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पंजाब में कांग्रेस की टक्कर आप से

पंजाब विधानसभा चुनाव पर सभी की नज़र है। सत्तारूढ़ कांग्रेस ने अपनी सरकार बचाने की कोशिश की है, जबकि आम आदमी पार्टी (आप) ने ज़्यादा-से-ज़्यादा सीटें जीतने की। वहीं अकाली दल ने भी अपनी खोयी प्रतिष्ठा बचाने की कोशिश की है। पहली बार पाँच दल मैदान में हैं, जिनमें भाजपा और अमरिंदर सिंह के अलावा किसानों की पार्टी भी है। चुनाव में मतदान तक क्या-क्या हुआ? मतदान के बाद वहाँ किस तरह की चर्चा हैं? बता रहे हैं विशेष संवाददाता राकेश रॉकी :-

कवि कुमार विश्वास ने जब अपने पुराने साथी अरविन्द केजरीवाल पर ख़ालिस्तान समर्थक होने जैसा आरोप लगाया, तब पंजाब विधानसभा चुनाव में मतदान के चंद ही दिन शेष थे और आम आदमी पार्टी ख़ुद को अगली सरकार के रूप में देखने की कल्पना कर रही थी। लेकिन इसके बाद अचानक उसे रक्षात्मक होना पड़ा। केजरीवाल की तरफ़ से इसका खण्डन आया; लेकिन उनका राजनीतिक नुक़सान हो चुका था। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी भी पंजाब में कमोवेश उसी समय दो चुनाव सभाएँ करने गये और अपने तरीक़े से विपक्ष पर हमला किया। यही दिन थे, जब पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह का एक आक्रामक बयान आया, जिसमें भाजपा की केंद्र सरकार की नीतियों पर सीधा हमला था और पंजाब के लोगों को सन्देश भी। चुनाव के आख़िरी हिस्से में ही एक और बात हुई। डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। मतदान के आख़िरी 10 दिन में हुए इन घटनाक्रमों ने पंजाब के लोगों का मन कितना बदला? यह तो नतीजे ही बताएँगे। लेकिन यह साफ़ है कि पंजाब में मुख्य मुक़ाबला कांग्रेस और आम आदमी पार्टी (आप) में ही रहा है और कांग्रेस हल्की बढ़त लिये दिखती है।

भाजपा ने ख़ुद को इस चुनाव में भविष्य के लिए तैयार करने की कोशिश की है। यदि अकाली दल इस चुनाव में पिछली बार से बेहतर प्रदर्शन करता है और सीटें 25 से पार ले जाता है, तो 117 सीटों वाली विधानसभा मामला फँस सकता है। लेकिन दलित चेहरे के साथ कांग्रेस और ग्रामीण इलाक़ों में थोड़ी मज़बूत दिख रही आम आदमी पार्टी साफ़तौर पर मुख्य मुक़ाबले में हैं। पाँच प्रमुख दलों में से सिर्फ़ कांग्रेस के पास दलित चेहरा है।

देश भर में कांग्रेस के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार चरणजीत सिंह चन्नी अकेले दलित मुख्यमंत्री हैं। क्या इसे एक उपलब्धि के रूप में मानकर दलित एकतरफ़ा कांग्रेस के पाले में गये हैं? ऐसा हुआ है, तो आम आदमी पार्टी ही नहीं, बल्कि अन्य दलों को भी कांग्रेस के मुक़ाबले ख़ुद को खड़ा करके रखने की मेहनत बेकार जा सकती है। लेकिन अगर दलित मतदाता बड़े स्तर पर बँटे होंगे (जिसकी सम्भावना कम है), तो कांग्रेस को आम आदमी पार्टी से टक्कर मिलेगी।

कवि कुमार विश्वास ने दिल्ली के मुख्यमंत्री और आम आदमी पार्टी के संयोजक अरविंद केजरीवाल को लेकर चुनाव प्रचार की ऊँचाई पर जब यह सनसनीख़ेज दावा किया कि केजरीवाल ने एक दिन ख़ालिस्तान के प्रधानमंत्री बनने की बात उनसे कही थी, तो यह तुरन्त बड़ी बहस का मुद्दा बन गया। पंजाब के पिंडों (गाँवों) में भले यह बहुत तेज़ी से नहीं पहुँच पाया; लेकिन शहरों में इसकी जबरदस्त चर्चा हुई। पंजाब में आम आदमी पार्टी को पसन्द करने वालों में काफ़ी संख्या उन लोगों की है, जो थोड़ा गर्म मिजाज़ के माने जाते हैं। यह लोग अकाली दल को मतदाता देते रहे हैं; लेकिन कांग्रेस को कतई पसन्द नहीं करते। कांग्रेस की जगह उनकी पसन्द पिछले चुनाव में केजरीवाल की आम आदमी पार्टी बनी थी। मुख्यत: यह ग्रामीण इलाक़े के लोग हैं, जिनमें किसान भी हैं। हालाँकि जो लोग आम आदमी पार्टी से उसकी दिल्ली सरकार के किये काम के दावों को लेकर जुड़े, वे कवि विश्वास के गम्भीर क़िस्म के दावे से बिदके हैं। ये वोट कांग्रेस को मिल सकते हैं। यदि अकाली दल को भी गये होंगे, तो भी कांग्रेस को लाभ होगा।

 

मतदान के संकेत

वैसे पंजाब में मतदान के बाद हर सियासी दल अपनी-अपनी जीत के दावे कर रहा है। यहाँ तक की भाजपा भी, जिसने आज तक अकाली दल वैसाखी के अलावा कभी ख़ुद अपने बूते चुनाव नहीं लड़ा। किसान आन्दोलन में सबसे ज़्यादा नाराज़गी भाजपा के ही ख़िलाफ़ रही। हालाँकि भाजपा ने एक असफल कोशिश इस चुनाव में हिन्दू ध्रुवीकरण की भी की थी; लेकिन सफल नहीं हुई। आमतौर पर माना जाता है कि ज़्यादा मतदान सत्ता-विरोधी होता है। देश के चुनावी इतिहास में यह कई बार साबित भी हुआ है। इस बार पंजाब में पिछले चुनाव की तुलना में आठ फ़ीसदी कम मतदान हुआ है। इसका पहला संकेत यह हो सकता है कि चार महीने पुरानी चन्नी सरकार के ख़िलाफ़ विरोधी लहर (एंटी इंकम्बेंसी) नहीं बन पायी।

चन्नी से पहले चूँकि अमरिंदर सिंह मुख्यमंत्री थे और उन्होंने मतदान से बहुत पहले अपनी पार्टी बनाकर भाजपा के साथ गठबन्धन का ऐलान भी कर दिया, लोगों के मन में सरकार की विरोधी लहर कैप्टन के साथ ही चली गयी और ज़्यादातर लोगों के मन में चन्नी की सरकार की चार महीने वाली छवि ही रह गयी। ऊपर से चन्नी ने मुख्यमंत्री बनते ही लोगों के लिए राहत वाली घोषणाओं के दरवाज़े खोलकर आम आदमी पार्टी की सम्भावित घोषणाओं का असर कम कर दिया।

याद करें, तो सन् 2017 में 77.40 फ़ीसदी मतदान हुआ था। इस बार आँकड़ा 67 फ़ीसदी के आसपास रह गया। इसे जानकार यह मानते हैं कि सरकार के विरोध वाला मत कम पड़ा। हाँ, कुछ जानकार इसे त्रिशंकु विधानसभा का आसार भी मानते हैं। उनके मुताबिक, इसका कांग्रेस, शिरोमणि अकाली दल और आम आदमी पार्टी ने सन् 2017 में जो सीटें जीती थीं, उन पर उन्हें पाँच फ़ीसदी तक का नुक़सान हो सकता है। नुक़सान का आकलन करें, तो कांग्रेस को शायद कम नुक़सान उठाना पड़े। चुनाव के दौरान हिन्दू मतदाता भ्रमित दिखा। भाजपा उसे अपने साथ जुडऩे का लालच दे रही थी। लेकिन उसके दिमाग़ में यह बात हमेशा रही कि भाजपा सरकार नहीं बना सकती, तो वोट बर्बाद क्यों किया जाए? वैसे हिन्दू वोट भी बँटा होगा, क्योंकि इनमें से कांग्रेस और आम आदमी पार्टी दोनों को मिलेगा। चुनाव के आख़िरी हिस्से में डेरा प्रमुख राम रहीम सिंह को अचानक पैरोल मिल गयी। ज़्यादातर लोगों का मानना था कि चुनावी पैरोल थी और इसका मक़सद डेरा समर्थकों से किसी एक ख़ास राजनीतिक दल के हक़ में वोट डलवाना था। डेरा के ज़्यादातर अनुयायी दलित वर्ग से हैं। यह माना जाता है कि भाजपा ने डेरा प्रमुख के ज़रिये ख़ुद को और अकाली दल को वोट डलवाया। लिहाज़ा कोशिश कांग्रेस को दलित वोट का नुक़सान देने की हो सकती है। समुदाय के कई उप जातियों में बँटे हैं।

कुछ लोग मानते हैं कि डेरा के प्रभाव का असर हुआ और समुदाय के मतदाताओं का किसी हद तक ध्रुवीकरण हुआ। निश्चित ही इसका फ़ायदा भाजपा और शिरोमणि अकाली दल को होगा; लेकिन ज़्यादातर जानकारों का कहना है कि डेरा अनुयायियों का ध्रुवीकरण नहीं हो सका। चरणजीत चन्नी का दलित होना, इसमें एक बड़ा फैक्टर रहा। इस चुनाव में मतदाताओं में सन् 2017 की तुलना में वोट डालने के मामले में कम उत्साह था। आम आदमी पार्टी का बदलाव का नारा कोई ख़ास कारगर नहीं दिखा। यह नारा चल जाता, तो शायद उसका वोट फ़ीसद ज़्यादा रहता। इस चुनाव में भले किसानों का मुद्दा सामने नहीं दिखा; लेकिन ज़मीनी स्तर पर इसका व्यापक असर था। उतना ही, जितना पश्चिम उत्तर प्रदेश में है।

चूँकि इस बार बहुकोणीय मुक़ाबला था, इसलिए इसका नतीजों पर भी असर दिखेगा। ज़्यादा नुक़सान आम आदमी पार्टी को हो सकता है। यह इसलिए, क्योंकि विरोधी लहर से जिस वोट बैंक का कांग्रेस को नुक़सान होना था, वह वोट आम आदमी पार्टी को नहीं मिल पाया। यही वे मतदाता हैं, जो वोट डालने ही नहीं आये। ऐसे में ज़्यादा वोट फ़ीसद विरोध का संकेत देता है, जो इस बार हुआ नहीं।

 

क्या कांग्रेस का दलित कार्ड चलेगा?

कांग्रेस ने बिना नाम लिये चन्नी को देश का इकलौता दलित मुख्यमंत्री बताकर इसका लाभ पंजाब ही नहीं, उत्तर प्रदेश और अन्य चुनावी राज्यों में भी लेने की कोशिश की। आँकड़े देखें, तो राज्य की 117 विधानसभा सीटों में से 34 सीटें आरक्षित हैं।

पंजाब में क़रीब 32 फ़ीसदी दलित मतदाता हैं, और इस वर्ग के लिए अलग-अलग इलाक़ों में 34 सीटें आरक्षित हैं। वैसे तो सभी राजनीतिक दलों ने दलित कार्ड खेलने की कोशिश की; लेकिन कांग्रेस का दावा इसलिए मज़बूत रहा कि उसके पास चरणजीत चन्नी दलित के रूप में दलित मुख्यमंत्री चेहरा है।

पंजाब में सन् 1967 के बाद कोई दलित मुख्यमंत्री नहीं बना था। देखा जाए, तो राज्य में दलित मतदाता 58 से ज़्यादा विधानसभा सीटों पर सीधा प्रभाव डालते हैं। बहुत-से जानकार मानते हैं कि किसानों के अलावा पंजाब में इस बार दलित मतदाताओं का भी निर्णायक रुख़ रहा है। पंजाब में दलितों में सबसे बड़ा वर्ग रविदासिया समाज का है। भगत बिरादरी, वाल्मीकि भाईचारा, मज़हबी सिख भी ख़ासी संख्या में हैं। चन्नी दलितों के रविदासिया समाज से ताल्लुक़ रखते हैं। कांग्रेस ने मुख्यमंत्री चन्नी को फिर से मुख्यमंत्री चेहरा घोषित करके दलित-लाभ लेने की कोशिश की है।

अकाली दल-बसपा गठबन्धन ने दलित समुदाय को लुभाने के लिए उप मुख्यमंत्री का पद देने की घोषणा की थी। इस लिहाज़ से देखें, तो दलित मतदाता का ज़्यादा झुकाव सबसे ज़्यादा कांग्रेस और उसके बाद अकाली दल-बसपा गठबन्धन की तरफ़ रहा है। वैसे यदि पिछले चुनावों पर नज़र दौड़ाएँ, तो दलित मतदाता किसी राजनीतिक दल विशेष के साथ नहीं रहा है। सन् 2002 के चुनाव में कांग्रेस से 14 दलित प्रत्याशी चुने गये थे; जबकि अकाली दल से 12 दलित चुनकर आये थे। अगर सन् 2007 की बात करें, तो इस साल सबसे ज़्यादा दलित विधायक अकाली दल से बने और 17 सीटों पर जीत हासिल की। वहीं तीन दलित सीटों पर भाजपा जीती, तो वहीं सात सीटें कांग्रेस के हाथ आयीं।

यही नहीं, 2012 के चुनाव में भी अकाली दल ने दलितों का दिल जीतते हुए 21 सीटों पर जीत का परचम लहराया। कांग्रेस को 10 सीटों पर ही जीत हासिल हुई। इसके बाद सन् 2017 के चुनाव में कांग्रेस ने दलित मतदाताओं पर अकाली दल की पकड़ को कमज़ोर करते हुए सारे समीकरण बदल दिये और 21 सीटों पर जीत दर्ज की। अकाली दल को महज़ तीन सीटों पर जीत मिली। इस तरह देखा जाए, तो जब जब दलित वोटों का ज़्यादा समर्थन जिस पार्टी को मिला, उसी की सरकार बनी। पिछले दो चुनावों से यह साफ़ ज़ाहिर है कि दलित विधायक जिस पार्टी के ज़्यादा जीते उसी की सरकार बनी, वह भी अच्छे बहुमत से। ऐसे में यदि कांग्रेस एक दलित को मुख्यमंत्री बनाकर दलित वोट की उम्मीद कर रही है, तो इसके ज़मीनी कारण हैं।

 

मैदान में चर्चित चेहरे

पंजाब के विधानसभा चुनाव में इस बार चार ऐसे नेता मैदान में हैं, जो प्रदेश के मुख्यमंत्री रहे हैं। इनमें मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी, पूर्व मुख्यमंत्री कैप्टन अमरिंदर सिंह, पूर्व मुख्यमंत्री प्रकाश सिंह बादल और पूर्व मुख्यमंत्री राजिंदर कौर भट्ठल शामिल हैं। जबकि भट्ठल को छोडक़र बाक़ी सभी और सुखबीर सिंह बादल, भगवंत मान तथा किसान नेता बलबीर सिंह राजेवाल मुख्यमंत्री पद के अन्य उम्मीदवार हैं। वैसे नवजोत सिंह सिद्धू का चुनाव मुक़ाबला भी दिलचस्प है, भले वह फ़िलहाल मुख्यमंत्री पद की दौड़ से बाहर हैं।

देखा जाए, तो यह चुनाव पंजाब के 55 साल के इतिहास में सबसे अलग चुनाव है। सन् 2012 तक पंजाब में कांग्रेस और शिरोमणि अकाली दल (भाजपा के साथ) ही मुख्य मुक़ाबले में होते थे। हालाँकि 2017 में जब आम आदमी पार्टी (आप) ने चुनाव लडऩे का फ़ैसला किया, तो राज्य में मुक़ाबला त्रिकोणीय हो गया। आम आदमी पार्टी ने काफ़ी मज़बूती से चुनाव लड़ा और 20 सीटें जीतकर अकाली दल जैसे स्थापित दल को तीसरे पायदान पर धकेल दिया।

 

अब 2021 में तो सारा परिदृश्य ही बदल गया है। कांग्रेस से बाहर होकर पूर्व मुख्यमंत्री अमरिंदर सिंह ने अपनी पार्टी बना ली और अब वह फिर (भाजपा के सहयोग से) मुख्यमंत्री पद के दावेदार हैं। किसान आन्दोलन से उभरे नेता बलबीर सिंह राजेवाल इस चुनाव में नया चेहरा हैं। संयुक्त समाज मोर्चा गठित करके मैदान में उतरे राजेवाल फ़िलहाल ज़मीनी संगठन के अभाव से जूझ रहे हैं। हालाँकि इससे चुनाव ज़रूर दिलचस्प हो गया है।

अब बात करते हैं, इस चुनाव के चर्चित हलक़ों (क्षेत्रों) की। चमकौर साहिब से मुख्यमंत्री चरणजीत सिंह चन्नी मैदान में हैं। कांग्रेस ने उन्हें मुख्यमंत्री पद का उम्मीदवार घोषित किया है। देश के अकेले दलित मुख्यमंत्री होने के कारण देश भर में उनके हलक़े की चर्चा है। उनका मुक़ाबला अकाली दल-बसपा गठबन्धन के हरमोहन सिंह से है। चन्नी को कांग्रेस ने चन्नी भदौड़ से भी चुनाव में उतारा है। पटियाला शहर दूसरी ऐसी सीट है, जहाँ पूर्व मुख्यमंत्री और कांग्रेस से अलग होकर और पंजाब लोक कांग्रेस पार्टी के नाम से पार्टी बनाने वाले कैप्टन अमरिंदर सिंह भाजपा के सहयोग से फिर मैदान में हैं। यह चुनाव उनके लिए इज़्ज़त का चुनाव बन गया है। क़रीब 80 साल के इस नेता का राजनीतिक भविष्य इस चुनाव पर निर्भर है। उनकी सांसद पत्नी अभी भी कांग्रेस में हैं। आम आदमी पार्टी ने यहाँ अजीतपाल कोहली और कांग्रेस ने पूर्व मेयर विष्णु शर्मा को मैदान में उतारा है।

