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अहम् का टकराव

सियासत भी ग़ज़ब की चीज़ होती है। इसमें जब तक किसी के हित सधते रहते हैं, तब तक तो सब ठीक रहता है; लेकिन जैसे ही अहित होने की सम्भावना जगती है, आदेशों की अनदेखी, विरोध परोक्ष / अपरोक्ष रूप से होने लगते हैं। फिर चाहे कोई कितने भी बड़े संवैधानिक पद पर ही क्यों न बैठा हो। मामला सत्ता के गलियारों में गूँजने लगता है। और मीडिया की सुर्ख़ियाँ बनने लगता है। ऐसा ही मामला आजकल केरल के राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान को लेकर चल रहा है। उन्होंने अपने निजी स्टाफ में अपने परिचित को नियुक्त कर लिया, तो परिचित की नियुक्ति का विरोध किसी और ने नहीं, बल्कि उन्हीं के एक वरिष्ठ अधिकारी ने राज्यपाल को पत्र लिखकर जता दिया। जब विरोध एक अधिकारी द्वारा राज्यपाल के आदेश का किया गया, तो मामला निश्चित तौर पर भूचाल लाने वाला बनना ही था। इस नियुक्ति को लेकर सरकार राज्यपाल की क्या राजनीति मंशा है?

इसी मामले को लेकर ‘तहलका’ के विशेष संवाददाता को राजनीतिक चिन्तक और दिल्ली विश्वविद्यालय (डीयू) के प्रोफेसर हरीश खन्ना ने बताया कि राज्यपाल की नियुक्ति देश का राष्ट्रपति द्वारा की जाती है। इस लिहाज़ से संवैधानिक तौर पर राज्यपाल का पद मुख्यमंत्री से ऊँचा होता है। इसलिए किसी भी राज्य की चुनी हुई सरकार अगर किसी मामले में राज्यपाल से असहमत है, तो उसका विरोध उसे एक मर्यादा के भीतर शिष्टतापूर्वक करना चाहिए। राज्यपाल के पास कुछ विशेष शक्तियाँ भी हैं, तो सीमित अधिकार भी हैं। जो कि लोकतंत्र के लिए ज़रूरी हैं। मगर मौज़ूदा दौर में सियासत में कुछ ज़्यादा ही उग्रता देखी जा रही है। इसके कारण संवैधानिक पदों पर बैठे राजनीतिज्ञों और अधिकारियों की अवहेलना अक्सर देखने, सुनने को मिल रही है।

राजनीति विश्लेषक प्रो. हंसराज का कहना है कि केंद्र और राज्य सरकारों के बीच वहाँ टकराव होता है, जहाँ पर अलग-अलग चुनी हुई सरकारें होती हैं। उनका कहना है कि केरल में कम्युनिस्ट पार्टी (माक्र्सवादी) की सरकार है, पश्चिम बंगाल में तृणमूल कांग्रेस (टीएमसी) की सरकार है, यही कारण है कि दोनों राज्यों में राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों की बीच वैचारिक और राजनीतिक स्तर पर टकराव होता रहता है। यही हाल दिल्ली का है। यहाँ आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार और उप राज्यपाल में आये दिन टकराव होता रहा है।

प्रो. हंसराज कहते हैं कि केरल के मुख्यमंत्री पिनराई विजयन है, जिसकी छवि एक मंजे हुए राजनीतिक की तरह है। वह अक्सर राजनीति में अपनी बात रखने के लिए अधिकारियों को दाँव-पेच के खेल में उलझाकर काम कराया करते हैं। क्योंकि जब राज्यपाल ने एक व्यक्ति की नियुक्ति की और उन्हीं के एक अधिकारी ने विरोध कर दिया। यह हिम्मत तो अधिकारी की हो ही नहीं सकती है। इसके पीछे ज़रूर मुख्यमंत्री का हाथ हो सकता है। क्योंकि राजनीति में प्रलोभन और राजनीतिक चालें छिपी हुई होती हैं, जिसका ख़ुलासा देर-सबेर होता है। लेकिन तब तक सियासी खेल बन-बिगड़ जाते हैं।

जब एक अधिकारी ने राज्यपाल के आदेश का पालन नहीं किया, तो राज्यपाल को ग़ुस्सा आना स्वाभाविक है। राज्यपाल आरिफ़ मोहम्मद ख़ान ने बाक़ायदा तर्क देते हुए कहा है कि केरल सरकार के मंत्री अपने लोगों को व्यक्तिगत तौर पर अमला (स्टाफ) की नियुक्ति करने के लिए स्वतंत्र हैं। उन्हें किसी से पूछने की ज़रूरत नहीं है। लेकिन राज्यपाल को अपना निजी सहायक रखने के लिए कोई अधिकार और स्वतंत्रता नहीं है! यह तो संवैधानिक पद पर बैठे व्यक्ति का मज़ाक़ है।

कामरेड सुनील शर्मा ने कहते हैं कि एक दौर था, जब कई राज्यों में कम्युनिस्ट पार्टी की सरकारें होती थीं और केंद्र सरकार भी कम्युनिस्टों के सहयोग से चला करती थी। तब केंद्र सरकार राज्य सरकारों पर राज्यपालों के माध्यम से हस्तक्षेप नहीं करती थीं। लेकिन मौज़ूदा सरकार के चलते ज़्यादा हस्तक्षेप बढ़ा है, जिसके चलते मुख्यमंत्रियों और राज्यपालों के बीच विवाद और टकराव हो रहा है।

