Home Blog Page 616

यूपी में सरकार बनी तो घरेलू उपयोग में 300 यूनिट बिजली मुफ्त : आप

ज़मीन पर अपने पाँव ज़माने के नजरिये से आम आदमी पार्टी (आप) ने  उत्तर प्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में आप की सरकार बनने के सूरत में  24 घंटे के भीतर हरेक परिवार को घरेलू उपयोग के लिए 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा किया है। इसके अलावा बड़ी पहल करते हुए पहले ही आप ने   अगले चुनाव के लिए अपने 100 संभावित उम्मीदवारों के नाम भी घोषित कर दिए हैं।आप के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने आज लखनऊ में उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर घोषणा की कि राज्य के लोगों को महंगी बिजली से मुक्ति दिलाएगी जाएगी और यूपी में आप की सरकार बनने के 24 घंटे के अंदर घरेलू उपभोक्ताओं को 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त दी जाएगी। सिसोदिया ने यह भी घोषणा की कि किसानों को खेती के लिए असीमित बिजली मुफ्त दी जाएगी।

उन्होंने कहा कि 38 लाख लोगों के बकाया बिजली बिल को माफ कर दिया जाएगा।  सिसोदिया ने 24 घंटे बिजली देने का भी वादा किया। उन्होंने कहा – ‘दिल्ली में लोगों को मुफ्त बिजली दी जा रही है’।

बता दें  उत्तर प्रदेश में बिना किसी दल के साथ गठबंधन के चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में लगी आम आदमी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 403 सीटों पर चुनाव लड़ने  कर रखी है। सिसोदिया ने कहा – ‘दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। दिल्ली में बिजली का उत्पादन नहीं होता और खरीद कर बिजली दी जाती है। उत्तर प्रदेश में तो बिजली का उत्पादन किया जाता है लेकिन यहां गलत नीतियों के कारण लोगों को महंगी बिजली दी जाती है। तमाम लोग हर साल सुसाइड करने को मजबूर होते हैं।’

गहलोत फिर सवासेर

क्या किसी प्रतिष्ठित और संघर्षों का इतिहास संजोये राजनीतिक दल को संकट की आहट सुनते ही फ़ौरन से पेशतर अहतियाती क़दम नहीं उठा लेना चाहिए या फिर महज़दस्तूर निभाने के लिए मुश्किलों की गणेश परिक्रमा करते रहना चाहिए। ख़ासतौर से राजनीति में समय अमूमन दूरदर्शी राजनेताओं से ही बग़लगीर होता है। ख़ासतौर से कांग्रेस जैसे शीर्ष राजनीतिक दल को तो ज़ाहिर तौर पर समझ लेना चाहिए कि तनावों से पैबस्त कोई भी सियासी ड्रामेबाज़ी चर्मोत्कर्ष पर पहुँचे, ऐसी नौबत आने से पहले ही तूफ़ान का रूख़ मोड़ देना चाहिए।

राजनीतिक लड़ाइयाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। इसलिए अंदेशों का एहतराम करते हुए इस बात के हिज्जे तो समझ लेने चाहिए कि जहाँ तक हो सके झटकों से बचने और उबरने की जुगलबंदी बनाये रखी जाए, ताकि तनाव की बजाय मानसिक सुकून का दायरा बढ़ सके। कांग्रेस ने कब-कब ऐसी रणनीति बनायी? इसका ककहरा बाँचने के लिए हमें चार दशक पहले लौटना होगा। सन्

1985 की वो चंपई अँधेरों से लुकाछिपी करती सुरमई शाम शहर पर ख़रामा-ख़रामा उतर रही थी। गोरमेंट होस्टल की धवल इमारत किसी दरवेश की तरह बिंदास खड़ी एक इतिहास की साक्षी बनने को तैयार खड़ी थी।

हॉस्टल की लम्बी चौड़ी इमारत की राहदारी से रिसते ठहाकों की गूँज पूरी राजधानी में सुनायी दे रही थी। उस दौरान राजनीतिक रंगमंच की मशहूर हस्तियाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीदेव जोशी, क़द्दावर राजनेता और कालांतर में उनके वारिस बने शिवचरण माथुर तथा सत्ता की राजनीति के भद्र जमावड़े की मौज़ूदगी में तक़रीबन 34-35 वर्षीय युवा सभी की निगाहों का मरकज़ बना हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में अपने बेहतरीन प्रदर्शन से कांग्रेस की सियासी पिचों पर झण्डे गाडऩे वाले इस युवा नेता की अग्नि परीक्षा अब राजस्थान की रेतीली राजनीति में होनी थी। जब हरिदेव जोशी ने अशोक गहलोत की तैनाती को लेकर भावनात्मक भाषण पूरा कर लिया, तब तक गहलोत ने चुप्पी साधे रखी। दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष नरसिंहराव ने इस युवा को राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजा था।  इस फैसले के पीछे भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की समावेशी अदृश्य शक्ति का सन्देश समझ रहे थे। प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में सक्रियता के नये सोपान की शुरू करने वाले इस युवक का नाम अशोक गहलोत था।

गहलोत के लिए वो दिन सबसे अभिमानास्पद था, तो उतना ही अहम भी था। प्रदेश अध्यक्ष की पाग पहली बार पहनने वाले गहलोत इस महती आयोजन में बेहद सहज लग रहे थे। उन्होंने तीन बार भद्र राजनीतिक जमावड़े पर अपने प्रति उत्साह को परखा और रहस्यमय चुप्पी तोड़ते हुए राजगुरु की तरह मौज़ूद हरीदेव जोशी और शिवचरण माथुर की तरफ़ फलों से लदी डाल की मानिंद झुक गये- ‘मुझे अपना बच्चा ही समझें, आपका आशीर्वाद ही मुझे राह दिखाएगा।’

अभिभूत कर देने वाले इस दृश्य पर खचाखच भरा हॉल गहलोत ज़िन्दाबाद के नारों से गूँज उठा। जिस समय गहलोत आला पद पाने की बधाइयाँ बटोर रहे थे, सभागार में तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट के संदेशवाहक ने दस्तक दी। संदेशवाहक ने राजेश पायलट की तरफ़ से गहलोत को प्रदेश कांग्रेस की कमान सँभालने की न सिर्फ़ बधाई दी, बल्कि यह कहते हुए फूलों का गुलदस्ता थमाया कि अब आपको संगठन में जान फूँकने के लिए पुराने नारों और जुमलों से आगे बढऩा होगा। आप जैसा मज़बूत नेता यह काम बख़ूबी अंजाम दे सकेगा। तपस्वियों की भाँति देवदार के दरख़्तों की तरह खड़े गहलोत राजेश पायलट की बधाई से अभिभूत हो उठे।

अब इसे इत्तेफ़ाक़ कहें या कुछ और कि तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट ने अशोक गहलोत को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर क़ासिद (पत्र वाहक) के ज़रिये पैग़ाम-ए-मोहब्बत के साथ बधाइयों का गुलदस्ता नज़्र किया था। लेकिन आत्मीय रिश्तों के ख़ुशनुमा नज़रे यहीं थम कर रह गये। आने वाले दिनों में राजेश पायलट के फ़रज़ंद सचिन पायलट ख़ुशनुमा रिश्ते नहीं निभा सके। उन्होंने इन रिश्तों को राजनीति की अलगनी पर सूखने को डाल दिये। उन्होंने उसी मन्दिर के पुरोहित की आलोचना का अध्याय शुरू कर दिया, जिसके साथ बैठकर प्रार्थना की थी। नतीजतन बतौर उप मुख्यमंत्री इतिहास में सबसे छोटा हनीमून सचिन पायलट के हिस्से में ही बदा। इस अध्याय की गहराई जो भद्र राजनेता समझते हैं, वे हैरान ही नहीं, सन्न भी हैं। विश्लेषकों का कहना कि सियासत में नाइत्तेफ़ाक़ी के खड़ंजे बेशक जल्दी भर जाते हैं; लेकिन रंज और रंजिश की खाइयाँ कभी नहीं भरतीं; क्योंकि ये दिनोंदिन और गहरी होती चली जाती है। विनम्रता और तामझाम से दूर रहने वाले गहलोत गाहे-बगाहे ही उग्र तेवर अपनाते हैं। पायलट के प्रतिघात का घाव ही सम्भवत: इस क़दर गहरा रहा होगा कि उन्होंने ज्वालामुखी की तरह फटते हुए आक्रोश के लावे में नाकारा, निकम्मा सरीख़े सारे ब्रह्मास्त्र पायलट पर झोंक दिये। अब भले ही पायलट बड़े दावों का खेल खेलते रहें; लेकिन क्या कभी प्यार और इसरार की कालीन पर लौट पाएँगे? शायद नहीं। वजह साफ़ है दोनों के बीच मेल-मिलाप का दूध इस क़दर फट चुका है कि उसका छैना, तो क्या रायता भी नहीं बन सकता। ऐसे में रेशा-रेशा हो चुके रिश्तों में रफू-पेबंद की गुंजाइश कहाँ बचती है।

बेशक सचिन पायलट अपने लोगों की अपनी महफिल में भीड़ के उमड़ते सैलाब को ख़ुशामदीद कहने से नहीं चूकते; लेकिन क्या सियासी ढलान से ग़ाफ़िल होना क़ुबूल कर पाएँगे। बहरहाल राजनीतिक पंडितों की मानें तो पूरा एपिसोड पायलट को झिंझोडक़र बता गया कि उन्होंने शीशम के दरख़्तों के जंगल को चीड़वन समझकर विरोध के ऐसे अंधड़ चला दिये, जो उन्हीं पर भारी पड़े। गहलोत तो अपने विश्वास का निवेश करते हुए अब मुख्यमंत्री की तीसरी पारी खेल रहे हैं। अरमानों और स्फूर्ति से लबरेज गहलोत पहली बार सन् 1999 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बीच सन् 1994 और सन् 1997 में प्रदेश अध्यक्ष भी बने। लेकिन मुख्यमंत्री बनने की ज़िद नहीं की। राजनीतिक जीवन में गहलोत का अहमतरीन सूत्र रहा है- ‘अगर राजनीति में आगे बढऩा है, तो अपने वरिष्ठों का मान-सम्मान करते हुए सीखने की प्रवृत्ति बनाये रखो। उनसे टकराव लेने और तंजकशी के तेवर आत्मघाती सिद्ध होते हैं।

सचिन पायलट की अपनी समझ के मुताबिक, राजस्थान में कांग्रेस की जीत का भूगोल बेशक उन्होंने रचा; लेकिन चुनावी पड़तालों में इनके जवाब मिलना आसान नहीं है। क्योंकि जातीय रुझानों और चेहरों की दीवानगी के आँकड़ों से परे हक़ीक़त की एक गोल-मोल दुनिया भी है, जहाँ मतदाता का मिजाज़ आँका जा सकता है। यह मिजाज़ चुनावी माहौल में गुलाल की तरह उड़ते नारों में मिल जाता है कि मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं। तो ज़ाहिर है कि असल राजस्थान के चुनावी नतीजे तो तय थे। क्या यह सच नहीं है कि राजस्थान में चुनावी साल में आर्थिक विकास दर पिछले पाँच साल के औसत से कम थी। क्रिसिल की रिपोर्ट इस बात की तसदीक़ भी करती है।

आँकड़ों की रोशनी में खँगालें, तो वसुंधरा के शासन-काल में राजस्थान की आर्थिक और विकास की दर औंधे मुँह गिर चुकी थी। लिहाज़ा सत्ता की चाबी तो इस गणिताई ने मुहैया करवायी ऐसे में सचिन पायलट के खाते में यह विजयश्री कैसे जा सकती थी? अलबत्ता एक प्रदेश अध्यक्ष के नाते वसुंधरा सरकार को आईना दिखाने में उनके प्रयास कहीं भी कमतर नहीं थे। लेकिन कुल मिलाकर वो उलटे बाँस बरेली को ही थे।

सियासत में नयी उम्र की नयी फ़सल की सोच में सबसे बड़ा लोचा है कि शिखर पर पहुँचने के उसके अनगढ़ तौर-तरीक़े उसकी उम्मीदों की जड़ों को जमने ही नहीं देते। इस मामले में गहलोत की तंज़कशी बेमानी नहीं कही जा सकती कि आख़िर पायलट उनकी पीठ पर बेवफ़ार्इ करके कैसे शिखर कुर्सी पर बैठने की ठान बैठे। पायलट संगठन में क़दम-दर-क़दम पायदान तय करते, तभी उन्हें रगड़ाई का मोल समझ में आता?

