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भरोसे का अभाव

इस बार ‘तहलका’ में राकेश रॉकी की आवरण कथा इस बात पर प्रकाश डालती है कि किसानों का कृषि कानूनों के खिलाफ 50 से ज़्यादा दिन से विरोध क्यों जारी है? और क्यों सरकार के प्रति उनमें भरोसा नहीं है? पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रम इसकी पुष्टि करते हैं। किसानों द्वारा हाल ही में सर्वोच्च न्यायालय के निर्देश पर बनी विशेषज्ञ समिति को अस्वीकार कर देना इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। इस समिति का गठन किसानों और सरकार के बीच मध्यस्थता के लिए किया गया है। समिति को अस्वीकार करने और दूसरी किसान गतिविधियों से साबित होता है कि किसान संगठन परदे के पीछे के खेल को अच्छी तरह से समझ रहे हैं। उन्होंने न केवल अपनी ओर से समिति को खारिज कर दिया है, बल्कि विवादास्पद कानूनों को निरस्त करने तक मंत्रणा प्रक्रिया में भाग लेने से इन्कार कर दिया है। एक मज़ूबत निर्णय लेकर किसान निश्चित ही एक जाल में फँसने से बच गये हैं। उन्होंने आरोप लगाया है कि चुनी गयी समिति के सदस्यों ने कृषि कानूनों के प्रति समर्थन व्यक्त किया है और वास्तव में उनका अविश्वास और संदेह सही साबित हुआ। समिति के चार सदस्यों में से एक, भारतीय किसान यूनियन (मान) के अध्यक्ष भूपेंद्र सिंह मान ने विवाद पैदा होते ही खुद को इससे अलग कर लिया है। यूनियन के ट्विटर हैंडल पर जारी एक बयान में उन्होंने कहा कि किसान यूनियनों और आम जनता की भावनाओं और आशंकाओं को देखते हुए मैं समिति के सदस्य के रूप में दिया गया पद छोडऩे के लिए तैयार हूँ; ताकि पंजाब और देश के किसानों के हितों से समझौता न हो। समिति का अच्छा होना इसके सदस्यों पर निर्भर है और किसान संगठन शुरू से ही समिति की संरचना को लेकर आशंकित थे।

कड़ाके की ठंड और बारिश जैसी विपरीत परिस्थितियों में दिल्ली की सीमाओं पर शान्तिपूर्वक विरोध-प्रदर्शन कर रहे किसान तीनों नये कृषि कानूनों को निरस्त करने की माँग कर रहे हैं और उन्हें इससे कम में कुछ स्वीकार नहीं है। आन्दोलनकारी किसानों ने लोहड़ी पर्व पर तीनों कृषि कानूनों की प्रतियाँ जलाते हुए कहा कि नये कानून राज्यों के कृषि संरक्षण को कम करते हैं और किसानों को कॉर्पोरेट घरानों की दया पर छोड़ते हैं। दूसरी ओर सरकार का कहना है कि निजी निवेश से कृषि क्षेत्र को बढ़ावा मिलेगा और किसानों की दशा में सुधार होगा। बहरहाल, समाज के विभिन्न वर्गों की भावना और समर्थन ने यह स्पष्ट कर दिया है कि जब तक सरकार किसानों की बात नहीं सुनती है, तब तक मसले का कोई अन्त नहीं हो सकता।

सर्वोच्च न्यायालय के प्रधान न्यायाधीश एस.ए. बोबडे ने कहा कि ये जीवन और मृत्यु के मामले हैं। हम कानूनों से चिन्तित हैं। हम आन्दोलन से प्रभावित लोगों के जीवन और सम्पत्ति को लेकर चिन्तित हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही अगले आदेश तक कृषि कानूनों के कार्यान्वयन पर रोक लगायी है। गणतंत्र दिवस की परेड के दौरान दिल्ली में किसानों की प्रस्तावित ट्रैक्टर परेड को टालने के लिए अदालत के हस्तक्षेप ने गेंद सरकार के पाले में डाल दी है। यह एक संकट की स्थिति है, जब मानवता पीडि़त है और पहले से ही 100 से अधिक ज़िन्दगियाँ जा चुकी हैं। सर्वोच्च न्यायालय ने ठीक ही किसानों के आन्दोलन से निपटने के तरीके पर नाखुशी, प्रदर्शनकारियों के शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य के खराब होने के प्रति चिन्ता जतायी है और रक्तपात की चेतावनी दी है। क्योंकि समय जटिलता को हल करने के लिए त्वरित कार्रवाई का है।

करीब आधे देश में बर्ड फ्लू का कहर

30 सितंबर, 2020 को देश को बर्ड फ्लू की बीमारी से मुक्त घोषित किया गया था। लेकिन सिर्फ तीन महीने के बाद ही देश में बर्ड फ्लू (एच5एन1 वयरस) का कहर टूट पड़ा है। कोरोना महामारी के कहर से डरे लोगों में अब बर्ड फ्लू की दहशत है। देश के कई राज्यों को अलर्ट रहने को कहा गया है। मौज़ूदा समय में देश एक साथ कई मोर्चों पर जूझ रहा है। कोरोना  वायरस की वजह से बन्द हुए बाज़ारों ने जैसे-तैसे थोड़ी-बहुत रफ्तार पकड़ी, तो अब बर्ड फ्लू के कारण यह रफ्तार फिर से थम रही है। करीब आधे देश में बर्ड फ्लू का कहर है।

एक अजीब-सा माहौल बाज़ारों में देखा जा रहा है। जहाँ देखो, वहाँ कोरोना के साथ बर्ड फ्लू की चर्चा लोगों में दहशत पैदा कर रही है। दिल्ली की संजय झील की बत्तखों में बर्ड फ्लू के लक्षण पाये जाने से सभी संक्रमित बत्तखों को मारना पड़ा।

दिल्ली में बर्ड फ्लू की दहशत से दिल्ली के चिकन, मटन बाज़ारों, मुर्गा मंडियों को बन्द कर दिया गया था। लेकिन बाद में गाज़ीपुर मुर्गा मंडी के 100 नमूने जाँच के लिए भेजे गये, जो निगेटिव पाये गये। इसके बाद दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने इस मंडी को खोलने के निर्देश जारी कर दिये। इससे पहले इस कारोबार में लगे छोटे-बड़े व्यापारियों ने ‘तहलका’ संवाददाता से कहा था कि जिस तरह कोरोना वायरस को लेकर सियासत हुई, उसी तरह अब बर्ड फ्लू पर सियासत होती नज़र आ रही है, जिसके कारण चिकन-मीट की दुकानें बन्द करायी जा रही हैं। निरीक्षण और परीक्षण के नाम पर शासन-प्रशासन अपनी-अपनी धौंस जमा रहे हैं। जहाँ देखो वहाँ पर प्रशासन से जुड़े अधिकारी जाँच करने आ जाते हैं। मुर्गा, अंडे को बेचने वाले अपनी दुकानों को खोलने से डर रहे हैं, जिससे चिकन, मीट और अंडों के दामों में गिरावट आ रही है।

गाजीपुर मंडी के मुर्गा व्यापारी सलीम का कहना है कि बर्ड फ्लू कोई नयी बीमारी नहीं है; साल-दो साल में आती रहती है। लोगों की ज़रा-सी सावधानी से, खासकर शहरों में जागरूकता से इस पर काबू पा लिया जाता है। पर इस बार बर्ड फ्लू को कोरोना से ज़्यादा खतरनाक बताकर सीधा चिकन-मीट के बाज़ारों को तोड़ा जा रहा है, जिससे चिकन और मीट के व्यापारियों में रोष है। फैज़ान अख्तर का कहना है कि कई राज्यों में चिकन, मटन और अंडे के व्यापारियों को तंग किया जा रहा है। हरियाणा और मध्य प्रदेश में तो बाज़ारों को अचानक बन्द करवाया जा रहा है, जबकि इस बीमारी का मानव जाति पर कोई बड़ा असर देखने को नहीं मिला है।

चिकन, मीट और अंडे का कारोबार करने वाले गफ्फार का कहना है कि विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) सहित देश के जाने-माने डॉक्टरों ने कई बार कहा कि चिकन, मीट और अंडे को अच्छी तरह से उबालकर, पकाकर खाने से एच5एन1 का खतरा नहीं रहता है। इस जानकारी के बावजूद चिकन, मटन के बाज़ारों को क्यों बन्द कराया जा रहा है? जबकि देश की जीडीपी में मटन, चिकन और अंडे के कारोबार का अहम योगदान है। जानकारों का कहना है कि अगर बर्ड फ्लू के नाम ज़्यादा सख्ती की गयी, तो देश की अर्थ-व्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा और साथ ही लाखों लोग बेरोज़गार जाएँगे। देश तो पहले ही विकट संकट से गुज़र रहा है। दिल्ली की गाज़ीपुर मुर्गा मंडी में मीट का कारोबार करने वाले रहमान धन्धे पर असर पडऩे की बात कही।

बताते चलें कि राजस्थान, उत्तर प्रदेश, मध्य प्रदेश, केरल, हिमाचल प्रदेश पंजाब और दिल्ली समेत करीब 12 राज्यों में बर्ड फ्लू से पक्षियों के मौतें हो रही हैं। इसका नतीजा यह तो नहीं कि देश भर में पक्षियों से जुड़े व्यापार पर सरकार पर शिकंजा कसे। डीएमए के पूर्व अध्यक्ष डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि बर्ड फ्लू ने कई मर्तबा देश में हड़कंप मचाया है और एक-दो सप्ताह के भीतर स्वत: ही चला गया है। पर इस बार कोरोना के कारण इस बीमारी को लेकर एक अजीब-सी दहशत फैलायी जा रही है, जो ठीक नहीं है। डॉ. बंसल का कहना है कि बर्ड फ्लू एक संक्रमित बीमारी है और एच5एन1 वायरस के कारण इसका सीधा असर श्वसन तंत्र पर पड़ता है। इससे बचाव के तौर पर सरकार को चौकस रहने और स्वास्थ्य सेवाओं को दुरुस्त रखने की ज़रूरत है। केंद्रीय पशुपालन मंत्री संजीव बालियान का कहना है कि बर्ड फ्लू को रोकने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास कर रही है। देश में यह कोई नयी बीमारी नहीं है। इसके पहले 2006 में इसके मामले मिले थे और फिर 2015 से हर साल मामले सामने आते रहे है।  केंद्रीय पशुपालन, डेयरी और मत्स्य पालन मंत्री गिरिराज सिंह का कहना है कि देश में प्रवासी पंक्षियों के कारण बर्ड फ्लू आता है। अक्टूबर में दिशा-निर्देश जारी किये गये थे कि सर्दी आने वाली है और सावधानी बरतने की आवश्यकता है।

इंडियन हार्ट फांउडेशन के चेयरमैन डॉ. आर.एन. कालरा का कहना है कि 30 सितंबर, 2020 को ही देश को बर्ड फ्लू मुक्त करने की घोषणा की गयी थी; लेकिन न जाने व्यवस्था में कैसे, कहाँ चूक रह गयी कि तीन महीने बाद ही बर्ड फ्लू का कहर टूट पड़ा, जिससे लोगों में दहशत फैल रही है। डॉ. अभी ये बीमारी पक्षियों से पक्षियों के बीच ही फैली है। अगर इंसानों में फैल गयी, तो कोरोना से भी घातक हो सकती है। इससे बचने के लिए कोरोना वायरस से बचाव के उपायों की तरह ही मुँह में मास्क लगाएँ, संक्रमित क्षेत्र में जाने से बचें, साफ-सफाई का विशेष ध्यान रखें।

अर्थ-व्यवस्था में मज़बूती के लिए कृषि बजट में बढ़ोतरी ज़रूरी

हमें बीते हुए बुरे वक्त से भी भरपूर सीखना चाहिए। क्योंकि वक्त के दिये जख्मों पर मरहम लगाकर ज़िन्दगी के सफर में आगे बढऩे में ही इंसान की भलाई होती है। कोरोना महामारी की त्रासदी के चलते हम बीते साल 2020 को कभी नहीं भूल सकते; लेकिन उससे सीख लेकर आगे बढ़ सकते हैं। कहावत है कि बीते वक्त को रोने से आगे की राह मुश्किल होती है। वैसे भी कोरोना टीका आने की उम्मीद बढ़ गयी है, ऐसे में देशवासियों को अब सुरक्षा उपायों पर ध्यान रखते हुए चिन्ता छोड़कर काम में जुट जाना चाहिए। कहने का मतलब यह है कि 2020 को एक बुरा सपना समझकर हमें भुलाना होगा। 2021 का स्वागत हम सब कर ही चुके हैं। लेकिन अब हमारे सामने, खासकर केंद्र सरकार के सामने कई बड़ी चुनौतियाँ हैं।

इसी फरवरी में सरकार को वित्तीय साल 2021-22 के लिए बजट पेश करना है। ऐसे में सरकार को ध्यान रखना होगा कि वह एक ऐसा बजट पेश करे, जिससे कोरोना वायरस और लम्बे लॉकडाउन के चलते डावाँडोल हो चुके हर क्षेत्र को आर्थिक बल मिलने के साथ-साथ उत्पादों की बिक्री में तेज़ी आ सके। इसके लिए न केवल सरकार को उद्योगों, कम्पनियों और दूसरे धन्धों को बढ़ावा देना होगा, बल्कि रोज़गारों का सृजन करना होगा। हालाँकि राज्य सरकारों को भी इसके लिए मेहनत करनी होगी, लेकिन केंद्र सरकार को इसमें प्रमुख भूमिका निभानी होगी। इस बार ठप पड़े उद्योग धन्धों और कम्पनियों के लिए एक अच्छा बजट पेश करने के साथ-साथ सरकार को कृषि क्षेत्र पर ध्यान देना होगा तथा कृषि क्षेत्र का बजट और बढ़ाना होगा। क्योंकि इस बार तीन नये कृषि कानूनों के चलते किसान आन्दोलन कर रहे हैं और उन्हें भरोसे में लेने के लिए सरकार को एक बेहतर कृषि बजट पेश करना चाहिए, अन्यथा सरकार और किसानों की टकराहट से कृषि उपज पर बुरा असर पड़ सकता है। वैसे उम्मीद है कि सरकार इस बजट में कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी; क्योंकि उसकी कोशिश है कि तीन नये कृषि कानूनों के खिलाफ आन्दोलनरत किसान कुछ सुधारों पर उसकी बात मान जाएँ।

चुनौतियों को अवसर में बदलने की ज़रूरत

कोरोना-काल में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कहा था कि आपदा को अवसर में बदलने की ज़रूरत है। लेकिन अब जब आपदा से कुछ-कुछ निजात मिल रही है, तो अनेक चुनौतियाँ सरकार के सामने हैं। लगभग सभी उद्योग धन्धे मंदी के दौर से गुज़र रहे हैं। हालाँकि सरकार के द्वारा दिये गये जीडीपी के 10 फीसदी आर्थिक योगदान, जिसमें कृषि, एमएसएमई और महिलाओं का खासतौर पर ध्यान रखा गया है; से आर्थिक क्षेत्रों में तेज़ी आने की उम्मीद बनेगी। वैसे सरकार और आर्थिक मामलों के कुछ जानकार मान रहे हैं कि आगामी वित्तीय वर्ष 2021-22 में जीडीपी दर 8 से 9 फीसदी पर रह सकती है। अगर ऐसा होता है, तो हर क्षेत्र में रोज़गार के अवसर बढ़ेंगे। कोरोना-काल की चुनौतियों को अवसर में बदलने की बात प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही कह चुके हैं। ऐसे में उम्मीद है कि केंद्र सरकार चुनौतियों को अवसर में बदलने का भरपूर प्रयास करेगी। सरकार से उम्मीद है कि वह लोगों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए उन्हें रोज़गार तथा स्वरोज़गार के नये अवसर प्रदान करेगी। लेकिन यह इतना आसान नहीं है। नये अवसर तभी मिलने सम्भव होंगे, जब सरकार कृषि क्षेत्र पर विशेष ध्यान देगी।

