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पंजाब चुनाव में होगा बहुकोणीय मुक़ाबला

21 December 2021 Amritsar Shiromani Akali Dal President Sukhbir Singh Badal along with SGPC president Harjinder Singh Dhami addresses a press conference at the Golden Temple complex in Amritsar on Tuesday. A man was beaten to death on Saturday after he allegedly attempted to commit a 'sacrilegious' act inside the historic temple. PHOTO-PRABHJOT GILL AMRITSAR

चुनाव की घोषणा के बाद ही साफ़ होगी दलों के गठबन्धन की पूरी तस्वीर

विधानसभा चुनाव से ऐन पहले कृषि क़ानून निरस्त करने के बाद भाजपा आक्रामक रूप से पंजाब के अपने राजनीतिक एजेंडे को आगे बढ़ा रही है। इन वर्षों में कांग्रेस, अकाली दल और बाद में आम आदमी पार्टी (आप) के कारण पंजाब में पीछे रही भाजपा अब पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व वाली पंजाब लोक कांग्रेस के साथ चुनाव पूर्व गठबन्धन के कारण बेहतर की उम्मीद कर रही है। हालाँकि वर्तमान राजनीतिक स्थिति से ज़ाहिर होता है कि पंजाब में अगले साल के शुरू में होने वाला विधानसभा चुनाव एक बहुकोणीय मुक़ाबले की तरफ़ बढ़ रहा है। इससे निश्चित ही सभी दल दबाव में हैं और सम्भावित चुनाव नतीजों को लेकर अभी से अनुमानों का सिलसिला शुरू हो गया है।

हाल में एक बड़े घटनाक्रम में अमरिंदर सिंह ने पंजाब में एक बैठक के बाद अपने दिल्ली आवास पर भाजपा के पंजाब प्रभारी, केंद्रीय मंत्री गजेंद्र शेखावत से मुलाक़ात की। दोनों ने कुछ महीनों में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले गठबन्धन की घोषणा की है। शेखावत ने कहा कि सीट-बँटवारे की विस्तृत योजना की घोषणा उचित समय पर की जाएगी। सिंह ने चुटकी लेते हुए यह भी कहा कि गठबन्धन निश्चित रूप से 101 फ़ीसदी चुनाव जीतेगा। जीत हासिल करने की क्षमता सीटों को अन्तिम रूप देने में मुख्य मानदण्ड होगी।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता के अनुसार, सीट बँटवारे की व्यवस्था में पार्टी सबसे बड़ी भागीदार होगी और कम-से-कम 60-70 सीटों पर चुनाव लड़ सकती है। पंजाब में भाजपा को उम्मीद की किरण अमरिंदर सिंह के साथ गठबन्धन और सुखदेव ढींडसा और रणजीत सिंह ब्रह्मपुरा के नेतृत्व वाले अकाली दल के साथ गठबन्धन है। हालाँकि पंजाब में भाजपा के सामने एक बड़ी चुनौती पूरे राज्य में अपनी उपस्थिति का अभाव होगा। जब भाजपा ने शिरोमणि अकाली दल के साथ गठजोड़ किया था, तो भाजपा एक छोटी सहयोगी थी और सीटों का एक बड़ा हिस्सा हमेशा अकाली दल को जाता था। सन् 2017 के चुनाव के दौरान भाजपा और शिरोमणि अकाली दल ने सीट बँटवारे के फार्मूले पर चुनाव लड़ा, जिसमें अकाली दल ने 94 सीटों पर और भाजपा ने 23 पर चुनाव लड़ा। तीन कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ किसानों के आन्दोलन के दौरान एनडीए में सबसे पुराने गठबन्धन सहयोगियों में से एक अकाली दल ने अलग होने का फ़ैसला किया।

भाजपा ब्रांड मोदी को प्रचार के दौरान भुनाएगी, जो किसानों और उनके परिवारों के ग़ुस्से के बावजूद कई वर्गों में अभी भी लोकप्रिय हैं। भाजपा को लगता है कि तीन विवादास्पद क़ानूनों के निरस्त होने से समय बीतने के साथ लोगों का ग़ुस्सा कम हो जाएगा। इस फ़ैसले ने भाजपा को 2022 की शुरुआत में होने वाले विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में पैठ बनाने के लिए पर्याप्त प्रोत्साहन दिया है।

यह एक ज्ञात तथ्य है कि शिरोमणि अकाली दल को एक पंथिक पार्टी माना जाता है और जैसा कि भाजपा ने अतीत में इस पार्टी के साथ चुनाव लडऩा जारी रखा था; हिन्दू मतदाता भाजपा से दूर रहे थे। भाजपा के थिंक टैंक का मानना है कि पार्टी अब इन मतदाताओं को जीत सकती है; क्योंकि राज्य में ध्रुवीकरण हो रहा है।

पंजाब कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू मुख्य रूप से करतारपुर कॉरिडोर, जो पाकिस्तान में करतारपुर साहिब गुरुद्वारे को जोड़ता है; की अपनी पहल सहित पंथिक वोटों से सम्बन्धित मुद्दों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। कांग्रेस हिन्दू वोट बैंक का बड़ा हिस्सा खो सकती है। इसमें कोई शक नहीं है कि सिद्धू ने हाल ही में शहरी श्रमिकों को रोज़गार का अधिकार देने के लिए शहरी रोज़गार गारंटी मिशन शुरू करने की घोषणा की है। अगर उनकी पार्टी आगामी राज्य चुनावों में सत्ता बरक़रार रखती है, तो वह इन्हें पूरा करने की बात कह रहे हैं। सिद्धू का कहना है कि यह मिशन राज्य के क़स्बों और शहरों में शहरी ग़रीबों, विशेष रूप से अकुशल श्रमिकों को रोज़गार देने के लिए केंद्र प्रायोजित योजना महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) की तर्ज पर शुरू किया जाएगा। उन्होंने आगे कहा है कि शहरी ग़रीबी राज्य में ग्रामीण ग़रीबी से दोगुनी है। हम रोज़गार का अधिकार देने के अलावा दैनिक वेतन भी तय करेंगे और काम के घंटे भी नियमित करेंगे।

अपने क्रान्तिकारी विचार को शासन के अपने पंजाब मॉडल की यूएसपी (अद्वितीय बिक्री प्रस्ताव) बताते हुए, राज्य कांग्रेस प्रमुख सिद्धू ने कहा कि यह विचार शहरी ग़रीबों के जीवन को बदल देगा। स्पष्ट रूप से विचार शहरी क्षेत्रों के मतदाताओं को लुभाने का है, जिसे भाजपा लुभाने की कोशिश कर रही है। साथ ही अमरिंदर सिंह के बाहर निकलने के बाद, कांग्रेस ग़ैर-जाट सिख राजनीति को आगे बढ़ाने की कोशिश कर रही है और यह पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी को सबसे ज़्यादा सूट (सुशोभित) करती है।

हालाँकि पंजाब में पार्टी अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू द्वारा भ्रमित नेतृत्व और फ्लिप-फ्लॉप ने पंजाब में सत्तासीन पार्टी के लिए स्थिति को जटिल बना दिया है। अभी भी भ्रम है कि पार्टी आलाकमान किसे मुख्यमंत्री के चेहरे के रूप में आगे कर रही है, चन्नी को या सिद्धू को? यह सबसे बड़ा सवाल है। वरिष्ठ कांग्रेस नेता सुनील जाखड़ को अनदेखा किया गया है। हालाँकि उन्हें चुनाव अभियान समिति का नेतृत्व करने के लिए कहा गया है। हाल ही में अमृतसर स्थित स्वर्ण मन्दिर और कपूरथला में बेअदबी की घटनाओं ने वर्तमान कांग्रेस शासन को मुश्किल में डाल दिया है।

अकाली दल के नेता और पूर्व मंत्री बिक्रम सिंह मजीठिया के ख़िलाफ़ प्राथमिकी दर्ज होने से पंजाब में सत्तारूढ़ कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के बीच कड़ुवाहट पैदा हो गयी है। मजीठिया अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल के साले और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर बादल के भाई हैं।

पंजाब की पाकिस्तान के साथ लगभग 563 किलोमीटर की अंतरराष्ट्रीय सीमा है; जिसमें गुरदासपुर, अमृतसर, तरनतारन और फ़िरोज़पुर ज़िले शामिल हैं। राष्ट्रवाद का आख्यान, जो भाजपा के साथ-साथ कैप्टन अमरिंदर सिंह के अनुकूल है; मतदाताओं के एक वर्ग के साथ काम कर सकता है। हालाँकि यह अनुमान लगाना ज़ल्दबाज़ी होगी कि क्या भाजपा और अमरिंदर सिंह की पार्टी मिलकर सत्तारूढ़ कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल के चुनावी समीकरणों को बिगाड़ सकती है।

दिलचस्प बात यह है कि राजनीतिक पर्यवेक्षक शिरोमणि अकाली दल द्वारा भाजपा और अमरिंदर सिंह का समर्थन करने से इन्कार नहीं करते हैं, इसलिए दोनों एक साथ मिलकर पंजाब में सरकार बनाने के लिए बहुमत हासिल कर सकते हैं। वास्तव में यह आम आदमी पार्टी और कांग्रेस दोनों के लिए परेशानी का सबब बन सकता है और उनके लिए मुश्किलें खड़ी कर सकता है। आने वाले कुछ दिनों में यह स्थिति सामने आएगी, जब कांग्रेस और आप अपने उम्मीदवारों के बारे में फ़ैसला करेंगे; क्योंकि असन्तुष्ट नेता कैप्टन अमरिंदर के साथ हाथ मिला सकते हैं, ताकि आप और कांग्रेस का खेल ख़राब हो सके।

पंजाब के पहले दलित मुख्यमंत्री चरणजीत चन्नी दलित वोटों को खींचने की कोशिश कर रहे हैं। उन्होंने कई मुफ़्त उपहारों की घोषणा जनता के लिए की है। लेकिन बेअदबी और ड्रग्स जैसे बड़े राजनीतिक मुद्दे राजनीतिक दलों को परेशान कर रहे हैं।

क्या ख़तरे में है मतदाताओं की गोपनीयता?

