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कोविड-19:  नए मामले बीते दिन के मुताबिक 18.6 फीसदी कम

केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आंकड़ों के अनुसार, पिछले 24 घंटों मे देशभर में कोविड-19 के कुल 2568 नए मामले सामने आए है। जो कि बीते दिन के मुताबिक 18.6 फीसदी कम है।

देश में एक्टिव केस की संख्या 19 हजार के पार है। जो कि एक्टिव केस के कुल संक्रमण का करीब 0.05 फीसदी है। बीते 24 घंटों में कोरोना से मरने वालों की संख्या कुल 20 है। इसी के साथ अब तक कोरोना से देश में कुल 523889 मौतें दर्ज हुई है।

आपको बता दे, देश में कोविड-19 के कुल संक्रमितों की संख्या 4 करोड़ 30 लाख 84 हजार 913 हो गर्इ है। साथ ही ठीक होने वालो की संख्या 2911 है। यह रिकवरी रेट 98.74 फीसदी है।

स्वास्थ्य मंत्रालय द्वारा साझा की गई जानकारी के अनुसार राष्ट्रीय टीकाकरण अभियान के तहत कुल 189.41 करोड़ और बीते पिछले 24 घंटों में कुल 16,23,795 कोरोना वैक्सीन की खुराक लोगों को दी जा चुकी है।

दिल्ली नगर निगम के चुनाव में होगी बुलडोजर की राजनीति

दिल्ली नगर निगम के चुनाव को लेकर भले ही अभी परिसीमन होना है लेकिन इतना तो तय है कि अब दिल्ली नगर निगम में 250 सीटों पर ही चुनाव होना है ।राजनीति के जानकारों का कहना है कि दिल्ली नगर निगम के चुनाव नवंबर -दिसंबर के बीच हो सकते है। तब तक दिल्ली की सियासत में नये -नये प्रयोग होगे।
ध्रुवीकरण का राजनीति के साथ बुलडोजर की राजनीति जोर पकड़ जायेगी। जिससे एक पार्टी को बड़ा लाभ हो सकता है। बताते चलें दिल्ली की सियासत में आप पार्टी , कांग्रेस और भाजपा के बीच मुकाबला चलता है।लेकिन ध्रुवीकरण और बुलडोजर वाली राजनीति में अलग तरह की राजनीति होगी।
कांग्रेस पार्टी के वरिष्ठ नेता ने बताया कि दिल्ली एक छोटा राज्य है कुछ शक्तियां और अधिकार राज्य सरकार के पास है तो कुछ केन्द्र सरकार के पास है। ऐसे में उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश की तरह राजनीति होगी तो निश्चित तौर पर दिल्ली की सियासत में बड़ा बदलाव हो सकता है। साथ ही बवाल भी हो सकता है।
क्योंकि एक दल को बुलडोजर और ध्रुवीकरण करने से लाभ है तो दूसरे दल को फ्री की राजनीति करने का लाभ है। ऐसे में दिल्ली में की सियासत में विकास की बात तो दूर की होगी। साथ  दिल्ली में जातीय , ध्रुवीकरण और बुलडोजर की राजनीति हावी होगी। 
खैर, दिल्ली नगर निगम के चुनाव को लेकर अब 15 अगस्त के बाद से राजनीति तेज हो सकती है। लोगों का कहना है कि तब तक दिल्ली में कोरोना सहित अन्य मुद्दो पर स्थिति स्पष्ट हो जायेगी।क्योंकि कोरोना को लेकर जो चर्चा है कि जून -जुलाई में कोरोना फिर से आ सकता है। बताते चलें सभी राजनीतिक दलों के संभावित प्रत्याशियों ने अभी से अपने क्षेत्र का सघन संपर्क अभियान तेज कर दिया है।   

प्रशांत किशोर पार्टी का संचालन तो सही कर सकते है, क्या पार्टी चला सकते है ?

प्रशांत किशोर ने भले ही अलग से पार्टी बनाने की घोषणा न की हो पर सियासी हलचल तेज हो गयी है। क्योंकि प्रशांत किशोर का कहना है कि देश की सत्ता का अलर मालिक कोई है तो वो हां देश की जनता है। इससे साफ मैसेज है कि प्रशांत किशोर जनता में जाकर अपनी पार्टी बनाने का ऐलान कर सकते है।
बताते चलें प्रशांत किशोर ने हाल में कांग्रेस पार्टी से बात न बनने पर उन्होंने ये मैसेज दिया है। जानकार का कहना है कि अगर प्रशांत  किशोर अपनी अलग से पार्टी बनाते है तो ये आने वाला वक्त ही तय करेगा कि वह राजनीति में कितने सफल होते है। लेकिन इतना जरूर है कि पार्टी का संचालन और प्रबंधन सही तरीके से कर सकते है।
बिहार के ही रहने वाले व राजनीतिक जानकार विनोद कुमार का कहना है कि किसी स्थापित पार्टी को चुनाव में जीत दिलाना अलग होता है। वहीं अपनी पार्टी को स्वयं से अलग खड़ा करके पार्टी में सभी प्रत्याशियों को जीत दिलाना एक अलग बात है। वैसे उन्होंने भाजपा, कांग्रेस, सपा और तृणमूल कांग्रेस पार्टी सहित आप पार्टी में अहम भूमिका निभाई है।
जानकार का कहना है कि बिहार से प्रशांत किशोर राजनीति शुरू कर सकते है।प्रशांत किशोर को लेकर अन्य सियासी दलों का मानना है कि एक दौर था जब आप पार्टी को जनता ने मौका दिया है। और आप पार्टी की सरकार तक बनवा दी है। लेकिन अब सियासी समीकरण बदले हुए है। लोगों का मिजाज भी बदला है। ऐसे में प्रशांत किशोर कितने सफल राजनीतिज्ञ होते है ये आने वाला समय ही बताएंगा।

राजस्थान के जोधपुर में ईद की नमाज के बाद दो गुटों में हुई झड़प, इलाके में इंटरनेट सेवाएं सस्पेंड

