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क्या कोहली को छोड़ देनी चाहिए कप्तानी?

पिछले काफ़ी समय से इस दिग्गज ने नहीं लगाया एक भी शतक

एक कप्तान के रूप में भले विराट कोहली सफल हैं; लेकिन उनकी बल्लेबाज़ी पर इसका विपरीत असर पड़ रहा है। वह भारतीय क्रिकेट टीमों के तीनों फार्मेट के कप्तान हैं और हाल के महीनों में क्रिकेट प्रेमी उनके बल्ले से एक अदद शतक देखने के लिए तरस गये हैं। विराट में अभी क्रिकेट बची है और यदि कप्तानी के बोझ से उनका बल्ला ख़ामोश रहता है, तो इसका उनके करियर पर असर पड़ सकता है। ऐसे में यदि वह तीनों फार्मेट की जगह एक ही फार्मेट की कप्तानी करते हैं, तो यह उनके करियर को लम्बा खींचने में मददगार हो

सकता है। हाल के इंग्लैंड दौरे में यह साबित हुआ है कि एक तरह से विराट एक कप्तान के रूप में सफल हैं। अन्तिम टेस्ट रद्द होने के समय विराट की टीम 2-1 से आगे थी। यदि सीरीज का फ़ैसला घोषित हो गया होता, तो 22 साल के बाद इंग्लैंड में भारत की यह पहली जीत होती।

दूसरी बड़ी बात यह है कि विराट अब क़रीब 33 साल के हो रहे हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि विराट आज की तारीख़ में दुनिया के सबसे बेहतर क्रिकेटर्स में एक हैं। मैदान पर उनकी फील्डिंग का जलवा देखने लायक होता है। विराट में तीनों फॉर्मेट में खेल सकने की क्षमता है। दुनिया भर के बल्लेबाज़ों में शतकों के मामले में वह काफ़ी आगे हैं। दुनिया के चौथे सबसे सफल टेस्ट कप्तान भी हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि कोहली सन् 2019 के बाद एक भी शतक नहीं लगा पाये हैं। ख़राब प्रदर्शन के कारण कोहली को आलोचना का भी शिकार होना पड़ रहा है।

कोहली ने अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में क़दम रखने के बाद से ही धमाकेदार प्रदर्शन किया है। शतक जडऩे के मामले में उनकी बराबरी इक्का-दुक्का खिलाड़ी ही कर पाये हैं। यह इस बात से साबित हो जाता है कि कोहली के बाद जिस खिलाड़ी का नाम आता है, वो उनसे 20 शतक पीछे है। विराट ने सन् 2009 में पहला शतक ठोका था और विराट कोहली के बल्ले से आख़िरी शतक नवंबर, 2019 में निकला, जब उन्होंने बांग्लादेश के ख़िलाफ़ पिंक बाल टेस्ट मैच में शतक जड़ा था। सन् 2009 से सन् 2019 तक विराट कोहली अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में 70 शतक जड़ चुके थे और वह अंतरराष्ट्रीय क्रिकेट में सबसे ज़्यादा शतक जडऩे के मामले में सचिन तेंदुलकर (100 शतक) और रिकी पोंटिंग (71 शतक) के बाद तीसरे नंबर पर हैं।

शतकों की जो गति कोहली ने बना रखी थी, यदि वह बरक़रार रहती, तो वह अब तक रिकी पोंटिंग को पीछे छोड़ चुके होते। इस दौरान कोहली ने 50 से ज़्यादा पारियाँ खेली हैं; लेकिन शतक नहीं जड़ पाये। कोहली के अंतरराष्ट्रीय करियर में ऐसा पहली बार ही हुआ है, जब वह इतनी पारियों के बाद भी शतक नहीं जड़ सके हैं।

ख़राब प्रदर्शन से जूझ रहे कोहली ने आख़िरी बार टेस्ट में नवंबर, 2019 में बांग्लादेश के ख़िलाफ़ शतक लगाया था। इसके बाद से टेस्ट में उनका औसत 25 के आसपास ही रहा है। हालाँकि वनडे में उनका प्रदर्शन थोड़ा बेहतर है और उनका औसत 43 से ऊपर है। यहाँ बता दें कोहली सचिन तेंदुलकर के 49 वनडे शतक से छ: क़दम दूर हैं। नवंबर, 2019 में आख़िरी बार टेस्ट शतक लगाने के बाद कोहली ने आठ टेस्ट मैचों में चार अर्धशतक लगाये हैं। टेस्ट की तुलना में कोहली वनडे में थोड़े बेहतर रहे हैं और उन्होंने आठ अर्धशतक लगाये हैं।

कप्तान बनने योग्य खिलाड़ी

भारत में ऐसे खिलाडिय़ों की कमी नहीं, जो अपने अनुभव या नेतृत्व के गुणों के कारण कप्तान बनने की क्षमता रखते हैं। अनुभवी खिलाडिय़ों में सबसे पहला नाम आता है- रोहित शर्मा का। लेकिन क्रिकेट के जानकार जिस खिलाड़ी को कप्तानी का ज़िम्मा देने की वकालत करते हैं, वह हैं- ऋषभ पंत।

श्रेयस अय्यर की अनुपस्थिति में फ़िलहाल स्थगित वर्तमान आईपीएल में दिल्ली कैपिटल्स की जैसी कप्तानी ऋषभ ने की, उससे उन्होंने क्रिकेट के कई दिग्गजों को अपना मुरीद बना लिया है। इनमें अंतर्राष्ट्रीय दिग्गज भी शामिल हैं। हाल के महीनों में पंत टीम इंडिया में तीनों फॉर्मेट में अपनी जगह पक्की कर चुके हैं। उनके अलावा शुभमन गिल को भी कप्तानी के दिमाग़ वाला खिलाड़ी माना जाता है। गिल के करियर की शुरुआत भारत के ऑस्ट्रेलिया दौरे की टेस्ट सीरीज से हुई थी। गिल ने तब पैट कमिंस जैसे गेंदबाज़ के विपरीत बहुत बेहतर तरीक़े से खेला था।  इस क्रम में तीसरा नाम श्रेयस अय्यर का है। आईपीएल-2018 में दिल्ली डेयरडेविल्स के कप्तान बने अय्यर के नेतृत्व में आईपीएल-2020 में अब दिल्ली कैपिटल्स की टीम फाइनल में पहुँची थी।

लगातार ढहते पहाड़ बड़े ख़तरे का संकेत

प्रकृति से मनुष्य का खिलवाड़ लगातार जारी है; लेकिन इसका नुक़सान भी मनुष्य को ही हो रहा है। पिछले कुछ वर्षों से देखा गया है कि भूस्खलन, भूकम्प और पहाड़ों के दरकने, गिरने की घटनाएँ बढ़ी हैं।

अभी बीते 6 सितंबर को ही बारिश के कारण एनएच-94 ऋषिकेश-गंगोत्री नेशनल हाईवे पर नागनी के पास दोपहर में बड़े-बड़े बोल्डर तेज़ी से नीचे सडक़ पर गिरे और इसके बाद पूरा पहाड़ सडक़ पर आ गिरा। यह हाईवे पंजाब के फ़िरोज़पुर को जोड़ता है। इस घटना में दो युवक बाल-बाल बच गये। भले ही किसी की जान नहीं गयी; लेकिन इस घटना से दर्ज़नों लोगों की जान जा सकती थी। इस भूस्खलन से सैकड़ों टन मलबा और बड़े-बड़े बोल्डर सडक़ पर बिखर गये। हाईवे बन्द होने से उसके दोनों तरफ़ वाहनों की लम्बी-लम्बी क़तारें लग गयीं, जिसे खोलने में प्रशासन की टीम लोक निर्माण विभाग के इंजीनियरों के छक्के छूट गये।

इस पहाड़ के गिरने से हालात इतने ख़राब हुए कि राष्ट्रीय राजमार्ग-94 का निरीक्षण करने कृषि मंत्री सुबोध उनियाल पहुँचे और उन्हें इसे लेकर राष्ट्रीय राजमार्ग, पीएमजीएसवाई और लोक निर्माण विभाग के अधिकारियों की तत्काल बैठक बुलानी पड़ी।

इससे कुछ ही दिन पहले नेशनल हाईवे-5 पर ज्यूरी के पास किन्नौर में भूस्खलन की घटना हुई। इस भूस्खलन से भी दोनों ओर यातायात प्रभावित हुआ। यह बहुत डराने वाली बात है कि पिछले कुछ वर्षों से किन्नौर में भूस्खलन की घटनाएँ बहुत हुई हैं। इससे पहले बटसेरी और निगुलसरी में हुए भीषण भूस्खलन से कई लोगों की मौत हो गयी थी। इस बार भी लोगों को भूस्खलन का अहसास पहले ही हो गया था, जिससे वे बच गये अन्यथा कई जानें जा सकती थीं। इससे पहले अगस्त में मसूरी में कई जगह भूस्खलन हो गया। मसूरी टिहरी बायपास रोड पर बाटा घाट के पास भूस्खलन हुआ। मसूरी गलोगी पॉवर हाउस के पास लगातार भूस्खलन होने से पॉवर हाउस तो क्षतिग्रस्त हो गया और स्थानीय लोगों को भी बड़ी परेशानियों का सामना करना पड़ रहा है।

पहाड़ों पर बढ़ते इंसानी दबाव और पेड़ों के कटान से स्थितियाँ काफ़ी बिगड़ी हैं। यूँ तो हर साल बारिश में पहाड़ों के खिसकने, गिरने और भूस्खलन की घटनाएँ सामने आती रही हैं; लेकिन ये घटनाएँ हर साल बढ़ रही हैं। बारिश के मौसम में होने वाली इन भयावह घटनाओं का अंदाज़ा ऋषिकेश से श्रीनगर के बीच इस बार ही एक दर्ज़न से ज़्यादा स्थानों पर हो चुके भूस्खलन से लगाया जा सकता है। इस मार्ग पर मानसून से पहले भी क़रीब छ: ख़तरनाक क्षेत्र थे; लेकिन अब इनकी संख्या दो दर्ज़न से अधिक हो गयी है। इससे इस क्षेत्र के मार्गों से निकलने वाले लोग बेहद डरे हुए हैं।

क्या होता है भूस्खलन?

