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कृषि कानूनों के खिलाफ दिल्ली में अकाली दल का प्रदर्शन; कई जगह जाम, बादल हिरासत में  

तीन कृषि कानूनों के लागू होने के एक साल के अवसर पर पंजाब की राजनीतिक पार्टी शिरोमणि अकाली दल (शिअद) ने केंद्र सरकार के खिलाफ शुक्रवार को राजधानी दिल्ली में प्रदर्शन किया। शिरोमणि अकाली दल तीन कृषि कानूनों के अधिनियमन के एक वर्ष पूरा होने पर आज काला दिवस मना रहा है। दिल्ली में आज अकाली आंदोलन के कारण कई जगह लम्बे जाम लगे हैं। इस बीच प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे सुखबीर सिंह बादल और उनकी पूर्व केंद्रीय मंत्री पत्नी हरसिमरत कौर बदल को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

राजधानी दिल्ली में अकाली कार्यकर्ता तीन कृषि कानूनों को वापस लेने की मांग के साथ आज संसद तक विरोध मार्च निकाल रहे हैं। प्रदर्शन को देखते हुए बड़ी संख्या में पुलिस तैनात की गयी है। दिल्ली में जगह-जगह पुलिस अकाली कार्यकर्ताओं को रोक रहे हैं, हालांकि संसद मार्ग की तरफ बढ़ रहे हैं।

अकाली दल का विरोध मार्च गुरुद्वारा रकाबगंज साहिब से संसद भवन तक निकाला जा रहा है। इसका नेतृत्व शिअद प्रमुख सुखबीर बादल और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल कर रहे हैं। तीन कृषि कानून 17 सितंबर, 2020 को संसद में पारित हुए थे और सुखबीर सिंह की पत्नी हरसिमरत कौर ने पंजाब में इनके विरोध को देखते हुए केंद्रीय मंत्रिपरिषद से इस्तीफा दे दिया था।

हरसिमरत ने आज कहा कि सैंकड़ों किसानों की आंदोलन के दौरान मौत हो चुकी है।   संख्या में किसान अभी भी राज्य की सीमाओं पर बैठे हैं लेकिन यह सरकार (केंद्र) उदासीन है। तीन कृषि कानूनों को निरस्त होने तक हम अपनी लड़ाई जारी रखेंगे।   कौर ने घटना से जुड़ा वीडियो भी शेयर किया और केंद्र सरकार पर जमकर हमला किया। उन्होंने कहा – ‘देश में अघोषित इमरजेंसी लगी हुई है।’

उन्होंने कहा कि दिल्ली पुलिस द्वारा शहर के एंट्री प्वॉइंट्स सील करना और गुरुद्वारा रकाबजगंज पहुंच रहे अकाली दल के कार्यकर्ताओं को हिरासत में लेना बहुत ही निंदनीय है। पुलिस तीन कृषि कानूनों के खिलाफ होने वाले इस मार्च को विफल करना चाहती है। यह एक अघोषित आपातकाल की तरह है।

इस बीच प्रदर्शन का नेतृत्व कर रहे सुखबीर सिंह बादल और उनकी पूर्व केंद्रीय मंत्री पत्नी हरसिमरत कौर बदल को पुलिस ने हिरासत में ले लिया है।

विराट का टी-20 की कप्तानी छोड़ने का एलान, टेस्ट और वन डे के कप्तान रहेंगे

कप्तानी के बोझ का बल्लेबाजी पर असर पड़ने से चिंतित विराट कोहली ने टी-20 क्रिकेट टीम की कप्तानी छोड़ने का ऐलान किया है। टी-20 विश्व कप के बाद वे इस फार्मेट की कप्तानी नहीं करेंगे। खुद कोहली ने ट्वीट करके यह जानकारी साझा की है।  विराट भारत की टेस्ट और वनडे टीम के कप्तान बने रहेंगे।

कोहली के मुताबिक उन्होंने यह फैसला करने से पहले बीसीसीआई, चयन कर्ताओं से बातचीत की है। उन्होंने कहा कि वे आने वाले टी20 वर्ल्ड कप के बाद इस फॉर्मेट में टीम इंडिया के कप्तान नहीं रहेंगे। हालांकि, कोहली इस फार्मेट में एक बल्लेबाज के तौर पर खेलते रहेंगे। टि्वटर हैंडल पर विराट की इस घोषणा से क्रिकेट के जानकार हैरान हैं। वैसे हाल में खबरें आई थीं कि कोहली किसी एक फॉर्मेट की कप्तानी छोड़ने की सोच रहे हैं।

भारतीय कप्तान ने गुरूवार देर शाम टि्वटर हैंडल पर एक लेटर ट्वीट करते हुए अपने फैसले की घोषणा की। विराट ने लिखा – ‘फैसले लेने से पहले मैंने अपने करीबी लोगों से इस पर खूब चर्चा की है। बीसीसीआई और चयनकर्ताओं से भी बात की।’ कहा जाता है कि कोहली ने मुख्य कोच रवि शास्त्री और सीमित ओवरों में भारतीय टीम के उपकप्तान रोहित शर्मा से भी सलाह मशविरा किया।

बता दें भारतीय क्रिकेट टीम आने वाले टी20 वर्ल्ड कप में 24 अक्टूबर से अपने अभियान की शुरुआत चिर-प्रतिद्वंद्वी पाकिस्तान के खिलाफ करेगी। इस वर्ल्ड कप के बाद विराट कोहली टी20 टीम की कमान छोड़ देंगे। विराट भारत की टेस्ट और वनडे टीम के कप्तान बने रहेंगे।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के जन्मदिन पर हिमाचल को केंद्रीय मंत्री अनुराग ठाकुर ने दी 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट की सौगात

 

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी 17 सितंबर को अपना 71वां जन्मदिन मनाएंगे। और इस विशेष अवसर को चिह्नित करने के लिए केंद्रीय सूचना एवं प्रसारण और युवा कार्यक्रम व खेल मंत्री अनुराग सिंह ठाकुर द्वारा 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट हिमाचल भेजी जा रही है। जिसे केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री मनसुख मंडाविया ने हरी झंडी दिखाकर हिमाचल के लिए रवाना किया।

पहाड़ों पर दूर बसे गांवों में लोगों को मुफ़्त चिकित्सा सुविधा उपलब्ध कराने के लिए सांसद मोबाइल स्वास्थ्य सेवा हमीरपुर संसदीय क्षेत्र के 5 जिलों, 17 विधानसभाओं, 800 पंचायतों के करीब 5000 गांवों में अपनी सेवा उपलब्ध कराएगी।

मोबाइल स्वास्थ्य सेवा के लाभार्थियों में 65 प्रतिशत महिलाएं व बुजुर्ग शामिल है। व सभी मोबाइल मेडिकल यूनिट अत्याधुनिक चिकित्सा उपकरणों से सुसज्जित है जो कि हिमाचल प्रदेश में लोगों के घर-घर जाकर उन्हें निशुल्क जांच, उपचार और दवाएं उपलब्ध कराएगी।

साथ-ही इस सेवा के अंतर्गत लिपिड प्रोफ़ाइल, एलएफटी, केएफटी, क्रिएटिनिन, यूरिक एसिड, शुगर, ग्लूकोज, हेपेटाइटिस-बी, हेपेटाइटिस-सी, इत्यादि जैसे 40 अलग-अलग प्रकार के टेस्ट व रोगियों को मुफ्त दवाएं उपलब्ध कराई जाऐंगी।

आपको बता दें कि, तीन वर्ष पूर्व शुरू की गयी इस सेवा में 15 मोबाइल मेडिकल यूनिट्स के बेड़े में शामिल होने से उनकी कुल संख्या बढ़कर 32 हो गर्इ है।

 

 

किसानों की हुंकार

महापंचायतों में अन्नदाताओं से सीधी राजनीतिक चुनौती मिलने से भाजपा पसोपेश में किसान देखते-ही-देखते केंद्र सरकार और भाजपा के गले की फाँस बन गये हैं। तीनों कृषि क़ानून वापस लेने की अपनी माँग पूरी न होते देख संयुक्त किसान मोर्चा ने सीधे भाजपा को निशाने पर ले लिया है और भाजपा की राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरकर राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। आगामी साल उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश में लगी भाजपा के लिए यह बेचैन करने वाला घटनाक्रम है। किसान आन्दोलन के रूख़, इससे बन रहे राजनीतिक हालात और भविष्य में इसके असर को लेकर बता रहे हैं विशेष संवादाता राकेश रॉकी :-

पिछले क़रीब 10 महीने से अन्नदाता आन्दोलन के लिए लगातार सडक़ पर हैं और केंद्र सरकार उनकी माँगों को अनसुना कर रही है। लेकिन 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा की महापंचायत ने उसकी नींद उड़ा दी है। अपने दिन-रात खेत में ख़पा देने वाला किसान बिना थके अपनी लड़ाई इस ताक़त से लड़ लेगा, सत्ता में बैठी ताक़तों ने शायद सोचा भी नहीं था। चुनाव की बेला में किसान की अपनी माँगों से हार न मानने की इस ज़िद ने सरकार की साँसें फुला दी हैं। किसान आन्दोलन बढ़ता जा रहा है। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक और देश के दूसरे हिस्सों में किसान मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ अब पूरी ताक़त से आ जुटे हैं। उन्हें पता है कि अगले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और भाजपा पर दबाव बनाने का यह सही मौक़ा है। शायद यही कारण है कि उन्होंने सीधे-सीधे मोदी सरकार और भाजपा को ही चुनौती दे दी है।

सच तो यह है कि मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की बड़ी महापंचायतों में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की सीधे राजनीतिक ललकार ने भाजपा के पसीने छुड़ा दिये हैं और वह दबाव में दिखने लगी है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य महीनों में भाजपा को चुनाव झेलने हैं और किसानों के प्रति जनसमर्थन देखते हुए पार्टी के नेताओं के माथे पर सिलवटें हैं। इसी महीने 27 को किसान ‘भारत बन्द’ कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए बाक़ायदा अपना एक कार्यक्रम घोषित कर दिया है। निश्चित है कि किसान अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी में हैं।

भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि किसान अब सीधे रूप से उसकी सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा देने लगे हैं। मोदी सरकार पहले से ही कई मोर्चों पर दबाव झेल रही है। भाजपा की सरकार वाले हरियाणा के करनाल में किसानों पर जिस निर्ममता से लाठीचार्ज करके उन्हें लहूलुहान किया गया, उससे आम आदमी भी रुष्ट हुआ है। इसके बाद किसान और तेज़ी से आन्दोलन को गति देने में जुट गये हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की महापंचायतों में किसान नेताओं की भाषा से ज़ाहिर हो गया है कि वे अब राजनीतिक मोर्चे पर भी भाजपा को ललकारने लगे हैं। चुनाव में भाजपा को किसानों की रणनीति भारी पड़ सकती है। मुज़फ़्फ़रनगर की जबरदस्त किसान महापंचायत के पाँच दिन के भीतर ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपने प्रभारियों की घोषणा कर दी, जो ज़ाहिर करता है कि वह दबाव में है और उसे चुनाव में अपनी जीत दोहराने को लेकर चिन्ता है। मुज़फ़्फ़रनगर, जो संयुक्त किसान मोर्चा के एक घटक भारतीय किसान युनियन (भाकियू) के नेता राकेश टिकैत का गृह क्षेत्र है; में देश भर के किसानों की जैसी भीड़ जुटी, उसने भाजपा को चिन्ता में डाल दिया है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार के रूख़ से आम जनता में भी नाराज़गी दिखती है। इसका एक कारण यह है कि किसानों के बच्चे सेना से लेकर दूसरे क्षेत्रों में रहकर देश की सेवा कर रहे हैं। किसान क़र्ज़ में दबकर आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार इसे लेकर कुछ नहीं कर रही। गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में भाजपा के क़रीबी अमीरों के क़र्ज़ माफ़ करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं। लेकिन किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की कोई बात इस सरकार ने कभी नहीं की। इसी अगस्त में संसद में एक सवाल के लिखित जबाव में वित्त राज्यमंत्री भागवत किशनराव कराड ने बताया था कि किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की सरकार की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है। नबार्ड के आँकड़े बताते हैं कि देश के किसानों पर इस समय क़रीब 16.8 लाख करोड़ रुपये का भारी भरकम क़र्ज़ है।

किसानों ने अपने आन्दोलन को अब प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। मोदी सरकार के मंत्री दर्ज़नों बार कह चुके हैं कि कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएँगे। लेकिन किसान अब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वे तब तक घर नहीं लौटेंगे, जब तक तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लिए जाते। साफ़ है किसान अब भाजपा और उसकी सरकार से आमने-सामने लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुके हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बीच में यह ख़बरें सामने आने से किसान और नाराज़ हुए कि भाजपा और केंद्र सरकार में कुछ ताक़तें किसानों की एकता में फूट डालने की कोशिशें कर रही हैं। जानकारी के मुताबिक, सरकार में कुछ लोग चाहते हैं कि किसनों के आन्दोलन को तोड़ देने से ही समस्या का हल निकलेगा। हालाँकि किसानों को इसकी भनक लगते ही उन्होंने अपने बीच ऐसी व्यवस्था की है कि भाजपा या सरकार  इसमें किसी भी सूरत में सफल न हो सके। फ़िलहाल तो किसानों में जबरदस्त एकता दिख रही है और उन्हें मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए इसकी सम्भावना कम ही दिखती है कि किसानों या संयुक्त मोर्चा के नेताओं में दो-फाड़ की नौबत आएगी।

 

भाजपा की चिन्ता

किसान आन्दोलन के बढ़ते दायरे से भाजपा को चुनाव की चिन्ता पैदा हो गयी है। क़रीब 10 महीने से जारी आन्दोलन के प्रति मोदी सरकार ने हमेशा बेपरवाह वाला रवैया दिखाया है। बीच में कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और अन्य मंत्रियों के किसानों के साथ बैठकों के कई दौर भी हुए; लेकिन सरकार एक बात पर हमेशा अड़ी रही कि तीनों कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, जबकि किसानों की मुख्य माँग ही यही है। उधर किसानों के आन्दोलन के दौरान कई ऐसे मौक़े आये हैं, जब पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ डंडे का सहारा लिया। बिना सरकार के इशारे के यह हो ही नहीं सकता। इससे किसान और भडक़े हैं।