राजस्थान के जोधपुर में ईद से पहले यानी सोमवार को पथराव की घटना हुई, जिसके चलते इलाके में प्रशासन ने इंटरनेट सेवाओं को सस्पेंड कर दिया हैं। सूत्रों के अनुसार जालोरी गेट इलाके में यह झड़प दो गुटों के बीच झंडा फहराने को लेकर हुई। विवाद के चलते ईद की नमाज पुलिस सुरक्षा में अदा की गई।

जानकारी के अनुसार जोधपुर में परशुराम जयंती का तीन दिवसीय उत्सव चल रहा है जिसमें धार्मिक झंडे भी लगाए गए है। इस विवाद ने संघर्ष का रूप तब लिया जब धार्मिक झंडे को लेकर दोनों गुटों के बीच झड़प ने हिंसा का रूप ले लिया।

तनावपूर्ण स्थिति के चलते स्थानीय इलाके में प्रदर्शनकारियों ने पुलिसकर्मियों पर भी पथराव किए है। राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने घटना की कड़ी निंदा की है साथ ही लोगों को शांति बनाए रखने को कहा है।

अशोक गहलोत ने ट्वीट कर कहा कि, “जोधपुर, मारवाड़ की प्रेम एवं भाईचारे की परंपरा का सम्मान करते हुए मैं सभी पक्षों से मार्मिक अपील करता हूं, कि शांति बनाए रखें एवं कानून-व्यवस्था बनाने में सहयोग करें।“

राघव चड्डा सहित तीन सदस्यों ने राज्य सभा सदस्य की शपथ ली

पंजाब से राज्य सभा के लिए हाल में निर्वाचित आम आदमी पार्टी के नेता राघव चड्ढा सहित तीन सदस्यों ने शपथ ली। उनके अलावा उनकी ही पार्टी के संजीव अरोड़ा और डॉ. अशोक कुमार मित्तल शामिल हैं।

तीनों नवनिर्वाचित सदस्यों को उप राष्ट्रपति और राज्यसभा के सभापति एम वेंकैया नायडू ने शपथ दिलाई। संजीव अरोड़ा, राघव चड्ढा और शोक कुमार मित्तल पंजाब में आप की सरकार बनने के बाद खाली हुई सीटों से राज्य सभा के लिए चुने गए थे।

राघव चड्डा को आप का तेजतर्रार नेता माना जाता है और हाल के विधानसभा चुनाव में वे पंजाब के आप प्रभारी थे। उनके राजनीतिक करियर की शुरुआत 2012 में अरविंद केजरीवाल से मुलाकात के बाद शुरू हुई और साल 2012 में राघव पार्टी की ड्राफ्टिंग कमेटी का हिस्सा बने। राघव को सार्वजनिक मंचों पर पार्टी का पक्ष रखने के लिए जाना जाता है। वह पार्टी के राष्ट्रीय कोषाध्यक्ष भी रह चुके हैं।

बेअंत हत्या के दोषी राजोआना की दया याचिका पर 2 माह में फैसला करे केंद्र : सुप्रीम कोर्ट

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या के मामले में सोमवार को सर्वोच्च न्यायालय ने केंद्र सरकार से दोषी बलवंत सिंह राजोआना की दया याचिका पर 2 महीने के भीतर फैसला करने का आदेश दिया है। सर्वोच्च अदालत ने कहा कि  राजोआना की लंबित याचिका पर फैसला लेना लंबित अन्य दोषियों की अपील के
रास्ते में नहीं आएगा। बता दें राजोआना 31 अगस्त, 1995 को पंजाब सिविल सचिवालय के बाहर एक विस्फोट में उस समय पंजाब के मुख्यमंत्री बेअंत सिंह की हत्या में शामिल होने के दोषी हैं।

इस विस्फोट में बेअंत सिंह के साथ 16 अन्य लोगों की मौत हो गई थी। इस मामले में जुलाई 2007 में एक विशेष अदालत ने राजोआना और उसके सहयोगी जगतार सिंह हवारा को मौत की सजा सुनाई थी।

पंजाब के पूर्व मुख्यमंत्री की हत्या के दोषी और 25 साल से जेल में बंद राजोआना की सजा माफी पर केंद्र सरकार अभी तक रुख साफ नहीं कर पाई है। राजोआना ने दो साल पहले सर्वोच्च न्यायालय में रहम की याचिका दायर की थी। केंद्र ने अभी तक इसपर स्पष्ट जवाब नहीं दिया है।

सुप्रीम कोर्ट ने केंद्र को 30 अप्रैल तक निर्णय लेने का आदेश दिया था और साथ ही यह भी कहा था कि अगर इसके बाद भी रुख साफ नहीं किया तो गृह सचिव को कोर्ट के सामने व्यक्तिगत तौर पर हाजिर होना होगा। कोर्ट ने कहा था कि दोषी की याचिका पर लंबे समय से केंद्र की ओर से कोई जवाब नहीं दिया गया है।

जस्टिस यूयू ललित की अध्यक्षता वाली तीन जजों की पीठ ने नाराजगी जताते हुए कहा कि इस मामले में बहुत समय बीत जाने के बाद भी कुछ नहीं किया गया है। केंद्र सरकार की ओर से उनके वकील के पास कोई साफ निर्देश नहीं है।

पीठ ने कहा – ‘हम निर्देश देते हैं कि इस मामले की जांच एजेंसी सीबीआई और भारत सरकार ‘दो हफ्ते के भीतर सजा को लेकर प्रस्ताव या आपत्ति दाखिल करें।’

मोदी सरकार के आठ साल तेज अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का उदाहरण: राहुल

महंगाई, कोयला संकट, बेरोजगारी के बढ़ते आंकड़ों के बीच कांग्रेस नेता राहुल गांधी ने सोमवार को कहा कि बेरोजगारी, ऊर्जा संकट, किसान संकट और महंगाई देश की बड़ी और खतरनाक समस्या बन गए हैं। उन्होंने कहा कि केंद्र की नरेंद्र मोदी सरकार के तहत पिछले आठ साल में भारत दुनिया की सबसे तेज गति से बढ़ रही अर्थव्यवस्था को बर्बाद करने का एक केस स्टडी बन गया है।

एक ट्वीट में कांग्रेस नेता ने कहा – ‘बिजली संकट, नौकरियों का संकट, किसान संकट, मुद्रास्फीति संकट। पीएम मोदी का 8 साल का कुशासन इस बात का एक केस स्टडी है कि दुनिया की सबसे तेजी से बढ़ती अर्थव्यवस्थाओं में से एक को कैसे बर्बाद किया जाए।’

