Home Blog Page 425

तबाही की ज़िद

रूस-यूक्रेन के बीच युद्ध थमा भी, तो स्थायी शान्ति नहीं होगी

रूस-यूक्रेन युद्ध ख़तरनाक मोड़ पर पहुँच चुका है। भाड़े के सैनिकों ने यूक्रेन में शान्ति की सम्भावनाओं में देरी की, जिसका नतीजा सबके सामने है। यूक्रेन ने जिस तरह रूसी आक्रमण के आगे हथियार नहीं डाले, उसे देखते हुए वर्तमान हालात में चीन ताइवान के अधिग्रहण में देरी कर सकता है। युद्ध और उससे पैदा हो रहे हालात पर बता रहे हैं गोपाल मिश्रा :-

रूसी-यूक्रेनी संघर्ष में हज़ारों भाड़े के सैनिकों की उपस्थिति और रूस के ख़िलाफ़ कभी न ख़त्म होने वाले एंग्लो-अमेरिकन जुनून ने न केवल पूर्वी यूरोप में शान्ति को मायावी बना दिया है। और अगर चीन भी ताइवान पर क़ब्ज़ा करने का फ़ैसला करता है, तो यह दुनिया के अन्य हिस्सों में शान्ति पर प्रतिकूल प्रभाव डाल सकता है। इस जटिल युद्ध में अपनी तटस्थता बनाये रखने के भारतीय रूख़ को मार्च के तीसरे सप्ताह में जापानी प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा की नई दिल्ली यात्रा के दौरान दोहराया गया था कि ‘संघर्ष के समाधान के लिए संवाद और कूटनीति के मार्ग के अलावा कोई अन्य विकल्प नहीं है।’

रूस के ख़िलाफ़ ब्रिटिश-अमेरिकी जुनून का पता ज़ार हुकूमत के दौरान मध्य एशिया में रूसी विस्तारवाद के पिछले इतिहास और द्वितीय विश्व युद्ध के दौरान नाज़ियों को इसके प्रारम्भिक समर्थन से लगाया जा सकता है। रूस-यूक्रेन संघर्ष के दोनों पक्षों में बड़े पैमाने पर भाड़े के सैनिकों के शामिल होने से, शान्ति के मायावी बने रहने की सम्भावना है। नतीजतन त्वरित युद्धविराम भी इस युद्ध में स्थायी शान्ति सुनिश्चित नहीं कर सकता, जिसे टाला जा सकता था।

यदि कोई रूसी संगठन संघर्ष क्षेत्र में निजी सैनिकों को लुभाने के लिए यूक्रेन की एक लोकप्रिय पोर्क वसा ‘सैलो’ की पेशकश करता है, तो विपरीत पक्ष, जिसे उदारतापूर्वक पश्चिमी शक्तियों द्वारा वित्त पोषित किया जाता है; कथित तौर पर इन सशस्त्र स्वयंसेवकों को कहीं भी लडऩे के लिए तैयार करने के लिए प्रतिदिन 2,000 अमरीकी डॉलर (1.40 लाख रुपये) तक की पेशकश कर रहा है। वैगनर समूह, जिसने कथित तौर पर यूक्रेनी राष्ट्रपति वोलोदिमीर जेलेंस्की की हत्या करने की कोशिश की थी; अब दो बार कथित तौर पर डोनबास क्षेत्र में सक्रिय हो गया है, जिसे हाल ही में रूस द्वारा एक स्वतंत्र देश के रूप में मान्यता दी गयी है। इस बीच चेचन मुसलमान दोनों तर$फ से लड़ रहे हैं। जबकि रमज़ान कादिरोव के लड़ाकों के नेतृत्व में पुतिन समर्थक समूह ने कथित तौर पर कीव के उत्तर में एक हवाई क्षेत्र ले लिया है और रूसी सेना का एक हिस्सा राजधानी की ओर बढ़ रहा है। रूस विरोधी चेचेन भी कथित तौर पर युद्ध में शामिल हो गये हैं। सन् 1994 से 1996 और सन् 1999 से 2009 तक रूस के ख़िलाफ़ दो चेचेन युद्धों के दिग्गज अब कथित तौर पर यूक्रेन में रूस के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं। इससे पहले शेख मंसूर और द्जोखर दुदायेव बटालियन के नाम से जाने वाले दो चेचन स्वयंसेवक 2014 से डोनबास में रूसी समर्थित अलगाववादियों और नियमित रूसी सेनाओं के ख़िलाफ़ लड़ रहे हैं।