अब जबकि किसानों ने अपना आन्दोलन तेज़ करने की तैयारी कर ली है और इसे तेज़ करने का फ़ैसला करते हुए सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है, जिससे पार्टी में बेचैनी है। उसे चिन्ता सता रही है कि कहीं किसानों की नाराज़गी भारी न पड़ जाए। किसान आन्दोलन ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत ही अहम राज्य की राजनीति में समीकरण बदल दिये हैं। मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत के बाद राजनीतिक असर साफ़ दिखने लगा है। भाजपा पर दबाव उसकी आन्दोलन से निपटने की तैयारियों से ज़ाहिर हो जाता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण फिर बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। किसान आन्दोलन का असर उसमें और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़रीब 136 विधानसभा सीटों पर जाटों का व्यापक असर है। इनमें 55 सीटों पर तो जाट-मुस्लिम आबादी क़रीब 40 फ़ीसदी है, जिसमें चुनावी समीकरण बदलने की क्षमता है।

उत्तर प्रदेश में जहाँ भाजपा को टक्कर देने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा के अलावा छोटे क्षेत्रीय दल भी कमर कस रहे हैं, वहीं आम आदमी पार्टी का लक्ष्य भी यही है।

प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है। बसपा आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोशी साधे है। भाजपा के प्रति बसपा और मायावती के नरम रूख़ को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में आश्चर्य से देखा जा रहा है। सच तो यह है कि मायावती से ज़्यादा तो उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी सक्रिय हैं। बसपा की चुनावी तैयारी न के बराबर है। कांग्रेस के सक्रिय होने से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति दिलचस्प ज़रूर हुई है; लेकिन अभी यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस की रणनीति क्या है और और वह किसके साथ तालमेल कर सकती है? प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है।

कांग्रेस के नेता यह स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हुई है और जनता में प्रियंका गाँधी के प्रति लगाव भी है। लेकिन संगठन कमज़ोर होने से इतना बड़ा चुनाव उसके लिए बड़ी चुनौती रहेगा। प्रत्याशियों के चयन से लेकर गठबन्धन तक की चुनौती है। सपा पहले ही कह चुकी है कि वह कांग्रेस से समझौता नहीं करेगी। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस बार-बार कह रही है कि वह अकेले ही चुनाव में उतरेगी। ऐसे में क्या यह माना जाए कि उसे किसानों से समर्थन की उम्मीद है? मुस्लिम समुदाय के अलावा ओबीसी और दलित मत (वोट) मिलने की भी कांग्रेस उम्मीद कर रही है। क्योंकि उसे लगता है कि यदि प्रियंका के नेतृत्व में चुनाव में उतरा जाता है, तो उसे चुनाव में प्रियंका की इंदिरा गाँधी वाली छवि से बड़ा लाभ मिल सकता है।

कांग्रेस ने जिस तरह सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में अचानक 21 सीटें जीत ली थीं, उससे यह तो ज़ाहिर होता है कि पिछले कुछ दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकार देख चुकी उत्तर प्रदेश की जनता कांग्रेस को भूली नहीं है और प्रियंका की छवि कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता भी दिला सकती है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि राह मुश्किल ज़रूर है, लेकिन पार्टी के लिए सम्भावनाओं के द्वार भी बहुत हैं।

अजीत सिंह की मृत्यु के बाद राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का ज़िम्मा उनके बेटे जयंत चौधरी पर है। रालोद कांग्रेस के साथ पहले भी गठबन्धन में रही है। हो सकता है कांग्रेस इसका प्रयास अगले चुनाव में भी करे। किसान आन्दोलन ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति की तस्वीर बदली है, उससे विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरणों के बदलने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। दिलचस्प यह है कि समाजवादी पार्टी को मुस्लिम-जाट के साथ आने की सम्भावना से अपने पक्ष में जो उम्मीद है, वही कांग्रेस को भी है। सपा और कांग्रेस के अलावा बसपा को भी झटका देने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी ख़ूब सक्रिय दिख रहे हैं। उन्हें विरोधी दल भाजपा को लाभ देने के लिए दूसरे दलों का वोट कटवा के रूप में चिह्नित कर रहे हैं। हालाँकि ख़ुद ओवैसी इसे सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसान भाजपा से सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं और वे चुनाव के समय भी उसके ख़िलाफ़ काम करेंगे। ऐसे में अन्य दलों के पास किसानों के समर्थन की गुंजाइश रहेगी। किसानों के आन्दोलन में राजनीति आने की सबसे बड़ी वजह भी भाजपा ही है। उसने किसान आन्दोलन के प्रति जैसा रूख़ दिखाया और भाजपा समर्थित सोशल मीडिया ने जिस तरह किसानों को ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी समर्थक बताकर उसे जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की उससे किसान बहुत ख़फ़ा हुए हैं। अपने ही देश में अपने हक़ के लिए लड़ाई लडऩे पर देश विरोधी क़रार देने से किसान दु:खी हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा कर उत्तर प्रदेश के किसानों की ही बात की जाए, तो उनके बेटे बड़ी संख्या में सेना में भर्ती होकर सीमाओं पर देश की सेवा कर रहे हैं। आतंकवादियों और दुश्मन देश की सीमा पर नापाक हरकतों में जान गँवाने वाले सेना के जवानों के किसान अभिभावकों को भला कोई कैसे ख़ालिस्तानी या देश विरोधी क़रार दे सकता है! यही कारण है कि किसान अब भाजपा के ख़िलाफ़ भी लामबन्द हो गये हैं।

उत्तर प्रदेश की ही तरह पंजाब में भी अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब में किसान आन्दोलन सबसे तीव्र रहा है। सच तो यह कि वर्तमान किसान आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से हुई। वहाँ सत्तारूढ़ अमरिंदर सिंह सरकार किसानों को लेकर शुरू से ही सहनुभूति वाला रवैया रखती रही है। भाजपा अब पुराने साथी अकाली दल के साथ नहीं है और उसने फ़िलहाल मायावती की बसपा से समझौता कर लिया है। जलियांवाला बाग़ के पुनरुद्धार के मामले में भाजपा को निजी नुक़सान सहना पड़ सकता है; क्योंकि आम लोगों ने पंजाब में इसे पसन्द नहीं किया है। उनका कहना है कि ऐसी धरोहर, जो शहादत से जुड़ी हो, उसे मनोरंजन स्थल नहीं बनाया जा सकता।

ऐसे में पंजाब में किसान चुनाव में बड़ा मुद्दा है। भाजपा ने पंजाब में एक तरह से अपनी क़ब्र ही खोद ली है। किसानों के इतने बड़े विरोध के बाद पंजाब में भाजपा के लिए कुछ ज़्यादा सम्भावना बची नहीं है। हाँ, गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के भाजपा में आने की अफ़वाहें ज़रूर पार्टी के नेता उछालते रहते हैं। आम आदमी पार्टी किसानों के प्रति सकारात्मक रूख़ ज़रूर अपनाती रही है। लेकिन उसने पंजाब में अपने संगठन में इतने ज़्यादा अंतद्र्वंद्व पैदा कर लिये हैं कि चुनाव आते-आते उसके बिखरने की स्थिति बन जाते हैं। भगवंत मान ख़ुद को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी का नेतृत्व दिल्ली की ताक़त को कमज़ोर नहीं करना चाहता।

अकाली दल की पैठ पंजाब के गाँवों में रही है; लेकिन तीन कृषि क़ानूनों के बनने अकाली दल की भाजपा का सहयोगी रहते भूमिका से किसान अप्रसन्न रहे हैं। ऐसे में उसके सामने भी किसानों की नाराज़गी का मसला है। किसान चुनाव के समय क्या रूख़ अपनाते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान संगठनों में कुछ नेता अकाली दल के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस अपने लिए बेहतर सम्भावना देख रही है। हालाँकि यह अलग बात है कि पार्टी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के धड़ों में तलवारें तनी हुई हैं।

हरियाणा में अभी चुनाव नहीं हैं; लेकिन भाजपा-जजपा की साझा सरकार की छवि किसानों के विरोधी वाली बन चुकी है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को किसान अपने ख़िलाफ़ मानते हैं और हाल में करनाल में आन्दोलन कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज की घटना, जिसमें घायल एक किसान की बाद में मौत भी हो गयी; के बाद उन्होंने करनाल की महापंचायत को स्थायी धरने में बदल दिया है। वहाँ के एक आईएएस अधिकारी की किसानों का सिर फोडऩे वाली ऑडियो क्लिप सरकार के गले की फाँस बन गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री खट्टर अधिकारी के समर्थन में खड़े दिखते हैं।

उधर उत्तर प्रदेश से लगते उत्तराखण्ड में भी अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं। वहाँ किसान न सिर्फ़ सक्रिय हैं, बल्कि बड़ी संख्या में उनके मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत में आने का भी दावा किया था। महापंचायत में किसान नेताओं ने जब भाजपा को हराने के संकल्प की बात की थी, तो उत्तराखण्ड का भी नाम लिया गया था। दिलचस्प यह कि वहाँ कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और उत्तराखण्ड में उसका वोट बैंक ठीकठाक है। इधर आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुके हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा की अपील ने उत्तराखण्ड में भाजपा को रक्षात्मक किया है, जिसने हाल ही में वहाँ अपना मुख्यमंत्री बदला है। जहाँ तक उत्तराखण्ड में किसानों के प्रभाव की बात है, तो क़रीब 25 विधानसभा सीटों पर उनका असर है। उत्तराखण्ड में किसान आन्दोलन पर्वतीय ज़िलों में नहीं पहुँचा है; लेकिन हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी और तराई वाले इलाक़ों में आन्दोलन का कम-ज़्यादा असर है। वैसे भी किसान नेता उत्तराखण्ड में महापंचायत करने की घोषणा कर चुके हैं, जिसके बाद माहौल गरमा सकता है।

सूबे में सिर्फ़ हरिद्वार शहर को छोडक़र अन्य सीटें किसान बहुल हैं। देहरादून में चार, उधमसिंह नगर में नौ और नैनीताल में तीन सीटों पर किसानों का प्रभाव है। पिछले चुनाव के नतीजे देखें, तो हरिद्वार की 11 सीटों में से आठ भाजपा ने जीती थीं। बता दें हरिद्वार शहर को छोड़ अन्य सभी सीटें किसानों के प्रभाव वाली हैं।

उधर देहरादून की 10 सीटों में से ऋषिकेश, डोईवाला, सहसपुर और विकासनगर विधानसभा किसान प्रभाव वाली हैं। उधमसिंह नगर ज़िले की तो सभी सीटें किसान बहुल हैं और नैनीताल में लालकुआँ, हल्द्वानी और कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्रों में किसानों का प्रभाव है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस ने अपने पुराने नेता हरीश रावत को चुनाव जिताने का ज़िम्मा दिया है। किसान आन्दोलन के असर से इस पहाड़ी राज्य में चुनावी राजनीति दिलचस्प हुई है।

कुल मिलाकर अगर केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लेती है, तो आने वाला लम्बा समय भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से बेहद ख़राब हो सकता है।

 

देश के 48 फ़ीसदी परिवार कृषि पर निर्भर

देश में किसानों की दुर्दशा तब है, जब देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 फ़ीसदी से ज़्यादा है। यहाँ यह भी बहुत अहम है कि कोरोना महामारी के चलते बनी आर्थिक मंदी के बीच भी किसानों की हिस्सेदारी का आँकड़ा काफ़ी बेहतर रहा है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 फ़ीसदी है। राज्यों के हिसाब से देखें, तो केरल में प्रति परिवार में चार, उत्तर प्रदेश में छ:, मणिपुर 6.4, पंजाब 5.2, बिहार 5.5, हरियाणा 5.3, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कृषि आधारित परिवार में औसतन 4.5 सदस्य हैं। कोरोना-काल में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है, जिसने देश की अर्थ-व्यवस्था को सँभाला है। लेकिन साल 2020 में ही मोदी सरकार ने महामारी के ही दौरान तीन कृषि क़ानूनों को लागू किया, जिनका किसान जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। किसानों की इस स्थिति ने यह सवाल तक उठा दिया है कि क्या सही में भारत कृषि प्रधान देश है? देखा जाए, तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार गिरती कृषि हिस्सेदारी, किसानों की गिरती आमदनी, क़र्ज़ में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्याएँ, युवाओं का खेती किसानी से मोह भंग होना और जलवायु परिवर्तन से अप्रत्याशित बाढ़, सूखे ने किसानों की कमर तोडक़र रख दी है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के 52 फ़ीसदी ज़िलों में किसानों से अधिक संख्या कृषि श्रमिकों की है। बिहार, केरल और पुदुचेरी के सभी ज़िलों में किसानों से ज़्यादा कृषि श्रमिकों की संख्या है। उत्तर प्रदेश में 65.8 मिलियन (6.58 करोड़) आबादी कृषि पर निर्भर है; लेकिन कृषि श्रमिकों की संख्या 51 फ़ीसदी और किसानों की संख्या 49 फ़ीसदी है। सरकार भले ही 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बातें करती है; लेकिन ऐसा कोई सरकारी आँकड़ा हमारे सामने नहीं है, जो यह बता सके कि किसानों की आमदनी हुई कितनी? किसान नेता आँकड़ों सहित बताते रहे हैं कि हाल के वर्षों में कृषि लागत इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि किसानों की आमदनी हक़ीक़त में कम हुई है। आमदनी घटने से किसानों की नयी पीढ़ी का किसानी से मोह भंग हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि कॉरपोरेट खेतों को खा रहा है। किसान इसीलिए तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कार्पोरेट बचे खेतों को भी खा जाएगा।

 

