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चुनावी चुनौतियाँ

नये साल में होने वाले विधानसभा चुनावों में होगा सभी पार्टियों का इम्तिहान

नया साल देश की राजनीति के लिहाज़ से भी बहुत महत्त्वपूर्ण साबित होने जा रहा है। इस साल में कई विधानसभाओं के चुनाव होने हैं; जबकि कांग्रेस भी अगस्त-सितंबर तक अपना अध्यक्ष चुन लेगी। भाजपा से लेकर कांग्रेस तक के लिए ये चुनाव बहुत अहम हैं। भाजपा को हाल के महीनों में जनता से मिले तिरस्कार की भरपायी करनी है; जबकि कांग्रेस चुनाव में बेहतर प्रदर्शन करके अपनी स्थिति में सुधार लाना चाहती है। भाजपा के लिए सबसे बड़ी चुनौती उत्तर प्रदेश है, जहाँ योगी सरकार का इम्तिहान होना है। क्षेत्रीय दल भी इन चुनावों  में अपनी ताक़त दिखाकर जीतना चाहते हैं। यह माना जा रहा है कि 2024 के लोकसभा चुनाव के रूख़ को समझने के लिए ये विधानसभा चुनाव बहुत अहम हैं, क्योंकि इन चुनावों से सत्ताधारी भाजपा और दूसरी पार्टियों के प्रति जनता के रूख़ का पता चलेगा। फ़िलहाल के चुनावी माहौल और भविष्य के अनुमान को लेकर बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

उत्तर प्रदेश में भाजपा की मेहनत बता रही है कि उसे अगले साल होने वाले विधानसभा चुनाव में चुनौतियों का अहसास है। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से लेकर पार्टी के चाणक्य माने जाने वाले वरिष्ठ नेता अमित शाह के देश के इस सबसे बड़े राज्य के सघन दौरे ज़ाहिर करते हैं कि दिल्ली का गेटवे माने जाने वाले उत्तर प्रदेश में भाजपा की राह उतनी सरल नहीं है। भाजपा उत्तर प्रदेश में हिन्दुत्व के एजेंडे से लेकर अपने तरकश के तमाम तीर कमान पर चढ़ा चुकी है, जबकि उसे योगी सरकार के पाँच साल के कामकाज पर भी भरोसा है। हालाँकि ज़मीनी स्थिति बताती है कि योगी सरकार के पाँच साल के कामकाज को लेकर जनता की राय बँटी हुई है। मोदी देश के पहले ऐसे प्रधानमंत्री हैं, जो इस तरह खुलकर धार्मिक आयोजनों में शामिल हो रहे हैं। काशी विश्वनाथ कॉरिडोर के उद्घाटन पर उनका पहरावा और पूजा पाठ को लेकर विरोधी टिप्पणियाँ कर रहे हैं; लेकिन भाजपा को इसकी चिन्ता नहीं है। कॉरिडोर के उद्घाटन से पहले तमाम अख़बारों के पहले पन्ने पर सरकार के विज्ञापन प्रधानमंत्री मोदी की तस्वीरों से अटे पड़े थे। मथुरा के नारे भी उत्तर प्रदेश के चुनावी माहौल में भाजपा की तरफ़ से ख़ूब गूँज रहे हैं। भाजपा जानती है कि संकट में आया उत्तर प्रदेश का चुनाव उसे कैसे जीतना है? लेकिन क्या योगी सरकार के कामकाज को लेकर अपना मन बना चुकी जनता भाजपा की इस उम्मीद को पूरा करेगी? उत्तराखण्ड में भी भाजपा की राह आसान नहीं है। पंजाब में उसे काफ़ी दिक़्क़तों का सामना करना पड़ रहा है। वहीं गोवा और मणिपुर में भी सत्ता थाली में रखे लड्डू की तरह नहीं मिलने वाली।

ओमिक्रॉन के बढ़ते खतरे के बीच अगले साल के शुरू के महीनों में उत्तर प्रदेश के अलावा पंजाब, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर में विधानसभा के चुनाव होने हैं। उसके बाद साल के आख़िर तक कुछ और राज्यों में भी विधानसभा चुनाव हैं। ज़ाहिर है अगला साल देश की राजनीति में 2024 के लोकसभा चुनाव से पहले सबसे अहम साबित होने जा रहा है। भाजपा उत्तर प्रदेश सहित अधिकतम राज्यों में जीत के झण्डे गाडऩा चाहती है। क्योंकि उसे मालूम है कि जितने राज्य उसके हाथ से फिसलेंगे, उतनी उसकी 2024 की दिल्ली की राह मुश्किल होती जाएगी।

भाजपा इन चुनावों में सघन चुनावी प्रचार और रणनीति बुनने के बावजूद भय से भरी है। प्रधानमंत्री ने चुनाव से तीन महीने ही प्रचार शुरू कर दिया है, जबकि पार्टी के सबसे बड़े रणनीतिकार माने जाने वाले अमित शाह व्यक्तिगत रूप से चुनाव की तैयारियों पर नज़र रखे हुए हैं। प्रधानमंत्री साल के आख़िर तक आधा दर्जन बार चुनाव की दृष्टि से उत्तर प्रदेश का दौरा कर चुके हैं, जिसके चलते इस बार वह संसद के शीत कालीन सत्र में भी अधिकतर अनुपस्थित रहे। जबकि अमित शाह दिल्ली से चुनाव से जुड़ी हर पल की ख़बर रख रहे हैं। इससे उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव की अहमियत समझी जा सकती है।

जहाँ तक दूसरे दलों की बात है, यह सभी चुनाव राष्ट्रीय और क्षेत्रीय दलों का भी कठिन इम्तिहान हैं। हाल के महीनों में देश में विपक्ष ने अपने स्तर पर एकजुट होने कोई गम्भीर कोशिश नहीं की है। हाँ, यह ज़रूर दिख रहा है कि विपक्ष का एक त्रिकोण बन रहा है, जिसमें एक तरफ़ कांग्रेस और उसके समर्थक दल (यूपीए) है, तो दूसरी तरफ़ पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ख़ुद को कांग्रेस के विकल्प के तौर पर स्थापित करने की कोशिश करते हुए क्षेत्रीय दलों को साथ जोडऩे की कवायद में दिख रही है। वामपंथी दल अभी ख़ामोश-से हैं और उनकी सक्रियता भी कमोवेश शून्य ही है।

उत्तर प्रदेश पर नज़र

उत्तर प्रदेश में अन्य सभी दलों के मुक़ाबले भाजपा ज़्यादा सक्रिय है। उसका सबसे ज़्यादा ध्यान उत्तर प्रदेश पर है। एक तरह से भाजपा उत्तर प्रदेश को 2024 के लिहाज से जनता का मत मानकर मेहनत कर रही है। उत्तर प्रदेश को लेकर अभी तक के निजी चैनल्स के सर्वे बता रहे हैं कि वहाँ मुक़ाबला होगा और योगी सरकार के प्रति जनता में कई मसलों पर नाराज़गी है। योगी सरकार ने हाल के महीनों में अपना प्रचार तंत्र मज़बूत किया है और विज्ञापनों के ज़रिये वह अपनी उपलब्धियाँ गिनाने में जुटी है। समाजवादी पार्टी (सपा) चुनाव सर्वे में दिखाये जा रहे अपने उभार से उत्साहित है। पार्टी प्रमुख अखिलेश यादव पूरी ताक़त से मैदान में डट चुके हैं और भाजपा के साम्प्रदायिक नारों का जवाब उसी तर्ज पर दे रहे हैं।

उत्तर प्रदेश में कांग्रेस भी काफ़ी सक्रिय है। पार्टी महासचिव प्रियंका गाँधी पार्टी के अपेक्षाकृत कमज़ोर ज़मीनी आधार के बावजूद कुछ अलग तरीक़े से मेहनत कर रही हैं। जनता में कांग्रेस और प्रियंका गाँधी की ख़ूब चर्चा है। हालाँकि यह वोटों में कितनी तब्दील होगी, अभी कहना मुश्किल है। प्रियंका का ‘लड़की हूँ, लड़ सकती हूँ’ नारा ज़मीन पर पहुँचा दिख रहा है, और महिलाओं को पहली बार अपने महत्त्व का अहसास हुआ है। वे इसका वीडियो बना रही हैं, जिससे इसके प्रचार में मदद मिल रही है। प्रियंका गाँधी उत्तर प्रदेश में महिलाओं का अपना वोट बैंक बनाने की दिशा में काम रही हैं, जो चुनौतीपूर्ण तो है; लेकिन यदि काम कर जाए, तो चुनाव में तुरुप का इक्का साबित हो सकता है।

दिसंबर के आख़िर में कट्टर हिन्दुत्ववादी नेता यति नरसिंहानंद का एक वीडियो वायरल हुआ था, जिसमें वह मुसलमानों के ख़िलाफ़ उग्र भाषा का इस्तेमाल करते हुए दिख रहे हैं। चुनाव से ऐन पहले इस तरह की चीजों को लेकर देश में नाराज़गी के स्वर भी उठे हैं। यति के इस वीडियो को लेकर, जिसमें वह हिन्दुओं से हथियार उठाने की अपील करते दिख रहे हैं, लोग नाराज़ हैं। यह वीडियो हरिद्वार के एक सम्मेलन का है। इस मामले में वैसे उत्तराखण्ड पुलिस ने वसीम रिज़वी उर्फ़ जितेंद्र नारायण त्यागी समेत अन्य लोगों के ख़िलाफ़ एफ़आईआर दर्ज की है। रिज़वी वही व्यक्ति हैं, जिन्होंने हाल में इस्लाम छोड़ हिन्दू धर्म अपनाने का दावा किया था। उधर नरसिम्हानंद दिल्ली में एक प्रेस कॉन्फ्ऱेंस में पैग़ंबर मोहम्मद पर आपत्तिजनक टिप्पणी भी कर चुके हैं। दिल्ली पुलिस इस मामले में एफआईआर दर्ज कर चुकी है।

हालाँकि चुनाव से पहले इस तरह का साम्प्रदायिक माहौल बनाने की कोशिशों से कई वर्गों में नाराज़गी है। ऐसे तत्त्वों के ख़िलाफ़ क़दम उठाने की अपील देश के कई जाने-माने लोगों ने की है। भारत के पूर्व सेना प्रमुखों ने भी इसे लेकर सख़्त नाराज़ग़ी जतायी है। सेना के इन पूर्व प्रमुखों ने अमृतसर के स्वर्ण मन्दिर और पंजाब के कपूरथला के एक गुरुद्वारे में गुरु ग्रन्थ साहिब के कथित अपमान के मामले में लिंचिंग की भी निंदा की है। पूर्व नौसेना प्रमुख एडमिरल (रिटायर्ड) अरुण प्रकाश ने ट्विटर पर यति नरसिंहानंद के वीडियो को शेयर करते हुए लिखा कि ‘क्या हम साम्प्रदायिक ख़ून-खऱाबा चाहते हैं?’ सेना प्रमुख रहे जनरल वेद प्रकाश मलिक भी इससे सख़्त असहमति जता चुके हैं।

भाजपा के लिए उत्तर प्रदेश के पीलीभीत से उसके सांसद वरुण गाँधी भी लगातार मुसीबत किये हुए हैं। वह लगातार भाजपा को निशाने पर रख रहे हैं। हाल में वरुण ने ओमिक्रॉन को लेकर उत्तर प्रदेश में लगाये रात्रि कफ्र्यू और दिन में भाजपा के बड़ी जन रैलियाँ करने और भीड़ जुटाकर शक्ति प्रदर्शन करने पर तल्ख़ टिप्पणी की थी। वरुण गाँधी ने ट्वीट करके कहा था- ‘रात में कफ्र्यू और दिन में रैलियों में लाखों लोगों को बुलाना। यह सामान्य जनमानस की समझ से परे है। उत्तर प्रदेश की सीमित स्वास्थ्य व्यवस्थाओं के मद्देनज़र हमें ईमानदारी से यह तय करना पड़ेगा कि हमारी प्राथमिकता भयावह ओमिक्रॉन के प्रसार को रोकना है अथवा चुनावी शक्ति प्रदर्शन।‘

चुनावों के नारे

उत्तर प्रदेश दशकों के चुनावी नारों के लिए मशहूर रहा है। चुनाव के नारे निश्चित ही लोकतंत्र के उत्सव को रोचक बना देते हैं और कमोवेश हर राजनीतिक दल चुनावों से पहले इस तरह के नारे गढ़ता है, ताकि जनता को आकर्षित किया जा सके। इसमें सत्ता की नाकामी के ख़िलाफ़ तंज भरी भाषा से लेकर अन्य चुटकियाँ होती हैं।

हालाँकि इस बार के उत्तर प्रदेश के चुनाव में साम्प्रदायिक नारे भी ख़ूब उभर रहे हैं। पुराने नारों की बात करें, तो मिले ‘मुलायम कांशीराम, हवा हो गये जय श्री राम, ‘रामलला हम आएँगे, मन्दिर वहीं बनाएँगे’, ‘बच्चा-बच्चा राम का, जन्मभूमि के काम का’, ‘जिसका जलवा कायम है, उसका नाम मुलायम है’, ‘चढ़ गुंडन की छाती पर, मुहर लगेगी हाथी पर’, ‘चलेगा हाथी उड़ेगी धूल, न रहेगा हाथ, न रहेगा फूल’, ‘यूपी में है दम, क्योंकि जुर्म यहाँ है कम’, ‘गुंडे चढ़ गये हाथी पर, गोली मारेंगे छाती पर’, ‘ठाकुर बाभन बनिया छोड़, बाकी सब हैं डीएस-फोर’, ‘तिलक तराजू और तलवार, इनको मारो जूते चार’ जैसे नारे इन दशकों में उत्तर प्रदेश चुनाव का हिस्सा रहे हैं।

इस बार के चुनाव में भी उत्तर प्रदेश की राजनीतिक फिजा में ख़ूब नारे गूँज रहे हैं। देखा जाए, तो 2022 में होने वाले उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनाव में अभी तक सपा भाजपा को टक्कर देती दिख रही है, भले कांग्रेस और बसपा टक्कर देने की तैयारी में हैं। असदुद्दीन ओवैसी बंगाल के बाद उत्तर प्रदेश में सक्रिय दिख रहे हैं। इसके अलावा क्षेत्रीय क्षत्रप ओम प्रकाश राजभर, संजय निषाद और चंद्रशेखर भी चुनावी ताल ठोक चुके हैं। अखिलेश चुनाव की इस बेला में यात्राएँ निकाल रहे हैं। उनके आक्रमण के केंद्र में भाजपा है; लेकिन कांग्रेस को भी ख़ूब कोस रहे हैं।

बसपा कभी उत्तर प्रदेश चुनाव की बड़ी महारथी रही है। लेकिन इस बार अभी तक उसके सक्रियता ठंडी सी है। हो सकता है विधानसभा चुनाव की घोषणा के बाद मायावती सक्रिय हों। इतिहास देखें, तो सूबे में सन् 1989 में बसपा को 13, 1991 में 12, 1993 और 1996 में 67-67, जबकि 2002 में 98, 2007 में 206 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत से और 2012 में 80 सीटें बसपा ने जीतीं। लेकिन 2017 में पार्टी 19 सीटों पर लुढ़क गयी। मायावती 2007 के अलावा 1995, 1997 और 2002 में (कुछ समय के लिए) मुख्यमंत्री रह चुकी हैं। साल 1993 में सपा और बसपा ने साथ मिलकर चुनाव लड़ा था।

भाजपा का उभार राज्य में राम मन्दिर आन्दोलन की वजह से हुआ और 1991 के चुनाव में उसे पूर्ण बहुमत मिला। इसके बाद 2017 में जाकर पूर्ण बहुमत मिला भाजपा को। अब 2022 के विधानसभा चुनाव के लिए पार्टी का लक्ष्य इस बहुमत को दोहराना है। निश्चित ही यह पिछली बार के मुक़ाबले इस बार उतना सरल नहीं है। हालाँकि 2019 के आख़िरी महीने में सुप्रीम कोर्ट से राम मंदिर को लेकर आये फ़ैसले को भाजपा ने हमेशा अपने पक्ष में भुनाने की कोशिश की है। इस बार तो भाजपा मथुरा और काशी विश्वनाथ की बात चुनाव में कर रही है।

जबरदस्त दबाव में भाजपा मिशन के लिए छ: जन विश्वास यात्राएँ निकाल रही है। सभी 403 विधानसभा क्षेत्रों से यह यात्रा रही निकाली जा रही है। इन यात्राओं का समापन जनवरी के पहले हफ्ते लखनऊ में बड़ी रैली से होगा, जिसमें पार्टी के स्टार प्रचारक प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी शिरकत करेंगे। भाजपा ने इन यात्राओं रूट योजनावद्ध तरीक़े से अवध, काशी, रुहेलखण्ड-ब्रज, पश्चिम, गोरक्ष और कानपुर-बुंदेलखण्ड क्षेत्र रखा गया है। इन यात्राओं की तैयारी के लिए जब बैठक हुई थी, तब मुख्यमंत्री योगी ने कहा था कि हम ग़रीब कल्याण योजनाओं, सुरक्षा, रोज़गार और इंफ्रास्ट्रक्चर की उपलब्धियों के साथ ही आस्था के सम्मान को लेकर उठाये गये क़दमों को लेकर जनता के बीच जाएँगे। अब सब लोग अयोध्या जाना चाहते हैं, काशी अब विश्व पटल पर नज़र आ रही है।

