किसानों की हुंकार

महापंचायतों में अन्नदाताओं से सीधी राजनीतिक चुनौती मिलने से भाजपा पसोपेश में किसान देखते-ही-देखते केंद्र सरकार और भाजपा के गले की फाँस बन गये हैं। तीनों कृषि क़ानून वापस लेने की अपनी माँग पूरी न होते देख संयुक्त किसान मोर्चा ने सीधे भाजपा को निशाने पर ले लिया है और भाजपा की राज्य सरकारों समेत केंद्र सरकार को उखाड़ फेंकने की हुंकार भरकर राजनीतिक माहौल को गरमा दिया है। आगामी साल उत्तर प्रदेश सहित पाँच राज्यों में होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश में लगी भाजपा के लिए यह बेचैन करने वाला घटनाक्रम है। किसान आन्दोलन के रूख़, इससे बन रहे राजनीतिक हालात और भविष्य में इसके असर को लेकर बता रहे हैं विशेष संवादाता राकेश रॉकी :-

पिछले क़रीब 10 महीने से अन्नदाता आन्दोलन के लिए लगातार सडक़ पर हैं और केंद्र सरकार उनकी माँगों को अनसुना कर रही है। लेकिन 5 सितंबर को मुज़फ़्फ़रनगर में संयुक्त किसान मोर्चा की महापंचायत ने उसकी नींद उड़ा दी है। अपने दिन-रात खेत में ख़पा देने वाला किसान बिना थके अपनी लड़ाई इस ताक़त से लड़ लेगा, सत्ता में बैठी ताक़तों ने शायद सोचा भी नहीं था। चुनाव की बेला में किसान की अपनी माँगों से हार न मानने की इस ज़िद ने सरकार की साँसें फुला दी हैं। किसान आन्दोलन बढ़ता जा रहा है। पंजाब से लेकर उत्तर प्रदेश तक और देश के दूसरे हिस्सों में किसान मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ अब पूरी ताक़त से आ जुटे हैं। उन्हें पता है कि अगले कुछ ही महीनों में उत्तर प्रदेश सहित कई राज्यों में विधानसभा के चुनाव हैं और भाजपा पर दबाव बनाने का यह सही मौक़ा है। शायद यही कारण है कि उन्होंने सीधे-सीधे मोदी सरकार और भाजपा को ही चुनौती दे दी है।

सच तो यह है कि मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की बड़ी महापंचायतों में संयुक्त किसान मोर्चा के नेताओं की सीधे राजनीतिक ललकार ने भाजपा के पसीने छुड़ा दिये हैं और वह दबाव में दिखने लगी है। उत्तर प्रदेश सहित अन्य महीनों में भाजपा को चुनाव झेलने हैं और किसानों के प्रति जनसमर्थन देखते हुए पार्टी के नेताओं के माथे पर सिलवटें हैं। इसी महीने 27 को किसान ‘भारत बन्द’ कर रहे हैं। उन्होंने इसके लिए बाक़ायदा अपना एक कार्यक्रम घोषित कर दिया है। निश्चित है कि किसान अब आर-पार की लड़ाई की तैयारी में हैं।

भाजपा के लिए चिन्ता की बात यह है कि किसान अब सीधे रूप से उसकी सरकार को उखाड़ फेंकने का नारा देने लगे हैं। मोदी सरकार पहले से ही कई मोर्चों पर दबाव झेल रही है। भाजपा की सरकार वाले हरियाणा के करनाल में किसानों पर जिस निर्ममता से लाठीचार्ज करके उन्हें लहूलुहान किया गया, उससे आम आदमी भी रुष्ट हुआ है। इसके बाद किसान और तेज़ी से आन्दोलन को गति देने में जुट गये हैं।

मुज़फ़्फ़रनगर और करनाल की महापंचायतों में किसान नेताओं की भाषा से ज़ाहिर हो गया है कि वे अब राजनीतिक मोर्चे पर भी भाजपा को ललकारने लगे हैं। चुनाव में भाजपा को किसानों की रणनीति भारी पड़ सकती है। मुज़फ़्फ़रनगर की जबरदस्त किसान महापंचायत के पाँच दिन के भीतर ही भाजपा ने उत्तर प्रदेश चुनाव के लिए अपने प्रभारियों की घोषणा कर दी, जो ज़ाहिर करता है कि वह दबाव में है और उसे चुनाव में अपनी जीत दोहराने को लेकर चिन्ता है। मुज़फ़्फ़रनगर, जो संयुक्त किसान मोर्चा के एक घटक भारतीय किसान युनियन (भाकियू) के नेता राकेश टिकैत का गृह क्षेत्र है; में देश भर के किसानों की जैसी भीड़ जुटी, उसने भाजपा को चिन्ता में डाल दिया है।

