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किसके सहारे बहुजन?

बाबा साहब डॉक्टर भीमराव अंबेडकर के बाद मान्यवर कांशीराम इकलौते ऐसे नेता हुए हैं, जिन्होंने दलितों के लिए जीवन लगा दिया। कांशीराम ने तो न सिर्फ़ दलितों के लिए, बल्कि पिछड़ों के लिए भी एक लम्बा संघर्ष किया और अपने लिए एक कमरे तक का घर नहीं बनाया, न ही परिवार वालों के लिए कभी कुछ किया। पूरे देश के दलितों और पिछड़ों के उत्थान के लिए बहुजन समाज की पताका लिए वह जब घर से निकले, तो उन्होंने कभी पीछे मुडक़र नहीं देखा। आख़िरकार उत्तर प्रदेश में वह सबसे ज़्यादा मज़बूती में दिखे और मायावती को आगे कर बहुजन समाज पार्टी यानी बसपा की सरकार बनाने में कामयाब भी रहे। मायावती इस दौर में इस क़दर उभरीं कि वह चार बार उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनीं। यह वो दौर था, जब बसपा न सिर्फ़ उत्तर प्रदेश में, बल्कि दिल्ली, हरियाणा, राजस्थान, पंजाब और बिहार की तरफ़ भी बढ़ी। लेकिन इन राज्यों में राजनीतिक दख़ल के बावजूद कोई ख़ास मुकाम हासिल नहीं कर सकी।

बता दें कि आज़ाद भारत में अंबेडकर ने साल 1956 में रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया की स्थापना की थी। इस पार्टी ने साठ के दशक में महाराष्ट्र, दिल्ली और उत्तर भारत में अपना मज़बूत जनाधार बनाया था। इस पार्टी के ज़रिये दलित राजनीति का गढ़ महाराष्ट्र में विदर्भ बना और उत्तर प्रदेश में आगरा। हालाँकि अंबेडकर के निधन के बाद इस पार्टी में फूट पड़ गयी। लेकिन बाद में पंजाब में जन्मे कांशीराम ने अंबेडकर के दलित उत्थान मिशन को आगे बढ़ाया, जिसमें उन्होंने दलितों के साथ ही पिछड़ों के हक़ की भी बात की। हालाँकि कांशीराम का सपना था कि बहुजन समाज पार्टी एक मज़बूत और नेशनल पार्टी बनकर उभरे। लेकिन राजनीति में उनके द्वारा लायी गयीं मायावती उनके इस सपने को बहुत दिनों तक जीवित नहीं रख सकीं। हालाँकि जब मायावती राजनीति में चमक रही थीं, तो वह केंद्र में आने और प्रधानमंत्री बनने के सपने ज़रूर देखती रहीं। हालाँकि यह अलग बात है कि उन्होंने बाद में सवर्णों को साथ लेकर भी उत्तर प्रदेश में सरकार बनायी; लेकिन उसके बाद से उनके पैर उत्तर प्रदेश से उखड़ते चले गये और अब तो हाल यह है कि बसपा की नाव तक़रीबन डूबती नज़र आ रही है। इसकी कई वजह हैं। पहली यह कि मायावती की टक्कर का कोई नेता बसपा में दूसरा नहीं है, जो बहुजनों की इस पार्टी का केवल नेतृत्व ही नहीं कर सके, बल्कि बहुजनों को भरोसे में भी ले सके। दूसरी वजह यह है कि मायावती के अब वो तेवर नहीं रह गये हैं, जो 2012 तक रहे हैं। तीसरी यह कि अब वह उम्र के लिहाज़ से शारीरिक स्वास्थ्य से भी जूझ रही हैं। चौथी यह कि बसपा में मायावती के बाद सतीश मिश्र की तूती बोलती है, जिसे दलित और पिछड़ा, दोनों ही वर्ग स्वीकार नहीं करना चाहते। और पाँचवीं व आख़िरी वजह यह है कि अब दलित और पिछड़ों की राजनीति हर पार्टी करने लगी है, चाहे वो कांग्रेस हो, चाहे भाजपा हो, चाहे कोई अन्य क्षेत्रीय दल हो।

 

ग़ौरतलब है कि अभी कुछ दिन पहले 14 अप्रैल को डॉ. अंबेडकर की 131वीं जयंती मनायी गयी, जिसे हर राजनीतिक दल ने धूमधाम से मनाया। ज़ाहिर है इसमें वो पार्टियाँ भी शामिल रहीं, जो विशुद्ध रूप से सवर्णों की राजनीति करती हैं; क्योंकि अंबेडकर की जयंती और पुण्यतिथि मनाने का सबका एक ही प्रयोजन है कि किसी तरह दलित और पिछड़ा मतदाता (वोटर) उनका पक्का मतदाता हो जाए। कई दल काफ़ी हद तक इसमें सफल भी हुए हैं, जिनमें भाजपा शीर्ष पर है। दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल ने भी अंबेडकर कार्ड खेलना शुरू कर दिया है। उन्होंने तो दिल्‍ली के स्कूल ऑफ एक्सीलेंस का नाम बदलकर अंबेडकर स्कूल ऑफ एक्सीलेंस तक कर दिया है। वहीं मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री शिवराज चौहान ने तो अंबेडकर की जन्मस्थली महू को तीर्थ दर्शन योजना में शामिल करने की घोषणा तक कर डाली। उन्होंने यह भी कहा कि लोग वहाँ मुफ़्त में सफ़र कर सकेंगे। महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री उद्धव ठाकरे और एनसीपी प्रमुख शरद पवार ने भी अंबेडकर जयंती पर आयोजित कार्यक्रम में हिस्सा लिया। लेकिन इस मुहिम में प्रधानमंत्री मोदी सबसे आगे हैं, उन्होंने प्रधानमंत्री बनने के बाद से अंबेडकर जयंती हर साल मनायी। पिछले दिनों तो वह संत रविदास जयंती पर अचानक दिल्ली स्थित रविदास मन्दिर पहुँच गये और वहाँ महिलाओं के बीच बैठकर खड़ताल बजाते दिखे। जानकारों का मानना है कि इसका असर उन दिनों चल रहे पाँच राज्यों के चुनावों पर कुछ-न-कुछ तो ज़रूर पड़ा और बसपा का वोट भाजपा को ट्रांसफर हुआ।

वहीं दूसरी ओर बहुजन आन्दोलन से निकली बसपा ने इस बार अंबेडकर जयंती पर बड़े पैमाने पर हर सम्भाग में कार्यक्रम आयोजित किये। इस दौरान लखनऊ स्थित पार्टी कार्यालय में बसपा प्रमुख मायावती ने बड़े तल्ख़ लहज़े में कहा कि जातिवादी सरकारें उपेक्षित वर्ग के नेताओं को अपने समाज का भला करने की छूट नहीं देती हैं। दलितों के लिए यदि कोई कुछ करने का प्रयास करता है, तो उसे भी दूध की मक्खी की तरह निकालकर बाहर कर दिया जाता है।

प्रधानमंत्री मोदी से पहले कांग्रेस ने, ख़ासकर इंदिरा गाँधी ने दलितों को अपने साथ लेने की राजनीति की थी। यह वो दौर था, जब दलितों का अपना कोई नेता केंद्र सरकार में ही नहीं, राज्यों में भी उतने क़द का नहीं था, जो कि उनका प्रतिनिधित्व कर सके। पिछड़ों के तो कई नेता तब तक केंद्र की राजनीति में आ चुके थे; लेकिन अंबेडकर के बाद दलितों का ऐसा कोई नेता केंद्र में नहीं था, जो ईमानदारी से उनके हक़ की लड़ाई लड़ सके। इक्का-दुक्का नेता राज्यों में था भी, तो वो या तो बड़े क़द का नहीं था या अपने स्वार्थों की पूर्ति में लग गया था। ऐसे में दलितों के पास कांग्रेस के अलावा कोई विकल्प नहीं था और स्वाभाविक तौर पर वो कांग्रेस की तरफ़ लम्बे समय तक झुके रहे। लेकिन जैसे ही उन्हें कांशीराम जैसा सच्चा दलित हितैषी नेता मिला उनका कांग्रेस से मोहभंग होने लगा। इतना ही नहीं, कांशीराम ने पिछड़ों का भी ध्यान अपनी ओर खींचा और उनका कांग्रेस से काफ़ी हद तक मोहभंग कराया। अब दलितों की राजनीति में कई पार्टियाँ कूद पड़ी हैं और वो उन्हें अपने ख़ेमे में करने में लगी हैं।

लेकिन सवाल यह है कि क्या ये नेता और इनकी पार्टियाँ दलितों और पिछड़ों को वो सब दे सकेंगे, जो करने का सपना इन वर्गों के लिए बाबा साहब डॉ. अंबेडकर और मान्यवर कांशीराम ने देखा था? यह सवाल इसलिए भी ज़रूरी है कि जब राजनीति की फिसलन भरी ज़मीन पर आने के बाद ख़ुद मायावती, जो कि ख़ुद दलित और पिछड़े वर्ग से हैं, उनका ख़याल नहीं रख सकीं, तो दूसरों से इन वर्गों के लिए क्या उम्मीद की जा सकती है? सवाल यह भी है कि मायावती के बाद क्या दलितों और पिछड़ों को कोई ऐसा नेता मिल सकेगा? जो उनकी समस्याओं के लिए जूझ सके, उनके हक़ उन्हें दिलवा सके? हालाँकि अब तक इस मामले में तक़रीबन सभी दलित नेता फेल ही रहे हैं; लेकिन मायावती से एक दौर में उम्मीद थी कि वह बहुजनों के हक़ दिलवाकर रहेंगी। हालाँकि अब इस तरह की उम्मीद करना व्यर्थ ही है; क्योंकि मायावती अब दलितों के मुद्दों और देश में हो रही राजनीति पर ख़ामोश ज़्यादा रहती हैं। एक और दलित नेता इन दिनों उत्तर प्रदेश में उभरकर सामने आया है और वह हैं चंद्रशेखर आज़ाद ‘रावण’। चंद्रशेखर दलित युवाओं के काफ़ी प्रिय नेता हैं; लेकिन मायावती के क़द को वह न तो छू सके हैं और न भविष्य में इसकी सम्भावना दिखती है। इसकी एक वजह यह है कि चंद्रशेखर राजनीतिक पैंतरेबाज़ी में अभी उतने मंजे हुए खिलाड़ी नहीं हैं, जितनी की मायावती। दूसरी वजह यह है कि चंद्रशेखर की पहचान पूरे प्रदेश में भी अभी नहीं बन सकी है, जबकि मायावती की छवि राष्ट्रीय स्तर की है। लेकिन अब दलित और पिछड़े वोट बैंक पर सबसे ज़्यादा क़ब्ज़ा सत्ताधारी दल भाजपा का है, जो कि प्रधानमंत्री मोदी की वजह से है। यह अलग बात है कि आज की राजनीति में प्रधानमंत्री मोदी का विकल्प ठीक उसी तरह दिखायी नहीं दे रहा है, जिस तरह एक दौर में इंदिरा गाँधी का कोई विकल्प नज़र नहीं आता था।

ख़ैर यह तो राजनीतिक दाँव-पेच की बातें और समय का फेर है। कहा जाता है कि राजनीति में अगले पल क्या होगा? यह भी दावे के साथ नहीं कहा जा सकता। क्योंकि राजनीति में कोई किसी का सगा नहीं होता। हर कोई मौक़े की नज़ाकत देखकर चाल चलता है और उसका फ़ायदा उठाता है। रही बात जातिगत खेल की, तो यह तो राजनीतिक लोगों का बहुत पुराना पैंतरा रहा है। सच तो यह है कि आम लोगों को उन्हीं की जाति के नेता धोखा देते रहते हैं और लोग भी अपनी जाति के नेताओं के नाम की माला जपते रहते हैं। जिस दिन यह बात लोगों की समझ में आ गयी, उस दिन लोग जाति देखकर नहीं, बल्कि ईमानदारी और क़ाबिलियत देखकर अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करेंगे। फिर चाहे वे दलित हों, या पिछड़े हों या सवर्ण हों।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

फल राज्य बन रहा हिमाचल

आर्थिकी का मुख्य आधार बनी बाग़वानी 7 तक़रीबन 12 लाख लोगों को मिल रहा रोज़गार

पर्यटन राज्य के रूप में मशहूर हिमाचल प्रदेश बाग़वानी राज्य के रूप में विकसित हो रहा है। भले सेब राज्य की आर्थिकी का बड़ा आधार रहा हो; लेकिन अन्य फलों के उत्पादन के साथ बाग़वानी प्रदेश के क़रीब 12 लाख लोगों के रोज़गार का ज़रिया बन गया है। प्रदेश में बाग़वानी का क्षेत्र बढक़र ढाई लाख हेक्टेयर होने वाला है और प्रदेश सरकार का लक्ष्य अब फल कारोबार को बढ़ाकर 6,000 करोड़ करने का है।

जहाँ तक सेब की बात है, हिमाचल को सेब उत्पादक राज्य बने 106 साल हो गये हैं। प्रदेश में सेब का पहला पौधा सत्यानंद स्टोक्स ने कोटगढ़ के थानाधार में सन् 1916 में अमेरिका के लुसियाना से लाकर रोपा था और बाद में इसका पूरा बग़ीचा तैयार किया था। सेब की व्यावसायिक खेती के 100 साल पूरे होने पर बाक़ायदा कार्यक्रम किया गया था।

जानकारों का कहना है कि बाग़वानी हिमाचल में आय के विभिन्न स्रोत उत्पन्न कर लोगों की आर्थिकी को सुदृढ़ करने में सहायक सिद्ध हो रही है। इस समय राज्य में 2.34 लाख हेक्टेयर क्षेत्र बाग़वानी के अधीन है। इस साल मार्च तक पिछले चार साल में प्रदेश में 31.40 लाख मीट्रिक टन फल उत्पादन हुआ है। इस अवधि में बाग़वानी क्षेत्र की वार्षिक आय औसतन 4575 करोड़ रुपये रही और औसतन 12 लाख लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रुप से रोज़गार मिला है। गर्म जलवायु वाले निचले क्षेत्रों में बाग़वानी की अपार सम्भावनाओं के दृष्टिगत, बाग़वानी क्षेत्र के समग्र विकास और राज्य के लोगों को स्वावलंबी बनाने की दिशा में उपोष्णकटिबंधीय बाग़वानी, सिंचाई और मूल्य संवर्धन परियोजना (एचपी शिवा) प्रदेश सरकार की इस दिशा में बड़ी पहल है। परियोजना के तहत बीज से बाज़ार तक की संकल्पना के आधार पर बाग़वानी विकास किया जाएगा। इसमें नए बग़ीचे लगाने के लिए बाग़वानों को उपयुक्त पौध सामग्री से लेकर सामूहिक विपणन तक की सहायता और सुविधाएँ प्रदान की जाएँगी। हाल के वर्षों में बाग़वानी के वैश्विक बाज़ार में राज्य के योगदान में कई गुणा वृद्धि दर्ज की गयी है।

हिमाचल के बाग़वानी मंत्री महेंद्र सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘हिमाचल अब फल राज्य बनने की ओर अग्रसर है। परियोजना के अंतर्गत बीज से बाज़ार तक की संकल्पना के आधार पर बाग़वानी विकास किया जाएगा। परियोजना का लक्ष्य अधिक-से-अधिक बेरोज़गार युवाओं और महिलाओं को बाग़वानी कार्य से जोडऩा है।’

एशियन विकास बैंक के सहयोग से क्रियान्वित की जा रही कुल 975 करोड़ रुपये लागत की इस परियोजना में 195 करोड़ रुपये सरकार का अंशदान है। हिमाचल सरकार ने परियोजना के क्रियान्वयन के लिए अब तक 48.80 करोड़ रुपये प्रदान किये हैं, जिसमें से मार्च तक 37.31 करोड़ रुपये व्यय किये जा चुके हैं।