 मतदाता पहचान पत्र से आधार कार्ड जोड़ रही केंद्र सरकार

 संसद में चुनाव अधिनियम (संशोधन) विधेयक 2021 पास

अब मतदाता पहचान पत्र से आधार कार्ड को जोड़ दिया जाएगा। इस बाबत लोकसभा और राज्यसभा चुनाव अधिनियम (संशोधन) विधेयक 2021 पास हो गया है। बड़ी बात यह है कि इस शीतकालीन सत्र में कई विधेयकों की तरह ही यह विधेयक भी विपक्ष के विरोध के बावजूद संसद में पारित किया गया है। कुछ लोगों का कहना है कि इससे मतदान प्रक्रिया में अहम सुधार को बल मिलेगा और पारदर्शिता भी आएगी। वहीं कुछ का कहना है कि इससे मतदाता की निजता ख़तरे में पड़ जाएगी। क्योंकि मतदान एक गोपनीय और मतदाता के अधिकार की प्रक्रिया है, जिसमें वह अपने विचार को गोपनीय रख सकता है। लेकिन आधार कार्ड से हर किसी का पूरा बायोडाटा जुड़ा होता है। यहाँ तक कि आधार कार्ड धारक कहाँ रहता है? उसका फोन नंबर क्या है? वह सोशल मीडिया पर कितना और किस रूप में सक्रिय रहता है? किस-किस से बात करता है? क्या विचार रखता है? अगर उसका आधार कार्ड मतदाता पहचान पत्र से जुड़ता है, तो ज़ाहिर है कि वह किस पार्टी या नेता के पक्ष में है, इसका भी पता बहुत हद तक चुनाव आयोग अथवा सरकार को लग सकता है। ऐसे में हो सकता है कि उसकी निजता का हनन हो।

सरकार के पक्ष के लोग और कुछ अन्य लोगों का कहना है कि मतदाता पहचान पत्र के बाद यह दूसरा बड़ा सुधार कहा जा सकता है। जबकि विपक्ष का कहना है कि यह विधेयक नागरिकों के बुनियादी अधिकारों का हनन करता है।

बताते चलें सन् 2015 में सुप्रीम कोर्ट ने अहम् फ़ैसले में उसने आधार कार्ड के मामले में निजता को सर्वोच्च माना था और इसे ज़रूरी नहीं माना था। लेकिन बैंक से लेकर किसी भी सरकारी या ग़ैर सरकारी कार्यालय में चले जाओ. आधार कार्ड के बग़ैर कोई काम ही नहीं होता। मतलब, सरकार ने यह कहते हुए कि आधार कार्ड तो लोगों की मर्जी पर निर्भर करेगा, इस दस्तावेज़ को बनाया था और आज आधार कार्ड को अति आवश्यक दस्तावेज़ बना दिया गया है।

अनेक बार आधार कार्ड के ज़रिये लोगों के डाटा में सेंध लगने की ख़बरें सामने आ चुकी हैं और इसमें कोई दो-राय नहीं कि निजता के ख़तरे को लेकर इस दस्तावेज़ पर सवालिया निशान लगते रहे हैं और लगेंगे भी; क्योंकि इससे किसी व्यक्ति की निजता को सरकार और साइबर अपराधी कभी भी देख सकते हैं, उसका उपयोग कर सकते हैं। विपक्षी दलों ने सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के आधार पर ही इस विधेयक का विरोध किया था। जबकि सरकार का कहना है कि विधेयक के उद्देश्यों एवं अन्य कारणों से निर्वाचन सुधार में एक निरंतर चलने वाली प्रक्रिया है, जिसको केंद्र सरकार समय-समय पर अन्य राज्यों से चुनाव सुधार के प्रस्ताव प्राप्त कर रही है। इसमें भारत का निर्वाचन आयोग भी शामिल है। निर्वाचन आयोग के प्रस्तावों के आधार पर लोक प्रतिनिधत्व अधिनियम-1950 और अधिनियम-1951 के उपबन्धों के संशोधन करने का प्रस्ताव है। इसी के तहत निर्वाचन विधि संशोधन विधेयक-2021 के प्रस्तावित किया गया है। केंद्र सरकार ने चुनाव सुधार से जुड़े इस विधेयक के मसौदे पर साफ़ कहा है कि मतदाता सूची में दोहराव और फ़र्ज़ी मतदान को रोकने के लिए मतदाता पहचान पत्र और सूची को आधार कार्ड से जोड़ा जाएगा। विधेयक के मुताबिक, चुनाव सम्बन्धी क़ानून को सैन्य मतदाताओं के लिए लैगिंक निरपेक्ष बनाया जाएगा। वर्तमान चुनावी क़ानून के प्रावधानों के तहत किसी भी सैन्यकर्मी की पत्नी को सैन्य मतदाता के रूप में पंजीकरण कराने की पात्रता है। लेकिन महिला सैन्यकर्मी का पति इसका पात्र नहीं है। लेकिन अब स्थितियाँ बदल जाएँगी। पुलिसकर्मी, सैनिक और अर्धसैन्य बल के अधिकारी अपने पति या पत्नी का नाम भी मतदाता के तौर पर दर्ज कर सकेंगे। संवैधानिक लोकतंत्र में मतदान करना नागरिकों का प्राथमिक अधिकार है। ऐसे में अब ज़रूरी है कि उससे मत की सर्वोच्चता बनी रहे।

आधार कार्ड और मतदाता सूची को लिंक किये जाने पर विपक्ष के सवालों का जबाव देते हुए केंद्रीय क़ानून मंत्री किरेन रिजिजू ने कहा कि चुनाव सम्बन्धी सुधार देश के लिए ज़रूरी है। इससे न केवल फ़र्ज़ी मतदान रुकेगा, बल्कि लिंगभेद भी समाप्त करने में सहायता मिलेगी। किरेन रिजिजू ने कहा कि इस विधेयक के माध्यम से मतदाता कार्ड को आधार कार्ड से जोडऩे का प्रावधान किया गया है, जो अनिवार्य नहीं, बल्कि स्वैच्छिक है।

जबकि कांग्रेस के नेता अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि यह विधेयक सदन की विधिक क्षमता के बाहर है। अधीर रंजन चौधरी ने कहा कि पुत्तास्वामी बनाम भारत सरकार के मामले में सुप्रीम कोर्ट ने कहा था कि आधार अधिनियम यह इजाज़त नहीं देता कि आधार नंबर को निर्वाचन सूचियों से जोड़ा जाए।

मतदाता पहचान पत्र और आधार कार्ड को जोड़े जाने पर हुए हंगामे को अधिवक्ता पीयूष जैन का कहना है कि राजनीतिक दलों की कथनी और करनी में बड़ा अन्तर अक्सर देखने को मिल जाता है। उनका कहना है कि समय-समय पर देश के चुने हुए नेता चुनाव को पारदर्शी बनाने की बात करते हैं, ताकि देश में मतदान प्रकिया में फ़र्ज़ीवाड़े को रोका जाए। लेकिन जैसे ही कोई सुधार प्रक्रिया धरातल पर आती है, विरोध होने लगता है। उन्होंने बताया कि अगस्त, 2018 में सभी विपक्षी दलों ने चुनाव सुधारों को लेकर बैठक बुलायी थी; जिसमें राष्ट्रीय और क्षेत्रीय स्तरीय स्तर की पार्टियाँ शामिल हुई थीं। इस बैठक में चुनाव आयोग से आधार कार्ड को मतदाता सूची से जोडऩे की अपील की गयी थी। बताते चलें मध्य प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान कांग्रेस ने फ़र्ज़ी मतदाताओं का मामला उठाया था। इतना ही नहीं, उसने इन फ़र्ज़ी मतदाताओं की जाँच कराने की माँग भी की थी।

कांग्रेस के वरिष्ठ नेता ने ‘तहलका’ से कहा कि अब देश में पढ़ाई-लिखाई से लेकर लेकर बैंक, डाकख़ाने, किसी अन्य सरकारी काम कराने वालों, यहाँ तक कि टीकाकरण कराने वालों तक से आधार कार्ड माँगा जाता है। बैंकों से लेकर अन्य संस्थाओं में बिना आधार कार्ड के काम नहीं बनता है। तो मतदान प्रकिया को आधार कार्ड से लिंक किये जाने पर जो विरोध हो रहा, वो दिखावा ही है। जबकि सच्चाई तो यह है केंद्र की मनमोहन सरकार ही आधार कार्ड योजना लायी है। तब यह तय हो गया था कि आने वाले दिनों में जो भी सरकारी व्यवस्था है, उसको आधार कार्ड से लिंक किया जाएगा। लेकिन इतना ज़रूर हो जाएगा कि अब फ़र्ज़ीबाड़े पर रोक लगेगी और जातीय समीकरण जो भी हैं, वो भी सामने आएँगे, ताकि जो कुछ अभी दवे मामले हैं, वे सार्वजनिक हो जाएँगे।

लेकिन सवाल यह है कि एक तरफ़ भारत जैसे देश में जातिगत समानता की बात होती है, वहीं दूसरी ओर सरकार ही इसे ख़त्म करने से परहेज़ कर रही है, तो फिर समानता कैसे आ सकती है? इसके अलावा लोगों की निजता पर पहले से ही मँडराये ख़तरे को कैसे रोका जा सकेगा, जब उसकी गोपनीयता लगातार उजागर होगी?

कई बार लोगों की गोपनीयता बेचे जाने की ख़बरें भी सामने आ चुकी हैं। ऐसे में अगर मतदाता पहचान पत्र से आधार कार्ड लिंक हो जाएगा, तब तो ग़लत हाथों में किसी की और भी मज़बूत जानकारी लग सकती है। ऐसे में क्या सरकार लोगों को इस बात की गारंटी दे सकती है कि देश की जनता की निजता को वह आउट नहीं होने देगी? सवाल यह भी है कि चुनाव आयोग एक स्वायत्त संस्था है। ऐसे में सरकार उसके काम में अपनी मर्ज़ी से दख़ल कैसे दे सकती है? आज देश में किसी भी नागरिक की गोपनीयता ख़तरे में नहीं है, इस बात की गारंटी कोई नहीं दे सकता। पेगासस जासूसी मामला इसका ताज़ा उदाहरण है।

हिमाचल की चिन्ता में भाजपा

भाजपा थिंक टैंक का मानना है कि हिमाचल प्रदेश में 68 सदस्यीय विधानसभा के लिए अगले साल के आख़िर में होने वाले चुनावों से पहले वरिष्ठ नेता और पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल को पार्टी की जीत सुनिश्चित करने के लिए कोई बड़ी ज़िम्मेदारी दी जा सकती है। यह क़दम पार्टी के शीर्ष नेताओं द्वारा तीन विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर हाल में हुए उपचुनावों में पार्टी की शर्मनाक हार के कारणों का आत्मनिरीक्षण करने के बाद उठाया गया है। हिमाचल भाजपा के लिए काफ़ी महत्त्व इसलिए भी रखता है; क्योंकि यह पार्टी के राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा का गृहराज्य है। अनिल मनोचा की एक रिपोर्ट :-

पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल पहले ही भाजपा की 75 वर्ष की अनौपचारिक कट ऑफ आयु पार कर चुके हैं; जिसके मायने हैं कि यह पार्टी नियम के हिसाब से उनके सेवानिवृत्त होने की उम्र है। हालाँकि धूमल इन वर्षों में बहुत सक्रिय रहे हैं। जनता के साथ उनका जुड़ाव ही राजनीति में उनकी सम्पत्ति है और जब हमने हमीरपुर में उनसे मुलाक़ात की, तो उन्होंने स्वीकार किया कि उपचुनावों में हार का एक बड़ा कारण ज़मीनी स्तर पर मतदाताओं के साथ सम्बन्धों की कमी थी।

चार साल से सत्ता में पार्टी के ख़िलाफ़ सत्ता विरोधी लहर, कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह के निधन से उत्पन्न सहानुभूति और भाजपा में अतिविश्वास जैसे अन्य प्रबल कारण हो सकते हैं। लेकिन इस तथ्य से इन्कार नहीं किया जा सकता कि पार्टी चुनाव जीतने के लिए धूमल का पूरी तरह से उपयोग करने में विफल रही। बड़ी बात है कि 30 अक्टूबर को हुए उपचुनावों में भाजपा के लिए सबसे बड़ा झटका पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश से आया था, जहाँ सत्ताधारी पार्टी सभी तीन विधानसभा सीटों और एकमात्र लोकसभा सीट हार गयी थी।

विधानसभा की एक सीट पर तो भाजपा प्रत्याशी की जमानत तक ज़ब्त हो गयी। दरअसल भाजपा के लिए सबसे चिन्ताजनक सन्देश जुब्बल-कोटखाई निर्वाचन क्षेत्र से आया, जहाँ उसके उम्मीदवार को महज़ 2644 मत मिले और उसकी जमानत ज़ब्त हो गयी। यह विपक्षी कांग्रेस के लिहाज़ से एक बड़ा बदलाव है, जो सन् 2017 में भाजपा के प्रचण्ड बहुमत के साथ सत्ता में आने के बाद पहाड़ी राज्य में चुनावी मुक़ाबलों में अन्त में रही है।

आयोग के आँकड़ों के मुताबिक, तीनों सीटों पर कांग्रेस का कुल वोट शेयर भाजपा से क़रीब 20 फ़ीसदी ज़्यादा रहा। जहाँ कांग्रेस उम्मीदवारों को 48.9 फ़ीसदी वोट मिले हैं। वहीं भाजपा तीन विधानसभा सीटों पर केवल 28.1 फ़ीसदी वोट शेयर ही ले पायी।

परिणामों ने मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर की अगले साल के अन्त में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी को जीत दिलाने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा दिया है। यह भाजपा नेताओं, संजय टंडन और अविनाश राय खन्ना द्वारा की गयी कड़ी मेहनत के बावजूद है। यह भाजपा के लिए चेतावनी मानी जा रही है। पार्टी अब इस मुश्किल सवाल की ओर देख रही है कि क्या वह अगले साल मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर के ही नेतृत्व में चुनाव लड़ सकती है?

