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गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन

रूपाणी के रहते नहीं थी भाजपा को दोबारा सत्ता में लौटने की उम्मीद

जाति आधारित राजनीति न करने का भाजपा का नारा गुजरात में तब ढकोसला साबित हो गया, जब राज्य के ताक़तवर समुदाय पटेल को साधने के लिए भाजपा ने गुजरात में विजय रूपाणी से मुख्यमंत्री की कुर्सी लेकर पहली बार के विधायक भूपेंद्र रजनीकांत पटेल को कुर्सी थमा दी। कहने को उन्हें विधायक दल ने नेता चुना, लेकिन ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, उनका चयन बाक़ायदा आलाकमान ने राज्य के जातिगत समीकरणों को ध्यान में रखते हुए किया। रूपाणी को हटाने का एक और बड़ा कारण यह रहा कि भाजपा के आंतरिक सर्वे उनके ख़िलाफ़ थे। यानी भाजपा उनका चेहरा लेकर चुनाव में जाती, तो हार का बड़ा ख़तरा उसके सामने था।

वैसे तो गुजरात को लेकर भाजपा में यही कहा जाता है कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही वहाँ पार्टी का असली चेहरा होते हैं; लेकिन पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा के लिए नतीजे चिन्ता भरे रहे थे और मुश्किल से उसने बहुमत जुटाया था। कोरोना प्रबन्धन में विजय रूपाणी नाकाम साबित हुए थे और गुजरात में जनता उनसे बहुत नाराज़ थी। जानकारी के मुताबिक, भाजपा के अपने सर्वे में जब यह बात सामने आयी, तो पार्टी ने उच्च स्तर पर इसे लेकर मंथन किया और उन्हें बदलने का फ़ैसला किया गया।

इसके अलावा भाजपा आलाकमान को यह भी इनपुट्स थे कि पटेल समुदाय भाजपा से नाराज़ है। ऐसे में मंथन के बाद भूपेंद्र पटेल को मुख्यमंत्री बनाने का फ़ैसला किया गया, जो भाजपा में पहली बार विधायक बने हैं। चूँकि उनके साथ कोई विवाद नहीं था, मोदी और शाह ने उनके नाम पर मुहर लगा दी। यह माना जाता है कि आरएसएस प्रमुख मोहन भागवत कुछ समय पहले जब गुजरात के दौरे पर आये थे, तभी यह लगने लगा था कि विजय रूपाणी के मुख्यमंत्री के रूप में दिन पूरे हो गये हैं।

जानकारी के मुताबिक, गुजरात को लेकर भाजपा आलाकमान ने पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल से भी सलाह की थी। माना जाता है कि यह आनंदी ही थीं, जिन्होंने भूपेंद्र रजनीकांत पटेल का नाम मोदी-शाह को सुझाया था। हालाँकि उनसे कहीं वरिष्ठ विधायक भाजपा के पास थे; लेकिन उनका चयन किया गया। भूपेंद्र का चयन मीडिया के लिए भी हैरानी वाला रहा; क्योंकि उनके नाम की कोई चर्चा नहीं थी। लेकिन भाजपा ने वहीं किया, जो वह कुछ और राज्यों में कर रही थी- यानी एकदम ‘अनभ्यस्त’ (ऑफबीट) चेहरा। भाजपा की राजनीति का यह नया तरीक़ा है।

पटेल का मंत्री के रूप में कोई अनुभव नहीं रहा है। लिहाज़ा उन्हें अपनी पारी की एकदम नयी शुरुआत करनी है। यह तो तय है कि गुजरात भाजपा में कोई वरिष्ठ नेता उनका विरोध करने की हिम्मत नहीं कर पाएगा, भले भीतर-ही-भीतर मुख्यमंत्री न बन पाने किये कारण कसमसा रहा हो। गुजरात पार्टी के दो सबसे ताक़तवरों- मोदी और शाह का गृह राज्य है। ऊपर से भूपेंद्र हैं भी इन दोनों की पसन्द। पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल का भी उन्हें समर्थन है। हालाँकि यह भी सच है कि ख़ुद आनंदी का कभी प्रदेश भाजपा में विरोध रहा है। पटेल अब उत्तर प्रदेश की राज्यपाल हैं।

जहाँ तक राजनीतिक अनुभव की बात है, भूपेंद्र पटेल ने नगर पालिका स्तर के नेता से सफर तय किया था। पटेल सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में घाटलोडिया सीट से पहली बार चुनाव लड़े थे और जीते थे। घाटलोडिया सीट से उनसे पहले आनंदी बेन पटेल ही विधायक थीं। उनका नाम तब इसलिए चर्चा में आया था, क्योंकि उन्होंने चुनाव में अपने प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के शशिकांत पटेल को एक लाख से ज़्यादा वोटों से हराया था। यह उस चुनाव में किसी विधायक की सबसे बड़े अन्तर की जीत थी। हालाँकि उसके बाद गुजरात की राजनीति में उनके नाम का कोई विशेष उल्लेख नहीं आया।

भूपेंद्र पटेल गुजरात के प्रभावशाली पाटीदार समुदाय से हैं। भाजपा ने पाटीदारों में अपने प्रति नाराज़गी कम करने के लिए ही भूपेंद्र पटेल पर दाँव खेला है। एक और बड़ा कारण यह है कि कांग्रेस ने पाटीदारों में सबसे ज़्यादा असर रखने वाले युवा नेता हार्दिक पटेल को गुजरात कांग्रेस का कार्यकारी अध्यक्ष बना दिया है। कांग्रेस ने पिछले विधानसभा चुनाव में भाजपा को लगभग चौंका ही दिया था। हालाँकि कुछ अन्तर से भाजपा बहुमत बनाने में सफल रही थी।

अब गुजरात में अगले साल दिसंबर में विधानसभा के चुनाव हैं। हो सकता है कि वहाँ समय से पहले चुनाव करवाने का दाँव भाजपा चले। उत्तर प्रदेश के चुनाव के साथ वहाँ भी चुनाव करवाये जा सकते हैं। ज़ाहिर है भूपेंद्र पटेल के कन्धों पर बड़ी ज़िम्मेदारी रहेगी। उन्हें वरिष्ठ नेताओं को साथ लेकर चलना होगा। कोरोना वायरस महामारी के दौरान गुजरात की रूपाणी सरकार को लेकर ढेरों सवाल खड़े हुए थे। हाईकोर्ट तक से सरकार को लताड़ पड़ी थी और कई मुद्दों पर जनता में सरकार के प्रति नाराज़गी रही है।

गुजरात में भाजपा की चिन्ता के बड़े कारण हैं। सबसे बड़ा तो यह कि मोदी-शाह का गृह राज्य होने के कारण यदि भाजपा हार जाती है, तो पूरे देश में पार्टी को लेकर बुरा सन्देश जाएगा, जो राजनीतिक रूप से नुक़सान करेगा। दूसरे पिछले हर चुनाव में भाजपा और उसकी सबसे बड़ी प्रतिद्वंद्वी कांग्रेस के बीच मतों का अन्तर लगातार घटा है।

भाजपा इस घटते अन्तर से चिन्ता में है और उसे लगता है कि यदि समय रहते चीज़ें नहीं सँभाली गयीं, तो चुनाव में लेने के देने भी पड़ सकते हैं।

उदाहरण के लिए सन् 2002 के विधानसभा चुनाव दोनों दलों को मिले मतों में 10.04 फ़ीसदी का अन्तर था। इसके पाँच साल बाद सन् 2007 में हुए विधानसभा चुनाव में यह अन्तर 9.49 फ़ीसदी रह गया। भाजपा की तमाम कोशिशों के बावजूद सन् 2012 के विधानसभा चुनाव में कांग्रेस ने इस अन्तर को घटाकर नौ फ़ीसदी कर दिया। पिछले (सन् 2017 के) विधानसभा चुनाव में तो दोनों दलों को मिलने वाले मतों का अन्तर 7.7 फ़ीसदी तक सिमट गया।

सन् 2017 के चुनाव में भाजपा के हिस्से 182 में से 99 सीटें आयी थीं; लेकिन कांग्रेस ने 22 साल के बाद पहली बार 77 सीटों का आँकड़ा छुआ। इस चुनाव में भाजपा को कुल मतों का 49.05 फ़ीसदी हासिल हुआ, जबकि कांग्रेस उससे कुछ ही पीछे रहकर 41.44 फ़ीसदी जनता के वोट लेने में सफल रही। यही नहीं, सन् 2019 के लोकसभा चुनाव के तुरन्त बाद राज्य की छ: सीटों पर हुए उपचुनाव में कांग्रेस ने तीन सीटें जीतकर भाजपा की बेचैनी बढ़ा दी। ऐसी स्थिति में नये मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल के लिए निश्चित ही अगले चुनाव से पहले यह बड़ी चुनौती सामने है।

 

“गुजरात के मुख्यमंत्री विजय रूपाणी को इसलिए हटाया गया है, क्योंकि राज्य सरकार कोरोना वायरस के दौरान जनता को राहत देने में विफल रही। यह लोगों का ध्यान हटाने और प्रधानमंत्री पर ध्यान केंद्रित करने के लिए भाजपा का चेहरा बचाने की क़वायद है, क्योंकि वह राज्य सरकार के प्रदर्शन के आधार पर चुनाव लडऩे का जोखिम नहीं उठा सकती है। कांग्रेस के पास जनता की नज़र में एक व्यवहार्य विकल्प बनने की चुनौती और अवसर है।”

                             भरत सिंह सोलंकी

पूर्व केंद्रीय मंत्री एवं कांग्रेस नेता

 

“प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी, भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा और गृह मंत्री अमित शाह का आभारी हूँ, जिन्होंने मुझ पर इतना भरोसा जताया। निवर्तमान मुख्यमंत्री विजय रूपाणी और उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल, गुजरात भाजपा अध्यक्ष सी.आर. पाटिल और अन्य नेताओं समेत गुजरात के नेतृत्व ने मुझ पर जो भरोसा जताया है, उसके लिए भी आभारी हूँ। मुख्यमंत्री के रूप में मेरा काम गुजरात को और ऊँचाई पर ले जाना होगा।”