इस परियोजना के अन्र्तगत सिंचाई सुविधा के साथ-साथ फलों की बेहतर क़िस्मों से बाग़वानी क्षेत्र में क्रान्ति लाने के उद्देश्य से अमरूद, लीची, अनार और नींबू प्रजाति के फलों के पायलट परीक्षण के लिए एशियन विकास बैंक मिशन द्वारा क़रीब 75 करोड़ रुपये से वित्तपोषित योजना तैयार की गयी, जिसमें बिलासपुर, हमीरपुर, मंडी और कांगड़ा ज़िलों के 12 विकास खण्डों के 17 समूहों के तहत क़रीब 200 हेक्टेयर क्षेत्र के किसानों का चयन कर सभी समूहों में पौधरोपण का कार्य किया गया है।

सरकार के मुताबिक, एचपी शिवा परियोजना के तहत एएफसी इंडिया लिमिटेड के सहयोग से बाग़वानों को संगठित कर सहकारी समितियों का गठन करके इन्हें पंजीकृत किया जा रहा है। ये समितियाँ परियोजना के तहत स्थापित किये जा रहे बग़ीचों के सामूहिक प्रबन्धन, सामूहिक उत्पादन, उत्पादित फ़सलों के मूल्य संवर्धन, प्रसंस्करण और सामूहिक विपणन हेतु कार्य करने के साथ ही फलों से सम्बधित अन्य व्यवसायिक गतिविधियों का संचालन भी करेंगी, जिसके लिए उद्यान विभाग द्वारा इन समितियों को प्रशिक्षण दिया जा रहा है और इनका क्षमता विकास किया जा रहा है। इन समितियों को बहु-हितधारक मंच के माध्यम से विभिन्न सेवा प्रदाता संस्थाओं और बाज़ार से जोड़ा जाएगा, जिससे बाग़वानों को तकनीकी मागदर्शन व सेवाओं के साथ ही विपणन में सहयोग प्रदान किया जा सके।

उत्पादित फ़सलों के मूल्य संवर्धन हेतु मुख्य परियोजना में विभिन्न संरचनाओं जैसे पैकिंग, सॉर्टिंग और ग्रेडिंग हाउस, वातानुकूलित भण्डार गृह (सीए स्टोर), प्रसंस्करण इकाइयाँ, पैकेजिंग सामग्री आदि के विकास का प्रावधान किया जा रहा है। प्रदेश सरकार द्वारा प्रयास किये जा रहे हैं कि बाग़वानों को उनके बाग़ानों में ही फ़सल का उचित मूल्य मिल सके।

 बाग़वानी का बजट बढ़ा

हिमाचल सरकार ने 2022-23 बजट में बाग़वानी क्षेत्र के लिए 540 करोड़ रुपये का प्रावधान किया है। कृषि क्षेत्र के लिए 583 करोड़ रुपये रखे गये हैं। इससे ज़ाहिर होता है कि बाग़वानी के लिए कृषि क्षेत्र के लगभग बराबर ही राशि रखी गयी है। मार्च में विधानसभा में बजट चर्चा के दौरान मुख्यमंत्री जयराम ने कहा था कि बाग़वानी क्षेत्र में उत्पादन और  उत्पादकता बढ़ाने के लिए एक बाग़वानी नीति तैयार की जाएगी। मुख्यमंत्री ने घोषणा की कि सत्यानंद स्टोक्स के व्यक्तित्व और योगदान को ध्यान में रखते हुए उनकी कर्मभूमि शिमला ज़िला के कोटगढ़ थानाधार और आसपास के क्षेत्र को ‘सत्यानन्द स्टोक्स ट्रेल’ बनाया जाएगा। इसका बहुआयामी स्वरूप बाग़वानी, पर्यटन, भाषा और संस्कृति विभागों के समन्वय से विकसित किया जाएगा। पराला मंडी को आदर्श मंडी के रूप में विकसित किया जा रहा है। फलों और सब्ज़ियों के भण्डारण की सुविधाओं में और अधिक बेहतरी के लिए इस मंडी में 60.93 करोड़ रुपये की लागत से 5,000 मीट्रिक टन क्षमता का एक नया कोल्ड स्टोर स्थापित किया जाएगा। इसके साथ ही 1,500 मीट्रिक टन क्षमता का फ्रीजिंग चैंबर, 10 मीट्रिक टन प्रति घंटा क्षमता की ग्रेडिंग पैकिंग लाइन और एक मीट्रिक टन प्रति घंटा क्षमता की आईक्यूएफ लाइन स्थापित की जाएगी। इसके अलावा बाग़वानी विकास परियोजना के अंतर्गत शिलारू और पालमपुर में दो उत्कृष्टता केंद्र स्थापित किये जाएँगे, जिसके लिए 18 करोड़ रुपये का प्रावधान प्रास्तावित है। बाग़वानी क्षेत्र में चलायी जा रही विभिन्न लघु सिंचाई योजनाओं का निर्माण कार्य विभिन्न चरणों में है। माली साल 2022-23 में लगभग 9,000 हेक्टेयर अतिरिक्त खेती युक्त भूमि में सिंचाई सुविधाएँ उपलब्ध करवा दी जाएँगी। इस पर 198 करोड़ रुपये ख़र्च किये जाएँगे।

उधर पराला की फल प्रसंस्करण इकाई में उत्पादन इस साल से शुरू हो रहा है। माली वित्त वर्ष 2022-23 के दौरान 91 करोड़ रुपये की लागत से पराला में बन रहे फल प्रसंस्करण इकाई में उत्पादन शुरू कर दिया जाएगा और परवाणु और जड़ोल में स्थित फल प्रसंस्करण इकाई का 17 करोड़ रुपये की लागत से उन्नयन किया जाएगा। इसके साथ ही पांवटा साहिब, कांगनी और शाट में बन रहे मार्केट याड्र्स (बाज़ार अहाते) सितंबर, 2022 तक किसानों व बाग़वानों को समर्पित कर दिये जाएँगे। परवाणु में बन रहे मार्केट यार्ड को भी मार्च, 2023 से पहले पूरा कर लिया जाएगा। इन पर 35 करोड़ रुपये ख़र्च किये जाएँगे।

फल प्रसंस्करण इकाइयों के अलावा सीए स्टोर स्थापित किये जा रहे हैं। क़रीब 58 करोड़ रुपये की लागत से चच्योट, रिकांगपिओ, ज्ञाबोंग और चंबा में सीए स्टोर्स का निर्माण इसी वित्त वर्ष 2022-23 में शुरू कर दिया जाएगा। इसके साथ ही रोहड़ू, गुम्मा, जड़ोल टिक्कर, टूटूपानी और भुंतर में बन रहे सीए स्टोर और ग्रेडिंग और पैकेजिंग हाउस में का इसी वर्ष लोकार्पण कर दिया जाएगा। इन परियोजनाओं को पूरा करने के लिए 75 करोड़ रुपये का व्यय किया जाएगा।

सरकार के मुताबिक, उच्च घनत्व क़िस्मों का पौधरोपण और इम्युनिटी बूस्टर वाली फ़सलों की शुरुआत की जाएगी। जामुन और मेवों की खेती के लिए क्लस्टर बनाए जाएँगे। शिटाके और ढींगरी आदि मशरूम की क़िस्मों के उत्पादन को बढ़ावा देने के लिए और मशरूम प्रसंस्करण और डिब्बाबंदी के लिए तीन करोड़ रुपये व्यय किये जाएँगे।

हिमाचल में सेब अभी भी आर्थिकी का सबसे बड़ा ज़रिया है। सेब की तीन क़िस्मों रेड, रॉयल और गोल्डन डिलिशियस से हुई शुरुआत के 100 साल बाद हिमाचल में 90 क़िस्मों की सेब प्रजातियों की खेती प्रदेश में हो रही है। प्रदेश में 1,10,679 हेक्टेयर क्षेत्र में 7.77 लाख मीट्रिक टन सेब पैदा हो रहा है। शिमला, कुल्लू, मंडी, चम्बा, किन्नौर, लाहुल स्पीति और सिरमौर ज़िलों में सेब पैदा किया जाता रहा है। हालाँकि इसका विस्तार अब गर्म इलाक़ों की तरफ़ किया जा रहा है। वैसे हिमाचल के कुल सेब उत्पादन का 80 फ़ीसदी शिमला ज़िले में होता है। प्रदेश में सालाना तीन से चार करोड़ पेटी सेब का उत्पादन है।

क्या है एचपी शिवा परियोजना?

मुख्य परियोजना के लिए प्रदेश के सात ज़िलों- सिरमौर, सोलन, ऊना, बिलासपुर, हमीरपुर, कांगड़ा और मंडी के 28 विकास खण्डों में 10,000 हेक्टेयर भूमि की पहचान की गयी है, जिससे 25,000 से अधिक किसान परिवार लाभान्वित होंगे। यह आत्मनिर्भर हिमाचल की संकल्पना को साकार करने की दिशा में एक महत्त्वपूर्ण क़दम है। परियोजना के तहत बाग़वानी क्रान्ति लाने के लिए उच्च घनत्व वाली खेती को बढ़ावा दिया जाएगा और वैज्ञानिक प्रणाली से बग़ीचे का संरक्षण और देख-रेख की जाएगी। इसके अतिरिक्त फल-फ़सलों को जंगली जानवरों से बचाने के लिए कम्पोजिट सौर बाड़बंदी का प्रावधान किया गया है। उपलब्ध जल संसाधनों का समुचित उपयोग सुनिश्चित करने के लिए टपक या ड्रिप सिंचाई प्रणाली स्थापित करने और क्लस्टरों के प्रबन्धन के लिए कृषि उपकरण और कृषि लागत पर भी सब्सिडी का प्रावधान है। परियोजना के तहत बाग़वानी में क्रान्ति लाने के लिए 100 सिंचाई योजनाओं का विकास किया जाएगा, जिनमें 60 फीसदी सिंचाई परियोजनाओं का मरम्मत कार्य और 40 $फीसदी नयी परियोजनाएँ शामिल हैं, ताकि वर्षा के पानी पर निर्भरता न रहे।

“प्रदेश में बाग़वानी कृषि क्षेत्र में विकास के प्रमुख कारकों में से एक बन रहा है। यह क्षेत्र प्राथमिक, द्वितीयक और तृतीयक क्षेत्रों में रोज़गार के अवसर प्रदान कर रहा है। बाग़वानी की फ़सलों, विशेष रूप से फल वाली फ़सलों पर मौसम में बदलाव का अपेक्षाकृत कम प्रभाव होता है। इस कारण प्रदेश के अधिकाधिक लोग बाग़वानी अपना रहे हैं। प्रदेश सरकार बाग़वानी को बढ़ावा देने के प्रयास से राज्य की कृषि अर्थ-व्यवस्था को एक नयी गति प्रदान कर रही है। हमें उम्मीद है कि हिमाचल फल राज्य के रूप में अपनी पहचान स्थापित करने की तरफ़ बढ़ रहा है।’’

महेंद्र सिंह

बाग़वानी मंत्री, हिमाचल प्रदेश

टिहरी के बाद लोहारी भी डूब गया

 लखवाड़ व्यासी जल विद्युत परियोजनाओं का काम हुआ तेज़ 7  120 घर जलसमाधि देकर देश को देंगे बिजली

इंसान की ज़िन्दगी में हवा, बिजली और पानी तीन ऐसी आवश्यकताएँ हैं, जिनके बिना जीवन की कल्पना नहीं की जा सकती। लेकिन देवभूमि उत्तराखण्ड में देहरादून के एक गाँव लोहारी में वक़्त की कुछ ऐसी हवा चली कि आज गाँव वालों को पानी से ही डर लगने लगा है और बिजली से नफ़रत-सी हो गयी है। इसका मूल कारण है कि उनका पैतृक लोहारी गाँव को प्रशासन ने व्यासी जल विद्युत परियोजना के तहत ख़ाली करा लिया है। उत्तराखण्ड में बने सबसे बड़े टिहरी बाँध में समायी ऐतिहासिक टिहरी की विरासत की यादें अभी भूली भी नहीं थीं कि दोबारा 120 परिवारों की 100 साल पुरानी यादें अब इस परियोजना की भेंट चढ़ गयी हैं।

उत्तराखण्ड देवभूमि की भौगोलिक परिस्थितियाँ कुछ ऐसी हैं कि हिमालयी शृंखला में बसे इस राज्य के आँचल में गंगा और यमुना समेत अनेक नदियाँ लाखों करोड़ों लोगों की प्यास बुझाने के साथ जीवनदायिनी के रूप में अविरल सदियों से बह रही हैं। भारत के धार्मिक और ऐतिहासिक मानचित्र पर उत्तराखण्ड यूँ तो अपना विशेष स्थान बदरीनाथ, केदारनाथ, यमुनोत्री, गंगोत्री और हेमकुंड साहिब की वजह से रखता ही है; लेकिन राजधानी देहरादून के जनजातीय क्षेत्र चकराता के लाक्षयाग्रह की वजह से इस क्षेत्र की अपनी एक अनूठी पहचान है। सन् 1947 में आज़ादी मिलने के बाद कई नये गाँव और इलाके बसे और उन्हीं में से एक देहरादून ज़िले के जौनसार बावर क्षेत्र में लखवाड़ और लखस्यार गाँव भी बसे। वह ज़माना और था और बहुसंख्य लोग मेहनत व ईमानदारी की कमायी में विश्वास रखते थे। और यहाँ के लोगों ने अपनी कड़ी मेहनत की बदौलत इस बात को सिद्ध भी कर दिया।

यमुना नदी के सहारे जौनसार बाबर के उत्तरी छोर पर स्थानीय ग्रामीणों ने कड़ी मेहनत करके क्षेत्र को हरा-भरा कर दिया और इतना ही नहीं अच्छी खेती से प्रोत्साहित होकर ग्रामीणों ने कुछ दूरी पर पहाड़ी की तलहटी में 10 परिवारों को लेकर एक गाँव भी बसा दिया, जिसको नाम दिया लोहारी गाँव। चूँकि खेती की पैदावार अच्छी होती थी, तो लोहारी वासियों का मूल व्यवसाय ही कृषि हो गया। अक्सर देखा जाए, तो किसी पेड़, पुल या इमारत की एक मियाद होती है। लेकिन विधाता ने लोहारी गाँव की क्या तकदीर लिखी थी? यह किसी को नहीं पता था। अब इसको गाँव वालों का भाग्य कहा जाए या क़ुदरत का फ़ैसला कि अनिश्चितता के साये में पाँच दशक लोहारीवासियों ने व्यतीत कर दिये; लेकिन पारम्परिक तीज-त्यौहार,  शादी-ब्याह के मौक़ों पर कभी भी यहाँ के लोग अपने पैतृक गाँव पहुँचना नहीं भूले। लेकिन अब उनकी वो अमिट यादें भी जल समाधि ले चुकी हैं। लेकिन वक़्त का एक दौर ऐसा आया, जब ग्रामीणों की सारी आस टूट गयी। जून, 2021 में व्यासी जल विद्युत परियोजना के लिए जुडडो गाँव में बनाये गये बाँध की झील में पानी एकत्र किया जाने लगा है, तो ग्रामीणों के सब्र का बाँध टूट गया और उसी दौरान क्षेत्रीय विधायक मुन्ना सिंह चौहान को उस वक़्त ग्रामीणों के जबरदस्त ग़ुस्से का सामना करना पड़ा, जब एक कार्यक्रम में सम्मिलित होने वहाँ पहुँचे।

