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चिकित्सा विद्यार्थियों का भविष्य दाँव पर

विदेशों में मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए क्यों मजबूर हैं विद्यार्थी?

यूक्रेन में भारतीय चिकित्सा विद्यार्थियों (छात्र-छात्राओं) के फँसने से एक सवाल उठा है कि क्या चिकित्सीय शिक्षा (मेडिकल एजुकेशन) के लिए विदेशों में जाना भारतीय छात्रों की मजबूरी है? भारत में चिकित्सीय शिक्षा के लिए बड़ी प्रतिस्पर्धा है। देश में हर साल चिकित्सा की तक़रीबन एक लाख सीटों के लिए 17 लाख विद्यार्थी आवेदन करते हैं। इनमें से 16 लाख विद्यार्थियों को मेडिकल कॉलेजों (चिकित्सा महाविद्यालयों) में दाख़िला नहीं मिल पाता है। देश में डॉक्टर बनने की चाह रखने वाला छात्र सरकारी मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला लेना चाहता है। लेकिन इन कॉलेजों की योग्यता सूची (मेरिट लिस्ट) में बहुत कम विद्यार्थियों का ही नंबर आता है। अगर कोई छात्र किसी भी विशेष संकाय (डिपार्टमेंट) में दाख़िला लेना चाहता है, तो उसे टॉप लिस्ट (उच्चचम सूची) में जगह बनानी होती है। इस तरह की शर्तों से विद्यार्थी चिकित्सा की पढ़ाई करने के लिए विदेशों का रूख़ करते हैं।

विदेशों में चिकित्सीय शिक्षा प्राप्त करने के लिए ऐसा नहीं है। यूक्रेन की बात करें, तो वहाँ कट ऑफ मायने नहीं रखती है। वहाँ चिकित्सीय शिक्षा के लिए भारत की तरह परीक्षा भी नहीं होती है। केवल हमारे यहाँ की नीट परीक्षा को पास करने के बाद ही यूक्रेन के मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला मिल जाता है। यूक्रेन में यह नहीं देखा जाता कि परीक्षा में कितने अंक आये हैं। सिर्फ़ पाठ्यक्रम (कोर्स) करना ही बहुत है। यूक्रेन में पढ़ाई करने का यह भी फ़ायदा है कि वहाँ की चिकित्सीय डिग्री की मान्यता भारत के साथ-साथ डब्ल्यूएचओ, यूरोप और ब्रिटेन में भी है। यूक्रेन से मेडिकल कोर्स करने वाले विद्यार्थी दुनिया के किसी भी हिस्से में अभ्यास (प्रैक्टिस) कर सकते हैं।

भारत में प्राइवेट मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई का ख़र्च 50 लाख से एक करोड़ रुपये तक होता है। वहीं क्योंकि यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई का ख़र्च भारत की तुलना में आधे से कम है। ऐसे में जिन विद्यार्थियों की आर्थिक स्थिति थोड़ी कमज़ोर है, वे ऐसे देशों में मेडिकल की पढ़ाई करने इसलिए भी जाते हैं; क्योंकि वहाँ पार्ट टाइम काम करने की सुविधा भी रहती है। यूक्रेन में एमबीबीएस की पढ़ाई की फीस सालाना दो से चार लाख रुपये के बीच होती है। यानी पाँच साल की पूरी पढ़ाई का ख़र्च तक़रीबन 25 से 30 लाख रुपये तक पड़ता है। भारत में नीट की परीक्षा देने वाले सैकड़ों छात्र ऐसे भी होते हैं, जो परीक्षा (पेपर) तो पास (क्वॉलीफाई) कर लेते हैं; लेकिन वे सरकारी कॉलेजों और प्राइवेट कॉलेजों में दाख़िला नहीं ले पाते हैं। इसके लिए उन्हें यहाँ भी नीट की परीक्षा पास करनी पड़ती है। अभी हाल ही में इसे लेकर जूनियर डॉक्टरों ने विरोध-प्रदर्शन भी किया है।

रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग ने हज़ारों विद्यार्थियों का भविष्य दाँव पर है। तक़रीबन 18,000 विद्यार्थी हैं, जो यूक्रेन छोडक़र मजबूरन भारत आ रहे हैं। किसी छात्र ने मेडिकल कोर्स की दो साल की पढ़ाई पूरी की है, किसी के चार साल पूरे हो चुके हैं। यूक्रेन से लौटे मेडिकल विद्यार्थियों को राष्ट्रीय आयुर्विज्ञान आयोग यानी नेशनल मेडिकल कमीशन ने राहत दी है। अब विद्यार्थियों को एक साल की बाध्यकारी इंटर्नशिप देश में करने की अनुमति दी है। लेकिन एक शर्त यह जोड़ दी है कि छात्रों को फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन (एफएमजीई) की परीक्षा पास करनी होगी।

राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने 18 नवंबर, 2021 को राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (विदेशी चिकित्सा स्नातक लाइसेंसधारी) विनियम, 2021 प्रकाशित किया था, जिसमें पंजीकरण और विदेशी चिकित्सा स्नातकों (फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट्स) को मान्यता देने के मानदण्डों का ज़िक्र है। इनके अनुसार, कोई भी विदेशी चिकित्सा स्नातक भारत में तब तक प्रैक्टिस नहीं करेगा, जब तक उसे स्थायी रजिस्ट्रेशन नहीं दिया जाता। इस रजिस्ट्रेशन के लिए विदेशी चिकित्सा स्नातक को कम-से-कम 54 महीने के पाठ्यक्रम वाली डिग्री और 12 महीने की इंटर्नशिप करना अनिवार्य है। यह विनियम उन विदेशी मेडिकल स्नातकों पर लागू नहीं होगा, जिन्होंने राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग (विदेशी चिकित्सा स्नातक लाइसेंसधारी) विनियम, 2021 के लागू होने से पहले विदेशी मेडिकल डिग्री या प्राथमिक योग्यता हासिल कर ली है। दरअसल राष्ट्रीय चिकित्सा आयोग ने सन् 2021 में विदेशों में पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों के लिए नियमों में बदलाव किया। आयोग ने यह व्यवस्था लागू कर दी कि विद्यार्थियों को मेडिकल की पढ़ाई एक ही विश्वविद्यालय से पूरी करनी होगी। लेकिन जब फिलीपींस और कुछ कैरेबियाई देशों में इस क़ानून की अनदेखी करनी शुरू कर दी, तो केंद्र सरकार ने उन पर रोक लगा दी। मेडिकल की पढ़ाई करने के लिए सिर्फ़ यूक्रेन ही छात्रों की पंसदीदा जगह नहीं है। क़ज़ाकिस्तान, किर्गिस्तान, नेपाल और रोमानिया में भी हज़ारों भारतीय विद्यार्थी मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। इन देशों में भी मेडिकल की पढ़ाई का ख़र्च भी तक़रीबन यूक्रेन जितना ही है। पिछले कुछ समय से उज्बेकिस्तान भी मेडिकल विद्यार्थियों के लिए पसंदीदा देश बन गया है। पिछले तीन-चार साल में कई मेडिकल यूनिवर्सिटी खुली है। देश के कई मेडिकल कॉलेजों ने भी उज्बेकिस्तान में अपने कैंपस खोले हैं। अलग-अलग देशों में एक लाख से  अधिक भारतीय छात्र मेडिकल की पढ़ाई कर रहे हैं। अकेले यूक्रेन में क़रीब 18,000 बच्चे हैं। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन के फाइंनेस सेक्रेटरी डॉक्टर अनिल गोयल बताते हैं कि भारत में मेडिकल की क़रीब एक लाख सीटें हैं। विदेशों से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले सिर्फ़ 15 फ़ीसदी विद्यार्थी ही देश में फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन पास कर पाते हैं। देश में क़रीब 88,000 एमबीबीएस की सीटें हैं, जिसके लिए तक़रीबन आठ लाख बच्चे परीक्षा देते हैं। एबीबीएस की इन सीटों में 50 फ़ीसदी सीटें निजी क्षेत्र में चलने वाले मेडिकल कॉलेजों के हिस्से में आती है। देश में किसी भी निजी एमबीबीएस की सीट पर एडमिशन का ख़र्चा 70 लाख से एक करोड़ रुपये तक है। यही वजह है कि प्रत्येक वर्ष हज़ारों छात्र अलग-अलग देशों में मेडिकल की पढ़ाई के लिए जाते हैं। विदेश से मेडिकल की पढ़ाई ख़त्म करने के बाद बच्चों को फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन की परीक्षा देनी होती है। इस परीक्षा को पास करने के बाद ही देश में डॉक्टरी करने का लाइसेंस मिलता है। यह परीक्षा 300 नंबर की होती है। इसे उतीर्ण करने के लिए 150 अंक लाना आवश्यक होता है। यही कारण है कि विदेश से मेडिकल की डिग्री के बाद भी बच्चे देश में डॉक्टरी की पढ़ाई नहीं कर पाते है। जहाँ तक यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले विद्यार्थियों की बात है, तो उनमें से 15 फ़ीसदी छात्र ही फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट की परीक्षा पास कर पाये हैं।

नेशनल बोर्ड ऑफ एग्जामिनेशन द्वारा जारी आँकड़ों के अनुसार, 2015 से लेकर 2018 तक फॉरेन मेडिकल ग्रेजुएट एग्जामिनेशन के नतीजे बताते हैं कि पिछले चार वर्षों में चीन के 95 मेडिकल संस्थानों से मेडिकल की पढ़ाई करने वाले 20,314 विद्यार्थियों में महज़ 2,370 विद्यार्थी उतीर्ण हुए। इसी तरह रूस के 66 संस्थानों में मेडिकल की पढ़ाई पूरी करके 11,724 विद्यार्थियों ने परीक्षा दी, जिसमें 1,512 विद्यार्थी ही सफल हुए। यूक्रेन के विभिन्न 32 संस्थानों से 8,130 विद्यार्थियों ने मेडिकल की पढ़ाई की, जिसमें 1,224 विद्यार्थी ही सफल रहे, नेपाल के 24 संस्थानों से 5,894 विद्यार्थियों ने मेडिकल की ड्रिगी प्राप्त की, जिसमें 1,042 विद्यार्थी ही सफल हुए इसी तरह किर्गिस्तान से 5,335 विद्यार्थियों ने मेडिकल की पढ़ाई पूरी की, मगर सफल 589 ही हुए। फिलीपींस के 21 संस्थानों से 1,421 विद्यार्थियों ने मेडिकल की ड्रिगी प्राप्त की और सफल मात्र 370 हुए। यूक्रेन में मेडिकल की पढ़ाई कर रहे विद्यार्थियों के अनुसार, वहाँ पहले तीन साल तक थ्योरी पढ़ाई जाती है और चौथे साल में अभ्यास शुरू होता है। विद्यार्थियों को हॉस्पिटल में जाकर डॉक्टरी का काम सीखना होता है।

विरोध-प्रदर्शनों की चपेट में झारखण्ड

स्थानीयता और भाषा को लेकर बढ़ रहा तनाव, लोगों और नेताओं के बीच बढ़ रहे मतभेद

मशहूर शायर राहत इंदौरी के एक चर्चित शे’र है- ‘लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है।’

इस शे’र को झारखण्ड में हाल के दिनों में एक बार फिर स्थानीयता और भाषा को लेकर शुरू हुए विवाद से जोड़ा जा सकता है। पिछले कुछ महीनों से इन दोनों मुद्दों पर विवाद बढ़ता जा रहा है। समाज का पूरा का पूरा हिस्सा दो भागों में बँटता जा रहा है। आन्दोलन करने वाले आमने-सामने आ रहे हैं।

नतीजतन टकराव का अंदेशा बढ़ता जा रहा है। इस टकराव में किसी एक वर्ग को नफ़ा-नुक़सान नहीं होगा। दोनों तरफ़ ही इसका असर होगा। इन दोनों मुद्दों को समय रहते सुलझाने की ज़रूरत है; क्योंकि यह राज्य के विकास के लिए एक बड़ा रोड़ा है। इसका ख़ामियाज़ा सबसे अधिक युवा वर्ग को हो रहा है।

सन् 2020 में हुए राज्य के गठन के समय से ही स्थानीयता का मुद्दा चल रहा है। भाषा का मुद्दा पिछले कुछ महीनों से सामने आया है। अब इन दोनों ही मुद्दों पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए समय-समय पर हवा देने के चलते अब यह यह आम लोगों से अधिक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। प्रसिद्ध ब्रिटिश समाज वैज्ञानिक कार्ल पॉपर ने कहा था कि यदि किसी समाज को विकास की दौड़ में पीछे धकेलना हो, तो उसके भीतर धर्म, भाषा और संस्कृति जैसे विषयों पर विवाद खड़ा कर देना चाहिए। क्योंकि ये तीनों समाज के लिए उस नशे के समान होती हैं, जिससे हुए नुक़सान का अंदाज़ा नशा ख़त्म होने के बाद लगता है। पिछले कुछ दिनों से झारखण्ड में भी इन्हीं चीज़ें पर विवाद खड़ा किया जा रहा है। इन विवादों की वजह से झारखण्ड में दूसरी किसी भी समस्या की तरफ़ न समाज का ध्यान गया और सियासतदान तो यह चाहते ही नहीं। लेकिन यह बात कोई नहीं समझ रहा कि इससे राज्य और राज्य के लोगों का नुक़सान ही होगा।

