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अंतर्विरोधों के बीच अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार

भारत की नज़र उसके सहयोगी आतंकी संगठनों पर, कश्मीर सबसे बड़ी चिन्ता

अफ़ग़ानिस्तान में आख़िर तालिबान की सरकार बन गयी। कुछ अंतर्विरोध अभी बने हुए हैं; लेकिन सभी घटक कोशिश कर रहे हैं कि बाक़ी दुनिया में उनके बीच मतभेदों का संकेत दुनिया में न जाए। उनके बीच आपसी मतभेद हैं यह पूरी नहीं, बल्कि अंतरिम सरकार बनाने के उनके फ़ैसले से साबित हो जाता है। इस लिहाज़ से जिस सरकार का गठन किया गया है, उसमें प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री कार्यकारी ज़िम्मा सँभाल रहे हैं। भारत सहित दुनिया के सभी देशों, ख़ासकर भारत की नज़र अब अफ़ग़ानिस्तान पर है। भारत के लिए यह इसलिए भी अहम है। क्योंकि तालिबान के घटक अलक़ायदा ने कश्मीर को लेकर जो बयान दिये हैं, उनसे यह आशंका ज़ाहिर होती है कि वहाँ आतंकवादी गतिविदियों को हवा दी सकती है।

ख़ुद तालिबान के प्रवक्ताओं के बयान कश्मीर को लेकर भ्रामक रहे हैं। एक तरफ़ वह अपनी ज़मीन दूसरे देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं होने देने का दम्भ भर रहे हैं। वहीं अन्य प्रवक्ता मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर को लेकर चिन्ता जता रहे हैं। ऐसे में यह आशंका स्वाभाविक ही है कि तालिबान सरकार का कश्मीर को लेकर क्या आधिकारिक रूख़ रहेगा? इसकी जानकारी आने वाले दिनों में ही मिल पाएगी।

क़तर में भारत के राजदूत जब तालिबान के नेताओं से मिले थे, तब भारत की तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की आशंकाओं और चिन्ताओं के प्रति उन्हें अवगत करवाया गया था। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जनरल फ़ैज़ अहमद सितंबर के पहले हफ़्ते जब अपने लाव-लश्कर के साथ काबुल पहुँच गये थे, तभी यह लगने लगा था कि पाकिस्तान तालिबान और उसके घटकों के  ज़रिये अपना एजेंडा चलाना चाहता है। और इसमें कश्मीर आईएसआई की सूची में सबसे ऊपर रहा है।

पंजशीर में तालिबान के क़ब्ज़े के दावों में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रहने की बातें अब रहस्यमय नहीं रह गयी हैं। भले पंजशीर की तस्वीर अभी पूरी तरह साफ़ नहीं है। यहाँ तक कि चीन की भूमिका को लेकर भी कयास हैं। यह सब चीज़ें भारत के लिए निश्चित ही चिन्ता का सबब हैं। कश्मीर को लेकर अलक़ायदा ने जो बयान दिया है, वह उसके इरादों की झलक देता है।

कश्मीर को लेकर तमाम बातों के बावजूद एक सच यह भी है कि वहाँ के लोग तालिबान को पसन्द नहीं करते। कश्मीर में सेना की बड़े पैमाने पर उपस्थिति भी आतंकी गतिविधियों के तेज़ होने की राह में बड़ा रोड़ा है। इसके बावजूद यह तय है कि कश्मीर में माहौल को ख़राब करने की बड़े स्तर पर कोशिश होगी। ख़ासकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पाकिस्तान वर्तमान हालात का फ़ायदा उठाना चाहता है और कश्मीर को लेकर उसकी अपनी एक निराशा रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद-370 वापस लेकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के मोदी सरकार के फ़ैसले के प्रति कश्मीर के लोगों में सख़्त नाराज़गी रही है। ऊपर से लेह को अलग करने के साथ-साथ उसका विधानसभा का दर्जा भी ख़त्म कर दिया गया। इससे कश्मीर ही नहीं, जम्मू सम्भाग तक में नाराज़गी है; क्योंकि जन प्रतिनिधि न होने के कारण उनके लिए दिक़्क़तें पैदा हुई हैं। उनके काम नहीं हो पा रहे और प्रक्रिया भी लम्बी हुई है। कश्मीर के मुख्यधारा के दलों में भी केंद्र के प्रति नाराज़गी है। इसका कारण अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के समय उन्हें भरोसे में नहीं लिया जाना है। ‘तहलका’ से बातचीत में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा- ‘हमारी पहली और आख़िरी माँग यह है कि जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बहाल किया जाए। यह फ़ैसला जम्मू-कश्मीर को बिना भरोसे में लिए जनता की भावनाओं के ख़िलाफ़ किया गया है। ज़ाहिर है कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व में भी अनुच्छेद-370 को लेकर गहरी नाराज़गी है।’

हाल के महीनों में केंद्र ने कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियों को पुनर्जीवित करने के लिए वहाँ आने वाले महीनों में विधानसभा के चुनाव के संकेत दिये हैं। लेकिन यह बड़ा सवाल है कि इतने भर से क्या कश्मीर में अनुच्छेद-370 के ज़रिये मिले सूबे के विशेष दर्जे के ख़त्म होने से उपजी नाराज़गी दूर हो जाएगी? कश्मीर में अलक़ायदा या दूसरे आतंकी संगठनों की गतिविधियों की कोशिशों को रोकने में वहाँ का राजनीतिक नेतृत्व बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। लिहाज़ा केंद्र के लिए यह ज़रूरी है कि उसे भरोसे में लिया जाए। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों ने कश्मीर के युवाओं की भर्ती अपने संगठनों में तेज़ की है। आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को आतंकी संगठनों ने अपने लिए बड़े स्तर पर भुनाया है।

कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व और वहाँ की जनता ने ही आतंकवाद के चलते सबसे ज़्यादा नुक़सान झेला है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के नेताओं के यदा-कदा के बयानों को छोड़ दिया जाए, तो वे भारत की ही बात करते रहे हैं। वे भारतीय चुनाव आयोग के चुनावों के तहत चुनाव में हिस्सा लेते रहे हैं और उसके क़ानूनों को मानते रहे हैं। पाकिस्तान की कश्मीर को लेकर नीयत ख़राब रही है और उसकी एजेंसी आईएसआई कश्मीर में उत्पात मचाने की हर सम्भव कोशिश करती रही है। लिहाज़ा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर को लेकर चिन्ता स्वाभाविक है।

तालिबान की अंतरिम सरकार

काफ़ी उहापोह के बाद आख़िर अफ़ग़ानिस्तान में मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा के नेतृत्व में 7 सितंबर की शाम तालिबान की अंतरिम सरकार का गठन हो गया। मुल्ला मुहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा कार्यवाहक प्रधानमंत्री होंगे, जबकि तालिबान के दूसरे सबसे बड़े नेता मुल्ला गनी बरादर और मुल्ला अबदस सलाम उप प्रधानमंत्री मनोनीत किये गये हैं। सरकार में मुल्ला याक़ूब की रक्षा मंत्री और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की गृहमंत्री की भूमिका होगी। इसके अलावा सूचना मंत्री ख़ैरूल्लाह ख़ैरख़्वा, सूचना उप मंत्री जबिउल्लाह मुजाहिद, उप विदेश मंत्री शेर अब्बास स्टानिकज़र्इ, न्याय मंत्री अब्दुल हक़ीम, वित्त मंत्री हेदयातुल्लाह बद्री, आर्थिक मंत्री कारी दीन हनीफ़, शिक्षा मंत्री शेख़ नूरुल्लाह, हज़ और धार्मिक मामलों के मंत्री नूर मोहम्मद साक़िब, जनजातीय मामलों के मंत्री नूरुल्लाह नूरी, ग्रामीण पुनर्वास और विकास मंत्री मोहम्मद यूनुस अख़ुंदज़ादा, लोक निर्माण मंत्री अब्दुल मनन ओमारी और पेट्रोलियम मंत्री मोहम्मद अख़ुंद मनोनीत किये गये हैं।

“यह एक खुला रहस्य है कि पाकिस्तान हमेशा तालिबान की मदद करता रहा है। न सिर्फ़ पैसों से, बल्कि हथियार और रक्षा उपकरणों के रूप में भी। पाकिस्तान का यह पक्ष कश्मीर घाटी के सन्दर्भ में बहुत अहमियत रखता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हमारी सुरक्षा एजेंसियाँ और वहाँ तैनात सेना पाकिस्तान के नापाक इरादों से निपटने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के  क़ब्ज़े से कश्मीर में आतंकवाद को नयी हवा मिल सकती है।”

राजेद्र सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त)

 

नब्बे के दशक के ज़ख़्म और वर्तमान ख़तरे

नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर में सबसे बड़ी घटनाएँ उस समय घटी हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में 90 के दशक में तालिबान की सत्ता थी। यह वही दौर था, जब कश्मीर में आतंकवाद ने पाँव पसारे। भारत ने आतंकवाद के उसके बाद कई गहरे ज़ख़्म झेले हैं। यहाँ तक कि कारगिल भी उसी काल में हुआ। यही नहीं, भारत की संसद पर हमला भी तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुआ। अपहृत करके कांधार ले जाए गये आईसी 814 विमान की घटना भी उसी दौर में हुई। भारत के लिए चिन्ता की बात यह भी है कि जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अज़हर अगस्त के मध्य में कांधार गया था। आख़िर उसका वहाँ जाने का क्या प्रयोजन था? जैश-ए-मोहम्मद ही नहीं लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी सक्रिय रहे हैं। कश्मीर में इन दो संगठनों का ही आतंकवाद को बढ़ाने में ज़्यादा हाथ रहा है।

भारत के लिए चिन्ता का एक और कारण यह है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने के तुरन्त बाद जो सबसे पहला काम किया, वह यह था कि उन्होंने जेलों में बन्द आतंकियों को छोड़ दिया था। इनमें से बड़ी संख्या में वे आतंकवादी थे, जो भारत में सक्रिय रहे और उनका ताल्लुक़ जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयब्बा से रहा है। ऐसे में इन आतंकियों का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ होना सम्भव है। लेकिन तालिबान ने फ़िलहाल सीधे-सीधे भारत के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और न ही कश्मीर को लेकर कोई बड़ा विरोधी बयान दिया है। यहाँ कुछ तथ्य और हैं, जो तालिबान के हाथ भारत के ख़िलाफ़ जाने के मामले में बाँधते हैं। एक यह कि तालिबान सही चले, तो भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। दूसरे इस बार तालिबान दुनिया के समर्थन का तलबगार दिखता है।

याद रहे तालिबान को 90 के दशक में सिर्फ़ पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने मान्यता दी थी। भारत का सहयोग या देश की उसे वैधता तालिबान के लिए बहुत बड़ी बात होगी। निश्चित ही भारत की तरफ़ से भी गोपनीय तरीक़े से बैक चैनल्स (परदे के पीछे के मध्यवर्ती लोगों) के ज़रिये तालिबान से बातचीत की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारत ने फ़िलहाल देखो और इंतज़ार की नीति अपना रखी है। हालाँकि यह भी सच है कि भारतीय एजेंसियाँ पिछले एक महीने से देश के कुछ राज्यों में गतिविधियों पर नज़र रख रही हैं। भारत के लिए तालिबान से रिश्ते स्थापित करना कोई आसान काम नहीं होगा। इसका एक कारण यह भी है कि उसने तालिबान से पिछली सत्ता के समय भी कोई रिश्ता या सम्पर्क नहीं रखा था। दूसरे इस बार तालिबान से चीन भी पींगे बढ़ा रहा है, जो पिछली बार नहीं था। चीन पिछले एक साल से सीमा पर भारत से ज़्यादा तनाव बनाया हुआ है। ऐसे में निश्चित ही भारत के लिए चुनौतियाँ बड़ी हैं, ख़ासकर कश्मीर को लेकर।