सियासत के जानकार कृष्ण देव का कहना है कि एक दशक से देश की सियासत में एक तरह की राजनीति कुछ अलग ही तरीके से चल पड़ी है, जिसके चलते छोटे-छोटे मामलों पर बड़े-बड़े पदों पर बैठे लोगों को अपने अधिकारों के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। उनका कहना है कि दिल्ली में आम आदमी पार्टी की सरकार है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल के पास अक्सर इस बात का रोना रहता है कि फलाँ-फलाँ काम उप राज्यपाल के यहाँ अटका पड़ा है। क्योंकि केंद्र में भाजपा की सरकार है। इसलिए काम की फाइल अटकना तो बहाना है, उसके पीछे की सियासत कुछ और ही है। उनका कहना है कि यही हाल पश्चिम बंगाल का है। जहाँ पर मुख्यमंत्री ममता बनर्जी और राज्यपाल जगदीप धनखड़ के बीच किसी-न-किसी मुद्दे पर विवाद छिड़ा रहता है।

भाजपा के एक वरिष्ठ नेता ने बताया कि राज्यपाल की नियुक्ति भले ही महामहिम राष्ट्रपति करते हों और वह उनके अधीन भी हों; लेकिन असल में राज्यपाल तो केंद्र सरकार का ही माना जाता है। भाजपा नेता का कहना है कि केरल हो या अन्य राज्य, वहाँ के राज्यपाल को पूरा अधिकार है कि वह अपने पसन्द के व्यक्ति की नियुक्ति कर सकते हैं। लेकिन इसमें अगर कोई विरोध सरकार या उसका अधिकारी करता है, तो निश्चित तौर पर यह बात सबको समझनी चाहिए कि ज़रूर कोई गड़बड़ है। ऐसा क्या है कि केरल में राज्यपाल एक नियुक्ति करें और वहाँ के मुख्यमंत्री अपरोक्ष रूप से उनका विरोध करने के लिए एक अधिकारी को कहें। केरल की राजनीति से जुड़े पूर्व अधिकारी ने बताया कि देश में इस समय राजनीति समीकरण साधने के जो प्रयास किये जा रहे हैं, उसके लिए एक-एक आदमी पर नज़र रखी जा रही है। कौन-सा नेता, कौन-से आदमी को नियुक्त कर रहा है? अन्यथा संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल के आदेश को कोई काट सकता है? बात इस पर ग़ौर करने की ज़रूरत है कि अब राज्य सरकारें देखती हैं कि राज्यपाल जिस व्यक्ति की नियुक्ति कर रहे हैं, वह किसका आदमी है? और किस विचार धारा से जुड़ा है? यहाँ भी इसी के चलते एक नियुक्ति को लेकर हो-हल्ला हो रहा है।

बता दें कि केरल की राजनीति में राज्यपाल का मामला इस क़दर तूल पकड़ रहा है कि अब केरल के लोगों ने और कम्युनिस्ट नेताओं ने यह आवाज उठानी शुरू कर दी है कि राज्यपाल का पद ही समाप्त कर दिया जाए। केरल के नेताओं का कहना है कि मौज़ूदा केंद्र सरकार का संवैधानिक ढाँचा चरमराने लगा है। इसलिए अब केरल की विधानसभा को ही यह अधिकार मिलना चाहिए या उसकी सहमति से वहाँ के राज्यपाल की नियुक्ति हो। मौज़ूदा समय में ग़ैर-भाजपा शासित राज्यों में इस बात को लेकर एकता पर बल दिया जा रहा है कि उनके राज्य में राज्यपाल के मार्फ़त केंद्र सरकार हस्तक्षेप कर रही है। राज्य सरकार के काम में बाधा डाल रही है। केंद्र सरकार ही राज्यपाल के माध्यम से अपने लोगों को राज्य में बड़े पदों पर नियुक्तियाँ करा रही है। यही वजह है कि राज्य सरकारों को काम करने बाधा आ रही है।

राज्यपालों और मुख्यमंत्रियों के बीच हो रहे टकराव और विवाद के बीच समाधान को लेकर अंबेडकर कॉलेज के प्रोफेसर डॉ. एस.के. गौर का कहना है कि लोकतंत्र में विरोध तो होते रहते हैं। लेकिन विरोध किन-किन लोगों के बीच हो रहा है? यह भी महत्त्वपूर्ण होता है। वैसे संवैधानिक पद पर विराजमानों के बीच टकराव हो, तो ऐसे में राजनीतिक विशेषज्ञों के माध्यम से और क़ानूनविदों की सहायता से समाधान निकाला जाना चाहिए। क्योंकि लोग तो यह जानते हैं कि अगर केंद्र सरकार में किसी अन्य दल की सरकार है और राज्य सरकार में अन्य दल की सरकार है। ऐसे में लोगों के बीच यह सन्देश होता है कि राज्यपाल तो केंद्र का होता है, इसलिए प्रदेश सरकार के काम में रुकावट तो आनी ही है। डॉ. एस.के. ग़ौर का कहना है कि किसी भी राज्य का क़ानून हो या मंत्री परिषद् को लेकर कोई काम हो, वो बिना राज्यपाल के हस्ताक्षर के सम्भव ही नहीं है। यानी राज्य के सबसे बड़े संवैधानिक पद पर बैठे राज्यपाल के कामकाज पर सवालिया निशान लगाना या नियुक्ति जैसे मामले पर विरोध करना ज़रूर राज्य सरकार की सियासी चाल हो सकती है। अगर यह सियासी चाल है, तो निश्चित तौर पर लोकतंत्र के लिए ठीक नहीं है। दिल्ली के उप राज्यपाल अनिल बैजल और मुख्यमंत्री के बीच तमाम कामों और फ़ैसलों को लेकर तनातनी की ख़बरें अक्सर मीडिया में सामने आती रहती हैं। जैसा कि कोरोना-काल में पाबंदियों और छूट को लेकर काफ़ी विवाद दोनों के बीच चला, जिसको लेकर यह बात सामने आयी है कि ये भी सियासी पैंतरे हैं। लेकिन इन पैंतरबाज़ी में अगर कोई पिसता है, तो वह है जनता। ऐसे में ज़रूरी यह हो जाता है कि राज्यपाल / उप राज्यपाल और मुख्यमंत्री के बीच अहम का टकराव नहीं होना चाहिए। कई बार चुनी हुई सरकार के मंत्री अपनी राजनीति चमकाने के चक्कर में अमर्यादित भाषा का प्रयोग कर जाते हैं, जिससे मामला बेवजह ही तूल पकड़ जाता है।