इससे पहले 27 फरवरी को द्जोखर दुदायेव बटालियन के कमांडर एडम ओस्मायेव, यूक्रेन को जीतने में मदद करने की क़सम खायी थी। उन्होंने एक वीडियो सन्देश में घोषणा की कि ‘मैं यूक्रेनियन को बताना चाहता हूँ कि असली चेचेन आज यूक्रेन की रक्षा कर रहे हैं।’

ओसमायेव ने कहा- ‘हमने यूक्रेन के लिए लड़ाई लड़ी है और अन्त तक लड़ते रहेंगे।’ उन्होंने रूसी नेशनल गार्ड में लड़ रहे चेचेन से भी पक्ष बदलने की अपील की, और कहा- ‘क्योंकि पूरी सभ्य दुनिया यूक्रेन की मदद करती है। इसलिए मैं उनसे यूक्रेन की तरफ़ जाने का भी आग्रह करता हूँ, यहाँ कमांड स्टाफ, जनरलों के बीच भी, चेचेन राष्ट्रीयता के लोग हैं, और वे आपकी देखभाल करेंगे। मैं इन लोगों के सभी रिश्तेदारों और दोस्तों से भी आग्रह करता हूँ कि वे जल्द-से-जल्द अपने बच्चों को यहाँ से ले जाएँ।’

निजी कम्पनियों का बढ़ता कारोबार

दुनिया के विभिन्न हिस्सों में अशान्ति, संघर्ष और युद्धों ने निजी सैन्य कम्पनियों के लिए बड़ी व्यावसायिक सम्भावनाओं को जन्म दिया है। वे ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठी करते हैं, अमीर और शक्तिशाली को सुरक्षा प्रदान करते हैं और दुनिया भर में भाड़े के सैनिकों की आपूर्ति भी करते हैं। ऐसा अनुमान है कि उनका कारोबार साल 2030 तक 475 अरब अमेरिकी डॉलर तक पहुँच जाएगा। संयुक्त राज्य अमेरिका, ब्रिटेन और दक्षिण अफ्रीका में मुख्यालय वाली कई निजी सुरक्षा कम्पनियाँ हैं; जैसे साइलेंट प्रोफेशनल, मोज़ेक, सैंडलाइन इंटरनेशनल युद्धग्रस्त यूक्रेन में सक्रिय हो गये हैं। यह 90 के दशक के दौरान अंगोला और सिएरा लियोन की ओर से सक्रिय रहे हैं। अमेरिका स्थित ख़ुफ़िया कम्पनी मोज़ेक, 2014 से यूक्रेन में पहले से ही काम कर रही है। यह ख़ुफ़िया जानकारी इकट्ठी करने और राजनीतिक रूप से उजागर लोगों को सुरक्षित स्थानों पर मदद करने में बेहतरीन संगठनों में से एक के रूप में जाना जाता है।

एक अन्य निजी संगठन ब्लैकवाटर ने यूगोस्लाविया में गृहयुद्ध के दौरान महत्त्वपूर्ण भूमिका निभायी थी। ख़ुफ़िया जानकारी एकत्र करने के अलावा इसने बोस्नियाई और निर्माण बलों को अपने लोगों को सुरक्षित स्थानों पर निकालने में मदद की थी। इससे पहले जब रूसी सेना ने फरवरी के अन्तिम सप्ताह में यूक्रेन में मार्च किया था, तो यह अनुमान लगाया गया था कि यूक्रेन रूसी आक्रमण का कोई प्रभावी प्रतिरोध करने में सक्षम नहीं हो सकता है। हालाँकि चार सप्ताह के सैन्य अभियानों के बाद भी यूक्रेनियन ने आत्मसमर्पण नहीं किया। इस प्रकार युद्ध यूरोप में एक लम्बे समय तक चलने वाला संघर्ष बन गया है। यह क्षेत्र विशेष रूप से यूक्रेनियन, पहले के युद्धों में हमेशा अग्रणी राज्य रहा है।