भूपेंद्र पटेल

मुख्यमंत्री, गुजरात

सयुंक्त परिवारों के अस्तित्व पर मँडराता ख़तरा

भारत में आज भी एकल परिवार को सामाजिक मान्यता नहीं है। लेकिन आधुनिकता के चलते संयुक्त परिवारों का बिखरना जारी है। शहरों में यह सिलसिला तेज़ी से जारी है। हालाँकि देश में संयुक्त परिवारों की संख्या आज भी काफ़ी है। ग्रामीण व्यवस्था में आज भी अधिकतर परिवार संयुक्त रूप से बड़ी एकता और प्यार से रहते हैं। लेकिन नयी पीढ़ी में पाश्चात्य संस्कृति का प्रभाव भी तेज़ी से पड़ रहा है, जिसके कई कारण हैं।

भारत में अगर संयुक्त परिवार के बिखरने के इन कारणों पर अगर विचार किया जाए, तो उनके अस्तित्व पर मँडराते ख़तरे की सर्वाधिक सम्भावना रोज़गार पाने की आकांक्षा और दूसरों के लिए कुछ न करने की इच्छा, आधुनिकता की चमक-दमक, शहरों में रहने की इच्छा और मोबाइल फोन आदि सबसे ज़्यादा असरकारक कारण हैं।

बढ़ती जनसंख्या तथा घटते रोज़गार के कारण परिवार के सदस्यों को अपनी जीविका चलाने के लिए गाँव से शहर की ओर या छोटे शहर से बड़े शहरों को जाना पड़ता है और इसी कड़ी में विदेश जाने की आवश्यकता पड़ती है। गाँव में परम्परागत कारोबार या खेती-बाड़ी की अपनी सीमाएँ सीमित होती जा रही हैं। अत: हर परिवार को नये आर्थिक स्रोतों की तलाश करनी पड़ती है। युवाओं को जहाँ रोज़गार उपलब्ध होता है, वहीं उन्हें अपना घर बनाना और परिवार बसाना सुविधाजनक होता है। क्योंकि प्रत्येक व्यक्ति के लिए यह सम्भव नहीं होता कि वह नित्य रूप से अपने परिवार के मूल स्थान पर जा पाये। संयुक्त परिवार के टूटने का दूसरा महत्त्वपूर्ण कारण लगातार बढ़ता उपभोक्तावाद है। क्योंकि उपभोक्तावाद ने व्यक्ति को अधिक महत्त्वाकांक्षी बना दिया है। अधिक सुविधाएँ पाने की लालसा के कारण पारिवारिक सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है और स्वार्थ बढ़ता जा रहा है। अधिकतर लोग अब अपनी ख़ुशियाँ परिवार या परिजनों में नहीं, बल्कि आधुनिक सुख-साधनों में ढूँढते हैं। यही वजह है कि लोग अब अपनी ख़ुशियों के लिए मौक़ों की नहीं, बल्कि संसाधनों की तलाश करते हैं, जिसके चलते संयुक्त परिवार बिखरते जा रहे हैं।

पश्चिमी दुनिया के अधिकतर देशों में संयुक्त परिवार व्यवस्था समाप्ति के कगार पर है। उन्हीं की देखादेखी हमारे यहाँ के अमीर परिवारों के बाद अब कई मध्यम वर्गीय परिवार एकल परिवार की परम्परा को अपनाने लगे हैं। यह स्थिति इतनी गम्भीर होती जा रही है कि कई परिवारों में तो पति-पत्नी तक के पास साथ समय बिताने का समय नहीं है। इससे कुछ हो न हो, लेकिन बच्चों पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। यही वजह है कि आज संयुक्त परिवार की व्यवस्था सिर्फ़ ग्रामीण क्षेत्रों और कम पढ़े-लिखे लोगों में ही दिखायी पड़ती है। शिक्षित और शहरी लोगों में इस प्रकार की मिलजुलकर रहने की धारणा तेज़ी से विलुप्त होती जा रही है। भारत में इसका सबसे अधिक असर सनातन परिवार परम्परा के पतन के रूप में सामने आ रहा है। अगर हम अपने इतिहास को देखें, तो भारत में तमाम लड़ाइयाँ जीतने, सत्ता पर क़ाबिज़ होने और अपनी शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए संयुक्त परिवार व्यवस्था को उत्तम माना गया है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि आज दुनिया में इस्लाम धर्म की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था ही उसे लगातार शक्तिशाली होने में मददगार साबित हो रही है, जिसका ताज़ा उदाहरण अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के क़ब्ज़े के रूप में देखा जा सकता है।

दुनिया के मशहूर लेखक डेविड सेलबॉर्न ने अपनी किताब ‘दि लूजिंग बैटल विद इस्लाम’ लेखक ने किताब में साफ़ संकेत दिया है कि पश्चिमी दुनिया इस्लाम से हार रही है। लेखक ने हार के कई कारण गिनाये हैं, जिनमें इस्लाम की मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था को सबसे बड़ा कारण बताया है। पश्चिमी दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था तबाह हो चुकी है। आज अपने आपको पढ़े-लिखे और शिक्षित मानने वाले लोग शादी करना ही पसन्द नहीं करते। समलैंगिकता, अवैध सम्बन्ध, लिव इन रिलेशन (बिना शादी के या शादी से पहले महिला-पुरुष के साथ रहने) जैसी कुरीतियों के आम होने के कारण दुनिया में पारिवारिक व्यवस्था टूटने के कगार पर पहुँच चुकी है। दिन-ब-दिन ऐसे बच्चों की तादाद बढ़ती जा रही है, जिन्हें मालूम नहीं होता कि उनका पिता कौन है? ऐसे लोगों की संख्या भी बहुत तेज़ी से बढ़ रही है, जो अपने बूढ़े माँ-बाप को घर में नहीं रखना चाहते। देश में वृद्ध आश्रम (ओल्ड ऐज होम) की संख्या में तेज़ी से इज़ाफ़ा हो रहा है। इतने पर भी इन वृद्ध आश्रमों में नये बेसहारा बुज़ुर्गों को रखने की जगह कम पड़ रही है। इस बात की हैरानी होती है कि भारत में ब्रिटिश-काल में एक भी वृद्ध आश्रम नहीं था; लेकिन आज पूरे देश में हज़ारों वृद्ध आश्रम हैं। एक अनुमान के अनुसार, भारत में क़रीब सात करोड़ बुज़ुर्ग वृद्ध आश्रमों में रहने को मज़बूर हैं और क़रीब 32 फ़ीसदी बुज़ुर्ग घरों में प्रताडऩा तथा अनदेखी के शिकार हैं। माना जाता है कि आने वाले समय में यह संख्या बढ़ेगी।

पश्चिमी समाज में कुछ ऐसे सामाजिक परिवर्तन आ चुके हैं, जिससे पूरा पश्चिमी समाज तबाह होने के कगार पर पहुँच चुका है। अगर समय रहते संयुक्त टूटने के रिवाज़ को भारत में नहीं रोका गया, तो यहाँ भी यह स्थिति आ सकती है। आज देश के तमाम राजनीतिक दल परिवार को बचाने का वादा अपने चुनाव घोषणा-पत्र में करने लगे हैं। लेकिन सत्ता में आते ही यह दावे जुमलों में तब्दील हो जाते हैं।

विकसित देश ऑस्ट्रेलिया में तो ‘फैमिली फस्र्ट’ के नाम से एक सियासी पार्टी तक बना ली गयी है। पारिवारिक व्यवस्था को बचाना पश्चिमी देशों का सबसे बड़ा मुद्दा है। क्योंकि परिवार  नहीं बचा, तो समाज को भी देर-सवेर ध्वस्त होने की स्थिति में पहुँचना पड़ेगा। यही वजह है कि डेविड सेलबॉर्न और बिल वार्नर जैसे लेखक यह कहने पर मजबूर हो चुके हैं कि इस्लाम धर्म में मज़बूत पारिवारिक व्यवस्था की वजह से उससे देर-सवेर पश्चिम  हार जाएगा।

भारत में तेज़ी से हिन्दू संयुक्त परिवार परम्परा का पतन होना प्रारम्भ हो चुका है। ख़ून के पाँच क़रीबी रिश्ते समाप्त होने के कगार पर हैं। ताऊ, चाचा, बुआ, मामा, मौसी जैसे रिश्ते आने वाले समय में देखने सुनने को नहीं मिलने वाले हैं। एक बच्चा (सिंगल चाइल्ड) परिवार को अपनी तीसरी पीढ़ी यानी माँ-बाप, दादा-दादी बनने पर इन रिश्तों को बुरी तरह समाप्त करने की स्थिति पर प्रभावित करेगा। जिस दादा को मूल से अधिक ब्याज यानी बेटे से अधिक पोता प्यारा होता है, उसका मूलधन भी समाप्त हो जाएगा। इसके लिए वह स्वयं उत्तरदायी होगा।

इसलिए दम्पत्ति को एक बच्चा योजना के अतार्किक निर्णय पर गम्भीरता से विचार करना होगा। यह मैं नहीं, इस लिहाज़ से बेतरतीब घटती आबादी के आँकड़े बोल रहे हैं। यह विश्लेषण सरकारी आँकड़ों के अध्ययन से आ रहा है।

विचार कीजिए कि अगर आपने ऐसा किया, तो आने वाले समय में आपका पौत्र या प्रपौत्र इस संसार में अकेला खड़ा होगा; और जब उसे अपने रक्त के रिश्ते की आवश्यकता होगी, तो इस पूरे ब्रह्माण्ड में उसका अपना कोई नहीं होगा। यह अत्यंत सोचनीय विषय है। इससे न केवल हमारे बच्चों को एकाकी जीवन जीने को मजबूर होना पड़ेगा, बल्कि हमारी सनातन परिवार सभ्यता को ही नष्ट कर देगा। हम जो हिन्दू एकता की बात करते हैं, यह भी कम घातक नहीं है। क्योंकि भेदभाव की गहरी खाई इसके पीछे खोदी जा रही है, जिसके चलते वास्तव में सनातन सभ्यता, जो अब हिन्दू सभ्यता मान ली गयी है; समाप्त हो जाएगी। और इस सबके लिए हमारी वर्तमान पीढ़ी के वाहक उत्तरदायी होंगे।