गहलोत कहते हैं- ‘बेहतर होता कि वह तजुर्बों के मकतब में बैठकर राजनीति के पारम्परिक मैदान में अपने आपको चुस्त-दुरुस्त करते। लेकिन जब कोई नुमाइशी प्रदर्शन से सिक्का जमाने की कोशिश करें, तो क्या होगा?’

गहलोत ने मुख्यमंत्री की पाग तो उन्होंने सन् 1991 में पहनी। इससे पहले उन्होंने सन् 1985 के बाद प्रदेश अध्यक्ष की दो और पारियाँ सन् 1994 और सन् 1997 में खेलीं। इस दौर का जनादेश अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने भाजपा नीत शेखावत का तख़्ता पलटकर एक जबरदस्त जुनून रचा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि सूखा और शेख़ी से ओत-प्रोत भाजपा नीत शेखावत सरकार के लिए विरोधाभासी लहर साफ़ दिख रही थी। शेखावत जैसा क़द्दावर नेता अपनी पूरी साख झोंककर भी अपनी सरकार की हिफ़ाज़त नहीं कर पाया। उस समय लोगों में सरकार विरोधी जनून भी तारी था।

यह वो दौर था, जब परसराम मदेरणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस की फ़तह के बाद मदेरणा के मन भी मुख्यमंत्री की ताजपोशी की लहर ज़ोर मार रही थी। लेकिन सूरज तो गहलोत का तप रहा था। बावजूद इसके सत्ता की ताजपोशी का पहाड़ा गहलोत और परसराम मदेरणा के बीच पायलट सरीखी बदमिजाज़ी के मंज़र में डूबा हुआ नहीं गुजरा। गहलोत मंत्रिमंडल ने परसराम मदेरणा को मंत्री पद से भी नवाज़ज़; लेकिन बदमिजाज़ी और अय्याशी उन्हें ले डूबी।

राजनीतिक विश्लेषकों की बेबाक राय का ककहरा समझें, तो ऐसी मिसाल शायद ही मिले, जिसने सियासत को अतीत और वर्तमान के संदर्भों में पूरी निष्ठा से पढ़ा। विश्लेषक राजनीति के प्रति रुझान रखने वालों के लिए गहलोत के सियासी रोज़नामचे को एक पाठ्यक्रम सरीखी मिसाल देते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत ने राजनीति को ताक़त और अवसरों के केंद्रीकरण से बचाये रखा। उन्होंने चुनावी झोंक में कभी भी योजनाओं और वादों की चिंदियाँ नहीं उडऩे दीं।

दम्भ, दबदबे और अंतर्विरोधों से किनाराकशी करने वाले गहलोत राजपूत और जाट सरीखी परम्परागत राजनीति बिरादरी से नहीं आते, बल्कि माली समुदाय से आते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि सियासी चातुर्य और कूटनीतिक कौशल की बात करें, तो पार्टी का कोई भी नेता गहलोत के पास नहीं ठहरता। जिस समय भाजपा के इशारों पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में तख़्तापलट का खेल चल रहा था। सिर्फ़ गहलोत ही जादूगर साबित हुए, जिन्होंने सरकार के पायों को हिलने तक नहीं दिया। जबकि कमलनाथ एक ही झोंके में पतझड़ के पत्तों की तरफ़ सरकार का तियाँ-पाँचा करवा बैठे। ऐसा जादू क्योंकर हुआ? गहलोत के निकटतम सूत्रों की मानें, तो उन्होंने एक गीत गुनगुना दिया- ‘पत्ते कहीं खडक़े, हवा आयी, तो चौंके हम…।’

गहलोत को वक़्त रहते साज़िश का पता चल गया था। नतीजतन उनके आगे पायलट ग़ुब्बारे की तरह ही फूल-फटकर रह गये। सूत्रों की मानें, तो गहलोत हमेशा दो क़दम आगे की सोचते रहे; पहला-पायलट किस हद तक जा सकते हैं? पायलट की छलाँग को वक़्त रहते ही भाँप चुके थे। नतीजतन दलबदल रेसकोर्स के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह गहलोत का दाँव समझ ही नहीं पाये। लेकिन धुर्रे तो पायलट के ही उड़े।

तीसरी लहर और आँकड़ों में उलझी सरकारें, जनता में नहीं कोरोना का डर

कोरोना वायरस की तीसरी लहर के आने की बात हो रही है और सरकारें उससे निपटने की तैयारियों का दावा करने के साथ-साथ आँकड़ों में उलझी हुई हैं। लेकिन हक़ीक़त में कोरोना को लेकर लोगों में डर ख़त्म  होता जा रहा है। क्योंकि जनमानस के बीच यह बात फैल रही है कि कोरोना का कहर कम और अधिक बताना सियासी लोगों के हाथ में है। वहीं कुछ राज्य सरकारें भी कोरोना को मानने को तैयार नहीं हैं। एकाध राज्य को छोडक़र अन्य राज्य सरकारों ने बाज़ार, स्कूल खोल दिये हैं। इधर सरकार और स्वास्थ्य विभागों के दावे डराने वाले हैं कि कोरोना की तीसरी लहर अक्टूबर-नबंवर में आ सकती है। कोरोना को लेकर जानकारों और डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना वायरस पर अभी शोध ही चल रहा है। इसलिए पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि कोरोना का कहर कम हो गया। इसका कहर कब भयानक रूप ले ले, किसी को नहीं पता।

कोरोना वायरस नये-नये रूपों में भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में फैल रहा है। ऐसे में दुनिया भर में इससे निपटने के लिए नये-नये टीके र्इज़ाद हो रहे हैं। हालाँकि भारत में अभी तक पहले चरण का टीकाकरण भी पूरा नहीं हुआ है, जो सरकारी तंत्र में कमियों का स्पष्ट उदाहरण है। सरकारें अस्पतालों के नाम पर बहुमंज़िला इमारतें तो बना देती हैं। उन पर अच्छा-ख़ासा बजट भी ख़र्च करती हैं; लेकिन ज़रूरत के मुताबिक डॉक्टर, पैरामेडिकल कर्मचारी और नर्स की नियुक्ति नहीं करतीं, जिसके चलते मरीज़ों को उचित इलाज नहीं मिल पाता। उत्तर प्रदेश में फैले डेंगू और दूसरे बुख़ार से मरते बच्चे इसका ताज़ा उदाहरण है। कोरोना वायरस से भी अधिकतर मरीज़ों की मौतें चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हुईं। अप्रैल, 2020 में जब कोरोना वायरस की पहली लहर आयी थी, तब स्वास्थ्य व्यवस्था बुरी तरह चरमरायी हुई थी। यहाँ तक कोरोना की दूसरी लहर आने तक भी स्थिति अच्छी नहीं थी। कितने ही मरीज़ ऑक्सीजन, दवाओं और बेड की कमी और इनकी कालाबाज़ारी के कारण दम तोड़ गये। ज़रूरतमंदों को एक-एक सिलेंडर लाखों रुपये में लेने को मजबूर होना पड़ा। देश के महानगरों से लेकर ज़िला स्तर के अस्पतालों तक ऑक्सीजन का टोटा देखा गया। जिन अस्पतालों को बड़ा और बेहतरीन माना जाता था, उनमें तक मरीज़ों को इलाज के लिए जूझना पड़ा। सबसे हैरान करने वाली बात यह रही कि सरकारी अधिकारियों से लेकर सांसदों, विधायकों और मंत्रियों तक के परिजनों को इलाज और ऑक्सीजन की कमी के चलते इधर-उधर अस्पतालों में भटकना पड़ा।

मौज़ूदा हालात भले ही डरावने न हों, लेकिन पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक और मिजोरम में कोरोना वायरस के मामलों में शनै:-शनै: बढ़ोतरी डर पैदा करती है। वहीं कोरोना-काल में निपाह जैसे मामले और घातक साबित हो सकते हैं। क्योंकि केरल और हैदराबाद में निपाह से एक-एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में भी डेंगू और दूसरे बुख़ार से सैकड़ों बच्चे मर गये। अगर दिल्ली-एनसीआर में डेंगू ने पैर पसारे, तो कोरोना महामारी में समस्या विकराल रूप ले सकती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि जिन राज्यों की अबादी छ: करोड़ से लेकर 20 करोड़ तक हो और वहाँ पर कोरोना महामारी के केवल दो से आठ ही मामले ही आ रहे हों, तो ये आँकड़े जनता को गुमराह करने वाले हैं।

डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि टीकाकरण भी हो रहा है और आरटी-पीसीआर जाँच भी चल रही है। लेकिन व्यापक स्तर पर इन्हें करना होगा, अन्यथा अगर कोरोना की तीसरी सम्भावित लहर आ गयी, तो हम वहीं खड़े मिलेंगे, जहाँ अप्रैल-मई में खड़े थे। स्वास्थ्य सेवाएँ नाक़ाफी साबित होंगी।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) के कोविड-19 के एक्सपर्ट डॉ. आलोक कुमार कहते हैं कि कोरोना महामारी का दौर चल रहा है। अभी भी दुनिया के कई देशों में कोरोना महामारी काल बनकर खड़ी है। सार्स-सीओवी-2 का संक्रमण का डेल्टा रूप तेज़ी से लोगों पर हमला करता है। ऐसे में जिन राज्यों में डेल्टा वायरस के मामले आ रहे हैं, वहाँ अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना का कहर लगातार जारी है। ऐसे में हमें हृदय रोग सहित अन्य रोगों के प्रति ज़्यादा सावधानी बरतनी होगी। कोरोना की बूस्टर ख़ुराक को लेकर शोध किया जा रहा है। बूस्टर बनने पर हरी झण्डी के मिलते ही इसे लगाने की स्वकृति मिलेगी। लेकिन मौज़ूदा दौर में हमें बूस्टर आने तक कोरोना के टीकाकरण पर ज़ोर देना होगा। क्योंकि कोरोना-टीके से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ. आर.एन. कालरा का कहना है कि जहाँ-जहाँ कोरोना वायरस का कहर अभी भी जारी है, वहाँ वह दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। महाराष्ट्र में स्थिति और भी नाज़ुक है। ऐसे में सरकार को तीसरी लहर को लेकर अपनी स्वास्थ्य सेवाएँ और मज़ूबत करनी होंगी, अन्यथा कोरोना महामारी और कहर ढा सकती है। कोरोना वायरस को लेकर सरकार की सख़्ती काग़ज़ों में है, न कि ज़मीनी स्तर पर। अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव उसी तरह है, जैसे कोरोना वायरस के पहली बार आने पर था।

एनीमिया पर जीत की ओर हिमाचल

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रजनन आयु वर्ग के बच्चों, किशोरों और महिलाओं में रक्तक्षीणता (एनीमिया) के प्रसार को कम करने के उद्देश्य से एनीमिया मुक्त भारत (एबीएम) कार्यक्रम शुरू किया था। कुछ राज्यों ने इसमें सुधार दिखाया है; लेकिन हिमाचल प्रदेश सभी को पीछे छोड़ते हुए एनीमिया मामलों में बेहतर नतीजे दिखाने के मामले में तीसरे स्थान पर पहुँच गया है। अनिल मनोचा की रिपोर्ट :-

एनीमिया मुक्त भारत योजना का उद्देश्य सभी हितधारकों के लिए रणनीति को लागू करने के लिए छ: लक्षित लाभार्थियों, छ: हस्तक्षेपों और छ: संस्थागत तंत्रों सहित 63636 रणनीति के माध्यम से निवारक और उपचारात्मक तंत्र प्रदान करना है। एएमबी स्कोर कार्ड कार्यक्रम की प्रगति और प्रदर्शन के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए विकसित किया गया है और यह स्वास्थ्य प्रबन्धन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) और एएमबी डैशबोर्ड के डाटा पर आधारित है। सूचकांक की गणना चयनित लक्षित लाभार्थियों में आईएफए पूरकता के औसत कवरेज के रूप में की जाती है।