जज़्बे से जीते दिव्यांग खिलाड़ी

हाल ही में सम्पन्न टोक्यो पैरालंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन की चर्चा केवल इस देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हो रही है। दिव्यांग खिलाडिय़ों ने उम्मीद की रेखा लाँघकर देशवासियों के सामने अपने असीम जज़्बे का परिचय देकर अपनी भावी उपलब्धियों की ओर भी इशारा कर दिया है। इस बार भारतीय पैरालंपिक दल 54 खिलाडिय़ों का था और आकलन में उन्हें अधिकतम 15 पदक का दावेदार माना गया था; लेकिन इस दल ने 19 पदक जीतकर इतिहास रच दिया है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों ने 5 स्वर्ण, 8 रजत और 6 कास्य पदक जीतकर सबको चौंका दिया।

ग़ौरतलब है कि पैरालंपिक में पहली बार पाँच स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया है। अवनि लेखरा, सुमित अतिल, मनीष नरवाल, प्रमोद भगत, कृष्णा नगर ने स्वर्ण पदक हासिल किये, तो भावनाबेन, निषाद कुमार, देवेंद्र झाझरिया, योगेश, प्रवीण कुमार, सिंहराज, सुहास यथिराज और मरियप्पन ने रजत पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया। इसके अलावा सुंदर सिंह गुर्जर, अवनि लेखड़ा, शरद कुमार, हरवंदिर सिंह, मनोज सरकार और सिंहराज अधाना ने कास्य पदक जीतकर महज़ अपना नाम ही पदक तालिका में दर्ज नहीं कराया, बल्कि देश को भी इन सब पर नाज़ है। अवनि लखेड़ा और सिंहराज अधाना ने दो-दो पदक जीते हैं। सुहास यथिराज पहले आईएएस हैं, जिन्होंने पैरालंपिक में न केवल हिस्सा लिया, बल्कि रजत पदक भी जीता। वह एक प्रेरणास्रोत के रूप में उभरे हैं। जैसा कि पैरालंपिक नाम से ही स्पष्ट है कि ये खेल दिव्यांग लोगों के लिए हैं। पैरालंपिक की स्थापना सन् 1960 में की गयी थी और इसे शुरू करने के पीछे एक मक़सद दुनिया भर के लोगों में ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने, उनमें छिपी योग्यता, कौशल को निखारने, बराबरी का सम्मान देने वाली भावना को विकसित करने के बाबत जागरूकता फैलाना भी है।

अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का अनुमान है कि विश्व की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी विकलांग है और ऐसे खेलों की मंशा समाज को विकलांगता के लिए ज़रूरी संरचना, संसाधन और सामाजिक समावेश के लिए प्रोत्साहित करने की है। मंशा नेक है। लेकिन इसके साथ सवाल भी अनेक है। अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का मानना है कि दुनिया की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी दिव्यांग, नि:शक्त है; यानी इस दुनिया में क़रीब एक अरब ऐसे लोग हैं और ग़ौर करने वाला तथ्य यह है कि ऐसे अधिकांश लोग विकासशील देशों में है।

सेहत दुरुस्त करने की ज़रूरत

विकासशील देशों की आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं हुई है और इस आबादी की शारीरिक सेहत व मानसिक सेहत को दुरुस्त रखने के लिए पैसा और दृढ़ शक्ति दोनों की ज़रूरत होती है। सामाजिक नज़रिया बदलने के लिए कई प्रयास करने होते हैं और उसके लिए फंड चाहिए होता है। सामाजिक, आर्थिक समावेश के ठोस नतीजे पाने के लिए समग्र दृष्टिकोण की दरकार होती है। टोक्यो पैरालंपिक में चीन शीर्ष स्थान पर रहा और उसके बाद ब्रिटेन, रूस और अमेरिका है।

यूक्रेन 98 पदक जीतकर पाँचवें स्थान पर है और इस ग़रीब देश की इन उपलब्धियों ने सबको हैरत में डालने के साथ ही यह सन्देश भी दिया है कि जहाँ चाह, वहाँ राह। यूक्रेन को यूरोप का ग़रीब देश माना जाता है और संयुक्त राष्ट्र ने इस देश को दिव्यांग लोगों के रहने के लिए मुश्किल जगह बताया है। यूक्रेन में दिव्यांग एथलीट के लिए विशेष सेंटर और खेल स्कूल हैं। नीति बदलकर सामान्य खिलाडिय़ों व पैरालंपिक खिलाडिय़ों की इनाम राशि बराबर कर दी है।

बदलना होगा नज़रिया

यूँ तो हर साल 3 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। इसे हर साल मनाने के पीछे मक़सद शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के प्रति समाज के नज़रिये में बदलाव लाना है और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। सन् 1992 से इसे पूरी दुनिया में मनाने की शुरुआत हुई। हर साल इस दिन दिव्यांगों के विकास, उनके कल्याण क लिए योजनाओं, समाज में उन्हें बराबरी के मौक़े मुहैया कराने पर विचार-विमर्श किया जाता है। हर साल दुनिया के तमाम देशों में इस दिन उनकी स्थिति में सुधार लाने, उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। हर साल अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का एक थीम तय किया जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस 2020 का विषय था- बेहतर पुनर्निमाण: कोविड-19 के बाद की दुनिया में विकलांग लोगों के लिए समावेशी, सुलभ और अनुकूल माहौल हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस थीम का समर्थन किया और कोविड-19 महामारी के दौरान दिव्यांग व्यक्तियों की ज़रूरत पर बल दिया है। दरअसल अभी भी समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा विकलांगता को कलंक के तौर पर ही देखता है और उनसे दूरी बनाये रखता है। हमें इस नज़रिये को बदलना होगा। सम्भवत: इसीलिए विकलांग व्यक्तियों के लिए समाज में नियम और नियामकों का ठीक तरह से लागू करने के लिए दिव्यांगों के लिए आयोजित अंतर्राष्ट्रीय दिवस के उत्सव को एक प्रभावशाली प्रसंग की ज़रूरत होती है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि इस दिवस का एक अहम उद्देश्य दिव्यांग लोगों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की मुख्यधारा में शामिल करना है।

दिव्यांगों का करना होगा सम्मान

संयुक्त राष्ट्र ने दिव्यांग लोगों की दुर्दशा के मद्देनज़र सन् 2006 में दिव्यांग लोगों के अधिकारों पर एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि पारित की, जिस पर दुनिया के 160 देशों ने अभिपुष्टि की है। इस सूची में भारत भी शामिल है। भारत जो कि आबादी में विश्व में दूसरे नंबर पर है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांगों की संख्या 2.68 करोड़ है, इसमें से 69 फ़ीसदी दिव्यांग आबादी गाँवों में और 38 फ़ीसदी शहरों में बसती है। सन् 2001 जनगणना के मुताबिक, तब यह आबादी 2.1 करोड़ थी। सन् 2001 से सन् 2011 यानी इन 10 वर्षों में दिव्यांग लोगों की संख्या बढ़ गयी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर, 2015 की मन की बात कार्यक्रम में विकलांग को दिव्यांग का नाम दिया और अब भारत में दिव्यांग शब्द का ही अधिकतर प्रयोग किया जाता है। प्रधानमंत्री का दिव्यांग शब्द देने का मक़सद ऐसे लोगों को सम्मान देना, उनके भीतर के हुनर को बाहर निकालना और ऐसे लोगों को कमतर नहीं समझने से ही है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों का दिव्य प्रदर्शन इसकी यादगार मिसाल है। बहरहाल देश में दिव्यांगों को सशक्त बनाने के लिए क़ानून भी हैं। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 में विकलांगता की परिभाषा में बदलाव लाते हुए इसे और व्यापक बनाया गया है। दरअसल इस अधिनियम में विकलांगता को एक विकसित व गतिशील अवधारणा के आधार पर परिभाषित किया गया है और अपंगता की मौज़ूदा प्रकारों को सात से बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। इस अधिनियम में शिक्षा व सरकारी नौकरियों में दिव्यांगों के लिए तीन फ़ीसदी आरक्षण को बढ़ाकर चार फ़ीसदी कर दिया गया है। इस अधिनियम में सरकारी वित्त पोषित शैक्षिक संस्थानों और सरकार के द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थानों को दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा मुहैया करानी होगी। दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए योजनाओं व कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने हेतु सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत सन् 2012 में एक नये विभाग की स्थापना की गयी।

परिवहन प्रणाली भी सुगम नहीं

15 दिसंबर, 2015 को दिव्यांग लोगों के लिए सुगम्य भारत अभियान की शुरुआत की गयी। इस अभियान का मक़सद दिव्यांगजनों के लिए एक सक्षम व बाधारहित वातावरण तैयार करना है। ग़ौरतलब है कि इस अभियान के तहत मौज़ूदा वातावरण में सुगमता निश्चित करने, परिवहन प्रणाली में सुगमता तथा ज्ञान के माध्यम से दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने जैसे तीन प्रमुख उद्देश्यों पर ज़ोर है। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली दिव्यांगों के लिए कितनी सुगम है? इस बात का जवाब क्या सरकार के पास है? सरकार के मंत्री व आला अधिकारी बेशक गोल-मोल जवाब दे दें, मगर वास्तविकता सबके सामने है। मेट्रो में इनके लिए सुविधाएँ हैं; लेकिन सवाल यह है कि मेट्रो देश के कितने शहरों में चलती है। सामान्य रेलगाडिय़ों में इनके लिए क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बसों में भी क्या सुविधाएँ दी जाती हैं, सब जानते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में लो फ्लोर बसें चलती हैं; लेकिन उसमें व्हील चेयर इस्तेमाल करने वाला दिव्यांग व्हील चेयर के साथ नहीं चढ़ सकते। वहीं यूरोप और अन्य विकसित देशों में बसों को ऐसे बनाया गया है कि दिव्यांग व्हील चेयर के साथ बस में चढ़ सकते हैं।

बेहतर प्रयासों की दरकार

केंद्र की मौज़ूदा सरकार का कौशल विकास पर बहुत ही ज़ोर है। लिहाज़ा दिव्यांगजनों के कौशल प्रशिक्षण के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना की शुरुआत की गयी और इसका उद्देश्य 2022 तक 25 लाख दिव्यांगों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना है। लक्ष्य बड़े हैं; लेकिन बड़ों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए फंड, प्रतिबद्धता, कड़ी मेहनत की दरकार है और इस सन्दर्भ में भारत को और अधिक गम्भीर नज़रिये के साथ दुनिया के सामने आना होगा। निश्चित तौर पर टोक्यो पैरालंपिक में देश को 19 पदक मिलना एक विशेष उपलब्धि है और इस उपलब्धि ने देश की 2.68 करोड़ दिव्यांग आबादी की ओर ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अभी भी देश के दिव्यांगों के लिए बहुत-से अभाव हैं, जिन्हें तत्काल पूरा करने की ज़रूरत है। उम्मीद है कि सरकार, समाज व अन्य संगठन मिलकर इनके लिए हर दृष्टि से समावेशी माहौल बनाने की दिशा में काम करेंगे।

राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना से किसे होगा लाभ?