आठ दशक बाद वे फिर से एक युद्ध में हैं, जो कोई नहीं चाहता था। इससे पहले यूएसएसआर और नाज़ी जर्मनी ने मोलोटोव-रिबेंट्रोप के बीच समझौते के रूप में जाने जाने वाले समझौते पर हस्ताक्षर किये थे, जब इसका सामना करना पड़ा था। इसने जर्मनी और यूएसएसआर के बीच पूर्वी यूरोप के विभाजन को जन्म दिया था।

चीन-रूस शिखर सम्मेलन

अमेरिकी राष्ट्रपति, जो बिडेन और चीनी राष्ट्रपति के बीच महत्त्वपूर्ण शिखर सम्मेलन से कुछ दिन पहले चीन के विदेश मंत्रालय के प्रवक्ता झाओ लिजियन ने ज़ोर देकर कहा था कि रूसी-यूक्रेनी संघर्ष पर चीन की स्थिति हमेशा सुसंगत रही है। और इस प्रेक्षण को ख़ारिज कर दिया कि इसमें कोई असंगति है। उनका बयान काफ़ी सार्थक था, जब उन्होंने कहा- ‘यह वे देश हैं, जो यह सोचकर ख़ुद को भ्रमित करते हैं कि वे शीत युद्ध जीतने के बाद इसे दुनिया पर हावी कर सकते हैं, जो अन्य देशों की सुरक्षा की अवहेलना में नाटो के पूर्व की ओर विस्तार को पाँच बार चलाते रहते हैं। चिन्ताओं, और जो दुनिया भर में युद्ध छेड़ते हैं, जबकि अन्य देशों पर जुझारू होने का आरोप लगाते हैं, उन्हें वास्तव में असुविधाजनक महसूस करना चाहिए।’

चीनी बयान और गरमा गया, जब रूसी विदेश मंत्री सर्गेई लावरोव ने पश्चिमी शक्तियों को चुनौती दी। उन्होंने कहा कि रूस ने पश्चिम पर भरोसा करने के बारे में भ्रम ख़त्म कर दिया है और मॉस्को कभी भी संयुक्त राज्य अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था को स्वीकार नहीं करेगा। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन और चीनी नेता शी जिनपिंग की वार्ता सामान्य अमेरिकी बयानबाज़ी से भरी हुई दिखायी दी। इस महत्त्वपूर्ण शिखर वार्ता से पहले चीन के केंद्रीय विदेश मामलों के आयोग के निदेशक यांग जीची और रोम में अमेरिकी राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, जेक सुलिवन के बीच गुप्त वार्ता ने उच्च स्तरीय वार्ता का मार्ग प्रशस्त किया था। चीनी पक्ष ने चर्चा के विवरण का ख़ुलासा नहीं किया। हालाँकि यह स्वीकार किया कि वार्ता स्पष्ट, गहन और रचनात्मक थी और इसमें ताइवान पर चर्चा शामिल थी।

माना जाता है कि अमेरिका ने चीन को आश्वासन दिया है कि ताइवान को एक स्वतंत्र और सम्प्रभु देश के रूप में मान्यता देने का उसका कोई इरादा नहीं है। तत्कालीन विदेश मंत्री माइक पोम्पिओ, जो मार्च में ताइवान में थे; ने माँग की कि संयुक्त राज्य अमेरिका को ताइवान को एक सम्प्रभु देश के रूप में मान्यता देनी चाहिए। फ़िलहाल अमेरिका 1979 में बने ताइवान रिलेशन एक्ट के तहत ताइवान के साथ अपने सम्बन्ध बनाये हुए है। माना यह भी जा रहा है कि ट्रंप प्रशासन के दौरान अमेरिका ने चीनी सामानों पर लगाये गये भारी शुल्क को वापस लेने का भी आश्वासन दिया है। अपनी ओर से चीन ने कथित तौर पर आश्वासन दिया है कि वह क्रीमिया के रूसी क़ब्ज़े की दिशा में अपनी नीति जारी रखेगा। इसी तरह यह यूक्रेन के दो क्षेत्रों को स्वतंत्र देशों के रूप में वैध नहीं करेगा। बाइडेन की चीन को चेतावनी कि रूस की मदद करने पर उसे इसकी क़ीमत चुकानी पड़ेगी; इसे ज़्यादातर अमेरिकी बयानबाज़ी का हिस्सा माना जाता है। ऐसा प्रतीत होता है कि सुलिवन और यांग जिएची के बीच वार्ता, जिसे व्हाइट हाउस ने रोम में सात घंटे की बैठक कहा था; ने शिखर सम्मेलन के लिए एजेंडा निर्धारित किया था। यह देखा जाना बाक़ी है कि वार्ता चल रहे यूरोपीय युद्ध को कितना प्रभावित करेगी।