सीएमआईई की आज ही बेरोजगारी बढ़ने को लेकर आई रिपोर्ट के बीच राहुल गांधी का यह ट्वीट आया है। इस रिपोर्ट में कहा गया है कि अप्रैल महीने में देश में बेरोजगारी दर बढ़कर 7.63 फीसदी पहुँच गयी है।

हाल में पेट्रोलियम पदार्थों की कीमतों में बढ़ोतरी के बाद कांग्रेस सहित पूरा विपक्ष मोदी सरकार के खिलाफ प्रदर्शन कर रहा है। संसद के सत्र में भी कांग्रेस ने इन मुद्दों को लेकर खूब हंगामा किया था।

अनैतिक ‘नाता’

वर्षों से ‘तहलका’ ने अपनी खोजी पत्रकारिता और विभिन्न स्टिंग ऑपरेशंस के लिए नाम कमाया है। स्टिंग के साथ पत्रिका का सिलसिला क्रिकेट मैच फिक्सिंग घोटाले का पर्दाफ़ाश करने के साथ शुरू हुआ और फिर बड़ा अंडरकवर ‘ऑपरेशन वेस्ट’ ऐंड ‘सामना’ आया, जिसने रक्षा सौदों में भ्रष्टाचार की चूलें हिला दीं। इससे एक राष्ट्रीय बहस शुरू हुई और तत्कालीन रक्षा मंत्री तथा सत्तारूढ़ गठबंधन के वरिष्ठ सदस्यों को इस्तीफ़े देने के लिए मजबूर होना पड़ा। ‘तहलका’ के उठाये एक अन्य मामले में विशेष सीबीआई अदालत ने एक मेजर जनरल को दोषी ठहराया, जो तब तक सेवानिवृत्त हो गये थे। ‘तहलका’ के लिए यह जनहित की पत्रकारिता थी, जिसने इसे दो बार पत्रकारिता में उत्कृष्टता के लिए अंतरराष्ट्रीय प्रेस संस्थान (आईपीआई) से अवॉर्ड दिलाया। ‘तहलका’ द्वारा बाद के वर्षों में कई अन्य अहम् स्टिंग ऑपरेशन किये गये, जिनसे यह सुनिश्चित हुआ कि पत्रकारिता के लिए यह एक महत्त्वपूर्ण मोड़ था।

‘तहलका’ द्वारा निर्धारित उच्च आदर्शों को ध्यान में रखते हुए हम पत्रिका के इस अंक में अपनी कवर स्टोरी ‘नाता प्रथा या लिव-इन रिलेशनशिप?’ के साथ एक और ख़ुलासा कर रहे हैं। कई लोगों के लिए अज्ञात यह पुरानी प्रथा अभी भी राजस्थान, मध्य प्रदेश और गुजरात के आदिवासी क्षेत्रों में प्रचलित है। यह प्रथा शुरू में महिलाओं, ज़्यादातर विधवाओं और बाल विवाह की शिकार महिलाओं को पुनर्विवाह के लिए सशक्त रास्ता खोलती थी। लेकिन अब यह दोषपूर्ण हो गयी है। अब यह देखा गया है कि पुरुष विवाहेत्तर सम्बन्धों के लिए इस प्रथा का एक लाइसेंस के रूप में दुरुपयोग कर रहे हैं। प्रथा को लेकर ‘तहलका’ की खोज से ज़ाहिर होता है कि इसके बहाने असहाय महिलाओं को बेचा जाता है; नीलाम किया जाता है और उनके पतियों द्वारा नयी महिलाओं को ख़रीदने के लिए पैसे की लूट होती है।

विवाह को हमेशा से ही पवित्र बंधन माना जाता रहा है। जैसा कि शब्द ‘नाता’ सिर्फ़ एक रिश्ते का संकेत देता है। इस प्रथा के तहत भावी पति को किसी भी शादी की रस्मों को करने की आवश्यकता नहीं होती है। केवल पुरुष को उस महिला को कुछ राशि का भुगतान करने की आवश्यकता होती है, जिसके साथ वह नाता करना चाहता है। चूँकि यह एक क़ानूनी विवाह नहीं है, इसलिए नाता प्रथा के तहत महिलाएँ न तो भरण-पोषण का दावा कर सकती हैं और न ही इस व्यवस्था से पैदा हुए उनके या उनके बच्चों के पास विरासत का कोई अधिकार रहता है। इस प्रथा को आधुनिक समय की ‘लिव-इन रिलेशनशिप’ कहा जा सकता है। यानी बिना किसी अधिकार के रिश्ता। दरअसल नाता प्रथा के तहत इस व्यवस्था से पैदा हुए हालात में महिलाओं और बच्चों का जीवन ज़्यादातर बर्बाद होकर बिखर जाता है।

‘तहलका’ ने नाता प्रथा की $खामियाँ सामने लाकर अपना फ़र्ज़ अदा कर दिया है; और अब यह केंद्र और राज्यों पर निर्भर है कि वे इस प्रथा के तहत पीडि़त महिलाओं और इस व्यवस्था से प्रताडि़त हो रहे बच्चों की मदद करें। शायद इस प्रथा का मूल कारण ग़रीबी, अशिक्षा और अधिकारों के बारे में जागरूकता की कमी है। इन असहाय महिलाओं और बच्चों को उनके मौलिक अधिकारों की आवश्यकता है; जैसा कि संविधान के अनुच्छेद-14 के तहत निहित है, जिसमें समानता का अधिकार, शोषण के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने का अधिकार, जीवन और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का अधिकार और घरेलू हिंसा से महिलाओं का संरक्षण अधिनियमित है। क्या कोई इसे सुनेगा?