सदियों से आत्मनिर्भर हैंं किसान

जब देश तालाबन्दी के दौरान हर क्षेत्र में कामकाज बन्द हो गया था, तब किसान ही थे, जो अपने खेतों में काम कर रहे थे। इतना ही नहीं, लॉकडाउन में बेरोज़गार हुए मज़दूर जब अपने-अपने घरों को लौटे, तो किसानों ने उन्हें भी सँभाला, काफी हद तक उन्हें रोज़गार भी दिया। यह वह समय था, जब अधिकतर उद्योग, कम्पनियाँ लोगों को नौकरी से निकाल रही थीं। कह सकते हैं कि किसानों ने सरकार को भी यह बता दिया कि आत्मनिर्भर का सही मतलब क्या होता है। सरकार ने तो अब आत्मनिर्भर भारत का नारा दिया है, लेकिन किसान सदियों से आत्मनिर्भर हैं। इतना ही नहीं किसान वो दरियादिल लोग हैं, जो दूसरों का पेट भरने के साथ-साथ देश के अधिकतर मज़दूरों को काम भी देते हैं, जबकि खुद गरीबी में भी जी लेते हैं। अगर बड़े किसानों की बात करें, तो उनकी संख्या बहुत कम होने के बावजूद वे लाखों लोगों को रोज़गार प्रदान करते हैं। लेकिन सदियों से आत्मनिर्भर किसानों ने कभी इस बात का घमंड नहीं किया कि वे दूसरों के लिए क्या करते हैं। आज अगर किसान सड़क पर हैं, तो इसके पीछे उसकी विरासत पर बड़ा खतरा मंडराना है, जिसे किसान क्या कोई भी बर्दाश्त नहीं करेगा। सरकार को चाहिए कि वह किसानों को इस भयंकर ठंड और बारिश के मौसम में खुले में रहने और सोने से बचाने की कवायद करे और जल्द-से-जल्द समस्या का समाधान करे। यह दु:ख की ही बात है कि आन्दोलन में ठंड की वजह से चार दर्जन से अधिक किसानों का बलिदान हो चुका है और सरकार ने एक भी किसान को न तो श्रद्धांजलि दी और न ही उनके परिवार की मदद के लिए कोई कदम उठाया। मुझे बड़े दु:ख के साथ कहना पड़ रहा है कि सरकार की किसानों के प्रति यह उदासीनता देश को बदहाली की उस खाई की ओर ले जा रही है, जिसमें किसान ही नहीं, देश के अधिकतर लोग गिरेंगे।

कृषि को हल्के में न ले सरकार

समस्या यह है कि कृषि के विकास को आज तक किसी भी सरकार ने बहुत ज़्यादा तवज्जो नहीं दी; जबकि सच्चाई यह है कि भारत की अधिकतर जनसंख्या कृषि पर ही निर्भर है। हालाँकि कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा लोग निर्भर हैं, जिससे इस क्षेत्र से जुड़े लोगों की आमदनी बहुत कम है। इसकी एक वजह यह भी है कि किसानों को कड़ी और लम्बी मेहनत के बाद भी इसका उतना लाभ नहीं मिल पाता, जितना कि मामूली-सी मेहनत पर बहुत ही कम समय में जमाखोरों को मिल जाता है। सरकार को इस पर लगाम कसनी चाहिए और किसानों तक ज़्यादा-से-ज़्यादा मुनाफा पहुँचाने की दिशा में काम करना चाहिए। उसे कृषि को हल्के में नहीं लेना चाहिए। कृषि क्षेत्र में लोगों की निर्भरता को कम करने के लिए सरकार को दूसरे क्षेत्रों में रोज़गार बढ़ाने होंगे, ताकि कृषि से जुड़े लोगों की आय बढ़ सके और दूसरे क्षेत्रों में भी रोज़गार के साथ-साथ आमदनी बढऩे के रास्ते खुल सकें।

मैं कोई अर्थशास्त्री तो नहीं हूँ, लेकिन सम्पन्न किसान परिवार में जन्मा और पत्रकारिता के माध्यम से संसद तक का सफर करने का सौभाग्य मुझे मिला है, इसलिए इतना ज़रूर जानता हूँ कि देश की अर्थ-व्यवस्था के लिए क्या फायदेमंद है और क्या नुकसानदायक। मेरी नज़र में कृषि ही एक ऐसा बहुआयामी क्षेत्र है, जिसके विकास से दूसरे क्षेत्रों के विकास की राह आसान होगी। इसलिए मेरी सरकार से अपील है कि वह दूसरे क्षेत्रों को मज़बूत करने के साथ-साथ कृषि क्षेत्र को मज़बूती प्रदान करे, ताकि देश के किसानों की आय दोगुनी करने का प्रधानमंत्री मोदी का सपना भी साकार हो सके और किसानों का जीवन भी खुशहाल हो सके। हालाँकि लॉकडाउन के दौरान भी सरकार ने एमएसपी पर गेहूँ की रिकॉर्ड खरीद करके यह तो बता दिया कि वह किसानों के हित में काम करने की इच्छुक है, लेकिन लॉकडाउन में ही तीन नये कृषि कानून लाकर वह फँस गयी। अब दोनों ही तरफ इन कानूनों को लेकर खींचतान इतनी बढ़ गयी है कि किसान करीब दो महीने से दिल्ली की सीमाओं की सड़कों पर आन्दोलन पर बैठे हैं और आठ बार सरकार और किसानों की बीच वार्ता विफल हो चुकी है। इन कृषि कानूनों में संशोधन को सरकार तैयार है, पर किसान इन्हें वापसी की माँग पर अड़े हैं। क्योंकि उन्हें डर है कि नये कृषि कानूनों के दम पर उद्योगपति कृषि भूमि पर कब्ज़ा जमा लेंगे और किसान अपने ही खेतों में मज़दूर हो जाएँगे। अफसोस इस बात का है कि जो किसान दिन-रात मेहनत करके मोटी लागत लगाकर मज़दूरी के बराबर भी नहीं कमा पाता, उसी की उगायी फसलों पर एक बिचौलिया अपनी कम्पनी का लेबल लगाकर कई गुना लाभ कमा लेता है। सरकार इस पर कोई प्रतिबन्ध नहीं लगा रही, जबकि किसान को एमएसपी के हिसाब से भी दाम नहीं मिल पाते। यह सभी जानते हैं कि भारत कृषि प्रधान देश है और यह क्षेत्र देश की अर्थ-व्यवस्था की रीढ़ है। 2020 की दूसरी तिमाही में जब जीडीपी धरातल में -23.9 फीसदी चली गयी थी, तब केवल कृषि क्षेत्र ही था, जो (प्लस) 3.4 फीसदी पर में था।

कृषि पर ज़रूरत से ज़्यादा निर्भरता

एक बात बताना ज़रूरी समझता हूँ, वह यह कि सर्विस सेक्टर का जीडीपी में योगदान 61.5 फीसदी है, जबकि इससे केवल 25 फीसदी लोगों को ही रोज़गार मिलता है। वहीं कृषि क्षेत्र का जीडीपी में योगदान इससे चौथाई यानी केवल 15.4 फीसदी है, जबकि कृषि क्षेत्र सर्विस सेक्टर की अपेक्षा दोगुने से अधिक लोगों को यानी करीब 53 फीसदी लोगों को रोज़गार देता है। हालाँकि कृषि क्षेत्र से सम्बन्धित अन्य कई रोज़गार भी हैं, जो आँकड़ों में नहीं दिखते; मसलन दुकानदार, खान-पान का छोटा-मोटा धन्धा करने वाले लोग, फल-सब्ज़ी बेचने वाले वे लोग, जिनके रोज़गार की गणना नहीं की जा सकी है और छोटे-मोटे पल्लेदार, जो गाँवों में अनाज की खरीद-फरोख्त करते हैं। इस तरह मेरा मानना है कि कृषि क्षेत्र से रोज़गार पाने वाले लोगों का फीसद और अधिक है। इसलिए सरकार को कृषि क्षेत्र की तरफ विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है। पिछले साल हमने चीन तक को चावल निर्यात किया था। यह कोई नयी बात नहीं है। भारत के खाद्य पदार्थों की दुनिया भर में विकट माँग है, लेकिन कुछ दलाल व्यापारियों और खेती-बाड़ी के प्रति लोगों की उदासीनता के चलते किसानों को उन्नत खेती के तरीके नहीं पता हैं, जिससे हम दुनिया की खाद्य पदार्थों की माँग को पूरा नहीं कर पाते। दूसरे देशों में एक तरफ उन्नत खेती की जाती है, तो दूसरी तरफ कृषि पर बहुत कम लोग निर्भर हैं, जिससे विदेशी किसान काफी सम्पन्न होते हैं।

मेरा मानना है कि लॉकडाउन में आत्मनिर्भर भारत के सपने को पूरा करने के लिए सरकार को देश की जीडीपी में 30 फीसदी और निर्यात में 48 फीसदी हिस्सेदारी रखने वाले एमएसएमई को आत्मनिर्भर बनाना होगा। इसके लिए सरकार को वित्त वर्ष 2021-22 के बजट में एमएसएमई मंत्रालय के लिए भी अन्य बड़े मंत्रालयों की तरह बजटीय प्रावधान करना होगा। ऐसे में सरकार को चाहिए कि कृषि क्षेत्र के लिए सरकार एक विशेष बजट इस वित्तीय वर्ष में पेश होने वाले बजट में पेश करे। पिछली बार वित्तीय वर्ष 2020-21 के लिए सरकार ने 1,42,762 करोड़ रुपए का कृषि बजट पेश किया था, इस बार सरकार को इसे बढ़ाना चाहिए।

अन्य क्षेत्रों में भी हों बड़े बदलाव

कृषि के साथ-साथ सरकार को दूसरे क्षेत्रों में भी बड़े बदलाव और विकास की गति तेज़ करने की ज़रूरत है। वल्र्ड इकोनॉमिक फोरम ग्लोबर काम्पटिवनेस रिपोर्ट 2019 के मुताबिक, भारत दुनिया में पारदर्शिता के मामले में 66वें, प्रॉपर्टी राइट के मामले में 87वें, कार्पोरेट गवर्नेंस के मामले में 15वें और अकाउंटिंग के मामले में 67वें स्थान पर था। इसी तरह इस रिपोर्ट में यह भी खुलासा हुआ है कि भारत ट्रांसपोर्ट इंफ्रास्ट्रक्चर के मामले में दुनिया में 28वें, रोड कनेक्टिविटी के मामले में 72वें, रोड गुणवत्ता के मामले में 48वें, रेल क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 30वें और वायुसेना की क्षमता के इस्तेमाल के मामले में 59वें स्थान पर है। अगर सरकार इन क्षेत्रों में सुधार करती है, तो ज़ाहिर है कि देश और तरक्की करेगा। उम्मीद है कि सरकार 2020 की कोरोना महामारी की त्रासदी को देखते हुए हर क्षेत्र को उबारने के लिए बेहतर कदम उठायेगी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

वैक्सीन पर बवाल

सुरक्षा के लिहाज़ से जो वैक्सीन (टीका) तैयार होने में कुछ साल लेती है, लेकिन कोरोना वैक्सीन महीनों में तैयार हो गयी। लाखों की जान लेने वाली कोविड-19 महामारी की वैक्सीन शायद बहुत-से सवालों में इसलिए भी घिरी है, क्योंकि इस जल्दी को लेकर दुनिया भर के विशेषज्ञों ने वैक्सीन के साइड इफैक्ट्स का खतरा ज़ाहिर किया है। और इस खतरे को वैक्सीन की पहली खुराक लेने वाले दर्ज़नों लोगों के बीमार पडऩे या कुछ मामलों में मौत हो जाने के बाद बल मिला है। भारत के भोपाल के पीपुल्स मेडिकल कॉलेज में 12 दिसंबर को कोवैक्सीन का ट्रायल टीका लगवाने वाले 47 वर्षीय वॉलंटियर दीपक मरावी की 21 दिसंबर को मौत हो गयी। दीपक के परिजनों ने कोविड वैक्सीन को लेकर सवाल उठाये हैं। उधर अमेरिका के फ्लोरिडा में फाइज़र-बायोएनटेक की वैक्‍सीन की पहली खुराक लेने के दो हफ्ते बाद ही 56 साल की गायनेकोलॉजिस्‍ट डॉ. ग्रेगोरी माइकल की दुर्लभ िकस्म के ब्‍लड डिस्‍ऑर्डर से मौत की खबर मीडिया में आयी। इन घटनाओं को देखते हुए वैक्सीन के जल्दी तैयार किये जाने को लेकर आशंकाओं को बढ़ावा मिला है; भले ही कई विशेषज्ञ इसे 100 फीसदी सुरक्षित बता रहे हैं। इधर आशंकाओं और उम्मीदों के बीच भारत सरकार 16 जनवरी से कोविड टीकाकरण शुरू हो गया है।

यह भी बहुत दिलचस्प है कि भारत में कोरोना वायरस से बचाव के लिए वैक्सीन तैयार करने वाली जो दो कम्पनियाँ पहले एक-दूसरे के खिलाफ ज़हर उगल रही थीं, देश में टीके को लेकर बढ़ रही आशंका भरी आवाज़ों के बीच दोनों अचानक एक-दूसरे के साथ आ खड़ी हुईं। भारत बायोटेक और सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया ने 5 जनवरी को एक साझा बयान जारी कर कहा कि वो यह बात समझते हैं कि इस समय दुनिया के लोगों और देशों के लिए वैक्सीन की अहमियत क्या है? ऐसे में हम इस बात का प्रण लेते हैं कि कोविड-19 वैक्सीन की उपलब्धता वैश्विक स्तर पर हो सके। इससे पहले तब विवाद हो गया था, जब एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने कहा था कि सिरम की वैक्सीन कोविशील्ड को टीकाकरण के लिए स्वीकृति मिली है, जबकि भारत बायोटेक की वैक्सीन के सम्बन्ध में डाटा पूरा न होने के कारण उसे बैकअप के तौर पर सिर्फ इमरजेंसी में इस्तेमाल किये जाने की स्वीकृति है। इस पर भारत बायोटेक के प्रमुख डॉ. कृष्ण एला खूब गुस्सा हुए थे और उन्होंने कहा था कि ऐसा कुछ नहीं होता। उनके मुताबिक, वैक्सीन वैक्सीन होती है, बैकअप नहीं। लोग हम पर कीचड़ उछालते हैं और हमें अपना कोट साफ करते रहना होता है। वैक्सीनेशन को लेकर एम्स के निदेशक डॉ. रणदीप गुलेरिया ने हाल में कहा था कि बच्चों का भी वैक्सीनेशन ज़रूरी होगा। हालाँकि उनमें संक्रमण थोड़ा कम होता है। लेकिन इससे पहले बच्चों से जुड़े डाटा का अध्ययन नहीं किया गया है। गुलेरिया के मुताबिक, अभी हमारे पास 5 से 10 साल के बच्चों पर वैक्सीन कितना प्रभावी है? यह डाटा नहीं है। इसलिए अभी हम उन्हें वैक्सीन नहीं दे पाएँगे। गुलेरिया के मुताबिक, वैसे बच्चों में संक्रमण कम होता है; लेकिन जैसे-जैसे स्कूल खुलेंगे, तो बच्चे स्कूल से घरों में संक्रमण लेकर आ सकते हैं और इसका शिकार बुजुर्ग भी हो सकते हैं। इसलिए बाद में बच्चों का भी वैक्सीनेशन ज़रूरी होगा।

क्या कहते हैं विशेषज्ञ

अगर राजनीतिक विरोध को दरकिनार कर दें, तब भी काफी विशेषज्ञ वैक्सीन को लेकर सवाल उठा चुके हैं। ऑक्सफोर्ड-एस्ट्राजेनेका और भारत बायोटेक की वैक्सीनों को भारत में मंज़ूरी मिलने के बाद विश्वसनीयता को लेकर कई सवाल उठे हैं। विशेषज्ञों ने वैक्सीन की स्वीकृति प्रक्रिया पर सवालिया निशान लगाये हैं। ज़ाहिर है इससे देश में इस पर बहस शुरू हो गयी है। सबसे पहली प्रतिक्रिया वेल्लूर मेडिकल कॉलेज में प्रोफेसर और महामारियों के खिलाफ वैक्सीनों से जुड़े ग्लोबल संगठन सीईपीआई की उपाध्यक्ष डॉ. गगनदीप कंग के एक इंटरव्यू में सामने आयी, जब उन्होंने कहा कि ट्रायलों में वैक्सीन के असर के बारे में कोई स्टडी या डाटा प्रकाशित या प्रस्तुत नहीं किया जाना हैरान करने की बात है। ऐसा कभी नहीं देखा गया।