जगत प्रकाश नड्डा न केवल भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं, बल्कि केंद्रीय सूचना और प्रसारण मंत्री अनुराग ठाकुर, जो केंद्र सरकार में अहम मंत्रालय सँभाल रहे हैं; भी इसी पहाड़ी राज्य से हैं। कम उम्र का $फायदा अनुराग ठाकुर को मिल सकता है। भाजपा ने पहले पड़ोसी राज्य उत्तराखण्ड में नेतृत्व परिवर्तन नियम लागू किया था। राजनीतिक जानकारों का मानना है कि हिमाचल में निराशाजनक प्रदर्शन के साथ पार्टी को हिमाचल प्रदेश पर भी कुछ कठोर सोच-विचार करना होगा; क्योंकि उपचुनावों को जनता के मूड का बैरोमीटर माना जाता है।

परिणामों ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर की अगले साल के अन्त में होने वाले विधानसभा चुनावों में पार्टी को जीत दिलाने की क्षमता पर सवालिया निशान लगा दिया है। यह भाजपा नेताओं, संजय टंडन और अविनाश राय खन्ना द्वारा की गयी कड़ी मेहनत के बावजूद है। यह नतीजे भाजपा के लिए चेतावनी है। पार्टी अब इस मुश्किल सवाल की ओर देख रही है कि क्या वह अगले साल मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर के नेतृत्व में चुनाव लड़ सकती है?

प्रेम कुमार धूमल भाजपा में एक लोकप्रिय चेहरा हैं। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने सन् 2017 के हिमाचल चुनाव से पहले ख़ुद ट्वीट किया था कि धूमल जी हमारे वरिष्ठतम नेताओं में से हैं, जिनके पास हिमाचल में समृद्ध प्रशासनिक अनुभव है। वह एक बार फिर शानदार मुख्यमंत्री बनेंगे।

धूमल ने लगातार पाँचवीं बार चुनाव में पार्टी का नेतृत्व किया था और पार्टी अध्यक्ष अमित शाह ने धूमल के नेतृत्व में चुनाव लडऩे की घोषणा एक चुनावी रैली में की थी। उस समय भाजपा के फ़ैसले को जे.पी. नड्डा के लिए एक झटका माना जाता था, जो उस समय मुख्यमंत्री पद के लिए एक प्रमुख आकांक्षी थे।

यह कहा जाता है कि धूमल ने ही पार्टी को जीत की ओर अग्रसर किया। हालाँकि ख़ुद सुजानपुर क्षेत्र से हार गये थे। भगवा पार्टी स्पष्ट थी कि शीर्ष पद के लिए सिर्फ़ निर्वाचित विधायक के नाम पर ही विचार किया जाएगा और इस तरह वह मुख्यमंत्री पद की दौड़ में हार गये।

धूमल की साफ़-सुथरी छवि है। क्योंकि सुप्रीम कोर्ट पहले ही भाजपा के हमीरपुर के सांसद अनुराग ठाकुर, उनके पिता, हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल और अन्य के ख़िलाफ़ एक प्राथमिकी को रद्द कर चुका है। यह मामला धर्मशाला में क्रिकेट स्टेडियम से जुड़ा था। ठाकुर, धूमल और हिमाचल प्रदेश क्रिकेट एसोसिएशन (एचपीसीए) ने उच्च न्यायालय के 25 अप्रैल, 2014 को प्राथमिकी रद्द करने और विशेष न्यायाधीश, धर्मशाला के समक्ष आपराधिक मुक़दमे पर रोक लगाने के आदेश को चुनौती दी थी। उनके ख़िलाफ़ कथित धोखाधड़ी, आपराधिक साज़िश और भ्रष्टाचार के आरोप में मामला दर्ज किया गया था।

तत्कालीन एचपीसीए अध्यक्ष ठाकुर ने तर्क दिया था कि मामला वास्तव में एक दीवानी विवाद था; लेकिन तत्कालीन वीरभद्र सिंह के नेतृत्व वाली कांग्रेस सरकार ने राजनीतिक कारणों से इसे एक आपराधिक मामला बना दिया। दिसंबर, 2012 में कांग्रेस सरकार के सत्ता में आने के महीनों बाद 1 अगस्त, 2013 को सतर्कता ब्यूरो के धर्मशाला कार्यालय द्वारा प्राथमिकी दर्ज की गयी थी। हिमाचल में 2022 के विधानसभा चुनावों से पहले धूमल को और अधिक ज़िम्मेदारी कैसे सौंपी जाएगी? यह अभी देखा जाना बाक़ी है। लेकिन पार्टी ज़मीनी स्तर पर उनकी वफ़ादारी और जुड़ाव को समझती है और उन्हें हिमाचल प्रदेश के लिए अभियान समिति का नेतृत्व करने के लिए कहा जा सकता है। पहले से ही मुख्यमंत्री जय राम ठाकुर धूमल के साथ मिल रहे हैं। वे समीरपुर में अपने आवास पर मुख्यमंत्री की हमीरपुर यात्रा के दौरान एक अनिर्धारित बैठक के दौरान मिले भी थे।

यह इस बात का संकेत है कि धूमल की राज्य की राजनीति में कुछ सक्रिय भूमिका हो सकती है। वास्तव में पूर्व मुख्यमंत्री हमीरपुर में कुछ महीने पहले राज्य भाजपा प्रभारी अविनाश राय खन्ना के साथ बैठक के बाद सक्रिय हो गये थे। राष्ट्रीय नेतृत्व को धूमल जैसे जन नेता की आवश्यकता महसूस होती है और यह स्पष्ट है कि दो बार के पूर्व मुख्यमंत्री को विधानसभा चुनाव से पहले राज्य की राजनीति में एक बड़ी भूमिका सौंपी जा सकती है।

लद्दाख़ की माँगों की सूची हो रही लम्बी

Jammu: Residents of Kargil district raise slogans during a protest against Leh being made the permanent headquarters of the newly created Ladakh division, in Jammu, Monday, Feb. 11, 2019. (PTI Photo)(PTI2_11_2019_000112B)

केंद्र शासित प्रदेश और संवैधानिक सुरक्षा कवच के बाद अब राज्य के दर्जे की माँग

नब्बे के दशक में जब लद्दाख़ जम्मू-कश्मीर राज्य का एक हिस्सा था, तब अपने लिए केंद्र शासित प्रदेश का दर्जा माँगा था। उस समय एक अकल्पनीय माने जाने वाली यह माँग 5 अगस्त, 2019 को अचानक तब पूरी हो गयी, जब भारत के संविधान के तहत जम्मू-कश्मीर को स्वायत्त दर्जा देने वाले अनुच्छेद-370 को वापस ले लिया गया। इसके बाद लद्दाख़ ने छठी अनुसूची के तहत संवैधानिक सुरक्षा उपायों की माँग की। इसके वैध कारण थे। बौद्ध बहुल लेह और मुस्लिम बहुल कारगिल वाले लद्दाख़ क्षेत्र ने महसूस किया कि अनुच्छेद-370 द्वारा प्रदत्त संवैधानिक सुरक्षा उपायों के अभाव में क्षेत्र की जनसांख्यिकी ख़तरे में थी।

इस साल सितंबर में केंद्र सरकार ने अपनी जनसांख्यिकी में किसी भी सम्भावित बदलाव के बारे में क्षेत्र की चिन्ता को दूर करने के लिए इसे अनुच्छेद-370 जैसे सुरक्षा उपाय देकर क़दम उठाये। इसके बाद 4 सितंबर को केंद्र शासित प्रदेश लद्दाख़ के प्रशासन ने घोषणा की कि वह केवल स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र धारकों को निवासी प्रमाण-पत्र जारी करेगा, जैसा कि जम्मू-कश्मीर की स्वायत्तता को वापस लेने से पहले होता था; जब लद्दाख़ जम्मू और कश्मीर का हिस्सा था। यह जम्मू और कश्मीर के विपरीत है, जहाँ प्रशासन ने बाहरी लोगों को स्थायी निवास अधिकारों के लिए आवेदन करने और ज़मीन ख़रीदने के लिए एक विशेष अवधि के लिए क्षेत्र में रहने की अनुमति दी है।

अनुच्छेद-370 पूर्व शासन ने लद्दाख़ के राजनीतिक सशक्तिकरण को भी कमज़ोर कर दिया। चीज़ें की नयी योजना में लोकतांत्रिक रूप से चुनी गयी लद्दाख़ हिल डेवलपमेंट काउंसिल (लेह और कारगिल दोनों के लिए), जो अविभाजित जम्मू-कश्मीर में स्वायत्तता से काम करती थी; बेमानी हो गयी। इस क्षेत्र पर अब सीधे केंद्र सरकार द्वारा उप राज्यपाल के माध्यम से शासन किया जाता है। इसलिए एलएएचडीसी का क्षेत्रीय सशक्तिकरण के लिए प्रभावी रूप से कोई मतलब नहीं है। लद्दाख़ रेजिडेंट सर्टिफिकेट ऑर्डर-2021 के अनुसार, ‘कोई भी व्यक्ति, जिसके पास लेह और कारगिल ज़िलों में सक्षम प्राधिकारी द्वारा जारी किया गया, स्थायी निवासी प्रमाण-पत्र (पीआरसी) है। या वह ऐसे व्यक्तियों की श्रेणी से सम्बन्धित है, जो पीआरसी जारी करने के लिए पात्र होंगे, तो वह निवासी प्रमाण-पत्र प्राप्त करने का पात्र होगा।‘

लेकिन अब एक और माँग पूरी होने के साथ ही लद्दाख़ इस क्षेत्र को अलग राज्य का दर्जा देने की ज़ोरदार पैरवी कर रहा है। 14 दिसंबर को दोनों ज़िलों ने माँग के समर्थन में पूर्ण हड़ताल की। हड़ताल का आह्वान दो ज़िलों की माँग पूरी करने के लिए लेह एपेक्स बॉडी और कारगिल डेमोक्रेटिक एलायंस ने किया था, जो दोनों ज़िलों के अधिकारों के लिए लडऩे वाले कई संगठनों, धार्मिक और राजनीतिक समूहों का एक संगठन है। हड़ताल सफल रही। सभी दुकानें और व्यापारिक प्रतिष्ठान बन्द रहे और सड़कों से परिवहन नदारद रहा। अधिकांश लोगों के अपने घरों तक ही सीमित रहने के कारण सड़कें सुनसान थीं।इस समूह के एक नेता सज्जाद हुसैन कारगिली ने कारगिल में पूर्ण बन्द की तस्वीरें पोस्ट करते हुए ट्वीट किया- ‘यहाँ के लोग आज लद्दाख़ के लिए स्टेटहुड की माँग के समर्थन में पूर्ण बन्द का पालन कर रहे हैं। हमारी माँग संवैधानिक सुरक्षा उपाय, जल्दी भर्ती और लेह और कारगिल दोनों के लिए अलग लोकसभा और राज्यसभा सीटें देने की है।‘ हालाँकि केवल राज्य का दर्जा ही एकमात्र ऐसा मुद्दा नहीं है, जिसकी माँग क्षेत्र के यह समूह कर रहे हैं। वे लद्दाख़ के लिए अलग लोकसभा और राज्यसभा सीटें और सरकारी विभागों में 10,000 से 12,000 रिक्त पदों को भरने की भी माँग कर रहे हैं।