नौकरियों पर असर

राज्य में तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियाँ दो वर्गों में बाँटी गयी हैं। पहली राज्य स्तरीय और दूसरी ज़िलास्तरीय। सरकार ने झारखण्ड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) के ज़रिये ली जाने वाली राज्य स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी वाली नौकरियों की परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा है। दूसरे वर्ग यानी ज़िला स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियों के लिए ज़िला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है, जिसमें कुछ ज़िलों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल रखा गया है। तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गयी हैं। ऐसे में स्थानीयता और भाषा विवाद के कारण नियुक्तियाँ लटक रही हैं। युवाओं को रोज़गार का अवसर नहीं मिल पा रहा है।

राजनीतिक मतभेद

इन दिनों पूरा झारखण्ड स्थानीय नीति और भाषा विवाद को लेकर उलझा हुआ है। राज्य में जगह-जगह राज्य में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। कहीं पुतले फूँके जा रहे हैं, तो कहीं मानव शृंखलाएँ बनायी जा रही हैं। कहीं लोग सडक़ों पर उतर रहे हैं, तो कहीं विधानसभा के घेराव का ऐलान हो रहा है। इन दिनों विधानसभा का बजट सत्र चल रहा है। स्थानीयता और भाषा विवाद का शोर सदन के अन्दर से बाहर तक सुनायी दे रहा है।

इन दोनों मुद्दों पर राजनीतिक दलों के भीतर भी दो गुट बने हुए हैं। इन विवाद की आँच में सभी अपनी-अपनी खिचड़ी पका रहे हैं। $खास बात यह है कि राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियाँ- झामुमो, कांग्रेस और भाजपा के नेता भी अलग-अलग बँटे हुए हैं। वहीं विभिन्न संगठन भी आमने-सामने हैं। स्थानीयता को फिर से परिभाषित करने की माँग की जा रही है। इसमें सन् 1932 के खतियान को आधार बनाये जाने की माँग है। वहीं एक पक्ष पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा परिभाषित स्थानीयता को ही सही मान रहा है, जिसमें सन् 1985 के कट ऑफ को माना गया है। इसी तरह अंगिका, भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषा को क्षेत्रीय भाषा में रखने और हटाने के पैरोकार आमने-सामने हैं।

विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल के कुछ विधायक भी स्थानीयता और भाषा के मुद्दे ज़ोरशोर से उठा रहे हैं। संसदीय कार्य मंत्री आलमगीर आलम स्थानीय नीति में संशोधन के लिए जल्द ही त्रिसदस्यीय मंत्रिमंडल उप समिति बनाने को कह चुके हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर प्रश्नकाल में जवाब दे चुके हैं। उनका कहना है कि सरकार न्यायालय के निर्णय का अध्ययन कर रही है, इसके बाद इस मुद्दे पर निर्णय लेगी। मगर मामला शान्त नहीं हो रहा है।

झारखण्ड का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ के लगभग हर फैसले को बाहरी-भीतरी के दृष्टिकोण से देखा जाता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में देश के सर्वाधिक समृद्ध राज्यों में शुमार झारखण्ड के पिछड़ेपन का यह एक प्रमुख कारण है। नियुक्ति से लेकर सामाजिक जीवन के दूसरे क्षेत्रों में हर मुद्दे को विवादित बनाकर झारखण्ड को उलझाना यहाँ की सियासत का अचूक हथियार माना जाता है। स्थानीयता और भाषा का विवाद इसका उदाहरण है।

अब जब सत्ता में आ गयी है, तो 1932 के खतियान को लागू करवाने के पक्षधर आन्दोलनरत हैं। सरकार इस मामले को आसानी से सुलझा नहीं सकती। क्योंकि इसी मुद्दे पर एक बार झारखण्ड जल चुका है। अगर इस बार फिर सही तरीक़े से परिभाषित नहीं हुआ, तो यह क्या रूप लेगा? इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।

 

क्या है स्थानीयता का विवाद?

स्थानीयता का विवाद यह है कि यहाँ का स्थानीय नागरिक कौन है? इसे लेकर आज भी भ्रम की स्थितियाँ हैं। राज्य गठन के तत्काल बाद जब इसे परिभाषित करने का प्रयास किया गया, तो काफ़ी हंगामा हुआ। आन्दोलन हुए। मामला न्यायालय तक गया। इसके बाद से लगातार इस मुद्दे को लेकर राजनीति होती रही। पूर्ववर्ती रघुवर सरकार ने स्थानीयता को परिभाषित किया। इसमें सन् 1985 से राज्य में रहने वालों को स्थानीय माना गया। इसके साथ ही कई अन्य बातों इसमें जोडक़र स्थानीयता को परिभाषित किया गया, जो वर्तमान में लागू है। मौज़ूदा हेमंत सरकार उस वक़्त विपक्ष में थी। सत्ता में आते ही उनकी सरकार ने नयी नीति लाने की घोषणा की थी। राज्य के कई नेता और संगठन 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति लागू करने की माँग कर रहे हैं। इससे पहले सभी नियुक्ति पर रोक लगाने की भी माँग की जा रही है।

 

भाषा का विवाद क्या है?

झारखण्ड सरकार के कार्मिक, प्रशासनिक सुधार व राजभाषा विभाग ने 24 दिसंबर 2021 को भाषा को लेकर एक नोटिफिकेशन जारी किया। इसके बाद से ही क्षेत्रीय भाषाओं की सूची पर विरोध और समर्थन की सियासत तेज़ है। उर्दू को राज्य के सभी 24 ज़िलों में क्षेत्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। राज्य के 11 ज़िलों में स्थानीय स्तर की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही और अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में जगह दी। इस पर एक पक्ष का विरोध हुआ। विभाग ने 18 फरवरी 2022 को संशोधित अधिसूचना निकाली। इसमें बोकारो और धनबाद ज़िले की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को बाहर कर दिया गया। अब इसे निकाले जाने से दूसरा पक्ष नाराज़ है। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलील है। दोनों पक्ष आमने-सामने हैं। दोनों पक्षों के पैरोकार धरना-प्रदर्शन, विरोध बयानबाज़ी कर रहे हैं।

मौत के मुँह से निकलकर अँधकार में करियर

रूस हमले के बाद यूक्रेन में फँसे हज़ारों भारतीय छात्र-छात्राओं की ऑपरेशन गंगा से सकुशल घर वापसी परिजनों के लिए वरदान जैसी है। बमबारी और गोलीबारी के बीच जिन हालातों में इन छात्र-छात्राओं ने यूक्रेन की सीमा पार कर रोमानिया, पौलेंड और स्लोवाकिया की सीमा में प्रवेश कर ही राहत की साँस ली। भारत सरकार ने देर-सबेर अभियान को सफलता से अंजाम तो दे दिया; लेकिन यह सब 26 फरवरी के पहले हमले से पहले भी चलाया जा सकता था। ऐसा करने पर उन हज़ारों युवाओं को भयावह मंज़र से नहीं गज़रना पड़ता और न ही उनके परिजनों की साँसें अटकी रहतीं।

सफल अभियान से देश की अस्मिता बढ़ी वहीं प्रभावितों को जैसे नयी ज़िन्दगी मिली पर अब कई अनुपूरक सवाल भी पैदा हो गये हैं, जिनके जवाब तलाशे जाने की ज़रूरत है। भविष्य में ऐसा न हो, इसके लिए भारत सरकार को गम्भीरता से विचार करने की ज़रूरत है। सवाल यह कि सुदूर यूक्रेन, रूस या आसपास के अन्य देशों में एमबीबीएस की पढ़ाई के लिए हर वर्ष हज़ारों की संख्या में भारतीय क्यों जाते हैं? इनमें बड़ी संख्या उत्तर भारत के हरियाणा, पंजाब, चंडीगढ़ और राजस्थान के युवाओं की भी है। यूक्रेन पर रूस के हमले से पहले घर पहुँचे एक युवा ने बताया, उसकी तो यहाँ निजी मेडिकल कॉलेज में सीट थी; लेकिन विदेश में पढ़ाई करने की इच्छा उन्हें वहाँ ले गयी। अब न वहाँ के रहे, न यहाँ के। भविष्य में क्या होगा? इसे लेकर चिन्ता होने लगी है।

विदेश से एमबीबीएस की डिग्री हासिल करने की बड़ी वजह वहाँ आसानी से प्रवेश और देश के मुक़ाबले कम ख़र्च में डिग्री हासिल करना है। भारत में नेशनल एलिजीबिलेटी कम एंट्रस टेस्ट (एनईईटी-नीट) के माध्यम से एमबीबीएस में प्रवेश पाया जा सकता है। मैरिट में आने वाले देश के सरकारी या निजी मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश लेते हैं, जबकि डॉक्टर बनने की इच्छा रखने वाले काफ़ी विदेशों का रूख़ करते हैं। वहाँ प्रवेश के लिए केवल नीट परीक्षा को पास करना ही काफ़ी है।

हज़ारों की संख्या में ऐसे प्रतिभागी होते हैं, जिनकी इच्छा इस डिग्री को पाने की होती है। जब यहाँ प्रवेश नहीं मिल पाता, तो परिवार की आर्थिक स्थिति के अनुसार बाहर का रूख़ करते हैं। भारतीय विदेश मंत्रालय के वर्ष 2021 के आँकड़ों के अनुसार, यूक्रेन में पढऩे वाले छात्र-छात्राओं की संख्या 18,000 के आसपास थी। यूक्रेन की मिनिस्ट्री ऑफ एजुकेशन एंड साइस के अनुसार, यह संख्या 18,095 थी। इस घटना के बाद इस संख्या में कुछ कमी आ सकती है; लेकिन हालात में सुधार के बाद सिलसिला पहले जैसा ही हो जाएगा। इस सिलसिले को रोका जा सकता है। भारत सरकार को इस दिशा में गम्भीरता से प्रयास करने की ज़रूरत है, ताकि भविष्य में मौत के मुँह से बचाने के लिए ऑपरेशन गंगा जैसा अभियान चलाने की ज़रूरत न पड़े। देश में सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों की संख्या और बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि युवा यहीं रहकर डिग्री हासिल कर सके। देश में डॉक्टरों की माँग बढ़ रही है। सरकारें अपने तौर पर मेडिकल कॉलेजों को खोलती भी है; लेकिन यह संख्या अभी पर्याप्त नहीं है।

यूक्रेन से मौत के मुँह से बचकर आये एक छात्र के मुताबिक, भारत सरकार को हमें निकालने की कार्रवाई युद्ध से पहले करनी चाहिए थी। फरवरी के शुरू से ही सीमा पर तनाव और रूस की कार्रवाई की बातें सुनने को मिल रही थी। उसी दौरान हमें वहाँ से निकालने का कोई अभियान चलाया जाना चाहिए था। बंकरों में भूखे प्यासे आख़िर कितना समय गुज़ारा जा सकता है। ख़तरे में साये में रहना मौत जैसा ही है। कब, कहाँ कोई मिसाइल या बम का धमाका हो जाए, कुछ पता नहीं था। एडवाइजरी जारी होने के बाद हम लोग वहाँ दूतावास के सम्पर्क में रहे; लेकिन सतर्कता बरतने के अलावा हमें वहाँ से निकलने आदि के बारे में कोई जानकारी नहीं दी गयी।

तीन दिन तो हम सभी ने जैसे मौत के साये में गुज़ारे। यूक्रेन की पुलिस और सेना का कोई सहयोग नहीं मिला। हमारे कुछ साथियों की पिटाई भी हुई। गनीमत यह रही कि जान बची रही। यूक्रेन की सीमा से बाहर निकलने पर ही लगा जैसे हम जिन्दा बच गये, वरना रास्ते में गोलाबारी के बीच बचने की उम्मीद ही खो चुके थे। सकुशल वापसी के बाद अब हमारे करियर का क्या होगा? यूक्रेन के हालात तो बद-से-बदतर हो गये हैं। वहाँ क्या होगा? हमारे जैसे हज़ारों युवाओं का क्या होगा? किसी को कुछ भी पता नहीं है।

भारत सरकार पाँच वर्ष का कोर्स पूरा करने के बाद इंटर्नशिप के लिए तो काम कर रही है; लेकिन पहले, दूसरे, तीसरे और चौथे वर्ष वालों के भविष्य का क्या होगा? सूमी से 600 से ज़्यादा छात्र-छात्राओं की वापसी के बाद कहा जा सकता है कि अभियान कमोबेश सफल रहा। अगर 26 फरवरी के हमले से पहले भारत सरकार यह अभियान शरू कर देती, तो कर्नाटक के नवीन की मौत नहीं होती। बंकर से बाहर किसी काम के लिए बाहर गये नवीन की गोलियाँ लगने से मौत हो गयी। मौत से पहले उसने परिजनों से बात की थी; लेकिन उसके बाद विदेश मंत्रालय की ओर से मौत की सूचना ही मिली।