विपक्ष ने मोदी सरकार की राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना (नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन) के ख़िलाफ़ मोर्चा सँभाल लिया है और दावा किया है कि इस नीति के नाम पर सरकार पिछले 70 साल में निर्मित देश की सम्पतियों को बेचने जा रही है। पिछले महीने सरकार ने छ: लाख अरब रुपये की चार वर्षीय राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) की घोषणा की थी।

ऐसे आरोप हैं कि इस रणनीति का मक़सद निजी क्षेत्र को शामिल करके, उन्हें परियोजनाओं के स्वामित्व के बजाय अधिकार देकर और देश भर में बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए धन का पुन: उपयोग करके ब्राउनफील्ड सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि करना है।

इस आलेख में हम एनएमपी का विश्लेषण कर रहे हैं, जिसे केंद्रीय वित्त और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने लॉन्च किया था। केंद्रीय मंत्रालयों और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की सम्पत्ति मुद्रीकरण पाइपलाइन को लेकर सरकार ने कहा कि इसे राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन को नीति आयोग ने केंद्रीय बजट 2021-22 के तहत सम्पति मुद्रीकरण के लिए जनादेश के आधार पर बुनियादी ढाँचा मंत्रालयों के परामर्श से विकसित किया है। एनएमपी में वर्ष 2022 से वर्ष 2025 तक चार साल की अवधि में केंद्र सरकार की मुख्य सम्पत्ति के माध्यम से 6.0 लाख करोड़ रुपये की कुल मुद्रीकरण क्षमता का अनुमान लगाया गया है।

एनएमपी पर रिपोर्ट के तहत शामिल हैं- ‘सडक़, परिवहन और राजमार्ग, रेलवे, बिजली, पाइपलाइन और प्राकृतिक गैस, नागरिक उड्डयन, शिपिंग बंदरगाह और जलमार्ग, दूरसंचार, खाद्य और सार्वजनिक वितरण, खनन, कोयला और आवास और शहरी मामले। वित्त मंत्री ने दावा किया कि सम्पत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम प्रधानमंत्री की दृष्टि के कारण आकार ले चुका है, जो हमेशा भारत के आम नागरिक के लिए उच्च गुणवत्ता और सस्ती बुनियादी ढाँचे तक सार्वभौमिक पहुँच में विश्वास करते हैं। मुद्रीकरण के माध्यम से सृजन के दर्शन पर आधारित सम्पत्ति मुद्रीकरण का उद्देश्य नये बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए निजी क्षेत्र के निवेश का दोहन करना है। यह रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए आवश्यक है, जिससे उच्च आर्थिक विकास को सक्षम बनाया जा सके और समग्र जन कल्याण के लिए ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों को समेकित रूप से एकीकृत किया जा सके।’

रोडमैप

कार्यक्रम का रणनीतिक उद्देश्य संस्थागत और दीर्घकालिक रोगी पूँजी का दोहन करके ब्राउनफील्ड सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति में निवेश के मूल्य को खोलना है, जिसे बाद में नीति आयोग के अनुसार सार्वजनिक निवेश के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। एनएमपी की परिकल्पना विभिन्न बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सम्भावित मुद्रीकरण-तैयार परियोजनाओं की पहचान के लिए एक मध्यम अवधि के रोडमैप के रूप में की गयी है।

इसका उद्देश्य सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिए पहल के प्रदर्शन की निगरानी और निवेशकों के लिए अपनी भविष्य की गतिविधियों की योजना बनाने के लिए एक व्यवस्थित और पारदर्शी तंत्र बनाना है। सम्पत्ति मुद्रीकरण को न केवल एक वित्त पोषण तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए, बल्कि निजी क्षेत्र की संसाधन क्षमता और विकसित वैश्विक और आर्थिक वास्तविकता को गतिशील रूप से अनुकूलित करने की क्षमता पर विचार करते हुए बुनियादी ढाँचे के संचालन, वृद्धि और रखरखाव में समग्र प्रतिमान बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए।

इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट और रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट जैसे नये मॉडल न केवल वित्तीय और रणनीतिक निवेशकों, बल्कि आम लोगों के भी इस परिसम्पत्ति वर्ग में भाग लेने में सक्षम होने की सम्भावना है, जिससे निवेश के नये रास्ते खुलेंगे। एनएमपी नीति आयोग, वित्त मंत्रालय और सम्बन्धित मंत्रालयों द्वारा किये गये बहु-हितधारक परामर्शों के माध्यम से समेकित अंतर्दृष्टि, प्रतिक्रिया और अनुभवों नतीजा है। सम्पत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम के समग्र कार्यान्वयन और निगरानी के लिए एक बहु-स्तरीय संस्थागत तंत्र के हिस्से के रूप में केबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सम्पत्ति मुद्रीकरण (सीजीएएम) पर सचिवों का एक अधिकार प्राप्त कोर ग्रुप का गठन किया गया है।

कैसा होगा ढाँचा?

केंद्रीय बजट 2021-22 ने स्थायी बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण के लिए एक प्रमुख साधन के रूप में सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे की सम्पत्ति के संचालन के मुद्रीकरण की पहचान की थी। इस दिशा में बजट में सम्भावित ब्राउनफील्ड इंफ्रास्ट्रक्चर परिसम्पत्तियों की राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) तैयार करने का प्रावधान किया गया है। नीति आयोग ने इन्फ्रा लाइन मंत्रालयों के परामर्श से एनएमपी पर रिपोर्ट तैयार की है। एनएमपी का उद्देश्य निजी क्षेत्र के लिए सम्भावित सम्पत्तियों पर दृश्यता के साथ सार्वजनिक सम्पत्ति के मालिकों के लिए कार्यक्रम का एक मध्यम अवधि का रोडमैप प्रदान करना है।

विनिवेश के माध्यम से मुद्रीकरण और ग़ैर-प्रमुख सम्पत्तियों के मुद्रीकरण को एनएमपी में शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा वर्तमान में केवल केंद्र सरकार के मंत्रालयों और बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सीपीएसई की सम्पत्ति को शामिल किया गया है। राज्यों से परिसम्पत्ति पाइपलाइन के समन्वय और मिलान की प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है और इसे नियत समय में शामिल करने की परिकल्पना की गयी है।

मुख्य परिसम्पत्ति मुद्रीकरण के मुद्रीकरण के ढाँचे में तीन प्रमुख अनिवार्यताएँ हैं। इसमें राजस्व अधिकारों के आसपास संरचित समग्र लेन-देन के साथ स्थिर राजस्व सृजन प्रोफाइल के साथ जोखिम रहित और ब्राउनफील्ड परिसम्पत्तियों का चयन शामिल है। इसलिए इन संरचनाओं के तहत परिसम्पत्तियों का प्राथमिक स्वामित्व सरकार के पास बना रहता है, जिसमें लेन-देन जीवन के अंत में सार्वजनिक प्राधिकरण को सम्पत्ति वापस सौंपने की परिकल्पना की गयी है।

यह देखते हुए कि बुनियादी ढाँचे का निर्माण मुद्रीकरण से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, एनएमपी की अवधि तय की गयी है; ताकि नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत शेष अवधि के साथ सह केंद्र हो। विनिवेश के माध्यम से मुद्रीकरण और ग़ैर-प्रमुख सम्पत्तियों के मुद्रीकरण को एनएमपी में शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा वर्तमान में केवल केंद्र सरकार के मंत्रालयों और बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सीपीएसई की सम्पत्ति को शामिल किया गया है। राज्यों से परिसम्पत्ति पाइपलाइन के समन्वय और मिलान की प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है और इसे नियत समय में शामिल करने की परिकल्पना की गयी है।

मुख्य परिसम्पत्ति मुद्रीकरण के ढाँचे में तीन प्रमुख अनिवार्यताएँ हैं। इसमें राजस्व अधिकारों के आसपास संरचित समग्र लेन-देन के साथ स्थिर राजस्व सृजन प्रोफाइल के साथ जोखिम रहित और ब्राउनफील्ड परिसम्पत्तियों का चयन शामिल है। इसलिए इन संरचनाओं के तहत परिसम्पत्तियों का प्राथमिक स्वामित्व सरकार के पास बना रहता है, जिसमें लेन-देन जीवन के अन्त में सार्वजनिक प्राधिकरण को सम्पत्ति वापस सौंपने की परिकल्पना की गयी है। यह देखते हुए कि बुनियादी ढाँचे का निर्माण मुद्रीकरण से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, एनएमपी की अवधि तय की गयी है, ताकि नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत शेष अवधि के साथ सह केंद्र हो।

वित्तीय वर्ष 2022-2025 (चार साल की अवधि) में एनएमपी के तहत परिसम्पत्ति पाइपलाइन में सांकेतिक रूप से 6.0 लाख करोड़ रुपये रखे गये हैं। अनुमानित मूल्य एनआईपी (43 लाख करोड़ रुपये) के तहत केंद्र के लिए प्रस्तावित परिव्यय के 14 फ़ीसदी के अनुरूप है। इसमें 12 से अधिक लाइन मंत्रालय और 20 से अधिक परिसम्पत्ति वर्ग शामिल हैं। शामिल क्षेत्रों में सडक़ें, बंदरगाह, हवाई अड्डे, रेलवे, गोदाम, गैस और उत्पाद पाइपलाइन, बिजली उत्पादन और पारेषण (भेजना), खनन, दूरसंचार, स्टेडियम, आतिथ्य और आवास शामिल हैं।

क्षेत्रवार मुद्रीकरण

शीर्ष पाँच क्षेत्र (अनुमानित मूल्य के अनुसार) कुल पाइपलाइन मूल्य का 83 फ़ीसदी हिस्सा कवर करते हैं।

इन शीर्ष पाँच क्षेत्रों में शामिल हैं- सडक़ें (27 फ़ीसदी), जो सबसे ऊपर हैं। इसके बाद रेलवे (25 फ़ीसदी), बिजली (15 फ़ीसदी), तेल और गैस पाइपलाइन (8 फ़ीसदी) और दूरसंचार (6 फ़ीसदी) शामिल हैं। मूल्य के अनुसार, वार्षिक चरणबद्धता के सन्दर्भ में 0.88 लाख करोड़ रुपये के सांकेतिक मूल्य के साथ 15 फ़ीसदी सम्पत्ति को चालू वित्तीय वर्ष (वित्त वर्ष 2021-22) में देने की परिकल्पना की गयी है। हालाँकि एनएमपी के तहत कुल और साथ ही साल दर साल मूल्य समय, लेन-देन संरचना, निवेशक हित आदि के आधार पर सार्वजनिक सम्पत्ति के लिए वास्तविक वसूली के साथ केवल एक संकेतक मूल्य है।

एनएमपी के तहत पहचानी गयी सम्पत्ति और लेन-देन को कई प्रकार के उपकरणों के माध्यम से शुरू किये जाने की सम्भावना है। इनमें सार्वजनिक निजी भागीदारी रियायतें और पूँजी बाज़ार के साधन जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट्स (इनविट) प्रत्यक्ष संविदात्मक उपकरण शामिल हैं। परिसम्पत्ति की प्रकृति लेन-देन के समय (बाज़ार के विचारों सहित), लक्षित निवेशक प्रोफाइल और परिसम्पत्ति मालिक द्वारा बनाये रखने के लिए परिकल्पित परिचालन / निवेश नियंत्रण के स्तर आदि द्वारा निर्धारित  की जाएगी।

सम्पत्ति मुद्रीकरण प्रक्रिया के माध्यम से सार्वजनिक सम्पत्ति के मालिक द्वारा प्राप्त किये जाने वाला मुद्रीकरण मूल्य या तो अग्रिम स्रोतों के रूप में या निजी क्षेत्र के निवेश के माध्यम से हो सकता है।

एनएमपी के तहत निर्धारित सम्भावित मूल्य सामान्य नियमों के आधार पर केवल एक सांकेतिक उच्च स्तरीय अनुमान है। यह विभिन्न दृष्टिकोणों जैसे बाज़ार या लागत या बही या उद्यम मूल्य आदि पर आधारित है, जो सम्बन्धित क्षेत्रों के लिए लागू और उपलब्ध है।

समग्र रणनीति के रूप में परिसम्पत्ति आधार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सरकार के पास रहेगा। परिसम्पत्ति मुद्रीकरण की एक कुशल और प्रभावी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा आवश्यक नीति और नियामक हस्तक्षेपों के माध्यम से कार्यक्रम का समर्थन करने की परिकल्पना की गयी है। इनमें परिचालन तौर-तरीक़ों को सुव्यवस्थित करना, निवेशकों की भागीदारी को प्रोत्साहित करना और वाणिज्यिक दक्षता को सुविधाजनक बनाना शामिल है।

केंद्रीय बजट 2021-22 के तहत परिकल्पित परिसम्पत्ति मुद्रीकरण डैशबोर्ड के माध्यम से वास्तविक समय की निगरानी की जाएगी। इस पहल का अन्तिम उद्देश्य मुद्रीकरण के माध्यम से बुनियादी ढाँचे के निर्माण को सक्षम करना है, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र सहयोग करते हैं। प्रत्येक अपनी क्षमता के मुख्य क्षेत्रों में उत्कृष्ट है, ताकि देश के नागरिकों को सामाजिक-आर्थिक विकास और जीवन की गुणवत्ता प्रदान की जा सके।

क्या वोट की चोट कर पाएँगे किसान?

मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव को कितना करेगी प्रभावित?

साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील मुज़फ़्फ़रनगर हमेशा हाशिये पर रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले मुज़फ़्फ़रनगर की किसान महापंचायत ने इसे सारे पुराने हिसाब पूरे करने का अवसर दे दिया है। किसानों की इस महापंचायत में ‘वोट से चोट’ का नारा राजनीतिक गलियारों में गूँजने लगा है। भाजपा भले इसे किसान आन्दोलन का राजनीतिकरण बताये, सच यह है कि वोट से चोट का किसानों का नारा यदि आम आदमी का नारा बन गया, तो सत्तारूढ़ भाजपा को लेने-के-देने भी पड़ सकते हैं।

उत्तर प्रदेश के किसानों की योगी सरकार से भी नाराज़गी कुछ कम नहीं है। हाल के वर्षों में योगी की मुश्किलें भी बढ़ी हैं। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के बड़े नेताओं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी, दोनों शामिल थे; ने जो वादे राज्य के किसानों से किये थे, उनमें ज़्यादातर अधूरे ही रह गये हैं और चुनाव फिर आ चुके।

किसान बातचीत में अपने इस दर्द को छिपा नहीं पाते। मुज़फ़्फ़रनगर के एक युवा किसान अब्बास काज़मी, जो ख़ासतौर पर महारैली में आये थे; ने अपनी कठिनाइयों को व्यक्त करते हुए सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया। काज़मी ने कहा- ‘हर महीने डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ जाती हैं। किसान खेती कैसे करेंगे? जब हमारे ट्रैक्टर और मशीनें घर पर रखने होंगे। आख़िर मशीनें और ट्रैक्टर ईंधन से ही चलते हैं। ग़रीब किसान कैसे यह कर सकेगा?’ अब्बास ने आगे कहा कि सरकार एमएसपी लागू नहीं कर रही है। बिहार में धान की क़ीमत 800 रुपये कुंतल है और धान की लागत लगभग 11,000 रुपये प्रति बीघा है। किसान क्या बचाएगा? 30 साल के इस किसान ने कहा- ‘सरकार ने 400 रुपये प्रति कुंतल गन्ना देने का वादा किया था, जो पिछले चार साल से 325 रुपये प्रति कुंतल है। हम इस सरकार को फिर से क्यों चुनेंगे?’

संयुक्त किसान मोर्चा की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत में जिस तरह लाखों किसान एक साथ आये, उससे उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल है। महापंचायत में बड़े पैमाने पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दोआबा इलाक़े (गंगा और जमुना नदियों के बीच का क्षेत्र) के किसानों का ख़ासा वर्चस्व रहा था। महापंचायत का समय भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह फ़सल के मौसम से पहले हुआ है। उच्च मुद्रास्फीति और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से आमजन में अलग से गहन निराशा है। कई इलाक़ों को अभी भी कोरोना के प्रतिबंधों के प्रभाव से उबरना बाक़ी है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में गन्ने की क़ीमतों में स्थिरता से गन्ना किसान परेशान हैं। किसान इस बात से नाराज़ हैं कि पिछले कुछ वर्षों में डीजल के साथ-साथ उर्वरक खादों, कीटनाशकों और बीजों की क़ीमतों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। बाज़ारों में खाद्यान्नों की क़ीमतें भी बढ़ी हैं; लेकिन किसानों को वही पुराना भाव मिलता है।

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि जाट किसान और मुसलमान फिर एक होते हैं, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने गढ़ों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए एक गम्भीर राजनीतिक चुनौती पैदा हो जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट एक निर्णायक कारक हैं और उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से कम-से-कम 120 सीटों पर उनका काफ़ी प्रभाव है। इसके अलावा प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी जाट और सिख किसान रहते हैं। इसके अतिरिक्त दलित समुदाय, विशेष रूप से जाटव और अन्य जातियों के मतदाता भी किसान आन्दोलन का बड़ा हिस्सा हैं। जाट, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के परिदृश्य पर हावी हैं; क्षेत्र में काफ़ी प्रभावशाली हैं। इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी खेती से जुड़ी है। ऐतिहासिक रूप से गन्ना उत्पादक क्षेत्र का राजनीतिक दलों पर गहरा प्रभाव है। ऐसे में किसानों की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण बदल सकती है। यह धरती वैसे भी किसान आन्दोलनों की उर्वर भूमि है। राकेश टिकैत के पिता किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद पूरे राज्य में 30 से अधिक यूनियनों का गठन किया गया था। इसके अलावा सन् 1978 में भारतीय लोक दल का गठन पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में हुआ था। सन् 1996 में महेंद्र सिंह टिकैत ने चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के साथ गठबन्धन किया, जिन्होंने किसान कामगार पार्टी बनायी। उस साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गठबन्धन ने 14 सीटें जीती थीं। हालाँकि अगले साल महेंद्र सिंह टिकैट इस साझेदारी से अलग हो गये।

आज की तारीख़ में महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बन गये हैं। राकेश ने संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले राजनीतिक नारेबाज़ी करके निश्चित ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का पारा चढ़ा दिया है। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद इस निर्वाचन क्षेत्र के दामन में दाग़ लग गया था। इसने रिश्तों में गहरी दरार भी पैदा कर दी थी। लेकिन हो सकता है कि यह साझा लक्ष्य इस खाई को पाट दे। अगर यह हुआ, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में यह एक नयी चुनौती होगी।

अब किसानों के इर्दगिर्द होगी राजनीति

किसान महापंचायत से देश के सियासी समीकरण किस तरह बनेंगे-बिगड़ेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इतना तो ज़रूर है कि अब किसानों की उपेक्षा कोई भी राजनीतिक दल नहीं करेगा। किसानों के सम्मान और कृषि के इर्दगिर्द ही देश की राजनीति तय होगी। किसानों को कैसे अपने पक्ष में किया जाए, इसके लिए राजनीतिक दल आगामी विधानसभा चुनाव में अपने घोषणा-पत्र में उनकी आर्थिक सम्पन्नता, समस्याएँ और उनकी माँगों की ओर ध्यान दे सकते हैं। क्योंकि देश के सभी राजनीतिक दलों ने मुज़फ़्फ़रनगर की किसान महापंचायत में यह देख लिया कि आने वाले दिनों में किसान देश की सियासत की दशा और दिशा तय करेंगे।

बताते चलें कि देश के किसान अपने अधिकारों और खेती-बाड़ी बचाने की ख़ातिर तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में लगभग 10 महीने से दिल्ली की सीमाओं पर शान्तिपूर्वक आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन सरकार ने अभी तक उनकी आवाज़ नहीं सुनी। किसानों ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहित कई केंद्रीय मंत्रियों से कई मर्तबा बातचीत की और सरकार से लॉकडाउन में बिना चर्चा के लाये गये इन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग की। लेकिन सरकार ने कृषि क़ानून वापस नहीं लिये, उलटा किसानों को धमकियाँ दीं और कई तरह से प्रताडि़त किया। किसानों पर प्रताडऩा का अंदाज़ा कई बार उन पर कराये गये लाठीचार्ज, अग्निकांड, सडक़ों को खोदने, सडक़ों पर बड़े-बड़े कीले ठुकवाने और दुश्मन देश की सीमाओं की तरह दिल्ली की सडक़ों पर बैरिकेड लगवाये, पुलिस से लेकर अर्धसैन्य बलों तक को तैनात करने से लगाया जा सकता है। इन घटनाओं में कई किसानों की मौतें भी हुईं। इससे भी जब किसानों ने आन्दोलन बन्द नहीं किया, तो उन पर देश विरोधी होने के लांछन लगाये गये, जिससे न केवल किसानों का विरोध बढ़ा, बल्कि देश का समतावादी नज़र वाला तबक़ा उनके साथ और मज़बूती के साथ खड़ा हो गया। किसान आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए किसानों के आपस में झगडऩे, टूटने, आन्दोलन के ख़त्म होने और आन्दोलन में किसानों के न होने जैसी अफ़वाहें भी उड़ायी गयीं। इसके जबाव में 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा ने महापचांयत का आयोजन कर दिया, जो कि सरकार को एक झटका दे गया। संयुक्त किसान मोर्चा के किसान नेता राकेश टिकैत ने देश भर से आये लाखों किसानों के इस कुम्भ में साफ़ कह दिया कि अगर सरकार नहीं मानी, तो आगामी साल पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनावों में, जिसमें उत्तर प्रदेश जैसा महत्त्वपूर्ण राज्य शामिल है; भाजपा के राजनीतिक समीकरण बदल दिये जाएँगे। किसानों के पास वोट बैंक की इतनी ताक़त है कि भाजपा को सत्ता से आसानी से हटा देंगे। महापंचायत के माध्यम से किसानों ने अपने-अपने तरीक़े से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तीखे हमले किये। इन हमलों के सियासी मायने कुछ भी निकालें जाएँ, पर इतना ज़रूर है कि इस महापंचायत में किसानों की एकता को देखकर सरकार घबरायी तो है। महापंचायत के बाद भाजपा नेताओं ने किसानों के साधने के लिए ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया है। किसानों के साथ तालमेल बैठाने की चर्चा सियासी गलियारों में है।

राकेश टिकैत ने महापंचायत में साफ़तौर पर कहा कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों ही उत्तर प्रदेश के नहीं हैं। इन्हें उत्तर प्रदेश से जाना चाहिए। मतलब साफ़ है कि नरेंद्र मोदी गुजरात से हैं, जो उत्तर प्रदेश की बनारस लोकसभा सीट जीतकर आते हैं और आदित्यनाथ मूलत: उत्तराखण्ड से हैं और गोरखपुर से राजनीति कर रहे हैं। दोनों नेताओं पर राकेश टिकैत के बयान से उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश के सियासी समीकरण का अलग ही सन्देश गया है। क्योंकि माना यह जा रहा है कि जिस राज्य से नेता हो, उसी राज्य से वह राजनीति करे; दूसरे राज्यों जाकर राजनीति न करे। अगर कोई नेता वाक़र्इ बहुत अच्छा है, तो उसके राज्य के लोग उसे क्यों पसन्द नहीं करेंगे? हालाँकि ‘तहलका’ इस तरह के क्षेत्रवादी और राज्यवादी बँटवारे के पक्ष में नहीं है।