सन् 2011 की जनगणना के अनुसार, लद्दाख़ की कुल जनसंख्या 2.74 लाख है। इसमें 1,33,487 की आबादी वाला बौद्ध बहुल लेह है; तो वहीं 1,40,802 की आबादी वाला मुस्लिम बहुल कारगिल है। कुल मिलाकर लद्दाख़ मुस्लिम और बौद्ध बहुल है। दशकों में ऐसा पहली बार हुआ है कि लद्दाख़ के दो ज़िले राज्य का दर्जा और अधिकारों की सुरक्षा की अपनी माँगों के लिए सरकार पर दबाव बनाने के लिए एक ही दिशा में देख रहे हैं। हाल ही में केंद्रीय गृह सचिव अजय कुमार भल्ला ने केंद्र शासित प्रदेश के मसले और क्षेत्र में रोज़गार की माँग पर चर्चा करने के लिए एक बैठक बुलायी थी। लेकिन यह मामला सुलझने से कोसों दूर है। पूर्ण राज्य के दर्जे की माँग ने स्थिति को बहुत जटिल बना दिया है। सिर्फ़ तीन लाख की आबादी वाला लद्दाख़ शायद ही राज्य का दर्जा पाने के योग्य हो। इससे केंद्र सरकार में हड़कम्प मच गया है। इससे भी अधिक ऐसे समय में जब जम्मू-कश्मीर को राज्य का दर्जा बहाल करने की उसकी तत्काल कोई योजना नहीं है, केंद्र सरकार की परेशानी को समझा जा सकता है।

नफ़रतों से नाश ही होगा

सन्तों ने कहा है कि मनुष्य जीवन बड़े भाग्य से मिला है, इसलिए इसे व्यर्थ नहीं गँवाना चाहिए। यह कहकर सन्तों ने यह बताने की कोशिश की है कि इंसान को इस जन्म में जन्म-मरण से छुटकारा पाने की कोशिश करनी चाहिए। अर्थात् ईश्वर की प्राप्ति का प्रयास करना चाहिए। साथ ही यह भी कहा है कि ईश्वर के लिए सभी प्राणी एक समान हैं। सभी मानव उसके पुत्र हैं। इंसानों के लिए ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग भी बताये। इसी के चलते समय-समय पर धर्मों (मज़हबों) की नींव पड़ती गयी और लोग बँटते गये। सभी मज़हबों में एक सीख समान है कि सभी से प्रेम करोगे, तो ईश्वर तुमसे प्रेम करेगा। लेकिन आज दुनिया के अधिकतर लोग आपस में इतनी घृणा और ईष्र्या से भर चुके हैं कि अब बिना स्वार्थ के किसी को प्रेम नहीं करते। चाहे वह कोई रिश्ता हो, बिना स्वार्थ के बहुत कम लोग ही निभाते हैं। ऐसे लोग दुनिया में इतने कम हैं कि अगर इन्हें एक जगह किया जाए, तो एक मुश्किल से इतने ही निकलेंगे कि एक छोटा देश भी नहीं बस सकेगा।

लेकिन क्या स्वार्थ ईश्वर के आगे चल सकेगा? जो चालाकियाँ लोग अपने जीने और ऊँचा बनाये रखने के लिए करते हैं, क्या वे उन चालाकियों से ईश्वर को चकमा दे सकेंगे? क्या ईश्वर के आगे माथा रगडऩे, हाथ जोड़कर खड़े होने, सिर झुकाकर प्रार्थना करने, मज़हबी किताबें पढऩे या दूसरों के सामने साधु, सन्त, सत्यवादी, सच्चरित्र वाला बनने से ईश्वर मिल सकेगा। ईश्वर को पाने के लिए तो बच्चों जैसी निश्छलता और पावनता मन में होनी चाहिए। उसके आगे होशियारी, चालाकी किसी काम की नहीं। ईश्वर को बाँटकर देखने और उसी की संरचना बिगाडऩे, उसी के बनाये दूसरे लोगों से घृणा करने से तो घृणा ही मिलेगी। प्रकृति से खिलवाड़ करने का नतीजा तो ख़ुद के बिगाड़ से ही ख़त्म होगा। जब तक दूसरों की पीड़ा महसूस नहीं करोगे, तब तक ईश्वर तुम्हारी पीड़ा महसूस नहीं करेगा। स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने दूसरे प्राणियों की पीड़ा महसूस की। श्रीकृष्ण ने निर्बलों और सच पर चलने वालों की रक्षा की। आचार्य चाणक्य ने बिना भेदभाव के सत्य, न्याय और सामान्य-जनमानस की तरफ़ खड़े होकर पापियों, भोगियों और अधर्मियों का नाश कराया। इस्लाम के आख़िरी पैगम्बर मोहम्मद साहब ने नफ़रत और भेदभाव को ख़त्म करने का काम किया। ईसा मसीह ने अपने हत्यारों और नफ़रत करने वालों को माफ़ किया और दया करने की सीख दी। लेकिन क्या आज इन मज़हबों को मानने वाले लोग ईश्वर तक पहुँचने का मार्ग दिखाने वाले इन अवतारों, सन्तों के बताये रास्तों पर चल रहे हैं?

आज दुनिया में दर्ज़नों धर्म हैं और सैकड़ों पन्थ। लेकिन कोई भी धर्म के रास्ते पर दिखायी नहीं देता। अब ये सब एक-दूसरे से तो घृणा करते ही हैं, अपने ही मज़हब और अपने ही पन्थ के लोगों से लोग नफ़रत करते हैं। पड़ोसियों से नफ़रत करते हैं। यहाँ तक कि अपने ही परिवार के लोगों से और कभी-कभी जिन माँ-बाप ने जीवन दिया, उन्हीं से नफ़रत करने लगते हैं। जिन भाई-बहिनों के साथ पले-बढ़े उन्हीं से दूरी बना लेते हैं। यहाँ तक कि सम्पत्ति के लिए उनका ख़ून तक कर देते हैं। मज़हबों और मूर्खतापूर्वक निर्मित जातियों की आड़ लेकर शुरू हुई नफ़रत अब घरों तक में घुस आयी है। इतने अन्दर तक घुस आयी है कि इससे अब बाहर निकालना बहुत मुश्किल है। अब इस नफ़रत को कोई मज़हब नहीं भगा सकता।

इस नफ़रत को ख़त्म करने के लिए आज हर इंसान को काम, क्रोध, मद, लोभ और मोह पर क़ाबू पाने की ज़रूरत है। दूसरों से नि:स्वार्थ प्रेम करने की ज़रूरत है। सनातन धर्म में बताये गये इंसान के इन पाँच शत्रुओं पर जिसने भी पा ली, वही इंसान धर्म के मार्ग पर है और वही इंसान ईश्वर को प्राप्त कर सकता है। तेरा अल्लाह, मेरा राम, उसका गॉड करने से कोई ईश्वर को कभी नहीं पा सकता। ईश्वर एक ऐसा सत्य है, जिससे आज दुनिया के 99 फ़ीसदी लोग मुँह फेरकर खड़े हैं। ख़ुद को धार्मिक मानने वाले और ज़्यादा मुँह फेरकर खड़े हैं और अपने-अपने मज़हबों के लोगों को भी ऐसा करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। धर्म को आगे बढ़ाने वालों को धर्म गुरु कहा गया है। लेकिन यही गुरु अगर लोगों को नफ़रत सिखाएँगे, तो फिर लोगों में आपस में प्रेम कैसे रह सकता है? बहुत कम धर्म गुरु हैं, जो लोगों को सही रास्ता दिखा रहे हैं। इसका मतलब यह हुआ कि अधिकतर धर्म गुरु अपने पीछे चलने वालों को एक ऐसे अन्धे कुएँ में धकेल रहे हैं, जहाँ से वे प्रकाश अर्थात् सत्य को देख ही नही सकेंगे। वे नर्क की ओर ही बढ़ेंगे, और स्वर्ग यानी आत्मिक सुख की प्राप्ति उनके भाग्य में नहीं होगी। क्योंकि ये सब नफ़रत ही करेंगे और नफ़रत ही पाएँगे।

सन्त कबीर दास ने कहा है :-

”जाका गुरु आँधला, चेला निपट निरंध।

अन्धे अन्धा ठेलिया, दोनों कूप पड़ंत।।“

अर्थात् जिसका गुरु थोड़ा अन्धा होगा, उसका शिष्य महा अन्धा हो जाएगा। ऐसा अन्धा गुरु महा अन्धे शिष्य को धक्का देकर कुएँ (अन्धकार) में गिरा देगा और ख़ुद भी उसी में गिरेगा। आज के अधिकतर धर्मगुरुओं की स्थिति यही है। आज हर धर्म में ऐसे धर्मगुरु, जिन्हें धर्मों का ठेकेदार कहना ज़्यादा उचित होगा; लोगों को नफ़रतें बाँट रहे हैं। ये लोग अपने ऐश-ओ-आराम के लिए ऐसा करते हैं। इनके पास सारी सुविधाएँ हैं। अतुल्य सम्पत्ति और अथाह पैसा है। असंख्यों लोग इनके एक इशारे पर पूरी दौलत लुटाने को तैयार हैं। मरने-मारने को तैयार हैं। फिर उन्हें अधोपतन की ओर जाने से कौन रोक सकता है? नफ़रतों से तो नाश ही होगा। लोगों की ग़लती यह है कि जो धर्म गुरु उन्हें सही मार्ग दिखाने की कोशिश कर रहे हैं, उनकी वे नहीं सुनते।

जीएसटी के विरोध में आज कपड़ा बाजार रहेगा बंद

दिल्ली में कपड़ा बाजार कोरोना के कहर से नहीं बल्कि, जीएसटी बढ़ाये जाने के विरोध में आज बंद रहेगें। ये जानकारी कपड़ा बाजार एसोसिएशन के प्रधान अशोक रंधावा ने दी। उन्होंने बताया कि पहले ही कपड़ा बाजार कमज़ोर था। अब सरकार ने कपड़ा पर जीएसटी 5 प्रतिशत से 12 प्रतिशत तक कर दी है। जिससे कपड़ा का होलसेल से लेकर रिटेल तक के कारोबार पर विपरीत असर पड़ेगा। उनका कहना है कि दिल्ली के साथ दिल्ली–एनसीआर के कपड़ा व्यापारी भी अपनी दुकानें बंद रखेगे।

लाजपत नगर कपड़ा व्यापारी आर के शर्मा ने बताया कि दिल्ली से पूरे देश में रेडीमेड और थोक का कपड़ा जाता है। व्यापारी पहले ही जीएसटी 5 प्रतिशत लगाये जाने से परेशान था। अब सरकार अपनी जेब भरने के लिये व्यापारियों को परेशान कर रही है। उन्होंने कहा कि 1 जनवरी 2022 से जीएसटी 5 से बढ़ाकर 12 प्रतिशत तक बढ़ाकर लागू होगा। उन्होंने कहा कि अगर बढ़ाया गया जीएसटी को वापस नहीं लिया गया । तो कपड़ा व्यापारी अनिश्चित कालीन कपड़ा व्यापार को बंद करेगें।

कपड़ा व्यापारी घनश्याम दास गोयल ने बताया कि जब से केन्द्र सरकार ने ये घोषणा की कपड़ा पर जीएसटी 5 से बढ़ाकर 12 किया जायेगा। तभी से देश भर के व्यापारियों ने सरकार के समक्ष अपनी बातें रखी और सुझाव भी दिये कि अभी किसी प्रकार का कोई टैक्स आदि व्यापारियों पर न थोपा जाये। लेकिन सरकार अपनी मनमानी कर रही है। जिससे देश भर का कपड़ा व्यापारी रोष में है।