मज़बूत अर्थ-व्यवस्था के बिना विकास का सपना

कोरोना वायरस से दूसरे सबसे ज़्यादा प्रभावित देश भारत की अर्थ-व्यवस्था कब और कैसे दोबारा उछाल मारेगी? इस सवाल का जवाब किसी के पास नहीं है। देश के सामने इस समय कई बड़ी चुनौतियाँ हैं। जैसे पिछले दो साल में क़रीब 1.5 से 1.7 करोड़ लोगों का रोज़गार छिना है। भारतीय रिजर्व बैंक ने कहा कि फँसा क़र्ज़ यानी एनपीए कुल क़र्ज़ का 7.5 फ़ीसदी से बढक़र 13.5 फ़ीसदी तक पहुँच सकता है। ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाले लोगों के औसत उपभोग में वृद्धि की बात तो छोड़ दीजिए, उसमें गिरावट आयी है।

पिछले पाँच साल में ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले लोगों के लिए खपत न केवल धीमी हुई है, बल्कि लगातार गिरती चली गयी है। पाँच साल पहले की तुलना में ग्रामीण क्षेत्र में प्रति व्यक्ति खपत में 8.8 फ़ीसदी की कमी आयी है। इसके साथ-साथ देश में ग़रीबी की दर में वृद्धि हो रही है। देश की दूरगामी अर्थ-व्यवस्था के लिए ग्रामीण क्षेत्र महत्त्वपूर्ण है। बेरोज़गारी के आँकड़े देखेंगे, तो यह पिछले 45 साल में सर्वाधिक है। इससे पहले कभी भी बेरोज़गारी की दर इतनी अधिक नहीं रही।

 

पीएचडीसीसीआई के वरिष्ठ उपाध्यक्ष साकेत डालमिया कहते हैं कि कोरोना के कारण भारत की अर्थ-व्यवस्था पर असर पड़ा है, जिससे लोगों की आमदनी प्रभावित हुई है। केंद्र सरकार विकास का सपना काफ़ी पहले से लोगों को दिखा रही है। कहा जा रहा है कि वह सूक्ष्म, लघु एवं मध्यम उद्यम (एमएसएमई) क्षेत्र पर ध्यान दे रही है। लेकिन सबसे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि हमें इस क्षेत्र के लिए पूँजी का निवेश करना होगा। विकास को पुनर्जीवित करने और इसे बेहतर ढंग से विस्तारित करने के लिए राजकोषीय और मौद्रिक नीतियों के बारे में विचार करना होगा।

सवाल यह उठता है कि दीर्घकालिक विकास कैसे सम्भव होगा? देश में निवेश की दर में लगातार कमी आ रही है। 2008-2009 में जीडीपी के भीतर क़रीब 39 फ़ीसदी हिस्सा निवेश का था, जो कम होकर 30 फ़ीसदी तक पहुँच गया। इससे यह बात तो साफ़ हो गयी है कि पाँच ट्रिलियन डॉलर इकोनॉमी की अर्थ-व्यवस्था अगले 4-5 साल में तो असम्भव है; क्योंकि इसकी गणना यूएस डॉलर के आधार पर होती है। अब तो विकास दर गिरकर 4.5 फ़ीसदी पर पहुँच गयी है। पिछले कुछ साल में अर्थ-व्यवस्था के विरोधाभासी और सन्देहास्पद आँकड़ों को लेकर भी सवाल उठ रहे है। देश में आँकड़ों को एकत्रित करने के लिए सांख्यिकीय प्रणाली उपयोग में लायी जाती है।

सवाल उठ रहा है कि सरकार अर्थ-व्यवस्था में जान कैसे फूँकेगी? वित्त वर्ष 2022-23 के बजट में वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने गाँवों में ग़रीबों और मज़दूरों को सहारा देने वाली मनरेगा योजना का आवंटन भी पहले से घटा दिया है। जैसा कि हम जानते हैं इस योजना के तहत ग्रामीणों को माँगने पर 100 दिनों का सुनिश्चित रोज़गार देने का प्रावधान है। लेकिन गाँवों में भी बेरोज़गारी की समस्या दिनों-दिन बढ़ती जा रही है।

राज्यसभा में गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि बेरोज़गारी की वजह से 2018 से 2020 तक 9,140 लोगों ने आत्महत्या की है। साल 2018 में 2,741, 2019 में 2,851 और 2020 में 3, 5480 लोगों ने बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या की। साल 2014 की तुलना में 2020 में बेरोज़गारी की वजह से आत्महत्या के मामलों में 60 फ़ीसदी की वृद्धि दर्ज की गयी है।

इसी तरह आर्थिक संकट के कारण आत्महत्या करने के आँकड़े भी भयावह हैं। बेरोज़गारी की तरह ही सन् 2018 से सन् 2020 तक दिवालियापन और क़र्ज़ की वजह से आत्महत्या करने वालों में भी बढ़ोतरी हुई है। गृह राज्यमंत्री नित्यानंद राय ने बताया कि ऐसे मामलों में इन तीन वर्षों में कुल 16,091 लोगों ने आत्महत्या की है। साल 2019 में दिवालियापन और क़र्ज़ के चलते आत्महत्या करने वालों की संख्या 5,908 है, जो तीन वर्षों में सबसे अधिक है। देश में नौकरी का संकट बड़ा है। लाखों युवक नौकरी की तैयारी कर रहे हैं; लेकिन उन्हें नौकरी नहीं मिल रही है। लेकिन सरकार के पास रोज़गार देने की कोई स्पष्ट नीति नहीं है। देश में आर्थिक मोर्चे पर किस तरह की ग़फलत हो रही है, इसका ख़ुलासा पिछले दिनों, जिसमें पता चला कि एनएसई की पूर्व सीईओ किसी हिमालय वाले योगी के कहने पर बहुत-से काम किया करती थी, यहाँ तक कि एक शख़्स की नियुक्ति भी ईमेल के ज़रिये योगी बाबा के कहने पर मोटा वेतन देकर की गयी।

