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किसान आन्दोलन कोरोना से नहीं डिगेंगे किसान

कोरोना वायरस का संक्रमण जिस तेज़ी से फैल रहा है, उसी तेज़ी से किसान आन्दोलन की ख़बरें दबी हैं। लेकिन किसान आन्दोलन क़रीब नौ महीने से दिल्ली के सभी सीमाओं पर जारी है। पिछले साल से अब तक कोरोना वायरस का भय भी किसानों के मज़बूत इरादों को नहीं डिगा सका है और वो लगातार कृषि क़ानूनों के ख़लाफ़ आन्दोलन कर रहे हैं। पिछले दिनों यह ख़बरें भी उड़ी थीं कि किसान आन्दोलन ख़त्म हो गया है। यह भी कहा गया कि किसान कृषि क़ानूनों का विरोध नहीं कर रहे हैं, विरोध करने वाले बिचौलिये हैं, जिनकी काली कमायी इन क़ानूनों से बन्द हो जाएगी। लेकिन किसानों ने अपनी जान जोखिम में डालकर बारिश, सर्दी और गर्मी झेली है और आज भी अपनी जान पर खेलकर दिल्ली के सिंघु बॉर्डर, टीकरी बॉर्डर, बहादुरगढ़ बॉर्डर और गाजीपुर बॉर्डर पर शान्तिपूर्वक धरना दे रहे हैं। किसानों की साफ़-साफ़ माँग है कि सरकार जब तक तीनों कृषि क़ानूनों को वापस नहीं ले लेती, तब तक आन्दोलन ख़त्म नहीं होगा। अब किसान आन्दोलन पर युवती से दुष्कर्म की आँच पड़ रही है। पहले लाल क़िला मामला और अब टीकरी बॉर्डर मोर्चे पर आयी पश्चिम बंगाल की युवती मामले को लेकर किसानों को बदनाम किया जा रहा है। कोरोना संक्रमण से मृत्यु को प्राप्त युवती के अन्तिम संस्कार के कई दिन बाद अब उसके साथ सामूहिक दुष्कर्म की बात किसानों की बदनामी का हिस्सा हो गयी है। सवाल है कि जब अनिल व अनूप नामक युवकों के नाम सामने आ रहे हैं, तो उनकी गिरफ़्तारी में देरी क्यों हो रही है? किसान भी दोनों आरोपियों की गिरफ़्तारी के पक्ष में हैं। राजनीतिज्ञ योगेंद्र यादव ने भी पुलिस पूछताछ में यही बात कही है।


सर्वोच्च न्यायालय ने भी किसान आन्दोलन के मामले में सुनवाई की थी और सरकार से हल निकालने की बात कहते हुए एक समिति गठित की थी। लेकिन समिति टूट गयी और उसके बाद किसानों के मामले में कोई सुनवाई नहीं हुई। आख़र सर्वोच्च न्यायालय किस बात का इंतज़ार कर रहा है? सरकार किस बात का इंतज़ार कर रही है। कृषि क़ानूनों को किसान हित में बदलने का कोई प्रयास क्यों नहीं किया जा रहा है? देश के कई राज्यों के किसान दिल्ली के सीमाओं पर अहिंसक आन्दोलन कर रहे हैं और सरकार से लगातार नम्र निवेदन कर रहे हैं कि वह उनकी सुने और कृषि क़ानूनों को वापस ले। क्या सरकार का यह दायित्व नहीं कि वह कोरोना-काल में किसानों को भी उनके घर ससम्मान भेजे?
अब तक सभी सीमाओं पर 300 के क़रीब किसान शहीद हो चुके हैं, मगर सरकार के कान पर जूँ तक नहीं रेंगी। किसान सरकार से कोई दौलत नहीं माँग रहे हैं। वे केवल तीनों कृषि क़ानूनों को वापस लेने की माँग कर रहे हैं; जिन्हें सरकार उन पर जबरन थोपने पर तुली हुई है।
एक सीधी-सी बात यह है कि अगर किसान अपना हित नहीं चाहते, तो सरकार जबरन क्यों उनकी भलाई में लगी है? और अगर सरकार को किसानों का हित ही करनी है, तो वह किसानों का क़र्ज़माफ़ कर दे, जिसका वह 2014 में सत्ता में आने से पहले वादा भी कर चुकी है। इससे सरकार का वादा भी पूरा हो जाएगा और किसान भी ख़ुश हो जाएँगे। कुछ लोग कहते हैं कि अगर कृषि क़ानून लागू नहीं हुए तो किसानों की आय 2022 तक दोगुनी नहीं हो सकेगी। लेकिन ऐसे लोगों से जब क़ानून में शामिल बिन्दुओं के बारे में पूछो, तो उसका ठीक जवाब किसी के पास नहीं होता। जहाँ तक सवाल किसानों की आय दोगुनी करने का है, तो उसका सीधा सा तरीक़ा यही है कि किसानों को कृषि के लिए ज़रूरी ची•ों सस्ती दी जाएँ। उन्हें उद्योगपतियों की तरह मामूली ब्याज पर या बिना ब्याज के क़र्ज़दिया जाए। उनकी फ़सलों को निर्धारित मूल्य से नीचे नहीं ख़रीदा जाए और हर साल जिस तरह से महँगाई भत्ता बढ़ता है, उसी तरह से फ़सलों के दाम भी बढ़ाया जाए।

बातचीत से सरकार ने क्यों फेरा मुँह?
किसानों से बातचीत करके हल निकालने को लेकर सरकार ने उनसे 12 दौर की बातचीत की और फिर 22 जनवरी को आख़री 12वीं बातचीत के बाद से इससे मुँह फेर लिया। इसके बाद से सरकार और किसानों की बातचीत बन्द है।
हालाँकि इसका ठीकरा भी केंद्रीय कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों के सिर पर ही फोड़ते हुए कहा था कि हमने 12 दौर तक बैठकें कीं। जब यूनियनें क़ानूनों की वापसी पर अड़ी रहीं, तो हमने उन्हें कई विकल्प दिये। इतने दौर की बातचीत के बाद भी नतीजा नहीं निकला। इसका हमें ख़ेद है। फ़ैसला न होने का मतलब है कि कोई न कोई ताक़त है, जो इस आन्दोलन को बनाए रखना चाहती है और अपने हित के लिए किसानों का इस्तेमाल करना चाहती है। ऐसे में किसानों की माँगों पर फ़ैसला नहीं हो पाएगा। इसके बाद अभी हाल ही में कृषि मंत्री नरेंद्र सिंह तोमर ने किसानों से आन्दोलन ख़त्म करने को कहते हुए उन्हें चेतावनी भी दे डाली थी। लेकिन किसान डरे नहीं और साफ़ कह दिया था कि जब तक कृषि क़ानूनों को सरकार वापस नहीं कर लेती, वह पीछे नहीं हटने वाले।

क़ानून रद्द क्यों नहीं हो सकते?
फ़िलहाल सर्वोच्च न्यायालय के आदेश के बाद तीनों क़ानूनों पर रोक लगी हुई है। सरकार भी इस रोक को हटवाने की कोशिश नहीं कर रही है। इसका मतलब यह भी है कि सरकार किसानों को एक ढील देकर उन पर नकेल कसना चाहती है। सरकार अच्छी तरह जानती है कि अगर एक बार किसान आन्दोलन टूट गया, तो फिर उसे किसान संगठन भी 2020 की तरह बलशाली तरीक़े से खड़ा नहीं कर पाएँगे। पहले सरकार ने हर तरह के बल प्रयोग से किसानों को सीमाओं से खदेडऩा चाहा और जब किसान टस-से-मस नहीं हुए और अपनी माँगों पर अड़े रहे, तो सभी सीमाओं पर पाकिस्तान की सीमा की तरह कटीले तार और कीलों से घेराबंदी करायी। लेकिन जब इसकी निंदा पूरी दुनिया में होने लगी, तो सरकार को पीछे हटना पड़ा। अब सरकार ने कृषि बिलों को सीधे-सीधे वापस न लेकर उन्हें कुछ समय के लिए रोककर किसानों एक तरह की ढील दी है, ताकि वे थक हारकर अपने-अपने घरों को लौट जाएँ। लेकिन किसान सरकार की इस चाल को भी समझ गये हैं और इसका भी मुक़ाबला करने को पूरी तरह से तैयार हैं। सवाल यह है कि सरकार इन क़ानूनों को रद्द क्यों नहीं करना चाहती?

किसान विरोधी रवैये का नतीजा
यह देखने वाली बात है कि सरकार को भी किसान विरोधी रवैया का नतीजा धीरे-धीरे चुनावों में देखने को मिल रहा है। पाँच राज्यों के बाद उत्तर प्रदेश में हाल ही में हुए पंचायत चुनावों के नतीजे इसका बड़ा उदाहरण हैं। हालाँकि भाजपा की कई राज्यों के चुनावों में करारी हार की एक बड़ी वजह कोरोना संक्रमण के दौरान अस्पतालों की अव्यवस्था और पिछले दिनों डीजल-पेट्रोल के दाम भी बढ़े हैं। लेकिन किसान आन्दोलन सबसे बड़ा प्रभाव इसलिए पड़ा है। क्योंकि देश की अधिकतर आबादी कृषि से जुड़ी है और किसानों के साथ सहानुभूति रखती है। यही वजह रही कि इन चुनावों में भाजपा के बड़े-बड़े दिग्गज भी हार गये।
मेट्रो मैन ई.श्रीधरन जैसे दिग्गज ने भी किसान आन्दोलन के विरोध का परिणाम देखा है। वह इस बार भाजपा के टिकट से केरल से चुनाव भी लड़े थे, मगर हार गये। तो क्या वह किसान आन्दोलन के विरोध के कारण हारे थे? वैसे तो कहा जाता है कि केरल में भाजपा की दाल ही नहीं ग़लती; पर यह भी कहा जाता है कि मेट्रो मैन को केरल के लोग, विशेषकर उनके क्षेत्र के लोग बहुत मानते हैं। लेकिन उन्होंने किसानों के ख़लाफ़ खड़े होकर अपनी छवि ख़राब की है।


क्या बोले राकेश टिकैत?
भारतीय किसान यूनियन के राष्ट्रीय प्रवक्ता और किसान नेता राकेश टिकैत ने किसान आन्दोलन के बारे में साफ़ शब्दों में कहा कि किसान आन्दोलन तो तब तक चलता रहेगा, जब तक तीनों काले कृषि क़ानूनों को सरकार वापस नहीं ले लेती। कोरोना वायरस के संक्रमण-काल में भी दिल्ली के सीमाओं पर किसानों के जमे रहने के बारे में और इस महामारी से बचाव के बारे में पूछने पर उन्होंने कहा कि किसान कोरोना वायरस को लेकर सरकार द्वारा जारी सभी दिशा-निर्देशों का पूरी तरह पालन कर रहे हैं। सोशल डिस्टेंसिंग से रह रहे हैं और मास्क भी लगा रहे हैं। इसके अलावा पूरी जगह को लगातार सैनिटाइज किया जा रहा है। यहाँ कोरोना वायरस नहीं है। बॉर्डर पर आप आकर देख सकते हैं, यहाँ किसान हैं। कोरोना वायरस से आन्दोलन नहीं रुकेगा, आन्दोलन चलता रहेगा। यह पूछने पर कि किसान आन्दोलन को लेकर सरकार के रुख़ पर आपकी क्या रणनीति है? राकेश टिकैत ने दो-टूक जवाब दिया कि सरकार के रुख़ का तो नहीं पता, पर हमारा आन्दोलन तब तक जारी रहेगा, जब तक सरकार हमारी माँगें मान नहीं लेती। वैसे भी 22 जनवरी के बाद तो सरकार नहीं है। (शायद किसान नेता राकेश टिकैत का इशारा जनवरी, 2024 का है।)

 

सुप्रीम कोर्ट करे हस्तक्षेप
किसानों का मुद्दा कोई छोटा मुद्दा नहीं है। कृषि से देश का हर आदमी परोक्ष-अपरोक्ष रूप से जुड़ा है। इसलिए किसान प्रभावित होंगे, तो पूरा देश सफ़र करेगा। क्योंकि यह भूख से जुड़ा मुद्दा है और बिना रोटी के कोई भी जीवित नहीं रह सकता। इसलिए कृषि क्षेत्र बर्बाद हुआ या उसे पूँजीपतियों के हाथों में दे दिया गया, तो ग़रीब लोगों के लिए तो खाना खाने तक के लाले पड़ जाएँगे। हर चीज़महँगी हो जाएगी, जिससे हर आदमी सीधे-सीधे प्रभावित होगा। इसलिए इस मामले को सुप्रीम कोर्ट को सीरियस लेते हुए इसकी ख़ुद पैरवी करनी चाहिए और सरकार को तीनों क़ानूनों को रद्द करने को कहना चाहिए। अगर सुप्रीम कोर्ट ऐसा करता है, तो यह पूरे देश के हित में होगा। इस मामले को सुप्रीम कोर्ट जल्द-से-जल्द सुने या नये क़ानूनों में हस्तक्षेप करे।

सरकार को सिर्फ़ अपनी चमक की चिन्ता

वर्तमान एनडीए सरकार की उसके प्रदर्शन के बारे में सकारात्मक माहौल बनाये जाने की अक्सर आलोचना की जाती रही है। हालाँकि हाल के विधानसभा चुनावों के नतीजे, महामारी से बिगड़े हालात पर स्वास्थ्य प्रणाली पर सवालिया निशान और किसान आन्दोलन का समाधान खोजने में नाकाम रहने पर माहौल बदला है। ऐसे समय में जब सरकार तेज़ी से कार्य करने का दावा कर रही थी, तब भी असन्तुष्ट अधिकारी यह साबित करने पर तुले थे कि सब कुछ ठीकठाक चल रहा है।
हाल ही में प्रभावी संचार के लिए आयोजित एक कार्यशाला में केंद्र सरकार के क़रीब 300 आला अधिकारियों ने शिरकत की। आंतरिक सूत्रों ने बताया कि सूचना और प्रसारण मंत्री प्रकाश जावड़ेकर भी कार्यशाला में मौज़ूद थे। कार्यशाला का संचालन माईजीओवी के सीईओ अभिषेक सिंह ने किया था। यह मंच सरकार की सकारात्मक छवि बनाने के लिए नागरिक सहभागिता का एक सरकारी मंच है। इस पूरी क़वायद का मक़सद उस माहौल को बदलना था, जिससे सरकार ऐसी दिखे कि वह संवेदनशील, साहसी, त्वरित, उत्तरदायी, जनता की बात सुनने वाली और समाधान खोजने के लिए तत्पर है।


