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बहकावे में नाबालिग़

कोरोना-काल में बढ़ी मानव तस्करी, झारखण्ड देश में 11वें स्थान पर

झारखण्ड के साहिबगंज ज़िले के बरहेट क्षेत्र की 13 साल की बच्ची नम्रता (बदला हुआ नाम) को कुछ दिन पहले दिल्ली से तस्करों के चंगुल से निकालकर घर वापस लाया गया। कोरोना संक्रमण के कारण उसके पिता की खेती-बाड़ी चौपट हो गयी। मानसिक तनाव के कारण शराब पीने लगे और चार महीने पहले मार्च में पिता का निधन हो गया। नम्रता के घर की पहले से ख़राब आर्थिक स्थिति और दयनीय हो गयी। नम्रता की दोस्त चाँदनी दिल्ली से गाँव आयी। नम्रता ने उसे अपनी समस्या बतायी।
चाँदनी ने नम्रता को दिल्ली में काम दिलाने का आश्वासन दिया। नम्रता दो अन्य परिचितों के साथ दिल्ली पहुँच गयी। वहाँ प्लेसमेंट एजेंसी के ज़रिये उसे एक घर में काम मिल गया। नम्रता ने बताया कि उसे काम के बदले पैसे नहीं मिले। उसके साथ अमानवीय व्यवहार किया जाता था। मानसिक और शारीरिक प्रताडऩा दी जाती थी। किसी तरह से वहाँ से वह भाग निकली। इसके बाद पुलिस और स्वयंसेवी संगठनों की मदद से कुछ दिन पहले घर लौटी है। इसी तरह जुलाई के पहले सप्ताह में पूर्व विधायक अमित महतो ने बेंगलूरु से संध्या (बदला हुआ नाम) को तस्करों के चंगुल से निकालकर वापस लाये हैं। संध्या पाँच साल से ग़ायब थी। इस दौरान उसे चार बार विभिन्न जगहों पर बेचा गया। वह दिल्ली से अलग-अलग जगहों से होते हुए बेंगलूरु पहुँच गयी थी। उसे हर तरह की प्रताडऩा का सामना करना पड़ा। ऐसी कहानी केवल नम्रता या संध्या की नहीं है। झारखण्ड में शायद ही किसी दिन मानव तस्करी की शिकार महिलाओं, लड़कियों या बच्चे-बच्चियों के बचाव की सूचना न मिलती हो। कई बार तस्करी कर ले जाते समय ही मामला पकड़ आ जाता है। 25 जुलाई को बचाव दल द्वारा चार युवतियों को दिल्ली से मुक्त कराकर पुनर्वास के लिए रांची
ले जाया गया।

झारखण्ड की स्थिति ख़राब
मानव तस्करी का जाल देश भर में फैला है, लेकिन झारखण्ड की स्थिति काफ़ी ख़राब है। नीति आयोग की हाल में आयी रिपोर्ट के अनुसार मानव तस्करी के मामले में झारखण्ड देश भर में 11वें स्थान पर है। भारत में 10 लाख की आबादी पर पाँच लोग मानव तस्करी के शिकार होते हैं। देश में मणिपुर 61 लोगों के साथ पहले स्थान पर है। वहीं गोवा 59 लोग, मिजोरम 45 और दिल्ली में प्रति 10 लाख पर 31 लोग मानव तस्करी के शिकार होते हैं। झारखण्ड में यह आँकड़ा प्रति 10 लाख में सात लोग हैं। झारखण्ड पहले से मानव तस्करी का मुख्य केंद्र रहा है। कोरोना-काल ने इस संकट को और बढ़ा दिया है। बेरोज़गारी, ग़रीबी, माँ-बाप या अभिभावक साया छूटने के कारण मानव तस्करी बढ़ा है। अभी हाल में 24 जून को रांची हवाई अड्डे पर 19 नाबालिग़ बच्चों को तस्करी के शिकार होने से बचाया गया। इस वर्ष जनवरी से जून तक रांची हवाई अड्डे से ही 50 से अधिक लड़कियों को मानव तस्करों के चंगुल से छुड़ाया गया, जिनमें अधिकतर नाबालिग़ थीं। कोरोना-काल में मानव तस्करी की घटना बढऩे की आशंका केंद्र सरकार और राज्य सरकार, दोनों ने भी जतायी है। कुछ महीने पहले मानव तस्करी के मामलों में वृद्धि के मद्देनज़र राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग (एनएचआरसी) ने विभिन्न राज्यों को परामर्श जारी किया है, जिसमें मानव तस्करी पर विशेष नज़र रखने के लिए निर्देश दिये गये हैं।

पैसे के लालच में कुकृत्य
कुछ लोग पैसे के लिए कुछ भी करने पर आमादा हो जाते हैं। मानव तस्करी जैसा कुकृत्य भी पैसे के लालची लोग करते हैं। इसकी शिकार लड़कियों, महिलाओं, बच्चों को भले ही कोई लाभ न मिलता हो; लेकिन तस्करों को इसके लिए अवैध रूप से जमकर लाभ मिलता है। पकड़े गये तस्करों के बयानों से पता चला है कि एक लड़के-लड़की की तस्करी पर 30 से 40 हज़ार रुपये मिलते हैं। एक अनुमान के मुताबिक, झारखण्ड में मानव तस्करी का अवैध कारोबार करने वाले तस्करों की कमायी करोड़ों में है। राज्य पुलिस के आँकड़ों के मुताबिक, सन् 2015 से लेकर अब तक 660 मामले राज्य के एंटी ह्यूमन ट्रैफिकिंग यूनिट थानों में दर्ज किये गये हैं। इनमें से मामलों में 300 चार्जशीट दायर हो चुकी हैं; जबकि 90 मामले बन्द हो चुके हैं और 135 मामले लम्बित हैं। सन् 2008 से लेकर अब तक कुल 350 पुरुष और 150 महिला तस्कर पुलिस के हत्थे चढ़े हैं।

प्लेसमेंट एजेंसी और परिचित ज़िम्मेदार
मानव तस्करी और तस्करों से युवतियों, महिलाओं, बच्चों के बचाव में लगे एनजीओ ऐक्शन अगेंस्ट ट्रैफिकिंग सेक्सुअल एक्सप्लोयटेशन इन इंडिया (अटसेक) के मुताबिक, झारखण्ड को मानव तस्करी का एक सोर्स राज्य के रूप में माना जाता है। झारखण्ड से हर साल 30 से 40 हज़ार बच्चे मानव तस्करी के शिकार होते हैं। इनमें से 10 फ़ीसदी बच्चे तो गुम ही हो जाते हैं। मानव तस्करी में प्लेसमेंट एजेंसी और बच्चों के नज़दीकी रिश्तेदार, दोस्त, स्थानीय परिचित व्यक्ति की भूमिका महत्त्वपूर्ण होती है। दिल्ली देश की राजधानी होने के नाते मानव तस्करी का हब है। ज़्यादातर बच्चों को दिल्ली, कोलकाता, हरियाणा, उत्तर प्रदेश, पंजाब, बेंगलूरु आदि जगहों पर भेजा जाता है। लड़कियों को 30 हज़ार से 1.5 लाख रुपये तक में बेचा जाता है। उन्हें कई तरह की यातनाएँ सहनी होती हैं। कुछ मामलों में ग़रीबी के कारण माता-पिता द्वारा भी बच्चे को भेजे जाने की बात सामने आती है। झारखण्ड में मानव तस्करी से जुड़े ज़्यादातर मामले सिमडेगा, गुमला, खूँटी व संथाल परगना के अलग-अलग ज़िलों से ही होते हैं।

सरकारें उठा रहीं क़दम


केंद्रीय महिला एवं बाल विकास मंत्रालय ने मानव तस्करी (रोकथाम, देखभाल एवं पुनर्वास) विधेयक-2021 का मसौदा तैयार किया है। इस पर विभिन्न पक्षों से सुझाव माँगे गये हैं। विधेयक में तस्करी के दोषी पाये जाने वाले व्यक्ति को कम-से-कम सात वर्ष क़ैद की सज़ा होगी, जिसे बढ़ाकर 10 वर्ष तक किया जा सकेगा। इसके अलावा दोषी पर कम-से-कम एक लाख रुपये से लेकर पाँच लाख रुपये तक का ज़ुर्माना भी लगाया जा सकेगा।
झारखण्ड सरकार लगातार मानव तस्करी रोकने की दिशा में क़दम उठा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मामले को लेकर गम्भीर हैं। अधिकारियों को मानव तस्करों के ख़िलाफ़ सख़्त कार्रवाई करने का आदेश दिया। इसी का नतीजा है कि फरवरी, 2021 में 14 नाबालिग़ों (12 लड़के एवं दो लड़कियों सहित) को छुड़ाया गया। पिछले महीने तमिलनाडु के तिरुपुर में फँसे आदिवासी लड़कियों और महिलाओं को वापस लाया गया। तस्करों के चंगुल से लाये गये लड़के-लड़कियों के पुनर्वास की व्यवस्था सरकार ने की है। झारखण्ड सरकार लगातार मानव तस्करी के ख़िलाफ़ क़दम उठा रही है। मुख्यमंत्री हेमंत सोरने समय-समय पर समीक्षा कर रहे हैं। राज्य में जहाँ से भी मानव तस्करी के शिकार बच्चों, नाबालिग़ लड़के-लड़कियों या युवतियों, महिलाओं की जानकारी मिलती है, उन्हें तस्करों के चंगुल से छुड़ाने का प्रयास किया जा रहा है।
राज्य में अप्रैल, 2020 से मार्च, 2021 तक 199 लड़कियों को तस्करों के चंगुल से निकाला जा चुका है। वहीं अप्रैल, 2021 से अब तक 55 को तस्करों के चंगुल से छुड़ाया गया है। सरकार बचाव कार्य के बाद पुनर्वास की व्यवस्था भी कर रही है। राज्य सरकार का क़दम सराहनीय है। लेकिन मानव तस्करी की रोकथाम के लिए ये प्रयास पर्याप्त नहीं है। मानव तस्करी के पीछे के कारणों को तलाश कर उसके निदान की दिशा में और ठोस क़दम उठाने की ज़रूरत है; तभी झारखण्ड के माथे से मानव तस्करी का कलंक मिट पाएगा।


“झारखण्ड से मानव तस्करी के कलंक को मिटाना सरकार की प्राथमिकता है। मानव तस्कर रोधी इकाइयों की स्थापना का आदेश दिया गया है। ग्रामीण इलाक़ों में मानव तस्करी पर नज़र रखने के लिए राज्य भर में विशेष महिला पुलिस अधिकारियों की नियुक्ति की जाएगी। बचाकर लाये गये पीडि़तों के लिए पुनर्वास की व्यवस्था की गयी है। कोरोना संक्रमण से प्रभावित बच्चों की स्थिति का किसी को फ़ायदा नहीं उठाने दिया जाएगा। हम अपने बच्चों की देखभाल करेंगे। कोई भी बच्चा किसी भी प्रकार के अनुचित साधनों का शिकार नहीं होगा। सरकार जल्द ही ऐसे बच्चों के पुनर्वास के लिए एक विस्तृत योजना लेकर आएगी। जिन्होंने दुर्भाग्य से अपने माता-पिता को खो दिया है।”
हेमंत सोरेन, मुख्यमंत्री, झारखण्ड

 

 

