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राष्ट्रपति चुनाव के मद्देनज़र

देश के सियासी गलियारों में अगले साल होने वाले 15वें राष्ट्रपति चुनाव की चर्चा ज़ोरों पर है। ग़ौरतलब है कि अगले साल 2022 में पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव के बाद राष्ट्रपति चुनाव होने हैं; क्योंकि 24 जुलाई, 2022 को रामनाथ कोविंद का कार्यकाल पूरा हो रहा है। ऐसे में देश में एक नये राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार की तलाश के मद्देनज़र सियासी सरगर्मियाँ बढ़ गयी हैं। हालाँकि देश के इस सर्वोच्च पद के लिए अभी तक राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) प्रमुखशरद पवार का नाम ज़्यादा लिया जा रहा है।
कुछ जानकार यह भी कह रहे हैं कि उप राष्ट्रपति वेंकैया नायडू को भी राष्ट्रपति बनाया जा सकता है; क्योंकि अगला राष्ट्रपति एनडीए से ही होगा। कुछ समय पहले मायावती का नाम भी राष्ट्रपति पद को लेकर चर्चा में रहा। राजनीतिक जानकारों ने कहा कि मायावती एक दलित चेहरा हैं और उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरी दुनिया में उनकी अपनी एक अलग पहचान है; साथ ही इन दिनों उत्तर प्रदेश में उनकी पार्टी बसपा भाजपा की बी टीम बनी हुई है। लेकिन राष्ट्रपति चुनाव में अब फिर नया मोड़ आ गया है। यह मोड़ हाल ही में नई दिल्ली में राकांपा प्रमुख शरद पवार और प्रधानमंत्री मोदी की मुलाक़ात के बाद आया।
इस मुलाक़ात को भले ही राकांपा सामान्य सामान्य शिष्टाचार बता रही हो; लेकिन राजनीतिक जानकारों ने इस मुलाक़ात के अपने-अपने हिसाब से मायने निकालकर कयास लगाने शुरू कर दिये हैं। वहीं विपक्ष के कुछ नेताओं ने इस मुलाक़ात पर सवाल भी उठाये हैं। क्योंकि केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल का शरद पवार से उनके घर जाकर मिलना। उसी दिन पवार का केंद्रीय रक्षा मंत्री राजनाथ सिंह से मिलना और उसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से मिलना, सियासी हलचल पैदा करने वाला है।
दरअसल भाजपा जानती है कि विपक्ष की एक मज़बूत कड़ी शरद पवार हैं। अगर उन्हें तोड़ लिया जाए, तो विपक्ष और कमज़ोर होगा। पिछले दिनों लगातार हुई इन मुलाक़ातों का मतलब महाराष्ट्र की शिव सेना, एनसीपी और कांग्रेस की अघाड़ी सरकार से भी जोड़कर निकाला जा रहा है। हालाँकि पवार ने इन अटकलों का खण्डन करते हुए कहा है कि सत्तारूढ़ भाजपा के पास सांसदों की बड़ी संख्या है और नतीजा वह जानते हैं। इसी बीच शरद पवार से प्रशांत किशोर की लगातार मुलाक़ातों के दौर से कयास लगाये जा रहे हैं कि तमाम विपक्षी दल सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ नये सियासी समीकरण के मद्देनज़र तीसरे मोर्चे की तैयारी में हैं।
दरअसल मोदी से लेकर ममता तक के चुनावी रणनीतिकार रहे प्रशांत किशोर की मुलाक़ात पिछले दिनों राहुल और सोनिया गाँधी से हुई थी। इस मुलाक़ात के बाद से इस प्रकार की अटकलें आम हो गयी थीं कि प्रशांत किशोर तमाम विपक्षी दलों को एक मंच पर लाकर भाजपा के ख़िलाफ़ एक सियासी मोर्चे की शुरुआत कर रहे हैं, जो विपक्ष के बीच जमी बर्फ़ को पिघलाने वाली कड़ी का हिस्सा है। प्रशांत किशोर के शरद पवार, ममता बनर्जी, अरविंद केजरीवाल, नीतीश कुमार, जगन रेड्डी, एम.के. स्टालिन, उद्धव ठाकरे समेत देश के कई बड़े नेताओं के साथ अच्छे हैं। यूँ तो उनके कांग्रेस (सोनिया-राहुल) से भी बेहतर रिश्ते हैं; लेकिन वह तीसरे मोर्चे को कांग्रेस नेतृत्व के बिना अधूरा समझते हैं।
कुछ जानकार मानते हैं कि प्रशांत किशोर कांग्रेस के बगैर तीसरे या चौथे मोर्चे को भाजपा के ख़िलाफ़ उसे हराने की स्थिति में खड़ा नहीं कर सकते। क्योंकि प्रशांत किशोर कांग्रेस नेतृत्व के बग़ैर भाजपा, ख़ासतौर पर मोदी को चुनौती दे सकेंगे, इस बात का भरोसा उन्हें भी नहीं है।
हालाँकि प्रशांत किशोर इस बात को बख़ूबी समझते हैं कि इन सबको किस प्रकार से एक मंच पर लाने का प्रयास किया जा सकता है। यही वजह है कि प्रशांत किशोर की सोनिया गाँधी और राहुल गाँधी के साथ पाँच साल बाद हुई इस मुलाक़ात को आगामी राष्ट्रपति चुनाव से भी जोड़कर देखा जा रहा है। सबसे अहम बात यह सामने आयी है कि विपक्षी दलों की पसन्द के रूप में उसके पास राष्ट्रपति पद के उम्मीदवार के तौर पर शरद पवार का नाम है।
सम्भवत: उनकी कोशिश है कि राकांपा प्रमुख शरद पवार को अगले राष्ट्रपति के प्रत्याशी के तौर पर विपक्ष का उम्मीदवार बनाया जाए। कुछ सियासी जानकार यह आशंका भी जता रहे हैं कि कहीं महाराष्ट्र में नये राजनीतिक समीकरण के तहत भाजपा-राकांपा साथ तो नहीं आ रहे हैं? क्योंकि भाजपा लगातार प्रयासरत है कि वह किसी प्रकार महाराष्ट्र में शिवसेना या राकांपा से मिलकर अपनी सरकार बनाये। जगज़ाहिर है शुरू से ही भाजपा-शिवसेना का मज़बूत गठबन्धन रहा; लेकिन किन्हीं मतभेदों के कारण शिवसेना ने भाजपा से अपनी राहें जुदा कर लीं। जबकि काफ़ी समय तक भाजपा तथा शिवसेना ने मिलकर सरकार चलायी है और दोनों को एक मज़बूत तथा पारम्परिक रिश्ते के तौर पर देखा जाता है। लेकिन सियासी खटास के मद्देनज़र जिस प्रकार से शिवसेना ने अपनी धुर-विरोधी कांग्रेस और राकांपा के साथ मिलकर सरकार बनायी है, उसमें वह कहीं-न-कहीं असहज महसूस कर रही है। सम्भवत: शिवसेना भी भाजपा से उतनी दूर नहीं हुई है, जितनी कि दिख रही है।
ज़ाहिर है महाराष्ट्र में शिवसेना, कांग्रेस और एनसीपी के गठबन्धन वाली महाविकास अघाड़ी सरकार में पिछले कुछ दिनों से सब कुछ सामान्य नहीं चल रहा है, तीनों दलों के बीच किसी-न-किसी मुद्दे पर उठापटक चलती रहती है। लेकिन इस त्रिकोणीय सरकार की कडिय़ाँ शरद पवार जोड़कर रखे हुए हैं।
वैसे तो राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद को भी दोबारा राष्ट्रपति बनने का मौक़ा मोदी के नेतृत्व में बनी एनडीए सरकार दे सकती थी; लेकिन उसके ऐसा करने के कोई संकेत फ़िलहाल तो दिखायी नहीं दे रहे हैं। संविधान में भी ऐसा कोई प्रावधान नहीं है कि कोई भी व्यक्ति दो बार राष्ट्रपति नहीं बन सकता। लेकिन भारत के पहले राष्ट्रपति डॉ. राजेंद्र प्रसाद के बाद से पहले ही कार्यकाल के बाद हर राष्ट्रपति की सेवानिवृत्ति एक परम्परा-सी बन गयी है। बहरहाल राकांपा ने महाराष्ट्र से दिल्ली तक सभी तरह के कयासों पर लगाम लगाने की कोशिश तो की है; लेकिन क्या वाक़ई जैसा एनसीपी कह रही है, सब कुछ वैसा ही है? या फिर कुछ अलग राजनीतिक समीकरण बन रहे हैं? यह समझने के लिए उच्च स्तरीय राजनीतिक गतिविधियों को बारीक़ी से देखना पड़ेगा या कुछ दिन इंतज़ार करना पड़ेगा।
(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक है)

 


“कोई सवाल ही नहीं उठता। इस तरह की सारी बातें बेबुनियादी हैं कि प्रशांत किशोर ने मुझसे राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने को लेकर मुलाक़ात की है। मुझे इस बात की जानकारी नहीं है कि प्रशांत किशोर ने राष्ट्रपति चुनाव के लिए किस प्रकार की रणनीति बनायी है। उनकी (प्रशांत की) मुझसे मुलाक़ात ग़ैर-राजनीतिक थी। उनके-मेरे बीच हुई बैठक के दौरान 2024 के लोकसभा चुनाव को लेकर भी किसी प्रकार की बातचीत नहीं हुई है।”
शरद पवार
राकांपा प्रमुख एवं वरिष्ठ नेता

फिर निकला पेगासस जासूसी का भूत

इजरायल की एक निजी कम्पनी एनएसओ के ‘स्पाइवेयर पेगासस’ का भूत फिर बाहर निकल आया है। यही वजह है कि वैश्विक स्तर पर काम कर रहे 10 देशों के 17 मीडिया हाउस के 80 से अधिक खोजी पत्रकारों और कई हस्तियों की ‘जासूसी’ किये जाने को लेकर हंगामा बरपा है। भारत में भी विपक्ष के कई राजनेताओं, कार्यकर्ताओं, पत्रकारों, अधिकारियों और एक न्यायाधीश के फोन को स्पाइवेयर के माध्यम से हैक किये जाने की बात सामने आयी है।
साइबर सुरक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि यह सॉफ्टवेयर आईफोन और एंड्रॉयड आधारित स्मार्टफोन में आसानी से प्रवेश कर सकता है। महज़ एक मिस कॉल से किसी भी फोन पर स्पाइवेयर को उसमें इंस्टॉल किया जा सकता है। स्पाइवेयर के एक बार इंस्टॉल हो जाने पर सॉफ्टवेयर फोन पर उपलब्ध हर जानकारी प्रदान करता है। जानकारियों में एन्क्रिप्टेड चैट, मैसेज, कॉल, उपयोगकर्ता का स्थान, वीडियो कैमरा और माइक्रोफोन वार्तालाप आदि शामिल हैं।
जून, 2019 में कई पत्रकारों और कार्यकर्ताओं के फोन हैक करने के लिए एक ही स्पाइवेयर का इस्तेमाल होने के दो साल बाद स्नूपिंग रिपोर्ट जुलाई, 2021 में आयी है। एनएसओ ग्रुप नामक एक इजरायली निजी कम्पनी द्वारा तैयार पेगासस एक आधुनिक निगरानी सॉफ्टवेयर है। यह पहली बार तब प्रमुख ख़बर बना था, जब 2016 में यह आरोप लगाया गया कि इसका इस्तेमाल एक अरब नागरिक मानवाधिकार कार्यकर्ता के फोन को हैक करने के लिए किया गया।
हंगामे और विवाद के बीच सर्वोच्च न्यायालय में तीन याचिकाएँ दायर की गयी हैं। इसमें एक में अदालत की निगरानी में जाँच की माँग की गयी है और यह भी कि जासूसी कराये जाने के लिए किसने भुगतान किया? हालाँकि अब तक सरकार किसी भी तरह की निगरानी से इन्कार करती आ रही है। सरकार की ओर से कहा गया कि इसका कोई आधार नहीं है। वहीं इजरायली कम्पनी का दावा है कि स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर पेगासस आतंकवाद और अपराध की जाँच के लिए केवल सरकारों को बेचा जाता है। सरकार को स्पष्ट करना चाहिए कि क्या पत्रकारों, कार्यकर्ताओं और राजनेताओं आदि की जासूसी की जा रही थी? सरकार को पेगासस के बारे में आरोपों की तह तक जाना चाहिए; क्योंकि दुनिया भर के मीडिया संस्थानों द्वारा इनकी जाँच की गयी है और स्मार्टफोन के तकनीकी विश्लेषण से स्पाइवेयर की मौज़ूदगी की पुष्टि हो चुकी है।
सरकार को इस सवाल का जवाब देना चाहिए कि क्या उसने स्पाइवेयर ख़रीदा था? और उसका इस्तेमाल किया था या नहीं? सूचना एवं प्रौद्योगिकी मंत्री का बयान ज़्यादा विश्वास नहीं दिलाता; क्योंकि उनकी ओर से यह कहा जाना कि ‘यह कोई संयोग नहीं था’; कोई मामूली बात नहीं है। संसद सत्र शुरू होने से एक दिन पहले यह ख़बर सामने आयी। मंत्री ने चुटकी लेते हुए कहा कि ऐसी सेवाएँ किसी के लिए भी खुले तौर पर उपलब्ध हैं और यह सुझाव देने के लिए कोई तथ्यात्मक आधार नहीं है कि विवरण (डाटा) का उपयोग किसी भी तरह निगरानी के लिए किया गया है। जनता में भरोसे की बहाली को आरोपों की सच्चाई जानने के लिए एक स्वतंत्र और निष्पक्ष जाँच कराना सरकार पर निर्भर है।
विडम्बना यह है कि सरकारी और निजी कम्पनियों द्वारा डाटा के उपयोग को विनियमित करने के लिए दिसंबर, 2019 में संसद में पेश किये गये व्यक्तिगत डाटा संरक्षण विधेयक पर ध्यान नहीं दिया गया है। 30 सदस्यीय संयुक्त संसदीय समिति को इसकी रिपोर्ट जमा करने के लिए लगातार पाँचवीं बार विस्तार दिया जा चुका है। चरणजीत आहुजा

जासूसी की राजनीति

पेगासस स्पाइवेयर के ज़रिये ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से देश के लोगों की जासूसी पर बवाल, सरकार मौन
इजरायल की तकनीक आधारित निजी कम्पनी एनएसओ के स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर ‘पेगासस’ के ज़रिये ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से मोबाइल द्वारा देश के लोगों की जासूसी किये जाने से कई सवाल खड़े हो गये हैं। इस जासूसी मसले को लेकर भारतीय संसद का मानसून सत्र धुलता नज़र आ रहा है। 300 भारतीयों की जासूसी में से अब तक 142 सम्भावित नाम सामने आ चुके हैं। जासूसी कांड का शिकार होने वालों में सर्वोच्च न्यायालय के कर्मचारी, दो मौज़ूदा केंद्रीय मंत्री, विपक्षी दलों के प्रमुख नेता और उनके क़रीबी, कारोबारी, वकील, छात्र नेता, ट्रेड यूनियन के नेता, दलित-सामाजिक-मानवाधिकार कार्यकर्ता और कई पत्रकारों के नाम शामिल हैं। इस जासूसी कांड से पूरे देश में खलबली मची हुई है। पूरे मसले पर मुदित माथुर की रिपोर्ट :-