छतरपुर के हरजोत सिंह को तीन गोलियाँ लगीं, उन्हें वहाँ अस्पताल में ही होश आया। रोज़ दो बार घर फोन करने वाले हरजोत के दो दिन तक फोन न आने से परिजनों को अनहोनी की आशंका हो चली थी। सूचना मिलने के बाद वही साबित हुआ। परिजनों को सन्तोष है कि आख़िर हरजोत सलामत है। हर देश की सरकार का अपने नागरिकों को बचाने का दायित्व होता है। युद्ध या अन्य किसी प्राकृतिक आपदा में सरकारें ऐसा करती रही हैं; लेकिन यूक्रेन में फँसे छात्र-छात्राओं को भारत सरकार ने जिस सूझ-बूझ से युद्ध के बीच में निकाला, उसकी प्रशंसा पाकिस्तान और बांग्लादेश में भी हुई है। भारतीय तिरंगे की शान विश्व के लोगों ने देखी। जिस तरह से बसों के आगे लगे तिरंगा ध्वज जैसे सुरक्षा की पूरी गारंटी है। ऐसा हुआ भी, पाकिस्तान और बांग्लादेश के युवा भी इसी तिरंगे से अपने घरों को सुरक्षित पहुँच सके।

 

साहिल और सुंडू की दास्ताँ

हरियाणा और पंजाब के दो हज़ार से ज़्यादा युवा यूक्रेन में मेडिकल शिक्षा हासिल कर रहे थे। इनमें से ज़्यादातर घर पहुँच चुके हैं। इनमें रोहतक (हरियाणा) के एक युवा साहिल भी हैं, जिन्होंने न केवल राज्य का, बल्कि देश का नाम ऊँचा किया। साहिल यूक्रेन में किसी की मदद के लिए रुक गया, जबकि उसने अपने कुत्ते (सुंडू) को अपने दोस्त के साथ भारत भिजवा दिया। परिजन चाहते थे कि साहिल भी अन्य छात्र-छात्राओं के दल के साथ ही घर आ जाए; लेकिन जब उसने रुकने का उद्देश्य बताया, तो उन्होंने भी सहमति दे दी। सुंडू अब साहिल के रोहतक स्थित आवास पर है। उसका पूरा ध्यान रखा जा रहा है। सुंडू अब तक तीन-चार देशों की यात्रा कर चुका है। यह उनके परिवार का सदस्य जैसा बन गया है। उनके पिता ने बताया बेटे से बात हो चुकी है, वह बिल्कुल ठीक है और जल्द ही घर आ जाएगा। साहिल की पढ़ाई लगभग पूरी हो चुकी है। कुछ समय बाद उसकी इंटर्नशिप शुरू होने वाली थी; लेकिन युद्ध ने उस जैसे हज़ारों युवाओं के भविष्य पर सवालिया निशान लगा दिया है। अब आगे इंटर्नशिप का क्या होगा? इसे लेकर परिजन चिन्ता में हैं। भारत सरकार ने इसके लिए योजना तैयार की है। जिनकी पढ़ाई अभी अधूरी है, उनके बारे में भी कुछ करने की ज़रूरत है। इस दिशा में भी कुछ सोचने की ज़रूरत है, क्योंकि यह संख्या भी हज़ारों में है।

एनएसई का असली खिलाड़ी कौन?

जब कोई घोटाला करके उस घोटाले की रोचक कहानी बनाकर हमारे तंत्र को गुमराह करता है, तब आम जनता के लिए रहस्य और शक दोनों गहरे हो जाते हैं। ऐसे रहस्य अनेक रहस्यों को जन्म देते हैं और परत-दर-परत खुलते हैं। जैसा कि नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (एनएसई) की पूर्व सीईओ व पूर्व एमडी चित्रा रामकृष्ण की सीबीआई द्वारा गिरफ़्तारी के बाद रहस्यों की परतें खुल रही हैं। चौंकाने वाली बात यह रही कि चित्रा रामकृष्ण एक गुमनाम योगी से एक्सचेंज की गोपनीय जानकारियाँ साझा करती रही हैं। लेकिन 11 फरवरी को भारतीय प्रतिभूति एवं विनिमय बोर्ड (सेबी) की रिपोर्ट में कहा गया कि एनएसई में पायी गयी वित्तीय अनियमितताओं की जाँच के बाद शेयर बाज़ार की पूर्व मुख्य अधिकारी चित्रा रामकृष्ण ही घोटाले में लिप्त पायी गयी थीं। उसके बाद से उनके बयानों में ही तमाम ख़ुलासे से हुए हैं। इन्हीं तमाम पहलुओं पर एनएसई से जुड़े जानकारों ने ‘तहलका’ संवाददाता को बताया कि बिना सियासी खेल के इतना बड़ा खेल नहीं हो सकता। गुमनामी बाबा (अदृश्य योगी) का नाम गुमराह करने के लिए है। अगर गहराई से जाँच हो, तो इसमें सियासी लोगों के नाम सामने आ सकते हैं।

एनएसई से जुड़े कुमार राजेश ने बताया कि जिस प्रकार सेबी को चित्रा रामकृष्ण ने बताया कि योगी हिमायल पर रहता है। न ही उसका आकार है। न ही शरीर है। न कभी वह बात करता है और न कभी शोर करता है। जब वह चाहे चित्रा के सामने आसानी से उपस्थित होने की क्षमता रखता है। और तो और, चित्रा ने योगी की सलाह पर ही सीओओ पद पर आनंद सुब्रमण्यम को नियुक्त किया था। इस तरह 15 लाख सलाना वेतन पाने वाला आनंद पाँच करोड़ पाने लगा। कुमार राजेश का कहना है कि एनएसई में इतना बड़ा खेल चलता रहा और किसी को कानोंकान ख़बर ही न लगी हो, ऐसा हो ही नहीं सकता। क्योंकि देश के कुल बजट से लगभग आठ गुना अधिक धनराशि वाले एनएसई में करोड़ों लोगों की पूँजी जुड़ी होती है।

बताते चलें कि बातों को तब तक गोपनीय रखा जाता है, जब तक घटना न घट जाए। घटना घट जाने पर फिर वही लीपा-पोती होती है। क्योंकि घटनाओं के माध्यम से घपलों को अंजाम दिया जाता है। ऐसा ही चित्रा ने किया है। 6 मार्च को चित्रा को गिरफ़्तार करने के बाद सीबीआई उनसे पूछताछ कर रही है। लेकिन सीबीआई को भी चित्रा लगातार गुमराह कर रही है। इसके पहले सीबीआई ने इसी मामले में 24 फरवरी को एनएसई के पूर्व ग्रुप ऑपरेटिंग ऑफिसर आनंद सुब्रमण्यम को गिरफ़्तार किया था। चित्रा ने आनंद को कथित योगी के कहने पर नियुक्ति की थी। इस सारे खेल के पीछे जो भी बड़े-बड़े मगरमच्छ हैं, फ़िलहाल उनका नाम जब तक सामने नहीं आ जाता, तब तक एनएसई की साख संदिग्ध बनी रहेगी। केवल चित्रा की गिरफ़्तारी के कोई मायने नहीं निकलते। क्योंकि यह घोटाला सालोंसाल से चलता आ रहा था। शेयर बाज़ार से जुड़े और आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. संदीप कुमार ने बताया कि मई, 2018 से दर्ज इस मामले की सीबीआई जाँच कर रही है। मगर उसने सक्रियता तब दिखायी, जब सेबी ने चित्रा रामकृष्ण सहित इस मामले में जुड़े अधिकारियों के ख़िलाफ़ कार्रवाई की।

संदीप का कहना है कि जब 1990 के दशक में हर्षत मेहता ने शेयर बाज़ार में बड़ा घोटाला किया था, तब देश में घोटाला को लेकर बड़ा हो-हल्ला मचा था। शेयर बाज़ार, जिसमें जनता का पैसा लगा हो, उसमें किसी प्रकार के कोई घोटाले न हो सके इसी के लिए एनएसई जैसी संस्था की स्थापना की गयी थी। इसका मुख्य उद्देश्य यही था कि पूँजी बाज़ार से जुड़े लोगों के हित सुरक्षित रहें और लोगों का भरोसा बना रहे। लेकिन 32 साल भी उसी तरह के घोटाले सामने आ रहे हैं। संदीप ने बताया कि एनएसई द्वारा प्रदान की जाने वाली को-लोकेशन सुविधा में ब्रोकर अपने सर्वर को स्टॉक एक्सचेंज परिसर के भीतर रख सकते हैं, जिससे उनकी बाज़ारों तक तेज़ी से पहुँच हो सके। इसी तरह की सुविधा का फ़ायदा उठाकर चित्रा रामकृष्ण के परिचितों ने जमकर लाभ कमाया है। इसी तरह के कथित आरोप चित्रा रामकृष्ण पर लग भी रहे हैं। 2014-15 के दौरान सेबी को एक शिकायत पर पता चला कि एनएसई के कुछ अधिकारियों की आपसी साँठ-गाँठ से शेयर बाज़ार के दलाल जमकर नियमों की धज्जियाँ उड़ाकर अनुचित लाभ उठा रहे हैं। इसके बाद ही जाँच हुई और दिसंबर, 2016 में चित्रा रामकृष्ण को एनएसई से हटना पड़ा। जाँच के बाद सेबी ने एनएसई पर 687 करोड़ का ज़ुर्माना भी लगाया था।

आर्थिक मामलों के जानकार डॉ. हरीश खन्ना का कहना है कि देश में घोटाले आये दिन सामने आते रहते हैं। कार्रवाई के नाम पर गिरफ़्तारी और पूछताछ होती है। कुछ दिनों तक मामला मीडिया में सुर्खियों में रहता है, फिर अचानक दब जाता है। इसी तरह घोटालेबाज़ अपने काम को अंजाम देते रहते हैं। जब तक इस तरह के घोटालों में संलिप्त लोगों से बड़ी वसूली नहीं की जाएगी, तब तक इस तरह के घोटाले होते रहेंगे। बड़े-बड़े घोटालेबाज़ सरकारी पैसा लूटकर रातों-रात देश छोडक़र भाग गये। जिस तरह सीबीआई की पूछताछ की जानकारी तो यह भी कहती है कि चित्रा रामकृष्ण और आनंद सुब्रमण्यम दोनों एक-दूसरे से पहचानने से इन्कार कर रहे हैं। जबकि दोनों ने कभी एक-दूसरे को 2,500 से अधिक ई-मेल किये हैं। चित्रा ने ही आनंद की तरक़्क़ी की। अब चित्रा सीबीआई से कह रही हैं कि उन्होंने तो घोटाले रुकवाने के प्रयास किये। असल में मुख्य आरोपी अभी सामने नहीं है।

एनएसई से जुड़े दस्तावेज़ और सॉफ्टवेयर से साफ होता है कि कोई तीसरा आदमी पर्दे के पीछे सारा खेल खेलता रहा। जब तक अदृश्य बाबा का पता नहीं लगता, तब तक असली खेल का पता नहीं चल सकता। लेकिन हमारा तंत्र ही ऐसा है कि सब कुछ इशारों पर होता है। सर्वविदित है कि एनएसई में करोड़ों लोगों की क़िस्मत सँवरती और बिगड़ती है। फिर भी करोड़ों लोगों से जुड़ी संस्था एनएसई में घोटाले होते रहे हैं। हैरानी है कि सरकार इससे अनजान रही है। क्या ऐसा सम्भव है?