संयुक्त परिवार के लाभ के विषय में विचार करने पर पता चलता है कि परिवार पर या परिवार के किसी सदस्य पर विपत्ति के समय अथवा किसी सदस्य गम्भीर रूप से बीमार होने पर पूरे परिवार के सहयोग से विपत्ति से आसानी से पार पाया जा सकता है। जीवन के सभी कष्ट सबके सहयोग से बिना किसी को विचलित किये दूर हो जाते हैं। अगर कभी आर्थिक संकट या रोज़गार चले जाने की समस्या उत्पन्न नहीं होती, तो भी सभी के सहयोग से उसे हल करना आसान होता है। इसके अलावा एक सदस्य की अनुपस्थिति में अन्य परिजन सहयोग दे देते हैं। संयुक्त परिवार में सभी सदस्य एक-दूसरे के आचार-व्यवहार पर निरंतर निगरानी रखते हैं, किसी की अवांछनीय गतिविधि पर अंकुश लगा रहता है, जिससे परिवार का हर एक सदस्य चरित्रवान बना रहता है। किसी समस्या के समय सभी परिजन एक-दूसरे का साथ देते हैं। साथ ही परिवार के हर सदस्य पर सामूहिक दबाव भी पड़ता है और कोई भी सदस्य असामाजिक कार्य नहीं कर पाता। गाँव या परिवार के बुज़ुर्गों के भय के कारण शराब, जुआ या अन्य किसी बुराई से भी बच्चे और युवा बचे रहते हैं। आज ज़रूरी है कि हम सब घर-परिवार में, रिश्तेदारों में, दोस्तों में, सम है कि हम विभिन्न सामाजिक आयोजनों और बैठकों में इस विषय पर बातचीत करें और अपनी सभ्यता, संस्कार तथा पीढिय़ों को बचाएँ।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

चामुर्थी घोड़ों की नस्ल को विलुप्त होने से बचाया

रंग लायीं हिमाचल सरकार की कोशिशें, ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ के नाम से मशहूर हैं चामुर्थी घोड़े

चीन की सीमा से लगते हिमाचल के बर्फ़ीले क़बाइली ज़िलों स्पीति और किन्नौर में चामुर्थी घोड़े सेना से लेकर व्यावसायिक इस्तेमाल के लिए आम लोगों तक की सबसे बड़ी ज़रूरत हैं। वहाँ इन्हें ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ कहा जाता है। इस नस्ल के घोड़ों की पहचान इनकी क्षमता और शक्ति के लिए है और इस नस्ल को भारतीय घोड़ों की छ: प्रमुख नस्लों में से एक माना जाता है, जो ताक़त और अधिक ऊँचाई वाले बर्फ़ से आच्छादित क्षेत्रों में अपने पाँव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है। दिलचस्प यह कि यह घोड़े इन बर्फ़ीली घाटियों में सिंधु घाटी (हड़प्पा) सभ्यता के समय से पाये जाते हैं। हालाँकि इनके विलुप्त होने का ख़तरा पैदा हो गया था, जिसके बाद हिमाचल सरकार ने इस नस्ल को बचाने के लिए विशेष कोशिशें कीं और उसे सफलता मिली है।

सरहदों पर भारतीय सेना के लिए युद्ध हथियार पहुँचाने वाले चामुर्थी घोड़ों का कोई विकल्प नहीं है। यदि हिमाचल सरकार ने प्रयास नहीं किये होते तो निश्चित ही इस नस्ल के घोड़े विलुप्त हो गये होते। दरअसल यह घोड़े बर्फ़ से आच्छांदित क्षेत्रों में अपने पाँव जमाने की क्षमता के लिए प्रसिद्ध है, जिस कारण से यह सेना के भी चहेते हैं। इन घोड़ों का उपयोग तिब्बत, लद्दाख़ और स्पीति के लोग युद्ध के समय और सामान ढोने के लिए करते रहे हैं। कुल्लू, लाहुल स्पीति और किन्नौर के अलावा पड़ोसी राज्यों में विभिन्न घरेलू और व्यावसायिक कार्यों के लिए व्यापक रूप से इनका उपयोग किया जाता रहा है।

विभिन्न श्रोतों से उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार, दुनिया भर में चामुर्थी घोड़ों की संख्या छ: हज़ार से कुछ ही ज़्यादा है। इनमें से क़रीब 4,000 हिमाचल में ही हैं। शिमला ज़िले के रामपुर में हर साल लगने वाले अंतर्राष्ट्रीय लवी मेले से पहले वहाँ के पाटबंगला मैदान में अश्व प्रदर्शनी लगती है, जिसमें विभिन्न नस्ल के घोड़े लाये जाते हैं। यह प्रदर्शनी हिमाचल सरकार का पशुपालन महकमा लगाता है। प्रदर्शनी के दौरान घोड़े के रहने-खाने की पूरी ज़िम्मेदारी विभाग ही ढोता है।

नवंबर के पहले हफ़्ते लगने वाली इस प्रदर्शनी का आयोजन किया जाता है। प्रदर्शनी की ख़ास बात यह है कि वहाँ विशेष रूप से लाहुल स्पीति की पिन घाटी और अन्य ऊपरी क्षेत्रों के चामुर्थी घोड़े लाये जाते हैं। कोविड के कारण पिछले साल यह प्रदर्शनी नहीं लगी थी और इस बार भी सम्भावना नहीं है।

चामुर्थी घोड़ों को यहाँ की भौगोलिक स्थिति देखते बहुत उपयोगी माना जाता है। बर्फ़ीले पहाड़ों पर इनके तेज़ी से चढऩे की क्षमता के कारण ही इन्हें ‘शीत मरुस्थल का जहाज़’ कहा जाता है। साथ लगते उत्तराखण्ड से तो लोग एक साथ 10-20 घोड़े ख़रीद लेते हैं और उन्हें अपने राज्य में जाकर बेचते हैं या उन्हें सामान धोने के लिए किराये पर देते हैं। लवी मेले में हर साल 80 से 100 तक चामुर्थी घोड़ों का व्यापार हो जाता है।

चामुर्थी घोड़े को शीत मरुस्थल से लेकर बर्फ़ीले पहाड़ तक सवारी के लिए आरामदायक और सुरक्षित पशु माना जाता है। सँकरे रास्तों पर भी चामुर्थी की गति देखने लायक होती है। साल के ज़्यादातर समय बर्फ़ से ढके रहने वाले पहाड़ों और नदी-नालों वाले पैदल रास्तों पर यह घोड़ा किसी विशेषज्ञ से कम नहीं। ऊँचाई पर पशुपालक नदी-नाले पार करने के लिए इन्हीं घोड़ों का सहारा लेते हैं।

विशेषज्ञों के मुताबिक, चामुर्थी घोड़े में नदी-नाले के ऊपर बर्फ़ की परत की मोटाई समझने की अद्भुत क्षमता होती है और वह पहले ही इसका अनुमान लगा लेता है। इससे इस पर सवारी करने वाला सुरक्षित रहता है। चामुर्थी की ऊँचाई 12-14 हाथ तक होती है और यह माइनस 30 डिग्री तक की भीषण ठण्ड में काम कर सकता है। सबसे बड़ी बात यह है कि इसमें लम्बे समय तक कुछ न खाने के बावजूद काम करने की क्षमता होती है।

कैसे बचायी प्रजाति

हिमाचल के पशुपालन विभाग ने इन बर्फ़ानी घोड़ों को बचाने और संरक्षित करने और पुन: अस्तित्व में लाने के उद्देश्य से सन् 2002 में स्पीति घाटी के लारी में एक घोड़ा प्रजनन केंद्र स्थापित किया। यह केंद्र्र स्पीति नदी से एक किलोमीटर की दूरी पर स्थापित किया गया है, जो राजसी गौरव और किसानों में समान रूप से लोकप्रिय घोड़ों की इस प्रतिभावान नस्ल के प्रजनन के लिए उपयोग किया जा रहा है।

इस प्रजनन केंद्र्र को तीन अलग-अलग इकाइयों में विभाजित किया गया है, जिसमें प्रत्येक इकाई में 20 घोड़ों को रखने की क्षमता और चार घोड़ों की क्षमता वाला एक स्टैलियन शेड है। इस केंद्र को 82 बीघा और 12 बिस्वा भूमि पर चलाया जा रहा है। विभाग इस लुप्तप्राय प्रजाति के लिए स्थानीय गाँव की भूमि का उपयोग चरागाह के रूप में भी करता है।

‘तहलका’ से बातचीत में हिमाचल के पशुपालन मंत्री वीरेंद्र कँवर ने बताया कि इस प्रजनन केंद्र की स्थापना और कई साल तक चलाये प्रजनन कार्यक्रमों के उपरांत इस शक्तिशाली विरासतीय नस्ल, जो कभी विलुप्त होने के कगार पर थी, की संख्या में निरंतर वृद्धि हुई है। वर्तमान में हिमाचल प्रदेश में इनकी आबादी लगभग 4,000 हो गयी है।

कँवर के मुताबिक, लारी फार्म में इस प्रजाति के संरक्षण के प्रयासों के लिए आवश्यक दवाओं, मशीनों और अन्य बुनियादी सुविधाओं के अलावा पशुपालन विभाग के लगभग 25 पशु चिकित्सक और सहायक कर्मचारी अपनी सेवाएँ दे रहे हैं। इस केंद्र में इस नस्ल के लगभग 67 घोड़ों को पाला जा रहा है, जिनमें 23 स्टैलियन और 44 ब्रूडमेयर्स दोनों युवा और वयस्क शामिल हैं। प्रत्येक वर्ष पैदा होने वाले अधिकांश घोड़ों को पशुपालन विभाग नीलामी के माध्यम से स्थानीय ख़रीदारों को बेचता है। चार-पाँच साल की उम्र के एक वयस्क घोड़े का औसत बाज़ार मूल्य इस समय 35,000 से 40,000 रुपये तक है। वैसे इन घोड़ों की सबसे अधिक लागत हाल के वर्षों में 75,000 रुपये तक दर्ज की गयी है।