जलालाबाद सीट पर शिरोमणि अकाली दल के अध्यक्ष सुखबीर सिंह बादल मैदान में हैं। चुनाव के सबसे अमीर प्रत्याशी बादल बसपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ रहे हैं। उनका गठबन्धन जीता, तो सुखबीर मुख्यमंत्री बन सकते हैं। कांग्रेस ने मोहन सिंह फलियांवाल और आम आदमी पार्टी ने जगदीप कंबोज को उनके ख़िलाफ़ मैदान में उतारा है। भाजपा के पूरन चंद भी मैदान में हैं। इस धूरी की सीट भी काफ़ी चर्चा में है, जहाँ आम आदमी पार्टी के मुख्यमंत्री पद के उम्मीदवार भगवंत मान मैदान में हैं। मान को टक्कर देने के लिए कांग्रेस ने दलवीर सिंह गोल्डी को, जबकि अकाली दल ने प्रकाश चंद गर्ग और भाजपा ने रनदीप सिंह देओल को मुक़ाबले में उतारा है।

लम्बे समय से पंजाब के गढ़, जहाँ से शिरोमणि अकाली दल के प्रकाश सिंह बादल कई बार से चुनाव लड़ते रहे हैं और मुख्यमंत्री भी रहे हैं; उनके ख़िलाफ़ इस बार कांग्रेस ने जगपाल सिंह अबुलखुराना और आम आदमी पार्टी ने गुरमीत खुड्डियाँ को, जबकि भाजपा से राकेश ढींगरा को उतारा है। यहाँ मुक़ाबला काफ़ी कड़ा है। अमृतसर (पूर्व) से कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे पंजाब कांग्रेस के अध्यक्ष नवजोत सिंह सिद्धू भले ही मुख्यमंत्री पद की दौड़ में नहीं हैं; लेकिन वह कड़े मुक़ाबले में फँसे हैं। दिलचस्प यह है कि उनके ख़िलाफ़ एक नहीं कई ताक़तें हैं। शिरोमणि अकाली दल नेता बिक्रम मजीठिया से मुख्य मुक़ाबला है, जिन्हें अमरिंदर सिंह का भी समर्थन है। अमृतसर (पूर्व) सिद्धू की परम्परागत सीट है; लेकिन मजीठिया से उनकी जंग के कारण मुक़ाबला दिलचस्प हो गया है। आम आदमी पार्टी ने वहाँ जीवनजोत कौर को उतारा है।

इनके अलावा मोगा सीट भी बड़ी चर्चा में है, जहाँ बॉलीवुड अभिनेता सोनू सूद की बहन मालविका सूद कांग्रेस टिकट पर मैदान में उतरी हैं। यह उनका पहला चुनाव है; लेकिन पार्टी ने पूरी ताक़त से उनका चुनाव प्रबन्धन सँभाला है। लुधियाना के समराला की सीट पर किसान आन्दोलन का बड़ा चेहरा बलबीर सिंह राजेवाल मैदान में हैं। राजेवाल का यह पहला चुनाव है। उन्हें चुनाव प्रबन्धन का अनुभव नहीं; लेकिन किसानों के समर्थन की उम्मीद कर रहे हैं।

 

दलित फैक्टर

पंजाब में पठानकोट की भोआ, गुरदासपुर की दीनानगर और हरगोबिंदपुर, अमृतसर की जंडियाला गुरु, अमृतसर वेस्ट, अटारी, बाबा बकाला, कपूरथला की फगवाड़ा, जालंधर की फिल्लौर, करतारपुर, जालंधर वेस्ट, आदमपुर, होशियारपुर की शाम चौरासी और छब्बेवाल, शहीद भगत सिंह नगर की बंगा, फतेहगढ़ साहिब की बस्सी पठान, रूप नगर की चमकौर साहिब, मोगा की निहाल सिंह वाला, लुधियाना की गिल, पायल, जगरांव और रायकोट, फजिल्का की बल्लुआना, श्री मुख़्तसर साहिब की मलौत, भठिंडा की भुचो मंडी और भठिंडा ग्रामीण, मानसा की बुढलाडा, संगरूर की दिरबा, बरनाला की भादौर और मेहल कलान, पटियाला की नाभा और सुतराना तथा फ़िरोज़पुर सीटें दलित सीटों में शामिल हैं। इस तरह पंजाब की कुल 117 विधानसभा सीटों में से 34 दलित प्रत्याशियों के लिए आरक्षित हैं। प्रदेश में सबसे ज़्यादा सिख मतदाता हैं, जबकि संख्या के लिहाज़ से दूसरे स्थान पर दलित हैं। सिख मतदाता 38.49 फ़ीसदी, दलित मतदाता 31.49 फ़ीसदी, जट्ट सिख 19 फ़ीसदी और हिन्दू मतदाता 10.57 फ़ीसदी हैं।

केंद्र सरकार पर बरसे मनमोहन सिंह

देश में चुनाव का मौसम था। लेकिन जनता के मुद्दे ग़ायब रहे। पर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने अचानक ख़ामोशी तोड़ते हुए फरवरी के दूसरे पखवाड़े में केंद्र सरकार को जनता के मुद्दे याद दिला दिये। बुरे हाल में जा चुकी अर्थ-व्यवस्था से लेकर बेरोज़गारी, महँगाई, चीन, विदेश नीति आदि सबकी एक-एक कर गिनती की। यह भी याद दिलाया कि जवाहरलाल नेहरू का मज़ाक़ उड़ाने से या उन्हें कोसने से वर्तमान मसले हल नहीं होंगे। लेकिन सरकार और सत्तारूढ़ दल के प्रवक्ताओं ने मनमोहन सिंह को ख़ूब खरी-खोटी सुना दी और चुनाव प्रचार में भाजपा के तमाम स्टार प्रचारक, जिनमें प्रधानमंत्री मोदी शामिल हैं; साइकिल, बम्ब, लाल टोपी वाले, जिन्ना, गर्मी निकालने, चर्बी उतारने तक सिमटे रहे। अब यह तो चुनाव नतीजे ही बताएँगे कि जनता ने असली मुद्दे किन्हें माना?

मनमोहन सिंह ने मोदी सरकार की आर्थिक नीति पर जमकर प्रहार किया। उन्होंने कहा कि आर्थिक मोर्चे पर मोदी सरकार नाकाम है और उसकी नीति फेल है। मनमोहन सिंह, जिन्हें अमेरिका के पूर्व राष्ट्रपति बराक ओबामा तक ने ‘दुनिया का आर्थिक गुरु’ कहा था; ने यहाँ तक कहा कि भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र की एनडीए सरकार को आर्थिक नीतियों की समझ ही नहीं है। हाल में केंद्रीय बजट, आर्थिक सर्वेक्षण, आरबीआई की बैठक और एजेंसियों के आँकड़े जिस तरह से जीडीपी को लेकर अलग-अलग थे, उससे ज़ाहिर होता है कि मनमोहन सिंह की चोट सही जगह थी।

हालाँकि मनमोहन सिंह के हमले से परेशान मोदी सरकार की तरफ़ से सफ़ार्इ भी आयी, जब वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने कहा कि उन्हें (मनमोहन सिंह को) भारत को सबसे कमज़ोर बनाने और देश में भीषण महँगाई के लिए याद किया जाता है। सीतारमण ने कहा कि सत्ता में रहते हुए सिंह को लम्बे समय तक पता भी नहीं था कि चीज़ें कैसे चल रही हैं। ख़ुद को सही साबित करने के लिए सीतारमण ने मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आँकड़ों की तुलना की।

कई आर्थिक जानकार कह रहे हैं कि सरकार के अर्थ-व्यवस्था को लेकर आँकड़े भ्रमित करने वाले हैं। पूर्व प्रधानमंत्री ने भी इसी तरह की बातें कही हैं। मनमोहन सिंह ने केंद्र सरकार की इस बात के लिए भी खिंचाई की कि महँगाई, बेरोज़गारी से लेकर आर्थिक और विदेश नीति तक केंद्र सरकार नाकाम रही है, पर इन तमाम समस्‍याओं को सुलझाने की जगह मोदी सरकार पूर्व प्रधानमंत्री नेहरू को क़ुसूरवार ठहराने में ज़्यादा दिलचस्‍पी ले रही है।

सिंह ने मोदी सरकार पर हमले में कहा कि बढ़ती महँगाई, बेरोज़गारी, विदेश नीति और आर्थिक नीति पर सरकार फेल है। पूर्व प्रधानमंत्री ने कहा कि चीन हमारी सरहदों पर बैठा है। सरकार तथ्‍य दबाने में जुटी है। भाजपा नेतृत्व वाली सरकार को आर्थिक नीतियों की समझ नहीं है। यह मसला सिर्फ़ देश तक सीमित नहीं है। यह सरकार विदेश नीति में भी फेल साबित हुई है। किसान आन्दोलन का मुद्दा भी मनमोहन सिंह ने उठाया और देश में धर्म के आधार पर बँटवारे को लेकर भी सरकार को घेरा। सिंह ने कहा कि किसान आन्दोलन पर सरकार की प्रतिक्रिया ख़राब रही। कांग्रेस ने राजनीतिक लाभ के लिए कभी देश को नहीं बाँटा। न ही सच छिपाने का काम किया। एक तरफ़ लोग बढ़ती महँगाई और बेरोज़गारी का सामना कर रहे हैं, दूसरी तरफ़ सरकार अब भी तमाम समस्याओं के लिए पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू को दोषी ठहरा रही है। मोदी सरकार पिछले साढ़े सात साल से सत्ता में है। वह ग़लतियों को मानने और उन्हें दुरुस्त करने के बजाय पुरानी बातों का राग अलाप रही है।

ज़मीनी हक़ीक़त

हाल में आयी ऑक्सफोर्ड कमेटी फॉर फेमिन रिलीफ (ऑक्सफैम) की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि साल 2021 में देश के 84 फ़ीसदी परिवारों की आय में गिरावट आयी है। लेकिन भारत में अरबपतियों की संख्या 102 से बढक़र 142 हो गयी। रिपोर्ट के मुताबिक, कोविड-19 महामारी के दौरान भारतीय अरबपतियों की सम्पत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढक़र 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गयी। वैसे देखा जाए, तो वैश्विक स्तर पर चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका के ठीक बाद भारत अरबपतियों की संख्या के मामले में तीसरे नंबर पर है।

इस रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि साल 2021 में भारत में अरबपतियों की संख्या में 39 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है। साल 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीयों के अत्यधिक ग़रीब होने का अनुमान है, जो संयुक्त राष्ट्र के आँकड़ों के अनुसार नये वैश्विक ग़रीबों का लगभग आधा हिस्सा है। इसके अलावा 2020 में राष्ट्रीय सम्पत्ति में नीचे की 50 फ़ीसदी आबादी का हिस्सा मात्र छ: फ़ीसदी था। भारत में बेरोज़गारी बेतहाशा बढ़ रही है। देखा जाए तो नोटबंदी के बाद से देश में अर्थ-व्यवस्था का हाल ख़राब ही चल रहा है। नोटबंदी को लेकर मोदी सरकार के शुरुआती दावों के विपरीत अनौपचारिक क्षेत्र को इसने अस्त-व्यस्त करके अर्थ-व्यवस्था का भट्ठा बैठा दिया। इसके बाद 2020 में कोरोना महामारी ने अर्थ-व्यवस्था का सत्यानाश कर दिया। हालाँकि उससे पहले ही 31 मार्च, 2020 तक देश की जीडीपी दर में दो फ़ीसदी की गिरावट आ चुकी थी। सरकार आज की तारीख़ में नोटबंदी का नाम लेने से भी कतराती है।

अनौपचारिक क्षेत्र अर्थ-व्यवस्था का क़रीब 90 फ़ीसदी रोज़गार देता है। अब यह क्षेत्र सिकुड़ रहा है। औपचारिक क्षेत्र अनौपचारिक क्षेत्र के कमज़ोर होने के कारण पैदा हुई बेरोज़गारी को खपा नहीं पा रहा। यही कारण है कि अमीर और ग़रीब की खाई बढ़ गयी है। सीएमआईई के आँकड़े बताते हैं कि दिसंबर, 2021 तक बेरोज़गारी आठ फ़ीसदी थी।

महामारी ने आर्थिक स्थिति पर व्यापक असर डाला है। उत्पादन प्रक्रिया में गिरावट से रोज़गार में कमी आयी है और लोगों की आमदनी घटी है। बेशक धीरे-धीरे उद्योगों और कारोबारों में सुधार हो रहा है और रोज़गार की स्थिति पहले से बेहतर होती दिख रही है; लेकिन करोड़ों लोग जो महामारी के पहले चरण में गाँव लौट गये थे, उनमें से बहुत अभी भी रोज़गार हासिल नहीं कर पाये हैं। आमदनी भी कोरोना से पहले के स्तर तक नहीं पहुँच सकी है।

सरकारी आँकड़ों की ही मानें, तो महामारी से पहले देश की औसत प्रति व्यक्ति आय क़रीब 94.6 हज़ार रुपये थी, जो चालू माली साल में घटकर 93.9 हज़ार रुपये हो चुकी है। दिसंबर, 2021 में बेरोज़गारी दर 7.9 फ़ीसदी आँकी गयी थी और क़रीब 3.5 करोड़ लोग बेरोज़गारी की कतार में खड़े थे। ज़रूरी चीज़ें की क़ीमतों में बढ़ोतरी आज भी जनता की सबसे बड़ी समस्या बनी हुई है। ज़रूरी उपभोक्ता वस्तुओं की क़ीमतों में 20 से 40 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है, जो काफ़ी ज़्यादा है। पेट्रोल और डीजल ही 100 रुपये प्रति लीटर के आसपास हैं।

औसत ख़ुदरा मूल्यों में क़रीब 10 फ़ीसदी की बढ़ोतरी हुई है। महामारी से पहले के साढ़े पाँच साल में यह आठ फ़ीसदी रही थी। उस समय आमदनी और रोज़गार में भी कमी का ऐसा संकट नहीं था। अच्छी संख्या में रोज़गार के अवसर सृजित नहीं हो रहे। आर्थिक जानकारों का मानना है कि अर्थ-व्यवस्था का बैंड बजने और अधिक कर, बढ़ता वित्तीय घाटा, रिजर्व बैंक की आसान मौद्रिक नीति और आपूर्ति शृंखला की समस्या मुद्रास्फीति का सबसे कारण है।

 

“आज भी लोगों को हमारी सरकार के अच्‍छे काम याद हैं। आज देश की हालत ऐसी है कि अमीर लोग और अमीर होते जा रहे हैं, जबकि ग़रीब लोग और $गरीबी में जा रहे हैं। प्रधानमंत्री के पद की गरिमा होती है। मैं भी 10 साल प्रधानमंत्री रहा हूँ। लेकिन कभी मैंने इस पद की मर्यादा कम नहीं होने दी। बतौर प्रधानमंत्री मैंने ज़्यादा बोलने की जगह काम को तरजीह दी। हमने सियासी लाभ के लिए देश को नहीं बाँटा। कभी सच पर पर्दा डालने की कोशिश नहीं की। एक साल से चीन की फ़ौज भारत की ज़मीन पर बैठी है। यह सरकार संवैधानिक संस्थाओं को लगातार कमज़ोर कर रही है। विदेश नीति के मोर्चे पर भी वह फेल हुई है। आज देश की स्थिति चिन्ताजनक है। $गलत नीतियों से अर्थ-व्यवस्था गिरी है और महँगाई तथा बेरोज़गारी से जनता परेशान है। ग़लत नीतियों से देश आर्थिक मंदी की जकड़ में है। किसान, व्यापारी, विद्यार्थी और महिलाएँ परेशान हैं। अन्नदाता दाने-दाने का मोहताज हैं। सामाजिक असमानता बढ़ गयी है।’’

मनमोहन सिंह

पूर्व प्रधानमंत्री

 

“मनमोहन सिंह को भारत को सबसे कमज़ोर बनाने और देश में भीषण महँगाई के लिए याद किया जाता है। वह राजनीतिक कारणों से भारत को पीछे खींचने का प्रयास कर रहे हैं, जबकि कोरोना महामारी के बावजूद भारत सबसे तेज़ी से विकास कर रही बड़ी अर्थ-व्यवस्था है और अगले साल भी ऐसा ही रहने की सम्भावना है। मैं आपका (मनमोहन का) बहुत सम्मान करती हूँ। मुझे आपसे यह आशा नहीं थी। मनमोहन सिंह और नरेंद्र मोदी के कार्यकाल में निर्यात और प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के आँकड़ों की भी तुलना करें, तो मनमोहन सिंह को ऐसे प्रधानमंत्री के रूप में याद किया जाता है, जिनके कार्यकाल में लगातार 22 महीनों तक मुद्रा स्फीति (महँगाई) दहाई में थी और पूँजी देश से बाहर जा रही थी। महँगाई को लेकर मोदी सरकार पर निशाना साधने वाले भ्रम पैदा कर रहे हैं। सत्ता में रहते हुए सिंह को लम्बे समय तक पता भी नहीं था कि चीज़ें कैसे चल रही हैं?’’