मौज़ूदा दौर में देश की सियासतदानों का और आर्थिक मामलों से जुड़ी गतिविधियों का ऐसा गठजोड़ है कि कुछ भी हो जाता है। सियासतदान तो आसानी से अदृश्य बाबा के रूप में ग़ायब हो जाते हैं। फँस वे जाते हैं, जो सरकारी तंत्र के हिस्से के रूप में उनकी साज़िश का मोहरा होते हैं। क्योंकि हर काम में उनके हस्ताक्षर होते हैं। ऐसे में जाँच एजेंसियाँ ही ईमानदारी से जाँच करके असली दोषियों को पकडऩे के लिए दिन-रात एक करती हैं।

एनएसई की पूर्व सीईओ चित्रा रामकृष्ण के कार्यकाल में जिस तरह की वित्तीय हेरा-फेरी हुई है, उसमें गिरफ़्तारी और ज़ूर्माना ही काफ़ी नहीं है, बल्कि असली आरोपी को बेनक़ाब करके उसके ख़िलाफ़ भी कार्रवाई करने की ज़रूरत है।

राज्य सरकारों का बजट 2022-23

केंद्र सरकार के बजट के बाद हमारे देश में राज्य सरकारें अपना-अपना बजट पेश करती हैं। इस साल के केंद्रीय बजट से मध्यम और निम्न वर्ग ख़ुश नहीं हुआ; क्योंकि उसे सरकार ने कोई राहत नहीं दी।

हालाँकि वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने इस बजट को 25 साल आगे का अमृत-काल का बजट बताया, जो कि किसी के गले नहीं उतरता। लेकिन सरकार का कहना है कि इस बजट में आधारभूत संरचना और आर्थिक विकास पर ज़ोर दिया गया है। इस साल के कुल 39.45 लाख करोड़ रुपये के बजट में सरकार ने क्रिप्टो करेंसी की बात भी कही। हालाँकि यह एक बीती हुई बात हो गयी है और लोगों का ध्यान अब इस बजट पर से तक़रीबन हट चुका है। लेकिन ख़ास बात यह है कि केंद्र सरकार के वित्तीय वजट के बाद राज्य सरकारें भी अपना-अपना बजट पेश करती हैं, जो कि केंद्रीय बजट से काफ़ी प्रभावित होता है। लेकिन इस बार पाँच राज्यों के विधानसभा चुनाव होने के चलते, कई राज्य सरकारों ने अपने बजट में जनता को उतना नज़रअंदाज़ नहीं किया है, जितना कि केंद्र सरकार ने अपने बजट में किया। अब तक देश की कई राज्य सरकारें अपना बजट पेश कर चुकी हैं और 31 मार्च तक कई राज्य सरकारें अपना बजट पेश भी करेंगी।

चुनावी राज्यों में चुनाव बाद बजट

1 फरवरी से लेकर अब तक कई राज्य सरकारें अपने-अपने राज्यों का बजट पेश कर चुकी हैं। लेकिन इनमें एक भी राज्य ऐसा नहीं है, जहाँ विधानसभा चुनाव चल रहे हैं। ख़ास बात यह है कि इन पाँच राज्यों में से चार में भाजपा की सरकार है। वहीं एक में कांग्रेस की सरकार है। जिन राज्यों में अभी चुनाव नहीं हैं, उनमें से राजस्थान, गुजरात, हिमाचल प्रदेश, मध्य प्रदेश, छत्तीसगढ़, बिहार, हरियाणा आदि राज्यों में बजट पेश कर दिया गया है। ख़ास बात यह है कि केंद्र सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों का इस वित्त वर्ष का बजट कोरोना महामारी की तीसरी लहर के बीच का बजट है, जिसे लेकर केंद्र सरकार तो लोगों को हताश कर चुकी है। लेकिन राज्यों के लोगों में अपनी-अपनी सरकारों से काफ़ी उम्मीदें हैं। उन्हें क्या मिलेगा और बजट पेश करने वाली सरकारों ने क्या दिया? यह देखने वाली बात है।

उत्तर प्रदेश : उत्तर प्रदेश सरकार ने अपना 2022-23 का बजट पेश नहीं किया है। हालाँकि इस बजट को पेश करने की तैयारी सरकार ने कर ली है। उत्तर प्रदेश सरकार 01 अप्रैल से सभी तरह की वित्तीय स्वीकृतियाँ ऑनलाइन जारी करने का विचार कर चुकी है। लागू करने जा रही है। वित्त विभाग की सहमति से जारी होने वाली इन स्वीकृतियों के प्रस्ताव वित्त विभाग को ई-ऑफिस से ऑनलाइन भेजे जा रहे हैं। हालाँकि इन वित्तीय स्वीकृतियों के लिए आलेख प्रस्ताव के साथ न भेजकर पीडीएफ के रूप में भेजे जा रहे हैं। इनका वित्तीय प्रबन्धन भी ठीक नहीं बताया जा रहा है। वित्त वर्ष 2022-23 से बजट पुनर्विनियोग (विभाग के अन्दर एक मद का बजट दूसरे मद में हस्तांतरण) के प्रस्ताव भी ऑनलाइन बजट एलॉटमेंट सिस्टम के ज़रिये वित्त विभाग को भेजे जाएँगे। बजट प्रबन्धन प्रणाली का प्रशिक्षण 21 फरवरी से शुरू हो चुका है।

उत्तराखण्ड : उत्तराखण्ड की सरकार ने भी बजट पेश नहीं किया है। वहाँ भी विधानसभा चुनाव परिणाम के बाद ही बजट पेश किया जाएगा।

गोवा : गोवा सरकार ने भी इस वित्त वर्ष 2022-23 का बजट पेश नहीं किया है। वहाँ भी चुनावों के परिणाम घोषित होने के बाद बजट पेश किया जाएगा।

मणिपुर : मणिपुर सरकार ने भी अभी अपना बजट पेश नहीं किया है। ज़ाहिर है वहाँ भी नयी सरकार बनने के बाद ही बजट पेश होगा।

पंजाब : पंजाब सरकार भी मार्च के अन्त में बजट पेश करेगी। हालाँकि पंजाब अकेला ऐसे राज्य है, जहाँ दो बजट पेश किये जाते हैं। एक बजट सरकार पेश करती है और एक बजट शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी पेश करती है। वित्त वर्ष 2022-23 के लिए शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबन्धक कमेटी (एसजीपीसी) की ओर से भी 31 मार्च तक एसजीपीसी के जनरल हाउस में बजट पेश किया जाएगा। इसके लिए एसजीपीसी कार्यकारिणी कमेटी की ओर से बैठक 8 मार्च को हो चुकी है। अनुमान है कि वर्ष 2022-23 के लिए गोलक आमदनी 715 करोड़ रुपये और बजट 970 करोड़ रुपये रखे जाने की सम्भावना है। यह बजट गुरुद्वारों की देखरेख, लंगर, लोगों की सेवा आदि के लिए पेश किया जाता है।

दिल्ली : राष्ट्रीय राजधानी दिल्ली में दिल्ली सरकार इसी महीने के आख़िर में अपना बजट पेश करेगी। इसके लिए दिल्ली सरकार ने आम जनता से सुझाव भी माँगे हैं, जिसके लिए रिपोर्ट लिखे जाने तक क़रीब 6,000 सुझाव आ चुके थे। बता दें कि दिल्ली सरकार पहली ऐसी सरकार है, जो बजट में आम लोगों की राय को शुमार करती है और उस पर काम भी करती है। इसी साल अप्रैल में दिल्ली नगर निगम के चुनाव होने वाले हैं।

चुनावी राज्यों को केंद्र ने क्या दिया?

पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के मद्देनज़र जीत के लिए केंद्र सरकार ने चुनावी राज्यों के लिए कुछ ख़ास घोषणाएँ इस बार अपने बजट में कीं। ख़ास बात यह है कि इन पाँचों राज्यों में से चार राज्यों, उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा, मणिपुर में भाजपा की सरकार पिछले पाँच साल रही है और पंजाब में कांग्रेस की। ऐसे में यह देखना चाहिए कि इस चुनावी दौर के मद्देनज़र किस राज्य पर केंद्र सरकार कितनी मेहरबान रही है?

केंद्र सरकार उत्तर प्रदेश में अतिरिक्त 30,000 करोड़ ख़र्च करेगी। केंद्र सरकार ने अपने बजट में 1 फरवरी को पेश अपने बजट में उत्तर प्रदेश के लिए कई घोषणाएँ कीं, जिसके अनुसार उत्तर प्रदेश को कर (टैक्स) के रूप में 146,498.76 करोड़ रुपये की प्राप्ति होगी। इसमें से वित्त आयोग द्वारा अनुदान के रूप में 15,003 करोड़ रुपये, स्वच्छ भारत मिशन के तहत गाँवों के लिए 1,900 करोड़ रुपये, जल जीवन मिशन के लिए 12,000 करोड़ रुपये, शिक्षा अभियान के लिए 6,241.06 करोड़ रुपये, नदी विकास और गंगा कायाकल्प के कार्यक्रमों के लिए 957 करोड़ रुपये और राष्ट्रीय राजमार्ग की योजनाओं के लिए 16,350 करोड़ रुपये का आवंटन किये जाने की बात कही गयी। इसके अलावा किसानों को एमएसपी सीधे खातों में दी जाएगी, जो कि सभी राज्यों में लागू होगी।

उत्तराखण्ड में रोपवे विकास और रेल कनेक्टिविटी बढ़ाने की बात इस बजट में कही गयी है। बजट में 60 किमी की आठ रोपवे परियोजनाओं के अलावा रेलवे विस्तार और सीमांत प्रदेश में नये एक्सप्रेस-वे के निर्माण करने को कहा गया है। तीन प्रमुख रोपवे में रुद्रप्रयाग ज़िले में सोनप्रयाग-गौरीकुठ से केदारनाथ मन्दिर तक, चमोली ज़िले में गोविंदघाट-घांघरिया से हेमकुंड साहिब तक और नैनीताल में रानीबाग़ से हनुमान मन्दिर तक रोपवे लिंक शामिल हैं।

वहीं गोवा, मणिपुर और पंजाब के लिए केंद्रीय बजट में कुछ ख़ास नहीं दिखा। इन राज्यों के हिस्से मिले-जुले विकास की योजनाएँ आएँगी, जिसमें सडक़ों का विकास, किसानों के लिए एमएसपी आदि कॉमन है। वैसे पूर्वोत्तर राज्यों, जिनमें मणिपुर शामिल है; के विकास के लिए केंद्र सरकार ने 2022 में हर घर में जल का लक्ष्य पूरा करने की बात कही है।

बजट पेश करने वाले राज्य

अभी तक कई राज्य बजट पेश कर चुके हैं, इनमें से कुछ के चुनाव इस साल के अन्त में और अगले साल के शुरू में होंगे। देखते हैं, इन राज्यों ने किस तरह का बजट पेश किया है।

हिमाचल प्रदेश : हिमाचल प्रदेश के मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर ने अपना पाँचवाँ बजट में कई बार नयी योजनाएँ शुरू करने का जोखिम उठाया है। उन्होंने पहला बजट 41,440 करोड़ रुपये का, दूसरा बजट 36,089 करोड़ रुपये का, तीसरा बजट 49,131 करोड़ रुपये का, चौथा बजट 50,192 करोड़ रुपये का और अब साल 2022-23 का पाँचवाँ अनुमानित बजट 51,365 करोड़ रुपये का पेश किया। नये बजट में उन्होंने प्रदेश में सभी वर्गों के लिए कुछ-न-कुछ देने की घोषणा की, जिसमें 30,000 से अधिक नौकरियाँ, मेडिकल डिवाइस पार्क का निर्माण, न्यूनतम दिहाड़ी 350 रुपये करने, क़रीब डेढ़ लाख कर्मियों, श्रमिकों, पैरा वर्करों आदि का मानदेय बढ़ाने और 60 साल के बाद सभी ज़रूरतमंदों को सामाजिक सुरक्षा पेंशन दिलाने जैसी घोषणाएँ शामिल हैं। इस बजट में आउटसोर्स कर्मचारियों की दिहाड़ी न्यूनतम 4,200 रुपये प्रति माह बढ़ाकर 10,500 रुपये महीना करने, पंचायत चौकीदारों को 6,500 रुपये महीना देने, आँगनबाड़ी कार्यकताओं का मानदेय 9,000 रुपये महीना, आँगनबाड़ी कार्यकताओं का मानदेय 6,100 रुपये महीना, आँगनबाड़ी सहायिकाओं और आशा वर्कर्स का मानदेय 4,700 रुपये महीना, सिलाई अध्यापिकाओं का मानदेय 7,950 रुपये महीना और मिड-डे मील वर्कर्स का मानदेय 3,500 रुपये महीना करने का निर्णय लिया गया है।

राजस्थान  : राजस्थान सरकार ने भी अपना 2022-23 का बजट पेश कर दिया है। 23 फरवरी, 2022 को राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत ने विधानसभा में पेश किये बजट 2,38,465.79 करोड़ रुपये के राजस्व के व्यय का अनुमान जताया। राजस्थान में 2022-23 के बजट अनुमानों में राजस्व घाटा 23,488.56 करोड़ रुपये है। वहीं राजकोषीय घाटा जीडीपी का 4.36 फ़ीसदी यानी 58,211.56 करोड़ रुपये है। लेकिन सरकार ने शहरी क्षेत्र में रोज़गार हेतु इंदिरा गाँधी शहरी रोज़गार गारंटी योजना लागू करने, पुरानी पेंशन योजना लागू करने, घरेलू उपभोक्ताओं को 100 यूनिट प्रति माह मुफ़्त उपभोग करने पर 50 यूनिट बिजली मुफ़्त देने, चिरंजीवी योजना में प्रति परिवार का सालाना चिकित्सा बीमा पाँच लाख से बढ़ाकर 10 लाख रुपये करने, मुख्यमंत्री चिरंजीवी दुर्घटना बीमा योजना के तहत पाँच लाख रुपये का कवर लागू करने, रोड सेफ्टी अधिनियम लाने, राजस्थान पब्लिक ट्रांसपोर्ट अथॉरिटी का गठन करने, जयपुर में स्टेट रोड सेफ्टी इंस्टीट्यूट स्थापित करने, कृषि बजट के तहत समेकित निधि, राज्य की स्वायत्तशाषी, सहकारी एवं अन्य संस्थाओं के स्वयं के संसाधनों सहित कुल राशि 78,938.68 करोड़ रुपये का कृषि विकास एवं किसानों के कल्याण हेतु योजनाओं को परवान चढ़ाने, मुख्यमंत्री कृषक साथी योजना की राशि 2,000 करोड़ रुपये से बढ़ाकर 5,000 करोड़ रुपये करने, 100 करोड़ रुपये का ईडब्लूएस कोष बनाने को कहा है।

