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कर्नाटक-गोवा में चक्रवाती तूफान का कहर, गुजरात में हाई अलर्ट

चक्रवाती तूफान तौकते ने शनिवार को कर्नाटक और गोवा के तटीय इलाकों में कहर बरपाया। कर्नाटक के आठ जिलों में नुकसान हुआ है, जबकि गोवा में भारी बारिश और तूफान से पेड़ और बिजली के खंभे उखड़ जाने से अंधेरा छा गया है। कर्नाटक में चार लोगों की मौत हो गई है और  बड़े पैमाने पर बचाव अभियान शुरू किया गया है।

कर्नाटक राज्य आपदा प्रबंधन प्राधिकरण के अधिकारियों द्वारा रविवार सुबह जारी स्थिति रिपोर्ट के मुताबिक, दक्षिण कन्नड़, उडुपी, उत्तर कन्नड़, कोडागु, शिवमोगा, चिकमंगलुरू और हासन जिलों के 73 गांव और 17 तालुका चक्रवात से अभी तक प्रभावित हुए हैं। वहीं, कर्नाटक के मुख्यमंत्री ने रविवार को स्थिति का जायजा लिया।  राज्य के प्रभावित 73 गांवों में 28 गांव उडुपी जिले के हैं।

मीडिया रिपोर्ट के मुताबिक अभी तक 318 लोगों को सुरक्षित बचाया गया है और 11 राहत शिविरों में 298 लोगों को पहुंचाया गया है। 112 घर, 139 खंभे, 22 ट्रांसफॉर्मर, चार हेक्टेयर बागान को क्षति हुई है। मुख्यमंत्री बीएस येदियुरप्पा ने रविवार को जिला प्रभारी मंत्रियों तथा उपायुक्त को प्रभावित जिलों में दौरा करने एवं बचाव तथा राहत कार्य शुरू करने के निर्देश दिए हैं। राज्य के आठ जिलों में भारी बारिश हुई है। इसमें बताया गया कि कर्नाटक के तटीय इलाकों में 70 से 80 किलोमीटर प्रति घंटे की रफ्तार से हवा चलने के साथ भारी बारिश हुई।

गुजरात में जारी किया हाईअलर्ट
चक्रवात तौकते बहुत गंभीर चक्रवाती तूफान में बदल गया है और वह गुजरात तट की ओर बढ़ रहा है। भारत मौसम विज्ञान विभाग (आईएमडी) ने रविवार को बताया कि इसके उत्तर पश्चिम की ओर बढ़ने और 17 मई की शाम तक गुजरात तट पर पहुंचने की बहुत संभावना है। यह 18 मई को तड़के पोरबंदर और महुवा के बीच से राज्य के तट को पार करेगा। गुजरात तथा दमन एवं दीव के लिए येलो अलर्ट जारी किया है। 18 मई तक हवा की गति 150-160 किलोमीटर प्रति घंटे तक बढ़ने के आसार हैं। इसके बाद भारी तबाही की आशंका जाहिर की गई है। महाराष्ट्र-गोवा तथा इससे सटे हुए कर्नाटक के तटों पर हवा की गति 70-80 से लेकर 90 किलोमीटर प्रतिघंटे तक हो सकती है। खतरे को देखते हुए डेढ़ लाख लोगों को निचले तटीय क्षेत्रों में स्थानांतरित किया गया है साथ ही  एनडीआरएफ और एसडीआरएफ की 54 टीमें तैनात की गई हैं।

गोवा में कहर बरपा, दिन में छाया अंधेरा
चक्रवात तौकते की वजह से गोवा के कई हिस्सों में रविवार को तेज हवाएं चलीं तथा भारी बारिश हुई, जिस वजह से पेड़ों के साथ ही बिजली के खंभे उखड़ गए और कई इलाकों में बिजली की आपूर्ति बाधित हुई। इससे गोवा के अधिकतर इलाकों में बिजली चली गई है। उन्होंने कहा, बिजली के सैकड़ों खंभे टूट गए हैं। बिजली की आपूर्ति करने वाली 33 केवी की कई हाई टेंशन तारें पेड़ों के गिरने की वजह से प्रभावित हुई हैं। पड़ोसी महाराष्ट्र से गोवा में बिजली की आपूर्ति करने वाली 220 केवी की लाइनें भी प्रभावित हुई हैं।

कोरोना का ग्राफ बढ़ता-घटता रहेगा तो लाँकडाउन लगता रहेगा, व्यापारियों ने की मुख्यमंत्री से अपील

भले ही दिल्ली में कोरोना की रफ्तार कम हो रही है,  रफ्तार कम होने की वजह भी सरकार बता रही है कि   सख्ती से लाँकडाउन का पालन किया गया और कोरोना विरोधी गाइड लाइन का पालन कराया गया है। लेकिन  फिर से 24 मई तक लाँकडाउन बढ़ाये जाने से दिल्ली के व्यापारियों ने सरकार से अपील की है कि कुछ रियायतों के साथ लाँकडाउन का खोला जाना चाहिये । ताकि लोगों के साथ –साथ व्यापारियों को कोई दिक्कत ना हो।

व्यापारी संघ के सचिव किशोर गुप्ता और प्रदीप शुक्ला ने तहलका संवाददाता को बताया कि लगभग एक महीने से कोरोना के कहर के कारण और लाँकडाउन के चलते छोटे और मंझले व्यापारियों के धंधों पर काफी विपरीत असर पड़ा है। जिसके कारण कई व्यापारियों ने अपनी दुकानों के आगे अब सब्जी बेचना शुरू कर दिया है। ऐसे में व्यापारियों में हीन भावना पनप रही है। व्यापारियों ने दिल्ली सरकार के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल से अपील की है कि कोरोना काल लम्बा चलने वाला है। ऐसे में कोरोना का ग्राफ ऊपर –नीचे होता रहेगा। तो क्या लाँकडाउन चलता रहेगा?

सचिव किशोर गुप्ता का कहना है कि 2020 के लाँकडाउन के टूटे व्यापारी अब उससे बुरे हालात में जा रहे है। दिन पर दिन आर्थिक हालत पतली हो रही है। दुकानें ना चलने से व्यापारी हताश है, उदास है। वहीं लोगों का कहना है कि माना कि ये महामारी देश- दुनिया को डस रही है। लेकिन कोई ना कोई तो उपाय और सुझाव सरकार को लाने होगे ताकि, लोगों का रोजगार और कामकाज चलता रहे। क्योंकि कोरोना का नया –नया रूप और ब्लैक फंगस जैसी बीमारी से लोगों के बीच डर और भय पैदा कर दिया है, जो लोगों को विचलित भी कर रहा है।

कब तक लाये जाएँगे भगौड़े घोटालेबाज़?

ब्रिटिश सरकार ने नीरव मोदी के प्रत्यर्पण को दी हरी झंडी


पीएनबी बैंक घोटाले के बड़े डिफाल्टर नीरव मोदी के प्रत्यर्पण को लेकर फिर से हलचल है। लेकिन कहीं यह महज़ एक राजनीतिक सूचना तो नहीं? क्योंकि ऐसी बयानबाज़ियाँ पहले भी होती रही हैं।
सरकारी तंत्र की ऐसी ही ख़ामियों का फ़ायदा नीरव मोदी जैसे लोग उठा रहे हैं। हैरत है कि पिछले सात साल में भारत से दर्ज़नों लोग बैंकों को मोटा चूना लगाकर विदेश फ़रार हो चुके हैं और एक को भी सरकार वापस नहीं ला सकी है। हीरा व्यापारी नीरव मोदी जनवरी, 2018 को पंजाब नेशनल बैंक को तक़रीबन 11,000 करोड़ से अधिक रुपये का चूना लगाकर रातोंरात देश छोडक़र फ़रार हो गया था। तबसे नीरव मोदी क़ानूनी तौर पर भगौड़ा घोषित है। हैरत है कि देश के इतिहास में सबसे बड़े घोटालेबाज़ के रूप में उसके ख़िलाफ मामला तो दर्ज है, लेकिन उसकी सियासी पकड़ और धमक के कारण आज तक वह भारतीय क़ानून की पकड़ से बाहर ही रहा है। अब भले ही नीरव मोदी के प्रत्यर्पण को ब्रिटिश सरकार से हरी झंडी मिल गयी है; लेकिन क़ानूनी, स्वास्थ्य सम्बन्धी और कोरोना महामारी जैसी अड़चनें नीरव मोदी को भारत लाने और प्रत्यर्पण सन्धि में अड़ंगा लगा सकती हैं। और उसने ब्रिटिश हाईकोर्ट में प्रत्यर्पण को चुनौती दे दी है। इस तरह उसके पास बचने के कई रास्ते हैं।

वैसे नीरव मोदी के कारनामों और गतिविधियों को देखकर तो ऐसा लगता है कि यह महज़ एक सूचना ही है। क्योंकि प्रत्यर्पण को लेकर दोनों देशों के बीच सन्धि होती रहती है और टूटती भी रहती है।
विदेश मामलों के जानकार और दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. अमित सिंह का कहना है कि प्रत्यर्पण सन्धि के तहत नीरव मोदी को भारत लाने में भारत और ब्रिटिश सरकार के बीच आपसी राजनीतिक सम्बन्धों की भूमिका है। नीरव ने जिस तरह बैंक अधिकारियों से मिलकर देश की अर्थ-व्यवस्था को चूना लगाया है, वह क़ानूनी अपराध है; जिस की सज़ा उसे मिलनी ही चाहिए। प्रो. अमित का कहना है कि ब्रिटिश पुलिस ने मार्च, 2019 में नीरव मोदी को लंदन में गिरफ़्तार किया था। तबसे लेकर दोनों देशों के बीच प्रत्यर्पण सन्धि के क़ानूनी दाँव-पेच में मामला उलझा रहा है। अब 16 अप्रैल, 2021 को ब्रिटिश सरकार की गृह मंत्री प्रीति पटेल ने भारत प्रत्यर्पण को हरी झंडी दी है, जो दोनों देशों के बीच अच्छे रिश्तों और विदेश नीति का हिस्सा है।

आम आदमी पार्टी के पूर्व विधायक एवं दिल्ली विश्वविद्यालय के प्रो. हरीश खन्ना का कहना है कि भारत सरकार को इस मामले में गम्भीरता दिखानी चाहिए। नीरव के ख़िलाफ क़ानूनी कार्रवाई के साथ-साथ वसूली प्रक्रिया भी चलनी चाहिए। क्योंकि क़ानूनी प्रक्रिया लम्बी चलेगी और इसका फ़ायदा वह राजनीतिक और दूसरे तरीक़ों से लेगा; जो कि वह लेता आया है। वह एक शातिर अपराधी है। जिस अंदाज़ में वह देश छोडक़र भागा था, वह बिना उसके राजनीतिक आकाओं के सम्भव नहीं था। नीरव मोदी का मामा और पंजाब नेशनल बैंक घोटाले के मास्टर माइंड मेहुल चौकसी की भी गिरफ़्तारी हो और उससे भी वसूली हो। दोनों की देश-विदेश की सम्पत्ति को सरकार को अपने क़बज़े में लेना चाहिए।

प्रो. खन्ना का कहना है कि विजय माल्या, जो सांसद भी रहा है; बैंकों के ज़रिये भारतीय सम्पत्ति हड़पकर लंदन में ऐश-ओ-आराम से रह रहा है। उसे भी सरकार किसी तरह लाकर जेल भेजे और उससे क़र्ज़ की वसूली करे, सज़ा दे। इसी तरह आईपीएल घोटाले के मास्टर माइंड ललित मोदी पर भी स$ख्त कार्रवाई होनी चाहिए, जिसकी एक समय राजस्थान सरकार में इतनी पकड़ थी कि उसके इशारे पर फ़ैसले बदल जाते थे। ललित ने राजनीतिक संरक्षण प्राप्त वकीलों के सहारे क़ानून को $खूब ठेंगा दिखाया। ऐसे घोटालेबाज़ों के ख़िलाफ जब तक कठोर कार्रवाई नहीं होगी, घोटाले करके देश से भागने वालों के हौंसले बढ़ते रहेंगे। भारत सरकार को ऐसे लोगों को विदेश नीति, कूटनीति के सहारे गिरफ़्तार करना चाहिए, ताकि गबन का पैसा देश में आ सके।

