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विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2020: भारत में कम हो रहे मलेरिया के मामले

विश्व जनसंख्या के हिसाब से अगर देखें, तो जनसंख्या घनत्व के मामले में भारत का हाल किसी घनी आबादी वाली बस्ती से कम नहीं है। यही कारण है कि यहाँ अनेक तरह की बीमारियों ने पाँव पसार रखे हैं। हाल ही में कोरोना वायरस के संक्रमण से फैली महामारी में काफी कोशिशों के बावजूद भी यहाँ लाखों लोग संक्रमित हो गये थे। लेकिन कुछ पुरानी और खतरनाक बीमारियाँ और भी हैं, जिनके चलते भारत के अस्पतालों में मरीज़ों का तांता लगा रहता है। हाल यह है कि देश में एम्स समेत साढ़े तीन हज़ार से अधिक सरकारी और इनसे तकरीबन 10 गुना ज़्यादा प्राइवेट अस्पताल होने के बावजूद कई अस्पतालों में बेड की कमी है। देश के कई राज्यों में तो सरकारी अस्पतालों में मरीज़ों को बेड तक नहीं मिलते और कई अस्पतालों में एक-एक बेड पर तीन-तीन मरीज़ तक रखे जाते हैं। डॉक्टरों से पूछो, तो वे अपनी मजबूरी बताते हैं; प्रशासन से पूछो, तो इसका कोई जवाब नहीं मिलता।

अगर हम सभी बीमारियों से पीडि़तों और उन्हें मिलने वाली सुविधाओं की बात करें, तो एक दयनीय और अफसोसजनक तस्वीर सामने आएगी। लेकिन यहाँ हम केवल मलेरिया की बात करेंगे। मलेरिया की रोकथाम के मामले में भारत ने पिछले दो साल में अच्छा प्रदर्शन किया है। यह बात विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) ने हाल ही में जारी अपनी एक रिपोर्ट में कही है। लेकिन बावजूद इसके भारत की स्थिति दक्षिण-पूर्व एशिया में अभी भी काफी दयनीय है। सन् 2018 की एक रिपोर्ट बताती है कि पूरी दुनिया के करीब 106 देशों में मलेरिया का खतरा मँडराता रहता है। इन देशों की जनसंख्या करीब 3.3 अरब है, जिसमें से हर 10वाँ आदमी मलेरिया के खतरे के साये में रहता है। इस रिपोर्ट के मुताबिक, मलेरिया के कारण 2012 में 6 लाख 27 हज़ार मौतें हुईं, जिनमें अधिकतर मौतें अफ्रीकी और एशियाई देशों तथा लैटिन, अमेरिका में हुई। भारत में मलेरिया के सबसे ज़्यादा मामले उड़ीसा, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र, त्रिपुरा और मेघालय और उत्तर पूर्व भारत के कई राज्यों से देखने में आये। इसी तरह सन् 2015 में दुनिया भर में मलेरिया के करीब 21 करोड़ 10 लाख मामले सामने आये, जिनमें से 4 लाख 46 हज़ार मौतें हुईं। सन् 2016 में दुनिया भर में मलेरिया के 21.60 करोड़ मामले दर्ज हुए, जिनमें करीब 4 लाख 45 हज़ार मौतें हुईं। मलेरिया पर जारी विश्व स्वास्थ्य संगठन की सन् 2017 की रिपोर्ट बताती है कि भारत दुनिया के उन 15 अग्रणी देशों में शामिल है, जहाँ मलेरिया के सबसे अधिक मामले आते हैं। उस समय की एक मीडिया रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में केवल मलेरिया से 69 फीसदी मौतें होती हैं। वहीं 2010 में रॉयटर्स द्वारा जारी एक रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत में हर साल मलेरिया से करीब दो लाख पाँच हज़ार मौतें होती हैं। लेकिन भारत ने पिछले कुछ साल से मलेरिया पर काबू पाया है।

कितना हुआ है सुधार

पिछले ही महीने डब्ल्यूएचओ द्वारा जारी विश्व मलेरिया रिपोर्ट-2020 में कहा गया है कि एशिया में मलेरिया के मामले काफी कम हुए हैं। मलेरिया के मामलों की यह रिपोर्ट 87 देशों के सर्वे के बाद जारी की गयी है। यह सर्वे नेशनल मलेरिया कंट्रोल प्रोग्राम एवं अन्य पार्टनर्स के द्वारा जारी सूचना के आधार पर की गया था। हालाँकि रिपोर्ट में 2020 के साथ-साथ 2019 का अधिकतर डाटा है। रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट आयी है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट भारत में आयी है। रिपोर्ट बताती है कि पिछले कुछ वर्षों में मलेरिया के मामलों में 73 फीसदी गिरावट आयी है, जबकि मलेरिया से होने वाली मौतों के मामलों में 74 फीसदी की गिरावट आयी है। रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि पूरी दुनिया में होने वाले मलेरिया के कुल मामलों में तीन फीसदी मामले दक्षिण-पूर्व एशिया में सामने आते हैं। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में भारत ने मलेरिया पर तेज़ी से शिकंजा कसा है, जिसके लिए भारत की सराहना डब्ल्यूएचओ ने भी की है। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट के मुताबिक, 2019 में भारत में मलेरिया के मामलों में 18 फीसदी और 2020 में 20 फीसदी की कमी आयी है। वहीं यहाँ पर 2019 और 2020 में मलेरिया से होने वाली मृत्यु दर में भी काफी कमी आयी है।

पर एक निराशाजनक बात यह भी है। रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में 2019 में मलेरिया के सबसे ज़्यादा 88 फीसदी मामले भारत में ही सामने आये हैं। इतना ही नहीं यह रिपोर्ट बताती है कि दक्षिण-पूर्व एशिया में मलेरिया से हुई कुल मौतों में से 86 फीसदी भारत में हुई हैं। लेकिन इसमें आशाजनक और खुशी की बात यह है कि भारत में ही मलेरिया के मामलों में सबसे ज़्यादा गिरावट भी दर्ज की गयी है। उम्मीद की जाती है कि अगर भारत ने इसी रफ्तार से मलेरिया पर काबू पाया, तो आने वाले कुछ वर्षों में मलेरिया से भारत को काफी हद तक मुक्ति मिल जाएगी।

घटने के बाद बढ़े हैं मामले

भले ही भारत सरकार ने मलेरिया की रोकथाम के लिए पिछले दो साल में काफी कुछ किया है और इसके नतीजे भी सामने आये हैं, लेकिन इस बात से भी इन्कार नहीं किया जा सकता है कि पिछले रिकॉर्ड की अपेक्षा अब ज़्यादा मौतें हो रही हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन की एक पुरानी रिपोर्ट के मुताबिक, 2001 में दुनिया भर में मलेरिया के कुल 20 लाख 9 हज़ार मामले दर्ज किये गये थे, जिनमें कुल 1,005 लोगों की मौत हुई थी। हालाँकि इससे पहले 70 और 80 के दशक में भी मलेरिया से बड़ी संख्या में मौतें हुई थीं, लेकिन 2001 के बाद धीरे-धीरे मलेरिया के मामलों और इससे होने वाली मौतों में इज़ाफा होने लगा था।

नये प्रयासों से मिल रही सफलता

मलेरिया उन्मूलन के लिए एक तरफ जहाँ डब्ल्यूएचओ ने ठोस कदम उठाये हैं, वही भारत सरकार द्वारा इस दिशा में कई नये प्रयास किये गये हैं। इन प्रयासों की वजह से मलेरिया की रोकथाम कार्यक्रम को सफलता मिलती दिखायी दे रही है।

डब्ल्यूएचओ ने मलेरिया के ज़्यादा मामलों वाले 11 देशों, जिनमें भारत भी शामिल है, में हाई वर्डन टू हाई इंपेक्ट (एचबीएचआई) नाम की पहल शुरू की है। इस पहल को सबसे पहले 2019 में भारत के चार राज्यों पश्चिम बंगाल, झारखण्ड, छत्तीसगढ़ और मध्य प्रदेश में शुरू किया गया।

बता दें कि भारत में मलेरिया उन्मूलन प्रयास 2015 में शुरू किया गया था। 2016 में केंद्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय द्वारा नेशनल फ्रेमवर्क फॉर मलेरिया एलिमिनेशन (एनएफएमई) की शुरुआत के बाद मलेरिया उन्मूलन की मुहिम में काफी तेज़ी आयी, जिसके बाद धीरे-धीरे मलेरिया के मामले देश में कुछ कुछ कम होने लगे। इतना ही नहीं स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्रालय के द्वारा जुलाई, 2017 में मलेरिया उन्मूलन के लिए एक राष्ट्रीय रणनीतिक योजना की शुरुआत की गयी थी, जिसके तहत तय किया गया कि अगले पाँच साल यानी 2022 तक मलेरिया के मामलों को रोकने की भरपूर कोशिश की जाएगी। इस योजना के तहत देश में 2030 तक मलेरिया से मुक्ति का भारत सरकार का सपना है।

मलेरिया जैसी गम्भीर बीमारी पर काबू पाने के लिए हर साल 25 अप्रैल को विश्व मलेरिया दिवस मनाया जाता है। इसका मुख्य उद्देश्य मलेरिया से लोगों को जागरूक और उनकी जान की रक्षा करना है। विश्व मलेरिया दिवस की स्थापना मई, 2007 में 60वें विश्व स्वास्थ्य सभा के सत्र के दौरान की गयी थी।

अब सर्दियों में भी नहीं मरते मच्छर

जैसा कि हम सभी जानते हैं कि मच्छरों के काटने से मलेरिया की बीमारी होती है। यही वजह है कि यह बीमारी गर्मियों और बारिश के मौसम में बहुत फैलती है। लेकिन अब सर्दियों में भी मलेरिया के मामले यदा-कदा सामने आ जाते हैं। क्योंकि अब सर्दियों में भी मच्छर काटने के लिए शरीर के पास मँडराते मिल जाते हैं। बड़े शहरों में अक्सर मच्छर अब पूरे साल ज़िन्दा रहते हैं। इसकी एक वजह शहरों में एयर कंडीशनर और प्रदूषण भी है। पहले के दौर में सर्दियों में मच्छर नहीं रहते थे। भारत में कहा जाता था कि दीपावली के बाद मच्छर खुद-ब-खुद मरने लगते हैं और कड़ी सर्दियों में तो यह बिल्कुल भी नहीं रहते। हालाँकि ऐसा नहीं होता। बस मच्छरों की संख्या सर्दियों में न के बराबर रह जाती है। लेकिन जो मच्छर बच जाते हैं, वो किसी प्रकार अपना अस्तित्व ऐसी जगहों पर रहकर बचाते हैं, जहाँ उन्हें थोड़ी गर्मी मिल सके, जैसे अँधेरी गुफाओं, कंदराओं में छिपकर। वहीं इनका लार्वा सर्दियों में गन्दे पानी में काफी समय तक सुरक्षित रह जाता है। बता दें कि मलेरिया एक प्रकार के परजीवी प्लाजमोडियम से फैलने वाला रोग है, जिसका वाहक मादा एनाफिलीज मच्छर होता है।

डीडीटी का छिड़काव ज़रूरी

पहले गाँवों से लेकर शहरों तक सरकार द्वारा साल में दो या इससे अधिक बार डिक्लोरो डिपेनिल ट्राइक्लोरोइथेन (डीडीटी) का छिड़काव कराया जाता था, लेकिन अब एक धुआँ छोड़ा जाता है, जिससे मच्छर मरते ही नहीं हैं। वो केवल इस धुएँ की धुंध से थोड़ी देर के लिए छिपकर बैठ जाते हैं और धुआँ कम होते ही फिर से सक्रिय हो जाते हैं। भारत सरकार ने सबसे पहले सन् 1953 में राष्ट्रीय मलेरिया नियंत्रण कार्यक्रम के तहत डीडीटी का छिड़काव शुरू कराया था, जिससे मलेरिया रोगियों की संख्या कुछ कम हुई थी। फिर सन् 1958 से राष्ट्रीय मेलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम शुरू किया गया, जिसके तहत डीडीटी के छिड़काव के अतिरिक्त ज्वर पीडि़त व्यक्तियों की खोज करके उनके रक्त की जाँच भी शुरू की गयी थी। सन् 1977 में पुन: राष्ट्रीय मलेरिया उन्मूलन कार्यक्रम की संशोधित योजना लागू की गयी। इस योजना के तहत मलेरिया के मरीज़ों की खोज उनके इलाज और डीडीटी के अतिरिक्त छिड़काव की व्यवस्था की गयी। यह कार्यक्रम भारत सरकार एवं राज्य सरकारों के आधे-आधे अनुदान पर चलाया जाता था। अब मच्छर पहले से काफी स्ट्रॉन्ग (परिपक्व) हो गये हैं। ऐसे में एक ऐसी दवा के हर जगह छिड़काव की ज़रूरत है, जो मच्छरों को प्रभावी तौर पर खत्म कर सके; ताकि साल 2030 तक मलेरिया को खत्म करने का सरकार का सपना पूरा हो सके।

दशकों से पुनर्वास के इंतज़ार में पोंग बाँध के विस्थापित

हिमाचल प्रदेश में पोंग बाँध के 8000 से अधिक विस्थापित लोग पाँच दशक से अपने पुनर्वास का इंतज़ार कर रहे हैं। यह 50 साल पहले की बात है, जब 30,000 से अधिक परिवारों को उनके घरों और ज़मीनों से उजाड़ दिया गया था। इनमें से हज़ारों लोग आज भी दर-ब-दर हैं, उनका पुनर्वासन नहीं हुआ है।