अमेरिकी पक्ष का दावा है कि बाइडेन ने चीन को पश्चिमी प्रतिबंधों के प्रभाव से रूस को बाहर निकालने या यहाँ तक कि पड़ोसी यूक्रेन के ख़िलाफ़ रूस के हमले के लिए सैन्य सहायता भेजने के किसी भी विचार को छोडऩे के लिए स्पष्ट सन्देश दिया है। चीनी टेलीविजन चैनल ने कहा है कि शी जिनपिंग ने कहा कि वीडियो कॉल के दौरान राज्यों के बीच संघर्ष किसी के हित में नहीं है। उन्होंने आगे कहा कि शान्ति और सुरक्षा अंतरराष्ट्रीय समुदाय का सबसे मूल्यवान ख़ज़ाना है।

दो सम्भावनाएँ

यह अभी तक पता नहीं चल पाया है कि क्या उप विदेश मंत्री वेंडी शेरमेन का बयान आधिकारिक लाइन को दर्शाता है कि चीन को मैदान में उतरना चाहिए और राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के ख़िलाफ़ पश्चिम के साथ सेना में शामिल होना चाहिए। उसने कहा कि चीन को यह समझना चाहिए कि उनका भविष्य संयुक्त राज्य अमेरिका के साथ यूरोप के साथ, दुनिया भर के अन्य विकसित और विकासशील देशों के साथ है। उनका भविष्य व्लादिमीर पुतिन के साथ खड़े होने का नहीं है। इन आक्रामक अमेरिकी तेवरों के बीच बीजिंग ने रूस की निंदा करने से इन्कार कर दिया है। अमेरिकी नीति निर्माताओं के सामने एजेंडा यह प्रतीत होता है कि चीन को रूस को पूर्ण वित्तीय और सैन्य सहायता न देने से कैसे रोका जाए?

अगर चीनी रूसियों का समर्थन करते हैं, तो यह कहा जाता है कि यह एक पूर्ण युद्ध बन सकता है। आशंका यह है कि अगर रूसियों को चीनी समर्थन मिलता है, तो रूस प्रतिबंधों का सामना करने और अपना युद्ध जारी रखने में सक्षम होगा। इससे पश्चिमी सरकारों को भी दुनिया की दूसरी सबसे बड़ी अर्थ-व्यवस्था पर वापस हमला करने के दर्दनाक फ़ैसले का सामना करना पड़ेगा, जिससे बाज़ार में अंतरराष्ट्रीय स्तर पर उथल-पुथल हो सकती है। राज्य के सचिव एंटनी ब्लिंकन ने केवल यह आशा व्यक्त की कि चीन रूस की आक्रामकता का समर्थन करने के लिए किसी भी कार्रवाई के लिए ज़िम्मेदार होगा और हम जतवाब में संकोच नहीं करेंगे। उन्होंने आग्रह किया कि इस युद्ध को समाप्त करने के लिए मास्को को मजबूर करने के लिए उनसे जो भी होगा करेंगे। लेकिन उन्होंने कहा कि वह चिन्तित थे कि वे सीधे सैन्य सहायता के साथ रूस की सहायता करने पर विचार कर रहे हैं।