 

रूस-यूक्रेन युद्ध के बीच मैक्रों फिर बने राष्ट्रपति

अब जून के संसदीय चुनाव में बड़ी राजनीतिक लड़ाई का करेंगे सामना

फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों ने राष्ट्रपति चुनाव में अंतत: अपनी धुर दक्षिणपंथी प्रतिद्वंद्वी, ले पेन को हरा दिया। अमेरिका के नेतृत्व वाले नाटो और यूरोपीय संघ को निश्चित ही इस नतीजे से राहत मिली है कि यूक्रेन को उनका सैन्य समर्थन एक क़रीबी सहयोगी (फ्रांस) से बिना बाधा जारी रहेगा। इसी तरह यह नतीजे मुसलमानों के लिए, जो फ्रांस में कुल मतदाताओं का लगभग आठ फ़ीसदी हैं; की विरोधी ताक़तों के ध्रुवीकरण को कम-से-कम कुछ समय के लिए या संसदीय चुनाव तक रोकने में सफल रहे हैं।

जैसा कि अक्सर कहा जाता है कि लड़ाई जीती जाती है। लेकिन युद्ध जीतना एक लम्बी क़वायद है। मैक्रों के लिए भी यही सच है। राष्ट्रपति के रूप में दूसरा कार्यकाल जीतने के लिए उनका स्वागत किया जा रहा है। लेकिन वह अपने सामने की चुनौतियों को जानते हैं। जीन मेरी ले पेन की अदम्य साहस वाली बेटी ले पेन, अपने पिता के राजनीतिक एजेंडे को उत्साहपूर्वक आगे बढ़ा रही हैं। उन्होंने क्रमश: सन् 2017 और इस साल 2022 में मैक्रों के ख़िलाफ़ दो बार लड़ाई लड़ी। हो सकता है कि वह भविष्य में चुनाव नहीं लड़ सकें। लेकिन इस साल जून में होने वाले आगामी संसदीय चुनावों में अपनी विचारधारा को और विस्तार दे सकती हैं। सन् 2017 के नेशनल असेंबली चुनावों में मैक्रों की पार्टी ला रिपब्लिक एन. मार्चे 577-सदस्यीय सदन में 308 सदस्यों के साथ सत्ता में आयी थी। मैक्रों ने सन् 2017 के चुनाव के दौरान आनुपातिक प्रतिनिधि प्रणाली शुरू करने का वादा किया था; लेकिन उन्होंने इसे लागू करने के लिए क़दम नहीं उठाये। हाल में हुए राष्ट्रपति चुनाव के दौरान वह मुस्लिम मतदाताओं को जीतने के लिए काफ़ी आगे तक गये और बार-बार चेतावनी दी थी कि यदि उनकी प्रतिद्वंद्वी जीत गयीं, तो वह सार्वजनिक रूप से बुर्क़ा (मुस्लिम हेड स्कार्फ) पहनने पर प्रतिबंध लगा देंगी।

जून के चुनाव के दौरान साम्प्रदायिक ध्रुवीकरण तेज़ हो सकता है। इस बीच धुर वामपंथी तीसरे स्थान पर रहे, उम्मीदवार जीन-ल्यूक मेलेनचॉन ने अपने मतदाताओं से आगामी संसदीय चुनावों में अपने वोटों को मज़बूत करने की अपील की है। मेलेनचॉन ने कहा कि मरीन ले पेन की हार हमारे लोगों की एकता के लिए बहुत अच्छी ख़बर है और आगामी संसदीय चुनावों में इमैनुएल मैक्रों की पार्टी के ख़िलाफ़ लड़ाई का नेतृत्व करने की क़सम खायी। इस तरह देखा जाए, तो अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों द्वारा राजनीतिक युद्ध लड़ा जा रहा है, ताकि फ्रांस को अपने जाल में ही रखा जाए। मैक्रों की जीत ने शायद रूस-यूक्रेन युद्ध के समाधान के साथ-साथ यूरोप में मुसलमानों के ख़िलाफ़ भविष्य में हिंसा के किसी भी विस्फोट को शान्त करने के लिए थोड़ा स्थान दिया है। मैक्रों की राजनीतिक लड़ाई उनकी जीत के साथ समाप्त नहीं हुई है। लेकिन संसदीय चुनाव में एक अनुकूल प्रधानमंत्री की जीत सुनिश्चित करने के लिए उन्हें अपने राजनीतिक अभियान को तेज़ करना होगा। यह देखा जाना बा$की है कि संसदीय चुनावों के दौरान जर्मन चांसलर ओलाफ स्कोल्ज़, पुर्तगाली प्रधानमंत्री एंटोनियो कोस्टा और स्पेनिश प्रीमियर पेड्रो सांचेज़ की पहले की सलाह मतदाताओं को प्रभावित करेगी या नहीं? उन्होंने ले मोंडे दैनिक में संयुक्त रूप से लिखा था कि हमारे लिए दूसरों की तरह यह चुनाव भर नहीं हैं। उन्होंने आगाह किया था कि फ्रांस को एक लोकतांत्रिक उम्मीदवार के बीच एक विकल्प का सामना करना पड़ रहा है। याद रहे कि ले पेन ने सन् 2017 में क्रेमलिन में पुतिन से मुलाक़ात की थी और उन्होंने सन् 2014 में रूस के क्रीमिया पर क़ब्ज़े को स्वीकार कर लिया था; जबकि उनकी पार्टी ने रूसी-चेक बैंक से क़र्ज़ भी लिया था। दिलचस्प बात यह है कि रूसी विरोधी रुख़ अपनाने के बावजूद अधिकांश यूरोपीय देश संघर्ष के शीघ्र समाधान के लिए उत्सुक हैं। वे नहीं चाहते कि यूरोप के पूर्वी हिस्से पर चल रहा युद्ध अब और जारी रहे। वर्तमान संघर्ष उन्हें द्वितीय विश्व युद्ध की याद दिलाता है। बढ़ती मुद्रास्फीति के साथ वे पहले से ही अपनी अर्थ-व्यवस्था पर रूस-यूक्रेन संघर्ष के प्रभाव का सामना कर रहे हैं। हालाँकि फ्रांस में मतदाता विभाजित प्रतीत होता है, जिसमें पुराने फ्रांसीसी मतदाता, विशेष रूप से 70 साल से ऊपर के मतदाता अधिक उदार हैं, जबकि युवा मतदाता तेज़ी से बायें या दायें की ओर आकर्षित हो रहे हैं।