बात बनती न देख ग्रामीणों ने अपनी माँगों को लेकर अनिश्चितकालीन धरना शुरू कर दिया। पाँच दशकों से अधिक समय से लोहारी में बसे हुए ग्रामीणों की माँग है कि मुआवज़े के अलावा ज़मीन के बदले ज़मीन, मकान के बदले मकान, रोज़गार छिन जाने पर नौकरी दिये जाने की व्यवस्था की जाए। मामला गरमाता देख तत्कालीन नेता प्रतिपक्ष प्रीतम सिंह ने विस्थापन और मुआवज़े के मामले को सदन में भी उठाया; लेकिन नतीजा शून्य ही रहा। उल्टा आन्दोलनरत ग्रामीणों को जबरन धरने से उठाकर जेल भेज दिया गया, जिसमें 17 लोगों पर मुक़दमे भी दर्ज किये गये। इससे हल निकलने के बजाय ग्रामीणों में और ज़्यादा आक्रोश बढ़ गया। गाँव की चंदा चौहान का मानना है कि हम अपने पुरखों की अमानत को दे रहे हैं, जहाँ हम पाँच दशकों से अनाज और सब्ज़ी उगाते आये हैं। गाँव की एक अन्य बुज़ुर्ग महिला 72 वर्षीय गुल्लो देवी इस बात को बताते बताते रो पड़ीं कि रात नींद खुलते ही हमारा रोना छूट जाता है।

विस्थापितों की पैरवी कर रहे राजस्व मामलों के वरिष्ठ अधिवक्ता नरेश चौहान ने ‘तहलका’ को बताया कि गाँव का इतिहास तो औरंगजेब शासनकाल समय का है; लेकिन मौज़ूदा हालातों पर नज़र डालें, तो विस्थापन की ज़द में आये लोहारी गाँव में 72 खातेदार हैं और 96 से 100 के क़रीब परिवार हैं, जो बाँध निर्माण से प्रभावित हुए हैं। नरेश चौहान, जो पुरज़ोर तरीक़े से इस परियोजना के प्रभावितों के हितों की पैरवी करने में जुटे हैं; ने बताया कि वर्ष 1961-62 में इस परियोजना का मसौदा तैयार हुआ था और 10 वर्षों के भीतर 1972 में भूमि अधिग्रहण कर ली गयी। सन् 1976 में इसे स्वीकृति मिली, सन् 1984 में काम शुरू हुआ, जो सन् 1989 तक चरम पर रहा। तब यह परियोजना उत्तर प्रदेश सिंचाई विभाग और जे.पी. कम्पनी के पास थी। उत्तराखण्ड राज्य बनने के बाद मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी की सरकार ने इसे नेशनल हाइड्रो पॉवर कॉर्पोरेशन (एनएचपीसी) को दे दिया, जिसने सन् 2004 से सन् 2007 तक इसकी डीपीआर तैयार की। लेकिन 300 मेगावॉट की तीन टरबाइन जो प्रथम चरण लखवाड़ और 120 मेगावॉट की द्वितीय चरण ब्यासी जल विद्युत परियोजना की दो टरबाइन बनकर तैयार होनी थी, कुछ तकनीकी कारणों से जल की पर्याप्त उपलब्धता न होने की वजह से संचालन स्थिति तक नहीं पहुँच पायी। पिछले पाँच दशकों से अधिक समय से फाइलों में धक्के खाती आ रही इन परियोजनाओं में पहले चरण में लखवाड़ परियोजना तैयार होनी थी और द्वितीय चरण में ब्यासी जल विद्युत परियोजना तैयार होनी थी, जो आज भी संचालन के महूर्त का इंतज़ार कर रही हैं। इसे सरकार की नाक़ाबलियत कहा जाए या लालफ़ीताशाही, ऊर्जा प्रदेश कहे जाने वाले उत्तराखण्ड में क़ुदरत द्वारा मुहैया करवाये तमाम प्राकृतिक संसाधनों के बावजूद उत्तराखण्ड बजाय दूसरे राज्यों को बिजली बेचने के उल्टा उनसे महँगी बिजली ख़रीद रहा है।

विरोध और आन्दोलनों के साये में शुरू हुई इन जलविद्युत परियोजनाओं के बन जाने के बावजूद संचालन में आ रही दिक़्क़तों को देखते हुए विभाग ने अंतत: प्रशासन की मदद से पुलिस बल के साथ गाँव ख़ाली कराने का कठोर निर्णय लिया, जिसके चलते 5 अप्रैल, 2022 को प्रभावित परिवारों के खाते में मुआवज़ा राशि हस्तांतरित करने के 48 घंटे में गाँव ख़ाली करने का अल्टीमेटम भी नोटिस के ज़रिये ग्रामीणों के घरों के बाहर चस्पा कर दिया और इसकी अवधि पूरे होते ही बुलडोजर भी चलवा दिया। अपने दादा दादी के पैतृक गाँव को अपनी आँखों के सामने जलमग्न होते देख ग्रामीण भी अपनी आँखों से आँसुओं के सैलाब को नहीं रोक पाये। टिहरी जल विद्युत परियोजना के बाद लोहारी ऐसा दूसरा गाँव हैं, जिसने जल समाधि देकर देश के बाक़ी शहरों को रोशन किया है।

सरकारी आँकड़ों के विपरीत चुभ रही महँगाई

आरबीआई गवर्नर शक्तिकांत दास ने स्पष्ट रूप से कहा है कि धातु की क़ीमतों के साथ-साथ वैश्विक खाद्य क़ीमतें काफ़ी ज़्यादा हो गयी हैं। अर्थ-व्यवस्था मुद्रास्फीति की तेज़ वृद्धि के मार झेल रही है। हालाँकि सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय के हाल में जारी अलग-अलग आँकड़ों ने इसे लेकर भ्रम की स्थिति पैदा की है। किसी भी तरह यह तस्वीर भारत के उपभोक्ता मूल्य सूचकांक (सीपीआई) पर पर्याप्त रूप से परिलक्षित होती नहीं दिखती है।

इतना ही नहीं, इस साल फरवरी और मार्च के लिए सरकार के मुद्रास्फीति के आँकड़ों के सन्दर्भ में आरबीआई गवर्नर का मुद्रास्फीति पूर्वानुमान भी पूरी तरह से भ्रामक प्रतीत होता है। मार्च में खुदरा मुद्रास्फीति में 6.95 फ़ीसदी दर्ज की गयी, जो पिछले 17 महीनों में सबसे अधिक है और फरवरी में थोक मूल्य में 13.11 फ़ीसदी की वृद्धि हुई है।

मार्च में थोक मूल्य मुद्रास्फीति बढक़र 14.6 फ़ीसदी हो गयी। भारतीय रिजर्व बैंक ने चालू वित्त वर्ष के लिए खुदरा मुद्रास्फीति लक्ष्य को मौज़ूदा भू-राजनीतिक तनावों के बीच बढ़ती वैश्विक क़ीमतों के कारण 5.7 फ़ीसदी तक बढ़ा दिया है। यहाँ तक कि यदि सर्दियों की फ़सल बेहतर होती है, तो अनाज और दालों की क़ीमतों में नरमी की उम्मीद की जा सकती है।

आरबीआई ने कहा कि महँगाई अब 2022-23 में 5.7 फ़ीसदी अनुमानित है पर पहले क्वार्टर के साथ 6.3 फ़ीसदी, दूसरे क्वार्टर में 5.0 फ़ीसदी, तीसरे में 5.4 फ़ीसदी और चौथे में 5.1 फ़ीसदी पर अनुमानित है। फरवरी में अपनी पिछली नीति समीक्षा में आरबीआई ने 2022-23 में खुदरा मुद्रास्फीति 4.5 फ़ीसदी रहने का अनुमान जताया था। पिछले महीने थोक मूल्य मुद्रास्फीति बढक़र 14.6 फ़ीसदी हो गयी।

मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने भी सर्वसम्मति से समायोजनात्मक बने रहने का निर्णय किया। हालाँकि यह सुनिश्चित करने के लिए स्थिरता की वापसी पर ध्यान केंद्रित किया गया कि मुद्रास्फीति आगे बढऩे के साथ-साथ विकास का समर्थन करते हुए लक्ष्य के भीतर बनी रहे। यह लगातार 11वीं बार है, जब मौद्रिक नीति समिति (एमपीसी) ने यथास्थिति बनाये रखी है।

आरबीआई गवर्नर ने कहा- ‘हालाँकि कच्चे तेल की क़ीमतों के वैश्विक उछाल के चलते आर्थिक अस्थिरता को देखते हुए विकसित हो रहे भू-राजनीतिक तनाव में विकास और मुद्रास्फीति का कोई भी अनुमान जोखिम से भरा है। हालाँकि आरबीआई ने उम्मीद जतायी कि रबी (सर्दियों) की फ़सल से अच्छी फ़सल होने से अनाज और दालों की क़ीमतों पर नियंत्रण रहेगा।

इस पर ध्यान दिया जा सकता है कि रिजर्व बैंक को खुदरा मुद्रास्फीति को 4 फ़ीसदी पर रखने के लिए बाध्य किया गया है, जिसमें दोनों तरफ़ 2 फ़ीसदी का पूर्वाग्रह है। तथ्य यह है कि पिछले साल के मध्य से भोजन, कपड़े, आवास, परिवहन, दवा और स्वास्थ्य देखभाल की लागत में 50 से 60 या उससे भी अधिक की वृद्धि हुई है। ईंधन की ऊँची क़ीमतों का असर कमोबेश सभी वस्तुओं और सेवाओं की क़ीमतों पर पड़ रहा है। हालाँकि यह वैश्विक स्तर पर है। संयुक्त राष्ट्र के खाद्य और कृषि संगठन के अनुसार, पिछले 12 महीने से नवंबर तक वैश्विक खाद्य क़ीमतों में 27.3 फ़ीसदी की वृद्धि हुई। पिछले तीन महीनों में क़ीमतों में और उछाल आया है, ख़ासकर रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद। भोजन, परिवहन और उपयोगिता जैसी आवश्यक वस्तुओं की क़ीमतें बढ़ गयी हैं। दुनिया भर में दो-तिहाई से अधिक लोग इसकी मार का असर महसूस कर रहे हैं।

सांख्यिकी और कार्यक्रम कार्यान्वयन मंत्रालय की तरफ़ से हाल में जारी किये गये दो अलग-अलग आँकड़ों से पता चलता है कि मार्च में देश की खुदरा मुद्रास्फीति बढक़र 6.95 फ़ीसदी हो गयी। फरवरी में खुदरा महँगाई 6.07 फ़ीसदी थी। वैसे मुद्रास्फीति के ये आँकड़े भी काफ़ी विश्वसनीय नहीं लगते हैं। वित्त मंत्रालय द्वारा कहा गया कि 2022-23 के राष्ट्रीय व्यय बजट की तैयारी में शामिल $गलत अंतरराष्ट्रीय ईंधन मूल्य अनुमान कि पिछले साल के मध्य तक यह 70 डॉलर प्रति बैरल पर रहेगा। इसे लेकर अर्थशास्त्रियों की तरफ़ से पहले ही आलोचना हो रही है। अंतरराष्ट्रीय ईंधन की क़ीमतें 110 डॉलर प्रति बैरल के आसपास घूम रही हैं। घर वापस, ईंधन की क़ीमतें पहले से ही आसमान छू रही हैं। अकेले इस अप्रैल के दौरान क़ीमतों में 10 फ़ीसदी से अधिक की वृद्धि हुई। क्या उपभोक्ताओं को वास्तव में आधिकारिक तौर पर घोषित मुद्रास्फीति दरों में अधिक विश्वास है?

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय की ताज़ा रिपोर्ट के मुताबिक, थोक मूल्य सूचकांक आधारित मुद्रास्फीति में गिरावट का रुख़ बना हुआ है। इसमें कहा गया है कि जनवरी, 2022 (जनवरी, 2021 से अधिक) के महीने के लिए मुद्रास्फीति की वार्षिक दर 12.96 फ़ीसदी (अस्थायी) है, जो नवंबर, 2021 में 14.87 फ़ीसदी और दिसंबर, 2021 में 13.56 फ़ीसदी से लगातार गिरावट पर है। राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) द्वारा जारी आँकड़ों के मुताबिक, पिछले साल सितंबर से महँगाई दर इस साल फरवरी में 6.07 फ़ीसदी पर पहुँच गयी थी। इस साल जनवरी में खुदरा महँगाई 6.01 फ़ीसदी थी।

मार्च लगातार तीसरा महीना रहा, जब महँगाई 6 फ़ीसदी के ऊपर रही। हालाँकि अक्टूबर, 2020 में इसका उच्च स्तर (7.61 फ़ीसदी) दर्ज किया गया था। वाणिज्य मंत्रालय की रिपोर्ट में यह भी दावा किया गया है कि जनवरी, 2022 में मुद्रास्फीति की उच्च दर मुख्य रूप से इसी महीने की तुलना में खनिज तेलों, कच्चे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, बुनियादी धातुओं, रसायनों और रासायनिक उत्पादों, खाद्य पदार्थों आदि की क़ीमतों में वृद्धि के कारण है। प्राथमिक वस्तु समूह से खाद्य पदार्थ और निर्मित उत्पाद समूह से खाद्य उत्पाद से युक्त खाद्य सूचकांक दिसंबर, 2021 में 169.0 से घटकर जनवरी, 2022 में 166.3 हो गया है। डब्ल्यूपीआई खाद्य सूचकांक पर आधारित मुद्रास्फीति की दर दिसंबर, 2021 के  9.24 फ़ीसदी से जनवरी, 2022 के 9.55 फ़ीसदी तक मामूली रूप से बढ़ी है।

वाणिज्य और उद्योग मंत्रालय का कहना है कि मार्च, 2022 में मुद्रास्फीति की उच्च दर मुख्य रूप से कच्चे पेट्रोलियम और प्राकृतिक गैस, खनिज तेल, मूल धातुओं आदि की क़ीमतों में वृद्धि के कारण है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के कारण वैश्विक आपूर्ति शृंखला में व्यवधान के कारण रही। सीपीआई के आँकड़ों के अनुसार, मार्च में तेल और वसा में मुद्रास्फीति बढक़र 18.79 फ़ीसदी हो गयी, क्योंकि रूस-यूक्रेन युद्ध के कारण भू-राजनीतिक संकट ने खाद्य तेल की क़ीमतों को और बढ़ा दिया। यूक्रेन सूरजमुखी तेल का प्रमुख निर्यातक है। मार्च में सब्ज़ियों में मुद्रास्फीति बढक़र 11.64 फ़ीसदी हो गयी, जबकि मांस और मछली में फरवरी, 2022 की तुलना में मूल्य वृद्धि की दर 9.63 फ़ीसदी थी।

आर्थिक सलाहकार कार्यालय, उद्योग और आंतरिक व्यापार संवर्धन विभाग ने जनवरी, 2022 (अस्थायी) और नवंबर, 2021 (अन्तिम) महीने के लिए भारत में थोक मूल्य (आधार वर्ष : 2011-12) की सूचकांक संख्या जारी की है। अब उपभोक्ता मूल्य सूचकांक में आते हैं और सीपीआई वस्तुओं को इसमें शामिल करता है। इसकी गणना वस्तुओं और सेवाओं के खुदरा मूल्य परिवर्तन पर विचार करके और उपलब्ध प्रत्येक वस्तु के औसत मूल्य को लेकर की जाती है।