दिलचस्प है कि देश में बिगड़े हालात के नज़रिये को बदलने की आवश्यकता तब महसूस की गयी, जब भारतीय निर्वाचन आयोग ने मद्रास उच्च न्यायालय की उसके ख़िलाफ़ की गयी मौखिक टिप्पणियों को देश की सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। मद्रास उच्च न्यायालय ने कहा था कि चुनाव में कोरोना वायरस फैलने से रोकने के लिए कोरोना प्रोटोकॉल का पालन नहीं किया गया और इस पर चुनाव आयोग के ख़िलाफ़ का हत्या का मामला दर्ज किया जाना चाहिए। राजनीतिक दलों को चुनावी रैलियों में कोविड-19 प्रोटोकॉल के दुरुपयोग पर रोक नहीं लगायी गयी। न्यायाधीश डी.वाई. चंद्रचूड़ और एम.आर. शाह की खंडपीठ ने भारत के चुनाव आयोग से कहा कि मामलों की सुनवाई करते समय न्यायाधीशों द्वारा की गयी टिप्पणियाँ व्यापक जनहित में हैं और मीडिया को उन्हें रिपोर्ट करने से नहीं रोका जा सकता है। सर्वोच्च न्यायालय ने कहा कि हम आज के समय में यह नहीं कह सकते कि मीडिया अदालत में होने वाली चर्चाओं की रिपोर्ट नहीं करेगा।
यह महज़ कोविड-19 के बाद का परिदृश्य नहीं है, तथ्य यह है कि सरकार की नीति एक विलक्षण मूल भाव की विशेषता की रही है। नैरेटिव को बदलने के लिए स्क्रिप्ट को बदलना। यह मौलिक मान्यताओं के रूप में मौलिक मान्यताओं को चुनौती देने की अपनी क्षमता पर टिकी हुई है। सर्जिकल स्ट्राइक के दौरान कथा को कैसे बदला जाए? यह पिछली सरकारों के तहत किये गये कार्य, इस सरकार द्वारा उठाये गये क़दमों से इतर साबित हुए। पूर्व की सरकारों में इस तरह के मामलों को गुप्त रखा जाता था। लेकिन अब फ़ायदा उठाने के लिए उनको सार्वजनिक किया जाता है। प्रचार कथानक (स्क्रिप्ट) में बदलाव के संकेत से माहौल बनाने में मदद मिलती है, जैसे जोखिम लेने के दावे। वर्तमान में ऐसे बयान देकर माहौल बनाया जाता है कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली सरकार ने कुछ भी नहीं किया है। बदलाव के बाद राजनीतिक बयानों, कूटनीतिक क़दमों और इस सरकार द्वारा अपने जोखिम लेने के दृष्टिकोण के समर्थन में किये गये सैन्य विकल्पों के संयोजन से सर्वोत्तम रूप से समझाया जाता है। थोड़े समय के लिए ऐसा लोगों के दिमाग़ में भरा जा सकता है; लेकिन हमेशा के लिए इसे लागू इसमें निहित सभी मुद्दों को हल करने के लिए लम्बी रणनीति अपनानी होती है।
उदाहरण के लिए भारत वैश्विक कोरोना महामारी की दूसरी लहर से बुरी तरह जूझ रहा है और इसी बीच क़रीब 20,000 करोड़ रुपये की लागत से बनायी जा रही सेंट्रल विस्टा परियोजना सत्ता के गलियारों में कई चर्चाओं का केंद्र में है। इसे आवश्यक सेवा की श्रेणी में रखा गया है। जब कोरोना मरीज़ों को ऑक्सीजन और वेंटिलेटर न मिलने पर मौत हो जा रही हैं, वैसे समय में इस परियोजना पर काम चल रहा है। इसके लिए बाक़ायदा विशेष अनुमति दी गयी है, ताकि परियोजना का काम न रुके। आप इसे ग़लत प्राथमिकताएँ या अहंकार कह सकते हैं। परियोजना में वर्तमान संसद भवन की जगह एक नया संसद भवन शामिल है, जिसमें प्रधानमंत्री और उप-राष्ट्रपति के लिए नया आलीशान आवास और कई केंद्रीय सरकारी विभागों के लिए कार्यालय होंगे। इसमें एक नया संसद भवन परिसर होगा। इसके उच्च सदन में 1,224 सदस्य और निचले सदन में 888 सदस्य बैठने की क्षमता होगी। वर्तमान में उच्च सदन 245 को समायोजित करता है, जबकि निचले सदन की क्षमता 545 है। नये परिसर में संसद के सभी सदस्यों के लिए अलग-अलग कार्यालय भी होंगे। इसमें चार मंज़िला इमारतों वाला प्रधानमंत्री का निवास भी है। सरकार का लक्ष्य दिसंबर, 2022 तक सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को पूरा करना है।
आमतौर पर यह माना जाता है कि विदेशी मीडिया सरकार की धारणा पर बहुत गहरी चोट कर रहा है। ‘द गार्जियन’ में प्रकाशित एक लेख में कहा गया था कि भारत में ऑक्सीजन की क़िल्लत है। लेकिन उसके सियासतदान इस बात से इन्कार करते हैं कि वहाँ कोई समस्या है। लेखक द गार्जियन में कहते हैं कि ऐसे समय में जब देश अपने कोविड-19 रोगियों के लिए ऑक्सीजन हासिल करने के लिए मारामारी करनी पड़ रही है, कई जगह कमी के चेलते लोग जान भी गँवा रहे हैं। इस दौरान भी सियासी नेता न केवल उपेक्षा कर रहे हैं, बल्कि उन लोगों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने की धमकी देते हैं, जो इस बारे में सच्चाई को सामने ला देते हैं।
सीएनएन के एक लेख में देश भर में कोविड के मामलों में वृद्धि के लिए चुनावी रैलियों कोज़िम्मेदार माना गया है। इसमें कहा गया है कि भारत में दूसरी लहर कीज़िम्मेदारी सरकार की पहली और सबसे महत्त्वपूर्ण थी और लोग अपनी सरकारों से उम्मीद करते हैं कि वे उन्हें आश्वासन दें और उनकी देखभाल करें। लेकिन सरकार अपना काम करने में पूरी तरह से नाकाम रही या कहें कि ग़ायब रही।
अटलांटिक के संपादकीय में लिखा कि मौज़ूदा संकट को हल करने में मदद करने के लिए सरकार को पहली और दूसरी लहर के बीच बहुत कम समय मिला। भारत में वायरस का संक्रमण फैलने के बाद पहले क्रूर तालाबन्दी की गयी थी, जिससे सबसे ग़रीब और कमज़ोर लोगों को चोट पहुँची। लॉकडाउन कथित तौर पर देश के शीर्ष वैज्ञानिकों से परामर्श के बिना लगाया गया था। फिर अभी तक देश के स्वास्थ्य देखभाल के बुनियादी ढाँचे के निर्माण के लिए न तो समय का उपयोग किया गया और न ही सरकार ने इस महामारी की जंग को जीतने के लिए कोई ख़ाका पेश किया।
फाइनेंशियल टाइम्स ने भारत की दूसरी लहर की त्रासदी शीर्षक से लिखे लेख में चेतावनी दी है कि अस्पतालों के बाहर सडक़ों पर लोगों को ऑक्सीजन की कमी से मरते देखने की रिपोर्ट करना विचलित करने वाला है। जबकि कोरोना वायरस की पहचान 16 महीने पहले हो चुकी थी। फ्रांसीसी अख़बार ‘ले मोंडे’ ने लिखा है कि दूरदर्शिता, अहंकार, और लोकतंत्र की कमी ज़ाहिर तौर पर ऐसी स्थिति के कारणों में से एक है, जिससे अब स्थिति नियंत्रण से बाहर हो
गयी है।


टाइम पत्रिका ने लिखा- ‘भारतीय मीडिया सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश करती है, उसमें जवाबदेही की कमी है, इसकी वजह से मौज़ूदा संकट पैदा हुआ है। कई हिन्दी और अंग्रेजी भाषा के समाचार चैनलों के साथ-साथ क्षेत्रीय समाचार माध्यमों ने सरकार की सफलताओं को बढ़ा-चढ़ाकर पेश किया; जबकि उसकी विफलताओं को उजागर नहीं किया। साथ ही विपक्ष, मुस्लिमों और वामपंथियों व एनजीओ के प्रदर्शनकारियों को देश विरोधी के रूप में पेश करने के लिए लगा रहा। आलोचना पर ऐसे समय चिन्ता ज़ाहिर की जा रही है, जब बेड और ऑक्सीजन की देश में व्यापक कमी के चलते बड़ी तादाद में लोगों की मौत हो रही है। चिताओं की आग बुझ नहीं रही है। और तो और नदियों में तक लोग शवों को बहा दे रहे हैं। इससे हालात का अंदाज़ा लगाया जा सकता है।
वहीं, इसी बीच वरिष्ठ सरकारी अधिकारियों के साथ एक वीडियो-कॉन्फ्रेंसिंग के माध्यम से आयोजित कार्यशाला से पता चलता है कि सरकार गम्भीरता से बदलाव के लिए नैरेटिव को नकारात्मक से सकारात्मक करने की कोशिश में लगी है। उदाहरण तौर पर 18 साल से अधिक उम्र के लोगों के टीकाकरण पंजीकरण के दौरान कोविन पोर्टल के क्रैश होने की ख़बर छापने से सरकार नाराज़ हो जाती है। दरअसल, दूसरी कोविड लहर की शुरुआत के बाद से ही सरकार बैकफुट पर है। महामारी के अपने कुप्रबन्धन के लिए उसे हरिद्वार में कुम्भ मेला और चुनावी रैलियों जैसे बड़े सार्वजनिक भीड़ जमा करने वाले आयोजनों को अनुमति देना शामिल है। सरकार की कोशिश है कि इस तरह का माहौल बने कि ये सब चीज़ों गौण हो जाएँ।

साँसों के सौदागर और फ़रिश्ते

 

कोरोना महामारी के इस दौर में इंसानियत के पुजारीफ़रिश्ते बनकर और साँसों के सौदागर शैतान बनकर सामने आ रहे हैं। इस आपदा में हर किसी को यही उम्मीद कि अगर वह परेशानी में उसकी हर सम्भव हो मदद की जाए। रुकती साँसों की डोर अगर किसी के प्रयास से जारी रहती है, तो इससे बड़ा काम और क्या हो सकता है?
कोरोना वायरस का यह दूसरा चरण बेहद घातक साबित हो रहा है। कोरोना संक्रमण के समय ऑक्सीजन की कमी, अस्पतालों में इसका और रेमडेसिवीर की कमी के इस भयावह दौर में मदद ईश्वर की अनुकंपा जैसी है। पर संवेदनहीन लोगों को इससे क्या? उन्हें ऐसा ही समय चाहिए होता है, जब लोग मजबूर हों। साँस चलने के लिए हर क़ीमत अदा करने को तैयार हों। तब ऐसे मरे ज़मीर और दुरात्मा लोगों का खेल चलता है। एंबुलेंस वाले मुँह माँगे दाम पर और पहले नक़द लेकर चलने पर तैयार होते हैं। ऐसा इसलिए, ताकि मरीज़ के साथ कुछ अप्रिय हो जाए, तो उनका पैसा न डूब जाए। पैसा डूबने के ख़तरेको ऐसे लोग किसी की जान से ज़्यादा महत्त्व देते हैं।
कोरोना की दूसरी लहर में संक्रमितों की संख्या और मौत का आँकड़ा, दोनों तेज़ी से बढ़ रहे हैं। ज़्यादातर मौतें साँस लेने में आ रही दिक़्क़त से या दिल की धडक़नें रुकने से हो रही हैं। यह बहुत भयावह है। राष्ट्रीय आपदा के इस कालखण्ड में कोविड-19 के मरीज़ों की साँस चले इसके लिए निजी तौर पर कई धार्मिक और सामाजिक संगठन बहुत कुछ कर रहे हैं। इनसे जुड़े लोग न केवल मदद कर रहे हैं, बल्कि संक्रमण होने का ख़तरा उठा रहे हैं। मरीज़ों को अपने यहाँ ऑक्सीजन दे रहे हैं।
दिल्ली गुरुद्वारा प्रबन्धक समिति के प्रयास बेहद सराहनीय है। दिल्ली में कई स्थानों पर ऑक्सीजन लंगर चल रहे हैं। हज़ारों लोगों को राहत मिल रही है। अस्पतालों से धक्के खाकर लोग यहाँ पहुँच रहे हैं और बिना किसी भेदभाव के ऑक्सीजन मिल रही है। दूसरी तरफ़ कुछेक तत्त्व मजबूरी काफ़ायदा उठाकर रुपये बटोरने में लगे हैं। ऐसे लोगों का ज़मीर मर चुका है। संकट की इस घड़ी में उन्हें यह मुनाफ़े का धन्धा जैसे उन्हें पूरी तरह से रास आ रहा है। शव को सीधे अन्तिम संस्कार स्थल तक ले जाने के लिए मुँह माँगे पैसे वसूल रहे हैं। मिन्नते करने के बाद वे अपने बताये दाम पर जाने को तैयार हो रहे हैं। प्रति किलोमीटर 1000 रुपये से कम पर जाने को तैयार नहीं होते। एंबुलेंस के अलावा दूसरा कोई विकल्प नहीं है। ऐसे में मजबूरी में लोगों को यह सब करना पड़ रहा है।
ज़्यादातर राज्यों में वहाँ की सरकारों का एंबुलेंस पर कोई नियंत्रण नहीं है। प्रति किलोमीटर दर तय नहीं है। जिन अस्पतालों या चिकित्सा संस्थानों के साथ ये एंबुलेंस पंजीकृत होती हैं, उनकी भी ज़िम्मेदारी होती है। लेकिन संकट-काल में सारी व्यवस्था जैसे फेल हो चुकी हैं। अवसरवादी लोगों की आत्मा तो पहले ही मर चुकी है। बिलखते परिजनों की गुहार से जैसे उनका कोई सरोकार ही नहीं रह गया है। कोरोना मरीज़ों के शरीर में ऑक्सीजन का स्तर बहुत कम होने के बाद साँसों को संयमित करने के लिए कंसेट्रेटर बेहद काम के साबित हो रहे हैं। लेकिन विदेशों से आयातित इन कंसेट्रेटरों की भी कालाबाज़ारी हो रही है।
दिल्ली के कारोबारी नवनीत कालरा जैसे लोग इस आपदा को पैसा कमाने का मौक़ा मान रहे हैं। 15,000 से कम क़ीमत के इन कंसेट्रेटरों को तीन से चार गुना दामों पर बेचा जा रहा था। यह गिरोह क़रीब एक माह से इस धन्धे में लगा हुआ था। शिकायत के बाद पुलिस ने छापेमारी कर सैकड़ों उपकरण बरामद किये हैं।
इसी तरह से मेट्रिक्स सेलुलर सर्विसेज के मुख्य कार्यकारी अधिकारी गौरव खन्ना को भी पुलिस ने गिरफ़्तार किया है। वेंटीलेटर स्पोर्ट वाली एंबुलेंस के ज़रिये गुडग़ाँव से लुधियाना (क़रीब 350 किलोमीटर) ले जाने के 1,20,000 रुपये वसूलने वाला मिमोही कुमार बौंदवाल अब सलाख़ों के पीछे है। एंबुलेंस संकट-काल में मरीज़ के लिए वरदान होती है। लेकिन इसका इतना व्यासायीकरण करने वाले बौंदवाल जैसे लोग मानवता के लिए कलंक से कम नहीं हैं। उसने न केवल वसूली गयी राशि वापस की, बल्कि उसके ख़िलाफ़ विभिन्न धाराओं में मुक़दमा भी दर्ज हो गया।
गुडग़ाँव की अमनदीप कौर कहती हैं कि यह पैसा वह अपने पास नहीं रखेंगी, बल्कि कोरोना प्रभावितों के लिए ही ख़र्च करेंगी। उन्हें अपनी माँ को बचाना था। वह उन्हें मरते नहीं देखना चाहती थीं। जब गुडग़ाँव के किसी अस्पताल में जगह नहीं मिली, तो प्रयास से लुधियाना में बेड का भरोसा मिला था। वहाँ ले जाने के लिए एंबुलेंस बड़ी मुश्किल से मिली। 95 हज़ार रुपये अग्रिम देने के बाद ही वह चलने को तैयार हुआ। बाक़ी राशि वहाँ पहुँचने के बाद दी गयी। न जाने कितने बैंदवाल, कालरा और गर्ग साँसों के सौदागर बने हुए हैं। ऐसे लोगों के ख़िलाफ़ कड़ी के कड़ी कार्रवाई
होनी चाहिए।