निर्मला सीतारमण

केंद्रीय वित्त मंत्री

आशीष मिश्रा की ज़मानत से बिगड़ सकता है भाजपा का खेल?

उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनाव का महासमर चल रहा है। चुनाव में इस बार भी पिछली बार की तरह तमाम लुभावने वादे राजनीतिक दलों द्वारा जनता से किये जा रहे हैं। वहीं केंद्र की और प्रदेश की भाजपा सरकार पर सपा, कांग्रेस और बसपा सहित अन्य राजनीतिक विरोधी दल प्रदेश की राजनीति में केंद्र सरकार और राज्य सरकार पर जमकर हमला बोल रहे हैं और भाजपा को घेरने में लगे हैं। आरोप-प्रत्यारोप की राजनीति गर्म है। सियासी शब्दों के तीरों से हमले किये जा रहे हैं।

इस बार के चुनाव में मतदाता ख़ामोश होकर अपने नेता को चुनने पर ज़्यादा ध्यान दे रहा है। वैसे तो प्रदेश में तमाम मुद्दे हैं; लेकिन जातीय और धार्मिक मुद्दों का उत्तर प्रदेश की राजनीति से गहरा नाता रहा है। वहीं प्रदेश के चुनाव में बीचों-बीच में सबसे गर्म मुद्दा अगर कोई है, तो वह है केंद्रीय गृह राज्यमंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ का, जो इन दिनों इलाहाबाद उच्च न्यायालय से ज़मानत मिलने के बाद सुर्ख़ियों में है। बताते चलें कि लखीमपुर खीरी में 3 अक्टूबर, 2021 को किसान आन्दोलन कर रहे किसानों पर आशीष मिश्रा ‘मोनू’ ने कार चढ़ा दी थी, जिसमें चार किसानों सहित आठ लोगों की मौत हो गयी थी। तबसे लेकर अब तक सभी सियासी दलों ने आशीष मिश्रा के साथ भाजपा पर भी तानाशाही और सत्ता के नशे में चूर होने का आरोप लगाया है। इस घटना के चलते किसानों और दूसरे लोगों में भी भाजपा के ख़िलाफ़ नाराज़गी बढ़ी है।

किसान नेता चौधरी बीरेन्द्र सिंह ने ‘तहलका’ संवाददाता से कहा कि प्रदेश के किसान सरकारी नीतियों के चलते तो परेशान हैं ही, केंद्र सरकार में मंत्री अजय मिश्रा ‘टेनी’ के बेटे आशीष मिश्रा ‘मोनू’ ने अपनी बड़ी कार से जो किसानों को रौंदा है, उससे राजनीति तो क्या, मानवीय संवेदनाएँ भी शर्मसार हो गयी हैं। प्रदेश में किसानों का ग़ुस्सा तो चुनाव परिणाम में देखने को मिलेगा। चौधरी बीरेन्द्र सिंह का कहना है कि प्रदेश सरकार पर ब्राह्मण विरोधी होने का आरोप लगता रहा है। क्योंकि कानपुर वाले विकास दुबे की कार पटलने से जो नाटकीय अंदाज़ में मौत हुई थी और प्रदेश में कई ब्राह्मणों की जो हत्या हुई है, उससे प्रदेश के ब्राह्मणों में सरकार के प्रति काफ़ी नाराज़गी, आपत्ति और रोष भी है। ऐसे में ब्राह्मणों को और नाराज़ न करने के लिए केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा का इस्तीफ़ा तक सरकार ने नहीं माँगा और न ही अजय मिश्रा ने इस्तीफ़ा दिया है। जबकि प्रदेश में किसानों और विपक्षी नेताओं ने राज्य से लेकर संसद तक में अजय मिश्रा की इस्तीफ़े की माँग उठायी है। बताते चलें कि उत्तर प्रदेश की राजनीति में मौज़ूदा समय में सपा और भाजपा के बीच चुनावी टक्कर है। हर बार की तरह इस बार चुनावी समीकरण साधने के लिए राजनीतिक दलों ने दो प्रयोग हठ के किये हैं। इनमें ब्राह्मण और किसानों को साधा गया है, जो कि अभी तक प्रदेश की राजनीति में मुस्लिम-यादव (एम-बाई) फैक्टर को साधने के प्रयास किये जाते रहे हैं।

चुनावी माहौल में भाजपा नेताओं ने नाम न छापने पर बताया कि सरकार से कुछ ग़लतियाँ हुई हैं। उसको पाटने का पूरा प्रयास किया जा रहा है। और इस बात पर भी अब ज़्यादा ग़ौर किया जा रहा कि अभी जनता को किसी तरह अपने प्रभाव में लिया जाए। लेकिन सोशल मीडिया के युग में कोई भी ग़लतियाँ या अपराध छिपाये नहीं छिपते हैं। आशीष मिश्रा ने जो अपराध किया है। वह सारा-का-सारा मामला सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म पर है और न्यायालय में विचाराधीन है। रहा सवाल केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा के इस्तीफ़े का, तो वह क्यों इस्तीफ़ा दें? अगर बेटे ने अपराध किया है, तो उसे न्यायालय सज़ा देगा। पिता को क्यों सज़ा मिले?

कांग्रेस, सपा और बसपा सहित अन्य राजनीति दलों ने भी सियासी समीकरण साधते हुए ज़्यादा मुखर हुए बिना आशीष मिश्रा को लेकर केंद्रीय मंत्री अजय मिश्रा से इस्तीफ़ा इसलिए नहीं माँगा है। क्योंकि प्रदेश की ब्राह्मण वर्ग मिश्रा परिवार के पक्ष में खड़ा दिख रहा था। इसलिए लखीमपुर खीरी कांड की राजनीतिक निंदा उसी समय तक ही चली है। क्योंकि विरोधी दल के नेता जान चुके हैं कि एक सीमा तक ब्राह्मणों पर राजनीति ठीक है। ज़्यादा करने से नुक़सान भी हो सकता है। इसलिए विरोधी दल के नेताओं ने ब्राह्मणों का साधने का प्रयास किया है। उत्तर प्रदेश के ब्राह्मणों का कहना है कि देश की राजनीति का यह दुर्भाग्य है कि चुनावी वादों तक ही विकास और रोज़गार की राजनीति होती है। असल में वोट तो जाति और धर्म के नाम पर ही वोट पड़ते हैं। इसलिए सत्ता के विरोध में ब्राह्मणों को साधने के लिए सभी राजनीति दलों ने बड़े ही कुशल प्रयोग किये हैं। राजनीति के जानकार आमोद पाण्डेय का कहना है कि 2007 में जब दलित और ब्राह्मण को एक साथ लाकर बसपा ने प्रदेश में सरकार बनायी थी और प्रदेश की मुख्यमंत्री मायावती बनी थीं। तब ही देश की और प्रदेशों की सियासत में यह सन्देश गया था कि अगर ब्राह्मण वोट को साधा जाए, तो सफल राजनीति की जा सकती है। आमोद पाण्डेय का कहना है कि एक समय था, जब कांग्रेस ने दलित, मुस्लिम और ब्राह्मणों के नाम पर राजनीति की है और शासन किया। जैसे-जैसे भाजपा का विस्तार होता गया, वैसे-वैसे ब्राह्मण मतदाता कांग्रेस के पाले से खिसककर भाजपा के पाले में आ गया। जो अब लगभग भाजपा का परम्परागत वोट हो गया है। हालाँकि बहुत बड़ी संख्या में ब्राह्मणों का भाजपा से मोहभंग हो चुका है। बसपा और सपा भी इसी जुगत में हैं कि अगर राजनीति की स्थायी और लम्बी पारी खेलनी है, तो किसी भी तरह ब्राह्मण वोट को साधा जाए।

इस बारे में बसपा के वरिष्ठ नेता सिराजुद्दीन ने बताया कि बसपा, सपा और कांग्रेस ने यह असल में जान लिया था कि भाजपा के विरोध में राजनीति की जाए और वोट माँगे जाएँ, तो ठीक होगा। क्योंकि अगर आशीष मिश्रा के विरोध में वोट और राजनीति की जाएगी, तो निश्चित तौर पर ब्राह्मणों का एक बड़ा तबक़ा खिसक सकता है। उनका कहना है कि आशीष मिश्रा का मामला न्यायालय में इसी को आधार मानकर किसी भी राजनीतिक दल ने कोई ख़ास विरोध चुनावी सभाओं में नहीं किया है।

लखीमपुर खीरी को लेकर किसान किशनपाल ने बताया कि मृतक किसानों के परिवार वालों के तीन सदस्यों इलाहाबाद उच्च न्यायालय द्वारा ज़मानत दिये जाने को चुनौती देते हुए सर्वोच्च न्यायालय में याचिका दायर की है। मृतक के परिवार वालों का कहना है कि दलीलों के अभाव में आशीष मिश्रा एक केंद्रीय गृह राज्यमंत्री का बेटा होने के नाते उसका प्रभाव रहा है, इसलिए उसे इलाहाबाद उच्च न्यायालय से ज़मानत मिल गयी है। लेकिन किसान और मृतकों के परिजन आशीष के ख़िलाफ़ क़ानूनी लड़ाई लड़ेंगे। किशन पाल का कहना है कि सियासतदान तो अपने नफ़ा-नुक़सान को लेकर किसानों के साथ खड़े तब तक दिखे, जब तक चुनाव में उनका वोट बैंक का लाभ लेना था। उन्होंने बताया कि चुनाव के पहले सभी राजनीतिक दलों ने क्या-क्या वादे किसानों से किये थे। साथ ही आशीष मिश्रा के ख़िलाफ़ लडऩे का वादा किया था। चुनाव के सिमटने के साथ ही अब किसानों की माँगों को और समस्या को नज़रअंदाज़ किया जा रहा है।

इलाहाबाद विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर पंकज कुमार कहते हैं कि जब देश में किसानों का आन्दोलन चल रहा था, तभी यह अनुमान लगने लगा था कि कोई भी राजनीतिक दल किसानों के साथ नहीं है। राजनीतिक दल तो अपनी राजनीति के लिए उनके साथ हैं। किसानों को लेकर अगर किसी भी दल ने गम्भीरता दिखायी होती, तो न तो 700 से अधिक किसान आन्दोलन के दौरान मरते और न ही लखीमपुर खीरी जैसी अमानवीय घटना होती। रहा सवाल चुनाव का, तो चुनाव में हाल पहले जैसा ही है। आख़िर किसान भी तो किसी-न-किसी जातीय समीकरण में बँधे हैं। सो उन्होंने भी जातीय समीकरण को साधते हुए वोट किया है। इसलिए उत्तर प्रदेश के चुनाव परिणाम चौंकाने वाले सावित होंगे। उनका कहना है कि सपा को किसानों की पार्टी भी कहा जाता है। इसलिए सियासी गुणा-भाग करके ही सपा भी किसानों के पक्ष में बोली है। कांग्रेस और बसपा तो काम-चलाऊ बयानबाज़ी करके सियासत करती रही हैं। पंकज कुमार का कहना है कि सत्तादल ने बड़ी ही जुगत से सियासी समीकरण बनाकर लखीमपुर खीरी की घटना को बड़ा चुनावी मुद्दा नहीं बनने दिया है।

देश में फ़र्ज़ीवाड़े पर नकेल कसे सरकार

इन दिनों एक ऐसे बाबा का ज़िक्र पूरे देश में हो रहा है, जिसके इशारों पर देश का सबसे बड़ा स्टॉक मार्केट नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) चल रहा था। यह बाबा कौन है? कहाँ रहता है? इस बात का किसी को कुछ पता नहीं है। यह बाबा वेदों के नाम से बनी ईमेल्स के ज़रिये एनएसई चलाता था और उसके आदेशों के आधार पर ही वहाँ सब कुछ होता था। लम्बे समय तक नेशनल स्टॉक एक्सचेंज पर क़ब्ज़ा करके रखने वाला यह बाबा जो-जो हुक्म ईमेल के ज़रिये उस समय की एनएसई की सीईओ चित्रा रामकृष्ण को देता था, मैडम उस हुक्म का तत्काल पालन करती थीं। यह बाबा नेशनल स्टॉक एक्सचेंज के सीईओ और अन्य बड़े पदों पर नियुक्तियाँ भी एक ईमेल के ज़रिये करता था। ग़ज़ब बात यह है कि इन बड़े पदों पर नौकरी करने वालों की तनख़्वाह भी करोड़ों में रही।

नेशनल स्टॉक एक्सचेंज की पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण की पदोन्नति किस बाबा के इशारे पर हो जाती है? वो कैसे एक अदृश्य बाबा के सम्पर्क में आ जाती हैं? और इसी अज्ञात बाबा के इशारे पर काम क्यों करती हैं? यह सवाल सेबी भी नहीं खोज सका है। इससे भी बड़ी बात यह है कि सरकार इस पर ख़ामोशी साधे हुए है। सात साल में अब जब सेबी की जाँच पूरी हुई, तो भी वह यह बताने में नाकाम है कि चित्रा रामकृष्ण को कौन-सा बाबा अपने इशारे पर चला रहा था? 70 फ़ीसदी का लाभ कमाकर देने वाले नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में इतनी बड़ी साज़िश चल रही थी, इसकी ख़बर सरकार को न होना हैरान कर देने वाली बात है। सन् 1963 में जन्मीं चित्रा रामकृष्ण सन् 1992 में बने नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की स्थापना करने वाली टीम में शामिल थीं। बाद में वह एनएसई के उच्च पद सीईओ तक पहुँचीं। यह पद और प्रबन्ध निदेशक का पद उन्होंने अप्रैल, 2013 में सँभाला था। उनका कार्यकाल मार्च, 2018 को समाप्त होना था; लेकिन ग़लत गतिविधियों के कारण उन्हें 2016 में इस्तीफ़ा देना पड़ा। अब जाकर उनके मामले में सेबी की जाँच सामने आयी है, जिसमें बाबा की कहानी किसी को हज़म नहीं हो रही। पूरी दुनिया में इतने बड़े स्टॉक एक्सचेंज को बाबा द्वारा चलाने वाली बात का मज़ाक़ बन रहा है। सेबी ने चित्रा रामकृष्ण पर महज़ तीन करोड़ रुपये, रवि नारायण तथा आनंद सुब्रमण्यम पर दो-दो करोड़ रुपये और वी.आर. नरसिम्हन पर छ: लाख रुपये का ज़ुर्माना लगाया है। इसके अलावा सेबी ने एनएसई को चित्रा के अलावा अवकाश के बदले भुगतान किये गये 1.54 करोड़ रुपये और 2.83 करोड़ रुपये के बोनस (डेफर्ड बोनस) को ज़ब्त करने का भी निर्देश दिया है। अब एनएसई की पूर्व प्रबन्ध निदेशक चित्रा रामकृष्ण के घर आयकर विभाग ने भी छापा मारा है और बाक़ी आरोपियों से भी पूछताछ की है। हालाँकि सुब्रमण्यम की गिरफ़्तारी हो चुकी है और बाक़ी पर कार्रवाई का इंतज़ार है।

बाबा के इशारे पर नियुक्तियों और पदोन्नति का होता था खेल

हैरानी की बात यह है कि चित्रा बाबा के एक ईमेल के इशारे पर ही नयी नियुक्तियाँ कर देती थीं, लोगों को पद्दोन्नति देती थीं, उनकी तनख़्वाह बढ़ा देती थीं। आनंद सुब्रमण्यम को चित्रा रामकृष्ण बाबा के कहने पर नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में एक बड़ा पद देती हैं। वह भी नया पद बनाकर एक 15 लाख की तनख़्वाह सालाना पाने वाले को पाँच करोड़ रुपये की तनख़्वाह देती हैं और प्रथम श्रेणी की हवाई यात्रा के साथ-साथ उन्हें मनमर्ज़ी के ख़र्चे करने की छूट भी मिलती है। यहाँ तक बाबा ईमेल से कहता है कि आनंद को हफ़्ते में पाँच दिन नहीं, बल्कि तीन दिन ही काम करना चाहिए। इस प्रकार आनंद सुब्रमण्यम हफ़्ते में केवल तीन दिन काम करने की छूट भी मिल जाती है। सवाल यह है कि सरकार एक तरफ़ देश भर में काम करने वालों के काम के घंटे बढ़ाती है, तो वहीं दूसरी ओर एक बाबा जो कि आज भी अज्ञात है, एक ज़िम्मेदार पद पर बैठे व्यक्ति को महज़ तीन दिन अपनी मर्ज़ी से काम करने की छूट दिलवा देता है। इसी तरह अन्य कई नियुक्तियाँ बाबा के ईमेल के इशारे पर होती हैं और कोई आवाज़ तक नहीं उठती है।

कौन है अज्ञात बाबा?

कहा जा रहा है कि बाबा हिमालय में रहता है, और ईमेल उस जगह से चलाता है, जहाँ नेटवर्क ही नहीं है। कुछ लोग कह रहे हैं कि यही बाबा सरकार भी चला रहा है। हालाँकि मैं इस बात से इत्तेफ़ाक़ नहीं रखता; लेकिन लोगों के सवालों का जवाब भी मेरे पास नहीं है। लेकिन चित्रा रामकृष्ण की बाबा से बातचीत वाली ईमेलों से पता चला है कि बाबा बालों की सज्जा (हेयर स्टाइल) के बारे में भी अच्छी जानकारी रखता है और बताता है कि किस प्रकार का हेयर स्टाइल होना चाहिए। बाबा अज्ञात है और चित्रा व कुछ लड़कियों के साथ देश-विदेश घूमने का शौक़ीन भी है। सेबी ने जब चित्रा रामकृष्ण से पूछा कि वो बाबा कौन हैं? आपकी उनसे मुलाक़ात कैसे हुई? तो चित्रा कहती हैं कि बाबा योगी हैं और परमहंस हैं। वह उन्हें गंगा के एक तट पर 20 साल पहले मिले थे। कैसा मज़ाक़ है?