पोंग बाँध प्रभावित ग्रामीण अपनी समस्याओं के प्रति अधिकारियों को असंवेदनशील बताते हैं। हज़ारों ग्रामीण आज भी एक भय में जीने को मजबूर हैं। उन्होंने अब सर्वोच्च अदालत (सुप्रीम कोर्ट) में एक याचिका दायर की है। सर्वोच्च अदालत उनकी इस याचिका पर 20 जनवरी को सुनवाई करेगी। इस याचिका में कहा गया है कि करीब 30,000 किसान परिवार पोंग बाँध के विस्थापन से प्रभावित थे; क्योंकि उनकी भूमि बाँध के कारण जलमग्न हो गयी थी। इन करीब 30,000 परिवारों में से कम-से-कम 8,000 परिवारों को अभी भी पुनर्वास की प्रतीक्षा है।

इन 8000 परिवारों को न तो भूमि आवंटित ही की गयी है और न ही उचित मुआवज़ा दिया गया है। सुप्रीम कोर्ट ने 16 अक्टूबर को राजस्थान और हिमाचल प्रदेश राज्यों और जल शक्ति मंत्रालय के जल संसाधन विभाग की याचिका पर नोटिस जारी किये थे। विस्थापितों की दूसरी पीढ़ी द्वारा दायर याचिका में कहा गया है कि राजस्थान सरकार 1996 के सुप्रीम कोर्ट के आदेश के तहत स्थापित विस्थापितों की शिकायतों के लिए बैठक न करके आवंटियों की प्रक्रिया का उल्लंघन कर रही है। पोंग बाँध के विस्थापितों के दशकों लम्बे संघर्ष की कहानी भारत के अक्षय ऊर्जा क्षमता को बढ़ाने के दृष्टिगत और अहम हो जाती है; क्योंकि यह साल 2030 तक अपने स्थापित बड़े बाँधों की वर्तमान पनबिजली क्षमता को 45 गीगावॉट से कम-से-कम 34 फीसदी बढ़ाकर 60 गीगावॉट तक करना चाहता है। भूमि संघर्ष निगरानी (लैंड कन्फ्लिक्ट वॉच) के मुताबिक, भारत में बाँधों के कारण कम-से-कम 60 मामले चल रहे हैं। यह संस्था भारत में चल रहे भूमि संघर्ष पर डाटा एकत्र करती है। साल 2013 में भूमि अधिग्रहण, पुनर्वास और पुनर्वास अधिनियम ने पहली बार उचित मुआवज़े और पारदर्शिता के अधिकार को कानूनी रूप से अनिवार्य बनाया था।

तथ्य यह है कि आज़ादी के बाद के वर्षों से अलग-अलग परियोजनाओं को अभी तक विस्थापितों के मामलों को निपटाना है। इनमें स्वतंत्र भारत का पहला बाँध हीराकुंड (ओडिशा), दामोदर (झारखण्ड), भाखड़ा नागल (हिमाचल प्रदेश), सरदार सरोवर बाँध (गुजरात), श्रीशैलम (आंध्र प्रदेश), कृष्णराज सागर (कर्नाटक), टिहरी (उत्तराखण्ड), रेंगाली (ओडिशा) शामिल हैं। अपर कोलाब (ओडिशा), डिमना (झारखण्ड), अपर कृष्णा (कर्नाटक), माखन (गुजरात), करंजा (कर्नाटक) और डिमना (झारखण्ड) शामिल हैं।

पोंग पुनर्वास राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के बीच समझौता ज्ञापन पर निर्भर था; लेकिन इसका कोई फायदा नहीं हुआ। मार्च, 2019 में केंद्रीय मंत्रिमंडल ने अक्षय ऊर्जा परियोजनाओं (जैसे कि 25 मेगावॉट से कम बिजली उत्पादन क्षमता वाली छोटी पनबिजली परियोजनाओं) के रूप में वर्गीकृत करके बड़े बाँधों को बढ़ावा देने का फैसला किया। साथ ही बिजली दरों को कम करने और इसे अनिवार्य बनाने के लिए नये बाँधों को बजटीय सहायता प्रदान की, ताकि राज्य बाँधों से बिजली खरीद सकें। सरकार के बयान में कहा गया है- ‘भारत 1,45,320 मेगावॉट की बड़ी जल विद्युत क्षमता से सम्पन्न है, जिसमें से अब तक केवल 45,400 मेगावॉट का ही उपयोग किया जा सका है। बड़े हाइड्रो प्रोजेक्ट पर्यावरण के अनुकूल थे। ग्रिड स्थिरता के लिए आदर्श हैं और जल सुरक्षा, सिंचाई, बाढ़ मॉडरेशन और पूरे क्षेत्र का सामाजिक-आर्थिक विकास प्रदान करते हैं।

केंद्र और राज्य सरकारों ने पिछले कुछ वर्षों में कई बड़ी बाँध परियोजनाओं का प्रस्ताव किया है, जिसमें अरुणाचल प्रदेश में एटलिन परियोजना, आंध्र प्रदेश में पोलावरम् और छत्तीसगढ़ में बोधघाट शामिल हैं। सन् 1975 में पूरे हुए पोंग बाँध ने व्यास नदी को संयोजित किया और सबसे लम्बे नहर नेटवर्क- इंदिरा गाँधी नहर के माध्यम से राजस्थान के थार रेगिस्तान तक अपना पानी पहुँचा दिया। इस बाँध ने कांगड़ा ज़िले के 339 गाँवों में 75,268 एकड़ में भूमि को जलमग्न कर दिया और लगभग 30,000 परिवारों को उजाड़ दिया। याचिका के अनुसार, 16,352 परिवारों ने अपनी एक-तिहाई से अधिक भूमि खो दी थी। उन्हें राजस्थान में भूमि के वैकल्पिक भूखण्डों पर पुनर्वास के लिए योग्य माना गया था, जिसे राजस्थान नेटवर्क के अनुसार, नहर नेटवर्क द्वारा सरकारी भूमि का आवंटन (पोंग बाँध के लिए सरकारी भूमि का आवंटन) राजस्थान कैनाल कॉलोनी में नियम), सन् 1972 सिंचित किया जाना था। प्रत्येक पात्र को 15 एकड़ भूखण्ड आवंटित किया गया था, जो कि राजस्थान और पंजाब की सरकारों द्वारा स्वीकार किये गये पुनर्वास पैकेज के अनुसार था। बता दें पंजाब हिमाचल प्रदेश राज्य के निर्माण से पहले कांगड़ा को शासित करता था। सन् 1972 के नियमों को हिमाचल प्रदेश सरकार से प्राप्त राजस्थान सरकार की पात्रता प्रमाण पत्र को प्रस्तुत करने के लिए अपदस्थ करने की आवश्यकता थी। राजस्थान सरकार को तब भूमि का आवंटन करना था और सड़क, बिजली, पानी, स्कूल और स्वास्थ्य सुविधाएँ उपलब्ध करानी थीं। लेकिन जो भूखण्ड आवंटित किये गये थे, वो बंजर थे और वहाँ किसी भी तरह की नागरिक सुविधाएँ नहीं थीं। श्रीगंगानगर में आवंटित भूमि को प्राप्त करने के लिए उन्हें घंटों पैदल चलना पड़ा; क्योंकि वहाँ न सड़कें थीं, न पीने का पानी था और न ही बिजली थी। सन् 1980 तक राजस्थान सरकार ने कांगड़ा के केवल 9,196 परिवारों या 56 फीसदी लोगों को ही भूमि आवंटित की थी। इन आवंटनों में से 72 फीसदी को राज्य द्वारा 1972 के नियमों का उल्लंघन करने के लिए रद्द कर दिया गया था। सन् 1993 में सुप्रीम कोर्ट के समक्ष हिमाचल प्रदेश सरकार द्वारा दायर एक हलफनामे में यह बात कही गयी है। न्यायालय ने कहा- ‘उनके पिछले रिकॉर्ड के सम्बन्ध में राजस्व अधिकारियों राजस्थान को कार्य सौंपा नहीं जा सकता है।’ इससे सन् 1992 के संशोधन को नुकसान हुआ, जिसमें कहा गया कि एक निरस्त आवंटन केवल दूसरे बेदखल करने वाले को सौंपा जा सकता है। इसने भूमि को आवंटित करने के लिए राजस्थान की शक्तियाँ भी ले लीं। केंद्रीय जल संसाधन मंत्रालय के सचिव और राजस्थान और हिमाचल प्रदेश के राज्य प्रतिनिधियों को शामिल करने के लिए एक समिति को प्रभार सौंप दिया गया। यह समिति सन् 1996 के बाद से कम-से-कम 17 बार मिल चुकी है। याचिका के जवाब में सरकारों को सुप्रीम कोर्ट की प्रारम्भिक समय-सीमा के तीन दिन बाद सबसे आखरी बैठक 14 दिसंबर को थी। बता दें 11 दिसंबर को अदालत ने चार सप्ताह का अतिरिक्त समय दिया था।

एक बैठक में समिति ने राजस्थान के राजस्व सचिव की अध्यक्षता में एक स्थायी समिति नामित की, जिसमें विस्थापित लोगों के प्रतिनिधि शामिल थे। स्थायी समिति को निकाय की शिकायतों को हल करने और भूमि के आवंटन की निगरानी के लिए द्वैमासिक रूप से मिलने के लिए कहा गया था। इसने पुनर्वास के लिए नहर क्षेत्र में उपयुक्त भूमि का चयन करने के लिए विस्थापितों के पाँच प्रतिनिधियों की एक उप-समिति भी बनायी। उप-समिति ने कथित तौर पर राजस्थान में पुनर्वास क्षेत्रों का दौरा किया और पाया कि बहुत-सी भूमि असिंचित थी और अभी भी बिजली, पानी या अन्य मूलभूत सुविधाएँ वहाँ उपलब्ध नहीं थीं। विस्थापितों के लिए आरक्षित भूखण्ड बिखरे हुए थे और एक क्षेत्र में जिप्सम खनन किया जा रहा था। समिति की रिपोर्ट में कहा गया कि उसे नहीं लगता कि राजस्थान में सभी विस्थापितों के लिए पर्याप्त सिंचित भूमि उपलब्ध है।

सन् 2018 के बाद से राजस्थान सरकार ने कहा है कि वह बेदखलों को ज़मीन देगी; लेकिन जैसलमेर और बीकानेर ज़िलों में पाकिस्तान की सीमा के साथ। हिमाचल प्रदेश सरकार ने यह कहते हुए इस निर्णय का विरोध किया कि यह भूमि कृषि के लिए अनुपयोगी है, क्योंकि वहाँ महीनों पानी नहीं होता है। हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायालय ने भी कहा कि हिमाचल प्रदेश के एक कृषक अथवा ग्रामीण के लिए प्रथम दृष्टया यह असम्भव नहीं, तो कठिन अवश्य है कि उसे जैसलमेर या बीकानेर ज़िलों के एक दूरदराज़ के इलाके में बसना पड़े; जहाँ वैकल्पिक भूमि की इन्हें पेशकश की जा रही है। अदालत ने सुझाव दिया कि हिमाचल प्रदेश में भूमि उपलब्ध करायी जानी चाहिए और राजस्थान को इसके लिए भुगतान करना चाहिए।

मानव विकास सूचकांक-2020 में और नीचे खिसका भारत

हाल ही में संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) द्वारा जारी रिपोर्ट के अनुसार, वर्ष 2020 के मानव विकास सूचकांक (एचडीआई) में 189 देशों की सूची में भारत 131वें स्थान पर है। सन् 2019 में जारी इस सूचकांक में भारत को 129वाँ स्थान मिला था; लेकिन इस बार की रैंकिंग में यह दो पायदान और नीचे खिसक गया है। प्रतिवर्ष जारी होने वाले इस मानव विकास सूचकांक में पहले की ही तरह एक बार फिर यूरोपीय देशों ने काफी बेहतर प्रदर्शन किया है।

नार्वे इस सूचकांक में पहले स्थान पर है, जबकि आयरलैंड दूसरे तथा स्विट्जरलैंड तीसरे पायदान पर हैं। एशियाई क्षेत्र में सबसे बेहतर प्रदर्शन करने वाले हॉन्गकॉन्ग, सिंगापुर, इजरायल तथा जापान हैं। इस सूचकांग में हॉन्गकॉन्ग चौथे, सिंगापुर 11वें और इजरायल तथा जापान, दोनों 19वें स्थान पर हैं। चार कैटेगरी में विभाजित इस वैश्विक सूचकांक में ये सभी क्षेत्र बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं। दुनिया का प्रभावशाली देश अमेरिका इस सूचकांक में 17वें पायदान पर है, जबकि निम्न मानव विकास श्रेणी में शामिल अफ्रीकी देश नाइजर इस सूचकांक में 189वें यानी अन्तिम स्थान पर है। इसी साल जारी इस रिपोर्ट में भारत का मानव विकास सूचकांक मूल्य 0.645 है। अगर हम सन् 1990 से सन् 2019 तक के मानव विकास सूचकांक मूल्य को देखें, तो यह 0.429 से बढ़कर 0.645 तक पहुँच गया है, यानी इसमें 50.3 फीसदी की वृद्धि हुई है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों में जारी मानव विकास सूचकांक को देखें, तो भारत की रैंकिंग लगभग 130 के आस-पास ही रही है। तेज़ी से उभरती हुई अर्थ-व्यवस्था वाले भारत जैसे देश के लिए यह सूचकांक बेहद महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह जीवन प्रत्याशा, शिक्षा तथा प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय जैसे प्रमुख बुनियादी आयामों पर आधारित होता है।