राज्य / संघ राज्य क्षेत्र को औसत कवरेज के अवरोही क्रम में स्थान दिया गया है, जिसमें सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन वाले राज्य / केंद्र शासित प्रदेश को पहले स्थान पर रखा गया है। यह स्कोरकार्ड यूनिसेफ के सहयोग से आर्थिक विकास संस्थान (आईईजी), दिल्ली द्वारा तैयार किया गया है। यह कार्यक्रम अभी भी अपने प्रारम्भिक चरण में है और विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और किशोरों में एनीमिया के प्रसार को कम करने की दिशा में काम कर रहा है। लेकिन जिस तरह से पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश ने प्रदर्शन किया है, उससे पता चलता है कि इसने अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है।

हिमाचल प्रदेश एनीमिया मुक्त भारत सूचकांक 2020-21 राष्ट्रीय सूचकांक (रैंकिंग) में 57.1 की गणना (स्कोर) के साथ तीसरे स्थान पर पहुँच गया है। मध्य प्रदेश 64.1 के स्कोर के साथ पहले स्थान पर है और उसके बाद ओडिशा 59.3 के स्कोर के साथ दूसरे स्थान पर है। एनीमिया की व्यापकता में गिरावट में तेज़ी लाने और 6-9 महीने के बच्चों और 15-49 वर्ष की प्रजनन आयु की महिलाओं में एनीमिया के प्रसार को प्रति वर्ष तीन फ़ीसदी अंक कम करने के लिए ‘पोषण अभियान’ का लक्ष्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्यक्रम को अच्छी सफलता मिली है।

हिमाचल प्रदेश एनीमिया में लगातार गिरावट का रुझान दिख रहा है, जो एनीमिया मुक्त भारत (एएमबी) सूचकांक, 2020-2021 राष्ट्रीय सूचकांक से स्पष्ट है। राज्य ने रेटिंग के अनुसार, 57.1 के स्कोर के साथ तीसरा स्थान हासिल किया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस स्कोर कार्ड पर हिमाचल प्रदेश वर्ष 2018-2019 में 18वें स्थान पर था; लेकिन सरकार के लगातार प्रयासों से 2020-21 एएमबी इंडेक्स में यह सूचकांक तीन हो गया है।

राज्य नेतृत्व ने महसूस किया कि एनीमिया लिंग, आयु और भूगोल के बावजूद देश भर में उच्च प्रसार के साथ एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा बना हुआ है। भारत आज एनीमिया के मामले में एक गम्भीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चिन्ता की स्थिति वाले देशों में एक है। भारत में क़रीब 50 फ़ीसदी गर्भवती महिलाएँ, पाँच साल से कम उम्र के 59 फ़ीसदी बच्चे, 54 फ़ीसदी किशोर लड़कियाँ और 53 फ़ीसदी ग़ैर-गर्भवती ग़ैर-स्तनपान कराने वाली महिलाएँ एनीमिक हैं।

गर्भावस्था के दौरान एनीमिया प्रसवोत्तर रक्तस्राव, न्यूरल ट्यूब दोष, जन्म के समय कम वजन, समय से पहले जन्म, मृत जन्म और मातृ मृत्यु से जुड़ा हुआ है। एनीमिया से जुड़ी रुग्णता और मृत्यु दर जोखिम इस सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के समाधान के लिए एक प्रभावी रणनीति तैयार करने की तत्काल आवश्यकता है। एनीमिया की व्यापकता में गिरावट से मातृ और शिशु जीवित रहने की दर में सुधार और अन्य जनसंख्या समूहों के लिए बेहतर स्वास्थ्य परिणामों में योगदान होगा।

राज्य सरकार ने संचार के विभिन्न माध्यमों का उपयोग करते हुए आपूर्ति शृंखला में सुधार, लक्षित निगरानी और निरंतर सामाजिक लामबंदी पर ज़ोर दिया। राज्य द्वारा स्कूल जाने वाले बच्चों को नियमित रूप से कृमि मुक्त करने के साथ, मृदा संचरित कृमि का प्रसार तीन वर्षों की छोटी अवधि में 29 फ़ीसदी से घटकर 0.3 फ़ीसदी हो गया। साल भर के गहन व्यवहार परिवर्तन संचार अभियान, एनीमिया के परीक्षण और देखभाल उपचार के बिन्दु और सरकार द्वारा वित्त पोषित स्वास्थ्य कार्यक्रमों में आयरन और फोलिक एसिड युक्त खाद्य पदार्थों के अनिवार्य प्रावधान से एनीमिया के ग़ैर-पोषक कारणों को सम्बोधित करने में भी मदद मिली। बहु आयामी रणनीतियाँ, जिसमें शामिल हैं, स्कूल जाने वाले बच्चों को रोगनिरोधी आयरन और फोलिक एसिड पूरकता प्रदान करना और वर्ष भर के व्यवहार परिवर्तन संचार अभियान को तेज़ करने के अलावा; रक्ताल्पता की जाँच और प्वाइंट ऑफ केयर उपचार से वांछित परिणाम प्राप्त हुए।

यह कैसी स्मार्ट सिटी है?

स्मार्ट सिटी बनने की बात जब लोगों के कानों में पड़ी थी, तो देश के सभी शहरों के लोगों के चेहरे पर रौनक़ तो आ ही गयी थी। कुछ लोगों ने स्विटजरलैंड, इंग्लैंड, हॉन्गकॉन्ग जैसी व्यवस्था की कल्पना भी भारत में बनने वाली स्मार्ट सिटी को लेकर की होगी। लेकिन जब बरेली के स्मार्ट सिटी बनने का नंबर आया, तो छोटी छोटी, बड़ी बड़ी पचासों परेशानियों से जूझते बरेली शहर के लोग परेशान दिखायी देने लगे। यहाँ यात्री हवाई अड्डा बनने से लेकर अन्य कई सुविधाएँ भले ही इस शहर के विकास में चार चांद लगा रहे हैं, लेकिन कई ऐसे विनाशकारी काम भी हो रहे हैं, जो काफ़ी दु:खदायी साबित हो रहे हैं।

दरअसल सरकारी मशीनरी जब काम करती है, तो विकास के साथ-साथ विनाश भी करती है। बरेली शहर में नया बस अड्डा बनने की मुहिम में भी यही हुआ। यहाँ सैकड़ों हरे-भरे पेड़ों की बलि बड़ी आसानी से दे दी गयी। जबकि राज्य में क़ानून यह लागू है कि अगर कोई किसान या दूसरा आम आदमी एक भी पेड़ काटता है, तो उसे ज़ुर्माना तो भरना ही पड़ेगा, सज़ा भी हो सकती है। ताज़ूब की बात यह है कि यह क़ानून राज्य के आम लोगों के लिए ही लागू होता दिखता है, लकड़ी के सौदागरों और तस्करों पर कोई क़ानून काम नहीं करता। कैसे लागू हो? जब सरकार ही बिना सोचे हजारों पेड़ों की बलि देने से नहीं चूकती।

किताबों में पढ़ाया जाता है कि वृक्ष हमारे मित्र हैं। हम सबको पौधरोपण करना चाहिए। लेकिन हक़ीक़त में शहर में ही नहीं, ज़िले के गाँव-देहात में भी पेड़ों की संख्या बहुत तेज़ी से घट रही है। बरेली में कटे सैकड़ों पेड़ों के बदले हो रहे विकास के ख़िलाफ़ बहुत लोग सडक़ों पर उतरे, लेकिन प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ। पहले जब किसी नगर को बसाया जाता था, तो उसमें पेड़-पौधों को हटाने से परहेज़ किया जाता था, लोग पेड़ लगाते भी थे। लेकिन अब यह ज़िम्मेदारी केवल किसानों की रह गयी है और एकाध पौधा लगाने का चलन नेता, अधिकारी, समाजसेवी तो फोटो खिंचाने का काम ही करते हैं। अब तो ताक़तवर लोग अपने फ़ायदे के लिए रातोंरात जंगल के जंगल स्वाहा कर देते हैं और कोई हंगामा भी नहीं होता।

कई बार शहर की शक्ल में खड़े कंकरीट के जंगलों को देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब हमें ऑक्सीजन के सिलेंडर घरों में रखने पड़ेंगे। यह सब शहरों में बड़ी संख्या में काटे जा रहे पेड़ों के चलते होगा। अब हम हरियाली के लिए घरों में गमले सजाने में विश्वास करते हैं, पौधे लगाने में नहीं। गमलों से उतनी मात्रा में ऑक्सीजन तो नहीं मिल सकती, जितनी मात्रा में पेड़ दे सकते हैं। यह वैसे ही है, जैसे भैंस बेचकर डिब्बाबन्द दूध पीकर यह कहते हुए ख़ुश होना कि अब गोबर नहीं होगा। पेड़-पौधे जीवन के लिए भोजन-पानी से पहले और ज़्यादा ज़रूरी हैं। क्योंकि साँस लेने के लिए पेड़ ही ऑक्सीजन दे सकते हैं। अब विकास के लिए ख़ाली मैदानों का उपयोग नहीं किया जाता, उनका उपयोग पार्किंग, क्रिकेट और दूसरी सामाजित गतिविधियों के लिए किया जाता है। इन गतिविधियों के चलते उनकी हरियाली ख़त्म हो जाती है और वे धूल के मैदान में तब्दील हो जाते हैं। गली से लेकर हाईवे तक की राह खड़े पेड़ों पर आरियाँ चलाकर ही निकलती है। कोई नहीं सोचता कि जीवन साँस देने वाले पेड़ों के साथ इतनी निर्दयता क्यों? जबकि कोई भी लोगों द्वारा सडक़ तक क़ब्ज़ायी ज़मीनों को ख़ाली नहीं कराता और न रास्ते में खड़े खम्भों, अतिक्रमण और धार्मिक स्थलों को हटाता है। लेकिन कृत्रिम कार्यों के लिए प्राकृतिक सम्पदा को तहस-नहस करने से न सरकार चूकती है और न प्रशासन इसमें कोताही बरतता है। बरेली में बस अड्डा दूसरी जगह अगर ले ही जाना है, तो इसके लिए बरसों से खड़े हरे-भरे पेड़ों की बलि देने की ही क्या ज़रूरत थी? इस पर प्रशासन को सोचना चाहिए। वैसे प्रशासन क्या सोचेगा इस बारे में, उसने तो 789 पेड़ों के बदले नये पेड़ लगाने की भी नहीं सोची।

सेंट्रल जेल की ज़मीन पर सैकड़ों पेड़ों को हटाकर वहाँ पर बस अड्डा स्थानांतरित किया जाना है। जबकि इस बस अड्डे को यहीं पर पीछे की और वहाँ स्थानांतरित किया जा सकता था, जहाँ पेड़ों की तादाद न की बराबर है। वहाँ पड़ी ख़ाली ज़मीन पर्याप्त होती बस अड्डे के लिए। इसी तरह रोड चौड़ीकरण के नाम पर ईंट पजाया चौराहे से लेकर स्टेडियम और डेलापीर तक न जाने कितने ऐसे पेड़ों को काट डाला गया। यह कैसी स्मार्ट सिटी है कि हरियाली को ही खाए जा रही है। इससे तो अच्छा पहले वाला शहर था, जहाँ भले ही रोडवेज की बसें शहर के बीचोंबीच आकर अपने अड्डे पर खड़ी होती थीं, लेकिन शहर के चारों ओर हरियाली का साम्राज्य था। शहर में भी पेड़ों की संख्या अच्छी-ख़ासी थी, जो धीरे-धीरे मकानों की संख्या बढ़ते-बढ़ते विलुप्त होते गये। आँधी-तू$फान आने पर जब एक भी पेड़ गिरता है, तो एक पेड़ ही नहीं धराशायी होता, बल्कि सैकड़ों पक्षियों के ठौर-ठिकाने भी ज़मींदोज़ हो जाते हैं। साँसों के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन की सम्भावना कम हो जाती है। कितने ही जीव-जन्तु मर जाते हैं। यहाँ तो प्रशासन ने एक-दो पेड़ नहीं, पूरा-का-पूरा जंगल उजाड़ दिया।

सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक, पिछले दशकों में लाखों पौधे रोपे ज सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक चुके हैं, लेकिन ज़मीन पर इसका कोई लेखा-जोखा मिलना मुश्किल है। वैसे भी सरकारी पौधरोपण की हक़ीक़त किसे नहीं पता? पौधरोपण और वन महोत्सव हमारे देश की प्रादेशिक सरकारों के बहुत बड़े वार्षिकोत्सव हैं, जिनके द्वारा पेड़ों की रक्षा का दम्भ भरा जाता है। लेकिन सरकार और प्रशासन का ज़मीन पर का कितना दिखता है, इस पर उन्हें विचार करने की ज़रूरत है। ऑक्सीजन के प्लांट लगवाने वाले लोग ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों की जड़ें काटने पर क्यों तुले हुए हैं? जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता का दावा करने वाले ही जनता को बीमार करने पर तुले हैं। इन लोगों के पास तो बड़े-बड़े बंगले हैं, जहाँ उनके अन्दर ही बीसियों पेड़, गमलों में सैकड़ों पौधे और फुलवारी लगी होती है। ऐसे में वे लोग क्या करें, जिन्हें साँस लेने के लिए उनके पूर्वजों से विरासत में मिले फलों के पेड़ों और स्वत: उगी वनस्पतियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्मार्ट सिटी किसे चाहिए, जिसमें साँस भी कोई न ले सके? बरेली के बस अड्डे को स्थानांतरित करने के लिए एक झटके में बीसियों प्रजातियों के 789 पेड़ बिना सोचे काट दिये गये। इसमें कितने ही जीवों की मौत हो गयी, किसी ने नहीं सोचा। भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार, इस अशोभनीय और ग़ैर-क़ानूनी कार्य के एवज़ में विधिवत् हत्या का मामला बनता है। हमारे धर्मशास्त्र भी इस तरह के उजाड़ की तो दूर की बात, हरे पेड़ों तक को किसी तरह के नुक़सान तक की इजाज़त नहीं देते। चिडिय़ाघर, अप्पू घर बनाने से काम नहीं चलेगा। जीवों के लिए जंगल ही बेहतर होते हैं। जंगलों और आबादी में पेड़-पौधों के होने से ही लोग ज़िन्दा हैं।

कुछ दिन पहले डोहरा लालपुर वाली सडक़ के फोरलेन के नाम पर किये जा रहे चौड़ीकरण के लिए बीडीए और वन विभाग ने मिलकर पचासों हरे पेड़ों को काट गिराया। जब इसका ज़ोर-शोर से विरोध हुआ, तो ज़िलाधिकारी महोदय की नींद टूटी और उन्होंने इन पेड़ों का कटान बन्द करा दिया। डोहरा लालपुर सडक़ के चौड़ीकरण में आ रहे पेड़ों को बचाने के लिए उन्होंने ट्रांस लोकेट की योजना अपनाने की बात कही है। बीडीए और वन विभाग के अधिकारी अब ट्रांस लोकेट की प्रक्रिया के लिए आवश्यक औपचारिकताएँ पूरी कर रहे हैं। ज़िलाधिकारी ने इस सडक़ पर हो रहे पेड़ों के कटान को तो रुकवा दिया; लेकिन जो पेड़ कट गये, उनकी भरपाई के लिए कोई योजना नहीं बनायी। इसके लिए उनसे ईमेल के ज़रिये बरेली में सैकड़ों पेड़ों की बलि ले लेने के बारे में जब पूछा, तो उनका भी कोई जवाब नहीं आया। दु:ख इस बात का होता है कि जिस वन विभाग को बनाया ही पेड़ों की रक्षा के लिए गया है, वही हरे पेड़ों का दुश्मन बना हुआ है। वन विभाग के अधिकारी पेड़ों की उपयोगिता को समझे बिना ही हरे पेड़ों को काटने की अनुमति देते हैं। इस बारे में एक वन विभागकर्मी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वन विभाग के अधिकारी अपने वेतन से कई गुना पैसा हरे पेड़ों को चुपचाप कटवाकर कमाते हैं। ऐसा सब अधिकारी नहीं करते; लेकिन जो करते हैं, उन्हें सम्मान भी ज़्यादा मिलता है। पेड़ों को न काटने देने वालों के ख़िलाफ़ सियासी भँवें हमेशा तनी रहती हैं और उनके तबादले जंगलों में कर दिये जाते हैं। जंगलों के साथ वहशीपन और रिश्वतखोरी या दबाव के चलते पेड़ कटने की इस स्थिति से कब निजात मिलेगी? यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि इसका परिणाम अंतत: इंसानों की ही भुगतना है।

गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन

रूपाणी के रहते नहीं थी भाजपा को दोबारा सत्ता में लौटने की उम्मीद

जाति आधारित राजनीति न करने का भाजपा का नारा गुजरात में तब ढकोसला साबित हो गया, जब राज्य के ताक़तवर समुदाय पटेल को साधने के लिए भाजपा ने गुजरात में विजय रूपाणी से मुख्यमंत्री की कुर्सी लेकर पहली बार के विधायक भूपेंद्र रजनीकांत पटेल को कुर्सी थमा दी। कहने को उन्हें विधायक दल ने नेता चुना, लेकिन ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उनका चयन बाक़ायदा आलाकमान ने राज्य के जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए किया। रूपाणी को हटाने का एक और बड़ा कारण यह रहा कि भाजपा के आंतरिक सर्वे उनके ख़िलाफ़ थे। यानी भाजपा उनका चेहरा लेकर चुनाव में जाती, तो हार का बड़ा ख़तरा उसके सामने था।

वैसे तो गुजरात को लेकर भाजपा में यही कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही वहाँ पार्टी का असली चेहरा होते हैं; लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए नतीजे चिन्ता भरे रहे थे और मुश्किल से उसने बहुमत जुटाया था। कोरोना प्रबन्धन में विजय रूपाणी नाकाम साबित हुए थे और गुजरात में जनता उनसे बहुत नाराज़ थी। जानकारी के मुताबिक, भाजपा के अपने सर्वे में जब यह बात सामने आयी, तो पार्टी ने उच्च स्तर पर इसे लेकर मंथन किया और उन्हें बदलने का फ़ैसला किया गया।

इसके अलावा भाजपा आलाकमान को यह भी इनपुट्स थे कि पटेल समुदाय भाजपा से नाराज़ है। ऐसे में मंथन के बाद भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला किया गया, जो भाजपा में पहली बार विधायक बने हैं। चूँकि उनके साथ कोई विवाद नहीं था, मोदी और शाह ने उनके नाम पर मुहर लगा दी। यह माना जाता है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत कुछ समय पहले जब गुजरात के दौरे पर आये थे, तभी यह लगने लगा था कि विजय रूपाणी के मुख्यमंत्री के रूप में दिन पूरे हो गये हैं।

जानकारी के मुताबिक, गुजरात को लेकर भाजपा आलाकमान ने पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल से भी सलाह की थी। माना जाता है कि यह आनंदी ही थीं, जिन्होंने भूपेंद्र रजनीकांत पटेल का नाम मोदी-शाह को सुझाया था। हालाँकि उनसे कहीं वरिष्ठ विधायक भाजपा के पास थे; लेकिन उनका चयन किया गया। भूपेंद्र का चयन मीडिया के लिए भी हैरानी वाला रहा; क्योंकि उनके नाम की कोई चर्चा नहीं थी। लेकिन भाजपा ने वहीं किया, जो वह कुछ और राज्यों में कर रही थी- यानी एकदम ‘अनभ्यस्त’ (ऑफबीट) चेहरा। भाजपा की राजनीति का यह नया तरीक़ा है।

पटेल का मंत्री के रूप में कोई अनुभव नहीं रहा है। लिहाज़ा उन्हें अपनी पारी की एकदम नयी शुरुआत करनी है। यह तो तय है कि गुजरात भाजपा में कोई वरिष्ठ नेता उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पाएगा, भले भीतर-ही-भीतर मुख्यमंत्री न बन पाने किये कारण कसमसा रहा हो। गुजरात पार्टी के दो सबसे ताक़तवरों- मोदी और शाह का गृह राज्य है। ऊपर से भूपेंद्र हैं भी इन दोनों की पसन्द। पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल का भी उन्हें समर्थन है। हालाँकि यह भी सच है कि ख़ुद आनंदी का कभी प्रदेश भाजपा में विरोध रहा है। पटेल अब उत्तर प्रदेश की राज्यपाल हैं।

जहाँ तक राजनीतिक अनुभव की बात है, भूपेंद्र पटेल ने नगर पालिका स्तर के नेता से सफर तय किया था। पटेल सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में घाटलोडिया सीट से पहली बार चुनाव लड़े थे और जीते थे। घाटलोडिया सीट से उनसे पहले आनंदी बेन पटेल ही विधायक थीं। उनका नाम तब इसलिए चर्चा में आया था, क्योंकि उन्होंने चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के शशिकांत पटेल को एक लाख से ज़्यादा वोटों से हराया था। यह उस चुनाव में किसी विधायक की सबसे बड़े अन्तर की जीत थी। हालाँकि उसके बाद गुजरात की राजनीति में उनके नाम का कोई विशेष उल्लेख नहीं आया।

भूपेंद्र पटेल गुजरात के प्रभावशाली पाटीदार समुदाय से हैं। भाजपा ने पाटीदारों में अपने प्रति नाराज़गी कम करने के लिए ही भूपेंद्र पटेल पर दाँव खेला है। एक और बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस ने पाटीदारों में सबसे ज़्यादा असर रखने वाले युवा नेता हार्दिक पटेल को गुजरात कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगभग चौंका ही दिया था। हालाँकि कुछ अन्तर से भाजपा बहुमत बनाने में सफल रही थी।

अब गुजरात में अगले साल दिसंबर में विधानसभा के चुनाव हैं। हो सकता है कि वहाँ समय से पहले चुनाव करवाने का दाँव भाजपा चले। उत्तर प्रदेश के चुनाव के साथ वहाँ भी चुनाव करवाये जा सकते हैं। ज़ाहिर है भूपेंद्र पटेल के कन्धों पर बड़ी ज़िम्मेदारी रहेगी। उन्हें वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर चलना होगा। कोरोना वायरस महामारी के दौरान गुजरात की रूपाणी सरकार को लेकर ढेरों सवाल खड़े हुए थे। हाईकोर्ट तक से सरकार को लताड़ पड़ी थी और कई मुद्दों पर जनता में सरकार के प्रति नाराज़गी रही है।

गुजरात में भाजपा की चिन्ता के बड़े कारण हैं। सबसे बड़ा तो यह कि मोदी-शाह का गृह राज्य होने के कारण यदि भाजपा हार जाती है, तो पूरे देश में पार्टी को लेकर बुरा सन्देश जाएगा, जो राजनीतिक रूप से नुक़सान करेगा। दूसरे पिछले हर चुनाव में भाजपा और उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के बीच मतों का अन्तर लगातार घटा है।

भाजपा इस घटते अन्तर से चिन्ता में है और उसे लगता है कि यदि समय रहते चीज़ें नहीं सँभाली गयीं, तो चुनाव में लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

उदाहरण के लिए सन् 2002 के विधानसभा चुनाव दोनों दलों को मिले मतों में 10.04 फ़ीसदी का अन्तर था। इसके पाँच साल बाद सन् 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में यह अन्तर 9.49 फ़ीसदी रह गया। भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस अन्तर को घटाकर नौ फ़ीसदी कर दिया। पिछले (सन् 2017 के) विधानसभा चुनाव में तो दोनों दलों को मिलने वाले मतों का अन्तर 7.7 फ़ीसदी तक सिमट गया।

सन् 2017 के चुनाव में भाजपा के हिस्से 182 में से 99 सीटें आयी थीं; लेकिन कांग्रेस ने 22 साल के बाद पहली बार 77 सीटों का आँकड़ा छुआ। इस चुनाव में भाजपा को कुल मतों का 49.05 फ़ीसदी हासिल हुआ, जबकि कांग्रेस उससे कुछ ही पीछे रहकर 41.44 फ़ीसदी जनता के वोट लेने में सफल रही। यही नहीं, सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरन्त बाद राज्य की छ: सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने तीन सीटें जीतकर भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी। ऐसी स्थिति में नये मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के लिए निश्चित ही अगले चुनाव से पहले यह बड़ी चुनौती सामने है।

 

“गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को इसलिए हटाया गया है, क्योंकि राज्य सरकार कोरोना वायरस के दौरान जनता को राहत देने में विफल रही। यह लोगों का ध्यान हटाने और प्रधानमंत्री पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भाजपा का चेहरा बचाने की क़वायद है, क्योंकि वह राज्य सरकार के प्रदर्शन के आधार पर चुनाव लडऩे का जोखिम नहीं उठा सकती है। कांग्रेस के पास जनता की नज़र में एक व्यवहार्य विकल्प बनने की चुनौती और अवसर है।”