नतीजों के बाद 24 अप्रैल की रात मैक्रों की विजय रैली यूरोपीय संघ के गान ओड टू जॉय की आवाज़ से गूँज उठी थी, जहाँ उन्होंने लोगों को आश्वासन दिया था कि वे अब एक $खेमे के उम्मीदवार नहीं हैं, बल्कि हम सब के राष्ट्रपति हैं। यूरोपीय आयोग के अध्यक्ष उर्सुला वॉन डेर लेयेन ने भी उनका स्वागत किया। डेर ने फ्रेंच में ट्वीट किया- ‘एक साथ हम फ्रांस और यूरोप को आगे बढ़ाएँगे।’

मैक्रों की जीत के बावजूद यह स्पष्ट नहीं है कि आम लोगों ने तीन यूरोपीय शक्तियों, जर्मनी, इटली और पुर्तगाल की सलाह कैसे ली है कि उन्हें अति-दक्षिणपंथी, मरीन ले पेन की हार सुनिश्चित करनी चाहिए। यह पहली बार है कि यूरोपीय संघ के भीतर ऐसी अपील जारी की गयी। हालाँकि यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि मतदाता अपने घरेलू मामलों में इस तरह के स्पष्ट हस्तक्षेप का जवाब भविष्य के चुनाव में कैसे देंगे? यह मुद्दा सामने आ सकता है और संसदीय चुनावों के दौरान मैक्रों के राजनीतिक प्रतिद्वंद्वी इसे एक मुद्दे के रूप में उठा सकते हैं।

 

चुनाव और मुसलमान

एक माध्यमिक विद्यालय के शिक्षक सैमुअल पेटी की हत्या ने अधिकारियों को फ्रांस में इस्लामी कट्टरपंथियों की बड़ी उपस्थिति के बारे में चिन्तित कर दिया था। ऐसा माना जाता है कि पैटी ने अपने शिष्यों को पैगंबर मुहम्मद के विवादास्पद कार्टून दिखाये थे। इसने मॉस्को में पैदा हुए एक मुस्लिम युवक 18 वर्षीय चेचन अब्दुलाख के मन में ज़हर भर दिया, जो हत्या स्थल से क़रीब 100 किलोमीटर दूर इव्रेक्स के नॉर्मंडी शहर में रह रहा था। उनका मिस्टर पेटी या उनके स्कूल से कोई सम्बन्ध नहीं था। ऐसा कहा जाता है कि दो मुस्लिम पादरियों ने शिक्षक के ख़िलाफ़ फ़तवा जारी किया था। फ्रांस पश्चिमी यूरोप की सबसे बड़ी मुस्लिम आबादी का देश है और कई मुसलमानों को लगता है कि राष्ट्रपति चुनाव अभियान ने उनके भरोसे को ग़लत तरीक़े से कलंकित किया है। धुर दक्षिणपंथी उम्मीदवार मरीन ले पेन, जब पहले दौर के मतदान में मैक्रों से पीछे चल रही थीं; ने कहा था कि वह सार्वजनिक रूप से हेडस्कार्फ और प्रतिबंध का उल्लंघन करने वाली महिलाओं पर प्रतिबंध लगा देंगी। मैक्रों की मुसलमानों के ख़िलाफ़ ऐसी कोई योजना नहीं थी। हालाँकि उनकी सरकार ने भी कई मस्जिदों और इस्लामी समूहों को बन्द करने का आदेश उनके पिछले सत्ता काल में दिया है, जिनके बारे में माना जाता है कि वे कट्टरपंथी इस्लामी विचारों को बढ़ावा देते हैं। इसी 10 अप्रैल को पहले दौर में मुस्लिम मतदाताओं के बीच

किसी भी उम्मीदवार ने अच्छा प्रदर्शन नहीं किया। इसके बजाय लगभग 70 फ़ीसदी ने तीसरे स्थान पर रहने वाले जीन-ल्यूक मेलेनचॉन का समर्थन किया।

कैसे खड़ी हो कांग्रेस?

पार्टी में चिन्तन जारी, कांग्रेस में नहीं गयेप्रशांत

भीतरी दुविधाओं और भाजपा के गाँधी परिवार के ख़िलाफ़ लगातार हमलों के बीच फँसी कांग्रेस की चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर (पी.के.) से भी बात नहीं बन पायी। मसला 2024 के लोकसभा चुनाव और उससे पहले राज्यों में पार्टी को खड़ा करने का था। प्रशांत किशोर सीधे अध्यक्ष सोनिया गाँधी को रिपोर्ट करते हुए हर फ़ैसले में हस्तक्षेप चाहते थे; लेकिन पार्टी के वरिष्ठ नेताओं को यह मंज़ूर नहीं था। प्रशांत किशोर कांग्रेस में शामिल नहीं होंगे। लेकिन इसके बावजूद पी.के. कांग्रेस को एक तटस्थ रणनीतिकार के रूप में सुझाव दे सकते हैं या पार्टी उनकी सेवाएँ ले सकती है। हालाँकि इसका पता भविष्य में ही चलेगा। पार्टी में कई वरिष्ठ और युवा नेता इस बात पर ज़ोर दे रहे हैं कि कांग्रेस को राज्यों में खड़ा करना पड़ेगा, जबकि प्रशांत लोकसभा चुनाव के लिए राज्यों के बड़े क्षत्रपों ममता बनर्जी, चंद्रशेखर राव, चंद्रबाबू नायडू जैसे नेताओं से मिलकर पार्टी की रणनीति बनाने के हक़ में थे। कांग्रेस को लगता था इससे राज्यों में उसका अपना बचा-खुचा संगठन और आधार भी ख़त्म हो जाएगा। पी.के. के अलग होने के बाद कांग्रेस ने अब अपने तौर पर अगले विधानसभा चुनावों और 2024 के चुनावों के लिए तैयार करने की कोशिश संगठन में फेरबदल करके शुरू कर दी है। राज्यों में नये अध्यक्ष बनाये जा रहे हैं। मई में कांग्रेस का चिन्तन शिविर हो रहा है, जिसमें पार्टी को मज़बूत करने पर गहन चर्चा होगी।