कपड़ा व्यापारी एसोसिएशन लक्ष्मी नगर के सचिव संतोष कुमार गुप्ता ने बताया कि पहले ही दो साल से देश भर के बाजार में कोरोना का कहर रहा है। काम धंधे बंद रहे है। व्यापारियों की आर्थिक हालत कमजोर हुई है। अब जीएसटी नामक टैक्स कपड़े के धंधे को चौपट कर देगा। इसलिये सरकार को बढ़ाये हुये जीएसटी को वापस लेना होगा।अन्यथा व्यापारियों को सड़को पर उतरने को मजबूर होना पड़ेगा।

बँटे हुए जनादेश में ‘आप’ का कमाल

पहली बार चंडीगढ़ नगर निगम का चुनाव लड़कर 15 साल से क़ाबिज़ भाजपा को हराया

आम आदमी पार्टी (आप) के झाड़ू ने सिटी ब्यूटीफुल की राजनीति में धमाल मचाते हुए चंडीगढ़ नगर चुनाव में दिग्गज पार्टियों- भाजपा, कांग्रेस और अकाली दल की सफाई कर दी। दिलचस्प यह कि आम आदमी पार्टी चंडीगढ़ नगर निगम के चुनाव में पहली बार ही उतरी थी; लेकिन उसके प्रत्याशियों ने 14 वार्डों में जीतकर सबको हैरान कर दिया। चंडीगढ़ पंजाब की राजधानी है, जहाँ अगले साल विधानसभा के चुनाव होने हैं। ऐसे में यह कयास लग रहे हैं कि क्या पंजाब के चुनावों पर भी इन नतीजों का कोई असर पड़ेगा? आम आदमी पार्टी नेता और दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल ने नतीजों के बाद यह कहने में बिल्कुल देरी नहीं की कि चंडीगढ़ के नतीजे पंजाब के भावी नतीजों की झलक देते हैं।

नतीजों को देखें, तो निगम में बँटा हुआ जनादेश आया है, जिसमें किसी को बहुमत नहीं मिला है। ऐसे में आठ सीटें जीतने वाली कांग्रेस का रोल बहुत महत्त्वपूर्ण हो गया है, जिसे कुल मिलकर सबसे ज़्यादा वोट मिले हैं। इन नतीजों से यह भी ज़ाहिर होता है कि आम आदमी पार्टी ने जो सीटें जीतीं, उसमें उसने भाजपा के वोट बैंक में जबरदस्त सेंध लगायी। कांग्रेस अपना वोट बैंक बचाने में सफल रही, भले ही वह सीटें आठ ही जीत पायी।

भाजपा को 12 सीटें मिलीं, जो कि आम आदमी पार्टी से भी दो कम हैं। भाजपा के लिए यह नतीजे बड़ा झटका हैं; क्योंकि 15 साल के बाद उसके हाथ से चंडीगढ़ नगर निगम की सत्ता छिन गयी है। बँटे हुए जनादेश में आम आदमी पार्टी भले सबसे बड़ी पार्टी है; लेकिन अभी से यह चर्चा है कि बहुमत के लिए पार्टियों में तोड़-फोड़ हो सकती है। कुल 35 सीटों में बहुमत के लिए 18 सीटों की ज़रूरत रहती है। ऐसे में आम आदमी पार्टी को बहुमत के लिए अभी भी चार सीटों की दरकार रहेगी।

नतीजों से साफ़ ज़ाहिर होता है कि आम आदमी पार्टी ने भाजपा और कांग्रेस के क़िलों में सेंध लगाकर यह 14 वार्ड जीते हैं। अकाली दल के खाते में भी एक सीट गयी है। भाजपा की हालत यह रही कि उसके वर्तमान मेयर रविकांत शर्मा तक चुनाव हार गये। उन्हें आम आदमी पार्टी के प्रत्याशी ने ही हराया। इस चुनाव में भाजपा प्रत्याशी और पूर्व मेयर दवेश मौदगिल के साथ चंडीगढ़ नगर निगम के भाजपा के प्रत्याशी दो और पूर्व मेयर भी हार गये।

नतीजों के बाद दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी नेता मनीष सिसोदिया ने कहा- ‘यह नतीजे इस बात का प्रमाण हैं कि जनता को शासन का दिल्ली मॉडल पसन्द आ रहा है। इन चुनाव नतीजों का आने वाले विधानसभा चुनाव में पंजाब सहित दूसरे राज्यों में भी पड़ेगा। मैं इस जीत के लिए हर मतदाता और पार्टी कार्यकर्ता को धन्यवाद देना चाहता हूँ।‘

चुनावों में वांछित नतीजे नहीं आने के बाद चंडीगढ़ भाजपा प्रवक्ता नरेश अरोड़ा ने कहा- ‘केवल अन्तिम परिणाम ही हमें बता पाएँगे कि किस पार्टी का मतदाता आधार आम आदमी पार्टी में स्थानांतरित हो गया है। क्योंकि भाजपा का मतदाता कभी भी अपनी वफ़ादारी नहीं बदलता है।‘

याद रहे पिछले चुनाव में भाजपा को 26 में से 21 सीटें मिली थीं। चंडीगढ़ नगर निगम चुनाव में सन् 2016 में वार्डों की संख्या 26 थी, जो अब बढ़कर 35 हो गयी है। हाल के वर्षों तक इस चुनाव में भाजपा और कांग्रेस के बीच ही टक्कर रहती थी। इस बार काँटे की टक्कर होती; लेकिन आम आदमी पार्टी ने चुनाव में कूदकर भाजपा-कांग्रेस दोनों के सपनों पर पानी फेर दिया।

आम आदमी पार्टी ने वार्ड नंबर 1, 4, 15, 17, 18, 19, 21, 22, 23, 25, 26, 27, 29 और 31 में जीत हासिल की है। जबकि वार्ड नंबर 2, 3, 6, 7, 9,11, 14, 32, 33 और 35 पर भाजपा ने तथा वार्ड नंबर 5, 10, 13, 27 और 34 में कांग्रेस ने जीत हासिल की। वहीं वार्ड नंबर 30 अकाली दल के हिस्से आया।

चुनाव में भले कांग्रेस को आठ ही सीटें मिलीं, उसे सबसे ज़्यादा लोगों ने वोट दिया, जबकि सबसे ज़्यादा सीटें जीतने वाली आम आदमी पार्टी को कांग्रेस और भाजपा से भी कम वोट मिले।

जम्मू-कश्मीर में परिसीमन प्रस्तावों पर बवाल

Jammu and Kashmir, July 09 (ANI): Delimitation commission members speak to the media, in Jammu on Friday. (ANI Photo)

जम्मू में छ:, कश्मीर में एक विधानसभा सीट बढ़ाने का हो रहा विरोध

कश्मीर में नई दिल्ली के विरोध का एक नया एजेंडा तैयार हो रहा है। परिसीमन में हिन्दू बाहुल जम्मू की छ: सीटें जबकि कश्मीर की महज़ एक सीट बढ़ाने के सुप्रीम कोर्ट की पूर्व न्यायाधीश रंजना देसाई की अध्यक्षता वाले परिसीमन आयोग के प्रस्ताव से घाटी में नाराज़गी है और इसे भेदभाव की नज़र से देखा जा रहा है। इस कोशिश के कुछ और भी मायने हैं। दरअसल केंद्र ने 5 अगस्त, 2019 को जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 के तहत मिले विशेष दर्जे को संसद में क़ानून लाकर जब ख़त्म किया था, उसे राष्ट्रपति से भी मंज़ूरी मिल गयी थी। लेकिन इस पर अभी जम्मू-कश्मीर विधानसभा की मुहर लगवाया जाना बा$की है। घाटी के राजनीतिक दलों को लगता है कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार जम्मू-कश्मीर में मर्ज़ी की सरकार बनवाकर अपने इस असंवैधानिक फ़ैसले को वैध करवाना चाहती है। फ़िलहाल परिसीमन आयोग की सिफ़ारिशें घाटी में ग़ुस्से का कारण बन रही हैं और आने वाले समय में इसके ख़िलाफ़ राजनीतिक आन्दोलन की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता। यहाँ तक कि उन्होंने इस परिसीमन के तहत विधानसभा चुनाव में हिस्सा लेने से इन्कार करने जैसी चेतावनी दी है।

परिसीमन आयोग के प्रस्ताव सामने आने के बाद अब यह साफ़ हो गया है कि केंद्र सरकार अगले साल के मध्य तक जम्मू-कश्मीर विधानसभा के चुनाव करवा सकती है। ख़ुद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हाल के महीनों में इस तरह के संकेत दिये हैं कि केंद्र जल्द-से-जल्द जम्मू-कश्मीर में राजनीतिक प्रक्रिया बहाल करना चाहता है। ऐसे में अगला साल जम्मू-कश्मीर के लिए काफ़ी हलचल भरा हो सकता है। हालाँकि परिसीमन के प्रस्तावों पर जैसी प्रतिक्रिया विरोधी दलों की तरफ़ से आयी है, उससे यह संकेत मिलते हैं कि इन्हें स्वीकार नहीं किया जा सकता जाएगा। सम्भावना है कि परिसीमन आयोग की अध्यक्ष पूर्व न्यायाधीश रंजना देसाई 6 मार्च, 2022 तक अपनी रिपोर्ट फाइनल कर लेंगी। जम्मू सम्भाग में कठुआ, सांबा, उधमपुर, रियासी, राजोरी और किश्तवाड़ ज़िलों में एक-एक विधानसभा सीट और कश्मीर के कुपवाड़ा ज़िले में एक सीट बढ़ाने का प्रस्ताव है।

परिसीमन को लेकर प्रस्ताव सामने आने के बाद घाटी के राजनितिक दलों की तरफ़ से कड़ी प्रतिक्रिया देखने में आयी है। तमाम बड़ी पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी, पीपुल्स कॉन्फ्रेंस और अपनी पार्टी ने परिसीमन आयोग के इन प्रस्तावों पर नाराज़गी जतायी है। इन दलों का आरोप है कि भाजपा के राजनीतिक एजेंडे की आयोग की सिफ़ारिशों में साफ़ झलक दिख रही है। यहाँ तक कि सज्जाद लोन की पीपुल्स कॉन्फ्रेंस, जिसे राजनीतिक तौर पर भाजपा का क़रीबी माना जाता है; ने भी परिसीमन आयोग के प्रस्तावों पर बहुत कड़ी टिप्पणी की है। याद रहे महबूबा मुफ़्ती के नेतृत्व में चार साल पहले भाजपा-पीडीपी की साझी सरकार में सज्जाद लोन भाजपा के कोटे से मंत्री बने थे।

इस तरह देखा जाए, तो सज्जाद लोन ने वही रूख़ अख़्तियार किया है, जो मुख्य धरा की बड़ी पार्टियों नेशनल कॉन्फ्रेंस, पीडीपी और जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी ने अपनाया है। जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी को लेकर अभी तक यही कहा जाता रहा है कि उसे नई दिल्ली ने अपना एजेंडा चलाने के लिए खड़ा किया है। इन दलों ने जो सबसे तल्ख़ बात कही है, वह यह है कि परिसीमन यदि वर्तमान प्रस्तावों के आधार पर आगे बढ़ाया जाता है, तो यह दल विधानसभा के भविष्य में होने वाले चुनाव में शामिल नहीं होंगे। नेशनल कॉन्फ्रेंस के फ़ारूक़ अब्दुल्ला ने तो परिसीमन आयोग की रिपोर्ट पर दस्तख़त करने से ही मना कर दिया।

 

क्या हैं प्रस्ताव?