लारी फार्म से जुड़े पशु चिकित्सकों के मुताबिक,  जनसंख्या, जलवायु और चरागाह के आधार पर एक वर्ष में औसतन अधिकतम 15 मादाएँ गर्भधारण करती हैं और गर्भाधान के 11-12 महीने बाद बच्चा जन्म लेता है। एक वर्ष की आयु तक उसे दूध पिलाया जाता है। प्रजनन भी पशु चिकित्सा विशेषज्ञों की निगरानी में करवाया जाता है। जन्म के एक महीने के बाद घोड़े के बच्चे को पंजीकृत किया जाता है और छ: महीने की आयु में उसे दूसरे शेड में स्थानांतरित कर दिया जाता है। एक वर्ष का होने पर ही इसे बेचा जाता है। इसके अतिरिक्त विभाग द्वारा वृद्ध अथवा अधिक संख्या होने पर चामुर्थी मादाओं को बेच दिया जाता है। इसके अलावा घोड़े की अन्य नस्लों की देख-रेख, पालन-पोषण और उनका प्राचीन महत्त्व पुन: स्थापित करने के लिए विभाग इस केंद्र पर हर साल क़रीब 35 लाख रुपये ख़र्च करता है।

पशुपालन मंत्री वीरेंद्र कँवर के मुताबिक, चामुर्थी नस्ल के स्टैलियन घोड़ों के संरक्षण के मामले में हिमाचल का स्टैलियन चार्ट में अग्रणी स्थान है और निरन्तर गुणात्मक घोड़ों के उत्पादन में सफलता हासिल की है। चामुर्थी प्रजाति की लोकप्रियता का अंदाज़ा अंतर्राष्ट्रीय लवी और लदारचा मेलों के अलावा समय-समय पर लगने वाली प्रदर्शनियों के दौरान मिले पुरस्कारों से हो जाती है।

 

तिब्बत से जुड़ा है इतिहास

चामुर्थी नस्ल के घोड़ों के वंशज तिब्बत सीमा की ऊँचाइयों पर पाये जाने वाले जंगली घोड़े माने जाते हैं। इस नस्ल का उद्गम स्थल तिब्बत के छुर्मूत को माना जाता है। कहा जाता है कि इसी कारण इस नस्ल के घोड़ों को चामुर्थी नाम मिला। इस नस्ल के घोड़े तिब्बत की पिन घाटी से सटे इलाक़े और लाहुल स्पीति ज़िले के काजा उप मण्डल की पिन घाटी में पाये जाते हैं।

चामुर्थी नस्ल को दुनिया की घोड़ों की मान्यता प्राप्त चार नस्लों में एक माना जाता है। इस नस्ल के घोड़े मज़बूत होने के कारण बर्फ़ीले पहाड़ों के लिए बहुत लाभदायक माने जाते हैं। सबसे बड़ी बात यह है कि इस नस्ल के घोड़ों में बहुत कम ही बीमारियाँ देखी जाती हैं। हिमाचल के किन्नौर ज़िले के पूह उप मण्डल से भी व्यापारी तिब्बत जाकर चमुर्थी घोड़े लाते रहे हैं; लेकिन वहाँ माँग अधिक होने के कारण घोड़ों का व्यापार सिरे नहीं चढ़ रहा है। कहा जाता है कि पिन घाटी में नसबंदी किये घोड़े बेचे जाते हैं। क्योंकि वहाँ के लोगों की मान्यता है कि ऐसा नहीं करने से स्थानीय देवता नाराज़ होते हैं। हालाँकि पशु विशेषज्ञों के मुताबिक, इससे इस नस्ल के विस्तार की कोशिशों को नुक़सान पहुँचता है।

हर साल पिन घाटी में चामुर्थी नस्ल के घोड़े पाये जाने वाले इलाक़ों में अप्रैल-मई में हर गाँव में नस्ल विस्तार वाला नया घोड़ा चुना जाता है। लोग अपने नये जन्मे घोड़ों को एक जगह इकट्ठा करके उनमें से सबसे बढिय़ा घोड़े का चयन किया जाता है। हालाँकि बाक़ी घोड़ों की घरेलू तरीक़े से नसबंदी कर दी जाती है।

लोकतंत्र का मन्दिर या धर्मस्थल!

झारखण्ड विधानसभा में  नमाज़ के लिए कमरा देने के बाद मन्दिर बनाने के लिए जगह देने की उठी माँग

झारखण्ड विधानसभा के एक छोटे से निर्णय ने पूरे प्रदेश का सियासी पारा चढ़ा दिया है। सत्ता पक्ष और विपक्ष आमने-सामने हैं। गठबन्धन में शामिल दल झामुमो, कांग्रेस और राजद विधानसभा के निर्णय को उचित ठहरा रहे हैं और विपक्ष पर निशाना भी साध रहे हैं।

मुख्य विपक्षी पार्टी भाजपा सदन से सडक़ तक आन्दोलन पर उतरी है। इससे विधानसभा की मानसून सत्र की पाँच दिनों की कार्यवाही लगातार बाधित रही। कौन ग़लत है, कौन सही? यह एक अलग बात है। लेकिन विधानसभा में जो हो रहा है, वह लोकतंत्र में किसी भी तरह सही नहीं है। प्रदेश में सत्ता पक्ष, विपक्ष और जनता के बीच एक सवाल उठ रहा कि झारखण्ड विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर या धर्मस्थल?

हालाँकि दोनों पक्षों का इस पर दृष्टिकोण अलग-अलग है। विपक्ष पर विधानसभा को धार्मिक अखाड़ा बनाने का आरोप सत्ता पक्ष लगा रहा है। वहीं सरकार पर तुष्टिकरण की राजनीति कर विधानसभा को एक ख़ास समुदाय की धर्मस्थली बनाने का आरोप विपक्ष लगा रहा है। झारखण्ड में गठबन्धन (झामुमो, कांग्रेस व राजद) की सरकार है और भाजपा विपक्ष में है। भाजपा विधायकों ने मानसून सत्र की कार्यवाही लगातार बाधित की। मानसून सत्र समाप्त हो गया। इस सत्र में प्रश्नकाल के लिए 388 प्रश्न आये थे। केवल नौ प्रश्नों का सदन में जवाब दिया जा सका। सरकार बहुमत में होने के कारण वित्त विधेयक समेत अन्य विधेयक बिना चर्चा के पारित करा ले गयी। गठबन्धन दल के सदस्यों ने विपक्ष के हंगामे को ग़लत बताया। मानसून सत्र में विपक्ष को जनता के जिन मुद्दों को उठना चाहिए था, वहाँ एक कमरे के आवंटन पर को लेकर सदन की कार्यवाही हर दिन ठप रही और हंगामे, धरने-प्रदर्शनों का दौर जारी है।

अध्यक्ष के प्रयास से सदन अगर थोड़ा-बहुत चला भी, तो इसी मुद्दे पर सियासत होती रही। विपक्षी भाजपा विधायक सदन के अन्दर जय श्रीराम के नारे लगाते रहे। हनुमान चालीसा का पाठ करते रहे। विधानसभा के प्रवेश द्वार पर ढोल, झाल, मंजीरा लेकर बैठे और भजन-कीर्तन करते रहे। इस मानसून सत्र में सरकार ने बहुमत में होने के कारण हो-हल्ला के बीच अपना काम तो निकाला ही, लेकिन जनता की बात नहीं उठ पायी। जनमुद्दों पर सार्थक तरीक़े से चर्चा करके उनके समाधान की राह नहीं निकल सकी।

हाँ,  नमाज़ के लिए आवंटित कमरे पर हो रहे हंगामे का फ़ौरी समाधान ज़रूर निकाल दिया गया। विधानसभा में सत्र के आख़िरी दिन झामुमो विधायक सरफ़राज़ अहमद ने  नमाज़ कक्ष को लेकर विधानसभा की समिति बनाने का सदन में आग्रह किया।

कांग्रेस विधायक प्रदीप यादव और बंधु तिर्की ने भी समिति बनाने का आग्रह किया। इस पर विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो तैयार हो गये। उन्होंने सात सदस्यीय सर्वदलीय समिति बनायी है। समिति का संयोजक झामुमो के वरिष्ठ विधायक स्टीफन मरांडी को बनाया गया है। वहीं विधायक प्रदीप यादव, नीलकंठ सिंह मुंडा, सरफ़राज़ अहमद, विनोद कुमार सिंह, लंबोदर महतो, दीपिका पांडे सिंह को समिति का सदस्य बनाया गया है। यह समिति  नमाज़ कक्ष की प्रासंगिकता है या नहीं? या फिर इस कक्ष का नाम प्रार्थना कक्ष किया जाए या नहीं? ऐसे तमाम बिंदुओं पर 45 दिनों में रिपोर्ट देगी।

समिति बनाने पर विधानसभा अध्यक्ष रबींद्र नाथ महतो ने कहा कि जिस तरह से  नमाज़ कक्ष को लेकर गतिरोध उत्पन्न हुआ, इससे पूरा राज्य प्रभावित हुआ है। इसकी लौ राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में पहुँची है। यह गतिरोध का विषय नहीं है और इसे समाप्त करना ज़रूरी है। राज्य के हित और विकास के लिए ऐसा करना आवश्यक है। इसलिए सर्वदलीय समिति का गठन किया गया है। विधानसभा अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो ने  नमाज़ के लिए कमरा आवंटन को लेकर समिति तो बना दी, लेकिन अभी भाजपा का विरोध थमने की उम्मीद कम ही है। भाजपा नेता कमरा आवंटन रद्द करने की माँग कर रहे हैं। अब भाजपा जनता के बीच जाने की तैयारी कर रही है।

क्या है मामला?