मानव विकास सूचकांक के वर्तमान आँकड़े यह बताते हैं कि साल 2019 में भारतीयों के जन्म के समय की जीवन प्रत्याशा 69.7 वर्ष थी। सन् 1990 में जारी पहली रिपोर्ट से लेकर सन् 2019 के दौरान जन्म के समय भारत की जीवन प्रत्याशा में 11.8 वर्ष की वृद्धि हुई है; लेकिन फिर भी यह दक्षिण एशियाई औसत (69.9 वर्ष) की तुलना में थोड़ी कम है। वहीं भारत में स्कूली शिक्षा के लिए प्रत्याशित वर्ष 12.2 थे। सन् 1990 से सन् 2019 के मध्य स्कूली शिक्षा के प्रत्याशित औसत वर्षों को देखें, तो पता चलता है कि इसमें 3.5 वर्षों की वृद्धि हुई है। क्रय शक्ति समता (पीपीपी) के आधार पर सन् 2018 में भारत की प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय 6,829 अमेरिकी डॉलर थी, जो सन् 2019 में गिरकर 6,681 डॉलर रह गयी है। लेकिन सन् 1990 से सन् 2019 के दौरान भारत के प्रति व्यक्ति सकल राष्ट्रीय आय में लगभग 273.9 फीसदी की वृद्धि हुई है। स्वास्थ्य, शिक्षा और कार्बन उत्सर्जन के क्षेत्रों में सुधार के बावजूद भारत का इस सूचकांक में लगातार मध्यम मानव विकास श्रेणी में बने रहना एक चिन्ता का विषय है, जिसके वैश्विक मायने हैं। हालाँकि यूएनडीपी भारत की प्रतिनिधि शोको नोडा का भारतीय प्रदर्शन पर बयान थोड़ा उत्साह बढ़ाने वाला ज़रूर है, जिसमें उन्होंने कहा कि भारतीय रैंकिंग में गिरावट का अर्थ यह नहीं है कि भारत ने अच्छा नहीं किया, बल्कि इसका अर्थ है कि कुछ अन्य देशों ने बेहतर किया। कुछ भारतीय मीडिया संस्थानों ने इस बात पर ज़्यादा फोकस किया कि इस वैश्विक रैंकिंग में भारत अपने पड़ोसी देशों, जैसे- बांग्लादेश (133वें स्थान पर), नेपाल (142वें स्थान पर) तथा पाकिस्तान (154वें स्थान पर) से आगे है। ऐसे मीडिया संस्थानों पर आश्चर्य होता है कि वो यही बात इतनी गम्भीरता से नहीं बताते कि इसी वैश्विक सूची में भारत अपने अन्य पड़ोसी देशों, जैसे- श्रीलंका (72वें स्थान पर) और चीन (85वें स्थान पर) से बहुत पीछे है।

एचडीआई रैंकिंग को वैश्विक नज़रिये से देखने की ज़रूरत

इसमें कोई शक नहीं कि भारत सार्क और बिम्सटेक जैसे क्षेत्रीय संगठनों में शामिल कुछ देशों से अच्छा प्रदर्शन कर रहा है; लेकिन एक बात हमें गम्भीरता से सोचनी होगी कि क्या वैश्वीकरण के इस दौर में महाशक्तियों के बीच इस दुनिया में हमारी प्रतिस्पर्धा पाकिस्तान, नेपाल, बांग्लादेश और म्यांमार जैसे देशों से हैं? 21वीं सदी में आज जब पूरी दुनिया की नज़रें भारत पर टिकी हैं, ऐसे में हमें अपनी सोच का दायरा वैश्विक करने की ज़रूरत है। चूँकि यूएनडीपी का यह सूचकांक किसी राष्ट्र में स्वास्थ्य, शिक्षा और जीवन के स्तर का मापदण्ड है और यह किसी भी देश के मानव विकास को दर्शाता है। ऐसे में अगर हम वर्तमान मानव विकास की रैंकिंग को वैश्विक परिदृश्य में देखें, तो इसके बड़े मायने हैं, जो हमें बताते हैं कि भारत को बुनियादी क्षेत्रों समेत कुछ महत्त्वपूर्ण क्षेत्रों में बहुत बेहतर करने की ज़रूरत है। वर्तमान में भारत जी-20 और ब्रिक्स जैसे दुनिया के दो बेहद महत्त्वपूर्ण समूहों से जुड़ा है। जी-20 में दुनिया के सभी बड़े औद्योगिक व सम्पन्न विकसित देश तथा तेज़ी से उभरते विकासशील देश शामिल हैं। ब्रिक्स में भारत के अलावा जो अन्य चार देश शामिल हैं, वो सभी जी-20 समूह के भी सदस्य हैं। यहाँ ध्यान देने वाली बात यह है कि दोनों समूहों से जुड़े सभी सदस्य देशों की रैंकिंग भारत से बेहतर है। इन दोनों समूहों से इंडोनेशिया, दक्षिण अफ्रीका और भारत को छोड़कर सभी सदस्य देशों की रैंकिंग 100 के नीचे है। भारत के ही समान तेज़ी से विकास पथ पर आगे बढ़ रहे एशियाई देश इंडोनेशिया और अफ्रीकी देश दक्षिण अफ्रीका की रैंकिंग्स क्रमश: 107वीं और 114वीं हैं। यानी इस समूह से जुड़ा कोई भी देश मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल नहीं है। सभी देश या तो बहुत उच्च मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं या फिर उच्च मानव विकास श्रेणी में; जबकि भारत इस समूह में शामिल अकेला ऐसा देश है, जो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल है। ध्यान रहे कि 120 से 156 रैंक तक जो देश हैं, वो मध्यम मानव विकास श्रेणी में शामिल हैं।

ग्रामीण इलाकों पर ज़्यादा ध्यान देना समय की माँग

ऐसा माना जाता है कि भारत में लगभग तीन दशक पहले हुए आर्थिक सुधारों ने देश को अलग-अलग क्षेत्रों में सशक्त किया है; लेकिन हमें विकास की इस प्रक्रिया को ज़्यादा समावेशी बनाना होगा। हाल के विश्व बैंक के आँकड़े बताते हैं कि भारत की वर्तमान आबादी की लगभग 65 फीसदी जनता ग्रामीण इलाकों में निवास करती हैं। ऐसे में हमें ग्रामीण इलकों पर ज़्यादा ध्यान देने की ज़रूरत है। हालाँकि देश में ग्रामीण इलाकों के विकास के लिए केंद्र एवं राज्य सरकारों द्वारा ढेरों योजनाएँ चलायी जा रही हैं, लेकिन अभी भी अपेक्षित बड़े बदलाव दिखने बाकी हैं। सरकार को इन योजनाओं के नाम बदलने से ज़्यादा इनको लागू करने के तरीकों में बदलाव करने की ज़रूरत है। ऐसी व्यवस्था बनानी होगी कि जो भी योजना ग्रामीण स्तर तक पहुँचे, उसका लाभ न्यायसंगत तरीके से सभी लोगों तक पहुँचे।

अगर हमें मानव विकास सूचकांक में बेहतर करना है या फिर संयुक्त राष्ट्र द्वारा निर्धारित सतत् विकास के लक्ष्यों की प्राप्ति की ओर गम्भीरता से आगे बढऩा है, तो जनसंख्या की दृष्टि से भारत के बड़े राज्यों, खासकर बीमारू राज्यों- बिहार, मध्य प्रदेश, राजस्थान तथा उत्तर प्रदेश के ग्रामीण इलाकों में बेहतर स्वास्थ्य सेवाएँ, गुणवत्तापूर्ण शिक्षा तथा कृषि क्षेत्र को उन्नत करना होगा। इसके साथ ही गरीबी और बेरोज़गारी को दूर करने की ईमानदार कोशिश करनी होगी तथा लैंगिक समानता को हर हाल में बढ़ावा देना होगा। बीमारू राज्यों समेत देश के अनेक राज्यों के ग्रामीण इलाकों में शिक्षा की स्थिति बुरी है। वर्तमान में कोविड-19 जैसी वैश्विक महामारी ने इन राज्यों की स्वास्थ्य सुविधाओं की भी पोल खोल दी है। इन क्षेत्रों में सुधार से सच्चे अर्थों में भारतीय समाज में फैली सामाजिक असमानता को खत्म करने में हमें मदद मिलेगी तथा सामाजिक न्याय की अवधारणा मज़बूत होगी। यूएनडीपी की भारतीय प्रतिनिधि का गरीबी की तरफ इशारा यह बताता है कि भारत को अगर आर्थिक और सामाजिक पैमानों पर बेहतर करना है, तो इस दिशा में खासकर ग्रामीण क्षेत्रों में गम्भीरता से कार्य करने की ज़रूरत है। भारत की तेज़ी से बढ़ती हुई जनसंख्या यकीनन चिन्ता का एक महत्त्वपूर्ण विषय है, जिसे सरकार और जनता दोनों को समझना होगा। अगर हम यूएनडीपी द्वारा जारी मानव विकास सूचकांक की कुछ वर्षों की रिपोट्र्स को ध्यान से देखें, तो पाते हैं कि इस सूची में शीर्ष स्थानों पर मौज़ूद ज़्यादातर देश जनसंख्या की दृष्टि से छोटे हैं। इसी संस्था के पहले के मानव विकास सूचकांक में भारतीय राज्यों की रिपोट्र्स पर नज़र डालने पर पता चलता है कि जनसंख्या की दृष्टि से बड़े राज्यों का प्रदर्शन बेहद निराशाजनक रहा है। ऐसे में हमें इन बड़े राज्यों पर विशेष ध्यान देने की ज़रूरत है, ताकि यहाँ स्थिति को बेहतर किया जा सके।

हाल ही में वैश्विक स्तर पर जारी ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2020 की रिपोर्ट में भारत का 107 देशों की सूची में 94वें स्थान पर होना भी बेहद चिन्ता का विषय है। इस रिपोर्ट के अनुसार, श्रीलंका (64वें), नेपाल (73वें), बांग्लादेश (75वें) तथा पाकिस्तान (88वें) स्थान पर हैं, जो भारत से बेहतर स्थिति में हैं। ऐसे में भारत के नीति नियंताओं को भुखमरी और कुपोषण की दिशा में भी गम्भीरता से सोचने की ज़रूरत है। अगर हम पिछले कुछ वर्षों के विश्व आर्थिक मंच (डब्ल्यूईएफ) द्वारा जारी लिंग अन्तर रिपोट्र्स को देखें, तो इसमें भी भारत की स्थिति चिन्ताजनक है। इसमें कोई शक नहीं कि धीरे-धीरे पूरी दुनिया में लिंग भेद कम हो रहा है, लेकिन भारत समेत कुछ देशों में महिलाओं और पुरुषों के बीच स्वास्थ्य, शिक्षा, नौकरी, व्यवसाय और राजनीति में भेदभाव अभी भी मौज़ूद है; जिसे तत्काल दूर करने की ज़रूरत है। वर्तमान समय की माँग है कि देश के, खासकर ग्रामीण इलाकों के लोगों के जीवन गुणवत्ता में सुधार करते हुए विभिन्न क्षेत्रों में उनका कौशल विकास किया जाए, ताकि वे बदलते परिवेश में अपनी दक्षता विकसित करके व्यक्तिगत आय में वृद्धि कर सकें। दुनिया के सबसे बड़े लोकतांत्रिक एवं दूसरे सबसे बड़े जनसंख्या वाले देश भारत को यह बात अच्छी तरह समझनी चाहिए कि सतत् विकास लक्ष्यों पर गम्भीरता से कार्य किये बिना संयुक्त राष्ट्र के टिकाऊ विकास का एजेंडा अधूरा ही रहेगा। भारत का इस दिशा में बेहतर प्रयास वैश्विक रूप से सामाजिक समानता को मज़बूती देगा। यह बेहद शर्म की बात है कि आज़ादी के करीब साढ़े सात दशक बाद भी तमाम विकासात्मक नीतियों के बावजूद देश के अधिकतर नागरिकों को अभी तक बुनियादी सुविधाएँ तक मुहैया नहीं हो पायी हैं। देश का भ्रष्ट शासन-प्रशासन तंत्र, सत्तालोलुप नेता और कुछ गैर-ज़िम्मेदार तथा लालची नागरिक व समाज इसके सबसे बड़े ज़िम्मेदार हैं। पढ़ी-लिखी भारतीय जनता का गम्भीर मुद्दों से प्रत्यक्ष सरोकार होने के बाद भी चुप्पी साध लेना या महत्त्वपूर्ण मुद्दों से अनभिज्ञ रहना भी बेहद दु:खद है।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