भारतीय स्टॉक मार्केट नियामक (सेबी) ने यह जानकारी दी कि देश के सबसे बड़े एक्सचेंज की पूर्व प्रमुख सीईओ चित्रा रामकृष्ण ने एक योगी के साथ गोपनीय जानकारी साझा की और उनकी सलाह से कई महत्त्वपूर्ण फ़ैसले लिये। भारतीय प्रतिभूति और विनिमय बोर्ड (सेबी) ने यहाँ तक कहा कि चित्रा रामकृष्ण ने योगी के साथ बिजनेस प्लान, बोर्ड बैठकों का एजेंडा और वित्तीय अनुमान साझा किये थे। चित्रा रामकृष्ण ने 2016 में नेशनल स्टॉक एक्सचेंज से इस्तीफ़ा दिया था। सेबी ने कहा है कि अब तक उन्होंने जो दस्तावेज़ एकत्रित किये हैं, उससे साफ़ हो गया कि स्टॉक एक्सचेंज को पीछे से एक योगी चला रहे थे।

सवाल यह है कि आख़िर वह हिमालय वाला योगी कौन है? इस सवाल के जवाब में कई नाम सामने आ रहे हैं। यह मामला किसी संदेहास्पद भूतिया फ़िल्म जैसा बन गया है, जिससे पर्दा तब ही उठ सकता है, जब ख़ुद चित्रा रामकृष्ण उस योगी का नाम पता और पहचान बता दें। सीबीआई ने पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण, रवि नारायण और पूर्व सीईओ आनंद सुब्रमण्यम के ख़िलाफ़ लुकआउट सर्कुलर भी जारी किया है। मामले की छानबीन करने से पता चलता है कि चित्रा रामकृष्ण चेन्नई के एक योगी मुरुगादिमल सेंथिल, जिसे तमिल भाषा में स्वामिगल कहते हैं; के सम्पर्क में रहती थीं। वह उन्हें अपना गुरु और आध्यात्मिक मार्गदर्शक (स्प्रिचुअल गाइड) मानती थीं। अभी उस योगी की मौत हो चुकी है। दिलचस्प है कि वह योगी आनंद से भी जुड़े हुए थे, जिसे चित्रा रामकृष्ण ने भारी पैकेज पर नियुक्त किया था।

आनंद सुब्रमण्यम का सालाना पैकेज 14 लाख रुपये के क़रीब था। लेकिन जब अप्रैल, 2013 में उन्हें एनएसए नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में एम.डी. और सीईओ चीफ स्ट्रेटेजिक एडवाइजर के तौर पर नियुक्त किया, तो उन्हें क़रीब डेढ़ करोड़ रुपये का सालाना पैकेज ऑफर किया गया और दो से तीन साल के अन्दर ही सुब्रमण्यम का पैकेज बढक़र पाँच करोड़ रुपये तक पहुँच गया है। योगी के इशारों पर ही आनंद को तगड़े इनक्रिमेंट दिये गये और उस पर ख़ूब पैसे लुटाये गये। यही नहीं, रामकृष्ण प्रदर्शन के मूल्यांकन (परफॉर्मेंस अप्रेजल) की रेटिंग देते हुए भी बाबा से सलाह लेती थीं और सुब्रमण्यम को हमेशा ए+ रेटिंग देती थीं। चित्रा रामकृष्ण की इस करतूत ने नियामक संस्थाओं पर सवाल खड़े कर दिये हैं। लेकिन देश की अर्थ-व्यवस्था जिस दौर से गुज़र रही है; बैंकों का एनपीए बढ़ रहा है, तो ऐसे ख़ुलासे लोगों के भरोसे को तोड़ते हैं। रेटिंग एजेंसी क्रिसिल ने वित्त वर्ष 2022-23 के लिए वास्तविक सकल घरेलू उत्पाद जीडीपी की वृद्धि दर 7.8 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया है, जबकि संसद में पेश आर्थिक सर्वेक्षण में यह दर 8.5 फ़ीसदी रहने का अनुमान लगाया गया है। सकल घरेलू उत्पाद यानी ग्रॉस डोमेस्टिक प्रोडक्ट (जीडीपी) किसी एक साल में देश में पैदा होने वाले सभी सामानों और सेवाओं के कुल मूल्य (वैल्यू) को कहते हैं।

जीडीपी किसी भी देश के आर्थिक विकास का सबसे बड़ा पैमाना है। अधिक जीडीपी का मतलब है कि देश में आर्थिक बढ़ोतरी हो रही है। अगर जीडीपी बढ़ती है, तो इसका मतलब है कि अर्थ-व्यवस्था ज़्यादा रोज़गार पैदा कर रही है। इसका यह भी मतलब है कि लोगों का जीवन स्तर भी आर्थिक तौर पर समृद्ध हो रहा है। इससे यह भी पता चलता है कि कौन-कौन से क्षेत्र में विकास हो रहा है? कौन-सा क्षेत्र आर्थिक तौर पर पिछड़ा है?

