस दौरान थोक कीमतों पर आधारित महंगाई बढ़कर नौ महीने के शीर्ष स्‍तर पर 1.55 फीसदी हो गई।
नवंबर में उपभोक्ता मूल्य सूचकांक यानी सीपीआई पर आधारित खुदरा महंगाई घटकर 6.93% पर आ गई। हालांकि, यह आरबीआई के तय लक्ष्य से ज्यादा है। खाद्य कीमतें घटकर 9.43% पर आ गईं, जो अक्तूबर में 11% पर थीं। उधर, विनिर्मित उत्पादों की कीमतों में तेजी से थोक महंगाई 1.55 फीसदी बढ़कर नौ महीने के शीर्ष पर पहुंच गई। अक्तूबर, 2020 में यह 1.48% और पिछले साल नवंबर में 0.58% रही थी।
सरकार ने केंद्रीय बैंक को 2% घट-बढ़ के साथ महंगाई दर को 4% पर रखने का लक्ष्य दिया है। महंगाई को देखते हुए केंद्रीय बैंक ने मौद्रिक नीति में किसी तरह का बदलाव नहीं किया था।

अमेरिका में नर्स को लगा पहला टीका, कनाडा में भी शुरुआत

अमेरिका में ब्रिटिश कंपनी फाइजर और बायोएनटेक की तैयार किये गए कोरोना का पहला टीका न्यूयॉर्क के क्वीन्स क्षेत्र में एक अस्पताल के आईसीयू में तैनात नर्स सांद्रा लिंड्से को लगाया गया। इसके साथ सैकड़ों केंद्रों पर टीका लगाने की शुरुआत की गई। वहीं,  कनाडा में भी सोमवार से ही टीके लगने की शुरुआत हो गई।
अमेरिका के इतिहास में कोरोना का टीकाकरण अब तक का सबसे बड़ा अभियान माना जा रहा है। अमेरिका में पहली खेप में वैक्सीन की 1,84,275 वॉयल की आपूर्ति मिशिगन प्लांट से हुई  है। सोमवार को देश के 50 राज्यों में वैक्सीन के 189 वॉयल की आपूर्ति हो जाएगी। इसके अलावा 3,90,000 वॉयल की आपूर्ति मंगलवार तक हो जाएगी। एक वॉयल में पांच खुराक हैं।
आईआईटी मद्रास में 100 से ज्यादा संक्रमित
देश में बंद चल रहे शिक्षण संस्थानों के खुलने के साथ ही वायरस ने भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) मद्रास में विस्फोटक रूप ले लिया है। एक दिसंबर से 12 दिसंबर के बीच किये टेस्ट में करीब 100 छात्र और स्टाफ संक्रमित पाए गए हैं।  इसके बाद संस्थान में स्वास्थ्य महकमे सक्रिय हुआ।  आईआईटी मद्रास ने सफाई दी कि महामारी को देखते हुए नियमानुसार संस्थान
का संचालन हो रहा था। छात्रावासों में केवल 10 फीसदी छात्रों को रहने की इजाजत थी। फिलहाल कैम्पस को बंद कर दिया गया है। छात्रों का इलाज जारी है।

एक घंटा बंद रहीं गूगल सेवाएं

दुनियाभर में गूगल की सेवाएं सोमवार शाम क्रैश कर गईं जिससे जीमेल, यूट्यूब को लोग काफी देर तक एक्सेस नहीं कर पाए। इसके बाद गूगल ने एक ब्यान में कहा कि ‘हम इस बात से अवगत हैं कि आप में से बहुत से लोग अभी यूट्यूब तक पहुँचने में दिक्कत नमहसूस कर रहे हैं। हमारी टीम इसे देख रही है। जैसे ही हमारे पास और खबर आएगी हम आपको यहाँ अपडेट करेंगे। हालांकि, अब यह सेवाएं बहाल हो गयी हैं।

दुनियाभर में गूगल की सेवा शाम 5.26 बजे अचानक क्रैश हो गईं। लोग जी-मेल, यूट्यूब समेत गूगल की सर्विसेज का इस्तेमाल नहीं कर पाए। हालांकि करीब एक घंटे से कुछ कम समय तक बंद रहने के बाद यह सेवा 6.22 बजे तक बहाल कर दी गयी।

रिपोर्ट्स के मुताबिक बंद रहने के दौरान दुुनिया में 54 फीसदी लोग यूट्यूब को एक्सेस नहीं कर सके जबकि 42 फीसदी लोग वीडियो नहीं देख पाए और 3 फीसदी  लोग लॉगइन नहीं कर पाए। इसके अलावा जीमेल पर 75 फीसदी लोग लॉगइन नहीं कर पाए और 15 फीसदी लोग वेबसाइट एक्सेस नहीं कर पाए। इसके अलावा 8 फीसदी लोगों को मैसेज नहीं रिसीव हो पा रहे थे।

इस दौरान गूगल की हैंगआउट, गूगल फॉर्म, गूगल क्लाउड, गूगल ड्राइव, गूगल डॉक्स की सर्विसेस भी क्रैश हो गई थीं। बता दें 20 अगस्त को भी गूगल की सभी सर्विसेस क्रैश हो गई थीं।

हलधर बनाम हुकूमत

भारतीय किसान यूनियन के नेता महेंद्र सिंह टिकैत ने 32 साल पहले किसानों के शुद्ध गैर-राजनीतिक आन्दोलन को ऐसी धार दी थी कि तब की राजीव गाँधी सरकार को उनकी माँगें माननी पड़ीं। तब भी सर्दियाँ थीं; लेकिन वातावरण में किसान आन्दोलन की गर्मी थी। अब फिर वही सर्दी है और राजधानी की सीमाओं पर लाखों किसान आन्दोनरत हैं। तब वोट क्लब आन्दोलन का मुख्य केंद्र था, आज सिंघु बॉर्डर है। 15 किसान काल के गाल में समा चुके हैं। सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद किसानों में यह आशंका गहरे से बैठ गयी है कि मोदी सरकार के तीन कृषि सुधार कानून उनके हितों को कॉर्पोरेट के यहाँ गिरवी रखने की कवायद है। निश्चित ही सरकार कटघरे में है; क्योंकि जिस तरह वह लॉकडाउन के दौरान कृषि बिल संसद में लायी और बिना किसान संगठनों को भरोसे में लिये जल्दबाज़ी में यह बिल पास किये, उससे ढेरों आशंकाएँ उठ खड़ी हुई हैं। ऊपर से आन्दोलन पर उतरे किसानों को पाकिस्तान, चीन और खालिस्तान परस्त बताने की सोशल मीडिया की मुहिम को किसानों ने सरकार से जोड़कर देखा और इसने आग में घी का काम किया। सरकार के साथ किसान संगठनों की सात बार से ज़्यादा दौर की बातचीत का नतीजा न निकलने का यह एक बड़ा कारण रहा कि सरकार किसानों में भरोसा नहीं जगा पायी कि वह उनके साथ खड़ी है।

भारत से बाहर विदेशों में भी इस आन्दोलन की गूँज सुनायी देने से केंद्र सरकार की छवि को नुकसान पहुँचा है। सीएएए आन्दोलन के दौरान भी सरकार को यही नुकसान हुआ था; क्योंकि उसकी रुचि आन्दोलनकारियों को समझने से ज़्यादा आन्दोलन को कुचलने में थी। यही किसान आन्दोलन के मामले में भी दिख रहा है। किसान साफ कर चुके हैं कि वो एमएसपी को कानूनी दायरे में लाये बगैर और तीनों कृषि कानूनों को वापस लेने से कम में बिल्कुल नहीं मानेंगे। सरकार यही नहीं करना चाहती है। सच यह है कि सरकार किसान आन्दोलन की संवेदनशीलता को समझ ही नहीं पायी है; क्योंकि उसके शीर्ष नेतृत्व में कुछ ऐसे लोग हैं, जो यह मानने लगे हैं कि सरकार कुछ भी कर सकती है। उधर भारतीय किसान यूनियन ने कृषि कानूनों के खिलाफ उच्चतम न्यायालय में याचिका दायर की है। याचिका में तीनों कृषि कानूनों को चुनौती दी गयी है।

