विरोध-प्रदर्शनों की चपेट में झारखण्ड

स्थानीयता और भाषा को लेकर बढ़ रहा तनाव, लोगों और नेताओं के बीच बढ़ रहे मतभेद

मशहूर शायर राहत इंदौरी के एक चर्चित शे’र है- ‘लगेगी आग तो आएँगे घर कई ज़द में, यहाँ पे सिर्फ़ हमारा मकान थोड़ी है।’

इस शे’र को झारखण्ड में हाल के दिनों में एक बार फिर स्थानीयता और भाषा को लेकर शुरू हुए विवाद से जोड़ा जा सकता है। पिछले कुछ महीनों से इन दोनों मुद्दों पर विवाद बढ़ता जा रहा है। समाज का पूरा का पूरा हिस्सा दो भागों में बँटता जा रहा है। आन्दोलन करने वाले आमने-सामने आ रहे हैं।

नतीजतन टकराव का अंदेशा बढ़ता जा रहा है। इस टकराव में किसी एक वर्ग को नफ़ा-नुक़सान नहीं होगा। दोनों तरफ़ ही इसका असर होगा। इन दोनों मुद्दों को समय रहते सुलझाने की ज़रूरत है; क्योंकि यह राज्य के विकास के लिए एक बड़ा रोड़ा है। इसका ख़ामियाज़ा सबसे अधिक युवा वर्ग को हो रहा है।

सन् 2020 में हुए राज्य के गठन के समय से ही स्थानीयता का मुद्दा चल रहा है। भाषा का मुद्दा पिछले कुछ महीनों से सामने आया है। अब इन दोनों ही मुद्दों पर राजनीतिक रोटियाँ सेंकने के लिए समय-समय पर हवा देने के चलते अब यह यह आम लोगों से अधिक राजनीतिक मुद्दा बन गया है। प्रसिद्ध ब्रिटिश समाज वैज्ञानिक कार्ल पॉपर ने कहा था कि यदि किसी समाज को विकास की दौड़ में पीछे धकेलना हो, तो उसके भीतर धर्म, भाषा और संस्कृति जैसे विषयों पर विवाद खड़ा कर देना चाहिए। क्योंकि ये तीनों समाज के लिए उस नशे के समान होती हैं, जिससे हुए नुक़सान का अंदाज़ा नशा ख़त्म होने के बाद लगता है। पिछले कुछ दिनों से झारखण्ड में भी इन्हीं चीज़ें पर विवाद खड़ा किया जा रहा है। इन विवादों की वजह से झारखण्ड में दूसरी किसी भी समस्या की तरफ़ न समाज का ध्यान गया और सियासतदान तो यह चाहते ही नहीं। लेकिन यह बात कोई नहीं समझ रहा कि इससे राज्य और राज्य के लोगों का नुक़सान ही होगा।

नौकरियों पर असर

राज्य में तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियाँ दो वर्गों में बाँटी गयी हैं। पहली राज्य स्तरीय और दूसरी ज़िलास्तरीय। सरकार ने झारखण्ड राज्य कर्मचारी चयन आयोग (जेएसएससी) के ज़रिये ली जाने वाली राज्य स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी वाली नौकरियों की परीक्षाओं के लिए क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से मगही, मैथिली, भोजपुरी और अंगिका को बाहर रखा है। दूसरे वर्ग यानी ज़िला स्तरीय तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरियों के लिए ज़िला स्तर पर क्षेत्रीय भाषाओं की अलग सूची है, जिसमें कुछ ज़िलों में भोजपुरी, मगही और अंगिका को शामिल रखा गया है। तीसरी और चौथी श्रेणी की नौकरी स्थानीय लोगों के लिए आरक्षित की गयी हैं। ऐसे में स्थानीयता और भाषा विवाद के कारण नियुक्तियाँ लटक रही हैं। युवाओं को रोज़गार का अवसर नहीं मिल पा रहा है।

राजनीतिक मतभेद

इन दिनों पूरा झारखण्ड स्थानीय नीति और भाषा विवाद को लेकर उलझा हुआ है। राज्य में जगह-जगह राज्य में जगह-जगह प्रदर्शन हो रहे हैं। कहीं पुतले फूँके जा रहे हैं, तो कहीं मानव शृंखलाएँ बनायी जा रही हैं। कहीं लोग सडक़ों पर उतर रहे हैं, तो कहीं विधानसभा के घेराव का ऐलान हो रहा है। इन दिनों विधानसभा का बजट सत्र चल रहा है। स्थानीयता और भाषा विवाद का शोर सदन के अन्दर से बाहर तक सुनायी दे रहा है।