राष्ट्रीय सांख्यिकी कार्यालय (एनएसओ) के फील्ड ऑपरेशंस डिवीजन के स्टाफ सदस्यों द्वारा व्यक्तिगत यात्राओं के माध्यम से सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों को कवर करने वाले कुछ चयनित 1,114 शहरी बाज़ारों और 1,181 गाँव बाज़ारों से मूल्य डेटा एकत्र किया जाता है। भारत में एक राष्ट्रव्यापी विश्वसनीय खुदरा मूल्य गणना करना कहाँ आसान हो सकता है। देश में 28 राज्य और केंद्र शासित प्रदेश हैं। उनमें से प्रत्येक की एक अद्वितीय जनसांख्यिकी, इतिहास और संस्कृति, त्योहार, भाषा, भोजन की आदतें और अधिक महत्त्वपूर्ण रूप से विशिष्ट उपभोक्ता प्राथमिकताएँ हैं। भारत में कुल 775 ज़िले हैं, जिनमें से गुजरात का कच्छ सबसे बड़ा, पश्चिम बंगाल का उत्तर 24 परगना सबसे अधिक आबादी वाला और मध्य दिल्ली सबसे अधिक भीड़ भाड़ वाला है। सन् 2019 तक भारत में 6,64,369 गाँव दर्ज किये गये। इनमें से बहुत-से गाँवों में उचित रेल-सडक़ कनेक्शन और संगठित बाज़ार नहीं हैं। ऐसी परिस्थितियों में खुदरा मूल्य और मुद्रास्फीति पर नज़र रखना न तो आसान है और न ही काफ़ी भरोसेमंद।

घटते जा रहे दुर्लभ वृक्ष

 धरती से लुप्त हो रहे हैं हज़ारों अनमोल वृक्ष 7  आँगनों से भी ग़ायब हो चुके 60 फ़ीसदी वृक्ष

वृक्षों (पेड़ों) के बिना धरती से जीवन नष्ट हो जाएगा। क्योंकि अगर धरती पर वृक्ष नहीं होंगे, तो छाया, ऑक्सीजन, फल और कई तरह की औषधियाँ भी नहीं होंगी। एक रिपोर्ट के अनुसार, भारतीय वृक्षों की प्रजातियाँ तेज़ी से लुप्त हो रही हैं। खगोलीय संरचना के अनुसार, भारत में दुनिया के अधिकतर देशों से ज़्यादा वनस्पतियाँ और पेड़-पौधों की प्रजातियाँ हैं।

पूरी धरती की अगर बात करें, तो यह माना जाता है कि क़रीब 60,000 प्रकार की वृक्षों की प्रजातियाँ पूरी धरती पर मौज़ूद हैं। हालाँकि कुछ खगोलविज्ञानियों का मानना है कि समस्त धरती पर कितनी प्रजाति के वृक्ष मौज़ूद हैं? यह कहना अभी मुश्किल है। क्योंकि अभी अनेक जंगल और स्थान हैं, जहाँ के वृक्षों को गिना नहीं जा सका है। क्योंकि वहाँ पहुँचना आज तक किसी के लिए सम्भव नहीं हो सका है। धरती पर मौज़ूद विभिन्न प्रजातियों को धरती का बायोमास का सबसे बड़ा हिस्सा कहा जाता है। यह बायोमास धरती के वन आवरणों के वितरण, संयोजन और संरचना के आधार बना हुआ है।

 सब समझें वृक्षों की उपयोगिता

जब किसी चीज़ की उपयोगिता का पता लोगों को न हो, तो वे उस चीज़ का सदुपयोग नहीं कर सकेंगे और उसे नष्ट होने से नहीं रोकेंगे। वृक्षों की जानकारी से लोग जिस तरह से अनभिज्ञ होते जा रहे हैं, यह चिन्ता का विषय है। जबकि बहुत-से लोग जानते हैं कि वृक्ष हमारे जीवन के लिए अत्यंत आवश्यक हैं। वृक्षों की बदौलत ही इंसानों और दूसरे जीवों को ऑक्सीजन मिल पा रही है। इसके अलावा वृक्षों से भोजन, ईंधन, उपयोगी लकड़ी, हवा, औषधियाँ और अन्य कई उपयोगी पदार्थ मिलते हैं। इसके अलावा अलग-अलग वृक्षों की उपयोगिता भी अलग-अलग है। लेकिन आज की पीढ़ी वृक्षों की उपयोगिता के बारे में भूलती जा रही है। इसलिए वनस्पति विज्ञान में वृक्षों की उपयोगिता के बारे में पढ़ाये जाने और सभी लोगों को इनकी उपयोगिता बताये जाने की ज़रूरत है।

 वृक्षों के प्रति हो संवेदनशीलता

भारतीय संस्कृति में कई उपयोगी हरे वृक्षों को काटने पर अनुचित माना गया है। यहाँ तक कि कई तरह के वृक्षों की तो पूजा होती है। पहले लोग वृक्षों के बीच जीवन जीना पसन्द करते थे; लेकिन अब इंसानों और वृक्षों के बीच की दूरियाँ बढ़ती जा रही हैं। ईंट-पत्थरों के बढ़ते घरों और शहरों में बढ़ती आबादी ने वृक्षों से इतनी दूरी बना ली है कि अब शहरों में वृक्षों की संख्या इंसानों से कई गुना कम हो चुकी है। गाँवों के घरों के आँगनों से अब 60 फ़ीसदी वृक्ष कम हो गये हैं। एसी-पंखे के सहारे जीने वाले शहरी इसीलिए बीमारियों से घिरे हुए हैं।

इंसानों और वृक्षों के बीच बढ़ती जा रही इस दूरी को कम करने के लिए द स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स ट्रीज में सितंबर, 2021 में पहली बार एक रिपोर्ट प्रकाशित की गयी। यह काम वैज्ञानिकों और संगठनों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क ग्लोबल ट्री स्पेशलिस्ट ग्रुप ने पाँच साल तक 58,497 पेड़ों की प्रजातियों पर अध्ययन करके किया। यह वैज्ञानिक और संगठन यूनाइटेड किंगडम में वनस्पति संरक्षण पर काम करने वाली ग़ैर-लाभकारी संस्था बोटैनिक गार्डेंस कंजर्वेशन इंटरनेशनल (बीजीसीआई) और इंटरनेशनल यूनियन फॉर कंजर्वेशन ऑफ नेचर्स स्पीशीज सर्वाइवल कमीशन (आईयूसीएन/एसएससी) के तहत काम करते हैं।

इस रिपोर्ट के अनुसार, दुनिया भर में क़रीब 142 प्रजातियाँ यानी क़रीब 30 फ़ीसदी प्रजातियाँ विलुप्त हो चुकी हैं। रिपोर्ट में एक चिन्ता करने वाला ख़ुलासा यह किया गया है कि दुनिया भर में अभी क़रीब 17,510 वृक्षों की प्रजातियों पर विलुप्त होने का संकट मँडरा रहा है। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी दुनिया में पाये जाने वाले सभी वृक्षों का अध्ययन किया जाए, तो लुप्त होने वाले वृक्षों की संख्या क़रीब 38.1 फ़ीसदी हो सकती है। हालाँकि वृक्षों की प्रजातियाँ समशीतोष्ण क्षेत्रों की तुलना में उष्णकटिबंधीय क्षेत्रों में ज़्यादा हैं। इनमें क़रीब 40.4 फ़ीसदी प्रजातियाँ नियोट्रोपिक्स में, क़रीब 23.5 फ़ीसदी इंडो-मलाया में, क़रीब 15.8 फ़ीसदी एफ्रोट्रोपिक्स में, 12.7 फ़ीसदी आस्ट्रालेशिया में, 10.2 फ़ीसदी पेलीआर्कटिक में, और क़रीब 3 फ़ीसदी नीआर्कटिक और ओशिनिया में पायी जाती हैं।

भारत इंडो-मलाया और पेलीआर्कटिक क्षेत्र में आता है, जो वृक्ष विविधता में दुनिया के 17 अत्यधिक विविधता वाले देशों में शामिल है। स्टेट ऑफ द वल्ड्र्स ट्रीज रिपोर्ट के विश्लेषण और आईयूसीएन की सप्लिमेंट्री इंफॉर्मेशन के अनुसार, भारत में कुल 2,608 प्रजातियों के वृक्ष हैं।

 भारत में लुप्त होतीं प्रजातियाँ

वर्तमान भारत में वृक्षों की 413 प्रजातियाँ यानी क़रीब 18 फ़ीसदी प्रजातियाँ विलुप्त होने के कगार पर हैं। इनमें दुर्लभ औषधियों, फलों और महत्त्वपूर्ण लकड़ी के वृक्ष शामिल हैं। कोरों के वृक्ष, जिसकी लकड़ी, जो भारत में सबसे अधिक होती थी और घरों से लेकर ट्रेन, पानी के जहाज़ आदि तक में काम में ली जाती थी, अब देखने को नहीं मिलते। कहते हैं कि कोरों की लकड़ी को लोहे की तरह मज़बूत बनने में 200 साल लगते हैं। 120-130 साल में इसका पेड़ तैयार होता है और 70-80 साल उसे काटकर पानी में रखा जाता है, तब कोरों तैयार होता है। यह एक ऐसी लकड़ी होती है, जिसमें सैकड़ों साल तक न कीड़े लगते हैं और न यह गलती है, न कमज़ोर होती है।

इसी तरह चंदन के वृक्षों की घटती संख्या गम्भीर चिन्ता का विषय है। इसके अलावा शीशम, जो पूरे उत्तर भारत में पाया जाता है, इसके वृक्षों की संख्या लगातार कम होती जा रही है। वेंडलैंडिया एंगस्टिफोलिया, जो तमिलनाडु में कभी बहुतायत में पाया जाता था। लेकिन अब इसके बहुत कम वृक्ष ही बचे हैं। साइनोमेट्रा बेड्डेमेई, जो पश्चिमी भारत में पाया जाता था, अब इसके भी बहुत कम वृक्ष बचे हैं। गम्भीर रूप से लुप्तप्राय सूची में कुछ महत्त्वपूर्ण स्थानिक प्रजातियों में से इलेक्स खासियाना, आदिनांद्रा ग्रिफिथआई, पायरेनेरिया चेरापुंजियाना और एक्विलरिया खासियाना शामिल हैं, जो पूर्वोत्तर राज्य मेघालय में पायी जाती हैं। इसके साथ ही केरल की अगलिया मालाबेरिका, डायलियम ट्रैवनकोरिकम, सिनामोमम ट्रैवनकोरिकम व बुकाननिया बरबेरी भी इस सूची में हैं। जबकि तमिलनाडु की बर्बेरिस नीलगिरिएँसिस व मेटियोरोमिट्र्स वायनाडेन्सिस के साथ ही अंडमान क्षेत्र की शायजिअम अंडमानिकम और वेंडलांडिया अंडमानिकम शामिल हैं। इनमें मसाले की इलिसियम ग्रिफिथआई प्रजातियाँ, इत्र की एक्वीलेरिया मैलाकेंसिस प्रजाति, दवा की कमिफोरा वाइटी प्रजाति, फल की एलियोकार्पस प्रूनिफोलियस प्रजाति शामिल है। इसके अलावा लुप्त हो चुके वृक्षों में पूर्व हिमालय में मिलने वाला होपिया शिंकेंग वृक्ष, सदाबहार प्रजाति का आइलेक्स गार्डनेरियाना वृक्ष, कर्नाटक में पाया जाने वाला मधुका इंसिनिस वृक्ष, मेघालय में पाया जाने वाला वृक्ष स्टरकुलिया खासियाना आदि शामिल हैं। शिंगकेंग और कोराइफा टैलिएरा प्रजातियाँ भी विलुप्त हो चुकी हैं। रिपोर्ट के अनुसार भारत में वृक्षों की 55 प्रजातियाँ गम्भीर रूप से लुप्तप्राय हैं, 136 प्रजातियाँ संकटग्रस्त हैं, 113 प्रजातियाँ संवेदनशील स्थिति में हैं, 49 प्रजातियाँ तेज़ी से घट रही हैं, 736 प्रजातियों की संख्या 20 फ़ीसदी कम हो चुकी है। इसके अलावा 57 प्रजातियों का विवरण अपर्याप्त है और (57) और क़रीब 1,459 प्रजातियों का मूल्याँकन नहीं हो सका है।

 कैसे बचाये जाएँ वृक्ष?

वृक्षों की प्रजातियों को बचाने के लिए भारत को अधिक-से-अधिक वृक्ष लगाने के साथ-साथ वन संरक्षण की ओर ध्यान देना होगा। इसके साथ ही वृक्षों के अवैध कटानों को रोकना होगा, जंगलों को आग से बचाना होगा और अधिक-से-अधिक पौधरोपण कराना होगा। वनों को बचाने के लिए वन क़ानून प्रवर्तन और वृक्षों की निगरानी व संबद्धता में कमी पर ध्यान केंद्रित करना होगा। द यूएन स्ट्रैटिजिक प्लान फॉर फॉरेस्ट 2017-2030, ग्लोबल फॉरेस्ट गोल-5 पर भी विचार करना होगा। लोगों को पौधरोपण की ओर आकर्षित करने के लिए पुरस्कार वितरण समारोह आयोजित करने होंगे। भारत में वृक्षों के अवैध कटान अपराध की श्रेणी में आता है, लेकिन इसका सख़्ती और ईमानदारी से पालन नहीं होता। फॉरेस्ट अधिकारियों की भी निगरानी करनी होगी और उन्हें सुरक्षा प्रदान करनी होगी। पुलिस को ईमानदार बनाना होगा। फ़िलहाल किसी हरे वृक्ष के काटने पर भारतीय वन क़ानून-1927 की धारा-68 के अंतर्गत पर्यावरण न्यायालय में मामला दर्ज हो सकता है।

चुनाव नहीं, तो प्रलोभन नहीं

राजनीति हिंसा और प्रलोभन से शून्य नहीं होती है। यह एक ऐसा पेशा है, जिसमें स्वार्थ के अलावा न कोई किसी स्थायी दोस्त होता है और न ही स्थायी दुश्मन। बल्कि स्वार्थ नहीं सध रहा हो, तो नेता जनता से भी सरोकार नहीं रखते। जनता को प्रलोभन नहीं देते। यही हाल मौज़ूदा समय में दिल्ली की सियासत में देखने को मिल रहा है। बताते चलें कि पाँच साल के अंतराल में दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के चुनाव सम्पन्न होते रहे हैं। इसी अन्तराल के क्रम में सन् 2017 के बाद सन् 2022 के अप्रैल महीने तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव सम्पन्न हो जाने चाहिए थे। लेकिन किसी भी हाल में सत्ता की भूखी एक बड़ी पार्टी ने सियासी दाँव चलकर चुनाव टलवा दिये।

दरअसल जनवरी, 2022 से ही दिल्ली में पोस्टर वार चल रहा था। चुनाव की तैयारी इस क़दर चरम पर थी कि पूरी दिल्ली में पोस्टर ही पोस्टर लगी दीवारें दिख रही थीं। सियासी दल एक-दूसरे पर आरोप-प्रत्यारोप लगा रहे थे। कांग्रेस, भाजपा और आम आदमी पार्टी के सम्भावित प्रत्याशियों ने चुनाव प्रचार तक शुरू कर दिया था। लेकिन जैसे ही चुनावों के टलने की बात सामने आयी, पोस्टर वार और प्रचार समाप्त हो गया।

दिल्ली विश्वविद्यालय के राजनीति शास्त्र के प्रोफेसर मनोज त्यागी का कहना है कि मौज़ूदा समय में राजनीति का स्तर दिन-ब-दिन गिरता जा रहा है। दरअसल नेताओं के मन में यह धारणा स्थायी तौर पर बैठती जा रही है कि चुनाव पैसे के दम पर झूठा प्रचार-प्रसार करके, लोगों को लुभावने आश्वासन देकर जीता जा सकता है। ऐसे में अब नेता चुनाव के समय ही अपना प्रचार-प्रसार करते हैं। चुनाव नहीं, तो जनता से उनका सरोकार न के बराबर होता है। नेताओं को लगता है कि जब चुनाव आएँगे और टिकट मिलेगा, तभी वे जनता से सम्पर्क कर लेंगे। अन्यथा क्या लेना-देना। जहाँ तक दिल्ली नगर निगम के चुनाव की बात है, तो वो टले हैं। अब आने वाले समय में 272 नहीं, बल्कि 250 सीटों पर चुनाव होना हैं। नये सिरे से परिसीमन होगा। परिसीमन में कौन-सी सीट महिला होगी? कौन-सी सीट आरक्षित होगी? किसी को पता नहीं है। सीट ही तय नहीं है, तो क्या करना है?