दशकों से सबसे उन्नत निगरानी तकनीक का दुरुपयोग किया जा रहा है। क्योंकि महज़ एक मिस कॉल से पेगासस स्पाइवेयर आपके मोबाइल फोन में घुसकर आपकी गोपनीयता को ख़त्म कर देता है। यह लोगों के मौलिक और निजता के अधिकार का उल्लंघन है। सरकार पेगासस का उपयोग कर रही है या नहीं? इस विवरण (डाटा) को सँभालने वाली जनशक्ति आख़िर कौन है? इसे देने के लिए पैसा कहाँ से आ रहा है? क्या भारत एक निगरानी देश बनता जा रहा है? ऐसे ही ज्वलंत मुद्दे उठाकर विपक्षीनेताओं ने संसद में आवाज़ बुलंद करते हुए सदन की कार्यवाही कई दिनों दिन
ठप रखी।
एनएसओ समूह के स्पाइवेयर सॉफ्टवेयर ‘पेगासस’ की ख़रीद को लेकर मोदी सरकार में पारदर्शिता की कमी और टालमटोल का रवैया लोगों में कई तरह के सन्देह पैदा कर रहा है। सरकार की भूमिका तब और संदिग्ध लगी, जब एनएसओ ने कैलिफोर्निया के एक न्यायालय में स्पष्ट किया कि वह स्पाइवेयर को सिर्फ़ सरकारों को ही बेचती है, जिसका इस्तेमाल आतंकियों और अपराधियों पर नज़र रखने के लिए किया जाता है। इसमें सरकार और उसकी एजेंसियों को सहूलियत होती है। लेकिन व्हाट्स ऐप लॉ सूट के जवाब में ऐसे बचाव से अदालत सन्तुष्ट नहीं हुई और उसने इसकी गहनता से जाँच करने का आदेश दिया। मसलन, व्हाट्स ऐप उपयोगकर्ताओं की गोपनीयता में भी इस स्पाइवेयर ने घुसपैठ की, जिनके साथ शुरू से अन्त तक कूटलेखन (एंड टू एंड एन्क्रिप्शन) की गारंटी होती है। एनएसओ ने अपने ग्राहकों के साथ अनुबन्ध की गोपनीयता खण्ड का हवाला दिया और इस पर चुप्पी साधे रखी। साथ ही अपना मुक़दमा लडऩे के लिए क़ानूनी फर्म किंग एंड स्पाल्डिंग को तैनात किया है। इसकी क़ानूनी टीम में ट्रंप प्रशासन के पूर्व डिप्टी अटॉर्नी जनरल रॉड रोसेनस्टीन शामिल हैं।
इसी मामले में मोदी सरकार घिरती नज़र आ रही है। अगर यह एनएसओ के स्वामित्व वाले पेगासस स्पाइवेयर की ख़रीद को स्वीकार करती है, तो सरकार बताना होगा कि उसने अपने ही देश के क़रीब 300 नागरिकों की निगरानी क्यों की? अगर इससे इन्कार करती, तो मामला और जटिल हो सकता है; क्योंकि इससे लगेगा कि सरकार ने राष्ट्रीय सुरक्षा से समझौता क्यों किया और ग़ैर-क़ानूनी जासूसी को आउटसोर्स की इजाज़त कैसे दी? 28 नवंबर, 2019 को राज्यसभा में मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता दिग्विजय सिंह ने ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के ज़रिये व्हाट्स ऐप के माध्यम से कुछ लोगों के फोन विवरण से समझौता करने के लिए स्पाइवेयर पेगासस के कथित उपयोग के मुद्दे को उठाया था। तत्कालीन सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री रविशंकर प्रसाद ने सदन के पटल पर स्पष्ट शब्दों में स्वीकार किया था कि एनएसओ को नोटिस दिया गया है।
फ्रांस स्थित मीडिया ग़ैर-लाभकारी संगठन है, जो ‘फॉरबिडन स्टोरीज’ के लिए 17 मीडिया संगठनों का एक समूह है। ये अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर खोजी पत्रकारिता में एक-दूसरे को सहयोग करते हैं; इनकी जासूसी भी पेगासस से करवायी गयी। इसके अलावा इससे दुनिया भर में हज़ारों व्यक्तियों की जासूसी करने का आरोप है। 10 देशों के 17 मीडिया संगठनों के 80 से अधिक खोजी पत्रकारों की फोन से निगरानी की गयी। पेगासस मोबाइल में प्रवेश करने के बाद अपने सर्वर से सम्पर्क करता है और लक्ष्य के निजी विवरण को वापस भेजता है। इस विवरण में पासवर्ड, सम्पर्क सूचियाँ, कैलेंडर इवेंट, टेक्स्ट सन्देश और लाइव वॉयस कॉल और एंड-टू-एंड- एन्क्रिप्टेड मैसेजिंग ऐप भी इसमें शामिल हैं। स्पाइवेयर के ज़रिये फोन के कैमरे और माइक्रोफोन को भी नियंत्रित किया जा सकता है और जीपीएस फंक्शन पर भी क़ाबू पाया जा सकता है। यह किसी भी दस्तावेज़, फोटो और वीडियो को मोबाइल फोन से अपने लक्ष्य तक को भेजने में सक्षम होता है।
स्पाइवेयर को फॉरेंसिक विश्लेषण से बचने, एंटी-वायरस सॉफ्टवेयर द्वारा पता लगाने से बचने के हिसाब से विकसित किया गया है और ज़रूरत पडऩे पर इसे हटाया भी जा सकता है। फॉरबिडन स्टोरीज ने 50 से अधिक देशों में एनएसओ के ऐसे ग्राहकों जासूसी किये जाने वाले नंबरों तक पहुँच हासिल की। ख़ुलासा हुआ कि इजरायली कम्पनी एनएसओ ग्रुप के ग्राहकों द्वारा निगरानी के लिए चुने गये 50,000 से अधिक फोन नंबर वर्षों इस सूची में थे। लीक आँकड़ों से पता चला है कि भारत, मैक्सिको, हंगरी, मोरक्को और फ्रांस जैसे देशों में कम-से-कम 180 पत्रकारों को निशाना बनाया गया। सऊदी अरब के पत्रकार जमाल ख़शोगी की हत्या के मामले में दो महिलाओं समेत ख़शोगी के 37 क़रीबी लोगों के स्मार्टफोन की निगरानी की गयी। फोन के क्रॉस-सेक्शन की फोरेंसिक जाँच में सार्वजनिक हुई सूची में 37 फोन पर स्पाइवेयर की मौज़ूदगी पायी गयी।
वाशिंगटन पोस्ट ने बताया कि सूची में भारत के 1,000 से अधिक फोन नंबर दिखायी दिये। नामों की पहली सूची में राजनेता, विदेशी मामलों और रक्षा को कवर करने वाले 40 भारतीय पत्रकार शामिल थे। इसके बाद राहुल गाँधी, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर, नवनियुक्त आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव और शीर्ष वायरोलॉजिस्ट गगनदीप कांग जैसे दिग्गजों नेताओं के नाम भी सूची में सामने आये। एनएसओ समूह ने पेगासस प्रोजेक्ट जाँच के दावों का खण्डन किया और रिपोर्ट को ग़लत धारणाओं वाली के साथ ही अपुष्ट क़रार दिया।
‘द वाशिंगटन पोस्ट’ के साथ एक साक्षात्कार में एनएसओ समूह के संस्थापक शालेव हुलियो और उनके साथी ओमरीलावी ने दावा किया कि इसे तीन मार्गदर्शक सिद्धांतों के आधार पर स्थापित किया गया, जो आज भी क़ायम हैं। कम्पनी की स्थापना के पहले हफ़्तों यानी 2010 में हमने इसकी शर्तें तय की थीं। 1. सिर्फ़ कुछ सरकारी संस्थाओं को लाइसेंस देंगे; क्योंकि इस प्रौद्योगिकी का दुरुपयोग निजी हाथों में किया जा सकता है। 2. सॉफ्टवेयर लाइसेंस बेचने के बाद ग्राहकों द्वारा लक्षित व्यक्तियों में उनकी कोई दृश्यता नहीं होगी। 3. हुलियो ने सबसे महत्त्वपूर्ण इजरायल के रक्षा मंत्रालय की निर्यात नियंत्रण इकाई से इसके अनुमोदन प्राप्त करने को सबसे अहम बताया था। इसकी वजह यह असाधारण निर्णय था; क्योंकि उस समय यूनिट केवल विदेशी हथियारों की बिक्री को नियंत्रित करती थी (इजरायल ने 2017 में एक साइबर क़ानून बनाया था)। एनएसओ को ग्राहकों को केवल क़ानून प्रवर्तन या आतंकवाद विरोधी उद्देश्यों के लिए सॉफ्टवेयर का उपयोग करने का वादा करने वाले समझौते पर हस्ताक्षर करने की भी शर्त की बात कही गयी है।
हुलियो ने स्वीकार किया कि एनएसओ के कुछ सरकारी ग्राहकों ने अतीत में इसके सॉफ्टवेयर का दुरुपयोग किया था। इसे भरोसा तोडऩे वाला माना गया। एनएसओ ने पिछले कई वर्षों में मानवाधिकार ऑडिट करने के बाद पाँच ग्राहकों की पहुँच बन्द कर दी थी और कुछ अन्य मामलों में भी अनुबन्ध ख़त्म किया। एनएसओ ग्रुप ने कैलिफोर्निया कोर्ट सहित कई मंचों पर इस स्टैंड को दोहराया है कि यह केवल आतंकवादियों और अपराधियों को ट्रैक करने के लिए सरकारी ग्राहकों और क़ानून प्रवर्तन एजेंसियों को स्पाइवेयर बेचता है। पेगासस प्रोजेक्ट पर काम कर रहे समाचार संगठन स्वतंत्र रूप से 10 देशों के 1,500 से अधिक नंबरों के मालिकों की पहचान की है। ऐसे मोबाइल फोन के एक छोटे से क्रॉस-सेक्शन की फोरेंसिक जाँच की गयी। ‘द वायर’ ने उन 142 लोगों के नामों का ख़ुलासा किया है, जिनकी एनएसओ समूह ने इस स्पाइवेयर के ज़रिये निगरानी की।
पेगासस स्पाइवेयर की निगरानी की दूसरी सूची में कांग्रेस नेता राहुल गाँधी, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे अभिषेक बनर्जी और पूर्व चुनाव आयुक्त अशोक लवासा के मोबाइल फोन का पता चला। एमनेस्टी इंटरनेशनल की सिक्योरिटी लैब द्वारा किये गये डिजिटल फोरेंसिक के अनुसार, बंगाल विधानसभा चुनाव, चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर का फोन भी हैक किया गया। इस रिपोर्ट पर भाजपा सरकार पर हमला करते हुए, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री और टीएमसी प्रमुख ममता बनर्जी ने आरोप लगाया कि भगवा पार्टी भारत को एक लोकतांत्रिक देश रखने के बजाय एक निगरानी राज्य में बदलना चाहती है। हमारे फोन टैप किये जाते हैं। मैंने अब अपने फोन के कैमरे पर ब्लैक टेप लगा दिया है। पेगासस ख़तरनाक और क्रूर है। कई बार मैं किसी से बात नहीं कर पाती। मैं दिल्ली या ओडिशा के मुख्यमंत्री से भी बात नहीं कर सकती। ममता ने 21 जुलाई को शहीद दिवस के अवसर पर एक वर्चुअल सम्मेलन को सम्बोधित करते हुए ये बातें कहीं।
केंद्रीय मंत्री प्रह्लाद सिंह पटेल और रेल और आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव के मोबाइल फोन भी 300 भारतीयों की निगरानी में शामिल हैं। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पर देशद्रोह का आरोप लगाया। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह से इस्तीफ़े का आह्वान किया और और सर्वोच्च न्यायालय की निगरानी में इसकी जाँच कराये जाने की माँग की। प्रधानमंत्री और गृह मंत्री ने इस हथियार का इस्तेमाल भारतीय राज्य और हमारी संस्थाओं के ख़िलाफ़ किया है। उन्होंने इसे सियासी फ़ायदे के लिए इस्तेमाल किया है। राहुल गाँधी ने कहा कि भाजपा ने कर्नाटक में सत्ता हथियाने के लिए इसका दुरुपयोग किया, जो सीधे-सीधे देशद्रोह है।

ममता कराएँगी जाँच


पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने 26 जुलाई को इजरायल की साइबर-ख़ुफिया कम्पनी एनएसओ ग्रुप द्वारा विकसित पेगासस स्पाइवेयर का उपयोग कर फोन की कथित निगरानी की जाँच के लिए आयोग के गठन का ऐलान किया। सर्वोच्च न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन बी. लोकुर और कलकत्ता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति (सेवानिवृत्त) ज्योतिर्मय भट्टाचार्य को आयोग के सदस्य के रूप में नियुक्त किया गया है। आयोग व्यापक रूप से रिपोर्ट की गयी अवैध हैकिंग, निगरानी के मामले को देखेगा। पश्चिम बंगाल में विभिन्न व्यक्तियों के मोबाइल फोन की भी निगरानी का आरोप है।
संवैधानिक पदाधिकारी
अशोक लवासा : नौकरशाह जब वह चुनाव आयुक्त थे, तब वह निगरानी सूची में थे। प्रधानमंत्री मोदी द्वारा चुनाव आचार संहिता के उल्लंघन पर उनकी अलग राय और चुनाव आयोग के अन्य दो सदस्यों द्वारा क्लीन चिट देने पर उनकी असहमति मीडिया में छा गयी थी।
सीबीआई अफ़सर, नौकरशाह
रणदीप सिंह सुरजेवाला ने ट्वीट किया, राफेल में आसन्न प्राथमिकी का डर! आलोक वर्मा को सीबीआई प्रमुख पद से हटाने के लिए मध्यरात्रि में तख़्तापलट! पेगासस के माध्यम से जासूसी! कालक्रम पूरा हो गया है! क्या राष्ट्र को और सुबूत चाहिए?
1. आलोक वर्मा : केंद्रीय जाँच ब्यूरो के पूर्व प्रमुख, वर्मा को मोदी सरकार द्वारा अपदस्थ किये जाने के तुरन्त बाद सूची में जोड़ा गया था। उनकी पत्नी, बेटी और दामाद के व्यक्तिगत टेलीफोन नंबरों को अंतत: सूची में भी रखा जाएगा यानी इस एक परिवार के कुल आठ नंबर रिकॉर्ड किये गये।
2. राकेश अस्थाना : तत्कालीन सीबीआई के एक वरिष्ठ अधिकारी अस्थाना को वर्मा के साथ ही सूची में जोड़ा गया था। उन्हें मोदी सरकार के क़रीबी के रूप में माना जाता है। बीएसएफ के प्रमुख के बाद अब उन्हें दिल्ली पुलिस का कमिश्नर बनाया गया है।
3. ए.के. शर्मा : सीबीआई के एक अन्य वरिष्ठ अधिकारी को अस्थाना और वर्मा के साथ सूची में जोड़ा गया।
4. राजेश्वर सिंह : प्रवर्तन निदेशालय के एक वरिष्ठ अधिकारी, जिन्होंने अपनी एजेंसी द्वारा की गयी कई हाई-प्रोफाइल जाँच का नेतृत्व किया; को इजरायली स्पाइवेयर फर्म एनएसओ ग्रुप के एक भारतीय ग्राहक द्वारा निगरानी के लिए सम्भावित लक्ष्य के रूप में चुना गया था। सिंह के दो नंबरों के साथ परिवार की तीन महिलाओं के नंबर में भी इस सूची में हैं।
5. वी.के. जैन : भारतीय प्रशासनिक सेवा के एक पूर्व अधिकारी, जिन्होंने दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल के निजी सहायक के रूप में काम किया।

राष्ट्रीय सुरक्षा के आँकड़े
आधिकारिक नीति को चुनौती देने वाले दो सेवारत कर्नल, एक सेवानिवृत्त ख़ुफिया अधिकारी जो रॉ को अदालत में ले गये और दो सेवारत बीएसएफ अधिकारी भी पेगासस प्रोजेक्ट डाटाबेस में शामिल हैं।
1. के.के. शर्मा : 1982 बैच के एक आईपीएस, वह सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के प्रमुख थे, जब उन्हें निगरानी के सम्भावित लक्ष्य के रूप में रखा। शर्मा ने आरएसएस के राष्ट्रीय समन्वयक कृष्ण गोपाल, इसके संयुक्त राष्ट्रीय समन्वयक मुरलीधर, एक सदस्य के साथ मंच साझा किया। सत्तारूढ़ भाजपा के बौद्धिक प्रकोष्ठ के मोहित रॉय, और एक पूर्व पत्रकार और आरएसएस से जुड़े कई ग़ैर-सरकारी संगठनों के ट्रस्टी, रंतीदेब सेनगुप्ता। शर्मा के सेवानिवृत्त होने के तत्काल बाद चुनाव आयोग (ईसी) ने उन्हें पश्चिम बंगाल और झारखण्ड में आसन्न लोकसभा चुनावों के लिए विशेष केंद्रीय पुलिस पर्यवेक्षक नियुक्त किया।
2. जगदीश मैथानी : बीएसएफ के महानिरीक्षक, जो केंद्रीय गृह मंत्रालय की व्यापक एकीकृत सीमा प्रबन्धन प्रणाली (सीआईबीएमएस) या स्मार्ट फेंसिंग परियोजना का अभिन्न अंग थे।
3. जितेंद्र कुमार ओझा : रिसर्च एंड एनालिसिस विंग (रॉ) के एक वरिष्ठ अधिकारी। जनवरी 2018 में सेवा से बाहर होने के बाद उन्हें निगरानी के सम्भावित लक्ष्य के रूप में खा था और इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ केंद्रीय प्रशासनिक न्यायाधिकरण में चले गये थे।
4. कर्नल मुकुल देव : एक सैन्य अधिकारी, जिन्होंने शान्ति क्षेत्रों में तैनात अधिकारियों के लिए मुफ़्त राशन ख़त्म करने का सरकारी आदेश नहीं माना।
5. कर्नल अमित कुमार : सेना के एक अन्य अधिकारी ने सशस्त्र बल (विशेष बल) अधिनियम यानी अफस्पा के आसन्न कमज़ोर पडऩे के ख़िलाफ़ 356 सेनाकर्मियों की ओर से सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की थी।

सामाजिक कार्यकर्ता, ट्रेड यूनियन नेता, वकील और शिक्षाविद्, वैज्ञानिक व चिकित्सा क्षेत्र के लोग


लीक हुई सूची के अनुसार, भीमा कोरेगाँव मामले के सिलसिले में गिरफ़्तार किये गये 16 कार्यकर्ताओं और शिक्षाविदों में से आठ के नाम भी इसमें हैं। ये हैं रोना विल्सन, हनी बाबू, वर्नोन गोंजाल्विस, आनंद तेलतुम्बडे, शोमा सेन, गौतम नवलखा, अरुण फरेरा और सुधा भारद्वाज। रेलवे सम्पत्तियों के निजीकरण का सबसे मुखर चेहरा रहे रेलवेमेन फेडरेशन के राष्ट्रीय महासचिव शिव गोपाल मिश्रा के फोन की भी जासूसी की गयी। मिश्रा ने कहा, निगरानी से पता चलता है कि केंद्र की भाजपा सरकार को लोगों की परवाह नहीं है।
1. हनी बाबू एम.टी. : दिल्ली विश्वविद्यालय में प्रोफेसर, एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
2. रोना विल्सन : एक क़ैदी अधिकार कार्यकर्ता, एल्गार परिषद् मामले में एक अन्य आरोपी।
3. वर्नन गोंजाल्विस : मानवाधिकार कार्यकर्ता और एल्गार परिषद् मामले में भी आरोपी।
4. आनंद तेलतुम्बडे : एक अकादमिक और नागरिक स्वतंत्रता कार्यकर्ता, एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
5. शोमा सेन : सेवानिवृत्त प्रोफेसर और एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
6. गौतम नवलखा : एक पत्रकार और अधिकार कार्यकर्ता, एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
7. अरुण फरेरा : एक वकील, एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
8. सुधा भारद्वाज : एल्गार परिषद् मामले की कार्यकर्ता और वकील और आरोपी।
9. पवना : तेलुगू कवि वरवर राव की बेटी, एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
10. मीनल गाडलिंग : एल्गार परिषद् मामले में आरोपी वकील सुरेंद्र गाडलिंग की पत्नी।
11. निहालसिंह राठौड़ : सुरेंद्र गाडलिंग के वकील और सहयोगी।
12. जगदीश मेश्राम : वकील, जो सुरेंद्र गाडलिंग से जुड़े हैं।
13. मारुति कुरवाटकर : ग़ैर-क़ानूनी गतिविधि (रोकथाम) अधिनियम के तहत कई मामलों में आरोपी।
14. शालिनी गेरा : एक वकील, जिन्होंने सुधा भारद्वाज का केस लड़ा।
15. अंकित ग्रेवाल : सुधा भारद्वाज के क़रीबी क़ानूनी सहयोगी।
16. जैसन कूपर : केरल स्थित अधिकार कार्यकर्ता, आनंद तेलतुम्बडे के मित्र।
17. रूपाली जाधव : सांस्कृतिक मंडली कबीर कला मंच की सदस्य।
18. लालसुनागोटी : वकील, महेश राउत के क़रीबी और एल्गार परिषद् मामले में आरोपी।
19. सोनी सोरी : आदिवासी अधिकार कार्यकर्ता।
20. लिंगाराम कोडोपी : एक पत्रकार और सोनी सोरी के भतीजे।
21. डिग्री प्रसाद चौहान : एक जाति-विरोधी कार्यकर्ता, पीपुल्स यूनियन फॉर सिविल लिबर्टीज के छत्तीसगढ़ प्रदेश अध्यक्ष।
22. राकेश रंजन : श्रीराम कॉलेज ऑफ कॉमर्स में सहायक प्रोफेसर।
23. अशोक भारती : अखिल भारतीय अम्बेडकर महासभा के अध्यक्ष।
24. उमर ख़ालिद : जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) के पूर्व छात्र।
25. अनिर्बान भट्टाचार्य : जेएनयू का एक और पूर्व छात्र, जिसे उमर ख़ालिद के साथ देशद्रोह के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था।
26. बंज्योत्सना लाहिड़ी : जेएनयू की छात्रा।
27. बेला भाटिया : छत्तीसगढ़ में स्थित एक वकील और मानवाधिकार कार्यकर्ता।
28. शिव गोपाल मिश्रा : रेलवे यूनियन के नेता।
29. अंजनी कुमार : दिल्ली स्थित श्रम अधिकार कार्यकर्ता।
30. आलोक शुक्ला : कोयला खनन विरोधी कार्यकर्ता और छत्तीसगढ़ बचाओ आन्दोलन के संयोजक।
31. सरोज गिरी : दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर।
32. शुभ्रांशु चौधरी : बस्तर स्थित पीस एक्टिविस्ट।
33. संदीप कुमार राय : बीबीसी के पूर्व पत्रकार और ट्रेड यूनियन कार्यकर्ता।
34. ख़ालिद ख़ान : संदीप कुमार राय के एक सहयोगी।
35. इप्सा शताक्षी : झारखण्ड की एक कार्यकर्ता।
36. एस.ए.आर. गिलानी : दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रोफेसर, जिन्हें संसद बम विस्फोट मामले में आरोपी बनाया था, पर बरी हो गये थे।
37. जी. हरगोपाल : हैदराबाद विश्वविद्यालय के सेवानिवृत्त प्रोफेसर एवं साईंबाबा रक्षा समिति के अध्यक्ष थे।
38. वसंत कुमारी : दिल्ली विश्वविद्यालय के पूर्व प्रोफेसर जी.एन. साईंबाबा की पत्नी।
39. राकेश रंजन : दिल्ली विश्वविद्यालय में सहायक प्रोफेसर।
40. जगदीप छोकर : वॉचडॉग एसोसिएशन फॉर डेमोक्रेटिक रिफॉम्र्स के सह-संस्थापक।
41. गगनदीप कांग : भारत के अग्रणी वायरोलॉजिस्ट में से एक जो निपाह वायरस के ख़िलाफ़ टीम में शामिल थे।
42. हरि मेनन : बिल एंड मेलिंडा गेट्स फाउंडेशन के भारतीय प्रमुख।

पूर्वोत्तर से जुड़े लोग
1. समुज्जल भट्टाचार्य : असम समझौते के खण्ड छ: के कार्यान्वयन को देखने के लिए अखिल असम छात्र संघ के सलाहकार और उच्च स्तरीय समिति के सदस्य।
2. अनूप चेतिया : यूनाइटेड लिबरेशन फ्रंट ऑफ असम के एक नेता।
3. मालेम निंगथौजा : दिल्ली के एक लेखक, जो मणिपुर से हैं।
सर्वोच्च न्यायालय की एक पूर्व कर्मचारी
अप्रैल, 2019 में भारत के पूर्व मुख्य न्यायाधीश रंजन गोगोई पर यौन उत्पीडऩ का आरोप लगाने वाले सर्वोच्च न्यायालय की पूर्व कर्मचारी से जुड़े तीन फोन नंबरों की निगरानी की गयी। पूर्व अदालत सहायक और उसके परिवार के 11 नंबरों पर नज़र रखी गयी।

नगा नेता
1. एतमवशुम : नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालिम (एनएससीएन-इसाक मुइवा) के एक नेताजो समूह के अध्यक्ष और मुइवा का उत्तराधिकारी माना जाता है।
2. अपम मुइवा : एनएससीएन (आई-एम) के एक अन्य नेता जो गु. मुइवा के भतीजे हैं।
3. एंथनी शिमरे : एनएससीएन (आई-एम) की नगा सेना के कमांडर इन चीफ।
4. फुनथिंगशिमरंग : एनएससीएन (आई-एम) की नगा सेना के पूर्व कमांडर इन चीफ।
5. किटोवी झिमोमी : नगा राष्ट्रीय राजनीतिक समूहों (एनएनपीजी) के संयोजक। मोदी सरकार नगा मुद्दे का एक समाधान खोजने के लिए वार्ता कर रही थी।