एक तरफ़ ऐसे लोग हैं, तो दूसरी तरह महाराष्ट्र के प्यारे ख़ान जैसे भी हैं, जो मुफ़्त में ऑक्सीजन मुहैया कराने की मुहिम में जुटे हैं। कई सिख संगठन भी मुफ़्त में ऑक्सीजन लंगर चला रहे हैं। इसी कड़ी में फ़िल्म अभिनेता सोनू सूद बहुत अच्छा काम कर रहे हैं। पिछले साल कोरोना-काल की शुरुआत के दौर में शुरू किये उनके काम अभी तक बदस्तूर चल रहे हैं। यह समय किसी की जान बचाने में मददगार बनने का न कि मजबूरी काफ़ायदा उठाकर लोगों को लूटने का। अपनों की ज़िन्दगी बचाने के लिए $गरीब-से-$गरीब आदमी भी हर सम्भव प्रयास करता है।
जब सरकारी तंत्र कारगर साबित न हो, तो समाज के उन लोगों को आगे आना चाहिए, जो मदद करने में सक्षम है। संकट के इस दौर में बड़े कारोबारी भी हर सम्भव मदद कर रहे हैं। यह समय सरकार के ही भरोसे बैठने का नहीं हर सक्षम व्यक्ति को मदद करनी चाहिए। दूसरी के बाद तीसरी लहर पता नहीं यह कोरोना-काल कब तक चलेगा। हर व्यक्ति भयभीत है, मौत से डरा हुआ। हमारे देश की स्थिति इस समय सबसे ज़्यादा ख़राब है। जिस तरह से पहली लहर पर सरकार ने लगभग ठीक से क़ाबू पा लिया था, वहीं यह दूसरी लहर उसकी नाकामी बता रही है।
तीसरी लहर इससे कई गुना ज़्यादा ख़तरनाक साबित होगी, जिसमें बच्चे भी प्रभावित होंगे। यह कब आएगी? कब तक रहेगी? और इसकी भयावहता कितनी होगी? इसको लेकर आशंका और डर के बादल छाने लगे हैं। उस स्थिति से केंद्र और राज्य सरकारें कितनी सक्षम होंगी? यह तो वक़्त ही बताएगा। केंद्र और राज्य सरकारें अपने तौर पर अस्पतालों में पर्याप्त ऑक्सीजन पहुँचाने में अभी तक नाकाम साबित हो रही है। ऑक्सीजन की कमी से सैकड़ों लोगों की मौत हो चुकी है। बावजूद इसके अभी तक कोई भी राज्य यह दावा नहीं कर सकता कि उनके यहाँ अस्पतालों में इसका पर्याप्त भण्डारण है। केंद्र सरकार ऑक्सीजन के सही वितरण में पूरी तरह से नाकाम साबित रही है।
ऑक्सीजन की कमी से मरते लोगों की दास्तान के बाद कई राज्यों के उच्च न्यायालयों के अलावा सर्वोच्च न्यायालय को हस्तक्षेप करना पड़ा। इसके बावजूद भी स्थिति में बहुत ज़्यादा सुधार नज़र नहीं आ रहा। दिल्ली में ऑक्सीजन की विकट स्थिति पर सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से प्रतिदिन 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन को सुनिश्चित बनाने का आदेश दिया है। लेकिन इसकी पूरी तरह से पालना अभी तक नहीं हो सकी है। केंद्र शासित प्रदेश चंडीगढ़, पंजाब और हरियाणा के अस्पतालों में ऑक्सीजन की कमी चल रही है। देश के बहुसंख्यक राज्य ऑक्सीजन की कमी महसूस कर रहे हैं।
कोई भी राज्य आज इस क्षेत्र में आत्मनिर्भर नहीं है। बढ़ते मरीज़ों की संख्या से अस्पताल में जगह की कमी होती जा रही है। सरकारी प्रयास नाकाफ़ी साबित हो रहे हैं। स्थिति बहुत विकट हो रही है। कोरोना अब शहरों के बाद गाँवों में बढ़ रहा है। हरियाणा के कई गाँव इससे बहुत ज़्यादा प्रभावित हो रहे हैं। रोहतक ज़िले के टिटोली गाँव में 10 दिन के अन्दर 40 से ज़्यादा मौतें हो चुकी हैं। सैकड़ों लोग संक्रमण से प्रभावित हैं। इसी तरह से हिसार के उकलाना, भिवानी के मुंढाल ख़ुर्द और मुंढाल कलां जैसे गाँवों में कोरोना पूरी तरह से पाँव पसार चुका है। कुछ ही दिनों में यहाँ तीन दर्ज़न से ज़्यादा मौतें हो चुकी है। आने वाले दिनों में देश भर के कई गाँवों की ऐसी ही ख़बरें सामने आ सकती हैं। इसलिए केंद्र सरकार और राज्य सरकार को गाँवों में कोरोना महामारी से निपटने में तत्परता दिखानी होगी।

लगे रासुका
संकट के इस दौर में ऑक्सीजन, बेड, कोरोना-टीका और अन्य दवाओं की कालाबाज़ारी बड़े स्तर पर हो रही है। असली ब्रांड की नक़ली टीके और दवाओं का खेल भी धड़ल्ले से चल रहा है। पुलिस ने ऐसे कई मामलों का पर्दाफ़ाश किया है। कालाबाज़ारी करने वाले गिरफ़्तार हो रहे हैं। नक़ली और कालाबाज़ारी के लिए जमा दवाएँ तथा ऑक्सीजन को पुलिस बरामद कर रही है। ऐसा करने वाले मानवता के दुश्मनों के ख़िलाफ़ बिना किसी रहम के राष्ट्रीय सुरक्षा क़ानून के तहत सख़्त कार्रवाई होनी चाहिए। इसके अलावा राज्य सरकारों को एंबुलेंस की दरें तय कर देनी चाहिए। ज़्यादा बसूलने वालों के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई का प्रावधान करना चाहिए। बिहार सरकार ने इस दिशा में पहल की है, लेकिन अन्य राज्यों में मनमाने दाम वसूलने का खेल जारी है।

यह कैसी आत्मनिर्भरता?
प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी देश को आत्मनिर्भर को कहते हैं। सवाल यह है कि वह किस तरह का आत्मनिर्भर देश बनाना चाहते हैं? ऐसा आत्मनिर्भर कि मरते लोगों को इलाज के लिए दर-दर भटकना पड़े? या इस तरह का कि आपदा में दूसरे देशों पर निर्भर होना पड़े? आज केंद्र सरकार और राज्य सरकारें कोरोना महामारी से और बेहतर तरीक़े से निपट सकती हैं। लेकिन ऐसा नहीं हो रहा है। यह कैसी आत्मनिर्भता है? कि लोगों को मरने के लिए छोड़ दिया गया है। हम आज भी तमाम ज़रूरी चीज़ों के लिए दूसरे देशों, विशेषकर चीन पर निर्भर हैं और यह निर्भरता दिन-दिन बढ़ती ही जा रही है। दुनिया के कई देशों को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी उद्योग लगाने का निमंत्रण दे चुके हैं। लेकिन पिछले सात साल में किसी ने इसमें रुचि नहीं दिखायी है। चीन ने ज़रूर अपनी कुछ कम्पनियाँ स्थापित की हैं; लेकिन अपनी शर्तों पर। प्रधानमंत्री की छवि पर इसका काफ़ी विपरीत प्रभाव पड़ा है। देश में उन्होंने कई योजनाओं की घोषणा भी अब तक की है; लेकिन कोई भी योजना पूरी होती नहीं दिखी है।

आत्मघात का कारण बन रहा कोरोना वायरस

 

बाहर से ख़ुशहाल नज़र आते परिवार क्या वाक़ई ख़ुशहाल होते हैं? जयपुर में जाने-माने सर्राफ़ा व्यवसायी यशवंत सोनी ने जिस तरह पत्नी और दो बेटों के साथ आत्मघात किया, उसने तो यह भ्रम तोड़ दिया है। सन्न कर देने वाली यह घटना जामडोली के राधिका विहार में हुई। यशवंत के आत्महत्या लेख (सुसाइड नोट) पर भरोसा करें, तो मामला क़र्ज़ का सामने आया। इसमें लिखा है- ‘क़र्ज़ के भँवर में फँसने के बाद कोई और राह बची ही नहीं थी। जिनसे पैसा लेना है, वे दे नहीं रहे और जिन्हें देना है, वे भरोसा करने की बजाय जलील कर रहे हैं।’
लेकिन घटनास्थल का नज़ारा तो कई सवाल खड़े कर रहा था। अगर यह पारिवारिक आत्मघात था, तो ‘फंदे से लटके मिले दोनों बेटों के पैर क्यों बँधे हुए थे? पत्नी ममता सोनी की आँख पर पट्टी क्यों बँधी हुई थी? यशवंत के कारोबारी परिचितों का मानना है कि यशवंत सोनी काफ़ी समय से आर्थिक तंगी से जूझ रहा था। क़र्ज़ में गले-गले तक डूबे यशवंत को जब सभी रास्ते बन्द दिखायी दिये, तो उसने रूह को कँपा देने वाला यह क़दम उठाया। अतिरिक्त पुलिस आयुक्त (जयपुर पूर्व) मनोज वाजपेयी का मानना है कि यशवंत ने पहले अपनी पत्नी और बेटों को फंदे पर लटकाया होगा, फिर अपनी जान दे बैठा। सूत्रों का कहना है कि यशवंत का मकान ही एक करोड़ से ज्यादा का था। चाहता तो प्रॉपर्टी बेचकर क़र्ज़ चुका सकता था। आख़िर मौत के दर्द से बड़ा तो नहीं था, क़र्ज़ का बोझ।

मनोचिकित्सक डॉ. एम.एल. अग्रवाल कहते हैं- ‘पारिवारिक हत्याओं के मामले हताशा, अवसाद और कुंठा की बन्द गलियों में पैबस्त होते हैं। सब कुछ अनायास और अचानक होता है।’ असल में ऐसी घटनाएँ सिर्फ़ भावनात्मक मुद्दों के गिर्द नहीं टहल रही है। बल्कि महामारी के बढ़ते ख़ौफ ने नाउम्मीदी के अँधेरे इस क़दर बढ़ा दिये हैं कि ज़िन्दा रहने की कोई ख्वाहिश ही नहीं रहती। यहाँ आध्यात्मिक गुरु श्री रविशंकर के कथन का उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि आज चारों तरफ़ कोहराम मचा हुआ है। लोग डरे हुए हैं। जब मन टूट जाता है, तो व्यक्ति कुछ नहीं कर पाता। यहाँ शेक्सपियर के एक पात्र का उल्लेख किया जाना समीचीन होगा, जो पूछता है- ‘त्रासदी क्यों घटित होती है?’ इसका जवाब है- ‘मनुष्य का शत्रु उसके भीतर ही छुपा होता है, जो उसे त्रासद अन्त की ओर ले जाता है। रोज़ाना सु$िर्खयों में ढलते आँकड़े इसकी भयावह तस्वीर खींचते नज़र आते हैं।’ प्रख्यात गीतकार शैलेन्द्र को सम्भवत: इसका पूर्वानुमान हो गया था। तभी उन्होंने लिखा- ‘जो दिन के उजाले में न मिला, दिल ढूँढे ऐसे सपने को। इस रात की जगमग में डूबी मैं ढूँढ रही हूँ अपनों को…।’ मनोचिकित्सकों का कहना है- ‘कोरोना ने खिन्नता, अकेलापन, तनाव और अवसाद जैसी मानसिक बीमारियों को परोसा है। पारिवारिक कलह, आर्थिक तंगी और परिस्थितियों से मुक़ाबला करने में असमर्थता अवसाद को बढ़ाने का काम करती है। कोरोना मामलों में बेतहाशा बढ़ोतरी और स्वास्थ्य व्यवस्थाओं की खुलती पोल ने लोगों को झकझोर कर रख दिया है।’ सूत्रों की मानें, तो महामारी में नागरिकों की मनोदशा ख़राब हुई है। यह जानने के लिए ‘लोकल सर्कल्स’ द्वारा किये गये एक सर्वे में पाया गया कि कोरोना-काल में लोग दु:खी, ग़ुस्से में और अवसादग्रस्त पाये गये हैं। मनोचिकित्सकों का कहना है- ‘कोरोना के अंधड़ ने मानसिक तनाव को बढ़ा दिया है।’
कोटा के कोरोना पीडि़त बुजुर्ग दम्पत्ति ने ट्रेन के आगे आकर इसलिए जान दे दी कि वे परिवार को तनावग्रस्त नहीं देखना चाहते थे। वहीं, रेवाड़ी के सेवानिवृत्त एसडीओ युद्धवीर सिंह कोरोना संक्रमित थे। संक्रमण से निजात पाने के लिए उन्होंने अस्पताल की तीसरी मंजिल से छलाँग लगाकर जान दे दी। मनोचिकित्सक डॉ. वीरेंद्र भारद्वाज कहते हैं- ‘कोरोना-ग्रस्त स्थितियों से छुटकारा पाने के लिए लोग यह भयावह आसान राह अपना रहे हैं।’ मोटीवेशन स्पीकर जय शेट्टी कहते हैं- ‘जब तक तनावपूर्ण मानसिकता को नये सिरे से नहीं ढालेंगे, तो दर्द दोहराते चले जाएँगे। यह दर्द के दोहराव की दास्तान ही तो है कि जोधपुर के लोड़ता गाँव में पारिवारिक विवाद से आहत नर्स बेटी ने ज़हरीले इंजेक्शन लगाकर माता-पिता समेत परिवर के 10 सदस्यों को मौत की नींद सुला दिया। गहराती रात में गहराती ख़ामोशी से उबरने का उसे यही उपाय सूझा। रिश्तों में $खून सनी बीकानेर की घटना तो सन्न कर देने वाली है। पति का अपनी माँ की ज्यादा परवाह करना उसकी पत्नी को इतना नागवार गुज़रा कि अपनी 15 साल की बेटी के साथ मिलकर 73 वर्षीय सास चंद्रकँवर को मूसल से पीट-पीटकर मार डाला। कोरोना-काल में लॉकडाउन के हालात बेटे को माँ के नज़दीक कर रहा था और पत्नी से दूरियाँ बढ़ती जा रही थीं। यह बात उसे बर्दाश्त नहीं हुई। अजमेर के भिनाय क़स्बे की घटना में भी एक युवक ने माँ और भाई की हत्या कर दी। घर की बिजली बन्द कर हत्या को अंजाम देने वाला युवक नीट की तैयारी कर रहा था। इस मामले में बीच-बचाव करने आये पड़ोसी भी लहूलुहान होने से नहीं बचे। मनोचिकित्सक डॉ. अग्रवाल कहते हैं- ‘ऐसी वारदात को वही युवक अंजाम देते हैं, जो माहौल में पनपती मनहूसियत को देखकर दिमाग़ी संतुलन खो बैठते हैं।