किसानों के प्रति मोदी सरकार के रूख़ से आम जनता में भी नाराज़गी दिखती है। इसका एक कारण यह है कि किसानों के बच्चे सेना से लेकर दूसरे क्षेत्रों में रहकर देश की सेवा कर रहे हैं। किसान क़र्ज़ में दबकर आत्महत्या कर रहे हैं और सरकार इसे लेकर कुछ नहीं कर रही। गुजरात सहित कुछ अन्य राज्यों में भाजपा के क़रीबी अमीरों के क़र्ज़ माफ़ करने के आरोप मोदी सरकार पर लगते रहे हैं। लेकिन किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की कोई बात इस सरकार ने कभी नहीं की। इसी अगस्त में संसद में एक सवाल के लिखित जबाव में वित्त राज्यमंत्री भागवत किशनराव कराड ने बताया था कि किसानों की क़र्ज़ माफ़ी की सरकार की फ़िलहाल कोई योजना नहीं है। नबार्ड के आँकड़े बताते हैं कि देश के किसानों पर इस समय क़रीब 16.8 लाख करोड़ रुपये का भारी भरकम क़र्ज़ है।

किसानों ने अपने आन्दोलन को अब प्रतिष्ठा से जोड़ लिया है। मोदी सरकार के मंत्री दर्ज़नों बार कह चुके हैं कि कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं लिए जाएँगे। लेकिन किसान अब कुछ सुनने को तैयार नहीं हैं। उन्होंने साफ़ कर दिया है कि वे तब तक घर नहीं लौटेंगे, जब तक तीनों कृषि क़ानून वापस नहीं ले लिए जाते। साफ़ है किसान अब भाजपा और उसकी सरकार से आमने-सामने लड़ाई लडऩे की तैयारी कर चुके हैं।

‘तहलका’ की जानकारी के मुताबिक, बीच में यह ख़बरें सामने आने से किसान और नाराज़ हुए कि भाजपा और केंद्र सरकार में कुछ ताक़तें किसानों की एकता में फूट डालने की कोशिशें कर रही हैं। जानकारी के मुताबिक, सरकार में कुछ लोग चाहते हैं कि किसनों के आन्दोलन को तोड़ देने से ही समस्या का हल निकलेगा। हालाँकि किसानों को इसकी भनक लगते ही उन्होंने अपने बीच ऐसी व्यवस्था की है कि भाजपा या सरकार  इसमें किसी भी सूरत में सफल न हो सके। फ़िलहाल तो किसानों में जबरदस्त एकता दिख रही है और उन्हें मिल रहे जनसमर्थन को देखते हुए इसकी सम्भावना कम ही दिखती है कि किसानों या संयुक्त मोर्चा के नेताओं में दो-फाड़ की नौबत आएगी।

 

भाजपा की चिन्ता

किसान आन्दोलन के बढ़ते दायरे से भाजपा को चुनाव की चिन्ता पैदा हो गयी है। क़रीब 10 महीने से जारी आन्दोलन के प्रति मोदी सरकार ने हमेशा बेपरवाह वाला रवैया दिखाया है। बीच में कृषि मंत्री नरेंद्र तोमर और अन्य मंत्रियों के किसानों के साथ बैठकों के कई दौर भी हुए; लेकिन सरकार एक बात पर हमेशा अड़ी रही कि तीनों कृषि क़ानून किसी भी सूरत में वापस नहीं होंगे, जबकि किसानों की मुख्य माँग ही यही है। उधर किसानों के आन्दोलन के दौरान कई ऐसे मौक़े आये हैं, जब पुलिस ने उनके ख़िलाफ़ डंडे का सहारा लिया। बिना सरकार के इशारे के यह हो ही नहीं सकता। इससे किसान और भडक़े हैं।