झारखण्ड : झारखण्ड सरकार ने अपने 2022-23 के बजट में 1.01 लाख करोड़ रुपये की राशि राज्य के विकास कार्यों के लिए निर्धारित की है। झारखण्ड के मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन और वित्त मंत्री रामेश्वर उरांव ने इसके तहत 59 फ़ीसदी पूँजीगत व्यय की वृद्धि करने का प्रस्ताव रखा है। सरकार का कहना है कि आगामी वित्त वर्ष में झारखण्ड के छात्र-छात्राओं को उच्च शिक्षा में आ रही बाधाओं को दूर करने के लिए गुरुजी क्रेडिट कार्ड स्कीम, ग़रीब और किसानों पर बिजली का बोझ कम करने के लिए ऐसे प्रत्येक परिवारों को मासिक 100 यूनिट बिजली मुफ़्त देने, स्टेट फंड से एक अतिरिक्त कमरे के निर्माण के लिए 50,000 रुपये प्रति आवास उपलब्ध कराने, शिक्षकों के मानदेय मद में 600 करोड़ रुपये का अतिरिक्त प्रावधान करने, कृषि और उससे जुड़े क्षेत्र में 4,091.37 करोड़ रुपये ख़र्च करने का प्रावधान है। इसके अलावा राज्य में उच्च एवं तकनीकी शिक्षा में शिक्षकों के रिक्त पड़े 1,363 पदों पर नियुक्तियाँ करने, कुल 33 नये डिग्री कॉलेजों / महिला कॉलेजों में सभी प्रकार के पदों के सृजन करने गोला में डिग्री कॉलेज के निर्माण करने की बात भी कही गयी है।

गुजरात : गुजरात सरकार ने भी 2022-23 के लिए 2,43,965 करोड़ रुपये का बजट पेश कर दिया है। इस वित्त वर्ष में गुजरात सरकार ने तीन नये मेडिकल कॉलेज खोलने, कोई नया टैक्स नहीं लगाये जाने, 80 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों के लिए 1,250 और 60 वर्ष से अधिक आयु के वरिष्ठ नागरिकों के लिए 1,000 रुपये पेंशन दिये जाने, 4,000 गाँवों को मुफ़्त वाईफाई देने, सुरेंद्रनगर में आयुर्वेदिक कॉलेज, नवसारी ज़िले के बिलिमोरा में सरकारी आयुर्वेदिक अस्पताल की स्थापना करने, मोरबी में 400 करोड़ रुपये की लागत से विश्व स्तरीय अंतरराष्ट्रीय सिरेमिक पार्क स्थापित करने, पीएचडी छात्रों को एक लाख रुपये की सहायता देने, गर्भवती और स्तनपान कराने वाली माताओं को 1,000 दिनों तक हर महीने एक किलो तुअरदाल, दो किलो चना और एक किलो खाद्य तेल मुफ़्त देने, मुख्यमंत्री गोमाता पोषण योजना के लिए 500 करोड़ रुपये के आवंटन करने, उत्कृष्ट विद्यालय का शुभारम्भ करने के लिए 10,000 करोड़ रुपये का आवंटन करने, कच्छ में बड़े चेक डैम के निर्माण के लिए 65 करोड़ रुपये का आवंटन करने, बनासकांठा में सिंचाई के लाभ के लिए 70 करोड़ रुपये का आवंटन करने, धरोई बाड़े को पर्यटन स्थल के रूप में विकसित करने के लिए 200 करोड़ रुपये का आवंटन करने, अहमदाबाद ज़िले के नलकांठा क्षेत्र के गाँवों की सिंचाई के लिए 25 करोड़ रुपये का आवंटन करने, कृषि विभाग के लिए 7,737 करोड़ रुपये का आवंटन करने, प्रदेश में प्राकृतिक कृषि विकास बोर्ड का गठन करने, जल संसाधन विभाग के लिए 5,339 करोड़ रुपये का आवंटन करने, जलापूर्ति विभाग के लिए 5451 करोड़ रुपये का आवंटन करने, स्वास्थ्य विभाग के लिए 12,240 करोड़ रुपये का आवंटन करने की बात कही है।

बिहार : बिहार सरकार ने भी 2022-23 के लिए बजट पेश कर दिया है। बिहार के उप मुख्यमंत्री सह वित्त मंत्री तारकिशोर प्रसाद ने कुल 2,37,691.19 करोड़ रुपये का बजट पेश किया है, जिसमें स्कीम मद में 1,00,230.25 व स्थापना मद में 1,37,460.94 करोड़ का प्रावधान किया गया है। इस बजट में वेतन-भत्ता भुगतान के लिए 79.10 करोड़ रुपये, 25 नयी इलेक्ट्रिक बसों का परिचालन करने, रोज़गार सृजन करने, ग़रीबों का कल्याण करने जैसी योजनाएँ हैं।

मध्य प्रदेश : मध्य प्रदेश सरकार ने इस वित्त वर्ष का बजट काफ़ी हंगामे के बीच पेश किया। राज्य के वित्तमंत्री जगदीश देवड़ा ने 2 लाख 79,237 करोड़ रुपये के इस बजट में कई घोषणाएँ कीं, जिनमें लाडली लक्ष्मी योजना का विस्तार, साढ़े सात लाख सरकारी कर्मचारियों का महँगाई भत्ता 20 फ़ीसदी से बढ़ाकर 31 फ़ीसदी करने, पीपीपी मॉडल के तहत 217 इलेक्ट्रॉनिक व्हिकल चार्जिंग स्टेशन बनाने, उच्च शिक्षा के लिए भी वित्तीय सहायता देने, मुख्यमंत्री तीर्थ दर्शन योजना फिर से शुरू करने जैसी योजनाओं की घोषणा की। इसी तरह तेंदुपत्ता संग्रह करने वालों को पारिक्षमिक 70 फ़ीसदी से बढ़ाकर 75 फ़ीसदी करने, 4,000 किलोमीटर सडक़ें बनाने जैसी घोषणाएँ भी की हैं।

हरियाणा : हरियाणा सरकार ने 8 फरवरी को अपना बजट 2022-23 1.77 लाख करोड़ रुपए का रखा है। यह वित्त वर्ष 2021-22 से 0.24 लाख करोड़ रुपये ज़्यादा रहा।

हरियाणा के मुख्यमंत्री के रूप में मनोहर लाल खट्टर ने अपना इस कार्यकाल का तीसरा बजट हरियाणा विधानसभा में पेश करते हुए महिलाओं के लिए सुषमा स्वराज पुरस्कार की घोषणा की। यह पुरस्कार राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर किसी भी क्षेत्र में बेहतर प्रदर्शन के लिए दिया जाएगा। इसी तरह उद्यमी बनने में सहायता देने के लिए हरियाणा मातृशक्ति उद्यमिता योजना शुरू की जाने की बात भी इस बजट में की गयी है।

 

मानवता पर मँडराता ख़तरा

मौज़ूदा वक़्त में सभी की निगाहें रूस और यूक्रेन के बीच छिड़ी जंग और उससे होने वाले नुक़सान का अनुमान लगाने पर टिकी हुई हैं। लेकिन इसी दरमियान विश्व में जलवायु परिवर्तन के प्रति आगाह करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय रिपोर्ट जारी हुई है। यह रिपोर्ट धरती, मानव, खेती आदि पर मँडरा रहे ख़तरों को हमारे सामने विस्तार से रखती है। जलवायु परिवर्तन पर इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज (आईपीसीसी) द्वारा हाल ही में जारी छठी मूल्यांकन रिपोर्ट के दूसरे भाग में साफ़ कहा गया है कि अगर कार्बन उत्सर्जन में कटौती नहीं हुई, तो निकट भविष्य में गर्मी व उमस इंसान की सहनशीलता की सीमा को पार कर जाएगी। यह ख़तरा भारत समेत कई देशों पर है। रिपोर्ट में कहा गया है कि भारत उन स्थानों में से एक होगा, जो इन असहनीय परिस्थितियों का अनुभव करेगा। जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के वर्किंग ग्रुप की इस रिपोर्ट से पता चलता है कि जलवायु परिवर्तन के मानकों को हासिल करना तो दूर रहा, वातावरण को नष्ट करने वाली गैसों के उत्सर्जन में 14 फ़ीसदी बढ़ोतरी होने जा रही है। कम-से-कम आधी मानवता ख़तरे की ज़द में आ चुकी है।

दरअसल इंटरगवर्नमेंटल पैनल ऑन क्लाइमेट चेंज जलवायु परिवर्तन से सम्बन्धित विज्ञान का आकलन करने वाली एक अंतरराष्ट्रीय संस्था है। आईपीसी की स्थापना संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम और विश्व मौसम विज्ञानी संगठन द्वारा सन् 1988 में की गयी थी। यह पैनल जलवायु पर परिवर्तन नियमित वैज्ञानिक आकलन, इसके निहितार्थ और भविष्य में सम्भावित जोखिमों के साथ-साथ अनुकूलन तथा शमन के विकल्प भी उपलब्ध कराता है। इस पैनल में विभिन्न देशों के वैज्ञानिक शामिल होते हैं। आईपीसीसी क़रीब हर सात वर्षों में एक आकलन रिपोर्ट तैयार करता है। अब तक पाँच ऐसी मूल्यांकन आकलन रिपोर्ट जारी हो चुकी हैं। पाँचवीं मूल्यांकन रिपोर्ट 2014 में पेरिस में जलवायु परिवर्तन सम्मेलन के लिए तैयार की गयी थी। फरवरी, 2015 के 41वें सत्र में यह तय किया गया था कि जलवायु परिवर्तन पर पेरिस समझौते के प्रभावों को शामिल करते हुए नयी आकलन रिपोर्ट 2022 में जारी की जाएगी। ग़ौरतलब है कि आईपीसीसी की छठी आकलन रिपोर्ट का पहला भाग ‘रिपोर्ट ऑन द फिजिकल साइंस बेसिस’ अगस्त, 2021 में जारी किया गया।

इसी का दूसरा भाग ‘इम्पैक्ट्स, अडॉप्टेशन ऑर वल्नेरेबिलिटी’ शीर्षक से 28 फरवरी, 2022 को जारी किया गया है। इस छठी आकलन रिपोर्ट की अन्तिम व तीसरी $िकस्त भी इसी साल जारी की जाएगी। यह रिपोर्ट 67 देशों के 270 वैज्ञानिकों ने तैयार की है और 195 देशों की सरकारों ने इसे मंज़ूरी दी है। छठी आकलन रिपोर्ट के पहले भाग में भी दुनिया के देशों को आगाह किया गया था, अगले 20 सालों में वैश्विक तापमान 1.5 डिग्री सेल्सियस की सीमा को पार कर जाएगा। यदि वर्तमान की तरह ग्रीन हाउस गैसों का उत्सर्जन जारी रहा तो 21वीं सदी के मध्य में ही वैश्विक तापमान 2 डिग्री सेल्सियस को पार कर जाएगा। कार्बन डाइऑक्साइड की सांद्रता 20 लाख वर्षों में सबसे अधिक है।

समुद्री जलस्तर में वृद्धि 3,000 वर्षों में सबसे तेज़ है। तापमान में एक डिग्री सेल्सियस की वृद्धि भारी से भारी बारिश की घटनाओं की तीव्रता को और बढ़ा देगी। महासागरों का गर्म होना जारी रहेगा। इसी रिपोर्ट का दूसरा भाग हाल ही मे जारी हुआ है। इसके मुताबिक, प्रदूषण के लिए सबसे बड़े ज़िम्मेदार माने जाने वाले देश भी ख़ुद को तबाह करने पर तुले हुए हैं। इसमें निष्कर्ष निकाला गया है कि जलवायु परिवर्तन के नुक़सान इंसानों,जानवरों, कृषि, पौधों और पूरी परिस्थितिकी को इस क़दर प्रभावित कर रहे हैं कि उन्हें वापस बहाल करना सम्भव नहीं रह गया है। बेक़ाबू कार्बन प्रदूषण से जोखिम वाले क्षेत्रों को सबसे अधिक ख़तरा होना तय माना गया है। यह स्पष्ट है कि जलवायु परिवर्तन विश्व के सभी हिस्सों को प्रभावित करता है; लेकिन सभी हिस्से समान रूप से प्रभावित नहीं होते। कहीं पर यह प्रतिकूल असर ज़्यादा, तो कहीं उससे कम पड़ता है। पर यह निश्चित है कि इससे हर कोई प्रभावित हो रहा है। इस रिपोर्ट के मुख्य लेखक पीटर अलेक्जेंडर ने कहा कि इस वजह से हम सब असुरक्षित हैं। वैज्ञानिकों ने किस महाद्वीप में जलवायु परिवर्तन का क्या असर पड़ेगा? इसका अनुमान लगाया है। हिमालय के ग्लेशियरों के पिघलने से चट्टान के पीछे जमा हो सकता है। यह झील के ज़रिये जब चट्टान से होकर तीव्र वेग से आगे बढ़ेगा, तो पर्वतीय समुदाय को अपनी चपेट में ले लेगा। उनकी जान जोखिम में पड़ सकती है। साथ ही मच्छरों की वजह से डेंगू और मलेरिया पूरे एशिया में फैल जाएगा।