आख़िर पढ़े-लिखे और अच्छे ख़ासे शिक्षित लोग ख़ुदकुशी पर क्यों उतारू है? मेंटल हेल्थ एवं एक्सपर्ट डॉक्टर सत्यकांत त्रिवेदी चिकित्सा की भाषा में इसे ‘ग्रीफ रिएक्शन’ का नाम देते हैं। डॉक्टर त्रिवेदी कहते हैं कि बढ़ती महामारी आशंकाओं को जन्म देने लगती है कि मैं नहीं रहा, तो मेरे परिवार का क्या होगा? अपने जीवन को व्यर्थ समझने लगना, अपनी मृत्यु के बारे में सोचना। कुछ व्यक्तियों में यह प्रक्रिया जटिल रूप ले लेती है। इसे मनोचिकित्सा में ‘कांप्लीकेटेड ग्रीफ रिएक्शन’ कहते हैं। जयपुर की जगपुरा कॉलोनी में एक सरकारी शिक्षक द्वारा अपनी पत्नी और 13 माह के बेटे की हत्या कर ख़ुद भी फाँसी पर झूल गया कॉम्प्लीकेटेड ग्राफ रिएक्शन की ताज़ा मिसाल है। बच्चों को शिक्षित करने वाले युवक ने ख़ुद ही अपना घर उजाड़ दिया।
डॉक्टर त्रिवेदी कहते हैं कि वास्तविकता को स्वीकार नहीं करना और अंतरंग और रक्त सम्बन्धी रिश्तों में तड़प को बनाये रखना भी इसके लक्षण है। मनोचिकित्सक डॉक्टर विनोद खत्री इसके लिए बाड़मेर की घटना का हवाला देते है। चंद्रकांता नामक लडक़ी को कोरोना से बुजुर्ग पिता की मौत का सदमा बर्दाश्त नहीं हुआ और श्मशान में अन्तिम संस्कार करते समय पिता की जलती चिता में कूद गयी। दिल दहला देने वाली यह घटना बाड़मेर की राय कॉलोनी की है। पिता दामोदर अपनी बेटियों के भविष्य और न्याय के लिए लड़ रहे थे। इस संघर्ष में बेटियाँ सहारा बनी हुई थी। अब परिवार के सामने जीवन यापन का संकट खड़ा हो गया है।


दानव बने मुनाफ़ाख़ोर
आपदा और महामारी के संकट में नेकनीयत की भावना कहाँ ओझल हो जाती है और कारोबारी मुखौटा पहने काली कमायी का भयावह चेहरा कैसे झाँकने लगता है। इसे समझने के लिए कोरोना की मेडिकल मुनाफ़ाख़ोरी का गणित बाँचना होगा। ख़ौफ पैदा करने का आलम है कि कोरोना के विपदा काल में निजी क्षेत्र के अस्पताल लूट-खसोट के केंद्र बन गये हैं। मरीज़ और उनके परिजन दोहरा दर्द भुगत रहे हैं। एक तरफ़ कोरोना मरीज़ आ$फत से बेहाल है, तो निजी अस्पताल मनमानी वसूली में जुटे हैं। समाजशास्त्री विनोद नागर कहते हैं- ‘संकट-काल में मानव का मुखौटा लगाये हुए दानव मुनाफ़ाख़ोरी में जुटे हुए हैं। सरकार का दावा है कि ऑक्सीजन की कमी नहीं। लेकिन ऑक्सीजन सबसे दुर्लभ चीज़ बन गयी है। सोशल मीडिया पर कोरोना से बचाव रखने वाला नुस्ख़ा चलता है, तो उससे सम्बन्धित सामग्री बाज़ार से $गायब हो जाती है। ऑक्सीमीटर, स्टीम इन्हेलर यहाँ तक कि थर्मामीटर तक मुनाफ़ा$खोरों के हत्थे चढ़ गये हैं। अस्पताल में बेड के दाम तो आसमान छू रहे हैं। महामारी-काल में मौत के मंज़र के बीच निजी अस्पताल साँसों के लिए मोटी रक़म वसूल रहे हैं। चौंकाने वाली बात है कि जयपुर में धनवंतरी अस्पताल के प्रबन्धन कोरोना संक्रमित मरीज़ के परिजनों से खुले में इलाज के बदले 60 से 70 हज़ार रुपये तक की माँग कर रहे थे। मानसरोवर के न्यू सांगानेर रोड स्थित इस अस्पताल की मनमानी का ख़ुलासा होने के बाद प्राइवेट अस्पताल एंड नर्सिंग होम सोसायटी ने धनवंतरी अस्पताल से किनारा कर लिया। लेकिन क्या इसके गुनाहों की सज़ा के लिए इतना भर काफ़ी है? डॉक्टरों ने खुले में इलाज के लिए 70 हज़ार रुपये प्रतिदिन के हिसाब से वसूल किये, जबकि दवाओं के लिए 30 हज़ार रुपये अलग से माँगे। समाजशास्त्रियों का कहना है कि चिकित्सा सेवाओं का यह मंज़र क्या लोगों में ख़ौफ़ पैदा नहीं कर रहा? इस मुकाम पर दुष्यंत का शे’र बहुत कुछ कह देता है- ‘बंजर धरती, झुलसे पौधे, बिखरे काँटे, तेज़ हवा। हमने घर बैठे-बैठे ही सारा मंज़र देख लिया।’

भगोड़े मेहुल चोकसी को लेने निजी जेट रवाना, प्रत्यर्पण पर सुनवाई 2 जून को

 

पंजाब नेशनल बैंक के करीब 14 हजार करोड़ रुपये के घोटाले का मुख्य आरोपी मेहुल चोकसी एंटीगुआ से भागकर डोमिनिका में पकड़ा गया है। वहां से लाने के लिए भारत सरकार सक्रिय हो गई है। प्रत्यर्पण के लिए जरूरी दस्तावेज डोमिनिका तक पहुंचा दिए गए हैं। इसके साथ ही एक निजी विमान भी उसे लाने के लिए डोमिनिका पहुंच गया है। फिलहाल चोकसी डोमिनिका पुलिस की गिरफ्त में है। वहीं एंटीगुआ की अदालत में प्रत्यर्पण पर दो जून को सुनवाई होगी।

डोमिनिका की एजेंसी में ने जेल में बंद चोकसी की तस्वीरें भी जारी की हैं, जो सोशल मीडिया पर वायरल हो गई हैं। तस्वीरों में से एक में चोकसी की एक आंख में सूजन और हाथ-पैर में चोट के निशान भी दिखाई दे रहे हैं। एक आंख पूरी तरह से लाल दिख रही है।

करीब तीन साल से मेहुल चोकसी एंटीगुआ में वहां की नागरिका लेकर रह रहा था। पिछले रविवार को मेहुल चोकसी भारत प्रत्यर्पण के डर से एंटीगुआ से भी फरार हो गया। इस दौरान चोकसी क्यूबा जाने की कोशिश कर रहा था, जिसके बाद डोमिनिका पुलिस ने गिरफ्तार कर लिया। इस बीच भारत सरकार ने डोमिनिका एक विमान भेजा है। एंटीगुआ के प्रधानमंत्री गैस्टन ब्राउन ने भी इस विमान के पहुंचने की पुष्टि की है। उसने प्रत्यर्पण में मदद की बात कही है।

ब्राउन पहले ही साफ कर चुके हैं कि वे मेहुल चोकसी को वे अपने देश में वापस कबूल नहीं करेंगे और वे चाहते हैं कि चोकसी का प्रत्यर्पण भारत हो जाए। लेकिन एंटीगुआ के कोर्ट ने फिलहाल चोकसी के प्रत्यर्पण पर 2 जून तक रोक लगा रखी है। 2 जून को ही कोर्ट इस मामले की सुनवाई करेगा। इस बीच, भारत ने प्रत्यर्पण से जुड़े दस्तावेज भी सौंपे हैं। इससे अब हीरा कारोबारी पर शिकंजा कसता नजर आ रहा है। वहीं, दूसरा मुख्य आरोपी और मेहुल चोकसी का भांजा नीरव मोदी इंग्लैंड की जेल में है, जिसके प्रत्यर्पण की प्रक्रिया भी जारी है।

इसी बीच, मेहुल चोकसी का प्रत्यर्पण एंटीगुआ में सियासी मुद्दा बन गया है। एंटीगुआ में विपक्ष के नेता ने कहा है कि चोकसी एंटीगुआ का नागरिक है और उसके नागरिक को किसी दूसरे देश को सौंपा नहीं जा सकता है। बता दें कि डोमिनिका में चोकसी की गिरफ्तारी के बाद एंटीगुआ के पीएम ने कहा था कि डोमिनिका मेहुल चोकसी को सीधे भारत को सौंप दें। हालांकि अब ये मामला अदालत में चल गया है। वहीं एंटीगुआ के पीएम ने कहा है कि विपक्ष फंड हासिल करने के चक्कर में मेहुल चौकसी का समर्थन कर रहा है।

कोरोना के साथ अब डेंगू के मामले भी बढ़े

दिल्ली में कोरोना के कहर के साथ-साथ डेंगू का कहर लोगों को डरा रहा है। दिल्ली में डेंगू के बढ़ती मरज़ों की सख्या ने सरकर के लिये नई चुनौती पैदा कर दी है। दिल्ली के सरकारी अस्पतालों के डाक्टरों का कहना है कि कोरोना और डेंगू दोनों बीमारियों में जरा सी लापरवाही घातक हो सकती है। दिल्ली के सरकारी और निजी अस्पतालों में डेंगू के मरीजों के आने से डाक्टरों ने चेतावनी दी है। कि अपने घरों के आस पास पानी को जमा ना होने दें।

डाँ ए. के. अग्रवाल का कहना है कि डेंगू और कोरोना में अचानक बुखार का आना एक समान लक्षण माने जाते है। ऐसे में बुखार और खांसी को नजरअंदाज ना करें। इंडियन हार्ट फाउंडेशन के अध्यक्ष डाँ आर. एन. कालरा का कहना है कि कोरोना के साथ डेंगू का कहर खतरनाक है। उन्होंने कहा कि कई बार लोग लापरवाही में बुखार को नजरअंदाज ही नहीं करते है। बल्कि इलाज कराने से बचते है। जिससे बीमारी एक गंभीर समस्या बन जाती है। एम्स डाँ विजय कुमार का कहना है कि देश में इस समय कोरोना के साथ डेंगू और वायरल के चलते लोगों को स्वास्थ्य संबंधी समस्याओं से दो-चाल होना पड़ रहा है।

ऐसे में नियमित व्यायाम और खानपान में सुधार कर स्वस्थ्य जीवन को अपनाया जा सकता है। डाँ विजय ने जागरूकता पर बल देते हुये कहा है। कि समय –समय पर हेल्थ की जांच करवाने से गंभीर रोगों को शुरूआती दौर में पकड़ा औप पहचाना जा सकता है।

स्तनपान कराने वाली मांएं भी लगवा सकती हैं कोरोना टीका

देश में कोरोना वायरस की दूसरी लहर ने हर तबके को प्रभावित किया है। अब इससे निजात पाने के लिए सभी चाहते हैं कि जल्द से जल्द टीका लगवाना चाहिए। ऐसे में कई लोगों में भ्रम है कि किनको टीका नहीं लगवाना चाहिए। गर्भवती महिलाओं और दूध पिलाने वाली महिलाएं या फिर किसी बीमारी से जूझ रहे हों या कोई ऑपरेशन करवाया है, जैसे तमाम सवाल हैं, जिनहा हम यहां निदान करने की कोशिश करेंगे।

कोरोना टीकाकरण पर सरकार को सुझाव देने वाले विशेषज्ञों के समूह ने केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय को वैक्सीन को लेकर नए सुझाव दिए हैं और इनमें कहा गया है कि स्तनपान कराने वाली मांएं भी वैक्सीन लगवा सकती हैं। केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के विशेषज्ञों के एक समूह ने इस सुझाव को मान लिया है और इसे आम लोगों के लिए जारी भी कर दिया है। फिलहाल गर्भवती महिलाओं को वैक्सीन देने के मामले पर विशेषज्ञ अभी अंतिम नतीजे तक नहीं पहुंच सके हैं। इसलिए तब तक ऐसी महिलाओं को परहेज करना चाहिए।

इसके अलावा कई और सुझाव भी दिए हैं, जिनमें बताया गया है कि अगर कोई व्यक्ति वैक्सीन का पहला टीका लेने के बाद कोरोना से संक्रमित होता है तो उसे कितने दिनों के बाद दूसरा टीका लेना चाहिए। वैक्सीन पर सरकार को सुझाव देने वाले एक्सपर्ट ग्रुप ने कहा है कि वैक्सीन की पहली डोज लेने के बाद अगर कोई व्यक्ति कोरोना से संक्रमित होता है तो उसे ठीक होने के तीन महीने बाद ही वैक्सीन की दूसरी खुराक लेनी चाहिए। साथ में ऐसे लोग जो पहली डोज लेने के बाद संक्रमित हो जाएं और उनका उपचार प्लाज्मा थेरेपी से किया गया हो, उन्हें भी अस्पताल से डिस्चार्ज होने के तीन माह बाद ही दूसरी वैक्सीन डोज लेने की सलाह दी गई है।