“मानव तस्करी का शिकार ज़्यादातर महिलाएँ, लड़कियाँ और बच्चे होते हैं। इनमें 80 फ़ीसदी 18 साल से कम उम्र की नाबालिग़ लड़कियाँ होती हैं। कई बार वे आत्मनिर्भर बनने और परिवार का भरण-पोषण करने की सोच के चलते दलालों के चंगुल में फँस जाती हैं। मानव तस्करी के 90 फ़ीसदी मामलों में क़रीबी रिश्तेदारों, परिचितों का हाथ होता है। पीडि़तों को जिस तरह की मानसिक यातनाओं से गुज़रना पड़ता है कि उनके काउंसलिंग और पुनर्वास करने में दो-तीन साल लग जाते हैं। मानव तस्करी पर रोक तभी लग सकती है, जब उन्हें अपने ही घर या ज़िले के आसपास जीवनयापन के लिए काम की व्यवस्था होगी।”
संजय मिश्रा, झारखण्ड प्रमुख, अटसेक

विवाह के अधिकारों पर फिर होगी बहस

फिर सर्वोच्च न्यायालय पहुँचा पति-पत्नी के बीच सम्बन्धों का मुद्दा

अगस्त, 2017 में सर्वोच्च न्यायालय के नौ न्यायाधीशों (जजों) की खंडपीठ ने जब निजता को संविधान प्रदत्त मौलिक अधिकार के रूप में स्थापित किया था, तब यह माना गया था कि इसके राज्य व समाज दोनों पर ही दूरगामी प्रभाव आएँगे। सर्वोच्च न्यायालय के इस फ़ैसले को अभी दो साल भी पूरे नहीं हुए कि इसी फ़ैसले को आधार बनाकर हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की ‘विवाह अधिकारों की बहाली सम्बन्धी’ धारा-9 को सर्वोच्च न्यायालय में ही फिर से चुनौती दे दी गयी।
अब इस याचिका पर सर्वोच्च न्यायालय के तीन न्यायाधीशों की पीठ विचार कर रही है और अगर यह फ़ैसला भी वादियों के पक्ष में गया, तो इसके समाज पर अति-दूरगामी प्रभाव देखने को मिलेंगे।

क्या है धारा-9?


हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 पति और पत्नी दोनों को ही विवाह के बाद साथ रहने का अधिकार देता है। लेकिन अगर किसी भी कारण से पति या पत्नी, दोनों में से कोई भी साथ रहने या फिर यौन सम्बन्ध बनाने से इन्कार कर देता है, तो इस अधिनियम की धारा-9 बीच में आती है।
इस धारा के तहत सम्बन्ध बनाने से इन्कार करने वाले के ख़िलाफ़ दूसरा पक्ष न्यायालय में जा सकता है और अगर न्यायालय उसके पक्ष में फ़ैसला दे देता है, तो इन्कार करने वाले को मजबूरन उसके साथ रहना ही होगा। अगर वह उस फै़सले को नहीं मानता, तो उसकी सम्पत्ति ज़ब्त की जा सकती है।
साफ़ है कि यह बात पति और पत्नी, दोनों पर समान रूप से लागू होती है। लेकिन व्यवहार में ऐसा है नहीं। पुरुष प्रधान समाज में स्त्री को ही न चाहते हुए भी पति के घर वापस जाना पड़ता है और बेमन होकर भी यौन सम्बन्ध बनाने पड़ते हैं।
अक्सर ऐसा होता है कि पति के दुव्र्यवहार से तंग आकर पत्नी उससे अपने को अलग कर लेती है। तब पति इस धारा के तहत न्यायालय के ज़रिये उसे फिर अपने पास आने के लिए मजबूर करता है; और एक बार पत्नी के आ जाने के बाद पति अपने दाम्पत्य अधिकारों का दबाव डालकर, उसे उसकी इच्छा के विपरीत, यौन सम्बन्ध बनाने के लिए मजबूर करता है।

धारा-9, धारा-22 ख़त्म करने की माँग
नेशनल लॉ यूनिवर्सिटी, गाँधीनगर, गुजरात के दो छात्रों ओजस्व पाठक और मयंक गुप्ता ने इस जबरदस्ती को महिलाओं की निजता, दैहिक स्वायत्ता, सम्मान से जीने, स्वतंत्रता और समानता के संवैधानिक अधिकारों का उल्लंघन मानते हुए न्यायालय से अपील की है कि वह हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955 की धारा-9, विशेष विवाह अधिनियम की धारा-22 एवं सिविल प्रक्रिया संहिता के इनसे जुड़े कुछ प्रावधानों को ख़त्म करे।
उनके मुताबिक, किसी भी व्यक्ति को उसकी इच्छा के विरुद्ध यौन सम्बन्ध स्थापित करने का आदेश देने का अधिकार न्यायालय को नहीं दिया जा सकता।
देश के सर्वोच्च न्यायालय में होने जा रही इस बहस को आज के बदलते माहौल में देखना-सुनना या जानना बेहद दिलचस्प होगा। कारण, इससे पहले सन् 1984 में सरोज रानी बनाम सुदर्शन कुमार चड्ढा के मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने हिन्दू विवाह अधिनियम की धारा-9 को यह कहते हुए बरक़रार रखा था कि यह विवाह को टूटने से रोककर एक सामाजिक मक़सद को पूरा करती है।
यही नहीं, उसने आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले को भी ख़ारिज कर दिया था, जिसमें इस धारा को पूर्णतया रद्द कर दिया गया था। न्यायालय के इतिहास में यह पहली बार हुआ था कि किसी न्यायाधीश ने इस धारा को पूरी तरह रद्द कर दिया हो। सन् 1983 में टी. सरिता बनाम टी. वेंकटसुब्बैया मामले में आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय की एकल पीठ के न्यायाधीश पी. चौधरी ने ऐसा करते हुए अन्य बातों के अलावा निजता के अधिकार का भी हवाला दिया था। उनका यह भी कहना था कि पति या पत्नी की इतनी अधिक निकटता से जुड़े हुए मुद्दे को राज्य के किसी हस्तक्षेप से बेहतर है कि इसे उन्हीं (पति-पत्नी) पर छोड़ दिया जाए। तीसरी सबसे महत्त्वपूर्ण बात यह कि न्यायालय ने माना है कि ‘यौन सम्बन्ध’ बनाने पर मजबूर करने के महिलाओं पर ‘बहुत घातक प्रभाव’ होंगे।
इसी साल दिल्ली उच्च न्यायालय ने हरविंदर कौर बनाम हरमंदिर सिंह चौधरी के मामले में इसके एकदम उलट फ़ैसला दिया। उसका कहना था कि यौन सम्बन्ध इस धारा का एकमात्र मसला नहीं है। यह राज्य के हित में है कि परिवार टूटें नहीं, वैवाहिक सम्बन्ध बने रहें और निभते रहें। सर्वोच्च न्यायालय ने दिल्ली के फ़ैसले को सही मानते हुए आंध्र प्रदेश उच्च न्यायालय के फ़ैसले को ख़ारिज कर दिया।

महत्त्वपूर्ण होगी बहस
अब जब पिछले कुछ साल से निजता के अधिकार के अलावा, भारतीय दण्ड संहिता, 1860 की धारा-497 को ख़त्म करके सर्वोच्च न्यायालय ने व्यभिचार के सन्दर्भ में महिलाओं को समानता का अधिकार दिया और समलैंगिकता अधिकारों को क़ानूनी जामा पहनाया, उसको देखते हुए वैवाहिक अधिकारों की बहाली पर होने जा रही बहस काफ़ी महत्त्वपूर्ण हो जाती है। ख़ासकर इसलिए कि बाल-विवाह, पति द्वारा बलात्कार जैसे सामाजिक मुद्दों पर आगे की क़ानूनी राह का इससे पता चलेगा।

विवाह अधिकारों की बहाली


बात बाल विवाह की आयी, तो यह जानना और भी दिलचस्प है कि बाल विवाह निषेध क़ानून के बनने का रास्ता विवाह अधिकारों की बहाली या कहें कि पुनस्र्थापना सम्बन्धी एक मुक़दमे से ही निकला और वह भी 136 साल पहले।
हुआ यह कि महाराष्ट्र में दादाजी भीखाजी नाम के एक व्यक्ति ने सन् 1884 में अपनी पत्नी रुखमाबाई के ख़िलाफ़ न्यायालय में यह कहकर मुक़दमा दायर कर दिया कि वह बार-बार अनुरोध करने के बाद भी उसके घर नहीं आ रही, न उसके साथ रह रही है। न्यायालय उसके वैवाहिक अधिकारों के तहत उसके साथ रहने का आदेश दे।
रुखमाबाई की भीखा से शादी तब हुई थी, जब वह मात्र 11 साल की थी। इसके बाद पिता के घर में रहते हुए वह पढ़ाई करती रही। वह उच्च शिक्षा प्राप्त करना चाहती थी और बचपन में उसकी सहमति के बिना की गयी उस शादी को मानने को तैयार नहीं थी।
ज़िला न्यायालय में मुक़दमा सुनवायी के लिए आया, तो आधे से ज्यादा अख़बार रुखमाबाई के ख़िलाफ़ बहसों से भर गये। सभी उसके रवैये के लिए उसकी शिक्षा को दोषी ठहरा रहे थे।
न्यायाधीश ने ज़्यादा बहस किये बिना ही रुखमाबाई के पक्ष में फ़ैसला दे दिया। लेकिन भीखाजी ने हार नहीं मानी और वह उच्च न्यायालय में गये। आमजन में यह सन्देश जा रहा था कि ब्रिटिश क़ानून हिन्दू समाज और उसके तौर-तरीक़ों को प्रभावित करने का प्रयास कर रहा है। यह लड़ाई जितनी भीखाजी और रुखमाबाई की थी, उससे कहीं ज़्यादा ब्रिटिश सरकार, समाज सुधारकों और उनके विरोधियों के बीच में थी। दबाव के बीच बम्बई उच्च न्यायालय ने ज़िला न्यायालय के फ़ैसले को पलट दिया। यही नहीं, रुखमाबाई को मुक़दमे की सारी रक़म अदा करने और ऐसा नहीं करने पर छ: महीने की जेल की सज़ा का आदेश सुनाया। रुखमाबाई ने फ़ैसले को मानने से इन्कार करते हुए 2,000 रुपये का हर्ज़ाना देना तय किया। लोगों ने दिल खोलकर रुखमाबाई के लिए पैसे इकट्ठे किये।
दण्ड भुगताने के बाद जो पैसा बचा, उससे रुखमाबाई मेडिकल की पढ़ाई करने इंग्लैंड चली गयीं। लौटकर आयीं, तो वह देश की पहली महिला चिकित्सक के रूप में जानी गयीं। इस मामले के बाद लड़की के विवाह की आयु को लेकर पहले ब्रिटेन और फिर भारत में क़ानूनों में सुधार किया गया। लेकिन जहाँ तक विवाह अधिकारों की बहाली की बात है, उस क़ानून में कोई बदलाव नहीं आया और न सर्वोच्च न्यायालय ने ही इस पर अभी तक अपना रुख़ बदला है। लेकिन रुखमाबाई ने अपनी दैहिक स्वायतता व इन्कार करने के अधिकार की रक्षा के लिए जो तर्क 136 साल पहले दिये थे, वो आज भी अपनी जगह उसी तरह और वहीं
खड़े हैं।