किसानों का यह आन्दोलन इस बात की भी गवाही देता है कि हमारी हुकूमतें देश के अन्नदाता को बहुत हल्के में लेती हैं। साल-दर-साल कर्ज़ के बोझ तले दबे किसानों की आत्महत्या के हज़ारों मामले इस बात का संकेत करते हैं कि किसानी पर बहुत ज़्यादा और प्राथमिकता से ध्यान देने की ज़रूरत है। कृषि सुधार के कानून यदि किसान से ज़्यादा कॉर्पोरेट के हित के लिए बनाये जाते हैं, तो किसानों का गुस्सा ऐसे ही सड़कों पर आता रहेगा। यह भी कि देश के खेत-खलिहान को कॉर्पोरेट के हाथों बेच देने की कोशिशें बहुत महँगी साबित होंगी। हलधर इस देश की ताकत रहा है; लेकिन इस ताकत को एक मजबूर वर्ग बना देने की कोशिशें कमोबेश हर सरकार में होती रही हैं।

सिंघू बार्डर पर दिल्ली को घेरकर बैठे किसान आतंकवादी नहीं हैं, यह समझकर ही सरकार किसानों का दिल जीत पायेगी। अन्यथा किसानों का वर्तमान आन्दोलन एक बड़े और सम्भावित देशव्यापी आन्दोलन में तब्दील होने में देर नहीं लगेगी और उसके बाद सरकार के लिए इसे सँभालना और मुश्किल हो सकता है। किसानों का यह आन्दोलन इसलिए भी अद्भुत है, क्योंकि अभी तक यह बहुत शान्तिपूर्ण रहा है और इसे पाकिस्तानी और खालिस्तानी समर्थक आन्दोलन जैसे निन्दनीय विशेषण देने के बावजूद आन्दोलनकारियों ने बहुत सहनशीलता का परिचय दिया है।

किसानों ने मोदी सरकार के तीन कृषि बिलों का विरोध तभी शुरू कर दिया था, जब इन्हें बहुत जल्दबाज़ी में संसद में लाया गया। यह बिल किसानों को रास नहीं आएँगे, मोदी सरकार के प्रबन्धकों को यह तभी समझ जाना चाहिए था, जब एनडीए और भाजपा के सबसे पुराने और विश्वस्त सहयोगी अकाली दल ने मोदी सरकार में अपनी मंत्री हरसिमरत कौर बादल का इस्तीफा करवा दिया और सरकार से बाहर चले गये। अकाली दल को अपने मज़बूत गढ़ पंजाब में इन कृषि कानूनों के कारण इतनी राजनीतिक दिक्कत झेलनी पड़ी है कि वह आज तक किसानों का भरोसा नहीं जीत पायी है। इसके विपरीत उसकी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस में किसानों ने भरोसा दिखाया है।

राष्ट्रीय स्तर पर कांग्रेस पहले से ही इन विधेयकों के प्रावधानों का सख्त विरोध कर रही थी, जबकि टीएमसी और कई अन्य विपक्षी दल भी इसके खिलाफ मुखर थे। किसान संगठन उसी समय कह रहे थे कि उन्हें भरोसे में लिए बगैर यह कानून लाने की कोशिश उन्हें किसी भी सूरत मंज़ूर नहीं होगी। लेकिन मोदी सरकार ने इसे बहुत हल्के में लिया। किसानों से संवाद की कोई कोशिश नहीं हुई। तभी से यह आरोप लगने शुरू हो गये थे कि सरकार इन बिलों (अब कानून) को लेकर कॉर्पोरेट के दबाव में है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल अपने मंत्रिमण्डल के साथ किसानों के बीच जाकर उनसे मिल चुके हैं। इसके बावजूद किसान आन्दोलन गैर राजनीतिक दिख रहा है, तो इसलिए कि किसान समझ गये हैं कि वे खुद अपने आप में बड़ी ताकत हैं। दर्ज़नों खिलाड़ी और अन्य जाने माने लोग किसानों के हक में अपने पद्मश्री और अन्य राष्ट्रीय अवॉर्ड वापस कर चुके हैं।

किसान आन्दोलन की गहराई को इस एक बात से समझा जा सकता है कि मोदी सरकार के सबसे बड़े संकटमोचक गृह मंत्री अमित शाह भी किसान नेताओं के साथ बैठक में उन्हें मना नहीं पाये या कोई हल नहीं निकाल पाये। कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर ने तो अन्य मंत्रियों और अफसरों की टीम के साथ कई दौर की बैठकें किसानों के साथ कीं; लेकिन कोई हल नहीं निकला। किसानों ने पंजाब से जब दिल्ली की तरफ कूच किया था तभी से भाजपा के राज्य स्तर से राष्ट्रीय स्तर के नेता इस आन्दोलन को बदनाम करने और इसे कांग्रेस का आन्दोलन बताने में जुट गये थे। यह ठीक है कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने पंजाब में किसानों के समर्थन में लगातार तीन दिन ट्रैक्टर यात्रा की; लेकिन कांग्रेस तो पहले से ही खुले रूप से कृषि सुधार कानूनों के प्रावधानों के खिलाफ बोल रही है। जिस तरह दिल्ली की तरफ कूच कर रहे किसानों से हरियाणा में भाजपा की खट्टर सरकार ने निपटने की कोशिश की, उसने सिर्फ किसानों का केंद्र सरकार पर से भरोसा उठाने का ही काम किया। किसान अब लाखों की संख्या में दिल्ली की सीमाओं, खासकर सिंघु बॉर्डर पर जमा हैं और दिल्ली को घेरे हुए हैं।

भारतीय किसान यूनियन के नेता राकेश टिकैत ने आन्दोलन को लेकर कहते हैं- ‘सरकार और किसान बैठकों में कोई अन्तिम निर्णय नहीं हो सका; क्योंकि सरकार इन कानूनों में संशोधन करना चाहती है, जबकि हम चाहते हैं कि कानून पूरी तरह से निरस्त हों।’

हाल के वर्षों में कृषि सुधारों के नाम पर प्रयास किसानों की ताकत कमज़ोर करने और कॉर्पोरेट के उन पर हावी होने वाले साबित हुए हैं। इसमें दो-राय नहीं कि साल 1960 में हरित क्रान्ति से लेकर आज तक भारत ने कृषि प्रौद्योगिकी में लगातार विकास किया है। लेकिन एक सच यह भी है कि भारत में लगभग एक-तिहाई से कुछ ज़्यादा  किसानों ने ही उन्नत प्रौद्योगिकी अपनायी है। किसानों का एक बृहद वर्ग कृषि नवाचारों और खेती के आधुनिक तरीकों से अवगत नहीं है, जिससे फसलों की पैदावार और गुणवत्ता में बड़ा परिवर्तन नहीं दिखता है।

भारत आज भी कृषि प्रधान देश है और वर्तमान की ज़रूरत कृषि क्षेत्र में एक बड़ी क्रान्ति की है। इससे ही कम प्राकृतिक संसाधन जैसे पानी, ज़मीन और ऊर्जा के साथ अधिक उत्पादन सम्भव हो सकता है। ज़मीनी हकीकत यह है कि कृषि उत्पादकता में सुधार की गम्भीर और ईमानदार कोशिशें कम ही दिखी हैं। सरकार के तमाम भरोसों के बावजूद कृषि उत्पाद दर हाल के वर्षों में कमज़ोर हुई है। यदि मोदी सरकार के इस साल बजट सत्र में पेश किये गये देश के कृषि दर और आर्थिक सर्वेक्षण 2019-20 को ही आधार मानकर देखा जाए तो एनडीए सरकार के किसानों की आय दोगुनी करने के दावों के विपरीत कृषि विकास दर में गिरावट लगातार जारी है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, 2019-20 के माली साल में कृषि विकास दर नीचे गिरकर मात्र 2.8 फीसदी पर आ पहुँची है, जिसे बहुत चिन्ताजनक आँकड़ा माना जाएगा। आर्थिक सर्वेक्षण की रिपोर्ट कहती है कि साल 2016-17 में जो कृषि विकास दर 6.3 फीसदी थी, वह साल 2017-18 में घटकर 5 फीसदी पहुँच गयी। कृषि विशेषज्ञों के मुताबिक, उसके बाद से हालात लगातार बिगड़े हैं।