तहलका संवाददाता को ईडी के एक अधिकारी ने बताया कि केंद्र सरकार की कूटनीति, सूझ-बूझ, कुशल प्रबन्धन और क़ानूनी कार्रवाई से भगौड़े नीरव मोदी के प्रत्यार्पण का रास्ता साफ़ हुआ है। अब आर्थिक मामले में नकेल कसी जाएगी। अधिवक्ता पीयूष जैन का कहना है कि नीरव मोदी जैसे अपराधी घोटाले के पैसों का ही इस्तेमाल अपने बचाव के लिए करते हैं। रिश्तेदारों और दोस्तों तक पैसा पहुँचाते हैं और कारोबार करते हैं। ऐसे सभी लोगों के ख़िलाफ जाँच हो और आजीवन कारागार की सज़ा हो।

पंजाब नेशनल बैंक के एक वरिष्ठ अधिकारी ने बताया कि नीरव मोदी जैसे अपराधी तब ही बैंकों में घोटाले करते हैं, जब बैंक के अधिकारियों द्वारा इशारा मिलता है और राजनीतिक आकाक्षाओं का हाथ होता है। अन्यथा किसी भी बैंक में हेरा-फेरी सम्भव ही नहीं है। क्योंकि जबसे नोटबंदी हुई है, एक आम आदमी को क़र्ज़ मिलना तो दूर, अपना पैसा निकालना भी आसान नहीं रहा। जबकि नीरव मोदी का घोटाला तो नोटबंदी के बाद ही सामने आया। मतलब नोटबंदी के दौरान भी वह हेरा-फेरी करता रहा। विदेश मामलों और आर्थिक मामलों के जानकार एच.के. बेदी का कहना है कि एक सम्बन्ध (कड़ी) है, जो राजनीतिक आकाओं के साथ मिलकर देश के हर विभाग में घोटाला करके अपनी सम्पत्तियों को विदेशों में बढ़ा रहा है। अगर सही तरीक़े से नीरव मोदी मामले जाँच-पड़ताल होती है, तो सारा खेल सामने आ जाएगा और देश का पैसा देश में लाना आसान होगा।

गुरु तेग बहादुर जी का 400वाँ प्रकाश पर्व

महामारी में बढ़ी गुरु जी की शिक्षाओं की प्रासंगिकता

‘हिन्द दी चादर’ के नाम से मशहूर और सिखों के नौवें गुरु श्री गुरु तेग बहादुर जी का 400वाँ प्रकाश पर्व मनाया जा रहा है। गुरु तेग बहादुर जी ने हँसते-हँसते अपनी ज़िन्दगी इंसानियत के लिए कर्बान कर दी थी। उन्होंने कहा- ‘सुखु दु:खु दोनों सम करि जानै अउरु मानु अपमाना। हरख सोग ते रहै अतीता तिनि जगि ततु पछाना।।’ यानी सुख-दु:ख और आदर-निरादर को समान समझने वाला, ख़ुशी और ग़म से विरक्त मनुष्य ही जीवन का रहस्य समझ सकता है। वर्तमान में जब हम महामारी का सामना कर रहे हैं, तो गुरु जी के सन्देश कहीं ज्यादा प्रासंगिक हो गये हैं। आने वाले व$क्त में यह प्रासंगिकता और बढ़ जाएगी। भारत हितैषी की रिपोर्ट :-

गुरु तेग बहादुर सिंह जी ने जीवन का मक़सद बताया कि कैसे हम समानता, सद्भाव और त्याग का रास्ता अख्तियार करें। नौवें गुरु तेग बहादुर को सभी धर्मों की आज़ादी के अधिकारों का समर्थन करने के तौर पर जाना जाता है। उनके प्रभाव के बिना पिछली चार सदी की कल्पना नहीं की जा सकती। हालाँकि शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति (एसजीपीसी) ने भाई गुरदास जी नगर में होने वाले भव्य कार्यक्रम रद्द कर दिये और कोरोना वायरस के मरीज़ो के इलाज के लिए अपने गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल को समर्पित कर दिया है। यह समारोह अब स्वर्ण मंदिर में गुरुद्वारा श्री मंजी साहिब के दीवान हॉल में आयोजित किया जाएगा। अमृतसर में नौवें गुरु के जन्म-स्थान गुरुद्वारा गुरु के महल में कई कार्यक्रम आयोजित किये गये।

400वें प्रकाश पर्व पर पूरे वर्ष डिजिटल माध्यम से गुरु तेग बहादुर जी के शबद, उनकी शिक्षाएँ लोगों तक पहुचायी जा रही हैं। इससे नयी पीढ़ी की पहुँच उन तक आसानी से होगी और वह प्रेरणा ले सकेगी। गुरु नानक देव जी के साथ गुरु तेग बहादुर जी और सिख धर्म के अन्तिम गुरु ‘गुरु गोविंद सिंह जी’ के साथ शुरू होने वाली सिख गुरु परम्परा अपने आप में जीवन का एक पूर्ण दर्शन है। इससे पहले राष्ट्र ने गुरु नानक देव जी के 550वें प्रकाश पर्व, गुरु तेग बहादुर जी की 400वीं जयंती और गुरु गोविंद सिंह जी के 350वें प्रकाश पर्व के रूप में उत्सव मनाया और देशवासियों को उनके जीवन-दर्शन की शिक्षाओं से अवगत कराया। गुरुओं के जीवन के बाद-उनके जीवन में सर्वोच्च बलिदान के साथ-साथ उनमें सब्र भी था। इससे उनके जीवन में ज्ञान के प्रकाश हुआ और उन्हें आध्यात्मिक क़द भी हासिल हुआ।

अब समय आ गया है कि गुरु तेग बहादुर जी के जीवन और शिक्षाओं के साथ-साथ मानवता को प्रेरित करने के लिए दुनिया भर में गुरु परम्परा को अपनाया जाए। परम्पराओं को समझकर अगर हम सिख समुदाय और हमारे गुरुओं के लाखों अनुयायियों के नक़्श-ए-क़दम पर चलते हैं, तो हम पाएँगे कि कैसे सिख समुदाय समाज-सेवा कर रहा है और गुरुद्वारे मानव-सेवा का केंद्र बने हुए हैं। पिछले महीने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग के ज़रिये श्री गुरु तेग बहादुर जी की 400वीं जयंती (प्रकाश पर्व) मनाने के लिए उच्च स्तरीय समिति की बैठक की अध्यक्षता की। केंद्रीय गृह मंत्री अमित शाह और पंजाब के मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह ने इस विशेष कार्यक्रम की रूपरेखा पर चर्चा करने के लिए बैठक में शिरकत की थी। पंजाब के मुख्यमंत्री पहले ही गुरु तेग बहादुर जी के राज्य स्तरीय 400वीं जयंती समारोह के लोगो का अनावरण कर चुके हैं। 23 अप्रैल को ही अमृतसर में गुरु तेग बहादुर जी के जन्म स्थान ‘गुरु का महल’ पर नगर कीर्तन का आगारा हुआ और बाबा बकाला में समापन हुआ। आनंदपुर साहिब और कीरतपुर में अलग-अलग कार्यक्रम और कोष (फंड) बनाये गये हैं, जिसकी ज़िम्मेदारी मुख्य सचिव विनी महाजन को सौंपी गयी है; जो विकास परियोजनाओं का विभागीय समन्वय कर रहे हैं। गुरु तेग बहादुर को 17वीं शताब्दी के उस क़ानून के ख़िलाफ़ सिखों और हिन्दुओं को प्रदान की गयी सुरक्षा के लिए जाना जाता है, जिसमें लोगों को जबरन इस्लाम धर्म अपनाने को मजबूर किया जाता था। वे गुरु नानक के सिद्धांतों का प्रचार करने के लिए देश में कश्मीर और असम जैसे राज्यों के लम्बे सफर के लिए भी मशहूर हैं। इस्लाम धर्म अपनाने से इन्कार करने पर मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर दिल्ली में उन्हें मृत्यु दण्ड दे दिया गया। उनके पुत्र गुरु गोविंद सिंह (सिखों के अन्तिम गुरु) ने मुगलों की ता$कत का मुक़ाबला करने के लिए समुदाय को एक मार्शल रेस में तब्दील कर दिया।

एसजीपीसी की अध्यक्ष बीबी जागीर कौर के अनुसार, चौथी शताब्दी समारोह के लिए संगतों में बहुत उत्साह था; लेकिन कोविड-19 के कारण बड़ा आयोजन नहीं हो पा रहा है। अमृतसर में नौवें गुरु के जन्मस्थान गुरुद्वारा गुरु के महल से विभिन्न प्लेटफार्मों के माध्यम से लाइव टेलीकास्ट के ज़रिये कई कार्यक्रम किये जा रहे हैं। इस दौरान कई कार्यक्रमों का सीधा प्रसारण किया गया, ताकि देश और दुनिया के संगतों को ऐतिहासिक उत्सव के साथ जोड़ा जा सके। शताब्दी समारोह के दौरान चैनलों को घटनाओं के लाइव कवरेज के लिए लिंक प्रदान किये गये। उन्होंने कहा कि कोविड-19 नेपूरी दुनिया को प्रभावित किया है और हमेशा की तरह एसजीपीसी इस संकट के समय में भी मानवता की भलाई के लिए काम कर रही है।

बता दें कि एसजीपीसी अपने स्वास्थ्य संस्थानों में पहले से ही कोरोना के मरीज़ो को बेहतर उपचार प्रदान कर रही है। अब हालात गम्भीर होने पर चटविंद गेट स्थित श्री गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल पूरी तरह से कोरोना रोगियों के लिए समर्पित कर दिया गया है। उन्होंने बताया कि यहाँ कुल 100 बेड उपलब्ध कराये गये हैं और कोरोना-टीकाकरण की सुविधा भी मुफ्त में दी जा रही है। एसजीपीसी ने श्री गुरु राम दास मेडिकल कॉलेज वल्लाह, श्री गुरु राम दास चैरिटेबल अस्पताल अमृतसर, बाबा बुद्ध जी अस्पताल बीर साहिब और फुहारा चौक, अमृतसर में भी टीकाकरण की व्यवस्था की है। गुरु तेग बहादुर जी का सर्वोच्च बलिदान यह महत्त्वपूर्ण सन्देश देता है कि सार्वभौमिक रूप से मानवीय गरिमा, स्वतंत्रता, उपासना, शिक्षा और जीने की ज़रूरतों आदि जीवन मूल्यों का अधिकार हर इंसान को है।

नौवें गुरु से जुड़े कुछ तथ्य :-

 गुरु तेग बहादुर का पैदाइशी नाम त्याग मल था। गुरु तेग बहादुर नाम उन्हें गुरु हरगोबिंद सिंह जी ने दिया था।

 गुरु तेग बहादुर को भाई बुद्ध ने धनुर्विद्या और घुड़सवारी में महारत हासिल करायी और भाई गुरदास ने पौराणिक ज्ञान से अवगत कराया।

 बकाला में गुरु तेग बहादुर ने $करीब 26 साल 9 महीने 13 दिन तक ध्यान लगाया। उन्होंने अपना अधिकांश समय ध्यान में ही बिताया।

 उन्होंने गुरु ग्रंथ साहिब में श्लोकों और दोहों सहित कई भजनों का योगदान दिया।

 उनकी रचनाओं में 116 शबद और 15 राग हैं, जो दुनिया भर के लिए प्रेरणास्रोत हैं।

 उनकी रचनाओं को गुरु ग्रन्थ के अलावा कई अन्य ग्रन्थों में शामिल किया गया है।

 गुरु तेग बहादुर को नानक के उपदेश फैलाने के लिए लम्बी यात्राएँ करने के लिए जाना जाता है।

 सन् 1675 में मुगल बादशाह औरंगजेब के आदेश पर ग़ैर-धर्म न अपनाने पर दिल्ली में गुरु तेग बहादुर का बलिदान विश्वविख्यात है।

गुरु तेग बहादुर जी ने इंसानियत का पाठ पढ़ाया कि जो दु:ख के समय दु:खी नहीं होता और सुख में बहकता नहीं और जो भय और मोह से मुक्त है, उसके लिए सोना और धूल समान है। जिसने स्तुति और दोषारोपण (चापलूसी और अपशब्द) दोनों का त्याग किया है; और लालच, सांसारिक आसक्ति व अभिमान से अपने आपको बचा लिया, तो समझो सभी दयालु गुरु अपने ऐसे शिष्य को आशीर्वाद प्रदान करते हैं। ऐसा शिष्य धन्य आध्यात्मिक स्थिति को प्राप्त करता है और ईश्वर में उसी तरह लीन हो जाता है, जैसे दो गिलासों का पानी एक में मिला दिया जाए।

गुरु तेग बहादुर जी ने उपदेश दिया कि यह दु:ख और सुख क्षणिक होते हैं। चापलूसी और दोषों से निजात पाकर ही दूसरे संसार का सुख हासिल किया जा सकता है। ऐसा तभी सम्भव हो सकता है, जब काई शख़्स आत्म-नियंत्रण की कला में महारत हासिल कर ले; यानी अध्यात्म की दुनिया में डूब जाए। हे संत! अहंकार का त्याग करो; और हमेशा वासना, क्रोध व बुरे लोगों से दूर रहो। किसी के ख़ुशी और $गम में बराबर शिरकत करनी चाहिए। सम्मान और अपमान के साथ प्रशंसा और दोषारोपण से मुक्त होना चाहिए; भले ही आप मोक्ष की तलाश में हों। यह एक बेहद कठिन रास्ता है। इसके लिए दुर्लभ रास्ता गुरुमुख में है, जिसमें बताया गया है कि कैसे इसे हासिल किया जा सकता है?