कपड़ों की औक़ात

यह दुनिया बड़ी विचित्र है। इसमें भी सबसे विचित्र प्राणी इंसान है। इंसान की फ़ितरत भी बड़ी विचित्र है। किसी भी हाल में हो, या तो बेचैन रहता है, या असन्तुष्ट। इंसान ही वह प्राणी है, जो अपना स्वार्थ साधने के लिए कुछ भी करने को तैयार रहता है। अब स्वार्थ ही एक ऐसी कड़ी बन चुकी है, जो एक इंसान को दूसरे इंसान से जोड़े रहती है। अगर स्वार्थ दोनों तरफ़ से न भी हो, तो एक तरफ़ से तो ज़रूर होता  यही वजह है कि एक इंसान दूसरे इंसान से उतना ही मिलकर रहता है, जितना उसका स्वार्थ जुड़ा होता है। हालाँकि अगर किसी को संसार अथवा इंसानी समाज से अलग कर दो, तो वह जी भी नहीं सकेगा। क्योंकि सच्चाई यही है कि इंसान का अस्तित्व दूसरों के बग़ैर, ख़ासकर जिन लोगों और चीज़ें पर वह निर्भर है, उनके बग़ैर कुछ भी नहीं है। लेकिन इतने पर भी उसे यह भ्रम रहता है कि उसके बग़ैर न तो दूसरे का कोई अस्तित्व है और न ही उसके बग़ैर कुछ होगा।

यह भ्रम मज़हबी कट्टरपंथियों में हद से ज़्यादा ही दिखता है। इसकी वजह यह है कि ये मज़हबी कट्टरपंथी अपनी असली पहचान भूलकर ख़ुद के अस्तित्व से बाहर दिखावे की पहचान को ही अपनी असली पहचान समझते हैं। ऐसे लोगों ने यह पहचान मज़हबों में खोज रखी है। जब सिर्फ़ मज़हबों से काम नहीं चला, तो इन लोगों ने शरीर की प्राकृतिक बनावट में ऊपरी बदलाव किया। इससे भी काम नहीं चला, तो वेशभूषा में बदलाव किया और रंगों को मज़हबों की पहचान से जोड़ दिया।

विडम्बना यह है कि इन कट्टरपन्थियों ने न केवल मज़हबों को, बल्कि उनसे जुड़ी शारीरिक बनावट, वेशभूषा और रंगों को अपनी जान से भी क़ीमती समझ लिया। हद तो यह है कि कई बार इन कट्टरपंथियों ने अपने दिखावे अथवा इन दिखावे की पहचानों को बचाने की मूर्खता में एक-दूसरे की जान भी ली है; और अब भी इस पर बहुत-से मूर्ख आमादा हैं। यह लोग इस बात को भी नहीं समझते कि जिस शरीर को इन्होंने मज़हब के हिसाब से दिखाने की कोशिश की है, वह शरीर भी मर जाएगा। और ज़िन्दगी भर उस मज़हब में ख़ुद को ढाले रहने के लिए हज़ारों बार नश्वर शरीर को बनावटी रूप देना पड़ेगा। कितनी ही बार मज़हबी कपड़े बदलने पड़ेंगे। इन लोगों को यह बात भी समझ नहीं आती कि किसी की कोई भी बाहरी पहचान स्थायी नहीं है; शरीर के बराबर भी स्थायी नहीं। प्रकृति बार-बार इन पहचानों को नष्ट करती है और कट्टरपंथी बार-बार इसे मज़हबी रूप देते रहते हैं; चाहे वो शारीरिक बनावट हो, चाहे वेशभूषा हो। इन्हीं सब चीज़ें की बिना पर इंसान इस क़दर बँट गया कि उसे अपने ही भाइयों में दुश्मन, विरोधी और ग़ैर इंसान नज़र आने लगा।

सन्त कहते हैं कि दुनिया के प्राणियों में शरीरों का भेद ऊपरी है। लेकिन आत्मा सबकी एक ही परमपिता का अंश है। इस प्रकार पृथ्वी की गोद में पलने वाले सभी प्राणी एक ही प्रकाश से प्रकाशित हैं; अर्थात् एक ही परमेश्वर के अंश हैं। प्रकृति की गोद में सब एक जैसे हैं। लेकिन इतने पर भी एक-दूसरे की पहचान कपड़ों से करते हैं।

अभी हाल में उठा हिजाब का मुद्दा इसी का एक उदाहरण है। हैरत की बात यह है कि जो मज़हबी कपड़े अन्तिम यात्रा के दौरान ख़ुद मज़हब वाले ही उतार देते हैं, उन्हीं कपड़ों के लिए कट्टरपंथी लोग ज़िन्दगी भर लड़ते हैं और उनकी रक्षा के लिए दूसरों की हत्या जैसा जघन्य पाप करने तक से नहीं चूकते। ये लोग इतना भी नहीं समझते कि कपड़े तो शरीर ढँकने का साधन मात्र हैं। रही रंगों की बात, तो ऐसा कोई रंग नहीं, जिससे कोई ख़ुद को अलग रख सके। क्या विडम्बना है कि जिस इंसान को मरने के बाद यह भी पता नहीं रहता कि उसके शरीर के साथ क्या हो रहा? वह जीते-जी इंसानियत की सारी हदें लाँघकर उन कपड़ों के लिए लड़ता है, जिन्हें उसे फटने पर जीते-जी फेंकना पड़ता है। यह भ्रम क्यों? क्योंकि लोगों के विचारों में फ़र्क़ है। पहले लोगों के मतभेद पर तर्क-वितर्क होते थे, अब मनभेद होते हैं। मतभेदों से मनभेद तक पहुँचने वालों की मूर्खता की पराकाष्ठा यह है कि वे एक-दूसरे से हद से ज़्यादा नफ़रत करने लगते हैं।

लोगों को समझना चाहिए कि दुनिया में कोई एक सत्य स्थायी नहीं है। एक व्यक्ति को जो सच लगता है, वह दूसरे व्यक्ति को झूठ भी लग सकता है। अथवा एक व्यक्ति के लिए जो सही है, वह किसी दूसरे के लिए ग़लत भी हो सकता है। जो बात किसी एक को सन्तुष्ट करती है, वह दूसरे को असन्तुष्ट भी कर सकती है। रंगों और कपड़ों के मामले में भी यही बात लागू होती है। फिर झगड़ा किस बात का? लेकिन झगड़ा है। ज्ञानी लोग कहते हैं कि झगडऩा मूर्खों का काम हैं। मशहूर शाइर ग़ालिब ने इसे बड़े अनोखे अंदाज़ में बयाँ किया है। वह कहते हैं-