किसान आन्दोलनों ने बदली हैं सत्ताएँ

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए, तो किसान आन्दोलन सत्ता बदलने का बड़ा माद्दा रखते रहे हैं। इसलिए अब जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, मुज़फ़्फ़रनगर में महापंचायत कर किसानों ने सीधे भाजपा को ललकार कर अपनी ताक़त का संकेत तो दे दिया है। यदि पिछले तीन दशक का इतिहास देखें, तो ज़ाहिर होता है कि मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायतें सत्तारूढ़ दलों की क़ब्रगाह साबित होती रही हैं। इतिहास देखें तो ऐसी महापंचायतों की शुरुआत सन् 1987 में हुई थी। सन् 1988 से लेकर सन् 2013 तक मुज़फ़्फ़रनगर में हुई महापंचायतों ने सूबे की राजनीति ही प्रभावित नहीं हुई, सरकारें भी बदल गयीं। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) का जन्म ही मुज़फ़्फ़रनगर में हुआ, जिसने समय के साथ पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश पर प्रभाव बना लिया। महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में अगस्त, 1987 में मुज़फ़्फ़रनगर के सिसौली में हुई महापंचायत एक बड़े आन्दोलन का आधार बन गयी। किसानों की माँग बिजली और सिंचाई की दरें घटाने के अलावा फ़सल के उचित मूल्य की थीं। टिकैत के नेतृत्व में 35 माँगों पर कांग्रेस की सरकार से टकराव हुआ। किसानों ने जनवरी, 1988 में दिल्ली के वोट क्लब में धरना दिया। इसके बाद सन् 1989 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चुनाव में कांग्रेस को बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा और सत्ता से दोनों जगह हाथ धोना पड़ा। इसके बाद फरवरी, 2003 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने सीधे मायावती सरकार को ललकारते हुए बड़ी महापंचायत की। बाद में एक धरना हुआ, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ भाँज दीं। इसके विरोध में हुई महापंचायत में लाखों किसान जुट गये। नतीजा यह हुआ कि साल बाद मायावती के विधायकों की बग़ावत से उनकी सत्ता चली गयी। मुलायम सिंह यादव ने इन विधायकों की मदद से अजित सिंह के रालोद के समर्थन से सरकार बना ली। मायावती का पीछा किसानों ने सन् 2008 में भी नहीं छोड़ा। बिजनौर में टिकैत की मायावती के ख़िलाफ़ जातिसूचक टिप्पणी के बाद टिकैत को गिरफ़्तार करने के आदेश हुए; लेकिन किसानों ने टिकैत के घर जाने वाली सभी सडक़ों को बन्द कर दिया। हालाँकि चार दिन के बाद टिकैत की गिरफ़्तारी हुई और इसके बाद बसपा सरकार के ख़िलाफ़ महापंचायत की गयी। इसमें भी किसानों ने टिकैत के नेतृत्व में सीधे बसपा सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संकल्प किया और सन् 2012 के चुनाव में मायावती सत्ता से बाहर हो गयीं। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के ही चर्चित कवाल कांड के बाद महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने सितंबर, 2013 में जाटों की बड़ी महापंचायत की। यह माना जाता है कि नंगला मंदौड की यह पंचायत जाट-मुस्लिम जंग की वजह बनी, जिससे पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के आक्रोश ने 2017 में सपा की सत्ता छीन ली। इसके बाद ही भाजपा सत्ता में आयी। अब सितंबर, 2021 में मुज़फ़्फ़रनगर में किसानों की महापंचायत में सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ किसानों ने बिगुल फूँक दिया है। यह स्थिति सन् 1987 की याद दिलाती है, जब केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जबकि राज्य में भी कांग्रेस के सरकार थी। अब फिर केंद्र के साथ-साथ कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और किसानों ने विद्रोही तेवर अपना लिये हैं। ज़ाहिर है भाजपा किसानों के इन तेवरों से रक्षात्मक है।

 

“सिर्फ़ खेती-किसानी नहीं, बल्कि सरकारी संस्थानों के निजीकरण, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर भी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन करना होगा। अडिय़ल सरकार को झुकाने के लिए वोट की चोट ज़रूरी है। देश बचेगा, तभी संविधान बचेगा। सरकार ने रेल, तेल और हवाई अड्डे बेच दिये हैं। किसने सरकार को यह हक़ दिया। ये बिजली बेचेंगे और प्राइवेट करेंगे। सडक़ बेचेंगे और सडक़ पर चलने पर हम लोगों से टैक्स (कर) भी वसूलेंगे। दिल्ली बॉर्डर पर भले हमारी क़ब्रगाह बन जाए, जब तक हमारी माँगें नहीं मानी जाएँगी, तब तक हम वहाँ डटे रहेंगे। वहाँ से नहीं हटेंगे। अगर वहाँ पर हमारी क़ब्रगाह बनेगी, तो भी हम मोर्चा नहीं छोड़ेंगे। बग़ैर जीते वापस घर नहीं जाएँगे।“

राकेश टिकैत

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता

 

 

@RahulGandhi

डटा है

निडर है

इधर है

भारत भाग्य विधाता!

#FarmersProtest

किसानों पर क़र्ज़ का बोझ

हाल में पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने किसानों के 590 करोड़ रुपये के क़र्ज़ को माफ़ करने की घोषणा की थी। क़र्ज़ माफ़ी मज़दूरों और भूमिहीन कृषक समुदाय के लिए कृषि ऋण माफ़ी योजना के तहत है। पंजाब सरकार का कहना है कि उसने इस योजना के तहत अब तक 5.64 लाख किसानों का 4,624 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है। छत्तीसगढ़ सहित कुछ अन्य राज्यों में भी किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने की घोषणाएँ हुई हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि किसानों पर इस समय 16.8 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है।

ये आँकड़े सरकार के हैं, जो अगस्त में एक सवाल के लिखित जवाब में संसद में पेश किये गये थे। इनके मुताबिक, क़र्ज़ में सबसे ज़्यादा तमिलनाडु के किसान हैं। वहाँ किसानों पर 1.89 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। संसद में पेश किये गये विवरण (डाटा) के मुताबिक, अग्रणी (टॉप) पाँच राज्यों में तमिलनाडु के किसानों पर 1,89,623.56 करोड़ रुपये, आंध्र प्रदेश के किसानों पर 1,69,322.96 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश के किसानों पर 1,55,743.87 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र के किसानों पर 1,53,658.32 करोड़ रुपये, कर्नाटक के किसानों पर 1,43,365.63 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। जहाँ तक क़र्ज़ वाले बैंक खातों की बात है, तो अग्रणी पाँच राज्यों में तमिलनाडु के 1,64,45,864 खाते, उत्तर प्रदेश के 1,43,53,475 खाते, आंध्र प्रदेश के 1,20,08,351 खाते, कर्नाटक के 1,08,99,165 खाते, महाराष्ट्र के 1,04,93,252 खाते हैं। कम क़र्ज़ वाले अग्रणी पाँच राज्यों की बात करें, तो दमन और दीव के किसानों पर 40 करोड़ रुपये, लक्षद्वीप के किसानों पर 60 करोड़ रुपये, सिक्किम के किसानों पर 175 करोड़ रुपये, लद्दाख़ के किसानों पर 275 करोड़ रुपये और मिजोरम के किसानों पर 554 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। कम क़र्ज़ के किसान खातों वाले अग्रणी पाँच राज्यों में दमन और दीव के 1,857 खाते, लक्षद्वीप के 17,873 खाते, सिक्किम के 21,208 खाते, लद्दाख़ के 25,781 खाते, जबकि दिल्ली के 32,902 खाते शामिल हैं।

 

 

 

 

राज्यों और नेताओं की जंग में उलझी कांग्रेस

संगठन की मज़बूती के प्रयासों को इससे लग रहा है धक्का

क्या पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने की तैयारी कर रहे हैं? पंजाब कांग्रेस के प्रभारी हरीश रावत, जो मीडिया के सामने पंजाब कांग्रेस के संकट की बात को हमेशा अपने अंदाज़ में टाल देते हैं; ने सितंबर के पहले हफ़्ते में अचानक यह कहकर सबको चौंका दिया कि ‘यस, ऑल इस नॉट वेल इन पंजाब कांग्रेस’ (हाँ, पंजाब कांग्रेस में सब कुछ सही नहीं है)। तो क्या पंजाब कांग्रेस में कुछ बड़ा होने वाला है? चर्चा है कि भाजपा मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह को पार्टी में शामिल करवाने की जी-तोड़ कोशिश कर रही है। पंजाब ही नहीं छत्तीसगढ़ में भी कांग्रेस नेतृत्व के सामने मुख्यमंत्री पद के लिए दो नेताओं में छिड़ी जंग गम्भीर संकट की तरह खड़ी होती दिख रही है। उधर राजस्थान में मुख्यमंत्री अशोक गहलोत और कभी उनके सहायक (डिप्टी) रहे सचिन पायलट के बीच एक साल में भी सुलह नहीं हो पायी है। कांग्रेस अपनी इन समस्यायों से उबरने की कोशिश कर रही है। यह भी सम्भावना है कि जल्दी ही कांग्रेस अध्यक्ष के पद पर भी स्थायी व्यवस्था कर लेगी।

कांग्रेस की दिक़्क़त यह है कि केंद्र में उसकी सात साल से सरकार नहीं और जिन राज्यों में है, वहाँ मुख्यमंत्री पद के लिए नेता आपस में लड़ रहे हैं। आलाकमान लाख चाहकर भी इस संकट का हल नहीं निकाल पा रहीं। भाजपा इसे अपने लिए मुफ़ीद मान रही है और उसके क्षेत्रीय नेता अपने भाषणों में कांग्रेस की इस लड़ाई को ख़ूब भुना रहे हैं। कांग्रेस के लिए यह संकट की स्थिति इसलिए भी है; क्योंकि उसे अगले साल कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव लडऩे हैं। कांग्रेस की इस लड़ाई का जनता में निश्चित ही उलटा संकेत जाने के भय से कांग्रेस घिरी है।

पहले पंजाब की बात करते हैं, जहाँ मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के बीच छिड़ी जंग में भाजपा अपने लिए रास्ता तलाश कर रही है। अगस्त के आख़िर में अमरिंदर सिंह जब कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी से मिलने दिल्ली गये थे, तो वह प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह से भी मिले थे। इसके बाद ही यह चर्चा शुरू हुई कि कैप्टन आलाकमान द्वारा सिद्धू को प्रदेश अध्यक्ष बनाने और उसके बाद सिद्धू द्वारा सरकार के ख़िलाफ़ बयानों के बावजूद आलाकमान (राहुल-प्रियंका) के चुप रहने से बहुत ख़फ़ा हैं और वह कोई रास्ता तलाश कर रहे हैं।

क्या अमरिंदर सचमुच दशकों पुरानी अपनी पार्टी कांग्रेस से उम्र के इस मोड़ पर विद्रोह करेंगे? यह एक बड़ा और मुश्किल सवाल है। भाजपा कोशिश कर रही है कि अमरिंदर उसके साथ आ जुड़ें, तो वह पंजाब में किसानों से पैदा हुई अपने ख़िलाफ़ बड़ी नाराज़गी और जलियांवाला बाग़ के सौन्दर्यीकरण से उठे विवाद के दाग़ को किसी हद तक धो सकती है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने ही जलियांवाला बाग़ सौन्दर्यीकरण का आभासी (वर्चुअल) उद्घाटन किया था।

लोगों में इस बात को लेकर बेहद नाराज़गी है कि मोदी सरकार ने अंग्रेजी हुकूमत के ज़ोर-ओ-ज़ुल्म की निशानी को मिटा दिया। लोग इसे शहीदों का अपमान मान रहे हैं, जिनके आगे लोग वहाँ शीश नवाते हैं। वहाँ लाइट शो आयोजित करने से भी लोग बहुत बिफरे हैं। मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के मसले पर मोदी के हक़ वाले बयान को लेकर भी लोग राजनीतिक सन्दर्भ में देख रहे हैं। लेकिन ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा में नहीं जा रहे हैं। उनके नज़दीकी कम-से-कम तीन नेताओं ने नाम न छापने की शर्त पर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता से बातचीत में इस चर्चा को ‘कोरी बकवास’ बताया। हालाँकि उन्होंने यह बात स्वीकार की कि कैप्टन नाराज़ हैं और उनकी नाराज़गी की बड़ी वजह सिद्धू हैं। इन नेताओं में से एक ने यह बात स्वीकार की कि ‘यदि कैप्टन ज़्यादा नाराज़ हुए, तो अपनी अलग पार्टी बनाने की भी सोची जा सकती है।’

अलग पार्टी की बात इसलिए वज़न रखती है कि यदि ऐसा करके कैप्टन अगले चुनाव में 30 सीटें जीत जाते हैं, तो कांग्रेस से सौदेबाज़ी करके दोबारा मुख्यमंत्री बन सकते हैं। वैसे कैप्टन इस तरह की राजनीति करने के लिए नहीं जाने जाते, क्योंकि उन्हें सोनिया गाँधी का क़रीबी माना जाता है। भले वह राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के उतने निकट न हों। ऐसे में उनके लिए कांग्रेस छोडक़र जाने की सम्भावना होने के बावजूद यह उतना सरल नहीं दिखता। वैसे भी कांग्रेस यह संकेत दे चुकी है कि अगला चुनाव पार्टी अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में ही लड़ेगी।

चुनाव के लिहाज़ से पंजाब कांग्रेस के लिए कुछ महीने पहले तक बड़ी सम्भावना वाला प्रदेश था। ऐसा नहीं है कि अब उसके लिए अवसर ख़त्म हो गया है। ज़मीनी स्तर पर अभी भी कांग्रेस अपने मुख्य विरोधियों अकाली दल, आप और भाजपा से आगे दिखती है। लेकिन कैप्टन अमरिंदर और सिद्धू की लड़ाई से उसे काफ़ी नुक़सान हुआ है। यदि चुनाव तक अमरिंदर कांग्रेस में ही रहते हैं और दोनों में जंग जारी रहती है, तो विधानसभा चुनाव कांग्रेस के लिए काफ़ी बड़ी चुनौतियाँ रहेंगी।

किसान आन्दोलन ने पंजाब की राजनीति में काफ़ी बदलाव लाया है। किसानी पंजाब के सभी वर्गों के लिए अहम रही है। पंजाब में एक उसूलहै कि खेती और संस्कृति (कल्चर और एग्रीकल्चर) को बचाने के लिए कोई भी बलिदान दिया जा सकता है। ऐसे में किसान आन्दोलन कम-से-कम भाजपा के लिए तो गले की फाँस ही बनकर आया है। किसानों का आन्दोलन लगातार जारी है और हाल में हरियाणा के करनाल में किसानों पर भाजपा सरकार की पुलिस के लाठीचार्ज, जिसमें दर्ज़नों किसान लहूलुहान हो गये और एक किसान की मौत भी हो गयी; से भाजपा को हरियाणा में ही नहीं, पंजाब में और भी राजनीतिक नुक़सान हुआ है। पंजाब में किसान आन्दोलन से भाजपा की चुनावी सम्भावनाएँ क्षीण हुई हैं। वैसे भी पंजाब में भाजपा कभी अपने बूते कोई राजनीतिक ताक़त नहीं रही। उसका सहारा अकाली दल रहा है, जिससे फ़िलहाल उसकी दूरी चल रही है। ऐसे में अमरिंदर सिंह भाजपा में जाने का फ़ैसला सिर्फ़ इस कारण से कर लें कि नवजोत सिंह सिद्धू के आने से उनके दोबारा पंजाब का मुख्यमंत्री बनने की सम्भावना क्षीण हुई है; तो यह हैरानी की बात होगी। कारण साफ़ है कि भाजपा में जाने से तो उनके मुख्यमंत्री बनने की कोई सम्भावना दूर-दूर तक नहीं दिखती।

इसका एक ही तरीक़ा हो सकता है कि अमरिंदर सिंह पंजाब में अपनी कोई राजनीतिक पार्टी खड़ी कर लें। इससे वह चुनाव बाद के परिदृश्य के लिहाज़ से अपने राजनीतिक भविष्य का फ़ैसला कर सकते हैं। हालाँकि इसके लिए यह भी ज़रूरी होगा कि वह अपने बूते 30 से ज़्यादा सीटें लेकर आएँ, जो फ़िलहाल सम्भव नहीं दिखता। कारण यह है कि चुनाव अगले साल ही हैं और उन्हें इसकी तैयारी करने के लिए वक़्त भी चाहिए।