ज़ाहिर है इसका मक़सद विकास के साथ हिन्दुत्व का तड़का लगाना था। इन यात्राओं के लिए भाजपा ने बड़े नेताओं राष्ट्रीय अध्यक्ष जे.पी. नड्डा, गृहमंत्री अमित शाह, रक्षामंत्री राजनाथ सिंह आदि को आदि मैदान में केंद्रीय मंत्रियों को उतारा। भाजपा शासित राज्यों के मुख्यमंत्री भी यात्रा शामिल रहे। ख़ुद मुख्यंमत्री योगी आदित्यनाथ और उनके मंत्रियों ने यात्राओं की अगुवाई की।

उत्‍तराखण्ड की स्थिति 

साल 2021 के कुछ ही महीनों में भाजपा सरकार में तीन मुख्यमंत्री देखने वाले उत्तराखण्ड में भी नये साल में विधानसभा के चुनाव हैं। हालाँकि सूबे की दो सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टियों कांग्रेस और भाजपा में घमासान के चलते चुनाव से पहले राजनीतिक स्थिति दिलचप्स हो गयी है। सतारूढ़ भाजपा के मंत्री हरक सिंह ने केबिनेट की बैठक में ही इस्‍तीफा देने का ऐलान कर अपनी पार्टी भाजपा के लिए शर्मिंदगी की स्थिति बना दी। उधर पूर्व मुख्‍यमंत्री और वरिष्ठ कांग्रेस नेता हरीश रावत की नाराज़गी की भी चर्चा राजनीतिक हलकों में है।

अभी तक की ज़मीनी स्थिति से ज़ाहिर होता है कि मुख्य मुक़ाबला भाजपा और कांग्रेस में है। भाजपा के लिए जुलाई में मुख्यमंत्री बने पुष्कर सिंह धामी को जातीय समीकरण साधने के लिए (वो राजपूत हैं) को पार्टी सामने लायी। भाजपा अभी से दावा कर रही है कि वह प्रदेश में चुनाव में 60 सीटें जीतेगी।

कांग्रेस हरीश रावत की नाराज़गी ख़त्म कर उन्हें माफ़ करने का दावा कर रही है। सम्भावना यही है कि चुनाव में वही कांग्रेस का मुख्‍यमंत्री चेहरा होंगे। अभी तक के अनुमान भाजपा के पक्ष में बहुत ज़्यादा नहीं दिखते। आम आदमी पार्टी (आप) के मैदान में आने से वोटों का बँटवारा हुआ तो कांग्रेस को इसका नुक्सान होगा। हालाँकि देखना होगा कि पार्टी कितने वोट ले पाती है। हालाँकि यह तय है कि मुक़ाबला कांग्रेस-भाजपा में ही है।

राज्य में पिछले विधानसभा चुनाव (2017) में भाजपा ने 70 में से 56 सीटें जीत ली थीं। इस तरह कांग्रेस को सत्ता से बाहर करके भाजपा ने सरकार सँभाली थी। अब कांग्रेस में भाजपा के कुछ नेताओं के आने से माहौल दिलचस्प बना है।

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी पहले ही भाजपा के लिए प्रचार शुरू कर चुके हैं। इस तरह भाजपा माहौल बनाने की कोशिश कर रही है। चुनाव की घोषणा से पहले प्रधानमंत्री मोदी ने अपनी जनसभाओं में विकास के कुछ वादे उत्तराखण्ड की जनता से किये हैं।

उधर कांग्रेस ने भी उत्तराखण्ड में पूरी ताक़त झोंकी हुई है। भाजपा के हाईटेक प्रचार का जवाब देने के लिए कांग्रेस ने एक मज़बूत टीम गठित की है, ताकि अपनी बात गाँव-गाँव तक पहुँचा सके। इंटरनेट मीडिया के इस्तेमाल में कांग्रेस मैदान में उतरकर आक्रामक तरीक़े से हाईटेक प्रचार में जुटी है। दरअसल कांग्रेस ने पाँच लोकसभा क्षेत्रों को जोन के रूप में बदलकर प्रदेश भर में इंटरनेट मीडिया पर प्रचार करने के लिए 400 से अधिक स्वयंसेवक नियुक्ति किये हैं। स्वयंसेवकों को सूबे के हर कोने में जाकर पार्टी और शीर्ष नेताओं की बात पहुँचाने का जिम्मा दिया गया है।

इंटरनेट मीडिया की इस जंग की कांग्रेस ने मज़बूत तैयारी करते हुए सोशल मीडिया के लिए बड़ा बजट रखा है। कांग्रेस का सोशल मीडिया सरल शब्दों में अपनी बात जनता तक पहुँचाने के लिए फोटोग्राफर, कंटेंट राइटर से लेकर वीडियो एडिटर तक की मदद ले रहा है। कांग्रेस दूर-दराज के उन इलाकों में, जहाँ पहुँचना सम्भव नहीं, वहाँ सोशल मीडिया और इंटरनेट मीडिया के ज़रिये पहुँच रही है।

मणिपुर में अफ्सपा क़ानून बड़ा मुद्दा

मणिपुर में चुनावी पारा चढ़ रहा है। विकास की कहानियाँ नागालैंड की हिंसा के बाद अफ्सपा के बड़े विरोध के रूप में सामने आ रही है। केंद्रीय गृहमंत्री अमित शाह असम और नागालैंड के मुख्यमंत्रियों के साथ बैठक कर चुके हैं। नागालैंड सरकार का दावा है कि उसने राज्य से यह क़ानून हटाने के लिए एक समिति गठित कर दी है। उसकी सिफ़ारिशों के आधार पर सूबे से इस क़ानून को वापस लेने की बात सिरे चढ़ सकती है।

जहाँ तक चुनाव की बात है, 2017 में यहाँ जब विधानसभा के चुनाव हुए थे, भाजपा ने जनमत से कांग्रेस की 15 साल तक चली सत्ता छीन ली थी। मणिपुर सहित उत्तर-पूर्वी राज्यों के अधिकांश मुख्यमंत्री अफ्सपा को हटाने के हक़ में सामने आये हैं। कांग्रेस ने तो मणिपुर विधानसभा चुनाव के बाद सत्ता में आने पर अफ्सपा को बिना देरी वापस लेकर पूर्ण रूप से हटाने के लिए केंद्र पर दबाव बनाने का वादा किया था।

मणिपुर कांग्रेस के अध्यक्ष का कहना है कि उसने अपनी सत्ता के दौरान सात विधानसभा क्षेत्रों से यह क़ानून हटा दिया था। उन्होंने कहा- ”अगर कांग्रेस 2022 में सत्ता में वापस आती है, तो मंत्रिमंडल की पहली ही बैठक में पूरे मणिपुर से अफ्सपा को पूर्ण रूप से हटाने का फ़ैसला कर लिया जाएगा।’’

जहाँ तक भाजपा की बात है, उसने इस मुद्दे पर चुप्पी साध रखी है। भाजपा अध्यक्ष जे.पी. नड्डा साल के आख़िर तक चार बार मणिपुर जा चुके हैं। कई रैलियाँ की हैं। गृह मंत्री अमित शाह ने भी राज्य की यात्रा की है। शाह ने कहा कि एन. बीरेन सिंह सरकार के तहत क़ानून और व्यवस्था की स्थिति, शिक्षा, बिजली और अन्य बुनियादी ढाँचों में उल्लेखनीय सुधार हुआ है। भाजपा मणिपुर में इनर लाइन परमिट शुरू होने को भुनाने की कोशिश में भी है। वो वोटर को याद दिला रही है कि यह मणिपुर को पार्टी का सबसे बड़ा गिफ्ट है। बता दें इनर लाइन परमिट मणिपुर में कुछ समूहों की लम्बे समय से माँग रही है। यह वो दस्तावेज है, जिसमें अन्य राज्यों के भारतीय नागरिकों को सीमित अवधि के लिए संरक्षित क्षेत्र में प्रवेश करने की इजाजत है।

साल 2017 में मणिपुर में भाजपा पहली बार सत्ता में आयी थी। वैसे तो चुनाव में कांग्रेस 28 सीटों के साथ सबसे बड़ी पार्टी बनी थी, भाजपा ने एनपीपी, एनपीएफ और लोक जनशक्ति पार्टी के सहयोग से सरकार बनायी थी। कांग्रेस के कई विधायक दलबदल कर चुके हैं। इसमें राज्य के पार्टी प्रमुख गोविंददास कोंथौजम भी शामिल हैं, जबकि पूर्व मंत्री और बिष्णुपुर से छ: बार के कांग्रेस विधायक गोविंददास कोंटौजम भाजपा में शामिल हो गये। हालाँकि अब भाजपा की गठबन्धन सहयोगी एनपीपी के साथ लड़ाई की जानकारियाँ बाहर आ रही हैं। कॉनराड संगमा की एनपीपी चार में से दो मंत्रियों को कैबिनेट से हटाये जाने से निराश हैं। अफ्सपा को वापस लेने की माँग करने वाले संगमा ने कहा- ”एनपीपी इस बार अकेले चुनाव में उतरेगी और मणिपुर में करीब 40 सीटों पर चुनाव लड़ेगी।’’

कांग्रेस अभी भी जनता में जमी हुई है, जबकि भाजपा और नागा पीपुल्स फ्रंट (एनपीएफ) भी मैदान में जमे हुए हैं।

गोवा की तस्वीर नहीं साफ़

गोवा में विधानसभा चुनाव अन्य चार राज्यों के साथ ही होने हैं। वहाँ हाल के हफ्तों में ममता बनर्जी की टीएमसी अचानक काफ़ी सक्रिय हुई है। उधर भाजपा ने कहा था कि वह अकेले चुनाव लड़ेगी। जहाँ तक कांग्रेस की बात है उसके और गोवा फारवर्ड पार्टी के बीच चुनावी गठबन्धन हुआ है।

पिछले विधानसभा चुनाव में कांग्रेस को सबसे ज़्यादा 17 सीटें मिली थीं, जबकि भाजपा को 13, अन्य को 10 सीटें मिली थीं। विधानसभा में कुल 40 सीटें हैं और बहुमत के लिए वहाँ 21 सीटों की ज़रूरत रहती है।

हाल में टीएमसी को तब बड़ा झटका लगा था, जब इसके पाँच सदस्यों ने पार्टी से इस्तीफा दे दिया था। इन लोगों ने टीएमसी पर लोगों को बाँटने का आरोप लगाया था। उधर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी भी मैदान में दम ठोक रही है। उसने हाल में कहा कि वह 40 सीटों पर उम्मीदवार उतारेगी।

गोवा में भाजपा की सरकार है और हाल में पार्टी अध्यक्ष जे.पी. नड्डा ने राज्य का दौरा करके कांग्रेस सहित विपक्षी दलों पर आरोप लगाया कि उन्होंने कहा की पिछली सरकारों ने सत्ता को मेवा सझकर खाने का काम किया, जबकि भाजपा जनता की सेवा में भरोसा रखती है।

उधर, कांग्रेस भी चुनाव पूरी तैयारियाँ कर रही है। पार्टी नेता राहुल गाँधी दिसंबर में राज्य का दौरा कर चुके हैं। पार्टी वापस सत्ता में लौटने के लिए आतुर है।

पंजाब में पार्टियाँ चौकन्नी

पंजाब में एक अदालत में ब्लास्ट और गुरुद्वारे में बेअदबी के मामले और दो लोगों की पीट-पीटकर हत्या के मामले चुनाव में मुद्दा बन सकते हैं। किसानों के 22 संघ भी चुनाव में कूदने को उतावले हैं। दिसंबर का महीना किसान आन्दोलन के नज़रिये से कई रंग लेकर आया। मोदी सरकार के किसानों की माँगें मानने और कुछ को लेकर वादा करने पर संयुक्त किसान मोर्चा ने भरोसा किया और एक साल से अधिक समय से चल रहे अपने आन्दोलन को स्थगित कर दिया। निश्चित ही किसान आन्दोलन और किसानों की माँगों के लिए यह बड़ी घटना थी। लेकिन इसके बाद एक और बड़ी घटना यह हुई कि किसान आन्दोलन के बड़े अगुआ रहे गुरनाम सिंह चढ़ूनी ने अपनी पार्टी बनाने का ऐलान कर दिया। निश्चित ही पंजाब के विधानसभा चुनाव से पहले किसानों के एक प्रभावशाली गुट के खुलेतौर पर राजनीति में आने का असर पड़ेगा। यह माना जाता है कि पंजाब के गरम स्वभाव वाले सिख युवा चढ़ूनी को पसन्द करते हैं। ऐसे में यह माना जा सकता है कि यदि चुनाव तक चढ़ूनी अपना एक राजनीतिक ढाँचा खड़ा करने में कामयाब रहे, तो निश्चित ही वोटों का ध्रुवीकरण करने में सफल रहेंगे। हालाँकि यह भी सच है कि चढ़ूनी पंजाब की नहीं, हरियाणा की राजनीति में ज़्यादा सक्रिय रहे हैं।

किसान आन्दोलन की सारी लड़ाई चढ़ूनी ने हरियाणा में ही लड़ी और वह रहने वाले भी हरियाणा के कुरुक्षेत्र के ही हैं। वैसे इतिहास में चढ़ूनी आम आदमी पार्टी के नज़दीक रहे हैं और अभी भी माना जाता है कि उनके पार्टी बनाने में आम आदमी पार्टी की दिलचस्पी हो सकती है। अभी तक कांग्रेस, आप, अकाली दल, पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की पार्टी पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा मैदान में थे। अब चढ़ूनी की पार्टी संयुक्त संघर्ष पार्टी की मैदान में आडटी है। अमरिंदर सिंह के अपनी पार्टी बनाने के बाद चढ़ूनी पंजाब की राजनीति के नये स्टार हैं। देखना है कि वह ख़ुद को कितना जमा पाते हैं। उनके लिए यह चुनौती बड़ी है और उन्हें चुनाव से पहले राजनीतिक ढाँचा खड़ा करना होगा, जो 117 विधानसभा सीटों वाले पंजाब में उतना आसान भी नहीं होगा। अब सवाल यह है कि क्या चढ़ूनी पंजाब की राजनीति में किसानों के नाम पर बड़ा ध्रुवीकरण कर पाएँगे? एक सीमा तक युवाओं को साथ जोडऩे में भले वह सफल हों; लेकिन चुनाव में जीतने के लिए बहुत चीजों की दरकार उन्हें रहेगी। नहीं भूलना चाहिए कि किसानों की लड़ाई लडऩे में सहयोग करने वाली पंजाब में कई ताक़तें रही हैं। राजनीतिक दलों की ही बात करें, तो कांग्रेस सबसे ज़्यादा खुले तौर पर किसानों के साथ रही। उसने किसान आन्दोलन के शुरू से ही ज़मीन पर समर्थन किया और भाजपा का मुखर विरोध कृषि क़ानूनों को लेकर किया।

आम आदमी पार्टी, जो पंजाब में चुनाव के लिए अभी से पूरी ताक़त झोंक रही है; ने भी किसानों के आन्दोलन का समर्थन किया। अकाली दल को लेकर ज़रूर यह आरोप लगता रहा है कि उसने बहुत देरी से तीन कृषि बिलों का विरोध किया, जबकि हरसिमरत कौर के रूप में अकाली दल सीधे मंत्रिमंडल में शामिल था। शुरू में कई ऐसे बयान आये, जिसमें अकाली दल अध्यक्ष और पंजाब के पूर्व उप मुख्यमंत्री सुखबीर सिंह बादल ने कृषि बिलों का लोकसभा समर्थन किया था।

जहाँ तक पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह की बात है, तो कांग्रेस सरकार के नाते उन्होंने किसान आन्दोलन का समर्थन किया। चूँकि यह कांग्रेस की घोषित लाइन थी, उन्हें समर्थन करना ही था। हालाँकि जैसे ही कांग्रेस से उनके रिश्ते तल्ख़ हुए और मुख्यमंत्री पद खोना पड़ा। इसके बाद तो अमरिंदर सिंह सीधे मोदी सरकार और भाजपा के पाले में खड़े दिखे। उन्होंने कहा कि केंद्र तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले ले, तो वह भाजपा को समर्थन देने को तैयार हैं। अब जबकि केंद्र सरकार ने तीन कृषि क़ानूनों को वापस ले लिया है और कैप्टन ने इसका सारा श्रेय प्रधानमंत्री मोदी को दिया है, उससे कम-से-कम कैप्टन अमरिंदर सिंह तो इसका चुनावी लाभ लेने से वंचित रह गये। पंजाब में किसान आन्दोलन के कारण सबसे ज़्यादा नुक़सान का खतरा भाजपा ही झेल रही है। आज भी पंजाब में यदि किसी राजनीतिक पार्टी के नेता या कार्यकर्ता किसानों से सीधे समर्थन माँगने जाने की हिम्मत नहीं जुटा पा रहे हैं, तो वे भाजपा के ही लोग हैं। भाजपा के नेता तो तीन कृषि क़ानून वापस लेने के अपनी ही केंद्र सरकार के फ़ैसले के बावजूद यह मानकर चल रहे हैं कि जनता से उसे ज़्यादा समर्थन की उम्मीद नहीं करनी चाहिए। जहाँ तक आम आदमी पार्टी (आप) की बात है, उसे भरोसा है कि उसे किसानों का विरोध तो किसी भी सूरत में नहीं झेलना पड़ेगा। कांग्रेस की तरह आप भी किसान आन्दोलन के साथ दिखती रही है। लेकिन अब किसान नेता चढ़ूनी के अपनी ही राजनीतिक पार्टी बना लेने से कांग्रेस और आप दोनों के खेमे इस बात से परेशान हैं कि किसान वोट बाँट सकते हैं। यहाँ यह बता देना बहुत महत्त्वपूर्ण है कि गुरनाम सिंह चढ़ूनी 40 किसान संगठनों वाले संयुक्त किसान मोर्चा के सक्रिय सदस्य रहे हैं और किसान आन्दोलन के दौरान हरियाणा में अपने किसान संगठन हरियाणा भारतीय किसान यूनियन के ज़रिये काफ़ी सक्रिय रहे। चढ़ूनी की राजनीति चढ़ूनी ने जब अपनी राजनीतिक पार्टी संयुक्त संघर्ष पार्टी का ऐलान किया, तो उन्होंने कहा कि राजनीति में वह स्वच्छ और ईमानदार लोगों को आगे लाने के मक़सद से आये हैं और जनता की सेवा करना चाहते हैं। वैसे चढ़ूनी ख़ुद पंजाब विधानसभा का चुनाव नहीं लड़ेंगे, न उनकी किसी राजनीतिक दल से गठबन्धन को लेकर कोई बात हुई है। हालाँकि चढ़ूनी ने यह ज़रूर कहा है कि उनकी पार्टी प्रदेश की सभी 117 सीटों पर चुनाव लड़ेगी, जो फ़िलहाल तो सम्भव नहीं दिखता।