देश के बड़े स्वास्थ्य विशेषज्ञों में गिनी जाने वाली कंग ने कहा कि विशेषज्ञों ने दोनों वैक्सीन के स्वीकृत किये जाने की प्रक्रिया पर सवाल खड़े किये हैं, मगर भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को लेकर ज़्यादा ऐतराज़ जताया गया है। कंग ने कहा कि असल समस्या कोवैक्सीन के डाटा को लेकर है। कोविशील्ड के बारे में जो भी जानकारियाँ हैं, उनसे कम-से-कम यहाँ तक तो पहुँचा जा सकता है कि वैक्सीन 50 फीसदी से ज़्यादा तो असरदार पायी ही गयी, लेकिन भारत बायोटेक की वैक्सीन सम्बन्धी कोई स्टडी कहाँ है? हालाँकि आईसीएमआर के पूर्व प्रमुख डॉ. आर गंगाखेड़कर वैक्सीन को लेकर सामने आ रही बातों को अफवाह बताते हैं। वह कहते हैं कि लोग अफवाहों पर ध्यान न दें। इस वैक्सीन में पोर्क का कोई अंश नहीं है। वैक्सीन से नपुंसकता जैसी बातें भी बकवास हैं। उन्होंने जनता से कहा कि सोशल मीडिया में कोरोना को लेकर जो मैसेज आते हैं, उसकी सत्यता जाने बिना उसे फॉरवर्ड न करें। लेकिन वैक्सीन की मंज़ूरी के बाद अखिल भारतीय ड्रग एक्शन नेटवर्क ने कहा कि वैक्सीन के प्रभाव को लेकर डाटा नहीं दिया गया। पारदर्शिता नहीं बरती गयी है। इससे बहुत-से सवाल खड़े होते हैं। उनकी प्रतिक्रिया तब आयी थी, जब भारत के ड्रग कंट्रोलर जनरल वीजी सोमानी ने मंज़ूर की गयी वैक्सीन के 110 फीसदी सुरक्षित होने का दावा किया था। वैसे उन्होंने डाटा को लेकर कोई सफाई नहीं दी। एआईडीएएन ने भी कोवैक्सीन की मंज़ूरी को लेकर बयान में सवाल उठाया कि किन प्रावधानों के तहत एसईसी ने इस वैक्सीन की मंज़ूरी के लिए सिफारिश की? यह साफ नहीं है।

ज़ाहिर है विषेशज्ञों की तरफ से ही जब सवाल उठे हैं, तो लोगों में भी अविश्वास पैदा होगा ही। विशेषज्ञों के ज़्यादा सवाल पारदर्शिता और डाटा के अभाव को लेकर हैं।

सवाल यह है आखिर भारतीय नियामक संस्थाएँ लोगों को आश्वस्त क्यों नहीं कर रहीं? वो जवाबदेही से नहीं बच सकतीं। यह महज़ एक टीके की बात नहीं है, बल्कि देश के वृहद् फार्मास्यूटिकल इंडस्ट्री की साख का सवाल है।

वैक्सीन के बाद मौत

वैक्सीन की विश्वसनीयता को लेकर उठ रहे सवालों के बीच तब लोगों की आशंका गहरा गयी, जब मध्य प्रदेश की राजधानी भोपाल में कोवैक्सीन का ट्रायल टीका लगवाने वाले 46 साल के वॉलंटियर दीपक मरावी की 21 दिसंबर को मौत हो गयी। दीपक मरावी मज़दूरी करते थे और टीला जमालपुरा की सूबेदार कॉलोनी में किराये के इसी एक कमरे में तीन बच्चों के साथ रहते थे। दीपक ने कोरोना वैक्सीन ट्रायल में हिस्सा लिया था। पहली खुराक के बाद ही तबीयत खराब हो गयी और अस्पताल पहुँचने से पहले दीपक की मौत हो गयी। उनके शव का 22 दिसंबर को पोस्टमार्टम हुआ, जिसकी प्रारम्भिक रिपोर्ट में ज़हर मिलने की पुष्टि हुई। फिलहाल इस मामले में पोस्टमार्टम की फाइनल रिपोर्ट का इंतज़ार है।

उनके पुत्र आकाश के मुताबिक, पिता को 19 दिसंबर को अचानक घबराहट, बेचैनी और जी मिचलाने के साथ उल्टियाँ होने लगीं। उन्होंने इसे सामान्य बीमारी समझकर उसका कहीं इलाज नहीं कराया। आकाश के मुताबिक, खुराक लगवाने के बाद से उसके पिता ने मज़दूरी पर जाना बन्द कर दिया था। उसके पिता कोरोना प्रोटोकॉल का पालन कर रहे थे। दीपक की सेहत 19 दिसंबर को बिगड़ी और 21 दिसंबर को जब उनका निधन हुआ, तब वह घर में अकेले थे। परिजनों ने दीपक की मौत की सूचना उसी दिन पीपुल्स कॉलेज को दे दी थी। आकाश के मुताबिक, खुराक लगवाने के बाद सेहत का हाल जानने अस्पताल से फोन आते रहे थे और 21 दिसंबर को तो पीपुल्स प्रबन्धन से तीन बार फोन आये; लेकिन संस्थान से कोई भी मिलने नहीं आया। पीपुल्स मेडिकल कॉलेज की थर्ड फेज क्लीनिकल ट्रायल टीम ने 21 दिसंबर की दोपहर दीपक के मोबाइल फोन पर वैक्सीन की दूसरी खुराक के लिए फोन किया। यह कॉल आकाश ने रिसीव की। उन्होंने टीम को पिता के निधन की फिर से सूचना दी। इसके बाद एजीक्यूटिव ने कॉल काट दी। उधर कोरोना वैक्सीन निर्माता भारत बायोटेक ने कहा कि भोपाल में एक वैक्सीन वालंटियर की मौत का उनके चिकित्सकीय परीक्षण से कोई सम्बन्ध नहीं है। हैदराबाद स्थित कम्पनी ने कहा कि भोपाल के गाँधी मेडिकल कॉलेज की तरफ से जारी पोस्टमार्टम रिपोर्ट में मौत का सम्भावित कारण हृदयाघात बताया गया है। मामला पुलिस ने दर्ज किया है और जाँच कर रही है। इससे पहले भी भारत में बेंगलूरु के एक वॉलंटियर ने कोरोना खुराक के बाद अपनी तबीयत बिगडऩे का आरोप लगाया था।

उधर एक घटना अमेरिका की है, जहाँ फाइज़र-बायोएनटेक का वैक्‍सीन स्वीकृत होने वाली पहली वैक्‍सीन है। अमेरिका मीडिया की रिपोर्ट के मुताबिक, फ्लोरिडा में इसकी पहली खुराक लेने के 16 दिन बाद गायनेकोलॉजिस्‍ट डॉ. ग्रेगोरी माइकल की मौत हो गयी। उनकी मौत के बाद सेंटर्स फॉर डिसीज कंट्रोल एंड प्रिवेंशन (सीडीसी), फ्लोरिडा के स्वास्थ्य विभाग और मियामी-डेड मेडिकल ए‍जामिनर्स ऑफिस ने मामले की जाँच शुरू कर दी है। माइकल की मौत को एक दुर्लभ कंडीशन से जोड़ा गया है, जो शरीर में रक्त के थक्के बनने की क्षमता को प्रभावित करती है। इस घटना के बाद फाइज़र ने भी इस मामले में अलग से अपनी जाँच शुरू कर दी है। कम्पनी ने स्वीकार किया है कि डॉक्टर की मौत गम्भीर थ्रोम्बोसाइटोपेनिया के अत्यधिक असामान्य क्‍लीनिकल केस के कारण हुई थी। हालाँकि को खुराक लेने से 41 वर्षीय सोनिया एसेवेडो कोई साइड इफेक्‍ट नहीं हुआ था।

कैसे होगा टीकाकरण

डीसीजीआई ने भारत बायोटेक की स्वदेशी तौर पर विकसित कोवैक्सीन को 12 साल से अधिक उम्र के बच्चों पर क्लीनिकल ट्रायल करने की अनुमति दे दी है। सरकार की मंज़ूरी के मुताबिक, सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशिल्ड को 18 साल से अधिक उम्र वाले लोगों को दिया जाएगा। वैक्सीनेशन के बाद भी लोगों को कोविड 19 गाइडलाइन का पालन करने को कहा गया है। उन्हें मास्क पहनने और सैनिटाइजेशन करने को कहा गया है। विशेषज्ञों का मानना है कि वैक्सीनेशन के बाद लोगों के शरीर में रोग प्रतिरोधक क्षमता विकसित होगी, जिससे कि वो इस वायरस का सामना कर सकें। कहा जा रहा है कि वैक्सीनेशन के बाद लोगों में वायरस से लडऩे की क्षमता विकसित होगी। लेकिन दोबारा कोरोना नहीं होगा, इसका दावा किसी ने नहीं किया है।

सरकार ने को-विन मोबाइल एप्लीकेशन बनायी है, जो वैक्सीनेशन शुरू होने पर मौज़ूद होगी। इसके अलावा जिस व्यक्ति को वैक्सीन का खुराक दी जाएगी, उसे पहले ही फोन पर सन्देश आ जाएगा। यानी जिसे वैक्सीन का खुराक मिलना है, तो उसे फोन पर तारीख, वक्त और जगह की जानकारी खुद ही आयेगी। वैसे वैक्सीन लगवानी है या नहीं, ये किसी भी व्यक्ति की इच्छा पर निर्भर है। यानी कोई इसके लिए मना भी कर सकता है। जिन लोगों को शुरुआती चरणों में वैक्सीन मिल रही है, उनकी लिस्ट जारी की जाएगी; जिसके आधार पर सभी को अपना रजिस्ट्रेशन करवाना होगा। इसके लिए पहले फोन पर सन्देश आयेगा। रजिस्ट्रेशन के लिए ड्राइविंग लाइसेंस / वोटर आईडी कार्ड / पैन कार्ड / आधार कार्ड / पासपोर्ट, बैंक खाते की पासबुक, मनरेगा कार्ड, स्वास्थ्य मंत्रालय का हेल्थ आईडी कार्ड में से किसी भी डॉक्यूमेंट की ज़रूरत रहेगी।

भारत में वैक्सीन मुफ्त मिलेगी या फिर नहीं? यह तस्वीर अभी साफ नहीं है। बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल कह चुके हैं कि उनके प्रदेश में जनता को मुफ्त में टीका लगेगा। देश के स्वास्थ्य मंत्री का कहना है कि स्वास्थ्यकर्मियों को यह मुफ्त दी जाएगी। भारत में वैक्सीन की कुल दो खुराक दी जानी हैं। पहली और दूसरी खुराक के बीच कुल 28 दिन का अन्तर होगा। विशेषज्ञों का कहना है कि सभी को वैक्सीन की पूरी खुराक लेनी चाहिए। एंटीबॉडी बनने के बाद ही कोरोना से लड़ाई मज़बूत होती है। सरकार ने शुरुआती चरण में स्वास्थ्यकर्मी, कोविड वॉरियर्स और कुछ अन्य को वैक्सीन देने की लिस्ट बनायी है। हालाँकि उनके परिजनों को अभी यह वैक्सीन नहीं दी जाएगी। अन्य लोगों का नंबर तभी आयेगा, जब सरकार आगे की रणनीति पर काम करेगी। चूँकि वैक्सीन के आपात इस्तेमाल की ही मंज़ूरी मिली है, अत: यह अभी बाज़ार में खुले में उपलब्ध नहीं होगी।

कोरोना के खिलाफ लड़ाई में भारत ने ऐतिहासिक कदम बढ़ाया है और 16 जनवरी से देश में टीकाकरण अभियान शुरू कर रहे हैं। प्राथमिकता हमारे डॉक्टर, स्वास्थ्यकर्मी, फ्रंटलाइन वर्कर्स, जिसमें सफाई कर्मचारी भी शामिल हैं; और उन्हें वैक्सीन दी जाएगी।’’

नरेंद्र मोदी, प्रधानमंत्री

भारत में टीकाकरण कार्यक्रम

इसमें कोई दो-राय नहीं की लोगों पर महामारी ने जिस तरह हमला किया, जिस तरह भारत में करोड़ों श्रमिकों को अनियोजित लॉकडाउन के कारण सड़कों पर पैदल सैंकड़ों किलीमीटर दूर घर जाने को मजबूर होना पड़ा, अपना रोज़गार खोना पड़ा, उससे वे अभी भी नहीं उबर पाये हैं। भारत में कोरोना से अब तक करीब 1.52 लाख लोगों की जान जा चुकी है, जबकि 10.45 करोड़ लोग संक्रमित हुए हैं। ऐसे में लोगों को वैक्सीन का बेसब्री से इंतज़ार है, इसमें कोई शक नहीं। अब देश में कोरोना का टीकाकरण कार्यक्रम 16 जनवरी से शुरू हो गया। सबसे पहले 3 करोड़ स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन योद्धाओं को कोरोना टीका लगाया जाएगा। इसके बाद 50 साल से ज़्यादा उम्र के लोगों को और बाद में दूसरे लोगों को। देश में कोरोना की स्थिति को लेकर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने समीक्षा बैठक बुलायी, जिसमें टीकाकरण अभियान को शुरू करने का फैसला किया गया। निर्णय के मुताबिक, सबसे पहले स्वास्थ्यकर्मियों और फ्रंटलाइन वर्कर्स को टीका लगाया जाएगा, जिनकी अनुमानित संख्या लगभग 3 करोड़ है। इसके बाद 50 वर्ष से अधिक उम्र के लोगों और इससे कम उम्र के उन लोगों को टीके लगेंगे, जो पहले से ही किसी गम्भीर बीमारी से पीडि़त हैं। ऐसे लोगों की संख्या करीब 27 करोड़ है। बैठक में प्रधानमंत्री मोदी ने देश भर में कोरोना टीकाकरण की तैयारियों के बारे में जानकारी ली। इस दौरान मोदी ने को-विन वैक्सीन डिलीवरी मैनेजमेंट सिस्टम के बारे में भी जानकारी ली। को-विन से कोरोना टीकाकरण की रीयल टाइम निगरानी, वैक्सीन के स्टॉक्स से जुड़ीं सूचनाएँ, उन्हें स्टोर करने के तापमान और जिन लोगों को वैक्सीन लगनी है, उन्हें ट्रैक करने जैसे काम होंगे। अब तक करीब एक करोड़ से ज़्यादा लाभार्थियों ने को-विन पर पंजीकरण कराया है। इसके आलावा देश भर में तीन चरणों में ड्राई रन भी आयोजित किया गया है। पहले चरण का ड्राई रन 28-29 दिसंबर चार राज्यों में करने के बाद 2 जनवरी को सभी राज्यों में चलाया गया। इसके बाद 8 जनवरी को 33 राज्यों (हरियाणा, हिमाचल और अरुणाचल को छोड़कर) और केंद्र शासित प्रदेशों में वैक्सीन का ड्राई रन हुआ। भारत सरकार ने सीरम इंस्टीट्यूट की कोविशिल्ड और भारत बॉयोटेक की कोवैक्सीन को इमरजेंसी इस्तेमाल की मंज़ूरी दी है। वैक्सीन को मंज़ूरी मिलने के बाद से लोग टीकाकरण अभियान की शुरुआत का इंतज़ार कर रहे हैं। टीकाकरण कार्यक्रम के मुताबिक, एक बूथ पर हर सत्र में 100 से 200 लोगों को टीका लगाया जाएगा। उन पर 30 मिनट तक नज़र रखी जाएगी, ताकि प्रतिक्रिया जाँची जा सके। टीकाकरण केंद्र पर एक बार में एक ही व्यक्ति को टीका लगाया जाएगा। कोविन ऐप में पहले से रजिस्टर लोगों को ही टीका लगाया जाएगा। ऑन द स्पॉट रजिस्ट्रेशन नहीं होगा। देश के दूर-दराज़ इलाकों में कोरोना वैक्सीन पहुँचाने के लिए भारतीय वायुसेना मदद करेगी।

वैक्सीन को लेकर विवाद ठीक नहीं है, देश के लोगों को नियामक संस्थाओं पर भरोसा करना चाहिए। डाटा के व्यापक अध्ययन के बाद ही वैक्सीन के इस्तेमाल की इजाज़त दी गयी है। इसलिए देश के लोगों को नियामक संस्थाओं, वैज्ञानिकों और शोधकर्ताओं पर भरोसा करना चाहिए। दोनों वैक्सीन सुरक्षित और प्रभावी हैं। विशेषज्ञ समिति ने इसके बारे में अध्ययन किया है, तभी इसकी स्वीकृति दी है। अगर हमारी नियामक संस्थाओं ने हरी झंडी दी है, तो हमें उन पर यकीन करना चाहिए और आगे बढऩा चाहिए। वैक्सीन के साइड इफेक्ट में हल्का बुखार, एलर्जी हो सकती है; लेकिन ये साधारण-सी बात है। टीकाकरण हमें इस बीमारी से बाहर निकाल पायेगा। यूरोप में हालात अच्छे नहीं हैं, वहाँ एक बार फिर से लॉकडाउन लगाना पड़ रहा है। अगर हम विवाद में पड़कर वैक्सीन लगवाने में देरी करते हैं और अगर इस बीच ब्रिटेन का म्यूटेंट वायरस हमारे यहाँ आता है, तो कोरोना के खिलाफ जंग में अब तक की हमारी कामयाबी बेकार हो सकती है।