कांग्रेस में शामिल होने और पार्टी की 2024 के लोकसभा चुनाव की रणनीति बुनने का ज़िम्मा प्रशांत किशोर की आईपैक कम्पनी को मिलने की ख़त्मों के बाद जब मीडिया में यह कयास लग रहे थे कि पी.के. को क्या पद मिलेगा? तभी यह बात सामने आयी कि प्रशांत तेलंगाना के मुख्यमंत्री के. चंद्रशेखर राव के साथ भी चुनाव पर बात कर रहे हैं। राव वह नेता हैं, जो हाल में काफ़ी सक्रिय हुए हैं और राष्ट्रीय राजनीति में उन्होंने दिलचस्पी दिखायी है। हालाँकि वह कांग्रेस को किसी भी सम्भावित तीसरे मोर्चे का ज़रूरी हिस्सा बताते रहे हैं; लेकिन यह भी ख़त्में रही हैं कि उनकी अपनी राजनीतिक महत्त्वाकांक्षाएँ हैं। हाल में जब राहुल गाँधी तेलंगाना के दौरे पर गये थे, तो उन्होंने राव कुछ नीतियों की आलोचना की थी। लेकिन इसके बावजूद पी.के. कांग्रेस को एक तटस्थ रणनीतिकार के रूप में सुझाव दे सकते हैं या पार्टी उनकी सेवाएँ ले सकती है।

क्या अब यह माना जाए कि प्रशांत किशोर के बिना कांग्रेस का काम नहीं चलेगा? कांग्रेस से बाहर कुछ लोगों ने ऐसी राय ज़ाहिर की है। लेकिन शायद यह सच नहीं है। कांग्रेस सत्ता में लम्बे समय तक और सन् 2004 से सन् 2014 तक बिना प्रशांत किशोर के ही रही। हाँ, प्रशांत किशोर ने उनके और कांग्रेस के बीच किसी गठबंधन के न होने के बाद जाते-जाते एक बात सच कही कि ‘कांग्रेस को आज एक अदद अध्यक्ष की ज़रूरत है।’ उनका यह भी सुझाव था कि पार्टी अध्यक्ष और प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार अलग-अलग हों। अर्थात् पार्टी का प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार यदि गाँधी परिवार से हो, तो पार्टी अध्यक्ष ग़ैर-गाँधी हो।

शुरू में प्रशांत किशोर और कांग्रेस में काफ़ी चीज़ें मंज़ूरी की तरफ़ बढ़ती दिख रही थीं। लेकिन दो मसलों पर पेच ऐसा फँसा कि बातचीत ही टूट गयी। पहला बड़ा मसला था कि प्रशांत किशोर ने अपने सुझावों में (जिसकी स्लाइड्स उन्होंने पार्टी को दी थीं) प्रियंका गाँधी को पार्टी अध्यक्ष प्रियंका गाँधी को बनाने का सुझाव दिया था और प्रधानमंत्री का किसी और को बनाने का। इसके उलट कांग्रेस हर हालत में राहुल गाँधी को अध्यक्ष बनाना चाहती है। यह भी कहा जाता है कि प्रशांत कांग्रेस को बिहार (राजद आदि), महाराष्ट्र (एनसीपी, शिवसेना आदि) और जम्मू-कश्मीर (नेशनल कॉन्फ्रेंस आदि) जैसे राज्यों में वर्तमान सहयोगियों से अलहदा होने का सुझाव दे रहे थे।

तमाम बातों के बीच प्रशांत किशोर के कांग्रेस से अलग होने को लेकर कांग्रेस के मुख्य प्रवक्ता रणदीप सुरजेवाला ने कहा- ‘प्रशांत किशोर के साथ बैठक और चर्चा के बाद कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने लोकसभा चुनाव 2024 को फोकस करते हुए एक समिति (ईएजी) का गठन किया था, जिसमें चुनावी रणनीतिकार प्रशांत किशोर को शामिल होने को कहा था। लेकिन किशोर ने ऑफर को ठुकराते हुए कांग्रेस में शामिल होने से इन्कार कर दिया। हम उनके सुझावों और प्रयास के लिए उनकी सराहना करते हैं।’

प्रशांत किशोर ने इसे लेकर कहा- ‘मैंने ईएजी के हिस्से के रूप में पार्टी में शामिल होने और चुनावों की ज़िम्मेदारी लेने के कांग्रेस के उदार प्रस्ताव को अस्वीकार कर दिया। मेरी विनम्र राय में परिवर्तनकारी सुधारों के माध्यम से गहरी जड़ें जमाने वाली संरचनात्मक समस्याओं को ठीक करने के लिए पार्टी को मुझसे अधिक नेतृत्व और सामूहिक इच्छाशक्ति की ज़रूरत है।’

हाल में उनके कांग्रेस में शामिल होने को लेकर दो बार चर्चा हुई। हालाँकि दोनों बार प्रशांत कांग्रेस में नहीं जा पाये।

‘तहलका’ के जानकारी के मुताबिक, कांग्रेस के भीतर वरिष्ठ नेताओं का एक ऐसा मज़बूत वर्ग है, जो प्रशांत की सब कुछ उनके ज़रिये किये जाने वाली माँग के कतई समर्थन में नहीं था। यही नहीं, इनमें से कुछ वरिष्ठ नेताओं का नेतृत्व को सुझाव था कि पार्टी की सारी रणनीति एक ऐसे व्यक्ति के सामने उजागर नहीं की जा सकती, जो दूसरे विरोधी दलों के लिए भी काम करता हो। यही कारण रहा कि पी.के. की इस बात पर पार्टी में सहमति नहीं बन पायी कि चुनाव की सारी रणनीति उनके ज़रिये बुनी जाए।

 कांग्रेस के पास विकल्प

कांग्रेस देश की सबसे पुरानी राजनीतिक पार्टी है। आज भी उसके पास रणनीतिकार वरिष्ठ नेताओं और ऊर्जावान युवा नेताओं की कमी नहीं। यह रिपोर्ट लिखे जाने के समय पार्टी नेतृत्व काफ़ी सक्रिय दिख रहा है और उसने राज्यों में नया नेतृत्व सामने लाने के लिए अध्यक्षों और टीमों की नियुक्ति की है। शायद उसने अपने स्तर पर ख़ुद को हार की धूल झाडक़र उठाने की तैयारी कर ली है।