यूरोप में बीते कई वर्षों में गर्मी बढ़ रही है। अगर महाद्वीप में ग्लोबल वार्मिंग 3 डिग्री सेल्सियस तक पहुँची, तो यहाँ हालात बहुत ख़तरनाक होंगे। गर्मी से होने वाली मौतों में बहुत वृद्धि होगी। यही नहीं बाढ़ भी अपना कहर ढायेगी। इटली के $खूबसूरत शहर वेनिस के डूबने की आशंका भी व्यक्त की गयी है। उत्तरी अमेरिका की बात करें, तो यहाँ बड़े जगंल की आग जंगलों को और जलाती रहेगी। पश्चिमी अमेरिका व कनाडा में भारी बारिश होगी। इससे बड़े पैमाने पर तबाही होने का अनुमान है। दक्षिण और मध्य अमेरिका के बाबत बताया गया है कि अमेजन के वर्षावन और इसके द्वारा समर्थित हज़ारों विविध पौधे और जानवरों के सूखे के चपेट में आने की आशंका है। जलवायु परिवर्तन की ज़द में ऑस्ट्रेलिया भी आता है। यहाँ के ग्रेट बैरियर रीफ और केल्प के जंगल भी गर्मी में झुलसेंगे। लू और गर्मी की वजह से पर्यटन राजस्व पर काफ़ी असर पड़ेगा।

विश्व का सबसे गर्म महाद्वीप अफ्रीका में गर्मी में और अधिक इज़ाफ़ा हो सकता है। इससे वहाँ के लोगों के तनाव में आने का ख़तरा बढ़ सकता है। अगर ग्लोबल वार्मिंग 1.5 डिग्री सेल्सियस से अधिक हो जाती है, तो यहाँ प्रति एक लाख में कम-से-कम 15 अतिरिक्त लोग भीषण गर्मी की वजह से मारे जाएँगे। भारत को लेकर भी आईसीपीपी की यह आकलन रिपोर्ट कई स्तर पर सचेत करती है। अगर तापमान में वृद्धि जारी रहती है, तो $फसल उत्पादन में तेज़ी से कमी आएगी। जलवायु परिवर्तन और बढ़ती माँग का मतलब है कि भारत में 2050 तक क़रीब 40 फ़ीसदी लोग पानी की कमी के साथ जीएँगे, जो कि इस समय यह संख्या 33 फ़ीसदी है। भारत के कुछ हिस्सों में चावल का उत्पादन 30 और मक्का का 70 फ़ीसदी गिर सकता है। अगर उत्सर्जन में कटौती की जाती है, तो यह आँकड़ा 10 फ़ीसदी हो जाएगा। भारत में जलवायु परिवर्तन का जो असर समुद्र स्तर पर पड़ेगा, वह चौंकाने वाला है। समुद्र स्तर व नदी की बाढ़ से आर्थिक लागत दुनिया में सबसे अधिक होगी। अकेले मुम्बई में समुद्र स्तर में वृद्धि से 2050 तक प्रतिवर्ष 162 अरब डॉलर के नुक़सान की आशंका जतायी गयी है। यही नहीं, भारत दूसरे देशों में जलवायु परिवर्तन की से होने वाले परिणामों से भी प्रभावित होगा। आईपीसीसी की इस रिपोर्ट में यह भी कहा गया है कि शहर और शहरी केंद्र वैश्विक तापमान को बढ़ाने में बराबर अपनी भूमिका निभा रहे हैं।

सिटीस व सेटलमेंट अध्याय की लेखिका अंजलि प्रकाश ने लिखा है कि शहरी भारत पर अन्य क्षेत्रों की तुलना में अधिक ख़तरा मँडरा रहा है। क्योंकि एक अनुमान है कि 2050 तक यानी अगले 28 वर्षों में शहरवासियों की आबादी क़रीब 88 करोड़ हो जाएगी, जो कि वर्ष 2020 तक क़रीब 48 करोड़ थी। रिपोर्ट में यह भी ख़ुलासा किया गया है कि आद्र्र्रता व तापमान का संयुक्त पैमाना (वेट बल्ब तापमान) 31 डिग्री तक पहुँच जाएगा, जो मानव जीवन के लिए ख़तरनाक होता है। अगर यह 35 डिग्री तक पहुँच जाए, तो बहुत घातक होता है। भारत में अभी यह 25-30 डिग्री रहता है और शायद ही कभी 31 डिग्री से अधिक होता है।

भारत दुनिया का तीसरा सबसे बड़ा उत्सर्जक देश है और इसने 2070 तक नेट जीरो के स्तर तक पहुँचने का वादा किया है। बेशक भारत सरकार ने कार्बन उत्सर्जन में कटौती वाले इस लक्ष्य को हासिल करने के लिए कुछ नीतियाँ बनायी हैं; लेकिन अभी इस दिशा में सरकार को बहुत अधिक काम करने की ज़रूरत है। जलवायु परिवर्तन से होने वाले नुक़सानों पर कभी चुनावी रैलियों में चर्चा नहीं होतीं। राजनीतिक प्रतिबद्धता का अभाव साफ़ दिखायी देता है। जलवायु परिवर्तन सरीखे गम्भीर मुद्दे पर सरकारी नीतियों व कार्यक्रमों की समीक्षा समय-समय पर बहुत ज़रूरी है।

हत्याओं-आत्महत्याओं के दौर में बीएसएफ

व्यक्तिगत समस्याएँ या सीमा पर काम करने की स्थिति से पैदा हो रहा तनाव!

अपनी तरह के पहले  क़दम में देश के सबसे बड़े सीमा-रक्षा बल बीएसएफ ने अपने जवानों के बीच आत्महत्या और अवसाद पर अंकुश लगाने के लिए दो महत्त्वाकांक्षी परियोजना शुरू की और लगभग 2.65 लाख कर्मियों के शक्तिशाली बल का अपनी वार्षिक चिकित्सा परीक्षण (डब्ल्यूक्यूए) शुरू किया। बीएसएफ के ज़िम्मे पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ दो सबसे महत्त्वपूर्ण भारतीय सीमाओं को सुरक्षित करना है। हालाँकि पिछले हफ़्ते अमृतसर में एक सहयोगी द्वारा बीएसएफ के पाँच जवानों की हत्या और एक दिन बाद पश्चिम बंगाल में एक जवान ने अपने सहयोगी की गोली मारकर हत्या कर दी और बाद में ख़ुद को गोली मारकर आत्महत्या कर ली। यह दर्शाता है कि या तो जवान बहुत तनाव में हैं या उन्हें मानसिक रूप से गहन परामर्श की ज़रूरत है।

पिछले हफ़्ते पंजाब के अमृतसर में पाकिस्तान सीमा के पास एक बटालियन मुख्यालय में बीएसएफ के पाँच जवानों की जान चली गयी। यह तब हुआ जब उनमें से एक ने कथित तौर पर अपने सर्विस हथियार से अपने सहयोगियों पर गोली चला दी और ख़ुद को भी गोली मारकर ख़त्म कर लिया। बीएसएफ ने खासा में 144 बटालियन मुख्यालय में हुई घटना को भाई-भतीजावाद का मामला बताया और न्यायिक जाँच (कोर्ट ऑफ इन्क्वायरी) के आदेश दिये, जबकि स्थानीय पुलिस ने इसे लेकर मामला दर्ज किया है। बीएसएफ के आईजी (पंजाब) आसिफ़ जलाल ने कहा कि घटना की जाँच की जा रही है। हमने घटना के बाद पुलिस को बुलाया, जो इसकी जाँच करेगी।

इस घटना के एक दिन बाद सीमा सुरक्षा बल के एक जवान ने मुर्शिदाबाद (पश्चिम बंगाल) में एक सीमा चौकी (बीओपी) पर सर्विस राइफल से ख़ुद को मारने से पहले अपने सहयोगी की गोली मारकर हत्या कर दी। बल में इन घटनाओं से कर्मियों में बड़े स्तर पर तनाव का संकेत मिलता है कि इससे निश्चित ही निपटना जरूरी है। यह घटना कोलकाता से क़रीब 230 किलोमीटर दूर भारत-बांग्लादेश मोर्चे पर काकमारीचर बीएसएफ कैंप में हुई। बीएसएफ के एक प्रवक्ता ने कहा कि इस दुर्भाग्यपूर्ण घटना में क़रीब 6:30 बजे 117वीं बटालियन के हेड कांस्टेबल जॉनसन टोप्पो ने हेड कांस्टेबल एच.जी. शेखरन को गोली मार दी और बाद में काकमारीचर सीमा चौकी पर अपनी सर्विस राइफल से ख़ुद को गोली मार ली।

बीएसएफ ने दोनों घटनाओं की जाँच के आदेश दिये हैं। लेकिन व्यावसायिक तनाव, काम करने के विपरीत माहौल की स्थिति, अपर्याप्त अवकाश और सामाजिक जीवन के लिए कम वक़्त के कारण तनाव, आत्महत्या और नौकरी छोडऩे का मुद्दा केंद्रीय सशस्त्र पुलिस बलों (सीएपीएफ), बीएसएफ, रिजर्व पुलिस बल (सीआरपीएफ), केंद्रीय औद्योगिक सुरक्षा बल (सीआईएसएफ), भारत-तिब्बत सीमा पुलिस (आईटीबीपी), और सशस्त्र सीमा बल (एसएसबी) पिछले कुछ समय से इनके नेतृत्व को परेशान कर रहा है। याद रहे सीएपीएफ में जवानों की कुल संख्या एक लाख के क़रीब हैं। तथ्य यह है कि बल के जवानों को भारत-पाक और भारत-बांग्लादेश सीमाओं के साथ दुर्गम और कठोर जलवायु क्षेत्रों में लम्बे समय तक तैनात किया जाता है, जहाँ वे अपने परिवारों से महीनों दूर रहते हैं; क्योंकि उन्हें साथ नहीं रखा जा सकता।

गृह मंत्रालय के आँकड़े

दिसंबर, 2021 में संसद में गृह मंत्रालय द्वारा साझा किये गये आँकड़ों में कहा गया है कि सीएपीएफ में तीन साल (2019 से 2021 तक) में साथियों की हत्या की 25 घटनाएँ दर्ज की गयीं। इनमें से नौ बीएसएफ में रिपोर्ट किये गये थे, जो पाकिस्तान और बांग्लादेश के साथ भारत की सीमाओं की रक्षा करते हैं। सबसे अधिक 12 घटनाएँ सीआरपीएफ में हुईं, जो संख्या के हिसाब से सबसे बड़ा अर्धसैनिक बल है, जिसमें लगभग 3.25 लाख जवान हैं। सन् 2015 से 2020 के बीच हत्या के अलावा 680 सीएपीएफ कर्मियों ने आत्महत्या की। सीआरपीएफ, जिसकी क़ानून और व्यवस्था और उग्रवाद विरोधी कर्तव्यों में विविध भूमिका है; के बारे में बात करते हुए राज्यसभा की एक विभाग से सम्बन्धित संसदीय समिति ने दिसंबर, 2019 में कहा कि बल में उच्च स्तर का तनाव उच्च दबाव वाले क्षेत्रों में निरंतर तैनाती के कारण था। संघर्ष वाले इस क्षेत्र में वे दयनीय स्थितियों में रहने के लिए मजबूर हैं।

समिति ने कहा कि यह स्थिति देश के सबसे बड़े बल सीएपीएफ में जवानों को मानसिक और भावनात्मक तनाव से पीडि़त होने के लिए मजबूर कर रही है। सीआईएसएफ का उदाहरण देते हुए संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि विमानन और मेट्रो सुरक्षा बल में एक कांस्टेबल को 5 साल की पात्रता अवधि के विपरीत 22 साल में हेड-कांस्टेबल के पद पर पदोन्नत किया जाता है, जो मनोबल गिराने का एक बहुत बड़ा कारक है। क्या यह पदोन्नति के अवसरों में कमी या सीमा चौकियों पर काम करने की स्थिति या परिवार से मिलने के लिए अपर्याप्त अवकाश होने के कारण है; यह एक बड़ा सवाल है।

संसदीय पैनल की रिपोर्ट

दिसंबर, 2021 में संसदीय समिति की रिपोर्ट में कहा गया है कि अधिकारियों के रैंक (पीबीओआर) से नीचे की बटालियनों में रक्षा बलों के कर्मी 30 दिनों के आकस्मिक अवकाश के हक़दार हैं। और सभी बलों अर्थात् बीएसएफ, एसएसबी, सीआरपीएफ व आईटीबीपपी के सभी रैंक की बटालियनों के कर्मी इसके हक़दार हैं। वे लगभग 15 दिन समान परिचालन चुनौतियों, कठिनाइयों का सामना करते हैं और समान तनाव स्तर रखते हैं। हालाँकि बीएसएफ के महानिदेशक पंकज कुमार सिंह ने कहा- ‘बल में छुट्टी की कोई समस्या नहीं है। वास्तव में जब भी मैं बीएसएफ इकाई का दौरा करता हूँ, तो यह पहला सवाल होता है, जो मैं जवानों से पूछता हूँ। लेकिन किसी ने शिकायत नहीं की है। मैंने उन इकाइयों में मित्र प्रणाली का पालन करने पर ज़ोर दिया है, जहाँ जवान एक-दूसरे के साथ अपनी समस्याएँ साझा कर सकते हैं, ताकि इसे समय पर हल किया जा सके। हाँ, व्यावसायिक तनाव है। लेकिन यह व्यक्तिगत समस्याओं और काम के दबाव दोनों से बनता है।’