अब जबकि किसानों ने अपना आन्दोलन तेज़ करने की तैयारी कर ली है और इसे तेज़ करने का फ़ैसला करते हुए सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ मोर्चा खोल दिया है, जिससे पार्टी में बेचैनी है। उसे चिन्ता सता रही है कि कहीं किसानों की नाराज़गी भारी न पड़ जाए। किसान आन्दोलन ने उत्तर प्रदेश जैसे बड़े और राजनीतिक रूप से बहुत ही अहम राज्य की राजनीति में समीकरण बदल दिये हैं। मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत के बाद राजनीतिक असर साफ़ दिखने लगा है। भाजपा पर दबाव उसकी आन्दोलन से निपटने की तैयारियों से ज़ाहिर हो जाता है।

पश्चिमी उत्तर प्रदेश में जाट-मुस्लिम समीकरण फिर बनाने की कोशिशें शुरू हो गयी हैं। किसान आन्दोलन का असर उसमें और पश्चिमी उत्तर प्रदेश में क़रीब 136 विधानसभा सीटों पर जाटों का व्यापक असर है। इनमें 55 सीटों पर तो जाट-मुस्लिम आबादी क़रीब 40 फ़ीसदी है, जिसमें चुनावी समीकरण बदलने की क्षमता है।

उत्तर प्रदेश में जहाँ भाजपा को टक्कर देने के लिए समाजवादी पार्टी, कांग्रेस और बसपा के अलावा छोटे क्षेत्रीय दल भी कमर कस रहे हैं, वहीं आम आदमी पार्टी का लक्ष्य भी यही है।

प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है। बसपा आश्चर्यजनक रूप से ख़ामोशी साधे है। भाजपा के प्रति बसपा और मायावती के नरम रूख़ को उत्तर प्रदेश के राजनीतिक हलक़ों में आश्चर्य से देखा जा रहा है। सच तो यह है कि मायावती से ज़्यादा तो उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के नेता असदुद्दीन ओवैसी सक्रिय हैं। बसपा की चुनावी तैयारी न के बराबर है। कांग्रेस के सक्रिय होने से उत्तर प्रदेश में राजनीतिक स्थिति दिलचस्प ज़रूर हुई है; लेकिन अभी यह साफ़ नहीं है कि कांग्रेस की रणनीति क्या है और और वह किसके साथ तालमेल कर सकती है? प्रियंका गाँधी के उत्तर प्रदेश में मोर्चा सँभालने के बाद पार्टी काफ़ी सक्रिय हुई है। कांग्रेस भी सपा की तरह उभरते समीकरणों पर नज़र रखे हुए है।

कांग्रेस के नेता यह स्वीकार करते हैं कि उत्तर प्रदेश में पार्टी की स्थिति पहले से कहीं बेहतर हुई है और जनता में प्रियंका गाँधी के प्रति लगाव भी है। लेकिन संगठन कमज़ोर होने से इतना बड़ा चुनाव उसके लिए बड़ी चुनौती रहेगा। प्रत्याशियों के चयन से लेकर गठबन्धन तक की चुनौती है। सपा पहले ही कह चुकी है कि वह कांग्रेस से समझौता नहीं करेगी। दिलचस्प यह है कि कांग्रेस बार-बार कह रही है कि वह अकेले ही चुनाव में उतरेगी। ऐसे में क्या यह माना जाए कि उसे किसानों से समर्थन की उम्मीद है? मुस्लिम समुदाय के अलावा ओबीसी और दलित मत (वोट) मिलने की भी कांग्रेस उम्मीद कर रही है। क्योंकि उसे लगता है कि यदि प्रियंका के नेतृत्व में चुनाव में उतरा जाता है, तो उसे चुनाव में प्रियंका की इंदिरा गाँधी वाली छवि से बड़ा लाभ मिल सकता है।

कांग्रेस ने जिस तरह सन् 2009 के लोकसभा चुनाव में अचानक 21 सीटें जीत ली थीं, उससे यह तो ज़ाहिर होता है कि पिछले कुछ दशकों में विभिन्न राजनीतिक दलों की सरकार देख चुकी उत्तर प्रदेश की जनता कांग्रेस को भूली नहीं है और प्रियंका की छवि कांग्रेस को अप्रत्याशित सफलता भी दिला सकती है। एक वरिष्ठ कांग्रेस नेता ने कहा कि राह मुश्किल ज़रूर है, लेकिन पार्टी के लिए सम्भावनाओं के द्वार भी बहुत हैं।