शोपीस बनने लगे उज्ज्वला सिलेंडर

जिस समय ग्रामीणों को केंद्र सरकार की तरफ से उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में गैस सिलेंडर वितरित किये गये, तब गाँवों के अधिकतर घरों में गैस चूल्हे पर खाना बनने लगा था। इससे न सिर्फ कच्चे ईंधन से फैलने वाले धुएँ में कमी देखने को मिली थी। जब नये-नये उज्ज्वला गैस कनेक्शन हुए थे, तब अधिकतर घरों में गैस चूल्हे पर खाना बनने लगा था; लेकिन अब अधिकतर घरों में फिर से कच्चे ईंधन (लकड़ी, कंडे आदि) से चूल्हे पर ही खाना बनता दिखने लगा है। अब हाल यह है कि गाँवों के अधिकतर घरों से सुबह-शाम फिर वही धुआँ उठता है। बल्कि सर्दियों में तो अगर देखें, तो और अधिक धुआँ उठता दिखायी देता है। क्योंकि अनेक लोग सर्दी से बचाव के लिए अलाव भी तापते हैं। हालाँकि खेत में पराली और ऊख की पताई जैसे दूसरे अवशेष जलाने पर पाबंदी है। यदि कोई ऐसा करता है, तो उस पर मोटा ज़ुर्माना लगता है और जेल जाने तक की नौबत आ सकती है। लेकिन गाँव तो गाँव हैं, गाँवों की कच्चे ईंधन पर विकट निर्भरता है। इस बात को सरकारों को भी समझना होगा और ग्रामीण क्षेत्रों में इस प्रदूषण को कम करने के लिए विशेष और स्थायी व्यवस्थाएँ बनानी होंगी।

सवाल यह है कि सरकार की वातावरण को शुद्ध करने की कोई भी योजना आखिर परवान क्यों नहीं चढ़ पाती? अब से करीब तीन दशक पहले भी तत्कालीन सरकार ने प्रदूषण कम करने के लिए घर-घर गोबर-गैस की योजना चलायी थी। शुरू में गाँवों के अनेक घरों में गोबर-गैस के प्लांट भी लगे; क्योंकि उन्हें सरकार की तरफ से बनवाया जा रहा था। लेकिन धीरे-धीरे गोबर-गैस के वो प्लांट समूल रूप से नष्ट हो गये। उज्ज्वला योजना के तहत मुफ्त में मिले गैस सिलेंडर भी आज गाँवों के अधिकतर घरों में हैं। लेकिन शुरू से ही लोगों को अपने पैसे से सिलेंडर भराने पड़ रहे हैं। केवल लॉकडाउन के समय तीन महीने मुफ्त में सिलेंडर भरे गये थे। इस बारे में कुछ ग्रामीणों से बात करने पर कई ऐसी बातें और परेशानियाँ निकलकर सामने आयीं, जिन पर सरकार को भी विचार करना चाहिए।

क्या कहते हैं लोग

उज्ज्वला सिलेंडर भराने, न भराने के बारे में पूछने पर मीरगंज क्षेत्र के गाँव रसूलपुर के श्याम सिंह कहते हैं कि गाँवों में हर आदमी के पास इन दिनों परेशानी है। बाहर रोज़ी-रोटी कमा रहे बहुत-से लोग इस समय खाली बैठे हैं। मज़दूरों की इतनी आमदनी नहीं होती कि वे हर महीने करीब साढ़े सात सौ की गैस भरा सकें। किसानों पर वैसे ही आफत आयी हुई है। पहले सिलेंडर सस्ता था, कुछ लोग बाहर रहकर पैसा भी कमा रहे थे, तब ज़्यादातर घरों में सिलेंडर भरा लिये जाते थे। अब सिलेंडर भी बहुत महँगा है और कमायी भी नहीं है, तो सिलेंडर कहाँ से भराएँ। अंगनलाल ने इस बारे में कहा कि भैया! सरकार ने सिलेंडर तो दे दिये और गैस महँगी कर दी। हम तो मज़दूर आदमी ठहरे। अकेले कमाते हैं, तो पाँच लोग रोटी खाते हैं। ऐसे में सिलेंडर-बिलेंडर कौन भराये?

हमारे वश की बात तो है नहीं। गाँवों में पंडिताई का पेशा करने वाले कस्बा निवासी रामअवतार आर्य कहते हैं कि जो परिवार सम्पन्न हैं, केवल वे ही दोनों टाइम गैस की रोटी खाते हैं। हम जैसे मध्यम परिवारों में एक सिलेंडर भराने के बाद उसे बहुत खास मौके पर ही उपयोग में लाया जाता है; जैसे मेहमान आ जाएँ तो। लेकिन गरीबों के लिए तो सिलेंडर भराना मोटरसाइकिल में पेट्रोल भराने के जैसा है। सरकार हर महीने सिलेंडर के दाम बढ़ा देती है। उसे सोचना चाहिए कि गाँव के लोग अभी उतने सम्पन्न नहीं है कि वे शहरी लोगों की तरह अच्छा जीवन जी सकें। अब तो सब्सिडी भी नहीं आती। पहले की अपेक्षा अब दो से ज़्यादा महँगा सिलेंडर हो गया। बिजली पहले ही महँगी हो रखी है। पेट्रोल, डीज़ल सब तो महँगा है। गाँवों में अधिकतर लोग या तो किसान हैं या मज़दूर। यहाँ नौकरीपेशा 10 फीसदी भी नहीं हैं। ऐसे में किसके वश की बात है कि वह सिलेंडर भराये? किसान खेत में पानी के देने के लिए ट्रेक्टर से जुताई करने और इंजन से पानी देने में ही हाँफ जाता है। अब तो डीज़ल इतना महँगा है कि अपने ही ट्रैक्टर से जुताई बहुत महँगी पड़ती है, अपने ही पम्पसेट से पानी लगाना बहुत महँगा पड़ता है। सोचिए, जो लोग सब कुछ किराये पर लाकर खेती करते हैं, उनकी क्या हालत होती होगी? ऐसे में सिलेंडर भराने की हिम्मत किसकी होगी? जबसे कोरोना आया है, तबसे तो वैसे भी लोगों की रोज़ी-रोटी पर संकट मँडराने लगा है। अब सरकार कह रही है कि नया कोरोना आ गया है। समझ में नहीं आता कि नया कोरोना ही आया है या लोगों की खाल उतारने की तैयारी की जा रही है! कभी-कभी सियासी लोगों पर विकट गुस्सा आता है। लेकिन हम क्या कर सकते हैं? हम गाँव वालों की न तो कोई सुनने वाला है और न ही हम सरकार के खिलाफ जा सकते हैं। दो मिनट में पुलिस डंडे मारकर सीधा कर देगी; चाहे हम कितनी भी सही बात करें।

कुछ को नहीं मिले कनेक्शन

हालाँकि इस बात की हम पुष्टि नहीं कर रहे, लेकिन कुछ लोगों ने यह भी कहा है कि उज्ज्वला योजना के तहत ऐसे भी कुछ परिवार हैं, जिन्हें सिलेंडर ही नहीं मिले। इनमें अधिकतर परिवार वे हैं, जिनके गैस कनेक्शन पहले से थे या जिनके बड़े परिवार हैं और उनके घर में दो या दो से अधिक चूल्हे जलते हैं। प्रेमवती बताती हैं कि उनके परिवार में उनका बेटा और बहू हैं। जब गैस कनेक्शन मिल रहे थे, तब वे अपने बेटे के साझे थीं। तब उन्होंने बहुत कहा प्रधान से कि उन्हें अलग कनेक्शन दिलवा दें, पर किसी ने नहीं सुनी। अब अगर कल को बहू-बेटा अलग हो जाएँ, तो उन्हें तो बुढ़ापे में दोनों बेरा (समय) चूल्हा ही फूँकना पड़ेगा। हमारे पास उज्ज्वला के एक सिलेंडर के अलावा बड़ा सिलेंडर तो छोड़ो, छोटा भी नहीं है। गाँव के एक व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर बताया कि सच्चाई तो यह है कि प्रधान और दूसरे सियासी लोगों से जिनके सम्बन्ध अच्छे थे, उनके घरों में हर औरत के नाम कनेक्शन हुए हैं और जिनके सम्बन्ध प्रधान से या दूसरे सियासी लोगों से अच्छे नहीं थे या थे ही नहीं, उनमें या तो एक कनेक्शन हुआ है या तो कनेक्शन ही नहीं मिला है।

यह बात कितनी सच है? हम नहीं कह सकते। लेकिन गाँवों में इस तरह की बहुत-सी शिकायतें लोगों के पास हैं। एक व्यक्ति ने तो यह तक आरोप लगाया कि गैस कनेक्शन में धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव किया गया है। उन्होंने यह भी कहा कि चाहे शौचालय हो या प्रधानमंत्री आवास योजना सबमें या तो अपने-पराये को देखकर सुविधाएँ दी गयी हैं या फिर धर्म और जाति के आधार पर भेदभाव बरता गया है।

किसी-किसी परिवार में कई-कई कनेक्शन

बता दें कि जब उज्ज्वला योजना के कनेक्शन दिये गये थे, तब किताब के नाम पर सभी से सौ-सौ रुपये लिये गये थे। हर परिवार को एक सिलेंडर, एक रेगुलेटर, एक पाइप और एक चूल्हा दिया गया था। लेकिन लोगों का कहना है कि इस गैस कनेक्शन में कुछ जगहों पर अपने-पराये का भेदभाव देखने को मिला था। यह बड़े अफसोस की बात है कि लोगों को जो कनेक्शन सरकार ने हर परिवार मतलब हर दम्पति को दिये थे, उनमें भी बंदरबाँट जैसी स्थिति के बारे में कुछ लोगों ने बताया। गाँव के एक पढ़े-लिखे और गाँव की गतिविधियों पर नज़र रखने वाले व्यक्ति ने नाम न बताने की शर्त पर कहा कि देखिए, गाँवों में हर सरकारी योजना में बड़े पैमाने पर धाँधली होती है। उज्ज्वला योजना में भी खूब धाँधली हुई। इस योजना के तहत हुए गैस कनेक्शनों में देखने को मिला कि जिसके सम्बन्ध प्रधान या दूसरे पहुँच वाले लोगों से थे, उन्हें ज़्यादा लाभ मिला और जिनके सम्बन्ध नहीं थे, उन्हें या कम लाभ मिला या मिला ही नहीं। ऐसे में कई परिवार तो ऐसे हैं, जिनके संयुक्त परिवार में जितने दम्पति जोड़े हैं, उतने ही सिलेंडर मतलब कनेक्शन उन्हें मिल गये। लेकिन कुछ ऐसे भी परिवार हैं, जिनके सम्बन्ध प्रधान या दूसरे सियासी लोगों से नहीं हैं, उनके संयुक्त परिवार में एक ही कनेक्शन दिया गया, जबकि इनमें कई परिवार में दो से तीन-चार दम्पति जोड़े तक हैं। कभी-न-कभी तो  संयुक्त परिवार अलग होंगे ही न! तब क्या उन्हें और कनेक्शन मिलेंगे? उन्होंने कहा कि गाँवों में तकरीबन हर योजना में खूब धाँधली होती है, लेकिन उसकी कोई जाँच नहीं होती; क्योंकि भ्रष्टाचार का जाल नीचे से ऊपर तक फैला हुआ है। उन्होंने तो यह तक कहा कि गाँवों के विकास के लिए आने वाले सरकारी बजट तक का यहाँ बंदरबाँट होता है। इसकी जाँच होनी चाहिए, पर जाँच करे कौन?

अर्थ-व्यवस्था को पटरी पर लाने की चुनौती

कोरोना महामारी के बीच बैंकों को गैर-निष्पादित आस्ति (एनपीए) बढऩे का डर सता रहा है। हालाँकि अनेक कॉर्पोरेट घराने ऋण खातों के पुनर्गठन से परहेज़ कर रहे हैं; क्योंकि उन्हें डर है कि ऋण खातों के पुनर्गठन से बाज़ार में उनकी साख खराब होगी और वे बाज़ार से प्रतिस्पर्धी दर पर पूँजी नहीं उगाह सकेंगे। इसी वजह से अभी तक बहुत ही कम कॉर्पोरेट घरानों ने ऋण खातों के पुनर्गठन के लिए आवेदन किया है। हालाँकि इसे बैंकों के लिए सकारात्मक स्थिति माना जा रहा है। क्योंकि अगर बड़े खातों का पुनर्गठन नहीं किया जाता है, तो बैंकों को एनपीए के मद में ज़्यादा राशि का प्रावधान नहीं करना पड़ेगा।

महत्त्वपूर्ण है कि पुनर्गठित खातों के असफल होने पर कॉर्पोरेट घरानों और बैंक दोनों को नुकसान होगा। यह भी सच है कि यदि पुनर्गठन सफल होता है तो दोनों को फायदा होगा, लेकिन वह उनके असफल होने से कम होगा। इसलिए बड़े कॉर्पोरेट घराने पुनर्गठन का विकल्प नहीं चुनना चाहते हैं। यह प्रक्रिया बैंक के लिए भी कष्टकारी होगी; क्योंकि पुनर्गठित खातों के संचालन में मानव संसाधन को ज़्यादा वक्त लगेगा और बैंक संसाधन भी ज़्यादा खर्च होंगे।

मौज़ूदा परिदृश्य में बैंक कॉर्पोरेट घरानों को समझाने में सफल रहे हैं कि वे पुनर्गठन का विकल्प नहीं चुनें; क्योंकि इससे उन्हें ज़्यादा नुकसान होगा। यह भी सच है कि 6 महीनों के लिए ब्याज और िकस्त पर स्थगन की व्यवस्था करने और बैंक द्वारा सभी ऋणधारकों को आपातकालीन ऋण दिये जाने से उनके पास अधिशेष राशि उपलब्ध है, जिसकी वजह से अनेक ऋणी अपने ऋण खातों को पुनर्गठित करने की ज़रूरत महसूस नहीं कर रहे हैं।