पंजाब की राजनीति को समझने वाले मानते हैं कि कांग्रेस में रहकर अमरिंदर के लिए कहीं ज़्यादा सम्भावनाएँ हैं। परदे के पीछे यह भी कहा जाता है कि अमरिंदर कांग्रेस में ही रहे, तो अगले चुनाव में सिद्धू को चुनाव में हरवाने की भी कोशिश हो सकती है, ताकि वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ से ही बाहर हो जाएँ। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, अमरिंदर ने कांग्रेस में अभी उम्मीद नहीं छोड़ी है। हाल में करनाल में किसानों पर लाठीचार्ज को लेकर हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के साथ जिस कटुता के स्तर पर अमरिंदर सिंह का ट्विटर वार हुआ है, उससे नहीं लगता वह भाजपा में जाने की सोच रहे हैं।

कांग्रेस के लिए समस्या यह है कि उसे पंजाब की लड़ाई को जल्दी निपटाना होगा; क्योंकि राज्य के प्रभारी हरीश रावत उत्तराखण्ड में व्यस्त होने वाले हैं, जहाँ कांग्रेस उन्हें मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में पेश कर सकती है। सच तो यह है कि रावत ने 3 सितंबर से उत्तराखण्ड में विधानसभा चुनाव के लिए अपनी मुहिम शुरू भी कर दी है। कांग्रेस उत्तराखण्ड में अपने लिए काफ़ी सम्भावनाएँ देख रही हैं। इसलिए वह रावत को लम्बे समय तक पंजाब में नहीं फँसाये रखना चाहती है।

दरअसल पंजाब में कांग्रेस विधायकों में इस बात पर नाराज़गी है कि चुनाव के समय किये गये वादे अमरिंदर सरकार ने पूरी नहीं किये हैं। इसके अलावा धार्मिक रूप से संवेदनशील गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी का मामला भी है, जिसमें कोई ठोस कार्रवाई अभी तक नहीं हुई है। सिद्धू और उनके समर्थक विधायकों के अलावा अन्य विधायक भी यह मसला आलाकमान के सामने उठा चुके हैं। यह माना जाता है कि आलाकमान ने अमरिंदर को चुनाव के वादे चुनाव से पहले पूरे करने को कहा है।

अमरिंदर सिंह के सही राजनीतिक रूख़ का पता दिसंबर तक चलेगा। उनके लिए ग़ुस्सा पैदा करने वाली एक ही बात है और वह है कि उनके जैसे वरिष्ठ नेता के ख़िलाफ़ सिद्धू के बयानों पर कांग्रेस नेतृत्व चुप्पी साध लेता है। अमरिंदर के नज़दीकियों का कहना है कि आलाकमान को इस मामले में हस्तक्षेप करके सिद्धू को चाहिए कि वह कम-से-कम कैप्टन के ख़िलाफ़ व्यक्तिगत हमले न करें।

ऐसे में पंजाब की राजनीति में आने वाले एक-दो महीने काफ़ी अहम हैं। कांग्रेस की राजनीति पंजाब की पूरी राजनीति को प्रभावित करेगी। इसमें कोई दो-राय नहीं कि पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू सूबे में राजनीतिक आधार नहीं रखते। अमृतसर से तीन बार (भाजपा में रहते हुए) सांसद बनना उनकी ज़मीनी राजनीतिक पकड़ को ज़ाहिर करता है। भले सिद्धू अपने बड़बोलेपन के कारण भाजपा और कांग्रेस के भीतर आलोचना का सामना करते रहे हों, राज्य में वह कांग्रेस के लिए वोट हैं; इससे इन्कार नहीं किया जा सकता। हाँ, यदि अमरिंदर सिंह कहीं भाजपा में ही जाने का फ़ैसला कर लेते हैं, तब पंजाब की चुनावी राजनीति के परिदृश्य पर निश्चित ही असर पड़ेगा। पंजाब जैसी ही समस्या का सामना कांग्रेस छत्तीसगढ़ में भी कर रही है। अनिर्णय की स्थिति से मुख्यमंत्री भूपेश बघेल और उनके स्वास्थ्य मंत्री टी.एस. सिंहदेव के बीच जंग छिड़ी हुई है। राज्य के इतिहास में यह पहली बार है कि वहाँ इस तरह की राजनीतिक अस्थिरता की सम्भावना बन रही है। अभी तक यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस के दो गुटों की लड़ाई वहाँ क्या रूप लेगी? बघेल मुख्यमंत्री पद छोडऩा नहीं चाहते और सिंहदेव ढाई साल पहले के वादे के मुताबिक मुख्यमंत्री बनना चाहते हैं।

कांग्रेस आलाकमान के लिए दिक़्क़त यह है कि उसकी अपनी स्थिति यह कहती है कि मुख्यमंत्री के रूप में बघेल जनता का भरोसा जीतने में सफल रहे हैं। पार्टी को लगता है कि ऐसी स्थिति में बघेल का जाना पार्टी को महँगा भी पड़ सकता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि सिंहदेव परिपक्व राजनीतिक नेता हैं और राज्य को सँभालने की क्षमता रखते हैं। लेकिन जनता में जैसी छवि बघेल बनाने में सफल रहे हैं, उससे ज़मीन पर कांग्रेस सत्ता के क़रीब तीन साल बाद भी विरोधी भाजपा के मुक़ाबले काफ़ी मज़बूत दिखती है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक घटनाक्रम से उसे नुक़सान की आशंका से इन्कार नहीं किया जा सकता।

कांग्रेस की इस लड़ाई को देखते हुए भाजपा ने अभी से जनता के बीच जाना और कार्यक्रमों का आयोजन करना शुरू कर दिया है। भाजपा देख रही है कि यदि कांग्रेस की जंग बढ़ती है, तो सत्ता में उसके लौटने का रास्ता खुल सकता है। पिछले चुनाव में छत्तीसगढ़ में कांग्रेस को तीन-चौथाई बहुमत मिला था, लिहाज़ा उसकी सरकार काफ़ी टिकाऊ रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि बघेल सरकार चुनाव से पहले किये वादों पर काम भी कर रही है। लिहाज़ा भाजपा के पास सरकार की निंदा करने के कोई ज़्यादा मुद्दे थे नहीं थे; लेकिन कांग्रेस के दो बड़े नेताओं के बीच सत्ता की लड़ाई से मानों भाजपा की लॉटरी निकल गयी है।

सिंहदेव और बघेल के बीच इस उठापटक से जनता में यह सन्देश जा रहा है कि कांग्रेस के नेता कुर्सी के भूखे हैं। भाजपा यही चाहती थी कि कांग्रेस के बीच ही ऐसे समीकरण बनें कि उसे जनता के बीच बघेल सरकार की खिंचाई करने का मसाला मिल जाए। यह अब उसे मिल गया है और उसने जन भागीदारी वाले कार्यक्रमों के ज़रिये सरकार पर हमले तेज़ कर दिये हैं। कांग्रेस के लिए इस सरकार के सफलता इसलिए भी ज़रूरी है कि उसे 15 साल के लम्बे अंतराल के बाद छत्तीसगढ़ में सत्ता हासिल हुई है।

नेताओं के बार-बार दिल्ली जाने से राज्य की परियोजनाओं और विकास कार्यों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है और इसका सीधा असर जनता पर पड़ेगा। कांग्रेस के नेता इसे राजनीति की सामान्य प्रक्रिया बताते हैं और उनका कहना है कि यह सब प्रजातंत्र का हिस्सा है। लेकिन राज्यों में कांग्रेस नेताओं की लड़ाई से आलाकमान की पेचीदगियाँ बढ़ गयी हैं। छत्तीसगढ़ में 2023 में विधानसभा के चुनाव होने हैं और उससे पहले नेतृत्व परिवर्तन से कांग्रेस को नयी शुरुआत करनी पड़ेगी।

छत्तीसगढ़ को लेकर कांग्रेस में यही साफ़ नहीं है कि क्या विधानसभा चुनाव के बाद मुख्यमंत्री पद को लेकर ढाई-ढाई साल का कोई समझौता हुआ था या नहीं? सिंहदेव के समर्थक इस समझौते के आधार पर ही मुख्यमंत्री पद का दावा कर रहे हैं, जबकि बघेल का ख़ेमा कह रहा है कि ऐसा कोई समझौता हुआ ही नहीं है। पिछले तीन महीने में कांग्रेस में यही जंग चल रही है। देश की सत्ता में इतने दशक तक रही कांग्रेस की इस स्थिति को दयनीय ही कहा जाएगा।

पिछले दो महीने में मुख्यमंत्री भूपेश बघेल छ: बार से ज़्यादा दिल्ली इसी सिलसिले में जा चुके हैं। उधर मुख्यमंत्री पद पर नज़र गड़ाये बैठे सिंहदेव भी कई बार दिल्ली जा चुके हैं। दिलचस्प यह है कि पार्टी के विधायक और मंत्री भी अपने-अपने नेताओं के साथ दिल्ली पहुँच जाते हैं। ज़ाहिर है इसका असर सरकार के कामकाज पर भी पड़ा  है। कांग्रेस इसे समझ नहीं रही या समझ के भी अपने पाँव पर कुल्हाड़ी मार रही है, यह पता नहीं।

राजस्थान में एक साल से ज़्यादा हो चुका है। सचिन पायलट की पार्टी में अपनी अवस्था को लेकर कुछ माँगें थीं; लेकिन इनका समाधान नहीं हो पाया है। उनके समर्थक विधायकों की शिकायत है कि सरकार में उनकी चलती नहीं, क्योंकि अफ़सर उनकी सुनते नहीं। मंत्रियों की सुझायी परियोजनाएँ ठण्डे बस्ते में पड़ी हैं।

अब यह साफ़ हो चुका है कि कांग्रेस के भीतर सोनिया गाँधी और राहुल-प्रियंका की पसन्द के नेताओं के बीच लकीर खिंच चुकी है। पंजाब से लेकर छत्तीसगढ़ और राजस्थान तक यह लड़ाई शुरू हो चुकी है। ऐसा नहीं है कि 10 जनपथ और राहुल और प्रियंका के बीच कोई खाई पैदा हो गयी है। यह लड़ाई प्रदेश स्तर के नेताओं के मामले तक सीमित है, जहाँ सोनिया गाँधी पुराने नेताओं को खोना नहीं चाहतीं; जबकि राहुल गाँधी अपनी एक टीम खड़ी करना चाहते हैं। लेकिन इसी चक्कर में कांग्रेस की फ़ज़ीहत हो रही है और भाजपा उसका मज़ाक़ उड़ा रही है।

 

कांग्रेस में प्रशांत किशोर आएँगे?

कांग्रेस के बीच आजकल चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की बड़ी चर्चा है। पंजाब के मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के राजनीतिक सलाहकार के पद से इस्तीफ़े के बाद उनके कांग्रेस में शामिल होने के कयास लगाये जा रहे हैं। कांग्रेस के नेता इस मसले पर बँटे दिखायी दे रहे हैं। विरोध करने वालों का मानना है कि एक ग़ैर-राजनीतिक चुनावी रणनीतिकार को एक नेता के रूप में स्वीकार नहीं किया जा सकता। हाल में वरिष्ठ नेता कपिल सिब्बल के घर पर एक बैठक हुई थी, जिसमें प्रशांत किशोर के कांग्रेस में आने की ख़बरों पर भी चर्चा हुई थी। कहते हैं कि कुछ नेताओं ने इस पर विरोध किया था और उनका कहना था कि राजनीति की दिशा राजनीतिक तय करते हैं; चुनावी रणनीतिकार नहीं। हालाँकि इसी बैठक में ऐसे नेता भी थे, जिन्होंने किशोर को पार्टी के लिए लाभकारी बताया और इस बात का समर्थन किया कि उन्हें कांग्रेस में आना चाहिए। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पार्टी नेतृत्व प्रशांत किशोर को पार्टी में शामिल करने के लिए बाक़ायदा सलाह कर रहा है; ताकि सबकी राय जानी जा सके। दो वरिष्ठ नेता ए.के. एंटनी और अंबिका सोनी नेताओं से बातचीत करके जल्दी ही एक रिपोर्ट आलाकमान को देंगे।

 

समितियों का गठन

28 August 2021 Amritsar
The renovated Jallianwala Bagh Martyrs’ Memorial, which has been inaugurated via video conference by Indian Prime Minister Narendra Modi, is seen illuminated in Amritsar on Saturday.
PHOTO-PRABHJOT GILL AMRITSAR

आने वाला समय कांग्रेस के लिए काफ़ी महत्त्वपूर्ण है। संगठन को सक्रिय करने के लिए सोनिया गाँधी ने हाल में दो समितियों का गठन किया है, जिसमें मनमोहन सिंह के नेतृत्व में एक समिति में जी-23 के नेता गुलाम नबी आज़ाद और दो अन्य नेता भी शामिल हैं। इसके अलावा दिग्विजय सिंह के नेतृत्व में राष्ट्रीय मुद्दों पर देशव्यापी आन्दोलन चलाने के लिए भी एक समिति का गठन किया गया है। इससे यह संकेत मिलता है कि मध्य प्रदेश की राजनीति से राष्ट्रीय राजनीति में मज़बूत किया जा रहा है। कमलनाथ पहले से ही दूसरे दलों से बातचीत के मामले काफ़ी सक्रिय रहे हैं।

अंतर्विरोधों के बीच अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान सरकार

भारत की नज़र उसके सहयोगी आतंकी संगठनों पर, कश्मीर सबसे बड़ी चिन्ता

अफ़ग़ानिस्तान में आख़िर तालिबान की सरकार बन गयी। कुछ अंतर्विरोध अभी बने हुए हैं; लेकिन सभी घटक कोशिश कर रहे हैं कि बाक़ी दुनिया में उनके बीच मतभेदों का संकेत दुनिया में न जाए। उनके बीच आपसी मतभेद हैं यह पूरी नहीं, बल्कि अंतरिम सरकार बनाने के उनके फ़ैसले से साबित हो जाता है। इस लिहाज़ से जिस सरकार का गठन किया गया है, उसमें प्रधानमंत्री से लेकर सभी मंत्री कार्यकारी ज़िम्मा सँभाल रहे हैं। भारत सहित दुनिया के सभी देशों, ख़ासकर भारत की नज़र अब अफ़ग़ानिस्तान पर है। भारत के लिए यह इसलिए भी अहम है। क्योंकि तालिबान के घटक अलक़ायदा ने कश्मीर को लेकर जो बयान दिये हैं, उनसे यह आशंका ज़ाहिर होती है कि वहाँ आतंकवादी गतिविदियों को हवा दी सकती है।