डॉ. रणदीप गुलेरिया, निदेशक, एम्स

कोवैक्सीन को इस्तेमाल की मंज़ूरी देना खतरनाक हो सकता है। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉक्टर हर्षवर्धन कोरोना वैक्सीन पर कृपया स्पष्टीकरण दें। कोवैक्सीन का अभी तक चरण तीसरे चरण का परीक्षण नहीं हुआ है। समय से पहले मंज़ूरी देना खतरनाक हो सकता है। डॉ. हर्षवर्धन आपको इसे स्पष्ट करना चाहिए। परीक्षण पूरा होने तक इसके उपयोग से बचा जाना चाहिए। भारत में इस बीच एस्ट्राजेनेका वैक्सीन का इस्तेमाल किया जा सकता है।

 शशि थरूर, कांग्रेस नेता

देश में वैक्सीन बने यह खुशी और गर्व की बात है। लेकिन यहाँ सवाल वैक्सीन के ट्रायल के असर को लेकर कोई स्टडी नहीं आने को लेकर है। यह वास्तव में हैरानी की बात है। समस्या कोवैक्सीन के डाटा पर है; क्योंकि कोविशील्ड के विपरीत उसके बारे में जानकारियाँ या स्टडी हमारे सामने नहीं है।

डॉ. गगनदीप कंग, उपाध्यक्ष, सीईपीआई

टीके पर सियासत

इसे देश की विडंबना कहें या इस दौर का चलन कि हर काम में यहाँ सियासत होने लगती है। मौज़ूदा समय में कोरोना टीका की विश्वनीयता को लेकर सियासत हो रही है। कोरोना टीका आने के पहले ही यह सरकार और विपक्षी सियासी पार्टियों के बीच फँसती नज़र आ रही है। ऐसे माहौल में अगर यह टीका किसी भी मरीज़ में किसी कारणवश असफल होता है, तो इस पर बवाल होना तय है। फिलहाल इस पर चर्चा गरम है।

तहलका संवाददाता ने इसे लेकर सिसायतदानों और चिकित्सकों से बात की। कुछ सियासतदान टीका न लगवाने की बात कह चुके हैं, तो डॉक्टर भी कोरोना टीके के प्रयोग को लेकर आशंकित हैं। दिल्ली के डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना से लडऩे और उभरने के लिए जिस प्रकार कोरोना टीके को सियासी बनाया जा रहा है, उससे शंका तो पनपी है। क्योंकि डॉक्टर ही मेडिकल सिस्टम भी तो किसी-न-किसी रूप में किसी पार्टी से जुड़ा है। वैक्सीन पर उठे सियासी सवालों पर डॉक्टरों का कहना है कि बिना टीके के ही अगर कोरोना धीरे-धीरे ही सही काबू हो रहा था, तो कोरोना टीके को लेकर विश्व में पहले भारत को अपना नाम दर्ज करवाने की क्या जल्दबाज़ी है?

फिलहाल कौन-सा टीका कब लगेगा और इसकी क्या कीमत होगी? इस पर तस्वीर साफ नहीं है। बताते चलें देश में ऑक्सफोर्ड से बने कोविडशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन को आपातकाल स्थिति में मंज़ूरी मिली है। देश में इन दोनों टीके को लेकर अफवाहों का दौर भी चल रहा है। वहीं इन दोनों वैक्सीन को लेकर बाज़ार में जबरदस्त लॉबिंग भी देखी जा रही है।

वैक्सीन को लेकर एम्स के डायरेक्टर डॉ. रणदीप गुलेरिया का कहना है कि कोविडशील्ड और कोवैक्सीन, दोनों ही वैक्सीनों सुरक्षित बता रहे हैं। आईसीएमआर के डायरेक्टर जनरल (डीजी) डॉ. बलराम भार्गव का कहना है कि बड़े ही शोध से सफलता मिली है। इसलिए वैक्सीन को लेकर किसी प्रकार की कोई शंका करना गलत है।

आईसीएमआर के पूर्व डीजी डॉ. वी.एम. कटोच का कहना है कि कोरोना टीका पूरी तरह से सुरक्षित है। वैज्ञानिकों ने शोध के दौरान सभी पहलुओं पर कड़ी मेहनत की है और इसके लिए सभी मापदण्डों का पालन किया है। मैक्स अस्पताल के कैथलैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार ने भी कोरोना वैक्सीन पर भरोसा जताया है। इधर उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री व सपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष अखिलेश यादव कह चुके हैं कि वह कोरोना टीका नहीं लगवाएँगे। क्योंकि उन्हें भाजपा पर भरोसा नहीं है। अखिलेश का आरोप है कि कोरोना की आड़ में भाजपा सरकार महँगाई, अन्याय और बेरोज़गारी  के आँकड़े छिपा रही है। अखिलेश यादव के बयान पर भाजपा के नेताओं ने कहा कि अब दवा और वैक्सीन को राजनीतिक पार्टियों के साथ जोड़ा जाएगा। क्या समाजवादी पार्टी अलग से अपनी वैक्सीन बनवा रही है या बनवाएगी? उत्तर प्रदेश के उप मुख्यमंत्री केशव प्रसाद मौर्य व उत्तर प्रदेश भाजपा अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह का कहना है कि अखिलेश यादव राजनीतिक स्तर पर इतने गिर जाएँगे कि वैक्सीन पर भी सियासत करेंगे, यह उम्मीद नहीं थी। उन्होंने कहा कि अखिलेश यादव ने टीका बनाने वाले वैज्ञानिकों व चिकित्सकों का अपमान किया है। उन्हें माँफी माँगनी चाहिए।

ज़िन्दगियाँ छीन लेने वाला धन्धा!

मोबाइल एप्लीकेशन (ऐप) से तुरन्त कर्ज़ का चलन ब्लू व्हेल जैसा ही है। यह भी उसकी तरह मौत का पर्याय बनने लगा है। ब्लू व्हेल में कोई टास्क दिया जाता था, जिसे पूरा करने के चक्कर में देश में कई मौतें हुईं। ऐसी भयावह मौतें, जिन्हें सुनकर या अहसास करने भर से रूह काँप उठती है। उस विदेशी मोबाइल ऐप के बाद अब चीन के कुछ मोबाइल ऐप फिर से जानलेवा साबित होने लगे हैं। इनमें किसी तरह का टास्क तो नहीं, बल्कि इंस्टेट लोन (हाथों-हाथ कर्ज़) देने का चक्कर है। एक बार जो इस कर्ज़ के चक्कर में फँस गया, उसका हश्र मौत या बर्बादी के रूप में होता है।

दरअसल एक हज़ार से 10 हज़ार रुपये का कर्ज़ लेने वाली कुछ कम्पनियाँ यह गोरखधन्धे में लगी हैं। कई लोग इनके चक्कर में आने के बाद लाखों रुपये के देनदार हो गये। फिर इन कम्पनियों के रिकवरी एजेंटों और कारिदों ने उनका समाज में जीना दुश्वार कर दिया। करीब एक साल से मोबाइल ऐप के ज़रिये तुरन्त कर्ज़ लेने का चलन जिस तेज़ी से बढ़ा है, वह बेहद खतरनाक है। केंद्र सरकार को तुरन्त प्रभाव से ठोस नतीजे वाली कार्रवाई करके उन लोगों को बेनकाब करना चाहिए, जो इस धन्धे में लगे हैं। फिर फास्ट ट्रेक अदालतों में इनके खिलाफ मामले चलाकर इन्हें कड़ा दण्ड दिलाने की व्यवस्था हो। क्योंकि यह एक तरह का साइबर क्राइम है, जो देश में जड़ें जमा रहा है। हैदराबाद, गुरुग्राम और बेंगलूरु में इन कम्पनियों के दफ्तर हैं। इन कम्पनियों के वसूली के दबाव और अपमान के कारण देश में अनेक लोग खुदकुशी कर चुके हैं। तेलंगाना के रंगारेड्डी ज़िले के सुनील नामक व्यक्ति ने एक मोबाइल ऐप से कुछ हज़ार का कर्ज़ लिया, लेकिन समय पर भुगतान नहीं कर सका। घोर सामाजिक अपमान के चलते उसने छ: माह के बेटे का गला दबाकर खुद फाँसी लगा ली। लॉकडाउन के दौरान सुनील की नौकरी नहीं रही। ज़रूरत के लिए उसने किसी ऐप से पैसा लिया; लेकिन तय समय में पैसा नहीं लौटा सका। अन्त में कम्पनी ने उसे इतना तंग और अपमानित किया कि उसे जान गँवानी पड़ी।

हैदराबाद की किरनी मोनिका ने एक ऐप से पाँच हज़ार का कर्ज़ लिया। समय पर भुगतान नहीं कर सकी, तो कम्पनी वालों ने उसका जीना हराम कर दिया। उसने दूसरे ऐप से कर्ज़ लेकर पहले वाला कर्ज़ चुकता किया। फिर तीसरे और चौथे ऐप से कर्ज़ लेती गयी और करीब 50 से ज़्यादा ऐप से उसने कर्ज़ लिया। नतीजतन पाँच हज़ार का कर्ज़ लाखों में पहुँच गया। अन्त में उसने ज़हर खाकर खुदकुशी कर ली। कृषि अधिकारी रही किरनी ने यह कर्ज़ अपने लिए नहीं, बल्कि किसानों की बीज-खाद की मदद वास्ते लिये।

हज़ारों करोड़ रुपये के लेन-देन के ऐसे गोरखधन्धे में चीन की कुछ कम्पनियाँ संलिप्त है। चार चीनी नागरिक गिरफ्तार भी हुए हैं। मोबाइल ऐप से तुरन्त कर्ज़ में लगी ज़्यादातर कम्पनियाँ रिजर्व बैंक के दिशा-निर्देशों की ज़रा भी पालना नहीं कर रही। सैकड़ों ऐप गूगल के प्ले स्टोर पर है, जिन्हें वहाँ नहीं होना चाहिए। दस्तावेज़ों के आधार पर कोई कम्पनी कर्ज़ देती है, तो उसके लिए बाकायदा रिजर्व बैंक के दिशा निर्देश है। कम्पनी किस बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय कम्पनी के साथ सम्बद्ध है, इसका उल्लेख होना चाहिए। प्ले स्टोर के अलावा गूगल पर सैकड़ों कम्पनियाँ हैं, जिन्हें डाउनलोड किया जा सकता है।  तेलंगाना पुलिस ने 150 से ज़्यादा ऐसे मोबाइल ऐप की पहचान कर गूगल से इन्हें तुरन्त हटाने को कहा है। बहुत-से ऐप हटा भी लिये गये हैं। बावजूद इसके अब भी ऐसे ऐप बहुत हैं, जिन पर कार्रवाई करने की ज़रूरत है। प्रवर्तन निदेशालय और रिजर्व बैंक ने इस दिशा में कार्रवाई तो शुरू कर दी है, लेकिन करोड़ों का यह धन्धा अब भी चल रहा है। मोटे ब्याज वसूलने वाली कम्पनियाँ खूब चाँदी काट रही हैं, जबकि ज़रूरतमंद या अनजान लोग इनके चक्कर में बर्बाद हो रहे हैं।

एक सप्ताह से एक माह की राशि पर 30 से 40 फीसदी तक ब्याज वसूला जा रहा है। ब्याज की राशि कम्पनी पहले ही काट लेती है, फिर मूलधन के लिए इतने इतने तकाज़े करती है कि उपभोक्ता को कुछ समझ ही नहीं आता कि वह क्या करे और क्या नहीं? भुगतान की देय तिथि के बाद न केवल उपभोक्ता के, बल्कि उसके मोबाइल के कॉन्टेक्ट नम्बरों पर फोन कर अभद्र भाषा में बात की जाती है, बल्कि गालियाँ दी जाती हैं। कॉन्टेक्ट नंबर वाला जब तक माजरा समझे, तब तक उसका बहुत अपमान हो चुका होता है। उसके आधार कार्ड और पेन कार्ड का इस्तेमाल कर दूसरी कम्पनी से कर्ज़ भी ले लिया जाता है। फिर दूसरी कम्पनी वाले उससे अदायगी का तकाज़ा करने लगते हैं।

मोबाइल ऐप वाली कम्पनियाँ एक हज़ार से 50 हज़ार रुपये तक का कर्ज़ एक सप्ताह से एक महीने तक के लिए देती है। पाँच हज़ार रुपये का कर्ज़ लेने वाले के 1180 रुपये या कहीं-कहीं इससे ज़्यादा पहले ही काट लिये जाते हैं। उपभोक्ता के खाते में 3820 रुपये आये; लेकिन वसूली पाँच हज़ार रुपये की होगी। देय तिथि के अगले ही दिन कम्पनी वालों के फोन आने शुरू हो जाते हैं। जैसे-जैसे समय बढ़ता जाएगा, सख्ती और दायरा बढ़ता चला जाता है। रिश्तेदारों, दोस्तों और परिचितों के फोन आने शुरू हो जाते हैं। कर्ज़ की बात गोपनीय नहीं रह पाती। सोशल मीडिया पर बदनामी होने लगती है। मोबाइल ऐप से कर्ज़ लेना बहुत आसान है।

पाँच से सात मिनट में सारी प्रक्रिया पूरी हो जाती है। इसके लिए ज़रूरी दस्तावेज़ों में आधार कार्ड और पेन कार्ड ज़रूरी होता है, इसके अलावा किसी की कोई गारंटी आदि की कोई ज़रूरत नहीं होती है, जबकि बैंक या गैर बैंकिंग वित्तीय संस्थानों में इतना आसान नहीं होता। कर्ज़ की जल्दी में उपभोक्ता कम्पनी की शर्तों को स्वीकार करता चला जाता है। सारी प्रक्रिया पूरी होने के बाद कम्पनी वालों के पास न केवल आधार और पेन कार्ड, बल्कि फोन के कॉन्टेक्ट नम्बर कब्ज़े में आ जाते हैं। अगर कम्पनी की सभी शर्तों का पालन न हो तो कर्ज़ मंज़ूर नहीं हो पायेगा, इसीलिए उपभोक्ता मानते चले जाते हैं। रोहन को किसी काम के लिए तीन हज़ार रुपये की ज़रूरत पड़ी, तो उसने तुरन्त मोबाइल ऐप की मदद ली। एक सप्ताह के बाद जब कम्पनी वालों ने भुगतान के लिए कहा, तो उसने दूसरे ऐप से कर्ज़ लेकर भुगतान कर दिया। फिर क्या था, वह इस चक्कर से निकल नहीं सका। उसकी राशि डेढ़ लाख रुपये से ज़्यादा की हो चुकी थी। पिता के पास रिकवरी एजेंट का फोन आया, तब कहीं जाकर पूरे माजरे का पता चला।

पिता ने किसी तरह पूरी कर्ज़ अदा करके रोहन को इस दुष्चक्र से निकाला। रोहन के मुताबिक, उसे कॉन्टेक्ट नंबर के हैक होने का पता नहीं था। कम्पनी किन शर्तों को मंज़ूर करा रही है? देखना ज़रूरी नहीं समझा। वह एक बड़ी मुसीबत से बाहर निकल गया है, भविष्य में न केवल खुद, बल्कि अन्य लोगों को भी मोबाइल ऐप से कर्ज़ न लेने को जागरूकता अभियान चला रहा है।

पुलिस, प्रवर्तन निदेशालय और रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया की कार्रवाई के बावजूद मोबाइल ऐप कम्पनियाँ धड़ल्ले से करोड़ों रुपये का कर्ज़ बाँट रही है और भुगतान न होने पर उपभोक्ता के गोपनीय दस्तावेज़ों को सार्वजनिक कर रही है। कर्ज़ वसूलने के लिए कम्पनी के कारिंदे सोशल मीडिया पर उपभोक्ता की फोटो डालकर डिफाल्टर या चोर साबित कर रहे हैं। उसके कॉन्टेक्ट नंबरों पर फोन करके न केवल अभद्रता से बात करते हैं, बल्कि गाली-गलौज करते हैं। बैंक खाता ब्लॉक करने और कानूनी कार्रवाई जैसी धमकी दे रहे हैं, जिसकी वजह से हज़ारों लोग बेहद मुश्किल में हैं।