राजनीति विश्लेषक व चुनावी रणनीतिकार सुनील मिश्रा का कहना है कि प्रत्येक राजनीतिक दल की राजनीतिक कार्यशैली अलग-अलग होती है। मौज़ूदा समय में पूरा चुनाव प्रबंधन पर आधारित होता है। ऐसे में ज़्यादातर राजनीतिक दल चुनाव के समय माहौल देखकर राजनीति करते हैं। लेकिन वे इसे मुद्दाविहीन मानकर कामचलाऊ राजनीति करते हैं। यही वजह है कि दिल्ली में नगर निगम के चुनाव टाले जाने के बाद पार्टियों के नेता दिल्ली में विकास की बात नहीं कर रहे हैं। इतना ज़रूर है कि सुर्ख़ियों में बने रहने के लिए वे दिल्ली सहित देश के अन्य राज्यों में हो रही हिंसा पर राजनीति कर रहे हैं।

सामाजिक कार्यकर्ता ध्रुव अग्रवाल का कहना है कि उन्होंने तमाम छोटे चुनाव से लेकर विधानसभा का चुनाव तक लड़ा है। चुनाव में पराजय मिली है। लेकिन वह अनुभव से कहते हैं कि राजनीति एक ऐसी कला है, जिसमें प्रत्यक्ष तौर पर विरोध करने वालों का कोई स्थान नहीं है। इसलिए अब झूठे आश्वासन और प्रलोभन की राजनीति हो रही है।

दिल्ली नगर निगम के चुनाव न होने के वजह से दिल्ली सहित पूरे देश में मौज़ूदा राजनीतिक माहौल पर नेता पोस्टर वार करने से बच रहे हैं। दरअसल नेता बिना चुनाव के चुनावी माहौल बनाने से बचते हैं। क्योंकि अब नेताओं में राजनीतिक विचारधारा का अभाव है। यही वजह है कि आज टिकट पाने के लिए नेता किसी भी दल से समझौता करने को तैयार हो जाते हैं। अगर उन्हें उनकी पसंदीदा पार्टी में टिकट नहीं मिलता, तो वे दूसरी पार्टी में जाने में देरी और परहेज़ नहीं करते।

उत्तर प्रदेश में खिंचा विकास का खाका

विकास न करने के तमाम आरोपों के बाद भी दोबारा सत्ता में आने वाली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार मार्च में फिर बन चुकी है। अब उसके पास प्रदेश का विकास करने के लिए पूरे पाँच साल हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बार लोगों को ख़ुश करना चाहते हैं और विपक्ष को ताना कसने का कोई अवसर नहीं देना चाहते। सम्भवत: इसीलिए सरकार के गठन के बाद दूसरे ही महीने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक एक करके कई योजनाओं की घोषणा कर दी है। इन योजनाओं की फ़ायदा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक के लोगों को होने वाला है। विकास कार्य करने में लगी योगी सरकार ने अलग-अलग योजनाओं की घोषणा भी कर दी है।

नहरों तथा तालाबों का निर्माण

मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार ग्रामीण क्षेत्रों में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत नयी नहरों का निर्माण करायेगी तथा तालाबों व पुरानी नहरों का गहरीकरण व सौंदर्यीकरण का काम कराने में जुट गयी है। इसके अतिरिक्त सरकार मनरेगा पशु बाड़ा निर्माण का कार्य भी तेज़ गति से पूरा कर रही है। महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) में रोज़गार सेवक राजीव ने बताया कि मौज़ूदा योगी सरकार ने ग्रामीण विकास के लिए अच्छे क़दम उठाये हैं। अब गाँवों में पुरानी परम्परा को जीवंत किया जा रहा है। ग्रामीण जीवन में तालाब और नहरों का बड़ा महत्त्व है, क्योंकि कृषि और पशुधन ग्रामीण क्षेणों का सबसे बड़ा व्यवसाय और जीवनयापन का ज़रिया है और इन्हें जीवित रखने के लिए पानी सबसे पहली ज़रूरत है। इसलिए सिंचाई और पशुओं के पीने के लिए, साथ ही बारिश के पानी का संचयन करने के लिए पानी एकत्र करने का सबसे अच्छा माध्यम तालाब ही होते हैं, जिनका पानी साल भर लोगों, पशुओं और कृषि के काम आता है। साथ ही नहरों के बनने से उनमें पानी रहेगा, जो किसानों के लिए बड़ी राहत प्रदान करेगा।

इन्हीं बातों को ध्यान में रखते हुए उत्तर प्रदेश की योगी सरकार ने महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना यानी की मनरेगा के तहत 100 दिन में प्रदेश के 600 तालाबों को गहरा करके उनके सौंदर्यीकरण की कार्ययोजना तैयार की है, जिस पर अति शीघ्र  कार्य आरम्भ हो जाएगा। इस प्रकार पूरे एक साल में महात्मा गाँधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोज़गार गारंटी योजना (मनरेगा) के तहत योगी सरकार ने ग्राम विकास विभाग के माध्यम से 15,4,63 तालाबों का गहरीकरण तथा सौंदर्यीकरण कराएगी। राजीव ने बताया कि ग्रामीण क्षेत्रों में तालाबों के गहरीकरण तथा सौंदर्यीकरण की योजना से ग्रामीण श्रमिकों को बड़ी संख्या में काम मिल सकेगा, जिससे उनकी आर्थिक दशा में सुधार होगा।

रोज़गार सेवक राजीव ने बताया कि इस एक उत्तम योजना के माध्यम से पानी के संरक्षण के अतिरिक्त सदुपयोग भी होगा, क्योंकि इस योजना को अमल में लाने का मक़सद नष्ट हो चुके तालाबों, पोखरों को नया जीवनदान देना है। गर्मियों में पशु-पक्षियों के पीने तथा नहाने के लिए अधिक पानी उपलब्ध होगा। भूजल में वृद्धि होगी, जिससे गिरते जलस्तर को रोका जा सकेगा और हरियाली भी बढ़ेगी। रोज़गार सेवक राजीव का कहना है कि योगी सरकार का प्रयास है कि ग्रामीण क्षेत्रों में ख़ुशहाली हो और योजनाओं के माध्यम से सरकार द्वारा संचालित कल्याणकारी योजनाओं को लागू कर सभी ग्रामीणों को रोज़गार उपलब्ध कराकर उनके जीवनस्तर को श्रेष्ठ बनाया जाए। उन्होंने कहा कि योगी सरकार प्रदेश में विकास के कार्यों में लगी है और लगी रहेगी।

विदित हो कि योगी आदित्यनाथ सरकार ने अपने पिछले कार्यकाल में लगभग सवा नौ हज़ार तालाबों का निर्माण, जीर्णोद्धार तथा सौंदर्यीकरण कराया था। पूर्वी उत्तर प्रदेश में तालाबों के बनने से पानी की कमी से जूझते ग्रामीण क्षेत्रों को राहत मिली है।

रोगियों को मिलेंगी अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ

योगी आदित्यनाथ सरकार ने प्रदेश के रोगियों को अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ उपलब्ध कराने के लिए आयुष्मान योजना को उत्तम करने के लिए कई क़दम उठाये हैं। रोगियों को अच्छी चिकित्सा सुविधाएँ देने के लिए योगी सरकार ने आयुष्मान योजना में जाँच के बजट को भी बढ़ाने का निर्णय लिया है। इस सुविधा के तहत रोगियों की एमआरआई पैट स्कैन तथा रोडियोलॉजिकल जाँचों समेत कई महँगी जाँचें भी नि:शुल्क की जाएँगी। एक निजी अस्पताल के डॉक्टर हरीश का कहना है कि सरकार रोगियों को सुविधाएँ देगी ये तो अच्छी बात है, मगर इससे सरकारी अस्पतालों में रोगियों की भीड़ बढ़ेगी, जो कि पहले से ही बहुत अधिक रहती है। अगर सरकारी अस्पतालों से रोगियों की इस भीड़ को सरकार कम करना चाहती है, तो उसे चाहिए कि वो निजी अस्पतालों को भी काम सौंपे। इस प्रक्रिया में निजी अस्पताल जो भी स्वास्थ्य लाभ रोगियों को दें, उसका भुगतान सरकार सीधे अस्पतालों को कर दे। इससे सरकारी अस्पतालों में भी डॉक्टरों के आसानी होगी और निजी अस्पतालों में रोगियों को अच्छा स्वास्थ्य लाभ मिल जाएगा।

विदित हो कि अभी तक रेडियोलॉजी जैसी एक जाँच के लिए भी रोगी को पाँच हज़ार रुपये ख़र्च करने पड़ते हैं। इसी तरह अन्य जाँचें भी बहुत महँगी होती हैं, जो कि ग़रीब आदमी नहीं करा पाता है। थे। ऐसे में योगी सरकार की नि:शुल्क चिकित्सा सुविधाओं से रोगियों को बड़ी राहत मिलेगी।

वास्तव में आयुष्मान योजना केंद्र सरकार की योजना है, जो कि पिछले कई वर्षों से लागू है। मगर कई प्रदेशों में यह उतनी कारगर सिद्ध नहीं हो पायी, जितनी कि केंद्र सरकार को उम्मीद थी। इसलिए इस बार इस योजना को और ऊँचाई देने के लिए केंद्र सरकार की संस्था राष्ट्रीय स्वास्थ्य प्राधिकरण ने सभी प्रदेशों को इसका प्रस्ताव भेजा है। इसमें केंद्र सरकार ने शर्त रखी है कि इस योजना का 40 फ़ीसदी ख़र्च प्रदेश की सरकार को ही उठाना होगा। मगर अच्छाई यह है कि इस चिकित्सा योजना के तहत अब लगभग 800 तरह की सुविधाओं की धनराशि में बढ़ोतरी होगी। केंद्र सरकार की आयुष्मान योजना के तहत पंजीकृत रोगी तय धनराशि का इलाज अपनी इच्छानुसार सरकारी तथा निजी अस्पतालों में जहाँ चाहें करा सकते हैं। इसमें रोग के हिसाब से जाँचों का शुल्क खुद ही जुड़ जाएगा, जिसके लिए रोगियों को सीधे अपनी जेब से पैसा ख़र्च करने की आवश्यकता नहीं होगी।

विदित हो कि आयुष्मान योजना से लगभाग छ: करोड़ सदस्य जुड़े हैं। इस योजना के तहत पाँच लाख रुपये के चिकित्सा लाभ तक का प्रावधान है।

स्कूलों की सुधरेगी दशा

शिक्षा व्यवस्था ठीक करने के लिए प्रदेश में योगी आदित्यनाथ सरकार सरकारी स्कूलों की दशा सुधारेगी। इस बारे में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने अधिकारियों के साथ बैठक करके विचार मंथन कर लिया है। अव वे सरकारी स्कूलों के कायाकल्प के लिए भी जुट गये हैं तथा ऑपरेशन कायाकल्प के तहत स्कूलों को स्मार्ट बना रहे हैं। गौंटिया के प्राथमिक विद्यालय के अध्यापक हरीश गंगवार ने बताया कि प्रदेश में विद्यालयों की दशा सुधरने का समाचार पढक़र बहुत ख़ुशी हुई। बच्चे तो देश का भविष्य होते हैं। सरकार वही अच्छी, जो बच्चों का भविष्य सँवारे। इसके लिए मैं प्रदेश के माननीय मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार को धन्यवाद देना चाहूँगा कि उन्होंने प्रदेश में दुर्दशा की हालत में पहुँचे विद्यालयों की दशा सुधारने का बीड़ा उठाया है।

विदित हो कि योगी सरकार अपने दूसरे कार्यकाल में ऑपरेशन कायाकल्प के माध्यम से प्राथमिक और माध्यमिक विद्यालयों का कायाकल्प करने जा रही है। इसके लिए योगी सरकार ने हर तरह की पूरी तैयारियाँ कर ली हैं। अब उत्तर प्रदेश के सभी प्राथमिक विद्यालय देश के विद्यालयों की नाक होंगे, जिनमें बच्चों के लिए शिक्षा की उत्तम व्यवस्थाएँ और अच्छी हालत की मेजें तथा बेंचें होंगी। हाल-फ़िलहाल में योगी सरकार लगभग 30 हज़ार माध्यमिक विद्यालयों के बुनियादी ढाँचे का नवीनीकरण करने का विचार बना रही है। सरकारी सूत्रों की मानें तो सरकारी विद्यालयों में निजी विद्यालयों की तरह ही ऑडियो-वीडियो प्रोजेक्ट के साथ स्मार्ट क्लास रूम बनाये जाएँगे। कहा जा रहा है कि यह विद्यालय इतने अच्छे होंगे कि निजी और कान्वेंट विद्यालयों को टक्कर देंगे। क्योंकि अब सरकारी विद्यालयों में पुस्तकालय, कम्प्यूटर लैबोरेटरी, साइंस लैब, आर्ट रूम के अतिरिक्त वाईफाई की व्यवस्था भी होगी। इसके अतिरिक्त योगी सरकार बच्चों के लिए उत्तम शिक्षा देने की व्यवस्था भी करेगी। बताया जा रहा है कि कई विद्यालयों में तो खेल के मैदान भी बनाये जाएँगे। कई विद्यालयों का कायाकल्प हो भी चुका है। शिक्षा अधिकारियों और प्रकाशित समाचारों की मानें तो जिन सरकारी स्कूलों में अब तक माता-पिता अपने बच्चों को पढ़ाना नहीं चाहते थे, अब उनमें बच्चों की संख्या में तेज़ गति से बढ़ी है।

विदित हो कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने वर्ष 2019 में ऑपरेशन कायाकल्प का शुभारम्भ किया था, जिसके तहत प्रदेश के लगभग 1.33 लाख परिषदीय विद्यालयों में पढऩे वाले लगभग 1.64 लाख बच्चों को अत्यधिक आधुनिक परिवेश के साथ स्वच्छ, स्वास्थ्यवर्धक तथा सुरक्षित माहौल देने का प्रयास किया जा रहा है। इस योजना के तहत विद्यालयों का सौंदर्यीकरण तो होगा ही, उनमें बच्चों और अध्यापकों के लिए पीने योग्य पानी,  साफ़-सुथरे शौचालय, स्वच्छ और प्रसन्नचित वातावरण उपलब्ध कराया जाएगा।

विकास न करने के तमाम आरोपों के बाद भी दोबारा सत्ता में आने वाली मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ की सरकार मार्च में फिर बन चुकी है। अब उसके पास प्रदेश का विकास करने के लिए पूरे पाँच साल हैं। यही कारण है कि मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ इस बार लोगों को ख़ुश करना चाहते हैं और विपक्ष को ताना कसने का कोई अवसर नहीं देना चाहते। सम्भवत: इसीलिए सरकार के गठन के बाद दूसरे ही महीने में मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने एक एक करके कई योजनाओं की घोषणा कर दी है। इन योजनाओं की फ़ायदा शहरों से लेकर ग्रामीण क्षेत्रों तक के लोगों को होने वाला है। विकास कार्य करने में लगी योगी सरकार ने अलग-अलग योजनाओं की घोषणा भी कर दी है।

पीछा नहीं छोड़ रहा कोरोना

देश भर में कोरोना को फैलने से रोकने के लिए मास्क और दो गज़ की दूरी वाली पाबंदियाँ ये सोचकर हटा दी गयी थीं कि अब कोरोना संक्रमण नहीं बढ़ेगा। लेकिन सच्चाई यह है कि जब पाबंदियों को हटाया गया था, तब भी देश में कोरोना के मामले आ रहे थे। जैसे ही पाबंदियाँ हटीं, मामले फिर बढऩे लगे।

विशेषज्ञों का कहना है कि कोई भी संक्रमित बीमारी आसानी से नहीं जाती। ऐसे में पाबंदियों के हटाये जाने से संक्रमण का बढऩा स्वाभाविक था। दिल्ली से सटे राज्य हरियाणा और उत्तर प्रदेश में जिस तरह से कोरोना के मामले बढ़ रहे हैं, वो चिन्ता बढ़ाने वाले हैं। जाहिर है महामारी अभी ख़त्म नहीं हुई है, इसलिए सतर्क रहने की ज़रूरत है। कुछ विशेषज्ञों का कहना है कि कोरोना को लेकर लापरवाही घातक हो सकती है। कोरोना की चौथी लहर को लेकर आईआईटी शोध कानपुर का दावा कर चुकी है कि जून-जुलाई के महीने में कोरोना कहर बरपा सकता है। ऐसे में क्या बचाव किये जाएँ, जिससे कोरोना से बचा जा सके?