कारोबारी
1. अनिल अंबानी : रिलायंस एडीएजी के अध्यक्ष। 2018 में इनका नंबर जोड़ा गया, जब राफेल सौदे पर विवाद बढ़ गया था।
2. टोनी जेसुदासन : एडीएजी में कॉर्पोरेट संचार प्रमुख। जेसुदासन की पत्नी का नंबर भी शामिल।
3. वेंकट राव पोसिना : भारत में डसॉल्ट एविएशन के प्रतिनिधि।
4. इंद्रजीत सियाल : साब इंडिया के पूर्व प्रमुख।
5. प्रत्युष कुमार : बोइंग इंडिया बॉस।
6. हरमन जीतनागी : फ्रांसीसी ऊर्जा फर्म ईडीएफ के प्रमुख।

तिब्बती अधिकारी, कार्यकर्ता
1. टेम्पा सेरिंग : नई दिल्ली में दलाई लामा के दूत।
2. तेनजिन तकला : दलाई लामा के वरिष्ठ सहयोगी।
3. चिम्मी रिग्जेन : दलाई लामा के वरिष्ठ सहयोगी।
4. लोबसंग सांगे : निर्वासन में तिब्बती सरकार के पूर्व प्रमुख।

कश्मीर से जुड़ी हस्तियाँ


1. बिलाल लोन : एक अलगाववादी नेता और पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के नेता सज्जाद लोन के भाई।
2. तारिक़ बुख़ारी : अपनी पार्टी के नेता अल्ताफ़ बुख़ारी के भाई।
3. सैयद नसीम गिलानी : एक वैज्ञानिक, प्रमुख अलगाववादी नेता सैयद अली शाह गिलानी के पुत्र।
4. मीरवाइज उमर फ़ारूक़ : अलगाववादी नेता, हुर्रियत कॉन्फ्रेंस के प्रमुख एवं जामा मस्जिद के प्रमुख मौलवी।
5. वकार भट्टी : प्रमुख मानवाधिकार कार्यकर्ता।
6. जफ़र अकबर भट : एक प्रभावशाली शिया धर्मगुरु, जो हुर्रियत से जुड़े हैं और प्रमुख अलगाववादी नेता हैं।

वैश्विक नेता
1. एंड्रेस मैनुअल लोपेज ओब्रेडोर : अब मेक्सिको के राष्ट्रपति हैं, लेकिन 2018 में उनके चुनाव से पहले उन्हें निशाना बनाया
गया था।
2. इमैनुएल मैक्रों : फ्रांस के राष्ट्रपति।
3. इमरान ख़ान : पाकिस्तान के प्रधानमंत्री।
4. मुस्तफ़ा मदबौली : मिस्र के प्रधानमंत्री।
5. साद एदीन अल उस्मानी : मोरक्को के प्रधानमंत्री।
6. बरहम सालिह : इराक के राष्ट्रपति।
7. सिरिल रामफोसा : दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति।
8. मोहम्मद सिक्स्थ : मोरक्को के बादशाह।
9. साद हरीरी : लेबनान के पूर्व प्रधानमंत्री।
10. रूहकाना रगुंडा : युगांडा के पूर्व प्रधानमंत्री।
11. नूरुद्दीन बेदौई : अल्जीरिया के पूर्व प्रधानमंत्री।
12. चाल्र्स मिशेल : बेल्जियम के पूर्व प्रधानमंत्री, यूरोपीय परिषद् के अध्यक्ष।
13. पनाह हुसैनोव : अजरबैजान के पूर्व प्रधानमंत्री।
14. फेलिप काल्डेरन : पूर्व मैक्सिकन राष्ट्रपति।

निगरानी में सियासतदान


1. राहुल गाँधी : कांग्रेस पार्टी के नेता, जिन्हें पिछले दो आम चुनावों के लिए प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार माना गया था।
2. अलंकार सवई : राहुल गाँधी के क़रीबी।
3. सचिन राव : राहुल गाँधी के एक और सहयोगी, कांग्रेस कार्यकारी समिति के सदस्य।
4. प्रशांत किशोर : चर्चित चुनावी रणनीतिकार, जिन्होंने भाजपा और कांग्रेस सहित कई राजनीतिक दलों के लिए काम किया है। उनके फोन का फोरेंसिक विश्लेषण किया गया और हैकिंग के सुबूत मिले।
5. अभिषेक बनर्जी : तृणमूल कांग्रेस के सांसद, जो पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी के भतीजे हैं।
6. अश्विनी वैष्णव : पूर्व आईएएस अधिकारी, जिन्हें हाल के मोदी मंत्रिमंडल विस्तार में केंद्रीय मंत्री बनाया गया।
7. प्रह्लाद सिंह पटेल : केंद्रीय मंत्री, उनकी पत्नी, सचिव, सहायक, रसोइया और माली आदि।
8. प्रवीण तोगडिय़ा : विश्व हिन्दू परिषद् के पूर्व प्रमुख।
9. प्रदीप अवस्थी : राजस्थान की पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे सिंधिया के निजी सचिव।
10. संजय काचरू : एक कॉर्पोरेट कार्यकारी, जिसे तत्कालीन मानव संसाधन विकास मंत्री स्मृति ईरानी ने 2014 में विशेष कर्तव्य पर अपने अधिकारी के रूप में चुना था; लेकिन कभी औपचारिक रूप से नियुक्त नहीं किया गया था। अपने पिता और नाबालिग़ बेटे के साथ सूचीबद्ध।

तीन याचिकाएँ


वरिष्ठ पत्रकार एन. राम, शशि कुमार और सीपीएम सांसद ने जाँच के लिए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। पत्रकार एन. राम (पूर्व मुख्य संपादक द हिन्दू) और शशि कुमार (संस्थापक एशियानेट, निदेशक एसीजे) ने सर्वोच्च न्यायालय के मौज़ुदा या सेवानिवृत्त न्यायाधीश की अध्यक्षता में पेगासस स्पाइवेयर निगरानी की जाँच की माँग की है। याचिका में भारत संघ और सूचना प्रौद्योगिकी मंत्रालय को यह बताने का निर्देश देने की भी माँग की गयी है कि क्या उसने या उसकी किसी एजेंसी ने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से किसी भी तरह से निगरानी करने के लिए पेगासस स्पाइवेयर इस्तेमाल को मंज़ूरी दी। पेगासस स्पाईवेयर मुद्दे पर सर्वोच्च न्यायालय में दायर की गयी यह तीसरी जनहित याचिका है। सीपीआई (एम) की जॉन ब्रिटास याचिका ने इजरायली स्पाइवेयर एक्सप्रेस का उपयोग करने वाले कार्यकर्ताओं, राजनेताओं, पत्रकारों और संवैधानिक पदाधिकारियों की जासूसी की अदालत की निगरानी में जाँच की माँग की है। इसमें आरोप लगाया कि या तो जासूसी सरकार द्वारा करायी या फिर किसी विदेशी एजेंसी द्वारा। अधिवक्ता एम.एल. शर्मा ने भी इस विषय पर अलग से जनहित याचिका दायर की हुई है।

कांग्रेस हुई हमलावर


राहुल गाँधी के साथ ही प्रियंका गाँधी ने भी सरकार पर हमला कर ट्वीट किया, पेगासस के ख़ुलासे घृणित हैं। अगर सच है, तो लगता है कि मोदी सरकार ने निजता के अधिकार पर एक गम्भीर और भयावह हमला शुरू कर दिया है। भारतीय संविधान में मौलिक अधिकार की गारंटी दी गयी है। यह लोकतंत्र का अपमान है और हमारी स्वतंत्रता के लिए घातक है। कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने ट्वीट किया कि अगर पेगासस से परदा हट गया, तो गोपनीयता उजागर हो जाएगी।

पत्रकारों को बनाया निशाना
द वायर, हिन्दुस्तान टाइम्स, मिंट, द इंडियन एक्सप्रेस, द वाशिंगटन पोस्ट, द गार्जियन और द हिन्दू जैसे मुख्यधारा के भारतीय प्रकाशनों से जुड़े कई वर्तमान या पूर्व में 40 से अधिक पत्रकारों को निशाना बनाया गया था। लक्ष्य सूची में शामिल व्यक्तियों के कुछ फोन, जिन्हें फोरेंसिक जाँच के अधीन किया गया था, उनमें हैक किये जाने के सुबूत मिले। सात पत्रकारों के फोन की फोरेंसिक जाँच में से पाँच में पेगासस की मौज़ूदगी पायी गयी।
द वायर के मुताबिक, रोहिणी सिंह का नाम केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह के बेटे जय शाह और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के क़रीबी व्यवसायी निखिल मर्चेंट के व्यावसायिक मामलों पर रिपोर्ट करने के तुरंत बाद सूची में आ गया। उस दौरान वह व्यवसायी अजय पीरामल के साथ केंद्रीय मंत्री पीयूष गोयल के व्यवहार की भी जाँच कर रही थीं।
1. एम.के. वेणु : द वायर के संस्थापक संपादक। उसके फोन का भी फोरेंसिक विश्लेषण किया गया और पेगासस मिला।
2. सुशांत सिंह : पूर्व इंडियन एक्सप्रेस पत्रकार, जो राष्ट्रीय सुरक्षा पर लिखते हैं। फोन के फोरेंसिक विश्लेषण के बाद एमनेस्टी इस निष्कर्ष पर पहुँचा कि उसके साथ समझौता किया गया था। उनका नंबर सूची में तब दिखायी दिया, जब वह फ्रांस के साथ भारत के विवादास्पद राफेल विमान सौदे को देख रहे थे।
3. सिद्धार्थ वरदराजन : द वायर के संस्थापक संपादक।
4. परंजॉय गुहा ठाकुरता : पूर्व ईपीडब्ल्यू संपादक, जो अब न्यूजक्लिक के लिए लिखते हैं।
5. एस.एन.एम. आब्दी : आउटलुक के पूर्व पत्रकार।.
6. विजया सिंह : गृह मंत्रालय को कवर करने वाली हिन्दू पत्रकार।
7. स्मिता शर्मा : टीवी18 की पूर्व एंकर।
8. शिशिर गुप्ता : हिन्दुस्तान टाइम्स के कार्यकारी संपादक।
9. रोहिणी सिंह : स्वतंत्र पत्रकार, जिन्होंने राजनेताओं या उनके परिवार के सदस्यों के विवादास्पद व्यापारिक सौदों के बारे में द वायर के लिए कई ख़ुलासे किये हैं।
10. देवीरूपा मित्रा : द वायर की राजनीतिक संपादक।
11. प्रशांत झा : हिन्दुस्तान टाइम्स के व्यूज एडिटर, पूर्व में ब्यूरो प्रमुख।
12. प्रेम शंकर झा : एक अनुभवी पत्रकार, जिन्होंने हिन्दुस्तान टाइम्स, टाइम्स ऑफ इंडिया और कई अन्य समाचार पत्रों में संपादकीय पदों पर कार्य किया। द वायर में उनका नियमित योगदान है।
13. स्वाति चतुर्वेदी : स्वतंत्र पत्रकार, जिन्होंने द वायर में योगदान दिया है। उन्होंने भाजपा आईटी सेल के बारे में एक किताब लिखी।
14. राहुल सिंह : हिन्दुस्तान टाइम्स के रक्षा संवाददाता।
15. औरंगजेब नक्शबंदी : एक राजनीतिक रिपोर्टर, जो पहले हिन्दुस्तान टाइम्स के लिए काम करते थे और कांग्रेस पार्टी कवर करते थे।
16. रितिका चोपड़ा : इंडियन एक्सप्रेस की एक पत्रकार, जो शिक्षा और चुनाव आयोग की बीट देखती हैं।
17. मुजम्मिल जलील : एक और इंडियन एक्सप्रेस पत्रकार, जो कश्मीर को कवर करते हैं।
18. संदीप उन्नीथन : इंडिया टुडे पत्रकार, जो रक्षा और भारतीय सेना पर रिपोर्ट करते हैं।
19. मनोज गुप्ता : टीवी18 में जाँच और सुरक्षा मामलों के संपादक।
20. जे. गोपीकृष्णन : द पायनियर के एक खोजी रिपोर्टर, उन्होंने 2जी दूरसंचार घोटाले का ख़ुलासा किया।
21. सैकत दत्ता : पूर्व में एक राष्ट्रीय सुरक्षा रिपोर्टर।
22. इफ़्तिखार गिलानी : पूर्व डीएनए रिपोर्टर, जो कश्मीर पर रिपोर्ट करते हैं।
23. मनोरंजन गुप्ता : पूर्वोत्तर स्थित फ्रंटियर टीवी के प्रधान संपादक।
24. संजय श्याम : बिहार के एक पत्रकार।
25. जसपाल सिंह हेरन : लुधियाना स्थित पंजाबी दैनिक रोज़ाना पहरेदार के प्रधान संपादक।
26. रूपेश कुमार सिंह : झारखण्ड के रामगढ़ में स्थित एक स्वतंत्र पत्रकार। 2017 में एक निर्दोष आदिवासी की न्यायेतर मुठभेड़ पर रिपोर्ट करने के बाद उसका नाम सूची में आया।
27. दीपक गिडवानी : डीएनए के पूर्व संवाददाता, लखनऊ।
28. सुमिर कौल : न्यूज एजेंसी पीटीआई के पत्रकार।
29. शब्बीर हुसैन : कश्मीर पर राजनीतिक टिप्पणीकार।

बदनाम करने की कोशिश : केंद्र सरकार


नवनियुक्त सूचना प्रौद्योगिकी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने कहा कि आरोप भारतीय लोकतंत्र को बदनाम करने की कोशिश है। सरकार ने जासूसी कराये जाने के आरोपों को ख़ारिज किया। मंत्री ने कहा कि विवरण निगरानी से सरकार का कोई लेना-देना नहीं है और ऐसे आरोपों का कोई ठोस आधार नहीं है।
इससे पहले भी व्हाट्स ऐप पर पेगासस से निगरानी के आरोप लगाये गये थे; लेकिन उनका कोई तथ्यात्मक आधार नहीं था। जो मामला सर्वोच्च न्यायालय तक गया था, पर किसी भी तरह की ख़ामी सामने नहीं आयी थी। आईटी मंत्री अश्विनी वैष्णव ने तथ्यों और तर्क का हवाला देते हुए कहा कि इस रिपोर्ट का आधार यह है कि एक संघ है, जिसे 50,000 फोन नंबरों के लीक डाटाबेस तक पहुँच हासिल हुई है। मंत्री ने स्पष्ट किया कि रिपोर्ट ख़ुद कहती हैं कि विवरण में एक फोन नंबर की मौज़ूदगी से यह पता नहीं चलता कि कोई डिवाइस पेगासस से संक्रमित था या हैक किया गया। अश्विनी ने कहा कि हमारे क़ानूनों और मज़बूत संस्थानों में जाँच और संतुलन के साथ किसी भी प्रकार की अवैध निगरानी सम्भव नहीं है।
गृह मंत्री अमित शाह ने कहा कि जासूसी के लिए पेगासस स्पाइवेयर के इस्तेमाल का दावा करने वाली रिपोर्ट जानबूझकर संसद के मानसून सत्र को बाधित करने के लिए जारी की गयी थी। उन्होंने राजनेताओं, पत्रकारों और अन्य प्रमुख लोगों के कथित फोन टेपिंग पर सरकार के ख़िलाफ़ विपक्ष के आरोपों को ख़ारिज किया। शाह ने कहा कि विघटनकारी वैश्विक संगठन हैं, जो भारत की प्रगति को पसन्द नहीं करते हैं। भारत में कुछ ऐेसे सियासी नेता हैं, जो नहीं चाहते कि भारत प्रगति करे। भारत के लोग यह सब समझते हैं। शाह ने ट्वीट किया कि देश को प्रगति के रास्ते से रोकने की कोशिश कर रहे हैं, पर वे इसमें सफल नहीं होंगे। भाजपा के वरिष्ठ नेता रविशंकर प्रसाद ने कहा कि पेगासस के सरकार या भाजपा से जुड़े होने के कोई सुबूत नहीं हैं।

ममता की नज़र दिल्ली पर

ग़ैर-कांग्रेसी विपक्ष को उम्मीद, पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री दे सकती हैं 2024 में प्रधानमंत्री को टक्कर

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के गृह राज्य गुजरात के हृदय अहमदाबाद शहर की दीवारों पर ममता बनर्जी के पोस्टर लगे। मोदी के गृह राज्य में ममता बनर्जी के पोस्टर लगना कोई मामूली बात नहीं है। बाद में भले यह पोस्टर हटा लिये गये; लेकिन तब तक यह पूरे देश में ख़बर बन चुके थे। तारीख़ 21 जुलाई, जिसे ममता बनर्जी की पार्टी शहीदी दिवस के रूप में मनाती हैं। तृणमूल कांग्रेस के शहीदी दिवस की 28वीं बरसी पर ममता बनर्जी के भाषण को त्रिपुरा, असम, ओडिशा, बिहार, पंजाब, उत्तर प्रदेश और दिल्ली सहित कई राज्यों में बड़ी स्क्रीन पर दिखाया गया। दिलचस्प बात यह है कि यह भाषण भाजपा शासित सभी राज्यों में दिखाया गया। उन्होंने पेगासस जासूसी काण्ड की ओर इशारा करते हुए अपने सेल फोन के कैमरे पर लगायी टेप दिखाते हुए कोलकाता से मोदी सरकार के ख़िलाफ़ हुंकार भी भरी और कहा- ‘मैंने अपने फोन के कैमरे पर प्लास्टर लगा दिया है। वो सब कुछ देखते हैं, सब कुछ सुनते हैं। वो जासूसी के लिए बड़े पैमाने पर पैसा ख़र्च कर रहे हैं। अब वक़्क आ गया है कि दिल्ली में उनकी सरकार पर प्लास्टर लगा दिया जाए। नहीं तो देश बर्बाद हो जाएगा।’
इधर पेगासस जासूसी की जाँच के लिए ममता बनर्जी ने 26 जुलाई को बड़ा फ़ैसला लेते हुए जाँच आयोग गठित करने का आदेश दिया है, जिसमें दो सेवानिवृत्त जज शामिल हैं। ममता ने इस बारे में कहा कि उन्होंने सर्वोच्च न्यायालय के पूर्व न्यायाधीश न्यायमूर्ति मदन भीमराव और कोलकाता उच्च न्यायालय के पूर्व मुख्य न्यायाधीश न्यायमूर्ति ज्योतिर्मय भट्टाचार्य के नेतृत्व में आयोग का गठन किया है। यह आयोग पश्चिम बंगाल में फोन हैकिंग, ट्रैकिंग और उनकी रिकॉर्डिंग के आरोपों की जाँच करेगा। इससे पहले ममता ने कहा कि हम चाहते हैं कि पेगासस मामले की जाँच के लिए केंद्र सरकार आयोग बनाये; लेकिन वह कुछ नहीं कर रही।