सवाल यह है कि अगर चित्रा रामकृष्ण बाबा के प्रभाव में आकर 20 साल से काम कर रही थीं, तो सेबी इतने लम्बे समय तक क्यों सोता रहा? देश के इतने बड़े स्टॉक मार्केट के केंद्र में कई साल धाँधली होती रही और किसी को कुछ पता तक नहीं चला? क्या सेबी को इसकी जानकारी नहीं थी? क्या उस बाबा का सेबी और चित्रा के साथ-साथ नेशनल स्टॉक एक्सचेंज और यहाँ तक सरकार में इतना ख़ौफ़ है कि कोई कुछ बोलता तक नहीं है? क्या सरकार भी इस अज्ञात बाबा के दबाव में ही काम करती है? पिछले अगर चित्रा रामकृष्ण का इतिहास खंगालें, तो पता चलता है कि कई साल तक चित्रा देश की प्रभावी महिलाओं में लगातार छायी रहीं और अब जब यह बड़ा घोटाला सामने आने को है, तो सेबी के हाथ ख़ाली हैं। बाबा के साथ चित्रा के वित्तीय लेन-देन के भी आरोप लग रहे हैं। सवाल यह भी है कि ऋषि अग्रवाल, जो कि 28 बैंकों को 22,842 करोड़ रुपये का चूना लगाकर ग़ायब है, उसके नाम सीबीआई ने लुकआउट नोटिस जारी किया है। तो फिर सीबीआई इस अज्ञात बाबा के नाम कोई नोटिस जारी क्यों नहीं करती? जो कि लम्बे समय तक पूरे देश के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज को प्रभावित करता रहा।

सरकार बजट पेश करते समय कहती है कि हम 25 साल में अमृत काल में होंगे और देश ख़ुशहाल होगा। लेकिन वहीं दूसरी ओर देश में अरबों-ख़रबों की रक़म के निवेश वाले बाज़ार के केंद्र और उसमें अहम पदों पर नियुक्ति के फ़ैसले पिछले कई साल से एक ऐसे बाबा के द्वारा किये जा रहे थे, जिसका कोई अता-पता ही नहीं है। कहीं ऐसा तो नहीं कि 25 साल बाद हिन्दुस्तान अमृत काल की जगह विष काल मना रहा हो और आज की कमायी वाली कुर्सियों पर बैठे मठाधीश तब तक दुनिया को ही अलविदा कह चुके हों, और देश की जाँच एजेंसियों के पास पूछताछ के लिए कोई मुजरिम ही न हो।

फ़र्ज़ी कम्पनियों का खेल

यह कोई नयी बात नहीं है कि हिन्दुस्तान में फ़र्ज़ी नामों से फ़र्ज़ी कम्पनियाँ चलती हैं। कई बार जाँच एजेंसियों ने ऐसी फ़र्ज़ी कम्पनियों का समय-समय पर पर्दाफ़ाश किया है। हैरानी की बात यह है कि इन फ़र्ज़ी कम्पनियों से हर साल फ़र्ज़ी लोग अरबों-ख़रबों रुपये का घोटाला करके ग़ायब हो जाते हैं और बाद में इसी तर्ज पर नयी फ़र्ज़ी कम्पनियाँ ऐसे घोटालों के लिए खड़ी हो जाती हैं। कई ऐसी कम्पनियों के ज़रिये ये फ़र्ज़ी लोग मोटा ऋण बैंकों से लेकर चंपत हो जाते हैं। पिछले सात साल में ऐसे चंपत होने वाले लोगों की फ़ैहरिस्त में बहुत बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। अब इन लोगों पर कौन-से बाबा का हाथ है? यह तो नहीं पता; लेकिन इतना ज़रूर कहा जा रहा है कि बैंकों का पैसा लेकर भागने वाले इन लोगों में गुज़रात के भगोड़े सबसे ज़्यादा हैं।

ख़ैर, फ़र्ज़ी नाम पर चलने वाली फ़र्ज़ी कम्पनियों पर प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की केंद्र की सरकार ने 2014 में सत्ता हासिल करने के बाद काला धन पर रोक लगाने का दावा करते हुए देश में चलने वाली हज़ारों फ़र्ज़ी कम्पनियों पर नकेल कसने की बात कही। लेकिन साल 2017 में जब 13 बैंकों से लोन लेकर चंपत हुए लोगों का ख़ुलासा हुआ, तब पता चला कि देश में हज़ारों फ़र्ज़ी कम्पनियाँ चल रही हैं और इनमें से कई कम्पनियों के तो 100-100 बैंक खाते भी थे। इस दौरान बैंकों की ओर से 5,800 फ़र्ज़ी कम्पनियों की लिस्ट जारी की गयी और सरकार ने तब दावा किया कि उसने क़रीब दो लाख से ज़्यादा फ़र्ज़ी कम्पनियों पर रोक लगा दी है। इस दौरान हैरानी की बात यह सामने आयी कि एक कम्पनी के तो क़रीब 2,134 बैंक खाते थे। और नोटबंदी के दौरान इन फ़र्ज़ी कम्पनियों ने क़रीब 4,573.87 करोड़ रुपये का लेन-देन भी किया। इसके बाद इन कम्पनियों को बन्द करने की बात सरकार ने कही। अभी कुछ महीने पहले उत्तर प्रदेश में अखिलेश यादव के सौतेले भाई प्रतीक यादव पर फ़र्ज़ी कम्पनियाँ चलाने का आरोप लगा; लेकिन वह पत्नी अपर्णा यादव सहित भाजपा में शामिल हो गये और मामला दब गया। लेकिन इन कम्पनियों पर क्या कार्रवाई की गयी? इसका न तो कोई ब्योरा सरकार ने दिया और न ही आज तक किसी कम्पनी चलाने वाले का कोई चेहरा सामने आया है। ख़ास बात यह है कि इन फ़र्ज़ी कम्पनियों द्वारा कर (टैक्स) भी चोरी किया जाता है।

देश की जनता की मेहनत की कमायी को चूना लगाने वाली ऐसी कम्पनियों की कमी आज भी देश में नहीं है; लेकिन उन पर कोई कार्रवाई नहीं होती। क्योंकि इन फ़र्ज़ी कम्पनियों को चलाने वालों के ताल्लुक़ात राजनीतिक रसूख़दारों से होते हैं, यह बात पहले भी कई बार उजागर हो चुकी है। मुझे उम्मीद है कि न खाऊँगा और न खाने दूँगा की की बात कहने वाले हमारे प्रधानमंत्री, जो कि 18-18 घंटे काम करते हैं; न केवल ऐसी फ़र्ज़ी कम्पनियों की जानकारी हासिल करवाकर इन फ़र्ज़ी कम्पनियों को चलाने वाले फ़र्ज़ी लोगों को जेल में डालेंगे, बल्कि उस अज्ञात बाबा का पता भी लगवाकर उसे जेल भेजेंगे, जो देश के सबसे बड़े स्टॉक एक्सचेंज नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में बिना किसी महत्त्वपूर्ण पद पर नियुक्त हुए घुसकर उसकी गोपनीय जानकारी हासिल करता रहा है और बड़े-बड़े पदों पर ईमेल के ज़रिये निर्देश देकर नियुक्तियाँ करवाता रहा। मेरे ख़याल से कपड़ों से लोगों को पहचान लेने वाले प्रधानमंत्री के लिए यह काम कोई मुश्किल नहीं, जिसे सेबी नहीं कर सकी।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

दिल्ली नगर गिनम चुनाव के मद्देनज़र… क्या केजरीवाल को नुक़सान पहुँचाएगा विश्वास का आरोप?

राजनीति में कोई किसी का न स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। अगर किसी का कोई दोस्त होता है, तो वह स्वार्थ ही होता है, जिस पर राजनीति टिकी होती है। आम आदमी पार्टी (आप) के संस्थापक सदस्यों में से एक कुमार विश्वास का न जाने क्यों किस बात को लेकर आम आदमी पार्टी के मुखिया अरविंद केजरीवाल से विश्वास टूट गया है कि अब अचानक वह संघर्ष के दिनों की बातों को याद करके दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल पर आरोप लगाने लगे हैं? यह आरोप भी ऐसे-वैसे नहीं, बल्कि बहुत संगीन हैं।

कुमार विश्वास का कहना है कि अरविंद केजरीवाल अपने स्वार्थों के चलते पंजाब को देश से अलग करने की गंदी राजनीति मन में पाले हुए हैं और वह पूरी तरह से ख़ालिस्तान के समर्थक हैं। कुमार विश्वास का कहना है कि केजरीवाल ने ऐसा उनसे सात साल पहले ख़ुद कहा था। हालाँकि यहाँ सवाल यह उठता है कि अगर केजरीवाल सात साल पहले कुमार विश्वास से देश तोडऩे की बात कह रहे थे, तब विश्वास ने केजरीवाल का विरोध करते हुए यह बात देश को क्यों नहीं बतायी? क्या तब कुमार विश्वास के मन में भी कोई लालच था? या फिर अब वह केजरीवाल की प्रसिद्धि को पचा नहीं पा रहे हैं?

कुमार विश्वास के कथित आरोप को लेकर देश की राजनीति में भूचाल आ गया है। क्योंकि विश्वास ने केजरीवाल पर यह आरोप उस समय पर लगाया, जब पंजाब में चार दिन बाद विधानसभा के लिए मतदान होना था। कुमार विश्वास के द्वारा लगाये गये आरोप पर जनता कितना विश्वास करती है, यह तो 10 मार्च को चुनाव परिणाम सामने आने पर ही पता चलेगा। लेकिन आगामी महीने में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनावों पर इसका असर पड़ सकता है। क्योंकि भाजपा दिल्ली में केजरीवाल को देशद्रोही बताकर उनके ख़िलाफ़ विरोध-प्रदर्शन और प्रचार करने लगी है। हालाँकि राजनीति में आरोप-प्रत्यारोपों का खेल हर पार्टी करती रहती है। लेकिन साफ़ छवि का दावा करने वाले दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल और उनकी पार्टी पर पंजाब विधानसभा चुनाव और दिल्ली निगम चुनाव में इन आरोपों के बाद भाजपा और कांग्रेस के घेराव का क्या असर पड़ेगा? इस पर तहलका के समक्ष राजनीतिक लोगों और जानकारों ने अपनी-अपनी राय रखी।

दिल्ली की सियासत के जानकार राजकुमार सिंह का कहना है कि राजनीति में हिंसा, प्रलोभन और साज़िश आम बातें होती हैं। इस लिहाज़ से यह नहीं कहा जा सकता कि कब, किस नेता को, कौन-सी साज़िश के तहत आरोप लगाकर उसकी राजनीति को समाप्त करने का प्रयास कर दिया जाए। और किस नेता को प्रलोभन देकर कोई पार्टी अपने स्वार्थ सिद्ध करने का इंतज़ाम कर ले। मौज़ूदा समय में लोगों में प्रचलित होते केजरीवाल पर यह एक अलग तरह का राजनीतिक धब्बा लगाने का प्रयास माना जा सकता है।

जानकार और राजनीति की समझ रखने वाले तो समझ जाते हैं कि यह सब सियासी चालें हैं। लेकिन देश की भोली-भाली और राजनीतिक दाँव-पेच से अनजान जनता इन राजनीतिक पैंतरों को आसानी से नहीं समझ पाती। वह अमूमन मान लेती है कि लगाये गये आरोप सही हैं। इस समय दिल्ली में केजरीवाल पर पंजाब के टुकड़े और ख़ालिस्तान देश बनाने जैसी साज़िश करने के आरोप को लेकर जो हमला कांग्रेस और भाजपा ने किया है, उससे यह तो ज़ाहिर हो गया है कि आम आदमी पार्टी की साख पर इससे बड़ा बट्टा लगेगा।

आम आदमी पार्टी के नेता संजीव कुमार का कहना है कि कुमार विश्वास ने भाजपा के इशारे पर केजरीवाल पर तब आरोप लगाया है, जब पंजाब में आम आदमी पार्टी से भाजपा को ही नहीं, कांग्रेस को भी बड़ा ख़तरा दिख रहा था। यही नहीं, दिल्ली नगर निगम के चुनाव को लेकर भी भाजपा ख़तरा महसूस कर रही थी, उसे साफ़ मालूम है कि नगर निगम में भी आम आदमी पार्टी जीत रही है। उनका कहना है कि कुमार विश्वास तो कवि हैं। उन्होंने जो राजनीतिक बयान देकर जिस तरह दूसरी पार्टियों के सियासतदानों को साधा है, उसको देश की जनता जान गयी है। क्योंकि मुख्यमंत्री केजरीवाल पर आरोप लगाने के बाद केंद्र सरकार ने कुमार विश्वास को वाई श्रेणी की सुरक्षा दी है। यह बात सिद्ध करती है कि कुमार विश्वास ने अपना रुतबा बढ़ाने और भाजपा के गिरते स्तर को फिर से मज़बूत करने का प्रयास किया है। बताते चलें कि कुमार विश्वास और केजरीवाल की एक समय में बहुत ही गहरी दोस्ती थी, जो सम्भवत: अन्ना आन्दोलन के दौरान दिल्ली के उप मुख्यमंत्री और केजरीवाल के बहुत ख़ास मनीष सिसोदिया ने करायी थी। सन् 2013 में जब पहली बार आम आदमी पार्टी ने दिल्ली विधानसभा का चुनाव लड़ा था और आम आदमी पार्टी को पूर्ण बहुमत न मिलने के बावजूद कांग्रेस के सहयोग से सरकार बनाने का मौक़ा मिला था, तब केजरीवाल का कुमार विश्वास पर अन्य सदस्यों की तुलना में अधिक विश्वास था। ऐसा कहा जाता है कि विश्वास पर केजरीवाल का अविश्वास पैदा करने के लिए पार्टी के कुछ लोग लगे थे, ताकि कुमार विश्वास का विश्वास केजरीवाल से टूटे और वे आगे बढ़ें; और ये लोग इसमें सफल भी हुए।

आम आदमी पार्टी के एक वरिष्ठ नेता ने नाम न छापने की शर्त पर बताया कि जब आम आदमी पार्टी दिल्ली में मज़बूत होने लगी, तो रातों-रात वे लोग केजरीवाल के पास ज़्यादा दिखने लगे, जो पार्टी के गठन और अन्ना आन्दोलन के समय पर नहीं दिखते थे। ऐसे में कुमार विश्वास ने केजरीवाल को चेताया भी कि यह सब लोग स्वार्थी लोग हैं; इन सबसे बचना है। लेकिन केजरीवाल ने कुमार विश्वास पर विश्वास न करके अन्य लोगों को ज़्यादा महत्त्व दिया। इससे दोनों के बीच तल्ख़ी के साथ-साथ दूरियाँ बढऩे लगीं। हालत यह हो गयी कि पार्टी में कुमार विश्वास के विरोधियों ने सियासी लाभ भी लिया। कई बार तो दिल्ली में कुमार विश्वास के ख़िलाफ़ पोस्टरवार भी हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस के नेताओं व कार्यकर्ताओं ने केजरीवाल को आतंकवादी कहना शुरू कर दिया है। कुमार विश्वास के आरोप का केजरीवाल और आम आदमी पार्टी पर क्या असर पड़ेगा? इसको लेकर एक पत्रकार ने बताया कि पंजाब विधानसभा चुनाव में अगर आम आदमी पार्टी अच्छा प्रदर्शन करती है, तो निश्चित तौर पर दिल्ली के नगर निगम चुनाव में इसका अच्छा असर पड़ेगा। अन्यथा पार्टी पर निगम चुनाव में तो विपरीत असर पड़ेगा ही, देश में हो रहे पार्टी के विस्तार पर भी ख़राब असर पड़ेगा। उनका कहना है कि आम आदमी पार्टी की मुफ़्त की राजनीति, जिसमें महिलाओं को मुफ़्त बस यात्रा, हर घर में 20 हज़ार लीटर महीने मुफ़्त पानी और 200 यूनिट मुफ़्त बिजली जैसी जो सुविधाएँ दी जा रही हैं, उसका काट न तो भाजपा के पास है और न ही कांग्रेस के पास है। इसका लाभ तो आम आदमी पार्टी को मिलेगा ही मिलेगा। लेकिन जिस अंदाज में राजनीति के बीच कूटनीति करके केजरीवाल को देशद्रोही के तौर पर विरोधी पार्टियाँ पेश कर रही हैं। अगर इन आरोपों का असर जनता पर पड़ता है, तो आम आदमी पार्टी को निगम चुनाव काफ़ी नुक़सान उठाना पड सकता है।

दिल्ली कांग्रेस के प्रदेश अध्यक्ष अनिल चौधरी ने कहा कि दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविन्द केजरीवाल देश की अखण्डता के लिए ख़तरा बन गये हैं। आम आदमी पार्टी की फंडिंग कहाँ से हो रही है? उसके बैंक खातों की जाँच होनी चाहिए। अनिल चौधरी ने कहा कि आम आदमी पार्टी के मंत्रियों और अधिकांश विधायकों पर आपराधिक मामले चल रहे हैं। इसकी भी जाँच होनी चाहिए। उन्होंने कहा कि कुमार विश्वास ने केजरीवाल के देश-विरोधी चेहरे को बेनक़ाब कर दिया है।