दिल्ली स्टेट प्रोग्राम ऑफिसर (एनसीसीएचएच) के डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि जिस तरीक़े से शनै:-शनै: कोरोना के मामले दिल्ली-एनसीआर में बढ़ रहे हैं, वे चिन्ता ज़रूर बढ़ाने वाले हैं। लेकिन इसका यह मतलब नहीं है कि चौथी लहर आ चुकी है। इतना ज़रूर है कि कोरोना का प्रकोप बढ़ रहा है। ऐसे में हमें कोरोना से बचाव के दिशा-निर्देशों का पालन करते हुए सामाजिक और शैक्षणिक के साथ आर्थिक गतिविधियों को सुचारू रखना चाहिए, अन्यथा लोगों में भय का माहौल बनेगा और कोरोना के डर से लोग फिर से बीमार पडऩे लगेंगे। डॉक्टर भरत सागर का कहना है कि स्वास्थ्य महकमे को कोरोना जैसी बीमारी से निपटने के लिए अभी से तैयार रहना चाहिए। 31 मार्च, 2022 को जब कोरोना के मामले कम होने पर मास्क लगाने से आजादी मिली थी। उसके 10 बाद ही कोरोना के मामले बढऩे लगे थे। 18 अप्रैल से दिल्ली-एनसीआर में हर दिन 1,000 से ज़्यादा मामले आने लगे। इससे यह साबित हो गया है कि कोरोना को लेकर बरती गयी ढील हमें मुसीबत में डाल सकती है।

साकेत मैक्स के कैथ लैब के डायरेक्टर व हृदय रोग विशेषज्ञ डॉक्टर विवेका कुमार का कहना है कि देश में हृदय रोगी के साथ-साथ दमा रोगी बहुत हैं। अगर उसको कोरोना होता है, तो मुश्किल होगी। इसलिए उन्हें विशेषतौर पर सावधानी बरतनी होगी। कोरोना के नये-नये स्वरूपों से हमें यह पता चला है कि कोरोना का कहर जब भी आता है और इसकी रफ्तार बढ़ती है, तब दो से तीन सप्ताह तक मामले बढ़ते हैं। फिर एक-दो सप्ताह में कोरोना के मामले कम होने लगते हैं। इसलिए कोरोना के मामले मई के पहले सप्ताह तक कम हो सकते हैं।

अखिल भारतीय आर्युविज्ञान संस्थान (एम्स) के डॉक्टर आलोक कुमार का कहना है कि केंद्रीय स्वास्थ्य मंत्रालय के आँकड़ों के मुताबिक, 21 अप्रैल से कोरोना के प्रतिदिन 2,000 से ज़्यादा नये मामले आ रहे हैं। अब तक कोरोना से संक्रमित होने वालों की कुल संख्या बढक़र 4,30,54,952 हो गयी है। जबकि उपचाराधीन रोगियों की संख्या 15,079 और कोरोना से मरने वालों की संख्या 23 अप्रैल, 2022 तक बढक़र 5,22,149 तक पहुँच गयी है। डॉक्टर आलोक का कहना है कि अब कोरोना का ग्राफ फिर बढ़ रहा है। लेकिन इससे घबराने की नहीं, बल्कि सतर्क रहने की ज़रूरत है। अगर डॉक्टरों, स्वास्थ्यकर्मियों के साथ-साथ आम नागरिक सतर्क रहते हैं, तो निश्चित तौर पर कोरोना पर काबू पाया जा सकता है। उनका कहना है कि अब तक कोरोना के ओमिक्रॉन, बीए1, बीए2 और एक्स-ई जैसे कई स्वरूप सामने आये हैं। भारत में ओमिक्रॉन और इसकी उपवंश बीए.1 बीए.2 और एक्सई बीए.1 और बीए.2 का मिश्रण है। उनका कहना है कि कोरोना महामारी को लेकर देश में तमाम तरह से अफ़वाहों का दौर चलता है। कोई कहता है कि आने वाला कोरोना बच्चों के लिए घातक है, तो कोई कहता है कि इस बार का कोरोना सीधे हृदय पर अटैक करेगा। इन बातों पर ग़ौर न करें, बस सावधानी बरतें। बुख़ार, खाँसी और घबराहट होने पर योग्य डॉक्टर से इलाज करवाएँ।

इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉक्टर अनिल बंसल का कहना है कि गत दो वर्षों से ख़ासतौर पर स्वास्थ्य विशेषज्ञों को यह पता चल चुका है कि कोरोना का वायरस हमारे साथ हमेशा रहेगा। इसका नतीजा यह होगा कि आने वाले समय में नियमित अतंराल में कोरोना के मामलों में उतार-चढ़ाव देखने को मिलेंगे। ऐसे में हमें चिन्ता इस बात पर करनी होगी कि कैसे कोरोना के रोगी को तत्काल उपचार मिल सके। समय पर लोगों को कोरोना के टीके लगने चाहिए। बूस्टर डोज भी नि:शुल्क होनी चाहिए। डॉक्टर अनिल बंसल का मानना है कि देश की स्वास्थ्य प्रणाली शहरों में तो मज़बूत है, लोगों की जाँच भी हो जाती है और जल्द ही पता चल जाता है कि उनमें से किसे कोरोना है और किसे नहीं है। लेकिन गाँवों में स्वास्थ्य व्यवस्था पूरी तरह लचर है, जिसके कारण कोरोना के सही आँकड़े सामने नहीं आ पाते हैं। इससे रोगी स्वस्थ लोगों में संक्रमण फैला देता है और इस तरह कोरोना बढ़ता रहता है।

दिल्ली मेडिकल एसोसिएशन (डीएमए) के अध्यक्ष डॉक्टर अश्विनी डालमिया का कहना है कि कोरोना को लेकर तरह–तरह की भ्रान्तियाँ फैलायी जा रही हैं। जबकि दिल्ली में अभी मिश्रित वेरिएंट यानी डेल्टा, ओमिक्रॉन आदि है। इनके सब-वेरिएंट भी हैं। ऐसे में दिल्ली में पक्के तौर पर यह नहीं कहा जा सकता है कि कौन-सा वेरिएंट है। डॉक्टर डालमिया का कहना है कि कुछ स्वार्थी तत्व यह माहौल बनाने में लगे हैं कि कोरोना बढ़ रहा है, जो पहले ज़्यादा कहर बरपायेगा। इस तरह वे ज़ोर-शोर से हल्ला कर रहे हैं। जबकि कोरोना के मामले बढऩा अलग बात है। बात अगर महत्त्वपूर्ण है, तो यह है कि अस्पतालों में कितने मरीज़ भर्ती हैं। दिल्ली में कोरोना के इने-गिने लोग ही भर्ती हैं। उनका पर्याप्त उरचार हो रहा है।

बताते चलें कोरोना को लेकर और नये वेरिएंट एक्स-ई को लेकर दिल्ली सहित पूरे देश में जो माहौल बना है या बनाया गया है, वह लालची लोगों की साज़िश का हिस्सा है। सच यह है कि एक्स-ई वेरिएंट का कोई मामला अभी तक सामने नहीं आया है। डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि एक्स-ई वेरिएंट जितना ख़तरनाक बताया जा रहा है, उतना है नहीं। क्योंकि अभी तक देश में एक्स-ई वेरिएंट की कोई पुष्टि नहीं हुई है।

डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि कोरोना के नये-नये स्वरूप तो आते-जाते रहेंगे। ऐसे में अगर कोरोना से बचाव मास्क से होगा। भीड़-भाड़ वाली जगह पर जाएँ, तो मास्क ज़रूर लगाएँ। साथ ही जिन्होंने कोरोना टीके नहीं लगवाये हैं, वे देर न करें। अगर बूस्टर डोज की ज़रूरत हो, तो ज़रूर लगवा लें। क्योंकि सावधानी में ही सुरक्षा है।

डॉक्टर राजीव गर्ग का कहना है कि कोरोना के मामले बढऩे के बीच राहत की बात यह है कि अस्पतालों में भर्ती होने वाले कोरोना से पीडि़त रोगियों की संख्या बहुत कम है। मतलब साफ़ है कि कोरोना क़ाबू में है। समस्या यह है कि कोरोना को लेकर लोगों में जागरूकता तो बढ़ी है; लेकिन कुछ लोग लापरवाही बरतने से बाज़ नहीं आ रहे हैं, जिससे कोरोना के मामले बार-बार बढऩे लगते हैं। ऐसे में बचाव के तौर पर ‘दो गज़ की दूरी और मास्क है ज़रूरी’ की राह पर ही चलना होगा।

अस्पतालों में लापरवाही

कोरोना को लेकर चौकाने वाली बात तो यह है कि सरकारी और निजी अस्पतालों में आधे से ज़्यादा डॉक्टर और पैरामेडिकल कर्मचारी ख़ुद बिना मास्क के देखे जा सकते हैं। अस्पतालों में इस प्रकार का दृश्य इस बात की ओर इशारा कर रहा है कि कोरोना को लेकर न घबराएँ, न ही चिन्ता करें। लेकिन डॉक्टरों और स्वास्थ्यकर्मियों की इस लापरवाही का नतीजा यह है कि अस्पताल में इलाज कराने आने वाले और इलाज कराकर जाने वाले बहुत-से लोग मास्क लगाने कतराने लगते हैं। दिल्ली में मास्क कोरोना के डर से नहीं, बल्कि चालान न कट जाए, इसलिए लोग मास्क लगाते हैं। दिक़्क़त यह है कि दिल्ली से सटे कुछ राज्यों में मास्क कोई भी नहीं लगाता है। इन राज्यों से हर रोज़ हज़ारों लोग दिल्ली आते-जाते हैं। इसलिए कोरोना पीछा नहीं छोड़ रहा है।

पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे एशियाई देश

भारत के साथ रिश्तों को लेकर सबकी नज़र पाकिस्तान पर

यह अप्रैल के दूसरे हफ़्ते की बात है। पाकिस्तान में शहबाज़ शरीफ़ के नेतृत्व में विपक्षी दलों की गठबंधन सरकार बने एक हफ़्ता हुआ था। अमेरिका ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने की बधाई दे दी थी। यह इसलिए भी अहम था, क्योंकि सत्ता से बाहर होने वाले इमरान ख़ान ने अपनी सरकार गिरने की पीछे अमेरिका का हाथ होने का आरोप लगाया था। शहबाज़ अपने बयानों से इमरान के अमेरिका विरोधी रुख़ के ख़िलाफ़ दिख रहे थे, क्योंकि सेना भी इमरान ख़ान के इस बयान को नकार चुकी थी। लेकिन सत्ता में आने के एक हफ़्ते में ही अमेरिका के बधाई स्वीकार करने के दौरान शहबाज़ और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच गुपचुप पत्राचार हुआ, जिसमें पुतिन ने शहबाज़ को प्रधानमंत्री बनने पर बधाई दी और दोनों देशों के बीच सहयोग मज़बूत करने की बातें हुईं। इस पत्राचार को मीडिया से छिपाया गया। तो क्या इमरान ख़ान के अमेरिका के प्रति रुख़ को शहबाज़ भी आगे बढ़ा रहे हैं, क्योंकि वह रूस को नाराज़ नहीं रखना चाहते।

आने वाले समय में इस्लामाबाद की इस नयी नीति के नतीजों का पता चलेगा; क्योंकि भारत के साथ उसके द्विपक्षीय रिश्तों का बहुत कुछ दारोमदार इस पर निर्भर करता है कि उसके रिश्ते एशिया में किन देशों से और कैसे हैं? माना जा रहा है कि भारत यूक्रेन युद्ध के दौरान रूस के और नज़दीक आया है। ऐसे में सवाल उठता है कि क्या एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट हो रहे हैं? अभी यह कहना जल्दबाज़ी होगा। चीन, जो कमोवेश खुले रूप से रूस के साथ खड़ा दिख रहा है; ने भी हाल में अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़े होने का एशियाई देशों का कुछ ऐसा ही आह्वान किया था।

यहाँ एक बड़ा सवाल यह है कि क्या रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद दुनिया एक नयी विश्व-व्यवस्था में ढल रही है? यह भी कि क्या काफ़ी एशियाई देश अमेरिका और पश्चिम के ख़िलाफ़ एकजुट होने की कोशिश कर रहे हैं? बहुत-से देश यह मानते हैं कि हाल के दशकों में अमेरिका ने उन्हें अपने हिसाब से हाँकने की कोशिश की है। जब-तब वह इन देशों को हडक़ाता रहता है। इमरान ख़ान ने भी सत्ता के आख़िरी दिनों में कुछ ऐसे ही आरोप लगाये थे और कहा था कि कोई भी ख़ुद्दार देश ऐसी स्थिति ख़ुशी से स्वीकार नहीं कर सकता। इसके लिए इमरान ने ख़ासतौर पर भारत का उदाहरण देते हुए कहा था कि हमारे पड़ोसी देश से अमेरिका उस तरीक़े से पेश नहीं आ सकता, जैसे वह पाकिस्तान को हाँकता है। हालाँकि सच यह है कि रूस के साथ रिश्तों को लेकर अमेरिका ने भारत को भी ख़ूब आँखें दिखायी हैं।

रूस-यूक्रेन युद्ध ने वैश्विक स्तर पर स्थितियों को काफ़ी बदला है। ऐसा नहीं है कि पूरा एशिया ही अमेरिका के ख़िलाफ़ खड़ा हो गया है; लेकिन ज़मीनी हक़ीक़त देखें, तो देशों के नज़रिये में काफ़ी बदलाव आया है। प्राचीन समय को याद करें, तो ज़ाहिर होता है कि दूसरे विश्व युद्ध के बाद और शीत युद्ध के दौरान भी खुले रूप से दुनिया दो ख़ेमों में बँट गयी थी। उस समय भी दुनिया के एक हिस्से का नेतृत्व अमेरिका तो दूसरे का तत्कालीन सोवियत संघ कर रहा था। यहाँ यह भी ग़ौरतलब है कि दूसरे विश्व युद्ध के चार साल बाद सन् 1949 में नाटो अर्थात् नॉर्थ अटलांटिक ट्रीटी ऑर्गेनाइजेशन का गठन हुआ था। अमेरिका के नेतृत्व में कनाडा और अन्य पश्चिमी देश इसके गठन के पीछे थे। नाटो के उस समय कुल जमा एक दर्ज़न सदस्य थे, जो आज 30 हो चुके हैं।