वित्त वर्ष 2014-15 में देश के कुल देश के सकल मूल्य वर्धित (जीवीए) में कृषि का हिस्सा 18.2 फीसदी था, जबकि 2015-16 में ये घटकर 17.7 फीसदी पर आ गया। साल 2016-17 में 17.9 फीसदी, 2017-18 में 17.2 फीसदी और 2018-19 में अब तक का सबसे कम 16.1 फीसदी रहा। अब 2019-20 में कृषि अर्थ-व्यवस्था 3,047,187 करोड़ का होने का अनुमान जताया गया है।

सर्वेक्षण के मुताबिक, साल 2018-19 में कृषि विकास दर सिर्फ 2.9 फीसदी रही और इसमें अनुमान लगाया गया है कि वित्त वर्ष 2019-20 के दौरान भी हालत में कोई फर्क आने की सम्भावना नहीं है और यह इस आँकड़े के आसपास ही रहेगी। एक और चिन्ताजनक पहलू यह है कि भारत की अर्थ-व्यवस्था में कृषि की हिस्सेदारी लगातार घटती जा रही है। सरकारी सर्वे कहता है कि साल 2014-15 के दौरान अर्थ-व्यवस्था (जीवीए) में कृषि और इससे जुड़े क्षेत्रों की जो हिस्सेदारी 18.2 फीसदी थी, वो 2019-20 के माली साल में कमज़ोर होकर 16.5 फीसदी तक आ गयी। सर्वे के मुताबिक, देश के कुल जीवीए में कृषि और सम्बद्ध क्षेत्रों की हिस्सेदारी गैर-कृषि क्षेत्रों के अपेक्षाकृत उच्च विकास प्रदर्शन के कारण घट रही है।

‘तहलका’ का पिछले पाँच साल का आकार का आर्थिक सर्वे की रिपोर्ट का अध्ययन बताता है कि कमोवेश हर रिपोर्ट में कहा गया है कि सरकार को कृषि में निवेश, जल संरक्षण, बेहतर कृषि पद्धतियों के माध्यम से पैदावार में सुधार, बाजार तक पहुँच, संस्थागत ऋण की उपलब्धता, कृषि और गैर-कृषि क्षेत्रों के बीच सम्पर्क बढ़ाना आदि मुद्दों पर तत्काल और मज़बूत ध्यान देने की ज़रूरत है। लेकिन सच यह है कि इन पर गम्भीर मुद्दों से अलग किसानों को कमज़ोर करने की कोशिशें होती रही हैं। मोदी सरकार इस बात पर कायम है कि नये कृषि कानून वक्त की ज़रूरत है। कृषि क्षेत्र में पिछले दो दशक में कई बदलाव आये हैं, जिनमें सरकार से ज़्यादा बाज़ार की ताकतों का रोल रहा है।

इन बदलावों में नयी तकनीक, डाटा और ड्रोन का इस्तेमाल, बीज और खाद की बेहतर क्वालिटी और एग्रो बिजनेस का उदय शामिल हैं और इनमें काफी सकारात्मक हैं। इन बदलावों ने कृषि क्षेत्र में निजी कम्पनियों का दखल बढ़ाया है। सरकारों की कमज़ोरी यह रही है कि वह इन बदलावों के साथ कानूनों को आधुनिक बनाने में नाकाम रही है।

कृषि कानूनों में बदलाव लाने की कोशिश मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यूपीए सरकार के दौरान भी हुई थी; लेकिन यह बात बहस तक सीमित रही। बहस करने से यह ज़रूर हुआ कि सरकार को सभी पक्षों की जानकारी मिली; लिहाज़ा उसने इन पर आगे काम नहीं किया। कांग्रेस ने 2019 के लोकसभा चुनाव में भी अपने घोषणा पत्र में भी नये कानून लाने की बात कही थी। हो सकता है कि यदि वह सत्ता में आती, तो उसका तरीका और मसौदा कुछ भिन्न होता। जिस स्तर पर निजी कम्पनियों का दखल कृषि क्षेत्र में बढ़ चुका है, उससे यह तो साफ है कि एक समन्वय बनाने की ज़रूरत रहेगी; लेकिन यह सबसे ज़्यादा ज़रूरी है कि किसानों के हितों की बलि न चढ़े और वे कॉर्पोरेट का चारा मात्र बनकर न रह जाएँ। यही वर्तमान किसान आन्दोलन की भी चिन्ता है।

किसानों की चिन्ता कम्पनियों के हाथों अपने शोषण के बढ़ते खतरे और कमज़ोर होती आय की है। मोदी सरकार अपने तीन कृषि बिलों में किसानों को यही भरोसा नहीं दिला पायी है। कानों लाने से पहले किसान संगठनों चर्चा ज़रूरी थी और यही किया नहीं गया। कृषि क्षेत्र में पहले से उपस्थित निजी कम्पनियों को रेगुलेट करना बहुत ज़रूरी था; लेकिन नये कानूनों में इसकी झलक नहीं मिलती। उलटे निजी कम्पनियों के मज़बूत होने का खतरा पैदा हुआ है।

जाने माने कृषि विशेषज्ञ पी. साईनाथ का कहना है कि केंद्र सरकार ने कोरोना संकट के बीच ऐसे कानून लाकर गलती है और वो माहौल को समझ नहीं पायी है। सरकार को लगा कि अगर वो इस वक्त कानून लाएँगे, तो कोई विरोध नहीं कर सकेगा; लेकिन उसका यह अनुमान गलत था। आज लाखों की संख्या में किसान सड़कों पर हैं। साईनाथ के मुताबिक, एपीएमसी कानून के क्लॉज 18 और 19, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग एक्ट में दिक्कतें हैं, जो किसानों को किसी भी तरह की सुरक्षा नहीं देती हैं। भारत के संविधान का अनुच्छेद-19 देश के लोगों को अपनी आवाज़ उठाने का अधिकार देता है। लेकिन कृषि कानून के ये विधेयक किसी भी तरह की कानूनी चुनौती देने से रोकते हैं। इसमें सिर्फ यह नहीं कि किसान नहीं कर सकते, बल्कि कोई भी नहीं कर पायेगा।

मोदी सरकार के राज में यह दूसरा मौका है, जब किसान आन्दोलित हुए हैं। सन् 2015 में भी विवादास्पद भूमि अधिग्रहण अध्यादेश के खिलाफ सरकार के सामने किसानों ने ऐसा ही विरोध दर्ज करवाया था। बाद में सरकार को इसे वापस लेना पड़ा। सन् 2018 में फसलों की बेहतर कीमत और कर्ज़ माफी को लेकर मध्य प्रदेश का मंदसौर किसान आन्दोलन भी बहुत ताकतवर दिखा था। उसमें बड़े पैमाने पर हिंसा भी हुई थी और तब भी मध्य प्रदेश में भाजपा की ही सरकार थी।

आन्दोलन के सूत्रधार नेता

राकेश टिकैत, जोगिंदर सिंह उगराहां, योगेंद्र यादव,  गुरनाम चढूनी, हन्नान मुल्ला, शिवकुमार हक्का, बलबीर सिंह, जगजीत सिंह, रुलदू सिंह मानसा, मंजीत सिंह राय, बुट्टा सिंह बुरूजगिल, हरिंदर सिंह लखोवाल, दर्शन पाल, कुलवंत सिंह संधू, भोग सिंह मानसा आदि।

क्या कह रही सरकार

तीन कानून वापस नहीं होंगे। हाँ, उनमें संशोधन किया जा सकता है। नये कृषि कानून में न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था खत्म करने का कोई ज़िक्र नहीं है। एमएसपी पर पहले की तरह खरीद होती रहेगी। कृषि उपज मंडियों को लेकर भी पहले ही साफ कर दिया है कि मंडियों को कोई खतरा नहीं है। मंडियाँ पहले की तरह बनी रहेंगी। अच्छी बात यह होगी कि किसान बिचौलियों के चंगुल से निकल जाएँगे। किसान की मंडी में उपज बेचने की बाध्यता भी खत्म हो चुकी है। किसान जहाँ चाहे, अपनी उपज बेच सकता है।

विदेशों में भी किसान आन्दोलन की धमक

नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलन को न सिर्फ देश के अन्य हिस्सों, बल्कि विदेशों से भी समर्थन हासिल हो रहा है। कनाडा, ब्रिटेन के बाद अब संयुक्त राष्ट्र संघ में भी किसान आन्दोलन की चर्चा हुई है। संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंतोनियो गुतारेस के प्रवक्ता स्टेफन दुजारिक ने कहा है कि किसानों को शान्तिपूर्वक प्रदर्शन करने का हक है और उन्हें ऐसा करने दिया जाए। दुजारिक ने एक बयान में कहा कि जहाँ तक भारत का सवाल है, तो लोगों को शान्तिपूर्ण प्रदर्शन करने का अधिकार है और उन्हें ऐसा करने दें।