राकेश टिकैत ने महापंचायत से नपे-तुले सियासी अंदाज़ में किसानों की हक़ की बात करने के साथ-साथ बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, चरमराती अर्थ-व्यवस्था, किसानों की ज़मीन बेचने वाले सरकारी षड्यंत्र जैसे कई मुद्दों को लेकर भी भाजपा पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि रेल, बिजली, सडक़, एलआईसी बंदरगाह, हवाई जहाज़ और एफसीआई को सरकार बेंच रही है। राकेश टिकैत ने कहा कि जब तक कृषि क़ानून वापस नहीं, तब तक वोट नहीं। उन्होंने ऐलान किया कि 01 जनवरी, 2022 से किसान अपनी फ़सल को दोगुने दामों पर बेचेंगे। साथ ही माँग की कि किसानों को गन्ने का भाव 450 रुपये प्रति कुन्तल मिलना चाहिए।

इस महापंचायत की विशेषता यह रही कि इसमें सभी धर्मों की एकता पर ज़ोर दिया गया और यह बताया गया कि देश में सभी धर्मों के किसान हैं। बड़ी बात यह रही कि विपक्षी नेताओं को संयुक्त किसान मोर्चा ने अपना मंच साझा नहीं करने दिया। इस महापंचायत में लघु भारत की तस्वीर साफ़ दिखी, जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु और अन्य कई राज्यों से आकर किसानों और उनके परिजनों, यहाँ तक कि बच्चों और महिलाओं ने भी भाग लिया। हरियाणा से हिसार से किसान नेता बलजीत सिंह ने बताया कि हरियाणा सरकार सत्ता के नशे में इस क़दर चूर है कि वह किसानों पर जानलेवा हमला करवा रही है, जिसमें किसानों की जानें जा रही हैं। किसानों का यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा; क्योंकि इन्हीं किसानों ने भाजपा की सरकार बनवाने के लिए मेहनत की, मतदान किया। अब वही सरकार किसानों पर अत्याचार कर रही है। अब किसान भाजपा को सत्ता से बेदख़ल करके रहेंगे। कानपुर से किसान नेता राहुल सिंह कहा कि देश के अन्नदाता आज अपने अधिकारों और कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए केंद्र सरकार से अपील कर रहे हैं। लेकिन सरकार देश के दो-चार पूँजीपतियों को ख़ुश करने के लिए किसानों के साथ खिलवाड़ कर रही है। ऐसी भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए किसानों ने कमर कस ली है। आगामी चुनावों में भाजपा को सब पता चल जाएगा कि किसानों में कितनी ताक़त है। पंजाब से किसान नेता बलजीत सिंह ने कहा कि अजीब विडम्बना है कि भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन भाजपा की सरकार देश में पूँजीपतियों की सरकार बनाने पर तुली है। किसानों के बारे में सोचना तो दूर, उन पर काले क़ानून और थोप रही है। किसानों का विरोध सरकार की कृषि विरोधी नीतियों की वजह से ही है।

बताते चलें कि 26 नवंबर से लेकर अब तक किसान आन्दोलन में 600 से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है, जबकि 400 से अधिक किसान गम्भीर रूप से घायल हुए हैं। इन मौतों में कई मौतें पिटाई के कारण ही हुई हैं। हाल ही में करनाल के उप ज़िलाधिकारी (एसडीएम) आयुष सिन्हा के आदेश पर करनाल के बसताड़ा टोल प्लाजा पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज में बुज़ुर्ग किसान नेता सुशील काजल की मौत होना इसका बड़ा उदाहरण है। इस लाठीचार्ज में सैकड़ों किसान गम्भीर रूप से घायल हो गये। किसान सुशील काजल की मौत पर हरियाणा और पंजाब की सियासत ज़रूर गरमायी; लेकिन लाठीचार्ज कराने वाले एसडीएम के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं हुई। हत्या का मुक़दमा तक उनके ख़िलाफ़ दर्ज नहीं हुआ। किसान नेता एसडीएम के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज करवाने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। किसानों के रोष को देखते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने एसडीएम आयुष सिन्हा का तबादला भर किया। इस घटना को लेकर किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि जब तक एसडीएम को बर्ख़ास्त नहीं किया जाता, तब तक किसान सचिवालय तक आन्दोलन करते रहेंगे। किसान नेता और किसानों के अधिकारों के लिए क़ानूनी लड़ाई लडऩे वाले चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है यह भाजपा सरकार किसान विरोधी काम कर रही है। क्योंकि किसानों ने जब माँगें सरकार के समक्ष जब भी रखी हैं, तब-तब किसानों का विरोध सरकार ने प्रशासन द्वारा करवाया है और उन्हें पिटवाया है। करनाल में पुलिस का रवैया अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों की याद दिलाता है। देश के किसी भी क़ानून ऐसा नहीं लिखा है कि पुलिस आन्दोलनकारियों पर दुश्मनों की तरह लाठियाँ बरसाये और किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दे। किसान सुशील काजल की हत्या हुई है; वो भी सोची-समझी राजनीति के तहत। चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि एसडीएम आशीष सिन्हा ने पुलिस को जो आदेश दिया, वह मानवता को शर्मसार करने वाला है। आशीष सिन्हा का वीडियो उनकी तानाशाही और बर्बर सोच को साफ़ दिखा रहा है। ऐसे अधिकारी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए। किसानों की माँग है कि सरकार को चाहिए कि जो किसान घायल हुए हैं, वह उनका अच्छे अस्पतालों में इलाज करवाये और मुआवज़ा दे। इसके साथ ही सरकार मृतक किसान सुशील काजल के एक परिजन को सरकारी नौकरी और परिवार को 50 लाख का मुआवज़ा दे।

कुल मिलाकर मौज़ूदा हालात में किसानों की एकता और उनके तेवरों को देखकर यह साफ़ कहा जा सकता है कि 2022 में पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अगर भाजपा सरकार को हराने के लिए राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में किसानों के दल के साथ घूमते हैं, तो निश्चित तौर पर इन राज्यों में भाजपा पर विपरीत असर पड़ सकता है। क्योंकि इन राज्यों में किसानों का अच्छा-ख़ासा दबदबा है और किसानों के बीच राकेश टिकैत की मज़बूत पकड़ ज़मीनी स्तर पर मज़बूत हुई है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहाँ की जनता का मिजाज़ किसान आन्दोलन और दूसरी परेशानियों के चलते काफ़ी बदला हुआ है, जो कि मौज़ूदा सरकार पर भारी पड़ सकता है।

क्या कोहली को छोड़ देनी चाहिए कप्तानी?

पिछले काफ़ी समय से इस दिग्गज ने नहीं लगाया एक भी शतक

एक कप्तान के रूप में भले विराट कोहली सफल हैं; लेकिन उनकी बल्लेबाज़ी पर इसका विपरीत असर पड़ रहा है। वह भारतीय क्रिकेट टीमों के तीनों फार्मेट के कप्तान हैं और हाल के महीनों में क्रिकेट प्रेमी उनके बल्ले से एक अदद शतक देखने के लिए तरस गये हैं। विराट में अभी क्रिकेट बची है और यदि कप्तानी के बोझ से उनका बल्ला ख़ामोश रहता है, तो इसका उनके करियर पर असर पड़ सकता है। ऐसे में यदि वह तीनों फार्मेट की जगह एक ही फार्मेट की कप्तानी करते हैं, तो यह उनके करियर को लम्बा खींचने में मददगार हो

सकता है। हाल के इंग्लैंड दौरे में यह साबित हुआ है कि एक तरह से विराट एक कप्तान के रूप में सफल हैं। अन्तिम टेस्ट रद्द होने के समय विराट की टीम 2-1 से आगे थी। यदि सीरीज का फ़ैसला घोषित हो गया होता, तो 22 साल के बाद इंग्लैंड में भारत की यह पहली जीत होती।

दूसरी बड़ी बात यह है कि विराट अब क़रीब 33 साल के हो रहे हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि विराट आज की तारीख़ में दुनिया के सबसे बेहतर क्रिकेटर्स में एक हैं। मैदान पर उनकी फील्डिंग का जलवा देखने लायक होता है। विराट में तीनों फॉर्मेट में खेल सकने की क्षमता है। दुनिया भर के बल्लेबाज़ों में शतकों के मामले में वह काफ़ी आगे हैं। दुनिया के चौथे सबसे सफल टेस्ट कप्तान भी हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि कोहली सन् 2019 के बाद एक भी शतक नहीं लगा पाये हैं। ख़राब प्रदर्शन के कारण कोहली को आलोचना का भी शिकार होना पड़ रहा है।

कोहली ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में क़दम रखने के बाद से ही धमाकेदार प्रदर्शन किया है। शतक जडऩे के मामले में उनकी बराबरी इक्का-दुक्का खिलाड़ी ही कर पाये हैं। यह इस बात से साबित हो जाता है कि कोहली के बाद जिस खिलाड़ी का नाम आता है, वो उनसे 20 शतक पीछे है। विराट ने सन् 2009 में पहला शतक ठोका था और विराट कोहली के बल्ले से आख़िरी शतक नवंबर, 2019 में निकला, जब उन्होंने बांग्लादेश के ख़िलाफ़ पिंक बाल टेस्ट मैच में शतक जड़ा था। सन् 2009 से सन् 2019 तक विराट कोहली अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 70 शतक जड़ चुके थे और वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में सबसे ज़्यादा शतक जडऩे के मामले में सचिन तेंदुलकर (100 शतक) और रिकी पोंटिंग (71 शतक) के बाद तीसरे नंबर पर हैं।

शतकों की जो गति कोहली ने बना रखी थी, यदि वह बरक़रार रहती, तो वह अब तक रिकी पोंटिंग को पीछे छोड़ चुके होते। इस दौरान कोहली ने 50 से ज़्यादा पारियाँ खेली हैं; लेकिन शतक नहीं जड़ पाये। कोहली के अंतरराष्ट्रीय करियर में ऐसा पहली बार ही हुआ है, जब वह इतनी पारियों के बाद भी शतक नहीं जड़ सके हैं।

ख़राब प्रदर्शन से जूझ रहे कोहली ने आख़िरी बार टेस्ट में नवंबर, 2019 में बांग्लादेश के ख़िलाफ़ शतक लगाया था। इसके बाद से टेस्ट में उनका औसत 25 के आसपास ही रहा है। हालाँकि वनडे में उनका प्रदर्शन थोड़ा बेहतर है और उनका औसत 43 से ऊपर है। यहाँ बता दें कोहली सचिन तेंदुलकर के 49 वनडे शतक से छ: क़दम दूर हैं। नवंबर, 2019 में आख़िरी बार टेस्ट शतक लगाने के बाद कोहली ने आठ टेस्ट मैचों में चार अर्धशतक लगाये हैं। टेस्ट की तुलना में कोहली वनडे में थोड़े बेहतर रहे हैं और उन्होंने आठ अर्धशतक लगाये हैं।

कप्तान बनने योग्य खिलाड़ी

भारत में ऐसे खिलाडिय़ों की कमी नहीं, जो अपने अनुभव या नेतृत्व के गुणों के कारण कप्तान बनने की क्षमता रखते हैं। अनुभवी खिलाडिय़ों में सबसे पहला नाम आता है- रोहित शर्मा का। लेकिन क्रिकेट के जानकार जिस खिलाड़ी को कप्तानी का ज़िम्मा देने की वकालत करते हैं, वह हैं- ऋषभ पंत।