एक अधिकारी ने नाम न छापने का अनुरोध करते हुए बताया कि गृह मंत्रालय (एमएचए) ने पिछले साल घोषणा की थी कि वह सीएपीएफ कर्मियों को उनके परिवारों के साथ प्रति वर्ष 100 दिन रहने की सुविधा प्रदान करेगा; लेकिन इसके बारे में कुछ भी नहीं किया गया है। बीएसएफ ने कर्मियों के स्वास्थ्य के लिए एक मूल्यांकन परीक्षण शुरू किया गया है। यह एक बहु-बिन्दु प्रश्नावली है, जिसे जवानों और अधिकारियों के वार्षिक चिकित्सा परीक्षण से जोड़ा गया है। इस प्रश्नावली में कर्मियों को विभिन्न जीवन स्थितियों, चुनौतियों और शर्तों से सम्बन्धित प्रश्नों का उत्तर देना होता है। इन सवालों को विशेषज्ञ मानसिक परामर्शदाताओं और डॉक्टरों द्वारा तैयार किया गया है। परीक्षण का उद्देश्य उन सैनिकों की पहचान करना है, जिन्हें सहायता या परामर्श की आवश्यकता है। इस सन्दर्भ में बीएसएफ में शुरू किये गये दूसरे पायलट प्रोजेक्ट को मेंटर-मेंटी सिस्टम कहा जाता है। कुछ मामलों में योग ने पुराने शारीरिक प्रशिक्षण का स्थान ले लिया है।

पिछली घटनाएँ

उच्च तनाव वाले सीमावर्ती क्षेत्रों में अपने सैनिकों की सेवा के साथ, बीएसएफ ने पहले भी इसी तरह की घटनाएँ देखी हैं। याद रहे 23 सितंबर, 2021 को, दक्षिण त्रिपुरा के गोमती ज़िले में भारत-बांग्लादेश सीमा पर एक स्थान पर एक विवाद के बीच गोलीबारी में बीएसएफ के दो जवानों की मौत हो गयी थी और एक अन्य घायल हो गया था। अप्रैल, 2019 में उत्तरी त्रिपुरा के पानी सागर में एक बीएसएफ कांस्टेबल ने अपनी जान लेने से पहले दो सहयोगियों को गोली मार दी और घायल कर दिया।

मई, 2018 में बीएसएफ के एक जवान ने ख़ुद को गोली मारने से पहले उत्तरी त्रिपुरा के उनाकोटी ज़िले में अपने तीन सहयोगियों की हत्या कर दी थी। उस महीने के अन्त में बीएसएफ ने अपने सभी सुरक्षा कर्मियों के लिए एक वार्षिक मानसिक स्वास्थ्य परीक्षण करना अनिवार्य कर दिया। इसके अलावा शारीरिक परीक्षण किये गये थे। बल ने सैनिकों के लिए मनोरंजक समय आवंटित करने और समय-समय पर बैठकें और परामर्श सत्र शुरू करने का भी निर्णय किया।

शिक्षा में सुधार की ज़रूरत

रूस और यूक्रेन के बीच जारी जंग में इन दोनों देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों और मेडिकल विद्यार्थियों की चर्चा देश भर में ख़ूब रही। ये लोग एक ओर मुसीबत वतन वापसी की चिन्ता में रहे, तो वहीं दोनों युद्धरत देशों के पड़ोसी देशों द्वारा भारतीयों को शरण देकर सुरक्षित निकालने जैसी राहत भरी ख़ूबरें सामने आयीं। इसके साथ ही दोनों देशों में रह रहे भारतीय नागरिकों व विद्यार्थियों को निकालने के लिए रूस और यूक्रेन में सुरक्षित गलियारे पर सहमति बनी है।

दिल्ली विश्वविद्यालय के सहायक प्रोफेसर डॉ. ए.के. सिंह ने बताया कि 24 फरवरी को यूक्रेन पर रूस के हमले के पहले ही वहाँ पर रहे भारतीयों को यूक्रेन छोडऩे के सरकार ने दिशा-निर्देश जारी किये थे। इसके बावजूद 15,000 से ज़्यादा भारतीय नागरिक और विद्यार्थी वहाँ फँसे रह गये थे, तब भारत में हाहाकार की स्थिति बनी थी।

जेएनयू के पूर्व छात्र नेता व रूस और यूक्रेन के मामलों के जानकार कुमार पंकज का कहना है कि जब देश के पाँच राज्यों में विधानसभा चुनाव चल रहे थे, तब ऑपरेशन गंगा के तहत सरकारी ख़र्च पर भारतीय नागरिकों को लाया गया है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन (आईएमए) के पूर्व संयुक्त सचिव डॉ. अनिल बंसल का कहना है कि यूक्रेन और रूस के युद्ध को लेकर हमारे देश के नागरिकों और सरकार को सचेत होने की ज़रूरत है। साथ ही इस बात पर ग़ौर करने की भी कि सरकार को धरातल पर काम करने की ज़रूरत है। भारत में मेडिकल कॉलेजों की संख्या और बढ़ाने की ज़रूरत है, ताकि हमारे देश के होनहार विद्यार्थी अपने ही देश में रहकर अपने डॉक्टर बनने के सपने को पूरा कर सकें। क्योंकि जो बच्चे यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई छोडक़र आ रहे हैं, अब उनकी पढ़ाई का क्या होगा? यह आने वाले दिनों में विकट समस्या का विषय बन सकती है। क़रीब 20,000 से अधिक मेडिकल विद्यार्थियों की पढ़ाई युद्ध के चलते बाधित हुई है; जो कब तक बाधित रहेगी? इसे लेकर कुछ नहीं कह सकते। ऐसे में इन विद्यार्थियों के हित में भारत सरकार के साथ-साथ राज्य सरकारों को कुछ सार्थक क़दम उठाने होंगे, ताकि इन बच्चों का भविष्य बर्बाद न हो। फॉरेन मेडिकल एसोसिएशन के एक वरिष्ठ पदाधिकारी ने बताया कि एक तो हमारी सरकारें, चाहे वो राज्य सरकारें हों या फिर केंद्र सरकार; जानबूझकर देश में कम-से-कम मेडिकल कॉलेज खोलने में विश्वास करती रही है। इसके पीछे देश में निजी शिक्षा माफिया का बड़ा खेला दशकों से चल रहा है, जो सुनियोजित तरीक़े से अपने लाभ के लिए कई देशों में भारतीय पैसों वालों के बच्चों को पढ़ाई के लिए भेजते हैं। इसके पीछे कुछ सियासी लोगों का हाथ भी होता है। इंडियन मेडिकल एसोसिएशन कई बार यह माँग रख चुका है कि मेडिकल कॉलेजों में सीटें बढ़ायी जाएँ।

डॉ. दिव्यांग देव गोस्वामी ने भारत सरकार और स्वास्थ्य मंत्रालय से माँग की है कि युद्ध के चलते जो विद्यार्थी अधर में पढ़ाई छोडक़र मजबूरन देश वापस आ रहे हैं, उनकी पढ़ाई सुचारू रखने के लिए कारगर क़दम उठाए। इन बच्चों की पढ़ाई का रास्ता भारत सरकार, राज्य सरकारों और मेडिकल प्रशासन को निकालना होगा। अगर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में इन विद्यार्थियों को दाख़िला देने की क्षमता नहीं है, तो अन्य विकल्पों को निकालना चाहिए। यूक्रेन से मेडिकल की पढ़ाई छोडक़र आये विद्यार्थियों से प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने बात की करके मेडिकल की सीटें बढ़ाने का भरोसा दिलाया है, तो यह सन्तोष करने वाली बात है। लेकिन सवाल यह है कि सीटें कब तक बढ़ेगी? विदेशों में पढ़ाई करने वालों की संख्या हर साल तीन से चार गुना बढ़ रही है। अगर भारत सरकार अपने ही देश में शिक्षा संसाधनों को बढ़ाएगी, तो देश की अर्थ-व्यवस्था मज़बूत हो सकती है। आर्थिक मामलों के जानकार सचिन सिंह का कहना है कि ऑपरेशन गंगा की तरह सरकार को देश में शिक्षा में सुधार करना चाहिए। आख़िर सरकार कब तक पिछली सरकारों को दोष देकर बचती रहेगी। देश में हर साल लगभग आठ लाख विद्यार्थी ही मेडिकल शिक्षा के लिए नीट परीक्षा पास करते हैं। उनमें से 90,000 ही सरकारी और निजी मेडिकल कॉलेजों में दाख़िला ले पाते हैं। बाक़ी विद्यार्थी देशी-विदेशी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों में दाख़िला लेने के लिए मोटा पैसा देने के लिए भी तैयार हो जाते हैं, जिसका फ़ायदा शिक्षा माफिया उठाते हैं। केंद्र व राज्य सरकारें इस दिशा में कोई काम करें, ताकि देश में डॉक्टरों की कमी को भी पूरा करने के साथ-साथ देश की अर्थ-व्यवस्था को भी मज़बूत किया जा सके और देश बच्चों की पढ़ाई देश में हो सके।

हिमाचल में भाजपा धूमल को देगी बड़ी भूमिका!

पाँच राज्यों के चुनाव नतीजों से कांग्रेस ख़ेमे में घबराहट है। इन चुनावों विशेषकर पंजाब, जहाँ कांग्रेस सत्ता में थी; में हार ने पड़ोसी हिमाचल प्रदेश में पार्टी के नेताओं को चिन्तित कर दिया है। उनका मानना है कि इन नतीजों का असर पहाड़ी राज्य के मतदाता पर भी पड़ेगा। भाजपा के शीर्ष सूत्रों के अनुसार, पार्टी 2022 के अन्त तक होने वाले विधानसभा चुनाव में अपनी सम्भावनाओं को बेहतर बनाने के लिए पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल की वापसी करवा सकती है। बता रहे हैं अनिल मनोचा :-

पिछले साल अक्टूबर में जब सत्तारूढ़ भारतीय जनता पार्टी (भाजपा) के लिए एक बड़े झटके के रूप में कांग्रेस ने हिमाचल में हुए उप चुनाव में तीनों विधानसभा और एक लोकसभा सीट पर जीत दर्ज कर ली, तो ऐसा सन्देश गया कि विपक्षी कांग्रेस 2022 के आख़िर में होने वाले पाँच राज्यों के विधानसभा चुनावों के लिए पूरी तरह तैयार है। हालाँकि उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर सहित चार राज्यों में भाजपा के अच्छे प्रदर्शन ने कांग्रेस को परेशान किया है और सबसे ज़्यादा हिमाचल में जहाँ वह आने वाले महीनों में अच्छी ख़बर की उम्मीद कर रही थी।

कांग्रेस सत्तारूढ़ भाजपा के ख़िलाफ़ कथित सत्ता विरोधी लहर के मद्देनज़र उत्तराखण्ड में सत्ता हासिल करने की उम्मीद कर रही थी; लेकिन उसे हार का सामना करना पड़ा। भाजपा ने न केवल उत्तराखण्ड में इस सिलसिले को तोड़ा, बल्कि एक बेहतरीन प्रदर्शन के साथ उत्तर प्रदेश को बरक़रार रखते हुए एक तरह का इतिहास भी रचा। पंजाब में कांग्रेस का प्रदर्शन और भी ख़राब था; क्योंकि उसे आम आदमी पार्टी से हार का सामना करना पड़ा और यहाँ तक कि वहाँ उसके मुख्यमंत्री भी दोनों सीटों से हार गये, जिन पर वह चुनाव लड़े थे।

इन नतीजों पर पूर्व मुख्यमंत्री प्रेम कुमार धूमल ने कहा कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने कई मौकों पर यह स्पष्ट किया है कि डबल इंजन सरकार के लिए भारतीय जनता पार्टी बहुत महत्त्वपूर्ण है। धूमल ने कहा कि जब यहाँ (हिमाचल) चुनाव होंगे, तो भाजपा स्पष्ट बहुमत के साथ सत्ता में वापसी करेगी। यह याद दिलाने पर कि भाजपा अक्टूबर, 2021 में हुए उप चुनाव में मंडी लोकसभा और सभी तीन विधानसभा सीटों- फतेहपुर, अर्की, जुब्बल-कोटखाई में हार गयी थी। उन्होंने कहा कि यह छ: बार के मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह, जिनका उस समय निधन हुआ था; के लिए मतदाताओं की सहानुभूति के कारण था।