यूक्रेन भले नाटो सदस्य न हो; लेकिन उसे रूस के ख़िलाफ़ युद्ध में अमेरिका और उसके सहयोगियों से भरपूर मदद मिली है। वैसे नाटो का जब गठन हुआ था, तो यह तय किया गया था कि उत्तरी अमेरिका या यूरोप के इन देशों में से किसी एक पर भी हमले को संगठन में शामिल सभी देश अपने ऊपर हमला मानेंगे और एक दूसरे की मदद करेंगे। हालाँकि 1991 में जब सोवियत संघ का विघटन हो गया, तो वैश्विक परिदृश्य भी बदल गया। दरअसल सोवियत संघ का विघटन ही नाटो के जन्म की असल वजह थी।

पुतिन ने यूक्रेन के बहाने अमेरिका के नेतृत्व को पहली बार चुनौती नहीं दी है। इससे पहले अमेरिका की एकध्रुवीय शक्ति को रूस ने सीरिया में भी चुनौती दी थी। तब अमेरिका लाख कोशिश करके भी रूस की कोशिश को नाकाम नहीं कर पाया था, न सीरिया में वह बशर अल-असद को सत्ता से बाहर कर पाया था और उसे सीरिया से निराश होकर लौटना पड़ा था। रूस ने यूक्रेन युद्ध से पहले ही दूसरे देशों को अपने साथ जोडऩा शुरू कर दिया था। यहाँ तक कि हाल के महीनों में रूस के राष्ट्रपति पुतिन ने भारत का भी दौरा किया था।

यह ठीक है कि अभी दुनिया शीत युद्ध के समय की तरह पूरी तरह दो ध्रुवीय नहीं हुई है; लेकिन बढ़ उसी तरफ़ रही है। हाल के दिनों में भारत जैसा देश, जो कुछ महीने पहले तक पूरी तरह अमेरिका के साथ दिखता था; अब रूस के नज़दीक दिख रहा है और अमेरिका इसके लिए उसे (भारत) को आँखें दिखा रहा है। ब्रिटेन के प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन की 23 अप्रैल की भारत यात्रा को इसी क्रम में देखा जा सकता है। विशेषज्ञ यह मानते हैं कि जॉनसन की भारत यात्रा एक तरह से उसे (भारत को) अमेरिकी ब्लॉक में बनाये रखने की भी क़वायद थी।

पाकिस्तान का इमरान ख़ान के सत्ता काल में खुले रूप से अमेरिका के ख़िलाफ़ होना इस बात का संकेत है कि अमेरिका एशिया में अपने सहयोगी खो रहा है। अब जिस तरह शहबाज़ शरीफ़ और पुतिन के बीच पत्र का आदान-प्रदान हुआ है और इसे जिस तरह मीडिया से छिपाकर रखा गया, उससे ज़ाहिर होता है कि पाकिस्तान अमेरिका के साथ बने रहने के लिए रूस को नज़रअंदाज़ नहीं करना चाहता। चीन ने जिस तरह खुलकर रूस का साथ दिया है, उससे पाकिस्तान जैसे देशों पर भी दबाव बनना स्वाभाविक है।

 

रूस के नज़दीक कौन?

एशिया में ही चीन, भारत जैसे देश रूस-यूक्रेन युद्ध के मामले में तटस्थ दिखे हैं। अर्थात् उन्होंने रूस का विरोध नहीं किया है। अमेरिका का भारत पर दबाव बनाना ज़ाहिर करता है कि उसे भारत का रूस के साथ इस तरह जाना जँच नहीं रहा। इसके अलावा शिया मुस्लिम बहुल ईरान, जो मध्य पूर्व में पश्चिम एशिया का देश है; के अमेरिका से सन् 1979 की इस्लामिक क्रान्ति के समय से ख़राब सम्बन्ध हैं। रूस से ईरान के फ़िलहाल अच्छे सम्बन्ध हैं।

हाल में ईरान के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता सईद ख़ातिबज़ादेह ने कहा था कि इस्लामिक रिपब्लिक ऑफ ईरान सभी पक्षों से धैर्य की अपेक्षा करता है। किसी भी तरह के तनाव बढ़ाने वाले क़दम से परहेज़ करना चाहिए। सभी पक्ष संवाद के ज़रिये अपने मतभेदों को सुलझा सकते हैं। हालाँकि उन्होंने जो महत्त्वपूर्ण बात कही वह यह थी दुर्भाग्य से अमेरिका ने नाटो के हस्तक्षेप और उकसाऊ क़दम से इलाक़े की स्थिति को जटिल बना दिया है।

तुर्की, जिसकी बहुसंख्यक आबादी मुसलमान है; के सम्बन्ध भी हाल के महीनों में अमेरिका से तल्ख़ हुए हैं। तुर्की, जिसकी सीमा एशिया और पश्चिम दोनों से जुड़ती है; नाटो का सदस्य भी है। नाटो के सदस्य के नाते तुर्की यूक्रेन पर रूसी हमले का समर्थक भले नहीं रहा है। लेकिन उसके राष्ट्रपति रेचेप तैय्यप अर्दोआन उस समय से अमेरिका से ख़फ़ा रहे हैं, जब उसने तुर्की पर रूस से एस-400 मिसाइल सिस्टम लेने कारण प्रतिबंध लगा दिया था। विशेषज्ञ मानते हैं कि जो बाइडन के सत्ता में आने के बाद तो तुर्की के अमेरिका से सम्बन्ध ख़राब हुए हैं। अर्दोआन के बारे में मशहूर है कि जब भी वे अमेरिका से ख़फ़ा होते हैं, तो पुतिन के पास पहुँच जाते हैं।

इसी तरह पश्चिम एशिया का एक और देश संयुक्त अरब अमीरात (यूएई) ने युद्ध को लेकर कभी यह नहीं कहा कि रूस ने यूक्रेन की सम्प्रभुता का उल्लंघन किया है। उसने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् में यूक्रेन के मुद्दे को कूटनीतिक वार्ता से सुलझाने की अपील की थी। युद्ध के दौरान यूएई के विदेश मंत्री रूस के अपने समकक्ष से फोन पर बात करते रहे हैं। दोनों अपने सम्बन्धों को और मज़बूत करने पर ज़ोर देते रहे हैं।

दरअसल अमेरिका और सऊदी अरब के रिश्ते पहले जैसे नहीं रहे हैं। हाल में अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने सऊदी अरब से तेल का उत्पादन बढ़ाने का आग्रह किया था। सऊदी ऐसा करता, तो महँगाई और गैस की क़ीमत कम करने में मदद मिलती और इससे रूस के तेल से होने वाले फ़ायदे को रोका या कम किया जा सकता था; लेकिन सऊदी अरब ने अमेरिका की बात नहीं मानी थी। क्राउन प्रिंस मोहम्मद बिन सलमान के मज़बूत होने से सऊदी-रूस सम्बन्ध और मज़बूत हुए हैं। हाल के वर्षों में पुतिन और क्राउन प्रिंस की कई बैठकें हुई हैं।

चीन रूस की ही तरह नाटो का विस्तार नहीं चाहता। बीजिंग विंटर ओलंपिक के उद्घाटन पर रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन जब फरवरी में चीन गये थे, तब एक साझे बयान में चीन ने नाटो के विस्तार पर आपत्ति जतायी थी। यूक्रेन युद्ध के दौरान जब संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् की बैठक हुई, तो चीन के राजदूत ने कहा था कि मौज़ूदा स्थिति कई जटिल कारणों की वजह से है। चीन ने कहा था कि संयुक्त राष्ट्र चार्टर के तहत सभी देशों को शान्तिपूर्ण माध्यमों से अंतरराष्ट्रीय विवादों का हल निकालना चाहिए। कुछ विशेषज्ञ मानते हैं कि जिस तरह पश्चिमी देशों के रूस पर प्रतिबंध बढ़े हैं, सम्भवत: चीन उसकी मदद करेगा। वैश्विक राजनीति को देखें तो साफ़ है कि चीन-रूस मिलकर अमेरिका को चुनौती दे रहे हैं।

यदि मध्य और पूर्वी यूरोप की बात करें, तो रोमानिया, बुल्गारिया, स्लोवाकिया, स्लोवेनिया, लात्विया, एस्टोनिया और लिथुआनिया 2004 में जबकि क्रोएशिया और अल्बानिया 2009 में नाटो में शामिल हो गये थे। इससे पहले जॉर्जिया और यूक्रेन को साल 2008 में नाटो की सदस्यता मिलने वाली थी; लेकिन आज तक दोनों नाटो में नहीं हैं। यूक्रेन को लेकर रूस का सबसे ज़्यादा ग़ुस्सा यही रहा है कि वह नाटो में शामिल होना चाहता है। रूस इसका जबरदस्त विरोध करता रहा है।

इनमें से क्रोएशिया की बात करें, तो नाटो में होने के बावजूद यूक्रेन पर उसका रुख़ नाटो से मेल नहीं खाता। क्रोएशिया के राष्ट्रपति ज़ोरान मिलानोविक ने युद्ध से पहले ही कह दिया था कि यदि रूस के साथ संघर्ष छिड़ा, तो वह यूक्रेन से अपनी सेना वापस बुला लेगा और उसने ऐसा ही किया। क्रोएशिया ने कहा था कि रूस की सुरक्षा चिन्ताओं का ख़याल रखना चाहिए। अज़रबैजान भी रूस के साथ खड़ा दिखा है। युद्ध से ऐन पहले उसके राष्ट्रपति रूस के दौरे पर थे और उस दौरान उन्होंने अलाई डिक्लेरेशन पर दस्तख़त किये थे।

 

भारत और पाकिस्तान

जहाँ तक भारत की बात है, दुनिया की पाँचवीं सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था होने के कारण उसके लिए भले रूस या अमेरिका में किसी एक का खुलकर पक्ष लेना मुश्किल है। हालाँकि हाल के हफ़्तों में रूस के प्रति भारत का रुख़ समर्थक जैसा दिखा है, भले उसने कहा है कि रूस-यूक्रेन युद्ध का हल बातचीत से होना चाहिए। अमेरिका के भारत पर दबाव बनाने के बावजूद भारत ने रूस के ख़िलाफ़ कुछ नहीं कहा है और सस्ते तेल निर्यात के रूस के ऑफर को भी स्वीकार किया है।

अब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ के रूस के राष्ट्रपति के साथ गुपचुप के पत्र व्यवहार के बाद यह सवाल उठ रहा है कि क्या इमरान ख़ान का अमेरिका को लेकर जो स्टैंड आख़िरी दिनों में बना था; शहबाज़ सरकार काफ़ी हद तक उसी पर चलना चाह रही है। यदि ऐसा है तो यह अमेरिका के लिए बड़ा झटका होगा, क्योंकि पाकिस्तान अमेरिका का दशकों से दक्षिण एशिया में सबसे विश्वस्त सहयोगी रहा है। यह मान्यता रही है कि अमेरिका का कोई भी बड़ा अधिकारी जब भारत के दौरे पर आता है, तो वह साथ ही पाकिस्तान भी ज़रूर जाता है।

भारत को हाल के वर्षों में गुटनिरपेक्ष नीति पर चलने वाला वैसा मज़बूत देश नहीं कहा जा सकता, जैसा वह पहले रहा है। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रम्प के साथ प्रधानमंत्री मोदी ने जैसा व्यक्तिगत रिश्ता बनाया और उनके चुनाव के समय जिस तरह उनके साथ खड़े दिखे उसकी कांग्रेस पार्टी काफ़ी आलोचना करती रही है और उसका आरोप रहा है कि भारत अपनी गुटनिरपेक्ष नीति से बाहर जा रहा है। हालाँकि नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद भारत ने ऐसी कई नीतिगत चीजें की हैं, जो परम्परा से हटकर रही हैं। विपक्ष, ख़ासकर कांग्रेस इसकी कटु आलोचना करती रही है।

हाल में पाकिस्तान के नये प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ ने प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी को चिट्ठी लिखकर दोनों देशों के बीच सार्थक सम्बन्धों की वकालत की। प्रधानमंत्री मोदी ने शहबाज़ शरीफ़ से कहा था कि भारत अपने पड़ोसी पाकिस्तान के साथ रचनात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जवाब में शहबाज़ शरीफ़ ने कहा कि पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध चाहता है। पाकिस्तान, भारत के साथ शान्तिपूर्ण और सहयोगात्मक सम्बन्ध का इच्छुक है। जम्मू और कश्मीर सहित बक़ाया विवादों का शान्तिपूर्ण समाधान अपरिहार्य है। आतंकवाद से संघर्ष में पाकिस्तान का बलिदान भी जगज़ाहिर है। आइये, शान्ति स्थापित करें और अपने लोगों के सामाजिक-आर्थिक विकास पर ध्यान दें!

 

पाकिस्तान की स्थिति

पकिस्तान में नयी सरकार बनने के बाद भारत से उसके रिश्तों पर सबकी नज़र है। यह तो नहीं होगा कि सीधे कूटनीतिक स्तर पर कोई बड़ा घटनाक्रम हो। लेकिन सांस्कृतिक, खेल और व्यापारिक (कॉमर्स) स्तर से रिश्तों की बहाली पर काम शुरू हो सकता है। अब देखना यह होगा कि विदेश मंत्री बनने के बाद बिलावल भुट्टो क्या करते हैं? क्योंकि उनकी पार्टी पीपीपी की विदेश नीति प्रधानमंत्री शहबाज़ शरीफ़ की पार्टी पीएमएलएन से भिन्न रही है। हालाँकि पाकिस्तान में विदेशी रिश्तों को लेकर सेना का हस्तक्षेप रहता है, यह माना जाता है कि पाकिस्तान में सेना का रुख़ हाल के कुछ वर्षों में बदला है। हाल में पाकिस्तान की कोर्ट ने भारत की तरफ़ से मोस्ट वांटेड हाफ़िज़ सईद को 31 साल की जेल की सज़ा सुनायी गयी है और उसकी सम्पत्ति ज़ब्त करने के आदेश भी हुए हैं। जानकार इसे सेना के भारत के साथ रिश्तों को बेहतर करने की दिशा में एक कोशिश के रूप में देखते हैं। यह तय है कि भारत का रुख़ आतंकवाद को लेकर सख़्त रहेगा। ऐसे में सईद को जेल की सज़ा को सेना के भारत के साथ रिश्ते सुधारने की दिशा में भी देखा जा सकता है। यह तो तय है कि पाकिस्तान के साथ इतने साल के तनाव के बाद सीधे कश्मीर, सियाचिन, सर क्रीक जैसे वृहद आकार के मसलों पर बातचीत नहीं हो सकती। यह माना जाता है कि हाल के महीनों में भारत और पाकिस्तान के बीच बैकडोर चैनल्स के ज़रिये बातचीत हुई है। जानकार मानते हैं कि पाकिस्तान की भारत किसी भी तरह की कोई सक्रियता पूर्व प्रधानमंत्री नवाज़ शरीफ़ के पाकिस्तान लौटने के बाद ही दिखेगी, जिनके बारे में कहा जाता है कि प्रधानमंत्री मोदी के साथ उनके अच्छे सम्बन्ध रहे हैं। पाकिस्तान में भीतरी विसंगतियाँ भी हैं। गठबंधन सरकार के बीच इमरान ख़ान के विरोध को छोड़ दें, तो आपसे सम्बन्धों में सौ पेच हैं। ऐसे में देखना होगा कि आने वाले दिनों में शुरुआती स्तर पर क्या होता है?

कौन बनेगा सेनापति?