चुनाव हारने के बाद पंजाब और इस साल चुनाव में जाने वाले राज्य हिमाचल प्रदेश और पड़ोसी हरियाणा में अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने नये अध्यक्षों और टीम की नियुक्तियाँ की हैं। पंजाब में विधानसभा चुनाव में झटका देने वाली हार के बाद अमरिंदर सिंह राजा वारिंग, हिमाचल में पूर्व मुख्यमंत्री और क़द्दावर नेता रहे दिवंगत राजा वीरभद्र सिंह की तीसरी बार सांसद बनी पत्नी प्रतिभा सिंह और हरियाणा में पूर्व मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के विश्वस्त उदय भान को अध्यक्ष बनाया गया है।

पार्टी के संगठन चुनाव से पहले, जिसमें पार्टी अध्यक्ष का चुनाव होना है; कांग्रेस की यह बड़ी क़वायद है। कांग्रेस में हाल के महीनों में एक नयी परम्परा शुरू हुई है। पंजाब में उसने अध्यक्ष के अलावा कार्यकारी अध्यक्ष भी बनाये थे, जिसके बाद हिमाचल और हरियाणा में भी यही करते हुए चार-चार कार्यकारी अध्यक्ष बनाये हैं। शायद ऐसा करने के पीछे उसका मक़सद राज्यों में सभी क्षेत्रों में नेताओं को प्रतिनिधित्व देकर शान्त करना हो; लेकिन इससे यह भी होगा कि एक से अधिक शक्ति केंद्र स्थापित हो जाएँगे। वैसे कई नेता इस विचार को सही ठहराते हैं। उनका कहना है कि इससे संगठन मज़बूत होगा; क्योंकि इन नेताओं को ज़िम्मेदारी के अहसास के कारण काम करने की प्रेरणा मिलेगी।

कांग्रेस में अब अन्य राज्यों में बड़े स्तर पर फेरबदल की तैयारी कर ली गयी है। यही नहीं, दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं की लम्बे समय के बाद 10 जनपथ में वापसी हुई है। दिग्विजय सिंह सन् 2017 के बाद राजनीतिक बियाबान में थे। उनके अलावा वरिष्ठ नेता और राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत, अम्बिका सोनी, जयराम रमेश, मुकुल वासनिक और पी. चिदंबरम ने सोनिया गाँधी के साथ लम्बी बैठकें करके संगठन पर चर्चा की। वरिष्ठ नेता $गुलाम नबी आज़ाद भी नयी भूमिका में दिख सकते हैं। यह तय है कि पार्टी के वरिष्ठ नेता, जो फ़िलहाल अलग-थलग पड़े हुए थे; कांग्रेस की राष्ट्रीय राजनीति में सक्रिय किये जा रहे हैं। कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गाँधी अभी से 2024 के राष्ट्रीय चुनाव की तैयारियों में दिख रही हैं। प्रशांत किशोर के सुझाव के बाद सोनिया गाँधी ने पार्टी के वरिष्ठ नेताओं के साथ बैठक करके एक ‘एम्‍पावर्ड एक्‍शन ग्रुप 2024’ बनाया है। यही ग्रुप 2024 के लोकसभा चुनावों को लेकर रणनीति बनाने का काम करेगा। पार्टी की तरफ़ से प्रशांत को भी इसी ग्रुप का हिस्सा बनने का ऑफर था; लेकिन उन्होंने ऐसा करने से इन्कार कर दिया।

कांग्रेस नेतृत्व ने हाल में यह भी संकेत दिये हैं कि वह पार्टी से बाहर गये नेताओं को वापस लेने की इच्छुक है। इसके अलावा पार्टी नेतृत्व नेताओं को बाहर जाने से रोकने की क़वायद करने की भी सोच रहा है। हाल में पार्टी की अनुशासन समिति ने दो बड़े नेताओं पंजाब के पूर्व अध्यक्ष सुनील जाखड़ और पूर्व केंद्रीय मंत्री के.वी. थॉमस के ख़िलाफ़ कड़ी कार्रवाई की सिफ़ारिश की थी। हालाँकि पार्टी अध्यक्ष सोनिया गाँधी ने उन्हें पार्टी से बाहर करने की सिफ़ारिश स्वीकार न करते हुए उन्हें सिर्फ़ वर्तमान पदों से बाहर किया। ज़ाहिर है सोनिया नरम रवैया अपनाने की रणनीति पर काम कर रही हैं।

 

चिन्तन शिविर में होंगे कई फ़ैसले

कांग्रेस 13-15 मई तक राजस्थान के उदयपुर में नवसंकल्प चिन्तन शिविर आयोजित कर रही है। इस शिविर में 400 प्रतिनिधि भाग लेंगे, जिनमें वरिष्ठ नेता, कार्यकर्ता आदि होंगे। देश भर के पार्टी नेता इसमें आगे की रणनीति पर चर्चा करेंगे। इसका फ़ैसला करने के लिए जो नेता 10 जनपथ पर हुई लम्बी बैठक में जुटे थे, उनमें के.सी. वेणुगोपाल, दिग्विजय सिंह, अंबिका सोनी, सुरजेवाला, जयराम रमेश और प्रियंका गाँधी शामिल हैं। राहुल गाँधी इसमें शामिल नहीं हुए।

चिन्तन शिविर में पार्टी के भविष्य के एजेंडे का ख़ुलासा हो जाएगा। चिन्तन शिविर में पूरे देश के कांग्रेस नेता जुटेंगे। पार्टी के तमाम सांसद, विधायक, प्रदेश प्रभारी, प्रदेश महासचिव, प्रदेश अध्यक्ष और विधायक दल के नेता शामिल होने के चलते इसे कांग्रेस का महाकुंभ कहा जाता है। चिन्तन शिविर में छ: प्रस्ताव पारित होंगे। इस प्रस्तावों के लिए छ: अलग-अलग नेताओं की अगुवाई में राजनीतिक समितियाँ बनायी गयी हैं। ये समितियाँ पार्टी के नये एजेंडे यानी विजन डॉक्यूमेंट को तैयार करेंगी।