जनादेश के मायने

श्वेत सादा पहनावा और एक योद्धा! इस महिला ‘ममता बनर्जी के पास आज विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद वाम, दक्षिण और मध्य रु$ख वाले तमाम दलों को हराने की अनूठी उपलब्धि है। देश के सबसे शक्तिशाली पुरुषों के खिलाफ़ उभरने का अनूठा गौरव भी उन्होंने पाया है। विधानसभा चुनाव में जीत की उनकी हैट्रिक साबित करती है कि चुनाव प्रचार में उनके लिए ‘दीदी-ओ-दीदी’ कहने वालों पर जनता का उलटा वार हुआ है, जिसके चलते ममता अब विपक्षी एकता का केंद्र बन गयी हैं। यद्यपि वह नंदीग्राम के एक कड़े मुक़ाबले में मामूली अन्तर से पिछड़ गयीं; लेकिन ‘खेला होबे’ के नारे के साथ विरोधी के गढ़ में जाकर चुनौती देने की उनकी हिम्मत ने उनके क़द को और ऊँचा कर दिया है। बड़ी जीत के बाद अब समय है कि वह कोरोना वायरस की दूसरी लहर को परास्त करने के लिए अपनी जीवटता दिखाएँ।

चुनाव परिणामों का एक स्पष्ट सन्देश है कि ध्रुवीकरण केवल एक सीमित स्तर तक ही काम करता है और यह भी कि क्षेत्रीय दल अगर दम दिखाएँ, तो एक बार अजेय भाजपा को फिर परास्त कर सकते हैं। ममता, स्टालिन और विजयन जैसे नेताओं ने पश्चिम बंगाल, केरल और तमिलनाडु में जीत दर्ज की है। तमिलनाडु में एम.के. स्टालिन के रूप में एक और पुत्र का ‘उदयÓ है। दिवंगत द्रविड़ क्षत्रप पिता एम. करुणानिधि के पुत्र और वारिस स्टालिन अब सत्ता में हैं। भाजपा ने असम में सत्ता को बर$करार रखा है और स्थानीय क़द्दावर नेता और पूर्व कांग्रेस नेता एन. रंगास्वामी के साथ गठबन्धन करके केंद्र शासित प्रदेश पुडुचेरी में जीत दर्ज की है। केरल में नया इतिहास लिखा गया है; क्योंकि वामपंथी गठबन्धन (एलडीएफ) ने केरल में चार दशक के बाद पहली बार दोबारा सत्ता हासिल करने का कीर्तिमान बनाया है। कांग्रेस नेता राहुल गाँधी केरल से ही सांसद हैं और उन्होंने राज्य में कड़ी मेहनत की थी; लेकिन वे पार्टी को जीत नहीं दिला पाये। दरअसल विपक्ष में सत्ता-संतुलन अब कांग्रेस के हाथ से निकलकर क्षेत्रीय दलों के पास के चला गया है। असम में अपने नागरिकता क़ानून के कारण रक्षात्मक भाजपा के सामने कांग्रेस का हार जाना इसे प्रमाणित करता है। इस तरह के क्षेत्रीय दल अब 2024 के आम चुनावों में महत्त्वपूर्ण ताक़त होंगे। भाजपा का वैचारिक रूप से विरोध करने वाले राजनीतिक दलों की जीत का मतलब है कि अब संघीय अधिकारों के लिए उनका केंद्र के सामने इन्हें वास्तविक और समान रूप से लागू करने पर अधिक-से-अधिक ज़ोर होगा।

कांग्रेस के लिए दीवार पर लिखी इबारत यह है कि वह लुप्त होती जा रही है। सबसे पुरानी पार्टी इस तथ्य से कुछ सांत्वना ज़रूर ले सकती है कि चुनाव परिणामों ने भाजपा को उसके लक्ष्य से पीछे रखा है। राहुल गाँधी के नेतृत्व और बंगाल में तृणमूल कांग्रेस की बजाय कांग्रेस पार्टी के वामपंथी दलों के साथ गठबन्धन करने की चुनावी रणनीति पर फिर से सवाल उठाये जाएँगे। तमिलनाडु को छोड़कर कांग्रेस नेतृत्व अपने विरोधियों को मापने में विफल रहा। जो भी हो, केंद्र शासित प्रदेश समेत पाँच राज्यों के चुनाव परिणामों को एक ऐसे समय में मोदी और शाह के लिए एक राजनीतिक झटके के रूप के रूप में देखा जा सकता है, जब कोरोना वायरस की दूसरी लहर से निपटने के लिए केंद्र सरकार की कड़ी आलोचना हो रही है। हालाँकि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के व्यक्तिगत करिश्मे को इससे कम आँकना भी भूल होगी। क्योंकि उनकी अभी भी काफ़ी लोकप्रियता है। लेकिन अब समय है कि भाजपा नेतृत्व अपने अहंकार को $खत्म करके आन्दोलनकारी किसानों की बात सुने और कृषि क़ानूनों में ऐसे संशोधन करे, जो किसानों के हित में हों। साथ ही महामारी के प्रसार को रोकने के लिए प्रभावी क़दम उठाये, जिससे लोगों की जान बचे और वे फिर से सरकार पर भरोसा कर सकें।

चरणजीत आहुजा

कोरोना के मामलें कम होते ही लोगों ने जश्न मनाना शुरू कर दिया

दिल्ली और उत्तर प्रदेश में लाँकडाउन के असर से और प्रशासन की चौकसी से कोरोना के मामलों में गत दो दिनों से गिरावट आ रही है। कोरोना के मामलों में गिरावट के चलते लोगों में जश्न- खुशी है। कि कोरोना जैसी घातक बीमारी से आजादी जल्द मिल सकती है। लेकिन वहीं जागरूकता के अभाव में और खुशी के चलते लोगों ने फिर से लापरवाही बरतना शुरू कर दी है। जिसका नतीजा ये है, कि लोगों ने अब बिना मास्क और सोशल डिस्टेंसिंग का पालन किये बगैर, ही फिर से शादी –समारोहों में और बाजारों में आने-जाने लगे है। जो चिन्ता की बात है।

एक ओर तो लाँकडाउन लगा है,  कोरोना गया नहीं, मामलें ही कम हो रहे है। ऐसे में जरा सी लापरवाही और चूक फिर से भयानक और खतरनाक कोरोना के मामलों में तबदील हो सकती है। एम्स के डाँ आलोक कुमार का कहना है कि कोरोना के मामले जब पिछली साल कम हुये थे। तब लोगों ने लापरवाही कर बिना मास्क पहने घरों से निकला शुरू कर दिया था। जो फरवरी से कोरोना बढ़ते मामलों का कारण बना है। ऐसे ही अब बिना मास्क के लोगों ने निकलना शुरू किया तो घातक परिणाम सामने आ सकते है।

सामाजिक कार्यकर्ता अनूप सहगल का कहना है कि जानकारी के अभाव में या अपनी अहम की वजह से दिखावे के चक्कर में कुछ लोग अपने –बेटा और बेटियों की शादियां धूम- धाम से कर रहे है। जिसमें लोग आ जा रहे है। अगर कोई ऐसे आयोजनों का विरोध करता है। उसके विरोध में ही मामला बढ़ता है। उन्होंने शासन –प्रशासन से अपील की है। कुछ ऐसा रास्ता निकाला जाये ताकि शादी –विवाह के अवसरों में भीड़ से बचा जा सकें। तहलका संवाददाता को लोगों ने बताया कि कोरोना का कहर शहरों के साथ गांवों में तेजी से बढ़ रहा है। और गांवों में हो रही शादियों में महिला और पुरूष बिना मास्क के आ जा रहे है। बताया जाता है कि गांव में पुलिस के ना आने के डर से लोगों में भय नहीं है।

आख़िर सरकार की आँखों में क्यों खटक रहा किसान आन्दोलन?

महामारी से निपटने में नाकाम केंद्र सरकार किसानों से निपटने के लिए कड़े क़दम उठाने की दे चुकी है चेतावनी

कोरोना वायरस का हौवा लोगों के दिमाग़ में इस क़दर घर कर गया है कि इसके अलावा किसी को कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन दोबारा तेज़ीसे बढ़ती इस महामारी की आड़ में कई बड़े आन्दोलनों को ख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। बता दें कि सन् 2019 में सीएए के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ के आन्दोलन को भी मौज़ूदा सरकार ने कोरोना का डर दिखाकर ही ख़त्म किया था। किसान आन्दोलन इन दिनों का सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसे कुचलने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास करती रही है। लेकिन अब उसने साफ़ कर दिया है कि किसान आन्दोलन को ख़त्म किया जाएगा, जिसके लिए वह कोरोना फैलाने का आरोप भी किसानों के सिर पर मढ़ चुकी है। लेकिन किसान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं और साफ़ कर चुके हैं कि जब तक सरकार तीनों नये कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा।बहादुरगढ़ के टीकरी बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों का धरना जारी है। लॉकडाउन की वजह से अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को भोजन करा रहे हैं। पिछले दिनों टीकरी बॉर्डर पर किसानों ने धन्ना सेठ जाट का जन्मदिवस मनाया और देशवासियों से किसान आन्दोलन में मदद देने की अपील की।

सरकार इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है कि ख़ाली आश्वासनों से किसान आन्दोलन को ख़त्म नहीं किया जा सकता। इधर यूपी गेट पर ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी सरकार को कड़ा सन्देश दे चुकी है कि वह किसानों के ख़िलाफ़ कितने भी षड्यंत्र कर ले, लेकिन आन्दोलन ख़त्म नहीं होने वाला। ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी के प्रवक्ता जगतार सिंह बाजवा ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को समाप्त करने का षड्यंत्र कर रही है।

इस जवाब के लिए आन्दोलन स्थल पर किसानों की संख्या बढ़ायी जा रही है। किसानों का कहना है कि सरकार भले ही हमारा आन्दोलन ख़त्म करने की साज़िश कर रही है, लेकिन हमारा संघर्ष जारी रहेगा। लेकिन सरकार अपनी ज़िद छोडक़र पिछले लॉकडाउन में चुपके से बनाये कृषि क़ानूनों को ख़त्म भी नहीं करना चाहती और यही वजह है कि वह किसान आन्दोलन को अब कुचलने की फ़िराक़ में है। सरकार ने कई किसानों के ख़िलाफ़ गुपचुप तरीक़े से क़ानूनी कार्रवाई भी की है। लेकिन किसान आन्दोलन गाँवों में फैल चुका एक ऐसा आन्दोलन बन गया है, जैसे कि अंग्रेजों से लड़ाई के ख़िलाफ़ गाँवों में कई जागृति आन्दोलन पनपने लगे थे। किसानों ने साफ़ किया है कि फ़सलों की कटाई के बाद वे एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होंगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत पूरी तरह से किसान आन्दोलन पर ध्यान दे रहे हैं। किसान आन्दोलन की मज़बूती यह है कि इसे किसान परिवारों महिलाओं और समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र से नामचीन लोगों के साथ-साथ आम लोगों का भरपूर समर्थन प्राप्त है, यही वजह है कि मुख्यधारा की मीडिया के इस आन्दोलन को न दिखाने के बावजूद यह बढ़ता ही जा रहा है।

कृषि प्रधान देश की विडम्बना
खेती दुनिया की अर्थ-व्यवस्था का मूल स्रोत है। बिना खेती के न तो जीवन की कल्पना की जा सकती है और न ही व्यापार चल सकता है। क्योंकि हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है, इसलिए यहाँ तो इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। लेकिन फिर भी बहुत-से लोग यहाँ पेट भर खाने, रोज़गार और तमाम तरह की मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते हैं। यहाँ तक कि ख़ुद हमारे देश के किसान दु:खी रहते हैं। देश की गिरती जीडीपी को पटरी पर लाने का काम खेती करके किसान ही कर सकते हैं और किसानों को ही सरकार कमज़ोर करने में लगी है। अगर खेती ही नहीं रहेगी, तो दूसरे काम-धन्धे कैसे चल सकेंगे? ताज्जुब है कि सन् 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहाँ 50 फ़ीसदी था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4 फ़ीसदी रह गया। यह तब हो रहा है, जब सन् 1950 से कृषि खाद्य उत्पादन बढक़र तक़रीबन पाँच गुना हो गया है। ऐसा अनुमान है कि साल 2025 तक देश की आबादी का पेट भरने के लिए 300 मिलियन (30 करोड़) टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। लेकिन अगर खेती को ही ख़त्म करने की साज़िशें की जाएँगी, तो यह लक्ष्य कैसे हासिल हो सकेगा?