इस मामले में भारत के विदेश मंत्रालय द्वारा स्पष्ट किया जा चुका है कि किसानों का मुद्दा देश का घरेलू मामला है। कुछ विदेशी नेताओं द्वारा नासमझी और गैर-ज़रूरी बयान दिया जा रहा है, जो एक लोकतांत्रिक देश के आंतरिक मामलों में हस्तक्षेप है और यह भारत को कतई स्वीकार्य नहीं है। भारत ने सख्त चेतावनी देते हुए यह भी कहा है कि यदि यही रवैया जारी रहा, तो भारत और कनाडा के रिश्ते पर भी इसके गम्भीर परिणाम होंगे। यही नहीं, कनाडा के प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो ने भारत की चेतावनी पर ध्यान न देते हुए जब अपनी बात को दोहराया, तो भारत के विदेश मंत्रालय ने कनाडा के हाई कमिश्नर को इस बाबत तलब किया। उधर ब्रिटेन में भारतीय मूल और पंजाब से सम्बन्ध रखने वाले 36 सांसदों का कहना है कि ब्रिटेन को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के साथ यह मुद्दा उठाकर किसानों की समस्या सुलझाने का प्रयास करना चाहिए।

सिंघु बॉर्डर बना आन्दोलन का केंद्र

हरियाणा-दिल्ली सीमा के सिंघु बॉर्डर पर एक तरह से पूरा बड़ा किसान गाँव बस गया है। सिंघु बॉर्डर पर लाखों किसान पूरी ताकत से जुटे हैं। यहीं पंजाब के मानसा से आयीं 80 साल की सरजीत कौर ने कहा कि मोदी सरकार जब तक काले कानून वापस नहीं लेगी, हम यहाँ रहेंगे। हम अपने साथ छ: महीने का राशन-पानी लेकर आये हैं। छोटे बच्चे भी हमारे साथ हैं; क्योंकि हम घरों में ताला लगाकर आये हैं। इस एक बयान से किसान आन्दोलन की ताकत को समझा जा सकता है। कृषि कानूनों के विरोध में अपने घरों में ताले लगाकर किसान ट्रैक्टर-ट्रालियों में अगले छ: महीने का राशन लेकर पहुँचे हैं। किसान साफ कर चुके हैं कि वे तब तक घर वापस नहीं लौटेंगे, जब तक मोदी सरकार इन कानूनों को वापस नहीं ले लेती है।

संसद से पास होने के बाद 23 सितंबर को राष्ट्रपति के हस्ताक्षर के साथ देश में तीन नये कृषि कानून लागू हो गये। इनमें कृषि उत्पादन व्यापार और वाणिज्य (संवर्धन और सुविधा) कानून-2020, आवश्यक वस्तु (संशोधन) कानून-2020 और मूल्य आश्वासन पर किसान (संरक्षण और सशक्तिकरण) समझौता और कृषि सेवा कानून शामिल हैं। यह कानून आने के बाद से ही पंजाब में किसान लगातार केंद्र सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहे हैं। पंजाब सरकार तो मोदी सरकार के तीन कृषि कानूनों को खारिज करके विधानसभा में अपने तीन नये संशोधित कृषि बिल पेश कर चुके हैं। केंद्र सरकार के कानूनों के खिलाफ ऐसा कदम उठाने वाला पंजाब पहला ऐसा राज्य बना।

सितंबर में कुछ समय के लिए आन्दोलन ठंडा होता दिखा था, जब पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने केंद्रीय कानूनों को नकारने के लिए तीन अलग-अलग राज्य कानून पारित किये थे। लेकिन राज्य के कानूनों को भारत के राष्ट्रपति राम नाथ कोविंद ने स्वीकार नहीं किया, जिसके बाद मामला फिर भड़क गया। जबकि कांग्रेस शासित राज्यों ने इस तरह के प्रस्ताव अपनी विधानसभाओं में लाये हैं। आन्दोलन भड़कने के बाद 13 नवंबर को केंद्र सरकार के साथ किसान संगठनों की बैठक में कृषि कानूनों को लेकर कोई सहमति नहीं बन सकी, जिसके बाद किसानों ने दिल्ली कूच शुरू कर दिया। पंजाब-हरियाणा समेत कई राज्यों से किसान इन कानूनों के खिलाफ अब दिल्ली में विरोध करने के लिए इकट्ठे हैं। उत्तर प्रदेश के किसान भी गन्ने का भुगतान समय पर नहीं होने से आन्दोलनरत हैं।

दिसंबर में एक के बाद एक बैठक होने से भी मसले का हल नहीं निकल सका है। सरकार कह रही है कि इसके कानून किसानों के हक के लिए हैं। लेकिन किसान इस पर भरोसा नहीं कर रहे। मोदी सरकार निश्चित ही किसान आन्दोलन से रक्षात्मक दिख रही है। किसान आन्दोलन को बदनाम करने की कोशिशों के आरोप भी केंद्र सरकार पर अब किसान नेता खुलकर लगाने लगे हैं। किसान इस बात से बहुत नाराज़ हैं कि नहीं पाकिस्तान, चीन और खालिस्तान समर्थक बताया जा रहा है। उनका कहना है कि सरकार उनका भरोसा हार बैठी है।

सरकार ने इस दौरान काफी सक्रियता दिखायी; लेकिन उसकी सक्रियता का सन्देश यही गया कि वह किसी भी तरह आन्दोलन को खत्म करना चाहती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी एक कार्यक्रम में इस दौरान यह साफ किया कि उनकी सरकार के कानून किसानों के लिए हैं और इन्हें वापस नहीं लिया जाएगा। मंत्रिमण्डल बैठक भी किसान आन्दोलन पर चर्चा के लिए हुई। सरकार ने 3 दिसंबर से लेकर 7 दिसंबर के बीच किसानों के साथ बैठकों के कई दौर किये। किसानों को समझौते का लिखित प्रस्ताव भी भेजा। लेकिन को सरकार करना चाहती थी, वो किसानों को मंज़ूर नहीं, क्योंकि उनकी माँग तीनों कृषि बिलों को वापस लेने की है। किसानों ने 8 दिसंबर को भारत बन्द भी किया, जिसका देश के अन्य हिस्सों में भी असर दिखा। उनका आन्दोलन अब तेज़ी पकड़ रहा है और किसान भाजपा मंत्रियों के घेराव की घोषणा के साथ यह साफ कर चुके हैं कि वे केंद्र सरकार के साथ दो-दो हाथ करने को तैयार हैं। किसानों ने देश भर में विरोध-प्रदर्शन तेज़ करने की चेतावनी के तहत दिल्ली-जयपुर राजमार्ग को बन्द करना, 12 दिसंबर को सभी टोल प्लाजा पर कब्ज़ा करने और 14 दिसंबर को देशव्यापी विरोध प्रदर्शन का ऐलान कर दिया। किसानों का आरोप है कि एक तरफ मोदी सरकार बातचीत का नाटक कर रही है, दूसरी तरफ अपने सत्ता वाले राज्यों में किसानों के खिलाफ एफआईआर दर्ज की जा रही हैं। यह रिपोर्ट लिखे जाने तक गतिरोध बना हुआ है। इस बीच नीति आयोग के सीईओ अमिताभ कान्त ने एक विवादित बयान देते हुए कहा है कि देश में कुछ ज़्यादा ही लोकतंत्र है, जिसके कारण यहाँ कड़े सुधारों को लागू करना कठिन होता है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने इसे लेकर कान्त से कहा कि श्रीमान मोदी के कार्यकाल में सुधार, चोरी के जैसा है। इसलिए वह लोकतंत्र से छुटकारा पाना चाहते हैं।