केंद्रीय पोर्टल पर इनके खिलाफ शिकायत की जा सकती है, लेकिन कितने इस बारे में जानते हैं। एक हज़ार से पाँच हज़ार रुपये का एक सप्ताह का 15 दिन का कर्ज़ ऐसे लोग ले रहे हैं, जिन्हें 30 से 40 फीसदी ब्याज से ज़्यादा चिन्ता अचानक आया काम है। वह काम तो हो गया, लेकिन तय अवधि के बाद पैसा कहाँ से आयेगा? क्या इसकी भी कोई व्यवस्था है उनके पास?  बिना ज़्यादा औपचारिकता के तुरन्त कर्ज़ का यह व्यवस्था बेहद खतरनाक है। अगर कोई बहुत मुश्किल में है और काम ऐसा आ पड़ा, जिसमें तुरन्त पैसा चाहिए और कहीं से मिलने की कोई उम्मीद नहीं, तब तो बात अलग है। फिर भुगतान का प्रबन्ध भी होना चाहिए। एक कम्पनी का लोन उतारने के लिए दूसरी से लेना और फिर दूसरी का तीसरी से उतारने का चलन मौत के कुएँ जैसा ही है। गूगल को गहन जाँच के बाद ऐसे ऐप तुरन्त प्रभाव से प्ले स्टोर से हटाने की शुरुआत अपने आप कर देनी चाहिए। रिजर्व बैंक की सूची में सैकड़ों कम्पनियाँ पंजीकृत हैं, लेकिन इंटरनेट पर तो हज़ारों हैं; जिनका पंजीकरण तक नहीं है। झूठे दस्तावेज़ों के आधार पर वे गूगल प्ले स्टोर में कैसे आ गयीं? यह भी बड़ा सवाल है। पैसे की रिकवरी के लिए आठ से 10 हज़ार रुपये के कारिंदों को इंसेटिव मिलता है, जिसके लिए वे उपभोक्ता के साथ कुछ भी कर गुज़रते हैं।

मोबाइल ऐप के ज़रिये तुरन्त कर्ज़ की व्यवस्था को दुरुस्त करना होगा। वरना देश के हर हिस्से से खुदकुशी की घटनाएँ होती रहेंगी और हज़ारों करोड़ रुपये के इस गोरखधन्धे को चलाने वालों को भी उनके अंजाम तक पहुँचाना होगा। हज़ारों करोड़ के इस धन्धे में आधार और पेन कार्ड जैसे ज़रूरी दस्तावेज़ इन कम्पनियों के पास है, जिनका वे दुरुपयोग कर रही है। कर्ज़ के लिए एग्रीमेंट ज़रूरी होता है, जो इन कम्पनियों के पास नहीं होता। प्ले स्टोर से हटने के बाद ये कम्पनियाँ लिंक से भुगतान माँग रही है और लोग अदा करने पर मजबूर है। इस दिशा में वृहद स्तर पर जागरूकता अभियान चलाने और ठोस कार्रवाई को अंजाम देने की ज़रूरत है। इसकी पहल हो गयी है, लेकिन इसकी रफ्तार बहुत धीमी है।

 फंडिंग की जाँच

उपभोक्ता से पैसे वसूलने के लिए हर हथकंडा अपनाने वाली इन कम्पनियों के खिलाफ यकीनी कार्रवाई होनी चाहिए। इस धन्धे में निजी और राष्ट्रीयकृत बैकों की भूमिका की भी जाँच होनी चाहिए। रिजर्व बैंक इस बाबत जाँच कर रही है कि कहीं इनकी साठगाँठ से तो यह धन्धा नहीं चल रहा। इन कम्पनियों को धन कौन मुहैया करा रहा है? इसका भी खुलासा होना चाहिए और उसकी जानकारी रिजर्व बैंक के पास होनी चाहिए। उपभोक्ता से गलत हथकंडें अपनाकर पैसा वसूल करने के आरोप बजाज फाइनेंस जैसी पंजीकृत और नामी कम्पनी पर भी ढाई करोड़ रुपये का ज़ुर्माना लगा है।

नागनाथ और साँपनाथ

इंटरनेट पर कर्ज़ देने वाले ऐप की भरमार है। ज़्यादातर कम्पनियाँ नागनाथ और साँपनाथ सरीखी हैं। मोटा ब्याज पहले वसूल कर बाकी रकम के लिए यह जो कुछ कर रहे हैं, वह डसने जैसा ही है। नौकरी बचाने के लिए ये लोग क्या-क्या कर रहे हैं? इन्हें पता ही नहीं चल पा रहा। रुपी लक्ष्मी, आई क्रेडिट, कैश ट्रेन, केश मामा, मेरा लोन, मंकी लोन, धनाधन लोन, हेयर फिश, रूपी टाइम, गो केश और रुपी लोन सरीखी सैकड़ों कम्पनियाँ हैं। ये सभी कम समय में आकर्षक ब्याज दरों पर कर्ज़ का दावा करती हैं; लेकिन कोई भी कसौटी पर खरी नहीं हैं। लोएबो नामक चीनी नागरिक को पुलिस ने दिल्ली हवाई अड्डे पर गिरफ्तार किया। वह देश में अपनी कम्पनियों के प्रमुख के तौर पर काम कर रहा था। तीन अन्य चीनी नागरिक भी अब पुलिस के कब्ज़े में है। इनके अलावा हमारे यहाँ की कम्पनियों के कई लोग गिरफ्त में है।

बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ अभियान के बावजूद घट रहा बच्चियों का अनुपात

बेटियों की संख्या कम होना समाज और देश के लिए ही नहीं, बल्कि दुनिया के लिए भी अच्छी खबर नहीं है। देश में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद बेटियों की संख्या कम हो रही है। इस खबर का स्रोत सोशल मीडिया नहीं, बल्कि सरकार की ओर से राष्ट्रीय स्तर पर कराया गया सर्वे है। हाल ही में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने पाँचवाँ राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के पहले चरण के आँकड़े जारी किये हैं। यह सर्वे पूरे देश में कराया जाता है, लेकिन कोविड-19 महामारी के कारण आयी दिक्कतों की वजह से इस बार यह पूरे देश में नहीं हो सका। अभी देश के 22 राज्यों व 5 केंद्र शासित राज्यों के आँकड़ें ही जारी किये गये हैं। बाकी राज्यों व केंद्र शासित राज्यों में नवंबर 2020 से काम शुरू हुआ और उम्मीद है कि मई, 2021 तक यह सर्वे पूरा हो जाएगा। जिन राज्यों में यह सर्वे हुआ, उनमें बिहार, महाराष्ट्र, गुजरात, आंध्र प्रदेश, तेलगांना, केरल, मेघालय, नागालेंड, असम, सिक्किम, कर्नाटक, मणिपुर, मिजोरम, त्रिपुरा, पश्चिम बंगाल, अंडमान निकोबार, जम्मू और कश्मीर, लद्दाख एवं लक्षद्वीप हैं। सर्वे के आँकड़ों में एक सेक्शन बाल लिंगानुपात का भी है और चिन्ता की बात यह है कि आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात पिछले चार साल की अवधि में घटा है। यानी राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 (2015-16) और राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 (2019-2020) के दरमियान लड़के-लड़कियों के अनुपात में सुधार होने की बजाय गिरावट दर्ज की गयी है। बता दें कि शून्य से 6 वर्ष के बीच की उम्र में प्रति एक हज़ार लड़कों पर लड़कियों की संख्या को बाल लिंगानुपात कहा जाता है। सन् 2001 की जनगणना के अनुसार, भारत में बाल लिंगानुपात 927 था, जो कि 2011 जनगणना में घटकर 919 हो गया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के पहले चरण में शामिल जिन आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात में गिरावट दर्ज की गयी है, उनमें केरल, बिहार, महाराष्ट्र, हिमाचल, मेघालय, गोवा, नागलैंड व दादर व नागर हवेली हैं। केरल राज्य का नाम लेते ही एक आदर्श राज्य की तस्वीर खुद-ब-खुद सामने आ जाती है। इसकी वजह यह है कि यह राज्य मानव सूचकांक में देश के बाकी राज्यों से बेहतर प्रदर्शन करता रहा है। केरल में राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों के मुताबिक, वहाँ 1000 लड़कों पर लड़कियों की संख्या 1,047 थीं। बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में केरल ने उस समय सराहनीय प्रदर्शन किया था, लेकिन हाल ही में जारी सर्वे-5 के आँकड़ें बताते हैं कि यह संख्या अब 951 रह गयी है। यानी 96 अंक का नुकसान हुआ है। सबसे अधिक गिरावट दादर व नागर हवेली में दर्ज की गयी है। यह गिरावट 166 अंक की है। 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, वहाँ प्रति 1000 लड़कों पर 983 लड़कियाँ थीं। लेकिन 2019-2020 में यह संख्या घटकर 817 रह गयी है। गोवा, पर्यटन के लिए दुनिया भर में मशहूर राज्य से भी बाल लिंगानुपात की खबर सुखद नहीं है। यहाँ 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 966 था, चार साल बाद यह घटकर 1000 / 838 रह गया है। यानी 128 अंक की गिरावट। हिमाचल भी पर्यटन के लिए जाना जाता है, सैलानी गर्मी और सर्दी, दोनों मौसम में यहाँ जाते हैं। इस राज्य की साक्षरता दर भी अच्छी है; लेकिन बाल लिंगानुपात में सुधार करने की बजाय यहाँ भी स्थिति बिगड़ी है। 2015-16 में बाल लिंगापुपात 1000 / 937 था, जो कि चार साल में गिरकर 1000 / 875 रह गया है। यानी यहाँ 62 अंक की कमी दर्ज की गयी है। बिहार में भी अनुपात में 20 अंक की कमी आयी है। 2015-16 सर्वे-4 के अनुसार, लड़कियों की संख्या 1000 लड़कों पर 934 थी, जो  2019-2020 में गिरकर 1000 पर 908 रह गयी है। मेघालय जो कि सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात के सन्दर्भ में बेहतर राज्य था, वहाँ पहले बाल लिंगानुपात 1000 / 1,009 था, जो अब घटकर 1000 / 989 हो गया है। महाराष्ट्र में 2015-16 में बाल लिंगानुपात 1000 / 924 था, जो 2019-2020 में गिरकर 1000 / 913 पर आ गया है। वैसे महाराष्ट्र में जहाँ 2015-16 यानी सर्वे-4 के अनुसार, बाल लिंगानुपात में सुधार हुआ था। लेकिन अब 1000 लड़कों पर 11 लड़कियों की कमी हुई है। वहाँ इस मुद्दे पर काम करने वाली समाजसेविका वर्षा देशपांडे की कहना है कि इसका कारण सरकार द्वारा अब प्राथमिकता पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम का पालन नहीं कराना है। नागलैंड में भी बाल लिंगानुपात में 8 अंक की कमी आयी है।

गौरतलब है कि राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-4 के आँकड़ों से खुलासा हुआ था कि बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन करने वाले राज्यों में पंजाब पहले नंबर पर था। उसके बाद केरल ने अच्छा प्रदर्शन किया था। राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-3 (2005-06) में केरल में बाल लिंगानुपात 925 था, जो कि सर्वे-4 के अनुसार, 1047 पर पहुँच गया था। इसी तरह मेघालय ने बाल लिंगानुपात में 102 अंक और महाराष्ट्र ने 57 अंक का सुधार किया था। ध्यान देने वाली बात यह है कि सर्वे-4 में जिन शीर्ष छ: राज्यों पंजाब, केरल, मेघालय, हरियाणा, तमिलनाडु व महाराष्ट्र ने बाल लिंगानुपात में अच्छा प्रदर्शन किया था, उनमें से तीन राज्यों केरल, मेघालय व महाराष्ट्र में इस बार गिरावट दर्ज की गयी है। यह देश के लिए हैरान कर देने वाली नहीं, बल्कि शर्मनाक खबर है। क्योंकि भारत ऐसा देश है, जिसके राजनेता इसे विश्व में महाशक्ति बनने की बात करते हैं। यहाँ पर प्रधानमंत्री की बेटी बचाओ बेटी, पढ़ाओ योजना पर भी सवाल उठते हैं। गौरतलब है कि देश में बाल लिंगानुपात में गिरावट वाले गम्भीर मुददे को हल करने के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 22 जनवरी, 2015 को हरियाणा के ऐतिहासिक शहर पानीपत से बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की शुभारम्भ किया था। इस महत्त्वाकांक्षी योजना का मकसद समाज की बेटियों के प्रति भेदभाव वाली मानसिकता में बदलाव लाना और महिला सशक्तिकरण को बढ़ावा देना है। यह महत्त्वाकांक्षी योजना त्रिस्तरीय प्रयास है। देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने और उन्हें सशक्त करने के लिए महिला व बाल विकास मंत्रालय, स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय और मानव संसाधन विकास मंत्रालय (अब शिक्षा मंत्रालय) मिलकर इस दिशा में प्रयास करते हैं। बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना शुरू में देश के उन 100 ज़िलों में लॉन्च की गयी, जहाँ बाल लिंगानुपात बहुत ही खराब था। फिर धीरे-धीरे इसका विस्तार करके इसे देश के सभी 640 ज़िलों में लागू कर दिया गया है। अब यह सवाल पूछा जाना चाहिए कि बेटी पढ़ाओ, बेटी पढ़ाओ के नारे के बावजूद आठ राज्यों में बाल लिंगानुपात क्यों गड़बड़ाया? जबकि ये आँकड़े सरकार की ओर से ही कराये गये राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे-5 के हैं। क्या मंत्री, आला अधिकारी इसका खुलासा करेंगे कि इन राज्यों में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना का क्या हुआ?

यहाँ पर प्रसंगवश इसका उल्लेख करना संगत लग रहा है कि वित मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2020-21 के बजट भाषण में बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना की भरपूर प्रंशसा करते हुए लड़कियों के स्कूलों और उच्च शिक्षण संस्थानों में नामांकन के आँकड़ें बहुत गर्व के साथ देश के सामने रखे थे। निर्मला सीतारमण ने बताया था कि देश में लड़कियों की शिक्षा तक लड़कों के समान ही पहुँच के मौके बढ़ाने के वास्ते 5,930 आवासीय कस्तूरबा गाँधी स्कूल खोलने का फैसला लिया गया है। इसी तरह विज्ञान, तकनीक, इंजीनियरिंग आदि में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के मकसद से देश के शीर्ष संस्थान आईआईटी, एनआईटी आदि में विशेष इंतज़ाम किये गये हैं। परिणामस्वरूप एनआईटी संस्थानों में 2017-18 आकदिमक वर्ष में लड़कियों की संख्या 14 फीसदी थी और 2019-2020 में यह संख्या बढ़कर 17.53 फीसदी तक पहुँच गयी। आईआईटी में बी.टेक कोर्सेस में 2016 में लड़कों के मुकाबले लड़कियों का अनुपात 8 फीसदी था, जो कि 2019-2020 में 18 फीसदी हो गया। याद दिला दें कि प्रधानमंत्री ने बेटी बचाओ, बेटी पढ़ाओ योजना सम्बन्धित एक कार्यक्रम में कहा था कि बेटियाँ बोझ नहीं होती, बल्कि परिवार को उन पर गर्व करना चाहिए। बेटी संग सेल्फी का ज़िक्र भी नरेंद्र मोदी ने किया था और लोगों को बेटियों के साथ सेल्फी खिंचवाने के लिए प्रोत्साहित भी किया था। मगर 2015 से लागू यह योजना कितनी कारगर है? इसका जवाब आठ राज्यों के बाल लिंगानुपात  के आँकड़े आने पर मिल गया है।

दरअसल इस योजना के तहत देश में लड़कियों की संख्या बढ़ाने के लिए पूर्व गर्भाधान और प्रसव पूर्व निदान तकनीक अधिनियम, 1994 का कड़ाई से पालन करवाना भी शामिल है। गौरतलब है कि इस अधिनियम के तहत जन्म से पूर्व शिशु के लिंग की जाँच पर प्रतिबन्ध है। ऐसे में अल्ट्रासांउड या अल्ट्रासोनोग्रॉफी कराने वाले जोड़े, व्यक्ति, जाँच करने वाले डॉक्टर, लैब कर्मियों आदि को जेल और भारी आर्थिक दण्ड की सज़ा का प्रावधान है। क्या इस कानून का कड़ाई से पालन हो रहा है? तत्कालीन महिला व बाल विकास मंत्री मेनका गाँधी ने अप्रैल 2015 में इस कानून को बेअसर बताते हुए बाल लिंग की जाँच को वैध यानी कानूनी जामा पहनाने की वकालत कर डाली थी। उन्होंने कहा था कि बीते 20 वर्षों में यह कानून असफल रहा है। बाल लिंग जाँच को कानूनी रूप दिया जाना चाहिए। माता-पिता गर्भ में पल रहे अपने शिशु का लिंग जान लें और फिर सरकारी एंजेसियाँ उनके इस अजन्मे शिशु के विकास को ट्रैक करें। इस बयान की खूब आलोचना हुई। बाद में मेनका गाँधी ने सफाई दी कि यह उनकी निजी राय है, न कि इसका ताल्लुक पॉलिसी स्टेटमेंट से है। लैंगिक बराबरी और बाल लिंगानुपात में सुधार के लिए संघर्ष करने वाले संगठनों ने मेनका गाँधी की इस मुद्दे पर घेरेबंदी करते हुए उन्हें सलाह दी कि देश भर में 50,000 पंजीकृत अल्ट्रासांउड मशीन हैं, उनकी निगरानी करना आसान है; न कि लाखों गर्भवती महिलाओं का पीछा करना। गर्भवती महिलाओं की पीछा करना उनकी निजी ज़िन्दगी में दखल देना है। दरअसल बाल लिंगानुपात में गिरावट तक ही संकुचित रह जाने वाला मसला नहीं है, इसके किसी भी समाज, देश, दुनिया के सामाजिक, सांस्कृतिक, शैक्षणिक, आर्थिक विकास पर दूरगामी प्रभाव पड़ते हैं। इतिहास इसका गवाह है।

खतरे में है आपकी निजता?