विशेषज्ञों के समूह के सुझावों में यह भी कहा गया है कि ऐसे लोग जो अन्य गंभीर बीमारियों से ग्रसित हों और उपचार के लिए अस्पताल में भर्ती हों, उन्हें भी ठीक होने के 4-8 हफ्ते के बाद ही टीका लगवाना चाहिए। स्वास्थ्य मंत्रालय ने एक्सपर्ट ग्रुप (एनईजीवीएसी) के इन सभी सुझावों को मानने के बाद सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को निर्देश दिया है कि वे अपने सभी संबंधित अधिकारियों को इन नए नियमों से अवगत कराएं और प्रक्रिया के दौरान इन नए नियमों का ध्यान रखें।

यदि किसी शख्स को कोरोना का संक्रमण नहीं हुआ तो भी टीका ले सकते हैं। इसके लिए जरूरी है कि पूर्व में कराए गए किसी भी ऑपरेशन और टीके के बीच का अंतराल कम से कम दो महीने होना चाहिए। संक्रिमत होने के बाद रक्तदान के सवाल पर विशषज्ञों ने कहा कहना है कि इमरजेंसी में कोरोना की रिपोर्ट निगेटिव होने पर 15 दिन बाद भी खून दे सकते हैं, लेकिन बेहतर होगा कि आप कोरोना से ठीक होने के एक महीने बाद ही रक्तदान करें।

मोदी के न्यू इंडिया का हवामहल और साँसों को तरसता भारत

 

इन दिनों जहाँ देखो, वहाँ हाहाकार मचा पड़ा है। यह कैसा न्यू इंडिया है? जहाँ सपने बेचकर काँटों की गहरी खाई में डाला जा रहा है और दूसरी ओर देश का पैसा उन कामों में ख़र्च किया जा रहा है, जिनकी ज़रूरत तब ठीक थी, जब देश में ख़ुशहाली होती। लेकिन यहाँ तो लोग ज़िन्दगी की भीख माँगने को मजबूर हो रहे हैं। सवाल यह है कि आज जब पूरे देश में लोग ऑक्सीजन, दवाओं और इंजेक्शन के बग़ैर तड़प-तड़प कर मर रहे हैं, तब प्रधानमंत्री मोदी का अपने सपनों का हवा महल बनवाना कितना उचित हैं? अस्पतालों में ऑक्सीजन पहुँचने की समय सीमा तय नहीं है। लेकिन प्रधानमंत्री मोदी का नया आवास बनकर तैयार होने की समय-सीमा तय हो चुकी है। जब कोरोना महामारी में तमाम लोग पैदल चलकर मर रहे थे, तब प्रधानमंत्री मोदी ने अपने लिए क़रीब 8,500 करोड़ का विमान ख़रीदा था। जानकार कहते हैं कि इसकी प्रति घंटा उड़ान का ख़र्च ही क़रीब 1 करोड़ 30 लाख रुपये आता है। आख़िर प्रधानमंत्री इतने शौक़िया और क़ीमती ख़र्चे करके देश की सम्पदा को नष्ट क्यों कर रहे हैं? वह भी तब, जब पिछले एक साल से देश का दम घुट रहा है। इतने पर भी दिल्ली में नया प्रधानमंत्री आवास क्यों बनवाया जा रहा है? नया संसद भवन क्यों बनवाया जा रहा है? विदित हो कि इस परियोजना का नाम है- ‘सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट’। अलग-अलग ख़बरें इस प्रोजेक्ट का ख़र्च अलग-अलग बताती हैं। किसी ख़बर में कहा जाता है कि इसकी लागत क़रीब 12,000 करोड़ रुपये आएगी, तो किसी में कहा जाता है कि यह क़रीब 20,000 करोड़ रुपये में बनेगा।
अब ख़बरें आ रही हैं कि नया प्रधानमंत्री आवास, जो इस प्रोजेक्ट का हिस्सा है; दिसंबर, 2022 तक बनकर तैयार हो जाएगा। नया उप राष्ट्रपति आवास भी मई, 2022 तक इसी परिसर में तैयार होगा। देश की राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में लॉकडाउन है। जन-जीवन ठप है। लोगों को इलाज नहीं मिल रहा है। कमाने-खाने के संसाधन छिन रहे हैं। लेकिन सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को निर्माण की ‘ज़रूरी सेवाओं’ में शामिल किया गया है। मगर आज तक देश के बुद्धिजीवियों, न्यायालयों, मीडिया संस्थानों और उच्चाधिकारियों ने सरकार से यह सवाल नहीं किया है कि सरकार को लाशों के ढेर पर सेंट्रल विस्टा को बनाने की इतनी जल्दी क्यों है? हमारे पास दुरुस्त संसद भवन है। लेकिन किसी ने नहीं कहा कि नव-निर्माण छोडक़र आज कोरोना वायरस के संक्रमण से फैली महामारी की भयावह स्थिति में सरकार की प्राथमिकता सर्वप्रथम लोगों की जान बचाने की होनी चाहिए। अस्पतालों में ऑक्सीजन पहुँचाने के बारे में क्या फ़ैसला सरकार ने लिया है? देश को नहीं मालूम है। एक महीने से लोग ऑक्सीजन, बेड, वेंटिलेटर और दवा के बिना जान गवाँ रहे हैं। हर दिन 4,000 से अधिक लोगों के मारे जाने का रिकॉर्ड बन चुका है। देश की जनता को कोरोना-टीके लगवाने के लिए मोदी सरकार के पास पैसा नहीं है। लेकिन हवा महल बनवाने के लिए पैसे हैं; जो लोगों को आश्चर्य में डाल रहा है और आवेशित भी कर रहा है।
जो भारत अपने ग़रीबी के दिनों में भी अपने नागरिकों का मुफ़्त टीकाकरण करता आया है, उसी भारत में अब टीकाकरण के लिए पैसे वसूले जाएँगे। एक-तिहाई से ज़्यादा ग़रीब आबादी का टीकाकरण कैसे होगा? यह सोचने वाला कोई नहीं है। न ही उस पर कोई बहस हो रही है। देशवासियों को निरंतर बताने का प्रयास हो रहा है कि प्रधानमंत्री मोदी बहुत मज़बूत हैं। परिवार को भी साथ नहीं रखते; किसी चीज़ का उन्हें मोह नहीं है। केवल खिचड़ी खाते हैं। कभी-कभी बाजरे की रोटी और पालक की सब्ज़ी खाते हैं। आम के मौसम में आम भी खा लेते हैं। केवल चार घंटे ही सोते हैं। साधारण कपड़े पहनते हैं। इसलिए उनसे प्रश्न करना ‘देशद्रोह’ की श्रेणी में आता है।
अब उनसे यह सवाल कौन पूछे कि जनता की जान बचाना ज़रूरी है या महामारी के चलते लाशों के ढेर पर हवा महल बनवाना ज़रूरी है? हमारा लोकतंत्र रोज़ क्रूरता के नये कीर्तिमान लिख रहा है। कुछ लोग कहने लगे हैं कि ‘मोदी सरकार हर दिन बर्बरता का नया अध्याय लिखती प्रतीत होने लगी है। जनता के पैसे से ही जनता की जान बचाने में मुस्तैदी नहीं है। हवा महल बनवाने में मुस्तैदी है। आज जिस समय भारत पर 50 साल का ऐतिहासिक आर्थिक संकट है। जिस समय महामारी से रोज़ाना हज़ारों लोग मर रहे हैं। जिस समय लोग ऑक्सीजन जैसी मामूली चीज़ के अभाव में तड़पकर मर रहे हैं। उस समय मोदी सरकार की प्राथमिकता प्रधानमंत्री, उप राष्ट्रपति के लिए नया आवास और नयी संसद बनवाना क्या उचित है? मेरे विचार से यह कोई प्रोजेक्ट नहीं, बल्कि यह पूरी भारत की जनता पर किया जा रहा एक क्रूरतम अपराध है। इसको एक तानाशाह की सनक का नतीजा कहना कोई ग़लत नहीं होगा; जो करोड़ों लोगों की जान बचाने की जगह इतिहास में अपना नाम दर्ज कराने पर आमादा है। क्या भारत की जनता ने ऐसे दुर्दिन कभी पहले भी देखे थे?’
बहरहाल मेरे विचार से देश में लाखों लोगों की मौतों को देखते हुए राष्ट्रीय शोक के हालात में और राष्ट्र सर्वोपरि भावना को दृष्टिगत रखते हुए नये संसद भवन, नये प्रधानमंत्री और उप राष्ट्रपति आवास के निर्माण को तत्काल स्थगित किया जाना चाहिए। इसके अलावा सरकार को चाहिए कि वह देश में चल रही तमाम अन्य ख़र्चीली योजनाओं को रोककर उस धन को कोरोना-मरीज़ों की जान बचाने पर ख़र्च करे और राष्ट्र धर्म का पालन करे।
अस्पतालों में ऑक्सीजन और दवाइयों के अभाव में लाखों लोगों की मौतें जारी रहने की स्थिति में नये संसद भवन, नये प्रधानमंत्री और उप राष्ट्रपति आवास का निर्माण कार्य जारी रखना, पीडि़तों और देश की तमाम जनता के साथ अन्याय है। अत: राष्ट्रहित में इनका निर्माण तुरन्त प्रभाव से रोका जाना ज़रूरी है।
माननीय प्रधानमंत्री जी से मेरा अनुरोध है कि उन्हें ऐसी अन्य और विशेषकर इन दो परियोजनाओं को फ़ौरन स्थगित करना चाहिए। इन पर ख़र्च होने वाले धन को महामारी को रोकने और कोरोना-मरीज़ों के जीवन को बचाने में लगवाना चाहिए। देश के लोगों का जीवन बचाना सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट से कहीं बहुत अधिक महत्त्वपूर्ण है। देश स्वतंत्र भारत के इतिहास में सबसे नाज़ुक़ और प्रलयकारी दौर से गुज़र रहा है। यह समय प्रधानमंत्री की परीक्षा का समय है कि वह भव्य इमारतें बनवाने पर राष्ट्रीय सम्पदा को ख़र्च करते हैं या देश के लोगों की जान बचाने के लिए बड़े क़दम उठाते हैं। आज देश में अस्पताल कम पड़ गये हैं। अस्पतालों में मरीज़ों का दा$िखला न के बराबर हो रहा है। लोगों की जान बचाने के लिए हर ज़रूरी चीज़ का अभाव है। यह भी चेतावनी मिल चुकी है कि कोरोना वायरस की तीसरी लहर और भयावह होगी। फिर भी निर्माण कार्यों में दिलचस्पी दिखाना मन में खिन्नता और ग़ुस्सा पैदा तो करेगा ही।
प्रधानमंत्री जी! मुझे बड़े दु:ख और अफ़सोस के साथ कहना पड़ रहा है कि देश मेडिकल आपातकाल की स्थिति में रहा, लेकिन आपके चुनाव एवं रैलियाँ चलती रहीं और महामारी सूनामी बनती रही; लेकिन आपने इसकी ओर ध्यान नहीं दिया। अब भी समय है कि आपकी केंद्र सरकार को और राज्य सरकारों को अपने पास मौज़ूद सभी संसाधनों और सम्पदाओं को लोगों की जान बचाने में लगा देना चाहिए।
दिसंबर, 2022 में प्रधानमंत्री आवास पूर्ण करने और नवंबर, 2022 में ही संसद भवन तैयार करने के निर्देश आपने दिये हैं। 20,000 करोड़ रुपये में सेंट्रल विस्टा को 2022 में पूरा किया जाएगा। हालात ये भी हो सकते हैं कि भारतीय जनमानस इस चकाचौंध को देखकर ग्लानि ही नहीं, अपितु क्षोभ और क्रोध से भर उठे। यही नहीं, सम्भवत: विदेशी आगंतुक बाद में मज़ाक़ उड़ाएँ कि भारत में लाखों लोगों की मौतों के दौरान ये भव्य इमारतें बनी हैं। मान्यवर! देशवासियों की जान की परवाह करें। ये जीएँगे, तो देश जीएगा और हम दुनिया में फिर से बेहतर स्थिति में खड़े हो पाएँगे।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं और यह उनके निजी विचार हैं।)

मदद न मिलने पर अन्तिम संस्कार के लिए माँ का शव कन्धे पर ले गया मजबूर बेटा

पहाड़ी राज्य हिमाचल प्रदेश में जिगर के टुकड़े को अपनी माँ के शव को अकेले ही श्मशान घाट तक अपने कन्धों पर लादकर ले जाने को मजबूर होना पड़ा। कोरोना के ख़ौफ़ के चलते अन्तिम संस्कार के लिए मदद को कोई आगे नहीं आया। दिल दहला देने वाली यह घटना देवताओं के प्रदेश हिमाचल में हुई। कांगड़ा जिले में बीर सिंह की माँ का कोविड-19 संक्रमण के कारण निधन हो गया। बीर सिंह के द्वारा माँ के शव को अकेले अपने कन्धों पर ले जाने का वीडियो सोशल मीडिया पर वायरल हो गया, जिसने संवेदनशील लोगों की अंतर्रात्मा को झकझोर दिया। उसे शव को क़रीब एक कि.मी. दूर श्मशान तक अकेले इसलिए ले जाना पड़ा, क्योंकि ग्रामीणों और अपनों ने आगे आने और शव को कन्धा तक देने से इन्कार कर दिया। जब बेटा शव को श्मशान घाट पर ले जा रहा था, तो उसकी पत्नी एक हाथ में बच्चा और दूसरे में श्मशान सामग्री लेकर उसके पीछे-पीछे पहुँची।
डबडबायी आँखों से बेटे ने कहा कि उसकी माँ को 12 मई को बुखार आया और साँस लेने में तकलीफ हुई। अस्पताल में बिस्तर न मिलने के कारण उसे घर पर ही दवाएँ दीं। पर 13 मई को माँ का निधन हो गया। उसने बताया कि इस बारे में मैंने गाँव के प्रधान और रिश्तेदारों को जानकारी दी। दो पीपीई किट की व्यवस्था की गयी। लेकिन अन्तिम संस्कार करने में मदद के लिए कोई आगे नहीं आया। फिर मैंने शव को अपने कन्धों पर उठाया और क़रीब एक कि.मी. दूर श्मशान घाट ले गया। वहाँ भी माँ का अन्तिम संस्कार करने के लिए अकेले ही सब कुछ करना पड़ा।
सवाल उठ रहे हैं कि ऐसे समय में सभ्य समाज कैसे आँखें मूँद सकता है? ग्राम पंचायत और जिला प्रशासन की भूमिका पर भी सवालिया निशान लग रहे हैं। अफ़सोस की बात है कि मृत महिला कांगड़ा से 35 किलोमीटर दूर रानीताल क्षेत्र के पास भंगवार पंचायत की पूर्व उप प्रधान थीं। कोरोना पॉजिटिव होने के बाद वह घर पर ही क्वारंटीन थीं। भंगवार पंचायत प्रधान सुरम सिंह ने कहा कि वह बुख़ार से पीडि़त थीं, इसलिए वे बीर सिंह के घर नहीं जा सकते थे। प्रधान ने दावा किया कि उन्होंने शव ले जाने के लिए ट्रैक्टर-ट्रेलर चालकों से सम्पर्क किया, लेकिन उन्होंने मना कर दिया। उपायुक्त राकेश कुमार प्रजापति ने बताया कि प्रशासनिक मदद पहुँचने से पहले ही बीर सिंह शव को अन्तिम संस्कार के लिए ले गये। हालाँकि इसकी जिम्मेदारी समाज पर भी है। उल्टा उन्होंने सवाल किया कि पीपीई किट लाने वाले ग्रामीणों और रिश्तेदारों ने पीडि़त परिवार की मदद क्यों नहीं की? क्या हम वायरस से इतना डरते हैं? अगर लोग ऐसे संकट में एक-दूसरे की मदद नहीं करते हैं, तो यह मानो वे पहले ही मर चुके हैं। उन्होंने कहा कि एक प्रशासनिक अधिकारी एसडीएम या तहसीलदार या फिर नायब तहसीलदार दाह संस्कार के दौरान मौजूद रहेगा। इसी तरह की एक घटना हमीरपुर जिले में भाकरेड़ी पंचायत में हुई, जहाँ पर कोविड-19 रोगी की मृत्यु होने के बाद अन्तिम संस्कार के लिए कोई ग्रामीण नहीं गया।