ऋण के क्षेत्रवार वितरण के विश्लेषण से पता चला है कि धातु और धातु उत्पाद, पेट्रोकेमिकल, ऊर्जा, गैर-बैंकिंग वित्तीय कम्पनी (एनबीएफसी), रियल एस्टेट, कपड़ा, एफएमसीजी, फार्मा, केमिकल, स्वास्थ्य, उपभोक्ता टिकाऊ, वाहन आदि क्षेत्रों ने ऋण एवं ब्याज स्थगन का विकल्प चुना है। हालाँकि इन क्षेत्रों का ऋण कम है और वे नकदी की कमी की समस्या का भी सामना नहीं कर रहे हैं। उन्होंने ऐसे कदम सिर्फ मौज़ूदा अनिश्चितता वाले माहौल की वजह से उठाये हैं।

फिलहाल ऋण के िकस्तों एवं ब्याज के स्थगन की वजह से कारोबारियों के पास अधिशेष राशि आ गयी है, जिसका इस्तेमाल वे या तो अपने ऋण की राशि को कम करने के लिए कर रहे हैं या फिर अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए कच्चे या तैयार माल का आयात कर रहे हैं। इसी वजह से विविध वस्तुओं के आयात में बढ़ोतरी देखी जा रही है। आँकड़ों के विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि विगत छ: महीनों में ऋण दर में कोई वृद्धि नहीं हुई है। इतना ही नहीं, इस अवधि में गैर-खाद्य ऋण में मार्च 2020 के मुकाबले सितंबर, 2020 में 1.02 फीसदी की नकारात्मक वृद्धि हुई है। इस अवधि के दौरान मध्यम उद्यमों और कृषि एवं सम्बद्ध गतिविधियों में ऋण वृद्धि क्रमश: 13.84 फीसदी और 3.17 फीसदी की दर से बढ़ी है।

यह भी देखा गया है कि मार्च, 2020 से सितंबर, 2020 के बीच अधिकांश क्षेत्रों में ऋण वृद्धि दर नकारात्मक रही है। केवल कुछ क्षेत्रों, जैसे- अन्य धातु व धातु उत्पाद, वाहन, वाहन के पुर्जे, परिवहन उपकरण, होटल, रेस्तरां आदि क्षेत्रों में मामूली वृद्धि दर्ज की गयी है; जिसका कारण कारोबारियों द्वारा ऋण एवं ब्याज स्थगन की स्थिति का लाभ उठाते हुए अधिशेष राशि का इस्तेमाल अपने कारोबार को बढ़ाने के लिए करना और कार्यशील पूँजी चक्र की अवधि में वृद्धि का होना है।

विश्लेषण से यह भी पता चलता है कि इन क्षेत्रों में 32.6 लाख करोड़ रुपये का जमा अधिशेष (क्रेडिट बैलेंस) है, जिसका कारण इन क्षेत्रों के 15 से 20 फीसदी कारोबारियों द्वारा ऋण के िकस्त एवं ब्याज के स्थगन का विकल्प चुना जाना है। एक अनुमान के अनुसार, पुनर्गठन के नकारात्मक परिणामों को देखते हुए महज़ 15 से 20 फीसदी कारोबारियों ने ही पुनर्गठन के लिए आवेदन किया है। अधिकांश कारोबारियों को डर है कि अगर वे पुनर्गठन का विकल्प चुनेंगे, तो उन्हें बाज़ार से पूँजी जुटाने में दिक्कत आयेगी और रेटिंग एजेंसियाँ उनकी रेटिंग को कूड़ा-करकट में तब्दील कर देंगी। इसलिए कहा जा रहा है कि पुनर्गठन की राशि अधिकतम एक लाख करोड़ रुपये से ज़्यादा नहीं होगी।

बावजूद इसके मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में सूक्ष्म, लघु और मझौले ऊधमों (एमएसएमई) और कृषि एवं सम्बद्ध क्षेत्रों में ऋण पर दबाव बना रहेगा। ऐसी स्थिति में एनपीए में बढ़ोतरी की सम्भावना को सिरे से नकारा नहीं जा सकता है। हालाँकि मार्च, 2020 के एनपीए स्तर से सितंबर, 2020 में एनपीए में कमी आयी है; लेकिन आगामी तिमाहियों में इसमें वृद्धि होने अनुमान है। कृषि ऋणों में तालाबन्दी की वजह से बड़ी संख्या में ऋण खातों का नवीनीकरण नहीं हुआ है, जिसकी वजह से तकनीकी तौर पर कृषि ऋण खाते एनपीए में तब्दील हो सकते हैं।

भारतीय रिजर्व बैंक की वित्तीय स्थिरता रिपोर्ट 2020 के अनुसार, ऋण से जुड़े जोखिम के कारण सभी अनुसूचित व्यावसायिक बैंक (एएससीबी) का समग्र एनपीए मार्च 2020 के 8.5 फीसदी से बढ़कर मार्च 2021 तक 12.5 फीसदी हो सकता है। ऋण जोखिम ज़्यादा बढऩे पर यह 14.7 फीसदी के स्तर पर भी पहुँच सकता है।

800 सूचीबद्ध कम्पनियों के वित्तीय परिणामों के विश्लेषण से पता चलता है कि अधिकांश कम्पनियाँ अपने ऋण पोर्टफोलियो को कम कर रही हैं, ताकि उन्हें नकदी की कमी का सामना नहीं करना पड़े। वित्त वर्ष 2020-21 की प्रथम छमाही में इन कम्पनियों ने लिक्विड असेट, नकदी और बैंक बैलेंस का इस्तेमाल अपने ऋण पोर्टफोलियो को कम करने में किया है।

एफएमसीजी, एडिबल ऑयल, फार्मा आदि को छोडकर अधिकांश कम्पनियों का चालू वित्त वर्ष की पहली तिमाही में अच्छा प्रदर्शन नहीं रहा है; लेकिन दूसरी तिमाही में उन्होंने बढिय़ा प्रदर्शन किया है।

हालाँकि सूचीबद्ध कम्पनियों, जैसे- सीमेंट, कैपिटल गुड्स, पैकेजिंग, ऑटोमोबाइल, उपभोक्ता टिकाऊ आदि क्षेत्रों के वित्तीय परिणाम अच्छे रहे हैं। 800 सूचीबद्ध कम्पनियों में से रिफाइनरीज़ और टेलीकॉम को छोड़कर सभी ने ईबीआईडीटीए और पीएटी दोनों में लगभग 10 फीसदी की वृद्धि दर्ज की है। वित्त वर्ष 2020 की दूसरी तिमाही की तुलना में दूरसंचार क्षेत्र के राजस्व में लगभग 12 फीसदी की बढ़ोतरी हुई, जबकि उसके नुकसान में 90 फीसदी की कमी आयी। होटल और रेस्तरां, एयर ट्रांसपोर्ट, सेवा, विनिर्माण, खुदरा क्षेत्र, टेक्सटाइल, डायमंड, जेम एंड ज्वेलरी, चमड़े आदि क्षेत्रों ने राजस्व सहित प्रमुख वित्तीय विकास मानकों में दोहरे अंक में वृद्धि दर्ज की है। इन क्षेत्रों में लागत में कमी लायी गयी है। कई क्षेत्रों में कर्मचारियों की लागत में 5 फीसदी से 30 फीसदी तक की कटौती की गयी है। वित्त वर्ष 2021 की दूसरी तिमाही में कुछ क्षेत्रों में पिछली तिमाही के मुकाबले निर्यात में तेज़ी आयी है। उदाहरण के लिए चावल के निर्यात में क्रमिक रूप से 12 फीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है, जबकि वर्ष दर वर्ष के आधार पर 65 फीसदी की वृद्धि हुई है। मीट एवं डेयरी, आयरन ओर, जेम एंड ज्वैलरी, ड्रग एंड फार्मा, टेक्सटाइल क्षेत्र में कॉटन यार्न, फैब्रिक्स, हैंडलूम उत्पाद आदि में निर्यात में वर्ष दर वर्ष के आधार पर सात फीसदी की वृद्धि हुई, जबकि 93 फीसदी की क्रमिक वृद्धि हुई।

कहा जा सकता है कि कोरोना महामारी के कारण अर्थ-व्यवस्था को अनापेक्षित नुकसान पहुँचा है। सरकार अर्थ-व्यवस्था को संकट से उबारने के लिए पूरी कोशिश कर रही है; लेकिन अभी अपेक्षित परिणाम आने बाकी हैं।

साड़ी के धागों के बीच उलझती ज़िन्दगी

होल्कर वंश की महान् शासक देवी अहिल्याबाई होल्कर ने सन् 1767 में आज के मध्य प्रदेश राज्य के महेश्वर में कुटीर उद्योग स्थापित किया था। इसके लिए उन्होंने भारत के अन्य राज्यों से बुनकरों को बुलाकर यहाँ बसाया था और उन्हें घर, व्यापार के साथ अन्य सुविधाएँ भी मुहैया करवायी थीं। इन बुनकरों ने बिखरे-उलझे धागों से ऐसी-ऐसी नायाब साडिय़ाँ बुनीं कि वो जग-प्रसिद्ध होने लगीं और महेश्वर का नाम दुनिया भर में रोशन हो गया। लेकिन जिन बुनकरों ने महेश्वर का नाम रोशन करवाया, अब उनके वंशज बुनकरों की ज़िन्दगी ही हथकरघों की गति धीमी होने से आजीविका की चिन्ता के ताने-बाने में धागों-सी उलझ गयी है। इसकी जानकारी उस अध्ययन से मिली है, जिसे दिल्ली विश्वविद्यालय की छात्रा ने किया था। इस अध्ययन का नाम सस्टेनेबल लाइवलीहुड्स इन नर्मदा वैली था।

अनोखी कलाकृति और हाथों की जादुई कलाकारी से बुनी हुई साडिय़ों के जानने-समझने के लिए जब महेश्वर के बुनकरों से मिलने का और उनकी जीवन शैली को पास से देखने का मौका अध्ययन यात्रा के दौरान मिला, तो उनकी दर्द भरी दास्ताँ ने अंतर्मन को झकझोरकर रख दिया। नर्मदा के किनारे बसे हुए इस शहर में माहेश्वरी साडिय़ों की बुनाई ही इन बुनकरों के जीवनयापन का मुख्य स्रोत है।

अध्ययन के दौरान महेश्वर में स्थित बुनकरों की घनी आबादी वाले इलाके केरियाखेड़ी और मोमिनपुरा, जहाँ ये माहेश्वरी साडिय़ाँ तैयार की जाती हैं; में अनेक बुनकरों से मिलने-जुलने और उनकी दयनीय हालत को जानने का बहुत नज़दीक से मौका मिला। ये लोग जितनी सुन्दर साडिय़ाँ बुनते हैं, उनमें उतनी ही अधिक मेहनत लगती है। अफसोस यह है कि कड़ी मेहनत के बावजूद इन बुनकरों का जीवन कष्टमय बना हुआ है।

यहाँ की साडिय़ाँ बाहर से जितनी सुन्दर दिखती हैं, इनको तैयार करने की प्रक्रिया उतनी ही ज़्यादा मुश्किल भरी है। केरियाखेड़ी एक छोटा और परम्परागत रूप से कृषि प्रधान गाँव रहा है, जहाँ वर्षों से खेती ही जीवनयापन का साधन रहा है। परन्तु अधिकतर लोगों के पास छोटे रकबे के खेत और संसाधनों की कमी के चलते उन्होंने आजीविका के दूसरे अवसर ढूँढते हुए बुनकरी की ओर कदम बढ़ाया। इस तरह धीरे-धीरे केरियाखेड़ी में साडिय़ों की बुनाई के काम की शुरुआत हुई। इसमें लोगों की मदद करने के लिए सरकार ने गाँव में एक प्रशिक्षण केंद्र बनाने और लोगों को छ: महीने की नि:शुल्क ट्रेनिंग देने की घोषणा भी की।

इसके अलावा सरकार ने वादा किया था कि प्रशिक्षण की अवधि पूरी होने पर कारीगरों को हथकरघा दिया जाएगा। ज़ाहिर तौर पर उन्हें यह अहसास हुआ कि प्रशिक्षण लेकर साडिय़ाँ बुनेंगे, जिन्हें प्रशिक्षण केंद्र पर ही उचित दामों में बेचकर अच्छी और निश्चित आमदनी होगी, जिससे उनकी आजीविका खुशहाल और आसान होगी। परन्तु कुछ ही दिनों बाद उनके सपने तार-तार होने लगे, जब प्रशिक्षण केंद्र उन्हें नि:शुल्क प्रशिक्षण देने से मुकर गया। जिन्हें नि:शुल्क प्रशिक्षण मिला भी, उनसे हर रोज़ 12 से 15 घंटों तक काम लिया गया, जो कि कानूनन जुर्म है।

यह भी ध्यान देने योग्य है कि ट्रेनिंग में भी मुख्यत: पुरुषों को ही अवसर मिला। पहले यह आभास दिया गया था कि ट्रेनिंग के बाद इन्हें हथकरघे दिये जाएँगे, परन्तु प्रशिक्षण के बाद यह शर्त लगा दी गयी कि हथकरघों के एवज़ में बुनकरों को तैयार उत्पाद सिर्फ सरकारी सेंटर पर उनकी द्वारा तय कीमत पर ही बेचने होंगे। उन पर स्वतन्त्र रूप से साड़ी बुनने और बेचने पर भी बंदिश लगा दी गयी, जिसके चलते उन्हें प्रति साड़ी बुनाई से महज़ 200 से 250 रुपये ही मिलते थे।