अमेरिका के नेतृत्व वाली पश्चिमी शक्तियों की आशंकाओं के बावजूद, जिनपिंग और पुतिन ने फरवरी, 2022 में बीजिंग में शीतकालीन ओलंपिक में मुलाक़ात के दौरान पुतिन ने यूक्रेन पर हमला शुरू करने से पहले अपनी क़रीबी साझेदारी को फाइनल कर दिया था। तबसे बीजिंग ने आक्रमण पर अंतरराष्ट्रीय शोर में शामिल होने से इन्कार कर दिया, जबकि यूरोपीय तनाव के लिए संयुक्त राज्य अमेरिका और नाटो को दोषी ठहराते हुए रूसी लाइन का समर्थन किया। क्रेमलिन के वार्ता बिन्दुओं को ध्यान में रखते हुए चीनी अधिकारियों ने फिर से आक्रमण को युद्ध के रूप में सन्दर्भित करने से इन्कार कर दिया। हालाँकि चीन ने यूक्रेन की सम्प्रभुता को बार-बार अपने समर्थन की घोषणा करके बचने का रास्ता बनाये रखा है। यह दुनिया के सबसे बड़े निर्यातक चीन को पूर्वी यूरोप में शान्ति को बढ़ावा देने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाने में मदद कर सकता है, जो अमेरिका और अन्य पश्चिमी अर्थ-व्यवस्थाओं से मज़बूती से जुड़ा हुआ है।

चूँकि जिनपिंग ख़ुद को अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के पुनर्निर्माण और सुधार के लिए एक वास्तुकार के रूप में मानते हैं, वह युद्ध को समाप्त करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं। वह जल्द ही प्रतिस्पर्धी प्राथमिकताओं को सन्तुलित करने की कोशिश करते नजर आएँगे कि रूस के साथ चीन की साझेदारी को बनाये रखना चाहेंगे। साथ ही वह पश्चिम में चीन के सम्बन्धों को कमज़ोर नहीं करना चाहेंगे।

व्यापक समझौता

वर्तमान स्थिति में चीन द्वारा रूस की सुरक्षा चिन्ताओं को दूर करने के लिए पश्चिमी शक्तियों पर प्रभाव डालने की सम्भावना है। न तो नाटो का और विस्तार किया जाना चाहिए और न ही यूक्रेनी प्रयोगशालाओं को ऐसे शोधों में लगाया जाना चाहिए, जिनका उपयोग जैव-हथियार विकसित करने के लिए किया जा सकता है। इसने इस बात पर भी ज़ोर दिया है कि रूस के पास वैध सुरक्षा चिन्ताएँ हैं, जिन्हें सम्बोधित करने और रूसी दावों को प्रतिध्वनित करने की आवश्यकता है कि अमेरिका यूक्रेन में जैविक हथियारों पर गुप्त रूप से काम कर रहा है, बेशक आरोपों को अमेरिका और संयुक्त राष्ट्र द्वारा ख़ारिज कर दिया गया है। हालाँकि चीन का कहना है कि अगर पश्चिमी शक्तियाँ जाँच के लिए सहमत होती हैं, तो वह इस क्षेत्र में शान्ति स्थापित कर सकती है।

 

बीजिंग की तटस्थता कीव और मॉस्को के बीच संघर्ष को समाप्त करने में मदद कर सकती है। चीन का यह कथन कि वह रूस के साथ अपनी मित्रता को बनाये रखने का इरादा रखता है, जिसे वह असीमित और बहुत मज़बूत कहता है, इस आश्वासन के रूप में माना जाता है कि चीन रूस को अपमानित किये बिना शान्ति बहाल करने में मदद करेगा। शायद यही कारण था कि नियमित रूप से गुरुवार को चीन के विदेश मंत्रालय की ब्रीफिंग में प्रवक्ता झाओ लिजियन ने ज़ोर देकर कहा कि चीन की स्थिति सुसंगत है और उन लोगों पर गोल है, जो किसी भी असंगति का सुझाव देते हैं।

ये वो देश हैं, जो यह सोचकर ख़ुद को भ्रमित करते हैं कि वे शीत युद्ध जीतने के बाद इसे दुनिया पर हावी कर सकते हैं, जो अन्य देशों की सुरक्षा चिन्ताओं की अवहेलना में नाटो के पूर्व की ओर विस्तार को पाँच बार चलाते रहते हैं, और जो दुनिया भर में युद्ध छेड़ते हैं। दोनों देशों ने 2021 के अन्त में संयुक्त सैन्य और नौसैनिक अभ्यास किया था और 4 फरवरी को युद्ध से कुछ हफ़्ते पहले 5,000 शब्दों का एक बयान जारी किया था, जिसमें नाटो के विस्तार के ख़िलाफ़ सुरक्षा ब्लॉक को शीत युद्ध का अवशेष बताया गया था।