दिल्ली भाजपा प्रदेश अध्यक्ष आदेश गुप्ता ने कहा कि केजरीवाल ने ख़ालिस्तानियों के साथ मिलकर देश को तोडऩे की साज़िश की है। जब दिल्ली में शाहीन बाग़ में सीएए को लेकर आन्दोलन चल रहा था और उससे पहले जब जेएनयू में देश के तोडऩे वाले नारे लगाये जा रहे थे, तब भी केजरीवाल उन्हीं के साथ खड़े थे। जनता केजरीवाल के कई चेहरे देख चुकी है। केजरीवाल की राजनीति ख़त्म है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के आम आदमी पार्टी संगठन के छात्र नेता राहुल कुमार कहते हैं कि आम आदमी पार्टी पर आरोप लगाने वाले तो पहले से ही कई तरह के आरोप लगाते आ रहे हैं। क्योंकि आम आदमी पार्टी ने जनता से जो वादे किये थे, उनको पूरा किया है। राहुल कुमार का कहना है कि अगर कांग्रेस और भाजपा इस तरह के देशद्रोही वाले आरोप लगाते रहे, तो कोई भी विशेष असर नगर निगम के चुनावों पर नहीं पड़ेगा। लेकिन कुमार विश्वास, जो भाजपा और कांग्रेस को बढ़ाने के लिए पंजाब चुनाव से ठीक पहले वहाँ के और दिल्ली नगर निगम के चुनावों में आम आदमी पार्टी को हराने की मंशा से आरोप लगाते हैं, उनकी नीयत भी लोगों को समझनी चाहिए। हालाँकि आरोप इतना बड़ा है, तो इसका कुछ असर पड़ सकता है।

कांग्रेस के नेता अमरीष कुमार का कहना है कि आम आदमी पार्टी भाजपा की ही ‘बी’ पार्टी है। कांग्रेस का वोट पाकर और अन्ना आन्दोलन के माध्यम से कांग्रेस पर आरोप लगाकर चुनाव जीतने वाली आम आदमी पार्टी की डुगडुगी बज चुकी है। कांग्रेस ही दिल्ली के विकास के लिए जनता की पहली पसन्द है। उन्होंने कहा कि केजरीवाल की अगर सही तरीक़े से जाँच हो जाए, तो उनकी सरकार अब तक के इतिहास में सबसे बड़े घोटालेबाज़ी की सरकार निकलेगी।

बता दें देश तोडऩे और आतंकवादी वाले आरोप पर दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने कहा था कि मैं स्कूल-अस्पताल बनवाने वाला दुनिया का सबसे मासूम और अच्छा आतंकवादी हूँ। उन्होंने कहा कि आम आदमी पार्टी के डर से सारी विरोधी पार्टियाँ मुझे आतंकवादी कह रही हैं। इसका जनता चुनाव में मुँहतोड़ जवाब देगी। लगे हाथों उन्होंने आतंकवादी के दो रूप भी बता डाले- बुरे आतंकवादी और अच्छे आतंकवादी। उन्होंने कहा मैं अच्छा आतंकवादी हूँ, जो जनता का काम करता है। इसीलिए सभी पार्टियाँ मुझसे डरी हुई हैं। जो भी हो, देखना यह होगा कि इस आरोप के बाद केजरीवाल बैकफुट पर जाते हैं, या उनका साम्राज्य देश के अन्य राज्यों में भी फैलेगा?

 

मौत की इमारतें

गुरुग्राम में इमारत ढहने से साबित हुआ कि यहाँ के सरकारी भवन भी असुरक्षित हैं

हाउसिंग सेक्टर किस ओर जा रहा है? ये केवल निजी बिल्डर नहीं हैं, जो लोगों को बहका रहे हैं और उनके जीवन भर की बचत से जोड़ी पूँजी को ठग रहे हैं। अब सरकार की अपनी नवरत्न कम्पनी एनबीसीसी कमोवेश इसी तरह से ख़राब साबित हुई है। गुरुग्राम (गुडग़ाँव) में 18 मंज़िला चिन्टेल्स पैराडाइसो इमारत के एक हिस्से के गिरने से दो लोगों की मौत के बाद अब गुरुग्राम में एनबीसीसी की ग्रीन व्यू सोसायटी को असुरक्षित घोषित करने की बारी है।

इस घटना के बाद सैकड़ों मकान मालिक 20 फरवरी को अनशन पर बैठे और विरोध मार्च निकाला, जिसमें चिन्टेल्स पारदीसो हाउसिंग सोसायटी के निवासियों के लिए न्याय की माँग की गयी। वहाँ 10 फरवरी को एक इमारत की कई छतें गिर गयी थीं, जिसमें दो महिलाओं की मौत हो गयी थी। महिलाओं की मौत के अलावा कई अन्य लोग मलबे के नीचे फँस गये थे। जब 18 मंज़िला चिन्टेल्स पारदीसो इमारत की छठी मंज़िल के अपार्टमेंट का फ़र्श बैठ गया और मलबा ठीक बाद की मंज़िलों से लेकर इमारत की पहली मंज़िल तक फैल गया, उसमें चार लोग फँस गये। यह पहली और दूसरी मंज़िल पर रहने वाले दो परिवारों के सदस्य थे।

एनबीसीसी भवन भी असुरक्षित

हालाँकि चिन्टेल्स पारदीसो पर पूरा ध्यान केंद्रित किया गया था। उपायुक्त निशांत कुमार यादव ने हाल में सेक्टर-37 (डी) में एनबीसीसी-ग्रीन व्यू के निवासियों को 01 मार्च तक ख़ाली करने का निर्देश दिया था, जिसमें कहा गया कि आवासीय परिसर अब रहने के लिए सुरक्षित नहीं है। उन्होंने यह भी निर्देश दिया एनबीसीसी के डेवलपर को निवासियों को वैकल्पिक आवास प्रदान करना चाहिए, जब तक वे भवन की मरम्मत और परिवहन, स्थानांतरण और किराये की लागत वहन नहीं करते हैं। उन्होंने कहा कि यह सामने आया है कि ग़लती एनबीसीसी और ठेकेदार की है। उन्होंने कहा कि भवन की संरचना के सम्बन्ध में आईआईटी दिल्ली द्वारा दी गयी रिपोर्ट को निवासियों के साथ साझा किया जाएगा। केंद्रीय विद्युत अनुसंधान संस्थान (सीपीआरआई) और आईआईटी रुडक़ी के चार सदस्यों वाली दूसरी विशेषज्ञ समिति भी जल्द ही अपनी रिपोर्ट देगी।

डीसी ने ख़ुलासा किया कि उन्होंने नेशनल बिल्डिंग कंस्ट्रक्शन कॉरपोरेशन (एनबीसीसी), जो भारत सरकार का एक उद्यम है; को निर्देश दिया है कि वह उन सभी घर ख़रीदारों को पैसा वापस करें, जो समाज में नहीं रहना चाहते हैं; ताकि वे नयी सम्पत्ति ख़ुरीद सकें। ज़िला नगर योजनाकार और अन्य विशेषज्ञों की रिपोर्ट के अनुसार, भवन निवासियों के लिए सुरक्षित नहीं है। आवासीय परिसर में फ़िलहाल 140 परिवार रहते हैं। एनबीसीसी-ग्रीन व्यू अपार्टमेंट ऑनर्स एसोसिएशन के अध्यक्ष आर. मोहंती ने कहा कि एनबीसीसी-ग्रीन व्यू हाउसिंग कॉम्प्लेक्स मई, 2017 में पूरा हो गया था और इमारत में दरारें अगले ही साल से दिखायी देने लगीं। उन्होंने कहा कि वह पिछले चार साल से फ्लैट्स की संरचनात्मक सुरक्षा के मुद्दों को उठा रहे हैं; लेकिन कोई फ़ायदा नहीं हुआ। यह चौंकाने वाली बात है कि 700-800 फ्लैट वाली सोसायटी चार से पाँच साल में कैसे बिगड़ सकती है?

एनबीसीसी-ग्रीन व्यू अपार्टमेंट ऑनर्स एसोसिएशन के महासचिव रणधीर सिंह ने कहा कि वह मरम्मत किये गये अपार्टमेंट नहीं लेना चाहते हैं और डेवलपर से मिलने वाले रिफंड के साथ नयी सम्पत्तियों का विकल्प चुनेंगे। एनबीसीसी के अध्यक्ष और प्रबन्ध निदेशक पी.के. गुप्ता ने कहा कि निगम पूरी  ज़िम्मेदारी लेगा; क्योंकि फ्लैटों का निर्माण उनके द्वारा किया गया है।

चिन्टेल्स पारदीसो की हालत

इस मामले में ज़िला टाउन एंड कंट्री प्लानर ने चिन्टेल्स पारदीसो-ई, एफ, जी, और एच में चार और टॉवरों को रहने के लिए अनुपयुक्त घोषित किया है। इसने उन परिवारों को स्थानांतरित करने के लिए सेक्टर-109 में चिन्टेल्स पारदीसो के चार टॉवरों में 40 अपार्टमेंट की मरम्मत और नवीनीकरण शुरू कर दिया है, जिनके अपार्टमेंट टॉवर-डी में कई छतें गिरने से क्षतिग्रस्त हो गये थे। अब निवासियों ने केंद्रीय जाँच ब्यूरो (सीबीआई) से गहन जाँच की माँग की है और अधिकारियों से दु:खद घटना के लिए  ज़िम्मेदार डेवलपर और अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई करने का आग्रह किया है। उन्होंने चिन्टेल्स इंडिया लिमिटेड के प्रमोटरों और निदेशकों और अपार्टमेंट के लिए अधिभोग प्रमाण-पत्र जारी करने वाले सरकारी अधिकारियों की तत्काल गिरफ़्तारी की भी माँग की है।

चिंटेल्स पैराडाइसो सोसायटी की रेजिडेंट्स वेलफेयर एसोसिएशन के अध्यक्ष राकेश हुड्डा ने आरोप लगाया कि पुलिस प्राथमिकी में धाराओं के साथ नरमी बरत रही है। उन पर हत्या का मामला दर्ज की जाए और स्वतंत्र जाँच हो। हालाँकि यह पता चला है कि पुलिस अभी भी शहर और विभाग द्वारा संरचनात्मक ऑडिट रिपोर्ट जारी करने की प्रतीक्षा कर रही है, जो दुर्घटना के कारणों का ख़ुलासा करेगी। इसके बाद ही क़ानून के अनुसार कार्रवाई करेगी। इसने क्षतिग्रस्त संरचना से नमूने एकत्र किये हैं और उन्हें मधुबन में फोरेंसिक विज्ञान प्रयोगशाला में भेज दिया है।

हरियाणा के मुख्यमंत्री मनोहर लाल ने निर्माण के दौरान डिजाइन या कारीगरी में दोषों का पता लगाने के लिए भारतीय प्रौद्योगिकी संस्थान दिल्ली द्वारा गुरुग्राम के सेक्टर-109 में चिंटेल पारदीसो ग्रुप हाउसिंग सोसायटी के प्रभावित टॉवर का संरचनात्मक ऑडिट करने का आदेश दिया है। मुख्यमंत्री ने कहा कि आसपास की कुछ अन्य ग्रुप हाउसिंग सोसायटीज में भी प्रारम्भिक चरण में संरचनात्मक क्षति के लक्षण दिखाये थे और नगर और ग्राम नियोजन विभाग को रेजिडेंट वेलफेयर एसोसिएशन या किसी अन्य से प्राप्त शिकायतों के आधार पर इन भवनों की पहचान करने के लिए कहा गया है। उन्होंने कहा कि स्थानीय प्रशासन को इस टॉवर के सभी प्रभावित परिवारों को वैकल्पिक अस्थायी आवास उपलब्ध कराने का निर्देश दिया गया है; क्योंकि वह वहाँ रहने से डरते हैं।

मुख्यमंत्री ने आदेश दिया कि टाउन एंड कंट्री प्लानिंग विभाग को चिनटेल्स इंडिया लिमिटेड के सभी निदेशकों, चिंटेल्स एक्सपोट्र्स प्राइवेट लिमिटेड, आवासीय टॉवर का निर्माण करने वाले स्ट्रक्करल इंजीनियरों, आर्किटेक्ट्स और ठेकेदारों, जिन्होंने छठी मंज़िल पर अतिरिक्त निर्माण कार्य किया; के ख़िलाफ़ कार्रवाई करे। पुलिस को तत्काल प्रभाव से प्राथमिकी दर्ज करने को कहा गया है। यह भी पता चला कि सरकार ने अब सैद्धांतिक रूप से निर्णय किया है कि नगर और ग्राम आयोजना विभाग के बिल्डरों की तरफ़ से नियुक्त स्ट्रक्चरल इंजीनियरों के अलावा सरकारी संस्थानों या उनके पैनल में शामिल स्ट्रक्चरल इंजीनियरों से स्ट्रक्चरल ऑडिट भी कराया जाना चाहिए। यह सब व्यवसाय प्रमाण-पत्र देने से पहले किया जाना चाहिए।

सम्बन्धित विभाग की उदासीनता

ऐसे ही एक घटनाक्रम में हरियाणा हाउसिंग बोर्ड को अपने कामकाज में लापरवाही करने के लिए फटकार लगाते हुए, पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय ने मुख्य प्रशासक को तलब किया। उन्हें एक मामले में व्यक्तिगत रूप से उपस्थित होने के लिए कहा गया था, जिसमें एक पूर्व सैनिक ने देश के लिए किये गये अनुकरणीय बलिदानों के लिए आभार के प्रतीक के रूप में जारी एक योजना में आवास इकाई के आवंटन के लिए लगभग सात साल पहले आवश्यक राशि जमा की थी। बाद में बताया गया कि क्षेत्र में फ्लैट बनाने की कोई योजना नहीं थी। मामले को और बदतर बनाते हुए हाउसिंग बोर्ड ने ज़ोर देकर कहा कि याचिकाकर्ता-पूर्व सैनिक को जमा राशि के 10 फ़ीसदी की ही अनुमति दी जाएगी, जिसके बाद उच्च न्यायालय को कहना पड़ा कि वह बोर्ड के इस स्टैंड पर स्तब्ध है। न्यायमूर्ति तेजिंदर सिंह ढींडसा और न्यायमूर्ति ललित बत्रा की खण्डपीठ ने कहा कि यह एक अकेला मामला नहीं है, बल्कि इसी तरह की शिकायतों को उठाने वाली जनहित याचिकाओं का एक समूह अदालत के समक्ष लम्बित था।

राज पाल सिंह गहलौत द्वारा हाउसिंग बोर्ड और एक अन्य प्रतिवादी के ख़िलाफ़ वकील विवेक खत्री के माध्यम से याचिका दायर के बाद मामला उच्च न्यायालय के संज्ञान में लाया गया। मामले की सुनवाई के दौरान पीठ ने पाया कि कुछ भी नहीं हुआ और याचिकाकर्ता न्याय पाने के लिए भटक रहा था। यहाँ तक कि प्रतिवादियों को एक क़ानूनी नोटिस भी दिया, जिसमें जमा राशि की वापसी की माँग की गयी थी। मामले की पृष्ठभूमि में जाने पर पीठ ने पाया कि याचिकाकर्ता दिसंबर, 2014 में फ़रीदाबाद के सेक्टर-65 में एक फ्लैट के आवंटन के लिए ड्रॉ में सफल रहा और मार्च, 2015 में 4,89,270 रुपये जमा किये। पीठ ने याचिका में स्पष्ट कथनों पर भी ध्यान दिया कि याचिकाकर्ता पूर्व सैनिक ने धन जुटाने के लिए ऋण के लिए आवेदन किया था और ऋण चुकाने के लिए नियमित ईएमआई का भुगतान कर रहा था। अदालत ने कहा कि यह हाउसिंग बोर्ड है, जिसने इस मामले में लापरवाही की है। जहाँ तक सेक्टर-65, फ़रीदाबाद का सम्बन्ध है, अब तक इस परियोजना को ज़मीन पर उतारने की कोई योजना नहीं है।

जोखिम भरा क्षेत्र

विशेषज्ञों के अनुसार, गुरुग्राम दिल्ली की तुलना में अधिक जोखिम में है। क्योंकि दिल्ली तीन सक्रिय भूकम्पीय फॉल्ट लाइनों की रेंज में पड़ता है। गुरुग्राम रेंज-7 पर बैठता है, जिससे यह एनसीआर में सबसे जोखिम भरा क्षेत्र बन जाता है। यदि इनमें से कोई भी सक्रिय हो जाता है, तो यह 7.5 तीव्रता तक के भूकम्प का कारण बन सकता है। साल 2015 में जब बार-बार झटकों ने गगनचुंबी इमारतों में रहने वालों में दहशत पैदा कर दी थी, तब प्रशासन ने सुरक्षा ऑडिट का आदेश दिया था। योजना कभी भी अमल में नहीं आयी। हालाँकि यह निर्णय किया गया कि प्रत्येक बिल्डर भूकम्प सुरक्षा प्रमाण-पत्र प्रस्तुत करेगा, यह सुनिश्चित करते हुए कि भवन आपदा प्रबन्धन जनादेश के अनुसार बनाया जा रहा है।

हालाँकि यह कभी नहीं हुआ। यह 2020 की बात है, जब दिल्ली एनसीआर में तीन महीने में 17 भूकम्प आये थे। पूरा शहर भूकम्पीय क्षेत्र-4 के अंतर्गत आता है। कई सामान्य फॉल्ट गुरुग्राम से होकर गुज़रते हैं।

इस ज़िले में प्रमुख विशेषताओं में सोहना फॉल्ट, मुरादाबाद फॉल्ट, दिल्ली-मुरादाबाद फॉल्ट, दिल्ली-हरिद्वार फॉल्ट, दिल्ली के पास अरावली और जलोढ़ का जंक्शन शामिल हैं। सिस्मिक जोन-4 में होने के कारण सन् 2020 में इस सम्बन्ध में अनिवार्य रूप से किसी स्ट्रक्चरल इंजीनियर से परामर्श करने की एडवाइजरी जारी की गयी थी; लेकिन हुआ कुछ नहीं।

सरकारों का शराब ऑफर!