क्या दिल्ली को फिर घेरेंगे किसान?
सरकार को इस बात का डर है कि अगर किसानों ने दोबारा दिल्ली को घेरा, तो क्या होगा? शायद यही वजह है कि उसने कोरोना की आड़ लेकर किसान आन्दोलन को ख़त्म करने का मन बना लिया है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसान फिर से दिल्ली को उसी तरह घेरेंगे, जिस तरह उन्होंने पिछले साल गर्मी, बारिश और सर्दी भर दिल्ली को घेरे रखा? अगर ऐसा होता है, तो फिर सरकार के लिए इस आन्दोलन को ख़त्म करना नामुमकिन हो जाएगा; लेकिन अगर ऐसा किसान नहीं कर सके, तो इस आन्दोलन को ख़त्म करने में सरकार कामयाब हो सकती है। हालाँकि भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) इस बात का ऐलान कर चुकी है कि किसान आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा और एक बार फिर से दिल्ली का घेराव किया जाएगा। जल्द ही हज़ारों किसान पंजाब-हरियाणा के खनौरी बॉर्डर पर इकट्ठे होंगे और वहाँ से किसानों का जत्था जींद व रोहतक होते हुए टीकरी बॉर्डर पहुँचेगा।

खेती बिन सब सून
जीवन जीने के लिए जितनी ज़रूरत हवा पानी की है, उतनी ही खाने की। खाने का 85 फ़ीसदी हिस्सा खेती से ही मिलता है। इसलिए खेती बिना सब कुछ सूना हो जाएगा। दुनिया का ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो कृषि उत्पादों पर निर्भर न हो, लेकिन फिर भी कई लोग इसका महत्त्व नहीं समझते और किसान आन्दोलन को ग़लत ठहराने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान देश के अन्नदाता हैं और इस सच्चाई से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। खेती से केवल लोगों का पेट ही नहीं भरता, बल्कि हरेक कामधंधा इसी से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। ग़ौर करने वाली बात है कि कोरोना वायरस के दोबारा फैलने और सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाने का यह वही समय है, जो कि पिछले साल था। पिछले साल भी रवि की फ़सलें कटाई के लिए खेतों में तैयार खड़ी थीं और लॉकडाउन लगाया गया था, जबकि इस बार भी रवि की फ़सलों, ख़ासकर गेहूँ की कटाई के दौरान ही लॉकडाउन लगाया गया। यह अलग बात है कि यह लॉकडाउन पूरे देश में नहीं लगाया गया है, क्योंकि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। किसानों और दूसरे लोगों ने सवाल भी उठाये कि इन राज्यों में लाखों लोगों की भीड़ जुटाकर ख़ुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने चुनावी रैलियाँ, जनसभाएँ कीं। क्या वहाँ कोरोना नहीं फैला? लेकिन किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। यह पहली बार है, जब कोई सरकार यह कहकर किसानों पर क़ानून थोप रही है कि ये क़ानून उनके हित में हैं; जबकि वह उन पर न तो खुलकर चर्चा करने को तैयार है और न ही किसानों के मना करने पर पीछे हटने को ही तैयार है।

किसानों के ख़िलाफ़ ग़लत प्रचार
सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक सरकार किसानों के ख़िलाफ़ कई बार ग़लत प्रचार कर चुकी है। हाल ही में दिल्ली से भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने आरोप लगाया कि किसान ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रहे हैं, जिसके चलते ऑक्सीजन के टैंकरों को काफ़ी घूमकर आना पड़ रहा है, जिसकी वजह से दिल्ली में कोरोना मरीज़ों की जान जा रही है। इसके बाद आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने ऑक्सीजन टैंकर के ड्राइवर के बयान वाले वीडियो के साथ ट्वीट करके मामले को साफ़ किया। इस वीडियो टैंकर का ड्राइवर साफ़ कह रहा है कि किसानों ने कहीं भी टैंकर को न तो रोका और न उनकी वजह से टैंकर कहीं जाम में फँसा। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने भाजपा सांसद के झूठी अफ़वाह फैलाने को अफ़सोसजनक बताते हुए कहा है कि किसानों की वजह से कभी भी किसी को भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है, तो फिर मरीज़ों के ऑक्सीजन टैंकर रोकने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार किसानों को बदनाम कर रही है।

बता दें कि पिछले दिनों दिल्ली स्थित बालाजी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गयी थी। आनन-फ़ानन में दो ऑक्सीजन टैंकरों को मँगाया गया, जो ट्रैफिक जाम के चलते कुछ फँसे थे, लेकिन इसमें किसानों की कोई भूमिका नहीं थी। पुलिस ने भी स्पष्ट किया कि ट्रैफिक जाम के कारण बॉर्डर पर ऑक्सीजन के टैंकर फँसे हुए थे, लेकिन ग्रीन कॉरिडोर बनाकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया। गैस सप्लायर्स किसान आन्दोलन के चलते दो से तीन घंटे का समय बर्बाद होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन हमने अपनी पड़ताल में पाया कि किसानों की वजह से कोई अड़चन नहीं आ रही है। किसान किसी के लिए भी रुकावट और परेशानी का कारण नहीं बन रहे हैं। बड़ी बात यह है कि पंजाब के कई किसान कोरोना के मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों का इंतज़ाम भी कर रहे हैं। यहाँ याद दिला दें कि ये वही किसान हैं, जिन्हें केंद्र सरकार में कई मंत्रियों ने ख़ालिस्तानी और आतंकवादी कहा था। लेकिन हमेशा देखा गया है कि सिख समुदाय और इस समुदाय के किसान किसी भी आपदा में पीडि़तों की मदद के लिए सबसे आगे खड़े मिलते हैं।

किसानों में मतभेद का सच
इधर एक अफ़वाह यह भी फैलायी जा रही है कि किसानों में मतभेद पैदा हो रहा है। यह अफ़वाह पहले भी कई बार फैलायी जा चुकी है। सरकार कई बार दावा कर चुकी है कि जो वास्तव में किसान हैं, वो कृषि क़ानूनों के समर्थन में हैं। यह भी कहा जा रहा है कि किसान संगठनों में बहुत मतभेद है। यह कोई बड़ी बात नहीं कि जब बहुत बड़ी संख्या में लोग एक ख़ास मुद्दे को लेकर किसी मज़बूत संस्था से लड़ते हैं, तो उन्हें तोडऩे की कोशिशें की जाती है। यहाँ तो किसान सीधे सरकार से लड़ रहे हैं। ऐसे में यह सम्भव ही नहीं कि उन्हें तोडऩे की कोशिशें न हों। कुछ सरकार के पक्षधर ख़ुद को किसान बताकर इस तरह के बयान भी दे रहे हैं कि वे कृषि क़ानूनों से संतुष्ट हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वास्तव में किसान हैं? क्योंकि अभी तक वास्तविक किसानों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि वे नये कृषि क़ानूनों से ख़ुश हैं। ऐसे में किसानों के मतभेद की बात महज़ अफ़वाह लगती है। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और भारतीय किसान यूनियन दोनों ने यह साफ़ कर दिया है कि किसानों की माँगें पूरी होने के बाद ही वे आन्दोलन ख़त्म करेंगे।

एसकेएम ने कहा है कि सरकार को कोरोना वायरस से लडऩा चाहिए, किसानों से नहीं। लेकिन इतने पर भी सरकारी तंत्र, सत्ता पक्ष के नेता किसान संगठनों के मुख्य और चर्चित नामों राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चढ़ूनी पर किसानों को बरगलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों ने केंद्र सरकार पर तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन को ख़त्म करने के लिए कोरोना वायरस का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। किसानों द्वारा संसद मार्च निकालने के सवाल पर संयुक्त किसान मोर्चा ने बताया कि प्रस्तावित संसद-मार्च की तारीख़ अभी तय नहीं है, लेकिन देश के किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर कूच करेंगे। इसके अलावा 10 मई को देश भर से किसान संगठन किसान आन्दोलन के हितैषी मज़दूरों, विद्यार्थियों, युवाओं और अन्य लोकतांत्रिक संगठनों के प्रतिनिधियों का एक विशेष सम्मेलन आयोजित करेंगे; ताकि किसान आन्दोलन को और मज़बूत किया जा सके।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी है।)

आख़िर सरकार की आँखों में क्यों खटक रहा किसान आन्दोलन?

महामारी से निपटने में नाकाम केंद्र सरकार किसानों से निपटने के लिए कड़े क़दम उठाने की दे चुकी है चेतावनी
राम प्रताप सिंह

कोरोना वायरस का हौवा लोगों के दिमाग़ में इस क़दर घर कर गया है कि इसके अलावा किसी को कुछ भी दिखायी नहीं दे रहा है। लेकिन दोबारा तेज़ी से बढ़ती इस महामारी की आड़ में कई बड़े आन्दोलनों कोख़त्म करने की कोशिशें की जा रही हैं। बता दें कि सन् 2019 में सीएए के ख़िलाफ़ शाहीन बाग़ के आन्दोलन को भी मौज़ूदा सरकार ने कोरोना का डर दिखाकर हीख़त्म किया था। किसान आन्दोलन इन दिनों का सबसे बड़ा आन्दोलन है, जिसे कुचलने के लिए सरकार हर सम्भव प्रयास करती रही है। लेकिन अब उसने साफ़ कर दिया है कि किसान आन्दोलन कोख़त्म किया जाएगा, जिसके लिए वह कोरोना फैलाने का आरोप भी किसानों के सिर पर मढ़ चुकी है। लेकिन किसान भी पीछे हटने वाले नहीं हैं और साफ़ कर चुके हैं कि जब तक सरकार तीनों नये कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलनख़त्म नहीं होगा। बहादुरगढ़ के टीकरी बॉर्डर, सिंघु बॉर्डर और ग़ाज़ीपुर बॉर्डर पर किसानों का धरना जारी है। लॉकडाउन की वजह से अपने घरों को लौट रहे प्रवासी मज़दूरों को भोजन करा रहे हैं। पिछले दिनों टीकरी बॉर्डर पर किसानों ने धन्ना सेठ जाट का जन्मदिवस मनाया और देशवासियों से किसान आन्दोलन में मदद देने की अपील की। सरकार इस बात को अच्छी तरह समझ चुकी है किख़ाली आश्वासनों से किसान आन्दोलन कोख़त्म नहीं किया जा सकता। इधर यूपी गेट पर ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी सरकार को कड़ा सन्देश दे चुकी है कि वह किसानों के ख़िलाफ़ कितने भी षड्यंत्र कर ले, लेकिन आन्दोलनख़त्म नहीं होने वाला। ग़ाज़ीपुर किसान आन्दोलन कमेटी के प्रवक्ता जगतार सिंह बाजवा ने आरोप लगाया कि केंद्र सरकार दिल्ली की सीमाओं पर चल रहे किसान आन्दोलन को समाप्त करने का षड्यंत्र कर रही है। इस जवाब के लिए आन्दोलन स्थल पर किसानों की संख्या बढ़ायी जा रही है। किसानों का कहना है कि सरकार भले ही हमारा आन्दोलनख़त्म करने की सा•िाश कर रही है, लेकिन हमारा संघर्ष जारी रहेगा। लेकिन सरकार अपनी •िाद छोडक़र पिछले लॉकडाउन में चुपके से बनाये कृषि क़ानूनों कोख़त्म भी नहीं करना चाहती और यही वजह है कि वह किसान आन्दोलन को अब कुचलने की $िफराक़ में है। सरकार ने कई किसानों के ख़िलाफ़ गुपचुप तरीक़े से क़ानूनी कार्रवाई भी की है। लेकिन किसान आन्दोलन गाँवों में फैल चुका एक ऐसा आन्दोलन बन गया है, जैसे कि अंग्रेजों से लड़ाई के ख़िलाफ़ गाँवों में कई जागृति आन्दोलन पनपने लगे थे। किसानों ने साफ़ किया है कि फ़सलों की कटाई के बाद वे एक बार फिर दिल्ली की सीमाओं पर जमा होंगे। भारतीय किसान यूनियन के प्रवक्ता राकेश टिकैत पूरी तरह से किसान आन्दोलन पर ध्यान दे रहे हैं। किसान आन्दोलन की मज़बूती यह है कि इसे किसान परिवारों महिलाओं और समाज के हर वर्ग और हर क्षेत्र से नामचीन लोगों के साथ-साथ आम लोगों का भरपूर समर्थन प्राप्त है, यही वजह है कि मुख्यधारा की मीडिया के इस आन्दोलन को न दिखाने के बावजूद यह बढ़ता ही जा रहा है।