जाँच की आँच से खलबली

राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की ताक़त का स्रोत क्या है? संघ का आधार नकारात्मक होता, तो दीर्घकाल तक ऊर्जा और प्रतिबद्धता उत्पन्न नहीं कर सकता था। स्पष्ट कहें, तो संघ अपनी विचारधारा को शुचिता और निष्ठा से जोड़कर परिभाषित करता रहा है। कहने की आवश्यकता नहीं कि संघ की शक्ति का पूरा लाभ भाजपा को मिलता है। इसलिए यश, अपयश का प्रभाव भी संघ पर पड़ता है। ऐसे में इससे जुड़े लोगों की राजनीतिक शैली और प्रक्रियाओं पर नियंत्रण भी आवश्यक हो जाता है।
प्रश्न उठता है कि क्या संघ आरोप-प्रत्यारोप की तात्कालिक चुनौतियों के प्रति सतर्क है। ग्रेटर जयपुर की निलंबित मेयर सौम्या गुर्जर के कथित धतकर्मों ने इन सवालों में सेंध लगायी है। भ्रष्टाचार निरोधक ब्यूरो द्वारा सौम्या गुर्जर कांड में उनके पति राजाराम और बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि ओमकार सप्रे की गिरफ़्तारी के साथ आरएसएस के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम की घेराबंदी ने प्रदेश की राजनीति में जबरदस्त हलचल पैदा कर दी है। इसकी शुरुआत पिछले पखवाड़े जिस हो-हल्ले से हुई, उसने बवंडर की शक्ल अख़्तियार कर ली है। एसीबी ने अभी निंबाराम के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज की है। घूसख़ोरी के वीडियो में निंबाराम की मौज़ूदगी भाजपा के लिए परेशानी का सबब बन गयी है।
भाजपा के उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ भड़के हुए अंदाज़ में कांग्रेस पर हमलावर हो रहे हैं कि यह सौदा सरकार को बहुत महँगा पड़ेगा। राष्ट्रवादी संगठन को बदनाम किया गया, तो इस नाइंसाफ़ी के ख़िलाफ़ सड़क से संसद तक बिगुल बजा देंगे। एसीबी ने आख़िर प्रारम्भिक जाँच को मुक़दमे में तब्दील क्यों कर दिया? जबकि इसमें कोई शिकायत ही नहीं है। केवल कूटरचित वीडियो के आधार पर मुक़दमा दर्ज कर लिया गया। यह मामला ही झूठ का पुलिंदा है। उधर एसीबी के डायरेक्टर जनरल बी.एल. सोनी का कहना है कि रिश्वत की राशि पेश करने और माँगने की पुष्टि होने के बाद वीडियो में नज़र आ रहे राजाराम, ओमकार सप्रे और निंबाराम साफ़-साफ़ नज़र आ रहे हैं। उनके ख़िलाफ़ मामला दर्ज किया गया है। उधर कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष गोविंद डोटासरा अपनी ही सरकार पर हमलावर हो रहे हैं कि निंबाराम की गिरफ़्तारी में देरी किस बात को लेकर है? जबकि वीडियो में संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम की मौज़ूदगी साफ़ नज़र आ रही है। इस मामले में एसीबी सावधानी की बात करें, तो उसके दो क़दम जबरदस्त चर्चा में रहे। पहला, एसीबी ने राजस्थान राज्य विधि विज्ञान प्रयोगशाला से ऑडियो-वीडियो की तो जाँच करायी, जिसकी पुष्टि के लिए तेलंगाना एफएसएल से भी जाँच करायी; ताकि रिपोर्ट पर सवाल उठें, तो बचाव किया जा सके। दूसरा, एफएसएल की रिपोर्ट तो एसीबी को समयरहते मिल गयी थी, किन्तु सौम्या गुर्जर ने निलंबन सम्बन्धी प्रावधानों को उच्च न्यायालय में चुनौती दे रखी थी। ऐसे में उच्च न्यायालय के फ़ैसले का इंतज़ार ज़रूरी था। न्यायालय का फ़ैसला जब सौम्या गुर्जर के ख़िलाफ़ आया, तब जाकर एसीबी ने गिरफ़्तारी का क़दम उठाया।


अलबत्ता दोनों एफएसएल जाँचों का लब्बोलुआब समझें, तो बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि ने घूस की मोटी रक़म का प्रस्ताव दिया। राजाराम ने धमकाने के अंदाज़ में रिश्वत माँगी। उक्त मामले में प्रथम दृष्टया एक अन्य व्यक्ति की सहयोगात्मक उपस्थिति भी पायी गयी। स्पष्ट है कि यह अन्य व्यक्ति कौन था? भाजपा के उपनेता राजेन्द्र सिंह राठौड़ एफएसएल जाँच को लेकर उखड़े अंदाज़ में सरकार पर हमलावर हो रहे हैं कि जाँच केंद्रीय एफएसएल के बजाय तेलंगाना से क्यों करायी? उधर एसीबी सूत्रों का कहना है कि बीवीजी कम्पनी के जिस भी कर्मचारी ने वीडियो बनाया, उसने पहले 276 करोड़ के भुगतान सम्बन्धी बातचीत को मोबाइल पर रिकॉर्ड किया, फिर मुलाक़ात के दौरान वीडियो बनाया। सूत्रों का कहना है कि पाँच-छ: दिनों के अंतराल में उसने कुल तीन वीडियो और पाँच-छ: बार ऑडियो बनाये गये।
उधर उच्च न्यायालय के फ़ैसले ने भी इस मामले में भाजपा की मुश्किलें बढ़ा दी हैं। उच्च न्यायालय ने सौम्या गुर्जर की याचिका ख़ारिज करते हुए साफ़ कह दिया कि सरकार की कार्रवाई मनमानी और द्वेषपूर्ण नहीं है। सौम्या गुर्जर ने एफआईआर रद्द करने के लिए याचिका दायर की थी। उच्च न्यायालय ने सौम्या गुर्जर को महापौर पद से निलंबन पर राहत देने से इन्कार कर दिया। साथ ही सरकार को छ: माह में न्यायिक जाँच पूरी करने को कहा है। भाजपा अब इस मामले में सुप्रीम कोर्ट में दस्तक देने की तैयारी में है। भाजपा के वरिष्ठ नेता और इस पूरे मामले की कमान सँभाल रहे अरुण चतुर्वेदी ने स्पष्ट किया कि न्यायालय के फ़ैसले पर कोई टिप्पणी नहीं बनती। अब पार्टी की क़ानूनी टीम की सलाह पर ही इस मामले में आगे बढ़ा जाएगा। इस मामले में बीवीजी कम्पनी बचाव के हर रास्ते पर दस्तक देती नज़र आ रही है। कम्पनी के वकील का कहना है कि सोशल मीडिया पर वायरल हुए वीडियो में कमीशन और रिश्वत के लेन-देन की बात नहीं हो रही, बल्कि कम्पनी के सीएसआर फंड की दो फ़ीसदी रक़म को राम मंदिर निर्माण समिति और प्रताप फंड में देने की बातचीत हो रही थी। उन्होंने यह भी कहा कि यह मामला केवल सियासी मक़सद के लिए दर्ज किया गया है तथा वीडियो में काँट-छाँट और तथ्यों से छेड़छाड़ भी की गयी है। सूत्रों का कहना है कि सफ़ाई व्यवस्था में कमीशनख़ोरी का क़िस्सा कोई नयी बात नहीं है। सफ़ाई की कमान चाहे ठेके पर हो या ख़ुद निगम के हाथों में, कमीशनख़ोरी के आरोप लगते रहे हैं।
जानकारों का मानना है कि यह सिलसिला बन्द हो, तभी जयपुर की प्रतिष्ठा (रैंकिंग) सुधर सकती है। सफ़ाई व्यवस्था के मामले में जयपुर हमेशा फिसड्डी रहा है। व्यवस्था ने अपना चोला नहीं बदला, तो कमीशनख़ोरी की मुहावरेदार भाषा बार-बार नये गुल खिलाती रहेगी। जयपुर की प्रतिष्ठा बनाने के लिए कोई लाख चाहे, तो भी ऐसे सूरमा की तलाश नहीं की जा सकती।
इस मामले में कांग्रेस और भाजपा के फायरब्रांड नेताओं की बयानबाज़ी ने तूल पकड़ा, तो आख़िरकार संघ को अपनी चुप्पी तोडऩी पड़ी। संघ के राजस्थान कार्यवाह हनुमान सिंह राठौड़ ने क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम पर लगाये गये सारे आरोपों को निराधार बताते हुए कहा कि निहित सियासी स्वार्थ से प्रेरित होते हुए तथ्यों को तोड़-मरोड़कर प्रस्तुत किया गया है। हालाँकि उन्होंने कहा कि मामले की जाँच में निंबाराम हर तरह से सहयोग देने को तैयार हैं। क़ानून में सम्मत कार्रवाई करने के सभी विकल्प खुले हुए हैं। उन्होंने कहा कि अलग-अलग समय और सन्दर्भ में की गयी बातचीत की वीडियो रिकॉर्डिंग करके उन्हें अन्यर्थों में पेश किया गया है, जबकि इस मामले में किसी प्रकार की राशि का आदान-प्रदान नहीं हुआ है। इसे भ्रष्टाचार से जोड़कर अनर्गल आरोप लगाना निंदनीय है। बीवीजी कम्पनी के प्रतिनिधि प्रताप गौरव केंद्र में सीएसआर फंड द्वारा सहयोग का प्रस्ताव लेकर निंबाराम के पास आये थे। निंबाराम के कहने पर कम्पनी प्रतिनिधियों ने दौरे की तिथि तय भी की; लेकिन वह वहाँ पर गये ही नहीं। ऐसे में जब लेन-देन की आग भड़की ही नहीं, तो सियासी धुआँ क्यों उठा? विश्लेषकों का कहना है कि फ़िलहाल तो जाँच के बाद ही पता चलेगा कि कौन सही है और कौन ग़लत।

जाँच की प्रतीक्षा करें : कस्वां


राजाराम प्रकरण में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के क्षेत्रीय प्रचारक निंबाराम को आरोपी बनाये जाने के मामले में प्रतिकार की भाषा बोलने वाले नेता प्रतिपक्ष राजेन्द्र राठौड़ पर हमलावर होते हुए प्रदेश कांग्रेस के उप सचिव रामसिंह कस्वां का कहना है कि निंबाराम की मौज़ूदगी में रिश्वत माँगे जाने का वीडियो जारी होने के बाद कहने को क्या रह जाता है? बावजूद इसके राठौड़ इसे राष्ट्रवादी संगठन के ख़िलाफ़ साज़िश क़रार दे रहे हैं। क्या यह हैरानी की बात नहीं है? रामसिंह कहते हैं कि एफएसएल रिपोर्ट में वीडियो की प्रमाणिकता की पुष्टि हो जाने के बावजूद इसे सियासी बैर-भाव बताने की कोशिश करना तो चोरी और सीनाजोरी जैसा हुआ। रामसिंह कहते हैं कि एक तरफ़ संघ द्वारा कहा जाता है कि उनका संगठन रचनात्मक कार्यों को लोकतांत्रिक आवाज़ देने का काम करता है। तो क्या संघ के पदाधिकारियों को इस मामले की गहराई नापने का काम नहीं करना चाहिए? कस्वां का कहना है कि फ़िलहाल तो इस प्रकरण में निंबाराम की भूमिका की जाँच हो रही है। इसलिए इसमें भाजपा नेताओं की उछल-कूद उचित नहीं है। यह कोरा सतही आलोचना का क़िस्सा नहीं है, बल्कि पड़ताल का विषय है कि आख़िर घूसख़ोरी के लेन-देन में निंबाराम क्यों नज़र आ रहे हैं? उनकी इस प्रकरण में क्या भूमिका है? उन्होंने वसुंधरा राजे के इस बयान पर कि अशोक गहलोत सत्ता का दुरुपयोग कर रहे हैं; पलटवार करते हुए कहा कि कोई भी व्यक्ति या संगठन अपने काम से ख्यात और कुख्यात होता है। इसलिए जाँच की प्रतीक्षा तो करें। उन्होंने एक कविता ‘सत्य क्या है’ पढ़ी-
‘सूर्य छिपे अदरी-बदरी और चंद्र छिपे जो अमावस आये
पानी की बूँद पतंग छिपे और मीन छिपे इच्छा जल पाये
भोर भये जब चोर छिपे और मोर छिपे रितु सावन आये
कोटि प्रयास करे कित कोई, सत्य का दीप बुझे न बुझाये’