झारखण्ड विधानसभा ने अध्यक्ष रबींद्रनाथ महतो के निर्देश पर गत 2 सितंबर को एक आदेश जारी किया गया। विधानसभा के उप सचिव ने पत्र निकाला कि ‘नये विधानसभा भवन में  नमाज़ अदा करने के लिए  नमाज़ कक्ष के रूप में कमरा संख्या टीडब्ल्यू-348 आवंटित किया जाता है।’

इस एक आदेश ने पूरे प्रदेश की राजनीति में हलचल मचा दी। भाजपा आदेश वापस लेने की माँग करने लगी। विधानसभा में भाजपा के मुख्य सचेतक बिरंची नारायण ने अध्यक्ष को लिखित पत्र देकर आदेश वापस लेने की माँग की। उन्होंने यह भी लिखा कि अगर ऐसा नहीं हुआ, तो भाजपा अदालत का दरवाज़ा खटखटाएगी। दोनों पक्षों में पूरे सत्र में ज़ुबानी जंग भी ख़ूब चली।

गठबन्धन में शामिल झामुमो, कांग्रेस और राजद के नेताओं ने कहा कि यह एक सुविधा देने की बात है। ऐसी व्यवस्था विधानसभा में पहले भी रही है। अगर भाजपा को प्रार्थना के लिए जगह चाहिए, तो बहुत सारे कमरे हैं; उन्हें भी दे दिया जाएगा। लेकिन इतने आश्वासन भर से भाजपा विधायक नहीं माने और आन्दोलन पर उतर आये। विधानसभा के अन्दर और बाहर प्रदर्शन करके सदन की कार्यवाही को बाधित करते रहे।

नज़रिया अलग-अलग

सत्ता पक्ष हो या विपक्ष, संसद और विधानसभाएँ दोनों के लिए राज्य और राज्य के लोगों के विकास की मंत्रणा और रणनीति बनाने के लिए हैं; राष्ट्रसेवा और जनसेवा के लिए हैं। लेकिन इन पवित्र स्थलों के ज़रिये अब सियासत के सिवाय कुछ नहीं होता। हर पार्टी सिर्फ़ यही सोचती है कि उसे इन स्थलों पर कब क़ब्ज़ा करने को मिलेगा? संसद और विधानसभाएँ लोकतंत्र का मन्दिर है। यह बात हम सम्भवत: तबसे सुनते आ रहे हैं, जबसे इनका गठन हुआ है।

आमतौर पर सदन के अन्दर-बाहर सांसद और विधायक अपनी बातों को रखते हुए इसे लोकतंत्र का मन्दिर बताने से नहीं चूकते हैं। सम्भव है कि पूर्व की आदर्श स्थिति के कारण इसे मन्दिर का दर्जा दिया गया हो। पर बीते कुछ वर्षों में जो बदलाव आये हैं। लोकतंत्र में किसी को मनमानी करने का अधिकार नहीं होता।

फ़िलहाल संसद और विधानसभाओं में इसी अधिकार का प्रदर्शन हो रहा है। ख़ुद सदस्य ही अपने आचरण से सदन की गरिमा गिरा रहे हैं। सत्ता पक्ष हो या विपक्ष बयानबाज़ी में विधानसभा को हमेशा की तरह लोकतंत्र का मन्दिर बताने से नहीं चूकते; लेकिन नज़रिया और क्रियाकलाप अलग-अलग है। नतजीतन टकराव की स्थिति बनी हुई है। स्वास्थ्य मंत्री बन्ना गुप्ता का कहना है कि भाजपा के लोग लोकतंत्र के मन्दिर में इस तरह हंगामा कर जनता को क्या बताना चाहते हैं? मुद्दों पर बात करने की उनकी नैतिकता ख़त्म हो चुकी है। वहीं, मंत्री हफ़ीज़ुल हसन ने कहा कि लोकसभा, राज्यसभा हो या देश के किसी भी अन्य विधानसभा में अल्पसंख्यकों को  नमाज़ अदा करने के लिए एक जगह मुकर्रर की जाती है। ऐसे में झारखण्ड विधानसभा में भी यह जगह मुकर्रर की गयी है, तो फिर इसका विरोध क्यों किया जा रहा है? भाजपा के पास कोई मुद्दा बचा नहीं।

भाजपा विधायक अमर कुमार बाउरी ने कहा कि झारखण्ड विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर है। इसलिए बेहतर यही होगा कि इसे धार्मिक राजनीति से दूर रखा जाए। अगर सरकार अल्पसंख्यकों के इबादत के लिए अलग से एक कमरा दे सकती है, तो बहुसंख्यकों को भी संख्या के हिसाब से विधानसभा परिसर में मन्दिर बनाने की इजाज़त विधानसभा अध्यक्ष को देनी चाहिए। भाजपा के मुख्य सचेतक बिरंची नारायण ने कहा कि विधानसभा अध्यक्ष ने जिस तरह से एक विशेष धर्म के लोगों को  नमाज़ पढऩे के लिए कमरा आवंटित किया है, वह लोकतंत्र की परम्परा के विपरीत है। उन्हें अपना आदेश तत्काल वापस लेना चाहिए।

आख़िर ज़िम्मेदार कौन?

आख़िर एक कमरा  नमाज़ के लिए आवंटित करने पर इतना हंगामा कितना उचित है? जबकि विधानसभा में जगह की कमी नहीं है। भाजपा को इस पर सोचना चाहिए। यह मुद्दा जनहित से कितना जुड़ा है कि इसके लिए सदन की कार्यवाही बाधित की जाए। विधानसभा या सरकार को सोचना चाहिए कि कमरा को ‘ नमाज़ कक्ष’ नाम देकर क्यों विवाद खड़ा किया जाए? इसे ‘प्रार्थना कक्ष’ का नाम भी दिया जा सकता है। जहाँ सभी धर्म के लोग अपने सुविधानुसार उस कमरे में प्रार्थना कर सकते हैं। सत्र बुलाने पर लाखों रुपये ख़र्च होते हैं। यह जनता की गाढ़ी कमायी की वसूलने से होता है। आख़िर इसकी बर्बादी के लिए ज़िम्मेदार कौन है?

महाभारत में द्रौपदी का चीरहरण भरी सभा में हुआ था। इस समय विदुर की कही बात संसदीय व्यवस्था के लिए सही लगती है। विदुर ने कहा था- ‘सभा में हुए पाप का आधा भाग सभाध्यक्ष पर, एक-चौथाई पाप कर्मियों पर और शेष एक-चौथाई पाप मौन रहने वालों पर होता है।’

महाभारत में यह सब इसलिए हुआ था, क्योंकि सभा ने अपनी नैतिक शक्ति खो दी थी। झारखण्ड विधानसभा के क़दम नैतिक शक्ति खोने की ओर तो नहीं बढ़ रहे? क्योंकि यह मामला झारखण्ड उच्च न्यायालय में भी पहुँच गया है। कमरा आवंटन के ख़िलाफ़ पीआईएल दाख़िल किया गया है। अगर इस पर सुनवाई हुई और फ़ैसला किसी के भी पक्ष में आये, कम-से-कम यह विधायिका के लिए शुभ संकेत तो नहीं ही होगा। इस विषय पर सोचने की ज़रूरत है।

हंगामा और लाठीचार्ज

इस मामले में आग लगातार भडक़ती जा रही है। भाजपा के लोग पूरे प्रदेश में धरना-प्रदर्शन करके विधानसभा परिसर में मन्दिर निर्माण की माँग कर रहे हैं। सदन से सडक़ तक विरोध कर रहे हैं। सदन में विधायकों का विरोध रहा, तो सडक़ पर पार्टी के नेता व कार्यकर्ता उतरे हुए हैं।

प्रदेश के दीपक प्रकाश, बाबूलाल मरांडी, रघुवर दास, अन्नपूर्णा देवी, संजय सेठ जैसे तमाम वरिष्ठ नेता मंच पर जुटे। पूरे प्रदेश से हज़ारों की संख्या में कार्यकर्ता रांची पहुँचे। पुलिस को उन्हें रोकने के लिए लाठीचार्ज कर पड़ा। लाठीचार्ज के विरोध में भाजपा ने 9 सितंबर को पूरे प्रदेश में काला दिवस मनाया, जिसमें प्रदेश के हर हिस्से में भाजपा के नेता और कार्यकर्ता काला बिल्ला लगाकर विरोध जताया।

भाजपा प्रदेश अध्यक्ष दीपक प्रकाश ने लाठीचार्ज के विरोध में झारखण्ड बन्द का ऐलान कर दिया है। इसके लिए तारीख़ की घोषणा जल्द ही की जाएगी। यानी राज्य में अभी राजनीतिक तपिश बनी रहेगी। भाजपा ने प्रदर्शन के ज़रिये अपनी ताक़त दिखा रही है। जिस तरह का विरोध-प्रदर्शन रहा और जितनी संख्या में कार्यकर्ता जुट रहे हैं, वह भाजपा के लिए सफलता ही कहा जा सकता है।

 

लोकतंत्र की नज़र से

संसद से लेकर विधानसभाओं तक मौज़ूदा दौर में जो हो रहा है, उसे कहीं से उचित नहीं ठहराया जा सकता है। उत्तर प्रदेश विधानमंडल में निर्वस्त्र प्रदर्शन। जम्मू-कश्मीर विधानसभा में थप्पड़ मारना। झारखण्ड, बंगाल, बिहार समेत अन्य विधानसभाओं में लगातार होता हंगामा। कहीं-कहीं जूतम-पैजार। यह सब चिन्ताजनक स्थिति है। संविधान ने विधायिका को असीम अधिकार दिये हैं। लोकसभा या विधानसभा के अध्यक्ष के निर्णय को सर्वोपरि माना गया है। अध्यक्ष की गरिमा और महिमा का आधार तटस्थता और निष्पक्षता है। लेकिन अध्यक्ष पर अनेक बार दलीय प्रतिबद्धता दिखती है। दरअसल संसद या विधानसभाओं में अब जनतंत्र नहीं, दलतंत्र का दबदबा है। इसी के चलते मौज़ूदा हालात ख़राब होते जा रहे हैं। इसके लिए केवल सत्ता पक्ष ही नहीं, प्रतिपक्ष (विपक्ष) भी उतना ही ज़िम्मेदार है। संसद में कुछ गरिमा बाक़ी है; लेकिन उसकी धज्जियाँ अब ख़ूब उड़ रही हैं। हंगामे अगर विपक्ष खड़े करता है, तो हंगामे की वजह काफ़ी हद तक सत्ता पक्ष ही होता है। दरअसल विधायी संस्थाएँ मनमानी का अड्डा बन रही हैं। जनमुद्दे गौण होते जा रहे हैं। इससे झारखण्ड विधानसभा भी अछूती नहीं है।

 