बड़ी बात यह कि एक साड़ी बनाने में उसे एक से दो दिन का समय लग जाता था। यह आमदनी इतनी कम थी कि एक किसान अगर इतनी मेहनत करे तो महज़ डेढ़-दो बीघा ज़मीन में इससे ज़्यादा कमा सकता हैं। कुछ समय बीतने के बाद कारीगरों से 300 रुपये प्रतिमाह हाथकरघा का किराया भी वसूला जाने लगा। इससे जो कारीगर पहले से ही न्यूनतम मूल्य पर काम करके परिवार चला रहे थे, उनकी समस्याएँ इतनी बढ़ गयीं कि वे व्यथित रहने लगे। इस परिस्थिति में बहुत-से पुरुष कारीगरों ने एक बार फिर खेती का सहारा लिया और औरतें जो पहले ही घर-परिवार और पशुओं की देखभाल में दिनभर लगी रहती थीं, उन पर बुनाई का भी बोझ आ गया। ऐसे में उन्हें घर का काम निपटाकर बुनाई में लगना पड़ता। कई परिवारों में बच्चों समेत परिवार के सभी लोग समय मिलते ही बुनाई में लग जाते, बावजूद इसके उन्हें अपना भरण-पोषण मुश्किल हो गया।

वहीं दूसरी ओर मोमिनपुरा एक बड़ा गाँव है, जहाँ वर्षों से लोग बुनाई का काम करते आ रहे हैं। यह काम यहाँ बड़े-बड़े बुनाई केंद्रों में होता है, जहाँ उच्च वर्ग के चुनिंदा लोगों का एकाधिकार है। पुरुष इन केंद्रों में जाकर बुनाई करते हैं, जबकि महिलाएँ घर पर रहकर हथकरघे से बुनाई करती हैं। पुरुषों को आमतौर पर प्रति साड़ी 400 से 500 रुपये तक मिल जाते हैं। काम की बारीकी के अनुसार पैसे बढ़ते भी हैं। उसी काम के लिए महिलाओं को केवल 200-300 रुपये ही मिलते हैं। कई महिलाओं ने बताया कि उन्हें घर से बाहर बुनाई केंद्रों में काम करने की इजाज़त नहीं है, जिसकी वजह से वे घरों के अन्दर कम रोशनी में और कम पैसों के लिए काम करने पर मजबूर हैं। वहीं प्रवासी मज़दूरों की स्थिति सामान्य से भी बदतर है।

एक प्रवासी परिवार से बातचीत करने पर पता चला कि यह परिवार मूल रूप से उत्तर प्रदेश के बाराबंकी ज़िले का निवासी है। गाँव में उसके पास खेती लायक ज़मीन न होने के कारण मज़दूरी करके आजीविका चलानी पड़ती थी। तंग आकर यह परिवार रोज़गार की तलाश में मोमिनपुरा आ गया। शुरुआत के कई महीनों तक कई कोशिशों के बाद भी बुनाई का प्रशिक्षण नहीं मिला और प्रवासी होने एवं जातिवाद के चलते परिवार को काफी भेदभाव का भी सामना करना पड़ा। जब काम मिला भी तो बिचौलियों के माध्यम से, जो उनसे बहुत-ही कम दाम (200 से  250 रुपये प्रति साड़ी) में काम कराते थे। उन्हें यह भी नहीं बताया जाता था कि कच्चा माल कहाँ से आता है और तैयार माल कहाँ बेचा जाता है। स्थानीय लोगों में प्रवासी मज़दूरों को लेकर यह भी डर था कि वे कम दाम में काम करके बाज़ार में उनकी हिस्सेदरी छीन न लें। जबकि असल में कम दाम में काम करने के अलावा उनके पास कोई और विकल्प ही नहीं था।

एक कारीगर ने बातचीत के दौरान बताया की उसकी बुनी हुई एक साड़ी को अपनी अनोखी कारीगरी के लिए सरकार से 20 हज़ार रुपये का इनाम मिला, लेकिन वो पैसे बुनाई केंद्र के मालिक और बिचौलियों ने बाँट लिये और उसे कुछ भी नहीं मिला। केरियाखेड़ी और मोमीनपुरा, दोनों ही गाँव में बुनकरों की स्थिति यह सोचने पर मजबूर करती है कि होल्कर वंश द्वारा स्थापित और अब वर्तमान सरकार द्वारा पोषित इतना पुराना और विश्व प्रसिद्ध कारीगरी का बाज़ार बेहतर होते हुए भी लोगों की स्थिति पहले से बदतर स्थिति में क्यों है? इस व्यवसाय में लगे कारीगरों के जीवन में कोई सुधार क्यों नहीं आया? जैसे-जैसे माहेश्वरी साडिय़ों का बाज़ार बढ़ रहा है, वैसे-वैसे उनका जीवन का ताना-बाना उलझता क्यों जा रहा है।

(लेखक जेंडर, कलर्स और भारतीय समाज पर शोध कर रही हैं।)

पुलिस अत्याचार से बचा सकती हैं 10 जानकारियाँ

कहावत है कि पुलिस वालों से न दोस्ती अच्छी और न दुश्मनी। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि सभी पुलिस वाले खराब या गलत होते हैं। पुलिस वाले भी सामाजिक होते हैं और उससे पहले इंसान। लेकिन अमूमन देखा जाता है कि कुछ पुलिसकर्मी लोगों को बिना मतलब तंग करते हैं और लोग हाथ-पैर जोड़कर, यहाँ तक कि कई बार रिश्वत देकर उनसे अपनी जान छुड़ाते हैं। यही वजह है कि आम समाज की नज़रों में आज तक पुलिस अपनी बहुत अच्छी छवि नहीं बना पायी। कई मामलों में बेकुसूर भी पुलिस अत्याचार की भेंट चढ़ जाते हैं। अक्सर देखा गया है कि पुलिस वाले किसी मामले में अचानक किसी को भी घर से उठा लेते हैं या लॉकअप में बन्द कर देते हैं या फिर जो खता व्यक्ति ने की ही नहीं होती है, उसमें उसे फँसा देते हैं या फिर उस थर्ड डिग्री का इस्तेमाल करते हैं। दरअसल यह सब लोगों को कानून की जानकारी न होने की वजह से होता है। अगर देश के हर नागरिक को कानून की सही जानकारी की जानकारी हो, तो उसे कोई भी पुलिसकर्मी बिना किसी जुर्म के प्रताडि़त नहीं कर सकता। पुलिस लोगों की सुरक्षा के लिए है और देश के हर नागरिक का यह मानवाधिकार है कि वह ज़रूरत पडऩे पर पुलिस की सुरक्षा की माँग कर सकता है। लेकिन अधिकतर लोगों में पुलिस का एक डर बना रहता है, जो कानून की समझ न होने के चलते बना हुआ है। कुछ कानूनों की जानकारी रखने पर लोगों को पुलिस से डर नहीं सुरक्षा मिलेगी। इन कानूनों में निम्नलिखित प्रमुख हैं :-

  1. अगर पुलिस किसी को गिरफ्तार करने आयी है, तो उसे यह जानने का अधिकार है कि उसे किस जुर्म में उसे गिरफ्तार किया जा रहा है। इस पर पुलिस वाला उसे उसका जुर्म बतायेगा और गिरफ्तारी वारंट भी दिखायेगा। अगर किसी ने कोई गम्भीर अपराध किया है, तभी पुलिस धारा-41 और धारा-151 का उपयोग करते हुए उसे बिना वारंट के भी गिरफ्तार कर सकती है; लेकिन धारा-43 के हिसाब से इसका उल्लेख करना होगा। अगर पुलिस के पास गिरफ्तारी वारंट नहीं है, तो पुलिस को मौके पर अरेस्ट मेमो बनाना पड़ेगा, जिसमें पुलिस को गिरफ्तार किये जाने वाले व्यक्ति का नाम-पता और गिरफ्तारी का कारण लिखने के साथ-साथ अपना नाम, पद और पोस्टिंग थाना, गिरफ्तारी का स्थान, समय और तारीख आदि सब कुछ लिखना होता है। अधिकतर पुलिसकर्मी थाने में यह मेमो तैयार करते हैं, लेकिन कानूनन यह मेमो गिरफ्तारी की जगह पर ही बनाया जाना चाहिए। अगर बिना जुर्म के, बिना किसी कारण के पुलिस किसी को गिरफ्तार करती है, तो वह व्यक्ति पुलिस से अदालत के ज़रिये हर्ज़ाना वसूल सकता है।
  2. पुलिस जब किसी को गिरफ्तार करती है, तो उसे बताना होगा कि उसका जुर्म क्या है? क्या वह जमानती है या गैर-जमानती? अमूमन यह सब पुलिसकर्मियों से पीडि़त या मुल्जिम (जिस पर आरोप तो हो, पर अदालत ने आरोप तय न किया हो या आरोप सिद्ध न हुआ हो) पूछते नहीं हैं और पुलिस उन्हें बताती नहीं है। लेकिन पुलिस अरेस्ट मेमो में लिखती है कि उसने गिरफ्तार व्यक्ति को पहले ही सब कुछ बता दिया था।
  3. पुलिस द्वारा गिरफ्तार किये जाने पर धारा-41 (डी) में पीडि़त या मुल्जिम को वकील से मिलने का अधिकार है।
  4. गिरफ्तारी के 12 घंटे के अन्दर गिरफ्तार व्यक्ति के परिवार को सूचना देना भी पुलिस की ज़िम्मेदारी होगी।
  5. धारा-51 के हिसाब से पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को 24 घंटे के अन्दर कोर्ट में पेश करना ही करना है। अगर न्यायालय की छुट्टी है, तो पुलिस की ज़िम्मेदारी है कि वह गिरफ्तार व्यक्ति को मजिस्ट्रेट के घर पर पेश करे। अगर एक मजिस्ट्रेट नहीं है, तो किसी अन्य न्यायाधिकारी के समक्ष पुलिस को गिरफ्तार व्यक्ति को पेश करना ही करना पड़ेगा। यदि पुलिस ऐसा नहीं करती है, तो वह कानूनी तौर पर गलत मानी जाएगी। और अगर पुलिस बिना न्यायिक अधिकारी के समक्ष किसी को 24 घंटे से अधिक रिमांड पर रखती है, तो पीडि़त या मुल्जिम के परिजन एसपी या अन्य उच्चाधिकारी के पास जाकर इसकी शिकायत कर सकते हैं।
  6. धारा-46 के अनुसार, पुलिस किसी पर बल प्रयोग तभी कर सकती है, जब वह काबू में नहीं आ रहा हो या उसे पकडऩे या रोकने आदि के लिए। अगर व्यक्ति यह कह देता है कि वह अब पुलिस को पूरी तरह से सहयोग करेगा और वह भागेगा नहीं, वह उसके साथ है; तो धारा-49 के अनुसार, पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं करेगी।
  7. धारा-53 के अनुसार, पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति का मेडिकल करायेगी। इसमें भी अलग-अलग तरह के मेडिकल होते हैं। मसलन अगर किसी व्यक्ति ने मारपीट की है, तो उसका मेडिकल धारा-53 के तहत होगा। अगर उसने बलात्कार किया है, तो उसका मेडिकल धारा-53 (ए) के तहत होगा। मान लिया कि ऐसा कुछ नहीं है, तो भी गिरफ्तार व्यक्ति खुद माँग कर सकता है कि उसका मेडिकल कराया जाए। क्योंकि अगर पुलिस ने बाद में उसकी पिटायी की, तो वह मजिस्ट्रेट के सामने दोबारा मेडिकल की माँग करके इसे सिद्ध कर सकता है। इसके अलावा अगर पुलिस गिरफ्तार व्यक्ति का मेडिकल नहीं कराती है, तो धारा-54 में उसे अधिकार है कि वह मजिस्ट्रेड के सामने मेडिकल की गुहार लगा सकता है।
  8. अगर किसी महिला को गिरफ्तार करने के लिए पुलिस आती है, तो केवल महिला पुलिसकर्मी ही उसे गिरफ्तार कर सकती है। इसके अलावा सूर्यास्त के बाद और सूर्योदय से पहले किसी महिला की गिरफ्तारी पुलिस नहीं कर सकती। अगर यह बहुत ज़रूरी हुआ, तो भी महिला पुलिस ही किसी महिला को गिरफ्तार कर सकती है।
  9. अगर किसी नाबालिग को पुलिस गिरफ्तार करने जाती है, तो पुलिस उस पर बल प्रयोग नहीं कर सकती। उसे उसके साथ नरमी और प्यार से ही पेश आना पड़ेगा।
  10. किसी भी गिरफ्तार नागरिक को पुलिस भूखा नहीं रख सकती, उसे लघु शंका और दीर्घ शंका जाने से नहीं रोक सकती। अगर पुलिस ऐसा करती है, तो वह कानून तौर पर जवाबदेह मानी जाएगी, जिसके लिए दोषी पुलिसकर्मियों के खिलाफ कार्रवाई का प्रावधान है।