ख़ुद तालिबान के प्रवक्ताओं के बयान कश्मीर को लेकर भ्रामक रहे हैं। एक तरफ़ वह अपनी ज़मीन दूसरे देशों के ख़िलाफ़ इस्तेमाल नहीं होने देने का दम्भ भर रहे हैं। वहीं अन्य प्रवक्ता मुस्लिम बहुसंख्यक कश्मीर को लेकर चिन्ता जता रहे हैं। ऐसे में यह आशंका स्वाभाविक ही है कि तालिबान सरकार का कश्मीर को लेकर क्या आधिकारिक रूख़ रहेगा? इसकी जानकारी आने वाले दिनों में ही मिल पाएगी।

क़तर में भारत के राजदूत जब तालिबान के नेताओं से मिले थे, तब भारत की तरफ़ से अफ़ग़ानिस्तान की ज़मीन का भारत के ख़िलाफ़ इस्तेमाल करने की आशंकाओं और चिन्ताओं के प्रति उन्हें अवगत करवाया गया था। ‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, पाकिस्तान की ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के प्रमुख जनरल फ़ैज़ अहमद सितंबर के पहले हफ़्ते जब अपने लाव-लश्कर के साथ काबुल पहुँच गये थे, तभी यह लगने लगा था कि पाकिस्तान तालिबान और उसके घटकों के  ज़रिये अपना एजेंडा चलाना चाहता है। और इसमें कश्मीर आईएसआई की सूची में सबसे ऊपर रहा है।

पंजशीर में तालिबान के क़ब्ज़े के दावों में पाकिस्तान की बड़ी भूमिका रहने की बातें अब रहस्यमय नहीं रह गयी हैं। भले पंजशीर की तस्वीर अभी पूरी तरह साफ़ नहीं है। यहाँ तक कि चीन की भूमिका को लेकर भी कयास हैं। यह सब चीज़ें भारत के लिए निश्चित ही चिन्ता का सबब हैं। कश्मीर को लेकर अलक़ायदा ने जो बयान दिया है, वह उसके इरादों की झलक देता है।

कश्मीर को लेकर तमाम बातों के बावजूद एक सच यह भी है कि वहाँ के लोग तालिबान को पसन्द नहीं करते। कश्मीर में सेना की बड़े पैमाने पर उपस्थिति भी आतंकी गतिविधियों के तेज़ होने की राह में बड़ा रोड़ा है। इसके बावजूद यह तय है कि कश्मीर में माहौल को ख़राब करने की बड़े स्तर पर कोशिश होगी। ख़ासकर इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए कि पाकिस्तान वर्तमान हालात का फ़ायदा उठाना चाहता है और कश्मीर को लेकर उसकी अपनी एक निराशा रही है। इसमें कोई दो-राय नहीं है कि तत्कालीन जम्मू-कश्मीर राज्य से अनुच्छेद-370 वापस लेकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म करने के मोदी सरकार के फ़ैसले के प्रति कश्मीर के लोगों में सख़्त नाराज़गी रही है। ऊपर से लेह को अलग करने के साथ-साथ उसका विधानसभा का दर्जा भी ख़त्म कर दिया गया। इससे कश्मीर ही नहीं, जम्मू सम्भाग तक में नाराज़गी है; क्योंकि जन प्रतिनिधि न होने के कारण उनके लिए दिक़्क़तें पैदा हुई हैं। उनके काम नहीं हो पा रहे और प्रक्रिया भी लम्बी हुई है। कश्मीर के मुख्यधारा के दलों में भी केंद्र के प्रति नाराज़गी है। इसका कारण अनुच्छेद-370 ख़त्म करने के समय उन्हें भरोसे में नहीं लिया जाना है। ‘तहलका’ से बातचीत में नेशनल कॉन्फ्रेंस के नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने कहा- ‘हमारी पहली और आख़िरी माँग यह है कि जम्मू-कश्मीर का संवैधानिक दर्जा बहाल किया जाए। यह फ़ैसला जम्मू-कश्मीर को बिना भरोसे में लिए जनता की भावनाओं के ख़िलाफ़ किया गया है। ज़ाहिर है कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व में भी अनुच्छेद-370 को लेकर गहरी नाराज़गी है।’

हाल के महीनों में केंद्र ने कश्मीर में राजनीतिक गतिविधियों को पुनर्जीवित करने के लिए वहाँ आने वाले महीनों में विधानसभा के चुनाव के संकेत दिये हैं। लेकिन यह बड़ा सवाल है कि इतने भर से क्या कश्मीर में अनुच्छेद-370 के ज़रिये मिले सूबे के विशेष दर्जे के ख़त्म होने से उपजी नाराज़गी दूर हो जाएगी? कश्मीर में अलक़ायदा या दूसरे आतंकी संगठनों की गतिविधियों की कोशिशों को रोकने में वहाँ का राजनीतिक नेतृत्व बड़ी भूमिका अदा कर सकता है। लिहाज़ा केंद्र के लिए यह ज़रूरी है कि उसे भरोसे में लिया जाए। हाल के महीनों में यह देखा गया है कि जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठनों ने कश्मीर के युवाओं की भर्ती अपने संगठनों में तेज़ की है। आँकड़े इस बात के गवाह हैं कि अनुच्छेद-370 ख़त्म करने को आतंकी संगठनों ने अपने लिए बड़े स्तर पर भुनाया है।

कश्मीर के राजनीतिक नेतृत्व और वहाँ की जनता ने ही आतंकवाद के चलते सबसे ज़्यादा नुक़सान झेला है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि कश्मीर के नेताओं के यदा-कदा के बयानों को छोड़ दिया जाए, तो वे भारत की ही बात करते रहे हैं। वे भारतीय चुनाव आयोग के चुनावों के तहत चुनाव में हिस्सा लेते रहे हैं और उसके क़ानूनों को मानते रहे हैं। पाकिस्तान की कश्मीर को लेकर नीयत ख़राब रही है और उसकी एजेंसी आईएसआई कश्मीर में उत्पात मचाने की हर सम्भव कोशिश करती रही है। लिहाज़ा अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान के आने से कश्मीर को लेकर चिन्ता स्वाभाविक है।

तालिबान की अंतरिम सरकार

काफ़ी उहापोह के बाद आख़िर अफ़ग़ानिस्तान में मुल्ला मोहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा के नेतृत्व में 7 सितंबर की शाम तालिबान की अंतरिम सरकार का गठन हो गया। मुल्ला मुहम्मद हसन अख़ुंदज़ादा कार्यवाहक प्रधानमंत्री होंगे, जबकि तालिबान के दूसरे सबसे बड़े नेता मुल्ला गनी बरादर और मुल्ला अबदस सलाम उप प्रधानमंत्री मनोनीत किये गये हैं। सरकार में मुल्ला याक़ूब की रक्षा मंत्री और सिराजुद्दीन हक़्क़ानी की गृहमंत्री की भूमिका होगी। इसके अलावा सूचना मंत्री ख़ैरूल्लाह ख़ैरख़्वा, सूचना उप मंत्री जबिउल्लाह मुजाहिद, उप विदेश मंत्री शेर अब्बास स्टानिकज़र्इ, न्याय मंत्री अब्दुल हक़ीम, वित्त मंत्री हेदयातुल्लाह बद्री, आर्थिक मंत्री कारी दीन हनीफ़, शिक्षा मंत्री शेख़ नूरुल्लाह, हज़ और धार्मिक मामलों के मंत्री नूर मोहम्मद साक़िब, जनजातीय मामलों के मंत्री नूरुल्लाह नूरी, ग्रामीण पुनर्वास और विकास मंत्री मोहम्मद यूनुस अख़ुंदज़ादा, लोक निर्माण मंत्री अब्दुल मनन ओमारी और पेट्रोलियम मंत्री मोहम्मद अख़ुंद मनोनीत किये गये हैं।

“यह एक खुला रहस्य है कि पाकिस्तान हमेशा तालिबान की मदद करता रहा है। न सिर्फ़ पैसों से, बल्कि हथियार और रक्षा उपकरणों के रूप में भी। पाकिस्तान का यह पक्ष कश्मीर घाटी के सन्दर्भ में बहुत अहमियत रखता है। इसमें कोई दो-राय नहीं कि हमारी सुरक्षा एजेंसियाँ और वहाँ तैनात सेना पाकिस्तान के नापाक इरादों से निपटने में पूरी तरह सक्षम हैं। लेकिन यह भी सत्य है कि अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के  क़ब्ज़े से कश्मीर में आतंकवाद को नयी हवा मिल सकती है।”

राजेद्र सिंह

लेफ्टिनेंट जनरल (सेवानिवृत्त)

 

नब्बे के दशक के ज़ख़्म और वर्तमान ख़तरे

नहीं भूलना चाहिए कि कश्मीर में सबसे बड़ी घटनाएँ उस समय घटी हैं, जब अफ़ग़ानिस्तान में 90 के दशक में तालिबान की सत्ता थी। यह वही दौर था, जब कश्मीर में आतंकवाद ने पाँव पसारे। भारत ने आतंकवाद के उसके बाद कई गहरे ज़ख़्म झेले हैं। यहाँ तक कि कारगिल भी उसी काल में हुआ। यही नहीं, भारत की संसद पर हमला भी तालिबान के अफ़ग़ानिस्तान में रहते हुआ। अपहृत करके कांधार ले जाए गये आईसी 814 विमान की घटना भी उसी दौर में हुई। भारत के लिए चिन्ता की बात यह भी है कि जैश-ए-मोहम्मद का सरगना मसूद अज़हर अगस्त के मध्य में कांधार गया था। आख़िर उसका वहाँ जाने का क्या प्रयोजन था? जैश-ए-मोहम्मद ही नहीं लश्कर-ए-तैयबा जैसे आतंकी संगठन अफ़ग़ानिस्तान में काफ़ी सक्रिय रहे हैं। कश्मीर में इन दो संगठनों का ही आतंकवाद को बढ़ाने में ज़्यादा हाथ रहा है।

भारत के लिए चिन्ता का एक और कारण यह है कि तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान पर क़ब्ज़ा करने के तुरन्त बाद जो सबसे पहला काम किया, वह यह था कि उन्होंने जेलों में बन्द आतंकियों को छोड़ दिया था। इनमें से बड़ी संख्या में वे आतंकवादी थे, जो भारत में सक्रिय रहे और उनका ताल्लुक़ जैश-ए-मोहम्मद और लश्कर-ए-तैयब्बा से रहा है। ऐसे में इन आतंकियों का उपयोग भारत के ख़िलाफ़ होना सम्भव है। लेकिन तालिबान ने फ़िलहाल सीधे-सीधे भारत के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और न ही कश्मीर को लेकर कोई बड़ा विरोधी बयान दिया है। यहाँ कुछ तथ्य और हैं, जो तालिबान के हाथ भारत के ख़िलाफ़ जाने के मामले में बाँधते हैं। एक यह कि तालिबान सही चले, तो भारत के अफ़ग़ानिस्तान में निवेश की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। दूसरे इस बार तालिबान दुनिया के समर्थन का तलबगार दिखता है।

याद रहे तालिबान को 90 के दशक में सिर्फ़ पाकिस्तान, सऊदी अरब और यूएई ने मान्यता दी थी। भारत का सहयोग या देश की उसे वैधता तालिबान के लिए बहुत बड़ी बात होगी। निश्चित ही भारत की तरफ़ से भी गोपनीय तरीक़े से बैक चैनल्स (परदे के पीछे के मध्यवर्ती लोगों) के ज़रिये तालिबान से बातचीत की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। भारत ने फ़िलहाल देखो और इंतज़ार की नीति अपना रखी है। हालाँकि यह भी सच है कि भारतीय एजेंसियाँ पिछले एक महीने से देश के कुछ राज्यों में गतिविधियों पर नज़र रख रही हैं। भारत के लिए तालिबान से रिश्ते स्थापित करना कोई आसान काम नहीं होगा। इसका एक कारण यह भी है कि उसने तालिबान से पिछली सत्ता के समय भी कोई रिश्ता या सम्पर्क नहीं रखा था। दूसरे इस बार तालिबान से चीन भी पींगे बढ़ा रहा है, जो पिछली बार नहीं था। चीन पिछले एक साल से सीमा पर भारत से ज़्यादा तनाव बनाया हुआ है। ऐसे में निश्चित ही भारत के लिए चुनौतियाँ बड़ी हैं, ख़ासकर कश्मीर को लेकर।

जज़्बे से जीते दिव्यांग खिलाड़ी

हाल ही में सम्पन्न टोक्यो पैरालंपिक में भारत के शानदार प्रदर्शन की चर्चा केवल इस देश में ही नहीं, बल्कि दुनिया भर में हो रही है। दिव्यांग खिलाडिय़ों ने उम्मीद की रेखा लाँघकर देशवासियों के सामने अपने असीम जज़्बे का परिचय देकर अपनी भावी उपलब्धियों की ओर भी इशारा कर दिया है। इस बार भारतीय पैरालंपिक दल 54 खिलाडिय़ों का था और आकलन में उन्हें अधिकतम 15 पदक का दावेदार माना गया था; लेकिन इस दल ने 19 पदक जीतकर इतिहास रच दिया है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों ने 5 स्वर्ण, 8 रजत और 6 कास्य पदक जीतकर सबको चौंका दिया।

ग़ौरतलब है कि पैरालंपिक में पहली बार पाँच स्वर्ण जीतकर इतिहास रच दिया है। अवनि लेखरा, सुमित अतिल, मनीष नरवाल, प्रमोद भगत, कृष्णा नगर ने स्वर्ण पदक हासिल किये, तो भावनाबेन, निषाद कुमार, देवेंद्र झाझरिया, योगेश, प्रवीण कुमार, सिंहराज, सुहास यथिराज और मरियप्पन ने रजत पदक जीतकर देश का नाम रोशन किया। इसके अलावा सुंदर सिंह गुर्जर, अवनि लेखड़ा, शरद कुमार, हरवंदिर सिंह, मनोज सरकार और सिंहराज अधाना ने कास्य पदक जीतकर महज़ अपना नाम ही पदक तालिका में दर्ज नहीं कराया, बल्कि देश को भी इन सब पर नाज़ है। अवनि लखेड़ा और सिंहराज अधाना ने दो-दो पदक जीते हैं। सुहास यथिराज पहले आईएएस हैं, जिन्होंने पैरालंपिक में न केवल हिस्सा लिया, बल्कि रजत पदक भी जीता। वह एक प्रेरणास्रोत के रूप में उभरे हैं। जैसा कि पैरालंपिक नाम से ही स्पष्ट है कि ये खेल दिव्यांग लोगों के लिए हैं। पैरालंपिक की स्थापना सन् 1960 में की गयी थी और इसे शुरू करने के पीछे एक मक़सद दुनिया भर के लोगों में ऐसे लोगों को प्रोत्साहित करने, उनमें छिपी योग्यता, कौशल को निखारने, बराबरी का सम्मान देने वाली भावना को विकसित करने के बाबत जागरूकता फैलाना भी है।

अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का अनुमान है कि विश्व की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी विकलांग है और ऐसे खेलों की मंशा समाज को विकलांगता के लिए ज़रूरी संरचना, संसाधन और सामाजिक समावेश के लिए प्रोत्साहित करने की है। मंशा नेक है। लेकिन इसके साथ सवाल भी अनेक है। अंतर्राष्ट्रीय पैरालंपिक समिति का मानना है कि दुनिया की तक़रीबन 15 फ़ीसदी आबादी दिव्यांग, नि:शक्त है; यानी इस दुनिया में क़रीब एक अरब ऐसे लोग हैं और ग़ौर करने वाला तथ्य यह है कि ऐसे अधिकांश लोग विकासशील देशों में है।

सेहत दुरुस्त करने की ज़रूरत

विकासशील देशों की आर्थिक हालात किसी से छिपी नहीं हुई है और इस आबादी की शारीरिक सेहत व मानसिक सेहत को दुरुस्त रखने के लिए पैसा और दृढ़ शक्ति दोनों की ज़रूरत होती है। सामाजिक नज़रिया बदलने के लिए कई प्रयास करने होते हैं और उसके लिए फंड चाहिए होता है। सामाजिक, आर्थिक समावेश के ठोस नतीजे पाने के लिए समग्र दृष्टिकोण की दरकार होती है। टोक्यो पैरालंपिक में चीन शीर्ष स्थान पर रहा और उसके बाद ब्रिटेन, रूस और अमेरिका है।

यूक्रेन 98 पदक जीतकर पाँचवें स्थान पर है और इस ग़रीब देश की इन उपलब्धियों ने सबको हैरत में डालने के साथ ही यह सन्देश भी दिया है कि जहाँ चाह, वहाँ राह। यूक्रेन को यूरोप का ग़रीब देश माना जाता है और संयुक्त राष्ट्र ने इस देश को दिव्यांग लोगों के रहने के लिए मुश्किल जगह बताया है। यूक्रेन में दिव्यांग एथलीट के लिए विशेष सेंटर और खेल स्कूल हैं। नीति बदलकर सामान्य खिलाडिय़ों व पैरालंपिक खिलाडिय़ों की इनाम राशि बराबर कर दी है।

बदलना होगा नज़रिया

यूँ तो हर साल 3 दिसंबर को अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस मनाया जाता है। इसे हर साल मनाने के पीछे मक़सद शारीरिक व मानसिक रूप से अक्षम व्यक्तियों के प्रति समाज के नज़रिये में बदलाव लाना है और उनके अधिकारों के प्रति जागरूक करना है। सन् 1992 से इसे पूरी दुनिया में मनाने की शुरुआत हुई। हर साल इस दिन दिव्यांगों के विकास, उनके कल्याण क लिए योजनाओं, समाज में उन्हें बराबरी के मौक़े मुहैया कराने पर विचार-विमर्श किया जाता है। हर साल दुनिया के तमाम देशों में इस दिन उनकी स्थिति में सुधार लाने, उनकी ज़िन्दगी को बेहतर बनाने के लिए कार्यक्रम आयोजित किये जाते हैं। हर साल अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस का एक थीम तय किया जाता है।

अंतर्राष्ट्रीय विकलांग दिवस 2020 का विषय था- बेहतर पुनर्निमाण: कोविड-19 के बाद की दुनिया में विकलांग लोगों के लिए समावेशी, सुलभ और अनुकूल माहौल हो। विश्व स्वास्थ्य संगठन ने भी इस थीम का समर्थन किया और कोविड-19 महामारी के दौरान दिव्यांग व्यक्तियों की ज़रूरत पर बल दिया है। दरअसल अभी भी समाज का एक बहुत बड़ा हिस्सा विकलांगता को कलंक के तौर पर ही देखता है और उनसे दूरी बनाये रखता है। हमें इस नज़रिये को बदलना होगा। सम्भवत: इसीलिए विकलांग व्यक्तियों के लिए समाज में नियम और नियामकों का ठीक तरह से लागू करने के लिए दिव्यांगों के लिए आयोजित अंतर्राष्ट्रीय दिवस के उत्सव को एक प्रभावशाली प्रसंग की ज़रूरत होती है। संयुक्त राष्ट्र का मानना है कि इस दिवस का एक अहम उद्देश्य दिव्यांग लोगों को राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन की मुख्यधारा में शामिल करना है।

दिव्यांगों का करना होगा सम्मान

संयुक्त राष्ट्र ने दिव्यांग लोगों की दुर्दशा के मद्देनज़र सन् 2006 में दिव्यांग लोगों के अधिकारों पर एक अंतर्राष्ट्रीय सन्धि पारित की, जिस पर दुनिया के 160 देशों ने अभिपुष्टि की है। इस सूची में भारत भी शामिल है। भारत जो कि आबादी में विश्व में दूसरे नंबर पर है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, भारत में दिव्यांगों की संख्या 2.68 करोड़ है, इसमें से 69 फ़ीसदी दिव्यांग आबादी गाँवों में और 38 फ़ीसदी शहरों में बसती है। सन् 2001 जनगणना के मुताबिक, तब यह आबादी 2.1 करोड़ थी। सन् 2001 से सन् 2011 यानी इन 10 वर्षों में दिव्यांग लोगों की संख्या बढ़ गयी। भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने दिसंबर, 2015 की मन की बात कार्यक्रम में विकलांग को दिव्यांग का नाम दिया और अब भारत में दिव्यांग शब्द का ही अधिकतर प्रयोग किया जाता है। प्रधानमंत्री का दिव्यांग शब्द देने का मक़सद ऐसे लोगों को सम्मान देना, उनके भीतर के हुनर को बाहर निकालना और ऐसे लोगों को कमतर नहीं समझने से ही है। टोक्यो पैरालंपिक में भारतीय दिव्यांग खिलाडिय़ों का दिव्य प्रदर्शन इसकी यादगार मिसाल है। बहरहाल देश में दिव्यांगों को सशक्त बनाने के लिए क़ानून भी हैं। दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम-2016 में विकलांगता की परिभाषा में बदलाव लाते हुए इसे और व्यापक बनाया गया है। दरअसल इस अधिनियम में विकलांगता को एक विकसित व गतिशील अवधारणा के आधार पर परिभाषित किया गया है और अपंगता की मौज़ूदा प्रकारों को सात से बढ़ाकर 21 कर दिया गया है। इस अधिनियम में शिक्षा व सरकारी नौकरियों में दिव्यांगों के लिए तीन फ़ीसदी आरक्षण को बढ़ाकर चार फ़ीसदी कर दिया गया है। इस अधिनियम में सरकारी वित्त पोषित शैक्षिक संस्थानों और सरकार के द्वारा मान्यता प्राप्त संस्थानों को दिव्यांग बच्चों को समावेशी शिक्षा मुहैया करानी होगी। दिव्यांगजनों के सशक्तिकरण के लिए योजनाओं व कार्यक्रमों पर ध्यान केंद्रित करने हेतु सामाजिक न्याय और अधिकारिता मंत्रालय के तहत सन् 2012 में एक नये विभाग की स्थापना की गयी।

परिवहन प्रणाली भी सुगम नहीं

15 दिसंबर, 2015 को दिव्यांग लोगों के लिए सुगम्य भारत अभियान की शुरुआत की गयी। इस अभियान का मक़सद दिव्यांगजनों के लिए एक सक्षम व बाधारहित वातावरण तैयार करना है। ग़ौरतलब है कि इस अभियान के तहत मौज़ूदा वातावरण में सुगमता निश्चित करने, परिवहन प्रणाली में सुगमता तथा ज्ञान के माध्यम से दिव्यांगजनों को सशक्त बनाने जैसे तीन प्रमुख उद्देश्यों पर ज़ोर है। सार्वजनिक परिवहन प्रणाली दिव्यांगों के लिए कितनी सुगम है? इस बात का जवाब क्या सरकार के पास है? सरकार के मंत्री व आला अधिकारी बेशक गोल-मोल जवाब दे दें, मगर वास्तविकता सबके सामने है। मेट्रो में इनके लिए सुविधाएँ हैं; लेकिन सवाल यह है कि मेट्रो देश के कितने शहरों में चलती है। सामान्य रेलगाडिय़ों में इनके लिए क्या सुविधाएँ उपलब्ध हैं। बसों में भी क्या सुविधाएँ दी जाती हैं, सब जानते हैं। देश की राजधानी दिल्ली में लो फ्लोर बसें चलती हैं; लेकिन उसमें व्हील चेयर इस्तेमाल करने वाला दिव्यांग व्हील चेयर के साथ नहीं चढ़ सकते। वहीं यूरोप और अन्य विकसित देशों में बसों को ऐसे बनाया गया है कि दिव्यांग व्हील चेयर के साथ बस में चढ़ सकते हैं।

बेहतर प्रयासों की दरकार

केंद्र की मौज़ूदा सरकार का कौशल विकास पर बहुत ही ज़ोर है। लिहाज़ा दिव्यांगजनों के कौशल प्रशिक्षण के लिए एक राष्ट्रीय कार्ययोजना की शुरुआत की गयी और इसका उद्देश्य 2022 तक 25 लाख दिव्यांगों को कौशल प्रशिक्षण प्रदान करना है। लक्ष्य बड़े हैं; लेकिन बड़ों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए फंड, प्रतिबद्धता, कड़ी मेहनत की दरकार है और इस सन्दर्भ में भारत को और अधिक गम्भीर नज़रिये के साथ दुनिया के सामने आना होगा। निश्चित तौर पर टोक्यो पैरालंपिक में देश को 19 पदक मिलना एक विशेष उपलब्धि है और इस उपलब्धि ने देश की 2.68 करोड़ दिव्यांग आबादी की ओर ध्यान आकर्षित किया है। लेकिन अभी भी देश के दिव्यांगों के लिए बहुत-से अभाव हैं, जिन्हें तत्काल पूरा करने की ज़रूरत है। उम्मीद है कि सरकार, समाज व अन्य संगठन मिलकर इनके लिए हर दृष्टि से समावेशी माहौल बनाने की दिशा में काम करेंगे।

राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना से किसे होगा लाभ?

विपक्ष ने मोदी सरकार की राष्ट्रीय मुद्रीकरण योजना (नेशनल मोनेटाइजेशन पाइपलाइन) के ख़िलाफ़ मोर्चा सँभाल लिया है और दावा किया है कि इस नीति के नाम पर सरकार पिछले 70 साल में निर्मित देश की सम्पतियों को बेचने जा रही है। पिछले महीने सरकार ने छ: लाख अरब रुपये की चार वर्षीय राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) की घोषणा की थी।

ऐसे आरोप हैं कि इस रणनीति का मक़सद निजी क्षेत्र को शामिल करके, उन्हें परियोजनाओं के स्वामित्व के बजाय अधिकार देकर और देश भर में बुनियादी ढाँचे के विकास के लिए धन का पुन: उपयोग करके ब्राउनफील्ड सम्पत्तियों के मूल्य में वृद्धि करना है।

इस आलेख में हम एनएमपी का विश्लेषण कर रहे हैं, जिसे केंद्रीय वित्त और कॉर्पोरेट मामलों के मंत्री निर्मला सीतारमण ने पिछले महीने लॉन्च किया था। केंद्रीय मंत्रालयों और सार्वजनिक क्षेत्र की संस्थाओं की सम्पत्ति मुद्रीकरण पाइपलाइन को लेकर सरकार ने कहा कि इसे राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन को नीति आयोग ने केंद्रीय बजट 2021-22 के तहत सम्पति मुद्रीकरण के लिए जनादेश के आधार पर बुनियादी ढाँचा मंत्रालयों के परामर्श से विकसित किया है। एनएमपी में वर्ष 2022 से वर्ष 2025 तक चार साल की अवधि में केंद्र सरकार की मुख्य सम्पत्ति के माध्यम से 6.0 लाख करोड़ रुपये की कुल मुद्रीकरण क्षमता का अनुमान लगाया गया है।

एनएमपी पर रिपोर्ट के तहत शामिल हैं- ‘सडक़, परिवहन और राजमार्ग, रेलवे, बिजली, पाइपलाइन और प्राकृतिक गैस, नागरिक उड्डयन, शिपिंग बंदरगाह और जलमार्ग, दूरसंचार, खाद्य और सार्वजनिक वितरण, खनन, कोयला और आवास और शहरी मामले। वित्त मंत्री ने दावा किया कि सम्पत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम प्रधानमंत्री की दृष्टि के कारण आकार ले चुका है, जो हमेशा भारत के आम नागरिक के लिए उच्च गुणवत्ता और सस्ती बुनियादी ढाँचे तक सार्वभौमिक पहुँच में विश्वास करते हैं। मुद्रीकरण के माध्यम से सृजन के दर्शन पर आधारित सम्पत्ति मुद्रीकरण का उद्देश्य नये बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए निजी क्षेत्र के निवेश का दोहन करना है। यह रोज़गार के अवसर पैदा करने के लिए आवश्यक है, जिससे उच्च आर्थिक विकास को सक्षम बनाया जा सके और समग्र जन कल्याण के लिए ग्रामीण और अर्ध-शहरी क्षेत्रों को समेकित रूप से एकीकृत किया जा सके।’

रोडमैप

कार्यक्रम का रणनीतिक उद्देश्य संस्थागत और दीर्घकालिक रोगी पूँजी का दोहन करके ब्राउनफील्ड सार्वजनिक क्षेत्र की सम्पत्ति में निवेश के मूल्य को खोलना है, जिसे बाद में नीति आयोग के अनुसार सार्वजनिक निवेश के लिए इस्तेमाल किया जा सकता है। एनएमपी की परिकल्पना विभिन्न बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सम्भावित मुद्रीकरण-तैयार परियोजनाओं की पहचान के लिए एक मध्यम अवधि के रोडमैप के रूप में की गयी है।

इसका उद्देश्य सार्वजनिक प्राधिकरणों के लिए पहल के प्रदर्शन की निगरानी और निवेशकों के लिए अपनी भविष्य की गतिविधियों की योजना बनाने के लिए एक व्यवस्थित और पारदर्शी तंत्र बनाना है। सम्पत्ति मुद्रीकरण को न केवल एक वित्त पोषण तंत्र के रूप में देखा जाना चाहिए, बल्कि निजी क्षेत्र की संसाधन क्षमता और विकसित वैश्विक और आर्थिक वास्तविकता को गतिशील रूप से अनुकूलित करने की क्षमता पर विचार करते हुए बुनियादी ढाँचे के संचालन, वृद्धि और रखरखाव में समग्र प्रतिमान बदलाव के रूप में देखा जाना चाहिए।

इन्फ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट और रियल एस्टेट इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट जैसे नये मॉडल न केवल वित्तीय और रणनीतिक निवेशकों, बल्कि आम लोगों के भी इस परिसम्पत्ति वर्ग में भाग लेने में सक्षम होने की सम्भावना है, जिससे निवेश के नये रास्ते खुलेंगे। एनएमपी नीति आयोग, वित्त मंत्रालय और सम्बन्धित मंत्रालयों द्वारा किये गये बहु-हितधारक परामर्शों के माध्यम से समेकित अंतर्दृष्टि, प्रतिक्रिया और अनुभवों नतीजा है। सम्पत्ति मुद्रीकरण कार्यक्रम के समग्र कार्यान्वयन और निगरानी के लिए एक बहु-स्तरीय संस्थागत तंत्र के हिस्से के रूप में केबिनेट सचिव की अध्यक्षता में सम्पत्ति मुद्रीकरण (सीजीएएम) पर सचिवों का एक अधिकार प्राप्त कोर ग्रुप का गठन किया गया है।

कैसा होगा ढाँचा?