‘‘बाग़ीचा-ए-अतफ़ाल है दुनिया मेरे आगे

होता है शब-ओ-रोज़ तमाशा मेरे आगे’’

अर्थात् ग़ालिब कहते हैं कि मेरे सामने यह दुनिया बच्चों के खेलने का मैदान है, जिसमें रात-दिन मेरे सामने तमाशा होता रहता है। यह बात शायद सब लोगों की समझ में न आये; ख़ासकर उनकी, जिनकी आँखों पर मज़हबी पर्दा पड़ा है। दुनिया की नश्वरता समझने वाले कभी रंगों, कपड़ों और मज़हबों के लिए किसी की जान नहीं ले सकते; किसी को परेशान नहीं कर सकते। अफ़सोस यह है कि इस तरह के कट्टर लोग आज दुनिया के हर मज़हब में हैं। कभी-कभी सोचता हूँ कि क्या यह कट्टरपंथी इंसान हैं?

महाशिवरात्रि के पर्व पर मंदिरों में शिव भक्तों की धूम

हर साल की भाँति इस साल भी महाशिवरात्रि के पर्व पर मंदिरों में शिव भक्तों ने भगवान शिव की पूजा अर्चना और भगवान से आर्शीवाद प्राप्त कर देश–दुनिया में शांति की आपील की है। दिल्ली में आज तड़के से ही मंदिरों पूजा-पाठ और टन-टन घंटो की आवाज सुनने को मिलने लगी थी । लोगों ने अपने भगवान को बेल पत्ती, भांग और फूलों के साथ पूजा की।सबसे बड़ी बात तो मंदिर में इस बार देखने को मिली कि मंदिरों में कोरोना महामारी की समाप्ति के लिये लोगों ने भगवाने से प्रार्थना की अब कोरोना जैसी घातक बीमारी फिर से ना आये।

मंदिरों के पुजारियों ने तहलका संवाददाता को बताया कि कोरोना महामारी का ताडंव शिव ताडंव के आगे नतमस्तक हो गया है। अब धीरे-धीरे कोरोना चला जायेगा।राधा कृष्ण और शिव मंदिर के पुजारी ने बताया कि पिछले कई सालों की तरह इस साल भी महाशिवरात्रि का पर्व बड़े धूमधाम से मनाया जा रहा है। उन्होंने बताया कि इस पर्व में स्कूली छात्र भी बढ़चढ़ कर भाग ले रहे है।

मंदिरों के बाहर रेहड़ी–पटरी में बैल–पत्ती बेचनें वाले और पूर्जा अर्चना का सामान बेचने वालों में बड़ा उत्ताह देखने को मिला है। उनका कहना है कि दो सालों से कोरोना के कारण कई त्यौहारों पर उनके रोजगार फीकें रहे है। जिससे माली हालत कमजोर हुई है। रेहड़ी लगाने वाले बलराम ने बताया कि शिवरात्रि को लेकर उनके काम दो-तीन से अच्छा चल रहा है। उन्होंने भी भगवान शिव से प्रार्थना करते हुये कहा कि वह कोरोना का नाश करें और देश–दुनिया में सुख–शांति और समृद्रि के लिये आर्शीवाद दें। ताकि लोगों का जीवन शांति के साथ व्यतीत होता रहें।

उ.प्र. विधानसभा चुनाव: आज थम जायेगा छठें चरण का चुनाव प्रचार, मतदान 3 मार्च को

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव के छठें चरण में 3 मार्च को होने वाले चुनाव को लेकर आज शाम चुनाव प्रचार थम जायेगा। छठें चरण में बलरामपुर, सिद्रार्थनगर, महाराजगंज, कुशीनगर, बस्ती, संतकबीर नगर, अबंडेकरनगर, गोरखपुर, देवरिया और बलिया जिले की विधानसभा सीटों पर मतदान होना है।

बताते चलें, इन जिलों में गोरखपुर जिले की विधानसभा सीटों का चुनाव सबसे महत्वपूर्ण बताया जा रहा है। क्योंकि यहां पर प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्य नाथ चुनाव मैदान में है। इस लिहाज से यहां पर सभी विरोधी दल योगी आदित्य नाथ को चुनाव में हराने के लिये जी-तोड़ मेहनत कर रहे है।

गोरखपुर के रहने वालों ने तहलका संवाददाता को बताया कि चुनाव तो चुनाव होता है। जीत-हार की संभावना रहती है। लेकिन यहां के स्थानीय लोगों का मानना है कि अगर योगी आदित्य नाथ चुनाव जीतते है तो, विकास तो होगा। वहीं योगी आदित्य नाथ के विरोध में चुनाव प्रचार करने वालों का कहना है कि कई बार चुनाव में मुख्यमंत्री पद के दावे दार भी चुनाव हार जाते है। जैसा कि पश्चिम बंगाल में तृण मूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी चुनाव हार गई थी और उनकी पार्टी तृण मूल कांग्रेस चुनाव जीत गई थी।

राजनीति आंकलन जो भी निकालें जाये पर, भरोसा नहीं किया जा सकता है। उत्तर प्रदेश की सियासत के जानकार पुरूषोत्तम पचौरी का कहना है  कि  उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में लास्ट राउंड में दो चरणों का मतदान बचा है। जिनमें 3 और 7 मार्च को मतदान होना है। इसलिहाज से प्रदेश की सियासत में गर्माहट और आरोप –प्रत्यारोप की राजनीति तेज चल रही है। कोई नेता किसी हद तक अपने विरोधी पर आरोप लगाने से बाज नहीं आ रहे है। माहौल को पूरा सियासी रंग दिये हुये है।