अभी उनके किसी सम्भावित गठबन्धन की कोई चर्चा नहीं; लेकिन हैरानी नहीं होगी, यदि कांग्रेस या आप में से किसी एक के साथ उनका तालमेल बन जाए। भाजपा के साथ उनके जाने की सबसे कम सम्भावना दिखती है। हालाँकि यह बहुत दिलचस्प है कि राजनीति के कई जानकार यह जानते हुए कि चढ़ूनी के आने से सबसे ज़्यादा नुक़सान कांग्रेस और आप का होगा। क्योंकि उनके राजनीति में आने को भाजपा की राजनीति के हिसाब से मुफीद मानते हैं। चढ़ूनी युवाओं के अलावा पंजाब की जत्थेवंदियों में काफ़ी पैठ रखते हैं। हालाँकि इससे उनकी नवगठित पार्टी पंजाब में चुनाव जीत सकती है, यह सोचना फ़िलहाल तो अतिशयोक्ति ही होगी। देखना दिलचस्प होगा कि क्या वह किसी दल से चुनावी गठबन्धन करते हैं या नहीं। चढ़ूनी का मक़सद राजनीति में मज़बूत होकर ख़ुद को किसी बड़े किसान नेता के तौर पर उभारना है। वैसे भी हाल के किसान आन्दोलन में उनका बड़ा रोल रहा है और हरियाणा में उन्होंने अपने संगठन के ज़रिये जिस तरह किसान आन्दोलन को धार दी, उससे वह एक मज़बूत किसान नेता के रूप में स्थापित हुए हैं। चढ़ूनी ने राजनीतिक पार्टी बनाने का फ़ैसला अचानक ही नहीं किया है। उनके इस क़दम की चर्चा बहुत पहले शुरू हो गयी थी। पंजाब के किसानों ने ही मोदी सरकार के तीन कृषि क़ानूनों का सबसे ज़्यादा विरोध किया था। जो बड़ा किसान आन्दोलन इस विरोध खड़ा हुआ, उसमें गुरनाम सिंह चढ़ूनी अहम अगुआ की भूमिका में थे। ऐसे में यह तो दिख ही रहा था कि आने वाले समय में पंजाब की चुनावी जंग में वह भी भूमिका निभाएँगे।

यह बिल्कुल सही है कि किसान आन्दोलन और पंजाब कांग्रेस के भीतर चल रही उठापटक ने प्रदेश की सियासत को उलझा कर रख दिया है। कांग्रेस हाल के महीनों में एक बार फिर पंजाब में सरकार दोहराती दिख रही थी। दूसरे दल उसके आसपास भी नहीं थे। लेकिन उसके बाद घटनाओं ने ऐसी पलटी मारी कि आँकड़े अब काफ़ी बदलती दिख रही हैं। चुनाव तक कांग्रेस ख़ुद को कितना सँभाल पाती है, यह देखने वाली बात होगी। ऐसा नहीं कि चढ़ूनी पहले चुनावी जंग में नहीं कूदे हैं। वह बतौर निर्दलीय प्रत्याशी हरियाणा विधानसभा का चुनाव लड़ चुके हैं। हालाँकि उस समय उन्हें हार का सामना करना पड़ा था। यही नहीं सन् 2019 के लोकसभा चुनाव में उनकी पत्नी बलविंदर कौर भी आम आदमी पार्टी के टिकट पर चुनावी मैदान में उतर चुकी हैं। पति की तरह उन्हें भी हार का कड़वा स्वाद चखना पड़ा था। चढ़ूनी ने भले पंजाब में अपनी पार्टी बनाने का ऐलान किया; लेकिन उनके पास अभी तक पंजाब का छ: महीने पुराना स्थायी पता नहीं है। चुनाव आयोग के नियम कहते हैं कि जिस राज्य में कोई व्यक्ति विधानसभा का चुनाव लडऩा चाहता है, उस राज्य का उसके पास कम-से-कम छ: महीने पुराना स्थायी पता होना ज़रूरी है। शायद यही कारण है कि उन्होंने ख़ुद चुनाव लडऩे से इन्कार किया है।

चढ़ूनी का इतिहास देखें, तो वह राजनीति में दिलचस्पी रखते रहे हैं और आम आदमी पार्टी के राजनीति में उभरने के बाद उसके नज़दीक रहे हैं। याद रहे सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में तो आम आदमी पार्टी ने चढ़ूनी को पार्टी का टिकट तक देने के पेशकश की थी। लेकिन उस समय एक मुकदमे में उलझे होने के कारण चढ़ूनी चुनाव नहीं लड़ पाये थे और पार्टी ने उनकी पत्नी को टिकट दिया था। ऐसे में यह कयास लग रहे हैं कि राजनीति में पार्टी बनाकर उनका आना आम आदमी पार्टी को लाभ पहुँचाने के इरादे से हुआ है। किसान नेताओं पर नज़र पंजाब में चढ़ूनी सहित किसान आन्दोलन के दूसरे नेताओं पर अब राजनीतिक दलों की नज़र है। विधानसभा चुनाव से पहले चर्चा है कि कांग्रेस और आम आदमी पार्टी भारतीय किसान यूनियन के प्रधान बलबीर सिंह राजेवाल को अपने समर्थन में लाने की कोशिश में है। राजेवाल को किसी समय अकाली दल के करीब माना जाता था। फ़िलहाल आम आदमी पार्टी की भी उन पर नज़र है। शिरोमणि अकाली दल ने भाजपा के साथ सम्बन्ध तोडऩे के बाद बसपा से गठबन्धन कर लिया था। अकाली दल को पिंड (गाँवों) की पार्टी माना जाता है। वर्तमान में वह किसानों के गढ़ में खोई हुई राजनीतिक जमीन वापस पाने के लिए तरस रही है; जबकि किसानों का उसे कभी समर्थन रहा था।

पंजाब की किसान राजनीति के बड़े चेहरे देखें, तो इनमें दर्शन पाल, बलवीर सिंह राजेवाल, जोगिंदर सिंह उगराहां खास हैं। इसमें कोई दो-राय नहीं कि केंद्र के किसानों के मुद्दों के आगे झुकने से इस वर्ग को ताक़त मिली है। किसान और खेती पंजाब में एक बृहद राजनीतिक असर रखने वाला क्षेत्र हैं। पंजाब का सारा आर्थिक आधार खेती रहा है। सूबे में 75 से 78 फीसदी लोग प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से खेती से जुड़े हैं। ज़ाहिर है अब इस बार का चुनाव किसान और खेती के मुद्दे के रूप में बदल रहा है। इनमें खेतों में काम करने वाले लाखों मजदूर भी हैं।

यह तो प्रत्यक्ष तौर पर जुड़े लोगों की बात है। यदि अप्रत्यक्ष रूप से जुड़े लोगों, क्षेत्रों और वर्गों की बात करें, तो ज़ाहिर होता है कि इसमें गाँवों से लेकर शहरों तक आबादी शामिल है। इनमें आढ़ती और खाद-कीटनाशक के व्यापारी शामिल हैं। इसके अलावा ट्रांसपोर्ट उद्योग भी है, जिसका बड़ा तबका पंजाब में है। ट्रेडर्स भी हैं और एजेंसियाँ भी और शहर से लेकर गाँव के दुकानदार भी। अच्छी फ़सल किसान को बाजार में खरीदारी का अवसर देती है और ज़ाहिर है इससे कई छोटे कारोबार चलते हैं। इन सभी वर्गों से जुड़े लोग सीधे तौर पर सूबे राजनीति को प्रभावित करते हैं।

यही कारण है कि किसान और खेती चुनाव में नज़रअंदाज नहीं किये जा सकते। ऐसे में किसान आन्दोलन ने किसानों को पंजाब की राजनीति में पहले से कहीं अधिक प्रासंगिक कर दिया है। यही कारण है कि आन्दोलन से जुड़े रहे संयुक्त किसान मोर्चा के बड़े चेहरों पर पंजाब के राजनीतिक दल नज़रें गढ़ाये बैठे हैं। मक़सद एक ही है- चुनाव में उनकी किसान में पैठ का फ़ायदा उठाना। भाजपा से दूरी भाजपा से किसान अभी भी नाराज़ हैं, इसका असर इस बात से स्पष्ट होता है कि भाजपा से गठबन्धन की ख़बरों के बाद शिरोमणि अकालीदल (संयुक्त) में बाकायदा फूट पड़ गयी। पार्टी के नेता रणजीत सिंह ने भाजपा के साथ सीटों के तालमेल का खुले रूप से विरोध किया है। यह इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह और भाजपा ने विधानसभा चुनाव के लिए शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) को अपने गठबन्धन का हिस्सा बनाने के संकेत दिये थे। शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के अधिकतर नेता जिस तरह भाजपा के साथ गठबन्धन के ख़िलाफ़ हैं, उससे निश्चित ही अमरिंदर-भाजपा गठबन्धन को झटका लगेगा। यह दिलचस्प है कि अमरिंदर सिंह के कुछ साथी नेता भाजपा के साथ गठबन्धन को लेकर आशंकित रहे हैं। हालाँकि अमरिंदर सिंह को लगता रहा है कि भाजपा के साथ जाना ही बेहतर रहेगा।

शिरोमणि अकाली दल (संयुक्त) के नेता और पूर्व सांसद रणजीत सिंह का कहना है- ‘भाजपा के साथ किसी भी तरह के गठबन्धन के व्यक्तिगत रूप से मैं सख़्त ख़िलाफ़ हूँ। पार्टी के नेता और कार्यकर्ता इस बारे में साफ राय ज़ाहिर कर रहे हैं। पंजाब में भाजपा का जबरदस्त विरोध है। लिहाज़ा सभी इस बात को जानते हैं कि भाजपा के साथ जाना बहुत नुक़सानदेह साबित होगा। ‘रणजीत सिंह साफ कर चुके हैं कि पार्टी का भाजपा के साथ गठबन्धन होता है, तो वह पार्टी का हिस्सा नहीं रहेंगे। पार्टी यह रिपोर्ट लिखे जाने तक 91 उम्मीदवारों के नाम घोषित कर चुकी थी। कुल मिलाकर पंजाब विधानसभा चुनाव में किसान एक बड़ा मु्द्दा बनने जा रहा है। यह देखना होगा कि अगले दो महीने में राज्य की राजनीति क्या रंग लाती है? कांग्रेस सरकार में काफ़ी उठा-पटक से अटकलें लगायी जा रही कि विधानसभा चुनाव के बाद लटकी हुई विधानसभा भी आ सकती है। अगर ऐसा हुआ, तो सभी राजनीतिक दल सरकार की कोशिशें करेंगे, ऐसे में हो सकता है कि कुछ अबूझ गठबन्धन बनें।

 

“बड़े राजनीतिक दल पूँजीवादियों के फ़ायदे वाली नीतियाँ बनाते हैं और ग़रीबों को नज़रअंदाज़ करते हैं। ऐसी राजनीति के कारण ही पूँजीवादियों का देश पर कब्ज़ा होता जा रहा है। इस कारण आम आदमी की बुनियादी ज़रूरतें भी पूरी नहीं हो पा रही हैं। देश को लूटने वाले ऐसे लोगों को बाहर निकालने की ज़रूरत है। हमारी पार्टी की पहचान धर्मनिरपेक्ष रहेगी और यह समाज के सभी वर्गों के कल्याण के लिए काम करेगी। हमारा मानना है कि कृषि क्षेत्रों में बड़े बदलावों की ज़रूरत है, ताकि ज़्यादा-से-ज़्यादा लोगों को रोज़गार मिल सके। साथ ही ऐसी फ़सलों की पैदावार की ज़रूरत है, जिनकी अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में माँग हो।’’

गुरनाम सिंह चढ़ूनी

संयोजक, संयुक्त संघर्ष पार्टी

नये साल की रोशनी!

प्रसिद्ध नाटककार विलियम शेक्सपियर ने लिखा है- ‘यदि आप भविष्य को देख सकते हैं और जान सकते हैं कि आगे क्या होगा, तो मुझसे बात करें।‘  साल 2020 के बाद 2021 ने भी हमें इस हक़ीक़त से रू-ब-रू कराया कि हम बहुत अनिश्चित वक़्त में जी रहे हैं, जहाँ बड़ी योजनाएँ और उच्च संकल्प भी काम नहीं करते। साल 2021 के दौरान दुनिया भर में तबाही मचाने वाले कोरोना वायरस के डेल्टा और ओमिक्रॉन वारियंट वायरसों ने जिस तरह से हमला किया, उससे पीडि़त लोगों ने जीने के लिए ख़ुद को नये माहौल और तरीक़ों में ढाल लिया। ग्लोबल वार्मिंग के साथ कई देशों में सर्दी का मौसम गर्मियों में बदल गया। लेकिन ऐसे अवसर पर भारत ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए पंचामृत की पेशकश की। सोशल मीडिया एक अलग तरह की विषाक्त महामारी का अड्डा बन गया। लेकिन ‘एंड-टू-एंड एन्क्रिप्टेड’  सन्देशों के मूल का पता लगाने के तरीक़े को सक्षम करने के लिए नये नियम लागू किये गये। विश्व स्तर पर ख़बरों की सुर्ख़ियाँ बनने वाली कई और घटनाएँ थीं, जिनमें अमेरिका में जो बाइडन की शानदार शुरुआत, टोक्यो ओलंपिक, अफ़गानिस्तान से अमेरिकी (नाटो) सेनाओं की वापसी, जी7 और कॉप26 जैसे वैश्विक सम्मेलनों के अलावा अरबपति-वित्त पोषित अंतरिक्ष पर्यटन के पहले क़दम की शुरुआत भी हुई।

भारत की बात करें, तो राष्ट्र 21 अक्टूबर तक कोरोना वायरस के टीकाकरण की एक 100 करोड़ ख़ुराक देने में सक्षम हो गया था और अब यह टीकाकरण बढ़कर 1.36 बिलियन (136 करोड़) ख़ुराक के आँकड़े को छू चुका है। देश के पहले चीफ ऑफ डिफेंस स्टाफ जनरल बिपिन रावत, 8 दिसंबर को एक हेलीकॉप्टर दुर्घटना में जान गँवा बैठे, जिसमें उनकी पत्नी और उच्च सैन्य अधिकारियों सहित 13 लोगों की भी मौत हो गयी। एक साल तक चले किसान आन्दोलन का भी 9 दिसंबर को पटाक्षेप हो गया, जब सरकार के आन्दोलन के आगे घुटने टेकने और उनकी माँगों को मानने और भरोसा देने के बाद किसानों ने विरोध-प्रदर्शन स्थगित कर दिया। पश्चिम बंगाल में ममता बनर्जी के नेतृत्व वाली तृणमूल कांग्रेस लगातार तीसरी बार सत्ता में लौटी। इंटरनेशनल कंसोर्टियम ऑफ इन्वेस्टिगेटिव जर्नलिस्ट्स के ‘पंडोरा पेपर्स’ के नाम से ख़ुलासे कर दिये गये, जिसमें 300 भारतीयों के नाम कथित रूप से विदेशी मुद्रा को छिपाने और धनशोधन के मामलों में शामिल थे। इसे साल 23 अगस्त को भारत ने अगले चार वर्षों में छ: ट्रिलियन रुपये (80.90 बिलियन डॉलर) की सार्वजनिक सम्पत्ति का मुद्रीकरण करने का निर्णय किया। एयर इंडिया 70 साल बाद वापस टाटा के पास लौट आयी, जिनकी कम्पनी टाटा सन्स ने एयर इंडिया की नीलामी की बोली जीती। दिलचस्प यह है कि एयर इंडिया की स्थापना सन् 1932 में टाटा एयरलाइंस के नाम से परिवार के वंशज जहाँगीर रतनजी दादाभाई टाटा ने ही की थी।

साल 2021 में वर्चुअल वल्र्ड, वर्क फ्रॉम होम) जीवन बन गया है। यह साल ऐसे अप्रत्याशित समय का सामना करने और इसके सबक़ सीखने और उन्हें सहने का साल भी था। साल का आख़िरी महीना इसके पहले पखबाड़े में 12 दिसंबर को अच्छी ख़बर के साथ समाप्त हुआ। प्रतिष्ठित ‘मिस यूनिवर्स’ का ख़िताब 21 साल बाद फिर भारत की झोली में आ गया, जब चंडीगढ़ में जन्मी हरनाज़ संधू को इज़रायल के ऐलात में हुई प्रतियोगिता के 70वें संस्करण का विजेता घोषित किया गया। उम्मीदों से भरी इस तरह की ख़बरों को बनाये रखने की ज़रूरत है; क्योंकि शो चलता रहना चाहिए। कहा भी गया है- ‘जीवन में कोई पूर्ण विराम नहीं होता, सिर्फ़ उम्मीद और उम्मीद होती है। इसी के साथ ‘तहलका’ अपने पाठकों और संरक्षकों को उम्मीदों, आकांक्षाओं और नये साल के संकल्पों को पूर्ण करने के लिए सुखद और स्वस्थ नव वर्ष की शुभकामनाएँ देता है!