किसानों के आन्दोलन के बीच दिल्‍ली के मुख्‍यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलनरत किसानों से मुलाकात की थी और प्रदर्शन को समर्थन का ऐलान किया था। इसके बाद आम आदमी पार्टी ने दिल्‍ली पुलिस पर केजरीवाल को हाउस अरेस्‍ट करने का आरोप लगाया। आम आदमी पार्टी ने अपने ऑफिशियल ट्विटर हैंडल से ट्वीट कर दावा किया कि सीएम से किसी को मुलाकात नहीं करने दी जा रही। इसके बाद विरोधस्वरूप उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया मुख्यमंत्री आवास के सामने धरने पर बैठ गये। सिसोदिया ने कहा- ‘केंद्र सरकार का रवैया उत्पीडऩ वाला है। हम किसानों के साथ हैं। केंद्र कितनी भी कोशिश कर ले हम झुकेंगे नहीं।’

किसानों की माँग के समर्थन में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी सहित विपक्ष के कुछ नेता राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद से भी मिले। विपक्षी नेताओं ने एक ज्ञापन भी राष्‍ट्रपति को सौंपा, जिसमें कहा गया कि सरकार बिना पर्याप्‍त चर्चा के ये कानून लायी है, लिहाज़ा इन्‍हें वापस लिया जाए। इन नेताओं में राकांपा प्रमुख शरद पवार, माकपा नेता सीताराम येचुरी, भाकपा महासचिव डी. राजा आदि थे।

किसानों पर कर्ज़ और आत्महत्याएँ

राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) के आँकड़ों के मुताबिक, कृषि क्षेत्र में आत्महत्याओं का सिलसिला उतार-चढ़ाव के बावजूद जारी रहा है। वैसे किसानों की आत्महत्या के कुछ गिरावट आयी है, लेकिन अभी भी साल भर में 10,000 किसान आत्महत्या कर लेते हैं। गैर-सरकारी आँकड़े इससे कहीं ज़्यादा भयावह हैं। एनसीआरबी के मुताबिक, साल 2016 में 11,379 किसानों ने आत्महत्या की, वहीं  2019 में यह आँकड़ा 10,281 रहा। एनसीआरबी के डाटा के मुताबिक, 2019 के आँकड़ों में कृषि क्षेत्र में 3,900 आत्महत्याओं के साथ महाराष्ट्र सबसे ऊपर है।

2019 के राज्य-वार आँकड़े बताते हैं कि महाराष्ट्र में आत्महत्या करने वाले यह लोग 2,680 (65 फीसदी) कृषक और बाकी खेतिहर मज़ूदर हैं। दूसरे नंबर पर कर्नाटक का आँकड़ा 1,992 पर, जबकि तीसरे पर आंध्र प्रदेश का 1,029 है। चौथे नंबर पर मध्य प्रदेश (541), पाँचवें नंबर पर तेलंगाना (499) और छठे नंबर पंजाब (302) है, जहाँ कृषि क्षेत्र में सर्वाधिक आत्महत्याएँ हुई हैं। पहले की सूचियों में पंजाब का नाम नहीं था। मध्य प्रदेश में 541 कृषि क्षेत्र में हुई आत्महत्याओं में 142 किसान थे। एनसीआरबी के आँकड़े कृषकों और खेतिहर मज़दूरों को अलग-अलग करके दिये जाते हैं। वैसे आँकड़ों के मुताबिक, किसान (भूमि मालिक और पट्टे पर खेती करने वाले किसान) की आत्महत्या में पाँच फीसदी, जबकि कृषि कामों में हाथ बँटाने वाले आत्महत्या मामलों में 15 फीसदी गिरावट दर्ज की गयी है। साल 2015 में किसानों की आत्महत्याओं में 21 फीसदी की गिरावट देखी गयी थी; लेकिन कृषि क्षेत्र से जुड़े मज़दूरों के आत्महत्या मामलों में 10 फीसदी की वृद्धि हुई थी। सन् 2015 की तुलना में वर्ष 2016 में कृषि क्षेत्र में हुई कुल आत्महत्याओं में गिरावट देखी गयी है। किसानों की आत्महत्या के कारणों में फसल की विफलता और कर्ज़ प्रमुख थे। राष्ट्रीय किसान महासंघ भी किसानों को सम्पूर्ण कर्ज़मुक्त करने और सभी फसलों का स्वामीनाथन आयोग सी2+50 फीसदी फॉर्मूले के अनुसार समर्थन मूल्य देने की माँग कर रहा है। संगठन के अलावा भारतीय किसान यूनियन भी प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को कर्ज़ माफी के लिए पत्र लिखा चुकी है। संगठन के प्रवक्ता अभिमन्यु कोहार का कहना है कि लॉकडाउन के दौरान जहाँ सभी कम्पनियों और सरकारी कर्मचारियों को बैंकों से लिए कर्ज़ भुगतान में छूट दी गयी है, वहीं दूसरी तरफ फसल बेचते समय ही किसानों से बैंकों द्वारा जबरदस्ती कर्ज़ वसूला जा रहा था। आरटीआई के माध्यम से खुलासा हुआ है कि 50 बड़ी कम्पनियों का 68,600 करोड़ बट्टे खाते में डाल दिया गया है। वित्त राज्यमंत्री शिव प्रताप शुक्ल ने संसद में उद्योगपति घरानों का 2.42 लाख करोड़ रुपये एनपीए करने की बात स्वीकार की थी। प्रधानमंत्री इकोनॉमिक एडवाइजरी कॉउन्सिल के चेयरमैन बिबेक देबरॉय के मुताबिक, 2004 के बाद से अब तक उद्योगपति घरानों को 50 लाख करोड़ रुपये की टैक्स में छूट दी जा चुकी है। आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की एक रिपोर्ट के अनुसार, सन 2000 के बाद से किसानों को उचित एमएसपी नहीं मिलने के कारण 45 लाख करोड़ रुपये का नुकसान हुआ है। नेशनल एग्रीकल्चर और रूरल डेवलपमेंट (नाबार्ड) ने 2016-17 ने 40.327 ग्रामीण घरों पर एक सर्वे करके रिपोर्ट जारी की थी, जिसके मुताबिक, देश में 52 फीसदी किसानों के ऊपर औसत एक लाख रुपये का कर्ज़ है। देश में कुल 14 करोड़ किसान परिवार हैं, और उन पर 2018 तक किसानों पर कुल उधार महज़ 7 लाख करोड़ रुपये है। यहाँ यह भी दिलचस्प है कि कृषि और इसके सहयोगी क्षेत्र 70 फीसदी जनता को रोज़गार मुहैया कराते हैं और कॉर्पोरेट क्षेत्र मात्र 2.3 फीसदी। फिर भी जब किसानों को कर्ज़मुक्त करने की बात आती है, तो हमेशा वित्तीय संकट का हवाला दिया जाता है।

किसानों का डर

किसान कह रहे हैं कि नयी व्यवस्था में मंडी और एमएसपी (मिनिमम सपोर्ट प्राइस) प्रणाली खत्म कर दी जाएगी और सरकार उनसे गेहूँ और चावल लेना बन्द कर देगी। उन्हें खतरा इस बात से है कि उन्हें अपना माल प्राइवेट कम्पनियों और बड़े कॉर्पोरेट घरानों को बेचना पड़ेगा, जो उनका शोषण कर सकते हैं। किसानों को नये कृषि कानून को लेकर एमएसपी व्यवस्था खत्म होने, मंडियों का समाप्त होने, कृषि क्षेत्र पर उद्योगपतियों के कब्ज़ा होने, कॉन्ट्रेक्ट फार्मिंग से उद्योगपतियों के ज़मीन छीन लेने और बिना मंडी के उपज कौन खरीदेगा जैसे अन्य सवालों को लेकर आशंका बनी हुई है।

किसान वापस नहीं जाएँगे। यह सम्मान का मामला है। क्या सरकार कानूनों को वापस नहीं लेगी? क्या वह निरंकुश हो गयी है? अगर सरकार अडिय़ल है, तो फिर किसान भी।  कानूनों को वापस लेना होगा।

राकेश टिकैत

अध्यक्ष, भारतीय किसान यूनियन

किसान ने इस देश की नींव रखी है और वे दिनभर इस देश के लिए काम करते हैं। ये कानून किसान विरोधी हैं। प्रधानमंत्री ने कहा था कि ये कानून किसानों के हित में हैं। अगर किसानों के हित में हैं, तो फिर किसान सड़कों पर क्यों हैं? इन कानूनों का उद्देश्य हिन्दुस्तान की कृषि व्यवस्था को प्रधानमंत्री के मित्रों के हवाले करने का है। किसान इस बात को बहुत अच्छी तरह से समझ गये हैं। किसानों की शक्ति के सामने कोई नहीं टिक सकता। भाजपा सरकार को गलतफहमी में नहीं रहना चाहिए कि किसान डर जाएँगे, पीछे हट जाएँगे। नये कृषि कानूनों के रद्द होने तक किसान न डरेगा और न ही पीछे हटेगा।