अजीत सिंह की मृत्यु के बाद राष्ट्रीय लोकदल (रालोद) का ज़िम्मा उनके बेटे जयंत चौधरी पर है। रालोद कांग्रेस के साथ पहले भी गठबन्धन में रही है। हो सकता है कांग्रेस इसका प्रयास अगले चुनाव में भी करे। किसान आन्दोलन ने जिस तरह उत्तर प्रदेश की राजनीति की तस्वीर बदली है, उससे विधानसभा चुनाव से पहले राजनीतिक समीकरणों के बदलने से भी इन्कार नहीं किया जा सकता। दिलचस्प यह है कि समाजवादी पार्टी को मुस्लिम-जाट के साथ आने की सम्भावना से अपने पक्ष में जो उम्मीद है, वही कांग्रेस को भी है। सपा और कांग्रेस के अलावा बसपा को भी झटका देने के लिए इस बार उत्तर प्रदेश में एआईएमआईएम के असदुद्दीन ओवैसी भी ख़ूब सक्रिय दिख रहे हैं। उन्हें विरोधी दल भाजपा को लाभ देने के लिए दूसरे दलों का वोट कटवा के रूप में चिह्नित कर रहे हैं। हालाँकि ख़ुद ओवैसी इसे सिरे से ख़ारिज़ करते हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि किसान भाजपा से सबसे ज़्यादा नाराज़ हैं और वे चुनाव के समय भी उसके ख़िलाफ़ काम करेंगे। ऐसे में अन्य दलों के पास किसानों के समर्थन की गुंजाइश रहेगी। किसानों के आन्दोलन में राजनीति आने की सबसे बड़ी वजह भी भाजपा ही है। उसने किसान आन्दोलन के प्रति जैसा रूख़ दिखाया और भाजपा समर्थित सोशल मीडिया ने जिस तरह किसानों को ख़ालिस्तानी और पाकिस्तानी समर्थक बताकर उसे जनता की नज़र में गिराने की कोशिश की उससे किसान बहुत ख़फ़ा हुए हैं। अपने ही देश में अपने हक़ के लिए लड़ाई लडऩे पर देश विरोधी क़रार देने से किसान दु:खी हैं। पंजाब से लेकर हरियाणा कर उत्तर प्रदेश के किसानों की ही बात की जाए, तो उनके बेटे बड़ी संख्या में सेना में भर्ती होकर सीमाओं पर देश की सेवा कर रहे हैं। आतंकवादियों और दुश्मन देश की सीमा पर नापाक हरकतों में जान गँवाने वाले सेना के जवानों के किसान अभिभावकों को भला कोई कैसे ख़ालिस्तानी या देश विरोधी क़रार दे सकता है! यही कारण है कि किसान अब भाजपा के ख़िलाफ़ भी लामबन्द हो गये हैं।

उत्तर प्रदेश की ही तरह पंजाब में भी अगले साल विधानसभा चुनाव हैं। पंजाब में किसान आन्दोलन सबसे तीव्र रहा है। सच तो यह कि वर्तमान किसान आन्दोलन की शुरुआत ही पंजाब से हुई। वहाँ सत्तारूढ़ अमरिंदर सिंह सरकार किसानों को लेकर शुरू से ही सहनुभूति वाला रवैया रखती रही है। भाजपा अब पुराने साथी अकाली दल के साथ नहीं है और उसने फ़िलहाल मायावती की बसपा से समझौता कर लिया है। जलियांवाला बाग़ के पुनरुद्धार के मामले में भाजपा को निजी नुक़सान सहना पड़ सकता है; क्योंकि आम लोगों ने पंजाब में इसे पसन्द नहीं किया है। उनका कहना है कि ऐसी धरोहर, जो शहादत से जुड़ी हो, उसे मनोरंजन स्थल नहीं बनाया जा सकता।

ऐसे में पंजाब में किसान चुनाव में बड़ा मुद्दा है। भाजपा ने पंजाब में एक तरह से अपनी क़ब्र ही खोद ली है। किसानों के इतने बड़े विरोध के बाद पंजाब में भाजपा के लिए कुछ ज़्यादा सम्भावना बची नहीं है। हाँ, गाहे-बगाहे मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह के भाजपा में आने की अफ़वाहें ज़रूर पार्टी के नेता उछालते रहते हैं। आम आदमी पार्टी किसानों के प्रति सकारात्मक रूख़ ज़रूर अपनाती रही है। लेकिन उसने पंजाब में अपने संगठन में इतने ज़्यादा अंतद्र्वंद्व पैदा कर लिये हैं कि चुनाव आते-आते उसके बिखरने की स्थिति बन जाते हैं। भगवंत मान ख़ुद को मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार के रूप में देखते हैं। लेकिन आम आदमी पार्टी का नेतृत्व दिल्ली की ताक़त को कमज़ोर नहीं करना चाहता।