परिसीमन आयोग ने अपने प्रस्तावों में जम्मू-कश्मीर विधानसभा में सात सीटें बढ़ाने का प्रस्ताव दिया है। इनमें छ: जम्मू और एक कश्मीर में बढ़ायी जाएँगी। इस संशोधन के बाद विधानसभा में सीटों की संख्या 83 से बढ़कर 90 हो जाएगी। इस परिवर्तन के बाद विधानसभा की कुल 90 सीटों में से 43 जम्मू में, जबकि 47 सीटें कश्मीर में होंगी। विधानसभा की 87 सीटें हैं। प्रस्ताव का अब कश्मीर के ग़ैर-भाजपाई दल कड़ा विरोध कर रहे हैं।

पीडीपी की अध्यक्ष ने फोन पर ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘आयोग के प्रस्ताव महज़ धार्मिक और क्षेत्रीय आधार पर लोगों को बाँटने की भाजपा की कोशिशों का हिस्सा हैं। इन भाजपा के राजनीतिक हित साधने के लिए तैयार किया गया है। हमें यह क़तर्इ मंज़ूर नहीं हैं। इसका मक़सद साफ़ तौर पर जम्मू-कश्मीर में एक ऐसी सरकार बनाने का है, जो अगस्त, 2019 के अनुच्छेद-370 के अवैध और असंवैधानिक फ़ैसले को वैध करेगा।‘

याद रहे मोदी सरकार ने अगस्त, 2019 में जम्मू-कश्मीर से अनुच्छेद-370 वापस लेकर उसका विशेष दर्जा ख़त्म कर दिया था। इसके बाद उसने इसे दो केंद्र शासित प्रदेशों में बाँट दिया था। जिनमें जम्मू-कश्मीर विधानसभा सहित जबकि लेह (लद्दाख) को बिना विधानसभा बनाया था।

भाजपा के क़रीब माने जाने वाले पीपुल्स कॉन्फ्रेंस के प्रमुख सज्जाद लोन ने कहा- ‘आयोग के प्रस्ताव पूरी तरह से नामंज़ूर हैं। यह वे पूर्वाग्रह से ग्रसित हैं और उन सब लोगों के लिए बड़ा झटका हैं, जो देश के लोकतंत्र पार भरोसा रखते हैं।‘

पूर्व मंत्री अल्ताफ़ बुख़ारी की अध्यक्षता वाली जम्मू-कश्मीर अपनी पार्टी ने भी आयोग के प्रस्ताव को ख़ारिज किया है। बुख़ारी ने कहा- ‘अपनी पार्टी जनसंख्या और ज़िलों के आधार पर बिना किसी पूर्वाग्रह के निष्पक्ष परिसीमन की माँग करती है।‘

हालाँकि भाजपा इन सिफ़ारिशों को सही बता रही है। राज्य से पार्टी सांसद और केंद्रीय मंत्री जितेंद्र सिंह ने बैठक के बाद कहा- ‘आयोग ने अच्छा काम किया है। किसी भी पक्ष से कोई आपत्ति नहीं थी। अब परिसीमन आयोग ने सीट संख्या बढ़ाकर 90 करने का प्रस्ताव दिया है। उन्होंने अलग-अलग ज़िलों की जनसंख्या, पहुँच, स्थलाकृति और क्षेत्र के आधार पर वस्तुनिष्ठ मापदंडों का पालन किया है। मुझे नहीं लगता कि कोई इससे असन्तुष्ट होगा। कोई भी राजनीतिक दल इसमें दोष नहीं ढूँढ सकता।‘

घाटी के सबसे बड़े दल नेशनल कॉन्फ्रेंस ने इस पर कहा- ‘प्रस्तावों से साफ़ ज़ाहिर है कि इसमें दुर्भावनापूर्ण इरादे से तथ्यों को ग़लत तरीक़े से पेश किया गया है। हमने परिसीमन आयोग के मसौदे पर सीट बँटवारे की पक्षपाती प्रक्रिया पर अपनी नाराज़गी स्पष्ट रूप से व्यक्त की है। हमारी पार्टी इस रिपोर्ट पर हस्ताक्षर नहीं करेगी।‘

दरअसल परिसीमन आयोग ने घाटी के दलों के साथ दूसरी बैठक के बाद एक बयान जारी करके कहा था कि हम सहयोगी सदस्यों के सहयोग की सराहना करते हैं। आयोग ने केंद्र शासित प्रदेश का दौरा किया और बड़ी संख्या में लोगों से मुलाक़ात की और उन्होंने आश्वासन दिया कि परिसीमन के काम में सभी आवश्यक सहायता प्रदान की जाएगी। सुप्रीम कोर्ट की की पूर्व न्यायाधीश रंजना देसाई की अध्यक्षता वाले आयोग की इसे लेकर बैठकें हुई हैं। जम्मू-कश्मीर के पाँच लोकसभा सदस्य आयोग के सहयोगी सदस्य और मुख्य चुनाव आयुक्त सुशील चंद्रा इसके पदेन सदस्य हैं।

दूसरी बैठक में उप चुनाव आयुक्त चंद्र भूषण कुमार ने सहयोगी सदस्यों के समक्ष प्रजेंटेशन देते हुए बताया कि पिछले परिसीमन के बाद से ज़िलों की संख्या 12 से बढ़कर 20 और तहसीलों की संख्या 52 से 207 हो गयी है। सूबे में ज़िलेवार जनसंख्या घनत्व किश्तवाड़ में 29 व्यक्ति प्रति वर्ग किलोमीटर से लेकर श्रीनगर में 3,436 व्यक्ति प्रति वर्ग किमी तक है। इन सभी को ध्यान में रखते हुए, परिसीमन आयोग ने सभी 20 ज़िलों को तीन व्यापक श्रेणियों ए, बी और सी में वर्गीकृत किया है, जिसमें ज़िलों को निर्वाचन क्षेत्रों के आवंटन का प्रस्ताव करते हुए प्रति विधानसभा क्षेत्र की औसत आबादी का 10 फ़ीसदी (प्लस/माइनस) का अन्तर दिया गया है। साथ ही आयोग ने कुछ ज़िलों के लिए एक अतिरिक्त निर्वाचन क्षेत्र बनाने का भी प्रस्ताव किया है, ताकि अंतरराष्ट्रीय सीमा पर उनकी दुर्गम परिस्थितियों के कारण अपर्याप्त संचार और सार्वजनिक सुविधाओं की कमी वाले भौगोलिक क्षेत्रों के प्रतिनिधित्व को सन्तुलित किया जा सके। दिलचस्प यह भी है कि जम्मू-कश्मीर में पहली बार जनसंख्या के आधार पर 90 सीट में से अनुसूचित जनजातियों के लिए नौ सीटें आवंटित करने का प्रस्ताव है। अनुसूचित जाति के लिए सात सीटें प्रस्तावित हैं। यहाँ यह भी महत्त्वपूर्ण है कि पहले की ही तरह विधानसभा की 24 सीट ख़ाली रखी जाएंगी जो पाकिस्तान के क़ब्जे वाले कश्मीर (पीओके) के तहत आती हैं। भारत पीओके को अपना हिस्सा बताता है।

अब आयोग राजनीतिक दलों से सीट संख्या में प्रस्तावित वृद्धि पर 31 दिसंबर तक अपने विचार लेगा उसके बाद अपना फ़ैसला सुनाएगा। बहुत ज़्यदा सम्भावना है कि यह वर्तमान प्रस्तावों के आधार पर ही होगा। याद रहे 5 अगस्त, 2019 में संसद में जम्मू और कश्मीर पुनर्गठन विधेयक के पारित होने के बाद फरवरी 2020 में परिसीमन आयोग की स्थापना की गयी थी। इसे एक साल में अपना काम पूरा करने को कहा गया था, लेकिन इस साल मार्च में इसे एक वर्ष का विस्तार दिया गया, क्योंकि कोविड-19 महामारी के कारण काम पूरा नहीं हो सका। आयोग को केंद्र शासित प्रदेश में संसदीय और विधानसभा क्षेत्रों को फिर से निर्धारित करने का काम सौंपा गया है। आयोग ने इस साल 23 जून को एक बैठक की थी, जिसमें जम्मू और कश्मीर के सभी 20 उपायुक्तों ने भाग लिया था। इस दौरान विधानसभा निर्वाचन क्षेत्रों को भौगोलिक रूप से अधिक सुगठित बनाने के लिए विचार मांगे गए थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी जून में जम्मू-कश्मीर के नेताओं के साथ एक बैठक के दौरान कहा था कि परिसीमन की जारी क़वायद जल्द पूरी होनी चाहिए, ताकि एक निर्वाचित सरकार स्थापित करने के लिए चुनाव हो सके। लिहाज़ा यह साफ़ है कि परिसीमन की प्रक्रिया पूरी होने के बाद अगले साल के मध्य तक केंद्र सरकार जम्मू-कश्मीर में विधानसभा चुनाव करवा सकती है।

पिछले विधानसभा चुनाव के नतीजे

यहाँ यह जानना भी दिलचस्प है कि पिछले विधानसभा चुनाव के क्या नतीजे रहे थे। हालाँकि हाल के महीनों में इस स्थिति में बदलाव आया है क्योंकि अनुच्छेद-370 ख़त्म होने के बाद स्थिति बदली है। जम्मू में लोगों की समस्यायों में इज़ाफ़ा हुआ है जिससे उनमें दिसंबर में दूसरे पखबाड़े जम्मू में लोंगों को लगातार दो दिन तक बिजली नहीं मिली। उनका कहना है कि अनुच्छेद-370 हटाने का राजनीतिक मक़सद भले रहा हो उन्हें इसका कोई फ़ायदा नहीं मिला। उनकी समस्याएँ जस-की-तस ही हैं।

वैसे पिछले विधानसभा चुनाव में पीडीपी को सबसे ज़्यदा 28, भाजपा को 25, नेशनल कॉन्फ्रेंस को 15 और कांग्रेस को 12 सीटें मिलीं, जबकि सज्जाद लोन की पार्टी को 2 सीटें मिली थीं। भाजपा को सबसे ज़्यदा सीटें जम्मू में मिलीं, जहाँ हिन्दुओं का प्रभाव है। साल 2014 में भाजपा बहुमत से 44 सीटें कम थी। अब परिसीमन के बाद भाजपा को लाभ मिल सकता है, बशर्ते उसे जम्मू में एकतरफ़ा समर्थन मिले। यह ज़्यदा सम्भव नहीं दिखता। जम्मू में एससी और एसटी के बूते भाजपा अगले चुनाव में 45 सीटों का सपना देखा रही है। भाजपा का कहना है कि जम्मू 26,293 वर्ग किलोमीटर में फैला है और कश्मीर 15,948 वर्ग किलोमीटर में और इसलिए परिसीमन केवल जनसंख्या नहीं, बल्कि इला$के को ध्यान में रखते हुए करना चाहिए।

देखें तो सज्जाद लोन जैसे सहयोगियों के बूते भाजपा कश्मीर में भी अपना प्रभाव बढ़ाना चाहती है। उसने इसकी भरसक कोशिश की है। लेकिन डीडीसी के चुनावों में उसे उसे कोई उत्साहजनक नतीजे नहीं मिले थे। प्रदेश भाजपा अध्यक्ष रवींदर रैना भी इसमें ख़ास कुछ नहीं कर पाये हैं। भले वो काफ़ी सक्रिय दीखते हैं। गुज्जर और बक्करवाल समुदाय को अपने साथ जोडऩा चाहते हैं। अनुसूचित जनजाति से भाजपा ने वादा किया है कि उनका जीवन स्तर सुधर जाएगा।

 

प्रस्तावों का क्या असर होगा?