भूस्खलन दरअसल ज़मीन के नीचे खोखलापन आने, जलस्तर घटने, ज़रूरत से ज़्यादा भू-दबाव पडऩे और प्रकृति से छेड़छाड़ करने, उस पर मानव दबाव बढऩे, अधिक दबाव वाले संयत्र लगाने से होता है। भूस्खलन के चलते ही पहाड़ खिसकने शुरू हो जाते हैं और फिर गिर जाते हैं। पहाड़ी इलाक़ों में भूस्खलन होना न तो नयी बात है और न ही इसका डर दिलों से जा सकता। क्योंकि कब, कहाँ, भूस्खलन हो जाए इसका किसी को भी पहले से पता नहीं होता। इस बार पहाड़ों पर जिस तरह से भूस्खलन, पहाड़ों के गिरने और खिसकने की घटनाएँ बहुत ज़्यादा सामने आयी हैं, उससे पहाड़ों पर रहने वाले दहशत में हैं। फिर चाहे वे उत्तराखण्ड के निवासी हों, हिमाचल प्रदेश के रहने वाले हों या फिर जम्मू-कश्मीर के लोग। भूस्खलन या पहाड़ों के खिसकने, गिरने के पीछे दो मुख्य कारण होते हैं। पहला तो प्राकृतिक बदलाव, हलचल आदि और दूसरा मानव दबाव और उसके द्वारा चलायी जाने वाली गतिविधियाँ। इनमें प्रमुख गतिविधि जंगलों की अंधाधुंध कटाई है। केवल पेड़ ही अपनी जड़ों के ज़रिये बारिश में मिट्‍टी को कटने से रोकते हैं और छोटे-बड़े पत्थरों को रोककर रखते हैं।

पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते पेड़ों के कटने से बारिश होने पर मिट्‍टी बहने लगती है और पत्थर खिसकने शुरू हो जाते हैं। इससे बड़े-बड़े पत्थर ढलान पर रुक नहीं पाते और पहाड़ खिसक जाते हैं और कई बार पूरे के पूरे गिर जाते हैं। हिमाचल प्रदेश, ख़ासकर उसके ज़िला किन्नौर में और उत्तराखण्ड, ख़ासकर उसके पिथौरागढ़, केदारनाथ में पहाड़ों के खिसकने, गिरने, भूस्खलन के मामले बहुत तेज़ी से बढ़ रहे हैं।

इसकी एक वजह इन जगहों पर तेज़ी बढ़ता निर्माण भी है। आजकल तो सडक़ों के चौड़ीकरण और टनल आदि के बनने से भी यह सब हो रहा है; क्योंकि इसके लिए भारी विस्फोट किये जाते हैं, जिससे पहाड़ दरक जाते हैं और धीरे-धीरे वे कमज़ोर होकर गिर जाते हैं। इसके अलावा मिट्‍टी के अपक्षय, अपरदन, भूकम्प और ज्वालामुखी विस्फोट वाले क्षेत्रों में ऐसी घटनाएँ ज़्यादा होती हैं। जानकार और भूविज्ञानी कई बार लोगों को, ख़ासकर सरकारों को चेतावनी दे चुके हैं; लेकिन न निर्माण और पेड़ों का कटान करने से लोग बाज़ आते हैं और न सरकारें इस पर सरकारें ग़ौर करती हैं।

ब्रिटेन की यूनिवर्सिटी ऑफ शेफील्ड के शोधकर्ताओं के अध्ययन की एक रिपोर्ट में कहा गया है कि वहाँ सन् 2004 से 2016 के दौरान 50,000 से ज़्यादा लोगों को जान भूस्खलन के चलते चली गयी। इन शोधकर्ताओं ने इन 12 वर्षों में हुए 4,800 से ज़्यादा ख़तरनाक भूस्खलन की घटनाओं का ज़िक्र किया। रिपोर्ट में कहा गया कि इन भूस्खलनों में इंसानी गतिविधियों के चलते 700 ख़तरनाक भूस्खलन हुए।

शोधकर्ताओं के मुताबिक, एशिया महाद्वीप में भूस्खलन सबसे ज़्यादा होते हैं। जून, 2013 में उत्तराखण्ड में हिमालय में हुए भूस्खलन से 5,000 से अधिक लोगों की मौत हुई थी। दरअसल भारत की भू-जलवायु परिस्थितियाँ प्राकृतिक आपदाओं का बड़ा कारण हैं। यहाँ बाढ़, चक्रवात, भूकम्प, भूस्‍खलन, पहाड़ों के खिसकने और सूखा पडऩे की घटनाएँ आम हैं। भारत में क़रीब 60 फ़ीसदी भूभाग पर भूकम्प का ख़तरा रहता है। 400 लाख हेक्‍टेयर से अधिक क्षेत्र में वाढ़ आती है। कुल 7,516 किलोमीटर लम्बी तटरेखा क्षेत्र में से 5,700 किलोमीटर क्षेत्र पर चक्रवात का ख़तरा रहता है। वहीं खेती योग्‍य क्षेत्र का क़रीब 68 फ़ीसदी हिस्सा सूखे की चपेट में रहता है। इसके अलावा अंडमान-निकोबार द्वीप समूह, पूर्वी और पश्चिम घाटों में सुनामी का ख़तरा रहता है। हिमालय के साथ-साथ पहाड़ी इलाक़ों और पूर्वी व पश्चिम घाट के इलाक़ों में अक्‍सर भूस्‍खलन का ख़तरा लगातार बना रहता है।

देश में प्राकृतिक आपदाओं के कुशल प्रबन्धन के लिए आपदा प्रबन्धन सहायता कार्यक्रम सरकार द्वारा चलाये जाते हैं। इसके अलावा इसरो द्वारा अपेक्षित आँकड़ों और सूचनाओं को उपलब्‍ध कराने की दिशा में काम किया जाता है। इतना ही नहीं, संचार व मौसम विज्ञान की जानकारी के लिए भू-स्थिर उपग्रह, भू-प्रेक्षण उपग्रह, हवाई सर्वेक्षण प्रणाली और अन्य तरीक़ों से आपदाओं की पूर्व जानकारी लेने और प्रबन्धन करने की कोशिश की जाती है। इसके बावजूद बड़ी आपदाओं की कई बार जानकारी किसी को नहीं हो पाती। इसरो के नेशनल रिमोट सेंसिंग केंद्र (एनआरएससी) में स्‍थापित निर्णय सहायता केंद्र में भूस्‍खलन, भूकम्प, बाढ़, चक्रवात, सूखा और दावाग्नि जैसी प्राकृतिक आपदाएँ बार-बार धोखा दे जाती हैं, जिसके बाद सिवाय सिर पीटने के कुछ नहीं बचता है।

कहने का मतलब यह है कि तमाम आपदाओं की पूर्व सूचनाओं को समय पर पाने और उन्हें रोकने की सभी योजनाएँ फेल हो जाती हैं और यह तब तक होता रहेगा, जब तक लोग प्रकृति से खिलवाड़ बन्द नहीं कर देते। इंसान को उपग्रहों पर पहुँचने की होड़ छोडक़र ज़मीन पर व्यवस्थाएँ ठीक करने की पहले ज़रूरत है। बेहतर हो कि इंसान पहले उन ग़लतियों को करना छोड़े जिनसे प्रकृति के साथ-साथ उसकी गोद में पल रहे प्राणियों को नुक़सान पहुँच रहा है।

इसके लिए इंसान को न केवल जंगलों को नष्ट करना छोडऩा होगा, बल्कि ख़तरनाक हथियारों का निर्माण भी बन्द करना होगा। पौधरोपण करना होगा। क्योंकि ख़तरे लगातार बढ़ते जा रहे हैं और धीरे-धीरे इंसान का जीवन ही ख़तरे में पड़ता जा रहा है। लोगों को सोचना होगा कि जब उनका जीवन ही नहीं बचेगा, तो आविष्कार किये हुए यंत्र और हथियार किस काम आएँगे? किसके काम आएँगे?

भूपेंद्र पटेल मंत्रिमंडल में 24 नए मंत्री, रुपाणी सरकार के सभी मंत्री बाहर

पूर्व उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल सहित विजय रुपाणी के तत्कालीन मंत्रीमंडल के सभी सदस्यों की छुट्टी करते हुए गुजरात के नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने भाजपा आलाकमान से अपनी पहली बड़ी बात मनवा ली है। गुरुवार को जिन 24 विधायकों को मंत्री पद की शपथ राजभवन में दिलवाई गयी उनमें एक भी पिछले मंत्रिमंडल से नही है। राजेंद्र त्रिवेदी ने पहले नंबर पर शपथ ली, जिससे जाहिर होता है कि मंत्रिमंडल में उनकी हैसियत दूसरे नंबर की होगी। वे अब तक विधानसभा अध्यक्ष थे। हालांकि, सभी मंत्रियों के इस तरह बाहर होने से गुजरात भाजपा में नाराजगी बताई जा रही है।

इस तरह भूपेंद्र पटेल ने चुनाव से पहले अपनी नई टीम बना ली है। राजभवन में दोपहर डेढ़ बजे शपथ ग्रहण हुआ जिसमें राज्यपाल आचार्य देवव्रत ने नए मंत्रियों को शपथ दिलाई।

कुल 24 विधायकों को मंत्री पद की शपथ दिलाई गई इनमें 10 केबिनेट और 14 राज्य मंत्री हैं। पूर्व मुख्यमंत्री विजय रुपाणी की 22 मंत्रियों वाली पूरी टीम बाहर कर दी गई जिनमें मुख्यंमंत्री पद की दौड़ में शामिल माने जा रहे पूर्व उप-मुख्यमंत्री नितिन पटेल भी शामिल हैं। नई केबिनेट अब से कुछ देर बाद 4:30 बजे पहली बैठक करेगी। मंत्रियों के विभाग आज ही सौंपे जा सकते हैं।

आज शपथ लेने वाले केबिनेट मंत्री – राजेंद्र त्रिवेदी, जीतू वाघानी, राघव पटेल, पूर्णेश मोदी, नरेश भाई पटेल, प्रदीप सिंह परमार, अर्जुन सिंह चव्हाण, ऋषिकेश पटेल, कनुभाई देसाई, किरीट सिंह राणा।

राज्य मंत्री: हर्ष सांघवी, बृजेश मेरजा, मनीषा वकील, जगदीश भाई पांचाल, जीतू भाई चौधरी, निमिषा सुतार, मुकेश पटेल, अरविंद रैयाणी, कुबेर डिंडोर, कीर्ति सिंह वाघेला, गजेंद्र सिंह परमार, देवा भाई मालम, राघवजी मकवाना, विनोद भाई मोराडिया।

आज सबसे पहले शपथ राजेंद्र त्रिवेदी ने ली। उन्होंने आज ही विधानसभा अध्यक्ष पद से इस्तीफा दिया था। इस्तीफे के एक घंटे बाद ही वे मंत्री पद की शपथ ले रहे थे। जाहिर है पटेल की टीम में उनका दर्जा नंबर-2 का होगा। पहले शपथ ग्रहण बुधवार को होना था, लेकिन भीतर नाराजगी बढ़ने से इसे आज के लिए टाल दिया गया था।