पढ़ाया जाए संविधान

किसी भी देश का कोई भी नागरिक तभी एक सभ्य नागरिक हो सकता है, जब वह अपने अधिकारों से पहले अपने कर्तव्यों के प्रति तत्पर होगा। लेकिन हम देखते हैं कि दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हमारे देश में 99 फीसदी नागरिकों को या तो अपने कर्तव्यों और अधिकारों की सही जानकारी नहीं है, या फिर वे अपने कर्तव्यों का पालन नहीं करते। यही वजह है कि आज हम एक ऐसे समाज की ओर बढ़ रहे हैं, जहाँ आपसी टकराहट, कड़ुवाहट और बर्बादी के कितने ही रास्ते, कितने ही गड्ढे स्वत: तैयार होते जा रहे हैं।

हम दिन भर में कितनी गलतियाँ करते हैं, इस बात की जानकारी हमें भी नहीं होती। मसलन, अगर गन्दगी करने को ही ले लें, तो हममें से हर दूसरा आदमी गन्दगी करने का आदी हो चुका है। इसकी मूल वजह क्या है? इसकी मूल वजह हमारी शिक्षा में नैतिकता और कर्तव्यों का विकट अभाव है। इसके लिए हमें नैतिक होना पड़ेगा और नैतिक होने के लिए हमें मानव धर्म को अच्छी तरह समझना होगा, ताकि हम किसी के लिए नुकसान या कष्टकारक न बन सकें। सवाल यह है कि क्या इसके लिए धर्म पर चलना पर्याप्त नहीं है? इसका जवाब यही हो सकता है कि धर्म भी किसी को तभी सही रास्ता दिखा सकता है, जब उस इंसान में इंसानियत हो, धर्म के सही मर्म का ज्ञान हो और उसके संस्कार अच्छे हों। अन्यथा वह धर्मांध हो सकता है। भारत जैसे देश में, जहाँ कई-कई धर्मों को मानने वाले लोग रहते हैं; धर्मांधता का पनपना इसका एक सटीक उदाहरण है। लेकिन एक ऐसा ग्रन्थ भी हमारे देश में है, जो सभी धर्मों के लोगों को एकसूत्र में बाँधे हुए है, और वह है- संविधान।

यह संविधान की ही ताकत है, जो आज भारत अखण्डता के सूत्र में बाँधे हुए है। लेकिन दु:खद यह है कि 99 फीसदी लोगों को अपने ही संविधान की सही-सही जानकारी नहीं है। इनमें 80 फीसदी तो ऐसे हैं, जिन्हें संविधान के बारे में कुछ भी नहीं मालूम।

यही वजह है कि लोग कानून से डरते तो हैं, पर कानून के बारे में कुछ नहीं जानते। जबकि कानून सभी के जानने-समझने की चीज़ है। क्योंकि कानून नहीं जानने वाले लोग उस अनपढ़ व्यक्ति की तरह हैं, जो समझदार तो हो सकता है, लेकिन जानकार नहीं। हमारी समझ में कोई देश तभी सबसे बेहतर दिशा में जा सकता है, जब उसके नागरिक बेहतर दिशा में चलें, और यह तभी सम्भव है, जब देश का हर नागरिक अपने कर्तव्यों और अधिकारों से बखूबी परिचित हो; सांस्कृतिक होने के साथ-साथ नैतिक और कानूनी दायरों में रहकर हर काम करता हो। लेकिन सवाल यह है कि इतने बड़े देश के सवा सौ करोड़ से भी अधिक लोगों को इसके लिए कैसे तैयार किया जाए? और यह ज़िम्मेदारी किसकी है? इसका सीधा-सा जवाब है- सरकार यह कर सकती है और यह उसी की नैतिक ज़िम्मेदारी है। सरकार को चाहिए कि वह देश के हर नागरिक तक संविधान की वो जानकारियाँ पहुँचाए, जो उनके लिए ज़रूरी हैं। माना कि यह काम एक-दो दिन या एक-दो महीने में नहीं हो सकता; लेकिन अगर सरकार कम-से-कम स्कूलों और कॉलेजों में संविधान पढ़ाने को अनिवार्य कर दे, तो आने वाले 10-12 साल में लोगों, कम-से-कम नयी पीढ़ी को अपने सभी कर्तव्यों, अधिकारों और स्वहित के साथ-साथ परहित तथा देशहित में काम करने की नैतिकता का भान हो जाएगा। इससे उनका दृष्टिकोण बदलेगा और वे सही मायने में देश के अच्छे नागरिक बनेंगे।

अहंकार या कुछ और? आला अफसरों की शादियाँ क्यों हो रहीं नाकाम

आईएएस अफसर टीना डाबी और अतहर खान मार्च, 2018 में शादी के बन्धन में बँधे और राजस्थान कैडर में अपनी सेवाएँ देने लगे। उनके रिश्ते में खटपट की बात तब सामने आयी, जब टीना ने सोशल मीडिया पर अपने उपनाम से खान टाइटल हटा दिया, जबकि अतहर ने उसी समय इंस्टाग्राम पर टीना को अनफॉलो कर दिया था। अतहर, जो कश्मीर से आते हैं; ने यूपीएससी परीक्षाओं में दूसरा स्थान हासिल किया था; जबकि भोपाल की रहने वाली टीना डाबी प्रथम प्रयास में ही सिविल सेवा परीक्षा में टॉप करने वाली पहली दलित लड़की बनी थीं। मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के दौरान दोनों करीब आ गये थे और बाद में शादी जैसे पवित्र बन्धन में बँधे।

उनकी प्रेम कहानी को साम्प्रदायिक सौहार्द के प्रतीक के रूप में देखा गया था, लेकिन अब जो खबरें आ रही हैं, उसकी मानें तो अतहर खान ने राजस्थान से जम्मू और कश्मीर में स्थानांतरण की माँग की है और केंद्रीय गृह मंत्रालय के कर्मियों के संघ राज्य क्षेत्र कैडर में प्रतिनियुक्ति के लिए संपर्क किया है। नियमानुसार, एक आईएएस अधिकारी को प्रतिनियुक्ति के लिए आवेदन करने से पहले न्यूनतम पाँच साल की सेवा की आवश्यकता होती है। उनकी शादी ने राष्ट्रीय सुिर्खयाँ बटोरी थीं और सोशल मीडिया पर चर्चा का विषय बन गया था।

कई लोगों ने दोनों की शादी को साम्प्रदायिक सद्भाव के प्रतीक के रूप में देखा। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने आईएएस दम्पति को बधाई दी थी और ट्वीट किया था- ‘आपका प्यार मज़बूती से मज़बूती की ओर बढ़ सकता है और बढ़ती असहिष्णुता और साम्प्रदायिक घृणा के इस युग में आप सभी भारतीयों के लिए प्रेरणा बन सकते हैं। भगवान आपका भला करे।’ वेंकैया नायडू, सुमित्रा महाजन, रविशंकर प्रसाद दिल्ली में उनके विवाह समारोह में शामिल हुए थे। शादी के तीन रिसेप्शन थे- पहला जयपुर में, जो कि साधारण कोर्ट समारोह था; दूसरा पहलगाम में और तीसरा दिल्ली में। डाबी और अतहर दोनों को आईएएस के राजस्थान कैडर में आवंटित किया गया था। व्यक्तिगत रूप से भी, दोनों ही उपलब्धि की ऊँचाइयों का प्रतिनिधित्व करते हैं; क्योंकि टीना डाबी यूपीएससी परीक्षाओं में टॉप करने वाली पहली दलित महिला थीं। अतहर, जो टीना से एक साल बड़े हैं, वह आतंक प्रभावित दक्षिण कश्मीर से हैं। टीना डाबी भोपाल की रहने वाली हैं और उनके माता-पिता दोनों इंडियन इंजीनियरिंग सर्विसेज में हैं। उन्होंने लेडी श्रीराम कॉलेज में राजनीति विज्ञान में पढ़ाई की है। अतहर हिमाचल प्रदेश के मंडी में भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान (आईआईटी) से बीटेक हैं। प्रारम्भ में दोनों एक ही शहर में थे; लेकिन बाद में टीना डाबी को ज़िला परिषद् के मुख्य कार्यकारी अधिकारी के रूप में श्रीगंगानगर में तैनात किया गया था। अतहर ज़िला परिषद् के सीईओ के रूप में जयपुर में तैनात थे।

दिलचस्प यह भी है कि यूपीएससी के 2015 बैच के बीच 14 अधिकारियों ने अपने बैचमेट से शादी की थी, एक साल बाद 156 आईएएस अधिकारियों के 2016 बैच ने भी एक रिकॉर्ड बनाया और उनके बीच छ: जोड़े शादी के बन्धन में बँधे। इसके अलावा एक अधिकारी ने 2017 बैच के एक जूनियर से शादी की और दूसरे ने एक वरिष्ठ से। इस साल के शुरू में मसूरी में लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासनिक अकादमी में प्रशिक्षण के दौरान छ: जोड़ों ने शादी कर ली। हालाँकि आईएएस अधिकारियों के लिए बैचमेट या जीवन-साथी के रूप में दूसरे बैच के एक अधिकारी को चुनने के बारे में कुछ भी नया नहीं है, पिछले तीन बैचों में सिविल सेवकों की संख्या में अड़चन आ रही है। 2017 में, 2017 बैच के ही छ: अधिकारियों ने पहले ही एक साथी-आईएएस अधिकारी से शादी कर ली है; जबकि 2015 बैच के 14 अधिकारियों ने एक बैचमेट से शादी की।

कार्मिक और प्रशिक्षण विभाग के रिकॉर्ड से पता चला है कि विभिन्न बैचों के 52 आईएएस अधिकारियों ने 2017 के बाद से एक साथी अधिकारी से शादी की। शायद मसूरी में हवा में कुछ ऐसा है जो रोमांस को खिलने और विवाह में परिणत होने में मदद करता है। यह भी सच है कि जब आपस में बहुत ज़्यादा बातचीत होती है और आप खुलकर बातें करते हैं, तो प्यार में पडऩा स्वाभाविक है। लेकिन आगे भी क्या हालात बनतें हैं? इसे कोई नहीं जानता। दबाव अक्सर समझ के बजाय तनाव पैदा कर सकता है, और इसी तरह के अनुभव और करियर की सम्भावनाएँ अहंकार की लड़ाई में बदल सकती हैं। फिर उन्हीं ज़िलों में पोस्टिंग मिलने की बात है, जो हर समय सम्भव नहीं है। अशोक यादव हरियाणा के एक सेवानिवृत्त आईएएस अधिकारी हैं। वह कहते हैं कि लोग 28-30 वर्ष की आयु में लाल बहादुर शास्त्री अकादमी में आते हैं। यह औसतन वह उम्र है, जब अधिकांश जोड़े साथी चुनने की चाहत में होते हैं। जब उनका करियर का रास्ता साफ होता है, पेशेवर रूप से सेट होते हैं। साथ ही यह ऐसी उम्र होती है, जिसमें अकादमी के भीतर ही लोग अपने जीवन-साथी को तलाश की चाहत रखते हैं। हालाँकि ये विवाह सरकार के लिए भी सिरदर्द हैं, जिन्हें कैडर आवंटन के श्रमसाध्य कार्य को फिर से करने की आवश्यकता है। जब आईएएस, आईपीएस और आईएफएस अधिकारी एक-दूसरे से शादी करने का चयन करते हैं; ताकि यह सुनिश्चित हो सके कि यह युगल एक साथ एक राज्य में ही तैनात रह सके।

हालाँकि इस बीच जो चिन्ता का कारण है वह यह है कि अधिकारियों के बीच तलाक की दर बहुत अधिक होना। इनमें से ज़्यादातर शादियाँ लम्बे समय तक नहीं चल पाती हैं। इसके कई कारण हैं। एक वरिष्ठ अधिकारी ने टिप्पणी की- ‘आईएएस, आईपीएस अधिकारियों के बीच अहंकार बहुत अधिक हो जाता है। समस्या तब और ज़्यादा हो जाती है, जब पति आईपीएस हो और पत्नी आईएएस। हो सकता है कि पति-पत्नी के बढ़ते करियर और आगे बढऩे को बर्दाश्त नहीं कर पाते और हालात तलाक तक पहुँच जाते हैं। इसके अलावा यह भी तथ्य है कि पति-पत्नी आर्थिक और पेशेवर रूप से आज़ाद होते हैं, जिससे एक ज़रूरतमंद रिश्ते के साथ जुडऩे की आवश्यकता कम हो जाती है। विशेषज्ञ कहते हैं कि तलाक के मामले पिछले कुछ वर्षों में तेज़ी से बढ़े हैं; क्योंकि समाज में इसे अब सामान्य माना जाने लगा है। भारत में शादी न करना के मामले बेहद कम होते हैं। भारत में 45-49 साल तक आयु वर्ग की सभी महिलाओं में से एक फीसदी से कम ऐसी हैं, जिन्होंने शादी नहीं की है। हाल ही में जारी संयुक्त राष्ट्र की ‌एक रिपोर्ट के अनुसार, पिछले दो दशकों के आँकड़ों पर नज़र डालें तो तलाक के मामले दोगुने हो गये हैं।