देखें तो 2011 की जनगणना के मुताबिक, जम्मू की आबादी क़रीब 53.72 लाख है, जबकि कश्मीर की जनसंख्या क़रीब 68, 88,475 है। फ़िलहाल विधानसभा में कश्मीर की 46 और जम्मू से 37 सीटें हैं। आयोग ने अब जम्मू-कश्मीर में सीटों की संख्या बढ़ाकर 90 करने का प्रस्ताव किया है।

नये प्रस्ताव के मुताबिक, जम्मू में अब 43 सीटें हो जाएँगी, जबकि कश्मीर में यह आँकड़ा 47 हो जाएगा। आयोग का कहना है कि उसने जनसंख्या, ज़िलों के भूगोल और सामाजिक सन्तुलन को ध्यान में रखते हुए ये सिफ़ारिशें दी हैं। परिसीमन आयोग के प्रजेंटेशन के दौरान डिप्टी इलेक्शन कमिश्नर चंद्र भूषण कुमार ने कहा कि पिछली बार हुए परिसीमन के बाद से अब तक ज़िलों की संख्या 12 से बढ़कर 20 हो गयी है। इसके अलावा तहसीलें भी अब 52 से बढ़कर 207 हो गयी हैं।

सन् 2011 की जनगणना के मुताबिक, कश्मीर में 68,88, 475 जनसंख्या है, यह राज्य की क़रीब 54.93 फ़ीसदी आबादी है। घाटी में 46 सीटें हैं, जो कि विधानसभा में प्रतिनिधित्व के हिसाब से 52.87 फ़ीसदी हैं। जम्मू में 53,78,538 लोग रहते हैं। वहाँ 37 सीटें और वहाँ प्रतिनिधित्व 42.52 फ़ीसदी है। कश्मीरी पार्टियों की माँग है कि सीटों का बँटवारा जनसंख्या के आधार पर होना चाहिए। घाटी की राजनीतिक पार्टियाँ तर्क देती हैं कि कश्मीर घाटी की आबादी जम्मू के मुक़ाबले 15 लाख ज़्यदा है और ऐसे में इसे विधानसभा में ज़्यदा प्रतिनिधित्व मिलना चाहिए। याद रहे भाजपा ने अपने चुनावी घोषणा-पत्र में अनूसूचित जनजाति को आरक्षण देने की बात कही थी। जम्मू-कश्मीर में इनकी आबादी 11.9 फ़ीसदी है, और भाजपा की इन पर वोटों के लिहाज़ से नज़र है। इनके लिए परिसीमन आयोग ने 9 सीटों का प्रस्ताव दिया है। इनकी सबसे ज़्यदा आबादी जम्मू रीज़न में ही है, यानी क़रीब 70 फ़ीसदी और कश्मीर में यह आँकड़ा 30 फ़ीसदी का है। इनमें गुज्जर बक्करवाल, सिप्पी और गड्डी है। अनुसूचित जाति के लिए 7 सीटों का प्रस्ताव रखा है। राज्य में इनकी आबादी 9,24, 991 है और यह आबादी का 7.38 फ़ीसदी हैं। कश्मीर घाटी में इनकी तादाद बेहद कम है।

इस मसले पर जम्मू-कश्मीर में पाँच क्षेत्रीय राजनीतिक दलों वाला गुपकार गठबन्धन भी सक्रिय हैं। इसके अध्यक्ष एनसी नेता फ़ारूक़ अब्दुल्ला हैं, जिन्होंने कहा कि वो समूह के साथ-साथ अपनी पार्टी के सहयोगियों को आयोग के विचार-विमर्श के बारे में जानकारी देंगे। उन्होंने कहा कि हम पहली बार बैठक में इसलिए शामिल हुए; क्योंकि हम चाहते थे कि जम्मू-कश्मीर की जनता की आवाज़ सुनी जाए। अब्दुल्ला ने कहा कि परिसीमन आयोग को अपनी राय भेजने से पहले अपने पार्टी नेताओं के साथ मशविरा किया जाएगा।

यहाँ माना जाता है कि परिसीमन के ज़रिये भाजपा जम्मू में अपनी स्थिति को और मज़बूत करना चाहती है। कश्मीर में उसका आधार न के बराबर है। हिन्दुओं के प्रभाव वाले जम्मू में सीटें बढ़ती हैं तो भाजपा को लगता है कि इससे उसे लाभ मिलेगा जहाँ कांग्रेस का भी ख़ासा प्रभाव है। भाजपा का अब सीधा मंतव्य सत्ता में आकर सूबे में अपना मुख्यमंत्री बनाना है। जम्मू में सीटें बढ़ती हैं तो इसका फ़ायदा भाजपा को पहुँचेगा, क्योंकि वह यहाँ के वोट बैंक पर ही निर्भर है। हालाँकि अभी भी यह इतना आसान नहीं दिखता। पिछले विधानसभा चुनाव में घाटी में भाजपा एक भी सीट नहीं जीत सकी थी।

 

“परिसीमन का प्रस्तावित मसौदा अस्वीकार है। नयी विधानसभा में छ: सीटें जम्मू के लिए और एक सीट कश्मीर के लिए है। यह जनगणना 2011 की जनसंख्या के आधार पर सारगर्भित नहीं है। ऐसा प्रतीत होता है कि आयोग ने भाजपा के एजेंडे के अनुसार सिफ़ारिशों को तय करने की अनुमति दी है, न कि आँकड़ों की; जिस पर न केवल विचार किया जाना था, बल्कि उसी के अनुरूप परिसीमन होना था। वादा किया गया था कि परिसीमन वैज्ञानिक दृष्टिकोण से किया जाएगा; लेकिन यह इसके बिल्कुल विपरीत है।’’

                                 उमर अब्दुल्ला

पूर्व मुख्यमंत्री और एनसी अध्यक्ष

 

“परिसीमन आयोग के जम्मू सम्भाग में छ: सीटें और कश्मीर में एक सीट बढ़ाने के प्रस्ताव पर ग़ौर किया जाएगा और 31 दिसंबर तक आयोग को सुझाव दे देंगे। प्रस्ताव तैयार करने में आयोग ने काफ़ी मेहनत की है। जम्मू-कश्मीर में हर क्षेत्र को विधानसभा में पर्याप्त प्रतिनिधित्व देने का प्रयास किया गया है।’’

                          जुगल किशोर शर्मा

भाजपा सांसद, जम्मू

 

“एससी और एसटी के लिए तो सीटें पहले से रिजर्व हैं। जहाँ तक परिसीमन की बात है तो इसे आबादी के आधार पर होना चाहिए। साल 2011 की जनगणना के अनुसार जम्मू और कश्मीर की आबादी 1.22 करोड़ है। आबादी के लिहाज़ से तो परिसीमन नहीं हो रहा।’’

                                   गुलाम अहमद मीर

प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष

मुख्य मुक़ाबले में सपा और भाजपा उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव-2022

उत्तर प्रदेश में आगामी विधानसभा चुनाव जितने नज़दीक आते जा रहे हैं, चुनावी सरगर्मी बढ़ती ही जा रही है। चैनलों के सर्वे एक तरफ़ भाजपा के हाथ में अगली कमान सौंपते दिख रहे हैं, वहीं भाजपा सरकार के प्रति लोगों का ग़ुस्सा चौथे आसमान पर दिख रहा है। जातिगत आँकड़ों की जोड़-तोड़ के अलावा दो मुख्य राजनीतिक दलों- सपा और भाजपा में नेताओं और विधायकों को तोडऩे की राजनीति चल रही है। जनाधार वाले नेता या तो भाजपा में जा रहे हैं या सपा में। जो भाजपा में नहीं जा सकते, उन्हें सपा में अपना भविष्य दिखायी दे रहा है। ज़ाहिर है कि बसपा और कांग्रेस पार्टी के कई जनाधार वाले नेता या तो सपा या फिर भाजपा में जा चुके हैं।

इसमें कोई दो-राय नहीं है कि चुनाव से पहले भाजपा की कोशिश है कि उन दलों में सेंधमारी की जाए, जिनके नेताओं का अपने क्षेत्र में अच्छा प्रभाव है। ज़ाहिर है कि यह भाजपा का परखा हुआ फॉर्मूला रहा है। इसीलिए 2022 के चुनाव में भाजपा अपने टेस्टेड फॉर्मूले को एक बार फिर आजमाने में जुटी है। लेकिन इस बार उसके निशाने पर समाजवादी पार्टी और उसके नेता हैं; क्योंकि पार्टी का लक्ष्य विधानसभा चुनाव में जीत हासिल करना है। इसके अनेक उदाहरण पिछले चुनाव में आपको दिखायी पड़े थे, जिनमें अगर सन् 2016 की बात करें, तो बसपा से आये बृजेश पाठक, स्वामी प्रसाद मौर्य, भगवती सागर, ममतेश शाक्य, रोशनलाल, रोमी साहनी, रजनी तिवारी, राजेश त्रिपाठी थे। इसके अलावा समाजवादी पार्टी से अनिल राजभर, कुलदीप सिंह सेंगर, अशोक बाजपेई भाजपा में शामिल हुए थे। इसके बाद कांग्रेस की प्रदेश अध्यक्ष रीता बहुगुणा जोशी और सपा के वरिष्ठ नेता नरेश अग्रवाल भी भाजपा में शामिल हुए थे।

हालाँकि नये क़द्दावर नेताओं को जोडऩे में समाजवादी पार्टी भी पीछे नहीं है, उसमें भी लगातार दूसरी पार्टी के नेताओं को शामिल किया जा रहा है। पिछले दिनों पूर्वांचल की सियासत में ब्राह्मण चेहरा माने जाने वाले हरिशंकर तिवारी के बेटे और विधायक विनय शंकर तिवारी, पूर्व सांसद कुशल तिवारी और भांजे गणेश शंकर पांडेय को समाजवादी पार्टी की सदस्यता दिलाते हुए अखिलेश यादव ने कहा था कि आज बहुत-ही प्रतिष्ठित परिवार के लोग सपा में शामिल हो रहे हैं। यहाँ देखने वाली बात यह होगी कि मुख्यमंत्री योगी के क्षेत्र गोरखपुर से आने वाले ये क़द्दावर नेता समाजवादी पार्टी में शामिल होने के बाद भाजपा को कितना नुक़सान पहुँचाते हैं।

सवाल यह है कि चुनाव जीतने की कोशिशें सत्ताधारी पार्टी भाजपा और सपा के बीच इस क़दर बढ़ गयी हैं कि अब हर तरह से दोनों पार्टियाँ मतदाताओं को लुभाने में जुटी हुई हैं। बाक़ी पार्टियाँ भी इसी कोशिश में हैं; लेकिन उन्हें पता है कि उनके हाथ क्या लगने वाला है। भाजपा की अगर बात करें, तो प्रधानमंत्री मोदी और मुख्यमंत्री योगी मिलकर इन दिनों जनता को शिलान्यासों, उद्घाटनों के तोहफे देने में जुटे हैं। जो काम उन्हें अपने अब तक के कार्यकाल में कर लेना चाहिए था, उस सबकी याद चुनाव के दौरान आ रही है। हद तो यह तक है कि चुनाव जीतने के लिए कई दर्ज़न कैमरे लगाकर प्रधानमंत्री मोदी को दिसंबर के महीने में गंगा में डुबकी लगानी पड़ी।

इसके अलावा अगर दूसरे पहलू पर नज़र डाली जाए, तो इस समय देश में दो तस्वीरें हमारे सामने हैं। एक तो यह कि कोरोना महामारी का एक नया वायरस ओमिक्रॉन वारियंट देश में दस्तक दे चुका है और वह तेज़ी से फैल रहा है। दूसरी यह कि देश के प्रधानमंत्री, गृह मंत्री और अन्य कई केंद्रीय मंत्री विधानसभा के चुनावों में अपनी पार्टी की जीत के लिए दिन-रात एक किये हुए हैं और उन्हें कोरोना के इस घातक ओमिक्रॉन वारियंट के बढऩे से जैसे मानो उन्हें कोई मतलब ही नहीं है।

तो क्या सरकार उस समय का इंतज़ार कर रही है, जब देश में पहले की तरह हर जगह इस वारियंट के मरीज़-ही-मरीज़ हों और दोबारा लॉकडाउन लगने की नौबत आ जाए? क्या चुनावी प्रचार इतना ज़रूरी है कि केवल पाँच राज्यों और उनमें भी महज एक राज्य उत्तर प्रदेश को मुख्य तौर पर जीतने के लिए पूरे देश को ख़तरे में डाल दिया जाए? इससे क्या हासिल होगा? अगर उत्तर प्रदेश की भाजपा सरकार दावा कर रही हैं कि उन्होंने पिछले पाँच साल में काम बहुत अच्छा किया है और प्रदेश में सबसे ज़्यादा विकास किया है, तो राज्य की जनता उन्हें चुन ही लेगी, इसमें दिन-रात डेरा डालकर देश भर की चिन्ता छोड़कर राज्यों में पड़े रहना केंद्र सरकार के लिए कितना उचित है? दूसरी बात प्रचार की रही, तो राज्य सरकार अपना देख लेगी, जैसे दूसरी राजनीतिक पार्टियाँ अपना प्रचार करती हैं। वैसे ही राज्य स्तर की कोर चुनाव की ज़िम्मेदारी सँभालने के लिए है ना!