चरणजीत आहुजा

बासी कढ़ी में उफान

पंजाब में ड्रग्स कारोबार का जिन्न फिर आया बाहर, बिक्रमजीत सिंह मजीठिया पर मामला दर्ज

पंजाब में विधानसभा चुनाव से पहले राज्य में ड्रग्स कारोबार का जिन्न बोतल से फिर बाहर आ गया है। राज्य में कांग्रेस की चरणजीत सिंह चन्नी सरकार की हरी झण्डी मिलने के बाद पुलिस ने शिरोमणि अकाली दल (शिअद) के विधायक और पूर्व राजस्व मंत्री बिक्रमजीत सिंह मजीठिया पर मोहाली में एनडीपीएस एक्ट की संगीन धाराओं के तहत मामला दर्ज कर लिया है। पंजाब पुलिस के आग्रह पर केंद्रीय गृह मंत्रालय ने मजीठिया के ख़िलाफ़ लुक आउट सर्कुलर भी जारी कर दिया है। इसके हिसाब से वह देश छोड़कर बाहर नहीं जा सकते। उनकी देर सबेर गिरफ़्तारी भी हो सकती है। यह बासी कढ़ी में उफान जैसा है, जो चुनाव के बाद ख़त्म हो जाएगा।

मजीठिया विधायक और पूर्व मंत्री होने के साथ पार्टी के वरिष्ठ नेता भी हैं। राज्य में शिअद सरकार के दौरान उनकी तूती बोलती थी और ड्रग्स कारोबार से जुड़े होने के आरोप उसी दौर के हैं। उनकी बहन शिअद सांसद और पूर्व केंद्रीय मंत्री हरसिमरत कौर शिअद अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल से ब्याही हुई हैं। इस नाते सुखबीर बादल मजीठिया के जीजा हैं। शिअद मजीठिया के ख़िलाफ़ एनडीपीएस एक्ट के दर्ज मामले को राजनीतिक दुश्मनी के नज़रिये से देख रहा है। पूरी पार्टी मजीठिया के साथ खड़ी नजर आ रही है; लेकिन कांग्रेस के पास अब ड्रग्स मामले की तह तक जाने और 6,000 करोड़ रुपये से ज़्यादा के धन्धे की परतें खोलना मजबूरी है। प्रदेश कांग्रेस अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू, तो विधानसभा में खुले तौर पर मजीठिया के ठीक सामने खड़े होकर उन्हें नशे का सौदागर बता चुके हैं। सिद्धू ने राज्य में गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी मामलों की साज़िश रचने और आरोपियों को संरक्षण देने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की माँग के अलावा पंजाब में ड्रग्स माफिया को बेनक़ाब करने को पार्टी के एजेंडे में रखा है। कैप्टन से राजनीतिक अदावत होने के बाद वे इन दोनों मुद्दों पर सार्वजनिक सभाओं में उठाते रहे हैं और दोनों मामलों में नरम रूख़ अपनाने का आरोप भी लगाते रहे हैं। अब चन्नी सरकार दोनों ही मामलों में काफ़ी सक्रिय दिख रही है।

एंटी ड्रग्स स्पेशल टास्क फोर्स (एसटीएफ) की पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय में दाख़िल स्टेट्स रिपोर्ट के आधार पर मजीठिया की एनडीपीएस एक्ट-1985 के तहत प्राथमिकी दर्ज हुई है। इसके अनुसार, मजीठिया नशा तस्करों को संरक्षण देते रहे हैं और उनके ख़िलाफ़ ठोस सुबूत हैं। सतप्रीत सिंह उर्फ़ सत्ता, परमिंदर सिंह उर्फ़ पिंदी और जगजीत सिंह चहल के बयानों के आधार पर स्पष्ट माना जा सकता है कि मंत्री रहते हुए मजीठिया ने ड्रग्स माफिया को राज्य में पनपने दिया।

एडीजीपी हरप्रीत सिंह सिद्धू की स्टेट्स रिपोर्ट में स्पष्ट उल्लेख है कि ड्रग्स कारोबार से मिला पैसा मजीठिया ने पार्टी फंड के लिए लिया। चहल के बयान अनुसार, वर्ष 2007 और 2012 के दौरान 35 लाख रुपये की राशि कई क़िस्तों में उसने मजीठिया को दी। वर्ष 2013 के दौरान पुलिस नशा कारोबार के मामले में तत्कालीन डीएसपी जगदीश सिंह भोला को गिरफ़्तार किया था। भोला ने कहा था कि पंजाब में नशा कारोबार के पीछे बिक्रमजीत सिंह मजीठिया ही हैं। वह इस माफिया को चला रहे हैं। भोला के इस बयान के बाद सरकार की काफ़ी आलोचना हुई थी; लेकिन तब मजीठिया सरकार में ताकतवर मंत्री के तौर पर जाने जाते थे, इसलिए उनका बाल भी बाँका नहीं हुआ। भोला को मोहाली की विशेष सीबीआई अदालत ने सजा सुनायी थी।

मजीठिया पर सत्ता में रहने के दौरान ड्रग्स माफिया को पनाह, सुरक्षा और वाहन मुहैया कराने के आरोप लगे, वहीं हज़ारों करोड़ के रेत खनन में बेनामी बड़ी हिस्सेदारी के आरोप भी हैं। सबसे बड़ा सवाल यह कि मजीठिया के ख़िलाफ़ यह कार्रवाई चुनाव से ठीक पहले क्यों हुई है? स्टेट्स रिपोर्ट तो वर्ष 2018 की है, तीन साल से ज़्यादा हो गये, इसके लिए इतना इंतज़ार क्यों किया गया? आख़िर कैप्टन सरकार ने कार्रवाई क्यों नहीं की? इसके पीछे भी कोई राज है क्या? जानकारों की राय में स्टेट्स रिपोर्ट बयानों पर आधारित है। उनके अनुसार मामला तो दर्ज हो सकता है। सम्भव है उस आधार पर गिरफ़्तारी भी हो जाए; लेकिन अदालत में बिना ठोस साक्ष्य के यह ज़्यादा मज़बूत नहीं दिखता। इसका सुबूत जाँच ब्यूरो के दो प्रमुखों का बदला जाना है। कैप्टन ने इसे भाँप लिया था, इसलिए सिद्धू की माँग को उन्होंने ज़्यादा महत्त्व नहीं दिया था। पंजाब की राजनीति के महारथी माने जाने वाले कैप्टन के मुक़ाबले चन्नी अनुभवहीन कहे जा सकते हैं। पार्टी में बढ़ते दबाव के चलते उनके पास कार्रवाई करने के अलावा कोई चारा नहीं था।

कैप्टन अमरिंदर सिंह मजीठिया पर एनडीपीएस की धाराओं के तहत प्राथमिकी को कमज़ोर बता चुके हैं। उनकी राय में अदालत में यह मामला ज़्यादा टिकने वाला नहीं है और चुनाव में कांग्रेस को इससे कोई फ़ायदा नहीं होने वाला है। यह सच है कि पंजाब में हज़ारों करोड़ रुपये का नशा कारोबार बिना राजनीतिक संरक्षण के नहीं हुआ; लेकिन राज़ का ख़ुलासा आज तक नहीं हो सका। लगभग एक दशक से पंजाब में ड्रग्स कारोबार का धन्धा करने वाले कई तस्कर पकड़े गये; लेकिन संरक्षण देने वाले ने अपने को बचाये रखा है या उसे बचाया जा रहा है। वर्ष 2017 के चुनाव में कांग्रेस नशा कारोबार जड़ से ख़त्म करने, पूरे माफिया तंत्र को नेस्तानाबूद करने, गुरु ग्रन्थ साहिब की बेअदबी की साज़िश रचने वाले और राज्य में हर घर में रोज़गार देने जैसे वादों पर ही सत्ता नसीब हुई। लेकिन हुआ क्या? नशे का कारोबार आज भी जारी है। बेअमदबी मामलों की जाँच चल रही है। साज़िशकर्ता अभी बेनक़ाब हैं, तो फिर कांग्रेस किस मुँह से वोट माँगेगी? चुनाव से पहले दोनों ही मामलों में कुछ ठोस होने की सम्भावना न के बराबर है। ऐसा न होने पर कांग्रेस मतदाताओं का सीधा सामना नहीं कर सकेगी। दोनों ही मामलों में शिअद की भूमिका मानी जा रही है; लेकिन मौज़ूदा परिप्रेक्ष्य में उसे इससे ज़्यादा नुक़सान होता नहीं दिख रहा है। रही बात पंजाब लोक कांग्रेस और भाजपा के गठजोड़ की, तो उसे इसका फ़ायदा बिल्कुल नहीं मिलेगा। राज्य में प्रमुख विपक्षी पार्टी आम आदमी पार्टी के पास वादे करने को बहुत कुछ है। वह वादा कर सकती है कि सत्ता में आने पर दोनों ही मामलों की तह तक जाकर संरक्षण देने, साज़िश रचने और आरोपियों को सलाख़ों के पीछे पहुँचाएगी। पर सवाल यह कि उसके इन वादों पर भरोसा कौन करेगा? कैप्टन अमरिंदर ने वादा किया; लेकिन जब तक सत्ता में रहे पूरा नहीं कर सके। बेअदबी मामलों में बादल परिवार को फँसाने के आरोप तक लगे। वह मामला उच्च न्यायालय में टिका नहीं, जिससे कैप्टन सरकार की ख़ूब किरकिरी हुई। इसके बाद से सिद्धू पूरी तरह से सक्रिय हो गये। दोनों में 36 का आँकड़ा हो गया, जो अब तक जारी है। अब तो कैप्टन अपनी अलग पार्टी बना चुके हैं। लेकिन वह चुनाव में अप्रत्याशित नतीजे दिखा सकते हैं, इसकी सम्भावना कम ही है।

34 पेज की स्टेट्स रिपोर्ट और 49 पेज की प्राथमिकी दर्ज होने के बाद मजीठिया पर गिरफ़्तारी की तलवार लटक गयी है। उन्हें देश से बाहर भागने या छिपने की कोई ज़रूरत नहीं है। ऐसा करना उनके लिए मुसीबत पैदा करने जैसा होगा। वह जल्द ही सामने आएँगे; क्योंकि उन्हें पता है कि उनके ख़िलाफ़ कोई ठोस साक्ष्य नहीं है। अगर ऐसी बात होती, तो कैप्टन अमरिंदर सिंह स्टेट्स रिपोर्ट दाख़िल होने के बाद उन पर कार्रवाई करा देते।

यही बात शिअद नेता कह रहे हैं, चुनाव से पहले कांग्रेस इस मुद्दे को राजनीतिक फ़ायदा के लिए उठा रही है। अगर मामले में दम होता और मजीठिया की सीधी भागादारी के ठोस सुबूत होते, तो अब तक वह सलाख़ों के पीछे होते और यह कांग्रेस के लिए तुरुत का इक्का साबित होता। इसे राजनीति से हटकर देखें, तो पंजाब में ड्रग्स माफिया ख़त्म होना चाहिए। लेकिन इसके लिए जिस राजनीतिक इच्छा शक्ति की ज़रूरत है, वह किसी पार्टी के पास दिख नहीं रही है।

“ड्रग्स ने पंजाब के युवाओं को जिस गर्त में धकेला है, उसके दोषियों को कड़ी-से-कड़ी सज़ा होनी चाहिए। बिक्रम जीत सिंह मजीठिया पर प्राथमिकी दर्ज कर कांग्रेस सरकार ने बता दिया है कि दोषी बच नहीं सकेंगे। राज्य के लोग छ: साल से ड्रग्स कारोबार को संरक्षण देने वालों पर कार्रवाई का इंतज़ार कर रहे थे। क़ानून अपना काम करेगा और दोषी निश्चित ही सलाख़ों के पीछे जाएँगे। वह इस मुद्दे को शुरू से उठाते रहे हैं, कार्रवाई देर से ज़रूर हुई; लेकिन सरकार ने अपनी मंशा तो दिखायी।“

नवजोत सिंह सिद्धू

अध्यक्ष, पंजाब प्रदेश कांग्रेस

 

 

“मजीठिया पर प्राथमिकी ज़रूर दर्ज हो गयी; लेकिन यह मामला अदालत में टिकेगा नहीं। अगर इतना ही आसान होता, तो अब तक हम भी ठोस कार्रवाई को अंजाम दे देते। हमारे मुख्यमंत्री बनने के बाद पंजाब में नशा कारोबार बहुत कम हो गया। हमारे दौर में कभी राजनीतिक संरक्षण की बात नहीं हुई।“

कैप्टन अमरिंदर सिंह

पूर्व मुख्यमंत्री एवं अध्यक्ष, पंजाब लोक कांग्रेस

सत्ता के नशे में!

मार्क ट्वेंन लिखते हैं- ‘जब आप स्वयं को बहुमत के नज़दीक पाएँ, तो समझ जाइए कि अब ठहरकर सोचने का समय है।‘

भाजपा देश में केंद्र से लेकर राज्यों तक प्रचण्ड बहुमत के लहर पर सवार है। आगामी विधानसभा चुनाव को लेकर पार्टी पूर्ण बहुमत का दावा कर रही है। कई बार सफलता की धुन्ध ख़ामियों के मंज़र ढँक देती है। लेकिन इन ख़ामियों का ख़ामियाज़ा अन्तत: भविष्य भुगतता है। एक यूरोपीय विद्वान लिखते हैं- ‘रोम न एक दिन बना था, न एक दिन में में उसका पतन हुआ।‘

अपने राजनीतिक यात्रा के स्वर्णिम दौर से गुज़र रही भाजपा पर सत्ता का गुरूर तारी है। अमूमन देखा गया है कि भाजपा के नेता, विधायक, सांसद और मंत्री कभी भी ग़ुस्से से इतने भर जाते हैं कि किसी से भी अभद्रता कर बैठते हैं, किसी का भी अपमान कर देते हैं? ये लोग भारतीय राजनीति को हम किस दिशा में लेकर जा रहे हैं? क्या ये हमारे जनप्रतिनिधि हैं?

जो सड़कछाप भाषा का इस्तेमाल करते हैं और गुण्डों कि तरह मारपीट पर उतर आते हैं। ये सवाल देश की जनता को किसी दल से नहीं, बल्कि ख़ुद से पूछना है। विषय की गम्भीरता इससे भी बढ़ती है कि ये जनप्रतिनिधि न सिर्फ़ सत्तारूढ़ दल से सम्बन्धित हैं, बल्कि महत्त्वपूर्ण सांविधिक एवं संवैधानिक पदों पर बैठे हैं। यह सम्भवत: इतिहास का नियम ही है कि राजनीति नैतिकता एवं मूल्यविहीन होती ही है। लेकिन भारतीय राजनीति तो लज्जाविहीन होती जा रही है। वैसे राजनीति एवं नेताओं को क्यों दोष दें, जब समाज ही पतनशीलता का शिकार हो। राजनीति समाज का प्रतिबिम्ब है। राजनीति में समाज का अंतस झाँकता है। आधुनिक समय में जिस तरह समाज की नैतिकताएँ, संवेदनाएँ अधोपतन का शिकार हैं। राजनीति भी इससे अछूती नहीं रही है। कह सकते हैं कि पतनशीलता का रोग राजनीति के लिए युगों पुराना है। सत्ता स्वमेव अहंकार को जन्म देती है। रामचरित मानस के बालकाण्ड में गोस्वामी तुलसीदास लिखते हैं- ‘नहिं कोउ अस जनमा जग माही, प्रभुता पाइ जाहि मद नाही।‘

कठिन अपवादस्वरूप ही कोई चंद्रगुप्त मौर्य सरिखा होता है, जो सत्ता और शक्ति के शीर्ष पर होते हुए इसका परित्याग कर दे। लेकिन यह भी सत्य है कि चंद्रगुप्त मौर्य बनाने के लिए पितातुल्य गुरु और त्यागी-वैरागी प्रधानमंत्री चाणक्य का होना ज़रूरी है। वैसे वर्तमान भारतीय राजनीति में सत्ता त्याग की परिकल्पना एक अति हास्यास्पद तर्क है। लेकिन थोड़ी कोशिशों से सम्राट अशोक जैसा बना जा सकता है, जो सत्ता एवं वैभव की पराकाष्ठा पर भी विनम्र बना रहे हैं। हालाँकि आधुनिक भारत की राजनीति में भी लाल बहादुर शास्त्री और अब्दुल कलाम जैसे जनसेवक लोग हुए हैं। लेकिन अब के नेताओं में इस सेवाभाव का नितांत अभाव है। कुछेक में अगर यह भाव ज़िन्दा भी है, तो उन्हें राजनीति में टिकने या आगे बढऩे नहीं दिया जाता है।