                             भरत सिंह सोलंकी

पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस नेता

 

“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह का आभारी हूँ, जिन्होंने मुझ पर इतना भरोसा जताया। निवर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल, गुजरात भाजपा अध्यक्ष सी.आर. पाटिल और अन्य नेताओं समेत गुजरात के नेतृत्व ने मुझ पर जो भरोसा जताया है, उसके लिए भी आभारी हूँ। मुख्यमंत्री के रूप में मेरा काम गुजरात को और ऊँचाई पर ले जाना होगा।”

भूपेंद्र पटेल

मुख्यमंत्री, गुजरात

सयुंक्त परिवारों के अस्तित्व पर मँडराता ख़तरा

भारत में आज भी एकल परिवार को सामाजिक मान्यता नहीं है। लेकिन आधुनिकता के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है। शहरों में यह सिलसिला तेज़ी से जारी है। हालाँकि देश में संयुक्त परिवारों की संख्या आज भी काफ़ी है। ग्रामीण व्यवस्था में आज भी अधिकतर परिवार संयुक्त रूप से बड़ी एकता और प्यार से रहते हैं। लेकिन नयी पीढ़ी में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी तेज़ी से पड़ रहा है, जिसके कई कारण हैं।

भारत में अगर संयुक्त परिवार के बिखरने के इन कारणों पर अगर विचार किया जाए, तो उनके अस्तित्व पर मँडराते ख़तरे की सर्वाधिक सम्भावना रोज़गार पाने की आकांक्षा और दूसरों के लिए कुछ न करने की इच्छा, आधुनिकता की चमक-दमक, शहरों में रहने की इच्छा और मोबाइल फोन आदि सबसे ज़्यादा असरकारक कारण हैं।

बढ़ती जनसंख्या तथा घटते रोज़गार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है। गाँव में परम्परागत कारोबार या खेती-बाड़ी की अपनी सीमाएँ सीमित होती जा रही हैं। अत: हर परिवार को नये आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। युवाओं को जहाँ रोज़गार उपलब्ध होता है, वहीं उन्हें अपना घर बनाना और परिवार बसाना सुविधाजनक होता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह नित्य रूप से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाये। संयुक्त परिवार के टूटने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण लगातार बढ़ता उपभोक्तावाद है। क्योंकि उपभोक्तावाद ने व्यक्ति को अधिक महत्त्वाकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है और स्वार्थ बढ़ता जा रहा है। अधिकतर लोग अब अपनी ख़ुशियाँ परिवार या परिजनों में नहीं, बल्कि आधुनिक सुख-साधनों में ढूँढते हैं। यही वजह है कि लोग अब अपनी ख़ुशियों के लिए मौक़ों की नहीं, बल्कि संसाधनों की तलाश करते हैं, जिसके चलते संयुक्त परिवार बिखरते जा रहे हैं।

पश्चिमी दुनिया के अधिकतर देशों में संयुक्त परिवार व्यवस्था समाप्ति के कगार पर है। उन्हीं की देखादेखी हमारे यहाँ के अमीर परिवारों के बाद अब कई मध्यम वर्गीय परिवार एकल परिवार की परम्परा को अपनाने लगे हैं। यह स्थिति इतनी गम्भीर होती जा रही है कि कई परिवारों में तो पति-पत्नी तक के पास साथ समय बिताने का समय नहीं है। इससे कुछ हो न हो, लेकिन बच्चों पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यही वजह है कि आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था सिर्फ़ ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े-लिखे लोगों में ही दिखायी पड़ती है। शिक्षित और शहरी लोगों में इस प्रकार की मिलजुलकर रहने की धारणा तेज़ी से विलुप्त होती जा रही है। भारत में इसका सबसे अधिक असर सनातन परिवार परम्परा के पतन के रूप में सामने आ रहा है। अगर हम अपने इतिहास को देखें, तो भारत में तमाम लड़ाइयाँ जीतने, सत्ता पर क़ाबिज़ होने और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए संयुक्त परिवार व्यवस्था को उत्तम माना गया है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि आज दुनिया में इस्लाम धर्म की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था ही उसे लगातार शक्तिशाली होने में मददगार साबित हो रही है, जिसका ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के रूप में देखा जा सकता है।

दुनिया के मशहूर लेखक डेविड सेलबॉर्न ने अपनी किताब ‘दि लूजिंग बैटल विद इस्लाम’ लेखक ने किताब में साफ़ संकेत दिया है कि पश्चिमी दुनिया इस्लाम से हार रही है। लेखक ने हार के कई कारण गिनाये हैं, जिनमें इस्लाम की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था को सबसे बड़ा कारण बताया है। पश्चिमी दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था तबाह हो चुकी है। आज अपने आपको पढ़े-लिखे और शिक्षित मानने वाले लोग शादी करना ही पसन्द नहीं करते। समलैंगिकता, अवैध सम्बन्ध, लिव इन रिलेशन (बिना शादी के या शादी से पहले महिला-पुरुष के साथ रहने) जैसी कुरीतियों के आम होने के कारण दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था टूटने के कगार पर पहुँच चुकी है। दिन-ब-दिन ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है, जिन्हें मालूम नहीं होता कि उनका पिता कौन है? ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, जो अपने बूढ़े माँ-बाप को घर में नहीं रखना चाहते। देश में वृद्ध आश्रम (ओल्ड ऐज होम) की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है। इतने पर भी इन वृद्ध आश्रमों में नये बेसहारा बुज़ुर्गों को रखने की जगह कम पड़ रही है। इस बात की हैरानी होती है कि भारत में ब्रिटिश-काल में एक भी वृद्ध आश्रम नहीं था; लेकिन आज पूरे देश में हज़ारों वृद्ध आश्रम हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में क़रीब सात करोड़ बुज़ुर्ग वृद्ध आश्रमों में रहने को मज़बूर हैं और क़रीब 32 फ़ीसदी बुज़ुर्ग घरों में प्रताडऩा तथा अनदेखी के शिकार हैं। माना जाता है कि आने वाले समय में यह संख्या बढ़ेगी।

पश्चिमी समाज में कुछ ऐसे सामाजिक परिवर्तन आ चुके हैं, जिससे पूरा पश्चिमी समाज तबाह होने के कगार पर पहुँच चुका है। अगर समय रहते संयुक्त टूटने के रिवाज़ को भारत में नहीं रोका गया, तो यहाँ भी यह स्थिति आ सकती है। आज देश के तमाम राजनीतिक दल परिवार को बचाने का वादा अपने चुनाव घोषणा-पत्र में करने लगे हैं। लेकिन सत्ता में आते ही यह दावे जुमलों में तब्दील हो जाते हैं।

विकसित देश ऑस्ट्रेलिया में तो ‘फैमिली फस्र्ट’ के नाम से एक सियासी पार्टी तक बना ली गयी है। पारिवारिक व्यवस्था को बचाना पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि परिवार  नहीं बचा, तो समाज को भी देर-सवेर ध्वस्त होने की स्थिति में पहुँचना पड़ेगा। यही वजह है कि डेविड सेलबॉर्न और बिल वार्नर जैसे लेखक यह कहने पर मजबूर हो चुके हैं कि इस्लाम धर्म में मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था की वजह से उससे देर-सवेर पश्चिम  हार जाएगा।

भारत में तेज़ी से हिन्दू संयुक्त परिवार परम्परा का पतन होना प्रारम्भ हो चुका है। ख़ून के पाँच क़रीबी रिश्ते समाप्त होने के कगार पर हैं। ताऊ, चाचा, बुआ, मामा, मौसी जैसे रिश्ते आने वाले समय में देखने सुनने को नहीं मिलने वाले हैं। एक बच्चा (सिंगल चाइल्ड) परिवार को अपनी तीसरी पीढ़ी यानी माँ-बाप, दादा-दादी बनने पर इन रिश्तों को बुरी तरह समाप्त करने की स्थिति पर प्रभावित करेगा। जिस दादा को मूल से अधिक ब्याज यानी बेटे से अधिक पोता प्यारा होता है, उसका मूलधन भी समाप्त हो जाएगा। इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा।

इसलिए दम्पत्ति को एक बच्चा योजना के अतार्किक निर्णय पर गम्भीरता से विचार करना होगा। यह मैं नहीं, इस लिहाज़ से बेतरतीब घटती आबादी के आँकड़े बोल रहे हैं। यह विश्लेषण सरकारी आँकड़ों के अध्ययन से आ रहा है।

विचार कीजिए कि अगर आपने ऐसा किया, तो आने वाले समय में आपका पौत्र या प्रपौत्र इस संसार में अकेला खड़ा होगा; और जब उसे अपने रक्त के रिश्ते की आवश्यकता होगी, तो इस पूरे ब्रह्माण्ड में उसका अपना कोई नहीं होगा। यह अत्यंत सोचनीय विषय है। इससे न केवल हमारे बच्चों को एकाकी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ेगा, बल्कि हमारी सनातन परिवार सभ्यता को ही नष्ट कर देगा। हम जो हिन्दू एकता की बात करते हैं, यह भी कम घातक नहीं है। क्योंकि भेदभाव की गहरी खाई इसके पीछे खोदी जा रही है, जिसके चलते वास्तव में सनातन सभ्यता, जो अब हिन्दू सभ्यता मान ली गयी है; समाप्त हो जाएगी। और इस सबके लिए हमारी वर्तमान पीढ़ी के वाहक उत्तरदायी होंगे।

संयुक्त परिवार के लाभ के विषय में विचार करने पर पता चलता है कि परिवार पर या परिवार के किसी सदस्य पर विपत्ति के समय अथवा किसी सदस्य गम्भीर रूप से बीमार होने पर पूरे परिवार के सहयोग से विपत्ति से आसानी से पार पाया जा सकता है। जीवन के सभी कष्ट सबके सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते हैं। अगर कभी आर्थिक संकट या रोज़गार चले जाने की समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो भी सभी के सहयोग से उसे हल करना आसान होता है। इसके अलावा एक सदस्य की अनुपस्थिति में अन्य परिजन सहयोग दे देते हैं। संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक-दूसरे के आचार-व्यवहार पर निरंतर निगरानी रखते हैं, किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है, जिससे परिवार का हर एक सदस्य चरित्रवान बना रहता है। किसी समस्या के समय सभी परिजन एक-दूसरे का साथ देते हैं। साथ ही परिवार के हर सदस्य पर सामूहिक दबाव भी पड़ता है और कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पाता। गाँव या परिवार के बुज़ुर्गों के भय के कारण शराब, जुआ या अन्य किसी बुराई से भी बच्चे और युवा बचे रहते हैं। आज ज़रूरी है कि हम सब घर-परिवार में, रिश्तेदारों में, दोस्तों में, सम है कि हम विभिन्न सामाजिक आयोजनों और बैठकों में इस विषय पर बातचीत करें और अपनी सभ्यता, संस्कार तथा पीढिय़ों को बचाएँ।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

चामुर्थी घोड़ों की नस्ल को विलुप्त होने से बचाया

रंग लायीं हिमाचल सरकार की कोशिशें, ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ के नाम से मशहूर हैं चामुर्थी घोड़े

चीन की सीमा से लगते हिमाचल के बर्फ़ीले क़बाइली ज़िलों स्पीति और किन्नौर में चामुर्थी घोड़े सेना से लेकर व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए आम लोगों तक की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। वहाँ इन्हें ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ कहा जाता है। इस नस्ल के घोड़ों की पहचान इनकी क्षमता और शक्ति के लिए है और इस नस्ल को भारतीय घोड़ों की छ: प्रमुख नस्लों में से एक माना जाता है, जो ताक़त और अधिक ऊँचाई वाले बर्फ़ से आच्छादित क्षेत्रों में अपने पाँव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है। दिलचस्प यह कि यह घोड़े इन बर्फ़ीली घाटियों में सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के समय से पाये जाते हैं। हालाँकि इनके विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया था, जिसके बाद हिमाचल सरकार ने इस नस्ल को बचाने के लिए विशेष कोशिशें कीं और उसे सफलता मिली है।