कृषि प्रधान देश की विडम्बना
खेती दुनिया की अर्थ-व्यवस्था का मूल स्रोत है। बिना खेती के न तो जीवन की कल्पना की जा सकती है और नाही व्यापार चल सकता है। क्योंकि हमारा देश एक कृषि प्रधान देश है, इसलिए यहाँ तो इसका महत्त्व और भी बढ़ जाता है। लेकिन फिर भी बहुत-से लोग यहाँ पेट भर खाने, रोज़गार और तमाम तरह की मूलभूत सुविधाओं के लिए तरसते हैं। यहाँ तक किख़ुद हमारे देश के किसान दु:खी रहते हैं। देश की गिरती जीडीपी को पटरी पर लाने का काम खेती करके किसान ही कर सकते हैं और किसानों को ही सरकार कमज़ोर करने में लगी है। अगर खेती ही नहीं रहेगी, तो दूसरे काम-धन्धे कैसे चल सकेंगे? ताज्जुब है कि सन् 1950 के दशक में जीडीपी में कृषि क्षेत्र का योगदान जहाँ 50 फ़ीसदी था, वहीं 2015-16 में यह गिरकर 15.4 फ़ीसदी रह गया। यह तब हो रहा है, जब सन् 1950 से कृषि खाद्य उत्पादन बढक़र तक़रीबन पाँच गुना हो गया है। ऐसा अनुमान है कि साल 2025 तक देश की आबादी का पेट भरने के लिए 300 मिलियन (30 करोड़) टन खाद्यान्न की आवश्यकता होगी। लेकिन अगर खेती को हीख़त्म करने की सा•िाशें की जाएँगी, तो यह लक्ष्य कैसे हासिल हो सकेगा?

क्या दिल्ली को फिर घेरेंगे किसान?
सरकार को इस बात का डर है कि अगर किसानों ने दोबारा दिल्ली को घेरा, तो क्या होगा? शायद यही वजह है कि उसने कोरोना की आड़ लेकर किसान आन्दोलन को ख़त्म करने का मन बना लिया है। लेकिन सवाल यह भी है कि क्या किसान फिर से दिल्ली को उसी तरह घेरेंगे, जिस तरह उन्होंने पिछले साल गर्मी, बारिश और सर्दी भर दिल्ली को घेरे रखा? अगर ऐसा होता है, तो फिर सरकार के लिए इस आन्दोलन कोख़त्म करना नामुमकिन हो जाएगा; लेकिन अगर ऐसा किसान नहीं कर सके, तो इस आन्दोलन कोख़त्म करने में सरकार कामयाब हो सकती है। हालाँकि भारतीय किसान यूनियन (उग्राहां) इस बात का ऐलान कर चुकी है कि किसान आन्दोलनख़त्म नहीं होगा और एक बार फिर से दिल्ली का घेराव किया जाएगा। जल्द ही हज़ारों किसान पंजाब-हरियाणा के खनौरी बॉर्डर पर इकट्ठे होंगे और वहाँ से किसानों का जत्था जींद व रोहतक होते हुए टीकरी बॉर्डर पहुँचेगा।

खेती बिन सब सून
जीवन जीने के लिए जितनी ज़रूरत हवा पानी की है, उतनी ही खाने की। खाने का 85 फ़ीसदी हिस्सा खेती से ही मिलता है। इसलिए खेती बिना सब कुछ सूना हो जाएगा। दुनिया का ऐसा कोई मनुष्य नहीं, जो कृषि उत्पादों पर निर्भर न हो, लेकिन फिर भी कई लोग इसका महत्त्व नहीं समझते और किसान आन्दोलन को ग़लत ठहराने में लगे हैं। जबकि सच्चाई यह है कि किसान देश के अन्नदाता हैं और इस सच्चाई से किसी को भी आपत्ति नहीं होनी चाहिए। खेती से केवल लोगों का पेट ही नहीं भरता, बल्कि हरेक कामधंधा इसी से परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। ग़ौर करने वाली बात है कि कोरोना वायरस के दोबारा फैलने और सरकार द्वारा लॉकडाउन लगाने का यह वही समय है, जो कि पिछले साल था। पिछले साल भी रवि की फ़सलें कटाई के लिए खेतों में तैयार खड़ी थीं और लॉकडाउन लगाया गया था, जबकि इस बार भी रवि की फ़सलों,ख़ासकर गेहूँ की कटाई के दौरान ही लॉकडाउन लगाया गया। यह अलग बात है कि यह लॉकडाउन पूरे देश में नहीं लगाया गया है, क्योंकि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश में विधानसभा चुनाव चल रहे थे। किसानों और दूसरे लोगों ने सवाल भी उठाये कि इन राज्यों में लाखों लोगों की भीड़ जुटाकरख़ुद प्रधानमंत्री और गृहमंत्री ने चुनावी रैलियाँ, जनसभाएँ कीं। क्या वहाँ कोरोना नहीं फैला? लेकिन किसी ने इसका जवाब नहीं दिया। यह पहली बार है, जब कोई सरकार यह कहकर किसानों पर क़ानून थोप रही है कि ये क़ानून उनके हित में हैं; जबकि वह उन पर न तो खुलकर चर्चा करने को तैयार है और न ही किसानों के मना करने पर पीछे हटने को ही तैयार है।

किसानों के ख़िलाफ़ ग़लत प्रचार
सबसे बड़ी बात यह है कि अब तक सरकार किसानों के ख़िलाफ़ कई बार ग़लत प्रचार कर चुकी है। हाल ही में दिल्ली से भाजपा सांसद प्रवेश वर्मा ने आरोप लगाया कि किसान ऑक्सीजन की सप्लाई रोक रहे हैं, जिसके चलते ऑक्सीजन के टैंकरों को काफ़ी घूमकर आना पड़ रहा है, जिसकी वजह से दिल्ली में कोरोना मरीज़ों की जान जा रही है। इसके बाद आम आदमी पार्टी के सांसद संजय सिंह ने ऑक्सीजन टैंकर के ड्राइवर के बयान वाले वीडियो के साथ ट्वीट करके मामले को साफ़ किया। इस वीडियो टैंकर का ड्राइवर साफ़ कह रहा है कि किसानों ने कहीं भी टैंकर को न तो रोका और न उनकी वजह से टैंकर कहीं जाम में फँसा। भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने भाजपा सांसद के झूठी अफ़वाह फैलाने को अफ़सोसजनक बताते हुए कहा है कि किसानों की वजह से कभी भी किसी को भी कोई दिक़्क़त नहीं हो रही है, तो फिर मरीज़ों के ऑक्सीजन टैंकर रोकने का तो सवाल ही नहीं उठता। उन्होंने कहा कि मोदी सरकार किसानों को बदनाम कर रही है।
बता दें कि पिछले दिनों दिल्ली स्थित बालाजी अस्पताल में ऑक्सीजन की कमी हो गयी थी। आनन-फ़ानन में दो ऑक्सीजन टैंकरों को मँगाया गया, जो ट्रैफिक जाम के चलते कुछ फँसे थे, लेकिन इसमें किसानों की कोई भूमिका नहीं थी। पुलिस ने भी स्पष्ट किया कि ट्रैफिक जाम के कारण बॉर्डर पर ऑक्सीजन के टैंकर फँसे हुए थे, लेकिन ग्रीन कॉरिडोर बनाकर उन्हें वहाँ से निकाल दिया गया। गैस सप्लायर्स किसान आन्दोलन के चलते दो से तीन घंटे का समय बर्बाद होने का दावा कर रहे हैं। लेकिन हमने अपनी पड़ताल में पाया कि किसानों की वजह से कोई अड़चन नहीं आ रही है। किसान किसी के लिए भी रुकावट और परेशानी का कारण नहीं बन रहे हैं। बड़ी बात यह है कि पंजाब के कई किसान कोरोना के मरीज़ों के लिए ऑक्सीजन सिलेंडरों का इंतज़ाम भी कर रहे हैं। यहाँ याद दिला दें कि ये वही किसान हैं, जिन्हें केंद्र सरकार में कई मंत्रियों नेख़ालिस्तानी और आतंकवादी कहा था। लेकिन हमेशा देखा गया है कि सिख समुदाय और इस समुदाय के किसान किसी भी आपदा में पीडि़तों की मदद के लिए सबसे आगे खड़े मिलते हैं।
किसानों में मतभेद का सच
इधर एक अफ़वाह यह भी फैलायी जा रही है कि किसानों में मतभेद पैदा हो रहा है। यह अफ़वाह पहले भी कई बार फैलायी जा चुकी है। सरकार कई बार दावा कर चुकी है कि जो वास्तव में किसान हैं, वो कृषि क़ानूनों के समर्थन में हैं। यह भी कहा जा रहा है कि किसान संगठनों में बहुत मतभेद है। यह कोई बड़ी बात नहीं कि जब बहुत बड़ी संख्या में लोग एकख़ास मुद्दे को लेकर किसी मज़बूत संस्था से लड़ते हैं, तो उन्हें तोडऩे की कोशिशें की जाती है। यहाँ तो किसान सीधे सरकार से लड़ रहे हैं। ऐसे में यह सम्भव ही नहीं कि उन्हें तोडऩे की कोशिशें न हों। कुछ सरकार के पक्षधरख़ुद को किसान बताकर इस तरह के बयान भी दे रहे हैं कि वे कृषि क़ानूनों से संतुष्ट हैं। लेकिन सवाल यह है कि क्या वे वास्तव में किसान हैं? क्योंकि अभी तक वास्तविक किसानों ने कहीं भी यह नहीं कहा है कि वे नये कृषि क़ानूनों सेख़ुश हैं। ऐसे में किसानों के मतभेद की बात महज़ अफ़वाह लगती है। संयुक्त किसान मोर्चा (एसकेएम) और भारतीय किसान यूनियन दोनों ने यह साफ़ कर दिया है कि किसानों की माँगें पूरी होने के बाद ही वे आन्दोलनख़त्म करेंगे।

एसकेएम ने कहा है कि सरकार को कोरोना वायरस से लडऩा चाहिए, किसानों से नहीं। लेकिन इतने पर भी सरकारी तंत्र, सत्ता पक्ष के नेता किसान संगठनों के मुख्य और चर्चित नामों राकेश टिकैत और गुरनाम सिंह चढ़ूनी पर किसानों को बरगलाने का आरोप लगा रहे हैं। वहीं दिल्ली की सीमाओं पर डटे किसानों ने केंद्र सरकार पर तीन विवादास्पद कृषि क़ानूनों के ख़िलाफ़ चल रहे आन्दोलन कोख़त्म करने के लिए कोरोना वायरस का इस्तेमाल करने का आरोप लगाया है। किसानों द्वारा संसद मार्च निकालने के सवाल पर संयुक्त किसान मोर्चा ने बताया कि प्रस्तावित संसद-मार्च की तारी$ख अभी तय नहीं है, लेकिन देश के किसान एक बार फिर दिल्ली की ओर कूच करेंगे। इसके अलावा 10 मई को देश भर से किसान संगठन किसान आन्दोलन के हितैषी मज़दूरों, विद्यार्थियों, युवाओं और अन्य लोकतांत्रिक संगठनों के प्रतिनिधियों का एक विशेष सम्मेलन आयोजित करेंगे; ताकि किसान आन्दोलन को और मज़बूत किया जा सके।

(लेखक जामिया मिल्लिया इस्लामिया में शोधार्थी है।)

क़र्ज़ का मकड़जाल

A man carrying a sack walks past a graffiti of a healthcare worker during a lockdown to slow the spread of the coronavirus disease (COVID-19) in Mumbai, India June 29, 2020. REUTERS/Francis Mascarenhas