श्रेयस अय्यर की अनुपस्थिति में फ़िलहाल स्थगित वर्तमान आईपीएल में दिल्ली कैपिटल्स की जैसी कप्तानी ऋषभ ने की, उससे उन्होंने क्रिकेट के कई दिग्गजों को अपना मुरीद बना लिया है। इनमें अंतर्राष्ट्रीय दिग्गज भी शामिल हैं। हाल के महीनों में पंत टीम इंडिया में तीनों फॉर्मेट में अपनी जगह पक्की कर चुके हैं। उनके अलावा शुभमन गिल को भी कप्तानी के दिमाग़ वाला खिलाड़ी माना जाता है। गिल के करियर की शुरुआत भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरे की टेस्ट सीरीज से हुई थी। गिल ने तब पैट कमिंस जैसे गेंदबाज़ के विपरीत बहुत बेहतर तरीक़े से खेला था।  इस क्रम में तीसरा नाम श्रेयस अय्यर का है। आईपीएल-2018 में दिल्ली डेयरडेविल्स के कप्तान बने अय्यर के नेतृत्व में आईपीएल-2020 में अब दिल्ली कैपिटल्स की टीम फाइनल में पहुँची थी।

लगातार ढहते पहाड़ बड़े ख़तरे का संकेत

प्रकृति से मनुष्य का खिलवाड़ लगातार जारी है; लेकिन इसका नुक़सान भी मनुष्य को ही हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से देखा गया है कि भूस्खलन, भूकम्प और पहाड़ों के दरकने, गिरने की घटनाएँ बढ़ी हैं।

अभी बीते 6 सितंबर को ही बारिश के कारण एनएच-94 ऋषिकेश-गंगोत्री नेशनल हाईवे पर नागनी के पास दोपहर में बड़े-बड़े बोल्डर तेज़ी से नीचे सडक़ पर गिरे और इसके बाद पूरा पहाड़ सडक़ पर आ गिरा। यह हाईवे पंजाब के फ़िरोज़पुर को जोड़ता है। इस घटना में दो युवक बाल-बाल बच गये। भले ही किसी की जान नहीं गयी; लेकिन इस घटना से दर्ज़नों लोगों की जान जा सकती थी। इस भूस्खलन से सैकड़ों टन मलबा और बड़े-बड़े बोल्डर सडक़ पर बिखर गये। हाईवे बन्द होने से उसके दोनों तरफ़ वाहनों की लम्बी-लम्बी क़तारें लग गयीं, जिसे खोलने में प्रशासन की टीम लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों के छक्के छूट गये।

इस पहाड़ के गिरने से हालात इतने ख़राब हुए कि राष्ट्रीय राजमार्ग-94 का निरीक्षण करने कृषि मंत्री सुबोध उनियाल पहुँचे और उन्हें इसे लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग, पीएमजीएसवाई और लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों की तत्काल बैठक बुलानी पड़ी।

इससे कुछ ही दिन पहले नेशनल हाईवे-5 पर ज्यूरी के पास किन्नौर में भूस्खलन की घटना हुई। इस भूस्खलन से भी दोनों ओर यातायात प्रभावित हुआ। यह बहुत डराने वाली बात है कि पिछले कुछ वर्षों से किन्नौर में भूस्खलन की घटनाएँ बहुत हुई हैं। इससे पहले बटसेरी और निगुलसरी में हुए भीषण भूस्खलन से कई लोगों की मौत हो गयी थी। इस बार भी लोगों को भूस्खलन का अहसास पहले ही हो गया था, जिससे वे बच गये अन्यथा कई जानें जा सकती थीं। इससे पहले अगस्त में मसूरी में कई जगह भूस्खलन हो गया। मसूरी टिहरी बायपास रोड पर बाटा घाट के पास भूस्खलन हुआ। मसूरी गलोगी पॉवर हाउस के पास लगातार भूस्खलन होने से पॉवर हाउस तो क्षतिग्रस्त हो गया और स्थानीय लोगों को भी बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

पहाड़ों पर बढ़ते इंसानी दबाव और पेड़ों के कटान से स्थितियाँ काफ़ी बिगड़ी हैं। यूँ तो हर साल बारिश में पहाड़ों के खिसकने, गिरने और भूस्खलन की घटनाएँ सामने आती रही हैं; लेकिन ये घटनाएँ हर साल बढ़ रही हैं। बारिश के मौसम में होने वाली इन भयावह घटनाओं का अंदाज़ा ऋषिकेश से श्रीनगर के बीच इस बार ही एक दर्ज़न से ज़्यादा स्थानों पर हो चुके भूस्खलन से लगाया जा सकता है। इस मार्ग पर मानसून से पहले भी क़रीब छ: ख़तरनाक क्षेत्र थे; लेकिन अब इनकी संख्या दो दर्ज़न से अधिक हो गयी है। इससे इस क्षेत्र के मार्गों से निकलने वाले लोग बेहद डरे हुए हैं।

क्या होता है भूस्खलन?

भूस्खलन दरअसल ज़मीन के नीचे खोखलापन आने, जलस्तर घटने, ज़रूरत से ज़्यादा भू-दबाव पडऩे और प्रकृति से छेड़छाड़ करने, उस पर मानव दबाव बढऩे, अधिक दबाव वाले संयत्र लगाने से होता है। भूस्खलन के चलते ही पहाड़ खिसकने शुरू हो जाते हैं और फिर गिर जाते हैं। पहाड़ी इलाक़ों में भूस्खलन होना न तो नयी बात है और न ही इसका डर दिलों से जा सकता। क्योंकि कब, कहाँ, भूस्खलन हो जाए इसका किसी को भी पहले से पता नहीं होता। इस बार पहाड़ों पर जिस तरह से भूस्खलन, पहाड़ों के गिरने और खिसकने की घटनाएँ बहुत ज़्यादा सामने आयी हैं, उससे पहाड़ों पर रहने वाले दहशत में हैं। फिर चाहे वे उत्तराखण्ड के निवासी हों, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हों या फिर जम्मू-कश्मीर के लोग। भूस्खलन या पहाड़ों के खिसकने, गिरने के पीछे दो मुख्य कारण होते हैं। पहला तो प्राकृतिक बदलाव, हलचल आदि और दूसरा मानव दबाव और उसके द्वारा चलायी जाने वाली गतिविधियाँ। इनमें प्रमुख गतिविधि जंगलों की अंधाधुंध कटाई है। केवल पेड़ ही अपनी जड़ों के ज़रिये बारिश में मिट्‍टी को कटने से रोकते हैं और छोटे-बड़े पत्थरों को रोककर रखते हैं।

पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते हैं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर उसके ज़िला किन्नौर में और उत्तराखण्ड, ख़ासकर उसके पिथौरागढ़, केदारनाथ में पहाड़ों के खिसकने, गिरने, भूस्खलन के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

इसकी एक वजह इन जगहों पर तेज़ी बढ़ता निर्माण भी है। आजकल तो सडक़ों के चौड़ीकरण और टनल आदि के बनने से भी यह सब हो रहा है; क्योंकि इसके लिए भारी विस्फोट किये जाते हैं, जिससे पहाड़ दरक जाते हैं और धीरे-धीरे वे कमज़ोर होकर गिर जाते हैं। इसके अलावा मिट्‍टी के अपक्षय, अपरदन, भूकम्प और ज्वालामुखी विस्फोट वाले क्षेत्रों में ऐसी घटनाएँ ज़्यादा होती हैं। जानकार और भूविज्ञानी कई बार लोगों को, ख़ासकर सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं; लेकिन न निर्माण और पेड़ों का कटान करने से लोग बाज़ आते हैं और न सरकारें इस पर सरकारें ग़ौर करती हैं।

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड के शोधकर्ताओं के अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ सन् 2004 से 2016 के दौरान 50,000 से ज़्यादा लोगों को जान भूस्खलन के चलते चली गयी। इन शोधकर्ताओं ने इन 12 वर्षों में हुए 4,800 से ज़्यादा ख़तरनाक भूस्खलन की घटनाओं का ज़िक्र किया। रिपोर्ट में कहा गया कि इन भूस्खलनों में इंसानी गतिविधियों के चलते 700 ख़तरनाक भूस्खलन हुए।

शोधकर्ताओं के मुताबिक, एशिया महाद्वीप में भूस्खलन सबसे ज़्यादा होते हैं। जून, 2013 में उत्तराखण्ड में हिमालय में हुए भूस्खलन से 5,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। दरअसल भारत की भू-जलवायु परिस्थितियाँ प्राकृतिक आपदाओं का बड़ा कारण हैं। यहाँ बाढ़, चक्रवात, भूकम्प, भूस्‍खलन, पहाड़ों के खिसकने और सूखा पडऩे की घटनाएँ आम हैं। भारत में क़रीब 60 फ़ीसदी भूभाग पर भूकम्प का ख़तरा रहता है। 400 लाख हेक्‍टेयर से अधिक क्षेत्र में वाढ़ आती है। कुल 7,516 किलोमीटर लम्बी तटरेखा क्षेत्र में से 5,700 किलोमीटर क्षेत्र पर चक्रवात का ख़तरा रहता है। वहीं खेती योग्‍य क्षेत्र का क़रीब 68 फ़ीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में रहता है। इसके अलावा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पूर्वी और पश्चिम घाटों में सुनामी का ख़तरा रहता है। हिमालय के साथ-साथ पहाड़ी इलाक़ों और पूर्वी व पश्चिम घाट के इलाक़ों में अक्‍सर भूस्‍खलन का ख़तरा लगातार बना रहता है।

देश में प्राकृतिक आपदाओं के कुशल प्रबन्धन के लिए आपदा प्रबन्धन सहायता कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये जाते हैं। इसके अलावा इसरो द्वारा अपेक्षित आँकड़ों और सूचनाओं को उपलब्‍ध कराने की दिशा में काम किया जाता है। इतना ही नहीं, संचार व मौसम विज्ञान की जानकारी के लिए भू-स्थिर उपग्रह, भू-प्रेक्षण उपग्रह, हवाई सर्वेक्षण प्रणाली और अन्य तरीक़ों से आपदाओं की पूर्व जानकारी लेने और प्रबन्धन करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद बड़ी आपदाओं की कई बार जानकारी किसी को नहीं हो पाती। इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग केंद्र (एनआरएससी) में स्‍थापित निर्णय सहायता केंद्र में भूस्‍खलन, भूकम्प, बाढ़, चक्रवात, सूखा और दावाग्नि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार धोखा दे जाती हैं, जिसके बाद सिवाय सिर पीटने के कुछ नहीं बचता है।

कहने का मतलब यह है कि तमाम आपदाओं की पूर्व सूचनाओं को समय पर पाने और उन्हें रोकने की सभी योजनाएँ फेल हो जाती हैं और यह तब तक होता रहेगा, जब तक लोग प्रकृति से खिलवाड़ बन्द नहीं कर देते। इंसान को उपग्रहों पर पहुँचने की होड़ छोडक़र ज़मीन पर व्यवस्थाएँ ठीक करने की पहले ज़रूरत है। बेहतर हो कि इंसान पहले उन ग़लतियों को करना छोड़े जिनसे प्रकृति के साथ-साथ उसकी गोद में पल रहे प्राणियों को नुक़सान पहुँच रहा है।

इसके लिए इंसान को न केवल जंगलों को नष्ट करना छोडऩा होगा, बल्कि ख़तरनाक हथियारों का निर्माण भी बन्द करना होगा। पौधरोपण करना होगा। क्योंकि ख़तरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं और धीरे-धीरे इंसान का जीवन ही ख़तरे में पड़ता जा रहा है। लोगों को सोचना होगा कि जब उनका जीवन ही नहीं बचेगा, तो आविष्कार किये हुए यंत्र और हथियार किस काम आएँगे? किसके काम आएँगे?