नशा इंसान के जीवन के लिए अभिशाप है। नशाख़ोरी किसी भी देश की एक ऐसी समस्या है, जिसके चलते हर साल हज़ारों ज़िन्दागियाँ बर्बाद और ख़त्म होती हैं और कई घर बीरान होते हैं।

अभी हाल ही में उत्तर प्रदेश के ज़िला आजमगढ़ के अहरौला इलाक़े में ज़हरीली शराब पीने से पाँच लोग मर गये, जबकि 41 लोग बीमार हो गये। देश में ऐसी ख़बरें तक़रीबन हर एक-दो महीने के अंतराल से आती रहती हैं। यह हाल तब है, जब सरकारें नशीले पदार्थों की तस्करी रोकने का न केवल दावा करती हैं, बल्कि नशामुक्ति अभियान भी चलाती हैं।

हर साल 26 जून को अंतरराष्ट्रीय मादक द्रव्य निषेध यानी विश्व नशामुक्ति दिवस मनाया जाता है। लेकिन नशाख़ोरी पर पूरी तरह प्रतिबंध हिन्दुस्तान में कभी नहीं लग सकेगा। इसकी पहली वजह यही है कि हमारे देश के हर राज्य, हर शहर, हर क़स्बे और हर गाँव में शराब और नशे की दूसरी चीज़ें आसानी से उपलब्ध रहती हैं। इन नशीली चीज़ों में शराब की बिक्री सरकारों की मर्ज़ी से खुलेआम होती है। देश के जिन दो राज्यों (गुज़रात और बिहार) में वहाँ की सरकारों ने शराब पर बैन लगा दिया है, वहाँ चोरी-छिपे ही सही; लेकिन आसानी से शराब उपलब्ध रहती है।

नशाख़ोरी बढ़ाने के तरीक़े

वैसे तो कई राज्यों में वहाँ की सरकारें शराब की बिक्री को बढ़ावा देती हैं, क्योंकि शराब बिक्री से हर राज्य को मोटा कर (टैक्स) प्राप्त होता है। इससे न केवल राज्य सरकार को, बल्कि केंद्र सरकार को भी राजस्व की मोटी रक़म प्राप्त होती है। शराब की बिक्री राज्य सरकारों के लिए आमदनी का एक ऐसा ज़रिया है, जिसके बन्द होने से राज्य के राजस्व संग्रह पर काफ़ी असर पड़ता है। ऐसे में तक़रीबन हर राज्य की सरकारें शराब बेचकर या बिकवाकर करोड़ों रुपये सालाना बजट जुटाती हैं।

हाल ही में दिल्ली और हरियाणा में नशाख़ोरी को बढ़ावा मिलने के दो उदाहरण देखने को मिल रहे हैं। दोनों राज्यों की सरकारों ने अपने-अपने तरीक़े से नशाख़ोरी बढ़ाने की पहल की है।

दिल्ली में मुफ़्त शराब का चक्कर

दिल्ली देश की राजधानी है, जहाँ हर रोज़ तक़रीबन 12 से 15 फ़ीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं, जिनमें आठ फ़ीसदी लोग नियमित शराब का सेवन करते हैं। इन दिनों दिल्ली सरकार ने शराब पर 35 फ़ीसदी से लेकर एक शराब की बोतल पर एक बोतल मुफ़्त देने का चलन शुरू किया है। यह ऑफर सस्ती-से-सस्ती शराब से लेकर महँगी-से-महँगी शराब पर लागू है। इसके पीछे दलील दी जा रही है कि दिल्ली सरकार पुराना स्टॉक ख़त्म करने के लिए ऐसा ऑफर लेकर आयी है। लेकिन इससे दिल्ली में शराब की बिक्री क़रीब तीन से चार गुना बढ़ गयी है। दिल्ली सरकार ने यह ऑफर ऐसे समय में शुरू किया है, जब देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। यह तो पहले से ही ज़ाहिर है कि दिल्ली में शराब दूसरे राज्यों से पहले भी सस्ती हुआ करती थी, जिसके चलते दिल्ली से शराब की तस्करी दूसरे राज्यों, ख़ासकर उत्तर प्रदेश में होती थी।

अब जब चुनावों का दौर चल रहा है और आने वाले कुछ ही महीनों में दिल्ली में भी एमसीडी के चुनाव होने हैं, दिल्ली में शराब की बोतलों पर यह ऑफर शराब माफिया के लिए जमाख़ोरी और तस्करी का एक सुनहरा मौक़ा है। क्योंकि अब वे दिल्ली से सस्ती शराब ख़रीदकर दूसरे राज्यों में इसकी तस्करी और बड़े पैमाने पर करेंगे। वैसे भी होली का त्योहार निकट आ ही रहा है। इसके अलावा जो लोग एक बोतल शराब रोज़ या हफ़्ते में लेते थे, उन्हें पैसे में अब उसी पैसे में दो बोतल शराब मिल रही है। और जो दो बोतल शराब ख़रीदते थे, उन्हें अब उसी पैसे में चार बोतल शराब मिल रही है।

इसके अलावा पीने वालों को ऑफर में एक बोतल पर मुफ़्त मिलने वाली बोतल का चस्का लगना स्वाभाविक है। पिछले दिनों सामने आयी ख़बरों के मुताबिक, कई जगह एक बोतल पर एक बोतल मुफ़्त न देने पर ठेका कर्मचारियों से मारपीट की दिल्ली में कई घटनाएँ हो चुकी हैं। जानकार कहते हैं कि दिल्ली में इन दिनों जिस तरह से एक बोतल पर एक बोतल मुफ़्त का ऑफर चल रहा है, उससे शराब की तस्करी और नशाख़ोरी को बढ़ावा मिल रहा है। ठेके पर बैठे विक्रेताओं और नशा माफिया से लेकर शराब पीने वाले तक शराब का स्टॉक करने से नहीं चूक रहे हैं।

हरियाणा में घटी नशाख़ोरी और बिक्री करने की उम्र

हरियाणा सरकार ने शराब सेवन करने वालों की उम्र घटा दी है। दरअसल हरियाणा सरकार ने राज्य में शराब पीने की उम्र घटा दी है। हरियाणा में पहले शराब पीने की छूट क़ानूनी तौर पर 25 साल के युवाओं से लेकर आगे की उम्र वालों के लिए थी; लेकिन अब 21 साल के युवा भी शराब पी सकेंगे। ख़बरों के मुताबिक, इस सम्बन्ध में दिसंबर, 2021 में ही हरियाणा विधानसभा के शीतकालीन सत्र में राज्य में लागू आबकारी (एक्साइज) क़ानून, 1914 की चार धाराओं, धारा-27, धारा-29, धारा-30 और धारा-62 में संशोधन करके इसे विधानसभा की तरफ़ से 31 दिसंबर 2021 को पारित कर दिया गया था।

राज्य के राज्यपाल बंडारू दत्तात्रेय ने इस हरियाणा आबकारी (संशोधन) विधेयक, 2021 को स्वीकृति दे दी है और 11 फरवरी से उक्त संशोधन क़ानून हरियाणा सरकार के गजट में प्रकाशित कर दिया गया है। अब यह क़ानून पूरे राज्य में तत्काल प्रभाव से लागू है और अब 21 साल के युवाओं को भी पुलिस शराब पीने से राज्य में नहीं रोक सकती। पुराने क़ानून में धारा-27 के तहत यह प्रावधान था कि शराब और नशीली दवाओं के निर्माण, थोक या ख़ुदरा बिक्री के लिए पट्टा राज्य सरकार की तरफ़ से 25 साल से कम उम्र के व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता था। लेकिन अब नये क़ानूनी संशोधन के बाद इसे घटाकर 21 साल कर दिया गया है।

इसी तरह पहले धारा-29 के तहत कोई भी शराब या नशीली दवा का लाइसेंसधारी विक्रेता 25 साल से कम उम्र के किसी भी युवा को शराब या नशीली दवा नहीं बेच सकता था; लेकिन अब वह 21 साल के युवाओं को इनकी बिक्री कर सकता है। वहीं 10 फरवरी, 2022 तक धारा-30 के तहत 25 वर्ष से कम आयु के किसी भी युवा को शराब या नशीली दवाएँ बेचने का लाइसेंस नहीं दिया जाता था; लेकिन अब 21 साल के युवाओं को भी इनका लाइसेंस मिल सकता है।

इसी तरह धारा-62 में पहले प्रावधान था कि अगर कोई लाइसेंस प्राप्त शराब या नशीली दवा विक्रेता या इन दुकानों पर नौकरी करने वाला कोई कर्मचारी या अन्य कोई कार्य करने वाला व्यक्ति 25 साल से कम उम्र के किसी युवा को शराब या नशीली दवा देता है, तो उस पर 50 हज़ार तक का ज़ुर्माना और प्रावधान के मुताबिक अन्य दण्ड लगाया जाएगा। लेकिन अब यह नियम 21 साल से कम उम्र के युवाओं को शराब या नशीली दवा बेचने पर लागू होगा। इसके पीछे दलील यह है कि क़ानून में यह संशोधन देश के कई राज्यों, जिसमें राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र (एनसीटी) दिल्ली भी शामिल हैं, में लागू नियमों को देखते हुए किया गया है। वैसे नशाख़ोरी में हरियाणा के युवाओं की एक बड़ी संख्या फँसी हुई है। पिछले दो दशकों से हरियाणा में नाइट क्लब, पब, डिस्को बार आदि का चलन बढऩे से यहाँ के युवाओं में नशाख़ोरी की लत बढ़ी है।

नशाख़ोरी के नुक़सान

एक अनुमान के मुताबिक, देश में ज़हरीली शराब से हर साल तक़रीबन 1,000 लोगों की मौत होती है, वहीं शराब की अधिकता के चलते हज़ारों लोग हर साल कम उम्र में ही मौत के मुँह में समा जाते हैं। देश में लीवर और किडनी के मरीज़ों में 40 फ़ीसदी नशा करने के कारण बीमार होते हैं। आँकड़े बताते हैं कि भारत में पिछले तीन वर्षों में ही ड्रग्स का बाज़ार 455 फ़ीसदी तक बढ़ गया है। देश के 2.1 फ़ीसदी लोग ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से तस्करी किये गये नशीले पदार्थों का सेवन करते हैं।

देश में शराब के सेवन में राज्यों का स्तर बताता है कि छत्तीसगढ़ पहले स्थान पर है, जहाँ क़रीब 35.6 फ़ीसदी लोग शराब का सेवन करते हैं। इसके अलावा त्रिपुरा में 34.7 फ़ीसदी, पंजाब में 28.5 फ़ीसदी, अरुणाचल प्रदेश में 28 फ़ीसदी, गोवा में 26.4 फ़ीसदी लोग शराब पीते हैं। वहीं सभी प्रकार की नशाख़ोरी की अगर बात करें, तो मिजोरम नशाख़ोरी में पहले स्थान पर है। वहीं सभी प्रकार के नशे के मामले में पंजाब दूसरे और दिल्ली तीसरे स्थान पर हैं।

इसके अलावा देश में क़रीब सवा करोड़ लोग गाँजा और चरस का सेवन करते हैं। गाँजा और चरस के नशे में सिक्किम के लोग पहले, ओडिशा के दूसरे और दिल्ली के लोग तीसरे स्थान पर बताये जाते हैं। हालाँकि आबादी के हिसाब से देखें, तो मुम्बई नशाख़ोरी का एक बहुत बड़ा अड्डा है।

एक सर्वे के मुताबिक, 44 फ़ीसदी ड्रग्स लेने वाले लोग उसे छोडऩा चाहते हैं; लेकिन उनमें से 25 फ़ीसदी को ही नशामुक्ति का सहारा मिल पाता है। इसकी वजह सरकारी नशामुक्ति केंद्रों का अभाव और निजी संस्थानों में मोटी फीस है।

नशे को बढ़ावा ठीक नहीं

 

दिल्ली-एनसीआर में पाँच नशामुक्ति केंद्र चलाने वाले शान्तिरत्न फाउंडेशन के अध्यक्ष इंद्रजीत सिंह कहते हैं कि दिल्ली में शराब पर ऑफर देना मेरी समझ से ठीक नहीं है; क्योंकि यहाँ पहले से ही शराब पीने वालों की संख्या बहुत है। ऐसे में शराब पर ऑफर मिलने से पीने वालों की संख्या तो बढ़ेगी ही, लोगों के पीने की लत भी बढ़ेगी। यह एक प्रकार से नशाख़ोरी को बढ़ावा देना है। हम लोग नशामुक्ति अभियान चलाते हैं, जिस पर माफिया तो पानी फेरते ही हैं, अगर सरकारें भी वही काम करेंगी, तो इसे उचित कैसे कह सकते हैं? राजधानी में तो वैसे भी हर चीज़ बहुत तेज़ी से फैलती और असर करती है। हमारे यहाँ शराब छुड़ाने के महीने भर में 20 से 30 मामले आते हैं। लेकिन समस्या यह है कि कई परिवार भी शराब, सिगरेट और तम्बाकू पीने को उतना बुरा नहीं समझते, जितना कि ड्रग्स, चरस, गाँजा आदि को समझते हैं। ऐसे में शराब पीने वालों को बढ़ावा मिल रहा है।

जनहित में नहीं फैसले

दिल्ली के द्वारिका में एक निजी अस्पताल में सेवाएँ दे रहे जनरल फिजिशियन डॉ. मनीश कहते हैं कि शराब पर इतनी भारी छूट उन्होंने अपने जीवन में कभी नहीं देखी। दिल्ली में हर शराब की दुकानों पर आजकल विकट भीड़ देखी जा सकती है, जिससे पता चलता है कि दिल्ली में शराब पीने का चलन बढ़ रहा है। रही हरियाणा की बात, तो इसमें कोई शक नहीं कि 21 साल के युवा भी बड़ी आसानी से बहक जाते हैं। इसकी पहली वजह यही होती है कि वे इस उम्र में उतने ज़िम्मेदार नहीं होते, जितने 25-26 साल की उम्र में होते हैं। वैसे भी 21 साल की उम्र में युवा कॉलेज लाइफ में होते हैं और उनमें रुतबा दिखाने का एक फैशन-सा होता है। अगर इस उम्र में उन्हें नशा करने की छूट मिलेगी, तो ज़ाहिर है कि वे नशे की ओर अग्रसर हो सकते हैं। इसलिए दोनों ही राज्य सरकारों के फ़ैसलों को अच्छा नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ये छूटें किसी भी तरह से देश, समाज और जन हित में नहीं हैं।

पुलिस में महिलाओं की विकट कमी

हम जब घर से बाहर निकलते हैं, तो अक्सर सडक़ों पर जो पुलिसकर्मी नज़र आते हैं, वे पुरुष ही होते हैं। सडक़ों-गलियों, बाज़ारों में घूमने वाली पुलिस वैन से बाहर झाँकता चेहरा भी पुरुष का ही दिखायी देता है। इसकी एक वजह यह है कि देश में पुलिस बल में महिलाओं की हिस्सेदारी महज़ 10.3 फ़ीसदी है। पुलिस में महिलाओं के इतने कम प्रतिनिधित्व को लेकर संसद की स्थायी समिति ने भी इस पर चिन्ता ज़ाहिर करते हुए पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 33 फ़ीसदी करने के लिए रोडमैप बनाने की अनुशंसा की है। पुलिस के प्रशिक्षण, आधुनिकीकरण और सुधार के लिए बनी संसद की स्थायी समिति ने 10 फरवरी को संसद में पेश अपनी रिपोर्ट में इस मुद्दे को प्रमुखता से उठाया और इस संख्या को किस तरह बढ़ाया जाए? इस बाबत सरकार को सुझाव भी पेश किये।

दरअसल पुलिस का पेशा $कानून-व्यव्यथा और आमजन से जुड़ा हुआ है। आमजन को पुलिस की ज़रूरत कभी भी पड़ सकती है। जब आमजन की बात करते हैं, तो उसमें महिलाएँ भी शामिल हैं; लेकिन पुलिस बल में लैंगिक सन्तुलन नहीं है। और इसकी क़ीमत देश की आम औरत चुकाती है। पुलिस की मर्दानगी वाली छवि आम औरत के भीतर दहशत पैदा करती है। वह पुरुष पुलिसकर्मी को अपनी तकलीफ़ बताने और उसके सवालों का जवाब देने में ख़ुद को असहज महसूस करती है। पुरुष प्रधान समाज में जब भी किसी परिवार का किसी भी कारण से पुलिस से वास्ता पड़ता है, तो सबसे पहले घर की औरतों को कमरे के अन्दर जाने की सख़्त हिदायत दी जाती है। यानी पुलिस और महिलाओं के बीच एक बहुत बड़ा फ़ासला नज़र आता है। अगर पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को बढ़ा दिया जाए, तो यह फ़ासला धीरे-धीरे कम हो सकता है। समाजशास्त्री भी मानते हैं कि पुलिसबल में महिलाओं की संख्या में इज़ाफ़ा करके इसकी छवि को और अधिक मानवीय बनाया जा सकता है।

दरअसल पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने को लेकर गृह मंत्रालय पहले भी चिन्ता जता चुका है; लेकिन अधिक सकारात्मक नतीजे नहीं देखने को मिले। ऐसा क्यों है? इसे गृह मंत्रालय और राज्य सरकारों को गम्भीरता से लेना चाहिए।