तो क्या ममता बनर्जी ख़ुद को 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए मोदी (एनडीए, ख़ासकर भाजपा) के ख़िलाफ़ विपक्ष की धुरी बनने के लिए तैयार कर रही हैं? बंगाल में भाजपा के ख़िलाफ़ उनकी प्रचंड जीत के बाद वैसे भी विपक्ष के बहुत-से नेता उनकी तरफ़ उम्मीद के साथ देख रहे हैं। ममता बनर्जी की असली ताक़त बंगाल में ही है; यह वह भी जानती हैं। लेकिन अगले दो साल में वह तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) को बंगाल के बाहर भी पहचान दिलाना चाहती हैं। यह काम आसान भले न हो, मगर आने वाले विधानसभा चुनावों में वह अपने उम्मीदवार खड़े करके अपनी शक्ति की टोह ज़रूर लेंगी। उससे पहले कुछ राज्यों में ममता वहाँ के बड़े नेताओं को टीएमसी में लाकर संगठन खड़े कर सकती हैं। जैसे बिहार के नेता यशवंत सिन्हा पहले से उनके साथ हैं। शहीदी दिवस के बहाने जब ममता बनर्जी ने 21 जुलाई वर्चुअल रैली की, तो काफ़ी नेता उनके साथ जुड़े। भाजपा शासित राज्यों में भी इसे लाइव दिखाकर ममता ने संकेत दे दिया कि भविष्य में उनकी नज़र कहाँ है?
दरअसल भाजपा और कांग्रेस के बाद टीएमसी को लोकसभा में दूसरी सभी पार्टियों से ज़्यादा तक़रीबन 2.49 करोड़ मत हासिल हुए। टीएमसी ने बंगाल की 42 लोकसभा सीटों समेत अन्य राज्यों की 21 सीटों पर 2019 के लोकसभा चुनाव में भाग्य आजमाया था और 22 सीटों पर क़ब्ज़ा किया। ऐसे में अगर सभी विपक्षी दल, जो कि एक तरह से मोदी से हारे हुए हैं; एकजुट हो जाते हैं, तो ममता को काफ़ी संबल मिलेगा और वह 2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी को टक्कर दे सकती हैं। यही वजह है कि ममता अब तीसरे मोर्चे को एकजुट करने की कोशिश में लगी हैं। बड़ी बात यह है कि आज जब मोदी को ललकारने वाला कोई नहीं है, तब ममता बनर्जी ने उनके ख़िलाफ़ खड़े होने की हिम्मत दिखाकर यह साबित कर दिया है कि उनके गढ़ को मोदी-शाह समेत केंद्रीय मंत्रिमंडल के अधिकतर मंत्री और भाजपा के छ: मुख्यमंत्री मिलकर भी नहीं छीन पाये; लेकिन अब ममता दिल्ली में उन्हें चुनौती देंगी। ममता बनर्जी की असली ताक़त यह है कि वह लोकसभा सीटों के लिहाज़ से देश के तीसरे सबसे बड़े राज्य बंगाल की मुख्यमंत्री हैं। बंगाल में लोकसभा की 42 सीटें हैं, जो ममता को बेहतर प्रदर्शन की सूरत में विपक्ष के ख़ेमे में मज़बूत नेता बना देती हैं। बंगाल के अलावा लोकसभा सीटों के लिहाज़ से दो और सबसे राज्य उत्तर प्रदेश और महाराष्ट्र हैं, जहाँ क्रमश: 80 और 48 सीटें हैं; जबकि बंगाल के बाद बिहार आता है, जहाँ 40 लोकसभा सीटें हैं। ममता बिहार में वरिष्ठ नेता यशवंत सिन्हा को आगे कर सकती हैं, जो केंद्र में अटल सरकार में विदेश और वित्त जैसे अहम मंत्रालय सँभाल चुके हैं।
इसमें कोई दो-राय नहीं कि बंगाल की बाहर टीएमसी का कोई उल्लेखनीय जनाधार नहीं है। हाँ, ममता बनर्जी ऐसा नाम ज़रूर है, जिसे देश के कमोबेश सभी राज्यों के लोग जानते हैं। पश्चिम बंगाल के विधानसभा चुनाव में भाजपा के पूरी ताक़त झोंक देने और प्रधानमंत्री मोदी और अमित शाह को चुनाव में मुख्य चेहरा बना देने के बावजूद जीत ममता बनर्जी की हुई, तो देश में उनके नाम का डंका भी बज गया। उनकी छवि एक बहादुर और भाजपा से टक्कर ले सकने की क़ुव्वत रखने वाली नेता की बनी। टीएमसी को पहले से भी ज़्यादा सीटें मिलीं। ममता बनर्जी देश के विपक्ष में राहुल गाँधी के बाद प्रधानमंत्री मोदी पर सीधा हमला कर सकने वाली दूसरी बड़ी नेता हैं। चाहे चुनाव हों या केंद्र सरकार के विवादित फ़ैसले, ममता ने प्रधानमंत्री मोदी पर निशाना साधने में कभी हिचक नहीं दिखायी है। मोदी को तोहफ़े के रूप में आम भेजने वाली ममता का रिश्ता राजनीतिक जीवन में मोदी से काफ़ी कड़ुवा माना जा सकता है। यह भी दिलचस्प है कि अटल बिहारी वाजपेयी की भाजपा-एनडीए सरकार में ममता बनर्जी रेल मंत्री रह चुकी हैं।
राजनीति में ममता बनर्जी का अनुभव भी उनकी ताक़त है। टीएमसी में वह एक मज़बूत रणनीति बनाने वाली नेता मानी जाती हैं। विधानसभा चुनाव से पहले पाँव में चोट लगने के मामले को जिस तरह ममता ने भुनाया, जिसकी भाजपा के पास कोई काट नहीं थी। प्रधानमंत्री मोदी के ममता बनर्जी को ‘दीदी, ओ दीदी’ कहने को उन्होंने बंगाल की एक महिला का मज़ाक उड़ाने के रूप में पेश किया और इसमें वह मोदी जैसे जनता की नब्ज़ पहचानने वाले नेता को भी मात देने में सफल रहीं। अब ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष उन्हें नरेंद्र मोदी के ख़िलाफ़ खड़ा करने की कोशिश में जुटा है। यह कोई पहला अवसर नहीं है, जब क्षेत्रीय क्षत्रप के राष्ट्रीय राजनीति में विपक्ष की धुरी बनने की बात हो रही है। उनसे पहले पश्चिम बंगाल के ही माकपा नेता ज्योति बसु सन् 1996 में प्रधानमंत्री बनने के बिल्कुल क़रीब पहुँच गये थे; लेकिन उनकी पार्टी ने उन्हें इसकी इजाज़त नहीं दी। ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष ने तब उन्हें अपना नेता स्वीकार कर लिया था। वैसे बसु सन् 1989, सन् 1996 और सन् 1997 के अलावा सन् 2004 में भी ग़ैर-कांग्रेस विपक्षी गठबन्धन की धुरी रहे।
बसु के प्रधानमंत्री न बन पाने के बाद सन् 1996 में कर्नाटक के एच.डी. देवेगौड़ा प्रधानमंत्री बने। उस समय उनकी पार्टी जनता दल को कांग्रेस (141) के बाद सबसे ज़्यादा 46 सीटें मिली थीं। इस तरह यूनाइटेड फ्रंट ने उनके नेतृत्व में सरकार बनायी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि देवगौड़ा कर्नाटक की राजनीति में बहुत बड़ा नाम थे और इससे भी आगे उनकी छवि एक साफ़-सुथरी छवि के नेता के थे।
ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष की यह सरकार तब बनी, जब अटल बिहारी वाजपेयी प्रधानमंत्री बनने के बाद लोकसभा में बहुमत सिद्ध नहीं कर पाये। उन्हें इस्तीफ़ा देना पड़ा और देवगौड़ा अचानक क्षेत्रीय क्षत्रप से प्रधानमंत्री बन गये। देवगौड़ा की सरकार गिरने के बाद सन् 1997 में इंद्र कुमार गुजराल भी देवगौड़ा की तरह अचानक ही प्रधानमंत्री बने थे।
ऐसा नहीं है कि ममता बनर्जी कोई पहली बार विपक्ष के केंद्र में दिख रही हैं। यह कहा जा सकता है कि ममता बनर्जी क़रीब एक दशक से दिल्ली की राजनीति पर नज़र रखे हैं। बहुत दिलचस्प है कि सन् 2012 में ममता ने अपने ही प्रदेश के प्रणब मुखर्जी का राष्ट्रपति पद के लिए बतौर यूपीए उम्मीदवार समर्थन न करते हुए एपीजे अब्दुल कलाम के नाम का समर्थन किया था। बहुत-से राजनीतिक जानकार मानते हैं कि ममता की इस सोच के पीछे उनका केंद्र की राजनीति में दिलचस्पी रखना था।
याद करें, लोकसभा के सन् 2019 चुनाव से पहले ममता बनर्जी कमोवेश पूरे विपक्ष को एक मंच पर जुटाने में सफल हो गयी थीं। यहाँ तक कि कांग्रेस के भी कुछ नेता उसमें शामिल हुए थे और ममता ने स्टेज संचालन तक ख़ुद किया था। यह रैली कोलकाता के ब्रिज परेड ग्राउंड में हुई थी। अब फिर ममता उसी तर्ज पर विपक्ष का एक मंच तैयार करने की कोशिश कर सकती हैं। शरद पवार से लेकर उद्धव ठाकरे तक विधानसभा चुनाव में उनकी जीत के बाद उनके जुझारूपन के क़ायल हो चुके हैं।
अब ममता ने एक बार फिर क़रीब दो साल बाद 21 जुलाई को कई राज्यों के साथ बड़ी आभासी (वर्चुअल) रैली की। कहा जा सकता है कि ममता ख़ुद के राजनीतिक फलक के विस्तार के लिए तैयार दिख रही हैं। ममता ने कहा भी कि जब तक भाजपा पूरे देश से साफ़ नहीं हो जाती है, तब तक सभी राज्यों में ‘खेला’ होगा। उन्होंने कहा- ‘हम 16 अगस्त से खेला दिवस की शुरुआत करेंगे और ग़रीब बच्चों को फुटबॉल बाँटेंगे।’ विपक्ष की राजनीति की फुटबॉल अब ममता के पाले में दिखने लगी है; भले ही यह ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष की हो।
इन सबमें सबसे ज़्यादा दिलचस्प ममता की पार्टी टीएमसी का नया नारा है। पार्टी का विधानसभा चुनाव में नारा था- ‘बंगाल अपनी बेटी चाहता है।’ और अब नया नारा राष्ट्रीय स्वाद के साथ ‘जिसे देश चाहता है।’ हो गया है।
ज़ाहिर है टीएमसी ने इस नारे के साथ अगले चुनाव में भाजपा और प्रधानमंत्री मोदी के ख़िलाफ़ ‘प्रधानमंत्री पद के दावेदार’ के रूप में अपना दावा ठोक दिया है। कांग्रेस इसमें शायद ही सहभागी बने; लेकिन यह तय है कि ममता की नज़र दिल्ली पर है। ममता की 21 जुलाई की वर्चुअल रैली का जिस तरह टीएमसी ने हर राज्य में स्थानीय भाषा के साथ अनुवाद कराया, उससे पार्टी की 2024 की तैयारी का संकेत मिलता है। टीएमसी के वरिष्ठ नेता मदन मित्रा ने साफ़ कहा कि पार्टी ने 21 जुलाई की वर्चुअल रैली के ज़रिये राष्ट्रीय राजनीति में दस्तक दे दी है।
देश के बड़े शहरों में ममता का भाषण दिखाने के लिए बड़ी-बड़ी स्क्रीन लगायी गयी थीं। इन्हें देखकर नरेंद्र मोदी के शुरुआती दिनों की याद आती है, जब सन् 2014 में भाजपा ने ऐसा ही तामझाम किया था। तो क्या माना जाए कि ममता मोदी को उनकी तर्ज पर ही टक्कर देने की तैयारी कर रही हैं? भाजपा बंगाल का चुनाव हारने के बाद जैसे दबाव में दिख रही है वैसा 2014 के बाद कभी नहीं देखा गया है।
हाल के कोरोना वायरस से निपटने के इंतज़ामों और महँगाई को रोकने में नाकामी के अलावा बेरोज़गारी और अर्थ-व्यवस्था मोदी के लिए बड़ी चुनौती बने हुए हैं। जनता में 2024 के लोकसभा चुनाव से तीन साल पहले ही अभी से नाराज़गी उभरती महसूस हो रही है। ऊपर से राफेल सौदे और पेगासस जैसे मुद्दे भी अब सामने आ गये हैं।
विपक्ष महसूस कर रहा है कि उसके पास अवसर है और अभी से की गयी तैयारी उसे सत्ता के सिंहासन तक भी पहुँचा सकती है। ऐसा नहीं है कि टीएमसी सिर्फ़ पश्चिम बंगाल तक सीमित है। पार्टी एक समय में उत्तर पूर्व के राज्यों मणिपुर, अरुणाचल और त्रिपुरा में पैठ बनाने में सफल रही थी। हालाँकि मज़बूत स्थानीय नेतृत्व के अभाव में यह स्थिति नहीं बनी रह सकी।
हालाँकि अब भी कोशिश की जाए तो टीएमसी वहाँ अपने पाँव जमा सकती है। उधर टीएमसी प्रधानमंत्री मोदी के गृह राज्य गुजरात में चुनाव लड़ चुकी है; जबकि उसने केरल में हाथ आजमाये हैं। लेकिन बंगाल चुनाव के बाद टीएमसी और ममता अचानक राष्ट्रीय फलक पर लोकप्रियता पाने में सफल रहे हैं।

भारत के ग़ैर-कांग्रेसी व ग़ैर-भाजपाई प्रधानमंत्री
 मोरारजी देसाई (जनता पार्टी) 2 साल, 126 दिन (24 मार्च, 1977 से 28 जुलाई, 1979 तक।)
 चरण सिंह (जनता पार्टी) 170 दिन (28 जुलाई, 1979 से 14 जनवरी, 1980 तक।)
 विश्वनाथ प्रताप सिंह (जनता पार्टी) 343 दिन (2 दिसंबर, 1989 से 10 नवंबर, 1990 तक।)
 चंद्रशेखर (समाजवादी जनता पार्टी) 223 दिन (10 नवंबर, 1990 से 21 जून, 1991 तक।)
 एचडी देवगौड़ा (जनता दल ‘सेक्युलर’) 324 दिन (1 जून, 1996 से 21 अप्रैल, 1997 तक।)
 इंद्र कुमार गुजराल (जनता दल) 332 दिन (21 अप्रैल, 1997 से 19 मार्च, 1998)

ग़ैर-कांग्रेसी गठबन्धन कितना सफल


वैसे तो कांग्रेस सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में हार के बाद भाजपा के लिए हास्य की चीज़ बन गयी है और विपक्ष भी उसे गम्भीरता से नहीं ले रहा; लेकिन सच यह भी है कि बिना कांग्रेस के विपक्ष मोदी और भाजपा को हराने की कल्पना नहीं कर सकता। भाजपा के अलावा कांग्रेस ही एक ऐसी राष्ट्रीय पार्टी है, जिसका पूरे देश में आधार है। बहुत-से राजनीतिक जानकार यहाँ तक कहते हैं कि कड़वा सच तो यह है कि कांग्रेस का आधार भाजपा से भी बड़ा है। भाजपा के पास सीटें हैं और कांग्रेस के पास नहीं, आज की तारीख़ में बस यही अन्तर है, जिसने भाजपा को बड़ी पार्टी बना दिया है। अन्यथा भाजपा तो कई राज्यों में है ही नहीं; जबकि देश का ऐसा कोई राज्य नहीं, जहाँ कांग्रेस को लोग न जानते हों। ऐसे में सवाल यह है कि कांग्रेस के बिना कैसे अन्य दल मोदी को चुनौती देने की कल्पना कर सकते हैं। इसका जवाब विपक्ष के एक नेता देते हैं- ‘कांग्रेस के पास नेता नहीं है। बिना नेता वह मोदी का मुक़ाबला नहीं कर सकती। जबकि ममता बनर्जी के रूप में ग़ैर-कांग्रेस विपक्ष के पास एक सशक्त चेहरा है। कांग्रेस को ममता का समर्थन करना चाहिए।’
यह बात काफ़ी हद तक सही भी है कि कांग्रेस अध्यक्ष के अभाव में कमज़ोर पड़ी है। हालाँकि राजनीति के बहुत-से जानकार मानते हैं कि यदि आने वाले समय में मोदी की लोकप्रियता और गिरी, तो जनता कांग्रेस की तरफ़ देखने लगेगी। दो बार स्थायी सरकार बनाकर शायद ही वह 2024 में तीसरे मोर्चे जैसी किसी अस्थायी सरकार पर दाँव लगाये। हाँ, यह हो सकता है कि सन् 1996 जैसी स्थिति बनने पर कांग्रेस ममता बनर्जी के नेतृत्व में तीसरे मोर्चे की सरकार को बाहर से समर्थन दे दे। यह हमेशा कहा जाता है कि ममता बनर्जी के प्रति सोनिया गाँधी का रवैया काफ़ी ज़्यादा नरम रहा है।
भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती अगले साल के विधानसभा चुनाव हैं। इसमें भाजपा की हार मोदी को काफ़ी कमज़ोर कर सकती है। यदि इनमें से कुछ राज्य कांग्रेस जीत जाती है, तो उसका दावा विपक्ष का नेतृत्व करने के प्रति मज़बूत हो जाएगा। दूसरे यह भी सम्भावना है कि तब तक कांग्रेस अध्यक्ष का मसला सुलझा लेगी और पूरी ताक़त से चुनाव की तैयारी में जुट जाएगी। ऐसे में यह देखना दिलचस्प होगा कि क्या तीसरा मोर्चा कांग्रेस का नेतृत्व को स्वीकार करके आगे बढ़ता या नहीं? लेकिन उस से पहले ममता बनर्जी और उनके सहयोगियों को तीसरे मोर्चे को ठोस स्वरूप देना होगा, जो अभी तक तो काग़ज़ों में ही है।
हाल के महीनों में शरद पवार देश की राजनीति में काफ़ी सक्रिय हुए हैं। बीच में यह चर्चा भी रही कि वह राष्ट्रपति बनना चाहते हैं। उन्हें प्रधानमंत्री पद का महत्त्वाकांक्षी भी माना जाता रहा है। हाल में प्रधानमंत्री मोदी से उनके मिलने के बाद भी राजनीतिक हलक़ों में 100 अफ़साने सामने आ गये। किसी ने कहा कि वह भाजपा से नज़दीकी बढ़ा रहे हैं, तो किसी ने कहा कि वह भाजपा से अपने राष्ट्रपति होने का आश्वासन चाहते हैं। लेकिन फिर ख़ुद शरद पवार ने इसका खण्डन कर दिया और कहा कि राष्ट्रपति उम्मीदवार बनने की उनकी तरफ़ कोई कोशिश नहीं हो रही।

 

“जब तक मोदी सरकार को सत्ता से नहीं हटा दिया जाता, हर राज्य में खेला होगा। हम 16 अगस्त को खेला दिवस मनाएँगे। आज हमारी आज़ादी ख़तरे में हैं। भाजपा ने हमारी स्वतंत्रता को ख़तरे में डाल दिया है। वे (मोदी) अपने मंत्रियों पर ही विश्वास नहीं करते हैं और एजेंसियों का दुरुपयोग कर रहे हैं। मेरे फोन की भी टेपिंग की जा रही है और इसलिए मैं किसी से बात नहीं कर पाती। मुझे पता है कि मेरा फोन टेप किया जा रहा है। विपक्ष के सारे नेता जानते हैं कि उनके फोन टेप किये जा रहे हैं। मैं राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (राकांपा) नेता शरद पवार या विपक्ष के अन्य नेताओं या मुख्यमंत्रियों से बात नहीं कर सकती; क्योंकि केंद्र हमारी जासूसी करा रहा है। लेकिन हमारी जासूसी कराने से वे 2024 के लोकसभा चुनाव में नहीं बच पाएँगे। हम देश और राज्य के लोगों को बधाई देना चाहते हैं। हम धन, बल, माफिया, ता$कत और सभी एजेंसियों के ख़िलाफ़ लड़े। सभी मुश्किलों के बावजूद हम इसलिए जीते, क्योंकि बंगाल के लोगों ने हमें मत (वोट) दिया और हमें देश और दुनिया के लोगों से आशीर्वाद मिला।”
ममता बनर्जी
मुख्यमंत्री, पश्चिम बंगाल

 

“पार्टी अब केवल बंगाल नहीं, बल्कि दूसरे राज्यों में भी चुनाव लड़ेगी। हमारे पास एक ऐसी नेता हैं, जिन्होंने बंगाल चुनाव में भाजपा की पूरी ताक़त को ध्वस्त कर दिया। पिछले सात साल में भाजपा को मिला यह सबसे बड़ा झटका था। देश टीएमसी की तरफ़ अब बड़ी उम्मीद से देख रहा है।”
अभिषेक बनर्जी
टीएमसी महासचिव

 

ममता का दिल्ली दौरा
बंगाल जीत के बाद ममता बनर्जी ने पहला बड़ा पाँच दिवसीय दिल्ली दौरा 26 जुलाई से शुरू किया। इस दौरान वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, राकांपा अध्यक्ष शरद पवार और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल समेत विपक्षी दलों के कई नेताओं से मिलीं। 27 जुलाई को प्रधानमंत्री से पहले उन्होंने हवाला कांड का ख़ुलासा करने वाले पत्रकार विनीत नारायण, राजनीतिक सलाहकार प्रशांत किशोर एवं कांग्रेस नेता कमलनाथ से मुलाक़ात की। प्रधानमंत्री से मुलाक़ात के बाद ममता ने बताया कि हमने प्रधानमंत्री से कोरोना महामारी पर चर्चा की और अपने राज्य के लिए जनसंख्या के हिसाब से कोरोना-टीकों एवं पेगासस जासूसी मामले में सर्वदलीय बैठक बुलाने की माँग की। इसके बाद 28 जुलाई को ममता सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी से मिलीं। उन्होंने कहा कि गाँधी परिवार से मुलाक़ात सकारात्मक रही। विपक्षी एकता, पेगासस और मौज़ूदा राजनीतिक हालात पर चर्चा हुई। भाजपा को हराने के लिए एकजुट होना पड़ेगा। इसके बाद केजरीवाल ने ममता से उनके भतीजे अभिषेक बनर्जी के आवास पर मुलाक़ात की। ममता की इन नेताओं से मुलाक़ात से तय माना जा रहा है कि तीसरे मोर्चे का गठन होगा।
बता दें कि दिल्ली के पाँच दिवसीय दौरे पर रवाना होने से पहले ममता बनर्जी ने अपने मंत्रिमंडल की बैठक बुलायी थी। ममता के दिल्ली दौरे से पहले कांग्रेस के राज्यसभा सांसद प्रदीप भट्टाचार्य ने कहा कि कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी के नेतृत्व में सभी विपक्षी दलों को एकजुट होना चाहिए। इसके लिए पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी द्वारा निमंत्रण दे दिया गया है। अलोकतांत्रिक ताक़तों के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए सोनिया गाँधी ने अतीत में भी कई बैठकें बुलायी हैं।

सुरक्षा बलों के जवान असुरक्षित?