“नमाज़ के लिए कमरा आवंटित करने की परम्परा पहले से रही है। पुरानी विधानसभा में ऐसी व्यवस्था थी, जिसे देखते हुए नये विधानसभा में कमरा आवंटित किया गया। इसे लेकर विरोध करना या राजनीति करना उचित नहीं है। सदन जनहित के मुद्दों को उठाने के लिए है। इस तरह की छोटी बातों पर कार्यवाही बाधित करना कहीं से उचित नहीं है। यह दुर्भाग्यपूर्ण है।”

                                   रबींद्र नाथ महतो

झारखण्ड विधानसभा अध्यक्ष

 

“संविधान में सर्वधर्म और सम्प्रभुता की बात है। संसद या विधानसभा में धर्मिक आधार पर कुछ आरक्षित करना संवैधानिक दृष्टि से सही नहीं है। विधानसभा अध्यक्ष को कोई निर्णय लेने का अधिकार है। लेकिन अगर उनके निर्णय से सदस्य सहमत नहीं हैं, तो उसे वह सदन में उठा सकते हैं। अध्यक्ष भी सदन के अधीन होते हैं और बहुमत के आधार पर उन्हें निर्णय लेना होगा। संसदीय प्रणाली में किसी भी मुद्दे पर कार्यवाही को बाधित करना उचित नहीं है।”

सुभाष कश्यप

संविधान विशेषज्ञ

 

“हेमंत सरकार के इशारे पर एक धर्म के लोगों के तुष्टिकरण के लिए विधानसभा में  नमाज़ पढऩे के लिए कमरा आवंटित किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है। अगर  नमाज़ पढऩे के लिए जगह है, तो हनुमान चालीसा पाठ के लिए क्यों नहीं? हमारा विरोध जारी रहेगा। विधानसभा लोकतंत्र का मन्दिर है। यहाँ न  नमाज़ पढ़ी जानी चाहिए और न ही हनुमान चालीसा। अगर सत्र के दौरान आदेश रद्द नहीं हुआ, तो हम अदालत का दरवाज़ा खटखटाएँगे।”

बिरंची नारायण

मुख्य सचेतक, भाजपा विधायक दल

 

“विधानसभा में किसी को कमरा आंवटित करना अध्यक्ष का अधिकार क्षेत्र है। इस पर मैं कोई टिप्पणी नहीं करूँगा। पर इस मुद्दे पर सदन को बाधित करना, एक-दूसरे पर आरोप लगाना, संसदीय प्रणाली को कमज़ोर करने वाला है। सदन में जनमुद्दों पर बात होनी चाहिए। जनता की बातों को उठाना चाहिए। इस पर सार्थक बहस कर उनके हित के लिए काम करना चाहिए। अगर इससे इतर बातें सदन में कोई भी सदस्य करता है, तो यह अशोभनीय है। यह संघीय ढाँचे के लिए कहीं से उचित नहीं है।”

आलमगीर आलम

संसदीय कार्य मंत्री, झारखण्ड सरकार

देशभक्ति की नयी व्याख्या करती तिरंगा यात्रा

भाजपा को उसी के हथकंडों से चुनौती दे रही आम आदमी पार्टी

उत्तर प्रदेश में विधनसभा चुनाव में अब जब केवल छ: महीने ही बचे हैं, आम आदमी पार्टी (आप) ने अपनी तिरंगा यात्रा के ज़रिये चुनाव प्रचार का बिगुल बजा दिया है। आगरा, नोएडा और अयोध्या के बाद अब पार्टी नेता और कार्यकर्ता राज्य के सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा लेकर जाएँगे और लोगों को देशभक्ति के मायने समझाएँगे।

आमतौर पर देशभक्ति के मायने होते हैं- देश की रक्षा के लिए अपने प्राणों तक का बलिदान कर देना। उसके गौरव की हर क़ीमत पर रक्षा करना। जान चली जाए, पर तिरंगा झुकने न पाए। उसमें सब कुछ तिरंगे के लिए होता है। मगर आम आदमी पार्टी की देशभक्ति में सब कुछ तिरंगे के नीचे रह रहे लोगों के लिए है। बच्चों, महिलाओं, बुजुर्ग और युवाओं- सबका विकास ही उसके लिए देशभक्ति है। इनकी शिक्षा, इनका स्वास्थ्य, बिजली-पानी जैसी ज़रूरी सुविधाएँ इन तक पहुँचाना ही उसकी देशभक्ति है।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में जहाँ चुनावों का केंद्र लोग नहीं, बल्कि उनकी जाति और धर्म रहता है; आम आदमी पार्टी ने इसे बदलते हुए आमजन को केंद्र में रखकर देशभक्ति के माध्यम से अपने विकास के एजेंडे को लोगों के गले उतारने का अपना तरीक़ा निकाला है।

शायद पार्टी अध्यक्ष केजरीवाल जानते हैं कि जाति और धर्म के आधार पर उनके लिए इस राज्य में अपना खाता खोल पाना सम्भव नहीं होगा। वैसे भी यहाँ मुख्य मक़सद सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी को टक्कर देना है; जो देशभक्ति, हिन्दुत्व और राम पर अपना विशेषाधिकार मानती है। उसके इस अधिकार-अहम को चुनौती देने के लिए ही अयोध्या में तिरंगा यात्रा और रामलला के आशीर्वाद से प्रचार की शुरुआत की गयी। अब विभिन्न विधानसभा क्षेत्रों में तिरंगा यात्रा करते हुए आम आदमी पार्टी के कार्यकर्ता लोगों को देशभक्ति के मायने समझाने का प्रयास करेंगे। इसमें भाजपा के राष्ट्रवाद और आम आदमी पार्टी के राष्ट्रवाद के बीच के अन्तर को भी लोगों के सामने खोलकर रखा जाएगा।

आगरा और नोएडा में तिरंगा यात्रा निकालते हुए दिल्ली के उप मुख्यमंत्री मनीष सिसोदिया और पार्टी सांसद व उत्तर प्रदेश के प्रभारी संजय सिंह ने लोगों को समझाया कि उनके लिए देशभक्ति व राष्ट्रवाद क्या है? संजय सिंह ने कहा कि ‘तिरंगे के नीचे खड़ा हर ग़रीब बच्चा अच्छे स्कूल में पढ़ सके। दिल्ली की तरह उत्तर प्रदेश में भी हर गाँव में मोहल्ला क्लीनिक बन सके। हर ग़रीब के घर में बिजली हो और 300 यूनिट तक उसे नि:शुल्क मिल सके। हर घर को पानी मिले। उनके लिए यही देशभक्ति है। यही राष्ट्रवाद है।’

उन्होंने आगे कहा-‘अब आम आदमी पार्टी ईमानदारी और शिक्षा के माध्यम से हर गाँव में विकास की राजनीति को लेकर जाएगी। पूरे उत्तर प्रदेश में तिरंगा यात्रा निकलेगी और पार्टी के कार्यकर्ता हर जगह संकल्प लेंगे कि इस तिरंगे के नीचे रह रहे बच्चे, महिलाएँ, बुज़ुर्ग, युवा और किसान अपने अधिकारों से वंचित न रहें।’

आम आदमी पार्टी की देशभक्ति की परिभाषा में केवल लोग ही नहीं, संविधान भी हैं। बीते 15 अगस्त (आज़ादी की 75वीं वर्षगाँठ) पर दिल्ली के स्कूलों में लागू किये गये ‘देशभक्ति पाठ्यक्रम’ में बच्चों को संविधान के स्वतंत्रता, समानता व भ्रातृत्व जैसे मूल्यों की जानकारी देते हुए उनका आदर करना और उन्हें रोज़मर्रा के व्यवहार में उतारना सिखाया जाएगा। इसके साथ ही बच्चों और युवकों को सिखाया जाएगा कि कैसे वे आत्मविश्वासी, आत्मनिर्भर, सामाजिक और परम्परागत सोच से परे वैज्ञानिक व व्यावसायिक सोच वाले बन सकते हैं।

इसे देखकर लगता है कि अपनी देशभक्ति की इस परिभाषा से, जिसमें आमजन व संविधान सर्वोपरि है; आम आदमी पार्टी ने बड़ी आसानी से भाजपा के हिन्दुत्ववादी राष्ट्रवाद से अपने को पूरी तरह से अलग कर लिया है। वह युवकों की ऐसी पीढ़ी भी तैयार करने जा रही है, जिसमें किसी की भी देशभक्ति को उसके धर्म या फिर जन-गण-मण गाने या नहीं गाने से नहीं नापा जाएगा।

दिल्ली से बाहर अपने पैर पसारने की कोशिश में लगी आम आदमी पार्टी की इस तिरंगा यात्रा के तीन राजनीतिक तत्त्व दिखायी देते हैं। पहला विकास, दूसरा देशभक्ति और तीसरा धर्म। दिल्ली के सरकारी विभागों में भ्रष्टाचार भले ही ख़त्म न हुआ हो, पर शिक्षा व स्वास्थ्य के क्षेत्र में अतुलनीय सुधार और ग़रीबों को बिजली व पानी जैसी सुविधाओं का नि:शुल्क वितरण अभी तक केजरीवाल की पार्टी का लोकतांत्रिक राजनीति व प्रशासन का मुख्य आधार रहा है। इसी के बल पर वह दिल्ली में दो बार भारतीय जनता पार्टी के आक्रामक प्रचार का सामना कर उसे पछाडऩे में कामयाब हो सकी।

गोवा, उत्तराखण्ड, पंजाब सभी राज्यों में पार्टी प्रमुख केजरीवाल ने मुफ़्त या फिर सस्ती बिजली के वादे से मतदाताओं को लुभाने की कोशिश की है। अब जब आम आदमी पार्टी भाजपा शासित उत्तर प्रदेश, गुजरात और उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव लडऩे जा रही है, तब उसने अपने इन्हीं विकास कार्यों को देशभक्ति का नाम दे दिया है। उसके अनुसार, ‘व्यापक जनहित आधारित विकास की सोच, नीतियों व प्रशासन के साथ चलना ही देशभक्ति है। तिरंगा को उसने शहीदों के सम्मान का प्रतीक बनाया है और हिन्दुओं के पर्व त्यौहार व राम सहित सभी देवी-देवताओं की पूजा को अपनी सत्तात्मक चुनावी राजनीति का आधार। इन तीनों पर अपने राष्ट्रवाद की नींव खड़ी करके उसने भाजपा के हिन्दुत्व-राष्ट्रवाद की हवा निकालने की रणनीति बनायी है।