इन दोनों मुद्दों पर राजनीतिक दलों के भीतर भी दो गुट बने हुए हैं। इन विवाद की आँच में सभी अपनी-अपनी खिचड़ी पका रहे हैं। $खास बात यह है कि राज्य की तीनों प्रमुख पार्टियाँ- झामुमो, कांग्रेस और भाजपा के नेता भी अलग-अलग बँटे हुए हैं। वहीं विभिन्न संगठन भी आमने-सामने हैं। स्थानीयता को फिर से परिभाषित करने की माँग की जा रही है। इसमें सन् 1932 के खतियान को आधार बनाये जाने की माँग है। वहीं एक पक्ष पूर्ववर्ती भाजपा सरकार द्वारा परिभाषित स्थानीयता को ही सही मान रहा है, जिसमें सन् 1985 के कट ऑफ को माना गया है। इसी तरह अंगिका, भोजपुरी, मगही, मैथिली भाषा को क्षेत्रीय भाषा में रखने और हटाने के पैरोकार आमने-सामने हैं।

विपक्ष के साथ-साथ सत्ताधारी दल के कुछ विधायक भी स्थानीयता और भाषा के मुद्दे ज़ोरशोर से उठा रहे हैं। संसदीय कार्य मंत्री आलमगीर आलम स्थानीय नीति में संशोधन के लिए जल्द ही त्रिसदस्यीय मंत्रिमंडल उप समिति बनाने को कह चुके हैं। मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन इस मुद्दे पर प्रश्नकाल में जवाब दे चुके हैं। उनका कहना है कि सरकार न्यायालय के निर्णय का अध्ययन कर रही है, इसके बाद इस मुद्दे पर निर्णय लेगी। मगर मामला शान्त नहीं हो रहा है।

झारखण्ड का यह दुर्भाग्य है कि यहाँ के लगभग हर फैसले को बाहरी-भीतरी के दृष्टिकोण से देखा जाता रहा है। प्राकृतिक संसाधनों के मामले में देश के सर्वाधिक समृद्ध राज्यों में शुमार झारखण्ड के पिछड़ेपन का यह एक प्रमुख कारण है। नियुक्ति से लेकर सामाजिक जीवन के दूसरे क्षेत्रों में हर मुद्दे को विवादित बनाकर झारखण्ड को उलझाना यहाँ की सियासत का अचूक हथियार माना जाता है। स्थानीयता और भाषा का विवाद इसका उदाहरण है।

अब जब सत्ता में आ गयी है, तो 1932 के खतियान को लागू करवाने के पक्षधर आन्दोलनरत हैं। सरकार इस मामले को आसानी से सुलझा नहीं सकती। क्योंकि इसी मुद्दे पर एक बार झारखण्ड जल चुका है। अगर इस बार फिर सही तरीक़े से परिभाषित नहीं हुआ, तो यह क्या रूप लेगा? इसका अनुमान लगाना आसान नहीं है।

 

क्या है स्थानीयता का विवाद?

स्थानीयता का विवाद यह है कि यहाँ का स्थानीय नागरिक कौन है? इसे लेकर आज भी भ्रम की स्थितियाँ हैं। राज्य गठन के तत्काल बाद जब इसे परिभाषित करने का प्रयास किया गया, तो काफ़ी हंगामा हुआ। आन्दोलन हुए। मामला न्यायालय तक गया। इसके बाद से लगातार इस मुद्दे को लेकर राजनीति होती रही। पूर्ववर्ती रघुवर सरकार ने स्थानीयता को परिभाषित किया। इसमें सन् 1985 से राज्य में रहने वालों को स्थानीय माना गया। इसके साथ ही कई अन्य बातों इसमें जोडक़र स्थानीयता को परिभाषित किया गया, जो वर्तमान में लागू है। मौज़ूदा हेमंत सरकार उस वक़्त विपक्ष में थी। सत्ता में आते ही उनकी सरकार ने नयी नीति लाने की घोषणा की थी। राज्य के कई नेता और संगठन 1932 के खतियान के आधार पर स्थानीय नीति लागू करने की माँग कर रहे हैं। इससे पहले सभी नियुक्ति पर रोक लगाने की भी माँग की जा रही है।

 

भाषा का विवाद क्या है?

झारखण्ड सरकार के कार्मिक, प्रशासनिक सुधार व राजभाषा विभाग ने 24 दिसंबर 2021 को भाषा को लेकर एक नोटिफिकेशन जारी किया। इसके बाद से ही क्षेत्रीय भाषाओं की सूची पर विरोध और समर्थन की सियासत तेज़ है। उर्दू को राज्य के सभी 24 ज़िलों में क्षेत्रीय भाषा का दर्जा दिया गया है। राज्य के 11 ज़िलों में स्थानीय स्तर की नियुक्तियों के लिए भोजपुरी, मगही और अंगिका को क्षेत्रीय भाषाओं की सूची में जगह दी। इस पर एक पक्ष का विरोध हुआ। विभाग ने 18 फरवरी 2022 को संशोधित अधिसूचना निकाली। इसमें बोकारो और धनबाद ज़िले की क्षेत्रीय भाषाओं की सूची से भोजपुरी और मगही को बाहर कर दिया गया। अब इसे निकाले जाने से दूसरा पक्ष नाराज़ है। दोनों पक्षों की अपनी-अपनी दलील है। दोनों पक्ष आमने-सामने हैं। दोनों पक्षों के पैरोकार धरना-प्रदर्शन, विरोध बयानबाज़ी कर रहे हैं।