केंद्रीय बजट 2021-22 ने स्थायी बुनियादी ढाँचे के वित्तपोषण के लिए एक प्रमुख साधन के रूप में सार्वजनिक बुनियादी ढाँचे की सम्पत्ति के संचालन के मुद्रीकरण की पहचान की थी। इस दिशा में बजट में सम्भावित ब्राउनफील्ड इंफ्रास्ट्रक्चर परिसम्पत्तियों की राष्ट्रीय मुद्रीकरण पाइपलाइन (एनएमपी) तैयार करने का प्रावधान किया गया है। नीति आयोग ने इन्फ्रा लाइन मंत्रालयों के परामर्श से एनएमपी पर रिपोर्ट तैयार की है। एनएमपी का उद्देश्य निजी क्षेत्र के लिए सम्भावित सम्पत्तियों पर दृश्यता के साथ सार्वजनिक सम्पत्ति के मालिकों के लिए कार्यक्रम का एक मध्यम अवधि का रोडमैप प्रदान करना है।

विनिवेश के माध्यम से मुद्रीकरण और ग़ैर-प्रमुख सम्पत्तियों के मुद्रीकरण को एनएमपी में शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा वर्तमान में केवल केंद्र सरकार के मंत्रालयों और बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सीपीएसई की सम्पत्ति को शामिल किया गया है। राज्यों से परिसम्पत्ति पाइपलाइन के समन्वय और मिलान की प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है और इसे नियत समय में शामिल करने की परिकल्पना की गयी है।

मुख्य परिसम्पत्ति मुद्रीकरण के मुद्रीकरण के ढाँचे में तीन प्रमुख अनिवार्यताएँ हैं। इसमें राजस्व अधिकारों के आसपास संरचित समग्र लेन-देन के साथ स्थिर राजस्व सृजन प्रोफाइल के साथ जोखिम रहित और ब्राउनफील्ड परिसम्पत्तियों का चयन शामिल है। इसलिए इन संरचनाओं के तहत परिसम्पत्तियों का प्राथमिक स्वामित्व सरकार के पास बना रहता है, जिसमें लेन-देन जीवन के अंत में सार्वजनिक प्राधिकरण को सम्पत्ति वापस सौंपने की परिकल्पना की गयी है।

यह देखते हुए कि बुनियादी ढाँचे का निर्माण मुद्रीकरण से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, एनएमपी की अवधि तय की गयी है; ताकि नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत शेष अवधि के साथ सह केंद्र हो। विनिवेश के माध्यम से मुद्रीकरण और ग़ैर-प्रमुख सम्पत्तियों के मुद्रीकरण को एनएमपी में शामिल नहीं किया गया है। इसके अलावा वर्तमान में केवल केंद्र सरकार के मंत्रालयों और बुनियादी ढाँचा क्षेत्रों में सीपीएसई की सम्पत्ति को शामिल किया गया है। राज्यों से परिसम्पत्ति पाइपलाइन के समन्वय और मिलान की प्रक्रिया वर्तमान में चल रही है और इसे नियत समय में शामिल करने की परिकल्पना की गयी है।

मुख्य परिसम्पत्ति मुद्रीकरण के ढाँचे में तीन प्रमुख अनिवार्यताएँ हैं। इसमें राजस्व अधिकारों के आसपास संरचित समग्र लेन-देन के साथ स्थिर राजस्व सृजन प्रोफाइल के साथ जोखिम रहित और ब्राउनफील्ड परिसम्पत्तियों का चयन शामिल है। इसलिए इन संरचनाओं के तहत परिसम्पत्तियों का प्राथमिक स्वामित्व सरकार के पास बना रहता है, जिसमें लेन-देन जीवन के अन्त में सार्वजनिक प्राधिकरण को सम्पत्ति वापस सौंपने की परिकल्पना की गयी है। यह देखते हुए कि बुनियादी ढाँचे का निर्माण मुद्रीकरण से अटूट रूप से जुड़ा हुआ है, एनएमपी की अवधि तय की गयी है, ताकि नेशनल इंफ्रास्ट्रक्चर पाइपलाइन (एनआईपी) के तहत शेष अवधि के साथ सह केंद्र हो।

वित्तीय वर्ष 2022-2025 (चार साल की अवधि) में एनएमपी के तहत परिसम्पत्ति पाइपलाइन में सांकेतिक रूप से 6.0 लाख करोड़ रुपये रखे गये हैं। अनुमानित मूल्य एनआईपी (43 लाख करोड़ रुपये) के तहत केंद्र के लिए प्रस्तावित परिव्यय के 14 फ़ीसदी के अनुरूप है। इसमें 12 से अधिक लाइन मंत्रालय और 20 से अधिक परिसम्पत्ति वर्ग शामिल हैं। शामिल क्षेत्रों में सडक़ें, बंदरगाह, हवाई अड्डे, रेलवे, गोदाम, गैस और उत्पाद पाइपलाइन, बिजली उत्पादन और पारेषण (भेजना), खनन, दूरसंचार, स्टेडियम, आतिथ्य और आवास शामिल हैं।

क्षेत्रवार मुद्रीकरण

शीर्ष पाँच क्षेत्र (अनुमानित मूल्य के अनुसार) कुल पाइपलाइन मूल्य का 83 फ़ीसदी हिस्सा कवर करते हैं।

इन शीर्ष पाँच क्षेत्रों में शामिल हैं- सडक़ें (27 फ़ीसदी), जो सबसे ऊपर हैं। इसके बाद रेलवे (25 फ़ीसदी), बिजली (15 फ़ीसदी), तेल और गैस पाइपलाइन (8 फ़ीसदी) और दूरसंचार (6 फ़ीसदी) शामिल हैं। मूल्य के अनुसार, वार्षिक चरणबद्धता के सन्दर्भ में 0.88 लाख करोड़ रुपये के सांकेतिक मूल्य के साथ 15 फ़ीसदी सम्पत्ति को चालू वित्तीय वर्ष (वित्त वर्ष 2021-22) में देने की परिकल्पना की गयी है। हालाँकि एनएमपी के तहत कुल और साथ ही साल दर साल मूल्य समय, लेन-देन संरचना, निवेशक हित आदि के आधार पर सार्वजनिक सम्पत्ति के लिए वास्तविक वसूली के साथ केवल एक संकेतक मूल्य है।

एनएमपी के तहत पहचानी गयी सम्पत्ति और लेन-देन को कई प्रकार के उपकरणों के माध्यम से शुरू किये जाने की सम्भावना है। इनमें सार्वजनिक निजी भागीदारी रियायतें और पूँजी बाज़ार के साधन जैसे इंफ्रास्ट्रक्चर इन्वेस्टमेंट ट्रस्ट्स (इनविट) प्रत्यक्ष संविदात्मक उपकरण शामिल हैं। परिसम्पत्ति की प्रकृति लेन-देन के समय (बाज़ार के विचारों सहित), लक्षित निवेशक प्रोफाइल और परिसम्पत्ति मालिक द्वारा बनाये रखने के लिए परिकल्पित परिचालन / निवेश नियंत्रण के स्तर आदि द्वारा निर्धारित  की जाएगी।

सम्पत्ति मुद्रीकरण प्रक्रिया के माध्यम से सार्वजनिक सम्पत्ति के मालिक द्वारा प्राप्त किये जाने वाला मुद्रीकरण मूल्य या तो अग्रिम स्रोतों के रूप में या निजी क्षेत्र के निवेश के माध्यम से हो सकता है।

एनएमपी के तहत निर्धारित सम्भावित मूल्य सामान्य नियमों के आधार पर केवल एक सांकेतिक उच्च स्तरीय अनुमान है। यह विभिन्न दृष्टिकोणों जैसे बाज़ार या लागत या बही या उद्यम मूल्य आदि पर आधारित है, जो सम्बन्धित क्षेत्रों के लिए लागू और उपलब्ध है।

समग्र रणनीति के रूप में परिसम्पत्ति आधार का एक महत्त्वपूर्ण हिस्सा सरकार के पास रहेगा। परिसम्पत्ति मुद्रीकरण की एक कुशल और प्रभावी प्रक्रिया सुनिश्चित करने के लिए सरकार द्वारा आवश्यक नीति और नियामक हस्तक्षेपों के माध्यम से कार्यक्रम का समर्थन करने की परिकल्पना की गयी है। इनमें परिचालन तौर-तरीक़ों को सुव्यवस्थित करना, निवेशकों की भागीदारी को प्रोत्साहित करना और वाणिज्यिक दक्षता को सुविधाजनक बनाना शामिल है।

केंद्रीय बजट 2021-22 के तहत परिकल्पित परिसम्पत्ति मुद्रीकरण डैशबोर्ड के माध्यम से वास्तविक समय की निगरानी की जाएगी। इस पहल का अन्तिम उद्देश्य मुद्रीकरण के माध्यम से बुनियादी ढाँचे के निर्माण को सक्षम करना है, जिसमें सार्वजनिक और निजी क्षेत्र सहयोग करते हैं। प्रत्येक अपनी क्षमता के मुख्य क्षेत्रों में उत्कृष्ट है, ताकि देश के नागरिकों को सामाजिक-आर्थिक विकास और जीवन की गुणवत्ता प्रदान की जा सके।

क्या वोट की चोट कर पाएँगे किसान?

मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत आगामी उत्तर प्रदेश चुनाव को कितना करेगी प्रभावित?

साम्प्रदायिक रूप से संवेदनशील मुज़फ़्फ़रनगर हमेशा हाशिये पर रहा है। लेकिन उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव से कुछ महीने पहले मुज़फ़्फ़रनगर की किसान महापंचायत ने इसे सारे पुराने हिसाब पूरे करने का अवसर दे दिया है। किसानों की इस महापंचायत में ‘वोट से चोट’ का नारा राजनीतिक गलियारों में गूँजने लगा है। भाजपा भले इसे किसान आन्दोलन का राजनीतिकरण बताये, सच यह है कि वोट से चोट का किसानों का नारा यदि आम आदमी का नारा बन गया, तो सत्तारूढ़ भाजपा को लेने-के-देने भी पड़ सकते हैं।

उत्तर प्रदेश के किसानों की योगी सरकार से भी नाराज़गी कुछ कम नहीं है। हाल के वर्षों में योगी की मुश्किलें भी बढ़ी हैं। सन् 2017 के विधानसभा चुनाव में भाजपा के बड़े नेताओं, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी, दोनों शामिल थे; ने जो वादे राज्य के किसानों से किये थे, उनमें ज़्यादातर अधूरे ही रह गये हैं और चुनाव फिर आ चुके।

किसान बातचीत में अपने इस दर्द को छिपा नहीं पाते। मुज़फ़्फ़रनगर के एक युवा किसान अब्बास काज़मी, जो ख़ासतौर पर महारैली में आये थे; ने अपनी कठिनाइयों को व्यक्त करते हुए सरकार को इसके लिए ज़िम्मेदार बताया। काज़मी ने कहा- ‘हर महीने डीजल और पेट्रोल की क़ीमतें बढ़ जाती हैं। किसान खेती कैसे करेंगे? जब हमारे ट्रैक्टर और मशीनें घर पर रखने होंगे। आख़िर मशीनें और ट्रैक्टर ईंधन से ही चलते हैं। ग़रीब किसान कैसे यह कर सकेगा?’ अब्बास ने आगे कहा कि सरकार एमएसपी लागू नहीं कर रही है। बिहार में धान की क़ीमत 800 रुपये कुंतल है और धान की लागत लगभग 11,000 रुपये प्रति बीघा है। किसान क्या बचाएगा? 30 साल के इस किसान ने कहा- ‘सरकार ने 400 रुपये प्रति कुंतल गन्ना देने का वादा किया था, जो पिछले चार साल से 325 रुपये प्रति कुंतल है। हम इस सरकार को फिर से क्यों चुनेंगे?’