राजनीति के गुणों से हीन नेता कर भी क्या सकते हैं। लखीमपुर खीरी के गाड़ी कांड की ही बात करें, तो नैतिकता के आधार पर तो केंद्रीय गृहराज्य मंत्री को उनके होनहार बेटे की करतूत के बाद ही इस्तीफ़ा दे देना चाहिए था। लेकिन हाल यह है कि उनके लायक बेटे के दोषी सिद्ध होने के बावजूद मंत्री पत्रकार का कालर पकडऩे की हिम्मत करते हैं। वैसे यह वही भाजपा है, जिसके पितृ पुरुष लालकृष्ण आडवाणी ने सन् 1995 में हवालाकांड में शामिल होने का आरोप लगने पर संसद सदस्यता से इस्तीफ़ा दे दिया था तथा बाद में आरोप-मुक्त होने पर ही वह सक्रिय राजनीति में लौटे। लेकिन ये नयी सत्ताधारी भाजपा है, तो पुराने दौर की नैतिकता की उम्मीद मूर्खता होगी।

अगर कैसरगंज और लखीमपुर खीरी के सांसदों को देखिए; ये दोनों कई आपराधिक मामलों में अभियुक्त हैं एवं बाहुबली की छवि रखते हैं। यही नहीं, इस समय सबसे ज़्यादा आपराधिक पृष्ठभूमि के विधायक भाजपा से ही आते हैं। समझ नहीं आता भाजपा किसकी गुंडागर्दी से उत्तर प्रदेश को बचाने की बात कर रही है? और किस सुसंस्कृत छवि का दम्भ भरती है? कुछ लोग मखौल उड़ाते हैं कि सम्भवत: भाजपा के पास कोई विशेष शुद्धिकरण यंत्र हैं, जिसमें इधर से अपराधियों, गुण्डे-मवालियों को डालो और उधर से साधु-महात्मा निकलते हैं।

यह ख़ुद को नैतिकता के प्रतिमान स्थापित करने का दावा करने वाली पार्टी विद् डिफरेंस का हाल है। किसान आन्दोलन को ही लें। भाजपा नेताओं ने किसानों के विरुद्ध जिस तरह बयानबाज़ी की, उन्हें ग़लत और देशद्रोही ठहराने की कोशिश की, और जिस तरह उन पर हमले किये, उससे इन सत्ताधीशों का अहंकार ही प्रदर्शित हुआ। पार्टी का नशा यहीं तक सीमित नहीं है। कल तक कांग्रेस पर संविधान की अवमानना का आरोप लगाने वाली भाजपा ख़ुद भी यही कर रही है।

केंद्रीय मंत्रिमंडल में सिविल सर्विस के कर्मचारियों की भीड़ इकट्ठी हो गयी है। नि:सन्देह वर्तमान विदेश मंत्री और आवास एवं शहरी विकास मंत्रालय के साथ ही पेट्रोलियम मंत्रालय सँभाल रहे मंत्री महोदय योग्य व्यक्ति होंगे। किन्तु न उन्होंने चुनावों में जनता का प्रत्यक्ष सामना किया है और न ही जनता उनके विचारों एवं व्यक्तित्व से परिचित है। ऐसे नौकरशाहों को पिछले दरवाज़े यानी राज्यसभा के माध्यम से सीधे मंत्री पदों पर बैठाना लोकतंत्र को अपमानित करने का एक कुत्सित प्रयास ही माना जाएगा। क्या भाजपा में योग्य नेताओं की कमी है? या अपने ही काडर के प्रति शीर्ष नेतृत्व को भरोसा नहीं है? क्या इस तरह संवैधानिक मूल्यों का अपमान भाजपा का अहंकार नहीं है? अब भाजपा के पास परम्परागत तर्क होगा कि 60 साल में पुरानी कांग्रेस सरकारों ने भी यही ग़लतियाँ की हैं। तो क्या भाजपा को भी उन्हीं ग़लतियों को दोहराना चाहिए?

सत्ता नशें में चूर होने का प्राथमिक लक्षण यही है कि आप अपने संघर्ष के दिनों के साथियों की अनदेखी, यहाँ तक कि निरादर शुरू कर देते हैं। वैसे भाजपा का यह रोग बहुत पुराना है और कहीं-न-कहीं सत्य भी कि वह अपने कार्यकर्ताओं का सम्मान करना नहीं जानती। इसका दुष्परिणाम कैसा होता हैं, इसके लिए सबसे सटीक उदाहरण समाजवादी पार्टी (सपा) का है।

एक समय भारत में सपा के कार्यकर्ताओं से ज़्यादा जुझारू एवं समर्पित कार्यकर्ता किसी भी दल के पास नहीं होते थे। सन् 2003 में इन्हीं कार्यकर्ताओं के संघर्ष से उत्तर प्रदेश में भाजपा-बसपा से सत्ता छीन सपा सत्तारूढ़ हुई। लेकिन सत्ता में आते ही इन्हीं कार्यकर्ताओं की अनदेखी प्रारम्भ हो गयी। तब सपा पर आजमगढ़ के एक राजनीतिक जुगाड़ू नेता का ऐसा प्रभाव था कि शपथ ग्रहण समारोह में दिन-रात पसीना बहाने वाले कार्यकर्ताओं को नीचे दरी पर तथा फ़िल्मी सितारों और व्यवसायियों को मखमली सोफे व कुर्सियों पर बैठाया गया। कार्यकर्ताओं की अनदेखी ने सपा को ज़मीन पर ला पटका। सपा नेतृत्व ने अपनी ग़लती सुधारते हुए जुगाड़ुओं को बाहर का रास्ता दिखाया और अपने कार्यकर्ताओं के दरवाज़े तक मनाने गये। तारीख़ गवाह है कि सन् 2007 की बसपा सरकार के ख़िलाफ़ किसी विपक्षी पार्टी ने सड़क पर उतरकर संघर्ष किया, तो वह सपा ही थी। सपा कार्यकर्ताओं के इस जुझारू संघर्ष ने सन् 2012 में पार्टी की पूर्ण बहुमत वाली सरकार का मार्ग प्रशस्त किया। लेकिन सत्ता का नशा कई बार पुरानी सीख भुला देता है।

जिस राम मन्दिर आन्दोलन ने पार्टी को फ़र्श से अर्श पर पहुँचा दिया। उस दौरान संघ-भाजपा के लिए मुख्य विरोधी सपा सुप्रीमो थे, जिन्हें भाजपा हिन्दुत्व के विरुद्ध खलनायक की तरह प्रस्तुत करती रही है। किन्तु परदे के पीछे उनसे भी सुविधानुसार जुड़ी रही, ऐसी चर्चा निरंतर राजनीतिक गलियारों में चलती रही है। अभी संघ प्रमुख और सपा सुप्रीमो की तस्वीर देखकर भी ऐसी ही चर्चा है।

प्रतीत होता है कि संघीय संस्कारों से पोषित एवं अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहने का दावा करने वाली पार्टी सुविधानुसार संस्कार और सिद्धांत दोनों से समझौते के लिए तैयार रहती है। एक उदाहरण देखिए, बिहार काडर के एक भूतपूर्व आईएएस अधिकारी, जो इस समय बिहार से सांसद एवं केंद्र की भाजपा सरकार में मंत्री हैं; अपने भाजपा विरोधी रूख़ के लिए जाने जाते रहे हैं। लालकृष्ण आडवाणी की गिरफ़्तारी के उत्साह को छोडि़ए, यूपीए सरकार में सचिव रहते हुए उन पर हिन्दू आतंकवाद के सिद्धांतकारों में न सिर्फ़ शामिल होने, बल्कि इसके लक्षित आरोपितों की प्रताडऩा का भी आरोप भाजपा के नेता लगाते रहे थे। लेकिन अब वह विशुद्ध भाजपाई हैं।

अक्टूबर, 1952 को आंग्ल भाषी पत्रिका ‘हितवाद’ में लिखित अपने लेख में तत्कालीन संघ प्रमुख एम.एस. गोलवलकर लिखते हैं- ‘उन तमाम चिह्नों और प्रतीकों को ख़त्म कर दें, जो हमें हमारे अतीत की ग़ुलामी और अपमान की याद दिलाते हैं।‘

यह वक्तव्य ज़रूर दूसरे सन्दर्भ में है; लेकिन यह निश्चित है कि भाजपा नेता अपने आदर्श पुरुषों को भी नहीं पढ़ते। अगर ऐसा होता, तो यह महाशय भाजपा के सांसद एवं केंद्र सरकार में राज्य मंत्री न होते। वैसे उन महानुभाव के कृत्यों की पड़ताल आलेख का विषय नहीं है। साथ ही यह पार्टी का निजी निर्णय है कि वह किसे चुने। परन्तु एक पत्रकार का ध्येय जनता के सामने सत्य उजागर करना है कि नैतिकता के बड़े दावे करने वाले आसानी से समझौते भी करते हैं; बस फ़ायदा दिखना चाहिए।

आजकल भारतीय राजनीति का यह नया चलन है कि राजनीति शौक़ और ऐश-परस्ती का विषय बन गया है; त्याग, समर्पण और सेवा का नहीं। विशेषकर तीन वर्ग सेवानिवृत्ति का आनंद उठाने के ध्येय से नौकरशाह, शौबीज़ यानी सिनेमा, गीत-संगीत से जुड़े लोग एवं आर्थिक लाभ तलाशने वाले व्यवसायी आजकल राजनीति में एकदम से व्यापित होकर उसका गम्भीरता का मखौल उड़ा रहे हैं। ऐसे लोगों का सबसे बड़ा ठिकाना इस समय कोई दल है, तो वह भाजपा है। ऐसे लोग पार्टी से टिकट लेते हैं और दल में विभिन्न पदों पर आसीन होते हैं तथा पार्टी के लिए ज़मीन पर संघर्ष करने वाले कार्यकर्ता हासिये पर धकेल दिये जाते हैं। ऐसे उदाहरणों की सूची लम्बी है।

एक प्रख्यात अभिनेता, जो बिहारी बाबू के उपनाम से जाने जाते थे; भाजपा से तब जुड़े, जब वह दो संसद सदस्यों वाली पार्टी हुआ करती थी तथा भारतीय राजनीति में अपना वजूद बनाने के प्रयास में थी। तब इस अभिनेता ने लगातार पार्टी के लिए चुनाव प्रचार किया, स्वयं भी पटना साहिब से सांसद रहे। यहाँ तक कि जब भाजपा सन् 2004 से 2014 तक एक दशक में पतन की ओर थी, तब भी यह अभिनेता पार्टी के लिए समर्पित रहा। लेकिन सन् 2014 में सत्ता में सुदृढ़ होते ही, उन्हें कूड़े की तरह किनारे कर दिया गया। बाद में उन्होंने पार्टी ही छोड़ दी। वहीं हिन्दी सिनेमा की 80 और 90 के दशक की एक अभिनेत्री को सन् 2018 में भाजपा ने सीधे मुम्बई भाजपा का उपाध्यक्ष बना दिया। पद ग्रहण के साथ ही महोदया ने यह गूढ़ ज्ञान भी दिया कि ‘मुझे लगता है देश केवल उन लोगों की ज़रूरत है, जो देश के लिए समर्पित होना चाहते हैं। ऐसे लोगों की नहीं, जो केवल भविष्य बनाने के लिए राजनीति में हैं।‘ लगे हाथ उन्होंने यह भी बताया कि वह 2004 से ही भाजपा में थीं। लेकिन उनके बच्चे छोटे थे, इसलिए उनके पास समय नहीं था। हालाँकि उसके बाद में सिनेमा और टीवी शो में नज़र आयीं; लेकिन भाजपा के किसी आन्दोलन या चुनावी सभा में नहीं दिखीं।

तीन भोजपुरी के अभिनेता, जो भाजपा विरोधी दलों में सक्रिय रहे, वहाँ से लाभ न मिलता देख तुरन्त पाला बदल भाजपाई हो गये। पार्टी ने टिकट भी दे दिया। इनमें दो दिल्ली और गोरखपुर से सांसद हैं तथा तीसरे आज़मगढ़ से चुनाव हार गये। बात सिर्फ़ इतनी ही नहीं है, भाजपा के निर्वाचित सांसद और विधायकों में एक बड़ी सूची करोड़पतियों की है। सन् 2019 के विधानसभा चुनाव में पार्टी के समर्पित कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए आदमपुर सीट से एक टिकटॉक स्टार को प्रत्याशी बनाया गया और वह चुनाव हार गयी। यह पार्टी का अहंकार ही है, जो जनता को अपनी जागीर समझ बैठी है कि वह जिसे टिकट देगी, जनता उसे चुन लेगी। मध्य-काल में सिकंदर लोदी को भी यही अहंकार था, जो अपने जूते सरदारों के यहाँ भेजकर उनसे उसके सामने कोर्निंश करने को कहता था। इस अपमान का दुष्परिणाम उसके बेटे इब्राहिम लोदी ने भुगता, जब कई अफ़ग़ान सरदार बाबर के विरुद्ध उसकी सहायता करने के बजाय दुश्मन से जा मिले। ये संकेत हैं कि कहीं कार्यकर्ताओं का अपमान उन्हें विरोधी ख़ेमे का सहयोगी न बना दे।

भारतीय राजनीति में आंतरिक दलीय व्यवस्था के मामले मात्र दो ही दल थे- भाजपा और वामदल; जो लोकतंत्र के मूल्यों को पूर्ण करते थे। ये दोनों ही व्यक्तिवादी पार्टियों से भिन्न काडर आधारित दल थे। हालाँकि वामदल इन दिनों हासिये पर हैं। परन्तु अपना आधार बढ़ाने के लिए अपने सिद्धांतों को नहीं छोड़ा। वे आज भी अपने काडर को ही अहमियत देते हैं और उन्हीं की नियुक्ति महत्त्वपूर्ण पदों पर करते हैं। किन्तु भाजपा सत्ता के मद में अपने काडर की अनदेखी करती है। स्थिति यह है कि भाजपा न सिर्फ़ परिवारवादी, बल्कि व्यक्तिवादी दल भी बनती जा रही है।

गुज़रात काडर के एक आईएएस अधिकारी को सीधे उत्तर प्रदेश भाजपा इकाई का उपाध्यक्ष बना दिया गया। इनकी सबसे बड़ी योग्यता है- ‘डेढ़ दशक तक तत्कालीन गुज़रात के मुख्यमंत्री और वर्तमान प्रधानमंत्री के प्रति समर्पण।‘

इसके अतिरिक्त किसी को इन महाशय की ऐसी किसी योग्यता का ज्ञान नहीं कि उन्हें पार्टी के संघर्षशील कार्यकर्ताओं की अनदेखी करते हुए शीर्ष पद पर बैठा दिया जाए।

सत्ता की लहर में सम्भवत: भाजपा के कार्यकर्ता एवं नेता पार्टी में शीर्ष पर उभरे इस सिण्डिकेट को देख नहीं पा रहे, जो सरकार और पार्टी में तानाशाही पर अमादा है। इस स्थिति की तुलना इतिहास के उस दौर से की जा सकती है, जब प्रचार माध्यमों के द्वारा ब्रिटेन की महानता का इतना बड़ा मिथक खड़ा कर दिया गया था कि जिन ग़रीबों की कोठरियों में ठीक से सूरज की रोशनी भी नहीं आती थी, वे भी इस भ्रम में गुम हो गये थे कि ब्रिटिश साम्राज्य का सूरज कभी अस्त नहीं होगा।

इस दुनिया में न कुछ भी स्थिर है, और न ही स्थायी। व$क्त अपने न्याय में बड़ा निर्दयी हैं। वह किसी को नहीं बख़्शता। एक दल के रूप में अपनी सफलता को अपनी स्थायी नियति समझना भाजपा की भूल होगी। कांग्रेस के उत्थान और पतन का उदाहरण सामने ही है। देखना होगा कि हिन्दुत्व की दुंदुभी के शोर में यह सब कब तक ढका रहता है? यह भी देखना है कि जब यह शोर थमेगा, तब कितने शोकगीत सुनायी देंगे? वे, जो इन नेताओं में अपना ईश्वर देख रहे हैं; कब तक इस भ्रम में रहते हैं? नीत्शे लिखते हैं- ‘इन्हीं बीमार लोगों ने ईश्वर की कामना की है और इतने भर से ख़ुश हैं कि उनके लिए सन्देह करना पाप करना है। वे चाहते हैं कि उनका यह विश्वास सभी ओढ़ें।‘

लेकिन इतिहास गवाह है कि ऐसे स्वयंभू ईश्वरों को जनता ने बहुत समय तक बर्दाश्त नहीं किया है। आज की जनता तो इतनी परिपक्व है कि उसने इन्हें नकारना शुरू भी कर दिया है और लगता है कि वह बहुत समय तक इन स्वयंभू ईश्वरों को बर्दाश्त नहीं करेगी।

(लेखक इतिहास और राजनीति के जानकार हैं और उपरोक्त उनके अपने विचार हैं।)

महाराष्ट्र में समुद्र किनारे, पार्कों आदि में घूमने पर पाबंदी लगी

देश में कोविड-19 और ओमिक्रॉन के बढ़ते मामलों के वे बीच महाराष्ट्र में शुक्रवार को आज से ही लागू हो गयी कई पाबंदियों का ऐलान किया गया है। इनमें मुंबई में लोगों के समुद्र तट, खुले मैदानों, उद्यानों, पार्कों या अन्य सार्वजनिक स्थानों पर शाम 5 बजे से लेकर अगले दिन सुबह 5 बजे तक घूमने पर रोक लगा दी है। इससे पहले उत्तर प्रदेश और दिल्ली में भी पाबंदियां लगाई गयी हैं।