पाकिस्तान में सेना की भूमिका सबको पता है। भारत के साथ रिश्तों में सेना की प्रमुख भूमिका रहेगी। ऐसे में देखना होगा कि जनरल क़मर जावेद बाजवा, जो नवंबर में रिटायर होने वाले हैं; उन्हें दूसरी बार सेवा विस्तार मिलता है या उनकी जगह नया सेनाध्यक्ष आता है? बाजवा 29 नवंबर को अपना कार्यकाल पूरा कर लेंगे। उन्हें नवाज़ शरीफ़ ने सेना प्रमुख नियुक्त किया था। बाद में उनके रिश्तों में दरार आ गयी। ऐसे में कम सम्भावना है कि बाजवा को सेवा विस्तार मिलेगा। नये आर्मी चीफ की दौड़ में लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा, अजहर अब्बास, नौमान महमूद राजा और फ़ैज़ हमीद माने जाते हैं। ये सैन्य अधिकारी पाकिस्तानी सेना की अलग-अलग कोर की कमान के प्रमुख हैं। लेफ्टिनेंट जनरल साहिर शमशाद मिर्जा बाजवा के रिटायर होने के बाद पाकिस्तानी सेना में सबसे वरिष्ठतम सेवारत अधिकारी होंगे। उन्हें विनम्र और निर्विवाद अधिकारी माना जाता है। उनके अलावा लेफ्टिनेंट जनरल अजहर अब्बास इस समय जीएचक्यू में चीफ ऑफ जनरल स्टाफ (सीजीएस) हैं। वे संयुक्त स्टाफ मुख्यालय के डायरेक्टर जनरल रह चुके हैं। तीसरे लेफ्टिनेंट जनरल नौमान महमूद राजा हैं, जो नवंबर, 2021 से पाकिस्तान के नेशनल डिफेंस यूनिवर्सिटी (एनडीयू) के अध्यक्ष हैं। चौथे लेफ्टिनेंट जनरल फ़ैज़ हमीद इस समय पेशावर में 11वीं कोर के कमांडर हैं। वह जून, 2019 से अक्टूबर, 2021 तक पाकिस्तानी ख़ुफ़िया एजेंसी आईएसआई के डायरेक्टर जनरल और जनरल बाजवा के चीफ ऑफ स्टाफ रह चुके हैं।

भोजपुरी एवं राजस्थानी, संवैधानिक सम्मान का संघर्ष

भाषा संस्कृति की नींव है। भाषा सदैव दोतरफ़ा ज़िम्मेदारी का निर्वहन करती है। एक तरफ़ वह समाज में संचार एवं अभिव्यक्ति का माध्यम है, तो दूसरी तरफ़ संस्कृति की प्रवक्ता भी होती है। भारत में भाषाओं के संवैधानिक अधिकारों की माँग बौद्धिक से अधिक राजनीतिक विमर्श का हिस्सा रही है। चूँकि भाषा का प्रश्न किसी समाज के लिए अति संवेदनशील मुद्दा रहा है, अत: राजनीति को इसमें हमेशा अपने लिए सम्भावना नज़र आती है। भोजपुरी और राजस्थानी दो ऐसी भाषाएँ हैं, जिन्हें लम्बे समय से माँग के बावजूद अब तक संविधान की आठवीं अनुसूची में जगह नहीं मिल पायी है।

काफ़ी समय से इसकी माँग विभिन्न संगठन और जनप्रतिनिधियों द्वारा की जाती रही है। किन्तु पिछले दिनों संवैधानिक पदों पर बैठे लोगों ने फिर से इन दोनों भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किये जाने की माँग उठायी। राजस्थान विधानसभा में शिक्षा मंत्री बी.डी. कल्ला ने राजस्थानी भाषा के लिए एवं दूसरी तरफ़ बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने अंतरराष्ट्रीय मातृभाषा दिवस (21 फरवरी) के मौक़े पर भोजपुरी को संवैधानिक मान्यता देने का मुद्दा उठाया। ये माँगें लगभग एक ही समय पर आयी हैं। अब इसके दो पहलू हो सकते हैं। पहला यह कि क्या ये सरकारें वास्तव में इन भाषाओं की उन्नति के लिए प्रयासरत हैं? और दूसरा यह कि आसन्न राजस्थान विधानसभा चुनाव को लेकर गहलोत सरकार का महज़ भावनात्मक गोलबंदी का प्रयास है? अथवा इसी तरह निरंतर प्रशासन को लेकर आलोचनाओं का सामना कर रहे नीतीश कुमार भी एक भावुक घोषणा कर संवेदना बटोरने में लगे थे?

भारत में भाषायी अस्मिता का संघर्ष बहुत पुराना है। भोजपुरी तो क़रीब पाँच दशक से यह लड़ाई लड़ रही है। सडक़ से लेकर संसद तक अपनी इस माँग को लेकर भोजपुरी भाषियों ने अपनी आवाज़ रखी है। सर्वप्रथम कॉमरेड भोगेंद्र झा इस माँग को लेकर सन् 1969 में प्राइवेट मेंबर बिल लेकर आये थे। तबसे अब तक संसद में इसे लेकर 18 निजी बिल आ चुके हैं। इसके अलावा कई बार ध्यानाकर्षण प्रस्ताव के माध्यम से भी और शून्यकाल के दौरान भी इस मुद्दे को सदन में उठाया जा चुका है, पिछली कई सरकारों की ओर से आश्वासन दिया गया; लेकिन कभी बोली और भाषा के भेद का तर्क देकर तो कभी नियमों की अस्पष्टता का हवाला देकर इस माँग को पूरा नहीं किया गया। यानी बात आश्वासन तक रही, नतीजा सिफ़त रहा।

देश में अगर किसी भाषा के संवैधानिक अधिकारों की माँग सबसे सार्थक है, तो वह भोजपुरी की ही है। सन् 2011 की जनगणना के अनुसार उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, बंगाल आदि राज्यों में 14 करोड़ लोग, चार करोड़ लोग देश के अहिन्दी भाषी शहरों- चेन्नई, बेंगलूरु, हैदराबाद, गुवाहटी आदि में और चार करोड़ दुनिया के दूसरे 15 देशों में भोजपुरी बोलने वाले लोग हैं, जिनमें फिज़ी, नेपाल, मॉरीशस, गुयाना, सूरीनाम आदि ऊपर हैं। यह संख्या इससे ज़्यादा भी हो सकती है। आज अपने ही राष्ट्र में सम्मान का संघर्ष कर रही भोजपुरी विदेशों में एक सम्मानित भाषा का दर्जा रखती है। मॉरीशस में भोजपुरी को सन् 2011 से राष्ट्रभाषा का दर्जा प्राप्त है। वहाँ के शिक्षण संस्थानों एवं मीडिया जगत में भी इस भाषा का भरपूर इस्तेमाल होता है। इसी प्रकार भोजपुरी फिजी की आधिकारिक भाषाओं में शामिल है। ऐसे ही भोजपुरी सूरीनाम, गुयाना आदि देशों में सम्मानित है। मॉरीशस की पहल पर यूनेस्को द्वारा भोजपुरी संस्कृति के ‘गीत-गवनई’ को सांस्कृतिक विरासत का दर्जा दिया गया। जो काम भोजपुरी के मूल राष्ट्र भारत को करना चाहिए था, उसे किसी दूसरे देश ने किया। आज काशी हिन्दू विवि., शकुंतला मिश्रा पुनर्वास विवि., वीर कुँअर सिंह विवि., इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय मुक्त विवि., नालंदा मुक्त विवि., दिल्ली विवि. जैसे देश के लगभग दर्ज़न भर से अधिक विश्वविद्यालयों में भोजपुरी से जुड़े पाठ्यक्रम चल रहे हैं। भोजपुरी सिनेमा इंडस्ट्री का बाज़ार लगभग 30,000 करोड़ रुपये का है। भोजपुरी को समर्पित कई टीवी प्रचलन में हैं। संस्कृति मंत्रालय ने भोजपुरी फ़िल्म समारोह का आयोजन करवाता है। आश्चर्य है कि हज़ारों करोड़ के भोजपुरी सिनेमा व्यवसाय से रोज़गार, कर (टैक्स) प्राप्ति से सरकार को दिक़्क़त नहीं है; लेकिन भोजपुरी को सम्मान दिलाने के लिए कई दिक़्क़तों की सूची गिनायी जाती है। यह मानने में कोई दुविधा नहीं होनी चाहिए कि हिन्दी को समर्थ बनाने के लिए सबसे ज़्यादा त्याग भोजपुरी ने किया है। क्या हिन्दी के लिए सर्वाधिक त्याग करने और उसकी अधीनता स्वीकार कर चुपचाप उसकी सेवा करने का दण्ड भोजपुरी को दिया जा रहा है? स्थिति तब और आश्चर्यनक एवं दु:खद लगती है, जबकि देश के प्रधानमंत्री दो-दो बार भोजपुरी के गढ़ वाराणसी से सांसद चुने गये हैं।

केंद्र सरकारें इस माँग को लेकर अब तक बेहद असंवेदनशील रुख़ रखती रही हैं। सन् 2017 में इस तत्कालीन केंद्रीय गृह राज्य मंत्री किरण रिजिजू ने संसद में कहा था- ‘चूँकि बोली और भाषा का विकास सामाजिक, आर्थिक, राजनीतिक विकास से प्रभावित होता है, अत: उन्हें बोली से अलग बताने अथवा भारत के संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के सम्बन्ध में भाषा सम्बन्ध कोई मानदण्ड निश्चित करना कठिन है।’ हालाँकि ऐसा निश्चित मानदण्ड तैयार करने के सम्बन्ध में पूर्व में पाहवा समिति (1996) तथा सीताकांत महापात्र समिति (2003) के माध्यम से किये गये थे; लेकिन अब तक इस पर क्या कार्यवाही हुई इसका कोई स्पष्ट जवाब सरकार के पास नहीं है।

वरिष्ठ पत्रकार एवं इंदिरा गाँधी राष्ट्रीय कला केंद्र के अध्यक्ष राम बहादुर राय इस सम्बन्ध में एक विशेष उपाय सुझाते हैं। वह कहते हैं कि देश में जितनी भाषाएँ हैं, उन सबको भारत सरकार को मान्यता देनी चाहिए। संविधान में संशोधन करके ‘एट्थ शेड्यूल’ को हटाकर एक पंक्ति का नियम रखिये कि भारत की सभी भाषाओं को संविधान मान्यता देता है। लेकिन एक वर्ग इसका विरोधी भी है। कलकत्ता विश्वविद्यालय में हिन्दी के प्रोफेसर और हिन्दी बचाओ मंच के संयोजक डॉ. अमरनाथ के नेतृत्व एक प्रतिनिधि मंडल ने जुलाई, 2017 को केंद्र सरकार के तत्कालीन गृह मंत्री राजनाथ सिंह से मिलकर भोजपुरी और राजस्थानी समेत अन्य बोलियों को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने का विरोध किया। भाषायी एकता स्थापित करने के जुनून में देशज संस्कृतियों का दमन नहीं होना चाहिए। अखिल भारतीय भोजपुरी साहित्य सम्मेलन के पूर्व महामंत्री प्रोफेसर गुरुचरण सिंह कहते हैं कि इस राष्ट्र की जो मूल संस्कृति है, वो लोक भाषाओं में है। हिन्दी स्थापित भाषा है। हिन्दी को गढ़ा गया है। लेकिन भोजपुरी या अन्य लोक भाषाएँ विकसित भाषाएँ हैं। जो पूर्व-वैदिक काल में भाषा का स्वरूप था, उसी का विकसित स्वरूप भोजपुरी जैसी लोक भाषाएँ हैं। और इन लोक भाषाओं से ही सांस्कृतिक धरोहरों को हिन्दी में समाहित किया गया है। अगर लोक भाषाओं को संवैधानिक संरक्षण नहीं दिया गया, तो भारतीय संस्कृति भी नष्ट होती जाएगी। कैसी विडंबना है कि एक तरफ़ तो हम हर नये जनगणना आँकड़ों के साथ प्राचीन भाषाओं की विलुप्ति का रोना रोते हैं और उनके संरक्षण के लिए उद्घोषणा और योजना निर्माण की संवेदना व्यक्त करते हैं। वहीं भोजपुरी जैसी समृद्ध भाषा को उसके अधिकार से वंचित करके उसके पतन का इंतज़ार कर रहे हैं।

जिस तरह भाषायी अस्मिता का संघर्ष राष्ट्रीय एकता के लिए बाधा पैदा करता है, वैसे ही यह प्रादेशिक समाज में भी अंतर्विरोध पैदा करता है। इस विरोध का निशाना अकसर हिन्दी बनती रही है। कुछ समय पूर्व कर्नाटक में हिन्दी विरोध में नेम प्लेट पर कालिख पोती जा रही थी। हिन्दी की अधिकारिता के नाम पर भोजपुरिया और राजस्थानी समाज की भावनाओं की अवहेलना उन्हें दक्षिण भारत की तरह ही उग्र आन्दोलन के लिया उकसा सकता है। जो तथाकथित बुद्धिजीवी भोजपुरी के संवैधानिक अधिकारों की माँग को षड्यंत्र बताते हैं, वे स्वयं भोजपुरी के विरुद्ध दुरभि-सन्धि में शामिल हैं। जिन्होंने यह प्रश्न किया कि भोजपुरी और राजस्थानी का क्या उपयोग है? उनसे पूछा जाना चाहिए कि संवैधानिक सूची में दर्ज संथाली, गुजराती, मलयाली, असमी आदि भाषाओं का क्या उपयोग है? विश्वविद्यालयों के पाठ्यक्रम में शामिल बाक़ी विषयों की किसी व्यक्ति के जीवन में क्या उपयोगिता है?

दरअसल उपयोगिता तय करना या बढ़ाना सरकार का काम हैं। इसलिए भोजपुरी को लेकर उन्हें ओछे तर्कों से बचना चाहिए। अगर किसी भाषा का पैमाना बोलने वालों की संख्या हैं, तो आठवीं अनुसूची में शामिल मैथिली, सिंधी, डोगरी और नेपाली, कोंकणी जैसी लगभग 10 भाषाओं के बोलने वालों से भोजपुरी भाषियों की संख्या कहीं अधिक है। ऐसे ही राजस्थानी भाषी लोगों की माँग की अनदेखी नहीं की जानी चाहिए। देश में 7वीं सबसे समृद्धशाली साहित्य की धरोहर सँभालती राजस्थानी भाषा की संवैधानिकता की माँग भी उचित है। पूर्वांचल और बिहार और राजस्थान के चुनावी जनसभाओं में भोजपुरी या राजस्थानी के एक-दो वाक्य बोलकर जनता को लुभाने का प्रयास करने वाले नेता सत्ता प्राप्ति के साथ सारा भाषायी सम्मान भूल जाते हैं। कांग्रेस सरकारों ने तो अब तक बेवक़ूफ़ बनाया ही; लेकिन दो-दो लोकसभा चुनाव में पूर्ण बहुमत की केंद्र एवं राज्यों में सरकार बनवाने में सहयोगी उत्तर प्रदेश, बिहार की जनता के साथ ही राजस्थानी जनता के साथ भाजपा भी इस मसले पर ईमानदार नहीं रही है। अयोध्यासिंह उपाध्याय हरिऔध लिखते हैं- ‘कैसे निज सोये भाग को कोई सकता है जगा, जो निज भाषा अनुराग का अंकुर नहिं उर में उगा।’ सरकारों एवं राजनीतिक दलों से अपेक्षा छोड़ भी दें, तो बिहार, उत्तर प्रदेश एवं राजस्थान से लगभग डेढ़ सौ सांसद चुनने वाली जनता की भावना की अनदेखी करने वाले इन जनप्रतिनिधियों की जवाबदेही तो तय होनी ही चाहिए।