देशभक्ति की नयी व्याख्या करती तिरंगा यात्रा

भाजपा को उसी के हथकंडों से चुनौती दे रही आम आदमी पार्टी

उत्तर प्रदेश में विधनसभा चुनाव में अब जब केवल छ: महीने ही बचे हैं, आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी तिरंगा यात्रा के ज़रिये चुनाव प्रचार का बिगुल बजा दिया है। आगरा, नोएडा और अयोध्या के बाद अब पार्टी नेता और कार्यकर्ता राज्य के सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा लेकर जाएँगे और लोगों को देशभक्ति के मायने समझाएँगे।

आमतौर पर देशभक्ति के मायने होते हैं- देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान कर देना। उसके गौरव की हर क़ीमत पर रक्षा करना। जान चली जाए, पर तिरंगा झुकने न पाए। उसमें सब कुछ तिरंगे के लिए होता है। मगर आम आदमी पार्टी की देशभक्ति में सब कुछ तिरंगे के नीचे रह रहे लोगों के लिए है। बच्चों, महिलाओं, बुजुर्ग और युवाओं- सबका विकास ही उसके लिए देशभक्ति है। इनकी शिक्षा, इनका स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसी ज़रूरी सुविधाएँ इन तक पहुँचाना ही उसकी देशभक्ति है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ चुनावों का केंद्र लोग नहीं, बल्कि उनकी जाति और धर्म रहता है; आम आदमी पार्टी ने इसे बदलते हुए आमजन को केंद्र में रखकर देशभक्ति के माध्यम से अपने विकास के एजेंडे को लोगों के गले उतारने का अपना तरीक़ा निकाला है।

शायद पार्टी अध्यक्ष केजरीवाल जानते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर उनके लिए इस राज्य में अपना खाता खोल पाना सम्भव नहीं होगा। वैसे भी यहाँ मुख्य मक़सद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देना है; जो देशभक्ति, हिन्दुत्व और राम पर अपना विशेषाधिकार मानती है। उसके इस अधिकार-अहम को चुनौती देने के लिए ही अयोध्या में तिरंगा यात्रा और रामलला के आशीर्वाद से प्रचार की शुरुआत की गयी। अब विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा यात्रा करते हुए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता लोगों को देशभक्ति के मायने समझाने का प्रयास करेंगे। इसमें भाजपा के राष्ट्रवाद और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रवाद के बीच के अन्तर को भी लोगों के सामने खोलकर रखा जाएगा।

आगरा और नोएडा में तिरंगा यात्रा निकालते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पार्टी सांसद व उत्तर प्रदेश के प्रभारी संजय सिंह ने लोगों को समझाया कि उनके लिए देशभक्ति व राष्ट्रवाद क्या है? संजय सिंह ने कहा कि ‘तिरंगे के नीचे खड़ा हर ग़रीब बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ सके। दिल्ली की तरह उत्तर प्रदेश में भी हर गाँव में मोहल्ला क्लीनिक बन सके। हर ग़रीब के घर में बिजली हो और 300 यूनिट तक उसे नि:शुल्क मिल सके। हर घर को पानी मिले। उनके लिए यही देशभक्ति है। यही राष्ट्रवाद है।’

उन्होंने आगे कहा-‘अब आम आदमी पार्टी ईमानदारी और शिक्षा के माध्यम से हर गाँव में विकास की राजनीति को लेकर जाएगी। पूरे उत्तर प्रदेश में तिरंगा यात्रा निकलेगी और पार्टी के कार्यकर्ता हर जगह संकल्प लेंगे कि इस तिरंगे के नीचे रह रहे बच्चे, महिलाएँ, बुज़ुर्ग, युवा और किसान अपने अधिकारों से वंचित न रहें।’

आम आदमी पार्टी की देशभक्ति की परिभाषा में केवल लोग ही नहीं, संविधान भी हैं। बीते 15 अगस्त (आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ) पर दिल्ली के स्कूलों में लागू किये गये ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ में बच्चों को संविधान के स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व जैसे मूल्यों की जानकारी देते हुए उनका आदर करना और उन्हें रोज़मर्रा के व्यवहार में उतारना सिखाया जाएगा। इसके साथ ही बच्चों और युवकों को सिखाया जाएगा कि कैसे वे आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, सामाजिक और परम्परागत सोच से परे वैज्ञानिक व व्यावसायिक सोच वाले बन सकते हैं।

इसे देखकर लगता है कि अपनी देशभक्ति की इस परिभाषा से, जिसमें आमजन व संविधान सर्वोपरि है; आम आदमी पार्टी ने बड़ी आसानी से भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद से अपने को पूरी तरह से अलग कर लिया है। वह युवकों की ऐसी पीढ़ी भी तैयार करने जा रही है, जिसमें किसी की भी देशभक्ति को उसके धर्म या फिर जन-गण-मण गाने या नहीं गाने से नहीं नापा जाएगा।

दिल्ली से बाहर अपने पैर पसारने की कोशिश में लगी आम आदमी पार्टी की इस तिरंगा यात्रा के तीन राजनीतिक तत्त्व दिखायी देते हैं। पहला विकास, दूसरा देशभक्ति और तीसरा धर्म। दिल्ली के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार भले ही ख़त्म न हुआ हो, पर शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार और ग़रीबों को बिजली व पानी जैसी सुविधाओं का नि:शुल्क वितरण अभी तक केजरीवाल की पार्टी का लोकतांत्रिक राजनीति व प्रशासन का मुख्य आधार रहा है। इसी के बल पर वह दिल्ली में दो बार भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक प्रचार का सामना कर उसे पछाडऩे में कामयाब हो सकी।

गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब सभी राज्यों में पार्टी प्रमुख केजरीवाल ने मुफ़्त या फिर सस्ती बिजली के वादे से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है। अब जब आम आदमी पार्टी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव लडऩे जा रही है, तब उसने अपने इन्हीं विकास कार्यों को देशभक्ति का नाम दे दिया है। उसके अनुसार, ‘व्यापक जनहित आधारित विकास की सोच, नीतियों व प्रशासन के साथ चलना ही देशभक्ति है। तिरंगा को उसने शहीदों के सम्मान का प्रतीक बनाया है और हिन्दुओं के पर्व त्यौहार व राम सहित सभी देवी-देवताओं की पूजा को अपनी सत्तात्मक चुनावी राजनीति का आधार। इन तीनों पर अपने राष्ट्रवाद की नींव खड़ी करके उसने भाजपा के हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद की हवा निकालने की रणनीति बनायी है।

अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के राज के बाद भारत में भाजपा के राष्ट्रवाद के फैलाव को रोक पाना किसी के लिए भी अब ज़्यादा सम्भव नहीं हो पाएगा। ऐसे में सुसाशन और विकास के ताने-बाने से बुना जा रहा आम आदमी पार्टी का राष्ट्रवाद लोगों को कितना आकर्षित कर पाएगा, इसकी परीक्षा दिल्ली से बाहर अभी होनी है। उसी से यह भी तय हो पाएगा कि तिरंगा यात्राओं के साथ लोगों के दिलों में उभारी जाने वाली सुशासन और विकास की देशभक्ति का रंग कितना गहरा है। दूसरा, आज जबकि बहुलवादी राजनीति समय की माँग है, उसके द्वारा की जा रही बहुसंख्यक राजनीति का पासा सीधा भी पड़ सकता है और उल्टा भी।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलना कितना ज़रूरी है, यह भाजपा को भी समझ आ गया है। ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत बार-बार मुसलमानों के क़रीब जाते नहीं दिख रहे हैं। उन्हें यह भी समझ आ गया है कि सत्ता के शीर्ष पर बने रहना है, तो समन्वयवादी राजनीति पर चलते हुए दिखना ज़रूरी है।

ऐसा नहीं कि केजरीवाल इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं हैं। फिर भी अगर भाजपा शासित राज्यों में वह हिन्दुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के इर्द-गिर्द अपनी चुनावी रणनीति का एक आधार खड़ा कर रहे हैं, तो सम्भवत: इसलिए कि उन्हें लगता है कि इससे धर्म के नाम पर भाजपा को मिलने वाले हिन्दु-मतों में सेंध लगाना काफ़ी आसान हो जाएगा। सम्भवत: इससे आगे चलकर बहुसंख्यक-मतों पर भाजपा के एकाधिकार को ख़त्म करने में भी आसानी हो। ऐसे में बहुसंख्यकवाद आम आदमी पार्टी की सत्तात्मक राजनीति की मजबूरी या फिर रणनीति या दोनों ही हो सकती हैं। मगर उसे लम्बी पारी खेलनी है तो कांग्रेस से ख़ाली होती जगह को भरते हुए समन्वयात्मक राजनीति को ही अंतत: अपना आधार बनाकर चलना होगा।

(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

हरियाणा ने फिर देखा मौत का भयावह मंज़र

समलैंगिक रिश्ते की ख़ातिर युवक ने माँ-बाप, बहन और नानी की गोली मारकर कर दी हत्या!

हरियाणा के रोहतक में इस वर्ष सामूहिक हत्याकांड की दूसरी घटना समाज को झकझोर देने वाली रही। देश भर में ऐसी घटनाएँ कोई असामान्य बात नहीं है; लेकिन हरियाणा, जिसने देश को अंतरराष्ट्रीय खेलों में महत्त्व दिलाया; में ऐसी घटनाओं का होना हैरान ज़रूर करता है। सात माह के अंतराल में ऐसी दो घटनाएँ हुईं, जिनमें 10 लोगों की सामूहिक तौर पर हत्या हुई। दोनों ही घटनाओं के कारण बहुत मामूली रहे हैं; लेकिन नतीजे उतने ही भयावह दिखे। दोनों घटनाओं में हत्या के लिए रिवॉल्वर का इस्तेमाल किया गया और जो सामने आता गया, आरोपी उन्हें ढेर करते रहे।

इसी माह की घटना रोहतक की विजयनगर कॉलोनी में घटी, जहाँ बेटे अभिषेक मलिक उर्फ़ मोनू (20) पर आरोप है कि उसने अपने पिता प्रदीप मलिक उर्फ़ बबलू पहलवान, माँ बबली देवी, बहन नेहा उर्फ़ तमन्ना और नानी रोशनी की गोली मारकर हत्या कर दी। हालाँकि आरोपी ने अपना गुनाह क़ुबूल करते हुए पूरी वारदात का ब्यौरा दे दिया है। हत्या में प्रयुक्त हथियार भी बरामद हो गया है। बावजूद इसके जब तक अदालत में दोषी क़रार नहीं दिया जाता, उसे आरोपी ही कहना होगा।