दुविधा में पायलट

राजनीतिक कलह की आग में जब भी शोले भड़कते हैं, तो शिकवा-शिकायतों की चिंगारियाँ उड़े बिना नहीं रहतीं। पिता राजेश पायलट की पुण्यतिथि पर भारी भीड़ जुटाकर चुपके से अपना दर्द साझा करते हुए सचिन पायलट ने अपना दावा फिर दोहरा दिया कि पार्टी के लिए अपना सब कुछ झोंकने के बावजूद मुझे क्या मिला? जब उन्होंने उप मुख्यमंत्री पद की शपथ ली थी, तभी अंदेशों के बादल उठने लगे थे कि मुख्यमंत्री न बन पाने की ख़लिश उन्हें बेचैन किये रहेगी। कुछ हफ़्तों बाद ही उनके और मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के बीच तनाव की ख़बरें रिसने लगीं।


इन अफ़वाहों को बल तब मिला, जब पायलट ने गहलोत के कामकाज को लेकर बेसिर-पैर की बातें शुरू कर दीं। असली सत्ता अपने पास नहीं होने का सन्ताप पायलट को भीतर-ही-भीतर कचोटता रहा। नतीजतन पायलट अपनी कुर्सी के ही क़ैदी बनकर रहे गये। पायलट लाख चाहें भी, तो इस बात से इन्कार नहीं कर सकते कि बिना कोई संघर्ष किये छोटी-सी उम्र में ही उन्होंने सांसदी और केंद्रीय मंत्री की पाग पहनने के बाद प्रदेश अध्यक्ष और उप मुख्यमंत्री तक का ताज भी पहन लिया। गहलोत तो इस बात पर तंज कसने से भी नहीं चूके कि बिना संघर्ष के ही जब पायलट को इतना कुछ मिला, तो उन्हें इसकी क़द्र नहीं हुई। लेकिन उनकी सियासी जन्म कुण्डली का इससे ज़्यादा दु:खद वृतांत क्या हो सकता है कि पार्टी के मुखिया पद को ही उन्होंने लांछित कर दिया। विश्लेषकों का कहना है कि जब पार्टी का मुखिया ही लक्ष्मण रेखा लाँघ जाए, तो बाक़ी क्या रह जाता है? ताक़त दिखाने की बाज़ीगरी में पासे उलटे पडऩे के बाद सचिन एक बार फिर अपने समर्थकों को साथ लेकर पिछला रुतबा और ओहदा पाने के लिए घमासान में उलझे हैं। सचिन पायलट समर्थक पंजाब का उदाहरण देते हुए जोश से बोलते हैं कि जब वहाँ (पंजाब में) कार्यवाही हो गयी, तो राजस्थान में टालमटोल क्यों? लेकिन मुख्यमंत्री अशोक गहलोत के समर्थकों ने पायलट ख़ेमे पर हमलावर होते हुए दो-टूक कह दिया कि जिन लोगों ने पार्टी के साथ ग़द्दारी की और सरकार गिराने की कोशिश की, वे किस हक़ से हाईकमान पर दबाव बना रहे हैं?
विश्लेषकों का कहना है कि पायलट ने जिस तरह की मनमानी की, उससे पनपा तनाव अब शायद ही कम हो सके। वजह साफ़ है कि हर रोज़ कोई-न-कोई नेता आग में घी डालने वाली बयानबाज़ी करने से बाज़ नहीं आ रहा। तेवर जितेन्द्र सिंह ने भी दिखाये कि पार्टी हाईकमान ने पायलट से जो वादे किये हैं, उन्हें निभाया जाना चाहिए। प्रश्न है कि पायलट अपने पाँच से छ: विधायकों को मंत्री बनवाना चाहते हैं, जो कि सम्भव नहीं। इस घमासान के चलते जितिन प्रसाद की भाजपा में उड़ान से भी शोले भड़के। लेकिन यह शोले जल्द ही राख में तब्दील हो गये।
असल में मोदी सरकार ने ज्योतिरादित्य सिंधिया को तो मंत्री पद से नवाज़ दिया; लेकिन जितिन प्रसाद देखते ही रह गये। सूत्रों का संकेत है कि पायलट को मनचाहा पद मिल पाना क़तई सम्भव नहीं है। जबकि समझा जाता है कि उन्हें पार्टी का महासचिव बनाकर किसी प्रदेश का प्रभारी बनाया जा सकता है। हालात जो भी हों, पायलट की इच्छा शान्त नहीं हो रही है और भौहें तनी हुई हैं। राजनीतिक सूत्रों की मानें, तो पायलट के आँगन में बड़े दावों वाला एक खेल खेला जा रहा है। ऐसे में अगर आने वाले वक़्त में पायलट फिसलकर भाजपा के आँगन में जा गिरें, तो ताज़्ज़ुब नहीं होना चाहिए। क्योंकि सियासी खेल में रिश्तों के नियम तय नहीं होते।

बुराइयों को संस्कार न बनने दें

पिछले साल से हमारी गली की एक बुज़ुर्ग़ महिला कुछ अजीब व्यवहार करती नज़र आ रही है। ख़ुद अधिकतर समय बिना मास्क के रहने वाली उक्त महिला किरायेदारों को देखकर इतनी दूर भागती है, जैसे मानो उनमें ही कोरोना वायरस हो। बहुत-से लोगों को उस बुज़ुर्ग महिला का यह बर्ताव बिल्कुल अच्छा नहीं लगता; भले ही कोरोना-काल में यह उनके भी हित में हो। वह इसलिए भी कि शारीरिक दूरी बनाकर रखना एक अलग बात है और कूदकर दूर भागना दूसरी बात। ताज़्ज़ुब यह है कि उक्त महिला गली में लगातार महिला पंचायत करती है और दिन-दिन भर कभी इसके, तो कभी उसके दरवाज़े पर भीड़ लगाकर बैठी रहती है। अभी हाल ही में उसके बेटे की शादी हुई है, जिसमें कोरोना वायरस से बचाव के लिए तय सभी सरकारी दिशा-निर्देशों की धज्जियाँ उड़ायी गयीं। ऐसे लोगों को क्या कहेंगे?
देखने में आया है कि जबसे कोरोना वायरस फैला है, तबसे लोग एक-दूसरे से खुलकर नहीं मिल रहे हैं। अब ज़्यादातर लोग हाथ मिलाने, पास बैठने, बात करने से घबराते दिख रहे हैं। मुझे यह लगता है कि यह कोरोना हम इंसानों बीच घृणा और भेदभाव फैलाने का एक साधन-सा बन चुका है, जिसे अगर इसी तरह बढऩे दिया, तो वह दिन दूर नहीं, जब हम और हमसे ज़्यादा हमारे बच्चे पहले से ही उगी नफ़रत की खरपतवार और कँटीली झाडिय़ों को बढ़ाकर उनमें ख़ुद ही उलझ-उलझ कर अकेलेपन और असहयोग की पीड़ा से तड़पेंगे।
हम पहले से ही तमाम धर्मों, वर्णों, जातियों, भाषाओं, बोलियों, रंगों, वेशभूषाओं, त्योहारों, संस्कृतियों, खान-पान, रहन-सहन और क्षेत्रवाद जैसे पिंजरों में इस तरह क़ैद हैं कि लोग आपस में सरोकार होते हुए भी एक-दूसरे से भेदभाव और नफ़रत करते हैं। ऐसा सब नहीं करते। लेकिन जितने करते हैं, वह पूरे मानव समाज के जीवन को दुश्वार करने के लिए काफ़ी है। इन सब बीमारियों से निजात पाने का एक ही तरीक़ा है, और वह यह कि हमें सियासियों, कट्टवादियों और धार्मिक अन्धविश्वासों तथा उन्माद के चक्कर में पडऩे से बचना है। यह सही है कि हमें कोरोना वायरस नाम की इस महामारी से ख़ुद को और दूसरों को बचाने के लिए सुरक्षा उपायों का पालन करना होगा; लेकिन इसका मतलब यह बिल्कुल नहीं है कि हम आपस में इतनी दूरी बढ़ा लें कि आने वाली पीढिय़ाँ इस दूरी को चलन समझकर जीवन में उतार लें और धीरे-धीरे यह चलन संस्कार बन जाए। क्योंकि जब कोई बुराई संस्कार बन जाती है, तो उससे लोगों को छुटकारा दिला पाना कठिन ही नहीं, नामुमकिन-सा हो जाता है। हम पहले से ही आपस में इतनी दूरियाँ बढ़ा चुके हैं कि पड़ोसियों तक से अब मतलब नहीं रखना चाहते, रिश्तेदारी हमें वही अच्छी लगती है, जो बहुत क़रीब की हो; हमारी ज़रूरत की हो। हाँ, अगर कोई पैसे से बड़ा हो जाता है, तो उसे ज़रूर हम जबरन अपना रिश्तेदार बताते-मानते हैं, भले ही उसकी नज़रों में हमारी कोई औक़ात हो या न हो।
कभी-कभी मैं विचार करता हूँ कि मानव समाज का यह माहौल हुआ कैसे? आपस में दूरियाँ बढ़ाने, एक-दूसरे को जीने न देने, परेशान करने, भेदभाव और नफ़रत करने की सीख हमें किसने दी? इस मामले में मेरा स्पष्ट मानना है कि इस तरह की सीख हमें धर्म के नाम पर आडम्बर करने वाले धर्म के ठेकेदारों और राजनीतिक चूल्हे पर अपनी रोटियाँ सेंकने वाले नेताओं ने दी है, जिसे हम आज तक नकार नहीं पा रहे हैं। जबकि हम अच्छी तरह जानते हैं कि ये लोग सदियों से हमारा दोहन कर रहे हैं। लेकिन धर्मवाद, जातिवाद, क्षेत्रवाद, भाषावाद और अवसरवाद की अफीमों का नशा हमारे दिल-ओ-दिमाग़ पर इस तरह तारी है कि हम इसे छोडऩा ही नहीं चाहते। हमें धार्मिक और राजनीतिक नेताओं के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? जबकि हम जानते हैं कि हमें अपने जीवन के निर्वाह के लिए ख़ुद ही परिश्रम करके अपना जीवन चलाना है। ख़ुद ही अपनी पहचान बनानी है; और ईश्वर तक पहुँचने का रास्ता भी ख़ुद ही बनाना है; जो कि निश्छल, परम् ज्ञानी, निष्कपट, निर्मोही और निर्लोभी गुरु बताएगा या स्वयं ईश्वर ही दिखाएगा। फिर हमें इन ठगों के चक्कर में क्यों पडऩा चाहिए? क्यों इनकी हाँ-में-हाँ मिलानी चाहिए? क्यों इनके कहने पर भेदभाव, नफ़रत, लड़ाई-झगड़ा और पापकर्म करने चाहिए? क्यों मान लेना चाहिए कि धार्मिक और राजनीतिक स्वार्थी जो कह रहे हैं, वही ठीक है? क्यों मान लेना चाहिए कि ये लोग ही सही हैं, बाक़ी सब कुछ और हर कोई ग़लत?
आपने कभी सोचा है कि ये जो धार्मिक और राजनीतिक लोग हमें आपस में बाँटकर रखते हैं और हमेशा बाँटकर रखना चाहते हैं; वे आपस में कितने एक हैं? कोरोना वायरस के भयाक्रांत संक्रमण के दौर में भी उनमें बेतक़ल्लुफ़ ताल्लुक़ात रहे। एक-साथ उठे-बैठे; अन्दरख़ाने पार्टियाँ कीं; बैठकें कीं; रैलियाँ कीं; यहाँ तक कि कई बिना मास्क के भी रहे। और आम लोगों ने बिना मास्क के डण्डे खाये, चालान कटवाये।
मैं यह नहीं कहता कि महामारी से बचने के लिए तय दिशा-निर्देशों का पालन नहीं करना चाहिए; लेकिन नियम-क़ानून तो सभी के लिए समान हैं और रहने भी चाहिए। फिर भी अगर ऐसा नहीं है, तो भी जन-सामान्य को आपस में इतनी दूरियाँ नहीं बनानी चाहिए कि ये दूरियाँ भविष्य में भेदभाव और नफ़रत की बुनियाद बन जाएँ और आने वाली पीढिय़ाँ इन बुराइयों को एक संस्कार या संस्कृति मानकर अपनाने लगें।