सरहदों पर भारतीय सेना के लिए युद्ध हथियार पहुँचाने वाले चामुर्थी घोड़ों का कोई विकल्प नहीं है। यदि हिमाचल सरकार ने प्रयास नहीं किये होते तो निश्चित ही इस नस्ल के घोड़े विलुप्त हो गये होते। दरअसल यह घोड़े बर्फ़ से आच्छांदित क्षेत्रों में अपने पाँव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है, जिस कारण से यह सेना के भी चहेते हैं। इन घोड़ों का उपयोग तिब्बत, लद्दाख़ और स्पीति के लोग युद्ध के समय और सामान ढोने के लिए करते रहे हैं। कुल्लू, लाहुल स्पीति और किन्नौर के अलावा पड़ोसी राज्यों में विभिन्न घरेलू और व्यावसायिक कार्यों के लिए व्यापक रूप से इनका उपयोग किया जाता रहा है।

विभिन्न श्रोतों से उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में चामुर्थी घोड़ों की संख्या छ: हज़ार से कुछ ही ज़्यादा है। इनमें से क़रीब 4,000 हिमाचल में ही हैं। शिमला ज़िले के रामपुर में हर साल लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले से पहले वहाँ के पाटबंगला मैदान में अश्व प्रदर्शनी लगती है, जिसमें विभिन्न नस्ल के घोड़े लाये जाते हैं। यह प्रदर्शनी हिमाचल सरकार का पशुपालन महकमा लगाता है। प्रदर्शनी के दौरान घोड़े के रहने-खाने की पूरी ज़िम्मेदारी विभाग ही ढोता है।

नवंबर के पहले हफ़्ते लगने वाली इस प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। प्रदर्शनी की ख़ास बात यह है कि वहाँ विशेष रूप से लाहुल स्पीति की पिन घाटी और अन्य ऊपरी क्षेत्रों के चामुर्थी घोड़े लाये जाते हैं। कोविड के कारण पिछले साल यह प्रदर्शनी नहीं लगी थी और इस बार भी सम्भावना नहीं है।

चामुर्थी घोड़ों को यहाँ की भौगोलिक स्थिति देखते बहुत उपयोगी माना जाता है। बर्फ़ीले पहाड़ों पर इनके तेज़ी से चढऩे की क्षमता के कारण ही इन्हें ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ कहा जाता है। साथ लगते उत्तराखण्ड से तो लोग एक साथ 10-20 घोड़े ख़रीद लेते हैं और उन्हें अपने राज्य में जाकर बेचते हैं या उन्हें सामान धोने के लिए किराये पर देते हैं। लवी मेले में हर साल 80 से 100 तक चामुर्थी घोड़ों का व्यापार हो जाता है।

चामुर्थी घोड़े को शीत मरुस्थल से लेकर बर्फ़ीले पहाड़ तक सवारी के लिए आरामदायक और सुरक्षित पशु माना जाता है। सँकरे रास्तों पर भी चामुर्थी की गति देखने लायक होती है। साल के ज़्यादातर समय बर्फ़ से ढके रहने वाले पहाड़ों और नदी-नालों वाले पैदल रास्तों पर यह घोड़ा किसी विशेषज्ञ से कम नहीं। ऊँचाई पर पशुपालक नदी-नाले पार करने के लिए इन्हीं घोड़ों का सहारा लेते हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक, चामुर्थी घोड़े में नदी-नाले के ऊपर बर्फ़ की परत की मोटाई समझने की अद्भुत क्षमता होती है और वह पहले ही इसका अनुमान लगा लेता है। इससे इस पर सवारी करने वाला सुरक्षित रहता है। चामुर्थी की ऊँचाई 12-14 हाथ तक होती है और यह माइनस 30 डिग्री तक की भीषण ठण्ड में काम कर सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें लम्बे समय तक कुछ न खाने के बावजूद काम करने की क्षमता होती है।

कैसे बचायी प्रजाति

हिमाचल के पशुपालन विभाग ने इन बर्फ़ानी घोड़ों को बचाने और संरक्षित करने और पुन: अस्तित्व में लाने के उद्देश्य से सन् 2002 में स्पीति घाटी के लारी में एक घोड़ा प्रजनन केंद्र स्थापित किया। यह केंद्र्र स्पीति नदी से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थापित किया गया है, जो राजसी गौरव और किसानों में समान रूप से लोकप्रिय घोड़ों की इस प्रतिभावान नस्ल के प्रजनन के लिए उपयोग किया जा रहा है।

इस प्रजनन केंद्र्र को तीन अलग-अलग इकाइयों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक इकाई में 20 घोड़ों को रखने की क्षमता और चार घोड़ों की क्षमता वाला एक स्टैलियन शेड है। इस केंद्र को 82 बीघा और 12 बिस्वा भूमि पर चलाया जा रहा है। विभाग इस लुप्तप्राय प्रजाति के लिए स्थानीय गाँव की भूमि का उपयोग चरागाह के रूप में भी करता है।

‘तहलका’ से बातचीत में हिमाचल के पशुपालन मंत्री वीरेंद्र कँवर ने बताया कि इस प्रजनन केंद्र की स्थापना और कई साल तक चलाये प्रजनन कार्यक्रमों के उपरांत इस शक्तिशाली विरासतीय नस्ल, जो कभी विलुप्त होने के कगार पर थी, की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में इनकी आबादी लगभग 4,000 हो गयी है।

कँवर के मुताबिक, लारी फार्म में इस प्रजाति के संरक्षण के प्रयासों के लिए आवश्यक दवाओं, मशीनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं के अलावा पशुपालन विभाग के लगभग 25 पशु चिकित्सक और सहायक कर्मचारी अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इस केंद्र में इस नस्ल के लगभग 67 घोड़ों को पाला जा रहा है, जिनमें 23 स्टैलियन और 44 ब्रूडमेयर्स दोनों युवा और वयस्क शामिल हैं। प्रत्येक वर्ष पैदा होने वाले अधिकांश घोड़ों को पशुपालन विभाग नीलामी के माध्यम से स्थानीय ख़रीदारों को बेचता है। चार-पाँच साल की उम्र के एक वयस्क घोड़े का औसत बाज़ार मूल्य इस समय 35,000 से 40,000 रुपये तक है। वैसे इन घोड़ों की सबसे अधिक लागत हाल के वर्षों में 75,000 रुपये तक दर्ज की गयी है।

लारी फार्म से जुड़े पशु चिकित्सकों के मुताबिक,  जनसंख्या, जलवायु और चरागाह के आधार पर एक वर्ष में औसतन अधिकतम 15 मादाएँ गर्भधारण करती हैं और गर्भाधान के 11-12 महीने बाद बच्चा जन्म लेता है। एक वर्ष की आयु तक उसे दूध पिलाया जाता है। प्रजनन भी पशु चिकित्सा विशेषज्ञों की निगरानी में करवाया जाता है। जन्म के एक महीने के बाद घोड़े के बच्चे को पंजीकृत किया जाता है और छ: महीने की आयु में उसे दूसरे शेड में स्थानांतरित कर दिया जाता है। एक वर्ष का होने पर ही इसे बेचा जाता है। इसके अतिरिक्त विभाग द्वारा वृद्ध अथवा अधिक संख्या होने पर चामुर्थी मादाओं को बेच दिया जाता है। इसके अलावा घोड़े की अन्य नस्लों की देख-रेख, पालन-पोषण और उनका प्राचीन महत्त्व पुन: स्थापित करने के लिए विभाग इस केंद्र पर हर साल क़रीब 35 लाख रुपये ख़र्च करता है।

पशुपालन मंत्री वीरेंद्र कँवर के मुताबिक, चामुर्थी नस्ल के स्टैलियन घोड़ों के संरक्षण के मामले में हिमाचल का स्टैलियन चार्ट में अग्रणी स्थान है और निरन्तर गुणात्मक घोड़ों के उत्पादन में सफलता हासिल की है। चामुर्थी प्रजाति की लोकप्रियता का अंदाज़ा अंतर्राष्ट्रीय लवी और लदारचा मेलों के अलावा समय-समय पर लगने वाली प्रदर्शनियों के दौरान मिले पुरस्कारों से हो जाती है।

 

तिब्बत से जुड़ा है इतिहास

चामुर्थी नस्ल के घोड़ों के वंशज तिब्बत सीमा की ऊँचाइयों पर पाये जाने वाले जंगली घोड़े माने जाते हैं। इस नस्ल का उद्गम स्थल तिब्बत के छुर्मूत को माना जाता है। कहा जाता है कि इसी कारण इस नस्ल के घोड़ों को चामुर्थी नाम मिला। इस नस्ल के घोड़े तिब्बत की पिन घाटी से सटे इलाक़े और लाहुल स्पीति ज़िले के काजा उप मण्डल की पिन घाटी में पाये जाते हैं।

चामुर्थी नस्ल को दुनिया की घोड़ों की मान्यता प्राप्त चार नस्लों में एक माना जाता है। इस नस्ल के घोड़े मज़बूत होने के कारण बर्फ़ीले पहाड़ों के लिए बहुत लाभदायक माने जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस नस्ल के घोड़ों में बहुत कम ही बीमारियाँ देखी जाती हैं। हिमाचल के किन्नौर ज़िले के पूह उप मण्डल से भी व्यापारी तिब्बत जाकर चमुर्थी घोड़े लाते रहे हैं; लेकिन वहाँ माँग अधिक होने के कारण घोड़ों का व्यापार सिरे नहीं चढ़ रहा है। कहा जाता है कि पिन घाटी में नसबंदी किये घोड़े बेचे जाते हैं। क्योंकि वहाँ के लोगों की मान्यता है कि ऐसा नहीं करने से स्थानीय देवता नाराज़ होते हैं। हालाँकि पशु विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे इस नस्ल के विस्तार की कोशिशों को नुक़सान पहुँचता है।

हर साल पिन घाटी में चामुर्थी नस्ल के घोड़े पाये जाने वाले इलाक़ों में अप्रैल-मई में हर गाँव में नस्ल विस्तार वाला नया घोड़ा चुना जाता है। लोग अपने नये जन्मे घोड़ों को एक जगह इकट्ठा करके उनमें से सबसे बढिय़ा घोड़े का चयन किया जाता है। हालाँकि बाक़ी घोड़ों की घरेलू तरीक़े से नसबंदी कर दी जाती है।

लोकतंत्र का मन्दिर या धर्मस्थल!

झारखण्ड विधानसभा में  नमाज़ के लिए कमरा देने के बाद मन्दिर बनाने के लिए जगह देने की उठी माँग

झारखण्ड विधानसभा के एक छोटे से निर्णय ने पूरे प्रदेश का सियासी पारा चढ़ा दिया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं। गठबन्धन में शामिल दल झामुमो, कांग्रेस और राजद विधानसभा के निर्णय को उचित ठहरा रहे हैं और विपक्ष पर निशाना भी साध रहे हैं।

मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा सदन से सडक़ तक आन्दोलन पर उतरी है। इससे विधानसभा की मानसून सत्र की पाँच दिनों की कार्यवाही लगातार बाधित रही। कौन ग़लत है, कौन सही? यह एक अलग बात है। लेकिन विधानसभा में जो हो रहा है, वह लोकतंत्र में किसी भी तरह सही नहीं है। प्रदेश में सत्ता पक्ष, विपक्ष और जनता के बीच एक सवाल उठ रहा कि झारखण्ड विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर या धर्मस्थल?