 राहुल गाँधी

कांग्रेस नेता

पिछली शताब्दी के कानूनों को लेकर अगली सदी का निर्माण नहीं किया जा सकता; क्योंकि पिछली सदी में उपयोगी रहे कानून अगली शताब्दी के लिए बोझ बन जाते हैं। इसीलिए सुधार की प्रक्रिया लगातार चलनी चाहिए। नये कृषि कानून किसानों के हित में हैं। इन सुधारों से न सिर्फ किसानों के अनेक बन्धन समाप्त हुए हैं, बल्कि उन्हें नये अधिकार भी मिले हैं, नये अवसर भी मिले हैं। इन कृषि सुधारों ने किसानों के लिए नयी सम्भावनाओं के द्वार खोल दिये हैं। वर्षों से किसानों की जो माँगें थीं, जिन को पूरा करने के लिए किसी-न-किसी समय में हर राजनीतिक दल ने उनसे वादा किया था, वो माँगें पूरी हुई हैं। काफी विचार-विमर्श के बाद भारत की संसद ने कृषि सुधारों को कानूनी स्वरूप दिया है। इस कानून में एक और बहुत बड़ी बात है कि इनमें ये प्रावधान किया गया है कि क्षेत्र के एसडीएम को एक महीने के भीतर ही किसान की शिकायत का निपटारा करना होगा।

नरेंद्र मोदी

प्रधानमंत्री

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के बंगले को बीएमसी ने किया डिफॉल्टर घोषित लाखों रुपये का पानी बिल लंबित

महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के वर्षा बंगले सहित कई मंत्रियों की जलापूर्ति बिल न भरने की वजह से रोक दी गई है। पानी के बिल की यह राशि 24 लाख 56 हजार 469 है! जिसके चलते मुंबई महानगर पालिका ने मुख्यमंत्री ‘वर्षा’ बंगला को डिफॉल्टर सूची में डाल दिया है।

आरटीआई कार्यकर्ता शकील अहमद शेख को मिली इस जानकारी के बाद , सवाल पूछा जा रहा है कि क्या मंत्रियों के खिलाफ कार्रवाई की जाएगी?

आरटीआई से मिली जानकारी के मुताबिक, मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के वर्षा बंगला, मुख्यमंत्री के सुरक्षाकर्मियों का तोरण बंगला, वित्त मंत्री अजीत पवार के देवगिरी, जयंत पाटिल के सेवासदन, ऊर्जा मंत्री नितिन राउत की पर्णकुटी और राजेश टोपे की जेतवन आदि बंगलों के बिल लंबित हैं। इसमें नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फड़नवीस का बंगला सागर भी शामिल है।

महाराष्ट्र सरकार के पास बंगलों पर खर्च करने के लिए पैसा है, तो किसानों के लिए पैसा क्यों नहीं?: देवेंद्र फडणवीस

महाराष्ट्र राज्य सरकार का शीतकालीन सत्र आज से शुरू हो गया है। विपक्षी ने बाढ़ और तूफान से प्रभावित किसानों को राहत देने की मांग करते हुए विधान भवन की सीढियों पर सरकार के खिलाफ जोरदार नारेबाजी की ।

पूर्व मुख्यमंत्री और नेता प्रतिपक्ष देवेंद्र फडणवीस ने आरोप लगाते हुए कहा कि ‘राज्य सरकार ने इस अधिवेशन में दस बिल की बात की है,लेकिन वास्तव में वे चर्चा ही नहीं करना चाहते हैं। यह सरकार चर्चा से भाग रही है ताकि किसानों को न्याय न मिले, मराठा-ओबीसी समुदाय के मुद्दे सामने न आएं।

कोरोना काल के दौरान सरकारी बंगलों के नवीकरण पर अरबों रुपये खर्च किए जाने पर फडणवीस ने कहा, ‘बंगलों का नवीनीकरण का काम चल रहा है। बंगलों के नवीनीकरण की लागत न्यूनतम होनी चाहिए। लेकिन किसानों की भी मदद की जानी चाहिए। ‘

‘इस सरकार के पास बंगलों पर खर्च करने के लिए पैसा है, तो किसानों को देने के लिए पैसा क्यों नहीं ?’ फडणवीस ने सवाल किया।

मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे के इस बयान पर कि कृषि कानूनों का विरोध करने वाले व न्याय के लिए सड़कों पर उतरने वाले किसानों के साथ बातचीत करने के बजाय, केंद्र सरकार व भाजपा उन्हें देशद्रोही कह रही और यह आपातकाल से भी बदतर है पर फडणवीस का कहना था कि क्या महाराष्ट्र में किसानों की आत्महत्या रुक गई है? यह सरकार अमेरिका रूस पर तो बात करती है लेकिन महाराष्ट्र के सवाल पर चुप हो जाती है। उन्होंने महाराष्ट्र में ऐसे कौन से झंडे गाड़ दिए हैं ? यह सरकार किसानों के पास गई और उन्हें 25,000 से 50,000 देने का वादा कर आए लेकिन सच तो यह है कि आज तक उन्हें एक भी धेला नहीं दिया गया।

किसान-सरकार गतिरोध

यह सम्भवत: पहली बार है, जब नरेंद्र मोदी सरकार ज़मीनी स्तर पर विरोध-प्रदर्शन करने वाले किसानों के निरंतर विरोध का सामना कर रही है; जो कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रहे हैं। आन्दोलन की जंग के बीच महिला किसानों सहित कई अन्नदाता विभिन्न कारणों से अपनी जान गँवा चुके हैं। सरकार ने न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) पर लिखित आश्वासन की पेशकश कर दी है; लेकिन यह पेशकश दोनों के बीच जमी बर्फ को पिघलाने में नाकाम रही है और किसानों तथा सरकार के बीच गतिरोध जारी है। समय की माँग है आन्दोलन और तेज़ होने से पहले केंद्र सरकार कुछ और कदम आगे बढ़ाये।

सरकार नये कृषि कानूनों को ‘सुधार’ कह रही है। लेकिन किसानों को लगता है कि ये अधिसूचित बाज़ारों को खत्म कर देंगे; क्योंकि व्यापार अविनियमित मुक्त बाज़ारों से बाहर चला जाएगा। किसानों को यह भी डर है कि प्रस्तावित बिजली संशोधन विधेयक-2020 का मतलब है कि निकट भविष्य में किसानों के लिए बिजली सब्सिडी से हाथ धोना होगा। वे यह भी मानते हैं कि बाज़ार समर्थक कानून न्यूनतम समर्थन मूल्य (एमएसपी) की व्यवस्था को कमज़ोर करेंगे, जबकि पराली जलाने पर किसानों को भारी ज़ुर्माना लगेगा, जो कि उचित नहीं होगा। क्योंकि किसानों के पास कोई बड़ा आर्थिक विकल्प नहीं है। उनकी एक आशंका यह भी है कि निजी व्यापारियों के लिए मुक्त बाज़ारों में न्यूनतम विनियमन के साथ मनमर्ज़ी करने का रास्ता खुल जाएगा, जबकि अनुबन्ध-खेती की शर्तों को पूरा नहीं करने की सूरत में बड़े कॉर्पोरेट घराने किसानों की ज़मीन पर नियंत्रण कर सकते हैं। किसान यह भी कहते हैं कि सरकार द्वारा पास किये गये नये कानून एपीएमसी मंडियों और अन्य छोटी मंडियों को कमज़ोर करेंगे। उन्हें यह आशंका भी है कि विवादों को सुलझाने के लिए उन्हें दीवानी अदालतों में अपील करने का कोई अधिकार नहीं रहेगा।