शून्य से सत्ता में वापसी की क़वायद हरियाणा में फिर से ओमप्रकाश चौटाला के सक्रिय होने से बदल सकते हैं राज्य के राजनीतिक समीकरण

इंडियन नेशनल लोकदल (इनेलो) प्रमुख ओमप्रकाश चौटाला के जेल से आने के बाद पार्टी नेताओं और कार्यकर्ताओं में नया जोश पैदा हो गया है। उन्हें लगता है कि बदली परिस्थिति में हरियाणा में इनेलो का युग फिर से लौट आएगा और यह सब चौटाला की वजह से सम्भव हो सकेगा। उम्र के इस दौर में उनसे इतनी ज़्यादा उम्मीदें लगाना बेमानी-सा लगता है; लेकिन उनकी सक्रियता को देखते हुए पार्टी के पहले से बेहतर स्थिति में आने की आशा है। उन्हें कुशल संगठनकर्ता और वक्ता के तौर पर आँका जाता है और कई बार वह इसे साबित भी कर चुके हैं।
दिल्ली-ग़ाज़ीपुर सीमा पर जाकर वह किसानों को खुला समर्थन दे चुके हैं। पार्टी पहले से ही किसान आन्दोलन की हिमायती रही है। राज्य के ऐलनाबाद से एकमात्र विधायक अभय चौटाला उनके समर्थन में अपनी सीट से इस्तीफ़ा दे चुके हैं। यहाँ उपचुनाव होना है; लेकिन अभी इसकी घोषणा नहीं हुई है। अभय घोषणा कर चुके हैं कि अगर चुनाव आयोग से हरी झंडी मिलती है, तो उनके पिता (ओम प्रकाश चौटाला) ही मैदान में उतरेंगे। ऐलनाबाद इनेलो का गढ़ रहा है। लिहाज़ा इसमें कोई संशय नहीं कि पार्टी मुक़ाबले में सबसे आगे रहेगी। उपचुनाव में हार-जीत से ज़्यादा फ़र्क़ पडऩे वाला नहीं है; क्योंकि जो सीट पहले उसके पास थी, फिर से चली गयी और राज्य में पार्टी का फिर से प्रतिनिधित्व हो गया।
वैसे एक दौर में राज्य की प्रमुख पार्टी रही इनेलो अभी हाशिये पर ही है। पिछले विधानसभा चुनाव में पार्टी ने राज्य की 90 में से 81 सीटों पर प्रत्याशी उतारे केवल ऐलनाबाद से अभय चौटाला को ही जीत मिली। पार्टी प्रत्याशी बहुसंख्यक सीटों पर कहीं मुक़ाबले में नहीं रहे और मतों का फ़ीसद 2.44 रहा। इसके मुक़ाबले में इनेलो से अलग हुई जननायक जनता पार्टी (जजपा) को 10 सीटों पर जीत मिली और उसे 14.80 फ़ीसदी मत मिले। मौक़े की नज़ाकत को देखते हुए जजपा ने भाजपा को समर्थन दिया और सरकार में शामिल हुई। पार्टी नेता दुष्यंत चौटाला राज्य के उप मुख्यमंत्री के तौर पर क़ाबिज़ हुए। कहा जा सकता है कि इनेलो का परम्परागत मत जजपा के हिस्से में आया।
इनेलो अब न केवल जजपा के वोट बैंक, बल्कि सत्ता में आने के लिए मतों की प्रतिशतता बढ़ाने की क़वायद में लगेगी। लोगों के समर्थन से इनेलो प्रमुख व राज्य पूर्व मुख्यमंत्री ओमप्रकाश चौटाला का जोश दोगुना हो जाता है। वह लोगों से कहते हैं कि इस बार राज बणा द्यो, सारी क़सर काढ़ द्यँगा (एक बार इनेलो की सरकार बना दो, फिर तुम्हारी सारी क़सर पूरी कर दूँगा)।
ओमप्रकाश चौटाला पिता (पूर्व प्रधानमंत्री ताऊ देवीलाल) के भरोसेमंद रहे हैं और उनके दौर में पार्टी के संगठन का काम वही देखते थे। उन्हें कुशल संगठनकर्ता के तौर पर आँका जाता है। राज्य में ग्रीन ब्रिगेड उनके ही दिमाग़ की उपज थी। इस बिग्रेड का अपने दौर में अलग ही दबदबा रहा है। लेकिन अब सब कुछ छिन्न-भिन्न हो चुका है। शिक्षक भर्ती घोटाले में उन्हें 10 साल की सज़ा होने के बाद इनेलो में नेतृत्व को लेकर कलह शुरू हो गया। इनेलो में फूट न पड़े, इसके लिए चौटाला ने साम, दाम दण्ड, भेद की नीति भी अपनायी; लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली। आख़िरकार उन्हें कठोर क़दम उठाते हुए बड़े बेटे अजय चौटाला को पार्टी से निष्कासित करना पड़ा। बता दें कि अजय भी शिक्षक भर्ती घोटाले में पिता के साथ ही जेल में सज़ा काट रहे थे। पिता की राजनीतिक विरासत को लेकर चौटाला परिवार में पहले भी कलह होता रहा है। देवीलाल की राजनीतिक विरासत पर किसका हक़ है? इसे लेकर काफ़ी कुछ हो चुका है। आख़िर यह ओमप्रकाश चौटाला के हिस्से में ही आयी। अब उनकी राजनीतिक विरासत और पार्टी के नेतृत्व पर बड़े बेटे अजय चौटाला और छोटे अभय चौटाला में मतभेद पैदा हो गये। अजय चौटाला ने निष्कासन के बाद जननायक जनता पार्टी (जजपा) बना ली। इसके बाद से इनेलो का पतन शुरू हुआ और जजपा का प्रभाव बढऩे लगा। दो दल बन गये; लेकिन आज भी देवीलाल की राजनीतिक विरासत सँभालने का दावा अलग-अलग किया जा रहा है।


ओमप्रकाश चौटाला के सामने सबसे बड़़ी चुनौती अब भी इनेलो के वोट बैंक को फिर से हासिल करने की रहेगी; लेकिन यह इतना आसान काम नहीं है। किसान आन्दोलन में जजपा पर सरकार से अलग होकर उनके समर्थन में आने के बहुत-से प्रयास हुए; लेकिन सफल नहीं हो सके। चूँकि पार्टी सरकार में भागीदार है, लिहाज़ा भाजपा के साथ जजपा नेताओं का भी विरोध हो रहा है। विधायक घरों में कैद होकर रह गये हैं।
जेल से रिहा होने के बाद ओमप्रकाश चौटाला ने सबसे पहले किसान आन्दोलन को समर्थन देने की घोषणा की थी। इनेलो का वोट बैंक ही किसान है, इसलिए चौटाला इससे अलग जाने के बारे में सोच भी नहीं सकते थे। किसानों का समर्थन हासिल करने के बाद चौटाला पार्टी की मज़बूती के लिए प्रयासरत हैं। इनेलो से जजपा और अन्य दलों में गये पुराने नेताओं और कार्यकर्ताओं को वापस लाना उनकी प्राथमिकता में है। अपने दौर में ओमप्रकाश चौटाला ने संगठन को मज़बूत किया, जिसकी वजह से वह कांग्रेस को टक्कर दे सकी। चौटाला पर संगठन को फिर से पहले जैसा रूप देने की ज़िम्मेदारी है; लेकिन उम्र के इस पड़ाव में क्या वह इतना बड़ा काम करने में सक्षम होंगे?
इनेलो महासचिव और पूर्व विधायक अभय चौटाला मानते हैं कि इनेलो को प्रमुख के नेतृत्व की ज़रूरत थी, जो अब पूरी हो गयी है। उन्होंने अपने तौर पर पार्टी को बचाने का प्रयास किया; लेकिन राजनीतिक स्वार्थ इसमें आड़े आ रहे थे। इनेलो चौधरी देवीलाल की विरासत को सँभाले हुए हैं और आगे भी यही सिलसिला जारी रहेगा। पार्टी का संगठन पहले से बेहतर हुआ है। पुराने नेता और कार्यकर्ताओं के फिर से अपने घर लौटने का चलन शुरू हो गया है। लोगों का
समर्थन मिल रहा है। पार्टी मज़बूत हो रही है। इनेलो सत्ता में आती है, तो ओमप्रकाश चौटाला ही मुख्यमंत्री बनेंगे। विधानसभा चुनाव अभी काफ़ी दूर है और उनके पास समय काफ़ी है। किसान आन्दोलन के चलते भाजपा और जजपा का राज्य में विरोध हो रहा है। आन्दोलन का नतीजा क्या होता है? इस पर काफ़ी कुछ निर्भर करता है; लेकिन इनेलो को लगभग शून्य से ही शुरुआत करनी है। देखना यह है कि ओमप्रकाश चौटाला फिर से अपने को कुशल नेतृत्व से अलग-थलग पड़ी इनेलो को टक्कर देने वाली पार्टी बना पाते हैं या नहीं? उम्र के इस पड़ाव में उन्होंने चुनौती तो स्वीकार कर ली है; लेकिन सफलता कहाँ तक मिलती है? यह तो समय ही बताएगा। यह भी सच है कि हरियाणा की वर्तमान सरकार इन दिनों कई विवादों को लेकर फँसी हुई है। अव्वल तो उसे किसान ही घेरे हुए हैं। इसके इतर कई मद्दे ऐसे हैं, जिसके चलते उसे अगली बार मौक़ा मिलेगा या नहीं? यह उसे भी पता है।

 