ग़ौरतलब है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय ने सन् 2009 में देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिस बल की संख्या 33 फ़ीसदी करने वाला परामर्श दिया। इसमें यह भी कहा गया कि हर पुलिस स्टेशन में कम-से-कम तीन महिला सब इंस्पेक्टर और 10 महिला पुलिस सिपाही होनी चाहिए, ताकि महिला हेल्प डेस्क 24 घंटे अपना काम कर सके। यही नहीं, इस दिशा में कोई ख़ास प्रगति न होते देख गृह मंत्रालय ने महिला पुलिस बल का 33 फ़ीसदी लक्ष्य हासिल करने वाला यही परामर्श 2013, 2015, 2017, 2019 और 2021 में भी जारी किया; लेकिन निराशा ही हाथ लगी। एक सवाल यह भी किया जाता है कि पुलिस का काम तो नियम-क़ायदों के अनुसार चलता है, उसे तो तटस्थ हाकर अपनी भूमिका निभानी चाहिए, ऐसे में पुलिस वर्दी में पुरुष हो या महिला क्या फ़र्क़ पड़ता है? सवाल वाजिब हो सकता है, पर यह जानना भी ज़रूरी है कि पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने वाले महत्त्वपूर्ण बिन्दु को महज़ लैंगिक पहलू से नहीं देखना चाहिए, बल्कि यह देखना चाहिए कि यह पेशा की एक ज़रूरत भी बन चुका है।

महिलाएँ इस देश की आधी आबादी हैं और इसमें कोई दो-राय नहीं कि महिलाओं व बच्चों से जुड़े ऐसे मामले, जहाँ पुलिस को हस्तक्षेप करना पड़ता हैं; वहाँ महिला पुलिस अधिक कारगर साबित होती हैं। यही नहीं, महिला पुलिस में अपने पुरुष सहकर्मियों की अपेक्षा अधिक सहनशीलता और सहानुभूति होती है। उनके द्वारा अधिक बल प्रयोग करने की सम्भावना कम होती है। उनके द्वारा थर्ड डिग्री के प्रयोग की सम्भावना भी क्षीण होती है, जिसकी एक लोकतांत्रिक देश की पुलिस से अपेक्षा की जाती है। उनकी अधिक संख्या होने से पुलिस की बदनाम छवि भी सुधर सकती है। देश में सन् 1991 में पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 1.18 फ़ीसदी थी और अब यह 10.3 फ़ीसदी है। 20 अगस्त, 2021 को गृह मंत्रालय ने लोकसभा में बताया कि देश में महिला पुलिस बल की तादाद 10.3 फ़ीसदी है। पुलिस में महिलाओं और पुरुषों का राष्ट्रीय औसत बताता है कि देश में प्रति 10 पुलिसकर्मियों पर महज़ एक महिला पुलिसकर्मी है।

देश में इस समय बिहार एक ऐसा इकलौता राज्य है, जहाँ पुलिस बल में सबसे अधिक महिलाएँ 25 फ़ीसदी से अधिक हैं। हिमाचल प्रदेश में महिलाओं की संख्या 19.5 फ़ीसदी, चंडीगढ़ में 18.78 फ़ीसदी, तमिलनाडु में 18.5 फ़ीसदी और लद्दाख़ में 18.47 फ़ीसदी है। 24 राज्य ऐसे हैं, जहाँ महिला प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय औसत से कम है। ऐसे राज्यों की सूची में देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश में यह संख्या महज़ 9.6 फ़ीसदी ही है। वहीं राजस्थान, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, झारखण्ड, असम, केरल, कर्नाटक, सिक्किम, मणिपुर, पंजाब, हरियाणा, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, पांडिचेरी, पश्चिम बंगाल, मिजोरम, मेघालय, त्रिपुरा, तेलगांना, आन्ध्र प्रदेश भी ऐसे ही राज्य हैं, जहाँ 10 फ़ीसदी से कम महिलाएँ पुलिस में हैं। गृह मंत्रालय ने अपने बयान में राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिसकर्मियों के लिए कल्याणकारी क़दमों को मज़बूत करने, कार्यस्थलों पर उनके लिए अनुकूल माहौल बनाने और उनकी सुरक्षा सुनिश्चित करने वाला सुझाव भी दिया था।

विषेशज्ञों का मानना है कि महिलाओं के प्रति अपराध कम करने के लिए पुलिस बल में महिलाओं की संख्या बढ़ाने पर ख़ास ध्यान देने की ज़रूरत है। अब सवाल यह भी उठता है कि आख़िर महिलाएँ पुलिस में क्यों नहीं आना चाहतीं? पुलिस की नौकरी आज नौकरी बाज़ार में किस पायदान पर आती है, इसका अंदाज़ा इस बात से ही लगाया जा सकता है कि नौकरी की तलाश में आज की युवतियाँ पुलिस की नौकरी को ज़्यादा तवज्जो न देकर कम्पनियों में नौकरी करना अधिक पसन्द करती हैं। उनका रुझान इस ओर बहुत-ही कम देखने को मिलता है। इसके पीछे की वजह सामाजिक भी होती है। शादी में दिक़्क़तें भी पैदा हो सकती हैं। फिर तबादला और रात की पारी में ड्यूटी आदि। इन सामाजिक वजहों की जड़ में महिलाओं को अध्यापक, डॉक्टर, नर्स आदि पेशे में देखने की आदत पड़ जाना और पुलिस की ऐसी कडक़ छवि बन जाना भी है, जहाँ पारम्परिक समाज महिलाओं को पुलिस की वर्दी में देखना सहजता से स्वीकार करता दिखायी नहीं देता है।

इसके अलावा यह भी अति महत्त्वपूर्ण है कि पुलिस थानों में महिलाकर्मियों की विषेश ज़रूरतों को पूरा करने वाले संसाधन, जैसे महिला शौचालय, आराम गृह और क्रैच आदि की बहुत कमी है। बड़े शहरों के थानों में तो ये सुविधाएँ मिल भी जाती हैं; लेकिन छोटे शहरों, क़स्बों और गाँवों में ये सुविधाएँ अमूमन नदारद ही होती हैं। इसके अलावा 90 फ़ीसदी महिला पुलिसकर्मी बतौर सिपाही ही सेवानिवृत्त हो जाती हैं। उच्च पदों पर बहुत ही कम महिलाएँ पहुँच पाती हैं। महिला राजपत्रित अधिकारी की संख्या बहुत-ही कम है। पुलिस बल में महिला पुलिसकर्मियों के यौन उत्पीडऩ की ख़बरें भी सामने आती रहती हैं और उनका मानना है कि शिकायत के बावजूद ऐसे मामले लम्बे समय तक लटकते रहते हैं। देश में पुलिस राज्य का विषय है। लिहाज़ा राज्य सरकारों को अपने-अपने यहाँ महिला पुलिस की संख्या में बढ़ोतरी करने के लिए विशेष ख़ाका तैयार करना चाहिए। यह वक़्त की माँग है।

पुलिस में महिलाओं की ज़रूरत की एक मुख्य वजह ऐसे क़ानूनों का बनना भी है, जहाँ मामलों में महिला पुलिस की अनिवार्यता का ज़िक्र है। जैसे लैंगिक उत्पीडऩ से बच्चों के संरक्षण का अधिनियम 2012; इस अधिनियम को पॉक्सो एक्ट के नाम से भी जाना जाता है। महिला व बाल विकास मंत्रालय ने सन् 2012 में बच्चों के प्रति यौन उत्पीडऩ, यौन शोषण और पोर्नोग्राफी जैसे जघन्य अपराधों को रोकने के लिए इसे बनाया था। इस एक्ट के तहत प्रत्येक यौन हमले की रिकॉर्डिंग और उसकी जाँच के लिए महिला पुलिस अधिकारी की ज़रूरत है।

क़ानूनी प्रावधान कहते हैं कि किसी भी महिला की गिरफ़्तारी या उनसे जुड़े मामले महिला पुलिसकर्मियों का ही सौंपे जाने चाहिए। किशोर न्याय अधिनियम, जिसके अंतर्गत नाबालिग़ द्वारा किये गये अपराध की सज़ा दी जाती है और सज़ा की अवधि के दौरान किशोर अपराधी को सुधार व बाल संरक्षण गृह में रखा जाता है। ऐसा माना जाता है कि किशोर अपराधियों को महिला पुलिस बेहतर तरीक़े से सुधार सकती हैं। क्योंकि वे किशोरों के साथ अच्छा संवाद करने की कला जानती हैं। राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो के आँकड़े बताते हैं कि देश में 11 फ़ीसदी अपराध महिलाओं के ख़िलाफ़ होते हैं। इन मामलों में जिन लोगों को गिरफ़्तार किया जाता है, उनमें पाँच फ़ीसदी महिलाएँ होती हैं। केवल इसी गणित के हिसाब से देखा जाए, तो पुलिस बल में महिलाओं की संख्या 16 फ़ीसदी होनी ही चाहिए। दक्षिण अफ्रीका, अमेरिका व आस्ट्रेलिया में महिला पुलिस का फ़ीसदी 15-30 फ़ीसदी के दरमियान है। भारत की तो आबादी ही 145 करोड़ है और उसमें क़रीब आधी आबादी महिलाओं की है। आँकड़ों की ओर देखें, तो यह कहना अनुचित नहीं होगा कि पुलिस बल में महिलाओं की संख्या को बढ़ाने का मामला अब और नहीं टाला जाना चाहिए।

सातवीं बार जेल में लालू!

एक वक़्त था, जब बिहार में जुमला आम था- ‘जब तक रहेगा समोसे में आलू, तब तक रहेगा बिहार में लालू।’ अब यह जुमला न के बराबर सुनने को मिलता है। यह सब चारा घोटाले का कारण हुआ। मुद्दा इतना गरमाया कि लालू और चारा घोटाला एक-दूसरे के पर्यायवाची बन गये। इसके बावजूद आज भी राजनीति और सामाजिक दृष्टिकोण से लालू प्रसाद यादव का आकर्षण कम नहीं हुआ है। यह इन दिनों झारखण्ड-बिहार से लेकर राष्ट्रीय स्तर पर देखने को मिल रहा है। दरअसल लालू भारतीय राजनीति की जिस धारा का प्रतिनिधित्व करते हैं, वह अनोखी है। इस धारा में तैरने वाले तो बहुत-से नेता हुए; लेकिन धारा को अपने अनुकूल बनाने की क्षमता लालू से पहले किसी में नहीं दिखी। इसलिए उन्हें भारतीय राजनीति का इकलौता सामरिक समाजवादी नेता कहा जाता है। वह समर्थकों के बीच जन-नायक बनकर उभरे। लालू सियासत के वह पत्थर हैं, जिन्हें उनके समर्थक देवता मानकर पूजते हैं या फिर विरोधी नफ़रत से भरकर ठोकर मारते हैं। लेकिन उनसे बचकर कोई नहीं निकल पाता। लालू का नाम और चारा घोटाला मामला एक बार फिर समर्थकों और विरोधियों की ज़ुबान पर हैं। कारण, उन्हें चारा घोटाले के एक और मामले में सज़ा मिली है। अभी वह जेल (अस्पताल-रिम्स पेइंग वार्ड) में हैं।

देश में कई घोटाले हुए; लेकिन चारा घोटाला उस वक़्त का सबसे बड़ा घोटाला था। उस वक़्त 950 करोड़ रुपये सरकारी ख़ज़ाने से फ़र्ज़ीवाड़ा करके निकाल लिये गये। यह गबन ऐसा था कि इसका शोर सिर्फ़ भारत ही नहीं, बल्कि विदेशों तक में गूँजा। सरकारी ख़ज़ाने की इस गबन में कई अन्य लोगों के अलावा बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद यादव और पूर्व मुख्यमंत्री स्व. जगन्नाथ मिश्र पर गहरे दाग़ लगे। इस घोटाले के कारण लालू यादव को मुख्यमंत्री के पद से इस्तीफ़ा देना पड़ा। घोटाला सन् 1996 में हुआ था। लेकिन जैसे-जैसे जाँच आगे बढ़ी, लालू प्रसाद यादव इसमें दोषी बनते गये। नये नियम के तहत लालू प्रसाद भारतीय इतिहास में लोकसभा के ऐसे पहले सांसद थे, जिन्हें इस घोटाले के चलते संसद की सदस्यता गँवानी पड़ी और चुनाव लडऩे पर रोक लगी।

चारा घोटाले के घोटालेबाज़ों ने पशुपालन विभाग के वार्षिक बजट से भी बहुत अधिक धनराशि सरकारी ख़ज़ाने से नक़ली बिल बनाकर निकाल ली। आधिकारिक सूत्रों के अनुसार, वित्त वर्ष 1992-93 का पशुपालन विभाग का बजट क़रीब 75 करोड़ रुपये का था। लेकिन ख़र्च किये गये क़रीब 155 करोड़ रुपये। इसी तरह वित्त वर्ष 1993-94 में 75 करोड़ का बजट होने के बावजूद क़रीब 240 करोड़ रुपये ख़र्च किये गये। इस लूट का बँटवारा सभी शामिल लोगों में हुआ था। आपूर्तिकर्ताओं से लेकर बड़े सरकारी अफ़सर व अनेक दलों के नेता इस लूट में शामिल थे। पटना उच्च न्यायालय ने सीबीआई को मामला सौंपते हुए कहा था कि उच्चस्तरीय साँठगाँठ के बिना ऐसा घोटाला सम्भव नहीं था।

घोटाले की कई कहानियाँ

चारा घोटाले की कई कहानियाँ हैं। सीएजी की एक रिपोर्ट के मुताबिक, 6 दिसंबर 1985 को राँची से एक स्कूटर चला। उस पर चार साँड लादे गये थे। यह स्कूटर 344 किलोमीटर की दूरी तय करके घागरा पहुँचा। साँड ढोने के लिए 1,285 रुपये का बिल बना। इस बिल का भुगतान भी हो गया। इसी साल मई में एक कार में राँची से झिंकपानी तक चार साँड पहुँचाये गये। बिल बना 1,310 रुपये और भुगतान हो गया। यह तो छोटे-छोटे नमूने थे।

जाँच के दौरान इस तरह के कई अनोखे और अविश्वसनीय मामले एक-एक करके सामने आये। सीबीआई ने इस बड़े घोटालों में 60 ट्रक से ज़्यादा दस्तावेज़ जुटाये। क़रीब 11 करोड़ पन्नों की फोटो कॉपी हुई। कुल 64 मामले दर्ज हुए और 979 लोग इसमें अभियुक्त बने। एजेंसी ने 8,000 से ज़्यादा गवाह बनाये। 400 से ज़्यादा सीबीआई अफ़सरों ने मामले की जाँच की और 50 से अधिक जज इस मामले की सुनवाई कर चुके हैं।

अब डोरंडा कोषागार मामले में सज़ा

चारा घोटाले से सम्बन्धित चार मामलों की सुनवाई पूरी हो चुकी है और सज़ा भी मुकर्रर कर दी गयी है। झारखण्ड के चाईबासा कोषागार के दो मामलों- देवघर और दुमका के एक-एक मामले में लालू प्रसाद को सज़ा हो चुकी है। ताजा पाँचवाँ मामला राँची के डोरंडा कोषागार का है। इस कोषागार से 139.35 करोड़ रुपये की निकासी की गयी।

आरसी 47ए/96 मामला 1990 से 1995 के बीच का है। सीबीआई ने इस मामले में 170 लोगों को अभियुक्त बनाया। इसमें से पूर्व मुख्यमंत्री जगन्नाथ मिश्र समेत 55 अभियुक्तों की मौत हो गयी। छ: फ़रार घोषित हो गये। आठ को सरकारी गवाह बनाया गया। दो ने अपना दोष पहले ही स्वीकार कर लिया था, शेष 99 अभियुक्तों ने न्यायिक प्रक्रिया का सामना किया। विशेष न्यायाधीश एस.के. शशि ने 15 फरवरी 2022 को चारा घोटाले के लालू प्रसाद सहित 75 को दोषी करार दिया, शेष 24 को साक्ष्यों के अभाव में रिहा कर दिया गया। दोषियों में चार राजनीतिज्ञ, एक आईएएस, एक आईआरएस, दो ट्रेजरी ऑफिसर, 32 पशुपालक हैं। अदालत ने 35 अभियुक्तों को तीन-तीन साल कारावास और 30 हज़ार से दो लाख रुपये तक ज़ुर्माने की सज़ा 15 फरवरी को ही सुना दी गयी। लालू समेत अन्य बचे अभियुक्तों को 21 फरवरी को सज़ा सुनाई गयी, जिसमें लालू प्रसाद को पाँच साल की सज़ा हुई है और 60 लाख का ज़ुर्माना लगाया गया है।

लालू को नज़रअंदाज़ करना मुश्किल

लालू एक बार फिर जेल (राँची के रिम्स के पेइंग वार्ड) में हैं। साथ ही चर्चा में भी हैं। लालू को कोई भारत की राजनीति का मसखरा कहता है, तो कोई ग़रीबों का नेता, तो कोई बिहार की बर्बादी का ज़िम्मेदार उन्हें मानता है। लालू की पहचान विदेशों तक गूँजी। हार्वर्ड यूनिवर्सिटी भी लालू को अच्छी तरह जानती है। तमाम आरोपों और विवादों के बावजूद लालू यादव आज भी सियासत के केंद्र में हैं। उनके समर्थक, उन्हें आराध्य का दर्जा देते हैं। यही कारण है कि उनके जेल में रहने के बाद भी समर्थक राँची में जमे रहते हैं। पिछले दिनों न्यायालय में पेशी के दौरान समर्थकों का हुजूम पहुँच गया।

चारा घोटाले के पाँचवें मामले में उन्हें दोषी करार दिया गया है। लेकिन समर्थकों के बीच पहले की तरह ही उनका सम्मान बरक़रार है। इन समर्थकों का मानना है कि लालू कभी कुछ ग़लत कर ही नहीं सकते। उन्हें बेवजह फँसाया गया है। समर्थकों का राँची लगातार आना-जाना में लगा हुआ है। हर किसी में लालू की झलक देखने, मिलने और आशीर्वाद पाने की ललक दिखती है। रिम्स के पेइंग वार्ड में रह रहे लालू से मिलने की जुगत में कोई-न-कोई लगा ही रहता है। अस्पताल के आसपास के इलाक़े में लालू के कई समर्थक चक्कर लगाते नज़र आते हैं।

पिछले 15 साल से राजनीति की मुख्यधारा से अलग रहने के बावजूद लालू की यह करिश्माई व्यक्तित्व क़ायम है। यही कारण है कि उन्हें कोई पसन्द करे या न करे, कम-से-कम उन्हें नज़रअंदाज़ तो नहीं कर पाता।

अभी और बढ़ेंगी मुश्किलें

पटना उच्च न्यायालय ने 7 मार्च, 1996 सीबीआई को जाँच सौंपते वक़्त टिप्पणी की थी कि रोम जलता रहा और नीरो बंसी बजाता रहा, वही स्थिति बिहार की रही। उच्च न्यायालय की इस टिप्पणी का अर्थ निकाला जाए, तो सम्भवत: नीरो की तुलना लालू प्रसाद से की गयी थी। क्योंकि उस वक़्त लालू प्रसाद ही बिहार के मुख्यमंत्री थे। चारा घोटाले में पहली बार जेल जाने के बाद से उनकी मुश्किलें कम नहीं हुई हैं। अभी उनकी मुश्किलें और बढऩे के आसार हैं। क्योंकि एक मामला बिहार के पटना में सीबीआई की विशेष अदालत में चल रहा है। जिसमें अभी सुनवाई जारी है।

उधर चारा घोटाले में प्रवर्तन निदेशालय (ईडी) की एंट्री हो गयी है। सीबीआई विशेष न्यायालय के निर्देश पर ईडी ने दो मामलों में (झारखण्ड के देवघर कोषागार से 3.76 करोड़ रुपये और दुमका कोषागार से 34.91 करोड़ रुपये की अवैध निकासी) केस दर्ज कर लिया है। दोनों मामलों की जाँच शुरू हो गयी है। लालू को सीबीआई कोर्ट द्वारा दोनों मामलों में सज़ा सुनायी गयी है। ईडी पहले सज़ा पाने वाले लोगों की ही जाँच करेगी। इसलिए लालू प्रसाद की परेशानी बढ़ गयी है।

 

किन-किन मामलों में मिली सज़ा?