मुंबई पुलिस ने आज यह आदेश जारी करते हुए कहा कि यह पाबंदियां 15 जनवरी तक लागू रहेंगी। उनके मुताबिक कोरोना और ओमिक्रॉन  बढ़ते मामलों को देखते हुए यह कदम उठाए गए हैं।

बता दें हाल के दिनों में मुंबई सहित पूरे महाराष्ट्र में कोरोना के नए मामले बहुत तेजी से बढ़े हैं। पुलिस के मुताबिक कोरोना मामलों में बढ़ोतरी और ओमिक्रॉन स्ट्रेन के तेजी से फैलने  से शहर में कोविड-19 महामारी से खतरा बना हुआ है।

याद रहे ओमिक्रॉन वेरिएंट के मामले भी महाराष्ट्र में सबसे ज्यादा हैं। पुलिस के मुताबिक मुम्बई में आज (शुक्रवार) दोपहर एक बजे से लागू होने वाले आदेश के तहत बड़े समारोहों पर भी प्रतिबंध लगा दिया गया है और यह 15 जनवरी तक रहेगा।

जम्मू कश्मीर में इस साल 182 आतंकी ढेर; 100 आपरेशन, 134 युवा बने आतंकवादी

जम्मू कश्मीर में आज ख़त्म हो रहे साल में कुल 182 आतंकवादियों को सुरक्षा बलों ने ढेर किया। साल भर में कुल 100 ऑपरेशन सुरक्षा बलों के तरफ से किये गए। यही नहीं पिछले 48 घंटे में 9 आतंकियों को ठिकाने लगाया गया है। इतिहास में पहली बार  घाटी में स्थानीय आतंकवादियों का आंकड़ा 100 से कम है और विदेशी आतंकियों की संख्या आतंकी भी घटी है।

रिपोर्ट्स के मुताबिक जम्मू कश्मीर के डीजीपी दिलबाग सिंह ने बताया कि इस साल केंद्र शासित क्षेत्र (जम्मू कश्मीर) में 134 युवाओं ने आतंकवादी संगठनों को ज्वाइन किया। उनके मुताबिक इनमें से 72 आतंकियों को ठिकाने लगा दिया गया जबकि  22 को गिरफ्तार किया गया है। पहली बार  घाटी में स्थानीय आतंकवादियों का आंकड़ा 100 से कम है और विदेशी आतंकियों की संख्या आतंकी भी घटी है।

उन्होंने मीडिया को बताया कि जम्मू-कश्मीर में पुलिस और सुरक्षाबलों ने आंतकियों और उनकी मदद करने वालों के खिलाफ अभियान तेज कर रखा है जिसके जबरदस्त नतीजे सामने आए हैं। उन्होंने कहा कि पिछले 2-3 दिन में ही नौ आतंकियों को ढेर कर दिया। जेके पुलिस महानिदेशक के मुताबिक साल भर में करीब 100 सफल ऑपरेशन किये गए हैं जिसमें कुल 182 आतंकियों को मार गिराया गया। इनमें 44 शीर्ष आतंकी या कमांडर शामिल हैं।

दिलबाग सिंह के मुतबिक – ‘इस साल घुसपैठ के मामलों में कमी आई है और सिर्फ 34 आतंकी ही घुसपैठ में सफल हो पाए। इसके अलावा पंथा चौक में एक पुलिस बस पर हमले में शामिल जैश-ए-मोहम्मद के नौ आतंकवादियों को पिछले 24 घंटों में मार गिराया गया।’

उन्होंने यह भी जानकारी दी कि आतंकवादी संगठन जैश-ए-मुहम्मद (जीईएम) के 9 आतंकवादियों को पिछले 48 घंटे के भीतर ढेर कर दिया गया। यह आतंकवादी पांथा चौक इलाके में पुलिस की बस पर हुए हमले में शामिल थे। बता दें आतंकवादियों के दिसंबर में किये हमलों में 3 जवान भी शहीद हुए जबकि 12 से ज्यादा जख्मी हो गए थे।

कश्मीर के आईजीपी विजय कुमार ने गुरुवार को जानकारी दी थी कि केंद्र शासित प्रदेश जम्मू कश्मीर में पहली बार स्थानीय आतंकियों की संख्या 100 से नीचे पहुंची है। ये इतिहास में पहली बार हुआ है जब घाटी में स्थानीय आतंकवादियों का आंकड़ा 100 से कम है और विदेशी आतंकी भी घटे हैं।

नेताओं में रुतबे की गर्मी

सन् 2017 में वीआईपी कल्चर ख़त्म करने के उद्देश्य से लालबत्ती की गाडिय़ों के उपयोग पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने रोक लगा दी थी। लालबत्ती और हूटर के ज़रिये खादी और लालफ़ीताशाही के बेहिसाब रुतबे पर अंकुश लागने के लिए प्रधानमंत्री ने यह फ़रमान सुनाया था। प्रधानमंत्री ने कहा था कि यह काफ़ी पहले ख़त्म हो जाना चाहिए था। ख़ुशी है कि आज एक ठोस शुरुआत हुई है। हर भारतीय ख़ास है, हर भारतीय वीआईपी है।

इस समय ट्रांसपोर्ट मंत्री नितिन गडकरी ने कहा था कि जगह-जगह पर मंत्री लालबत्ती लेकर निकलते थे। इस बात को लेकर लोगों में ग़ुस्सा था। यह लालबत्ती से जुड़ा हुआ वीआईपी कल्चर था। अब अगर कोई इसका पालन नहीं करेगा, तो उसके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई होगी। उन्होंने प्रधानमंत्री के लालबत्ती छीनने के इस निर्णय को बहुत अच्छा निर्णय बताया था। इसी तरह अन्य बीजेपी नेताओं ने भी प्रधानमंत्री के वीआईपी कल्चर ख़त्म करने के निर्णय का स्वागत करते हुए जमकर तारीफ़ की थी।

तब सेन्ट्रल मोटर व्हीकल रूल-1989 में बदलाव करते हुए कहा गया कि केंद्र सरकार और राज्य सरकारें तय करेंगी कि किन गाडिय़ों पर लाल और नीली बत्तियाँ लगेंगी। इसका ज़िक्र इस क़ानून के अधिनियम-108(1)(3) में है। इस क़ानून के अंतर्गत गाड़ी में अतिरिक्त लाइट लगाने पर भी रोक है।

आम नेता भी लेकर घूम रहे हूटर लगी गाडिय़ाँ

उत्तर प्रदेश में कई ऐसे भाजपा नेता हैं, जो वीआईपी कल्चर में दिखने के लिए अपनी गाड़ी पर हूटर, लाल, पीली बत्ती आदि लगाकर चलते हुए मिले हैं। हाल ही में बदाऊँ स्थित सम्भल के भाजपा सह मीडिया प्रभारी और भाजपा नेता विनोद कुमार सैनी अपनी गाड़ी पर पीली बत्ती और हूटर लगाकर खुलेआम घूमते हुए दिखे। जब उनसे एक पत्रकार ने इस बारे में पूछा, तो उन्होंने कहा कि उन्हें इसकी जानकारी नहीं थी। वह इसे उतरवा देंगे। विनोद कुमार सैनी अकेले ऐसे नेता नहीं हैं, जो अपनी पार्टी की सरकार के सत्ता में होने का इस तरह ग़लत फ़ायदा उठा रहे हैं। कई और नेताओं को भी भाजपा का झण्डा लगाकर उस पर कोई न कोई अतिरिक्त बत्ती लगाकर घूम रहे हैं। पुलिस न उनका चालान करती है और न उन्हें रोकती है।

कुछ दिन पहले बरेली के मॉडलटाउन में दो हूटर लगी कारों में सवार होकर चार युवक घूम रहे थे। जब पुलिस ने उन्हें हूटर लगे वाहन लेकर घूमने को लेकर रोका, तो इन युवाओं ने पुलिस को एक बड़े भाजपा नेता से सम्बन्ध होने की धमकी देकर हंगामा किया।

हालाँकि इन युवकों की गाड़ी का पुलिस ने चालान किया, मगर रौब-रुतबे के नशे में चूर युवा पुलिस को भी धमकी देने से नहीं चूके।

जब प्रधानमंत्री ने वीआईपी कल्चर ख़त्म करने की बात कही थी, तब बहुत-से नेता इस कल्चर को छोडऩा नहीं चाह रहे थे, भाजपा की सरकारों वाले कई राज्यों के उनके मातहत नेताओं को इसमें बड़ी तकलीफ़ आयी और आज उत्तर प्रदेश में भी ऐसे कई नेता हैं, जो क़ानून तोड़ रहे हैं।

लालबत्ती और हूटर लगाने को लेकर पिछले इतिहास में पूछे गये सवालों पर भाजपा मंत्रियों और नेताओं ने बड़े अटपटे जवाब दिये हैं। किसी ने कहा है कि उनकी गाड़ी में लगी लाल बत्ती, दरअसल लाल बत्ती नहीं है, बल्कि भीड़भाड़ में लोग हटते नहीं है, तो उन्हें हटाने के लिए है। किसी ने कहा कि हूटर वीआईपी कल्चर में नहीं आता।

उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव को लेकर जल्द ही आचार संहिता लागू हो जाएगी, लेकिन लालबत्ती और हूटर लगाकर चलने वाले नेताओं को पुलिस यह नहीं बता रही है कि यह जो आप कर रहे हैं, यह आम दौर में भी ग़ैर-क़ानूनी है। यह ट्रैफिक नियमों के ख़िलाफ़ है। वहीं नेता वीआईपी कल्चर छोडऩा नहीं चाह रहे। बड़ी बात यह है कि नेताओं से ज़्यादा उनके प्यादे रौब-रुतबे में हैं। इन दिनों चुनाव प्रचार के नाम पर भाजपा नेता दिनरात लोगों के बीच वोट माँगते हुए घूम रहे हैं, मगर उनके रौब-रुतबे कम नहीं हो रहे। चाहे वो भाजपा के प्रदेश अध्यक्ष स्वतंत्र देव सिंह हों या दूसरे कई नेता। हालाँकि सभी नेता ऐसे नहीं हैं।

नेताओं की दबंगई

दबंगई और गुंडागर्दी की बात की जाए, तो हर पार्टी में दबंगई और गुंडागर्दी करने वाले नेता मिल जाएँगे। उत्तर प्रदेश में यह बात बहुत मशहूर है कि जिस भी पार्टी की सरकार बनती है, उसी पार्टी के नेता दबंगई और गुंडागर्दी पर उतर आते हैं। बहुत कम नेता हैं, जो इससे बचते हैं। भाजपा के अधिकतर नेताओं में तो यह बात कूट-कूटकर भरी हुई है। अगर पिछले पौने पाँच साल के उत्तर प्रदेश के भाजपा सरकार में नेताओं, मंत्रियों और विधायकों का मोटा-मोटा रिपोर्टकार्ड देखें, तो पता चलता है कि कइयों ने दबंगों और गुंडों की तरह ही आतंक मचाया है। हाथरस कांड में भी पीडि़त परिवार के ख़िलाफ़ भाजपा नेताओं की दबंगई पूरी तरह सामने आयी। इसके पहले योगी के क़रीबी दो बड़े नेताओं पर बलात्कार करके पीडि़ताओं के परिवार वालों को भी ठिकाने लगाने के आरोप लगे। उन्नाव में तो कुलदीप सिंह सेंगर पर पीडि़ता को ज़िन्दा जलाने और उसके परिजनों की हत्या कराने तक के आरोप लगे। इसके अलावा स्वामी चिनमयानंद पर भी बलात्कार के आरोप लगे। पिछले साल अप्रैल में ख़बर आयी कि एक बच्चे द्वारा जय श्रीराम का नारा न लगाने पर भाजपा नेता ने उसे इतना पीटा कि उसे अस्पताल में भर्ती कराना पड़ा।

बीच-बीच में भी भाजपा के सत्ताधारी नेता गुण्डागर्दी करते दिखते रहे हैं। यहाँ तक कि प्रदेश में पुलिस अधिकारी तक की हत्या की गयी और बाद में पुलिस अधिकारी को मारने वाले का फूल-मालाओं से स्वागत किया गया। हाल ही में केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा टेनी के दबंग बेटे ने किसानों पर गाड़ी चढ़ाई, गोली चलायी। उनके दोषी सिद्ध होने के सवाल पर ख़ुद गृह राज्य मंत्री अजय मिश्रा टेनी ने पत्रकार को कॉलर पकड़कर धक्का देते हुए बदतमीजी की।

इसके बाद गोंडा के कैसरगंज से सांसद और भारतीय कुश्ती संघ के अध्यक्ष बृजभूषण शरण सिंह ने झारखण्ड की राजधानी रांची के खेल गाँव स्थित मेगा स्पोट्र्स स्टेडियम में मंच पर शिकायत लेकर उत्साहपूर्वक पहुँचे एक अंडर-15 के नेशनल कुश्ती चैंपियन को थप्पड़ों से ख़ूब मारा। बताया जा रहा है कि मेगा स्पोट्र्स स्टेडियम में तीन दिवसीय अंडर-15 नेशनल कुश्ती चैंपियनशिप का आयोजन किया गया था, जिसमें मुख्य अतिथि के तौर बृजभूषण शरण सिंह इस आयोजन का उद्घाटन करने के लिए मंच पर मौज़ूद थे। बताया जा रहा है कि जिस पहलवान को उन्होंने थप्पड़ों से ख़ूब पीटा। युवक एक होनहार खिलाड़ी है और ख़ुद को डिस्क्वालिफाई किये जाने की शिकायत करने सांसद के पास पहुँचा था। सांसद ने पहलवान की शिकायत सुने बग़ैर ही उस पर ज़ोरदार थप्पड़ों की बारिश कर दी। बाद में उसी पर अनुशासनहीनता का आरोप लगाते हुए कहा कि मैं अनुशासनहीनता बर्दाशत नहीं करता।

असल बात यह है कि योगी भी बदतमीजी से पीछे नहीं रहे हैं। बीते साल एक पत्रकार से ख़ुद मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ अभद्रता से पेश आ चुके हैं। उन्होंने एक बयान के दौरान पत्रकार को चूतिया कहा था, जिसे उत्तर प्रदेश में गाली माना जाता है। इतना ही नहीं, योगी दावा करते हैं कि वह आम जनता के सच्चे साधु नेता हैं, जो किसी से भी खुलकर मिलते हैं, मगर यह सच है कि उनसे मिलने के प्रयास में विपक्षी नेताओं पर एफआईआर दर्ज होती है, तो शिक्षकों को लाठियों से दौड़ा-दौड़ाकर पीटा जाता है। भाजपा के नेताओं का धमकी देना तो आम बात बन चुकी है। कई बार भाजपा के केंद्रीय मंत्री, सांसद और उत्तर प्रदेश के मंत्री व विधायक लोगों को धमकियाँ देते देखे गये हैं। मगर उन्हें यह नहीं भूलना चाहिए कि न तो पद और रुतबा हमेशा रहता है और न जनता ही कुछ भूलती है।

दुर्भाग्य यह है कि सत्ता में आते ही नेता रौब-रुतबे के नशे में चौथे आसमान में उडऩे लगते हैं और भूल जाते हैं कि वे भी इसी ज़मीन पर रहते हैं। यह रौब-रुतबा लगभग हर पार्टी की सरकार बनने पर उसके कुछ नेताओं में आ ही जाता है; चाहे वह भाजपा की वर्तमान सरकार हो या फिर समाजवादी पार्टी की पिछली सरकार। इस पर तत्काल रोक लगनी चाहिए, अन्यथा जनता में नेता अपना ख़ौफ़ भले ही पैदा करने में सफल हो जाएँ, मगर जनता में उनका सम्मान नहीं रहेगा। अगर पिछले पाँच दशकों में राजनीति और नेताओं के रौब-रुतबे में अगर अन्तर देखें, तो पता चलता है कि लोग पहले के नेताओं का सम्मान करते थे और अबके नेताओं को पीछे गालियाँ देते हैं। इसकी वजह यही है कि पहले के नेता जनता की सुनते थे और ख़ुद को उसका सेवक मानते थे। वहीं अबके नेता जनता को केवल मत (वोट) माँगने के समय ही हाथ जोड़-जोड़कर नमस्कार करते हैं। मगर जीतने के बाद उसे पैर की जूती से ज़्यादा कुछ नहीं समझते।

जारी रहेगी महँगाई और बेरोज़गारी

कहते हैं कि कोई भी समस्या हो एक-दो दिन में नहीं आती है, बल्कि उसकी दस्तक महीनों पहले दिखायी देने लगती है। मौज़ूदा समय में महँगाई और बेरोज़गारी आज की समस्या नहीं, बल्कि यह समस्या सदियों पुरानी है और इसका अन्त आसान नहीं दिख रहा है। आर्थिक मामलों के जानकारों का कहना है कि मौज़ूदा सरकार हो या पूर्व की सरकारें। दोनों ने सही मायने में इस मामले पर सार्थक प्रयास नहीं किये हैं कि कैसे इस समस्या से निजात मिल सके।

देश में लगातार महँगाई की मार से ग़रीब और मध्यम वर्ग आहत है। जबकि सरकार इस क़वायद में जुटी है कि महँगाई और बेरोज़गारी जैसी समस्या से बचा जा सके। पहले से धीरे-धीरे कमज़ोर होती देश की अर्थ-व्यवस्था 2020-21 की तमाम कोरोना महामारी के चलते ध्वस्त पड़ी है। ‘तहलका’ को दिल्ली विश्वविद्यालय के आर्थिक मामलों के जानकार डॉक्टर एच.के. खन्ना ने बताया कि भारत ही नहीं, दुनिया के कई विकसित देश भी महँगाई का दंश महसूस कर रहे हैं। इसकी वजह साफ़ है कि वैश्विक महामारी का होना है।