जवानों के नौकरी छोडऩे और आत्महत्या के मामले बढऩे से उठ रहे कई सवाल

पिछले पाँच साल में देश में केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) और असम राइफल्स (एआर) के 40,096 जवानों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआर) माँगी है। इस अवधि के दौरान ही 6,529 अन्य जवानों ने नौकरी से इस्तीफ़ा दे दिया। ये आँकड़े चौंकाने वाले हैं। जिस देश में सुरक्षा बल या सेना में जाने को युवा गौरव की बात और सबसे बेहतर रोज़गार मानते हैं, वहाँ नौकरी हासिल करने के बाद इतने बड़े पैमाने पर उसे छोड़ देने के आख़िर क्या कारण हैं? अभी तक जो चीज़ें सामने आयी हैं, उनमें पदोन्नति, छुट्टी और उच्च अधिकारियों का ख़राब व्यवहार से लेकर अन्य कई कारण शामिल हैं। सबसे चिन्ताजनक बात यह है कि ऐसे ही अवसादों के चलते पिछले छ: साल में देश के 750 से ज़्यादा रणबांकुरों ने आत्महत्या कर ली।
बड़ी हैरानी की बात है कि देश के लिए अपनी जान क़ुर्बान करने वाले जवानों के इस स्तर पर आत्महत्या करने या इतने बड़े पैमाने पर उनके नौकरी छोडऩे को लेकर सरकार ने विशेष अध्ययन करने की ज़हमत ही नहीं उठायी। यही कारण है कि यह सिलसिला चलता जा रहा है। इसी साल मार्च में राज्यसभा में सरकार से यह सवाल पूछे गये कि जवानों के स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने या इस्तीफ़ा देने की क्या वजह है? क्या सरकार ने इसके लिए कभी कोई अध्ययन किया है? तो गृह राज्य मंत्री ने जवाब दिया कि कारण जानने के लिए कोई विशिष्ट अध्ययन नहीं किया गया।
सेवानिवृत्त सुरक्षा बलों की गठित कॉन्फेडरेशन ऑफ एक्स पैरामिलिट्री फोर्स वेलफेयर एसोसिएशन ने एक सर्वे किया, जिसमें बड़े पैमाने पर जवानों से बातचीत करके इसके कारण जानने की कोशिश की गयी। इसकी कॉपी सरकार को भी भेजी गयी थी, ताकि इन समस्यायों का निराकरण किया जा सके। इसमें कोई दो-राय नहीं कि देश के जवानों का हौसला कम नहीं और सीमा पर दुश्मन के दाँत खट्टे करने में उन्हें महारत हासिल है।
लेकिन जब बात अपने व्यक्तिगत जीवन की आती है, तो सरकार और अधिकारियों की बेरुख़ी के कारण उनका हौसला टूट जाता है। एसोसिएशन के महासचिव रणबीर सिंह कहते हैं कि यह हैरानी की बात है कि बिना दुश्मन से किसी युद्ध में लड़े छ: साल में देश के 700 जवानों ने अपनी जान दे दी। इससे ज़्यादा शर्मनाक बात किसी देश के लिए कोई हो ही नहीं सकती। सिंह कहते हैं कि यह विभिन्न आंतरिक दबावों का नतीजा है और इसे वह मानवाधिकारों के उल्लंघन की सबसे बड़ी मिसाल मानते हैं। उनके मुताबिक, केंद्रीय अर्धसैनिक बलों में ड्यूटी के अनुरूप वेतन नहीं मिल पा रहा है और तरक़्क़ी के अवसर नाम मात्र के ही हैं। इसके अलावा उच्च अधिकारियों का व्यवहार भी जवानों के साथ कई मामलों में सम्मानजनक नहीं रहता।
बता दें कि, केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बल (सीएपीएफ) में सात सुरक्षा बल आते हैं, जिनमें सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ), केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), इंडो-तिब्बत बॉर्डर पुलिस (आईटीबीपी), सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) और असम रायफल्स (एआर) शामिल हैं, जो केंद्रीय गृह मंत्रालय के तहत हैं। गृह मंत्रालय ने मार्च में राज्यसभा में जो आँकड़े प्रस्तुत किये थे, उनसे मामले की गम्भीरता की झलक मिलती है। राज्यसभा में रखे गये गृह मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, पिछले पाँच साल में सबसे ज़्यादा बीएसएफ के 20,249 जवानों, सीआरपीएफ के 11,029, सीआईएसएफ के 2,885, असम रायफल्स के 2,279, आईटीबीपी के 1,912 और एसएसबी के 1,769 जवानों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति माँगी है। नौकरी से इस्तीफ दे देने वाले जवानों का आँकड़ा अलग से है।
गृह मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, पिछले एक दशक में 81,000 से ज़्यादा जवानों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआर) का रास्ता चुना। वर्ष 2017 में ही 11,000 से ज़्यादा जवानों ने स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति रास्ता अपनाया। सन् 2011 से सन् 2020 की अवधि में 15,904 सैन्यकर्मियों ने इस्तीफ़ा भी दिया। वर्ष 2013 में सबसे ज़्यादा 2,332 लोगों ने इस्तीफ़ा दिया था। यह सभी आँकड़े सीआरपीएफ, बीएसएफ, इंडो-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) और असम राइफल्स से सम्बन्धित हैं। कॉन्फेडरेशन ऑफ एक्स पैरामिलिट्री फोर्स वेलफेयर एसोसिएशन के महासचिव रणबीर सिंह आरोप लगाते हैं कि पद के नाम पर बड़े पैमाने पर भेदभाव है, जो जवानों में हीन भावना पैदा करता है। इन्हीं कारणों से जवानों का मनोबल निचले स्तर पर है। अपनी शिकायतें रखने के लिए जवानों के पास सेना सभा जैसा प्लेटफॉर्म है।
एक सेवानिवृत्त जवान ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ को बताया कि निचले स्तर के कर्मचारी मुसीबतें झेलते हुए भी अफ़सरों का ख़ौफ़ के कारण अपनी बात कहने से डरते हैं कि पता नहीं इस पर वे कैसी प्रतिक्रिया देंगे। सभी अफ़सर ख़राब नहीं होते; लेकिन ज़्यादातर सैनिकों की भावनाओं की क़द्र नहीं करते। वैसे मंत्रालय अर्धसैनिक बलों से अलग होने वाले जवानों को लेकर कारण तो नहीं बताता, लेकिन यह ज़रूर कहता है कि इन बलों पर किये आंतरिक विश्लेषण में पाया गया कि ज़्यादातर जवान निजी या पारिवारिक मसलों, स्वास्थ्य सम्बन्धी परेशानी या बेहतर करियर विकल्प के चलते स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति या इस्तीफ़ा का रास्ता चुनते हैं। जानकारी के मुताबिक, इसी साल सीआरपीएफ में क़रीब 3,500 अफ़सरों को सन् 1998 से लेकर अब तक के राशन मनी भत्ते का एरियर दिया गया था, जो अधिकतम पाँच लाख रुपये के क़रीब था। हालाँकि जानकारों के मुताबिक, यह एरियर सिपाही से इंस्पेक्टर तक के रैंक के कर्मियों को नहीं मिला, जिसे लेकर उनमें नाराज़गी रही।
उधर एसोसिएशन के महासचिव रणबीर सिंह इस्तीफ़ों और वीआर से लेकर आत्महत्या तक के अपने सर्वे में सामने आये कारणों को लेकर कहते हैं- ‘कई कारण हैं, जिनमें पदोन्नति के अवसर कम होना, नियुक्तियों की ग़लत नीति, ज़रूरत और वक़्त पर छुट्टी न मिल पाना, उच्च अधिकारियों का अमानवीय व्यवहार, परिवार से लम्बे समय तक दूरी रहना, ज़िन्दगी में दबाव बनना, संवैधानिक मौलिक अधिकारों का हनन, कैम्पस में एक तरह से बँधुआ मज़दूर जैसी ज़िन्दगी हो जाना, अंग्रेजों के ज़माने के बने नियमों का हवाला देकर उच्च अधिकारियों द्वारा जवानों का अनुशासन के नाम पर भावनात्मक शोषण प्रमुख हैं।’
यदि केंद्रीय गृह मंत्रालय के आँकड़ों पर नज़र दौड़ायी जाए, तो पता चलता है कि पिछले पाँच साल में सीएपीएफ और असम राइफल्स के 40,096 जवानों ने जहाँ स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति माँगी, वहीं इस अवधि में 6,529 अन्य जवानों ने तो इस्तीफ़ा ही दे दिया। आधे से अधिक स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति (वीआरएस) अकेले सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) के कर्मियों ने माँगी। केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ) के जवानों में इस्तीफ़े देने के मामले सबसे ज़्यादा हैं। गृह राज्य मंत्री नित्यानंद राय ने पिछले पाँच वर्षों के दौरान सीएपीएफ और असम राइफल्स के कर्मियों द्वारा माँगे गये इस्तीफ़े और स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति के बारे में पूछे गये सवालों के जवाब में सन् 2016 से सन् 2020 तक के आँकड़े प्रस्तुत किये थे।

10 साल में स्वैच्छिक सेवानिवृत्ति लेने वाले जवान     

बीएसएफ 36,768                                                                                                 सीआरपीएफ 26,264
सीआइएसएफ 6,705
असम राइफल्स 4,947
एसएसबी 3,230
आईटीबीपी 3,193

इस्तीफ़ा देने वाले जवान
सीआईएसएफ 5,848
बीएसएफ 3837
सीआरपीएफ 3,366
आईटीबीपी 1,648
एसएसबी 1,031
असम राइफल्स 174

आत्महत्या के मामले
केंद्र सरकार के लोकसभा में इसी साल दिये गये आँकड़ों के मुताबिक, 2014 के बाद से अब तक (मार्च, 2021) सशस्त्र बलों में 787 लोगों ने आत्महत्या की है। इनमें सबसे अधिक 591 आत्महत्याएँ सेना में हुईं। उस समय रक्षा राज्यमंत्री श्रीपद नाइक ने एक लिखित जवाब में बताया कि इस अवधि में नौसेना में 36, वायुसेना में 160 सैनिकों ने आत्महत्या की। नाइक ने बताया कि सशस्त्र बलों ने सैनिकों के मानसिक स्वास्थ्य सम्बन्धी मुद्दों से निपटने के लिए कई क़दम उठाये हैं, ताकि आत्महत्याएँ कम हों। देश में 13 मनोरोग केंद्र स्थापित किये। वायुसेना ने मिशन ज़िन्दगी अभियान शुरू किया है। नाइक ने राज्यसभा में बताया कि सशस्त्र बलों में कोरोना के कुल 44766 मामले दर्ज हुए, जिनमें 119 सैनिकों की मौत हुई। राज्यसभा में एक लिखित जवाब में उन्होंने कहा कि इस अवधि में भारतीय वायुसेना में 160 और नौसेना में 36 जवानों ने आत्महत्या कर ली। सरकार का कहना है कि सशस्त्र बलों ने सैनिकों के तनाव प्रबन्धन के उपाय किये हैं। लेकिन स्पष्ट रूप से बहुत कुछ किये जाने की आवश्यकता है। सरकार के मुताबिक, उसने सैनिकों के बीच तनाव को दूर करने की दिशा में कई ठोस क़दम उठाये हैं। इनमें राज्यों में ट्रेंड साइकोलॉजिकल काउंसलर की तैनाती, सैनिकों के लिए भोजन और कपड़ों की गुणवत्ता में सुधार, तनाव प्रबन्धन में प्रशिक्षण, मनोरंजक सुविधाओं का प्रावधान, बड़ी प्रणाली, रियायतें छोडऩा, सीमावर्ती क्षेत्रों से सैनिकों की आवाजाही की सुविधा और एक शिकायत तंत्र स्थापित करना शामिल है। इसके अलावा कमांडर विभिन्न स्तरों पर तनाव और तनाव के मुद्दों से व्यापक तरीक़े से निपट रहे हैं। सरकार का दावा है कि सेना में बहुस्तरीय रणनीति के हिस्से के रूप में विशिष्ट उपाय किये गये हैं, जिसमें स्ट्रेस मैनेजमेंट सेशन साइकाइट्रिक काउंसलिंग और इस विषय पर कमांडरों की संवेदनशीलता शामिल हैं। हालाँकि सेवानिवृत्त सुरक्षा बलों की गठित कॉन्फेडरेशन ऑफ एक्स पैरामिलिट्री फोर्स वेलफेयर एसोसिएशन के महासचिव रणबीर सिंह कहते हैं कि सरकार के प्रयास बहुत कमज़ोर हैं। उनके मुताबिक, ज़मीनी हक़ीक़त बहुत विपरीत और ख़राब है और जब तक सरकार मूल मुद्दों को नहीं निपटाती, समस्या का हल नहीं निकल सकता।

किसानों पर पैनी नज़र

लगता है कि तीन नये कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ तक़रीबन साढ़े आठ महीने से दिल्ली की सीमाओं पर बैठे किसानों को अब केंद्र सरकार किसी भी हाल में उखाड़ फेंकना चाहती है। क्योंकि अब कोई भी किसानों वाली टोपी, उनके पहनावे या उनके झण्डे को लेकर दिल्ली में नहीं चल पा रहा है। दिल्ली में किसान या उनके अंदाज़ में चलने वाले लोगों से पुलिस अराजक तत्त्वों की तरह गहन पूछताछ कर रही है। बैनर, झण्डा, टोपी हटवा रही है और पहनावे पर ऐतराज़ कर रही है। इस बात की पुष्टि किसानों के दिल्ली घेराव को लेकर ‘तहलका’ की पड़ताल में हुई। पुलिस द्वारा एक वाहन पर से किसान झण्डा उतारने की हरकत को जब मैंने कैमरे में क़ैद करने की कोशिश की, तो पुलिस ने मुझे भी झड़प दिया।
बता दें कि इन दिनों किसान अपनी माँगों को लेकर अपनी आवाज़ केंद्र सरकार तक पहुँचाने की कोशिश में दिल्ली में ‘किसान संसद का अयोजन कर रहे हैं, जिस पर केंद्र सरकार को आपत्ति है।
दरअसल संसद के मानसून सत्र में किसान केंद्र सरकार तक अपनी आवाज़ पहुँचाना चाहते हैं। इसके पीछे किसानों का मक़सद सरकार को एक बार फिर अपनी समस्याओं से अवगत कराना और कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए मजबूर करना है। लेकिन किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए दुश्मन देश की सीमाओं पर तैनात सुरक्षा बलों की तरह दिल्ली में तैनात दिल्ली पुलिस और सीआरपीएफ के जवान तैनात हैं और किसानों को दिल्ली में घुसने से रोक रहे हैं। जंतर-मंतर पर बहुत कम किसानों को पुलिस घेरेबंदी में दिल्ली सरकार की अनुमति के बाद आने दिया गया है, जबकि दिल्ली की सभी सीमाओं पर पुलिस बल तैनात कर दिया गया है। किसानों को दिल्ली सरकार की ओर से जंतर-मंतर पर धरना देने की अनुमति 22 जुलाई से लेकर 9 अगस्त है।
हैरानी यह है कि आज़ादी के बाद देश का यह सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसमें बात सिर्फ़ इतनी-सी है कि जिन किसानों के लिए सरकार तीन क़ानून ला चुकी है, जिन्हें फ़िलहाल कुछ महीनों के लिए रोक दिया गया है; किसान उन क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं और सरकार उन्हें वापस नहीं ले रही है। जबकि देश और दुनिया के करोड़ों लोग और दर्ज़नों राजनीतिक दल किसानों के पक्ष में हैं। सिंघु बॉर्डर पर बैठे किसानों का कहना है कि ये सब हथकंडे किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए सरकार अपना रही है; लेकिन इससे सरकार को कुछ हासिल नहीं होगा।
केंद्र सरकार अब वेशभूषा के आधार पर किसानों को तंग कर रही है, जो कि ग़लत और दु:खद है। इससे देश के किसानों की पहचान को छीना जा रहा है। क्या किसान आतंकवादी हैं या कोई विदेशी पहनावा पहन रहे हैं? इसे देश के किसानों और उनकी व देश की सदियों पुरानी परम्परा पर हमला ही माना जाएगा। लेकिन किसानों को दिल्ली में घुसने से रोकने के लिए दिल्ली पुलिस ने पिछले साल से जगह-जगह वैरिकेट लगा रखे हैं, जिनसे सड़कों पर जाम लगता है। कई किसानों पर मुक़दमे दर्ज किये जा चुके हैं, एफआईआर दर्ज की जा चुकी है। लाल क़िले की घटना को लेकर भी कई किसानों पर मुक़दमा चलाने को लेकर दिल्ली सरकार और केंद्र सरकार के बीच काफ़ी सरगर्मियाँ बढ़ी हुई हैं। इस मामले में दिल्ली पुलिस मुक़दमे की पैरवी के लिए अपने वकीलों का पैनल रखना चाहती है, जिसे दिल्ली सरकार ने ख़ारिज करके अपने सरकारी वकीलों के पैनल की सूची बनाकर दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल ने पास भेजी, जिसे उप राज्यपाल ने ख़ारिज कर फिर से पुलिस के वकीलों के पैनल की सूची पास कर दी, जिसे दिल्ली सरकार ने फिर से ख़ारिज कर दिया। लेकिन एक बार फिर उप राज्यपाल ने दिल्ली सरकार के पैनल ख़ारिज कर दिया है।
दरअसल पुलिस और न्याय दो अलग-अलग पहलू हैं और दोनों को एक-दूसरे के काम में दख़ल देने का अधिकार नहीं है। दिल्ली सरकार को यह अधिकार है कि वह दिल्ली में घटी किसी अराजक घटना या झगड़े के निपटान के लिए मुक़दमे की स्थिति में अपनी ओर से वकीलों का पैनल बनाकर अदालत में निष्पक्ष न्याय की गुहार लगाये। उप राज्यपाल को यह अधिकार तब है, जब मामला दिल्ली सरकार से नहीं सुलझ रहा हो। यहाँ ऐसी कोई बात ही नहीं है। यही बात क़ानून के कई जानकार कह रहे हैं और सामाजिक कार्यकर्ता व नेता योगेंद्र यादव ने भी एक टीवी चैनल पर कही।
किसान नेता व अधिवक्ता चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि लोकतंत्र संविधान से चलता है; लेकिन केंद्र की मोदी सरकार संविधान को दरकिनार करके चल रही है। जब सर्वोच्च न्यायालय का कहना है कि लोकतांत्रिक देश में किसी को भी शान्तिपूर्वक आन्दोलन करने, अपनी आवाज़ उठाने से नहीं रोका जा सकता, तो फिर सरकार संविधान, क़ानून और सर्वोच्च न्यायालय के आदेशों को कैसे ठुकरा सकती है? किसानों को दिल्ली में आने से रोका जा रहा है। उनके पहनावे, झण्डे पर प्रतिबन्ध जैसा लग रहा है। किसान वेशभूषा में दिल्ली में दाख़िल हो रहे लोगों से पुलिस ऐसे पूछताछ कर रही है, जैसे वे अपराधी हों।
चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने बताया कि अगर कोई अपनी कार में धार्मिक झण्डा भी लगाये है, तो पुलिस उसकी कार रोककर झण्डा को उतरवाकर उससे लम्बी पूछताछ करने के बाद ही छोड़ रही है। उनका कहना है कि देश में ऐसे हालात तो किसी ने नहीं देखे, जो आज देश के अन्नदाता को देखने पड़ रहे हैं। सरकार की तानाशाही का अंदाज़ा इस बात से लगाया जा सकता है कि अभी तक क़रीब 650 किसान आन्दोलन के दौरान दम तोड़ चुके हैं, जो काग़ज़ों में हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान आन्दोलन में इससे ज़्यादा किसानों की मौत हो चुकी है। एक आन्दोलन में इतनी बड़ी संख्या में मौतों पर केंद्र सरकार ने संवेदना तक व्यक्त नहीं की, जबकि एक क्रिकेटर की उँगली में चोट को लेकर प्रधानमंत्री को इतना दु:ख होता है कि उसे ट्विटर पर जताते हैं। इसका मतलब सरकार सत्ता के नशे में चूर है और लोकतंत्र की सारी मर्यादाओं को तार-तार कर रही है; लोकतांत्रिक प्रणाली का हनन कर रही है।