जैसे ही ‘भारत बन्द’ के बाद विरोध-प्रदर्शन तेज़ हो गये, केंद्र ने कुछ संशोधनों पर सहमति जतायी; लेकिन विवादास्पद कृषि कानूनों को रद्द करने की किसान संगठनों की प्रमुख माँग को स्वीकार नहीं किया। सरकार ने आन्दोलन को खत्म करने के लिए दो कृषि सुधार कानूनों और संसद में लम्बित एक विधेयक को संशोधित करने की पेशकश की; लेकिन कृषक संघों ने कहा कि वे तीन कानूनों को निरस्त करने से कम में नहीं मानेंगे। किसान इन्हें अपनी आजीविका को नुकसान पहुँचाने वाला बता रहे हैं। इस गतिरोध को देखते हुए किसान एक लम्बी लड़ाई के लिए तैयार दिख रहे हैं, जिसमें दिल्ली के सभी राजमार्गों को अवरुद्ध करना और टोल प्लाजा पर कब्ज़ा करने की उनकी चेतावनी आदि शामिल हैं।

गतिरोध खत्म करने के लिए गेंद अब सरकार के पाले में है। अब तक केंद्र सरकार नये कानूनों के लाभों पर निर्भर रही है।सत्ता पक्ष के कुछ नेता तो आन्दोलनकारियों को ही स्थिति को बिगाडऩे का दोषी ठहराने में जुटे हैं। किसान मौज़ूदा खरीद प्रणाली (तीन कानूनों से पहले की) के हक में खड़े हैं; जो समय की कसौटी पर खरी उतरी है। वे इस कानून के साथ छेड़छाड़ करने वाले किसी भी कानून को अविश्वास की नज़र से देखते हैं। कृषक समुदाय हरित क्रान्ति का अगुआ था; लेकिन अब वह कर्ज़ के बोझ तले दबा जा रहा है। उसका लाभ कम हो रहा है और जोत का क्षेत्र सिकुड़ रहा है। गौरतलब है कि किसानों को गरीबी की ओर धकेलने के बावजूद कृषि ही एकमात्र ऐसा क्षेत्र है, जिसने तालाबन्दी के दौरान अर्थ-व्यवस्था के धरातल में चले जाने पर भी वृद्धि दर्ज की। इस क्षेत्र को मज़बूत करने पर ध्यान केंद्रित किया जाना चाहिए, जो देश की लगभग आधी आबादी को रोज़गार देता है। जल्द-से-जल्द एक सौहार्दपूर्ण समाधान ढूँढना ही इस गतिरोध के हल का एकमात्र रास्ता है।

कृषि उत्पादों पर जम चुकी है पूँजीपतियों की गिद्ध-दृष्टि

आज के समय में पूरी दुनिया की नज़र भारत के प्राकृतिक संसाधनों पर है। भारत के कृषि उत्पादों की पूरी दुनिया में भारी माँग है। फूड इंडस्ट्री में भारत पूरी दुनिया में छठे नंबर पर है, जिसे बढ़ाने की अभी बहुत गुंजाइश है। ऐसे में इस मोटी आमदनी वाले क्षेत्र को कोई भी उद्योगपति भुनाने की कोशिश करेगा, जिस पर अब देश के चंद पूँजीपतियों की नज़र टिक गयी है। दरअसल भारत में सालाना खुदरा बाज़ार 12000 अरब रुपये का है, जिस पर कॉर्पोरेट घरानों की गिद्ध-दृष्टि टिकी हुई है। इतना ही नहीं, भारत की कृषि उत्पादों का सकल मूल्य (वृद्धि) तकरीबन 19.5 लाख करोड़ रुपये है। तीन नये कृषि कानूनों को लेकर किसानों से चली पिछले दौर की सरकार की बातचीत में कृषि मंत्री के मुँह से अनायास यह निकलना कि अगर हमने कृषि कानूनों को वापस लिया, तो अंबानी-अडानी आ जाएँगे, इस बात का सुबूत पेश करता है कि सरकार पूँजीपतियों को कृषि उत्पाद पर लाभ देना चाहती है, जिसके लिए उस पर इन पूँजीपतियों का पूरा दबाव है।

दरअसल भारत में जमाखोरी का धन्धा आज़ादी के बाद से खूब फला-फूला है; जिसे अब और बढ़ावा दिया जा रहा है। इसे अगर एक छोटे से उदाहरण से समझें, तो हाल ही में महँगे हुए प्याज और टमाटार से इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं। तकरीबन 9-10 महीने पहले जो प्याज और टमाटार किसानों से 50 पैसे और एक रुपये किलो भी व्यापारी नहीं खरीद रहे थे, वही प्याज हाल ही में 100 रुपये किलो तक और टमाटर 160 रुपये किलो तक बिक चुका है। हालाँकि टमाटर बहुत दिनों तक जमा नहीं किया जा सकता है, लेकिन आजकल आधुनिक भण्डारण में उसे भी एक-दो महीने तक बचाकर रखा जा सकता है। अब भारत में कुछ कॉर्पोरेट घराने बड़े-बड़े भण्डार-गृह (स्टोर) बना रहे हैं। गोपनीय तौर पर यह भी पता चला है कि अडानी के देश भर में ऐसे सैकड़ों बड़े-बड़े भण्डार-गृह बन रहे हैं। इन भण्डार-गृहों में किसानों से औने-पौने दामों में खाद्यान्न खरीदकर जमा कर लिये जाएँगेे और फिर बाज़ार में उनका अभाव होने पर उन्हें महँगे दामों में उपभोक्ताओं को बेचा जाएगा; जिनमें किसान भी आखिर में उन्हीं उत्पादों का उपभोक्ता होगा, जो उसने पहले मजबूरन सस्ते में बेचे थे। हम इसे सरकार का खुदरा बाज़ार मॉडल भी कह सकते हैं, जो पूरी तरह कॉर्पोरेट घरानों के कब्ज़े में होगा।

किस तरह प्राइवेट खुदरा बाज़ार का मॉडल किया गया है तैयार

पिछले साल आईटीसी ने 22 लाख टन गेहूँ खरीदा था। किसान जब अपना गेहूँ बेचता है, तो उसे 14 सौ से 18 सौ का भाव बमुश्किल बाज़ार में मिलता है, जिसके हिसाब से गेहूँ का आटा अधिकतम 20 से 25 रुपये किलो होना चाहिए, लेकिन वही आटा देश की विभिन्न कम्पनियों के ज़रिये 32 रुपये से लेकर 50 रुपये किलो तक बेचा जाता है। इसकी वजह गेहूँ की जमाखोरी है। क्योंकि आईटीसी जैसी कम्पनियाँ भारी मात्रा में भण्डार-गृहों में स्टॉक जमा करके उसे बाज़ार में थोड़ा-थोड़ा करके फ्लोर मिलों को बेचती हैं। बता दें कि आईटीसी एक प्राइवेट कम्पनी है। इसी तरह अन्य प्राइवेट कम्पनियाँ, जैसे- अडानी, रिलांयस, महेंद्रा, नेस्ले, गोदरेज और अब जियो भी देश में अपने-अपने गोदाम बनाने की होड़ में लगी हैं, जिनमें खाद्यान्न की जमाखोरी मन-मर्ज़ी से की जाएगी। नये कृषि कानूनों में यह तय कर ही दिया गया है कि अब कृषि उत्पादों के भण्डारण की सीमा पर कोई प्रतिबन्ध नहीं होगा। इसका मतलब साफ है कि अब सरकार जमाखोरी पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगायेगी। साथ ही बड़ी-बड़ी कम्पनियाँ किसानों से उनके खेतों में फसल उगाने के ठेगे देंगी, जिसके लिए उन्हें कुछ एडवांस पैसे के लालच में भी फँसाया जाएगा और बाद में यह कम्पनियाँ अपने हिसाब से किसानों से उन्हीं के खेतों में खेती कराएँगी और अपने हिसाब से ही फसलों के भाव तय करेंगी। इसके बाद किसानों से सीधे औने-पौने दामों में कृषि उत्पाद खरीदकर कम्पनियाँ उसे राष्ट्रीय खुदरा बाज़ार और अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में अपनी मर्ज़ी की एमआरपी (अधिकतम बिक्री मूल्य) डालकर बेचेंगी। इससे होगा यह कि न्यूनतम समर्थन मूल्य से भी कम में खरीदी गयी वस्तुओं को यह कम्पनियाँ दवाओं और दूसरे कम्पनी प्रोडक्ट की तरह मन-मर्ज़ी से बेचेंगी और मोटा मुनाफा कमाएँगी। इसका एक छोटा-सा उदाहरण अगर देखना है, तो मॉल में बिकने वाले किसी खाद्य पदार्थ को ले सकते हैं। मसलन, इन दिनों किसानों की मक्का 30-35 रुपये किलो है, जबकि मॉल में उसका आटा 50-60 से लेकर 150 रुपये किलो तक है। यह मोटा मुनाफा, जो किसान कई महीने मेहनत करके, मोटी लागत लगाकर भी नहीं कमा पाता, कम्पनियाँ एक झटके में कमा लेती हैं। सवाल यह है कि अगर किसान को अपनी फसल का बाजिव दाम नहीं मिलता, उसे न्यूनतम समर्थन मूल्य तक की गारंटी नहीं मिल रही, तो कम्पनियों को उसी वस्तु को अपना लेबल लगाने के बाद इतने मोटे दाम पर बेचने की अनुमति क्यों?