डॉक्टर खन्ना का कहना है कि कोरोना महामारी से जैसे-तैसे अर्थ-व्यवस्थाएँ पटरी पर आयी थी। फिर अचानक ओमिक्रॉन जैसी बीमारी से बाज़ार भयभीत होने लगा है। वहीं सरकार की कुछ लचर सोच भी आशंकाओं को जन्म देती है, जिसके चलते महँगाई और बेरोज़गारी बढ़ती जाती है। इसको तोड़-पाना मुश्किल होता है। उनका कहना है कि रिजर्व बैंक ने वर्ष 2022-23 के लिए सीपीआई मुद्रास्फीति के 5.2 फ़ीसदी तक रहने की उम्मीद जतायी है, जिसके कारण मौज़ूदा वित्त वर्ष में महँगाई 5.8 तक पहुँचने की सम्भावना है। ऐसे हालात में महँगाई को क़ाबू पाना मुश्किल हो सकता है। महँगाई अपनी गति से जारी रहेगी। वही आर्थिक मामलों के जानकार सचिन सिंह का कहना है कि महँगाई की मार लगातार जारी रहने की मुख्य वजह प्रबन्धन का कमज़ोर होना है। जब तक सच का सामना नहीं किया जाएगा, तब तक महँगाई और बेरोज़गारी रूपी समस्याओं से दो-चार होना पड़ेगा। उनका कहना है कि सरकार न तो ग़रीबों की समस्याओं पर ध्यान दे रही है और न ही व्यापारियों को दिक़्क़तों को समझने का प्रयास कर रही है। जबसे देश में नोटबन्दी हुई है, तबसे देश में महँगाई और बेरोज़गारी बढ़ी है। कोरोना महामारी तो दो साल से आयी है।

हालाँकि महँगाई और बेरोज़गारी की यह भी एक वजह है। लेकिन भारतीय अर्थ-व्यवस्था का ताना-बाना पहले ही कमज़ोर होने लगा था। आज ग़रीबों को बाज़ारों से दाल, चावल, सब्ज़ियाँ के दाम बढ़ते दामों से ही नहीं, बल्कि गैस सिलेण्डरों के दामों में हो रहे इज़ाफ़ा से पसीना छूट रहा है। उनका कहना है कि महँगाई और बेरोज़गारी के लिए एक ही ज़िम्मेदार नहीं है। बल्कि मौज़ूदा और पूर्व की सरकारें ज़िम्मेदार हैं। सचिन सिंह का कहना है कि सरकार को उनके सलाहकार सरकार को ख़ुश करने के लिए हाँ-में-हाँ मिलाते हैं; जबकि सच्चाई में धरातल को समझे बिना ख़जाने भरने की सलाह दी जाती है। जैसे मौज़ूदा दौर में सरकार इस बात पर ज़ोर दे रही है कि कोरोना-काल में जो सरकारी ख़जाने ख़ाली हुए हैं, उसको कैसे भरा जाए? इसी के कारण पेट्रोलियम पदार्थों पर कर (टैक्स) की दर बढ़ायी जा रही है। पेट्रोलियम पदार्थों पर लगने वाली एक्साइज ड्यूटी से आया पैसा सीधे तौर पर सरकारी ख़जाने में जाता है। राज्य सरकारें भी अपने-अपने ख़जाने को भरने के लिए जीएसटी को बढ़ाने में लगी हैं। इससे व्यापारियों में $खासा रोष है। व्यापारियों का कहना है कि जब वस्तुओं पर जीएसटी रूपी कर थोपा जाएगा, तो महँगाई स्वाभाविक रूप से बढ़ेगी।

अक्टूबर महीने से पेट्रोल-डीजल के दामों में हुए इज़ाफ़े से खाद्य सामग्री महँगी हुई है। इसके चलते जनता में काफ़ी रोष है। उनका कहना है कि कोरोना के चलते तमाम लोगों के कारोबार बन्द हुए, तो कई लोगों का रोज़गार गया है। ऐसे में मध्यम और ग़रीबों को आर्थिक संकट का सामना करना पड़ा है। रही-सही क़सर गैस सिलेण्डर के बढ़ते हुए दाम ने निकाल दी है। जनवरी, 2021 से दिसंबर तक गैस के दामों में 8-10 बार बढ़ोतरी हुई है। बताते चलें कि मार्च, 2014 में घरेलू गैस सिलेण्डर के दाम 410 रुपये थे। लेकिन अब 900 रुपये के क़रीब गैस सिलेंडर मिलता है। यानी सात साल में गैस सिलेण्डर के दाम दोगुने हुए हैं। ऐसे में मध्यम और ग़रीब वर्ग के लोगों को काफ़ी परेशानी हो रही है। दिल्ली के व्यापारियों का कहना है कि सरकार को मौक़े की नजाक़त को समझना होगा, तब जाकर कुछ हद तक महँगाई पर क़ाबू पाया जा सकता है।

व्यापारी संजीव अग्रवाल का कहना है कि हाल में ओमिक्रॉन के चलते बाज़ार असमंजस के दौर से गुज़र रहा है। व्यापारियों ने कोरोना महामारी के दौरान बहुत चढ़ाव-उतार देखे हैं। लेकिन इतना डर उनमें कभी नहीं दिखा। आज वे कोई भी बड़ा काम करने से पहले कई दफ़ा सोचने को मजबूर हो रहे हैं कि काम-काज किया जाए अथवा नहीं। बाज़ार मंदी के दौर से गुज़र रहा है और ऊपर से सरकार ने हाल में कपड़ा और जूता सहित कई ज़रूरी सामानों पर जीएसटी थोपने का फ़ैसला लिया है। इससे व्यापारियों में नाराज़गी है। पहले से ही महँगाई बहुत है, इस पर अगर ज़रूरी सामान और महँगा होगा, तो पहले से कमज़ोर हो रखी बिक्री पर बुरा असर पड़ेगा। इसी सरकार ने कहा था कि एक देश-एक कर लगेगा, जिससे व्यापारियों को कर भरने और ग्राहकों को ख़रीद करने में राहत मिलेगी। लेकिन सच तो यह है कि दोनों ही आज मुसीबत में हैं। सरकार को जीएसटी बढ़ाने पर थोड़ा कर (टैक्स) और बढ़कर मिल जाएगा। लेकिन इससे व्यापारी और ग्राहकों पर मार पड़ेगी। इसलिए सरकार को तब तक जीएसटी की ओर ध्यान तक नहीं देना चाहिए, जब तक कोरोना जैसी महामारी का पूर्णतया सफ़ाया नहीं हो जाता।

टैक्स एक्सपर्ट राजकुमार का कहना है कि महँगाई और बेरोज़गारी का दंश तो सदियों पुराना है, जिसका समाधान तो कम हुआ है। लेकिन व्यवधान को तौर पर राजनीति दलों ने जमकर रोटियाँ सेंकी हैं, जिसके कारण समस्या जस की तस बनी हुई है। राजकुमार का कहना है कि महात्मा गाँधी कहा करते थे कि जब तक खेत-खलिहान हरे-भरे नहीं होंगे, तब तक बाज़ार हरा-भरा नहीं हो सकता। इसलिए सरकार को बाज़ार भरने के लिए खेत-खलिहानों पर ध्यान देना होगा। किसानों और गाँवों की समस्या पर ध्यान देना होगा। ताकि गाँव से लोगों का पलायन रुके। गाँव के लोगों के पास आज काम नहीं है, जिसकी वजह यह है कि सरकार गाँव के लोगों के लिए योजनाएँ तो बनाती है; लेकिन उस पर धरातल पर काम हो रहा है कि नहीं, इस पर न सरकार ध्यान देती है और प्रशासन ही ग़ौर करता है। पूर्व की सरकार ने गाँव वालों को रोज़गार मुहैया कराने के लिए मनरेगा योजना को लागू किया है। लेकिन उस पर कितना अमल हो रहा है।

गाँव वालों को रोज़गार मिल रहा है कि नहीं कि अफ़सरों के पेट भर रहे हैं। इस पर ग़ौर करना है। दख़ल देनी होगी। राजकुमार का कहना है टैक्स से ख़जाने से तो भरे जा सकते है; लेकिन ग़रीबी, महँगाई और बेरोज़गार को कम नहीं किया जा सकता है। इसलिए सरकार को चाहिए वे गाँवों पर रोज़गार देने के लिए ज़्यादा-से-ज़्यादा काम करें। गाँव वाले के पास हुनर है, मेहनत-मज़दूरी करने की अपार क्षमता है। दिल्ली सरकार के पूर्व अधिकारी व अर्थ शास्त्री मोती लाल का कहना है कि जब तक देश में जमाख़ोरों के ख़िलाफ़ सरकार कड़ी कार्रवाई नहीं करती है।

तब तक देश में महँगाई सुरसा की तरह मुँह फैलाये खड़ी रहेगी। उन्होंने बताया कि जब अफ़ग़ानिस्तान-तालिबान के बीच गोलाबारी हो रही थी। तब देश के बड़े-बड़े सियासत दान बादाम, अखरोट और दालों की जमाख़ोरी करने में लगे थे। एक माहौल भी बनाया जा रहा था कि देश-दुनिया का आयात-निर्यात प्रभावित हो सकता है। इसलिए दालों के साथ बादाम-अखरोट के दामों में भारी उछाल आया था। महँगाई को बड़े-बड़े व्यापारी प्रोत्साहन देने में लगे थे। मोती लाल कहना है कि जान-बूझकर महँगाई को बढ़ाने का जो प्रयास करते हैं। सरकार को उनके ख़िलाफ़ क़ानूनी कार्रवाई करनी होगी, अन्यथा महँगाई जैसी बीमारी देश के ग़रीबों और मध्यम वर्ग को लोगों को ढँसती रहेगी। उनका कहना है कि देश के कुछ पूँजीपतियों के दलाल मौक़े की तलाश में रहते है। वे इतने माहिर होते है कि सर्दी, गर्मी और बरसात में कोई न कोई तरीक़ा निकालकर बाज़ार में महँगाई ला ही देते हैं। जैसे दिसंबर माह में सर्दी के प्रकोप के साथ ही उन्होंने सब्जियों के दामों में इज़ाफ़ा करके अपने जैबे भरी है। जैसे हरी सब्ज़ी के दाम में गोभी की सब्ज़ी सहित अन्य सब्ज़ियाँ को दाम बढ़े हैं। जो कि दिसंबर के पहले सप्ताह तक काफ़ी कम थे।

कुल मिलाकर महँगाई को प्रोत्साहन देने वालें जमाख़ोरों पर जब तक ठोक क़ानूनी कार्रवाई नहीं होगी, तब तक महँगाई का दंश झेलना ही होगा। उनका कहना कि बेरोज़गारी बढऩे के पीछे सरकार की अनदेखी है, जिसके कारण कई क़ारख़ाने बन्द हो रहे हैं। वजह बतायी जा रही है कोरोना महामारी, जबकि सच्चाई ये है कि निजीकरण के चलते पूँजीपति अपनी तानाशाही के चलते कई कर्मचारियों को मौक़ा-बे-मौक़ा नौकरी से निकाल रहे हैं।

कौन लेगा बेघरों की सुध?

हमारे देश में सड़कों पर जीवन बिताने वालों की संख्या दिन-ब-दिन बढ़ती जा रही है। ऐसे लोगों की बड़ी तादाद हर राज्य और हर राज्य के हर जनपद में है। कुछ लोगों को ऐसा लगता है कि यह सब लोग काम नहीं करना चाहते और भीख माँगने के चक्कर में या मुफ़्त की रोटियाँ तोडऩे के चक्कर में सड़कों के किनारे या ब्रिजों के नीचे पड़े रहते हैं। हो सकता है कि कुछ लोग इस सोच के चलते बेघर हों, लेकिन बहुत-से लोगों की ऐसी नीयत नहीं होती। दरअसल ये समाज से कटे हुए तिरस्कृत लोग हैं। यह बात मेरी भी समझ में तब आयी, जब मैंने अहमदाबाद शहर के ईशनपुर ब्रिज के नीचे सड़क किनारे मैले-कुचैले कपड़ों में ठंड में ठिठुरते कुछ परिवारों को देखकर उनसे बातचीत की। ठंड में ब्रिजों के नीचे और शहर के दूसरे कई हिस्सों में ऐसे बहुत-से लोग मिल जाएँगे। इसमें कोई दो-राय नहीं कि इन लोगों में से कई नशा आदि भी करते हैं और भीख माँगकर गुजारा करते हैं। लेकिन बहुत से ऐसे भी हैं, जो मेहनत करते हैं, लेकिन उससे इतना पैसा नहीं कमा पाते कि ये रहने के लिए एक 4 वाई 6 का कच्चा कमरा भी बना सकें। हालाँकि कहा जाता है कि अगर जुनून हो, तो एक महागरीब आदमी भी दुनिया का सबसे अमीर आदमी बन सकता है। लेकिन उसके लिए कुछ कर गुज़रने की ललक होनी चाहिए, जो इन सड़क किनारे पड़े हुए लोगों में कहीं नहीं दिखती। यही वजह है कि झमाझम बारिश हो, तन जला देनी वाली गर्मी हो या फिर हाड़ कंपा देने वाली सर्दी, इन लोगों का जीवन खुली सड़कों के किनारे, चौराहों पर या किसी ब्रिज के नीचे ही कट जाता है और इनके बच्चे इसी जीवन को आगे ढोते रहते हैं।

बेघरों की पीड़ा

अहमदाबाद मेन शहर में ईशनपुर ब्रिज के नीचे और वहीं सड़क किनारे खुले में जीवन बिताते दर्ज़नों परिवारों से बातचीत पर पता चला कि यह लोग पूरी तरह से बेघर हैं। इनमें एक महिला शालूबेन ने बताया कि उनके माता-पिता कौन हैं, उन्हें तो पता ही नहीं है। जब होश सँभाला तबसे सड़क पर ही हैं। अब उनके तीन बच्चे हैं। काम के बारे में पूछने पर उन्होंने बताया कि लोगों से माँगकर खा लेते हैं, कोई बड़े लोग कपड़ा भी दे देते हैं। उनसे जब कहा गया कि देश के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी यहीं गुज़रात के हैं, तो शीलाबेन ने कहा हमने तो नहीं देखा, सुनते हैं।

वहीं बगल में गंदे से फटे-पुराने गद्दे पर काला गंदा कंबल ओढ़कर एक मैला-कुचैला 30-35 साल का आदमी बैठा था। उसने अपना नाम कांडिय़ाँ बताया। बोला- उसका असल नाम तो राजू भाई है, पर उसे बचपन से लोग कांडिय़ाँ कहने लगे, इसलिए उसका नाम कांडिय़ाँ पड़ गया। उससे पूछा यहाँ कब से है, तो उसने बताया कि उसे नहीं पता, वह बचपन से ऐसे ही रहता है। जब राजू से कहा कि आप लोग घर में क्यों नहीं रहते, तो उसने कहा- हम लोग का घर कहाँ है? तुम्हारे बीबी-बच्चे हैं? यह पूछने पर राजू ने दूर एक चौराहे की तरफ़ उँगली से इशारा करते हुए कहा- वो उधर होगा। ईशनपुर ब्रिज के नीचे रहने वाले कुछ लोग गुज़रात के कठियावाड़ क्षेत्र से हैं, जो कुछ बोलने को तैयार ही नहीं हुए।

अहमदाबाद के नारौल से सटे नगर से बाहर की ओर पेड़ों के नीचे पाँच-छ: परिवार पन्नी डालकर खुले में रहते हैं। इन लोगों से खुले में रहने की वजह पूछी, तो इन्होंने दु:खी होते हुए कहा- ‘क्या करें बहन कोरोना में काम ही नहीं रहा, कम्पनियों में काम ही नहीं है। कभी-कभार मजदूरी मिल जा ही नहीं कि मकान का भाड़ा भर सकें। अपने पास पूँजी नहीं थी, तभी तो अपने देश (प्रदेश) से यहाँ रोटी कमाने आये, अब यहाँ से कहाँ जाएँ।‘ पूछने पर मालूम हुआ कि ये लोग मध्य प्रदेश से हैं। इस तरह के बहुत-से प्रवासी गुज़रात में हैं।

मेहनती भी होते हैं बेघर

जब किसी को चौराहों पर, ब्रिजों के नीचे गंदे कपड़ों में लोगों का छोटा-बड़ा समूह दिखता है, तो ज़्यादातर लोग उनके बारे में यही सोचते हैं कि यह लोग काम-धन्धा नहीं करते, नशे में रहते हैं और भीख माँगकर खाते हैं। लेकिन ऐसा नहीं है। सड़कों के किनाने और ब्रिजों के नीचे रहने वाले अनेक लोग काफ़ी मेहनती होते हैं और इनके परिवारों की कहानी बड़ी दर्दनाक होती है। अमूमन इन लोगों को गुलदस्ते बनाकर बेचते हुए और चौराहों पर छोटे-मोटे सामान बेचते हुए देखा जाता है। ईशनपुर ब्रिज के ही बराबर में नारोल रोड किनारे पर पन्नी की छोटी-छोटी झोंपडिय़ों में कुछ परिवार मुख्य सूप और गुलदस्ते बनाकर बेचते हैं। इसके अलावा अहमदाबाद के ही सालम में सड़क किनारे सैकड़ों झुग्गियाँ बनी हुई हैं। यूँ तो देखा जाए, तो ये लोग भी बेघर ही हैं, क्योंकि इनके पास इनकी झुग्गी-झोंपड़ी के अलावा और कोई जायदाद नहीं होती है। लेकिन ये लोग लोहे के औ$जार बनाने से लेकर कई छोटे-मोटे काम करते हैं, जो इनके ख़ुद के हैं। इन लोगों का खानपान भी ठीक होता है और पहनावा भी ठीकठाक ही होता है। मेहनती भी होते हैं; लेकिन ज़मीन ख़रीदकर पक्के मकान बनाने से ये भी बचते हैं। ये लोग भिक्षावृत्ति से बेहतर काम करना समझते हैं। हालाँकि देश में बेघरों, सड़क किनारे झुग्गी-झोंपडिय़ों में रहने वालों की दशा काम न करने वालों से बहुत ज़्यादा बेहतर नहीं दिखती, लेकिन इनमें और उनमें यह अन्तर है कि यह काम करके कुछ पैसा कमा लेते हैं और न काम करने वालों से कहीं बेहतर और जीवन जीते हैं। वहीं काम से बचने वाले माँगकर पैसे और भोजन का जुगाड़ करते हैं। ऐसे लोग पैदा होने वाले बच्चों को भी भिक्षावृत्ति में इस्तेमाल करते हैं और जब यह बच्चे थोड़े बड़े होते हैं, तो उन्हें भीख माँगना ही अपने जीवनयापन का ज़रिया दिखता है। नशा इनमें से अधिकतर किशोरों, युवाओं और बड़ों की आदत में शुमार होता है। शायद इस नशे के चलते ही यह लोग इस तरह की ज़िन्दगी जी पाते हैं। अन्यथा बदबूदार कपड़ों में किसी दिमाग़ी सन्तुलन खोने वाले व्यक्ति के अलावा कौन रह सकता है?