मोनू ने सबसे पहले उसी बहन को नींद में सोते हुए मार डाला, जिससे घटना के कुछ दिन पहले ही रक्षाबन्धन पर राखी बँधवायी थी। वह उसकी इकलौती बहन थी और उससे लगभग एक साल छोटी। लिहाज़ा दोनों में काफ़ी बातें साझा होती रहती थीं। फिर उस पिता को मार डाला, जिसने शानदार मकान के नाम पटल (नेम प्लेट) पर उस बेटे का नाम अंकित कराया था। आई फोन और गाड़ी से लेकर हर तरह की सुख सुविधा दी। वह बेटे मोनू को प्यार भी बहुत करते थे। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनका पूत कपूत निकलेगा और वह भी समाज में रौब रखने के लिए उन्हीं के ख़रीदे हथियार से। वह तो फोन पर किसी से बात कर रहे थे, अचानक सिर में गोली लगी तो वहीं ढेर हो गये। लाडले ने यह सोचकर कि कहीं पहलवान पापा बच न जाएँ, एक और गोली भी मार दी।

उस माँ को भी नहीं छोड़ा, जो उससे बेइंतहा प्यार करती थी। इकलौता बेटा होने के कारण मोनू उसे बहुत प्रिय था; लेकिन बेटे ने उसके सिर में भी गोली मारकर मौत की नींद सुला दिया। उस नानी को भी मार डाला, जो उसे (मोनू को) समझाने के लिए आयी हुई थी। जब माँ-बाप के समझाने का कोई असर नहीं हुआ, तो नानी को विशेषतौर पर बुलाया गया था। लेकिन क्या पता था कि दोहिता (बेटी का पुत्र) ही उसकी मौत की वजह बनेगा।

मोनू समलैंगिक था और उसके रिश्ते नैनीताल (उत्तराखण्ड) के कार्तिक नामक युवक से थे। परिवार के लोग दोनों को अच्छे दोस्त के तौर पर जानते थे। यह दोस्ती दिल्ली में केबिन सहायक का कोर्स करते हुए हुई, जो आगे चलकर ग़लत सम्बन्धों में बदल गयी। परिजनों को मोनू और कार्तिक की दोस्ती की जानकारी तो थी, लेकिन समलैंगिक रिश्ते के बारे में वे नहीं जानते थे। इस बात की शुरुआत में जानकारी उसकी बहन नेहा उर्फ़ तमन्ना को थी, उसके माध्यम से ही परिजनों को पता चला। इसके बाद मलिक परिवार में इस मुद्दे को लेकर माहौल तनावपूर्ण होता गया। लेकिन उसका नतीजा ऐसा होगा, इसका अनुमान मोनू के अलावा किसी को नहीं रहा होगा। उसने सोची-समझी साज़िश के तहत अपने ही पिता की रिवॉल्वर से एक-एक कर परिजनों और नानी तक की हत्या कर दी।

पिता प्रदीप मलिक उर्फ़ बबलू पहलवान प्रॉपर्टी का काम करते थे। उन्हें हथियारों का शौक़ भी था। जन्मदिन के समारोहों के दौरान केक पर रिवॉल्वर रखे फोटो देखे जा सकते हैं। मोनू पिता के साथ बैठकर एक नहीं, बल्कि दो-दो रिवॉल्वर के साथ बैठा भी दिखता है। घर में रखे रिवॉल्वर से ही मोनू ने इतनी बड़ी घटना को अंजाम दे दिया और हथियार घर से कब ग़ायब कर दिया? इसकी जानकारी किसी को नहीं लगी। हत्या में प्रयुक्त रिवॉल्वर लाइसेंसी था या नहीं? इसका ख़ुलासा होना बाक़ी है।

यह घटना रिश्तों की हत्या को भी दर्शाती है। समलैंगिक रिश्ता बनाये रखने पर आमदा बेटे ने किसी की नहीं सुनी और इतनी बड़ी घटना अंजाम दे डाला। मोनू ने किसी बात पर आवेश में आकर इतनी बड़ी घटना को अंजाम नहीं दिया, बल्कि इसके लिए बाक़ायदा साज़िश रची। चार हत्याओं के बाद उसने घटना को मोड़ देने की कोशिश की; लेकिन वह पुलिस की नज़र से बच नहीं सका। समलैंगिक रिश्ते के लिए उसने जो किया, वह शर्मसार करने वाला है। जिस रिश्ते को समाज में मान्यता ही नहीं, उसे निभाने के लिए उसका यह कृत्य उसे शायद ज़िन्दगी भर प्रायश्चित करने पर मजबूर करता रहे।

इससे पहले इसी वर्ष फरवरी के दौरान इसी शहर के जाट कॉलेज में कुश्ती कोच सुखविंदर ने छ: लोगों की गोलियाँ मारकर हत्या कर दी थी। इसमें पाँच की मौत घटनास्थल पर हो गयी थी, जबकि छ: साल के सरताज ने बाद में दम तोड़ दिया था। आरोपी सुखविंदर ने कोच की नौकरी से अलग कर देने का इतना बड़ा बदला लिया, जिसे सुनकर कोई भी सिहर सकता है। महिला पहलवान की शिकायत पर कॉलेज परिसर अखाड़े के प्रमुख कोच मनोज मलिक ने सुखविंदर को काम से हटा दिया था।

वह इससे इतना नाराज़ हुआ कि इस प्रकरण में मनोज का साथ देने वाले सभी को सबक़ सिखाने के लिए उसने इतना बड़ा क़दम उठा लिया। वह कॉलेज परिसर पहुँचा और वहीं रह रहे प्रमुख कोच मनोज मलिक के साथ वाद-विवाद होने पर गोली मार दी। बचाव में आयी उनकी पत्नी साक्षी को भी मौत की नींद सुला दिया। गोलीबारी में प्रदीप और साक्षी के तीन साल के बच्चे सरताज छर्रे लगने से गम्भीर घायल हो गया, जिसकी कुछ दिन बाद मौत हो गयी। सुखबिंदर ने महिला पहलवान पूजा, कोच सतीश दलाल और प्रदीप मलिक पर भी ताबड़तोड़ गोलियाँ चलाकर मार डाला। उस दिन सुखविंदर के सिर पर बदला लेने का जैसे भूत सवार था। उसने अमरजीत पर भी गोली चला दी। उसका भाग्य अच्छा था कि उसने भागकर जान बचायी। घटना में मनोज मलिक का पूरा परिवार ख़त्म हो गया, जबकि उनका कोई दोष नहीं था। महिला पहलवान की शिकायत पर मनोज को कार्रवाई करनी ही थी; लिहाज़ा उन्होंने की। लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनका ही एक साथी इस बात का बदला इस तरह लेगा।

कोई दो दशक पहले भी राज्य में हुए सामूहिक हत्याकांड से लोग दहल उठे थे। ऐसी बड़ी घटना का कोई उदाहरण कम-से-कम इस राज्य में तो नहीं मिलता। इसमें बेटी और दामाद ने ही मिलकर पूरे परिवार का ख़ात्मा कर दिया। मामला प्रॉपर्टी विवाद का था। इस घटना को याद कर लोग आज भी सिहर उठते हैं। बरवाला से तत्कालीन निर्दलीय विधायक रेलूराम पूनिया समेत परिवार के आठ लोगों को बेटी सोनिया और दामाद संजीव ने बेरहमी से मौत की नींद सुला दिया था। इनमें तीन बच्चे थे, जिनकी उम्र चार साल से भी कम थी। इनमें एक तो डेढ़ महीने का शिशु ही था। मरने वालों में रेलूराम पूनिया, पत्नी कृष्णा, बेटा सुनील, पत्नी शकुंतला, बेटी प्रियंका, चार साल का पोता लोकेश, तीन साल की पोती शिवानी और डेढ़ माह की प्रीति थे।

इस घटना में भी पहले रिवॉल्वर का इस्तेमाल किया जाना था। लेकिन बाद में विचार बदल दिया गया। पहले परिवार के सदस्यों को खाने में नशीली चीज़ खिलाकर बेहोश किया गया। फिर उन पर लोहे की छड़ से प्रहार कर मौत की नींद सुला दिया। जिस करोड़ों की सम्पत्ति के चक्कर में सोनिया और संजीव ने इतना बड़ा कांड किया, उसका नतीजा क्या हुआ? बदले में उन्हें सम्पत्ति नहीं, बल्कि फाँसी की सज़ा मिली है। दोनों तिल-तिल कर मरने को मजबूर हैं। सोनिया ने तो जेल में ख़ुदकुशी का भी प्रयास किया; लेकिन बचा ली गयी। पेरोल पर बाहर आने पर संजीव ने भी ग़ायब होने की कोशिश की। लेकिन कुछ दिनों बाद वह भी पुलिस के हत्थे चढ़ गया। उनकी दया याचिका ख़ारिज हो चुकी है। देर-सबेर दोनों को फाँसी लगनी लगभग तय ही है। अगर सोनिया को फाँसी होती है, तो वह आज़ादी के बाद पहली महिला होगी, जो फंदे पर झूलेगी। सामूहिक हत्याकांडों की ऐसी घटनाएँ समाज को झकझोर देने वाली होती हैं।

 

प्यार में परिवार की बलि

सन् 2008 में उत्तर प्रदेश के ज़िला अमरोहा के गाँव बवानाखेड़ी में कमोबेश ऐसी घटना हुई, जिसमें शबनम नामक लडक़ी ने प्रेमी सलीम के साथ मिलकर परिवार के सात लोगों की हत्या कर दी। इनमें शबनम के पिता शौक़त अली, माँ हाशमी, भाई अनीस, पत्नी अंजुम, राशिद, राबिया और अर्श को बेरहमी से मौत के घाट उतार दिये गया। घर वालों के ख़िलाफ़ जाकर शबनम ने सलीम को छोडऩा मंज़ूर नहीं किया, बल्कि विरोध करने वालों का ही ख़ात्मा कर डाला। शबनम और सलीम को भी फाँसी की सज़ा हो चुकी है। उनकी भी दया याचिका राष्ट्रपति से नामंज़ूर हो चुकी है।

यूपी में सरकार बनी तो घरेलू उपयोग में 300 यूनिट बिजली मुफ्त : आप

ज़मीन पर अपने पाँव ज़माने के नजरिये से आम आदमी पार्टी (आप) ने  उत्तर प्रदेश के आने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में आप की सरकार बनने के सूरत में  24 घंटे के भीतर हरेक परिवार को घरेलू उपयोग के लिए 300 यूनिट तक मुफ्त बिजली देने का वादा किया है। इसके अलावा बड़ी पहल करते हुए पहले ही आप ने   अगले चुनाव के लिए अपने 100 संभावित उम्मीदवारों के नाम भी घोषित कर दिए हैं।आप के वरिष्ठ नेता और दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया ने आज लखनऊ में उत्तर प्रदेश के चुनाव को लेकर घोषणा की कि राज्य के लोगों को महंगी बिजली से मुक्ति दिलाएगी जाएगी और यूपी में आप की सरकार बनने के 24 घंटे के अंदर घरेलू उपभोक्ताओं को 300 यूनिट तक बिजली मुफ्त दी जाएगी। सिसोदिया ने यह भी घोषणा की कि किसानों को खेती के लिए असीमित बिजली मुफ्त दी जाएगी।