हालाँकि दोनों पक्षों का इस पर दृष्टिकोण अलग-अलग है। विपक्ष पर विधानसभा को धार्मिक अखाड़ा बनाने का आरोप सत्ता पक्ष लगा रहा है। वहीं सरकार पर तुष्टिकरण की राजनीति कर विधानसभा को एक ख़ास समुदाय की धर्मस्थली बनाने का आरोप विपक्ष लगा रहा है। झारखण्ड में गठबन्धन (झामुमो, कांग्रेस व राजद) की सरकार है और भाजपा विपक्ष में है। भाजपा विधायकों ने मानसून सत्र की कार्यवाही लगातार बाधित की। मानसून सत्र समाप्त हो गया। इस सत्र में प्रश्नकाल के लिए 388 प्रश्न आये थे। केवल नौ प्रश्नों का सदन में जवाब दिया जा सका। सरकार बहुमत में होने के कारण वित्त विधेयक समेत अन्य विधेयक बिना चर्चा के पारित करा ले गयी। गठबन्धन दल के सदस्यों ने विपक्ष के हंगामे को ग़लत बताया। मानसून सत्र में विपक्ष को जनता के जिन मुद्दों को उठना चाहिए था, वहाँ एक कमरे के आवंटन पर को लेकर सदन की कार्यवाही हर दिन ठप रही और हंगामे, धरने-प्रदर्शनों का दौर जारी है।

अध्यक्ष के प्रयास से सदन अगर थोड़ा-बहुत चला भी, तो इसी मुद्दे पर सियासत होती रही। विपक्षी भाजपा विधायक सदन के अन्दर जय श्रीराम के नारे लगाते रहे। हनुमान चालीसा का पाठ करते रहे। विधानसभा के प्रवेश द्वार पर ढोल, झाल, मंजीरा लेकर बैठे और भजन-कीर्तन करते रहे। इस मानसून सत्र में सरकार ने बहुमत में होने के कारण हो-हल्ला के बीच अपना काम तो निकाला ही, लेकिन जनता की बात नहीं उठ पायी। जनमुद्दों पर सार्थक तरीक़े से चर्चा करके उनके समाधान की राह नहीं निकल सकी।

हाँ,  नमाज़ के लिए आवंटित कमरे पर हो रहे हंगामे का फ़ौरी समाधान ज़रूर निकाल दिया गया। विधानसभा में सत्र के आख़िरी दिन झामुमो विधायक सरफ़राज़ अहमद ने  नमाज़ कक्ष को लेकर विधानसभा की समिति बनाने का सदन में आग्रह किया।

कांग्रेस विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने भी समिति बनाने का आग्रह किया। इस पर विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो तैयार हो गये। उन्होंने सात सदस्यीय सर्वदलीय समिति बनायी है। समिति का संयोजक झामुमो के वरिष्ठ विधायक स्टीफन मरांडी को बनाया गया है। वहीं विधायक प्रदीप यादव, नीलकंठ सिंह मुंडा, सरफ़राज़ अहमद, विनोद कुमार सिंह, लंबोदर महतो, दीपिका पांडे सिंह को समिति का सदस्य बनाया गया है। यह समिति  नमाज़ कक्ष की प्रासंगिकता है या नहीं? या फिर इस कक्ष का नाम प्रार्थना कक्ष किया जाए या नहीं? ऐसे तमाम बिंदुओं पर 45 दिनों में रिपोर्ट देगी।

समिति बनाने पर विधानसभा अध्यक्ष रबींद्र नाथ महतो ने कहा कि जिस तरह से  नमाज़ कक्ष को लेकर गतिरोध उत्पन्न हुआ, इससे पूरा राज्य प्रभावित हुआ है। इसकी लौ राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में पहुँची है। यह गतिरोध का विषय नहीं है और इसे समाप्त करना ज़रूरी है। राज्य के हित और विकास के लिए ऐसा करना आवश्यक है। इसलिए सर्वदलीय समिति का गठन किया गया है। विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो ने  नमाज़ के लिए कमरा आवंटन को लेकर समिति तो बना दी, लेकिन अभी भाजपा का विरोध थमने की उम्मीद कम ही है। भाजपा नेता कमरा आवंटन रद्द करने की माँग कर रहे हैं। अब भाजपा जनता के बीच जाने की तैयारी कर रही है।

क्या है मामला?

झारखण्ड विधानसभा ने अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो के निर्देश पर गत 2 सितंबर को एक आदेश जारी किया गया। विधानसभा के उप सचिव ने पत्र निकाला कि ‘नये विधानसभा भवन में  नमाज़ अदा करने के लिए  नमाज़ कक्ष के रूप में कमरा संख्या टीडब्ल्यू-348 आवंटित किया जाता है।’

इस एक आदेश ने पूरे प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी। भाजपा आदेश वापस लेने की माँग करने लगी। विधानसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक बिरंची नारायण ने अध्यक्ष को लिखित पत्र देकर आदेश वापस लेने की माँग की। उन्होंने यह भी लिखा कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भाजपा अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगी। दोनों पक्षों में पूरे सत्र में ज़ुबानी जंग भी ख़ूब चली।

गठबन्धन में शामिल झामुमो, कांग्रेस और राजद के नेताओं ने कहा कि यह एक सुविधा देने की बात है। ऐसी व्यवस्था विधानसभा में पहले भी रही है। अगर भाजपा को प्रार्थना के लिए जगह चाहिए, तो बहुत सारे कमरे हैं; उन्हें भी दे दिया जाएगा। लेकिन इतने आश्वासन भर से भाजपा विधायक नहीं माने और आन्दोलन पर उतर आये। विधानसभा के अन्दर और बाहर प्रदर्शन करके सदन की कार्यवाही को बाधित करते रहे।

नज़रिया अलग-अलग

सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, संसद और विधानसभाएँ दोनों के लिए राज्य और राज्य के लोगों के विकास की मंत्रणा और रणनीति बनाने के लिए हैं; राष्ट्रसेवा और जनसेवा के लिए हैं। लेकिन इन पवित्र स्थलों के ज़रिये अब सियासत के सिवाय कुछ नहीं होता। हर पार्टी सिर्फ़ यही सोचती है कि उसे इन स्थलों पर कब क़ब्ज़ा करने को मिलेगा? संसद और विधानसभाएँ लोकतंत्र का मन्दिर है। यह बात हम सम्भवत: तबसे सुनते आ रहे हैं, जबसे इनका गठन हुआ है।

आमतौर पर सदन के अन्दर-बाहर सांसद और विधायक अपनी बातों को रखते हुए इसे लोकतंत्र का मन्दिर बताने से नहीं चूकते हैं। सम्भव है कि पूर्व की आदर्श स्थिति के कारण इसे मन्दिर का दर्जा दिया गया हो। पर बीते कुछ वर्षों में जो बदलाव आये हैं। लोकतंत्र में किसी को मनमानी करने का अधिकार नहीं होता।

फ़िलहाल संसद और विधानसभाओं में इसी अधिकार का प्रदर्शन हो रहा है। ख़ुद सदस्य ही अपने आचरण से सदन की गरिमा गिरा रहे हैं। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष बयानबाज़ी में विधानसभा को हमेशा की तरह लोकतंत्र का मन्दिर बताने से नहीं चूकते; लेकिन नज़रिया और क्रियाकलाप अलग-अलग है। नतजीतन टकराव की स्थिति बनी हुई है। स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता का कहना है कि भाजपा के लोग लोकतंत्र के मन्दिर में इस तरह हंगामा कर जनता को क्या बताना चाहते हैं? मुद्दों पर बात करने की उनकी नैतिकता ख़त्म हो चुकी है। वहीं, मंत्री हफ़ीज़ुल हसन ने कहा कि लोकसभा, राज्यसभा हो या देश के किसी भी अन्य विधानसभा में अल्पसंख्यकों को  नमाज़ अदा करने के लिए एक जगह मुकर्रर की जाती है। ऐसे में झारखण्ड विधानसभा में भी यह जगह मुकर्रर की गयी है, तो फिर इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? भाजपा के पास कोई मुद्दा बचा नहीं।

भाजपा विधायक अमर कुमार बाउरी ने कहा कि झारखण्ड विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर है। इसलिए बेहतर यही होगा कि इसे धार्मिक राजनीति से दूर रखा जाए। अगर सरकार अल्पसंख्यकों के इबादत के लिए अलग से एक कमरा दे सकती है, तो बहुसंख्यकों को भी संख्या के हिसाब से विधानसभा परिसर में मन्दिर बनाने की इजाज़त विधानसभा अध्यक्ष को देनी चाहिए। भाजपा के मुख्य सचेतक बिरंची नारायण ने कहा कि विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह से एक विशेष धर्म के लोगों को  नमाज़ पढऩे के लिए कमरा आवंटित किया है, वह लोकतंत्र की परम्परा के विपरीत है। उन्हें अपना आदेश तत्काल वापस लेना चाहिए।

आख़िर ज़िम्मेदार कौन?

आख़िर एक कमरा  नमाज़ के लिए आवंटित करने पर इतना हंगामा कितना उचित है? जबकि विधानसभा में जगह की कमी नहीं है। भाजपा को इस पर सोचना चाहिए। यह मुद्दा जनहित से कितना जुड़ा है कि इसके लिए सदन की कार्यवाही बाधित की जाए। विधानसभा या सरकार को सोचना चाहिए कि कमरा को ‘ नमाज़ कक्ष’ नाम देकर क्यों विवाद खड़ा किया जाए? इसे ‘प्रार्थना कक्ष’ का नाम भी दिया जा सकता है। जहाँ सभी धर्म के लोग अपने सुविधानुसार उस कमरे में प्रार्थना कर सकते हैं। सत्र बुलाने पर लाखों रुपये ख़र्च होते हैं। यह जनता की गाढ़ी कमायी की वसूलने से होता है। आख़िर इसकी बर्बादी के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण भरी सभा में हुआ था। इस समय विदुर की कही बात संसदीय व्यवस्था के लिए सही लगती है। विदुर ने कहा था- ‘सभा में हुए पाप का आधा भाग सभाध्यक्ष पर, एक-चौथाई पाप कर्मियों पर और शेष एक-चौथाई पाप मौन रहने वालों पर होता है।’

महाभारत में यह सब इसलिए हुआ था, क्योंकि सभा ने अपनी नैतिक शक्ति खो दी थी। झारखण्ड विधानसभा के क़दम नैतिक शक्ति खोने की ओर तो नहीं बढ़ रहे? क्योंकि यह मामला झारखण्ड उच्च न्यायालय में भी पहुँच गया है। कमरा आवंटन के ख़िलाफ़ पीआईएल दाख़िल किया गया है। अगर इस पर सुनवाई हुई और फ़ैसला किसी के भी पक्ष में आये, कम-से-कम यह विधायिका के लिए शुभ संकेत तो नहीं ही होगा। इस विषय पर सोचने की ज़रूरत है।

हंगामा और लाठीचार्ज

इस मामले में आग लगातार भडक़ती जा रही है। भाजपा के लोग पूरे प्रदेश में धरना-प्रदर्शन करके विधानसभा परिसर में मन्दिर निर्माण की माँग कर रहे हैं। सदन से सडक़ तक विरोध कर रहे हैं। सदन में विधायकों का विरोध रहा, तो सडक़ पर पार्टी के नेता व कार्यकर्ता उतरे हुए हैं।

प्रदेश के दीपक प्रकाश, बाबूलाल मरांडी, रघुवर दास, अन्नपूर्णा देवी, संजय सेठ जैसे तमाम वरिष्ठ नेता मंच पर जुटे। पूरे प्रदेश से हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता रांची पहुँचे। पुलिस को उन्हें रोकने के लिए लाठीचार्ज कर पड़ा। लाठीचार्ज के विरोध में भाजपा ने 9 सितंबर को पूरे प्रदेश में काला दिवस मनाया, जिसमें प्रदेश के हर हिस्से में भाजपा के नेता और कार्यकर्ता काला बिल्ला लगाकर विरोध जताया।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश ने लाठीचार्ज के विरोध में झारखण्ड बन्द का ऐलान कर दिया है। इसके लिए तारीख़ की घोषणा जल्द ही की जाएगी। यानी राज्य में अभी राजनीतिक तपिश बनी रहेगी। भाजपा ने प्रदर्शन के ज़रिये अपनी ताक़त दिखा रही है। जिस तरह का विरोध-प्रदर्शन रहा और जितनी संख्या में कार्यकर्ता जुट रहे हैं, वह भाजपा के लिए सफलता ही कहा जा सकता है।

 

लोकतंत्र की नज़र से

संसद से लेकर विधानसभाओं तक मौज़ूदा दौर में जो हो रहा है, उसे कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। उत्तर प्रदेश विधानमंडल में निर्वस्त्र प्रदर्शन। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में थप्पड़ मारना। झारखण्ड, बंगाल, बिहार समेत अन्य विधानसभाओं में लगातार होता हंगामा। कहीं-कहीं जूतम-पैजार। यह सब चिन्ताजनक स्थिति है। संविधान ने विधायिका को असीम अधिकार दिये हैं। लोकसभा या विधानसभा के अध्यक्ष के निर्णय को सर्वोपरि माना गया है। अध्यक्ष की गरिमा और महिमा का आधार तटस्थता और निष्पक्षता है। लेकिन अध्यक्ष पर अनेक बार दलीय प्रतिबद्धता दिखती है। दरअसल संसद या विधानसभाओं में अब जनतंत्र नहीं, दलतंत्र का दबदबा है। इसी के चलते मौज़ूदा हालात ख़राब होते जा रहे हैं। इसके लिए केवल सत्ता पक्ष ही नहीं, प्रतिपक्ष (विपक्ष) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। संसद में कुछ गरिमा बाक़ी है; लेकिन उसकी धज्जियाँ अब ख़ूब उड़ रही हैं। हंगामे अगर विपक्ष खड़े करता है, तो हंगामे की वजह काफ़ी हद तक सत्ता पक्ष ही होता है। दरअसल विधायी संस्थाएँ मनमानी का अड्डा बन रही हैं। जनमुद्दे गौण होते जा रहे हैं। इससे झारखण्ड विधानसभा भी अछूती नहीं है।