घटना से आहत मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने सभी पुलिस उपायुक्तों को निर्देश दिया है कि राज्य भर में होम आइसोलेशन में जान गँवाने वाले कोरोना मरीज़ो के शव का अन्तिम संस्कार करने के लिए जारी प्रोटोकॉल का सख्ती से पालन किया जाए। उपायुक्तों को यह सुनिश्चित करना चाहिए कि हर कोविड-19 पीडि़त के शोक संतप्त परिवार को अन्तिम संस्कार करने में जिला अधिकारियों का पूरा सहयोग मिले। दरअसल चिन्तित करने वाली बात यह है कि जहाँ देश में कोरोना संक्रमण की पॉजिटिविटी दर 20 फ़ीसदी से नीचे आ गयी है, वहीं हिमाचल प्रदेश में यह 26 फ़ीसदी है और इसकी बड़ी वजह यह है कि यहाँ ग्रामीण इलाके़ भी इसकी चपेट में आ चुके हैं। शिमला, सिरमौर, सोलन और मंडी जिलों में पॉजिटिविटी दर 30 फ़ीसदी से अधिक है।

मुर्दा तंत्र

100 रुपये लीटर पेट्रोल और 28 फ़ीसदी तक जीएसटी वसूली के बावाजूद उखड़ती साँसों को थामने में नाकाम मोदी सरकार

केंद्र सरकार की ग़लत प्राथमिकताओं की वजह से कोरोना महामारी की दूसरी लहर ने कहर बरपा दिया है। देश में स्वास्थ्य सेवाओं और व्यवस्था पर केंद्र की अपंगता उजागर हो गयी है। इसके साथ ही समुचित इलाज और ऑक्सीजन न मिलने के चलते रोज़ाना हज़ारों लोगों को जान गँवानी पड़ रही है। कोरोना के इस दंश से निपटने, तंत्र की ख़ामियों और विशेषज्ञों की राय पर आधारितअमित अग्निहोत्री की रिपोर्ट :-

देश में संक्रमित मरीज़ोंकी संख्या बढ़ रही है। हर दिन कोरोना संक्रमण के हज़ारों नये मामले आ रहे हैं। अस्पतालों में न तो बेड की व्यवस्था और न ही वेंटिलर, न ऑक्सीजन की ठीक से आपूर्ति, न दवाओं की समुचित व्यवस्था। हट्टे-कट्टे नौजवान लोग बेहतर इलाज न मिलने के चलते मौत के मुँह में समा रहे हैं। सन्मार्ग अख़बार के दिल्ली कार्यालय के संपादकीय सहयोगी सोनू कुमार केशव की इसी तरह मृत्यु होना इसका बड़ा उदाहरण है। मेडिकल ऑक्सीजन की शहरों में तक कमी होने के चलते श्मशान के बाहर शवों की लम्बी $कतारें देखकर अव्यवस्था के आलम को समझा जा सकता है। अन्तिम संस्कार के लिए लकडिय़ों की कमी, $कब्रिस्तानों में जगह का भरना और यहाँ तक शवों को श्मशान तक पहुँचाने की भी व्यवस्था नहीं हो पा रही। इससे ज़्यादा अफ़सोस और शर्म की बात क्या हो सकती है कि 100 रुपये प्रति लीटर पेट्रोल बेचने और 28 फ़ीसदी तक जीएसटी वसूलने के बावाजूद लोगों की उखड़ती साँसों को थामने में मोदी सरकार नाकाम साबित हो रही है।
विशेषज्ञों का मानना है कि संक्रमित मामलों और मौतों की वास्तविक संख्या भारत के आधिकारिक रिकॉर्ड की तुलना में कहीं ज़्यादा है। भारत जो दुनिया का सबसे बड़ा वैक्सीन निर्माता है, कोविड-19 की घातक दूसरी लहर पर अंकुश लगाने के लिए पर्याप्त ख़ुराक की व्यवस्था करने के लिए ख़ुद संघर्षरत है। अब जिस समय राष्ट्र तकलीफ़ के दौर से उबरने की कोशिश कर रहा है, विशेषज्ञों ने वायरस की तीसरी लहर की भविष्यवाणी कर फिर से चिन्ता में डाल दिया है। सरकार के प्रधान वैज्ञानिक सलाहकार के विजय राघवन के विचारों को ध्यान में रखते हुए कि कोविड-19 की तीसरी लहर के दौरान, जिसका फ़िलहाल समय निश्चित नहीं है, उसमें ख़ासकर 12-15 वर्ष के आयु वर्ग के बच्चों को ज़्यादा प्रभावित करने की बात कही जा रही है। देश की सर्वोच्च अदालत सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र से सभी को समय से पहले इंतज़ाम पुख़्ता करने के लिए कहा है। हालाँकि अभी यह स्पष्ट नहीं है कि बच्चों के लिए टीका कब तक उपलब्ध होगा?
भारत में शहरों से लेकर ग्रामीण इला$के तक कोविड-19 का पाँव पसारना विचलित करने वाला है। ग्रामीणों में तेज़ी से कोरोना वायरस फैलने ने विशेषज्ञों को चिन्तित कर दिया है; क्योंकि स्वास्थ्य सुविधाओं की स्थिति वहाँ और भी ख़राब है। बिहार के में बक्सर के पास गंगा नदी में 150 से अधिक शव मिले। अन्य नदियों में भी लोगों ने सम्भवत: संक्रमित शवों को बहा दिया हो। लोगों का अपने ही लोगों का रीति-रिवाज के साथ अन्तिम संस्कार तक न कर पाना बेहद दु:खद और शर्मनाक है। यह पूरी व्यवस्था पर गम्भीर तमाचा है।
विपक्ष ने देश में स्वास्थ्य व्यवस्था को लेकर बेहद गम्भीर हालात को देखने के बावजूद 20,000 करोड़ रुपये की सेंट्रल विस्टा परियोजना को जारी रखने के लिए सरकार को दोषी ठहराया है। इस प्रोजेक्ट में प्रधानमंत्री के लिए आलीशान आवास बनने जा रहा है। यह सब उस दौर में हो रहा है, जब देश के कई राज्य तमाम वित्तीय समस्याओं से जूझ रहे हैं और अपने लोगों को टीकाकरण करना चाह रहे हैं।
कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी दोनों ने केंद्रीय बजट में टीकाकरण कार्यक्रम के लिए 35,000 करोड़ रुपये के आवंटन पर सवाल किया है? चिकित्सा सुविधा के लिए उखड़ती साँसों से अपनों को बचाने के लिए लोगों को अस्पतालों में, सडक़ों पर, वाहनों में इंतज़ार करना पड़ रहा है, ऐसे दृश्य देखकर कोई भी विचलित और हैरान हो सकता है। लोगों के दिल टूट रहे हैं, पर कुछ कर नहीं पा रहे हैं। बेबस और लाचार नजर आ रहे हैं। लगता है जैसे सब कुछ भगवान भरोसे चल रहा है। इसमें हमें बिल्कुल स्पष्ट होना चाहिए कि सिस्टम विफल नहीं हुआ है, बल्कि मोदी सरकार रचनात्मक रूप से भारत की कई शक्तियों और संसाधनों का उपयोग करने में नाकाम रही है। सोनिया गाँधी ने ऑनलाइन बैठक के दौरान स्पष्ट रूप से कहा कि भारत का राजनीतिक नेतृत्व अपंग हाथों में है, जिसकी अपनी प्रजा के प्रति कोई सहानुभूति नहीं है। मोदी सरकार ने हमारे देश के लोगों को विफल कर दिया है।
कांग्रेस अध्यक्ष ने कहा है- ‘सरकार अपने ही देश के लोगों की जरूरतों को पूरा करने के लिए समय पर पर्याप्त टीकों के उत्पादन करने में विफल रही। इसके बजाय उसने जानबूझकर ग़ैर-जरूरी परियोजनाओं के लिए हज़ारों करोड़ रुपये आवंटित कर दिये, जिनका जनता की भलाई से कोई लेना-देना नहीं है। सोनिया गाँधी की अपील के बावजूद सर्वदलीय बैठक न बुलाये जाने के बाद उन्होंने अपने नेताओं के साथ बातचीत के दौरान ये बातें कहीं। तृणमूल कांग्रेस की प्रमुख और पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने कहा कि जब वे नयी संसद और अपने लिए भवन बनवाने के लिए 20,000 रुपये ख़र्च करने पर तुले हैं, तो देश में कोरोना टीकाकरण पर 30,000 करोड़ रुपये का आवंटन क्यों नहीं कर रहे हैं? उन्होंने पूछा कि कहाँ है पीएम केयर्स फंड का पैसा?
भारत के सीरम इंस्टीट्यूट के कोविशील्ड और भारत बायोटेक की कोवैक्सीन के टीकों के मूल्यों में भी राज्यों के लिए अलग-अलग दरें तय की गयीं। यहाँ केंद्र सरकार को सस्ती- 150 रुपये प्रति खु़राक मिल रही है, वहीं अब यह राज्यों के लिए महँगी- 400 रुपये प्रति ख़ुराक ख़रीदने को मजबूर किया जा रहा है और यह सब राज्यों पर छोड़ दिया गया है।
पश्चिम बंगाल सरकार ने टीकाकरण के तीसरे चरण के दौरान टीकों के दामों में अन्तर को मिटाने के लिए देश की सर्वोच्च न्यायालय का दरवाज़ा खटखटाया है। मामले में सर्वोच्च न्यायालय ने संज्ञान भी लिया है। समस्या यह थी कि अप्रैल तक केंद्र सरकार ने एसआईआई और भारत बायोटेक से टीके ख़रीदे और राज्यों को मुफ़्त में वितरित किये। बाद में उसने नीति को संशोधित किया और निर्माताओं को तीसरे चरण के टीकाकरण के लिए राज्यों और निजी संस्थाओं को कुल निर्मित टीकों का 50 फ़ीसदी आपूर्ति करने की अनुमति दी गयी, जिसके तहत 18-44 वर्ष के आयु वर्ग के व्यक्तियों को पहली मई से कवर किया जा रहा है। सर्वोच्च न्यायालय के समक्ष दायर एक हलफ़नामे में पश्चिम बंगाल सरकार ने कहा कि राज्यों को वैक्सीन की क़ीमतों पर सौदेबाज़ी करने के लिए नहीं कहा जा सकता है। पश्चिम बंगाल सरकार ने तर्क दिया कि टीके के लिए धन आवंटित करने के लिए अगर बाध्य किया जाएगा, तो इससे पहले से चरमरायी स्वास्थ्य व्यवस्था प्रभावित होगी। ममता बनर्जी और राज्यसभा में विपक्ष के नेता मल्लिकार्जुन खडग़े दोनों ने टीकों और मेडिकल ऑक्सीजन पर जीएसटी छूट देने की माँग की। इसके बरअक्स वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस क़दम का बचाव करते हुए कहा कि इससे कम्पनियों को बाद में छूट का दावा करने की अनुमति मिलेगी और लोगों को फा़यदा नहीं होगा और वे सीधे उपभोक्ताओं से पूरी की़मत लेंगी। जैसा कि वैक्सीन नीति को सर्वोच्च न्यायालय की जाँच के तहत बनाया गया था और केंद्र ने अदालत को बता दिया है कि वह इस मामले में हस्तक्षेप नहीं करेगा।
वैश्विक महामारी के सन्दर्भ में यहाँ राष्ट्र की प्रतिक्रिया और रणनीति पूरी तरह से विशेषज्ञ चिकित्सा और वैज्ञानिक राय से प्रेरित होती है, वहाँ पर न्यायिक हस्तक्षेप के लिए बहुत कम जगह होती है। इसके परिणाम स्वरूप किसी भी विशेषज्ञ की सलाह या प्रशासनिक अनुभव की ग़ैर-मौजूदगी में डॉक्टरों, वैज्ञानिकों, विशेषज्ञों और कार्यकारी को समाधान खोजने में बहुत कम अहमियत मिलती है। केंद्र सरकार ने कहा कि टीकों का मूल्य निर्धारण देश भर में न केवल उचित है बल्कि दो वैक्सीन कम्पनियों के साथ सरकार की अनुनय है। जबकि केंद्र ने स्थिति से निपटने के लिए संघर्ष किया। विशेषज्ञों ने इस पर बहस की कि क्या यह कोरोना वायरस ब्रिटिश वैरिएंट का सामना कर सकेगा? जिसका कई देश सामना कर रहे थे। उससे भी कहीं ज़्यादा भयावह भारतीय वैरिएंट सामने आ गया, जो देशभर में कहर बरपाने लगा। इतना ही नहीं, कई पड़ोसी देशों के साथ ही अन्य तमाम देश भी इस दोहरा उत्परिवर्ती (डबल म्यूटेंट) की चपेट में आ गये।
अधिकतर विशेषज्ञ सिर्फ़ इस बात पर सहमत हो सकते थे कि कोविड-19 यहाँ आने के बाद जल्द ख़त्म होने वाला नहीं है और यह आने वाले समय में पूरी दुनिया के लिए ख़तरा बना रहेगा। इस पृष्ठभूमि में देखा जाए, तो बड़ी जनसंख्या की सुरक्षा का एकमात्र तरी$का सभी लोगों का टीकाकरण करना था, लेकिन देश अब भी वैक्सीन की कमी का सामना कर रहा है। एक ओर केंद्र ने दावा किया कि अब तक 16 करोड़ लोगों को टीका लगाया जा चुका है। लेकिन भारत की 130 करोड़ आबादी को देखते हुए यह अभी नाकाफ़ी है। विशेषज्ञों ने चेतावनी दी है कि जिस गति से टीके लगाये जा रहे हैं। अगर पूरी आबादी को ऐसे ही टीके लगाये गये, तो कई साल का समय लग सकता है। नये बनाये गये पोर्टल कोविन भी पूरी तरह अपडेट नहीं है और उसकी गति पर देश की शीर्ष अदालत हस्तक्षेप कर सवालिया निशान लगा दिया। यहाँ तक कि कोविडन ऐप को पंजीकरण के दौरान 18-44 आयु वर्ग के लोगों के लिए वैक्सीन की तारीख़ और स्लिप हासिल करने के लिए तकनीकी गड़बडिय़ों का भी सामना करना पड़ा। क्योंकि टीका केंद्रों को 45 साल से अधिक के लोगों को टीका लगाने के लिए पहले ही ख़ुराक की कमी का सामना करना पड़ रहा था। ऐसे में कई राज्यों ने पहली मई से सभी वयस्कों का टीकाकरण शुरू नहीं किया।