अकाली दल की पैठ पंजाब के गाँवों में रही है; लेकिन तीन कृषि क़ानूनों के बनने अकाली दल की भाजपा का सहयोगी रहते भूमिका से किसान अप्रसन्न रहे हैं। ऐसे में उसके सामने भी किसानों की नाराज़गी का मसला है। किसान चुनाव के समय क्या रूख़ अपनाते हैं? यह देखना दिलचस्प होगा। हालाँकि यह भी सच है कि किसान संगठनों में कुछ नेता अकाली दल के प्रति सहानुभूति रखते रहे हैं। ऐसे में कांग्रेस अपने लिए बेहतर सम्भावना देख रही है। हालाँकि यह अलग बात है कि पार्टी में मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह और प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू के धड़ों में तलवारें तनी हुई हैं।

हरियाणा में अभी चुनाव नहीं हैं; लेकिन भाजपा-जजपा की साझा सरकार की छवि किसानों के विरोधी वाली बन चुकी है। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर को किसान अपने ख़िलाफ़ मानते हैं और हाल में करनाल में आन्दोलन कर रहे किसानों पर लाठीचार्ज की घटना, जिसमें घायल एक किसान की बाद में मौत भी हो गयी; के बाद उन्होंने करनाल की महापंचायत को स्थायी धरने में बदल दिया है। वहाँ के एक आईएएस अधिकारी की किसानों का सिर फोडऩे वाली ऑडियो क्लिप सरकार के गले की फाँस बन गयी है। लेकिन मुख्यमंत्री खट्टर अधिकारी के समर्थन में खड़े दिखते हैं।

उधर उत्तर प्रदेश से लगते उत्तराखण्ड में भी अगले साल ही विधानसभा चुनाव हैं। वहाँ किसान न सिर्फ़ सक्रिय हैं, बल्कि बड़ी संख्या में उनके मुज़फ़्फ़रनगर की महापंचायत में आने का भी दावा किया था। महापंचायत में किसान नेताओं ने जब भाजपा को हराने के संकल्प की बात की थी, तो उत्तराखण्ड का भी नाम लिया गया था। दिलचस्प यह कि वहाँ कांग्रेस भाजपा की मुख्य प्रतिद्वंद्वी है और उत्तराखण्ड में उसका वोट बैंक ठीकठाक है। इधर आम आदमी पार्टी के नेता अरविन्द केजरीवाल भी अपने प्रत्याशी उतारने का ऐलान कर चुके हैं।

संयुक्त किसान मोर्चा की अपील ने उत्तराखण्ड में भाजपा को रक्षात्मक किया है, जिसने हाल ही में वहाँ अपना मुख्यमंत्री बदला है। जहाँ तक उत्तराखण्ड में किसानों के प्रभाव की बात है, तो क़रीब 25 विधानसभा सीटों पर उनका असर है। उत्तराखण्ड में किसान आन्दोलन पर्वतीय ज़िलों में नहीं पहुँचा है; लेकिन हरिद्वार, देहरादून, नैनीताल और ऊधमसिंह नगर जैसे मैदानी और तराई वाले इलाक़ों में आन्दोलन का कम-ज़्यादा असर है। वैसे भी किसान नेता उत्तराखण्ड में महापंचायत करने की घोषणा कर चुके हैं, जिसके बाद माहौल गरमा सकता है।

सूबे में सिर्फ़ हरिद्वार शहर को छोडक़र अन्य सीटें किसान बहुल हैं। देहरादून में चार, उधमसिंह नगर में नौ और नैनीताल में तीन सीटों पर किसानों का प्रभाव है। पिछले चुनाव के नतीजे देखें, तो हरिद्वार की 11 सीटों में से आठ भाजपा ने जीती थीं। बता दें हरिद्वार शहर को छोड़ अन्य सभी सीटें किसानों के प्रभाव वाली हैं।