यदि आप सोशल मीडिया पर हैं, तो आपकी निजता यानी निजी और गोपनीय जानकारी अब खतरे में पड़ चुकी है। ऐसी कुछ खबरें हाल ही में पॉपुलर इंस्टेंट मैसेजिंग ऐप यानी व्हाट्स ऐप उपयोक्ता (उपभोक्ता) के बीच चल रही हैं। कहा जा रहा है कि ऐसा व्हाट्स ऐप की एक ऐसी नयी गोपनीय नीति (प्राइवेसी पॉलिसी) में कहा गया है।

दरअसल एक और बात सामने आयी कि व्हाट्स ऐप ग्रुप ने अपनी गोपनीयता नीति और नियमों में बदलाव करके अपने उपयोक्ताओं को 4 जनवरी, 2021 को एक मैसेज भेजना शुरू किया कि व्हाट्स ऐप अपनी अभिभावक कम्पनी फेसबुक से सम्बद्ध पाँच कम्पनियों को व्हाट्स ऐप इस्तेमाल करने वालों का डेटा उपलब्ध करायेगा। जो उपभोक्ता इन सेवा-शर्तों पर 8 फरवरी तक अपनी सहमति नहीं देंगे, उनकी व्हाट्स ऐप सेवाएँ से बन्द कर दी जाएँगी। इससे बाद हँगामा मच गया। व्हाट्स ऐप के उपयोक्ता इस नयी पॉलिसी का पुरज़ोर विरोध कर रहे हैं, लेकिन कम्पनी इससे सरोकार नहीं रख रही है, जिससे लोग व्हाट्स ऐप की गोपनियता पर सवाल उठा रहे हैं।

दरअसल, पहले भी इस तरह की कोशिशें हुई हैं और गूगल ने एक बार फिर से निजी व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट के इनवाइट लिंक इंडेक्स किये हैं, जिसका मतलब है कि कोई भी व्यक्ति साधारण सर्च और छोटी-सी कोशिश करने पर विभिन्न निजी चैट ग्रुप में शामिल हो सकता है। हालाँकि इस बात के सार्वजनिक होने से व्हाट्स ऐप कम्पनी के मालिकों को थोड़ी घबराहट भी हुई है। उसने प्राइवेट ग्रुप चैट लिंक पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए गूगल से कहा है कि उसे ऐसी चैट को सार्वजनिक न करने को पहले ही कहा था। उसने अपनी सफाई में यह भी कहा है कि उसने अपने उपयोक्ताओं को सार्वजनिक रूप से सुलभ वेबसाइट्स पर ग्रुप चैट लिंक साझा न करने की सलाह दी है। इसके बाद इंडेक्स व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट लिंक को अब गूगल से हटा दिया गया है। बता दें कि हाल ही में ऐसी खबरें सामने आयी हैं कि व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट इनवाइट ग्रुप को इंडेक्स करके वेब पर कई प्राइवेट ग्रुप की जानकारियाँ उपलब्ध करा रहा था। आरोप है कि व्हाट्स ऐप अपने शुरुआती नियमों और शर्तों से ही मुकरता दिखायी दे रहा है। किसी लिंक को गूगल पर सर्च करके कोई भी, खासतौर पर साइबर अपराधी एक्सेस करके किसी की प्रोफाइल का दुरुपयोग कर सकते हैं। इसकी एक बानगी तब देखने को मिली, जब गूगल पर व्हाट्स ऐप ग्रुप चैट इनवाइट के इंडेक्स का स्क्रीनशॉट स्वतंत्र साइबर सुरक्षा रिसर्चर राजशेखर राजाहरिया ने आईएएनएस के साथ साझा किया।

हालाँकि यह पहली बार नहीं है कि व्हाट्स ऐप उपयोगकर्ता का निजी ग्रुप चैट गूगल पर दिखा हो। इससे पहले ऐसा ही दावा अतुल जयराम ने पिछले साल एक बग रिपोर्ट किया था। उस समय गूगल के इनडेक्स पर व्हाट्स ऐप उपयोगकर्ता के फोन नंबर और प्रोफाइल फोटो तक लीक हो गये थे। व्हाट्स ऐप ने अपनी बदली हुई गोपनीयता नीति में कहा है कि वह अपने उपयोगकर्ता का डाटा फेसबुक और उसकी सहयोगी कम्पनियों के साथ शेयर करेगा। दिक्कत और डर की बात यह है कि व्हाट्स ऐप अपने उपयोगकर्ता का जो डाटा शेयर करेगा, उसमें उपयोगकर्ता के अकाउंट की जानकारी, डिवाइस की जानकारी, आईपी नंबर, उपयोगकर्ता की लोकेशन और किये तथा लिये गये भुगतान जैसी गोपनीय जानकारियाँ सार्वजनिक हो जाएँगी या किसी के भी हाथ आसानी से लग जाएँगी। हालाँकि कुछ जानकारों का कहना है कि इससे निजता को खतरा नहीं है। वहीं व्हाट्स ऐप भी अपनी सफाई में विज्ञापन जारी कर रहा है।

चीन के निशाने पर भारतीय

ऐसी खबरें कई बार सामने आयी हैं कि चीन के द्वारा भारतीयों के डाटा का दुरुपयोग किया जाता है। चीन पर पहले कई बार भारतीयों के डाटा चोरी के मौखिक आरोप लग चुके हैं, यहाँ तक कि भारतीयों के बैंक अकाउंट में सेंध लगाने तक के चीन पर आरोप लग चुके हैं। हालाँकि चीन हर बार आरोपों को नकारता रहा है। लेकिन उस पर भरोसा करना भी एक तरह की नादानी ही होगी। विदित हो कि कुछ भारतीयों के बैंक अकाउंट में से व्हाट्स ऐप ने पिछले साल मार्च, 2020 में सेंध सम्बन्धी समस्या को ठीक कर दिया था।

क्या न्याय पालिका की अवहेलना कर रहीं सोशल साइट्स

बता दें कि सन् 2016 में भी व्हाटसऐप एक नयी नीति लेकर आया था, जिसमें कहा गया था कि कम्पनी यानी व्हाट्स ऐप ग्रुप अपने उपयोगकर्ता के डाटा का इस्तेमाल अपने व्यावसायिक फायदे के लिए कर सकता है। व्हाट्स ऐप की इस नयी नीति के खिलाफ श्रेया शेठी और कर्मण्य सिंह सरीन ने दिल्ली हाईकोर्ट में एक जनहित याचिका दायर की थी। याचिकाकर्ताओं की माँग थी कि व्हाट्स ऐप ग्रुप अपनी नयी गोपनीय नीति में बदलाव करे, जिससे उपयोगकर्ता के डाटा का दुरुपयोग न हो। याचिकाकर्ताओं की इस याचिका को दिल्ली हाईकोर्ट ने खारिज कर दिया। इसके बाद वे सर्वोच्च न्यायालय पहुँचे। सर्वोच्च न्यायालय ने याचिका को स्वीकार करके व्हाट्स ऐप और फेसबुक, दोनों को नोटिस भेजकर उनसे गोपनीय नीति को लेकर जवाब माँगा। सर्वोच्च न्यायालय ने निजता को लोगों का मौलिक अधिकार बताया और कहा कि हमारा संविधान देश के हर नागरिक को निजता का अधिकार देता है, चाहे वह गरीब हो या अमीर। अप्रैल, 2017 में इस मामले की सुनवाई पाँच जजों की संवैधानिक पीठ को सौंपी गयी। इस बेंच ने सोशल मीडिया पर से उपयोगकर्ता की निजी जानकारी सार्वजनिक करने को लेकर फेसबुक और व्हाट्स ऐप को कड़ी फटकार लगायी थी। सर्वोच्च न्यायालय ने प्राइवेसी के एक मामले में फैसला सुनाते हुए कहा था कि फेसबुक, व्हाट्स ऐप अपने उपभोक्ताओं का डाटा किसी भी हाल में किसी तीसरे के हाथ में नहीं दे सकते। इस फैसले के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय ने दोनों कम्पनियों से चार हफ्ते के भीतर एक हलफनामा दायर करने को भी कहा था।

दोबारा सन् 2019 में सोशल मीडिया द्वारा उपयोगकर्ता के डाटा के दुरुपयोग पर सख्त नाराज़गी ज़ाहिर करते हुए सर्वोच्च न्यायालय ने फिर कहा कि सोशल मीडिया का दुरुपयोग खतरनाक हो गया है। सर्वोच्च न्यायालय ने साइबर अपराध की श्रेणी में आने वाले संदेशों को ईज़ाद करने वालों का पता लगाने में कुछ सोशल मीडिया मंचों की असमर्थता पर गहरी चिन्ता व्यक्त करते हुए कहा कि अब इसमें सरकार को दखल देना चाहिए। समय आ गया है कि केंद्र सरकार इसमें दखल दे। न्यायालय ने केंद्र सरकार से ऐसे मामलों से निपटने के लिए सख्त दिशा-निर्देश बनाने की बात भी कही और तीन हफ्ते के भीतर वह समय-सीमा बताने के लिए कहा, जिसमें सोशल मीडिया पर किसी की प्राइवेसी का दुरुपयोग रोकने के दिशा-निर्देश तैयार किये जा सकें। इतना ही नहीं, सर्वोच्च न्यायालय ने कहा था कि किसी व्यक्ति की निजता का संरक्षण करना सरकार की ही ज़िम्मेदारी है।

सरकार खामोश क्यों

इन दिनों पूरी दुनिया में निजी डाटा सुरक्षा को लेकर बहस छिड़ी हुई है। कई देशों की सरकारें बड़े-बड़े सोशल मीडिया ग्रुप्स को अपने नागरिकों की डाटा सुरक्षा को लेकर चेतावनी दे चुके हैं। लेकिन भारत सरकार की ओर से सोशल मीडिया पर उपयोगकर्ता की निजता के दुरुपयोग पर कोई खास प्रतिक्रिया अभी तक नहीं आयी है। सवाल यह है कि सरकार इतने बड़े मामले पर खामोश क्यों है? जैसा कि पहले भी कई बार ऐसी खबरें सामने आयी हैं कि सोशल मीडिया के ज़रिये उपयोगकर्ता की निजी जानकारी लीक हो रही है; लेकिन कभी भी इस पर सरकार की ओर से कोई ऐसी रोक नहीं लगी, जिससे कि सोशल मीडिया प्लेटफार्म पर सोशल साइट्स चलाने वाली कम्पनियों को कानूनी सज़ा या प्रतिबन्ध का डर बैठा हो। बता दें कि सोशल मीडिया की साइट्स चलाने वाली कम्पनियाँ अपने ग्रुप्स के ज़रिये मोटी कमायी करती हैं और उपयोगकर्ता के दम पर ही उन्हें यह कमायी होती है। आपको यह भी हैरानी होगी कि व्हाट्स ऐप और दूसरी सोशल साइट्स पर दुनिया के कई देशों में प्रतिबन्ध है। लेकिन भारत एक ऐसा देश बन चुका है, जहाँ किसी भी सोशल साइट को चलाने की आसानी से इजाज़त मिल जाती है, जिसके चलते यहाँ साइबर क्राइम भी खूब होता है।

धोखे में न रहें सोशल साइट्स

सोशल मीडिया के उपयोगकर्ता की निजता लीक होने का खतरा कोई नयी बात नहीं है। हालाँकि यह गलत और गैर-कानूनी है। लेकिन ऐसा तबसे ही होता रहा है, जबसे इंटरनेट का लोगों ने इस्तेमाल शुरू किया है। लेकिन आज की सभी सोशल साइट्स पर इसकी सम्भावनाएँ और बढ़ गयी हैं। लेकिन फिर भी सोशल मीडिया साइट्स को इस धोखे में नहीं रहना चाहिए कि ऐसा करके उनकी साख बची रह जाएगी। पहले भी व्हाट्स ऐप की तरह उपयोगकर्ता की निजता में सेंध लगाने की कोशिश करने वाली कई साइट्स का आज नाम-ओ-निशान तक नहीं है। अगर आज भी व्हाट्स ऐप या फेसबुक या दूसरी सोशल साइट्स इस तरह की हरकत करेंगी, तो उनका भी अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है।

व्हाट्स ऐप पर कैसे रहें सुरक्षित

हालाँकि सोशल साइट्स पर निजता की सुरक्षा की गारंटी तब तक नहीं दी जा सकती, जब तक सोशल साइट्स खुद इसके लिए करार न कर दें। लेकिन फिर भी कुछ उपायों से आप खुद को काफी हद तक सुरक्षित कर सकते हैं। व्हाट्स ऐप पर भी ऐसी ही सावधानियों और अकाउंट मैनेज की कोशिशों से आपको सुरक्षा मिल सकती है। आपकी और आपके मैसेज, फोटो तथा अन्य जानकारी की सुरक्षा के लिए सबसे ज़रूरी कि आपको उन टूल्स और फीचर्स के बारे में जानकारी हो, जिनसे आप सुरक्षित और असुरक्षित हो सकते हैं। पहले तो यह कि जब आप कोई भी ऐप डाउनलोड करें, तो उस ऐप के नियमों और शर्तों को ज़रूर पढ़ लें और यह सुनिश्चित कर लें कि आप उसके नियमों और शर्तों से सन्तुष्ट हैं। हर एक शर्त को आँख बन्द करके यानी बिना पढ़े एलाउ यानी स्वीकृत करते न चलें। अगर ऐसी कोई भी जानकारी अपने किसी साथी, दोस्त या परिचित के साथ सोशल मीडिया पर शेयर न करें, जो अत्यधिक गोपनीय हो। आप उन्हें ऐसी जानकारियाँ ईमेल के ज़रिये भी भेज सकते हैं। व्हाट्स ऐप की सेवा की शर्तों में साफ-साफ बताया गया है कि व्हाट्स ऐप पर क्या करना मना है। जैसे कि व्हाट्स ऐप पर अवैध, अश्लील, धमकी, मानहानि, परेशान करने और नफरत फैलाने वाले सन्देश, नस्ल या जाति के लिए आक्रामक रुख या गैर-कानूनी या अनुचित आचरण करने या करने के लिए दूसरों को उकसाने या प्रोत्साहित करने वाले कंटेंट (स्टेटस, प्रोफाइल फोटो या मैसेज) भेजना / शेयर करना गलत है। व्हाट्स ऐप ने पहले ही कह दिया है कि ऐसा उसकी सेवा की शर्तों का उल्लंघन है। दूसरा व्हाट्स ऐप आपको कुछ ऐसे कंट्रोल टूल्स देता है, जिनका इस्तेमाल करके आप खुद को थोड़ा सुरक्षित रख सकते हैं। जैसे आप अपने अकाउंट की डिटेल को जिसे न दिखाना चाहें, उससे छिपा सकते हैं। ध्यान दें कि आप जिन लोगों या ग्रुप्स से व्हाट्स ऐप पर बात नहीं करना चाहते, आप उन्हें सीधे ब्लॉक भी कर सकते हैं। इतने पर भी आपकी प्राइवेसी कोई जाँच या चुरा रहा है, तो आप व्हाट्स ऐप को रिपोर्ट कर सकते हैं।