 

एमसीडी के चुनाव में धार्मिक गुरू भी उतरेगे चुनाव प्रचार में 

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव में अगर भाजपा को जीत मिलती है तो आगामी दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव में भाजपा साधु-संतों को अप्रत्यक्ष रूप से भाजपा के प्रत्याशियों के चुनाव प्रचार में उतार सकती है। सूत्रों की माने तो एमसीडी के चुनाव में भाजपा हर हाल में जीत हासिल करना चाहती है।
बताते चलें एमसीडी में भाजपा का 15 साल से कब्जा है। इस लिहाज से भाजपा एमसीडी में जीत को लेकर काफी सक्रिय है। भाजपा का मानना है कि दिल्ली में तामाम मुद्दों पर आम आदमी पार्टी को घेरा जा सकता है। क्योंकि आप पार्टी का मौजूदा समय में कई मोर्चों पर विरोध चल रहा है। ऐसे में भाजपा कोई कोर कसर छोड़ना नहीं चाहती है।
वैसे तो आप पार्टी भी पिछले चुनाव में भाजपा की तर्ज पर ध्रुवीकरण की राजनीति कर चुकी है। सियासी दांव-पेंच में भाजपा को मात देने के लिये आप पार्टी के नेता मंजे हुये नेताओं की चालें चल रहे है। क्योंकि् आप पार्टी मानती है कि जिस अंदाज में दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल को अचानक खालिस्तान समर्थक आरोपों में घेरा जा चुका है। और अब आप पार्टी नपे-तुले ब्यान दे रही है।
एमसीडी की राजनीति के जानकार के डी पांडेय का कहना है कि एमसीडी का चुनाव दिल्ली में दिल्ली सरकार से कम नहीं होता है। इसलिये इस चुनाव प्रचार में सभी दलों के राष्ट्रीय स्तर के नेता अपने -अपने प्रत्याशियोें के चुनाव प्रचार में आते है। अगर इस बार कोई भी पार्टी धार्मिक गुरूओं को प्रचार के लिये उतारती है। कोई नई बात नहीं होगी। 

दिल्ली उच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या बढ़कर हुई 34, चार नए न्यायाधीशों ने ली पद की शपद

एक महिला सहित चार नए न्यायाधीशों ने सोमवार को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीशों के रूप में पद की शपथ ग्रहण की। इन नई नियुक्तियों में अदालत में न्यायाधीशों की संख्या 60 की स्वीकृत शक्ति के मुकाबले 34 हो गर्इ है।

दिल्ली उच्च न्यायालय के मुख्य न्यायाधीश डी एन पटेल ने इन सभी को दिल्ली  न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में पद की शपथ दिलार्इ। इनमें नीना बंसल कृष्णा, दिनेश कुमार शर्मा, अनूप कुमार मेंदीरत्ता और सुधीर कुमार जैन शामिल है।

कानून और न्याय मंत्री किरेन रिजिजू ने कानून सचिव को उनकी पदोन्नति पर ट्वीट कर बधाई दी कहा, “हमारे कानून सचिव अनूप कुमार मेंदीरत्ता को दिल्ली उच्च न्यायालय के न्यायाधीश के रूप में नियुक्त किया गया है। वे उच्च सत्यनिष्ठा और कानून के अच्छे ज्ञान वाले न्यायिक अधिकारी रहे हैं। मैं उनकी बहुमूल्या सेवाओं के लिए उनका धन्यवाद करता हूं। मैं इस नर्इ भूमिका में उनकी सफलता की कामना करता हूं।“

न्यायमूर्ति अनूप कुमार मेंदीरत्ता को भारत के विधि सचिव के रूप में प्रतिनियुक्त किया गया था। साथ ही केंद्रीय कानून सचिव के रूप में केंद्रीय प्रतिनियुक्ति पर तैनात होने से पहले वह उत्तर-पूर्वी दिल्ली जिला न्यायालय के जिला और सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे। इसके अलावा अपनी पहली नियुक्ति में उन्होंने दिल्ली सरकार के साथ प्रमुख सचिव कानून विभाग के रूप में भी कार्य किया हुआ है।

न्यायमूर्ति दिनेश कुमार शर्मा नर्इ दिल्ली जिला न्यायालय के जिला और सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे। शर्मा ने इससे पहले 1 मई 2017 से 6 जनवरी 2020 तक दिल्ली उच्च न्यायालय के रजिस्ट्रार जनरल के रूप में भी काम किया था।

न्यायमूर्ति सुधीर कुमार जैन वर्तमान में राउज एवेन्यू कोर्ट के जिला व सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थे।

न्यायमूर्ति नीना बंसल कृष्णा साकेत (दक्षिण पूर्व) जिला न्यायालय में प्रधान जिला एवं सत्र न्यायाधीश के रूप में कार्यरत थीं। सुप्रीम कोर्ट कॉलेजियम ने हाल ही में 1 फरवरी 2022 को हुई अपनी बैठक में दिल्ली उच्च न्यायालय में छह न्यायिक अधिकारियों को न्यायाधीशों के रूप में पदोन्नत करने के प्रस्ताव को मंजूरी दी थी, केंद्र से बाहर उच्च न्यायालय के रूप में चार न्यायाधीशों के नामों को मंजूरी दी है। 