इस भ्रम को तब और हवा मिल गयी जब एसआईआई के प्रबन्ध निदेशक अदार पूनावाला लंदन के लिए विमान से निकल लिए और वहाँ जाकर उन्होंने बयान दिया कि भारत में उन्हें धमकियाँ मिल रही हैं। केंद्र सरकार द्वारा वाई-श्रेणी की सुरक्षा कवर हासिल करने वाले पूनावाला ने देश छोड़ दिया। बाद में उन्होंने द टाइम्स, लंदन को दिये साक्षात्कार में कहा कि उन्हें सबसे शक्तिशाली व्यक्तियों से टीके की आपूर्ति करने और मुख्यमंत्रियों और व्यापारिक नेताओं को शामिल करने की धमकी मिल रही है। पूनावाला ने कहा- ‘ख़तरे को समझना जरूरी है। उम्मीद और आक्रामकता का स्तर वास्तव में अभूतपूर्व है। यह बहुत ही भयानक है। सभी को लगता है कि उन्हें टीका मिलना चाहिए। वे समझ नहीं सकते कि किसी और को उनसे पहले क्यों मिलना चाहिए?’ पूनावाला ने कहा कि उनसे कहा गया है कि अगर आप हमें यह टीका नहीं देते हैं, तो यह अच्छा नहीं होने वाला है। यह कोई बेईमानी नहीं है, बल्कि बोलने का अंदाज है। इसका निहितार्थ यह है कि अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो वे क्या कर सकते हैं? जब तक हम उनकी माँगों को नहीं मानते, तो वे हमें कुछ नहीं करने देंगे। दिलचस्प बात यह है कि अंतर्राष्ट्रीय मीडिया ने महामारी से निपटने के लिए केंद्र सरकार की ख़ामियों को उजागर करते हुए आलोचनाएँ कीं, साथ ही उसने अक्षम प्रणाली को उजागर किया। केंद्र ने दावा किया कि स्थिति नियंत्रण में थी और सरकार की सकारात्मक छवि बनाने के लिए अपने नौकरशाहों के लिए बाक़ायदा कार्यशालाओं का आयोजन किया। इससे साबित होता है कि सरकार की प्राथमिकता में कुछ और ही है। मोदी सरकार ने उत्तराखण्ड के हरिद्वार में कुम्भ मेले को रद्द करने की माँग को नजरअंदाज कर दिया, यहाँ महामारी के दौरान सरकारी आँकड़ों में क़रीब 70 लाख से ज़्यादा लोगों की भीड़ जमा हुई। जब हालात बेक़ाबू हो गये, तो बाद में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को भक्तों से प्रतीकात्मक मेला मनाने की अपील करनी पड़ी। विशेषज्ञों ने कहा था कि कुम्भ मेला कोविड-19 के लिए एक सुपर स्प्रेडर ईवेंट बन सकता है और ऐसा ही पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव के दौरान बड़े पैमाने पर चुनावी रैलियों में उमड़ती भीड़ में भी यह सम्भव है।
उत्तर प्रदेश स्थानीय निकाय चुनावों को टालने के लिए तमाम सुझावों और यहाँ तक कि उच्च न्यायालय में याचिकाएँ दायर किये जाने के बावजूद उनको ख़ारिज कर दिया गया और सरकार ने चुनाव कराने का फ़ैसला किया। राज्य सरकार द्वारा इस क़दम का विरोध करने के बावजूद पश्चिम बंगाल विधानसभा चुनाव आठ चरणों में कराये जाने की न सि$र्फ चुनाव आयोग ने घोषणा का समर्थन किया, बल्कि आख़री चरणों में हालात ख़राब होने के बाद भी आठ ही चरण में चुनाव पूरे कराये गये।
सरकार प्रतिदिन मौतों की संख्या में इज़ाफ़ा होने के बावजूद संक्रमितों की संख्या और ठीक होने वालों की तादाद को बताती रही या कहें कि दबाती रही। लेकिन जब मेडिकल ऑक्सीजन की कमी के कारण मरीज मरने लगे तो केंद्र सरकार की ओर से कहा गया कि ऑक्सीजन की देश में कोई कमी नहीं है, केवल वितरण में अड़चनें हैं। केंद्र और दिल्ली सरकार के बीच बार-बार लगने वाले ऐसे आरोपों और रोज वार-पलटवार का दौर चला। हाईकोर्ट के बाद सुप्रीम कोर्ट तक मामला गया और आख़िर में सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार को सख़्त लहजे में आदेश दिया कि किसी भी क़ीमत पर दिल्ली को प्रतिदिन 700 मीट्रिक टन ऑक्सीजन देनी ही होगी। बाद में शीर्ष अदालत ने राष्ट्रीय टास्क फोर्स की स्थापना की, जिसमें देशव्यापी ऑक्सीजन की आपूर्ति की निगरानी और नियमन करने के लिए जाने-माने डॉक्टर्स और विशेषज्ञों को शामिल किया। इससे साबित होता है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय निर्देशों के बावजूद सिस्टम प्रभावी ढंग से काम करने में सक्षम नहीं था।
सुनवाई के दौरान न्यायमूर्ति डी.वाई. चंद्रचूड़ और न्यायमूर्ति एम.आर. शाह की पीठ ने टीकाकरण प्रक्रिया को तेज करने आवश्यकता पर जोर दिया और सुझाव दिया कि ऑक्सीजन ऑडिट के लिए विशेषज्ञों की एक समिति का गठन किया जाए, जबकि यह देखते हुए कि केंद्र सरकार के ऑक्सीजन फॉर्मूले में पूरी तरह से सुधार की आवश्यकता है। शीर्ष अदालत ने तीसरी लहर के बारे में बताते हुए कहा कि जब बच्चा अस्पताल जाएगा, तो माँ और पिता को भी जाना होगा। इसीलिए लोगों के इस समूह को बचाने के लिए टीकाकरण जल्द पूरा करना होगा। हमें पहले से ही इसके लिए वैज्ञानिक तरी$के से योजना बनाने की जरूरत है, ताकि समय पर व्यवस्था की जा सके। अदालत ने सरकार से उन डॉक्टरों की सेवाओं का उपयोग करने की सम्भावना तलाशने का आग्रह किया, जो एमबीबीएस पूरा कर चुके हैं और पीजी पाठ्यक्रमों में दाख़िला लेने की प्रतीक्षा कर रहे हैं।
दिल्ली के लिए ऑक्सीजन की आपूर्ति का मामला सुलझने के बाद मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने वादा किया कि शहर के सभी निवासियों को अगले तीन महीनों में मुफ़्त टीकाकरण किया जाएगा, बशर्ते राज्य सरकार को एसआईआई से हर महीने लगभग 85 लाख ख़ुराकें प्राप्त हो जाएँ। पूर्व कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गाँधी ने भी सेंट्रल विस्टा परियोजना को लेकर सरकार की खिंचाई की है। उन्होंने कहा कि इस दौर में सेंट्रल विस्टा आपराधिक अपव्यय है। केंद्र में लोगों के जीवन को बचाने की बजाय नया घर पाने के लिए अन्धा घमण्ड नहीं करना चाहिए। कांग्रेस नेता ने केंद्र से आग्रह किया कि वैज्ञानिक रूप से जीनोम अनुक्रमण के साथ-साथ इसके रोग पैटर्न का उपयोग करते हुए देश भर में कोरोना वायरस और इसके रूपों को ट्रैक करें। सभी नये म्यूटेशनों के ख़िलाफ़ सभी टीकों की प्रभावशीलता का आकलन करें। क्योंकि इनकी पहचान के बाद उनसे लडऩे में आसानी होगी। देश की पूरी आबादी का तेज़ी से टीकाकरण करें। पारदर्शी रहकर पूरी दुनिया को अपनेे निष्कर्षों के बारे में भी जानकारी दें।
राहुल के इस बयान के बाद केंद्रीय आवास और शहरी मामलों के मंत्री हरदीप सिंह पुरी सामने आये और इसकी आलोचना की। उन्होंने कहा कि विपक्षी दल ने सत्ता में होने पर सेंट्रल विस्टा विचार का समर्थन किया था। सेंट्रल विस्टा पर कांग्रेस का प्रवचन विचित्र है। पुरी ने ट्वीट किया कि सेंट्रल विस्टा की लागत कई वर्षों में करीब 20,000 करोड़ रुपये है। भारत सरकार ने टीकाकरण के लिए उस राशि को लगभग दो बार आवंटित किया है। इस वर्ष के लिए भारत का हेल्थकेयर बजट तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक था। हम अपनी प्राथमिकताओं को जानते हैं। नये संसद भवन के अलावा सेंट्रल विस्टा का पुनर्विकास राष्ट्र के शक्ति गलियारे में एक सामान्य केंद्रीय सचिवालय की परिकल्पना को चरितार्थ करता है, जो राष्ट्रपति भवन से तीन किलोमीटर लम्बे राजपथ को इंडिया गेट, नये प्रधानमंत्री निवास और प्रधानमंत्री कार्यालय और एक नये उप राष्ट्रपति भवन के रूप में फिर से स्थापित करने वाला है।
यह मामला शीर्ष अदालत में चला गया था, जिसने कुछ सवालों के साथ परियोजना के पक्ष में जनवरी में फ़ैसला सुनाया था। मामला फिर से सुप्रीम कोर्ट में पहुँचा और इस प्रोजेक्ट पर रोक लगाने की माँग की गयी। फिर शीर्ष अदालत ने इसे हाईकोर्ट में सुनने के लिए कहा है। अब दिल्ली उच्च न्यायालय जनहित याचिका पर सुनवाई करेगा कि सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट को जारी रखा जाए या नहीं?
पुरी यहीं नहीं रुके, उन्होंने कहा कि कांग्रेस पाखण्ड पर नहीं रुकती है। उनका शर्मनाक दोहरा चरित्र सामने आया गया है। यूपीए शासन के दौरान कांग्रेस नेताओं ने एक नये संसद भवन की आवश्यकता के बारे में लिखा था। सन् 2012 में शहरी विकास मंत्रालय को उसी के लिए एक पत्र लिखा था और यह उनके पास है। और यही लोग अब इसी परियोजना का विरोध कर रहे हैं। पुरी ने कहा कि कांग्रेस और उसके सहयोगी महाराष्ट्र में एक एमएलए आवास का निर्माण कर रहे हैं और छत्तीसगढ़ में नये विधानसभा भवन का निर्माण किया जा रहा है। उन्होंने कहा कि अगर वह सब ठीक है, तो सेंट्रल विस्टा के साथ क्या समस्या है? इस बीच कांग्रेस नेता जयराम रमेश ने केंद्र को याद दिलाया कि वह सेंट्रल विस्टा को एक ‘आवश्यक सेवा’ के रूप में मानकार काम को अंजाम दिया जा रहा है, जबकि पूरे देश में ऑक्सीजन की $िकल्लत है और लोग जान गँवा रहे हैं।

क्या कहते हैं डॉक्टर?
कोरोना वायरस से बचाव के लिए या संक्रमण होने पर क्या करें? इस बारे में ‘तहलका’ ने स्वास्थ्य निदेशालय दिल्ली सरकार (स्कूल स्वास्थ्य योजना) के अंतर्गत गीता कॉलोनी में कार्यरत वरिष्ठ चिकित्सा अधिकारी डॉक्टर अनूप नाथ से बातचीत की। मेडिकल की कई बड़ी डिग्रियों के धारक और लम्बे चिकित्सीय अनुभव वाले डॉक्टर अनूप नाथ सरकारी सेवा के अलावा इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के सदस्य, आस्ट्रेलियन ट्रेडीशनल मेडिसियन सोसायटी के मान्यता प्राप्त सदस्य, माँ आद्यशक्ति हॉलिस्टिक हेल्थ ऐंड केयर फाउण्डेशन के संस्थापक भी हैं।
डॉक्टर अनूप नाथ कहते हैं- ‘कोरोना वायरस से ही नहीं, किसी भी बीमारी से बचने के लिए स्वस्थ रहना बहुत जरूरी है। इसके लिए अगर आपके पास कोई शारीरिक मेहनत का काम नहीं है, तो व्यायाम, प्राणायाम, अनुलोम-विलोम, योग आदि करते रहना चाहिए। थोड़ी देर पेट के बल लेट जाना चाहिए। क्योंकि फेफड़ों के पिछले हिस्से का काम करना बहुत जरूरी है, जो अक्सर कम काम करता है। आपने देखा होगा कि मजदूरों और किसानों को, यदि वह किसी बीमारी से पीडि़त न हों; तो कोरोना नहीं हो रहा है। इसकी सीधी-सी वजह यही है कि उनकी रोग प्रतिरोधक क्षमता मेहनत करते रहने के कारण अच्छी है। अगर कोरोना वायरस का संक्रमण किसी को हो जाए, तो उसे सबसे पहले ख़ुद ही एकांतवास कर लेना चाहिए। दूसरों से दूर रहना चाहिए। दरअसल कोरोना वायरस को आरएनए वायरस कहते हैं, जो एक तरह का विषाणु है और संक्रमित व्यक्ति के सम्पर्क में आने पर दूसरे लोगों में भी फैल जाता है। यह आरएनए वायरस कोशिकाओं में पहुँच जाता है और उनमें अपने तरी$के से तेज़ी से वृद्धि कर लेता है, जिसे रोकने के साथ-साथ शरीर से विदा करना जरूरी है। इसके लिए धैर्य से काम लेने, दवाएँ लेने और स्वास्थ्य पर ध्यान देने की जरूरत है। कोरोना वायरस को दिल और दिमाग़ में बसा लेना भी ठीक नहीं। बस इसे शरीर में प्रवेश करने से रोकना जरूरी है। कोरोना वायरस श्वसन तंत्र को सबसे ज़्यादा संक्रमित करता है, जिसमें फेंफड़े ज़्यादा प्रभावित होते हैं। क्योंकि इससे फेंफड़ों की और फिर शरीर की कोशिकाओं में साइटोक्रोम स्ट्रोम होता है, जिससेऊतकों को बहुत नुक़सान है।’
डॉक्टर अनूप कहते हैं- ‘कोरोना वायरस का संक्रमण होने पर डॉक्टर की सलाह देखरेख में इलाज और ऑक्सीजन बहुत जरूरी है। कोरोना संक्रमण ख़त्म करने के लिए डॉक्टर आईवर मैक्टिन देते हैं, जो कोरोना वायरस को कोशिकाओं के अन्दर जाने से रोकती है। यह उसी को देनी चाहिए, जिसे कोरोना वायरस हो। इसके अलावा डॉक्सीसाइक्लिन और ऐजीथ्रोमाइसिन दवाएँ भी वायरस से लडऩे में मदद करती हैं और निमोनिया आदि से रक्षा करती हैं। ध्यान यह रखा जाना चाहिए कि जब स्टेरॉयड के जरिये दवाएँ शुरू होती हैं, तो मरीज का शुगर बढ़ जाता है, जिससे बीमारी जल्द ठीक होने में दिक़्क़त आती है। लेकिन इससे वायरस नष्ट हो जाता है। यही वजह है कि मरीज को पहले जैसी शक्ति हासिल करने में वक़्त लगता है।’