वहीं भाकियू प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत का कहना है कि जब सारा विपक्ष कह रहा है कि किसानों की समस्याओं का समाधान करना चाहिए, तो सरकार ज़िद पर क्यों अड़ी है? सरकार अपनी नाकामियों को छिपाने के लिए किसान आन्दोलन को बदनाम करने की असफल को कोशिश कर रही है। क्योंकि वह हर कार्यक्षेत्र में असफल हो चुकी है और इसीलिए किसानों पर तमाम तरह की पाबंदियाँ लगा रही है। डरा-धमका रही है, आन्दोलन करने से रोक रही है। लेकिन किसान अब बिना क़ानून वापस कराये घर लौटने के नहीं। और दिल्ली में तो क्या, किसी भी राज्य में किसानों को जाने से सरकार नहीं रोक सकती। देश की जनता महँगाई, बेरोज़गारी से परेशान है। लेकिन सरकार का ध्यान इस ओर नहीं है। उसने सिर्फ़ किसानों को उसने अपना दुश्मन मान रखा है, जो कि अपनी खेती और देश की रोटी बचाने के लिए आज बेघरों की तरह सड़कों पर बैठा है।
राकेश टिकैत ने साफ़ कह दिया बता दें है कि अब किसान आन्दोलन 35 महीने तक चलेगा। राकेश टिकैत के इस अवधि तक आन्दोलन चलाने का मतलब 2024 तक का है, जो कि लोकसभा चुनाव में मौज़ूदा सरकार को हराने से सम्बन्धित हो सकता है। बता दें कि संसद के मानसून सत्र के दौरान दिल्ली को घेरने को लेकर किसानों के प्रयास को नाकाम करने की कोशिश में किसानों पर इन दिनों कड़ी पुलिस निगरानी है।
एमबीए तक पढ़े-लिखे किसान प्रदीप कुमार ने कहा कि पीड़ा इस बात की है कि 26 जनवरी से लेकर अब तक सरकार ने किसानों पर तरह-तरह के लांछन लगाये, उन्हें सत्ताधारी नेताओं और उनके लोगों ने आतंकवादी, ख़ालिस्तानी कहा। किसानों पर अत्याचार किये। सिंघु बॉर्डर पर किसानों द्वारा रहने के लिए ट्रालियों में बनाये गये अस्थायी निवासों में अराजक तत्त्वों ने आग लगा दी। लेकिन किसानों ने न तो हिंसा की और न ही अपना धैर्य खोकर कभी कोई हरकत की। क्योंकि किसान देश और संविधान का सम्मान करते हैं और कभी भी क़ानून अपने हाथ में नहीं लेते, न लेंगे।


कुछ दिन पहले भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) के अध्यक्ष नरेश टिकैत ने दावा किया था कि उनके पास गुप्त सूचना है, जिसके मुताबिक संयुक्त किसान मोर्चा के 40 किसान प्रधानमंत्री कार्यालय के निशाने पर हैं। किसान आन्दोलन के आठ महीने पूरे होने पर किसान एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होने लगे हैं। ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर आने वाले किसानों की अगुवाई के लिए एक फिर भाकियू अध्यक्ष नरेश टिकैत कर रहे हैं। उन्होंने साफ़ कहा कि अब किसान भाजपा को देश का किसान कभी मक (वोट) नहीं देगा; क्योंकि इस सरकार ने किसानों को बहुत रुलाया है। अब देखना यह है कि किसान आन्दोलन किस ओर जाएगा और सरकार को कृषि क़ानूनों पर कब तक झुका पाएँगे।

 

 

बच्चे की गिरफ़्तारी
इस किसान आन्दोलन में पुलिस की ज़्यादतियाँ कम नहीं हैं; लेकिन एक 11 साल के किसान पुत्र को गिरफ़्तार करना पुलिस के चाल-चरित्र पर सन्देह पैदा करता है। सिरसा में पाँच किसानों की रिहाई को लेकर आन्दोलन में भाग लेने वाले किसान पुत्र को पुलिस ने गिरफ़्तार करके अंग्रेजों की पुलिस से क्रूरतम चेहरा दिखाया। गिरफ़्तारी के बाद बच्चे ने कहा- ‘चाहे मेरी मौत हो जाए, पर किसान सिंघु बॉर्डर पर आन्दोलन नहीं रुकना चाहिए। किसानों के अधिकारों के ख़ातिर और अपनी माँगों के लिए मैं अपनी जान की चिन्ता नहीं करूँगा।’ इससे किसानों और किसान समर्थकों और निष्पक्ष लोगों का ग़ुस्सा सोशल मीडिया पर फूट पड़ा। घटनास्थल पर मौज़ूद किसान भोला सिंह और किसान हरगोविन्द ने बताया कि पुलिस भले ही परेशान कर ले, चाहे देशद्रोह का मुक़दमा दर्ज कर ले या अन्य धाराएँ लगा दे; लेकिन किसानों का आन्दोलन तीनों कृषि क़ानूनों की वापस तक ख़त्म नहीं होगा। अब किसान आन्दोलन एक नये मोड़ पर है, जहाँ किसान और सरकार के बीच विकट तनाव की स्थिति बनी हुई है।

भारतीयों में बढ़ रहा मानसिक तनाव

 कोरोना-काल में तनाव के शिकार लोगों की संख्या तेज़ी से बढ़ रही है
 तनाव के चलते आत्महत्या, हत्या या इस तरह के प्रयास कर रहे लोग

इसी साल जून के आख़िर में मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान के एक सुरक्षा कांस्टेबल ने सरकारी रिवॉल्वर से गोली मारकर आत्महत्या कर ली। इसके एक-दो दिन बाद डॉक्टर्स-डे पर महाराष्ट्र के पुणे में एक डॉक्टर दम्पति ने आत्महत्या कर ली। अभी जुलाई के तीसरे सप्ताह में उत्तर प्रदेश की अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के सर सुलेमान हॉल में एक विद्यार्थी ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली।
इससे पहले कुछ दिन पहले नोएडा (उत्तर प्रदेश) के थाना बिसरख क्षेत्र के गौर सिटी-2 में रहने वाले इंजीनियर अनूप सिंह ने फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली। आत्महत्या का कारण यूपीएससी परीक्षा पास नहीं कर पाना बताया गया। रायबरेली निवासी अनूप सिंह आईटी कम्पनी में इंजीनियर थे और यूपीएससी परीक्षा की तैयारी कर रहे थे। अनूप की इच्छा थी कि वह आईएएस अधिकारी बनें; क्योंकि उनके बड़े भाई भी आईएएस अधिकारी हैं। अनूप ने एक सुसाइड नोट में लिखा है कि आईएएस की परीक्षा पास न कर पाने के चलते वह आत्महत्या कर रहे हैं।
इससे पहले इसी साल मई में दिल्ली के साकेत स्थित मैक्स अस्पताल में विवेक राय नामक डॉक्टर ने अपने घर पर फाँसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी। डॉक्टर विवेक के बारे में कथित तौर पर कहा गया कि वह लगातार आईसीयू में रहने के चलते तनाव में थे। मई के महीने में ही नोएडा के सेक्टर-22 में एक महिला डॉक्टर ने अपने पिता की लाइसेंसी रिवॉल्वर से ख़ुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली थी।
इसके अलावा नोएडा में एक प्राइवेट अस्पताल में सेवाएं दे रहे असम के डॉक्टर पल्लव सहरिया ने दिल्ली के जीटीबी अस्पताल में कार्यरत अपनी पत्नी के पास आकर आठवीं मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली।
10 जुलाई को ग्रेटर नोएडा की गौर सिटी में रहने वाली एक महिला डॉक्टर ने अपनी बिल्डिंग की 14वीं मंज़िल से कूदकर आत्महत्या कर ली।
इन सबमें एक बात आम थी, वह यह कि ये सभी किसी-न-किसी तरह के तनाव में ही थे।
समझने वाली बात यह है कि जब कोरोना महामारी के संक्रमण और उससे मरते-तड़पते लोगों को देखकर डॉक्टर इतने तनाव में चले गये, तो दूसरे लोगों को कितना तनाव हुआ होगा? पिछले साल से ऐसी ख़बरें भी सामने आयीं, जिनके मुताबिक कई लोगों ने तनाव के चलते अपने ही परिजनों की हत्या कर दी।
साल 2020 और 2021 में ऐसी कई रिपोट्र्स मीडिया में आयीं, जिनमें कई लोगों द्वारा आत्महत्या, हत्या और हत्या के प्रयास के मामले उजागर हुए। देश का कोई भी राज्य ऐसा नहीं बचा, जहाँ कोरोना-काल में आत्महत्या, हत्या या हत्या के प्रयास न हुए हों। कई जगह तो परिवार के परिवार तनाव में आत्महत्या जैसा क़दम उठा बैठे।
मनोचिकित्सकों का कहना है कि कोरोना वायरस का संक्रमण जब फैलना शुरू हुआ तो एक समय वह भी आया, जब अस्पतालों में कोरोना के रोगियों के इलाज के लिए जगह नहीं थी, बेतादाद मौतें हो रही थीं, हर तरफ़ कोरोना वायरस के फैलने और उससे मरने वालों की ख़बरें थीं, जिससे लोगों में एक डर घर कर गया था, जो अभी तक नहीं निकला है।
इस तनाव के दौर में लॉकडाउन भी लगा, जिससे लोग घरों में क़ैद हो गये। इस बीच अगर किसी की नौकरी चली गयी, व्यवसाय ठप हो गया या आय कम हो गयी; तो वह और भी परेशान हो गया और ऐसे ही लोगों में अनेक लोग आत्महत्या, हत्या जैसे क़दम उठा बैठे। कोरोना-काल में बहुत लोगों के तनाव में चले जाने की भी ख़बरें मीडिया में देखने-पढऩे को मिलीं।
सामान्य रूप से अधिकतर आत्महत्या, हत्या या इस तरह के प्रयासों के पीछे घरों में क़ैद हो जाना, आमदनी का कम होना या नौकरी छूट जाना या व्यवसाय का ठप हो जाना या नौकरी न मिलना, ख़ुद के या किसी परिजन के कोरोना महामारी से जूझने या संक्रमण से मर जाने का दु:ख आदि मुख्य कारण रहे।

कोरोना-काल में मानसिक परेशानी बढ़ी


दिल्ली के बड़े सरकारी मानसिक अस्पताल ‘मानव व्यवहार और सम्बद्ध विज्ञान संस्थान’ (इहबास) के निदेशक मनोचिकित्सक डॉक्टर निमेश जी. देसाई ने बताया कि मानसिक परेशानी एक चीज़ है और मानसिक रोग दूसरी चीज़ है।
उन्होंने कहा कि मैं ‘तहलका’ के माध्यम से लोगों को यह भी बताना चाहता हूँ कि वे हर मानसिक परेशानी को मानसिक रोग न समझें और न डरें। तो यह जो एक बुनियादी फ़र्क़ है, वह इस सन्दर्भ में ज़यादा मायने रखता है कि कोरोना-काल में मानसिक तकलीफ़ या मानसिक परेशानी ज़रूर बढ़ी है। लेकिन मानसिक रोगियों की संख्या बढ़ी हो, अभी तक ऐसी कोई रिपोर्ट सामने नहीं आयी है।
ऐसे में पहले से इलाज करा रहे रोगियों में तनाव बढ़ा हो, यह एक अलग सम्भावना है।
दूसरा, कोरोना वायरस फैलने से पहले जो मानसिक रोगी नहीं पहचाने गये, वे बाहर आये। इसी तरह के और भी एक-दो कारण हैं, जिनसे ऐसा आभास होता है कि मानसिक रोगी बढ़ रहे हैं। लेकिन यह स्पष्ट करना ज़रूरी है कि जितने मानसिक रोगी नहीं बढ़ रहे हैं, जितने मानसिक परेशानी वाले लोग बढ़ रहे हैं। इसमें महामारी के दौरान आर्थिक परेशानी के चलते लोगों में मानसिक तनाव बढ़ा है। ऐसे में ज़रूरी है कि जिसे भी मानसिक परेशानी हो, उसके परिजन उसका ध्यान रखें।
अच्छा यह है कि सब लोग कोरोना महामारी में एक-दूसरे का ध्यान रखें और कभी किसी को नया या पुराना मानसिक रोग हो, तो उसका इलाज कराएँ।
हमारे पास भी थोड़े ऐसे रोगी आने लगे हैं। लेकिन क्या है कि उनके पहले से ही थोड़ी-बहुत परेशानी थी। आम रूप से बहुत-से लोग अपना ख़ुद ध्यान रख रहे हैं। यह अच्छा है, और लोग ऐसा कर भी सकते हैं; यह हमारा विश्वास है।

क्या मानसिक रोगियों की संख्या भी बढ़ी?
भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद (आईसीएमआर) और पब्लिक हेल्थ फाउंडेशन ऑफ इंडिया (पीएचएफआई) की 2019 की एक रिपोर्ट बताती है कि इस साल तक देश में क़रीब 19.73 करोड़ लोग मानसिक विकारों से ग्रस्त थे। कोरोना वायरस की पहली लहर में क़रीब सात महीने में क़रीब एक लाख 14 हज़ार 682 लोगों की मौत हुई थी, जबकि दूसरी और घातक लहर में 25 अप्रैल, 2021 से 25 मई, 2021 के बीच मात्र एक महीने में एक लाख 14 हज़ार 860 लोगों की मौत हुई। इसमें अवसाद से मौत के आँकड़े भी काफ़ी हैं।
सिटीजन इंगेजमेंट प्लेटफॉर्म लोकल सर्किल्स ने अपनी एक सर्वे रिपोर्ट में ख़ुलासा किया है कि कोरोना-काल में 61 फ़ीसदी भारतीय मानसिक तनाव की जकड़ में हैं। एक अन्य सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि कोरोना-काल में मानसिक तनाव वाले मामलों और मानसिक रोगियों की संख्या में कोरोना महामारी के संक्रमण फैलने के बाद तेज़ी से इज़ाफ़ा हुआ है।

कम बजट
एक रिपोर्ट बताती है कि विकसित देश मानसिक स्वास्थ्य पर अपने स्वास्थ्य बजट का क़रीब पाँच फ़ीसदी ख़र्च करते हैं, जबकि भारत में इस बजट के आँकड़े न्यूनतम हैं। भारत सरकार ने वित्त वर्ष 2017-18 में नेशनल मेंटल हेल्थ प्रोग्राम (एनएमएचपी) के लिए कुल 35 करोड़ रुपये ही बजट दिया। इसके बाद वित्त वर्ष 2018-19 में इसमें 15 हज़ार की बढ़ोतरी करके इसे 50 करोड़ रुपये कर दिया गया। लेकिन इसके बाद वित्त वर्ष 2019-20 में इस बजट को फिर घटाकर 40 करोड़ कर दिया गया। वित्त वर्ष 2020-21 में भी इस बजट में कोई बढ़ोतरी नहीं की गयी।

लम्बे समय तक भर्ती रहते हैं तमाम मानसिक रोगी
मानसिक रोग जल्द ठीक नहीं होता। यही वजह है कि बहुत-से मानसिक रोगी लम्बे समय तक पागलख़ानों या मानसिक चिकित्सालयों में भर्ती रहते हैं। हाल ही में देश के 24 राज्यों में 43 मानसिक रोग अस्पतालों पर हंस फाउंडेशन ने एक शोध में ज़िक्र किया है कि देश के मानसिक रोग अस्पतालों में क़रीब एक-तिहाई यानी 36.25 फ़ीसदी मानसिक रोगी एक साल से अधिक समय से भर्ती हैं। शोध में यह भी कहा गया है कि इनमें अधिकतर रोगी ऐसे हैं, जिनका इलाज घर पर भी हो सकता है।
एक डॉक्टर ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि देश के मानसिक चिकित्सा अस्पतालों, पागलख़ानों की दशा कुछ ख़ास ठीक नहीं है, जिससे मानसिक रोगियों का ठीक से उपचार नहीं हो पाता और वे अगर इनमें भर्ती कर लिये जाते हैं, तो लम्बे समय तक उनकी छुट्टी नहीं हो पाती।

आय संसाधनों में कमी
मानसिक चिन्ता का सीधा-सा कारण आय के संसाधनों में कमी है, जिससे लोग सामान्य जीवन नहीं बिता पाते और अभावों के चलते हर समय चिन्तित रहते हैं। आय के संसाधनों को तभी ठीक किया जा सकता है, जब उद्योग-धन्धों को बढ़ावा दिया जाए और सरकारी तथा निजी संस्थानों में रिक्त पड़े पदों को भरा जाए।
पहले से ही मंद गति से चलने वाले ये दोनों स्रोत कोरोना-काल में और भी ठप हुए हैं, जिसके चलते बेरोज़गारों के लिए तो रास्ते बन्द हुए ही हैं, बड़ी संख्या में पहले से कार्यरत लोग भी ख़ाली हुए हैं, जिससे लोग तनाव का शिकार हो रहे हैं। हालाँकि सरकार उद्योग-धन्धों की हालत सुधरने और निर्यात के बढऩे की बात कह रही है।
राष्ट्रीय मानसिक रोग सर्वेक्षण, 2016 की रिपोर्ट बताती है कि देश में 83 फ़ीसदी मानसिक रोगियों का सही इलाज नहीं हो पाता।
कास्ट एस्टीमेशन फॉर दि इंप्लीमेंटेशन ऑफ दि मेंटल हेल्थकेयर एक्ट-2017 नाम से इंडियन जर्नल ऑफ साइकेट्री में प्रकाशित एक लेख बताता है कि 10 आम मानसिक रोगियों में से केवल दो ही सही मानसिक उपचार ले पाते हैं। इसकी वजह लोगों में जागरूकता की कमी और मानसिक चिकित्सालयों में जाने से डर है।

बेरोज़गारी
सेंटर फॉर मॉनिटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के आंकड़े बताते हैं कि जून में भारत की बेरोज़गारी दर 11.9 फ़ीसदी थी, जो जून में गिरकर 9.2 फ़ीसदी रह गयी। माना जा रहा है कि अगर कोरोना महामारी की तीसरी लहर ने तबाही नहीं मचायी, तो आने वाले समय में बेरोजगारी दर और कम होगी। भारत के शहरी क्षेत्रों में 13.9 फ़ीसदी बेरोज़गारी मई महीने में रही, जो कि ग्रामीण क्षेत्रों की 10.6 फ़ीसदी बेरोज़गारी से कहीं ज़्यादा है। सीएमआईई की रिपोर्ट में कहा गया है कि हरियाणा बेरोज़गारी दर 35.1 फ़ीसदी के साथ देश के सभी राज्यों से ज़्यादा है। बेरोज़गारी दर में दूसरे स्थान पर राजस्थान, तीसरे पर दिल्ली, चौथे पर गोवा है।

महँगाई का लगातार बढऩा
लोगों में तनाव का एक बड़ा कारण लगातार महँगाई का बढऩा भी है। पिछले तीन साल में पेट्रोल-डीजल की क़ीमतों में बहुत तेज़ी से उछाल आया है, जिससे इन दोनों मुख्य ईंधनों की क़ीमतें 100 रुपये प्रति लीटर से ऊपर चली गयी हैं। इन दोनों ईंधनों की क़ीमतें बढऩे से ट्रांसपोर्ट, उत्पादन और खेती महँगी हुई है, जिससे महँगाई में तेज़ी से उछाल आया है।
पिछले चार-पाँच महीने में खाद्य पदार्थों में खाद्य तेलों, सब्ज़ियों, मसालों, दूध और रसोई गैस की क़ीमतों सबसे अधिक उछाल आने से उपभोक्ता काफ़ी परेशान हैं। इससे भी लोग तनाव का शिकार हो रहे हैं।

परिजनों की मृत्यु भी एक बड़ा कारण
कोरोना-काल में लोगों को अपनों के खो देने का सदमा भी बहुत गहरा लगा है। इसकी सबसे बड़ी वजह मरने वालों को कोरोना संक्रमण और दूसरी बीमारियों के समय में सही से इलाज नहीं मिल पाना रहा है।
सामने आयी मीडिया रिपोट्र्स से यह बात सामने आयी है कि कोरोना संक्रमण के समय में अधिकतर मरने वालों के परिजनों ने उनकी मृत्यु का कारण इलाज में लापरवाही बताया। यह आरोप निराधार नहीं है। क्योंकि कोरोना वायरस के संक्रमण के समय पूरे देश ने सरकार की स्वास्थ्य अव्यवस्था को देखा है।

कैसे सामान्य होगी स्थिति?
किसी व्यक्ति को तनाव से छुटकारा दिलाना, अन्य बीमारियों से छुटकारा दिलाने से कहीं ज़्यादा कठिन होता है। लेकिन फिर भी अगर तनाव और चिन्ता से लोगों को मुक्त करना है, तो उसका लोगों की आय में बढ़ोतरी ही सबसे ज़्यादा कारगर उपाय है। इसके लिए बर्बाद हो चुके या ठप पड़ चुके औद्योगिक ढाँचे (इंफ्रास्ट्रक्चर) को फिर से जीवित करना होगा; ताकि लोगों को फिर से काम मिल सके। इसके अलावा महँगाई को कम करना होगा और लोगों को सरकारी स्तर पर दी जाने वाली सुविधाओं में बढ़ोतरी करनी होगी।
कहा जाता है कि एक स्वस्थ दिमाग़ ही एक स्वस्थ शरीर और स्वस्थ व्यवस्था का निर्माण कर सकता है। इसलिए देश को स्वस्थ और मज़बूत बनाने के लिए सभी लोगों को मानसिक रूप से स्वस्थ रहना आवश्यक है। इसके लिए सरकारों को ही सबसे आगे आना होगा। साथ ही लोगों को समझना होगा कि तनाव से कुछ हासिल नहीं होगा, बल्कि जा बहुत कुछ सकता है। इससे ज़्यादा क्या होगा कि लोग तनाव के चलते आत्महत्या या हत्या जैसे जघन्य क़दम तक उठा लेते हैं। यह हमारे जैसे सुसंस्कृत देश के लिए दुर्भाग्यपूणई ही है कि यहाँ दिनोंदिन लोगों में तनाव बढ़ता जा रहा है। यह तनाव भविष्य के लिए ठीक नहीं है।