उधर देहरादून की 10 सीटों में से ऋषिकेश, डोईवाला, सहसपुर और विकासनगर विधानसभा किसान प्रभाव वाली हैं। उधमसिंह नगर ज़िले की तो सभी सीटें किसान बहुल हैं और नैनीताल में लालकुआँ, हल्द्वानी और कालाढूंगी विधानसभा क्षेत्रों में किसानों का प्रभाव है। उत्तराखण्ड में कांग्रेस ने अपने पुराने नेता हरीश रावत को चुनाव जिताने का ज़िम्मा दिया है। किसान आन्दोलन के असर से इस पहाड़ी राज्य में चुनावी राजनीति दिलचस्प हुई है।

कुल मिलाकर अगर केंद्र सरकार तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं लेती है, तो आने वाला लम्बा समय भाजपा के लिए राजनीतिक दृष्टि से बेहद ख़राब हो सकता है।

 

देश के 48 फ़ीसदी परिवार कृषि पर निर्भर

देश में किसानों की दुर्दशा तब है, जब देश के सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में कृषि क्षेत्र की हिस्सेदारी 14 फ़ीसदी से ज़्यादा है। यहाँ यह भी बहुत अहम है कि कोरोना महामारी के चलते बनी आर्थिक मंदी के बीच भी किसानों की हिस्सेदारी का आँकड़ा काफ़ी बेहतर रहा है। राष्ट्रीय कृषि और ग्रामीण विकास बैंक (नाबार्ड) की एक रिपोर्ट के मुताबिक, देश में 10.07 करोड़ परिवार खेती पर निर्भर हैं। यह संख्या देश के कुल परिवारों का 48 फ़ीसदी है। राज्यों के हिसाब से देखें, तो केरल में प्रति परिवार में चार, उत्तर प्रदेश में छ:, मणिपुर 6.4, पंजाब 5.2, बिहार 5.5, हरियाणा 5.3, जबकि कर्नाटक और मध्य प्रदेश में कृषि आधारित परिवार में औसतन 4.5 सदस्य हैं। कोरोना-काल में केवल कृषि ही ऐसा क्षेत्र है, जिसने देश की अर्थ-व्यवस्था को सँभाला है। लेकिन साल 2020 में ही मोदी सरकार ने महामारी के ही दौरान तीन कृषि क़ानूनों को लागू किया, जिनका किसान जबरदस्त विरोध कर रहे हैं। किसानों की इस स्थिति ने यह सवाल तक उठा दिया है कि क्या सही में भारत कृषि प्रधान देश है? देखा जाए, तो सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) में लगातार गिरती कृषि हिस्सेदारी, किसानों की गिरती आमदनी, क़र्ज़ में डूबे किसानों द्वारा आत्महत्याएँ, युवाओं का खेती किसानी से मोह भंग होना और जलवायु परिवर्तन से अप्रत्याशित बाढ़, सूखे ने किसानों की कमर तोडक़र रख दी है। आँकड़े बताते हैं कि भारत के 52 फ़ीसदी ज़िलों में किसानों से अधिक संख्या कृषि श्रमिकों की है। बिहार, केरल और पुदुचेरी के सभी ज़िलों में किसानों से ज़्यादा कृषि श्रमिकों की संख्या है। उत्तर प्रदेश में 65.8 मिलियन (6.58 करोड़) आबादी कृषि पर निर्भर है; लेकिन कृषि श्रमिकों की संख्या 51 फ़ीसदी और किसानों की संख्या 49 फ़ीसदी है। सरकार भले ही 2022 तक किसानों की आमदनी दोगुनी करने की बातें करती है; लेकिन ऐसा कोई सरकारी आँकड़ा हमारे सामने नहीं है, जो यह बता सके कि किसानों की आमदनी हुई कितनी? किसान नेता आँकड़ों सहित बताते रहे हैं कि हाल के वर्षों में कृषि लागत इतनी ज़्यादा हो चुकी है कि किसानों की आमदनी हक़ीक़त में कम हुई है। आमदनी घटने से किसानों की नयी पीढ़ी का किसानी से मोह भंग हुआ है। इसका नतीजा यह हुआ है कि कॉरपोरेट खेतों को खा रहा है। किसान इसीलिए तीन कृषि क़ानूनों का विरोध कर रहे हैं, क्योंकि उन्हें लगता है कि कार्पोरेट बचे खेतों को भी खा जाएगा।

 