 


मास्क और सेनिटाइजर कहाँ तक उचित?
डॉक्टर नाथ का कहना हैं- ‘मास्क लगाना और सेनिटाइज करना तो जरूरी है। लेकिन हर समय नहीं। मास्क तभी लगाना चाहिए, जब आप बाहर जाएँ या किसी के सम्पर्क में आएँ। बाहर जाते समय मास्क के अलावा आँखों पर चश्मा भी लगाएँ और जब घर आएँ, तो मास्क हटाकर अच्छी तरह मुँह हाथ धो लें। मास्क को भी धो दें। और फिर घर में बिना मास्क के ही रहें। क्योंकि मास्क अधिक लगाने से भी शरीर के अन्दर ऑक्सीजन की कमी होती है, जिसके चलते फेफड़ों को ऑक्सीजन देने के लिए हृदय को अधिक काम करना पड़ेगा, जिससे धडक़नें बढ़ जाएँगी और इससे हृदयाघात (हार्ट अटैक), मस्तिष्काघात या पक्षाघात भी हो सकता है। सबसे ज़्यादा जरूरी है, प्रकृति ओर लौटना। इस महामारी ने संकेत दे दिया है कि अब हमें कृत्रिम जीवनशैली जीना छोडक़र प्राकृतिक या आयुर्वेदिक तरीके़ से जीना चाहिए। खानपान पर ध्यान रखने के साथ-साथ शारीरिक श्रम अवश्य करना चाहिए।’मुझसे कहा गया है कि अगर आप हमें यह टीका नहीं देते हैं, तो यह अच्छा नहीं होने वाला है। यह कोई बेईमानी नहीं है, बल्कि बोलने का अंदाज है। इसका निहितार्थ यह है कि अगर मैं इसका पालन नहीं करता, तो वे क्या कर सकते हैं? जब तक हम उनकी माँगों को नहीं मानते, तो वे हमें कुछ नहीं करने देंगे।’’

विशेषज्ञों ने चेताया
विश्व स्तर पर सम्मानित स्वास्थ्य पत्रिका ‘लैंसेट’ ने कहा कि संकट पर क़ाबू पाना भारत की प्रधानमंत्री मोदी सरकार पर निर्भर करेगा कि वह अपनी ग़लतियों को स्वीकारती है या नहीं। उसने लिखा कि संकट के इस दौर में सच्चाई का उजागर करने वालों पर मुक़दमा दर्ज करना और प्रधानमंत्री मोदी की आलोचना को दबाने का काम करना एक अक्षम्य अपराध है। भारत ने कोविड-19 को नियंत्रित करने में अपनी शुरुआती सफलता को नाकाम कर दिया है। लैंसेट ने संपादकीय में लिखा कि अप्रैल तक सरकार की तरफ़ से बनाये गये कोविड-19 टास्क फोर्स की महीनों तक कोई बैठक तक नहीं हुई। इससे साबित होता है कि भारत को इस लड़ाई को लडऩे के लिए नये सिरे से काम करना होगा; क्योंकि संकट लगातार बढ़ रहा है।
सफलता सरकार के उस प्रयास की पर निर्भर करेगी कि वह स्वीकारे कि अपनी ग़लतियों के लिए ज़िम्मेदार है। विज्ञान को केंद्र में रखकर ज़िम्मेदार नेतृत्व और पारदर्शिता के जरिये ही सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं को लागू किया जा सकता है। मेडिकल जर्नल के अनुसार, केंद्र इस बात का प्रचार कर रहा रहा था कि देश ने कई महीनों तक कम मामलों के बाद कोविड-19 को हरा दिया। हालाँकि विशेषज्ञ महामारी की दूसरी लहर के बारे में लगातार चेतावनी दे रहे थे।
केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्धन ने कोविड-19 के मामलों की दूसरी लहर के बारे में मार्च की शुरुआत में ही घोषणा कर दी थी कि भारत में इस महामारी का यह एंडगेम होगा। लैंसेट ने लिखा कि सुपर-स्प्रेडर कार्यक्रमों के जोखिमों के बारे में चेतावनी देने के बावजूद सरकार ने धार्मिक आयोजनों के होने देने की न सि$र्फ अनुमति दी, बल्कि कोविड-19 के तमाम उपायों की ख़ुद धज्जियाँ उड़ाते हुए केंद्रीय मंत्री भी चुनावी रैलियों में लाखों के हुजूम के बीच वोट माँगते नजर आये। टीकाकरण नीति पर चिन्ता व्यक्त करते हुए पत्रिका ने लिखा कि केंद्र ने राज्यों के साथ नीति में बदलाव करने के लिए काई चर्चा तक नहीं की। लैंसेट ने कहा कि कई बार सरकार ने महामारी को नियंत्रित करने की कोशिश करने की तुलना में ट्विटर पर आलोचना को हटाने के लिए कहीं ज़्यादा तत्परता दिखायी।
इंस्टीट्यूट फॉर हेल्थ मेट्रिक्स एंड इवैल्यूएशन का अनुमान है कि भारत में 01 अगस्त तक कोविड-19 से 10 लाख लोगों की मौत हो जाएगी। यदि ऐसा होने वाला है, तो इसके लिए सरकार ख़ुद इस तबाही की ज़िम्मेदार होगी। देश में डॉक्टरों की सबसे बड़ी संस्था इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) ने भी महामारी के केंद्र की महामारी के हैंडलिंग पर सवाल उठाते हुए ऐसे कामकाज और नजरिये को बेहद घातक बताया। आईएमए ने कहा कि सरकार ने स्वास्थ्य पेशेवरों द्वारा जारी सलाह और सुझावों पर ध्यान नहीं दिया और जमीनी ह$की$कत को समझे बिना एकतरफ़ा फ़ैसले लिये। सरकार द्वारा देशव्यापी तालाबंदी लागू करने का अनुरोध करने वाले कई विशेषज्ञों के उदाहरणों का हवाला देते हुए आईएमए ने कहा कि केंद्र सरकार ने इससे इन्कार किया। इसके बाद ही देश में कई दिनों तक चार लाख से अधिक रोज़ाना कोरोना मरीज़ोंके मामले सामने आये, जो दुनिया भर में आये मरीज़ोंके $करीब आधे से भी ज़्यादा रहे। आईएमए ने कहा कि 01 मई से पीएम के तीसरे चरण के टीकाकरण की घोषणा के बावजूद स्वास्थ्य मंत्रालय एक रोडमैप तैयार करने और स्टॉक की व्यवस्था करने में पूरी तरह नाकाम रहा। इससे अलग ही तरह की ऊहापोह की स्थिति पैदा हो गयी; क्योंकि राज्यों के पास लोगों को लगाने के लिए टीके ही नहीं पहुँचे।

टीकों के मूल्यों को तय करने में अन्तर पर कटाक्ष करते हुए मेडिकल एसोसिएशन ने चेचक और पोलियो के $िखलाफ़ पिछले टीकाकरण ड्राइव का हवाला दिया; जब देश भर में सभी के लिए मुफ़्त टीकाकरण सुनिश्चित किया गया। आईएमए ने कहा कि निजी अस्पतालों को उत्पादन की समस्याओं के कारण चिकित्सा ऑक्सीजन की कमी का सामना नहीं करना पड़ा। एसोसिएशन ने कोरोना संक्रमण के नये मामलों और इससे होने वाली मौतों की संख्या के आधिकारिक आँकड़ों पर सवाल उठाया और आश्चर्य जताया कि सरकार वास्तविक कोविड-19 के आँकड़ों को क्यों छिपा रही है। आईएमए ने फ़र्ज़ी आरटी-पीसीआर नकारात्मक परीक्षणों का एक उदाहरण देते हुए कहा कि अधिकारी सीटी-स्कैन रिपोर्ट के जरिये मामलों को जोड़ नहीं रहे हैं।

विश्व स्वास्थ्य संगठन की वैज्ञानिक सौम्या स्वामीनाथन ने भी भारत को आगाह किया कि कोविड-19 का बी.1.617 वैरिएंट बेहद तेज़ी से फैलता है, जिससे इसके संक्रमण के पुराने मामले पीछे छूट जाते हैं। स्वामीनाथन ने कहा कि भारत में महामारी के कारण न केवल लोगों की संख्या संक्रमित हुई, बल्कि बड़ी तादाद में लोगों की मौतें भी हुईं। क्योंकि कोरोना वायरस का नया रूप तेज़ी से फैला और कहीं ज़्यादा ख़तरनाक तरीके़ से सामने आया। उन्होंने कहा कि यह रूप पूरी दुनिया के लिए बड़ी समस्या बन गया है।

विदेशी मदद
भारत ने एक दशक के बाद कोई विदेशी सहायता स्वीकार की है। देश के संकट से निपटने में मदद के लिए लगभग 40 देश एक साथ आये। न केवल अमेरिका, ब्रिटेन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, यूएई, सिंगापुर जैसे देशों और कई बहुराष्ट्रीय कम्पनियों जैसे- गूगल, माइक्रोसॉफ्ट, ऍमेजन ने भी भारत की मदद करने का फ़ैसला किया। यूनिसेफ ने आशंका व्यक्त की है कि देश में कोरोनो वायरस जिस गति से फैल रहा है, उससे दुनिया के लिए ख़तरा है। यह भी अपील की है कि कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में ज़्यादा-से-ज़्यादा देश भारत की मदद करें।
ऑक्सीजन जनरेटर, एन-95 मास्क, पीपीई किट और वेंटिलेटर से युक्त लगभग 3000 टन की सहायता सामग्री देश में पहुँची। लेकिन इसके वितरण पर सवाल उठे। इसके लिए भी कोई एसओपी नहीं थी, बताया गया कि एसओपी बनाने में क़रीब एक हफ़्ता लग गया। व्हाइट हाउस के प्रेस सचिव जेन साकी ने कहा कि अमेरिका भारत को 100 मिलियन डॉलर की सहायता राशि भेज रहा है। हालाँकि कुछ अमेरिकी पत्रकारों ने सवाल किया कि क्या सहायता लाभार्थियों तक पहुँच रही है?
एक सरकारी प्रेस विज्ञप्ति के अनुसार, फास्ट ट्रैक आधार पर विदेशी सहायता की शीघ्र निकासी के लिए उठाये गये क़दमों में सीमा शुल्क निकासी की उच्च प्राथमिकता में रखा गया है। नोडल अधिकारियों को महामारी सम्बन्धित आयातों में देरी, वरिष्ठ अधिकारियों द्वारा निगरानी, पहुँच और सहायता केंद्र के लिए त्वरित व्यवस्था करने की बात कही गयी। इसके अलावा सीमा शुल्क, आईजीएसटी को माफ़ कर दिया गया था और व्यक्तिगत उपयोग ऑक्सीजन सांद्रता पर आईजीएसटी 28 फ़ीसदी से घटाकर 12 फ़ीसदी कर दिया गया।


राहुल गाँधी ने यहाँ पर फिर केंद्र पर तंज कसा कि अगर सरकार ने अपना होमवर्क किया होता, तो ची•ों इस दायरे में नहीं आतीं। देश की स्थिति पर भाजपा की पूर्व सहयोगी शिवसेना ने केंद्र पर ताना मारा कि आत्मनिर्भर भारत को अब अपने छोटे पड़ोसी देशों से मदद मिल रही है और भगवा पार्टी को यह याद दिलाना बनता है कि कांग्रेस के पूर्व प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू और इंदिरा गाँधी के बनाये बुनियादी ढाँचे के कारण ही इस महामारी से लडऩे में सक्षम है। बांग्लादेश ने 10,000 रेमडेसिवीर शीशियों को भेजा है, जबकि भूटान ने मेडिकल ऑक्सीजन भेजी है।

शिवसेना के मुखपत्र सामना के संपादकीय में लिखा है- ‘आत्मनिर्भर भारत को नेपाल, म्यांमार और श्रीलंका ने भी मदद की पेशकश की है। स्पष्ट शब्दों में कहें, तो भारत नेहरू-गाँधी परिवार द्वारा बनायी गयी प्रणाली पर जीवित है। कई ग़रीब देश भारत को मदद की पेशकश कर रहे हैं। इससे पहले पाकिस्तान, रवांडा और कांगो जैसे देश दूसरों की मदद लेते थे। लेकिन ग़लत नीतियों के कारण आज के शासक अब ऐसी स्थिति से गुजर रहे हैं।’ शिवसेना ने आश्चर्य व्यक्त किया कि किसी को भी अफ़सोस नहीं है कि भारत बांग्लादेश, श्रीलंका और भूटान जैसे देशों से सहायता स्वीकार कर रहा है। लेकिन केंद्र हज़ारों करोड़ वाले सेंट्रल विस्टा प्रोजेक्ट पर काम रोकने को तैयार नहीं है।