एम सी डी चुनाव को लेकर पोस्टर वार तेज

राजधानी दिल्ली में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव को लेकर भले ही 8 महीने का समय बचा हो पर, दिल्ली में भाजपा, कांग्रेस और आप पार्टी के बीच पोस्टर वार शुरू हो गया है। जहां तहां एक राजनीतिक दल दूसरे राजनीतिक दल पर भ्रष्ट्राचार से लेकर दंगा भड़काने तक के आरोप लगा रहे है। बताते चलें एम सी डी के चुनाव मार्च अप्रैल 2022 में है। लेकिन चुनाव को लेकर हलचल तेज हो गयी है।

कोरोना काल चल रहा है। राजनीतिक दल, सस्ते भोजन से लेकर , कोरोना के मरीजों को सहायता और जहां तहां सामाजिक कार्यकर्ता सम्मेलन करने में लगें है। जानकारों का मानना है। कि 15 अगस्त से राजनातिक दल और भी तेज कार्यक्रम करना शुरू कर देंगे। ताकि लोगों के बीच उनकी सियासी जमीन बनी रही रहे। भाजपा के नेता संतोष कुमार ने बताया कि आने वाले दिनों में दिल्ली में एम सी डी चुनाव को लेकर हलचल तेज हो जायेगी। भले ही एम सी डी चुनाव को लेकर राष्ट्रीय नेता अनदेखा करें पर, मौजूदा राजनीति में और कोरोना काल में एम सी डी के चुनाव को अनदेखा नहीं किया जा सकता है। क्योंकि दिल्ली की सियासत में एम सी डी के चुनाव का अपना अलग ही महत्व है। बताते चलें इस बार का एम सी डी चुनाव भाजपा और आप पार्टी के बीच हो सकता है। जबकि दिल्ली में कांग्रेस अपनी वापसी और उपस्थिति के लिये अभी जोर आजमाइस कर रही है।

कांग्रेस के नेता अजीत सिंह का कहना है कि कांग्रेस के कार्यकाल में हुये काम और विकास को दिल्लीवासी याद करते है।जबसे दिल्ली विधानसभा और दिल्ली नगर निगम में कांग्रेस चुनाव हारी है। तब से दिल्ली में विकास काम रूक गया है। अब दिल्ली वाले फिर से कांग्रेस को मौका देंगे।दिल्ली की सड़को से लेकर जगह भाजपा और आप पार्टी के बीच एक दूसरे पर भ्रष्ट्राचार के आरोप वाले पोस्टरों से भरे पड़े है।  

बैंकों में क्यों पड़े हैं बेदावा करोड़ों रुपये?

हाल ही में भारतीय रिजर्व बैंक (आरबीआई) ने एक सर्कुलर नंबर आरबीआई/2021-22/37, डीओआर.डीईए.आरईसी.सं. 16/30.01.002/2021-22 जारी किया था। सभी बैंकों को दिये गये आरबीआई के निर्देश ने जमाकर्ताओं के खातों में जमा राशि पर अदावी (दिये जाने वाले) ब्याज को प्रभावित करते हुए हज़ारों करोड़ रुपये के हेरफेर से ढक्कन हटा दिया है, जो कि बेदावा (लावारिस) पड़ा हुआ है और आरबीआई के जमाकर्ता शिक्षा और जागरूकता कोष (डीईएएफ) में स्थानांतरित कर दिया गया है।
इस ख़ुलासे के मुताबिक, क़रीब 82,025 करोड़ रुपये की एक भार-भरकम निवेशक धन राशि बेकार पड़ी हुई है। खातों में पड़े दावा न किये गये इस धन पर एक मज़बूत मामला बनाता है, जिसे बैंकों को पहले ही सार्वजनिक करना चाहिए था। परिवार के सदस्यों के साथ निवेश की जानकारी के आरबीआई के नियम के मुताबिक, यदि 10 साल तक की अवधि के लिए कोई बैंक खाता निष्क्रिय रहता है, तो उस पैसे को डीईएएफ को हस्तांतरित किया जा सकता है। बैंकिंग क़ानून अधिनियम-2012 (संशोधित), जिसमें धारा-26(ए) को सम्मिलित किया गया है; के मुताबिक, बैंकिंग विनियमन अधिनियम-1949 अनुभाग रिजर्व बैंक को सशक्त करता है कि बैंक जमाकर्ता की राशि को डीईएएफ में स्थानांतरित कर सकता है।

कितनी राशि कहाँ पड़ी बेदावा?
1. दावा न किये गये बैंक खातों में 18,381 करोड़ रुपये पड़े हैं।
2. बीमा कंपनियों के पास 15,167 करोड़ रुपये पड़े हैं।
3. निष्क्रिय म्यूचुअल फंड पॉलियों में 17,880 करोड़ रुपये पड़े हैं।
4. आईईपीएफ में 4,100 करोड़ रुपये का लाभांश पड़ा है।
5. भविष्य निधि खातों में 26,497 करोड़ रुपये पड़े हैं।

जीवन अनिश्चितताओं से भरा है और दुर्भाग्य कभी भी आ सकता है। हाल ही में कोरोना वायरस महामारी ने दिखा दिया कि जीवन कितना अप्रत्याशित है। हालाँकि आप बुरे समय की भविष्यवाणी नहीं कर सकते, फिर भी आप निश्चित रूप से अनुमान लगा सकते हैं। इसलिए निवेश के मामले में ऐसे क़दम उठाने चाहिए, ताकि किसी कठिन परिस्थिति से निपटने के लिए आपके क़रीबी आपकी की मदद कर सकें। किसी भी दुर्भाग्यपूर्ण घटना पर आपके द्वारा किये गये निवेश का पैसा आपके परिजनों को मिल सके, इसके लिए हमें सभी निवेशों का विवरण अपने परिजनों के साथ साझा करना चाहिए।
दरअसल आरबीआई के चीफ जनरल मैनेजर थॉमस मैथ्यू ने 11 मई, 2021 को सभी बैंकों को एक परिपत्र भेजा था। उन्होंने बैंकों को सलाह दी कि ब्याज वाली जमा राशियों पर देय ब्याज की गणना करें। आरबीआई को हस्तांतरित बैंकों की रिपोर्ट के मुताबिक, 30 जून, 2018 तक चार फ़ीसदी प्रति वर्ष की दर से; 01 जुलाई, 2018 से 10 मई, 2021 तक 3.5 फ़ीसदी और 11 मई, 2021 से तीन फ़ीसदी की दर से भुगतान पर खाताधारकों की दावेदारी बनती है। हालाँकि आरबीआई के आँकड़ों के मुताबिक, खातों में साल-दर-साल जमा होते गये दावा न किये गये धन पर ब्याज राशि में बढ़ोतरी हुई है, जो कि दावा न की गयी सालाना राशि के आधार पर क़रीब 28 फ़ीसदी की वृद्धि के साथ पिछले वर्ष तक 4,307.19 करोड़ रुपये से 18,379.52 करोड़ रुपये तक हो गयी है। आरबीआई के आँकड़ों से पता चलता है कि दावा न की गयी जमाराशियों में दिसंबर, 2019 के अन्त तक क़रीब 34 फ़ीसदी की वृद्धि हुई थी। यह राशि दिसंबर, 2018 के अन्त तक 4.79 करोड़ रुपये और दिसंबर, 2019 के अन्त तक 6.41 करोड़ रुपये थी।
दरअसल हम अपने परिवारों के साथ हमारी दिनचर्या से लेकर जीवन के अन्य महत्त्वपूर्ण निर्णयों तक सब कुछ साझा करते हैं। हम उनके विचार भी लेते हैं; जैसे कि हमें मासिक ख़रीदारी की योजना कब बनानी चाहिए? या छुट्टियाँ बिताने के लिए हमारी अगली यात्रा किस जगह के लिए होनी चाहिए? हालाँकि ज़्यादातर लोग इससे बचते हैं; लेकिन फिर भी अपने सबसे महत्त्वपूर्ण पहलुओं में से अधिकतर में अपने परिवार को शामिल करते ही हैं।
कई बार कुछ लोग जीवन के काफ़ी अनसुलझे पहलुओं, जैसे- वित्त (धन सम्बन्धी) आदि विषयों पर, जिसमें वे पूरी तरह शामिल होते हैं, तो भी; परिजनों से बहुत गहराई से चर्चा नहीं करते हैं। ऐसे लोग परिवार के सदस्यों के साथ वित्तीय मामलों और निर्णयों पर चर्चा करने को अक्सर महत्त्वहीन और अनावश्यक मान लेते हैं और ऐसे ही लोगों के पैसे जगह-जगह फँसे रह जाते हैं। जैसे- बैंकों में, किसी को दिये क़र्ज़ के रूप में आदि-आदि। लेकिन यह ज़रूरी है कि हम अपने वित्त सम्बन्धी हर पहलू पर परिजनों या परिवार में किसी ख़ास को ज़रूर बताएँ; उसकी सलाह लें।
आपको अपने वित्तीय मामलों पर चर्चा करने की आवश्यकता को पहचानने में निम्नलिखित बिन्दुओं से मदद मिलेगी :-

प्रियजनों के हित में


वित्तीय नियोजन में हमें अपने जीवनसाथी को शामिल करना चाहिए। लेकिन हमारे देश में ज़्यादातर आर्थिक फ़ैसले पैसा कमाने वाले या परिवार का मुखिया ही लेते हैं। इस प्रक्रिया में जीवनसाथी (आमतौर पर पत्नी) के विचारों पर ध्यान में नहीं दिया जाता है।
हो सकता है कि पत्नी या पति के पास वित्तीय ज्ञान या उसमें रुचि न हो। हालाँकि यह अप्रासंगिक हो सकता है। लेकिन अपनी वित्तीय योजनाओं की योजना बनाते या समीक्षा करते समय आपको अपने जीवनसाथी को शामिल करना बेहद ज़रूरी होना चाहिए। क्योंकि हो सकता है कि वित्तीय योजना बनाते समय आपके जीवनसाथी द्वारा दी गयी जानकारी आपके लिए फ़ायदेमंद और आश्चर्यचकित कर देने वाली हो। क्योंकि आपके और आपके जीवनसाथी के अन्तिम लक्ष्य के रूप में बच्चों को शिक्षित करना, उनका करियर बनाना, उनके शादी-विवाह करना, उनके और अपने लिए सेवानिवृत्ति पर ख़र्च और आपात चिकित्सा स्थिति में ख़र्च के लिए बचत करना; यही विकल्प (सामान्य सोच के हिसाब से) होते हैं।
निवेश विवरण साझा करने से आपके जीवनसाथी को आपके द्वारा जमा किये गये धन बारे में पता रहता है, जो यह सुनिश्चित करता है कि जीवनसाथी इस बारे में जागरूक रहे कि आपका कितना धन कहाँ पर है? इससे वह जमाकर्ता के दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति में न रहने पर दस्तावेज़ों या बयानों के आधार पर उसके जमा अथवा किसी को दिये गये धन तक पहुँच सकता है। ऐसे में विकट परिस्थिति में आपकी अनुपस्थिति में जीवनसाथी को दूसरों से पैसे उधार नहीं लेने पड़ेंगे। चूँकि निवेशक या जमाकर्ता की पत्नी या पति की उसके निवेश विवरण तक पहुँच है, इसलिए संकट के समय (विशेषकर निवेशक की मृत्यु के बाद) यह निर्णय उसके परिजनों को संकट मोचक के रूप में मदद कर सकता है।

आपात चिकित्सा की स्थिति में
आपात चिकित्सा स्थिति के समय में निवेशक या उसके किसी प्रियजन की देखभाल और अस्पताल में इलाज के लिए उसके जीवनसाथी या परिजन द्वारा देखभाल करने के लिए बेहतर और प्रभावशाली स्थिति के लिए धन की ज़रूरत होती है। ऐसी स्थिति में उसके द्वारा निवेश किया गया वह धन, जिसकी उन्हें जानकारी है; काम आ सकता है।
अगर किसी ने कोई जीवन बीमा या स्वास्थ्य बीमा पॉलिसी ले रखी है, तो वह भी चिकित्सा अथवा मृत्यु आदि के समय काम आ सकती है, जो आवश्यक काग़ज़ी कार्यवाही के बाद बीमा कम्पनी उसके द्वारा मनोनीत व्यक्ति (नॉमिनी) को प्रदान करती है।
यदि उसके पास चिकित्सा बीमा पॉलिसी नहीं है, तो उसका जीवनसाथी आसानी से तय कर सकता है कि वह उसके अथवा उसके द्वारा किये गये किन निवेशों से आपात या संकट की स्थिति में ज़रूरी ख़र्च कर सकता है।

नामांकन
नामांकन एक ऐसी प्रक्रिया है, जिसमें निवेशक किसी व्यक्ति (आमतौर पर परिवार के सदस्य) को नामांकित करता है; जो निवेशक की अनुपस्थिति में उसकी सम्पत्ति का सही दावा करने के लिए ज़रूरी है।
अपनी सभी सम्पत्तियों के लिए परिवार के किसी एक व्यक्ति या जीवनसाथी को नामांकित (नॉमिनेट) करने से आने वाली परेशानी में आसानी होगी। निवेशकर्ता की मृत्यु के मामले में उसके परिजनों या जीवनसाथी को उसके सभी बैंक खातों, निवेशों के बारे में जानकारी होने पर भौतिक सुख और लेन-देन में आसानी होती है। इससे जमाकर्ता के न होने पर उसके जीवनसाथी को किसी भी देनदार या लेनदार द्वारा कभी भी गुमराह नहीं किया जा सकता है।
नामांकन की स्थिति में अगर माता-पिता दोनों को कुछ होता है, तो पैसा निकालने, उसे ख़र्च करने, और चल-अचल सम्पत्ति को अपने नाम कराने या उस पर दावा प्रक्रिया में कोई दिक़्क़त नहीं होती है।

वित्तीय सुरक्षा और स्थिरता
बीमाधारक की मृत्यु के मामले में उसकी सावधि बीमा योजना (टर्म इंश्योरेंस पॉलिसी) के तहत दावा प्रक्रिया शुरू की जानी चाहिए। अपने बीमा / बीमों का विवरण परिजनों के साथ साझा करने से बीमाधारक के जीवनसाथी और आश्रित परिवार को मज़बूत रखने में मदद मिलती है। इसलिए बिना किसी देरी के निवेशकर्ता को अपने परिजनों और ख़ासकर जीवनसाथी को वित्तीय सुरक्षा देने के लिए सभी निवेशों, बीमा योजनाओं की जानकारी दे देनी चाहिए।
इससे निवेशकर्ता के जीवनसाथी के नाम पर उसके न रहने पर या शारीरिक अपंगता के समय में उसके अपने निवेश को आसानी से स्थानांतरित कर दिया जाता है, ताकि वह उसका ज़रूरत पर उपयोग कर सके। इसके अलावा परिवार में स्थितरता लाने और उसे मज़बूत करने के लिए निवेश सूची का जीवनसाथी को पता होना उसके और परिवार के लिए एक बेहतर स्थिति साबित हो सकती है।

बच्चों में जागरूकता पैदा करें
आपमें से कई लोगों ने यह अनुभव किया होगा कि आज की पीढ़ी बहुत बुद्धिमान है और अपने जिज्ञासु कौशल के कारण तेजी से सीखने वाली है। आज स्कूल बच्चों को व्यक्तिगत वित्त के बारे में भी प्रशिक्षण दे रहे हैं और आपसे भी कह रहे हैं कि वित्तीय निवेश योजना लेते समय अपने बच्चों को शामिल करना अनिवार्य है। इसलिए आप परिवार के लिए निवेश करते समय लिए जा रहे निर्णयों में बच्चों को भी शामिल करें और उनके नाम से भी निवेश कुछ करें; चाहे आपकी आर्थिक स्थिति कैसी भी हो। क्योंकि बच्चों के सामने वित्तीय अथवा निवेश चर्चाएँ उनके मन में जिज्ञासा पैदा करेंगी, जिससे उनकी निवेश करने की जानकारी में वृद्धि होगी, जो संकट की स्थिति से निकलने में उनकी मदद करेगी।
माता-पिता के रूप में आप पहले वित्तीय योजनाएँ बनाते हैं। लेकिन अपने बच्चों के बीच जागरूकता लाने से भले ही वे शुरू-शुरू में कुछ ग़लतियाँ करेंगे, जहाँ आपको उनका मार्गदर्शन करना है; लेकिन बाद में वे निवेश और बचत के मामले में होशियार हो सकते हैं।
बच्चे किसी भी परिवार की सबसे बड़ी सम्पत्ति होते हैं। माता-पिता की अनुपस्थिति में वे उन्हीं सपनों को सजाने-सँवारने की कोशिश करते हैं, जो माता-पिता ने देखे होते हैं या जिन विषयों में बच्चों को वे पारंगत कर चुके होते हैं। लेकिन पर्याप्त वित्तीय सुरक्षा नहीं होने पर उनके जीवन की गाड़ी के पटरी से उतरने का जोखिम रहता है। जो लोग (दम्पति) जीवन के इस महत्त्व को समझते हैं और परिवार की ज़रूरतों को पहचानते हैं, वे सशक्त और एक सफल निवेश की ज़रूरत को महसूस करते हुए उपलब्ध संसाधनों के बेहतर उपयोग से अपने और बच्चों के भविष्य के लिए थोड़ी या ज़्यादा बचत ज़रूर करते हैं।

वित्तीय स्वतंत्रता
हालाँकि परिवार के सदस्यों को दिन-प्रतिदिन सँभालने के लिए केवल निवेश से ही काम नहीं चल सकता, इसके लिए उन्हें मासिक बजट और ख़र्च की भी ज़रूरत होती है। आपको अपने भी कुछ व्यक्तिगत ख़र्चों के लिए धन की ज़रूरत होती है और साथ ही जीवनसाथी को घर सँभालने तथा उसके और बच्चों के व्यक्तिगत ख़र्चों के लिए भी कुछ धन देना होगा, ताकि वे सब उसे ज़रूरत के हिसाब से ख़र्च कर सकें।
उदाहरण के लिए आप अपने जीवनसाथी को कुछ मासिक ख़र्चों का भुगतान करने दें। अगर आप ऐसा नहीं करते हैं, तो आपका यह व्यवहार उसके अन्दर ऐसी भावना पैदा करेगा कि आप उसे परिवार की आर्थिक ख़र्चों की क्षमता को नहीं समझते और दीर्घकालिक रूप से परिजनों को आर्थिक रूप से स्वतंत्रा प्रदान करने में असमर्थ हैं; जो कि अच्छे रिश्तों के लिए बेहतर स्थिति नहीं है।
आज ज़्यादातर बच्चे मोबाइल फोन का इस्तेमाल करते हैं। इसके अलावा उन्हें दैनिक उपयोग के लिए जेब ख़र्चे की ज़रूरत होती है। इसलिए उन्हें एक बजट दें और उनके स्वयं के ख़र्चों का भुगतान करने दें। इससे उनमें आत्मबल, आत्मसम्मान बढ़ेगा, निर्णय लेने की क्षमता बढ़ेगी। लेकिन बच्चों को उस पैसे को कहाँ ख़र्च करना है, इसमें उनकी मदद करें। इससे उनमें फ़िज़ूलख़र्ची से बचने और बचत करने की आदत भी पड़ेगी।

सामूहिक कार्य (टीम वर्क)
आपको यह सुनिश्चित करना होगा कि वित्तीय मामलों में कुछ भी निर्धारित (मासिक बजट में से बचत और ख़र्चों की समीक्षा) करने के लिए आप अपने जीवनसाथी और बच्चों के साथ बैठक कर रहे हैं। ऐसा करने के लिए आपको और आपके परिवार के सभी सदस्यों से अनुशासन में रहकर एक सफल प्रयास करना होगा, ताकि परिवार के आर्थिक लक्ष्य पूरे हो सकें।
इसके लिए आपको परिवार के सभी सदस्यों से अनावश्यक ख़र्च न करने की अपील के साथ उनकी फ़िज़ूख़र्ची पर अंकुश लगाने के लिए भी परस्पर प्रयास करने होंगे; यह समझाते या अहसास दिलाते हुए कि परिवार के वित्तीय उद्देश्य क्या हो सकते हैं या होने चाहिए? लेकिन सदस्यों के बीच सामूहिक प्रयास, मिलकर कार्य करने और मिलकर काम करे बिना शायद ये सपने और सभी इच्छाएँ पूरी न हों।