उन्होंने कहा कि 38 लाख लोगों के बकाया बिजली बिल को माफ कर दिया जाएगा।  सिसोदिया ने 24 घंटे बिजली देने का भी वादा किया। उन्होंने कहा – ‘दिल्ली में लोगों को मुफ्त बिजली दी जा रही है’।

बता दें  उत्तर प्रदेश में बिना किसी दल के साथ गठबंधन के चुनावी मैदान में उतरने की तैयारी में लगी आम आदमी पार्टी ने उत्तर प्रदेश में 403 सीटों पर चुनाव लड़ने  कर रखी है। सिसोदिया ने कहा – ‘दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल की कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं है। दिल्ली में बिजली का उत्पादन नहीं होता और खरीद कर बिजली दी जाती है। उत्तर प्रदेश में तो बिजली का उत्पादन किया जाता है लेकिन यहां गलत नीतियों के कारण लोगों को महंगी बिजली दी जाती है। तमाम लोग हर साल सुसाइड करने को मजबूर होते हैं।’

गहलोत फिर सवासेर

क्या किसी प्रतिष्ठित और संघर्षों का इतिहास संजोये राजनीतिक दल को संकट की आहट सुनते ही फ़ौरन से पेशतर अहतियाती क़दम नहीं उठा लेना चाहिए या फिर महज़दस्तूर निभाने के लिए मुश्किलों की गणेश परिक्रमा करते रहना चाहिए। ख़ासतौर से राजनीति में समय अमूमन दूरदर्शी राजनेताओं से ही बग़लगीर होता है। ख़ासतौर से कांग्रेस जैसे शीर्ष राजनीतिक दल को तो ज़ाहिर तौर पर समझ लेना चाहिए कि तनावों से पैबस्त कोई भी सियासी ड्रामेबाज़ी चर्मोत्कर्ष पर पहुँचे, ऐसी नौबत आने से पहले ही तूफ़ान का रूख़ मोड़ देना चाहिए।

राजनीतिक लड़ाइयाँ कभी ख़त्म नहीं होतीं। इसलिए अंदेशों का एहतराम करते हुए इस बात के हिज्जे तो समझ लेने चाहिए कि जहाँ तक हो सके झटकों से बचने और उबरने की जुगलबंदी बनाये रखी जाए, ताकि तनाव की बजाय मानसिक सुकून का दायरा बढ़ सके। कांग्रेस ने कब-कब ऐसी रणनीति बनायी? इसका ककहरा बाँचने के लिए हमें चार दशक पहले लौटना होगा। सन्

1985 की वो चंपई अँधेरों से लुकाछिपी करती सुरमई शाम शहर पर ख़रामा-ख़रामा उतर रही थी। गोरमेंट होस्टल की धवल इमारत किसी दरवेश की तरह बिंदास खड़ी एक इतिहास की साक्षी बनने को तैयार खड़ी थी।

हॉस्टल की लम्बी चौड़ी इमारत की राहदारी से रिसते ठहाकों की गूँज पूरी राजधानी में सुनायी दे रही थी। उस दौरान राजनीतिक रंगमंच की मशहूर हस्तियाँ तत्कालीन मुख्यमंत्री हरीदेव जोशी, क़द्दावर राजनेता और कालांतर में उनके वारिस बने शिवचरण माथुर तथा सत्ता की राजनीति के भद्र जमावड़े की मौज़ूदगी में तक़रीबन 34-35 वर्षीय युवा सभी की निगाहों का मरकज़ बना हुआ था। तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंहराव के मंत्रिमंडल में अपने बेहतरीन प्रदर्शन से कांग्रेस की सियासी पिचों पर झण्डे गाडऩे वाले इस युवा नेता की अग्नि परीक्षा अब राजस्थान की रेतीली राजनीति में होनी थी। जब हरिदेव जोशी ने अशोक गहलोत की तैनाती को लेकर भावनात्मक भाषण पूरा कर लिया, तब तक गहलोत ने चुप्पी साधे रखी। दरअसल तत्कालीन प्रधानमंत्री और पार्टी अध्यक्ष नरसिंहराव ने इस युवा को राजस्थान का प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भेजा था।  इस फैसले के पीछे भारतीय राजनीति के वैचारिक ध्रुव लोकतंत्र की समावेशी अदृश्य शक्ति का सन्देश समझ रहे थे। प्रदेश की कांग्रेस राजनीति में सक्रियता के नये सोपान की शुरू करने वाले इस युवक का नाम अशोक गहलोत था।

गहलोत के लिए वो दिन सबसे अभिमानास्पद था, तो उतना ही अहम भी था। प्रदेश अध्यक्ष की पाग पहली बार पहनने वाले गहलोत इस महती आयोजन में बेहद सहज लग रहे थे। उन्होंने तीन बार भद्र राजनीतिक जमावड़े पर अपने प्रति उत्साह को परखा और रहस्यमय चुप्पी तोड़ते हुए राजगुरु की तरह मौज़ूद हरीदेव जोशी और शिवचरण माथुर की तरफ़ फलों से लदी डाल की मानिंद झुक गये- ‘मुझे अपना बच्चा ही समझें, आपका आशीर्वाद ही मुझे राह दिखाएगा।’

अभिभूत कर देने वाले इस दृश्य पर खचाखच भरा हॉल गहलोत ज़िन्दाबाद के नारों से गूँज उठा। जिस समय गहलोत आला पद पाने की बधाइयाँ बटोर रहे थे, सभागार में तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट के संदेशवाहक ने दस्तक दी। संदेशवाहक ने राजेश पायलट की तरफ़ से गहलोत को प्रदेश कांग्रेस की कमान सँभालने की न सिर्फ़ बधाई दी, बल्कि यह कहते हुए फूलों का गुलदस्ता थमाया कि अब आपको संगठन में जान फूँकने के लिए पुराने नारों और जुमलों से आगे बढऩा होगा। आप जैसा मज़बूत नेता यह काम बख़ूबी अंजाम दे सकेगा। तपस्वियों की भाँति देवदार के दरख़्तों की तरह खड़े गहलोत राजेश पायलट की बधाई से अभिभूत हो उठे।

अब इसे इत्तेफ़ाक़ कहें या कुछ और कि तत्कालीन केंद्रीय राज्यमंत्री राजेश पायलट ने अशोक गहलोत को प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष बनने पर क़ासिद (पत्र वाहक) के ज़रिये पैग़ाम-ए-मोहब्बत के साथ बधाइयों का गुलदस्ता नज़्र किया था। लेकिन आत्मीय रिश्तों के ख़ुशनुमा नज़रे यहीं थम कर रह गये। आने वाले दिनों में राजेश पायलट के फ़रज़ंद सचिन पायलट ख़ुशनुमा रिश्ते नहीं निभा सके। उन्होंने इन रिश्तों को राजनीति की अलगनी पर सूखने को डाल दिये। उन्होंने उसी मन्दिर के पुरोहित की आलोचना का अध्याय शुरू कर दिया, जिसके साथ बैठकर प्रार्थना की थी। नतीजतन बतौर उप मुख्यमंत्री इतिहास में सबसे छोटा हनीमून सचिन पायलट के हिस्से में ही बदा। इस अध्याय की गहराई जो भद्र राजनेता समझते हैं, वे हैरान ही नहीं, सन्न भी हैं। विश्लेषकों का कहना कि सियासत में नाइत्तेफ़ाक़ी के खड़ंजे बेशक जल्दी भर जाते हैं; लेकिन रंज और रंजिश की खाइयाँ कभी नहीं भरतीं; क्योंकि ये दिनोंदिन और गहरी होती चली जाती है। विनम्रता और तामझाम से दूर रहने वाले गहलोत गाहे-बगाहे ही उग्र तेवर अपनाते हैं। पायलट के प्रतिघात का घाव ही सम्भवत: इस क़दर गहरा रहा होगा कि उन्होंने ज्वालामुखी की तरह फटते हुए आक्रोश के लावे में नाकारा, निकम्मा सरीख़े सारे ब्रह्मास्त्र पायलट पर झोंक दिये। अब भले ही पायलट बड़े दावों का खेल खेलते रहें; लेकिन क्या कभी प्यार और इसरार की कालीन पर लौट पाएँगे? शायद नहीं। वजह साफ़ है दोनों के बीच मेल-मिलाप का दूध इस क़दर फट चुका है कि उसका छैना, तो क्या रायता भी नहीं बन सकता। ऐसे में रेशा-रेशा हो चुके रिश्तों में रफू-पेबंद की गुंजाइश कहाँ बचती है।

बेशक सचिन पायलट अपने लोगों की अपनी महफिल में भीड़ के उमड़ते सैलाब को ख़ुशामदीद कहने से नहीं चूकते; लेकिन क्या सियासी ढलान से ग़ाफ़िल होना क़ुबूल कर पाएँगे। बहरहाल राजनीतिक पंडितों की मानें तो पूरा एपिसोड पायलट को झिंझोडक़र बता गया कि उन्होंने शीशम के दरख़्तों के जंगल को चीड़वन समझकर विरोध के ऐसे अंधड़ चला दिये, जो उन्हीं पर भारी पड़े। गहलोत तो अपने विश्वास का निवेश करते हुए अब मुख्यमंत्री की तीसरी पारी खेल रहे हैं। अरमानों और स्फूर्ति से लबरेज गहलोत पहली बार सन् 1999 में मुख्यमंत्री बने, लेकिन इस बीच सन् 1994 और सन् 1997 में प्रदेश अध्यक्ष भी बने। लेकिन मुख्यमंत्री बनने की ज़िद नहीं की। राजनीतिक जीवन में गहलोत का अहमतरीन सूत्र रहा है- ‘अगर राजनीति में आगे बढऩा है, तो अपने वरिष्ठों का मान-सम्मान करते हुए सीखने की प्रवृत्ति बनाये रखो। उनसे टकराव लेने और तंजकशी के तेवर आत्मघाती सिद्ध होते हैं।