फ़रीदाबाद के खोरी गाँव में हज़ारों लोग बेघर

सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद फ़रीदाबाद ज़िले के खोरी गाँव के हज़ारों लोग बेघर हो गये हैं। सरकारी कार्रवाई का शुरुआत में कुछ विरोध हुआ; लेकिन भारी पुलिस बल ने कोई बाधा नहीं आने दी। अरावली वन क्षेत्र में किसी तरह का निर्माण अवैध है और यह गाँव उसी के तहत आता है। सरकार को न्यायालय के आदेश की पालना हर हालत में करनी थी। लिहाज़ा तय अवधि के बाद उसने कार्रवाई कर इसे अंजाम देना शुरू कर दिया है।
प्रतिबन्धित क्षेत्र में निर्माण कुछ महीनों में नहीं हो गया था। लोग 15-20 साल से यहाँ रह रहे थे। गाँव में बिजली और पानी तक की सुविधा सरकार ने मुहैया करा रखी है। अगर वन क्षेत्र में निर्माण हुआ, तो उसकी ज़िम्मेदारी किसकी है? उसी सरकार की, जो अब न्यायालय के आदेश की पालन कर उन्हें उजाड़ रही है। हरियाणा शहरी विकास प्राधिकरण और फ़रीदाबाद नगर निगम के अधिकारियों की कोई ज़िम्मेदारी नहीं है। ऐसी कॉलोनियाँ बनती ही आपसी मिलीभगत से हैं।
लोगों का आरोप है कि सरकारी आदमी पैसा लेकर सब काम करते रहे। शुरू में ही जब निर्माण काम शुरू हुआ, तभी रोक दिया जाता, तो आज उनकी मेहनत की कमायी पर पानी नहीं फिरता। हम लोगों ने मकान सरकार का विरोध करके नहीं बनाये, बल्कि उनकी मौन रज़ामंदी के चलते बनाये। जब सरकार सभी सुविधाएँ हमें मुहैया करा रही है, तो फिर हमें उजाड़ क्यों रही है? उन लोगों पर भी कार्रवाई का जाए, जिन्होंने हमें मंज़ूरी दिलाने के झूठे झाँसे देकर प्लॉट बेचे। हम लोग यहाँ कोई दो-चार साल से नहीं, बल्कि 10-15 साल से रह रहे हैं। हमारे मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड तक बने हुए हैं, जिसमें खोरी गाँव का ही पता लिखा हुआ है।
सरकार ने मकान गिराने के अभियान के बाद पात्र लोगों को फ्लैट देने की घोषणा की है; लेकिन इसमें शर्ते इतनी रखी गयी है कि ज़्यादातर लोग इसके दायरे में नहीं आएँगे। ऐसे लोग आख़िर कहाँ जाएँगे। सरकार ने योजना के तहत वर्ष 2003 से पहले रहने वालों, परिवार की तीन लाख रुपये वार्षिक आय से ज़्यादा न होने और परिवार प्रमुख का नाम बडख़ल विधानसभा क्षेत्र की मतदाता सूची में होना अनिवार्य बनाया है। इससे तो कुछ प्रतिशत लोग ही सरकारी योजना का लाभ उठा सकेंगे। जिस सर्वोच्च न्यायालय के आदेश पर सरकार ने गाँव पर कर्रवाई की है, अब उसी न्यायालय ने सभी लोगों को फ्लैट योजना के दायरे में लाने को कहा है। खोरी गाँव में ज़्यादातर मकान सन् 2010 के बाद ही बने हैं; लिहाज़ा प्रभावितों की संख्या काफ़ी है।

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2022 जातिगत समीकरण साधने में जुटीं पार्टियाँ

उत्तर प्रदेश की वर्ष 2017 में निर्वाचित वर्तमान विधानसभा का कार्यकाल 14 मई, 2022 को समाप्त हो रहा है। अर्थात् 2022 में देश के इस बड़े प्रदेश के विधानसभा चुनाव हैं, जो कि केंद्र की सत्ता में पहुँच बनाने से लेकर देश भर के राजनीतिक दृष्टिकोण से सभी राज्यों से ज़्यादा महत्त्वपूर्ण हैं। वैसे तो 2022 में पहले पाँच और फिर दो अन्य राज्यों के विधानसभा चुनावों की सम्भावना है; लेकिन उत्तर प्रदेश में चुनावी हलचल अभी से आँधी की तरह तेज़ हो गयी है।
इस बड़े और लोकसभा की सबसे अधिक सीटों वाले प्रदेश में इस बार सत्ताधारी भारतीय जनता पार्टी (भाजपा), कांग्रेस, समाजवादी पार्टी (सपा), बहुजन समाज पार्टी (बसपा), आम आदमी पार्टी (आप), राष्ट्रीय लोक दल (रालोद), आल इंडिया मजलिस-ए-इत्तिहादुल मुस्लिमीन (एआईएमआईएम) प्रमुखता से मैदान में उतरेंगी। इनमें लगभग सभी पार्टियाँ सक्रिय हो चुकी हैं, जिनमें सबसे ज़्यादा ज़ोरशोर से भाजपा मैदान में दिखायी दे रही है। इस बड़े चुनाव में कौन जीतेगा और किस-किसको हार का मुँह देखना पड़ेगा, यह कहना-सुनना तो अभी अतिशयोक्ति होगी, अलबत्ता पार्टियों के अपने-अपने दावे ज़रूर सामने आ रहे हैं।


भाजपा का कहना है कि वह 300 से अधिक सीटें जीतकर फिर से सत्ता में वापसी करेगी। भाजपा नेता इस बात को पूरे विश्वास के साथ कह रहे हैं और इसके लिए वे प्रदेश में हुए ज़िला पंचायत अध्यक्ष और खण्ड (ब्लॉक) प्रमुख चुनावों में अपनी बड़ी जीत का उदाहरण दे रहे हैं। परन्तु यहाँ यह भी सच है कि ज़िला पंचायत के त्रिस्तरीय चुनावों में भाजपा को अपनी साख बचानी मुश्किल पड़ गयी थी; यहाँ तक कि उस पर ज़िला पंचायत से लेकर ब्लॉक प्रमुख तक सभी चुनावों में धाँधली और मारपीट के आरोप भी लगे हैं। सपा के नेता भी इस बार उत्तर प्रदेश में अपनी जीत पक्की बता रहे हैं। बाक़ी किसी ने इस तरह का दावा तो नहीं किया है, परन्तु भाजपा को हराने में योगदान ज़रूर देना चाहते हैं; सिवाय भाजपा समर्थित पार्टियों के। माना जा रहा है कि असदुद्दीन ओवैसी को सपा को हराने और भाजपा को जिताने के लिए मैदान में उतारा गया है। अगर हम पिछले दिनों हुए एक केंद्र शासित प्रदेश समेत पाँच राज्यों के चुनावों की बात करें, तो भाजपा ने बंगाल में भी असदुद्दीन ओवैसी को इसी तरह इस्तेमाल करने का प्रयोग-प्रयास किया था, परन्तु वह पूरी तरह विफल रही। यूँ तो भाजपा के शीर्ष नेता कह रहे हैं कि भाजपा पुरानी ग़लतियों से सीख लेकर उत्तर प्रदेश और बाक़ी राज्यों के चुनावों में उतर रही है, परन्तु उसका एक भी पैंतरा बंगाल चुनाव से इतर अभी तक तो दिखा नहीं है।

कोशिश अपनी-अपनी


लोगों को आगामी विधानसभा चुनाव में साधने की कोशिश में सभी पार्टियाँ अपनी-अपनी तरह से तैयारियों में जुटी हैं। भाजपा की बात करें, तो उसने ज़िला पंचायत अध्यक्ष और ब्लॉक प्रमुख के चुनाव जीतने के अलावा पूरे प्रदेश में बैनर-पोस्टर अभियान छेड़ रखा है, जिनमें मुफ़्त वैक्सीन, किसानों का गन्ना भुगतान, जिसे किसान ग़लत बता रहे हैं; हज़ारों करोड़ की परियोजनाओं की घोषणाएँ कर दी गयी हैं। कोरोना महामारी से निपटने के लिए सरकार की तारीफ़ स्वयं प्रधानमंत्री काशी में कर चुके हैं; जबकि गंगा में मृत शरीर बहने की घटना और श्मशानों में शवदाह के लिए दो-दो दिन इंतज़ार के बुरे पल किसे याद नहीं हैं।
इसके अतिरिक्त भाजपा के बड़े से लेकर छोटे नेताओं तक ने अपने-अपने स्तर पर प्रचार-प्रसार शुरू कर दिया है, जिसकी शुरुआत प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने काशी से की है। इसी तरह बसपा, सपा, कांग्रेस, रालोद, आप और एआईएमआईएम ने भी अपनी कमर कस ली है।

जातिगत जोड़तोड़
उत्तर प्रदेश में जैसे-जैसे चुनाव नज़दीक आते जा रहे हैं, वैसे-वैसे सभी पार्टियाँ जातिगत तरीक़े से मतदाताओं को साधने में जुट रही हैं। भाजपा ने जहाँ केंद्रीय मंत्रिमंडल में पिछड़े, दलित और ब्राह्मण वर्ग से कुल सात मंत्रियों को जगह देकर तीनों वर्गों के लोगों को अपने पक्ष में करने की कोशिश की और उसके बाद कांग्रेस के ब्राह्मण चेहरा जितिन प्रसाद को अपनी ओर खींच लिया है। इससे भी भाजपा का ब्राह्मणों को साधने का नज़रिया साफ़ दिखायी देता है। वैसे भी अयोध्या में राममंदिर निर्माण की शुरुआत करके भाजपा ने काफ़ी हद तक ब्राह्मणों को अपनी ओर आकर्षित किया है।
इसके अलावा 23 जुलाई से बसपा ने ब्राह्मण सम्मेलन करके सभी दलों की नींद उड़ा दी है। अयोध्या से शुरू किये गये इस ब्राह्मण सम्मेलन की अगुवाई मायावती के क़रीबी सलाहकार, बसपा महासचिव सतीश चंद्र मिश्रा ने की। इस सम्मेलन में अयोध्या में पूजा-पाठ के अलावा जय श्रीरा के नारे भी लगे। बसपा के बाद सपा अध्यक्ष अखिलेश यादव ने भी ब्राह्मणों को लुफाने की शुरुआत कर दी है। कांग्रेस का साथ भी अभी सभी ब्राह्मणों ने छोड़ा नहीं है।
राजनीति के जानकार कह रहे हैं कि कोई बड़ी बात नहीं कि इस बार ब्राह्मण मतदाता बसपा की ओर चला जाए। जो भी हो, ख़ाली ब्राह्मणों के दम पर तो कोई भी चुनाव नहीं जीतेगा, हिलाज़ा हर दल को पिछड़ा और दलित वर्ग के साथ-साथ ब्राह्मणों और मुस्लिम वर्ग का साथ चाहिए।