सरकार की पॉलिसी समझने की ज़रूरत

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारत से कृषि उत्पादों का निर्यात 38 बिलियन डॉलर का है। सरकार की योजना है कि 2022 तक इस निर्यात को बढ़ाकर 60 बिलियन डॉलर पर ले जाया जाए, जिसके लिए बड़े-बड़े कॉर्पोरेट घरानों का सहारा लिया जाएगा। वैसे इस काम को सरकार खुद भी कर सकती है। लेकिन सवाल यह है कि आखिर यह काम सरकार अपने हाथ में क्यों नहीं लेना चाहती? इसके पीछे की मंशा पूरी तरह से तो नहीं पता, लेकिन कहीं-न-कहीं कॉर्पोरेट घरानों को लाभ पहुँचाने की ज़रूर है। क्योंकि सरकार किसानों को न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी देने से बचना चाहती है, जबकि उन्हीं खाद्यान्नों को ऊँचे दामों पर बेचने कम्पनियों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगाना चाहती। इसके अलावा वह सार्वजनिक वितरण प्रणाली यानी पीडीएस के झंझट से भी छुटकारा पाना चाहती है। क्योंकि राशन कार्डों के ज़रिये काफी सस्ते में, तकरीबन दो से तीन रुपये प्रति किलो में गेहूँ-चावल सरकार को लोगों को देने पड़ते हैं। ऐसे में सरकार चाहती है कि सीधे तौर पर लोगों को कुछ पैसा (जिसकी भी कोई गारंटी नहीं है।) दे दिया जाए और उन्हें बाज़ार से राशन कार्ड से गेहूँ-चावल नहीं देना पड़े। और राशन कार्ड धारक आम लोगों की तरह पूँजीपतियों से बाज़ार भाव में गेहूँ-चावल, चीनी भी खरीदें। भारत की बात अगर की जाए, तो ऐसे राशन कार्ड धारकों की ही संख्या कई करोड़ है, जो गरीबी रेखा से नीचे आते हैं। भारत में कुल तकरीबन 23 करोड़ राशन कार्ड हैं और भारतीय परिवारों में 10 किलो से लेकर 50 किलो महीने तक राशन का खर्च है। ऐसे में रिटेलर अगर उनसे राशन पर एक रुपये प्रति किलो का भी मुनाफा कमाता है, तो वह हर महीने अरबों रुपये कमा लेगा और सरकार इस बजट को, जो कि लोगों के लिए ही है, खर्र्च करने से बच जाएगी और पूँजीपतियों की जेबें भरती जाएँगी।

दूसरा सवाल यह उठता है कि अगर सरकार कृषि उत्पादों को नहीं खरीदेगी, तो फिर कौन खरीदेगा? ज़ाहिर है कि इतनी भारी मात्रा में देश में पैदा होने वाले खाद्यान्नों को छोटे-मँझोले व्यापारी तो खरीद नहीं सकते और अगर वे एक बड़ा भाग इसका खरीद भी लेते हैं, तो रखेंगे कहाँ? बहुत समय तक उसका भण्डारण करने की क्षमता भी उनके पास नहीं होगी। ऐसे में उन्हें बहुत कम लाभ पर उसे स्थानीय बाज़ारों में बेचना पड़ेगा। भारी मात्रा में खाद्य पदार्थों की भण्डारण और उनका निर्यात वही कर सकेगा, जिसके पास मोटी पूँजी होगी। ग्रामीण क्षेत्र से लेकर छोटे-बड़े शहरों तक फैले छोटे और मँझोले व्यापारियों के पास यह पूँजी नहीं है। ऐसे में बड़े कॉर्पोरेट घराने ही इसमें हाथ डालेंगे और छोटे-मँझोले व्यापारी पल्लेदार की भूमिका में आकर उनके लिए काम करेंगे। सम्भव है कि सरकार के इस एक कदम से लाखों लोगों का रोज़गार चला जाए। क्योंकि इससे खुदरा बाज़ार में काम करने वाले बहुत-से बीच के लोग अपने आप खत्म हो जाएँगेे। सोयाबीन के मामले में पहले ऐसा ही हो चुका है। कुछ साल पहले सोयाबीन, जिसकी खेती नागपुर और मध्य प्रदेश में बहुतायत में होती है; के किसानों को करीब 30 हज़ार कम्प्यूटर (एक तरह का कम्प्यूटर पैड) कई साल पहले आईटीसी कम्पनी ने बाँटे थे और किसानों से कहा गया था कि इसके ज़रिये आपको मौसम के अलावा अंतर्राष्ट्रीय बाज़ार में सोयाबीन के दामों की जानकारी हमारे ज़रिये दी जाएगी, जिसके हिसाब से आप खुद सोयाबीन के दाम तय करके उसे उचित दामों में बेच सकेंगे और बिचौलियों द्वारा हो रही ठगी से बच जाएँगेे। किसानों ने खुशी से ये कम्प्यूटर ले लिए और उसके बाद उनकी सोयाबीन के दाम यह कम्पनी अपनी मर्ज़ी से तय करने लगी, जिसका किसानों को भारी नुकसान होना शुरू हो गया। आज भी आईटीसी कम्पनी ही सोयाबीन के भाव तय करती है।

चीन को सस्ते में सरकार ने बेचा चावल

पिछले साल भारत ने चीन तक को चावल निर्यात किया है। लेकिन सरकारी डाटा के मुताबिक, इसके लिए चीन ने केवल 2200 रुपये प्रति कुंतल की कीमत चुकायी है। वह भी उस चावल को, जो गुणवत्ता में काफी बेहतर बताये जाते हैं। सवाल यह है कि जब सरकार 2200 रुपये प्रति कुंतल के भाव से चीन को चावल बेच सकती है, तो ज़ाहिर है कि वह कॉर्पोरेट घरानों को और भी सस्ते में चावल बेच देगी। कॉर्पोरेट घराने उस पर मोटा मुनाफा कमाएँगे, जिसका घुमा-फिराकर देशवासियों की जेब पर असर पड़ेगा।

फंडिंग से तो नहीं जुड़ी है सरकार की नीयत!

तीन नये कृषि कानूनों को लेकर सरकार किसानों से बार-बार एक ही बात कह रही है कि वह किसानों के खिलाफ कोई कदम नहीं उठा रही है, वह जो भी कर रही है, उसमें किसानों का ही भला है। वह पूरी ईमानदारी से कृषि कानूनों को लागू करेगी। सवाल यह है कि सरकार छोटे दुकानदारों की तरह अपनी ईमानदारी की दुहाई देकर क्या साबित करना चाहती है? कहीं ऐसा तो नहीं कि सरकार की नीयत व्यापारियों की तरह कसम खाकर मुनाफा कमाने की हो? क्योंकि सरकार को लग रहा है कि उसे कॉर्पोरेट घराने ही चलाते हैं और उन्ही के दम पर वह चुनावों के दौरान मोटा पार्टी फंड पाती है। जबकि सरकार यह नहीं देख रही कि कॉर्पोरेट घराने उसे फंडिंग किस दम पर करते हैं? क्या इसके लिए सरकार देश के आम लोगों की रोज़ी-रोटी का ज़रिया छीनकर उन्हें ठगने का मौका देना चाहती है? इसके लिए सरकार को कितने लाभ पूँजीपतियों को देने पड़ेंगे और देने पड़ रहे हैं; क्या यह सरकार ने सोचा है? इस मुनाफे के लिए सरकार ने कई पूँजीपतियों को टैक्स में भारी छूट भी दी है और उनका मोटा कर्ज़ भी माफ किया है। जबकि किसानों को सरकार इस तरह का कोई मुनाफा नहीं देती और न देना चाहती है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)