सचिन पायलट की अपनी समझ के मुताबिक, राजस्थान में कांग्रेस की जीत का भूगोल बेशक उन्होंने रचा; लेकिन चुनावी पड़तालों में इनके जवाब मिलना आसान नहीं है। क्योंकि जातीय रुझानों और चेहरों की दीवानगी के आँकड़ों से परे हक़ीक़त की एक गोल-मोल दुनिया भी है, जहाँ मतदाता का मिजाज़ आँका जा सकता है। यह मिजाज़ चुनावी माहौल में गुलाल की तरह उड़ते नारों में मिल जाता है कि मोदी तुझसे बैर नहीं, वसुंधरा तेरी ख़ैर नहीं। तो ज़ाहिर है कि असल राजस्थान के चुनावी नतीजे तो तय थे। क्या यह सच नहीं है कि राजस्थान में चुनावी साल में आर्थिक विकास दर पिछले पाँच साल के औसत से कम थी। क्रिसिल की रिपोर्ट इस बात की तसदीक़ भी करती है।

आँकड़ों की रोशनी में खँगालें, तो वसुंधरा के शासन-काल में राजस्थान की आर्थिक और विकास की दर औंधे मुँह गिर चुकी थी। लिहाज़ा सत्ता की चाबी तो इस गणिताई ने मुहैया करवायी ऐसे में सचिन पायलट के खाते में यह विजयश्री कैसे जा सकती थी? अलबत्ता एक प्रदेश अध्यक्ष के नाते वसुंधरा सरकार को आईना दिखाने में उनके प्रयास कहीं भी कमतर नहीं थे। लेकिन कुल मिलाकर वो उलटे बाँस बरेली को ही थे।

सियासत में नयी उम्र की नयी फ़सल की सोच में सबसे बड़ा लोचा है कि शिखर पर पहुँचने के उसके अनगढ़ तौर-तरीक़े उसकी उम्मीदों की जड़ों को जमने ही नहीं देते। इस मामले में गहलोत की तंज़कशी बेमानी नहीं कही जा सकती कि आख़िर पायलट उनकी पीठ पर बेवफ़ार्इ करके कैसे शिखर कुर्सी पर बैठने की ठान बैठे। पायलट संगठन में क़दम-दर-क़दम पायदान तय करते, तभी उन्हें रगड़ाई का मोल समझ में आता?

गहलोत कहते हैं- ‘बेहतर होता कि वह तजुर्बों के मकतब में बैठकर राजनीति के पारम्परिक मैदान में अपने आपको चुस्त-दुरुस्त करते। लेकिन जब कोई नुमाइशी प्रदर्शन से सिक्का जमाने की कोशिश करें, तो क्या होगा?’

गहलोत ने मुख्यमंत्री की पाग तो उन्होंने सन् 1991 में पहनी। इससे पहले उन्होंने सन् 1985 के बाद प्रदेश अध्यक्ष की दो और पारियाँ सन् 1994 और सन् 1997 में खेलीं। इस दौर का जनादेश अस्वाभाविक नहीं था। उन्होंने भाजपा नीत शेखावत का तख़्ता पलटकर एक जबरदस्त जुनून रचा था। इसमें कोई संदेह नहीं कि सूखा और शेख़ी से ओत-प्रोत भाजपा नीत शेखावत सरकार के लिए विरोधाभासी लहर साफ़ दिख रही थी। शेखावत जैसा क़द्दावर नेता अपनी पूरी साख झोंककर भी अपनी सरकार की हिफ़ाज़त नहीं कर पाया। उस समय लोगों में सरकार विरोधी जनून भी तारी था।

यह वो दौर था, जब परसराम मदेरणा प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष थे। कांग्रेस की फ़तह के बाद मदेरणा के मन भी मुख्यमंत्री की ताजपोशी की लहर ज़ोर मार रही थी। लेकिन सूरज तो गहलोत का तप रहा था। बावजूद इसके सत्ता की ताजपोशी का पहाड़ा गहलोत और परसराम मदेरणा के बीच पायलट सरीखी बदमिजाज़ी के मंज़र में डूबा हुआ नहीं गुजरा। गहलोत मंत्रिमंडल ने परसराम मदेरणा को मंत्री पद से भी नवाज़ज़; लेकिन बदमिजाज़ी और अय्याशी उन्हें ले डूबी।

राजनीतिक विश्लेषकों की बेबाक राय का ककहरा समझें, तो ऐसी मिसाल शायद ही मिले, जिसने सियासत को अतीत और वर्तमान के संदर्भों में पूरी निष्ठा से पढ़ा। विश्लेषक राजनीति के प्रति रुझान रखने वालों के लिए गहलोत के सियासी रोज़नामचे को एक पाठ्यक्रम सरीखी मिसाल देते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि गहलोत ने राजनीति को ताक़त और अवसरों के केंद्रीकरण से बचाये रखा। उन्होंने चुनावी झोंक में कभी भी योजनाओं और वादों की चिंदियाँ नहीं उडऩे दीं।

दम्भ, दबदबे और अंतर्विरोधों से किनाराकशी करने वाले गहलोत राजपूत और जाट सरीखी परम्परागत राजनीति बिरादरी से नहीं आते, बल्कि माली समुदाय से आते हैं। विश्लेषकों का कहना है कि सियासी चातुर्य और कूटनीतिक कौशल की बात करें, तो पार्टी का कोई भी नेता गहलोत के पास नहीं ठहरता। जिस समय भाजपा के इशारों पर मध्य प्रदेश और राजस्थान में तख़्तापलट का खेल चल रहा था। सिर्फ़ गहलोत ही जादूगर साबित हुए, जिन्होंने सरकार के पायों को हिलने तक नहीं दिया। जबकि कमलनाथ एक ही झोंके में पतझड़ के पत्तों की तरफ़ सरकार का तियाँ-पाँचा करवा बैठे। ऐसा जादू क्योंकर हुआ? गहलोत के निकटतम सूत्रों की मानें, तो उन्होंने एक गीत गुनगुना दिया- ‘पत्ते कहीं खडक़े, हवा आयी, तो चौंके हम…।’

गहलोत को वक़्त रहते साज़िश का पता चल गया था। नतीजतन उनके आगे पायलट ग़ुब्बारे की तरह ही फूल-फटकर रह गये। सूत्रों की मानें, तो गहलोत हमेशा दो क़दम आगे की सोचते रहे; पहला-पायलट किस हद तक जा सकते हैं? पायलट की छलाँग को वक़्त रहते ही भाँप चुके थे। नतीजतन दलबदल रेसकोर्स के चाणक्य माने जाने वाले अमित शाह गहलोत का दाँव समझ ही नहीं पाये। लेकिन धुर्रे तो पायलट के ही उड़े।

तीसरी लहर और आँकड़ों में उलझी सरकारें, जनता में नहीं कोरोना का डर

कोरोना वायरस की तीसरी लहर के आने की बात हो रही है और सरकारें उससे निपटने की तैयारियों का दावा करने के साथ-साथ आँकड़ों में उलझी हुई हैं। लेकिन हक़ीक़त में कोरोना को लेकर लोगों में डर ख़त्म  होता जा रहा है। क्योंकि जनमानस के बीच यह बात फैल रही है कि कोरोना का कहर कम और अधिक बताना सियासी लोगों के हाथ में है। वहीं कुछ राज्य सरकारें भी कोरोना को मानने को तैयार नहीं हैं। एकाध राज्य को छोडक़र अन्य राज्य सरकारों ने बाज़ार, स्कूल खोल दिये हैं। इधर सरकार और स्वास्थ्य विभागों के दावे डराने वाले हैं कि कोरोना की तीसरी लहर अक्टूबर-नबंवर में आ सकती है। कोरोना को लेकर जानकारों और डॉक्टरों का कहना है कि कोरोना वायरस पर अभी शोध ही चल रहा है। इसलिए पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता कि कोरोना का कहर कम हो गया। इसका कहर कब भयानक रूप ले ले, किसी को नहीं पता।

कोरोना वायरस नये-नये रूपों में भारत में ही नहीं, बल्कि दुनिया के कई देशों में फैल रहा है। ऐसे में दुनिया भर में इससे निपटने के लिए नये-नये टीके र्इज़ाद हो रहे हैं। हालाँकि भारत में अभी तक पहले चरण का टीकाकरण भी पूरा नहीं हुआ है, जो सरकारी तंत्र में कमियों का स्पष्ट उदाहरण है। सरकारें अस्पतालों के नाम पर बहुमंज़िला इमारतें तो बना देती हैं। उन पर अच्छा-ख़ासा बजट भी ख़र्च करती हैं; लेकिन ज़रूरत के मुताबिक डॉक्टर, पैरामेडिकल कर्मचारी और नर्स की नियुक्ति नहीं करतीं, जिसके चलते मरीज़ों को उचित इलाज नहीं मिल पाता। उत्तर प्रदेश में फैले डेंगू और दूसरे बुख़ार से मरते बच्चे इसका ताज़ा उदाहरण है। कोरोना वायरस से भी अधिकतर मरीज़ों की मौतें चिकित्सा सुविधाओं के अभाव में हुईं। अप्रैल, 2020 में जब कोरोना वायरस की पहली लहर आयी थी, तब स्वास्थ्य व्यवस्था बुरी तरह चरमरायी हुई थी। यहाँ तक कोरोना की दूसरी लहर आने तक भी स्थिति अच्छी नहीं थी। कितने ही मरीज़ ऑक्सीजन, दवाओं और बेड की कमी और इनकी कालाबाज़ारी के कारण दम तोड़ गये। ज़रूरतमंदों को एक-एक सिलेंडर लाखों रुपये में लेने को मजबूर होना पड़ा। देश के महानगरों से लेकर ज़िला स्तर के अस्पतालों तक ऑक्सीजन का टोटा देखा गया। जिन अस्पतालों को बड़ा और बेहतरीन माना जाता था, उनमें तक मरीज़ों को इलाज के लिए जूझना पड़ा। सबसे हैरान करने वाली बात यह रही कि सरकारी अधिकारियों से लेकर सांसदों, विधायकों और मंत्रियों तक के परिजनों को इलाज और ऑक्सीजन की कमी के चलते इधर-उधर अस्पतालों में भटकना पड़ा।

मौज़ूदा हालात भले ही डरावने न हों, लेकिन पश्चिम बंगाल, ओडिशा, महाराष्ट्र, केरल, कर्नाटक और मिजोरम में कोरोना वायरस के मामलों में शनै:-शनै: बढ़ोतरी डर पैदा करती है। वहीं कोरोना-काल में निपाह जैसे मामले और घातक साबित हो सकते हैं। क्योंकि केरल और हैदराबाद में निपाह से एक-एक व्यक्ति की मौत हो चुकी है। उत्तर प्रदेश में भी डेंगू और दूसरे बुख़ार से सैकड़ों बच्चे मर गये। अगर दिल्ली-एनसीआर में डेंगू ने पैर पसारे, तो कोरोना महामारी में समस्या विकराल रूप ले सकती है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि जिन राज्यों की अबादी छ: करोड़ से लेकर 20 करोड़ तक हो और वहाँ पर कोरोना महामारी के केवल दो से आठ ही मामले ही आ रहे हों, तो ये आँकड़े जनता को गुमराह करने वाले हैं।

डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि टीकाकरण भी हो रहा है और आरटी-पीसीआर जाँच भी चल रही है। लेकिन व्यापक स्तर पर इन्हें करना होगा, अन्यथा अगर कोरोना की तीसरी सम्भावित लहर आ गयी, तो हम वहीं खड़े मिलेंगे, जहाँ अप्रैल-मई में खड़े थे। स्वास्थ्य सेवाएँ नाक़ाफी साबित होंगी।

अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) के कोविड-19 के एक्सपर्ट डॉ. आलोक कुमार कहते हैं कि कोरोना महामारी का दौर चल रहा है। अभी भी दुनिया के कई देशों में कोरोना महामारी काल बनकर खड़ी है। सार्स-सीओवी-2 का संक्रमण का डेल्टा रूप तेज़ी से लोगों पर हमला करता है। ऐसे में जिन राज्यों में डेल्टा वायरस के मामले आ रहे हैं, वहाँ अधिक सतर्क रहने की ज़रूरत है। मैक्स अस्पताल के कैथ लैब के डायरेक्टर डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना का कहर लगातार जारी है। ऐसे में हमें हृदय रोग सहित अन्य रोगों के प्रति ज़्यादा सावधानी बरतनी होगी। कोरोना की बूस्टर ख़ुराक को लेकर शोध किया जा रहा है। बूस्टर बनने पर हरी झण्डी के मिलते ही इसे लगाने की स्वकृति मिलेगी। लेकिन मौज़ूदा दौर में हमें बूस्टर आने तक कोरोना के टीकाकरण पर ज़ोर देना होगा। क्योंकि कोरोना-टीके से रोग प्रतिरोधक क्षमता बढ़ती है। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के चेयरमैन डॉ. आर.एन. कालरा का कहना है कि जहाँ-जहाँ कोरोना वायरस का कहर अभी भी जारी है, वहाँ वह दिन-ब-दिन बढ़ रहा है। महाराष्ट्र में स्थिति और भी नाज़ुक है। ऐसे में सरकार को तीसरी लहर को लेकर अपनी स्वास्थ्य सेवाएँ और मज़ूबत करनी होंगी, अन्यथा कोरोना महामारी और कहर ढा सकती है। कोरोना वायरस को लेकर सरकार की सख़्ती काग़ज़ों में है, न कि ज़मीनी स्तर पर। अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव उसी तरह है, जैसे कोरोना वायरस के पहली बार आने पर था।

एनीमिया पर जीत की ओर हिमाचल

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने प्रजनन आयु वर्ग के बच्चों, किशोरों और महिलाओं में रक्तक्षीणता (एनीमिया) के प्रसार को कम करने के उद्देश्य से एनीमिया मुक्त भारत (एबीएम) कार्यक्रम शुरू किया था। कुछ राज्यों ने इसमें सुधार दिखाया है; लेकिन हिमाचल प्रदेश सभी को पीछे छोड़ते हुए एनीमिया मामलों में बेहतर नतीजे दिखाने के मामले में तीसरे स्थान पर पहुँच गया है। अनिल मनोचा की रिपोर्ट :-

एनीमिया मुक्त भारत योजना का उद्देश्य सभी हितधारकों के लिए रणनीति को लागू करने के लिए छ: लक्षित लाभार्थियों, छ: हस्तक्षेपों और छ: संस्थागत तंत्रों सहित 63636 रणनीति के माध्यम से निवारक और उपचारात्मक तंत्र प्रदान करना है। एएमबी स्कोर कार्ड कार्यक्रम की प्रगति और प्रदर्शन के बारे में जानकारी प्रदान करने के लिए विकसित किया गया है और यह स्वास्थ्य प्रबन्धन सूचना प्रणाली (एचएमआईएस) और एएमबी डैशबोर्ड के डाटा पर आधारित है। सूचकांक की गणना चयनित लक्षित लाभार्थियों में आईएफए पूरकता के औसत कवरेज के रूप में की जाती है।

राज्य / संघ राज्य क्षेत्र को औसत कवरेज के अवरोही क्रम में स्थान दिया गया है, जिसमें सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन वाले राज्य / केंद्र शासित प्रदेश को पहले स्थान पर रखा गया है। यह स्कोरकार्ड यूनिसेफ के सहयोग से आर्थिक विकास संस्थान (आईईजी), दिल्ली द्वारा तैयार किया गया है। यह कार्यक्रम अभी भी अपने प्रारम्भिक चरण में है और विशेष रूप से महिलाओं, बच्चों और किशोरों में एनीमिया के प्रसार को कम करने की दिशा में काम कर रहा है। लेकिन जिस तरह से पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश ने प्रदर्शन किया है, उससे पता चलता है कि इसने अन्य राज्यों से बेहतर प्रदर्शन किया है।

हिमाचल प्रदेश एनीमिया मुक्त भारत सूचकांक 2020-21 राष्ट्रीय सूचकांक (रैंकिंग) में 57.1 की गणना (स्कोर) के साथ तीसरे स्थान पर पहुँच गया है। मध्य प्रदेश 64.1 के स्कोर के साथ पहले स्थान पर है और उसके बाद ओडिशा 59.3 के स्कोर के साथ दूसरे स्थान पर है। एनीमिया की व्यापकता में गिरावट में तेज़ी लाने और 6-9 महीने के बच्चों और 15-49 वर्ष की प्रजनन आयु की महिलाओं में एनीमिया के प्रसार को प्रति वर्ष तीन फ़ीसदी अंक कम करने के लिए ‘पोषण अभियान’ का लक्ष्य का लक्ष्य प्राप्त करने के लिए कार्यक्रम को अच्छी सफलता मिली है।

हिमाचल प्रदेश एनीमिया में लगातार गिरावट का रुझान दिख रहा है, जो एनीमिया मुक्त भारत (एएमबी) सूचकांक, 2020-2021 राष्ट्रीय सूचकांक से स्पष्ट है। राज्य ने रेटिंग के अनुसार, 57.1 के स्कोर के साथ तीसरा स्थान हासिल किया है। यह भी ध्यान देने योग्य है कि इस स्कोर कार्ड पर हिमाचल प्रदेश वर्ष 2018-2019 में 18वें स्थान पर था; लेकिन सरकार के लगातार प्रयासों से 2020-21 एएमबी इंडेक्स में यह सूचकांक तीन हो गया है।

राज्य नेतृत्व ने महसूस किया कि एनीमिया लिंग, आयु और भूगोल के बावजूद देश भर में उच्च प्रसार के साथ एक प्रमुख सार्वजनिक स्वास्थ्य मुद्दा बना हुआ है। भारत आज एनीमिया के मामले में एक गम्भीर सार्वजनिक स्वास्थ्य चिन्ता की स्थिति वाले देशों में एक है। भारत में क़रीब 50 फ़ीसदी गर्भवती महिलाएँ, पाँच साल से कम उम्र के 59 फ़ीसदी बच्चे, 54 फ़ीसदी किशोर लड़कियाँ और 53 फ़ीसदी ग़ैर-गर्भवती ग़ैर-स्तनपान कराने वाली महिलाएँ एनीमिक हैं।

गर्भावस्था के दौरान एनीमिया प्रसवोत्तर रक्तस्राव, न्यूरल ट्यूब दोष, जन्म के समय कम वजन, समय से पहले जन्म, मृत जन्म और मातृ मृत्यु से जुड़ा हुआ है। एनीमिया से जुड़ी रुग्णता और मृत्यु दर जोखिम इस सार्वजनिक स्वास्थ्य समस्या के समाधान के लिए एक प्रभावी रणनीति तैयार करने की तत्काल आवश्यकता है। एनीमिया की व्यापकता में गिरावट से मातृ और शिशु जीवित रहने की दर में सुधार और अन्य जनसंख्या समूहों के लिए बेहतर स्वास्थ्य परिणामों में योगदान होगा।

राज्य सरकार ने संचार के विभिन्न माध्यमों का उपयोग करते हुए आपूर्ति शृंखला में सुधार, लक्षित निगरानी और निरंतर सामाजिक लामबंदी पर ज़ोर दिया। राज्य द्वारा स्कूल जाने वाले बच्चों को नियमित रूप से कृमि मुक्त करने के साथ, मृदा संचरित कृमि का प्रसार तीन वर्षों की छोटी अवधि में 29 फ़ीसदी से घटकर 0.3 फ़ीसदी हो गया। साल भर के गहन व्यवहार परिवर्तन संचार अभियान, एनीमिया के परीक्षण और देखभाल उपचार के बिन्दु और सरकार द्वारा वित्त पोषित स्वास्थ्य कार्यक्रमों में आयरन और फोलिक एसिड युक्त खाद्य पदार्थों के अनिवार्य प्रावधान से एनीमिया के ग़ैर-पोषक कारणों को सम्बोधित करने में भी मदद मिली। बहु आयामी रणनीतियाँ, जिसमें शामिल हैं, स्कूल जाने वाले बच्चों को रोगनिरोधी आयरन और फोलिक एसिड पूरकता प्रदान करना और वर्ष भर के व्यवहार परिवर्तन संचार अभियान को तेज़ करने के अलावा; रक्ताल्पता की जाँच और प्वाइंट ऑफ केयर उपचार से वांछित परिणाम प्राप्त हुए।

यह कैसी स्मार्ट सिटी है?