 

“नमाज़ के लिए कमरा आवंटित करने की परम्परा पहले से रही है। पुरानी विधानसभा में ऐसी व्यवस्था थी, जिसे देखते हुए नये विधानसभा में कमरा आवंटित किया गया। इसे लेकर विरोध करना या राजनीति करना उचित नहीं है। सदन जनहित के मुद्दों को उठाने के लिए है। इस तरह की छोटी बातों पर कार्यवाही बाधित करना कहीं से उचित नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।”

                                   रबींद्र नाथ महतो

झारखण्ड विधानसभा अध्यक्ष

 

“संविधान में सर्वधर्म और सम्प्रभुता की बात है। संसद या विधानसभा में धर्मिक आधार पर कुछ आरक्षित करना संवैधानिक दृष्टि से सही नहीं है। विधानसभा अध्यक्ष को कोई निर्णय लेने का अधिकार है। लेकिन अगर उनके निर्णय से सदस्य सहमत नहीं हैं, तो उसे वह सदन में उठा सकते हैं। अध्यक्ष भी सदन के अधीन होते हैं और बहुमत के आधार पर उन्हें निर्णय लेना होगा। संसदीय प्रणाली में किसी भी मुद्दे पर कार्यवाही को बाधित करना उचित नहीं है।”

सुभाष कश्यप

संविधान विशेषज्ञ

 

“हेमंत सरकार के इशारे पर एक धर्म के लोगों के तुष्टिकरण के लिए विधानसभा में  नमाज़ पढऩे के लिए कमरा आवंटित किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर  नमाज़ पढऩे के लिए जगह है, तो हनुमान चालीसा पाठ के लिए क्यों नहीं? हमारा विरोध जारी रहेगा। विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर है। यहाँ न  नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए और न ही हनुमान चालीसा। अगर सत्र के दौरान आदेश रद्द नहीं हुआ, तो हम अदालत का दरवाज़ा खटखटाएँगे।”

बिरंची नारायण

मुख्य सचेतक, भाजपा विधायक दल

 

“विधानसभा में किसी को कमरा आंवटित करना अध्यक्ष का अधिकार क्षेत्र है। इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। पर इस मुद्दे पर सदन को बाधित करना, एक-दूसरे पर आरोप लगाना, संसदीय प्रणाली को कमज़ोर करने वाला है। सदन में जनमुद्दों पर बात होनी चाहिए। जनता की बातों को उठाना चाहिए। इस पर सार्थक बहस कर उनके हित के लिए काम करना चाहिए। अगर इससे इतर बातें सदन में कोई भी सदस्य करता है, तो यह अशोभनीय है। यह संघीय ढाँचे के लिए कहीं से उचित नहीं है।”

आलमगीर आलम

संसदीय कार्य मंत्री, झारखण्ड सरकार

देशभक्ति की नयी व्याख्या करती तिरंगा यात्रा

भाजपा को उसी के हथकंडों से चुनौती दे रही आम आदमी पार्टी

उत्तर प्रदेश में विधनसभा चुनाव में अब जब केवल छ: महीने ही बचे हैं, आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी तिरंगा यात्रा के ज़रिये चुनाव प्रचार का बिगुल बजा दिया है। आगरा, नोएडा और अयोध्या के बाद अब पार्टी नेता और कार्यकर्ता राज्य के सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा लेकर जाएँगे और लोगों को देशभक्ति के मायने समझाएँगे।

आमतौर पर देशभक्ति के मायने होते हैं- देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान कर देना। उसके गौरव की हर क़ीमत पर रक्षा करना। जान चली जाए, पर तिरंगा झुकने न पाए। उसमें सब कुछ तिरंगे के लिए होता है। मगर आम आदमी पार्टी की देशभक्ति में सब कुछ तिरंगे के नीचे रह रहे लोगों के लिए है। बच्चों, महिलाओं, बुजुर्ग और युवाओं- सबका विकास ही उसके लिए देशभक्ति है। इनकी शिक्षा, इनका स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसी ज़रूरी सुविधाएँ इन तक पहुँचाना ही उसकी देशभक्ति है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ चुनावों का केंद्र लोग नहीं, बल्कि उनकी जाति और धर्म रहता है; आम आदमी पार्टी ने इसे बदलते हुए आमजन को केंद्र में रखकर देशभक्ति के माध्यम से अपने विकास के एजेंडे को लोगों के गले उतारने का अपना तरीक़ा निकाला है।

शायद पार्टी अध्यक्ष केजरीवाल जानते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर उनके लिए इस राज्य में अपना खाता खोल पाना सम्भव नहीं होगा। वैसे भी यहाँ मुख्य मक़सद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देना है; जो देशभक्ति, हिन्दुत्व और राम पर अपना विशेषाधिकार मानती है। उसके इस अधिकार-अहम को चुनौती देने के लिए ही अयोध्या में तिरंगा यात्रा और रामलला के आशीर्वाद से प्रचार की शुरुआत की गयी। अब विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा यात्रा करते हुए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता लोगों को देशभक्ति के मायने समझाने का प्रयास करेंगे। इसमें भाजपा के राष्ट्रवाद और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रवाद के बीच के अन्तर को भी लोगों के सामने खोलकर रखा जाएगा।

आगरा और नोएडा में तिरंगा यात्रा निकालते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पार्टी सांसद व उत्तर प्रदेश के प्रभारी संजय सिंह ने लोगों को समझाया कि उनके लिए देशभक्ति व राष्ट्रवाद क्या है? संजय सिंह ने कहा कि ‘तिरंगे के नीचे खड़ा हर ग़रीब बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ सके। दिल्ली की तरह उत्तर प्रदेश में भी हर गाँव में मोहल्ला क्लीनिक बन सके। हर ग़रीब के घर में बिजली हो और 300 यूनिट तक उसे नि:शुल्क मिल सके। हर घर को पानी मिले। उनके लिए यही देशभक्ति है। यही राष्ट्रवाद है।’

उन्होंने आगे कहा-‘अब आम आदमी पार्टी ईमानदारी और शिक्षा के माध्यम से हर गाँव में विकास की राजनीति को लेकर जाएगी। पूरे उत्तर प्रदेश में तिरंगा यात्रा निकलेगी और पार्टी के कार्यकर्ता हर जगह संकल्प लेंगे कि इस तिरंगे के नीचे रह रहे बच्चे, महिलाएँ, बुज़ुर्ग, युवा और किसान अपने अधिकारों से वंचित न रहें।’

आम आदमी पार्टी की देशभक्ति की परिभाषा में केवल लोग ही नहीं, संविधान भी हैं। बीते 15 अगस्त (आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ) पर दिल्ली के स्कूलों में लागू किये गये ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ में बच्चों को संविधान के स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व जैसे मूल्यों की जानकारी देते हुए उनका आदर करना और उन्हें रोज़मर्रा के व्यवहार में उतारना सिखाया जाएगा। इसके साथ ही बच्चों और युवकों को सिखाया जाएगा कि कैसे वे आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, सामाजिक और परम्परागत सोच से परे वैज्ञानिक व व्यावसायिक सोच वाले बन सकते हैं।

इसे देखकर लगता है कि अपनी देशभक्ति की इस परिभाषा से, जिसमें आमजन व संविधान सर्वोपरि है; आम आदमी पार्टी ने बड़ी आसानी से भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद से अपने को पूरी तरह से अलग कर लिया है। वह युवकों की ऐसी पीढ़ी भी तैयार करने जा रही है, जिसमें किसी की भी देशभक्ति को उसके धर्म या फिर जन-गण-मण गाने या नहीं गाने से नहीं नापा जाएगा।

दिल्ली से बाहर अपने पैर पसारने की कोशिश में लगी आम आदमी पार्टी की इस तिरंगा यात्रा के तीन राजनीतिक तत्त्व दिखायी देते हैं। पहला विकास, दूसरा देशभक्ति और तीसरा धर्म। दिल्ली के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार भले ही ख़त्म न हुआ हो, पर शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार और ग़रीबों को बिजली व पानी जैसी सुविधाओं का नि:शुल्क वितरण अभी तक केजरीवाल की पार्टी का लोकतांत्रिक राजनीति व प्रशासन का मुख्य आधार रहा है। इसी के बल पर वह दिल्ली में दो बार भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक प्रचार का सामना कर उसे पछाडऩे में कामयाब हो सकी।

गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब सभी राज्यों में पार्टी प्रमुख केजरीवाल ने मुफ़्त या फिर सस्ती बिजली के वादे से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है। अब जब आम आदमी पार्टी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव लडऩे जा रही है, तब उसने अपने इन्हीं विकास कार्यों को देशभक्ति का नाम दे दिया है। उसके अनुसार, ‘व्यापक जनहित आधारित विकास की सोच, नीतियों व प्रशासन के साथ चलना ही देशभक्ति है। तिरंगा को उसने शहीदों के सम्मान का प्रतीक बनाया है और हिन्दुओं के पर्व त्यौहार व राम सहित सभी देवी-देवताओं की पूजा को अपनी सत्तात्मक चुनावी राजनीति का आधार। इन तीनों पर अपने राष्ट्रवाद की नींव खड़ी करके उसने भाजपा के हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद की हवा निकालने की रणनीति बनायी है।

अफ़ग़ानिस्तानमें तालिबान के राज के बाद भारत में भाजपा के राष्ट्रवाद के फैलाव को रोक पाना किसी के लिए भी अब ज़्यादा सम्भव नहीं हो पाएगा। ऐसे में सुसाशन और विकास के ताने-बाने से बुना जा रहा आम आदमी पार्टी का राष्ट्रवाद लोगों को कितना आकर्षित कर पाएगा, इसकी परीक्षा दिल्ली से बाहर अभी होनी है। उसी से यह भी तय हो पाएगा कि तिरंगा यात्राओं के साथ लोगों के दिलों में उभारी जाने वाली सुशासन और विकास की देशभक्ति का रंग कितना गहरा है। दूसरा, आज जबकि बहुलवादी राजनीति समय की माँग है, उसके द्वारा की जा रही बहुसंख्यक राजनीति का पासा सीधा भी पड़ सकता है और उल्टा भी।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलना कितना ज़रूरी है, यह भाजपा को भी समझ आ गया है। ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत बार-बार मुसलमानों के क़रीब जाते नहीं दिख रहे हैं। उन्हें यह भी समझ आ गया है कि सत्ता के शीर्ष पर बने रहना है, तो समन्वयवादी राजनीति पर चलते हुए दिखना ज़रूरी है।

ऐसा नहीं कि केजरीवाल इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं हैं। फिर भी अगर भाजपा शासित राज्यों में वह हिन्दुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के इर्द-गिर्द अपनी चुनावी रणनीति का एक आधार खड़ा कर रहे हैं, तो सम्भवत: इसलिए कि उन्हें लगता है कि इससे धर्म के नाम पर भाजपा को मिलने वाले हिन्दु-मतों में सेंध लगाना क़ाफ़ी आसान हो जाएगा। सम्भवत: इससे आगे चलकर बहुसंख्यक-मतों पर भाजपा के एकाधिकार को ख़त्म करने में भी आसानी हो। ऐसे में बहुसंख्यकवाद आम आदमी पार्टी की सत्तात्मक राजनीति की मजबूरी या फिर रणनीति या दोनों ही हो सकती हैं। मगर उसे लम्बी पारी खेलनी है तो कांग्रेस से ख़ाली होती जगह को भरते हुए समन्वयात्मक राजनीति को ही अंतत: अपना आधार बनाकर चलना होगा।

(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)