वित्तीय विवरण साझा करें


आकर्षित करने वाली और महत्त्वपूर्ण बात यह है कि पैसे के मामलों पर परिवार के साथ चर्चा करना कोई वर्जित या अनुचित विषय नहीं है। यदि आपने वित्तीय मामलों का ख़ुलासा अभी तक परिवार वालों से नहीं किया है, तो इससे पहले कि बहुत देर हो जाए और परिपक्वता के साथ तर्कसंगत रूप से परिजन इस पर चर्चा करें; यह ज़रूरी है कि आप उनके साथ सभी वित्तीय मुद्दों को साझा करना शुरू कर दें।
ऐसा एक मामला दर्ज किया गया, जब एक प्रमुख इक्विटी योजना के 25 वर्ष पूरे होने पर एक फंड हाउस (निवेशकर्ता कम्पनी) ने उन निवेशकों को लिखा, जो योजना में निवेश कर चुके थे। कुछ निवेशक निवेश को दो दशकों से अधिक समय होने के चलते उसे भूल गये थे। लेकिन बधाई-पत्र के कारण पूरी तरह से अप्रत्याशित परिणाम सामने आये; क्योंकि कम्पनी में निवेश करके भूले हुए निवेशक अगले कुछ हफ़्तों में वहाँ आने लगे और उनमें अपना पैसा प्राप्त करने की एक चौंकाने वाली हड़बड़ी देखी गयी।
यह एक ज्ञात तथ्य है कि भारत में निवेश योजनाएँ, जैसे- बैंक सावधि जमा, पीपीएफ, ईपीएफ और म्यूचुअल फंड सबसे लोकप्रिय बचत में से कुछ हैं। भले ही पिछले कुछ वर्षों में म्यूचुअल फंड में निवेश करने वालों की संख्या में वृद्धि हुई है; लेकिन निवेशकों के बीच कुछ अन्य योजनाएँ भी लोकप्रिय हैं।
इन योजनाओं में लम्बे समय से निवेश करते हैं और कई खाताधारक अपनी धनराशि को इन निवेश मार्गों के ज़रिये कई खाते में भी रखते हैं। दरअसल लम्बे निवेश कार्यकाल के कारण या कई खाते होने के कारण बहुत-से लोग अपनी बचत और निवेश के बारे में भूल जाते हैं।
हालाँकि अधिकांश पैसा रखने वाली संस्थाओं का दावा है कि एक निश्चित अवधि के बाद वे खाताधारकों अथवा निवेशकों को सूचित कर देती हैं। लेकिन इसके लिए निवेशकों को स्वयं भी उनके सम्पर्क में रहना होगा। क्योंकि सम्पर्क न होने या कई ग्राहकों के फोन नंबर, ईमेल आईडी या पते बदलने या उनकी मृत्यु या मानसिक कमज़ोर होने (सम्पर्क न होने या नामांकित व्यक्ति के न होने) के कारण कम्पनियाँ, सस्थाएँ और बैंक उनसे सम्पर्क करने में असमर्थ रहते हैं। इसी के चलते निवेशकों अथवा जमाकर्ताओं का धन वहाँ रह जाता है; जो कि लावारिश धन के रूप में पड़ा रहता है।
इस लावारिस धन को समय की निश्चित अवधि एक अलग सरकारी कोष में स्थानांतरित कर दिया गया है। खाताधारक और पॉलिसीधारक दावा कर सकते हैं कि उनके इस निवेशों से उनका पैसा सीधे उन्हें या उनके परिजनों, ख़ासकर नामांकित व्यक्ति को दिया जाए।
जमाकर्ता द्वारा दावा न किया गया धन अवेयरनेस फंड (डीईएफ), लावारिस बीमा, पीपीएफ और ईपीएफ का पैसा बैंक सावधि जमा से शिक्षा में ले जाया जाता है। ऐसे 10 साल से दावा नहीं किये गये निवेश और जमा धनराशि को वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष (एससीडब्ल्यूएफ), म्यूचुअल फंड, प्रोटेक्शन फंड (आईईपीएफ) और निवेशक शिक्षा में स्थानांतरित कर दिया गया है। ऐसे धन को बैंक डीईएएफ में जमा कर दिया जाता है, जो 10 साल तक लावारिस रहा हो। किसी भी बैंक खाते से दावा नहीं किये गये धन, जो परिचालन में नहीं है; के उपयोग के लिए इस योजना को सन् 2014 में बनाया गया था।
जमाकर्ताओं के हितों और उनकी जागरूकता का समर्थन करने के लिए ऐसे धन को 10 वर्ष या उससे अधिक अवधि के लिए तीन महीने के अन्दर डीईएएफ योजना के तहत जमा कर दिया जाता है। निवेशक 10 साल की समाप्ति के बाद या उस धन के हस्तांतरित होने के बाद भी अपनी राशि का दावा कर सकते हैं।
इस मामले में बैंक खाताधारक को भुगतान करेगा, जो कि डीईएएफ द्वारा बैंक को वापस कर दिया जाएगा। एससीडब्ल्यू फंड, पीपीएफ, डाकघर बचत खातों, ईपीएफ आरडी खातों और इसी तरह के अन्य खातों से जमा को बैंक वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष में रखता है। यह कल्याण कोष सन् 2015 में बनाया गया था, ताकि समाज कल्याण में किसी कारण से बेकार पड़ी लावारिस निधियों का उपयोग हो सके।
उदाहरण के लिए बीमा राशि के मामले में यदि निवेश के पैसे पर निवेशक द्वारा 10 साल के अन्त में दावा नहीं किया गया हो, तो फिर इसे वरिष्ठ नागरिक कल्याण कोष में स्थानांतरित कर दिया जाता है।

क्या करें?
1. परिवार को अपने सभी वित्तीय मामलों की जानकारी देते रहें।
2. सभी जमाओं में हमेशा एक नामांकित व्यक्ति (नॉमिनी) बनाकर रखें।
3. आय, ख़र्च और जमा पूँजी की एक सूची बनाकर रखें।
4. जब भी कोई बदलाव हो, विवरण को अद्यतन (अपडेट) करते रहें।
5. अपनी जमा राशि एक शाखा में रखें। यदि आप धन को कई बैंक या शाखाओं में रखते हैं, तो आप दावा न कर पाने वाली जमा के लिए रास्ता बना रहे हैं।
6. अपने ट्रेडिंग (व्यापार) और डीमैट (शेयर) खाते एक या दो दलालों के पास ही रखें। सम्भव हो तो उसे एक खाते में स्थानांतरित कर लें। बीच-बीच में अपनी बैंक, शाखा या दलाल कार्यालय में जाएँ या सम्पर्क करें और अपने निवेश व उसके रखरखाव की जानकारी लेते रहें। साथ ही वित्तीय मामलों में अद्यतन जानकारी अपने परिवार अथवा परिवार के प्रमुख सदस्यों अथवा जीवनसाथी को सूचित करते रहें।
7. एक छोटे-से वेतन अथवा शुल्क पर किसी अच्छे सलाहकार की मदद लेते रहें। इससे आपके भूल जाने की स्थिति में वह आपको आपके निवेशों की जानकारी मुहैया कराता रहेगा। साथ ही निवेशकर्ता के गुज़र जाने पर उसके परिवार को निवेश की जानकारी देगा और उसे निकाले अथवा हस्तांतरित करने में मदद करेगा।

स्टेम के क्षेत्र में माँग के मुताबिक नौकरियों के लिए नहीं मिल रहीं लड़कियाँ

इस बार संसद का मानसून सत्र में कोरोना वायरस, महँगाई, बेरोज़गारी, फोन हैकिंग और किसानों के मुद्दे पर बेशक हंगामा हो रहा है; लेकिन इसी शोर-शराबे के बीच 19 जुलाई को लोकसभा में देश में बीते तीन वर्षों में विज्ञान, प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग व गणित (स्टेम) से स्नातक (ग्रेजुएशन) करने वालों की संख्या को लेकर एक सवाल पूछा गया।
इस सवाल में यह भी जोड़ा गया कि क्या देश में स्टेम से स्नातक करने वालों में लड़कों की संख्या लड़कियों से अधिक है? केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्री धमेंद्र प्रधान ने जो जवाब दिया, वह भारतीय समाज की लड़कियों के प्रति बनी कई रूढ़ धारणाओं में से एक के प्रति नज़रिये में आ रहे बदलाव को दर्शाता है।
केंद्रीय शिक्षा और कौशल विकास एवं उद्यमिता मंत्री ने सदन में ऑल इंडिया सर्वे ऑन हायर एजुकेशन के बीते तीन साल के आँकड़े साझा किये। उन्होंने बताया कि बीते तीन साल में स्टेम ग्रेजुएट लड़कों की तादाद में कमी आयी है; जबकि लड़कियों की संख्या में इज़ाफ़ा हुआ है। वित्त वर्ष 2017-18 में लड़कों की संख्या तक़रीबन 12.9 लाख थी, जो कि वित्त वर्ष 2019-20 में घटकर लगभग 11.9 लाख रह गयी। वहीं लड़कियों की संख्या इस अवधि में 10 लाख से बढ़कर लगभग 10.6 लाख तक पहुँच गयी।
विश्व बैंक का डाटा भी बताता है कि वर्ष 2018 के आँकड़ों के अनुसार, भारत में स्टेम ग्रेजुएशन में 42.73 फ़ीसदी लड़कियाँ हैं; जो कि अमेरिका, जर्मनी, ब्रिटेन से भी अधिक है। अमेरिका में स्टेम ग्रेजुएशन में लड़कियाँ 34 फ़ीसदी हैं, तो जर्मनी और ब्रिटेन में क्रमश: 27 और 38 फ़ीसदी हैं। बेशक भारत इस सन्दर्भ में शीर्ष पर है; लेकिन चिन्ता की बात यह है कि विज्ञान प्रौद्योगिकी, इंजीनियरिंग व गणित (स्टेम) सम्बन्धित क्षेत्रों में महिला विज्ञानियों, प्रौद्योगिकीविद्, इंजीनियर व गणितज्ञों की संख्या महज़ 14 फ़ीसदी है। जबकि वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 28 फ़ीसदी है। स्वीडन में स्टेम ग्रेजुएट लड़कियाँ 35 फ़ीसदी हैं और इस क्षेत्र में नौकरी करने वालों में महिलाओं की भागीदारी 34 फ़ीसदी है, जो कि उल्लेखनीय है। भारत के सामने एक बहुत बड़ी चुनौती महिलाओं को विज्ञान, प्रौद्यागिकी, इंजीनियर व गणित सम्बन्धी क्षेत्र में करियर को अपनाने व उसमें टिके रहने के लिए प्रोत्साहित करने की ही नहीं, बल्कि सकारात्मक नतीजे भी दिखाने की है।
इस क्षेत्र सम्बन्धित कार्यबल में लैंगिक असमानता एक बहुत बड़ा मुद्दा है, जिसे समझना और सुलझाना बेहद ज़रूरी है; अन्यथा समाज, देश और अर्थ-व्यवस्था को बहुत बड़ा ख़ामियाज़ा भुगतना होगा। इसमें कोई दो-राय नहीं कि समाज ने शिक्षा व श्रम को लिंग के आधार पर तय किया और इस आधार की भूमिका समाज की महिलाओं को लेकर बने पूर्वाग्रहों ने तैयार की। लड़कियों को सीमाओं में बाँधने का काम लोग पूर्वाग्रहों के चलते करते हैं, जो उनके मन में घर कर चुके हैं। लोग न केवल विज्ञान व प्रौद्याोगिकी को पुरुषों के साथ जोड़कर देखते हैं, बल्कि महिलाओं को पुरुषों की तरह कम्प्यूटर विज्ञानी व इंजीनियर वाले पद पर देख उसके प्रति नकारात्मक राय बना लेते हैं।
अक्सर महिलाओं को उनके पुरुष सहकर्मियों से कमतर आँका जाता है। यहाँ पर यह तथ्य ध्यान देने योग्य है कि जिस गति से दुनिया का डिजिटल युग में परिवर्तन हो रहा है, उस अनुपात में लड़कियों का विज्ञान व प्रौद्योगिकी में प्रतिनिधित्व बहुत कम है। अब समय साफ़ इशारा कर रहा है कि वर्तमान में अधिकतर नौकरियों के लिए बुनियादी विज्ञान, गणित और प्रौद्योगिकी के कौशल की अहम भूमिका है, जो आने वाले दिनों में और अहम होगी।
जनवरी, 2020 में एक रिपोर्ट में बताया गया कि भारत में सन् 2016 से सन् 2019 के दरमियान स्टेम सम्बन्धी नौकरियों में 44 फ़ीसदी का इज़ाफ़ा हुआ।
आर्थिक वृद्धि में जान फूँकने, ख़ासतौर पर कोविड-19 महामारी वाले मौज़ूदा परिदृश्य में भारत के लिए यह बहुत ही अहम हो जाता है कि उसके यहाँ काम करने वाले लोग स्टेम कौशल में निपुण हों। यही नहीं, प्रौद्योगिकी क्षेत्र में काम करने वाला नज़रिया भी होना चाहिए।
मुम्बई आईआईटी से इंजीनियरिंग करने वाले शुभांशु जैन, जो कि स्टार्टअप में भी काम करते हैं; का कहना है कि आईआईटी में बहुत-ही कम लड़कियाँ पहुँचती हैं। उसके बाद जब रोज़गार का सवाल आता है, तो लड़कियों की प्राथमिकताएँ अक्सर लड़कों से अलग हो जाती हैं।
नौकरी के सन्दर्भ में वे एक जगह से दूसरी जगह जाने से पहले कई बार सोचती हैं। सिर्फ़ शादीशुदा महिलाएँ ही इस विचार में नहीं अटकी रहतीं कि उनके परिवार का क्या होगा? बल्कि जो महिलाएँ हमसफ़र की तलाश कर रही होती हैं, वे भी इसी विचार में अपना करियर दाँव पर लगा देती हैं। उनकी तरक़्क़ी के रास्तों में कई बाधाएँ हैं, जिस पर नीति स्तर पर काम करने की दरकार है।

प्रोत्साहन के लिए कार्यक्रम
दरअसल भारत सरकार व राज्य सरकारों ने लड़कियों को स्टेम की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करने के मक़सद से कई कार्यक्रम शुरू किये और उसका परिणाम आज यह है कि लड़कियों की संख्या ने अमेरिका, कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी जैसे विकसित देशों को इस सन्दर्भ में पीछे छोड़ दिया है। सरकार ने किरन नामक स्कीम शुरू की है, जो लड़कियों को स्टेम की पढ़ाई करने के लिए प्रोत्साहित करती है। स्टेम में महिलाओं के लिए इंडो-यूएस फैलोशिप (अध्येतावृत्ति) शुरू की गयी। इसका मक़सद भारतीय महिला विज्ञानियों, इंजीनियर व प्रौद्योगिकीविद् को अमेरिका के प्रतिष्ठित अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थानों में तीन से छ: माह के शोध कार्य करने के लिए मौक़े प्रदान करना और उन्हें प्रोत्साहित करना है।
विज्ञान व प्रौद्योगिकी विभाग ने स्टेम में पढ़ाई जारी रखने के लिए लड़कियों के लिए कई योजनाएँ बनायी हैं। समाज ने कुछ हद तक लड़कियों के लिए विज्ञान व प्रौद्योगिकी की पढ़ाई वाले विषयों को तो आत्मसात कर लिया है। इसके पीछे कई कारक काम कर रहे हैं। मगर यह समाज और सरकार के लिए स्टेम ग्रेजुएट लड़कियों की संख्या को लेकर गौरवान्वित होकर शान्त बैठने का समय नहीं है। इस समय रोज़गार बाज़ार की ज़रूरतों को देखते हुए समय की पुरज़ोर माँग यह है कि स्टेम सम्बन्धी नौकरियों में लड़कियों की भागीदारी बढ़ाने के लिए ठोस क़दम उठाये जाने चाहिए। स्टेम क्षेत्र वाली नौकरियों में इज़ाफ़ा हो रहा है और यह रुझान जारी रहेगा।
एक कम्पनी महिला कर्मचारी को अपने यहाँ नौकरी देने के लिए विशेष प्रस्ताव (ऑफर) तक प्रदान कर रही है। एक नियोक्ता कम्पनी में काम करने वाली एक युवती बताती है कि इस समय स्टेम और आईटी के क्षेत्र में पेशेवर लड़कियों की माँग बहुत है। आईटी क्षेत्र अपने कर्मचारियों, ख़ासतौर पर महिला कर्मचारियों को कई सुविधाएँ दे रहा है; ताकि वे वहाँ टिकी रहें।
भारत में श्रम बल में महिलाओं की भागीदारी कम है। स्टेम क्षेत्र में भी उनकी भागीदारी महज़ 14 फ़ीसदी ही है। वैश्विक स्तर पर यह आँकड़ा 28.8 $फीसदी है। कृत्रिम बुद्धिमत्ता यानी आर्टिफिशिल इंटलीजेंश (एआई) में तो पुरुषों का वर्चस्व है। दुनिया भर में एआई प्रोफसरों में 80 फ़ीसदी पुरुष हैं। गूगल व फेसबुक में एआई सम्बन्धित काम करने वालों में महिलाओं की संख्या सिर्फ़ 10 से 15 फ़ीसदी है। ऐसे क्षेत्रों में लैंगिक बराबरी के लिए चौतरफ़ा प्रयासों की दरकार है। परिवार, समाज, सरकार, निजी कम्पनियाँ व अन्य संस्थानों के सहयोग से ही आगे बढ़ा जा सकता है। भारत में मोबाइल इंटरनेट इस्तेमाल करने वाली लड़कियों की संख्या लड़कों से 56 फ़ीसदी कम होने की सम्भावना है। आज के दौर में इंटरनेट पढ़ाई करने व ज्ञान हासिल करने का एक अहम ज़रिया है; लेकिन अपने देश में आज भी ऐसी ख़बरें अक्सर सामने आती हैं कि फलाँ गाँव की पंचायत ने अपने यहाँ की लड़कियों के द्वारा मोबाइल फोन इस्तेमाल करने पर प्रतिबन्ध लगा दिया।
हाल ही में धमेंद्र प्रधान ने ओ.पी. जिंदल विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में कहा कि शिक्षा को कौशल विकास के साथ जोडऩे से सामाजिक-आर्थिक सशक्तिकरण के नये रास्ते खुलेंगे। कोरोना महामारी के कारण ऑनलाइन शिक्षा और डिजिटल तकनीक के इस्तेमाल को अपनाने की ज़रूरत का पता चला, जिससे सुनिश्चित होता है कि शिक्षा जारी रहेगी।
यह मोड़ शिक्षा और ज्ञान के प्रसार के तरीक़ों को रास्ता देता रहेगा। उन्होंने यह भी कहा कि इसलिए हमें भविष्य के लिए ऐसी योजना बनानी चाहिए, जो डिजिटल खाई को भर सके या डिजिटल असमानता को दूर कर सके। डिजिटल असमानता देश में अमीरों-ग़रीबों के बीच है; पुरुषों-महिलाओं के बीच है।
हालाँकि इस शिक्षा से ग़रीब तबक़े के बच्चे-बच्चियाँ वंचित रह सकते हैं। अब देखना यह है कि सरकार इस डिजिटल खाई को पाटने के लिए क्या ठोस क़दम उठाती है? सरकार व निजी संस्थाओं को स्टेम सम्बन्धी रोज़गार में अधिक-से-अधिक महिलाओं को नौकरी देने के लिए गम्भीरता और दिलचस्पी दिखानी होगी। महिलाओं को उनकी सुविधानुसार कौशल सम्बन्धित कार्यशालाओं और प्रशिक्षण कार्यक्रमों में भाग लेने के लिए ख़ास इंतज़ाम करने होंगे। ऑटोमेशन से मानव नौकरियों पर ख़तरा मँडराने की ख़बरें आती रहती हैं और यह भी आशंका जतायी जा रही है कि आने वाले समय में इस कारण जिन लोगों की नौकरियाँ जा सकती हैं, उनमें पुरुषों की तुलना में महिलाओं की संख्या अधिक होगी।
महिलाओं को विज्ञान, प्रौद्योगिकी सम्बन्धित कौशल हासिल करने पर फोकस करना होगा, ताकि रोज़गार बाज़ार में वे बराबर बनी रहें और अपने प्रतिद्वंद्वी उम्मीदवार से किसी भी दृष्टि में कमतर न दिखें। इस रोज़गार में महिलाओं की संख्या बढ़ाने के लिए सरकार को नीतिगत फ़ैसले लेने चाहिए और ऐसी रणनीतियाँ अपनानी चाहिए, जो समावेशी हों एवं फ़ासलों को पाटने वाली हों। लक्षित कार्यक्रमों के ज़रिये इस दिशा में आगे बढ़ा जा सकता है।