भारत पर क़र्ज़ का अनुपात कुल जीडीपी का 90 फ़ीसदी हो गया है : आईएमएफ रिपोर्ट

सरकार प्रधानमंत्री मोदी और भाजपा समर्थक सोशल मीडिया की देश को क़र्ज़ से मुक्ति दिलाने की लुभावनी, लेकिन भ्रमित करने वाली कहानियों के विपरीत भारत पर क़र्ज़ का पहाड़ इतना बड़ा हो गया है कि कोविड-19 की वर्तमान बदतर स्थिति और सम्भावित लॉकडाउन भारत को आने वाले समय में चिन्ताजनक आर्थिक स्थिति की तरफ़ धकेल सकते हैं। मोदी सरकार के बड़े पैमाने पर निजीकरण और सरकारी सम्पतियों को निजी हाथों बेच देने के बीच अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की नवीनतम रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत पर सकल घरेलू उत्पाद (जीडीपी) के 90 फ़ीसदी के अनुपात तक क़र्ज़ हो गया है। यूपीए की सरकार के समय यह 2013-14 में 75,66,767 करोड़ अर्थात् जीडीपी का 67.4 फ़ीसदी ही था। यहाँ यह भी कहा जा सकता है कि नरेंद्र मोदी भारत के सबसे ज़्यादा ते ज़ क़र्ज़ लेने वाले प्रधानमंत्री बन गये हैं। क़र्ज़ का एक नु क़सानदेह पहलू यह है कि इसके कारण केंद्र सरकार के ख़र्च हुए हर एक रुपये में से 25 पैसे ब्याज का भुगतान करने में ही ख़र्च हो जाएगा, जिसका सीधा असर विकास पर पड़ेगा। ऊपर से तुर्रा यह है कि 2021-22 के वित्त वर्ष के लिए भी मोदी सरकार ने 12 लाख करोड़ के भारी भरकम क़र्ज़ की तैयारी कर ली है। एक और रिपोर्ट है, जो चिन्ता पैदा करती है। रिसर्च ग्रुप प्यू रिसर्च सेंटर की नवीनतम रिपोर्ट के मुताबिक, 45 साल बाद भारत फिर सामूहिक $गरीबी की श्रेणी वाले देशों में शामिल हो गया है।

देश की इस छवि के बीच अमेरिका ने इसी 21 अप्रैल को भारत को तब बड़ा झटका दिया, जब उसने भारत को 10 अन्य देशों के साथ करेंसी मैनिपुलेटर्स (मुद्रा के साथ छेड़छाड़ करने वाला) देश की निगरानी सूची में डाल दिया। भारत ने अमेरिका के इस ऐलान के बाद कहा कि इस फ़ैसले में कोई आर्थिक तर्क समझ नहीं आता। आर्थिक जानकारों के मुताबिक, करेंसी मैनिपुलेटर्स की सूची में भारत का शामिल होना कोई अच्छी ख़बर नहीं, क्योंकि इससे भारत को विदेशी मुद्रा बा ज़ार में आक्रामक हस्तक्षेप करने में परेशानी आएगी। अमेरिका का कहना है कि वह सूची में उन देशों को ही डालता है, जो मुद्रा के अनुचित व्यवहार अपनाते हैं, ताकि डॉलर के मु क़ाबले उनकी ख़ुद की मुद्रा का अवमूल्यन हो सके।
कोरोना महामारी के बाद देश का क़र्ज़ जीडीपी अनुपात के ख़तरनाक स्तर पर पहुँच गया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) की 8 अप्रैल को जारी रिपोर्ट के मुताबिक, साल 2020 में देश का जो क़र्ज़ 74 फ़ीसदी था, वह कोरोना और लॉकडाउन के बाद बढक़र 90 फ़ीसदी पर पहुँच गया है। साल 2020 में देश की कुल जीडीपी 189 लाख करोड़ रुपये थी, जबकि क़र्ज़ क़रीब 170 लाख करोड़ रुपये था। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोविड-19 का फिर से और पहले से ज़्यादा ख़तरनाक रूप से सामने आना भारत की अर्थ-व्यवस्था के लिए ख़राब साबित हो सकता है। यदि ऐसा हुआ, तो दिसंबर से मार्च के बीच अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही की गति देखने को मिल रही थी, वह बुरी तरह प्रभावित हो सकती है। अर्थ-व्यवस्था में सुधार और उगाही को देखते हुए आर्थिक जानकार अनुमान लगा रहे थे कि इससे देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात बेहतर होकर 90 से क़रीब 10 फ़ीसदी नीचे जाकर 80 फ़ीसदी तक पहुँच सकता है, जो थोड़ी-बहुत राहत की बात होगी। लेकिन कोरोना वायरस के दोबारा पाँव पसारने से इस अनुमान पर ख़तरे की बादल मँडरा रहे हैं। बता दें यदि किसी देश पर क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात बढ़ता है, तो उसके दिवालिया होने की आशंका उतनी अधिक हो जाती है। विश्व बैंक के अनुसार, अगर किसी देश में बाहरी क़र्ज़ यानी विदेशी क़र्ज़ उसके जीडीपी के 77 फ़ीसदी से ज़्यादा हो जाए, तो उस देश को आगे चलकर बहुत मुश्किल का सामना करना पड़ सकता है। ऐसा होने पर किसी देश की जीडीपी 1.7 फ़ीसदी तक गिर जाती है। ‘तहलका’ की जुटायी जानकारी के मुताबिक, भारत ने वित्त वर्ष 2021-22 में (मार्च 31, 2021 तक) क़रीब 12 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लिया है। अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) के वित्तीय मामला विभाग के उप निदेशक पाओलो मॉरो ने कहा कि कोरोना महामारी से पहले साल 2019 में भारत पर क़र्ज़ का अनुपात जीडीपी का 74 फ़ीसदी था। लेकिन साल 2020 में यह जीडीपी के क़रीब 90 फ़ीसदी तक आ गया है। उनके मुताबिक, यह बड़ी बढ़त है। हालाँकि उन्होंने यह भी कहा कि दूसरे उभरते बा ज़ारों या उन्नत अर्थ-व्यवस्थाओं की भी कमोवेश यही हालत है। हमारा अनुमान है कि जिस तरह से देश की अर्थ-व्यवस्था में सुधार होगा, देश का क़र्ज़ भी कम होगा और जल्द ही यह क़र्ज़ 80 फ़ीसदी पर पहुँच जाएगा। हालाँकि यह भी सच है कि भारत में वर्तमान कोविड-19 स्थिति ने इस उम्मीद के लिए गम्भीर चुनौती खड़ी कर दी है।
आर्थिक कुप्रबन्धन के आरोप मोदी सरकार पर पहले से लगते रहे हैं। ऊपर से कोरोना और लम्बे लॉकडाउन और अब दोबारा वैसी ही स्थिति बनने से आर्थिक मोर्चे पर दोबारा गम्भीर स्थिति बन गयी है। देश में आर्थिक वृद्धि पर कोरोना वायरस की वजह से बड़ी मार पड़ी है। निर्यात बुरी तरह से प्रभावित हुई है और छोटे कारोबारियों की कमर टूट गयी है। आम आदमी की जेब में पैसा नहीं है। ऐसे में देश पर क़र्ज़ का यह बोझ चिन्ता पैदा करता है। क़र्ज़-जीडीपी अनुपात या सरकारी क़र्ज़ अनुपात के ज़रिये किसी भी देश के क़र्ज़ चुकाने की क्षमता का पता चलता है। जिस देश का क़र्ज़-जीडीपी अनुपात जितना ज़्यादा होता है उस देश को क़र्ज़ चुकाने के लिए उतनी ही ज़्यादा परेशानी झेलनी पड़ती है।

सरकार के दावे
वैसे अनुपात को लेकर भी मत साफ़ है। ज़्यादातर उन्नत देशों में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 40 से 50 फ़ीसदी रहता है। वित्त वर्ष 2014-15 में जब मोदी सरकार सत्ता में आयी थी, तो देश का क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात क़रीब 67 फ़ीसदी था। वैसे देश का जो भी कुल क़र्ज़ होता है, वह केंद्र और राज्य सरकारों के क़र्ज़ का योग होता है।
भले वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा है कि ग्रोथ को बनाये रखने के लिए अर्थ-व्यवस्था के पुनरुद्धार के लिए मोदी सरकार ने कई क़दम उठाये हैं, लेकिन ज़मीनी ह क़ी क़त चिन्ता पैदा करने वाली है। कोरोना वायरस और लॉकडाउन से उपजी स्थितियों के कारण सरकार के राजस्व में जिस तरह से कमी हुई है, उसने भी मोदी सरकार को ज़्यादा क़र्ज़ लेने के लिए मजबूर किया है। जानकारों के मुताबिक, कोरोना की वर्तमान गम्भीर स्थिति को देखते हुए अगले कुछ साल तक यही स्थिति बनी रह सकती है, भले ही सरकार दावे कर रही हो कि इन सबके बावजूद भारत में क़र्ज़ बोझ की स्थिति संतुलित रहेगी। आरबीआई की हाल की एक रिपोर्ट में भी यह कहा गया है कि भारत सरकार को राजस्व बढ़ाने के तमाम प्रयास करने होंगे।
सरकार के वित्त प्रबन्धकों का दावा है कि क़र्ज़ अदायगी को लेकर कोई समस्या नहीं आएगी; क्योंकि भारतीय अर्थ-व्यवस्था की स्थिति क़र्ज़ सँभालने लायक है। उनके मुताबिक, देश की जीडीपी के मु क़ाबले सरकार पर क़र्ज़ का अनुपात भले आज 90 फ़ीसदी पहुँच गया है, वर्ष 2026 तक घटकर यह 85 फ़ीसदी तक आ जाएगा। आरबीआई की रिपोर्ट में भी यह बात कही गयी है। आरबीआई की रिपोर्ट के मुताबिक, वर्ष 2020-21 में भारत ने बजटीय राजस्व का 25 फ़ीसदी हिस्सा क़र्ज़ चुकाने में ख़र्च किया, लेकिन भारत पर ब क़ाया क़र्ज़ की परिपक्वता अवधि 11 साल से ज़्यादा की है और इसमें विदेशी क़र्ज़ की हिस्सेदारी दो फ़ीसदी ही है।
आपको बता दें जीडीपी का अर्थ है- देश के कुल उत्पाद, बिक्री, ख़रीद और लेन-देन का निचोड़। यदि इसमें वृद्धि है, तो पूरे देश का लाभ है। इससे ही सरकार को ज़्यादा टैक्स हासिल होगा, कमायी ज़्यादा होगी और तमाम कामों पर और उन लोगों पर ख़र्च करने के लिए ज़्यादा पैसा होगा, जिन्हें मदद की ज़रूरत है। इसके विपरीत यदि ग्रोथ कम ज़ोर हुई, तो समझो बेड़ा गर्क। देश की वर्तमान आर्थिक स्थिति को इसी दौर से गु ज़रता हुआ कहा जा सकता है। कोरोना वायरस के कारण वास्तव में देश की अर्थ-व्यवस्था को कितना नु क़सान होने वाला है, इसके बारे में केंद्र सरकार खुलकर कहने से हिचकती रही है। विशेषज्ञों के मुताबिक, कोरोना वायरस का संकट विकराल होता है, तो जीडीपी बड़ी गिरावट की तरफ़ बढ़ सकती है।

और क़र्ज़ की योजना
सरकार का कहना है कि आकस्मिक परिस्थितियों में भारत अपनी मुद्रा में भी क़र्ज़ चुकाने की क्षमता रखता है। साथ ही भारत की आर्थिक विकास दर विदेशी क़र्ज़ पर औसत देय ब्याज में होने वाली सालाना वृद्धि दर से ज़्यादा रहेगी। पिछले वित्त वर्ष के पहले चार महीनों (अप्रैल-जुलाई, 2020) के दौरान केंद्र और राज्यों के राजस्व में बड़ी गिरावट हुई। कोरोना के बाद देशव्यापी लॉकडाउन से यह स्थिति बनी। आम बजट 2020-21 में मोदी सरकार ने बा ज़ार से सात लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ का अनुमान रखा था; लेकिन ह क़ी क़त में सरकार को मार्च, 2021 तक 12.80 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ लेना पड़ा। अब 2021-22 के वित्त वर्ष में मोदी सरकार ने 12.05 लाख करोड़ रुपये के क़र्ज़ की योजना बनायी है। लेकिन कोरोना वायरस से जैसी स्थितियाँ उत्पन्न हुई हैं, वो संकेत दे रही हैं कि यह आँकड़ा 15 लाख करोड़ रुपये तक पहुँच सकता है, जिससे क़र्ज़ का जीडीपी अनुपात 90 फ़ीसदी से का फ़ी आगे चला जाएगा, जो बेहद चिन्ताजनक स्थिति होगी। आरबीआई की रिपोर्ट बताती है कि सि$र्फ केंद्र सरकार पर ही क़र्ज़ का अनुपात स्तर जीडीपी के मु क़ाबले 64.3 फ़ीसदी हो गया है, जो राज्यों को मिलाकर वर्तमान में जीडीपी के 90 फ़ीसदी से अनुपात से अधिक है। आर्थिक विशेषज्ञों के मुताबिक, दुर्भाग्य से यदि भारत की आर्थिक विकास दर के नतीजे विपरीत आते हैं, तो आर्थिक स्थिति भयावह होने का बड़ा ख़तरा देश के सामने है।