भूपेंद्र पटेल मंत्रिमंडल में 24 नए मंत्री, रुपाणी सरकार के सभी मंत्री बाहर

पूर्व उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल सहित विजय रुपाणी के तत्कालीन मंत्रीमंडल के सभी सदस्यों की छुट्टी करते हुए गुजरात के नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने भाजपा आलाकमान से अपनी पहली बड़ी बात मनवा ली है। गुरुवार को जिन 24 विधायकों को मंत्री पद की शपथ राजभवन में दिलवाई गयी उनमें एक भी पिछले मंत्रिमंडल से नही है। राजेंद्र त्रिवेदी ने पहले नंबर पर शपथ ली, जिससे जाहिर होता है कि मंत्रिमंडल में उनकी हैसियत दूसरे नंबर की होगी। वे अब तक विधानसभा अध्यक्ष थे। हालांकि, सभी मंत्रियों के इस तरह बाहर होने से गुजरात भाजपा में नाराजगी बताई जा रही है।

इस तरह भूपेंद्र पटेल ने चुनाव से पहले अपनी नई टीम बना ली है। राजभवन में दोपहर डेढ़ बजे शपथ ग्रहण हुआ जिसमें राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने नए मंत्रियों को शपथ दिलाई।

कुल 24 विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई इनमें 10 केबिनेट और 14 राज्य मंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपाणी की 22 मंत्रियों वाली पूरी टीम बाहर कर दी गई जिनमें मुख्यंमंत्री पद की दौड़ में शामिल माने जा रहे पूर्व उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल भी शामिल हैं। नई केबिनेट अब से कुछ देर बाद 4:30 बजे पहली बैठक करेगी। मंत्रियों के विभाग आज ही सौंपे जा सकते हैं।

आज शपथ लेने वाले केबिनेट मंत्री – राजेंद्र त्रिवेदी, जीतू वाघानी, राघव पटेल, पूर्णेश मोदी, नरेश भाई पटेल, प्रदीप सिंह परमार, अर्जुन सिंह चव्हाण, ऋषिकेश पटेल, कनुभाई देसाई, किरीट सिंह राणा।

राज्य मंत्री: हर्ष सांघवी, बृजेश मेरजा, मनीषा वकील, जगदीश भाई पांचाल, जीतू भाई चौधरी, निमिषा सुतार, मुकेश पटेल, अरविंद रैयाणी, कुबेर डिंडोर, कीर्ति सिंह वाघेला, गजेंद्र सिंह परमार, देवा भाई मालम, राघवजी मकवाना, विनोद भाई मोराडिया।

आज सबसे पहले शपथ राजेंद्र त्रिवेदी ने ली। उन्होंने आज ही विधानसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। इस्तीफे के एक घंटे बाद ही वे मंत्री पद की शपथ ले रहे थे। जाहिर है पटेल की टीम में उनका दर्जा नंबर-2 का होगा। पहले शपथ ग्रहण बुधवार को होना था, लेकिन भीतर नाराजगी बढ़ने से इसे आज के लिए टाल दिया गया था।

देशभक्ति की नयी व्याख्या करती तिरंगा यात्रा

भाजपा को उसी के हथकंडों से चुनौती दे रही आम आदमी पार्टी

उत्तर प्रदेश में विधनसभा चुनाव में अब जब केवल छ: महीने ही बचे हैं, आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी तिरंगा यात्रा के ज़रिये चुनाव प्रचार का बिगुल बजा दिया है। आगरा, नोएडा और अयोध्या के बाद अब पार्टी नेता और कार्यकर्ता राज्य के सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा लेकर जाएँगे और लोगों को देशभक्ति के मायने समझाएँगे।

आमतौर पर देशभक्ति के मायने होते हैं- देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान कर देना। उसके गौरव की हर क़ीमत पर रक्षा करना। जान चली जाए, पर तिरंगा झुकने न पाए। उसमें सब कुछ तिरंगे के लिए होता है। मगर आम आदमी पार्टी की देशभक्ति में सब कुछ तिरंगे के नीचे रह रहे लोगों के लिए है। बच्चों, महिलाओं, बुजुर्ग और युवाओं- सबका विकास ही उसके लिए देशभक्ति है। इनकी शिक्षा, इनका स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसी ज़रूरी सुविधाएँ इन तक पहुँचाना ही उसकी देशभक्ति है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ चुनावों का केंद्र लोग नहीं, बल्कि उनकी जाति और धर्म रहता है; आम आदमी पार्टी ने इसे बदलते हुए आमजन को केंद्र में रखकर देशभक्ति के माध्यम से अपने विकास के एजेंडे को लोगों के गले उतारने का अपना तरीक़ा निकाला है।

शायद पार्टी अध्यक्ष केजरीवाल जानते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर उनके लिए इस राज्य में अपना खाता खोल पाना सम्भव नहीं होगा। वैसे भी यहाँ मुख्य मक़सद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देना है; जो देशभक्ति, हिन्दुत्व और राम पर अपना विशेषाधिकार मानती है। उसके इस अधिकार-अहम को चुनौती देने के लिए ही अयोध्या में तिरंगा यात्रा और रामलला के आशीर्वाद से प्रचार की शुरुआत की गयी। अब विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा यात्रा करते हुए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता लोगों को देशभक्ति के मायने समझाने का प्रयास करेंगे। इसमें भाजपा के राष्ट्रवाद और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रवाद के बीच के अन्तर को भी लोगों के सामने खोलकर रखा जाएगा।

आगरा और नोएडा में तिरंगा यात्रा निकालते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पार्टी सांसद व उत्तर प्रदेश के प्रभारी संजय सिंह ने लोगों को समझाया कि उनके लिए देशभक्ति व राष्ट्रवाद क्या है? संजय सिंह ने कहा कि ‘तिरंगे के नीचे खड़ा हर ग़रीब बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ सके। दिल्ली की तरह उत्तर प्रदेश में भी हर गाँव में मोहल्ला क्लीनिक बन सके। हर ग़रीब के घर में बिजली हो और 300 यूनिट तक उसे नि:शुल्क मिल सके। हर घर को पानी मिले। उनके लिए यही देशभक्ति है। यही राष्ट्रवाद है।’

उन्होंने आगे कहा-‘अब आम आदमी पार्टी ईमानदारी और शिक्षा के माध्यम से हर गाँव में विकास की राजनीति को लेकर जाएगी। पूरे उत्तर प्रदेश में तिरंगा यात्रा निकलेगी और पार्टी के कार्यकर्ता हर जगह संकल्प लेंगे कि इस तिरंगे के नीचे रह रहे बच्चे, महिलाएँ, बुज़ुर्ग, युवा और किसान अपने अधिकारों से वंचित न रहें।’

आम आदमी पार्टी की देशभक्ति की परिभाषा में केवल लोग ही नहीं, संविधान भी हैं। बीते 15 अगस्त (आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ) पर दिल्ली के स्कूलों में लागू किये गये ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ में बच्चों को संविधान के स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व जैसे मूल्यों की जानकारी देते हुए उनका आदर करना और उन्हें रोज़मर्रा के व्यवहार में उतारना सिखाया जाएगा। इसके साथ ही बच्चों और युवकों को सिखाया जाएगा कि कैसे वे आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, सामाजिक और परम्परागत सोच से परे वैज्ञानिक व व्यावसायिक सोच वाले बन सकते हैं।

इसे देखकर लगता है कि अपनी देशभक्ति की इस परिभाषा से, जिसमें आमजन व संविधान सर्वोपरि है; आम आदमी पार्टी ने बड़ी आसानी से भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद से अपने को पूरी तरह से अलग कर लिया है। वह युवकों की ऐसी पीढ़ी भी तैयार करने जा रही है, जिसमें किसी की भी देशभक्ति को उसके धर्म या फिर जन-गण-मण गाने या नहीं गाने से नहीं नापा जाएगा।

दिल्ली से बाहर अपने पैर पसारने की कोशिश में लगी आम आदमी पार्टी की इस तिरंगा यात्रा के तीन राजनीतिक तत्त्व दिखायी देते हैं। पहला विकास, दूसरा देशभक्ति और तीसरा धर्म। दिल्ली के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार भले ही ख़त्म न हुआ हो, पर शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार और ग़रीबों को बिजली व पानी जैसी सुविधाओं का नि:शुल्क वितरण अभी तक केजरीवाल की पार्टी का लोकतांत्रिक राजनीति व प्रशासन का मुख्य आधार रहा है। इसी के बल पर वह दिल्ली में दो बार भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक प्रचार का सामना कर उसे पछाडऩे में कामयाब हो सकी।

गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब सभी राज्यों में पार्टी प्रमुख केजरीवाल ने मुफ़्त या फिर सस्ती बिजली के वादे से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है। अब जब आम आदमी पार्टी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव लडऩे जा रही है, तब उसने अपने इन्हीं विकास कार्यों को देशभक्ति का नाम दे दिया है। उसके अनुसार, ‘व्यापक जनहित आधारित विकास की सोच, नीतियों व प्रशासन के साथ चलना ही देशभक्ति है। तिरंगा को उसने शहीदों के सम्मान का प्रतीक बनाया है और हिन्दुओं के पर्व त्यौहार व राम सहित सभी देवी-देवताओं की पूजा को अपनी सत्तात्मक चुनावी राजनीति का आधार। इन तीनों पर अपने राष्ट्रवाद की नींव खड़ी करके उसने भाजपा के हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद की हवा निकालने की रणनीति बनायी है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के राज के बाद भारत में भाजपा के राष्ट्रवाद के फैलाव को रोक पाना किसी के लिए भी अब ज़्यादा सम्भव नहीं हो पाएगा। ऐसे में सुसाशन और विकास के ताने-बाने से बुना जा रहा आम आदमी पार्टी का राष्ट्रवाद लोगों को कितना आकर्षित कर पाएगा, इसकी परीक्षा दिल्ली से बाहर अभी होनी है। उसी से यह भी तय हो पाएगा कि तिरंगा यात्राओं के साथ लोगों के दिलों में उभारी जाने वाली सुशासन और विकास की देशभक्ति का रंग कितना गहरा है। दूसरा, आज जबकि बहुलवादी राजनीति समय की माँग है, उसके द्वारा की जा रही बहुसंख्यक राजनीति का पासा सीधा भी पड़ सकता है और उल्टा भी।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलना कितना ज़रूरी है, यह भाजपा को भी समझ आ गया है। ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत बार-बार मुसलमानों के क़रीब जाते नहीं दिख रहे हैं। उन्हें यह भी समझ आ गया है कि सत्ता के शीर्ष पर बने रहना है, तो समन्वयवादी राजनीति पर चलते हुए दिखना ज़रूरी है।

ऐसा नहीं कि केजरीवाल इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं हैं। फिर भी अगर भाजपा शासित राज्यों में वह हिन्दुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के इर्द-गिर्द अपनी चुनावी रणनीति का एक आधार खड़ा कर रहे हैं, तो सम्भवत: इसलिए कि उन्हें लगता है कि इससे धर्म के नाम पर भाजपा को मिलने वाले हिन्दु-मतों में सेंध लगाना काफ़ी आसान हो जाएगा। सम्भवत: इससे आगे चलकर बहुसंख्यक-मतों पर भाजपा के एकाधिकार को ख़त्म करने में भी आसानी हो। ऐसे में बहुसंख्यकवाद आम आदमी पार्टी की सत्तात्मक राजनीति की मजबूरी या फिर रणनीति या दोनों ही हो सकती हैं। मगर उसे लम्बी पारी खेलनी है तो कांग्रेस से ख़ाली होती जगह को भरते हुए समन्वयात्मक राजनीति को ही अंतत: अपना आधार बनाकर चलना होगा।

(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

हरियाणा ने फिर देखा मौत का भयावह मंज़र

समलैंगिक रिश्ते की ख़ातिर युवक ने माँ-बाप, बहन और नानी की गोली मारकर कर दी हत्या!