जनसंख्या नियंत्रण क़ानून
उत्तर प्रदेश सरकार ने 2022 के विधानसभा चुनाव से ठीक पहले जनसंख्या नियंत्रण क़ानून की हवा देकर अपनी जीत का एक नया जाल फेंका है, जो कि उसी के लिए किसी सिरदर्द जैसा साबित हो सकता है। इस नये $कानून पर इन दिनों चर्चा इतनी अधिक है कि ग्रामीण इलाक़ों में भी लोग इस पर बहस कर रहे हैं।
राजनीति के जानकारों का कहना है कि अगर चुनाव से पहले यह क़ानून पास हो जाता है, तो उत्तर प्रदेश के चुनावी नतीजों इसका असर सरकार पर विपरीत पड़ सकता है। इस क़ानून में कहा गया है कि राज्य में दो से अधिक बच्चों के माता पिता को स्थानीय चुनाव लडऩे, सरकारी नौकरी और लोक कल्याणकारी जैसी 77 योजनाओं के लाभ नहीं मिलेंगे। परन्तु ख़ास बात यह है कि उत्तर प्रदेश की मौज़ूदा भाजपा सरकार के 304 में से 152 विधायकों के दो से अधिक बच्चे हैं। यहाँ तक कि कुछ विधायकों के चार से लेकर छ: बच्चे तक हैं। सिर्फ़ 103 विधायकों के दो बच्चे और 34 विधायकों के एक-एक बच्चा है।
बड़ी बात यह है कि सरकार ने गोरखपुर से जिस भाजपा सांसद रविकिशन के कन्धों पर संसद में जनसंख्या नियंत्रण विधेयक पेश करने का ज़िम्मा डाला, उनके ख़ुद चार बच्चे हैं। अगर इस क़ानून को पूरे देश में लागू कर दिया जाए, तो भाजपा के 186 सांसद इस क़ानून के दायरे में आ जाएँगे। भाजपा के नेता इस क़ानून को प्रदेश में जनसंख्या नियंत्रण का बड़ा हथियार मान रहे हैं, परन्तु इससे भाजपा के ख़ुद के पत्ते कटने वाले हैं।

मुद्दों की बात
उत्तर प्रदेश में इन दिनों चार मुख्य मुद्दे हैं। पहला किसान आन्दोलन, दूसरा सरकार का अब तक का कामकाज, तीसरा जातिगत आँकड़े और उन पर बनी रणनीतियाँ और चौथा कथित रामजन्म भूमि घोटाला। बात किसान आन्दोलन की करें, तो यहाँ कुछ सन्तुष्टि और कुछ असन्तुष्टि के हालात बने हुए हैं। ऐसा कहा जा रहा है कि किसानों के इस प्रदेश में किसानों की नाख़ुशी भाजपा को बड़ा नुक़सान पहुँचा सकती है। सरकार के कामकाज की अगर बात करें, तो काफ़ी काम होने के बावजूद प्रदेश को अभी विकास कार्यों की बड़े पैमाने पर दरकार है, जो कि नहीं हुए हैं।
जातिगत आँकड़ों के हिसाब से जीत की कोशिश की अगर बात करें, तो भाजपा ने केंद्र की सत्ता में प्रदेश के तीन अनुसूचित जाति, तीन अन्य पिछड़ा वर्ग और एक सवर्ण को भेजकर अपनी जातिगत वोटबैंक की आँकड़ेबाज़ी ज़ाहिर कर दी है। बाक़ी की भाजपा और दूसरी पार्टियों की असली जातिगत आँकड़ेबाज़ी टिकट बँटवारे में दिखायी देगी। क्योंकि उत्तर प्रदेश में अब तक लगभग सभी चुनाव जातिगत आधार पर जीते और हारे गये हैं। इधर आम आदमी पार्टी दिल्ली में अपने काम के आधार पर मतदाताओं को लुभा रही है। उसके इस क़दम से दूसरी पार्टियों के कान खड़े हो गये हैं और वो भी काम की बात कर रही हैं। हालाँकि यह सच है कि जनता बहुत जल्दी सरकारों की नाकामियों और ग़लतियों को भूल जाती है, परन्तु इस बार देखना यह होगा कि उत्तर प्रदेश में इस बार ऊँट किस करवट बैठेगा?

सिद्धू सिद्ध करेंगे कांग्रेस का मनोरथ?

पंजाब कांग्रेस में पूर्व क्रिकेटर और पूर्व सांसद नवजोत सिंह सिद्धू के पार्टी प्रदेश अध्यक्ष बनने से राजनीतिक हलचल तेज़ हो गयी है। देश भर में इस बात की चर्चा है कि कांग्रेस पंजाब में बदलाव के साथ-साथ देश के अन्य राज्यों में भी कुछ अलग करना चाहती है। सिद्धू के पंजाब इकाई के अध्यक्ष बनते ही उन्हें बधाई देने वालों का ताँता लग गया है। 117 सीटों वाले पंजाब में इन दिनों कांग्रेस के पास 77 विधायक हैं। इनमें से क़रीब 62 सिद्धू के साथ हैं। हालाँकि सिद्धू का दावा है कि उनके साथ इससे ज़्यादा विधायक खड़े हैं।
पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह भले ही कई दिन तक ख़ामोश रहे, लेकिन सन्तुष्ट नहीं थे। उनकी चुप्पी को राजनीतिक गलियारों में नाराज़गी माना जा रहा था। क्योंकि वह न तो नवजोत सिंह सिद्धू को बधाई देने के लिए मिले थे और न ही उनसे कोई बात की थी। तब कैप्टन के मीडिया सलाहकार रवीन ठुकराल ने सिद्धू के पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष बनने के बाद कहा था कि नवजोत सिंह सिद्धू ने मुख्यमंत्री से समय नहीं माँगा है। मुख्यमंत्री के रुख़ में कोई बदलाव नहीं है, वह सिद्धू से तब तक नहीं मिलेंगे, जब तक वह सोशल मीडिया पर मुख्यमंत्री पर हमले वाले मामले को लेकर सार्वजनिक रूप से माफ़ी नहीं माँग लेते। लेकिन बाद में 23 जुलाई को दोनों नेताओं साथ में मंच साझा किया। सिद्धू की ताजपोशी में शामिल कैप्टन ने कहा कि हम पंजाब के लिए एक साथ काम करेंगे। न केवल पंजाब के लिए, बल्कि भारत के लिए। इससे पहले सिद्धू ने पंजाब भवन में कैप्टन के साथ चाय पर मुलाक़ात की। दोनों नेताओं की इस मुलाक़ात को सकारात्मक बताया गया।
विदित हो, जब सिद्धू भाजपा में थे, तब कांग्रेस पर उनके व्यंग्यबाणों और कांग्रेस में आने के बाद कैप्टन के ख़िलाफ़ मोर्चा खोला था, जिसे कैप्टन शायद भुला नहीं पा रहे होंगे। हालाँकि इससे पहले कैप्टन ने उनसे मिलने पहुँचे पूर्व पंजाब प्रभारी हरीश रावत से कहा कि वे पार्टी हाईकमान के आदेशों का पालन करेंगे। इधर प्रदेश अध्यक्ष बनते ही नवजोत सिंह सिद्धू ने पंडित जवाहरलाल नेहरू के साथ अपने पिता की एक तस्वीर ट्वीट करके यह दिखाने की कोशिश की है कि वह पुराने और पारम्पारिक कांग्रेसी हैं।
उन्होंने लिखा- ‘उनके पिता भी एक कांग्रेसी थे। समृद्धि, विशेषाधिकार और स्वतंत्रता को केवल कुछ के बीच नहीं, बल्कि सभी के साथ साझा करने वाले उनके पिता शाही घराने को छोड़कर आज़ादी की लड़ाई में शामिल हुए थे। देशभक्ति के लिए उन्हें मौत की सज़ा सुनायी गयी थी। आज उसी सपने को पूरा करने के लिए और पंजाब कांग्रेस को मज़बूत करने के लिए जो विश्वास व महत्त्वपूर्ण ज़िम्मेदारी उन्हें कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी, राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी ने सौंपी है; उसके लिए वह गाँधी परिवार का धन्यवाद करते हैं।’
सिद्धू ने एक और ट्वीट में कहा कि ‘जीतेगा पंजाब’ के मिशन को पूरा करने के लिए वह पंजाब में कांग्रेस परिवार के हर सदस्य के साथ मिलकर काम करेंगे। बता दें कि सिद्धू से पहले कांग्रेस के पंजाब प्रभारी उत्तराखण्ड के पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत थे।
अब प्रदेश अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के अलावा पंजाब में चार कार्यकारी अध्यक्ष सुखविंदर सिंह डैनी, संगत सिंह गिलजियां, कुलजीत सिंह नागरा और पवन गोयल भी होंगे। सुखविंदर सिंह डैनी दलित नेता हैं और 2017 में पहली बार चुनकर विधानसभा पहुँचे हैं। पवन गोयल प्लानिंग बोर्ड, फ़रीदकोट के चेयरमैन हैं। वह पुराने कांग्रेसी हैं।
संगत सिंह गिलजियां पंजाब लैंड यूज एंड वेस्ट बोर्ड के डायरेक्टर, एआईसीसी और पीपीसीसी के सदस्य और गाँव के सरपंच रह चुके हैं। वह पिछड़ा वर्ग के नेता हैं और 2007, 2012 व 2017 में लगातार विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं।
कुलजीत सिंह नागरा जाट सिख हैं और अभी सिक्किम, नगालैंड और त्रिपुरा के कांग्रेस प्रभारी हैं। वह 1995 से लेकर 1997 तक नागरा पंजाब युवा कांग्रेस के महासचिव भी रहे हैं और 2012 व 2017 में विधानसभा चुनाव जीत चुके हैं।
पवन गोयल मालवा क्षेत्र से हैं और पंजाब में जाति सन्तुलन बनाने का काम करेंगे, जिससे पंजाब में कांग्रेस वोटबैंक कम-से-कम बरक़रार रहे। बताया जा रहा है कि मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह किसी भी क़ीमत पर सिद्धू को पंजाब इकाई का अध्यक्ष बनाये जाने के पक्ष में नहीं थे और इसके लिए उन्होंने अपने धुरविरोधी प्रताप सिंह बाजवा से भी हाथ मिलाया। लेकिन उनकी यह जुगत भी उनके काम नहीं आयी।
हालाँकि कांग्रेस जानती है कि कैप्टन एक पुराने और निपुण राजनीतिज्ञ हैं, जो पंजाब में राजनीति की लम्बी पारी खेल चुके हैं और दूसरी बार पंजाब के मुख्यमंत्री के तौर पर कुर्सी पर विराजमान हैं। उन्होंने दोनों बार मुख्यमंत्री चेहरे के रूप में कांग्रेस की तरफ़ से दावेदारी करके शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल से कुर्सी छीनी है। उन्हें पंजाब का एक दमदार और गहरी सोच वाला नेता माना जाता है। लेकिन अब पंजाब को एक दमदार युवा चेहरा चाहिए था।
यूँ भी कैप्टन ने पिछली बार ख़ुद ही आख़िरी बार मुख्यमंत्री बनने की इच्छा ज़ाहिर की थी। लेकिन अब उनके कुर्सी मोह से नहीं लगता कि वह अभी राजनीति से संन्यास लेना चाहते हैं। शायद इसीलिए शुरू-शुरू में वह सिद्धू से इतने नाराज़ रहे कि उन्होंने एक लंच पार्टी रखी, जिसमें सिद्धू को आमंत्रित तक नहीं किया। कैप्टन के इस निर्णय को भी पार्टी नेतृत्व के फ़ैसले के विरोध के तौर पर देखा जा रहा है। हालाँकि मुख्यमंत्री कार्यालय की तरफ़ से इस तरह की ख़बरों का उस समय खण्डन किया गया था।
इधर प्रदेश अध्यक्ष पद की ज़िम्मेदारी सँभालने के बाद सिद्धू की चुनौतियाँ बड़ी हैं और अब उनके कन्धों पर एक बड़ी ज़िम्मेदारी है, जिसमें सफल होकर ही वह भविष्य में एक सफल राजनीतिज्ञ बन सकेंगे। साथ ही पंजाब अध्यक्ष के रूप में उनकी सफलता / असफलता उनके भविष्य का रास्ता तय करेगी। फ़िलहाल तो वह पंजाब के मंत्रियों, विधायकों, नेताओं से मुलाक़ात में जुटे हैं। क्योंकि अगले साल ही पंजाब में विधानसभा चुनाव हैं। नवजोत सिंह सिद्धू अपने सन् 1983 से लेकर सन् 1999 तक के 17 साल के क्रिकेट करियर के बाद क्रिकेट कमेंटेटर (टीकाकार) के रूप में उभरे और इसके बाद राजनीति की तरफ़ रुख़ किया।
सन् 1988 में उन्हें गुरनामसिंह नाम के एक शख़्स की ग़ैर-इरादतन हत्या के सिलसिले में सह-आरोपी बनाया गया और पटियाला पुलिस ने गिरफ़्तार करके जेल भेज दिया था। उन पर गुरनामसिंह की हत्या में मुख्य आरोपी भूपिन्दर सिंह सन्धू की सहायता का आरोप था, जिसे उन्होंने शुरू से ही सिरे से नकारा था। सन् 2004 में उन्होंने भाजपा के टिकट पर अमृतसर लोकसभा चुनाव जीता। जब वह सांसद बन गये, तो उनके ख़िलाफ़ फिर पुराने मामले की फाइल खोल दी गयी और सन् 2006 में उन पर मुक़दमा चलाया गया और ग़ैर-इरादतन हत्या के लिए उन्हें तीन साल क़ैद की सज़ा सुनायी गयी। सज़ा का आदेश होते ही उन्होंने लोकसभा की सदस्यता से जनवरी, 2007 में त्याग-पत्र देकर उच्चतम न्यायालय में याचिका लगा दी।
उच्चतम न्यायालय ने निचली अदालत द्वारा उन्हें दी गयी सज़ा पर रोक लगाते हुए फरवरी, 2007 में अमृतसर लोकसभा सीट से दोबारा चुनाव लडऩे की अनुमति दे दी। इसके बाद सन् 2007 में हुए उप-चुनाव में उन्होंने सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी के पंजाब राज्य के पूर्व वित्त मंत्री सुरिन्दर सिंगला को भारी अन्तर से हराकर अमृतसर की सीट पर फिर से क़ब्ज़ा कर लिया। सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में भी वे अमृतसर की सीट से तीसरी बार विजयी हुए। हालाँकि सन् 2014 में केंद्र में मोदी सरकार के आने के बाद उनके भाजपा से राजनीतिक सम्बन्ध बिगडऩे लगे और उन्होंने सन् 2016 में भाजपा का दामन छोड़कर सन् 2017 में कांग्रेस का हाथ पकड़ लिया।
इसके बाद सन् 2018 में सिद्धू को तब एक और झटका लगा, जब पंजाब सरकार ने सुप्रीम कोर्ट के सामने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के उस फ़ैसले का समर्थन किया, जिसमें 1998 के ग़ैर-इरादतन मामले में सिद्धू को दोषी ठहराया गया था। सन् 2019 के लोकसभा चुनावों में आठ संसदीय सीटें जीतने के बाद अमरिंदर सिंह का राजनीतिक क़द और बढ़ा और उन्होंने सिद्धू पर सीधा निशाना साधना शुरू किया। इसके बाद सिद्धू ने अमरिंदर सिंह को घेरना शुरू कर दिया।
इस लड़ाई में अमरिंदर ने सिद्धू को एक नॉन-परफॉर्मर कहा और उनसे स्थानीय निकाय विभाग वापस ले लिया। उन्हें सन् 2019 में अमरिंदर मंत्रिमंडल से भी इस्तीफ़ा देना पड़ा। अब सिद्धू ने कांग्रेस से अपने पुराने सम्बन्धों और युवा नेता व वाक्पटुता के बल पर पंजाब नेतृत्व की कुर्सी हथियाने की ओर पहला क़दम बढ़ा दिया है, जो कि काफ़ी महत्त्वपूर्ण और अब उनके पंजाब अध्यक्ष बनने को कैप्टन पर उनकी जीत के रूप में देखा जा रहा है।
कुछ राजनीति के जानकार यह भी मान रहे हैं कि कांग्रेस नवजोत सिंह सिद्धू की वाक्पटुता और राजनीतिक पैंतरों का इस्तेमाल पाँच राज्यों में होने वाले चुनावों, विशेष रूप से पंजाब के साथ-साथ उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में कर सकती है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सिद्धू न केवल अपनी बातों से जनता का मन मोह लेते हैं, बल्कि राजनीतिक मंच पर विपक्ष को पूरी तरह घेर लेते हैं। उनका दिमाग़ भी बहुत तेज़ है और भाषाओं, प्रदेशों व क्षेत्रों के मुद्दों पर उनकी गहरी पकड़ है। ज़ाहिर है कांग्रेस को वैसे भी हरीश रावत को पंजाब से छुट्टी देनी थी; क्योंकि सम्भवत: उत्तराखण्ड में कांग्रेस की तरफ़ से वही मुख्यमंत्री चेहरा होंगे और पार्टी की जीत सुनिश्चित करेंगे। वहीं पंजाब में भी अब कांग्रेस को नया और युवा चेहरा चाहिए था। कुछ राजनीतिज्ञों का मानना है कि पंजाब में अगर कांग्रेस फिर से सत्ता में आयी, तो सम्भव है कि सिद्धू को पंजाब का मुख्यमंत्री बनाया जाए, जो कि वह चाहते भी हैं।
(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी हैं।)