दिलचस्प बात यह है कि असन्तुष्ट चल रहे नेताओं, जिन्हें जी-23 कहा जाता है, के 5 नेताओं को इन समितियों में सोनिया गाँधी ने शामिल किया है। ऐसे में यह बड़े बदलाव की ओर संकेत है। राजस्थान से केवल सचिन पायलट को इन राजनीतिक कमेटी में शामिल किया गया है। ग़ुलाम नबी आज़ाद सहित कपिल सिब्बल, शशि थरूर, मनीष तिवारी, आनंद शर्मा, पी.जी. कुरियन, रेणुका चौधरी, मिलिंद देवड़ा, मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा, राजिंदर कौर भट्ठल, एम. वीरप्पा मोइली, पृथ्वीराज चव्हाण, अजय सिंह, राज बब्बर, अरविंद सिंह लवली, कौल सिंह ठाकुर, अखिलेश प्रसाद सिंह, कुलदीप शर्मा, योगानंद शास्त्री, संदीप दीक्षित, विवेक तन्खा जैसे नेता इसमें शामिल हैं।

हालाँकि उदयपुर में होने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय चिन्तन शिविर के लिए छ: राजनीतिक समितियाँ बनायी गयी है। ये समितियाँ पार्टी के नये एजेंडे तय करेगी। इसमें संगठनात्मक बदलाव, राजनीतिक नियुक्तियाँ, यूथ एंड एम्पॉवरमेंट, आर्थिक, सोशल एम्पॉवरमेंट और खेती किसानी से जुड़े बड़े मुद्दों को लेकर पार्टी का विजन डॉक्यूमेंट तैयार करेंगी। इन समितियों में उन पाँच नेताओं को शामिल किया गया है, जिन्होंने केंद्रीय नेतृत्व पर सवाल खड़े किये थे। इनमें ग़ुलाम नबी आज़ाद, शशि थरूर मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा शामिल हैं। सचिन पायलट, जिन्होंने बग़ावत के संकेत दिये थे; को भी उदयपुर में होने वाले कांग्रेस के राष्ट्रीय चिन्तन शिविर में ख़ास तवज्जो दी गयी है।

जिन पर रहेगी नज़र

ग़ुलाम नबी आज़ाद : जम्मू कश्मीर के मुख्यमंत्री रहे, कई बार केंद्र में मंत्री बने, पार्टी का बड़ा मुस्लिम चेहरा, पार्टी की नब्ज़ पहचानने वाले नेता।

सचिन पायलट : राजस्थान के पूर्व प्रदेश अध्यक्ष, पूर्व केंद्रीय मंत्री, ऊर्जावान नेताओं में शामिल।

दिग्विजय सिंह : मध्य प्रदेश के दो बार मुख्यमंत्री रहे, संगठन पर मज़बूत पकड़, उत्तर प्रदेश, बिहार, कर्नाटक, आंध्र, तेलंगाना और असम जैसे राज्यों के प्रभारी रहे, जहाँ लोकसभा की क़रीब 250 सीटें हैं।

शशि थरूर : पूर्व केंद्रीय मंत्री, अपनी बात साफ़ रूप से कहते हैं।

मुकुल वासनिक, भूपिंदर सिंह हुड्डा और आनंद शर्मा : सभी पार्टी के दिग्गज नेता हैं और विभिन्न पदों पर रहे हैं। पार्टी के लिए भूमिका निभाने में सक्षम।

क्या चाहते थे प्रशांत किशोर?

प्रशांत किशोर चाहते थे कि सोनिया गाँधी पूर्णकालिक कांग्रेस अध्यक्ष बनें। एक कार्यकारी अध्यक्ष और उपाध्यक्ष गाँधी परिवार से बाहर का बने। राहुल गाँधी को संसदीय दल का नेता बनाया जाए। ग़ैर-गाँधी कार्यकारी या उपाध्यक्ष वरिष्ठ नेतृत्व के आदेशों के तहत हो। कांग्रेस आम लोगों के बीच पैठ मज़बूत करे। पार्टी गाँधीवाद के अपने सिद्धांतों पर ही चले। गठबंधन साथियों को बराबर भरोसे में रखे। पार्टी एक परिवार-एक टिकट के फॉर्मूले पर सख़्ती से चले। सिर्फ़ चुनाव के ज़रिये ही पार्टी के संगठन प्रतिनिधि चुने जाएँ। अध्यक्ष और कार्यकारी समिति सहित हर पोस्ट के लिए एक समय सीमा (कार्यकाल) तय किया जाए। क़रीब 15,000 ज़मीनी नेताओं के साथ एक करोड़ कार्यकर्ता मैदान में मज़बूती से काम करें। क़रीब 200 प्रभावी लोगों, कार्यकर्ताओं और सिविल सोसायटी के लोगों का ग्रुप बनाया जाए। प्रशांत का सुझाव गठबंधन से जुड़े मुद्दे को सुलझाने और पार्टी के संवाद सिस्टम में बदलाव पर ज़ोर के अलावा देश की जनसंख्या, मतदाता, विधानसभा सीटें, लोकसभा सीटों तक के आँकड़े तैयार रखने पर था। उन्होंने अपने सुझावों में महिलाओं, युवाओं, किसान और छोटे व्यापारियों की संख्या तक का ज़िक्र किया, जिसमें 2024 में 13 करोड़ फस्र्ट टाइम वोटर्स पर भी नज़र रखने की बात थी। उनकी प्रेजेंटेशन में बताया गया कि कांग्रेस के राज्यसभा और लोकसभा के मिलकर 90 सांसद, जबकि देश भर में 800 विधायक हैं। दो राज्यों में सरकार, जबकि दो में सहयोगी दलों के साथ सरकार है। वहीं 13 राज्यों में कांग्रेस मुख्य विपक्षी दल है। तीन राज्यों में कांग्रेस सहयोगियों के साथ मुख्य विपक्षी दल है। कांग्रेस को सत्ता में वापस लाने के लिए प्रशांत किशोर ने तीन फॉर्मूले बताये। एक यह कि कांग्रेस देश भर में अपने बूते चुनाव लड़े। दूसरा यह कि कांग्रेस भाजपा और मोदी को हराने के लिए सभी पार्टियों के साथ आये और यूपीए को मज़बूत कर मुख्य विपक्षी गठबंधन बनाया जाए। तीसरे यह कि कुछ जगह कांग्रेस अकेले चुनाव में उतरे, जबकि कुछ जगह गठबंधन सहयोगियों के साथ। कांग्रेस राष्ट्रीय पार्टी होने की अपनी छवि को बचाकर रखे।