दिग्गज नेता वीरभद्र सिंह ने 8 जुलाई को कोरोना महामारी की जटिलताओं के बाद अन्तिम साँस ली थी। यह एक सर्वविदित तथ्य है कि कांग्रेस ने वीरभद्र सिंह के नाम पर ‘वोट नहीं, श्रद्धांजलि है’; का नारा देकर जनता से वोट माँगा था और जनता ने उसे स्वीकार करते हुए कांग्रेस को सभी सीटों पर जीता दिया था। मंडी संसदीय उप चुनाव में कांग्रेस ने दिवंगत मुख्यमंत्री वीरभद्र सिंह की पत्नी प्रतिभा सिंह को मैदान में उतारा था। उन्हें कारगिल युद्ध के नायक भाजपा के ब्रिगेडियर (सेवानिवृत्त) खुशाल ठाकुर के ख़िलाफ़ खड़ा किया गया था। उत्साहित राज्य कांग्रेस प्रमुख कुलदीप सिंह राठौर ने दावा किया कि कांग्रेस ने सेमीफाइनल जीता लिया और दिसंबर, 2022 में विधानसभा चुनाव में भी पार्टी विजयी होगी।

उधर वरिष्ठ भाजपा नेता प्रेम कुमार धूमल ने कहा कि हिमाचल में अगले विधानसभा चुनाव में दिवंगत कांग्रेस नेता वीरभद्र सिंह के प्रति सहानुभूति कांग्रेस के काम नहीं आएगी। धूमल, जो प्रदेश में एक लोकप्रिय नेता हैं; के नेतृत्व में भाजपा ने पहले सन् 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा को जीत दिलवायी थी और इसके बाद उनके नेतृत्व के रहते भाजपा ने लगातार राज्य में सभी चुनाव जीते।

धूमल सन् 2017 के प्रदेश विधानसभा चुनाव में भाजपा के मुख्य चेहरा और मुख्यमंत्री पद के घोषित उम्मीदवार थे। लेकिन सुजानपुर हलक़े से अपनी सीट हारने के बाद पार्टी में ही विरोधी गुट ने उन्हें मुख्यधारा की राजनीति से दूर रखने के लिए सब कुछ किया। धूमल ने भी ख़ुद को समीरपुर तक सीमित कर लिया। लेकिन एक लोकसभा और तीन विधानसभा उप चुनावों में हार ने मुख्यमंत्री जयराम ठाकुर और प्रदेश भाजपा अध्यक्ष सुरेश कश्यप की नेतृत्व क्षमताओं पर बड़ा सवाल खड़ा किया है। अब यह चर्चा है कि विधानसभा चुनाव से पहले भाजपा धूमल के लिए पार्टी में कोई बड़ी भूमिका पर विचार कर रही है।

लुप्त हो रहा पंजाब का इनले हस्तशिल्प

पंजाब के होशियारपुर में इनले हस्तशिल्प की कभी धूम हुआ करती थी। इसकी प्रसिद्धि का आलम यह था कि विदेशों में भी इसकी ख़ूब माँग थी। लेकिन समय के साथ होशियारपुर की यह कला हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट) सूची से ही बाहर होकर महज़ चित्रकौशल (ड्राइंग क्राफ्ट) की सूची में पहुँच गयी है या कहें कि डाल दी गयी है। इन दिनों होशियारपुर में इसका कितना काम है? बता रही हैं आशा अर्पित :-

पंजाब के ज़िला होशियारपुर का डब्बी बाज़ार कभी लकड़ी पर हाथी दाँत की कारीगरी के लिए देश-विदेश में ख़ूब मशहूर था। बच्चों के लकड़ी के खिलौनों से लेकर हाथी दाँत की नक़्क़ाशी से बने चकला-बेलन, चाय की ट्रे, फोटो फ्रेम, शीशा फ्रेम आदि से लेकर भारी फर्नीचर तक देश विदेश में निर्यात किया जाता था। लेकिन आज स्थिति यह है कि डब्बी बाज़ार में इस हैंडीक्राफ्ट की कुछ ही दुकानें बची हैं। यह पच्चीकारी यानी इनले होशियारपुर के हस्तशिल्प (हैंडीक्राफ्ट्स) की सूची से अब ग़ायब होने के कगार पर है।

हाथी दाँत पर बैन लगने से पुराने कुशल कारीगरों के अभाव में और नयी पीढ़ी के आगे न आने के कारण इनले क्राफ्ट सरकारी स्तर पर डाइंग क्राफ्ट की सूची में डाल दिया गया है। हालाँकि हक़ीक़त यह है कि आज भी पंजाबी एनआरआई बच्चों के लिए लकड़ी के खिलौनों की माँग करते हैं। कई देशों में इनले क्राफ्ट आज भी पसन्द किया जाता है और लोग ख़रीदते भी हैं, ऐसा इनले हैंडीक्राफ्ट के स्थानीय कुशल शिल्पकार मानते हैं।

राष्ट्रीय पुरस्कार प्राप्त शहर के कुशल शिल्पी रूपन मठारू को इस हस्तशिल्प में काम करते हुए 40 वर्ष हो चुके हैं। मठारू ने बताया कि हमारे समय में 5,000 से लेकर 6,000 तक कारीगर थे, जो आज की तारीख़ में 70 के क़रीब रह गये हैं। यह काम काफ़ी मेहनत वाला है। इसलिए नयी पीढ़ी के बच्चे और युवक इसमें रुचि नहीं ले रहे और पढ़े-लिखे युवक यह काम करना नहीं चाहते। वे सरकारी नौकरी चाहते हैं। रूपन का कहना है कि पच्चीकारी यानी इनले क्राफ्ट बढ़ईगीरी (कारपेंटरी) से मिलता-जुलता है।

बढ़ईगीरी में युवक दो-तीन महीने में काम सीख लेता है और जिसके साथ काम सीखता है, वह उसे दो या तीन हज़ार रुपये दिहाड़ी दे देता है। लेकिन इस क्राफ्ट में उत्पाद महँगा होता है। हस्तशिल्प का काम कम होने की बड़ी वजह यह भी है कि इसको लेकर राज्य सरकार की तरफ़ से कोई सहयोग नहीं मिलता है।

पहले स्टेट अवॉर्ड मिलता था; लेकिन वर्ष 1991 से वह भी बन्द हो गया। सम्मान (अवॉर्ड) से शिल्पकारों को बड़ा उत्साह मिलता था। वस्त्र मंत्रालय की तरफ़ से 60 वर्ष से ऊपर की उम्र वाले शिल्पकार को पेंशन की सुविधा भी दी गयी है; लेकिन यह उसी को मिलती थी, जिसे स्टेट अवॉर्ड मिला हुआ हो। शहर में ऐसे चार शिल्पकार हैं, जिन्हें पेंशन मिलती है। इस हस्तशिल्प के शिल्पकारों की आज ऐसी हालत है कि कोई रेहड़ी लगा रहा है, तो कोई पेंट का काम कर रहा है; क्योंकि उन्हें इस काम में पैसे नहीं मिले।

रूपम मठारू आगे बताते हैं कि पहले दो तरह से काम होता था। शिल्पी अपने घर में काम करता था, उसका अपना यूनिट होता था और कच्चा माल भी वह अपना ही लेता था। इसके बाद वह उत्पाद (प्रोडक्ट) बनाकर बेच देता था। दूसरे तरीक़े से शिल्पकार किसी दुकान से कच्चा माल लेकर और प्रोडक्ट बनाकर दुकानदार को ही दे देता था। इसके बदले में जितने पैसे मिलते थे, ले लेता था। अब ये दोनों काम बन्द हो गये हैं। दुकानदारों ने कारीगर को अपने पास रख लिये। रोज़ाना 300 रुपये की दिहाड़ी पर; जो वर्षों से वही चली आ रही है। इसलिए वे घर का गुज़ारा कैसे करेंगे? बच्चों को क्यों इस काम में लाएँगे। बल्कि एक आम मज़दूर को भी अब 500 रुपये दिहाड़ी मिलती है।

नयी पीढ़ी के कारीगर कमलजीत

इस हस्तशिल्प में कई पुरस्कार प्राप्त कर चुके शिल्पी रूपम मठारू के पुत्र कमलजीत छठी पीढ़ी का काम आगे बढ़ा रहे हैं। परिवार में काम होता देखकर और स्कूल से आने के बाद पिता की मदद करते हुए उनकी पच्चीकारी यानी इनले क्राफ्ट में रुचि पैदा हो गयी। पिता को पुरस्कार मिलते देख उन्होंने 12वीं के बाद पूरा समय इस काम को देना शुरू कर दिया। वर्ष 2009 में उसे भी नेशनल मेरिट अवॉर्ड मिला, उस टेबल पर जो उन्होंने अपने पिता और पुरहीरा गाँव के कुशल शिल्पी बलदेव किशन की मदद से बनाया था।

कमलजीत का कहना है कि इस पुरस्कार ने उसका हौसला बढ़ाया और आगे का उनका रास्ता खुल गया। कमलजीत दावे के साथ कहते हैं कि यह हस्तशिल्प व्यक्ति को करोड़पति बना सकता है; अगर मेहनत, कौशल के साथ-साथ उच्च शिक्षा भी हासिल कर ली जाए। उन्होंने बताया कि इस हस्तशिल्प की विदेशों में आज भी अच्छी माँग है। लेकिन इस काम में सिर्फ़ वे ही बच्चे आते हैं, जो पढ़े-लिखे नहीं हैं। समस्या यह है कि वे नये डिजाइन नहीं बना सकते, विपणन (मार्केटिंग) नहीं कर सकते। युवा कमलजीत  तीन बार सरकारी ख़र्च पर विदेश गये और उनके हस्तशिल्प उत्पादों की अच्छी बिक्री भी हुई।

कमलजीत ने बताया कि उसकी 12वीं तक की पढ़ाई वहाँ काम नहीं आयी। बर्मिंघम (यूके) में उसका सामान तो बिक रहा था, पर उसे अंग्रेजी में बात करनी नहीं आती थी। साओ पौलो (ब्राजील) में पहले ही दिन ऑर्डर मिल गया था। उसके उत्पाद के दाम भी भारत से चार गुना ज़्यादा थे; लेकिन फिर भी वहाँ के लोगों ने उसी क़ीमत पर प्रोडक्ट ख़रीदे, कोई सौदेबाज़ी नहीं की। वैसे इस बार वह अंग्रेजी सीख कर गये थे, उन्हें ग्राहक से संवाद करने में दिक़्क़त पेश नहीं आयी।

कैसे हो कायाकल्प?

पंजाब के ज़िला होशियारपुर की विरासत की पहचान इनले क्राफ्ट का कायाकल्प करने के लिए सरकारी स्तर पर प्रयास करने पर ज़ोर दिया जाना चाहिए। मार्केटिंग के साथ-साथ बच्चों में ख़ासकर नयी पीढ़ी के युवकों में इस शिल्प (क्राफ्ट) के प्रति रुझान पैदा करने के लिए इनोवेशन के साथ गुणवत्ता वाला प्रशिक्षण कार्यशाला (ट्रेनिंग वर्कशॉप) आयोजित की जानी चाहिए। भारी फर्नीचर की बजाय रोज़ाना काम में आने वाली चीज़े तैयार की जानी चाहिए।

रूपम का कहना है कि इस हस्तशिल्प में बनाये जाने वाले बनावट (डिजाइन) और रचना (मोटिफ) बदले जाएँ। इनले के लिए बोन यानी हड्डी की बजाय सिल्वर, ताँबा, पीतल आदि धातुओं का उपयोग भी किया जा सकता है, जो प्रोडक्ट को अलग लुक दे सकता है। लेजर कटिंग और सीएमसी मशीनें सरकारी स्तर पर मुहैया करायी जानी चाहिए; क्योंकि लेजर कटिंग की मशीन चार से पाँच लाख तक और सीएमसी मशीनों की क़ीमत 40 से 45 लाख तक है, जो कि एक आम कारीगर या  शिल्पकार वहन नहीं कर सकता।

वह कहते हैं कि सरकारी स्तर पर ये मशीनें ऐसी जगह लगायी जाएँ, जहाँ से आसपास के शिल्पी आकर सामूहिक रूप से अपना काम कर सकें। इसके अलावा इस क्राफ्ट की अच्छी मार्केटिंग भी बहुत ज़रूरी है। भारी फर्नीचर की बजाय छोटे-छोटे आइटम तैयार होने चाहिए, जैसे- चाय की ट्रे, पेन बॉक्स, फोटो फ्रेम, मोबाइल स्टैंड, शीशा फ्रेम आदि।

 

कई बार सम्मानित हो चुके हैं रूपम

वर्ष 1989 में स्टेट अवार्ड, वर्ष 1994 में नेशनल मेरिट अवार्ड, 1997 में नेशनल अवार्ड और वर्ष 2016 में शिल्प गुरु सम्मान पाने वाले शिल्पकार रूपम मठारू मेहनत से अपने काम को आगे बढ़ाते रहे हैं। उनके मुताबिक, लेटिन अमेरिका, नॉर्थ अमेरिका, ब्राजील, पेरू और अर्जेंटीना जैसे देशों में इनले हैंडीक्राफ्ट की आज भी ख़ूब माँग है।