संयुक्त किसान मोर्चा की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत में जिस तरह लाखों किसान एक साथ आये, उससे उत्तर प्रदेश की राजनीति में हलचल है। महापंचायत में बड़े पैमाने पर पश्चिमी उत्तर प्रदेश के दोआबा इलाक़े (गंगा और जमुना नदियों के बीच का क्षेत्र) के किसानों का ख़ासा वर्चस्व रहा था। महापंचायत का समय भी महत्त्वपूर्ण है; क्योंकि यह फ़सल के मौसम से पहले हुआ है। उच्च मुद्रास्फीति और बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी से आमजन में अलग से गहन निराशा है। कई इलाक़ों को अभी भी कोरोना के प्रतिबंधों के प्रभाव से उबरना बाक़ी है।

उल्लेखनीय है कि राज्य में गन्ने की क़ीमतों में स्थिरता से गन्ना किसान परेशान हैं। किसान इस बात से नाराज़ हैं कि पिछले कुछ वर्षों में डीजल के साथ-साथ उर्वरक खादों, कीटनाशकों और बीजों की क़ीमतों में बड़े पैमाने पर वृद्धि हुई है। बाज़ारों में खाद्यान्नों की क़ीमतें भी बढ़ी हैं; लेकिन किसानों को वही पुराना भाव मिलता है।

राजनीतिक जानकार कहते हैं कि जाट किसान और मुसलमान फिर एक होते हैं, तो पश्चिमी उत्तर प्रदेश में अपने गढ़ों में सत्तारूढ़ भाजपा के लिए एक गम्भीर राजनीतिक चुनौती पैदा हो जाएगी। पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट एक निर्णायक कारक हैं और उत्तर प्रदेश की 403 सीटों में से कम-से-कम 120 सीटों पर उनका काफ़ी प्रभाव है। इसके अलावा प्रदेश के अन्य हिस्सों में भी जाट और सिख किसान रहते हैं। इसके अतिरिक्त दलित समुदाय, विशेष रूप से जाटव और अन्य जातियों के मतदाता भी किसान आन्दोलन का बड़ा हिस्सा हैं। जाट, जो पश्चिमी उत्तर प्रदेश के परिदृश्य पर हावी हैं; क्षेत्र में काफ़ी प्रभावशाली हैं। इस क्षेत्र की अधिकांश आबादी खेती से जुड़ी है। ऐतिहासिक रूप से गन्ना उत्पादक क्षेत्र का राजनीतिक दलों पर गहरा प्रभाव है। ऐसे में किसानों की मुज़फ़्फ़रनगर महापंचायत उत्तर प्रदेश में राजनीतिक समीकरण बदल सकती है। यह धरती वैसे भी किसान आन्दोलनों की उर्वर भूमि है। राकेश टिकैत के पिता किसान नेता महेंद्र सिंह टिकैत की मृत्यु के बाद पूरे राज्य में 30 से अधिक यूनियनों का गठन किया गया था। इसके अलावा सन् 1978 में भारतीय लोक दल का गठन पहली बार पूर्व प्रधानमंत्री चौधरी चरण सिंह के नेतृत्व में हुआ था। सन् 1996 में महेंद्र सिंह टिकैत ने चरण सिंह के बेटे अजीत सिंह के साथ गठबन्धन किया, जिन्होंने किसान कामगार पार्टी बनायी। उस साल के उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में गठबन्धन ने 14 सीटें जीती थीं। हालाँकि अगले साल महेंद्र सिंह टिकैट इस साझेदारी से अलग हो गये।

आज की तारीख़ में महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बन गये हैं। राकेश ने संयुक्त किसान मोर्चा के बैनर तले राजनीतिक नारेबाज़ी करके निश्चित ही उत्तर प्रदेश की राजनीति का पारा चढ़ा दिया है। मुज़फ़्फ़रनगर दंगों के बाद इस निर्वाचन क्षेत्र के दामन में दाग़ लग गया था। इसने रिश्तों में गहरी दरार भी पैदा कर दी थी। लेकिन हो सकता है कि यह साझा लक्ष्य इस खाई को पाट दे। अगर यह हुआ, तो भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश में यह एक नयी चुनौती होगी।

अब किसानों के इर्दगिर्द होगी राजनीति

किसान महापंचायत से देश के सियासी समीकरण किस तरह बनेंगे-बिगड़ेंगे, यह तो आने वाला समय ही बताएगा। लेकिन इतना तो ज़रूर है कि अब किसानों की उपेक्षा कोई भी राजनीतिक दल नहीं करेगा। किसानों के सम्मान और कृषि के इर्दगिर्द ही देश की राजनीति तय होगी। किसानों को कैसे अपने पक्ष में किया जाए, इसके लिए राजनीतिक दल आगामी विधानसभा चुनाव में अपने घोषणा-पत्र में उनकी आर्थिक सम्पन्नता, समस्याएँ और उनकी माँगों की ओर ध्यान दे सकते हैं। क्योंकि देश के सभी राजनीतिक दलों ने मुज़फ़्फ़रनगर की किसान महापंचायत में यह देख लिया कि आने वाले दिनों में किसान देश की सियासत की दशा और दिशा तय करेंगे।

बताते चलें कि देश के किसान अपने अधिकारों और खेती-बाड़ी बचाने की ख़ातिर तीन कृषि क़ानूनों के विरोध में लगभग 10 महीने से दिल्ली की सीमाओं पर शान्तिपूर्वक आन्दोलन कर रहे हैं। लेकिन सरकार ने अभी तक उनकी आवाज़ नहीं सुनी। किसानों ने केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर सहित कई केंद्रीय मंत्रियों से कई मर्तबा बातचीत की और सरकार से लॉकडाउन में बिना चर्चा के लाये गये इन कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग की। लेकिन सरकार ने कृषि क़ानून वापस नहीं लिये, उलटा किसानों को धमकियाँ दीं और कई तरह से प्रताडि़त किया। किसानों पर प्रताडऩा का अंदाज़ा कई बार उन पर कराये गये लाठीचार्ज, अग्निकांड, सडक़ों को खोदने, सडक़ों पर बड़े-बड़े कीले ठुकवाने और दुश्मन देश की सीमाओं की तरह दिल्ली की सडक़ों पर बैरिकेड लगवाये, पुलिस से लेकर अर्धसैन्य बलों तक को तैनात करने से लगाया जा सकता है। इन घटनाओं में कई किसानों की मौतें भी हुईं। इससे भी जब किसानों ने आन्दोलन बन्द नहीं किया, तो उन पर देश विरोधी होने के लांछन लगाये गये, जिससे न केवल किसानों का विरोध बढ़ा, बल्कि देश का समतावादी नज़र वाला तबक़ा उनके साथ और मज़बूती के साथ खड़ा हो गया। किसान आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए किसानों के आपस में झगडऩे, टूटने, आन्दोलन के ख़त्म होने और आन्दोलन में किसानों के न होने जैसी अफ़वाहें भी उड़ायी गयीं। इसके जबाव में 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा ने महापचांयत का आयोजन कर दिया, जो कि सरकार को एक झटका दे गया। संयुक्त किसान मोर्चा के किसान नेता राकेश टिकैत ने देश भर से आये लाखों किसानों के इस कुम्भ में साफ़ कह दिया कि अगर सरकार नहीं मानी, तो आगामी साल पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा के चुनावों में, जिसमें उत्तर प्रदेश जैसा महत्त्वपूर्ण राज्य शामिल है; भाजपा के राजनीतिक समीकरण बदल दिये जाएँगे। किसानों के पास वोट बैंक की इतनी ताक़त है कि भाजपा को सत्ता से आसानी से हटा देंगे। महापंचायत के माध्यम से किसानों ने अपने-अपने तरीक़े से देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ पर तीखे हमले किये। इन हमलों के सियासी मायने कुछ भी निकालें जाएँ, पर इतना ज़रूर है कि इस महापंचायत में किसानों की एकता को देखकर सरकार घबरायी तो है। महापंचायत के बाद भाजपा नेताओं ने किसानों के साधने के लिए ताना-बाना बुनना शुरू कर दिया है। किसानों के साथ तालमेल बैठाने की चर्चा सियासी गलियारों में है।

राकेश टिकैत ने महापंचायत में साफ़तौर पर कहा कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और उत्तर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ, दोनों ही उत्तर प्रदेश के नहीं हैं। इन्हें उत्तर प्रदेश से जाना चाहिए। मतलब साफ़ है कि नरेंद्र मोदी गुजरात से हैं, जो उत्तर प्रदेश की बनारस लोकसभा सीट जीतकर आते हैं और आदित्यनाथ मूलत: उत्तराखण्ड से हैं और गोरखपुर से राजनीति कर रहे हैं। दोनों नेताओं पर राकेश टिकैत के बयान से उत्तर प्रदेश ही नहीं, पूरे देश के सियासी समीकरण का अलग ही सन्देश गया है। क्योंकि माना यह जा रहा है कि जिस राज्य से नेता हो, उसी राज्य से वह राजनीति करे; दूसरे राज्यों जाकर राजनीति न करे। अगर कोई नेता वाक़र्इ बहुत अच्छा है, तो उसके राज्य के लोग उसे क्यों पसन्द नहीं करेंगे? हालाँकि ‘तहलका’ इस तरह के क्षेत्रवादी और राज्यवादी बँटवारे के पक्ष में नहीं है।

राकेश टिकैत ने महापंचायत से नपे-तुले सियासी अंदाज़ में किसानों की हक़ की बात करने के साथ-साथ बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, चरमराती अर्थ-व्यवस्था, किसानों की ज़मीन बेचने वाले सरकारी षड्यंत्र जैसे कई मुद्दों को लेकर भी भाजपा पर जमकर हमला बोला। उन्होंने कहा कि रेल, बिजली, सडक़, एलआईसी बंदरगाह, हवाई जहाज़ और एफसीआई को सरकार बेंच रही है। राकेश टिकैत ने कहा कि जब तक कृषि क़ानून वापस नहीं, तब तक वोट नहीं। उन्होंने ऐलान किया कि 01 जनवरी, 2022 से किसान अपनी फ़सल को दोगुने दामों पर बेचेंगे। साथ ही माँग की कि किसानों को गन्ने का भाव 450 रुपये प्रति कुन्तल मिलना चाहिए।

इस महापंचायत की विशेषता यह रही कि इसमें सभी धर्मों की एकता पर ज़ोर दिया गया और यह बताया गया कि देश में सभी धर्मों के किसान हैं। बड़ी बात यह रही कि विपक्षी नेताओं को संयुक्त किसान मोर्चा ने अपना मंच साझा नहीं करने दिया। इस महापंचायत में लघु भारत की तस्वीर साफ़ दिखी, जिसमें उत्तर प्रदेश के अलावा हरियाणा, पंजाब, राजस्थान, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश, राजस्थान, कर्नाटक, तमिलनाडु और अन्य कई राज्यों से आकर किसानों और उनके परिजनों, यहाँ तक कि बच्चों और महिलाओं ने भी भाग लिया। हरियाणा से हिसार से किसान नेता बलजीत सिंह ने बताया कि हरियाणा सरकार सत्ता के नशे में इस क़दर चूर है कि वह किसानों पर जानलेवा हमला करवा रही है, जिसमें किसानों की जानें जा रही हैं। किसानों का यह बलिदान व्यर्थ नहीं जाएगा; क्योंकि इन्हीं किसानों ने भाजपा की सरकार बनवाने के लिए मेहनत की, मतदान किया। अब वही सरकार किसानों पर अत्याचार कर रही है। अब किसान भाजपा को सत्ता से बेदख़ल करके रहेंगे। कानपुर से किसान नेता राहुल सिंह कहा कि देश के अन्नदाता आज अपने अधिकारों और कृषि क़ानूनों की वापसी के लिए केंद्र सरकार से अपील कर रहे हैं। लेकिन सरकार देश के दो-चार पूँजीपतियों को ख़ुश करने के लिए किसानों के साथ खिलवाड़ कर रही है। ऐसी भाजपा सरकार को उखाड़ फेंकने के लिए किसानों ने कमर कस ली है। आगामी चुनावों में भाजपा को सब पता चल जाएगा कि किसानों में कितनी ताक़त है। पंजाब से किसान नेता बलजीत सिंह ने कहा कि अजीब विडम्बना है कि भारत कृषि प्रधान देश है, लेकिन भाजपा की सरकार देश में पूँजीपतियों की सरकार बनाने पर तुली है। किसानों के बारे में सोचना तो दूर, उन पर काले क़ानून और थोप रही है। किसानों का विरोध सरकार की कृषि विरोधी नीतियों की वजह से ही है।

बताते चलें कि 26 नवंबर से लेकर अब तक किसान आन्दोलन में 600 से अधिक किसानों की मौत हो चुकी है, जबकि 400 से अधिक किसान गम्भीर रूप से घायल हुए हैं। इन मौतों में कई मौतें पिटाई के कारण ही हुई हैं। हाल ही में करनाल के उप ज़िलाधिकारी (एसडीएम) आयुष सिन्हा के आदेश पर करनाल के बसताड़ा टोल प्लाजा पर पुलिस द्वारा लाठीचार्ज में बुज़ुर्ग किसान नेता सुशील काजल की मौत होना इसका बड़ा उदाहरण है। इस लाठीचार्ज में सैकड़ों किसान गम्भीर रूप से घायल हो गये। किसान सुशील काजल की मौत पर हरियाणा और पंजाब की सियासत ज़रूर गरमायी; लेकिन लाठीचार्ज कराने वाले एसडीएम के ख़िलाफ़ कोई क़ानूनी कार्रवाई नहीं हुई। हत्या का मुक़दमा तक उनके ख़िलाफ़ दर्ज नहीं हुआ। किसान नेता एसडीएम के ख़िलाफ़ हत्या का मुक़दमा दर्ज करवाने के लिए अभी भी संघर्ष कर रहे हैं। किसानों के रोष को देखते हुए हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर ने एसडीएम आयुष सिन्हा का तबादला भर किया। इस घटना को लेकर किसान नेता राकेश टिकैत ने कहा कि जब तक एसडीएम को बर्ख़ास्त नहीं किया जाता, तब तक किसान सचिवालय तक आन्दोलन करते रहेंगे। किसान नेता और किसानों के अधिकारों के लिए क़ानूनी लड़ाई लडऩे वाले चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है यह भाजपा सरकार किसान विरोधी काम कर रही है। क्योंकि किसानों ने जब माँगें सरकार के समक्ष जब भी रखी हैं, तब-तब किसानों का विरोध सरकार ने प्रशासन द्वारा करवाया है और उन्हें पिटवाया है। करनाल में पुलिस का रवैया अंग्रेजी हुकूमत के अत्याचारों की याद दिलाता है। देश के किसी भी क़ानून ऐसा नहीं लिखा है कि पुलिस आन्दोलनकारियों पर दुश्मनों की तरह लाठियाँ बरसाये और किसी की पीट-पीटकर हत्या कर दे। किसान सुशील काजल की हत्या हुई है; वो भी सोची-समझी राजनीति के तहत। चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने कहा कि एसडीएम आशीष सिन्हा ने पुलिस को जो आदेश दिया, वह मानवता को शर्मसार करने वाला है। आशीष सिन्हा का वीडियो उनकी तानाशाही और बर्बर सोच को साफ़ दिखा रहा है। ऐसे अधिकारी के ख़िलाफ़ आपराधिक मामला दर्ज होना चाहिए। किसानों की माँग है कि सरकार को चाहिए कि जो किसान घायल हुए हैं, वह उनका अच्छे अस्पतालों में इलाज करवाये और मुआवज़ा दे। इसके साथ ही सरकार मृतक किसान सुशील काजल के एक परिजन को सरकारी नौकरी और परिवार को 50 लाख का मुआवज़ा दे।

कुल मिलाकर मौज़ूदा हालात में किसानों की एकता और उनके तेवरों को देखकर यह साफ़ कहा जा सकता है कि 2022 में पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनावों में अगर भाजपा सरकार को हराने के लिए राकेश टिकैत उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड और पंजाब में किसानों के दल के साथ घूमते हैं, तो निश्चित तौर पर इन राज्यों में भाजपा पर विपरीत असर पड़ सकता है। क्योंकि इन राज्यों में किसानों का अच्छा-ख़ासा दबदबा है और किसानों के बीच राकेश टिकैत की मज़बूत पकड़ ज़मीनी स्तर पर मज़बूत हुई है। राजनीतिक जानकारों का कहना है कि जिन राज्यों में चुनाव होने हैं, वहाँ की जनता का मिजाज़ किसान आन्दोलन और दूसरी परेशानियों के चलते काफ़ी बदला हुआ है, जो कि मौज़ूदा सरकार पर भारी पड़ सकता है।