ठप हो रहे बाँस उद्योग को बढ़ावा देने की ज़रूरत

पहले के दौर में चीनी मिट्टी, काँच और शीशे की बोट (बड़ी-बड़ी बोतलें और जार) हुआ करते थे, तो वहीं खाने-पीने की सूखी चीज़ें और रोटियाँ आदि रखने के लिए डलियाँ, पल्ले आदि होते थे। इसी तरह बाँस से लोकप्रिय वाद्ययंत्र बांसुरी और बच्चों के खिलौनों तथा बाजा (एक तरह की सीटी) के अलावा बहुत तरह का सामान घरेलू उपयोग के लिए भी बनाया जाता था। इसमें फर्नीचर से लेकर रसोईघर में इस्तेमाल तक का सामान शामिल होता था।

पहले के कच्चे घरों में घरों की छत से लेकर छप्परों में मज़बूती और टट्टी (एक प्रकार का बाँस का दरवाज़ा) तक बाँस से ही बनते थे। आज भी गाँवों में बहुतायत में बाँस की बनी चीज़ें, जैसे चारपाइयाँ, सीढिय़ाँ, कुर्सियाँ आदि मिल जाती हैं। गाँवों में ही क्यों शहरों में बड़े-बड़े घरों और फाइव स्टार होटलों से लेकर रेस्तरां तथा रिसोर्ट तक का साज-ओ-सामान और फर्नीचर तक बाँसों का बना होता है। सड़क किनारे बने बहुत-से ढाबों में भी बाँस से बनी चारपाइयाँ और मेज-कुर्सियाँ आदि बाँस से बनी हुई मिल जाती हैं। हिन्दू धर्म में बाँस की बनी टिकटी पर भी शव को श्मशान तक ले जाने की प्रथा आज भी बनी हुई है। यह इस वजह से भी है, क्योंकि बाँस हल्का, प्रदूषण न फैलाने वाला (न जलाने पर) और टिकाऊ होता है। यह एक ऐसी खोखली लकड़ी होती है, जिसकी पतली-से-पतली खरपच्ची भी लोचदार और मज़बूत होती है। पहले दीपावली पर बाँस की खरपच्चियों से ही कंदील बनाया जाता था, जिसका चलन आज भी बहुत-से गाँवों में है। कहना न होगा कि आज दुनिया भर में बाँसों से बने सामान की बहुत माँग है। लेकिन बाँस उद्योग को उतना बढ़ावा नहीं मिल सका है, जितना कि उसे मिलना चाहिए।

आज दुनिया भर में लोग प्लास्टिक के सामान का बहुतायत में इस्तेमाल करते हैं। हर घर में, चाहे वह कितने भी रईस घर की बात हो; कुछ-न-कुछ प्लास्टिक का सामान ज़रूर रहती है। हालाँकि प्लास्टिक मनुष्य के साथ-साथ वातावरण के लिए कितनी घातक है, यह बात आज अधिकतर लोग जानते हैं। वैज्ञानिक प्लास्टिक से बढ़ते नुकसान के प्रति समय-समय पर चेताते रहते हैं, लेकिन प्लास्टिक हम सबके जीवन का एक अभिन्न हिस्सा बन चुका है। आज दुनिया में शायद ही कोई ऐसा आदमी हो, जिसके जीवन से प्लास्टिक दूर हो। ऐसे में प्लास्टिक से छुटकारा पाना तो मुश्किल है, लेकिन बाँस आदि की तरह दूसरी प्राकृतिक चीज़ों के इस्तेमाल से हम प्लास्टिक के सामान के उपयोग को काफी हद तक कम कर सकते हैं। अगर बाँस से बने सामान की बात करें, तो इसके कम इस्तेमाल की कई वजहें हैं। पहली यह कि बाँस से बनी चीज़ें हर जगह इस्तेमाल नहीं हो सकतीं।

दूसरे शब्दों में कहें तो बाँसों से हर वो चीज़ नहीं बनायी जा सकती, जिसका उपयोग हर तरह से किया जा सके। दूसरी वजह यह है कि बाँस का सामान प्लास्टिक से काफी महँगा होता है। ऐसे में हर आदमी उसे नहीं खरीद सकता और तीसरी वजह यह है कि बाँस सीमित मात्रा में उपलब्ध होते हैं। लेकिन फिर भी बाँस से बने कई सामान बाज़ार में उपलब्ध रहते हैं। आजकल बाँस का सामान घर में फैंसी सजावट का हिस्सा बन चुका है। अब तो बाँस के कुछ बर्तन आदि भी बनने लगे हैं।

बहुउपयोगी है बाँस

बाँस एक ऐसी वनस्पतीय पेड़ है, जिसके सैकड़ों उपयोग हैं। अगर बाँसों से बनी चीज़ों और दूसरे उपयोगों पर नज़र डालें, तो पता चलता है कि यह करीब डेढ़ हज़ार तरह की चीज़ों में उपयोग किया जाने वाला बहुउपयोगी पेड़ है। बाँस का उपयोग वाद्य यंत्र और खाद्य पदार्थों से लेकर, फर्नीचर और भवन निर्माण से लेकर सजावट और किचिन में उपयोग की चीज़ों तक में काम आता है। आज बाँस से बनी हस्ताशिल्प वस्तुओं की दुनिया भर में बहुत माँग है। बाँस एक ऐसा पेड़ है, जो हल्का मज़बूत और टिकाऊ होता है। बाँस की लाठियाँ आज भी सर्वाधिक चलन में हैं। बाँस की लकड़ी के अलावा इसके पत्ते भी बहुत ही उपयोगी होते हैं। पत्तों और बाँस के अवशेष की लुगदी से कागज़ से लेकर बोतलें, प्लेट, कप, और किचिन का अन्य उपयोग सामान बनता है, जो काफी मज़बूत होता है। इसके अलावा बाँस का रेशा भी बनता है, जिसके थैले, दूसरे रेशेदार तथा मज़बूत बुनावटी चीज़ें बनायी जाती हैं।

बाँस उद्योग के प्रति निराशा क्यों

बाँसों के सबसे ज़्यादा तकरीबन 80 फीसदी जंगल एशिया में ही पाये जाते हैं। भारत इनमें अग्रणी श्रेणी में आता है और बाँसों की पैदावार के मामले में पूरी दुनिया में दूसरे नंबर पर है। भारत, चीन और म्यांमार करीब 1.98 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँसों के जंगल फैले हैं। भारत सरकार के कृषि और किसान कल्याण मंत्रालय की रिपोर्ट कहती है कि हमारे देश में बाँसों का वार्षिक उत्पादन तकरीबन 32.3 करोड़ टन है। यहाँ 1.4 करोड़ हेक्टेयर क्षेत्र में बाँस पैदा होता है। यहाँ बाँस की 136 प्रजातियाँ पायी जाती हैं। लेकिन इस पर खुश होने की ज़रूरत नहीं है; क्योंकि दुनिया का एक बड़ा बाँस पैदावार क्षेत्र हमारे देश में होने के बावजूद हम केवल बाँस का चार फीसदी व्यापार ही कर पाते हैं, जो कि बाँस की कम पैदावार वाले कई देशों से काफी कम है। वित्तीय वर्ष 2015-16 में भारत में बने बाँस के सामान का निर्यात महज़ 0.11 करोड़ रुपये ही था, जो कि वित्तीय वर्ष 2016-17 में बढ़कर महज़ 0.32 करोड़ रुपये ही हो सका। जबकि सरकार अगर चाहे, तो इस क्षेत्र को बढ़ावा देकर इसके निर्यात को बढ़ावा देकर कई लाख करोड़ का व्यापार कर सकती है। बाँस उद्योग के प्रति लोगों की उदासीनता की वजह पता करने के लिए जब हमने इस उद्योग से जुड़े उत्तर प्रदेश के धौरांडाटा निवासी कल्लू मास्टर से बातचीत की, तो कुछ समस्याएँ निकलकर सामने आयीं। कल्लू मास्टर ने बताया कि करीब 10-12 साल पहले उन्होंने बाँस उद्योग शुरू किया था। उस समय वे कुर्सियाँ, मेजें और अन्य सामान बनाकर बड़े बाज़ारों में उसे बेचा करते थे; लेकिन काफी मेहनत के बावजूद उन्हें उतनी आमदनी नहीं होती थी, जितनी कि होनी चाहिए। न ही समय पर उनके सामान का पैसा मिल पाता था। इन परेशानियों के चलते वे अपने कारीगरों को सही मेहनताना नहीं दे पाते थे, जिसके कारण कारीगर मन लगाकर काम नहीं कर पाते थे। इसके अलावा बाँस से बना सामान हर जगह बिकता भी नहीं था। न ही बाज़ार में बहुत अच्छा दाम उन्हें मिल पाता था। उन्होंने बताया कि हस्तशिल्प वाले जिस कुर्सी को उनसे महज़ ढाई-तीन सौ में खरीदते थे, वही कुर्सी वे एक से डेढ़ हज़ार में उस समय बेचते थे। इन्हीं सब कारणों के चलते उन्हें यह काम बन्द करके खुद भी नौकरी करनी पड़ी। कल्लू मास्टर बताते हैं कि इस उद्योग में मेहनत करने वाले कारीगरों को ठीक से पैसा नहीं मिल पाता इसलिए यह उद्योग ग्रामीण इलाकों में बहुत अच्छा नहीं चल सका। अगर इस उद्योग में काम करने वालों को सही दाम मिलें, तो यह उद्योग गाँवों में आज भी खूब फल-फूल सकता है।

सरकार ने क्या किया

हमारे देश में बाँसों के जंगल तेज़ी से घट रहे हैं, लेकिन बावजूद इसके यहाँ बाँस आज भी बहुतायत में पाये जाते हैं। बाँस उत्तर भारत में बहुत अधिक होता है। बड़ी बात यह है कि एक बाँस से धीरे-धीरे बाँसों का झुण्ड हो जाता है। अब तो इसकी पूर्ति के लिए बाँसों की खेती भी भारत में की जा रही है। हालाँकि जिस हिसाब से देश में बाँस उद्योग को रफ्तार मिलनी चाहिए, उस हिसाब से यह बढ़ा नहीं। बाँसों से बना सामान भी कुछेक जगहों पर ही उपलब्ध हो पाता है। हालाँकि केंद्र सरकार ने इस उद्योग को हमेशा बढ़ावा दिया है। उदाहरण के तौर पर मोदी सरकार भी फिलहाल स्वदेशी सामानों के उत्पादन पर विशेष ज़ोर दे रही है; ताकि लोगों को स्वरोज़गार के अवसर प्राप्त हो सकें और वे आत्मनिर्भर बन सकें। बता दें कि भारतीय वन अधिनियम-1927 में बाँस को वृक्ष की श्रेणी में रखा गया था, लेकिन सन् 2018 में मोदी सरकार ने बाँस को पेड़ की कैटेगरी से हटाकर इसे खेती में शामिल कर दिया था, ताकि किसान इसकी खेती कर सकें। इसके लिए राष्ट्रीय बैंबू मिशन के तहत तकनीकी सहायता देने के लिए बैंबू टेक्निकल सपोर्ट ग्रुप (बीटीएसजी) का भी गठन किया जा चुका है। हालाँकि मोदी सरकार ने बाँस के आयात पर सीमा शुल्क 10 फीसद से बढ़ाकर 25 फीसदी कर दिया है। लेकिन इसका फायदा यह भी है कि बाहरी बाँस महँगा पडऩे के चलते यहाँ बाँस की खेती को बढ़ावा मिल सकेगा। देश में बाँस की खेती को बढ़ावा देने के लिए सरकार ने सन् 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस विभाग को स्वीकृति दी थी, ताकि बाँसों के पौधारोपण की सामग्री से लेकर बागबानी, संग्रह सुविधा, समेकन, प्रसंस्करण, विपणन, सूक्ष्म, लघु व मध्यम उद्यमों, कौशल विकास और ब्रांड कायम करने जैसी पहलों को बढ़ावा मिल सके। इसके अलावा खादी ग्रामोद्योग आयोग भी बाँस से बने उत्पादों को बढ़ावा देता है। खादी ग्रामोद्योग आयोग खादी कुटीर उद्योग के तहत बाँस उद्योग को वर्षों से बढ़ावा दे रहा है। खादी ग्रामोद्योग आयोग लोगों को प्रशिक्षण देकर उन्हें बाँस उद्योग लगाने की प्रेरणा देता है। इसके अलावा राष्ट्रीय बाँस मिशन भी इस काम को बढ़ावा देता है। केंद्र सरकार के अलावा कई राज्यों की सरकारें भी बाँस उद्योग को बढ़ावा देती हैं।

केंद्र सरकार द्वारा प्रायोजित कार्यक्रम राष्ट्रीय बाँस मिशन द्वारा वित्तीय वर्ष 2006-07 से पिछले साल तक देश भर में 3,61,791 हेक्टेयर भूमि पर बाँस के बाग लगाये जा चुके हैं, जिसमें 2,36,700 हेक्टेयर वन क्षेत्र और 1,25,091 हेक्टेयर कृषि तथा अन्य भूमि क्षेत्र है। इसके अलावा, बाँस उद्योग को बढ़ावा देने के लिए गाँवों के पास बाँस के 39 थोक व खुदरा बाज़ार स्थापित करने के साथ-साथ 29 अन्य फुटकर क्रय केंद्र तथा 40 बाँस मंडियाँ भी देश भर में स्थापित की जा चुकी हैं।

हालाँकि अप्रैल, 2018 में पुनर्गठित राष्ट्रीय बाँस मिशन को स्वीकृति प्रदान करने के दौरान केंद्र सरकार का लक्ष्य था कि वह 2020 तक 1,290 करोड़ रुपये का निवेश करेगी। लेकिन इस उद्योग को वह गति नहीं मिल सकी है, जिसकी ज़रूरत है। अगर राज्यों की बात करें, तो बाँस से बने सामान के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए हिमाचल प्रदेश सरकार, तेलंगाना सरकार, महाराष्ट्र सरकार, उत्तर प्रदेश सरकार ने भी कई कदम उठाये हैं; लेकिन वे अभी उतने लाभदायक साबित नहीं हुए हैं, जितनी उम्मीद की गयी थी। हमारे देश में आज भी बहुत-सी ज़मीन खाली पड़ी है, जिसमें काफी हिस्सा बंजर और ढलान वाली भूमि का है। सरकार को चाहिए कि वह बाँस उगाने के सघन कार्यक्रम को और रफ्तार देते हुए इन ज़मीनों को बाँस और दूसरी फसलों किसानों को दे। यहाँ पर सरकार को चीन से सीखने की ज़रूरत है, जिसने अपनी खाली पड़ी ज़मीन पर ज़मीन की गुणवत्ता के हिसाब से ऐसी फसलों को उगाना शुरू कर दिया है, जिनका उपयोग बड़े पैमाने पर किया जा सके। चीन बाँस की खेती को भी काफी बढ़ावा दे रहा है।

पाँच इंद्रियों से प्राप्त संवेदनाएँ भोजन ही हैं

भौतिक और रासायनिक स्तर पर मानव शरीर और इसके तीन स्तरीय रक्षा प्रणालियों के बारे में चर्चा पिछले आलेख में शुरू की गयी थी। रक्षा की तीसरी पंक्ति, अर्थात् प्रतिरक्षा प्रणाली और इसके असंख्य रूपों की गहनता से उन विभिन्न स्तरों पर उत्तेजना उत्पन्न करने से पहले, मानसिक स्तर पर मानव शरीर के रक्षा तंत्र की चर्चा करना अनिवार्य है। भौतिक और रासायनिक स्तर पर खाद्य पदार्थों और अन्य उत्तेजनाओं के लिए प्रतिरक्षा और इसकी प्रतिरक्षा प्रतिक्रियाओं के बारे में बात करते हुए मानसिक स्तर पर सभी पाँच इंद्रियों के माध्यम से मानव शरीर द्वारा प्राप्त उत्तेजनाओं का एक समान रूप से महत्त्वपूर्ण पहलू अक्सर अनदेखा किया जाता है, जिससे पूरी तरह से गलत परिणाम सामने आते हैं। हम यह न भूलें कि मानव शरीर पाँचों इंद्रियों में से किसी एक के माध्यम से जो भी मानता है, वह उतना ही भोजन है, जितना कि शरीर द्वारा अन्य भौतिक खाद्य पदार्थ। बल्कि सभी गहरी उत्तेजनाओं द्वारा उत्पन्न गहरा और लगभग स्थायी प्रभाव मानसिक स्तर के माध्यम से होता है।