ऑनलाइन गेम की लत ने छीन ली किशोर की जिंदगी

कोरोना काल में स्कूलों के बंद होने से ऑनलाइन गेम का धंधा जोर शोर से चल रहा है। इस बीच, बच्चे और किशोर इसके लती होते जा रहे हैं, जिससे इसके साइड इफैक्ट भी सामने आने लगे हैं। मध्य प्रदेश के छतरपुर में ऑनलाइन गेम खेलने की लत ने एक किशोर की जिंदगी छीन ली। दरअसल, उसने गेम खेलने के लिए मां के खाते से 40 हजार रुपये गंवा दिए। इसके बाद उसने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली।यह बेहद खतरनाक संकेत हैं। ऐसे दौर में लोगों को जागरूक करने के साथ ही बच्चों पर भी नजर रखने की जरूरत है। छतरपुर में 6वीं कक्षा के छात्र ने ऑनलाइन गेम में 40 हजार रुपये गंवाने वाले किशोर का लिखा पुलिस को एक सुसाइड नोट भी मिला है। इलाके के डीएसपी शशांक जैन ने बताया कि सुसाइड नोट में छात्र ने अपने अभिभावकों से माफी मांगी है।

डीएसपी ने बताया कि किशोर छात्र ने शुक्रवार दोपहर को अपने घर पर फांसी लगाकर जान दे दी है। उन्होंने बताया कि सुसाइड नोट में छात्र ने लिखा है कि उसने मां के खाते से 40 हजार रुपये निकाले और इस पैसे को ‘फ्री फायर’ नामक गेम में बर्बाद कर दिया। छात्र ने अपनी मां से माफी मांगते हुए लिखा है कि अवसाद के कारण वह आत्महत्या कर रहा है।

पुलिस ने बताया कि किशोर ने जब यह कदम उठाया, तब उसकी मां और पिता घर पर नहीं थे। छात्र की मां प्रदेश के स्वास्थ्य विभाग में नर्स हैं और घटना के समय जिला अस्पताल में ड्यूटी पर थीं। उन्होंने बताया कि रुपये निकालने को लेकर छात्र की मां के फोन पर मैसेज आया, जिसके बाद मां ने बेटे को डांट लगाई थी। इसके बाद लड़के ने कमरे में खुद को बंद कर लिया। कुछ देर बाद उसकी बड़ी बहन वहां पहुंची तो उसने कमरा अंदर से बंद पाया। दरवाजा नहीं खोलने पर जब तोड़कर देखा तो बेटा पंखे से लटका मिला।

राज्य के साथ ही केंद्र सरकार को चाहिए कि ऐसे सभी प्रकार के ऑनलाइन गेम्स पर पाबंदी लगाए या उनके लिए जरूरी गाइडलाइन जारी करे। मामले में सख्ती बरतनी बेहद जरूरी है। इस पर किसी भी तरह की ढिलाई का मतलब है कि युवाओं के साथ खिलवाड़ करना। परिजनों को भी विशेष सावधानी बरतनी चाहिए और अपने बच्चों पर खास नजर रखनी चाहिए और समय-समय पर उनसे वार्तालाप भी करते रहना जरूरी है।

बांग्लादेशी से दुष्कर्म के आरोप में बीएसएफ जवान गिरफ्तार

बांग्लादेशी महिला के साथ दुष्कर्म करने के आरोप में सीमा सुरक्षा बल यानी बीएसएफ के एक जवान को गिरफ्तार किया गया है।
प्राप्त जानकारी के अनुसार, बांग्लादेशी महिला गैरकानूनी तरीके से सीमा पार करके भारत में दाखिल हुई थी। महिला से पूछताछ किए जाने की आड़ में जवान ने पश्चिम बंगाल के उत्तर-24 परगना स्थित शिविर में ले गया। वहीं पर उस जवान ने मिहला को अपनी हवस का शिकार बना लिया।

वरिष्ठ पुलिस अधिकारी ने शुक्रवार को बताया कि गैघाटा थाने में पीड़िता ने एफआईआर दर्ज करवाई है। शिकायत के आधार पर आरोपी उप-निरीक्षक को वीरवार को ही गिरफ्तार कर लिया गया था।
बीएसएफ के वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि यह वारदात 27 जुलाई रात की है। इसकी जानकारी मिलते ही, जवान को निलंबित कर उसे स्थानीय पुलिस के हवाले कर दिया गया।

पीड़िता और एक अन्य महिला बांग्लादेश की रहने वाली हैं। दोनों को गैरकानूनी तरीके से सीमा पार कर देश में प्रवेश करने के आरोप में गिरफ्तार किया गया है। पीड़िता की शिकायत के अनुसार, बीएसएफ की 158वीं बटालियन ने दोनों महिलाओं को तब गिरफ्तार कर लिया था, जब वे झाउडांगा सीमा से अवैध रूप से भारतीय हिस्से में प्रवेश कर रही थीं।
पुलिस में दर्ज प्राथमिकी के अनुसार, पीड़िता ने आरोप लगाया है कि बीएसएफ के जवान दोनों को पूछताछ के लिए अर्धसैनिक बल के खरेर मठ शिविर ले गए। जब कोई आसपास नहीं था, तभी आरोपी जवान ने पूछताछ के बहाने महिला से जबरन दुष्कर्म किया।

आरोपी को गिरफ्तार करने के बाद स्थानीय अदालत में पेश किया गया जहां से उसे दो दिन की पुलिस हिरासत में भेज दिया गया है। अधिकारी ने बताया कि दुष्कर्म का मामला दर्ज होने के चलते मजिस्ट्रेट द्वारा सीआरपीसी की धारा 164 के तहत महिला का गोपनीय बयान दर्ज किया गया है और उसकी मेडिकल जांच भी कराई गई है।