देश में करोड़ों की संख्या में हैं बेघर

2018 की एक सर्वे रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत में जितने लोग बेघर हैं, उनकी संख्या मलेशिया की कुल आबादी से भी अधिक है। रिपोर्ट में कहा गया था कि भारत के बेघरों से छोटे-छोटे कई देश बस सकते हैं। देश में सबसे ज़्यादा बेघर कहाँ है, इसके सही-सही आँकड़े तो अभी तक किसी के पास नहीं हैं। लेकिन इस मामले में राज्य सरकारें अपने-अपने यहाँ के आँकड़े छिपाती दिखती हैं। सरकारें होम सेल्टर बनवाकर बेघरों के रहने का दावा करके अपने आप को बेघरों का हिमायती साबित करने में आगे रहती हैं। लेकिन इस सच्चाई से कोई भी राज्य सरकार मुँह नहीं मोड़ सकती कि उसके राज्य में हर शहर में हज़ारों की संख्या में बेघर रहते हैं।

हर साल हज़ारों बेघरों की मौत खुले आसमान के नीचे सोने के चलते हो जाती है। यही नहीं, कई बार फुटपाथ पर सोने वाले अनियंत्रित वाहनों के नीचे कुचलकर बेमौत मारे जाते हैं। देश के बड़े शहरों में बेघरों की संख्या बहुत अधिक है। इनमें कई परिवार तो ऐसे हैं, जो दूर गाँवों से बेघर होने के बाद या भुखमरी से तंग आकर शहरों में आश्रय लेकर बस गये हैं। कई राज्य सरकारों ने बेघरों के लिए काफ़ी कुछ किया है, लेकिन फिर भी इनकी संख्या कम होती दिखायी नहीं देती। कितने ही लोग बेघर होने के चलते रेलवे स्टेशनों पर पड़े रहते हैं, तो कुछ रेल पटरियों के किनारे बस जाते हैं। यानी इन लोगों को जहाँ भी ठिकाना मिलता है, बस जाते हैं। इनमें से कुछ तो झुग्गी-झोंपड़ी बना लेते हैं, और कुछ बिना छत के ही रहते हैं।

कई बार इनके ठिकाने भी बदल जाते हैं। भारत सरकार और देश के राज्यों की सरकारें बेघरों की रोजी-रोटी और ठिकाने के लिए आज तक कोई ठोस उपाय नहीं कर सके हैं। उन बेघरों के लिए भी नहीं, जो मेहनत करके अपना पेट भरना पसन्द करते हैं। आज भारत में कई एनजीओ भी इन बेघरों का रोना रोते हैं और पैसा कमाने के चक्कर में लगे रहते हैं। लेकिन बेघरों का असली दर्द क्या है? यह उनके बीच जाकर बहुत कम लोग ही समझते हैं। बेघरों के चलते देश में भिक्षावृत्ति को बढ़ावा मिलता है।

अगर भारत सरकार, राज्य सरकारें और बेघरों के लिए काम करने वाले एनजीओ चाहें, तो मिलकर बेघरों के लिए वरदान साबित हो सकते हैं, लेकिन इसके लिए दृढ़ इच्छाशक्ति, ईमानदारी और सकारात्मक मेहनत करने की ज़रूरत है, जिसकी हर तरफ़ कमी दिखती है।

इतिहास से खिलवाड़ की राजनीति

भारत-पाकिस्तान के बीच लम्बे युद्ध के बाद 26 मार्च, 1971 में पाकिस्तानी सेना ने भारत के सामने समर्पण किया था और बांग्लादेश आज़ाद हुआ था। बांग्लादेश के पाकिस्तान से मुक्ति के 50 साल पूरे होने पर बांग्लादेश में जश्न मनाया जा रहा है। भारत के बिना बांग्लादेश की स्वतंत्रता नामुमकिन थी। इसलिए भारत की केंद्र सरकार हर साल 16 दिसंबर को विजय दिवस मनाती है। दरअसल इस दिन भारतीय सेना ने उस समय के पाकिस्तान (अब के पाकिस्तान और बांग्लादेश) से उसकी कूटनीतिक चालों और हमलावर नीति से निपटने के लिए युद्ध शुरू किया था। बांग्लादेश की आज़ादी में देश की पहली महिला प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी की भूमिका को इतिहास कभी विस्मृत नहीं कर सकेगा। इंदिरा के इस साहस की वजह से उन्हें आयरन लेडी (लौह महिला) कहा गया। लेकिन इस बार भारत सरकार के विजय दिवस कार्यक्रम में इस साहसी व्यक्तित्व आयरन लेडी के इस महती योगदान की चर्चा नहीं की गयी।

सवाल यह है अपने पूर्ववर्ती शासकों को मोदी सरकार क्यों भूल जाती है? उसे इस मामले में अपने पूर्ववर्ती राजनेताओं से सीखने की ज़रूरत है। लेकिन देखने में आ रहा है कि अपने महिमामंडन और आत्ममुग्धता के लिए ऐसा प्रचार-प्रसार किया जा रहा है, कि 2014 से पहले कुछ हुआ ही नहीं। यह कोई पहला मौक़ा नहीं है, जब मोदी सरकार पर इस तरह के सवाल उठ रहे हैं। इतिहास को नये तरीक़े से बताया जा रहा है। आख़िर क्यों सन् 1947 के बाद दक्षिण एशिया का मानचित्र बदलने वाली प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के योगदान को मोदी सरकार स्वीकार नहीं कर रही है?

प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी बीते वर्ष 26 मार्च को बांग्लादेश की आज़ादी की 50 वीं सालगिरह के जश्न में शामिल हुए थे। मोदी ने अपने भाषण में सिर्फ़ इतना ही कहा कि 1971 में इंदिरा गाँधी ने क्या योगदान दिया, यह सबको पता है।

लेकिन बांग्लादेश की प्रधानमंत्री शेख़ हसीना ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी और उनकी सरकार की उदारता को याद करते हुए कहा कि उन्होंने बांग्लादेश के एक करोड़ शरणार्थियों को आवास मुहैया कराया। भारत की ओर से सन् 1971 में बांग्लादेश को मान्यता देने की याद में 6 दिसंबर को मनाये जाने वाले मैत्री दिवस के रूप में राजनीयिक सम्बन्धों की स्थापना की स्वर्ण जयंती भी मना रहे हैं।

पूर्व सेना अध्यक्ष वी.पी. मलिक कहते हैं कि बांग्लादेश के बनने में भारतीय राजनीतिक नेतृत्व, नौकरशाही और डिप्लोमेट के बीच बेहतर अडंरस्टैडिंग मददगार बनी। मिलकर प्लान बनाया गया और उसे बख़ूबी अंजाम दिया गया। सेना के प्रमुख फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ अपने प्रोफेशनेलिज्म से ही राजनीतिक नेतृत्व से अपनी बात मनवाने में सफल हुए। वी.पी. मलिक ने ‘तहलका’ को बताया कि हमारे लिए नेशनल इंट्रस्ट बेहद अहम होते हैं। लाखों रिफ्यूजी को वापिस भेजना एक चुनौती होता है। लेकिन बांग्लादेश के जन्म के समय पैदा हुई लाखों-लाख शरणार्थियों की समस्या का हल राजनीतिक नेतृत्व से  सम्भव हो सका। भारत-पाकिस्तान की लड़ाई में हिस्सा लेने वाले एयर कॉमोडोर जे.एल. भार्गव कहते हैं कि हमारा लक्ष्य एक दम साफ़ था। हमने उसी पर काम किया भारत ने पहले लड़ाई की शुरुआत नहीं थी। हमारे सामने पूर्वी पाकिस्तान से देश भर में आये शरणार्थी एक बड़ी चुनौती थे। इसी के मद्देनज़र हमें जो टॉस्क मिला था, उसे पूरा किया गया। 16 दिसंबर को भारत ने जीत हासिल की। बता दें कि 26 मार्च, 1971 को बांग्लादेश अपना स्वतंत्रता दिवस मनाता है। लेकिन सही मायने में आज़ादी 16 दिसंबर, 1971 को, 13 दिन का युद्ध लड़कर भारत ने दिलायी।

दरअसल भारत-पाकिस्तान युद्ध, बांग्लादेश में मुक्ति वाहिनी को भारत का समर्थन देना और इन सबके बीच चली गयी कूटनीति प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के नेतृत्व की गाथा थी। ब्रिटिश हुकूमत से अगस्त, 1947 में आज़ादी मिलने के साथ जब देश का बँटवारा हुआ था, तब दो पाकिस्तान अस्तित्व में आये थे, एक पश्चिमी पाकिस्तान, जिसे अब पाकिस्तान के नाम से जाना जाता है। दूसरा पूर्वी पाकिस्तान जिसे बांग्लादेश के नाम से जाना जाता है। पश्चिमी पाकिस्तान और पूर्वी पाकिस्तान के बीच की दूरी तो लगभग 2000 किलोमीटर की थी; लेकिन दोनों के बीच सांस्कृतिक दूरियाँ गहरी थीं। पश्चिमी पाकिस्तान में उर्दू और पंजाबी प्रमुख भाषा है, जबकि पूर्वी पाकिस्तान में बंगाली भाषा थी। मार्च, 1971 तक आवामी लीग का कॉडर सड़कों पर था। प्रदर्शन हो रहे थे। हड़तालें चल रही थीं। पाकिस्तान की सेना खुलेआम बर्बरता कर रही थी। लाखों-लाख शरणार्थी शरण पाने के लिए भारत चले आये। उस समय तक पूर्वी पाकिस्तान के नाम से जाने वाला यह क्षेत्र पश्चिमी पाकिस्तान के दमन का केंद्र बन गया था। भारत ने बांग्लादेश मुक्ति वाहिनी के साथ मिलकर बांग्लादेश को पाकिस्तान के ज़ुल्मों से मुक्त किया और दुनिया के नक्शे पर बांग्लादेश एक अलग देश के रूप में उभरा।

सन् 1971 का युद्ध भारत के लिए सिर्फ़ सैन्य जीत नहीं थी, बल्कि राजनीतिक और कूटनीतिक रूप से बहुत बड़ी सफलता थी। सिर्फ़ 24 साल पुराने आज़ाद भारत ने पाकिस्तान के ताक़तवर दोस्त अमेरिका और चीन को हैरान कर दिया था। हालाँकि मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों ने अप्रैल, 1971 की शुरुआत में ही बांग्लादेश की अस्थायी सरकार की घोषणा कर दी थी। भारत सरकार ने 6 दिसंबर को इस सरकार के अस्तित्व को औपचारिक रूप से मान्यता दी। 16 दिसंबर को लेफ्टिनेंट जनरल ए.ए.के. नियाजी की अगुवाई में ईस्ट पाकिस्तान आर्मी ने भारतीय सेना के समक्ष समर्पण कर दिया। इसके कुछ हफ़्तों के बाद शेख़ मुजीबुर रहमान को जेल से रिहा किया गया।

भारत ने शुरुआत से ही अपना समर्थन आवामी लीग और मुजीबुर रहमान को दिया था। पाकिस्तानी सेना की कार्रवाई के दौरान तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी ने सीधे दख़लअंदाज़ी करने का फ़ैसला नहीं लिया। हालाँकि भारतीय सेना की पूर्वी कमांड ने पूर्वी पाकिस्तान के ऑपरेशन्स की ज़िम्मेदारी सँभाल ली थी।

15 मई, 1971 को भारतीय सेना ने ऑपरेशन जैकपॉट लॉन्च किया और इसके तहत मुक्ति वाहिनी के लड़ाकों को ट्रैनिंग, पैसा, हथियार और साजो-सामान की सप्लाई मुहैया कराना शुरू किया। मुक्ति वाहिनी पूर्वी पाकिस्तान की मिलिट्री, पैरामिलिट्री और नागरिकों की सेना थी, इसका लक्ष्य पूर्वी पाकिस्तान की आज़ादी था।

भारत के लिए सन् 1971 का युद्ध जीतना इसलिए सम्भव हो पाया, क्योंकि इंदिरा गाँधी ने अपने सैन्य चीफ फील्ड मार्शल सैम मानेकशॉ पर विश्वास किया था। अप्रैल, 1971 में इंदिरा गाँधी पूर्वी पाकिस्तान के हालात देखते हुए कुछ सैन्य क़दम उठाना चाहती थी। लेकिन मानेकशॉ ने इंदिरा गाँधी के मुँह पर इसके लिए मना कर दिया था। एक कैबिनेट बैठक के दौरान मानेकशॉ से इंदिरा गाँधी ने कुछ करने के लिए कहा था। लेकिन मानेकशॉ ने चीन के हमले की आशंका, मौसम की वजह से बाधाओं और सेनाओं की सीमाओं पर तैनाती का हवाला देते हुए उनसे कुछ समय माँगा और इंदिरा गाँधी ने मानेकशॉ पर भरोसा किया।

इंदिरा गाँधी की रणनीति थी कि युद्ध छोटा हो; लेकिन अगर लड़ाई लम्बी खिंचती है, तो दुनिया को पहले से ही पाकिस्तान की करतूत पता होनी चाहिए। इंदिरा गाँधी ने 21 दिन का जर्मनी, ब्रिटेन, फ्रांस, बेल्जियम और अमेरिका का दौरा करके पूर्वी पाकिस्तान में चल रहे नरसंहार का ज़िक्र किया। इतना ही नहीं, दुनिया के कई नेताओं को ख़त लिखकर भारत की सीमा पर चल रहे हालात की जानकारी भी दी।

भारत की 1971 की जीत सिर्फ़ सैन्य लिहाज़ से ही बड़ी नहीं थी, बल्कि इंदिरा गाँधी ने अपनी कूटनीति का लोहा मनवाया था। अपनी रणनीति से इंदिरा गाँधी ने सिर्फ़ 13 दिन में पाकिस्तान के दो टुकड़े कर दिये थे और मानवीयता दिखाते हुए लाखों-लाख शरणार्थियों को पनाह भी दी थी।

उस समय प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के सबसे भरोसेमंद सचिव परमेश्वर नारायण हक्सर थे, जिन्हें पी.एन. हक्सर के नाम से जाना जाता था। इंदिरा गाँधी और हक्सर दोनों कश्मीरी पंडित थे और दोनों इलाहाबाद से थे। उनकी जीवनी लिखने वाले लेखकों ने पी.एन. हक्सर को सिर्फ़ इंदिरा गाँधी के आँख-कान के रूप में ही नहीं, बल्कि उने एक अल्टर इगो (अनन्य मित्र) के रूप में भी वर्णित किया है।

बांग्लादेश को मुक्त कराने में इंदिरा गाँधी की कूटनीति में सबसे महत्त्वपूर्ण मोड़ सोवियत रूस के साथ भारत का मैत्री समझौता था। इंदिरा गाँधी ने भारत की गुटनिरपेक्ष आन्दोलन की विचारधारा से समझौता करते हुए यह क़दम उठाया था। यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगा कि रूस के साथ भारत के 20 साल के समझौते की पृष्ठभूमि में बांग्लादेश का मुक्ति युद्ध ही था।

रूस से समझौते के बाद भारत को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर आलोचना का सामना करना भी पड़ा था। सवाल उठा था कि गुटनिरपेक्ष आन्दोलन के चैम्पियन के तौर पर भारत ऐसे कैसे कर सकता है? निर्वासित बांग्लादेशी सरकार का खुला समर्थन करना तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गाँधी के राजनीतिर करियर के सबसे बड़े फ़ैसलों में से एक था। इंदिरा गाँधी के इस फ़ैसले में कूटनीति, विवेक, संयम और कौशल की छाप थी; जिसने एक स्वतंत्र सम्प्रभु राष्ट्र के जन्म को सम्भव किया था।