अफ़ग़ानिस्तानमें तालिबान के राज के बाद भारत में भाजपा के राष्ट्रवाद के फैलाव को रोक पाना किसी के लिए भी अब ज़्यादा सम्भव नहीं हो पाएगा। ऐसे में सुसाशन और विकास के ताने-बाने से बुना जा रहा आम आदमी पार्टी का राष्ट्रवाद लोगों को कितना आकर्षित कर पाएगा, इसकी परीक्षा दिल्ली से बाहर अभी होनी है। उसी से यह भी तय हो पाएगा कि तिरंगा यात्राओं के साथ लोगों के दिलों में उभारी जाने वाली सुशासन और विकास की देशभक्ति का रंग कितना गहरा है। दूसरा, आज जबकि बहुलवादी राजनीति समय की माँग है, उसके द्वारा की जा रही बहुसंख्यक राजनीति का पासा सीधा भी पड़ सकता है और उल्टा भी।

उत्तर प्रदेश जैसे राज्य में अल्पसंख्यकों को साथ लेकर चलना कितना ज़रूरी है, यह भाजपा को भी समझ आ गया है। ऐसे ही राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ प्रमुख मोहन भागवत बार-बार मुसलमानों के क़रीब जाते नहीं दिख रहे हैं। उन्हें यह भी समझ आ गया है कि सत्ता के शीर्ष पर बने रहना है, तो समन्वयवादी राजनीति पर चलते हुए दिखना ज़रूरी है।

ऐसा नहीं कि केजरीवाल इस तथ्य से वाक़िफ़ नहीं हैं। फिर भी अगर भाजपा शासित राज्यों में वह हिन्दुओं की धार्मिक और सांस्कृतिक आस्थाओं के इर्द-गिर्द अपनी चुनावी रणनीति का एक आधार खड़ा कर रहे हैं, तो सम्भवत: इसलिए कि उन्हें लगता है कि इससे धर्म के नाम पर भाजपा को मिलने वाले हिन्दु-मतों में सेंध लगाना क़ाफ़ी आसान हो जाएगा। सम्भवत: इससे आगे चलकर बहुसंख्यक-मतों पर भाजपा के एकाधिकार को ख़त्म करने में भी आसानी हो। ऐसे में बहुसंख्यकवाद आम आदमी पार्टी की सत्तात्मक राजनीति की मजबूरी या फिर रणनीति या दोनों ही हो सकती हैं। मगर उसे लम्बी पारी खेलनी है तो कांग्रेस से ख़ाली होती जगह को भरते हुए समन्वयात्मक राजनीति को ही अंतत: अपना आधार बनाकर चलना होगा।

(लेखिका वरिष्ठ स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

एक ही मंज़िल

इंसान के जीवन की सबसे बड़ी विडम्बना सुख की चाहत है। सुख की चाहत में ही इंसान ने सुविधाओं की खोज की और जब भौतिक सुख से उसे शान्ति नहीं मिली, तो उसने ईश्वर की तरफ़ देखा। एक ऐसे अनंत सुख की तलाश में, जो कभी समाप्त न हो। इसके लिए ही धीरे-धीरे ईश्वर को पाने के रास्ते तलाशे, जिन्हें धर्म यानी मज़हब का नाम दिया। धर्म / मज़हब दरअसल अच्छाई और सच्चाई का वह मार्ग है, जो इंसान को इंसान तो बनाये रखता ही है; देवता भी बना सकता है। इसीलिए धर्म भ्रष्ट लोगों को हीन दृष्टि से देखा जाता रहा है। लेकिन अब बहुत-से धर्म भ्रष्ट लोग भी धर्मों के ठेकेदार बने बैठे हैं और मूर्खों तथा नासमझों के पूज्यनीय हैं।

सही मायने में मज़हब इंसान के आत्मिक सुख के लिए बने हैं। मज़हब भौतिक सुखों से ऊब होने या सांसारिक झंझावातों से दु:खी होने के बाद सुकून पाने के लिए हैं, जिनके ज़रिये इंसान ईश्वर की शरण में जाने का रास्ता तलाश करता है।

सामान्य लोग अमूमन यही मानते हैं कि उनका मज़हब दूसरे मज़हबों से श्रेष्ठ है। उनका मज़हब उन्हें स्वर्ग तक ले जाने में मददगार साबित होगा।  उनका उद्धार करेगा। उनका मज़हब ही सही है। उनका मज़हब ईश्वर का बताया वह रास्ता है, जिस पर चलने से उनका ईश्वर से मिलन पक्का है। यह सम्भव भी है। लेकिन दूसरों के मज़हब को निकृष्ट मानने की सोच ने लोगों में ऐसी फूट डाल दी है, जो उन्हें कभी चैन से नहीं रहने देगी।

आज जिस तरह से विभिन्न मज़हबों में फूट पड़ी हुई है, अगर वह ऐसे ही बढ़ी, तो आने वाले समय में और भी घातक परिणाम वाली और मानव जाति के लिए संकट पैदा करने वाली साबित होगी। अगर आपसी नफ़रतें और बढ़ीं, तो सम्भव है कि जो मज़हब इंसानों को अमन-चैन से रहने, दूसरों की सेवा करने, उनका हक़ न मारने और ईश्वर की ओर जाने के लिए बनाये गये थे, वही मज़हब इंसानों की असमय और हिंसक मौत का कारण बन जाएँ।

स्वामी विवेकानंद ने कहते हैं- ‘हम मनुष्य जाति को उस स्थान पर पहुँचाना चाहते हैं जहाँ न वेद हैं, न बाइबिल है, न क़ुरान; परन्तु वेद, बाइबिल और क़ुरान के समन्वय से ही ऐसा हो सकता है। मनुष्य जाति को यह शिक्षा दी जानी चाहिए कि सब धर्म उस धर्म के, उस एकमेवाद्वितीय के भिन्न-भिन्न रूप हैं। इसलिए प्रत्येक व्यक्ति इन धर्मों में से अपना मनोनुकूल मार्ग चुन सकता है।’

यह बात सभी मज़हबों के कट्टरपंथियों के लिए असहनीय हो सकती है, किन्तु है बहुत महत्त्वपूर्ण और बड़ी। इसे सरलता से इस तरह समझा जा सकता है- मसलन, किसी मंज़िल तक पहुँचने के लिए लोग अलग-अलग संसाधनों और अलग-अलग मार्गों से जा सकते हैं। लेकिन सभी का ध्येय एक ही है- मंज़िल। ईश्वर वही मंज़िल है। भले ही लोगों ने भाषाओं के हिसाब से उसके अलग-अलग नाम रख लिये हैं और उसको अलग-अलग समझने-मानने का भ्रम पाल बैठे हैं। लेकिन दुनिया के किसी इंसान की बात तो दूर, पूरे ब्रह्माण्ड में किसी में भी वह ताक़त या हिम्मत नहीं, जो ईश्वर को बाँट सके। ईश्वर को तो क्या, कोई ईश्वर की बनायी किसी भी तत्व रचना को न नष्ट कर सकता है और न ही बाँट सकता है; चाहे वह ब्रह्माण्ड की कोई भी चीज़ क्यों न हो। फिर ईश्वर को बाँटने की बात ही कहाँ पैदा होती है?

जो लोग उसे और उसकी सृष्टि को बाँटने की बात करते हैं, उनसे बड़ा मूर्ख दुनिया में कोई नहीं। ऐसे लोग दोषी भी हैं और पापी भी; जो लोगों को बाँटने का दोष करते हैं और यह किसी भयंकर पाप से कम नहीं है।

दरअसल यह लड़ाई धर्मों की नहीं, बल्कि कुछ मूर्खों की है; जिन्हें भौतिक सुख की चाहत में मज़हबों की आड़ लेकर चंद धार्मिक और राजनीतिक सत्ताधारी लोग मु$र्गों की तरह लड़वाते रहते हैं। इसके लिए उन्हें कुछ मवाली भी पालने पड़ते हैं। पक्का मज़हबी होने का ढोंग भी करना पड़ता है। मीठा ज़हर भी उगलना पड़ता है। अपने मज़हब के लोगों के दिल-ओ-दिमाग़ में नफ़रत की चिंगारी भी सुलगानी पड़ती है। दूसरे मज़हबों के लोगों को भडक़ाना पड़ता है और उन्हें तंग भी करना पड़ता है।

समझदार ऐसे लोगों से वास्ता नहीं रखते। बँटवारा नफ़रत, दुश्मनी और विनाश के सिवाय कुछ नहीं दे सकता। अफ़सोस जो मज़हब इंसान के उद्धार के लिए बनाये गये थे, आज वही मज़हब उसके पतन, उसके विनाश का कारण बनते जा रहे हैं। अगर इस बात को सभी मज़हबों को मानने वाले लोग अब भी नहीं समझेंगे, तो उनकी नस्लें किसी भी हाल में सुरक्षित नहीं रह पाएँगी। इससे न केवल उनका सुकून छिनता जाएगा, बल्कि एक-न-एक दिन उनका आपस में लडक़र मरना तय है। ईश्वर ने इंसान को सृष्टि (पृथ्वी) के सभी प्राणियों और प्राकृतिक संसाधनों के रक्षार्थ बनाया है। लेकिन इंसान ने अपने भोग, लिप्सा के लिए सभी मर्यादाओं को ताक पर रखते हुए, कर्तव्यों से मुँह मोडक़र सब कुछ तहस-नहस करना शुरू कर दिया; केवल अपने स्वार्थ के लिए। धर्मों के कई ठेकेदार कहते हैं कि यह सब भ्रमजाल और मायाजाल है। अगर वास्तव में यह सब भ्रमजाल या मायाजाल है, तो वे लोग ख़ुद इसमें उलझे हुए क्यों हैं? क्यों नहीं वे इस भ्रमजाल और मायाजाल से बाहर आना चाहते? और क्यों दूसरे सामान्य लोगों को इसमें उलझाकर रखना चाहते हैं? यह सवाल हर सामान्य व्यक्ति को उनसे ही पूछने चाहिए।