सरकारी आँकड़ों के मुताबिक, भारी भरकम क़र्ज़ के कारण ही मौजूदा माली साल में राजकोषीय घाटा 9.5 फ़ीसदी है, जो एक रिकॉर्ड है। सितंबर, 2020 तक भारत का कुल सार्वजनिक क़र्ज़ 1,07,04,293.66 करोड़ रुपये (107.04 लाख करोड़ रुपये से अधिक) तक पहुँच गया, जो जीडीपी के क़रीब 68 फ़ीसदी के बराबर है। इस क़र्ज़ में इंटरनल डेट 97.46 लाख करोड़ और एक्सटर्नल डेट 6.30 लाख करोड़ रुपये का था। वित्त मंत्रालय के आर्थिक मामलों की एक रिपोर्ट के मुताबिक, पिछले 10 साल में क़र्ज़-जीडीपी अनुपात 67 से 68 फ़ीसदी के बीच रहा है। सार्वजनिक क़र्ज़ में केंद्र और राज्य सरकारों की कुल देनदारी शामिल है, जिसका भुगतान सरकार की समेकित राशि (इंटीग्रेटेड फंड) से किया जाता है।

सत्ता में आने से पहले अर्थ-व्यवस्था को लेकर नरेंद्र मोदी के जो विचार थे, वो उनके प्रधानमंत्री बनने के बाद बिल्कुल बदल गये हैं। आर्थिक सुधारों के नाम पर देश के संसाधनों और बैंकों आदि का व्यापक निजीकरण करने को लेकर प्रधानमंत्री मोदी पर गम्भीर सवाल उठ रहे हैं। आश्चर्य यह है कि मोदी कुछ साल पहले तक इस तरह के बैंकों के निजीकरण के फ़ैसलों के अपने ही वित्त मंत्री अरुण जेटली के प्रस्ताव के ख़िलाफ़ दिखते थे। मोदी की शैली के समर्थक भले उनके अभियान और नीति को कथित आत्मनिर्भरता के रूप में देखते हों, ज़्यादातर विशेषज्ञों का कहना है कि सरकारी राजस्व के ढेर होने जैसी स्थिति में पहुँचने के कारण सरकार को चलाने के लिए सरकारी सम्पत्तियों, जिनमें सार्वजनिक क्षेत्र के ब्लू चिप उपक्रम, बैंक और गैस पाइपलाइन, पॉवर ग्रिड आदि जैसे बुनियादी ढाँचे शामिल हैं; को पैसे का इंत ज़ाम करने के लिए सरकारी सम्पत्तियाँ बेचना भविष्य में बहुत घातक साबित हो सकता है।

क़र्ज़ और उसका असर
यह जानना भी ज़रूरी है कि क़र्ज़ लिया कैसे जाता है? दरअसल क़र्ज़ लेने के सरकार के दो तरी क़े हैं। एक आंतरिक (इंटरनल) और दूसरा बाहरी (एक्सटर्नल) यानी विदेश से क़र्ज़। आंतरिक क़र्ज़ बैंकों, बीमा कम्पनियों, रिजर्व बैंक, कॉरपोरेट कम्पनियों, म्यूचुअल फंड कम्पनियों आदि से लिया जाता है, जबकि विदेशी क़र्ज़ मित्र देशों, आईएफएम विश्व बैंक जैसी संस्थाओं और एनआरआई आदि से लिया जाता है। विदेशी क़र्ज़ का बढऩा अच्छा नहीं माना जाता, क्योंकि इसका जब सरकार को भुगतान करना होता है, तो यह अमेरिकी डॉलर या अन्य किसी विदेशी मुद्रा में करना पड़ता है। इससे देश का विदेशी मुद्रा प्रभावित होता है और उसमें कमी आती है। इंटरनल डेट में सरकार सरकारी प्रतिभूतियों (जी-सिक्यूरिटीज) के ज़रिये लोन लेती है। सरकार के लिए वह सारा धन क़र्ज़ ही होता है, जो बा ज़ारी स्थायीकरण ऋण-पत्र (मार्केट स्टेबिलाइजेशन बॉन्ड), राजकोष विपत्र (ट्रेजरी बिल), विशेष सुरक्षा (स्पेशल सिक्योरिटीज), स्वर्ण ऋण-पत्र (गोल्ड बॉन्ड), छोटी बचत योजना (स्माल सेविंग स्कीम), न क़दी प्रबन्धन विपत्र (कैश मैनेजमेंट बिल) आदि से आता है। किसी का भी जी-सिक्यूरिटीज (जी-सेक) या सरकारी ऋण-पत्र में निवेश एक तरह से सरकार को क़र्ज़ देना ही होता है और सरकार एक तय व क़्त के बाद तय ब्याज के साथ सरकार यह क़र्ज़ लौटाती है। विकास के कई कामों जैसे सडक़, स्कूल भवन आदि के निर्माण के लिए अक्सर सरकार इस तरह के जी-सेक जारी करती है।

एक साल से कम परिपक्वता अवधि वाले जी-सेक को राजकोष विपत्र कहा जाता है, जबकि इससे अधिक अवधि वाले जी-सेक सरकारी ऋण-पत्र कहलाते हैं। उधर राज्य सरकारें सि$र्फ बॉन्ड जारी करती हैं, जिन्हें राज्य अवमूल्यन ऋण (स्टेट डेवलपमेंट लोन्स) कहा जाता है। इसके अतिरिक्त सरकार ऑफ बजट क़र्ज़ भी लेती है। केंद्र सरकार इनका बजट में ज़िक्र नहीं करती न ही इसका असर राजकोषीय घाटे में दिखाया जाता है। केंद्र या राज्य सरकारों का क़र्ज़ जब तय सीमा से बाहर निकल जाता है, तो रेटिंग एजेंसियाँ सरकार या राज्य सरकार की रेटिंग घटा देती हैं, जिसका नु क़सान निवेश पर पड़ता है; क्योंकि विदेशी निवेशक एफडीआई के रूप में निवेश से हिचकते हैं और कम्पनियों के लिए भी क़र्ज़ महँगा हो जाता है।

क़र्ज़ का बढ़ता पहाड़
दुनिया भर में क़र्ज़दार देशों की सूची में भारत का आठवाँ स्थान है। अर्थात् दुनिया में सबसे ज़्यादा क़र्ज़ में डूबे देशों में हम आठवें स्थान पर हैं। भारत पर कुल 1,851 अरब डॉलर से ज़्यादा का क़र्ज़ है। वैश्विक क़र्ज़ में इसकी हिस्सेदारी 2.70 फ़ीसदी है। फरवरी 2021 के आँकड़ों के मुताबिक, क़र्ज़दार देशों की सूची में अमेरिका टॉप पर है और उस पर क़रीब 29,000 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। जापान क़र्ज़दारों की सूची में दूसरे नंबर पर है और उस पर उस पर 11,788 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। तीसरा नंबर चीन का है, जिसके सिर पर क़रीब 6,764 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। इस लिस्ट में चौथे स्थान पर इटली का नाम आता है, जिस पर 2,744 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। पाँचवाँ नंबर फ्रांस का है, जिसके ऊपर क़रीब 2,736 अरब डॉलर का क़र्ज़ है।
बहुत कम लोगों को जानकारी होगी कि दुनिया की सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था वाला देश अमेरिका भारत का भी क़र्ज़दार है। भारत का अमेरिका पर 216 अरब डॉलर का क़र्ज़ है। अमेरिकी सांसद एलेक्स मूनी ने हाल में कहा था कि देश का क़र्ज़ बढक़र 29,000 अरब डॉलर तक पहुँचने जा रहा है, जो बेहद चिन्ता का विषय है। इसके अलावा भारत के सन्दर्भ में कोरोना के कारण नकारात्मक वृद्धि (नेगेटिव ग्रोथ) का भी ख़तरा है। नकारात्मक वृद्धि का सीधा मतलब है कारोबार में कमी, बिक्री और मुनाफ़े में भी कमी। यहाँ बता दें कि जीडीपी अनुपात के मामले में भारत पर पिछले सात वर्षों में तेज़ी से क़र्ज़ बढ़ा है।

 

इस संकट में हमें देश की कम्पनियों और लोगों की मदद करनी चाहिए, जिससे वह अपने कामकाज को आगे बढ़ा सकें। इससे देश की अर्थ-व्यवस्था को भी रफ़्तार मिलेगी। यह भी महत्त्वपूर्ण है कि आम जनता और निवेशकों को यह फिर से भरोसा दिया जाए कि लोक-वित्त नियंत्रण में रहेगा और एक विश्वसनीय मध्यम अवधि के राजकोषीय ढाँचे से इसे किया जाएगा।’’

पाओलो मॉरो
उप निदेशक, आईएमएफ (वित्तीय मामलों का विभाग)

ज़िन्दगियाँ बचाने में नाकाम,  कमज़ोर स्वास्थ्य व्यवस्था

कोरोना वायरस पिछले साल से भी भयंकर रूप धारण कर चुका है। रो जाना कई राज्यों से दर् जनों लोगों की मौत की  ख़बरें आ रही हैं, जिसके चलते देश में भय का माहौल बना हुआ है। इस डर की वजह जहाँ महामारी है, तो वहीं अस्पतालों में सुविधाओं का अभाव और लापरवाही की  ख़बरों का सामने आना है। अस्पतालों में लापरवाही का आलम यह है कि समय पर इलाज न मिलने के कारण कोरोना के साथ-साथ अन्य रोगों से पीड़ित मरी ज भी असमय मौत के मुँह में समा रहे हैं। जहाँ देखो अ फ़रा-तफ़री का माहौल है। अस्पतालों में ऑक्सीजन के लिए हाहाकार मची हुई है, जबकि सच्चाई यह है कि बड़े अस्पतालों में ऑक्सीजन प्लांट लगे होते हैं। इसके बावजूद बा जारों से महँगे ऑक्सीजन सिलेंडर  ख़रीदकर सरकारी अस्पतालों में आपूर्ति की जा रही है। रेमडेसिवीर लगवाने के लिए लोग भटक रहे हैं। दवा के व्यापार में कालाबाज़ारी का बोलवाला बढ़ रहा है। देश में कोरोना के चलते अन्य रोगियों को समय पर इलाज नहीं मिल पा रहा है। देश का कम जोर स्वास्थ्य सिस्टम अब हाँफने लगा है।

तहलका संवाददाता ने इस अव्यवस्था को लेकर कई डॉक्टर्स और जानकारों से बातचीत की। जानकारों का कहना है कि डॉक्टर्स के तमाम दावों और सुझावों को न जरअंदा ज करते हुए सरकार ने कोरोना को लेकर स ख़्ती नहीं दिखायी, बल्कि कोरोना को लेकर अपनी सियासी  जमीन तैयार की है। कहा जाता है कि जब सियासतदान सियासी लाभ लेने की कोशिश में लगे रहते हैं, तो लोगों की परवाह नहीं करते। इस समय भी सियासतदानों का यही खेल चल रहा है और उनसे जुड़े लोगों के कारोबार  ख़ूब फल-फूल रहे हैं। मास्क, दवा और ऑक्सीजन प्लांट वाले जमकर चाँदी काट रहे हैं। ऑक्सीजन का अचानक अस्पतालों टोटा होना एक साज़िश का हिस्सा है, ताकि ज़्यादा मुनाफ़ा कमाया जा सके। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान (एम्स) के डॉक्टर्स ने तहलका संवाददाता को जनवरी माह में बताया था कि मार्च के महीने से ही कोरोना भयंकर रूप लेगा। ऐसा नहीं कि स्वास्थ्य मंत्रालय और नीति आयोग को इस मामले में जानकारी नहीं थी, बल्कि ब क़ायदा सारा  ख़ाका कोरोना को लेकर तैयार किया गया था। उसकी जानकारी आईसीएमआर स्वास्थ्य मंत्रालय को मुहैया कराता रहा है, फिर भी लापरवाही हुई है और कोरोना को लेकर सियासी साज़िश का खेला हुआ है।