किसान आन्दोलनों ने बदली हैं सत्ताएँ

सिर्फ़ उत्तर प्रदेश की ही बात की जाए, तो किसान आन्दोलन सत्ता बदलने का बड़ा माद्दा रखते रहे हैं। इसलिए अब जब उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव होने वाले हैं, मुज़फ़्फ़रनगर में महापंचायत कर किसानों ने सीधे भाजपा को ललकार कर अपनी ताक़त का संकेत तो दे दिया है। यदि पिछले तीन दशक का इतिहास देखें, तो ज़ाहिर होता है कि मुज़फ़्फ़रनगर में किसान महापंचायतें सत्तारूढ़ दलों की क़ब्रगाह साबित होती रही हैं। इतिहास देखें तो ऐसी महापंचायतों की शुरुआत सन् 1987 में हुई थी। सन् 1988 से लेकर सन् 2013 तक मुज़फ़्फ़रनगर में हुई महापंचायतों ने सूबे की राजनीति ही प्रभावित नहीं हुई, सरकारें भी बदल गयीं। भारतीय किसान यूनियन (भाकियू) का जन्म ही मुज़फ़्फ़रनगर में हुआ, जिसने समय के साथ पूरे पश्चिम उत्तर प्रदेश पर प्रभाव बना लिया। महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में अगस्त, 1987 में मुज़फ़्फ़रनगर के सिसौली में हुई महापंचायत एक बड़े आन्दोलन का आधार बन गयी। किसानों की माँग बिजली और सिंचाई की दरें घटाने के अलावा फ़सल के उचित मूल्य की थीं। टिकैत के नेतृत्व में 35 माँगों पर कांग्रेस की सरकार से टकराव हुआ। किसानों ने जनवरी, 1988 में दिल्ली के वोट क्लब में धरना दिया। इसके बाद सन् 1989 में उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के चुनाव में कांग्रेस को बड़ा नुक़सान झेलना पड़ा और सत्ता से दोनों जगह हाथ धोना पड़ा। इसके बाद फरवरी, 2003 में महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में भाकियू ने सीधे मायावती सरकार को ललकारते हुए बड़ी महापंचायत की। बाद में एक धरना हुआ, जिस पर पुलिस ने लाठियाँ भाँज दीं। इसके विरोध में हुई महापंचायत में लाखों किसान जुट गये। नतीजा यह हुआ कि साल बाद मायावती के विधायकों की बग़ावत से उनकी सत्ता चली गयी। मुलायम सिंह यादव ने इन विधायकों की मदद से अजित सिंह के रालोद के समर्थन से सरकार बना ली। मायावती का पीछा किसानों ने सन् 2008 में भी नहीं छोड़ा। बिजनौर में टिकैत की मायावती के ख़िलाफ़ जातिसूचक टिप्पणी के बाद टिकैत को गिरफ़्तार करने के आदेश हुए; लेकिन किसानों ने टिकैत के घर जाने वाली सभी सडक़ों को बन्द कर दिया। हालाँकि चार दिन के बाद टिकैत की गिरफ़्तारी हुई और इसके बाद बसपा सरकार के ख़िलाफ़ महापंचायत की गयी। इसमें भी किसानों ने टिकैत के नेतृत्व में सीधे बसपा सरकार को सत्ता से उखाड़ फेंकने का संकल्प किया और सन् 2012 के चुनाव में मायावती सत्ता से बाहर हो गयीं। मुज़फ़्फ़रनगर ज़िले के ही चर्चित कवाल कांड के बाद महेंद्र सिंह टिकैत के बेटे राकेश टिकैत ने सितंबर, 2013 में जाटों की बड़ी महापंचायत की। यह माना जाता है कि नंगला मंदौड की यह पंचायत जाट-मुस्लिम जंग की वजह बनी, जिससे पश्चिम उत्तर प्रदेश में जाट समुदाय के आक्रोश ने 2017 में सपा की सत्ता छीन ली। इसके बाद ही भाजपा सत्ता में आयी। अब सितंबर, 2021 में मुज़फ़्फ़रनगर में किसानों की महापंचायत में सीधे भाजपा के ख़िलाफ़ किसानों ने बिगुल फूँक दिया है। यह स्थिति सन् 1987 की याद दिलाती है, जब केंद्र में राजीव गाँधी के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार थी, जबकि राज्य में भी कांग्रेस के सरकार थी। अब फिर केंद्र के साथ-साथ कई राज्यों में भाजपा की सरकारें हैं और किसानों ने विद्रोही तेवर अपना लिये हैं। ज़ाहिर है भाजपा किसानों के इन तेवरों से रक्षात्मक है।