हरियाणा के रोहतक में इस वर्ष सामूहिक हत्याकांड की दूसरी घटना समाज को झकझोर देने वाली रही। देश भर में ऐसी घटनाएँ कोई असामान्य बात नहीं है; लेकिन हरियाणा, जिसने देश को अंतरराष्ट्रीय खेलों में महत्त्व दिलाया; में ऐसी घटनाओं का होना हैरान ज़रूर करता है। सात माह के अंतराल में ऐसी दो घटनाएँ हुईं, जिनमें 10 लोगों की सामूहिक तौर पर हत्या हुई। दोनों ही घटनाओं के कारण बहुत मामूली रहे हैं; लेकिन नतीजे उतने ही भयावह दिखे। दोनों घटनाओं में हत्या के लिए रिवॉल्वर का इस्तेमाल किया गया और जो सामने आता गया, आरोपी उन्हें ढेर करते रहे।

इसी माह की घटना रोहतक की विजयनगर कॉलोनी में घटी, जहाँ बेटे अभिषेक मलिक उर्फ़ मोनू (20) पर आरोप है कि उसने अपने पिता प्रदीप मलिक उर्फ़ बबलू पहलवान, माँ बबली देवी, बहन नेहा उर्फ़ तमन्ना और नानी रोशनी की गोली मारकर हत्या कर दी। हालाँकि आरोपी ने अपना गुनाह क़ुबूल करते हुए पूरी वारदात का ब्यौरा दे दिया है। हत्या में प्रयुक्त हथियार भी बरामद हो गया है। बावजूद इसके जब तक अदालत में दोषी क़रार नहीं दिया जाता, उसे आरोपी ही कहना होगा।

मोनू ने सबसे पहले उसी बहन को नींद में सोते हुए मार डाला, जिससे घटना के कुछ दिन पहले ही रक्षाबन्धन पर राखी बँधवायी थी। वह उसकी इकलौती बहन थी और उससे लगभग एक साल छोटी। लिहाज़ा दोनों में काफ़ी बातें साझा होती रहती थीं। फिर उस पिता को मार डाला, जिसने शानदार मकान के नाम पटल (नेम प्लेट) पर उस बेटे का नाम अंकित कराया था। आई फोन और गाड़ी से लेकर हर तरह की सुख सुविधा दी। वह बेटे मोनू को प्यार भी बहुत करते थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनका पूत कपूत निकलेगा और वह भी समाज में रौब रखने के लिए उन्हीं के ख़रीदे हथियार से। वह तो फोन पर किसी से बात कर रहे थे, अचानक सिर में गोली लगी तो वहीं ढेर हो गये। लाडले ने यह सोचकर कि कहीं पहलवान पापा बच न जाएँ, एक और गोली भी मार दी।

उस माँ को भी नहीं छोड़ा, जो उससे बेइंतहा प्यार करती थी। इकलौता बेटा होने के कारण मोनू उसे बहुत प्रिय था; लेकिन बेटे ने उसके सिर में भी गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। उस नानी को भी मार डाला, जो उसे (मोनू को) समझाने के लिए आयी हुई थी। जब माँ-बाप के समझाने का कोई असर नहीं हुआ, तो नानी को विशेषतौर पर बुलाया गया था। लेकिन क्या पता था कि दोहिता (बेटी का पुत्र) ही उसकी मौत की वजह बनेगा।

मोनू समलैंगिक था और उसके रिश्ते नैनीताल (उत्तराखण्ड) के कार्तिक नामक युवक से थे। परिवार के लोग दोनों को अच्छे दोस्त के तौर पर जानते थे। यह दोस्ती दिल्ली में केबिन सहायक का कोर्स करते हुए हुई, जो आगे चलकर ग़लत सम्बन्धों में बदल गयी। परिजनों को मोनू और कार्तिक की दोस्ती की जानकारी तो थी, लेकिन समलैंगिक रिश्ते के बारे में वे नहीं जानते थे। इस बात की शुरुआत में जानकारी उसकी बहन नेहा उर्फ़ तमन्ना को थी, उसके माध्यम से ही परिजनों को पता चला। इसके बाद मलिक परिवार में इस मुद्दे को लेकर माहौल तनावपूर्ण होता गया। लेकिन उसका नतीजा ऐसा होगा, इसका अनुमान मोनू के अलावा किसी को नहीं रहा होगा। उसने सोची-समझी साज़िश के तहत अपने ही पिता की रिवॉल्वर से एक-एक कर परिजनों और नानी तक की हत्या कर दी।

पिता प्रदीप मलिक उर्फ़ बबलू पहलवान प्रॉपर्टी का काम करते थे। उन्हें हथियारों का शौक़ भी था। जन्मदिन के समारोहों के दौरान केक पर रिवॉल्वर रखे फोटो देखे जा सकते हैं। मोनू पिता के साथ बैठकर एक नहीं, बल्कि दो-दो रिवॉल्वर के साथ बैठा भी दिखता है। घर में रखे रिवॉल्वर से ही मोनू ने इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे दिया और हथियार घर से कब ग़ायब कर दिया? इसकी जानकारी किसी को नहीं लगी। हत्या में प्रयुक्त रिवॉल्वर लाइसेंसी था या नहीं? इसका ख़ुलासा होना बाक़ी है।

यह घटना रिश्तों की हत्या को भी दर्शाती है। समलैंगिक रिश्ता बनाये रखने पर आमदा बेटे ने किसी की नहीं सुनी और इतनी बड़ी घटना अंजाम दे डाला। मोनू ने किसी बात पर आवेश में आकर इतनी बड़ी घटना को अंजाम नहीं दिया, बल्कि इसके लिए बाक़ायदा साज़िश रची। चार हत्याओं के बाद उसने घटना को मोड़ देने की कोशिश की; लेकिन वह पुलिस की नज़र से बच नहीं सका। समलैंगिक रिश्ते के लिए उसने जो किया, वह शर्मसार करने वाला है। जिस रिश्ते को समाज में मान्यता ही नहीं, उसे निभाने के लिए उसका यह कृत्य उसे शायद ज़िन्दगी भर प्रायश्चित करने पर मजबूर करता रहे।

इससे पहले इसी वर्ष फरवरी के दौरान इसी शहर के जाट कॉलेज में कुश्ती कोच सुखविंदर ने छ: लोगों की गोलियाँ मारकर हत्या कर दी थी। इसमें पाँच की मौत घटनास्थल पर हो गयी थी, जबकि छ: साल के सरताज ने बाद में दम तोड़ दिया था। आरोपी सुखविंदर ने कोच की नौकरी से अलग कर देने का इतना बड़ा बदला लिया, जिसे सुनकर कोई भी सिहर सकता है। महिला पहलवान की शिकायत पर कॉलेज परिसर अखाड़े के प्रमुख कोच मनोज मलिक ने सुखविंदर को काम से हटा दिया था।

वह इससे इतना नाराज़ हुआ कि इस प्रकरण में मनोज का साथ देने वाले सभी को सबक़ सिखाने के लिए उसने इतना बड़ा क़दम उठा लिया। वह कॉलेज परिसर पहुँचा और वहीं रह रहे प्रमुख कोच मनोज मलिक के साथ वाद-विवाद होने पर गोली मार दी। बचाव में आयी उनकी पत्नी साक्षी को भी मौत की नींद सुला दिया। गोलीबारी में प्रदीप और साक्षी के तीन साल के बच्चे सरताज छर्रे लगने से गम्भीर घायल हो गया, जिसकी कुछ दिन बाद मौत हो गयी। सुखबिंदर ने महिला पहलवान पूजा, कोच सतीश दलाल और प्रदीप मलिक पर भी ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाकर मार डाला। उस दिन सुखविंदर के सिर पर बदला लेने का जैसे भूत सवार था। उसने अमरजीत पर भी गोली चला दी। उसका भाग्य अच्छा था कि उसने भागकर जान बचायी। घटना में मनोज मलिक का पूरा परिवार ख़त्म हो गया, जबकि उनका कोई दोष नहीं था। महिला पहलवान की शिकायत पर मनोज को कार्रवाई करनी ही थी; लिहाज़ा उन्होंने की। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनका ही एक साथी इस बात का बदला इस तरह लेगा।

कोई दो दशक पहले भी राज्य में हुए सामूहिक हत्याकांड से लोग दहल उठे थे। ऐसी बड़ी घटना का कोई उदाहरण कम-से-कम इस राज्य में तो नहीं मिलता। इसमें बेटी और दामाद ने ही मिलकर पूरे परिवार का ख़ात्मा कर दिया। मामला प्रॉपर्टी विवाद का था। इस घटना को याद कर लोग आज भी सिहर उठते हैं। बरवाला से तत्कालीन निर्दलीय विधायक रेलूराम पूनिया समेत परिवार के आठ लोगों को बेटी सोनिया और दामाद संजीव ने बेरहमी से मौत की नींद सुला दिया था। इनमें तीन बच्चे थे, जिनकी उम्र चार साल से भी कम थी। इनमें एक तो डेढ़ महीने का शिशु ही था। मरने वालों में रेलूराम पूनिया, पत्नी कृष्णा, बेटा सुनील, पत्नी शकुंतला, बेटी प्रियंका, चार साल का पोता लोकेश, तीन साल की पोती शिवानी और डेढ़ माह की प्रीति थे।

इस घटना में भी पहले रिवॉल्वर का इस्तेमाल किया जाना था। लेकिन बाद में विचार बदल दिया गया। पहले परिवार के सदस्यों को खाने में नशीली चीज़ खिलाकर बेहोश किया गया। फिर उन पर लोहे की छड़ से प्रहार कर मौत की नींद सुला दिया। जिस करोड़ों की सम्पत्ति के चक्कर में सोनिया और संजीव ने इतना बड़ा कांड किया, उसका नतीजा क्या हुआ? बदले में उन्हें सम्पत्ति नहीं, बल्कि फाँसी की सज़ा मिली है। दोनों तिल-तिल कर मरने को मजबूर हैं। सोनिया ने तो जेल में ख़ुदकुशी का भी प्रयास किया; लेकिन बचा ली गयी। पेरोल पर बाहर आने पर संजीव ने भी ग़ायब होने की कोशिश की। लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उनकी दया याचिका ख़ारिज हो चुकी है। देर-सबेर दोनों को फाँसी लगनी लगभग तय ही है। अगर सोनिया को फाँसी होती है, तो वह आज़ादी के बाद पहली महिला होगी, जो फंदे पर झूलेगी। सामूहिक हत्याकांडों की ऐसी घटनाएँ समाज को झकझोर देने वाली होती हैं।

 

प्यार में परिवार की बलि

सन् 2008 में उत्तर प्रदेश के ज़िला अमरोहा के गाँव बवानाखेड़ी में कमोबेश ऐसी घटना हुई, जिसमें शबनम नामक लडक़ी ने प्रेमी सलीम के साथ मिलकर परिवार के सात लोगों की हत्या कर दी। इनमें शबनम के पिता शौक़त अली, माँ हाशमी, भाई अनीस, पत्नी अंजुम, राशिद, राबिया और अर्श को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिये गया। घर वालों के ख़िलाफ़ जाकर शबनम ने सलीम को छोडऩा मंज़ूर नहीं किया, बल्कि विरोध करने वालों का ही ख़ात्मा कर डाला। शबनम और सलीम को भी फाँसी की सज़ा हो चुकी है। उनकी भी दया याचिका राष्ट्रपति से नामंज़ूर हो चुकी है।