मानव शरीर माँ प्रकृति द्वारा बनायी गयी अब तक की सबसे बेहतरीन मशीन है, जो किसी भी या सभी पाँच इंद्रियों के माध्यम से प्राप्त विभिन्न उत्तेजनाओं से निपटने के लिए दर्ज़नों रक्षा तंत्रों का प्रदर्शन करती है। ये स्वाभाविक रूप से रक्षा तंत्र हैं, जिनमें से मुख्य 10 तंत्रों पर यहाँ चर्चा की जाएगी, जिसके माध्यम से एक मानव शरीर खुद को अप्रिय घटनाओं, कार्यों और विचारों से अलग करता है। ये मनोवैज्ञानिक रणनीतियाँ आमतौर पर मानव शरीर को इसके और खतरों या अवांछित भावनाओं के बीच सुरक्षित दूरी बनाने में मदद करती हैं, जैसे अपराध या शर्म। विशुद्ध रूप से मानसिक तल पर शरीर पर बाहरी उत्तेजनाओं के प्रभाव के बारे में हमारे सनातन शास्त्रों में जो विस्तृत रूप से वर्णित किया गया है, उसके बारे में अत्यधिक संदेह होने के नाते, पहले एक मनोविश्लेषणात्मक सिद्धांत से निकली अवधारणा ऑस्ट्रेलिया के न्यूरोलॉजिस्ट सिग्मंड फ्रूड द्वारा प्रतिपादित की गयी थी। इस सिद्धांत ने तीन घटकों- आईडी, ईगो और सुपर ईगो के बीच बातचीत के रूप में एक मानव व्यक्तित्व की परिकृपना की। यह सिद्धांत समय के साथ विकसित हुआ है और यह मानता है कि व्यवहार, जैसे रक्षा तंत्र, किसी व्यक्ति के सचेत नियंत्रण में नहीं हैं। वास्तव में अधिकांश लोग मानसिक स्तर पर अपनी रक्षा को बढ़ावा देने के लिए जिस रणनीति का उपयोग कर रहे हैं, उसे साकार किये बिना करते हैं। इस तरह के रक्षा तंत्र मनोवैज्ञानिक विकास का एक सामान्य और प्राकृतिक हिस्सा हैं।

 हालाँकि जैसा कि ऊपर उल्लेख किया गया है कि कई अलग-अलग रक्षा तंत्र हैं, जिनकी पहचान की गयी है। फिर भी कुछ का उपयोग दूसरों की तुलना में अधिक किया जाता है। अधिकांश मामलों में किसी मानव शरीर की मनोवैज्ञानिक प्रतिक्रियाएँ उसके सचेत नियंत्रण में नहीं होती हैं, जिसका अर्थ है कि शरीर यह तय नहीं करता है कि वह किसी विशेष तरीके से प्रतिक्रिया क्यों करता है? जबकि यह किसी भी उत्तेजना का जवाब देता है। इन रक्षा तंत्रों में सबसे पहला और सबसे महत्त्वपूर्ण बचाव का तरीका है। यह तब होता है, जब शरीर किसी स्थिति की वास्तविकता या तथ्यों को स्वीकार करने से इन्कार कर देता है। बाहरी घटनाओं या परिस्थितियों को मानव मन से अवरुद्ध कर दिया जाता है, ताकि उन घटनाओं या परिस्थितियों के प्रभाव से जूझना न पड़े; इसे दूसरे तरीके से रखने के लिए। इसका अर्थ है कि इस तरह के प्रतिकूल उत्तेजनाओं के भावनात्मक प्रभाव से प्रभावित नहीं हुआ है। यह सबसे अधिक व्यापक रूप से मनुष्यों द्वारा तंत्र का उपयोग किया जाता है; क्योंकि प्रभावित होने के कारण लगातार अस्तित्वहीन होने से इन्कार करते हैं, जो दूसरों के आसपास स्पष्ट होते हैं।

अगला, दमन के अन्य व्यापक रूप से प्रचलित तंत्र आता है। अस्वाभाविक विचार, दर्दनाक यादें या तर्कहीन विश्वास एक इंसान को परेशान कर सकते हैं। लेकिन स्थितिजन्य मुद्दों में शामिल होने के कारण, प्रभावित व्यक्ति अपनी भावनाओं को तुरन्त बाहर नहीं कर सकता है, और जैसे कि उनका सामना करने के बजाय अनजाने में प्रभावित व्यक्ति उन्हें छिपाने का विकल्प चुनता है। उनके बारे में पूरी तरह से भूल जाने के शौकीन आशावादी या समय बीतने के साथ स्थितिजन्य मुद्दों की प्रतीक्षा करें। विडंबना यह है कि इस दमनकारी तंत्र का मतलब यह नहीं है कि सुस्त दर्दनाक यादें पूरी तरह से मानस से गायब हो जाती हैं। ये दमित भावनाएँ प्रभावित होने, व्यवहार को प्रभावित करने और भविष्य के रिश्तों को प्रभावित करने के साथ स्वास्थ्य को बुरी तरह पीडि़त करती हैं। एक मरहम लगाने वाले के रूप में इस लेखक के व्यावहारिक अवलोकन में 80 फीसदी से अधिक बीमारियाँ मूल रूप से मनोदैहिक हैं और इस रक्षा तंत्र में उनकी गहरी जड़ें हैं। बीमारियों की एक लम्बी सूची, जिसे आमतौर पर जीवन के लम्बे समय के रूप में माना जाता है; नकारात्मक मूल भावनाओं के बोतलबन्द होने में उनकी उत्पत्ति है।

प्रतीपगमन (रिग्रेशन) एक अन्य रक्षा तंत्र है, जिसका उपयोग कुछ मानव शरीर तब करते हैं, जब उन्हें खतरा महसूस होता है या वे अपने भविष्य को लेकर चिन्तित होते हैं। इस तरह के तनावपूर्ण मुद्दों से निपटने के लिए वे अनजाने में विकास के पहले चरण में बच सकते हैं। जब भी वे आघात या हानि का अनुभव करते हैं, तो ऐसा तंत्र छोटे बच्चों में बहुत ही कठोर होता है। यह अचानक कार्य करते हैं जैसे कि वे फिर से छोटे हैं। वे बिस्तर गीला करना या अँगूठा चूसना भी शुरू कर सकते हैं। अप्रिय घटनाओं या व्यवहारों का सामना करने के लिए संघर्ष करते समय वयस्क भी वापस आ सकते हैं। वे धूम्रपान, अधिक भोजन ले सकते हैं, पेन या पेंसिल चबा सकते हैं, या फिर मर चुके पशु के साथ सो सकते हैं। ऐसे प्रतिगामी बचाव के साथ वे रोज़मर्रा की गतिविधियों से भी बच सकते हैं; जो उन्हें भारी लगता है।

द्वेष या प्रतिस्थापन या द्वेष का स्थानांतरण शायद मज़बूत भावनाओं और कुंठाओं को समझाने के लिए उपयुक्त अभिव्यक्ति है, जो एक अन्य साथी के प्रति एक प्रभावित होने की भावना को प्रभावित कर रहा है; लेकिन कम खतरे वाले परिदृश्य के तहत। इस रक्षा तंत्र का एक अच्छा उदाहरण एक बच्चे या पति या पत्नी पर गुस्सा होना है; क्योंकि उसका काम पर बुरा दिन था। प्रभावित लोगों की मज़बूत भावनाओं का लक्ष्य इन लोगों में से एक है; लेकिन बेहतर स्थिति या प्राधिकरण में व्यक्ति को प्रतिक्रिया देने की तुलना में उन पर प्रतिक्रिया करना कम समस्याग्रस्त है। मानसिक तल पर यह रक्षा तंत्र सक्षम बनाता है कि कोई प्रतिक्रिया के लिए एक आवेग को सन्तुष्ट कर सके; लेकिन किसी भी महत्त्वपूर्ण परिणाम का जोखिम नहीं उठाता है। एक बच्चे की पिटाई से परेशान माँ या सास-ससुर से पीडि़त पत्नी अपने पति पर चिल्लाती है, जो विस्थापन तंत्र का सबसे सामान्य उदाहरण है।

प्रस्तुतिकरण और युक्तिकरण अन्य रक्षा तंत्र हैं, जो मानसिक स्तर पर भी उल्लेखनीय हैं। जब कुछ असहज विचार या भावनाएँ, जो किसी दूसरे व्यक्ति के खिलाफ हों; जैसे कि एक सहकर्मी को नापसन्द करना। लेकिन यह स्वीकार करने के बजाय कि यदि प्रभावित व्यक्ति अपने आप को प्रोग्राम करने के लिए चुनता है कि दूसरा उसे नापसन्द करता है, तो दूसरा दूसरे व्यक्ति को नापसन्द करता है। ऐसी क्रियाएँ, जो कोई करना या कहना चाहेगा, यह प्रक्षेपण की व्याख्या करता है। युक्तिकरण में कुछ लोग अवांछनीय व्यवहारों को अपने तथ्यों के साथ समझाने का प्रयास कर सकते हैं। यह एक को पसन्द किये गये विकल्प के साथ सहज महसूस करने की अनुमति देता है, भले ही कोई दूसरे स्तर पर जानता हो कि यह सही काम नहीं था। एक उदाहरण के रूप में यदि वे जो समय पर काम पूरा नहीं करने के लिए सह-कर्मियों पर नाराज़ हो सकते हैं, इस तथ्य की अनदेखी कर सकते हैं कि वे आमतौर पर देर से बहुत देर से करते हैं।

उदात्तीकरण, प्रतिक्रिया-गठन, वर्गीकरण और बौद्धिकरण मानसिक स्तर पर कुछ उल्लेखनीय रक्षा तंत्र हैं, जो सकारात्मक धारणाओं के साथ हैं। उच्च बनाने की क्रिया में एक मज़बूत भावनाओं या भावनाओं को एक वस्तु या गतिविधि में पुनर्निर्देशित करता है, जो उचित और सुरक्षित है। उदाहरण के रूप में एक व्यक्ति के मातहत पर बाहर ले जाने के बजाय कोई किकबॉक्सिंग या व्यायाम या यहाँ तक कि संगीत, कला या अन्य खेलों में निराशा को चुनता है। एक व्यक्ति जो इस तरह से प्रतिक्रिया करता है। उदाहरण के लिए यह महसूस कर सकता है कि इसे नकारात्मक भावनाओं को व्यक्त नहीं करना चाहिए। जैसे कि क्रोध या हताशा; लेकिन इसके बजाय अति सकारात्मक तरीके से प्रतिक्रिया करें। कंपार्टमेंटलाइजेशन के तंत्र के माध्यम से कोई व्यक्तिगत जीवन और पेशेवर जीवन की तरह भूमिकाओं के विभिन्न पहलुओं को अलग करता है और एक-दूसरे के क्षेत्र में अपनी घुसपैठ को रोकता है, जिससे व्यावसायिक जीवन की चिन्ताएँ या चुनौतियाँ अपने समायोजन में निजी जीवन के आनन्द से दूर रहती हैं। बौद्धिकरण मानसिक स्तर पर एक और रक्षा तंत्र है, जिसके तहत सभी भावनाओं को एक कोशिश की स्थिति का सामना करने पर एक प्रतिक्रिया से रखा जाता है, जबकि केवल उसी के मात्रात्मक तथ्यों पर ध्यान केंद्रित करना। यह भी एक सकारात्मक रणनीति है।

बहुत-से लोग इन सभी रक्षा तंत्रों को केवल आत्म-धोखे के एक प्रकार के रूप में मान सकते हैं, जो केवल उन भावनात्मक प्रतिक्रियाओं को छिपाने के लिए है, जिनसे कोई निपटना नहीं चाहता है। लेकिन सभी या इनमें से किसी भी बचाव को बिना किसी जागरूक होने के बिना अचेतन मन के स्तर पर लिया जाता है, जिस तरह किसी का मन या अहंकार प्रतिक्रिया देगा। हालाँकि इसका मतलब यह नहीं है कि व्यवहार सम्बन्धी प्रतिक्रियाओं को संशोधित या परिवर्तित नहीं किया जा सकता है, बल्कि अस्वस्थ रक्षा तंत्र को कुछ तकनीकों के साथ अधिक टिकाऊ और सकारात्मक रणनीतियों में बदला जा सकता है। प्रशिक्षित चिकित्सक अस्वस्थ और नकारात्मक विकल्पों की पहचान करने में मदद कर सकते हैं, जो किसी भी विशेष स्थिति से निपटने के लिए बनाता है और इसे और अधिक मनमाफिक स्तर पर विकल्प बनाने के लिए सक्रिय प्रतिक्रियाएँ सीखकर सकारात्मक रणनीति में बदल देता है।

यद्यपि किसी भी मानव के लिए मानसिक स्तर पर रक्षा तंत्र सामान्य और प्राकृतिक हैं और इसका उपयोग अक्सर किसी दीर्घकालिक जटिलताओं या मुद्दों के बिना किया जाता है, फिर भी कुछ लोग भावनात्मक कठिनाइयों का विकास करते हैं यदि वे अंतर्निहित खतरे या चिन्ता का सामना किये बिना इन तंत्रों का उपयोग करना जारी रखते हैं। प्रशिक्षित चिकित्सक द्वारा उपचार एक जागरूक स्तर से मुद्दों को सम्बोधित करने में मदद करने पर ध्यान केंद्रित करता है, न कि एक अचेतन पर। मनोचिकित्सा या परामर्श जैसी चिकित्सा के माध्यम से व्यक्ति रक्षा तंत्र के बारे में अधिक जागरूक हो जाता है, जिसका उपयोग सबसे अधिक बार किया जाता है, और इस प्रकार यह अपरिपक्व या कम उत्पादक लोगों से प्रतिक्रियाओं को अधिक परिपक्व, टिकाऊ और लाभकारी लोगों को स्थानांतरित करने में सक्षम बनाता है। इस प्रकार अधिक परिपक्व तंत्रों के उपयोग से व्यक्ति को उन चिन्ताओं और स्थितियों का सामना करना पड़ सकता है, जो सामान्य रूप से अनुचित तनाव और भावनात्मक दबाव का कारण हो सकते हैं।

मानसिक स्तर पर होने वाले बचाव किसी भी इंसान के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण तंत्र का योगदान करते हैं। अब चाहे ये अंतर्निहित बाधाएँ किसी की प्रतिरोधक क्षमता को बढ़ाती हैं या इसे आंशिक रूप से कम करती हैं या पूरी तरह से प्रतिरक्षा प्रणाली को प्रभावित करने के हिस्से के रूप में उनकी भूमिका के बारे में जागरूकता पर निर्भर करती हैं। जीवन में होने वाली गहरी दर्दनाक घटनाओं से उत्पन्न गम्भीर समस्याएँ और इससे निपटने का सबसे अच्छा तरीका है कि कम-से-कम उसी दिन भावनाओं का सामना करने की आदत डाल ली जाए; जैसा कि एक दिन उन्हें अनुभव होता है- खुद को किसी खतरनाक बीमारी का मरीज़ बनने से रोकने के लिए मौके पर नहीं। कार्य के कारण का नियम यह बताता है कि कोई भी आंतरिक प्रभाव बिना किसी बाहरी कारण के उत्पन्न नहीं हो सकता है और यह प्रभाव ही आगे के परिवर्तनों का कारण बन सकता है। अनारक्षित भावनात्मक मुद्दे जैसे कि दु:ख, दबा हुआ क्रोध आदि शरीर में भावनाओं को बन्धन में रखने से वे दूसरे रूप में सतह पर आ जाते हैं। हमारे भावनात्मक जीवन का उचित संतुलन और विनियमन हमारे जीवन में बहुत महत्त्वपूर्ण है। कैंसर, गठिया, सोरायसिस, मधुमेह, हाइपोथायरायडिज्म, उच्च रक्तचाप, स्पोंडिलोसिस आदि रोगों में एक चौंकाने वाली वृद्धि, चिन्ता में अपने मूल का उद्गम मानती है, जो कि अगर रोकी नहीं जाती है, तो तनाव की ओर जाती है; जो बदले में स्वप्रतिरक्षा रोगों के विस्तार के तहत आने वाली असंख्य बीमारियों में बदल जाती है। एक पीडि़त मानव को आधुनिक समय के विशेषज्ञों द्वारा केवल एक विशिष्ट रोग सिंड्रोम के रूप में दिखायी देने वाली अभिव्यक्ति के आधार पर इलाज किया जाता है, न कि अंतर्निहित मूल कारण से निपटने और सही करने के बजाय। इसलिए उस विशेष बीमारी को और आजीवन दवा की अस्थिरता को जारी रखा जाता है।