दूसरा पार्टी अध्यक्ष ख़ुद समझ लेंगे कि कहाँ, कितना समय उन्हें देना है? इसमें केंद्र सरकार के मंत्रियों को राज्य में जीत के लिए दिन-रात एक करना और डेरा जमा लेना क्या देश के अन्य राज्यों के साथ धोखा नहीं है? किसी विद्वान ने कहा है कि एक मोहल्ले को बचाने के लिए एक आदमी की, एक गाँव को बचाने के लिए एक मोहल्ले की, एक ज़िले को बचाने के लिए एक गाँव की, एक राज्य को बचाने के लिए एक ज़िले की और एक देश को बचाने के लिए एक राज्य की अगर बलि भी देनी पड़े, तो दे देनी चाहिए। क्योंकि बड़े बचाव के लिए छोटी क़ुर्बानी देने से काम चले, तो उसे स्वीकार करना चाहिए।

आज ओमिक्रॉन की चपेट में पूरा देश ही है, ऐसे में इंसानियत और राज धर्म यही कहता है कि प्रधानमंत्री और उनकी टीम को राज्य में पार्टी प्रचार-प्रसार छोड़कर देश को बचाना चाहिए और यही उनका धर्म भी है। क्योंकि देश की जनता ने उन्हें देश के लिए चुना है, न कि अपनी पार्टी के प्रचार के लिए। बहरहाल फ़िलहाल प्रदेश में राजनीतिक ध्रुवीकरण बढ़ता जा रहा है। जानकारों का मानना है कि धीरे-धीरे प्रदेश की राजनीति दो ध्रुवों में बदलने जा रही है। हालाँकि इस ध्रुवीकरण के बाद भी बसपा को 15 फ़ीसदी से 16 फ़ीसदी वोट मिलने की सम्भावना से इन्कार नहीं किया जा सकता, जबकि राष्ट्रीय सियासी दल कांग्रेस भी कम-से-कम 4 से 5 फ़ीसदी वोट पश्चिम बंगाल की तरह अवश्य पाएगी। इसके अलावा 5 फ़ीसदी वोट में निर्दलीय तथा अन्य छोटे दल सेंध लगाने में कामयाब होते दिखायी दे रहे हैं।

इस स्थिति में मुख्य मुक़ाबला शेष बचे 70 फ़ीसदी वोट बैंक के लिए होगा, जो क़रीब 36 फ़ीसदी के आँकड़े को पार करेगा। उस दल की ही सरकार बनेगी, जो 36 फ़ीसदी वोटों को पार कर जाएगा। हालाँकि फ़िलहाल इस आँकड़े में भारतीय जनता पार्टी मामूली बढ़त के साथ ऊपर दिखायी दे रही है। लेकिन सपा से उसे पूरी चुनौती मिल रही है और भाजपा नेताओं को सपा से हार का डर दिन-रात सता रहा है। फ़िलहाल सपा-रालोद गठजोड़ को जाटव दलित के अलावा यादव जाट पिछड़ा और अगड़ा वोट बहुत कम मिलता दिखायी पड़ रहा है। जबकि गठजोड़ को मुसलमानों अधिकांश वोट मिलता दिख रहा है। परन्तु गठजोड़ के दोनों प्रमुख दलों के जाट एवं यादव मतदाताओं के 20 से 40 फ़ीसदी वोट सत्ताधारी दल भाजपा में जाते प्रतीत हो रहे हैं। जिससे गठजोड़ को नुक़सान होने की सम्भावना है।

ज़ाहिर है पिछले दिनों पश्चिमी उत्तर प्रदेश के गढ़ मेरठ की परिवर्तन सन्देश रैली में सपा-रालोद के दोनों युवा नेताओं की एक झलक पाने के लिए भारी जन-सैलाब उमड़ा था। लेकिन यहाँ सवाल यह खड़ा हो जाता है कि इतनी बड़ी रैली होने के बावजूद क्या रैली में आये लोग इन पार्टियों के गठजोड़ से एकमत हो पाएँगे? क्योंकि अक्सर देखा गया है कि चुनाव के दौरान बड़ी-बड़ी रैलियाँ होती हैं; लेकिन चुनाव के समय जब मतदान होता है, तो उतना मतदान नहीं होता, जितने की उम्मीद की जाती है। तो क्या यह कहना सम्भव है कि रैलियों में जो भीड़ आ रही है, वह मतदाता भी बनेगी? इसके लिए हमें चुनाव का इंतज़ार करना होगा।

उत्तर प्रदेश की राजनीति को क़रीब से जानने वाले सामाजिक कार्यकर्ता एवं वरिष्ठ पत्रकार राजीव सैनी बताते हैं कि भाजपा हर हाल में 34 फ़ीसदी वोट के क़रीब पाती दिख रही है। ऐसे में सपा-रालोद गठजोड़ भी हालत में 38 फ़ीसदी वोट लिए बग़ैर भाजपा को नहीं हरा पाएगा। क्योंकि सपा-रालोद के उम्मीदवार कुछ चुनिंदा सीटों पर बहुत बड़े भरी अन्तर से जीतते प्रतीत हो रहे हैं। जबकि भाजपा के उम्मीदवार अधिकांश सीटों पर बहुत छोटे अन्तर से जीत दर्ज करते दिख रहे हैं।

इस अन्तर को मिटाने के लिए भाजपा के मुक़ाबले चार फ़ीसदी अधिक वोट लाना नितांत आवश्यक है। हालाँकि प्रदेश की जनता में भाजपा की योगी सरकार के प्रति क़रीब 75 फ़ीसदी से अधिक विरोधी लहर (एंटी इनकंबेंसी) होने के बावजूद समाजवादी पार्टी के पिछले शासनकाल में यादववाद, भाई-भतीजावाद एवं मुस्लिम परस्ती होने के कारण अभी तक जीत की स्थिति बनती नज़र नहीं आ रही है। जानकार इस के दो बड़े कारण गिना रहे हैं, जिनमें पहला है प्रदेश की जनता को समाजवादी के घोषणा-पत्र से सीधा-सीधा सा प्रतीत नहीं हो रहा है कि उनके लिए क्या होगा और उसके लिए क्या किया जाएगा? दूसरा, प्रदेश की शत-प्रतिशत आबादी तक इस गठगोड़ के लोग वोट माँगने नहीं पहुँच पा रहे हैं। कई लोग ज़मीन पर संगठन का न होने को इसका बड़ा कारण मान रहे हैं। लोगों का मानना यह है कि प्रदेश के 70 से 75 फ़ीसदी लोग भाजपा की विरोधी लहर के चलते इस गठजोड़ को जिताना चाहते हैं; लेकिन इन दलों के नेता जनता के बीच पूरी पैठ नहीं बना पा रहे हैं।

इसलिए फ़िलहाल मामूली अन्तर से ही सही सपा-रालोद गठगोड़ चुनावी जंग पिछड़ रहा है। इसके अलावा प्रधानमंत्री मोदी द्वारा तीन कृषि क़ानूनों को वापस लेने के बाद किसानों की नाराज़गी कुछ हद तक कम होने के बाद भाजपा मामूली बढ़त बनाती दिखायी दे रही है। हालाँकि साफ़तौर पर अभी कुछ भी कहना उचित नहीं है। उत्तर प्रदेश में राजनीतिक ऊँट किस करवट बैठेगा, इसके लिए चुनावी परिणाम आने तक इंतज़ार करना होगा।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक सम्पादक हैं।)

फिर वही बसों में परेशानी

कोरोना के बढ़ते कहर को देखते हुये दिल्ली सरकार ने कोरोना विरोधी कदम उठाये के साथ-साथ तमाम पाबंदियां भी लगाई है। जिसका दिल्ली वासियों ने स्वागत किया है। लेकिन परिवहन व्यवस्था पूरी तरह चरमरा गई है। दिल्ली परिवहन निगम की बसों के लिए सरकार ने सख्त आदेश भी जारी किया है इस आदेश के अनुसार प्रत्येक बस में 20 से अधिक लोगों के यात्रा की अनुमति नहीं दी गर्इ है।

सराकर के इस आदेश के बाद से बसों में दैनिक यात्रियों को यात्रा करने में काफी मुसीबतों का सामना करना पड़ रहा है। खासतौर पर दफ्तर के लिए बस से आवागमन करने वाले यात्रियों को घंटे भर इंतजार के बाद मिली बस से दफ्तर पहुंचने में घंटो की देरी से पहुंच रहे है। जिससे उन्हें दफ्तर में कर्इ दिक्कतों का सामना करना पड़ रहा है।

लोगों का कहना है कि दिल्ली सरकार की जो भी बसें है, उनमें तो 20 से अधिक लोग यात्रा नहीं कर सकते है। जबकि प्राईवेट बस वाले यात्रियों को ठूस–ठूस कर यात्रा करवा रहे है। और कोरोना विरोधी नियमों की धज्जियां उड़ा रहे है साथ ही जम कर औने–पौने दाम यात्रियों से वसूल रहे है। बस में यात्रा करने वाले संतोष कुमार और जगत कुमार ने बताया कि सरकार तो सीधा आदेश जारी कर देती है। लेकिन पहले से उसका विकल्प तैयार नहीं करती है। जिसके चलते लोगों को परेशानी होती है। उनका कहना है कि मासिक पास बनवाया है। बसों में जगह न मिलने से उनको अब आँटो से यात्रा करने को मजबूर होना पड़ रहा है।

लोगों का कहना है कि जब भी दिल्ली में वायु प्रदूषण बढ़ा है तब ही दिल्ली सरकार ने प्राईवेट बसों को सड़कों पर ऊतारा है, ताकि लोगों को यात्रा करने में किसी प्रकार की दिक्कत का सामना न करने पड़े, उसी तरह लोगों की मांग है कि प्राईवेट बसों को फिर से उतारा जाये ताकि लोगों को अपने गतंव्य स्थान और आँफिस में आने–जाने में परेशानी न हो। जानकारों का कहना है कि बसों में तो सरकार कोरोना को रोकना चाहती है। जबकि बस स्टैण्डों में सैकड़ो लोगों की भीड़ भी तो संक्रमण बढ़ा सकती है। इसलिये सरकार को कोई विकल्प तो सकारात्मक निकालना ही होगा।