‘दुनिया में महिलाओं की प्रगति 2019-2020  : एक बदलती दुनिया में परिवार’ शीर्षक वाली रिपोर्ट में कहा गया है कि तलाक के बढ़ते मामलों के बावजूद, केवल 1.1 फीसदी महिलाएँ तलाकशुदा हैं, जिनकी सबसे ज़्यादा तादाद शहरी क्षेत्र से है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पिछले दशकों में महिलाओं के अधिकारों में इज़ाफा दर्ज किया गया है। दुनिया भर में परिवार प्रेम और कुटुम्ब का स्‍थान सीमित हो रहा है; लेकिन यह भी एक ऐसा स्थान है, जहाँ मौलिक मानवाधिकारों का उल्लंघन और लैंगिक असमानताएँ बनी हुई हैं। रिपोर्ट के निष्कर्ष बताते हैं कि शादी की उम्र सभी क्षेत्रों में बढ़ी है, जबकि जन्म दर में गिरावट आयी है और महिलाओं ने आर्थिक स्वायत्तता में वृद्धि की है। रिपोर्ट में नीति निर्माताओं, कार्यकर्ताओं और लोगों को जीवन के सभी क्षेत्रों में समानता और न्याय के स्थानों में बदलने के लिए प्रेरित किया गया है। ये वो क्षेत्र हो सकते हैं, जहाँ महिलाएँ अपनी पसन्द और आवाज़ निर्भीकता से रख सकती हैं और ऐसा वहीं सम्भव हो सकता है, जहाँ आर्थिक सुरक्षा के साथ उनकी शारीरिक सुरक्षा की गारंटी हो। रिपोर्ट में बतायी गयी कुछ सिफारिशों में परिवार के कानूनों में संशोधन और सुधार शामिल हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि महिलाएँ खुद तय कर सकें कि शादी कब और किससे की जाए? आर्थिक सहयोग और विकास संगठन की रिपोर्ट के अनुसार, यदि आवश्यक हो तो तलाक की सम्भावना प्रदान करें और परिवार के संसाधनों तक महिलाओं की पहुँच को सक्षम बनाएँ। पिछले एक दशक में प्रति हज़ार जोड़ों पर तलाक लेने वालों की संख्या एक से बढ़कर 13 हो गयी है। इस पर वाकई गम्भीरता से विचार करना ज़रूरी है।

देशवासियों में जगे किसानों जैसी एकता

भले ही कृषि कानूनों के बहाने सही, लेकिन किसान जिस तरह से एकजुट हुए हैं, उसकी सराहना हमें करनी चाहिए। सराहना इसलिए करनी चाहिए, क्योंकि आन्दोलन पर बैठे किसानों में न तो मज़हबों की दीवारें खड़ी हैं, न क्षेत्रवाद को लेकर भेदभाव है, न गरीबी-अमीरी को लेकर किसी तरह का ईष्र्या का भाव है और न ही ज़ात-पात को लेकर कोई वैमनस्य की भावना। ऐसी ही एकता की ज़रूरत हम सभी देशवासियों को सदियों से रही है। अगर ऐसी एकता पूरे देश के हर वर्ग के लोगों में कामय हो जाए, तो हम भारतीयों की न सिर्फ तकदीर बदल जाएगी, बल्कि इस देश का नक्शा कुछ और ही होगा।

महान् क्रान्तिकारी और मशहूर शायर अल्लामा इकबाल ने कहा है कि मज़हब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना, हिन्दी हैं हमवतन हैं हिन्दोस्ताँ हमारा। यह तो उन्होंने भारत को आज़ादी दिलाने के लिए देशवासियों का आह्वान करते हुए कहा था। सही मायने में देखा जाए, तो पूरी दुनिया ही एक परिवार है। इसीलिए तो वेदों में कहा गया है- ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ अर्थात् पूरा विश्व ही एक परिवार है। देवतुल्य साईं बाबा ने हमेशा सीख दी कि सबका मालिक एक है। सन्त कबीरदास, सन्त गुरुनानक देव, सन्त तुकाराम जैसे दुनिया के अनेक महान् सन्तों ने भी यही सीख दी कि ईश्वर एक है और हम सब उसकी सन्तानें हैं। लेकिन यह दुर्भाग्य की बात ही है कि हम एक ईश्वर की सन्तान होते हुए भी कभी एक नहीं हो पाये। हमने ऐसे सन्तों को पूजना तो शुरू कर दिया, जिन्होंने हमें सबसे पहले इंसान बनने की सीख दी; लेकिन उनकी बातों पर आज तक अमल नहीं किया। मज़हबों को तो मानना शुरू कर दिया; लेकिन मज़हबी शिक्षाओं पर कभी अमल नहीं किया। सही मायने में हम उस विद्यार्थी की तरह हैं, जो किताबों का मोटा बस्ता लेकर स्कूल ड्रेस में सज-धजकर हर रोज़ स्कूल तो जाता हो, परन्तु पढ़ाई बिल्कुल नहीं करता हो। दूसरी और सीधी भाषा में कहा जाए, तो हम उस गधे की तरह हैं, जिसकी पीठ पर किताबें लदी हैं; लेकिन उसे उन कीमती किताबों का महत्त्व नहीं पता है। सच पूछिए तो अब हम मज़हबी दायरों में कैद हैं। िकरदार और मज़हब की सीखों से हमें बहुत कम लेना-देना रह गया है। कहा गया है कि इंसान का सबसे बड़ा मज़हब इंसानियत है। इंसानियत की राह पर चलने के लिए आपस में प्यार होना ज़रूरी है और आपसी प्यार तभी रह सकता है, जब हममें भाईचारा होगा; जब हम सच्चाई और ईमानदारी के रास्ते पर चलेंगे और हमारी नीयत साफ होगी। ऐसा करने पर हमारे दिल में दया, करुणा और दूसरों की मदद की भावना जागेगी। एकता की भावना पैदा होगी और हम एक-दूसरे के साथ हर सुख-दु:ख में ठीक वैसे ही खड़े हो जाएँगे, जैसे हम अपने परिवार के साथ हर सुख-दु:ख में खड़े होते हैं। तब हमें किसी का भी दु:ख अपना ही दु:ख लगने लगेगा।

लेकिन अफसोस की बात है कि हम बिना स्वार्थ के दूसरों की बात तो दूर अपनों के भी काम नहीं आना चाहते। यही वजह है कि जब हम पर विपत्ति आती है, तो हम भी तन्हा दिखायी देते हैं। तब हमें दूसरों से शिकायत रहती है। आज के दौर में ऐसे बहुत-से उदाहरण हैं। लेकिन कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं, जिनमें हम पाएँगे कि किसी ऐसे व्यक्ति पर पूरी दुनिया के लोग मर-मिटने को तैयार हो जाती है, जिनका अपने खून के रिश्ते का कोई भी व्यक्ति दुनिया में नहीं होता। ऐसे भाग्यशाली लोग वही होते हैं, जो पूरी दुनिया को अपना कुटुम्ब मान लेते हैं। आज हम आपस में इतने बिखर गये हैं कि हमें एकजुट करने को अगर ईश्वर भी आ जाए, तो भी शायद हम सभी एकजुट न हो सकें। हम एकजुट कब होते हैं? हम एकजुट तब होते हैं, जब हम सब पर कोई सामूहिक आपदा आन पड़ती है। कोई प्राकृतिक या अप्राकृतिक मार पड़ रही होती है और हम अकेले-अकेले होकर उस मुसीबत से निपटने में नाकाम होते हैं। अगर हम सब हमेशा मिलजुलकर रहें, सभी तरह के भेदभाव भुलाकर मज़हबी और जातिवादी होने से पहले इंसान बन जाएँ, तो धरती पर हम इंसानों का जीवन स्वर्ग जैसा आनन्दमय और सुखमय हो सकता है।

एक बार स्वामी रामकृष्ण परमहंस बैलगाड़ी पर सवार होकर किसी गाँव की ओर जा रहे थे। यह वह समय था, जब लोग उन्हें एक सन्त से ज़्यादा माता काली का पुजारी मानते थे। इस गाँव के एक ज़मीदार ने उन्हें निमंत्रण दिया था। गाँव काफी दूर था और बैल तो धीरे चलते ही हैं, इसलिए गाड़ीवान ने बैलों को मार-मारकर तेज़ी से हाँकना शुरू किया। लेकिन जैसे-जैसे गाड़ीवान बैलों की पीठ पर डंडे मारता गया, वैसे-वैसे रामकृष्ण परमहंस की पीठ पर डंडे की चोट के निशान पड़ते गये। आखिरकार वे अपनी जगह से अचानक नीचे गिर पड़े और कराहने लगे। रामकृष्ण परमहंस की अचानक हुई इस हालत को देखकर गाड़ीवान घबरा गया। उसने जल्दी से बैलगाड़ी रोकी और उनकी पीठ पर डंडों के निशान देखे, तो वह भौचक्का रह गया। परमहंस एकटक दयाभाव से बैलों को देखे जा रहे थे। यह देख गाड़ीवान उनके पैरों में गिर गया और उनसे क्षमा माँगी। जब यह बात गाँव वालों को पता चली, तो परमहंस को देखने वालों का तांता लग गया। लोगों ने इस बात पर उनकी भक्ति करनी चाही, लेकिन रामकृष्ण परमहंस ने कहा- ‘मैं भी आप लोगों की तरह ही साधारण इंसान हूँ। इसलिए आप लोग मेरी भक्ति न करें। हाँ, मुझे दूसरों पर आये कष्ट से पीड़ा होती है, क्योंकि दूसरे प्राणियों में भी मेरी तरह ही वही आत्मा है, तो मेरे शरीर में है। इसीलिए दुनिया के सभी प्राणी मेरे अपने सगे हैं।’ आज हममें से कितने लोग हैं, जो दूसरों के दु:ख-दर्द को अपना दु:ख-दर्द समझते हैं? कितने लोग हैं, जो सभी को अपना हैं? तो फिर हममें एकता की भावना कैसे रह सकती है? और अगर हममें एकता की भावना नहीं होगी, तो हम सुरक्षित कैसे रह सकते हैं?

राहुल गांधी ने कृषि कानूनों की कमियां उजागर करने वाली पुस्तिका जारी की, कहा यह कृषि व्यवस्था बर्बाद कर देंगे

किसान आंदोलन के उफान के बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने मंगलवार को कृषि कानूनों की कमियां उजागर करने वाली एक पुस्तिका जारी की। राहुल ने कहा कि नए कृषि कानून देश की कृषि व्यवस्था को बर्बाद करने के लिए तैयार किए गए हैं। राहुल ने कहा कृषि क़ानून वापस लेना ही मसले का हल है।

एक प्रेस कांफ्रेंस में राहुल गांधी ने मोदी सरकार के कृषि कानूनों पर बड़ा हमला करते हुए कहा – ‘नए कृषि कानूनों के चलते पूरा कृषि क्षेत्र 3-4 घोर पूंजीवादियों के हाथों में चला जाएगा। मैं किसान आंदोलन का समर्थन करता हूं। हर व्यक्ति को किसानों का समर्थन करना चाहिए, क्योंकि वे हमारे लिए लड़ रहे हैं।’

बता दें विपक्ष में राहुल गांधी ऐसे नेता हैं जो लगातार किसानों के हक़ में मोदी सरकार के खिलाफ बोल रहे हैं। आज गांधी ने फिर सरकार पर निशाना साधा। कांग्रेस नेता ने प्रेस कॉन्फ्रेंस में कृषि कानूनों की कमियां उजागर करने वाली एक पुस्तिका जारी की। उन्होंने कहा कि नए कृषि कानून देश की कृषि व्यवस्था को बर्बाद करने के लिए तैयार किए गए हैं।

राहुल ने कहा – ‘देश में आज त्रासदी घट रही है। सरकार सभी मुद्दों की अनदेखी कर देश को गुमराह करना चाहती है। मैं सिर्फ किसानों की बात नहीं कर रहा। यह मुद्दा तो त्रासदी का एक हिस्सा भर है। यह बात युवाओं के लिए अहम है। यह वर्तमान का नहीं, बल्कि आपके भविष्य का सवाल है’।

कांग्रेस नेता ने कहा कि दुनिया के लिए चीन की रणनीति साफ है। राहुल ने कहा – ‘इसमें भारत शामिल नहीं है। भारत ने इस बारे में स्ट्रैटजी नहीं बनाई। चीन को दो बार परख चुके हैं। एक बार डोकलाम में और दूसरी बार लद्दाख में। अगर भारत ने चीन को साफ संदेश नहीं दिया, मिलिट्री और इकोनॉमी से जुड़ी स्ट्रैटजी नहीं बनाई तो चीन चुप नहीं बैठेगा, बल्कि इसका ज्यादा से ज्यादा फायदा उठाएगा। जिस दिन ऐसा हुआ, उस दिन हमें नुकसान होगा।’

नड्डा के सवाल
राहुल ने आज सुबह ट्वीट करके कहा था कि वे कृषि कानूनों को लेकर प्रेस कॉन्फ्रेंस करेंगे। उनके ट्वीट के बाद भाजपा अध्यक्ष जेपी नड्डा ने राहुल पर निशाना साधा और   सोशल मीडिया के जरिए उनसे 5 सवाल पूछे। नड्डा ने कहा राहुल, उनका राजवंश और कांग्रेस चीन पर झूठ बोलना कब छोड़ेंगे?, अरुणाचल प्रदेश के एक हिस्से समेत हजारों किमी जमीन चीन को किसी और ने नहीं, बल्कि पंडित नेहरू ने गिफ्ट कर दी थी, क्या राहुल इससे इनकार कर सकते हैं?, कांग्रेस चीन के सामने सरेंडर क्यों कर देती है?, क्या राहुल चीन और वहां की कम्युनिस्ट पार्टी के साथ कांग्रेस के एमओयू  को रद्द करने की मंशा रखते हैं? और क्या राहुल अपने परिवारिक ट्रस्ट को चीन से मिले दान को लौटाना चाहते हैं?