युद्ध का असर पेट्रोलियम जरूरत पर

रूस और यूक्रेन के बीच अगर युद्ध लंबा चलता है तो भारत पर क्या असर पड़ सकता है। इसको  लेकर भारत के विदेश मामलों के जानकार डॉ अमित रंजन का कहना है कि वैसे तो भारत का रूस और यूक्रेन इन दोनों ही देशोॆं से काफी सामान का आयात-निर्यात होता है किंतु इसमें फार्मास्युटिकल व यूरेनियम यह दो महत्वपूर्ण है। 
लेकिन भारत की असल चिंता तो पेट्रोलियम सप्लाई से जुड़ी हुई है। जिसमें कच्चे तेल का मामला भी जुड़ा हुआ है। डॉ अमित रंजन का कहना है कि प्राकृतिक गैस के अलावा रूस कच्चे तेल का भी बड़ा उत्पादक है। भारत देश के लिये यह मुश्किल की बात है कि वह अपनी पेट्रोलियम जरूरत के लिये  80 प्रतिशत तक आयात करता है। और इसका बड़ा हिस्सा रूस से आता है।
ऐसी स्थिति में भारत पर क्या असर पड़ेगा पेट्रोलियम विभाग से जुड़े एक अधिकारी डॉ हरमीत सिंह ने बताया कि देश-दुनिया में कही भी युद्ध हो तो सारी दुनिया पर असर पड़ता है। क्योंकि मौजूदा समय में यूक्रेन और रूस के बीच जो युद्ध चल रहा है। इसको लेकर ये अनिश्चिता बनी हुई है कि कब तक युद्द चलेंगा और किस हद तक चलेगा। ऐसे हालात पर सरकार पैनी नजर रखे हुये है।
वहीं भारत पेट्रोलियम से जुड़े पूर्व अधिकारी जीत कुमार का कहना है कि जब दोनों देशों के बीच आर-पार की नौबत आ जाएगी तब पेट्रोल-डीजल के साथ घरेलू गैस का संकट गहरा सकता है। ऐसे हालात में इन पदार्थो का महंगा होना कोई मायने नहीं रखता है। मायने रखता है कि आपूर्ति में कोई बाधा न आये। बचाब के तौर पर हमें अभी से डीजल-पेट्रोल की खपत कम से कम करनी चाहिये। ताकि कोई काम बाधित न हो सकें।

भारतीयों को अधिकारियों के साथ सम्पर्क के बिना सीमा चौकियों पर ना जाने की सलाह: यूक्रेन में भारतीय दूतावास

यूक्रेन पर रूसी हमले के बाद से ही यूक्रेन में फंसे भारतीय नागरिकों के लिए भारतीय दूतावास ने कई एडवाइजरी जारी की है। एडवाइजरी में भारतीयों को अधिकारियों के साथ पूर्व समन्वय के बिना सीमा चौकियों पर ना जाने की सलाह दी है।

एडवाइजरी जारी करते हुए कहा गया है कि, जिस प्रकार रूस पूर्व सोवियत गणराज्य पर चौतरफा आक्रमण कर रहा है उससे सभी को खतरा है। इसलिए भारतीय को सलाह दी जाती है कि सीमा पर तैनात भारतीय अधिकारियों से समन्वय के बिना सीमा की तरफ़ न जाए, जहां है वहीं रहें।

भारतीय दूतावास ने शुक्रवार को नर्इ एडवाइजरी जारी करते हुए कहा कि, यूक्रेन के पश्चिमी-दक्षिणी सीमा पर हंगरी और रोमानिया स्थित है। इन सीमाओं पर चेकप्वाइंट्स बनाए गए है जिससे भारतीयों को निकालने की तैयारी की गई है। इन बॉर्डर चेकप्वाइंट्स के नजदीक रहने वाले भारतीय छात्रों को सबसे पहले वापस आने के लिए कोशिश जारी है।

आपको बता दें, यूक्रेन मेडिकल शिक्षा के लिए भारतीय मेडिकल छात्रों का एक आकर्षक प्वाइंट रहा है। परंतु मौजूदा संकट के चलते छात्र भारत लौटने के लिए सरकार से निरंतर गुहार लगा रहे है।

मूसलाधार बारिश से अस्पतालों का बुरा हाल

राजधानी दिल्ली में शुक्रवार की देर रात हुई मूसलाधार बारिश से दिल्ली के कई इलाकों में जल भराव और जाम से लोगों को जूझना पड़ा है। वहीं शनिवार की सुबह तेज सर्द हवाओं के चलने से लोगों को सर्दी का सामना भी करना पड़ा है।

बारिश को लेकर लोगों का कहना है कि दिल्ली में थोड़ी बारिश होने से जगह-जगह जलभराव से लोगों को जूझना पड़ता है। जलभराव को लेकर दिल्ली सरकार के लोकनायक अस्पताल और जीबी पंत अस्पताल के स्वास्थ्य कर्मचारियों ने तहलका संवाददाता को बताया कि लोकनायक और जीबी पंत अस्पताल के बीचों में निर्माण कार्य चल रहा है। जिसके कारण निर्माणधीन बिल्डिंग की धूल और मिट्टी से मरीजों के साथ–साथ डॉक्टरों और पैरामेडिकल स्टाफ को काफी दिक्कत का सामना करना पड़ रहा है।

उन्होंने बताया कि अभी कोरोना के मामले कम हुये है। लेकिन कोरोना अभी गया नहीं है। वहीं दिल्ली में डेंगू का भी कहर लोगों के बीच मुसीबत का सामना करना पड़ रहा है।

अस्पताल के एक सीनियर डॉक्टर ने बताया कि जल भराव के कारण जलजनित बीमारी ही नहीं होती है। बल्कि संक्रमण को भी बढ़ावा देता है। ऐसे में दिल्ली सरकार का दायित्व बनता है कि वो इस मामलें में कोई काम करें अन्यथा जल भराव भी अस्पताल में भर्ती मरीजों के लिये मुसीबत का कारण बन सकती है। क्योंकि जल भराव से जमीन की नमी में ही डेंगू का मच्छर पनपता है।

डॉ ने बताया कि दिल्ली की स्वास्थ्य सेवाओं का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि अस्पताल में जल भराव के कारण ही मरीजों को संक्रमित बीमारी होने का भय सता रहा है। तो अन्य जगहों से क्या उम्मीद की जाये।