तालिबान का कांधार में लोगों को घर खाली करने का फरमान; वहां रहती हैं तालिबान से जंग में मरे सैनिकों की पत्नियां

अपने वादे के विपरीत अफगानिस्तान की सत्ता हथियाने के बाद तालिबान ने आम जनता पर जुल्म करने शुरू कर दिए हैं। कांधार में जहाँ तालिबान ने लोगों घर खाली करने के लिए कहा है, वहीं पंजशीर से रिपोर्ट्स हैं कि जिन जगहों पर तालिबान ने कब्ज़ा कर लिया है वहां लोगों पर जुल्म ढाए जा रहे हैं। कांधार में जिन लोगों को घर खाली करने को कहा गया है उनमें ज्यादातर उन सैनिकों की पत्नियां हैं, जिनके पति पिछले 20 साल में तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में मारे गए या घायल हुए।

वैसे अफगानिस्तान में कुछ जगह लोगों की तरफ से तालिबान का विरोध अभी भी जारी है और उन पत्रकारों को प्रताड़ित किया जा रहा है जो इन विरोध प्रदर्शनों को कवर रहे हैं। उधर संयुक्त राष्ट्र ने संकट झेल रहे अफगानिस्तान को आर्थिक मदद की बात दोहराई है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक तालिबान ने कांधार में अपने लड़ाकों के रहने के लिए आम लोगों को फरमान जारी करके उनके घर खाली करवाने शुरू कर दिए हैं। खबरों के मुताबिक कांधार में सेना की आवासीय कॉलोनी में लोगों को तीन दिन के भीतर अपने घर छोड़कर दूसरी जगह जाने को कहा गया है ताकि उन घरों में तालिबान लड़ाके रह सकें।

हालांकि, वहां लोगों ने तालिबान के इस आदेश का विरोध करना शुरू कर दिया है। इस फरमान के बाद लोगों ने सड़कों पर उतर कर जबरदस्त प्रदर्शन किया। हजारों की संख्या में लोगों ने कांधार में गवर्नर हाउस के सामने जमा होकर इस फरमान के नारेबाजी की। जहाँ यह प्रदर्शन हुए हैं, वह पूर्व सैनिकों की आबादी वाला कांधार का   उपनगर ज़ारा फ़रका है।

ज़ारा फ़रका के लोगों का कहना है कि वह कहीं और नहीं जाना चाहते हैं।  लिहाजा लोग हजारों की तादाद में तालिबान का विरोध करने पर उतर आए हैं। रिपोर्ट्स के मुताबिक तालिबान ने जिस कालोनी को खाली करने का फरमान जारी किया है उसमें करीब दस हजार लोग रहते हैं। दिलचस्प यह भी है कि इनमें ज्यादातर उन सैनिकों की पत्नियां हैं, जिनके पति पिछले 20 साल में तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में मारे गए या घायल हुए।

तालिबान का यह कहर आम लोगों पर ही नहीं टूट रहा, बल्कि उन पत्रकारों पर भी टूट रहा है जो उसके खिलाफ जनता के विरोध प्रदर्शनों को कवर कर रहे हैं। कुछ पत्रकारों को तालिबान गार्डों ने काफी पीटा भी है। विरोध प्रदर्शन के बाद कांधार के राज्यपाल ने अस्थायी रूप से किसी भी निष्कासन पर रोक लगा दी है। उनका कहना है कि समुदाय के बुजुर्गों के साथ इस मामले पर चर्चा की जाएगी, जिसके बाद ही कोई फैसला किया जाएगा।

उधर पंजशीर की हालत भी उन जगहों पर खराब है, जहाँ तालिबान ने कब्जा कर लिया है। वहां लोगों पर बड़े पैमाने पर जुल्म किये जाने की ख़बरें हैं। कुछ वीडियो में दिखाया गया है कि रेजिस्टेंस फ़ोर्स और नॉर्थर्न एलायंस के समर्थकों को ढूंढ़ ढूंढ़ कर मारा-पीटा जा रहा है।

हिमाचल के चम्बा में अग्निकांड में 4 लोग जिन्दा जले, इनमें 3 बच्चे

हिमाचल के कबाईले जिले चम्बा में भीषण अग्निकांड में चार लोग ज़िंदा जल गए जिनमें तीन बच्चे हैं। जिला आपातकाल आपरेशन सेल के रिपोर्ट के मुताबिक यह घटना करतोश (जुंगरा) गाँव की है। घटना में घायल एक व्यक्ति को अस्पताल में भर्ती किया गया है। जान गंवाने वाले सभी व्यक्ति एक ही मुस्लिम परिवार के हैं।

जानकारी के मुताबिक अग्निकांड में जिन लोगों की जान गयी है, वे एक ही मुस्लिम परिवार के सदस्य हैं। तीन बच्चों सहित चारों लोगों की मौके पर ही मौत हो गयी जबकि घायल महिला को अस्पताल में भर्ती किया गया है। पुलिस मामले की पड़ताल कर रही है। चंबा पुलिस कंट्रोल रूम ने हादसे की पुष्टि की है।

आग लगने के कारणों का अभी पता नहीं चल पाया है। पुलिस घटना की सूचना मिलते ही मौके के लिए रवाना हो गयी। जांच की जा रही है। तीसा उपमंडल के तहत जुंगरा के करातोश गांव में आधी रात को एक घर में अचानक यह आग भड़क गई। अग्निकांड में परिवार के चार सदस्‍यों की जान चली गयी। मरने वालों में घर के मुखिया (पिता) के अलावा तीन बच्‍चे भी हैं।

चम्बा पुलिस कंट्रोल रूम के मुताबिक मंगलवार तड़के तीन बजे आग की यह घटना हुई। अग्निकांड में जान गंवाने वालों में मुहम्‍मद रफी (26 वर्षीय), जैतून (6), समीर (4) और जुलेखा (2) हैं। अग्निकांड में मुहम्‍मद रफी की पत्नी थुना घायल हुई है।

विधानसभा चुनाव से पहले उत्तर प्रदेश की सियासत में हलचल

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर भले ही 6 माह से कम का समय बचा है पर, उत्तर प्रदेश की राजनीति का असर दिल्ली में साफ देखा जा रहा है। बताया जा रहा है कि इस बार उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव को लेकर सभी राजनीतिक दल रात- दिन एक किये हुये है। अभी तक उत्तर प्रदेश के चुनाव में भाजपा, कांग्रेस, बसपा और सपा मुख्य राजनीतिक दल चुनाव मैदान में ताल ठोंकते रहे है। लेकिन इस बार 2022 के विधान सभा चुनाव में पूरे दम- खम के साथ आप पार्टी चुनाव मैदान में होगी।

बताते चलें पश्चिम बंगाल के चुनाव में भाजपा को बढ़ौतरी तो मिली, लेकिन सरकार बनाने के आस –पास तक बहुमत ना जुटा पायी। इस लिहाज से भाजपा को अन्य राजनीति दल भाजपा को सरकार बनाने दूर करना चाहते है। मौजूदा समय में देश की सियासत का रूख कुछ और ही है।

महगांई , बेरोजगारी और डीजल –पैट्रोल के बढ़ते दामों के साथ –साथ किसान का उग्र प्रदर्शन इन्ही तामाम मुद्दों को लेकर कांग्रेस ,बसपा, सपा और आप पार्टी ताल ठोंक सकती है। और भाजपा को चुनाव मैदान में पटकनी देने की कोशिश कर सकती है।

उत्तर प्रदेश के कांग्रेस के नेता रामबहादुर ने बताया कि अगर विपक्षी दल इसी आधार पर ही चुनाव लड़े कि भाजपा को सत्ता से बेदखल करना है। तो आपसी सहमति जरूरी है।वैसे मौजूदा वक्त में उत्तर प्रदेश की सियासत में बदलाव के मोड़ पर है। बस जरूरी है नेताओं को जनता के बीच जाने की है।

भूपेंद्र पटेल आज लेंगे शपथ, शाह भी उपस्थित रहेंगे इस समारोह में

गुजरात में नेतृत्व परिवर्तन के बाद नए मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल आज दोपहर शपथ लेंगे। उनके शपथ समारोह में केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और भाजपा शासित राज्यों के  कुछ मुख्यमंत्री भी उपस्थित रहेंगे। पहली बार विधायक बने पटेल पाटीदार समुदाय से आते हैं। चर्चा है कि विजय रुपाणी सरकार में उप मुख्यमंत्री नितिन पटेल को नई सरकार में मंत्री पद मिल सकता है।

भूपेंद्र पटेल का शपथ समारोह दोपहर 2.20 बजे संभावित है। उनके साथ मंत्रियों को भी शपथ दिलाई जाएगी या नहीं, यह अभी साफ़ नहीं है। पटेल ने रविवार को विधायक दल का नेता चुने जाने के बाद राज्यपाल आचार्य देवव्रत से मुलाकात करके सरकार बनाने का दावा पेश किया था। मुख्यमंत्री के रूप में पटेल के ऊपर भाजपा  को अगले विधानसभा चुनाव में जिताने की जिम्मेवारी होगी।

गुजरात में आम तौर पर यह माना जाता है प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ही पार्टी का चुनाव में  वास्तविक चेहरा होते हैं। नए सीएम पटेल को पूर्व मुख्यमंत्री आनंदी बेन पटेल का नजदीकी माना जाता है। पता चला है कि गृह मंत्री अमित शाह इस शपथ समारोह में शिरकत करेंगे। शाह दोपहर 12.30 बजे अहमदाबाद पहुंच रहे हैं।

इस बीच मनोनीत मुख्यमंत्री भूपेंद्र पटेल ने अहमदाबाद में उपमुख्यमंत्री नितिन पटेल से मुलाकात की। पटेल, जिन्हें मुख्यमंत्री पद की दौड़ में माना जा रहा था, ने कहा है कि भूपेंद्र पटेल उनके पुराने पारिवारिक मित्र हैं और उन्होंने उन्हें बधाई दी है। पटेल ने कहा – ‘मुझे उन्हें सीएम के रूप में शपथ लेते देखकर खुशी होगी। जरूरत पड़ने पर उन्होंने मेरा मार्गदर्शन भी मांगा है।’