स्मार्ट सिटी बनने की बात जब लोगों के कानों में पड़ी थी, तो देश के सभी शहरों के लोगों के चेहरे पर रौनक़ तो आ ही गयी थी। कुछ लोगों ने स्विटजरलैंड, इंग्लैंड, हॉन्गकॉन्ग जैसी व्यवस्था की कल्पना भी भारत में बनने वाली स्मार्ट सिटी को लेकर की होगी। लेकिन जब बरेली के स्मार्ट सिटी बनने का नंबर आया, तो छोटी छोटी, बड़ी बड़ी पचासों परेशानियों से जूझते बरेली शहर के लोग परेशान दिखायी देने लगे। यहाँ यात्री हवाई अड्डा बनने से लेकर अन्य कई सुविधाएँ भले ही इस शहर के विकास में चार चांद लगा रहे हैं, लेकिन कई ऐसे विनाशकारी काम भी हो रहे हैं, जो काफ़ी दु:खदायी साबित हो रहे हैं।

दरअसल सरकारी मशीनरी जब काम करती है, तो विकास के साथ-साथ विनाश भी करती है। बरेली शहर में नया बस अड्डा बनने की मुहिम में भी यही हुआ। यहाँ सैकड़ों हरे-भरे पेड़ों की बलि बड़ी आसानी से दे दी गयी। जबकि राज्य में क़ानून यह लागू है कि अगर कोई किसान या दूसरा आम आदमी एक भी पेड़ काटता है, तो उसे ज़ुर्माना तो भरना ही पड़ेगा, सज़ा भी हो सकती है। ताज़ूब की बात यह है कि यह क़ानून राज्य के आम लोगों के लिए ही लागू होता दिखता है, लकड़ी के सौदागरों और तस्करों पर कोई क़ानून काम नहीं करता। कैसे लागू हो? जब सरकार ही बिना सोचे हजारों पेड़ों की बलि देने से नहीं चूकती।

किताबों में पढ़ाया जाता है कि वृक्ष हमारे मित्र हैं। हम सबको पौधरोपण करना चाहिए। लेकिन हक़ीक़त में शहर में ही नहीं, ज़िले के गाँव-देहात में भी पेड़ों की संख्या बहुत तेज़ी से घट रही है। बरेली में कटे सैकड़ों पेड़ों के बदले हो रहे विकास के ख़िलाफ़ बहुत लोग सडक़ों पर उतरे, लेकिन प्रशासन पर कोई असर नहीं हुआ। पहले जब किसी नगर को बसाया जाता था, तो उसमें पेड़-पौधों को हटाने से परहेज़ किया जाता था, लोग पेड़ लगाते भी थे। लेकिन अब यह ज़िम्मेदारी केवल किसानों की रह गयी है और एकाध पौधा लगाने का चलन नेता, अधिकारी, समाजसेवी तो फोटो खिंचाने का काम ही करते हैं। अब तो ताक़तवर लोग अपने फ़ायदे के लिए रातोंरात जंगल के जंगल स्वाहा कर देते हैं और कोई हंगामा भी नहीं होता।

कई बार शहर की शक्ल में खड़े कंकरीट के जंगलों को देखकर लगता है कि वह दिन दूर नहीं, जब हमें ऑक्सीजन के सिलेंडर घरों में रखने पड़ेंगे। यह सब शहरों में बड़ी संख्या में काटे जा रहे पेड़ों के चलते होगा। अब हम हरियाली के लिए घरों में गमले सजाने में विश्वास करते हैं, पौधे लगाने में नहीं। गमलों से उतनी मात्रा में ऑक्सीजन तो नहीं मिल सकती, जितनी मात्रा में पेड़ दे सकते हैं। यह वैसे ही है, जैसे भैंस बेचकर डिब्बाबन्द दूध पीकर यह कहते हुए ख़ुश होना कि अब गोबर नहीं होगा। पेड़-पौधे जीवन के लिए भोजन-पानी से पहले और ज़्यादा ज़रूरी हैं। क्योंकि साँस लेने के लिए पेड़ ही ऑक्सीजन दे सकते हैं। अब विकास के लिए ख़ाली मैदानों का उपयोग नहीं किया जाता, उनका उपयोग पार्किंग, क्रिकेट और दूसरी सामाजित गतिविधियों के लिए किया जाता है। इन गतिविधियों के चलते उनकी हरियाली ख़त्म हो जाती है और वे धूल के मैदान में तब्दील हो जाते हैं। गली से लेकर हाईवे तक की राह खड़े पेड़ों पर आरियाँ चलाकर ही निकलती है। कोई नहीं सोचता कि जीवन साँस देने वाले पेड़ों के साथ इतनी निर्दयता क्यों? जबकि कोई भी लोगों द्वारा सडक़ तक क़ब्ज़ायी ज़मीनों को ख़ाली नहीं कराता और न रास्ते में खड़े खम्भों, अतिक्रमण और धार्मिक स्थलों को हटाता है। लेकिन कृत्रिम कार्यों के लिए प्राकृतिक सम्पदा को तहस-नहस करने से न सरकार चूकती है और न प्रशासन इसमें कोताही बरतता है। बरेली में बस अड्डा दूसरी जगह अगर ले ही जाना है, तो इसके लिए बरसों से खड़े हरे-भरे पेड़ों की बलि देने की ही क्या ज़रूरत थी? इस पर प्रशासन को सोचना चाहिए। वैसे प्रशासन क्या सोचेगा इस बारे में, उसने तो 789 पेड़ों के बदले नये पेड़ लगाने की भी नहीं सोची।

सेंट्रल जेल की ज़मीन पर सैकड़ों पेड़ों को हटाकर वहाँ पर बस अड्डा स्थानांतरित किया जाना है। जबकि इस बस अड्डे को यहीं पर पीछे की और वहाँ स्थानांतरित किया जा सकता था, जहाँ पेड़ों की तादाद न की बराबर है। वहाँ पड़ी ख़ाली ज़मीन पर्याप्त होती बस अड्डे के लिए। इसी तरह रोड चौड़ीकरण के नाम पर ईंट पजाया चौराहे से लेकर स्टेडियम और डेलापीर तक न जाने कितने ऐसे पेड़ों को काट डाला गया। यह कैसी स्मार्ट सिटी है कि हरियाली को ही खाए जा रही है। इससे तो अच्छा पहले वाला शहर था, जहाँ भले ही रोडवेज की बसें शहर के बीचोंबीच आकर अपने अड्डे पर खड़ी होती थीं, लेकिन शहर के चारों ओर हरियाली का साम्राज्य था। शहर में भी पेड़ों की संख्या अच्छी-ख़ासी थी, जो धीरे-धीरे मकानों की संख्या बढ़ते-बढ़ते विलुप्त होते गये। आँधी-तू$फान आने पर जब एक भी पेड़ गिरता है, तो एक पेड़ ही नहीं धराशायी होता, बल्कि सैकड़ों पक्षियों के ठौर-ठिकाने भी ज़मींदोज़ हो जाते हैं। साँसों के लिए ज़रूरी ऑक्सीजन की सम्भावना कम हो जाती है। कितने ही जीव-जन्तु मर जाते हैं। यहाँ तो प्रशासन ने एक-दो पेड़ नहीं, पूरा-का-पूरा जंगल उजाड़ दिया।

सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक, पिछले दशकों में लाखों पौधे रोपे ज सरकारी रजिस्टरों के मुताबिक चुके हैं, लेकिन ज़मीन पर इसका कोई लेखा-जोखा मिलना मुश्किल है। वैसे भी सरकारी पौधरोपण की हक़ीक़त किसे नहीं पता? पौधरोपण और वन महोत्सव हमारे देश की प्रादेशिक सरकारों के बहुत बड़े वार्षिकोत्सव हैं, जिनके द्वारा पेड़ों की रक्षा का दम्भ भरा जाता है। लेकिन सरकार और प्रशासन का ज़मीन पर का कितना दिखता है, इस पर उन्हें विचार करने की ज़रूरत है। ऑक्सीजन के प्लांट लगवाने वाले लोग ऑक्सीजन देने वाले पेड़ों की जड़ें काटने पर क्यों तुले हुए हैं? जनता के स्वास्थ्य की चिन्ता का दावा करने वाले ही जनता को बीमार करने पर तुले हैं। इन लोगों के पास तो बड़े-बड़े बंगले हैं, जहाँ उनके अन्दर ही बीसियों पेड़, गमलों में सैकड़ों पौधे और फुलवारी लगी होती है। ऐसे में वे लोग क्या करें, जिन्हें साँस लेने के लिए उनके पूर्वजों से विरासत में मिले फलों के पेड़ों और स्वत: उगी वनस्पतियों पर ही निर्भर रहना पड़ता है। ऐसी स्मार्ट सिटी किसे चाहिए, जिसमें साँस भी कोई न ले सके? बरेली के बस अड्डे को स्थानांतरित करने के लिए एक झटके में बीसियों प्रजातियों के 789 पेड़ बिना सोचे काट दिये गये। इसमें कितने ही जीवों की मौत हो गयी, किसी ने नहीं सोचा। भारतीय दण्ड संहिता के अनुसार, इस अशोभनीय और ग़ैर-क़ानूनी कार्य के एवज़ में विधिवत् हत्या का मामला बनता है। हमारे धर्मशास्त्र भी इस तरह के उजाड़ की तो दूर की बात, हरे पेड़ों तक को किसी तरह के नुक़सान तक की इजाज़त नहीं देते। चिडिय़ाघर, अप्पू घर बनाने से काम नहीं चलेगा। जीवों के लिए जंगल ही बेहतर होते हैं। जंगलों और आबादी में पेड़-पौधों के होने से ही लोग ज़िन्दा हैं।

कुछ दिन पहले डोहरा लालपुर वाली सडक़ के फोरलेन के नाम पर किये जा रहे चौड़ीकरण के लिए बीडीए और वन विभाग ने मिलकर पचासों हरे पेड़ों को काट गिराया। जब इसका ज़ोर-शोर से विरोध हुआ, तो ज़िलाधिकारी महोदय की नींद टूटी और उन्होंने इन पेड़ों का कटान बन्द करा दिया। डोहरा लालपुर सडक़ के चौड़ीकरण में आ रहे पेड़ों को बचाने के लिए उन्होंने ट्रांस लोकेट की योजना अपनाने की बात कही है। बीडीए और वन विभाग के अधिकारी अब ट्रांस लोकेट की प्रक्रिया के लिए आवश्यक औपचारिकताएँ पूरी कर रहे हैं। ज़िलाधिकारी ने इस सडक़ पर हो रहे पेड़ों के कटान को तो रुकवा दिया; लेकिन जो पेड़ कट गये, उनकी भरपाई के लिए कोई योजना नहीं बनायी। इसके लिए उनसे ईमेल के ज़रिये बरेली में सैकड़ों पेड़ों की बलि ले लेने के बारे में जब पूछा, तो उनका भी कोई जवाब नहीं आया। दु:ख इस बात का होता है कि जिस वन विभाग को बनाया ही पेड़ों की रक्षा के लिए गया है, वही हरे पेड़ों का दुश्मन बना हुआ है। वन विभाग के अधिकारी पेड़ों की उपयोगिता को समझे बिना ही हरे पेड़ों को काटने की अनुमति देते हैं। इस बारे में एक वन विभागकर्मी ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि वन विभाग के अधिकारी अपने वेतन से कई गुना पैसा हरे पेड़ों को चुपचाप कटवाकर कमाते हैं। ऐसा सब अधिकारी नहीं करते; लेकिन जो करते हैं, उन्हें सम्मान भी ज़्यादा मिलता है। पेड़ों को न काटने देने वालों के ख़िलाफ़ सियासी भँवें हमेशा तनी रहती हैं और उनके तबादले जंगलों में कर दिये जाते हैं। जंगलों के साथ वहशीपन और रिश्वतखोरी या दबाव के चलते पेड़ कटने की इस स्थिति से कब निजात मिलेगी? यह कहना मुश्किल है। लेकिन यह तय है कि इसका परिणाम अंतत: इंसानों की ही भुगतना है।