 पहला मामला : आरसी-20 ए/96 चाईबासा कोषागार से 377 करोड़ रुपये अवैध निकासी के आरोप में लालू प्रसाद यादव सहित 44 अभियुक्त बने, जिसमें लालू को पाँच साल की सज़ा हुई।

 दूसरा मामला : आरसी 64ए/96 देवघर कोषागार 84.53 लाख रुपये की अवैध निकासी के आरोप में लालू प्रसाद यादव सहित 38 अभियुक्त बने, जिनमें लालू को साढ़े तीन साल की सज़ा हुई।

 तीसरा मामला : चाईबासा आरसी 68 ए/96 कोषागार से 33.67 करोड़ रुपये की अवैध निकासी मामले में लालू प्रसाद सहित 56 अभियुक्त बने, जिनमें लालू को पाँच साल की सज़ा सुनायी गयी।

 चौथा मामला : आरसी-38ए/96 दुमका कोषागार से 3.13 करोड़ रुपये की अवैध निकासी मामले में लालू को दो अलग-अलग धाराओं में सात-सात साल (14 साल) की सज़ा हुई।

 पाँचवाँ मामला : आरसी 47ए/96 राँची के डोरंडा कोषागार से 139.35 करोड़ की अवैध निकासी मामले में अब लालू प्रसाद को फिर पाँच साल की सज़ा हुई है।

 

कब, कितने समय रहे जेल में

 पहली बार : 30 जुलाई, 1997 को लालू जेल भेजे गये।

 दूसरी बार : 28 अक्टूबर, 1998 को 73 दिनों के लिए जेल गये।

 तीसरी बार : 5 अप्रैल, 2000 को 11 दिनों के लिए जेल हुई।

 चौथी बार : 28 नवबर, 2000 को एक दिन के लिए जेल गये।

 पाँचवीं बार : 03 अक्टूबर, 2014 को 70 दिन की जेल हुई।

 छठी बार : 23 दिसंबर, 2017 को क़रीब 3.5 साल के लिए जेल हुई, जिसमें अप्रैल, 2021 से लालू जमानत पर थे।

 सातवीं बार : 15 फरवरी, 2022 को गिरफ़्तार हुए और 21 फरवरी को पाँच साल की सज़ा सुनायी गयी।

निजी क्षेत्र में आरक्षण हरियाणा की जीत

हरियाणा के स्थानीय युवाओं में प्रदेश के निजी क्षेत्र (प्राइवेट सेक्टर) में वरीयता से रोज़गार मिलने की उम्मीद फिर से जीवंत हो गयी है। सर्वोच्च न्यायालय ने स्थगन आदेश निरस्त कर पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय से चार हफ्ते में निजी क्षेत्र में स्थानीय युवाओं के 75 फ़ीसदी आरक्षण के क़ानून की वैद्यता पर फ़ैसला करने का आदेश दिया। सर्वोच्च न्यायालय ने पंजाब और हरियाणा उच्च न्यायालय के इस क़ानून पर बिना कोई कारण बताये स्थगन आदेश का फ़ैसला देने पर भी नाख़ुशी ज़ाहिर की है।

राज्य की फ़रीदाबाद और गुरुग्राम (गुडग़ाँव) की निजी क्षेत्र की एसोसिएशन ने राज्य सरकार के स्थानीय युवाओं को 75 फ़ीसदी आरक्षण देने के फ़ैसले को चुनौती दी थी। उच्च न्यायालय ने दो मिनट से भी कम की सुनवाई में इस पर स्थगन आदेश दे दिया था, जिसकी वजह से हरियाणा सरकार ने इसे सर्वोच्च न्यायालय में चुनौती दी थी। सर्वोच्च न्यायालय के फ़ैसले ने सरकार को राहत दी है, जिससे राज्य के युवाओं में निजी क्षेत्र में आरक्षण के आधार पर नौकरी मिलने की उम्मीद जगी है। राज्य सरकार के क़ानून लागू और इसकी प्रक्रिया शुरू करने के बाद अब भी इसके तहत भर्ती प्रक्रिया शुरू होना फ़िलहाल अधर में है।

हरियाणा देश का पहला राज्य नहीं है, जहाँ निजी क्षेत्र में स्थानीय युवाओं को आरक्षण देने का क़ानून बनाया है। इससे पहले आंध्रप्रदेश, झारखण्ड, और महाराष्ट्र की राज्य सरकार ने ऐसी व्यवस्था की है। लेकिन अभी तक इस आरक्षण के तहत किसी को नौकरी मिली नहीं है; क्योंकि मामले सम्बन्धित राज्यों के न्यायालयों में है। जब भी किसी राज्य में इस तरह का फ़ैसला होगा, उन राज्यों के स्थानीय युवाओं को लाभ होगा। नवंबर, 2020 में विधानसभा में पास किया गया। मार्च, 2021 में राज्यपाल ने इसे मंज़ूरी दे दी। इसी वर्ष 15 जनवरी से यह अमल में आया था; लेकिन इसे उच्च न्यायालय में चुनौती दे दी गयी।

निजी क्षेत्र में स्थानीय युवाओं के आरक्षण तो सरकार में भागीदार जननायक जनता पार्टी (जजपा) के चुनावी घोषणा-पत्र में शामिल रहा है। इसे क़ानून का रूप देने में इसी पार्टी की अहम भूमिका रही है और सबसे पहली प्रतिक्रिया उप मुख्यमंत्री दुष्यंत चौटाला की रही, जिन्होंने इसे युवाओं के अधिकार से जोड़ते हुए फ़ैसले को सराहा। जजपा की पहल पर राज्य सरकार हरियाणा स्टेट एंप्लाटमेंट केंडीडेट्स एक्ट-2020 बनाया। चूँकि इससे राज्य में बेरोज़गारी की दर में कमी आएगी। लिहाज़ा विपक्ष की ओर से किसी तरह का कोई विरोध नहीं किया गया।

15 जनवरी, 2020 में इसे लागू कर दिया गया। क़ानून में जहाँ कम्पनियों को सरकारी पोर्टल पर पूरी जानकारी देकर पंजीकृत करना था। निजी क्षेत्र का रुझान अच्छा रहा, वहीं युवाओं ने भी अपने को पंजीकृत किया। तब क़ानून में 50,000 रुपये तक की नौकरी के लिए आरक्षण की व्यवस्था थी, जिसका निजी क्षेत्र के कारोबारी संगठनों ने विरोध किया था। उनकी राय में इससे न केवल उनका काम प्रभावित होगा, बल्कि कम्पनियाँ अन्य राज्यों के प्रतिभावान युवाओं से भी वंचित होंगी। विशेषकर स्थापित आईटी क्षेत्र की कम्पनियों ने इसे मन से स्वीकार नहीं किया। नये क़ानून के तहत 50,000 रुपये तक की नौकरियों में बाध्यता की बात उन्हें जँच नहीं रही थी, लिहाज़ा इसका अन्दरख़ाने विरोध होना शुरू हो गया।

राज्य सरकार का दावा है कि निजी क्षेत्र में 75 फ़ीसदी आरक्षण का क़ानून कारोबारी संगठनों से मंत्रणा के बाद ही अमल में आया। कई स्तरों की बातचीत के बाद इसका प्रस्ताव बना, जिसे निजी क्षेत्र की विभिन्न एसोसिएशन्स ने स्वीकार किया। निजी क्षेत्र में ऐसे आरक्षण को राज्य सरकार अपने तौर पर बनाती है, तो वह न्यायालय में टिक नहीं पाएग। राज्य में गुरुग्राम और फ़रीदाबाद में निजी क्षेत्र की हज़ारों कम्पनियाँ हैं, जिन्हें राज्य सरकार अपेक्षाकृत कम दाम पर ज़मीन से लेकर करों (टैक्सों) और क़िफ़ायती बिजली जैसी सुविधा देती है। ऐसे में राज्य सरकार क्यों नहीं चाहेगी कि ये कम्पनियाँ राज्य के स्थानीय युवाओं को रोज़गार भी मुहैया कराएँ।

कारोबारी संगठनों के ऐतराज़ के बाद राज्य सरकार ने 50,000 रुपये तक की नौकरी के आरक्षण को 30,000 तक कर दिया। निजी क्षेत्र में लाखों रुपये के पैकेज होते हैं। क़ानून के तहत कम्पनियाँ या औद्योगिक संस्थान इससे ज़्यादा वेतन वालों को देश के किसी भी राज्य के रख सकती है। राज्य सरकार का मक़सद रोज़गार सृजन करने का है, उच्च पदों में ऐसे किसी आरक्षण की व्यवस्था नहीं की गयी है। क़ानून का उल्लंघन करने पर कम्पनी मालिकों पर ज़ुर्माने या अन्य दंडात्मक कार्रवाई की व्यवस्था को सर्वोच्च न्यायालय ने सही नहीं माना है। निजी क्षेत्र में छोटी नौकरियों के लिए आरक्षण का क़ानून बहस का विषय हो सकता है। सवाल उठाया जा सकता है कि इससे अन्य राज्यों के प्रतिभाशाली युवाओं के लिए नौकरी के मौक़े कम हो जाएँगे? फ़िलहाल किसी भी राज्य का युवा देश के किसी भी हिस्से में नौकरी कर सकता है। निजी क्षेत्र में कहीं कोई आरक्षण नहीं है। देश में आरक्षण केवल जातिगत आधार पर है, स्थानीय आधार पर नौकरी देने की व्यवस्था नयी है।

युवाओं को अपने ही प्रदेश में रोज़गार मिले तो यह अच्छी बात है। भविष्य में अगर क़ानून अमल में आता है, तो अन्य राज्य सरकारें भी ऐसे क़ानून ला सकती हैं। कुछ राज्य सरकारों के ऐजेंडे में यह मुद्दा भी है। चूँकि अभी तक किसी राज्य में इसके तहत रोज़गार दिया नहीं जा सका है, इसलिए कोई आगे बढ़ नहीं रहा है। हरियाणा सरकार निजी क्षेत्र के इस आरक्षण क़ानून को अमलीजामा पहनाने में कोई कमी नहीं रखना चाहती। मुख्यमंत्री मनोहर लाल खट्टर के मुताबिक, सरकार चाहती है कि नामी कम्पनियाँ राज्य में स्थापित हों। सरकारी स्तर पर उन्हें जारी विभिन्न छूटों के अलावा बेहतर सुविधाएँ मिलेंगी। राज्य का गुरुग्राम सूचना प्रोद्योगिकी का प्रमुख शहर है। इसके अलावा औद्योगिक नगरी के तौर पर फ़रीदाबाद है। निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ सरकार के साथ पूरा सहयोग करें, तो सरकार बहुत कुछ करने को तैयार है। राज्य में बेरोज़गारी दर देश में सबसे ज़्यादा फ़िलहाल 23.4 फ़ीसदी के आँकड़ें को वह सही नहीं मानते। उनकी राय में राज्य में बेरोज़गारी की दर छ: से आठ फ़ीसदी तक है। हालाँकि राज्य सरकार के पास ऐसा पुख्ता सुबूत नहीं हैं, जिससे यह फ़ीसदी दर साबित हो। मुम्बई की ग़ैर-सरकारी एजसी सेंटर फॉर मॉनीटरिंग इंडियन इकोनॉमी (सीएमआईई) के जनवरी, 2022 के आँकड़ों को मानें, तो देश भर में सबसे ज़्यादा 23.4 फ़ीसदी की बेरोज़गारी दर है। हरियाणा से तीन से चार गुना ज़्यादा आबादी वाले राज्य में यह दर 18.9 फ़ीसदी। इसके बाद त्रिपुरा जैसे छोटे राज्य में यह दल 17.1 फ़ीसदी और जम्मू-कश्मीर में 15.0 फ़ीसदी है। बेरोज़गारी देश के ज्वलंत मुद्दों में प्रमुख है। केंद्र और राज्य सरकारों के लिए बेरोज़गारी का मुद्दा हमेशा से अहम रहा है। हरियाणा में बेरोज़गारी का फ़ीसदी अपेक्षाकृत ज़्यादा है, इससे कोई इन्कार नहीं कर सकता। अक्टूबर, 2021 के आँकड़ों के मुताबिक, राज्य में बेरोज़गारी का फ़ीसदी 30.7 था; जो जनवरी, 2022 में 23.4 फ़ीसदी रह गया। जबकि इस दौरान सरकारी तौर पर इतनी नौकरियाँ सृजित नहीं हुईं।

चुनावी घोषणा-पत्र के मुताबिक, राज्य सरकार अपने लक्ष्य से बहुत पीछे है। इस लक्ष्य को सरकारी क्षेत्र से पूरा नहीं किया जा सकता, इसलिए निजी क्षेत्र में आरक्षण की व्यवस्था सरकार के लिए कारगर क़दम है। सर्वोच्च न्यायालय के स्थगन आदेश निरस्त करने का मतलब यह नहीं कि तुरन्त प्रभाव से निजी क्षेत्र में भर्ती खुल जाएगी। मामला पंजाब और हरियाणा में लम्बित है, जब तक कोई सकारात्मक फ़ैसला नहीं आता, तब तक निजी क्षेत्र में बिना आरक्षण के योग्यता के बूते ही नौकरी मिल सकेगी। हरियाणा सरकार ने निजी क्षेत्र में 75 फ़ीसदी आरक्षण के क़ानून को पूरी शिद्दत से लागू करने की पूरी तैयारी तो की है; लेकिन उससे पहले सहमति बनाने में कहीं-न-कहीं चूक हुई है। निजी क्षेत्र के पंजीकृत सभी कारोबारी संगठनों के प्रतिनिधियों को भरोसे में नहीं लिया गया। अगर सर्वसम्मति बना ली जाए, तो सम्भव है कि इसके तहत भर्ती की प्रक्रिया शुरू हो जाए।

 

“कारोबारी संगठनों से विभिन्न चरणों में हुई बातचीत के बाद सभी तरह के प्रावधान किये गये हैं। राज्य सरकार की सुविधाएँ हासिल करने वाली निजी क्षेत्र की कम्पनियाँ अगर स्थानीय युवाओं की उपेक्षा करती हैं, तो इसका कोई मतलब नहीं रह जाता है। हरियाणा में प्रतिभाशाली युवक-युवतियों की कोई कमी नहीं है। वे उच्च पदों की योग्यता भी रखते हैं। सरकार अपने तौर पर युवाओं को नयी तकनीक से दक्ष करेगी, ताकि उन्हें निजी क्षेत्र में रोज़गार के मौक़े मिल सकें।’’

मनोहर लाल खट्टर

मुख्यमंत्री, हरियाणा

 

“सर्वोच्च न्यायालय का फ़ैसला सराहनीय है। यह किसी पार्टी विशेष के ऐजेंडे से ज़्यादा राज्य के युवाओं को रोज़गार देने की व्यवस्था है। आरक्षण केवल 30,000 रुपये की नौकरी तक के लिए है। इससे ज़्यादा वेतन वालों के लिए कोई बाध्यता नहीं है। क़ानून अमल में आएगा और राज्य में लाखों नौकरियाँ निजी क्षेत्र में स्थानीय युवक-युवतियों को मिलेंगी।‘’

                                  दुष्यंत चौटाला

उप मुख्यमंत्री, हरियाणा