 

“सिर्फ़ खेती-किसानी नहीं, बल्कि सरकारी संस्थानों के निजीकरण, बेरोज़गारी जैसे मुद्दों पर भी केंद्र सरकार के ख़िलाफ़ आन्दोलन करना होगा। अडिय़ल सरकार को झुकाने के लिए वोट की चोट ज़रूरी है। देश बचेगा, तभी संविधान बचेगा। सरकार ने रेल, तेल और हवाई अड्डे बेच दिये हैं। किसने सरकार को यह हक़ दिया। ये बिजली बेचेंगे और प्राइवेट करेंगे। सडक़ बेचेंगे और सडक़ पर चलने पर हम लोगों से टैक्स (कर) भी वसूलेंगे। दिल्ली बॉर्डर पर भले हमारी क़ब्रगाह बन जाए, जब तक हमारी माँगें नहीं मानी जाएँगी, तब तक हम वहाँ डटे रहेंगे। वहाँ से नहीं हटेंगे। अगर वहाँ पर हमारी क़ब्रगाह बनेगी, तो भी हम मोर्चा नहीं छोड़ेंगे। बग़ैर जीते वापस घर नहीं जाएँगे।“

राकेश टिकैत

संयुक्त किसान मोर्चा के नेता

 

 

@RahulGandhi

डटा है

निडर है

इधर है

भारत भाग्य विधाता!

#FarmersProtest

किसानों पर क़र्ज़ का बोझ

हाल में पंजाब की अमरिंदर सिंह सरकार ने किसानों के 590 करोड़ रुपये के क़र्ज़ को माफ़ करने की घोषणा की थी। क़र्ज़ माफ़ी मज़दूरों और भूमिहीन कृषक समुदाय के लिए कृषि ऋण माफ़ी योजना के तहत है। पंजाब सरकार का कहना है कि उसने इस योजना के तहत अब तक 5.64 लाख किसानों का 4,624 करोड़ रुपये का क़र्ज़ माफ़ किया है। छत्तीसगढ़ सहित कुछ अन्य राज्यों में भी किसानों के क़र्ज़ माफ़ करने की घोषणाएँ हुई हैं। लेकिन एक सच यह भी है कि किसानों पर इस समय 16.8 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है।

ये आँकड़े सरकार के हैं, जो अगस्त में एक सवाल के लिखित जवाब में संसद में पेश किये गये थे। इनके मुताबिक, क़र्ज़ में सबसे ज़्यादा तमिलनाडु के किसान हैं। वहाँ किसानों पर 1.89 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। संसद में पेश किये गये विवरण (डाटा) के मुताबिक, अग्रणी (टॉप) पाँच राज्यों में तमिलनाडु के किसानों पर 1,89,623.56 करोड़ रुपये, आंध्र प्रदेश के किसानों पर 1,69,322.96 करोड़ रुपये, उत्तर प्रदेश के किसानों पर 1,55,743.87 करोड़ रुपये, महाराष्ट्र के किसानों पर 1,53,658.32 करोड़ रुपये, कर्नाटक के किसानों पर 1,43,365.63 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। जहाँ तक क़र्ज़ वाले बैंक खातों की बात है, तो अग्रणी पाँच राज्यों में तमिलनाडु के 1,64,45,864 खाते, उत्तर प्रदेश के 1,43,53,475 खाते, आंध्र प्रदेश के 1,20,08,351 खाते, कर्नाटक के 1,08,99,165 खाते, महाराष्ट्र के 1,04,93,252 खाते हैं। कम क़र्ज़ वाले अग्रणी पाँच राज्यों की बात करें, तो दमन और दीव के किसानों पर 40 करोड़ रुपये, लक्षद्वीप के किसानों पर 60 करोड़ रुपये, सिक्किम के किसानों पर 175 करोड़ रुपये, लद्दाख़ के किसानों पर 275 करोड़ रुपये और मिजोरम के किसानों पर 554 करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। कम क़र्ज़ के किसान खातों वाले अग्रणी पाँच राज्यों में दमन और दीव के 1,857 खाते, लक्षद्वीप के 17,873 खाते, सिक्किम के 21,208 खाते, लद्दाख़ के 25,781 खाते, जबकि दिल्ली के 32,902 खाते शामिल हैं।