जानकारों का कहना है कि कई मर्तबा सियासतदान अपने तरी क़े से ऐसे बयान देते हैं, जिसके मायने लोग अपने तरी क़े से निकाल लेते हैं। लेकिन कोरोना जैसी महामारी को लेकर इस बार जो सियासत हो रही है, उससे कोरोना वायरस के अस्तित्व पर ही लोग सवाल उठाने लगे हैं। जैसे कि देश के चार राज्यों और एक केंद्र शासित प्रदेश के विधानसभा चुनावों में कोरोना की चर्चा तक नहीं है और न ही वहाँ सियासतदान रैलियों और जनसभाओं में मास्क लगा रहे हैं। मौ जूदा व क़्त बहुत ना जुक है, लेकिन लापरवाही जारी है, कुछ लोगों की तर फ़ से तो काफ़ी हद तक सरकार की तर फ़ से। सरकार भले ही चेतावनी दे रही है कि अभी कोरोना का कहर यानी तबाही का मं जर अभी जारी रहेगा। लेकिन  ख़ुद सरकार की तरफ़ से बहुत-सी स्थितियाँ बेक़ाबू और अस्पष्ट हैं।

जबकि कई डॉक्टर्स का कहना है कि देश में स्वास्थ्य व्यवस्था म जबूती के साथ आगे बढ़ रही थी, जो अब डगमगाती दिख रही है। आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि जब देश की राजनीति जुमलेबा ज भाषणों से भरी हो, लोगों को गुमराह करने में लगी हो, चुनावी महासमर में लाखों लोगों की रैलियाँ हो रही हों, कुम्भ में लाखों लोगों का आना-जाना हो, तो कोरोना का भयंकर रूप से फैलना स्वाभाविक है। क्योंकि ऐसे हालात में देश की जनता यह मानने लगती है कि जब देश के सियासतदान कोरोना को लेकर फिक्रमंद नहीं हैं, इसका मतलब कोरोना नहीं है। इसलिए लोगों ने कोरोना वायरस से बचाव के लिए जारी दिशा-निर्देशों के पालन में लापरवाही की है। डॉक्टर बसंल का कहना है कि देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पिछले कोरोना-काल से ही कम जोर होने लगी थी, अब यह और भी लचर हो गयी है। कहने को तो सरकार अस्पताल में बेड्स की संख्या बढ़ा देती है, पर ह क़ी क़त कुछ और ही है। अस्तपालों में डॉक्टर्स और पैरामेडिकल कर्मचारियों की संख्या नहीं बढ़ायी जा रही है, जिससे बड़ी तादाद में भर्ती मरी जों की ठीक से देखभाल नहीं हो पा रही है। उन्होंने कहा कि देश के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री बाबाओं की दवा की कम्पनियों को प्रमोट करने, उन्हें बढ़ावा देने में लग जाते हैं कि कोरोना की यह दवा ठीक है, लेकिन अस्पतालों की व्यवस्था ठीक नहीं करते। ऐसे में जनता काफ़ी भ्रमित होती है। उन्होंने कहा कि सोशल मीडिया में  ग़ैर-प्रमाणित दवाओं को बढ़ावा दिया जा रहा है। लोगों ने अपने हिसाब से घरों में कोरोना की दवाएँ, यहाँ तक कि ऑक्सीजन के छोटे सिलेंडरों को रख लिया है और मनमािफक़ इलाज कर रहे हैं, जो कोरोना को बढ़ाने में लगा है। आख़िर लोगों में अस्पताल जाने कतराने की वजह क्या है? इन सब पर सरकार को रोक लगानी होगी।

मैक्स अस्पताल की कैथ लैब के डायरेक्टर (निदेशक) डॉ. विवेका कुमार का कहना है कि हृदय रोग एक ऐसा रोग है, जिसमें रोगी को तत्काल पर इलाज न मिलने पर उसकी जान जा सकती है। हृदय के वॉल्व  ख़राबी होने पर रोगियों को चलने-फिरने, साँस लेने में दि क़् क़त होती है। ऐसे में रोगियों को उपचार की  जरूरत होती है। ट्रांसकैथेटर माइट्रल वॉल्व रिप्लेसमेंट (टीएमवीआर) बीमारी का इलाज सरलता से किया जा सकता है।

डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि टीएमवीआर में रोगी को कमर से पलती तार डालकर आसानी से उपचार किया जाता है, जिससे रोगी को किसी प्रकार की कोई दिक़्क़त नहीं होती है। रोगी भी कम समय में स्वस्थ्य होकर घर चला जाता है। लेकिन कोरोना-काल में हर कोई यह सोचने लगा है कि साँस लेने में दि क़् क़त यानी कोरोना है। जबकि ये हृदय की समस्या के साथ-साथ वॉल्ब में  ख़राबी होने के लक्षण हैं। डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि कोरोना-काल में टीएमवीआर का इलाज से लोगों को काफ़ी लाभ हुआ है। ऐसे रोगी अब सामान्य जीवन व्यतीत कर रहे हैं। तहलका संवाददाता ने अस्पतालों में कोरोना-मरीजों के साथ-साथ दूसरे रोगों से पीडि़त मरी जों से बात की, तो उन्होंने रोग से ज़्यादा स्वास्थ्य सिस्टम में फैली लापरवाही के बारे में बताया। लोकनायक अस्पताल में कोरोना के चपेट में आने वाले मरी ज प्रदीप कुमार (38) ने बताया कि ऑक्सीजन की मारामारी उन्होंने ऐसी नहीं देखी कि उसके अभाव में मरी जों को जान के लाले पड़ गये हों। लेडी हार्डिंग अस्पताल में तो स्ट्रेचर भी किसी मरी ज को मिल जाए और डॉक्टर आकर देख जाएँ या ऑक्सीजन मिल जाए, तो समझो कि मरी ज बड़ा ही भाग्यशाली है या फिर बड़ी सि फ़ारिश वाला है। लेडी हार्डिंग में 18 अप्रैल को ज्ञान वाजपेयी कोरोना की शिकायत होने पर अपने दोस्त को लेकर गये, तो उनको अस्पताल में इस  क़दर स्ट्रेचर के लिए जूझना पड़ा जैसे कम जोरी में कोई पहाड़ चढऩा पड़ रहा हो। जैसे-तैसे उनको स्ट्रेचर मिला और उसी पर इलाज मिलना शुरू हुआ। देर रात तक बड़ी मुश्किल से उनको बेड मिला। लेकिन जाँचों में देरी के चलते उन्हें निजी अस्पताल में इलाज कराना पड़ा है।

नोएडा के सरकारी अस्पतालों का हाल तो और भी बेहाल है। इन सरकारी अस्पतालों में मरी जों को भर्ती तो कर लिया जाता है, लेकिन डॉक्टर्स की कमी होने के कारण मरी जों की सही से न देखभाल हो पा रही है और न ही उन्हें सही इलाज मिल पा रहा है। तहलका संवाददाता ने डॉक्टर्स से बात करके मरी जों का हाल जानना चाहा, तो उन्होंने मरी जों की पीड़ा के साथ-साथ अपनी पीड़ा सुनानी शुरू कर दी कि अस्पताल में पैरामेडिकल कर्मचारी और डॉक्टर्स की बहुत कमी है, जिसके चलते मरी जों की सही देखभाल नहीं हो पा रही है। ऐसे में डॉक्टर्स से जो हो पा रहा है, वे कर रहे हैं। डॉक्टर्स का कहना है कि शासन-प्रशासन को सब पता है, लेकिन कोई इस ओर ध्यान नहीं दे रहा है। सरकार को इससे निपटने के लिए सही इंत जाम करने होंगे, क्योंकि कोरोना की चपेट में तो डॉक्टर्स भी आ रहे हैं।

कहते हैं कि सत्ता में बैठे लोग ही अगर व्यवस्था पर आघात करने लगें, तो एक दिन वे भी इसकी चपेट में आ ही जाते हैं। ‘तहलका’ के पास ऐसे अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों की लम्बी लिस्ट है, जो कोरोना-काल में अपने परिजनों को सरकारी और प्राइवेट अस्पतालों में भर्ती कराने के लिए भटके हैं। सरकारी स्वास्थ्यकर्मियों तक को अपने इलाज के लिए भटकना रहे हैं, लेकिन उनका तक इलाज नहीं हो पा रहा है। सरकार जब लापरवाही बरतती है और अपनी गलतियाँ दूसरों पर मढ़नी शुरू कर देती है, तो सरकारी अधिकारी बिना कोई अड़ंगा लगाये उसकी नीतियों का समर्थन करने लगते हैं, क्योंकि उन्हें अपनी नौकरी भी बचानी होती है। ऐसा ही मामला जीबी पंत अस्पताल का है, जिसको सरकार ने कोविड सेंटर तो नहीं बनाया है, लेकिन अन्य अस्पतालों के कोरोना रोगियों को सीटी स्कैन और अन्य जाँचों के लिए भेजा जा रहा है। कोरोना रोगियों की बढ़ती संख्या में जल्दबा जी में की जा रही जाँचों के कारण सेनेटाइज तक नहीं किया जा रहा है, जिससे जाँच करने वाले ही कोरोना के चपेट में आ रहे हैं। इतना ही नहीं, अधिकारियों के परिजनों की जाँच होने के बाद भी वे कोरोना के चपेट में आये हैं। मतलब सा फ़ है कि व्यवस्था में कमियों का  ख़ामिया जा उन्हें भी भुगतना पड़ रहा है।

कोरोना वायरस से पीडि़त रामकिशन का कहना है कि वह दिल्ली के एक सरकारी अस्पताल में इलाज कराकर आये हैं। उन्होंने अनुभव किया है कि देश भर में कोरोना वायरस को लेकर जितना हो-हल्ला मचा रखा है, वो एक साज़िश है और झूठ को दबाने का प्रयास है। उन्होंने अस्पतालों में डॉक्टर्स की कार्यशैली देखी है, वे सरकारी महकमे से डरकर इलाज कर रहे हैं। दिल्ली सरकार के स्वास्थ्य कर्मचारी एसोसिशन के पदाधिकारी विजय ने बताया कि इस महामारी के दौर में जो देश में ऑक्सीजन की कमी हुई है, उसके लिए सीधे तौर पर केंद्र सरकार ज़िम्मेदार है और वह अपनी ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकती। इधर हरियाणा और दिल्ली सरकार के बीच ऑक्सीजन को लेकर झगड़ा हो रहा है, जो कि मरी जों के लिए कम, सियासी खेल ज़्यादा दिखता है। इसके चलते मरी ज पिस रहे हैं।

-डॉक्टर विवेका कुमार, मैक्स अस्पताल की कैथ लैब के निदेशक

देश में इस समय सही मायने जागरूकता पर बल देने की आवश्यकता है। लोगों के साथ-साथ डॉक्टर्स को कोरोना के साथ-साथ अन्य बीमारियों पर भी  ग़ैर करना चाहिए, अन्यथा रोग से पीडि़त लोगों को का फ़ी परेशानी हो सकती है। देश में डॉक्टर्स ने तामाम रोगों पर जो शोध किये हैं, उसका लाभ मरी जों को नहीं मिल पा रहा है। अगर सही मायने में देखा जाए, तो पिछले साल शुरू हुए कोरोना-काल से लेकर अब तक इलाज के अभाव में अन्य रोगों से बहुत लोग मरे हैं।’’

 

-डॉक्टर अनिल बंसल, आईएमए के पूर्व संयुक्त सचिव

देश की स्वास्थ्य व्यवस्था पिछले कोरोना-काल से ही कम जोर होने लगी थी, अब यह और भी लचर हो गयी है। कहने को तो सरकार अस्पताल में बेड्स की संख्या बढ़ा देती है, पर ह क़ी क़त कुछ और ही है। देश के बड़े नेता और केंद्रीय मंत्री बाबाओं की दवा कम्पनियों को प्रमोट करने, उन्हें बढ़ावा देने में लग जाते हैं कि कोरोना की यह दवा ठीक है। लेकिन अस्पतालों की व्यवस्था ठीक नहीं करते। ऐसे में जनता काफ़ी भ्रमित होती है।’’