चीन की नयी रणनीति

ऐसा प्रतीत होता है कि चीन क्षेत्र में शान्ति के लिए मदद कर रहा है; क्योंकि लम्बे समय तक संघर्ष उसके महत्त्वपूर्ण आर्थिक हितों को नुक़सान पहुँचा सकता है। यह रूसी आख्यान का समर्थन कर रहा हो सकता है; लेकिन यह जानता है कि चीनी मदद से संघर्ष विराम में देरी होगी। इसे रूस की त्वरित जीत से फ़ायदा हो सकता था; लेकिन यूक्रेन के प्रतिरोध ने ताइवान पर कम-से-कम कुछ समय के लिए बलपूर्वक क़ब्ज़ा करने की उसकी योजना को विफल कर दिया है। पश्चिमी समर्थन के साथ यूक्रेनी अर्थ-व्यवस्था जल्दी या बाद में पश्चिमी यूरोप का हिस्सा बन जाएगी।

ऐसा प्रतीत होता है कि यूक्रेनी देशभक्ति ने चीन को ताइवान के ख़िलाफ़ किसी भी आक्रमण को शुरू करने से रोक दिया है। लम्बे समय तक युद्ध यूरेशिया में अपनी महत्त्वाकांक्षी वित्तीय पहल को परेशान करने वाले ऊर्जा क्षेत्र में मूल्य मुद्रास्फीति का कारण बन सकता है। चीन यह भी जानता है कि चीन के भीतर पुतिन हर गुज़रते दिन के साथ अपनी लोकप्रियता खोते जा रहे हैं, इसलिए यदि पुतिन को गद्दी से हटा दिया जाता है, तो चीनी समर्थन उल्टा हो सकता है।

हालाँकि चीन ख़ुद को पुतिन से दूर कर रहा होगा; लेकिन इस बदलाव में कुछ समय लग सकता है। चूँकि चीन रूस के साथ खुले तौर पर व्यापार करता है- वह अपना कच्चा तेल, अन्य चीज़ों के साथ गैस ख़रीदता है। यह अप्रत्यक्ष रूप से रूस का समर्थन कर रहा है और लगता है कि यह सोचने की कल्पना की उड़ान है कि चीन रूस के साथ अपने आर्थिक सम्बन्धों से मुँह मोड़ लेगा, भले ही वह ताजा सैन्य सहायता और उपकरण प्रदान करने से क़दम वापस खींच ले।

वार्ताओं का दौर

जापानी प्रधान मंत्री किशिदा की यात्रा के दौरान भारत ने एक अलग बयान जारी किया, जिसमें रेखांकित किया गया कि क्वाड को शान्ति, स्थिरता और समृद्धि को बढ़ावा देने के हिन्द-प्रशांत क्षेत्र में अपने मूल उद्देश्य पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए। क्वाड के चार देशों में भारत ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद में रूसी सेना के यूक्रेन में तबाही की निंदा करते हुए भाग लिया था। अन्य तीन देशों, जापान, ऑस्ट्रेलिया और अमेरिका ने रूस के ख़िलाफ़ मतदान किया था।

तेल की धार

वित्त वर्ष 2021-22 के लिए भारतीय बजट में कच्चे तेल की क़ीमत 75 डॉलर प्रति बैरल है। लेकिन महीने भर चले यूक्रेन युद्ध के दौरान क़ीमतें 140 डॉलर प्रति बैरल तक पहुँच गयी हैं। दिलचस्प बात यह है कि रूसी आयात भारत की प्रतिदिन 50 लाख बैरल की आवश्यकता को पूरा करने के लिए पर्याप्त नहीं है। उनका रूस से कच्चे तेल का आयात औसतन 2,03,000 बैरल प्रतिदिन रहा है, जो बढक़र लगभग 3,60,000 बैरल प्रतिदिन हो गया है। हालाँकि संयुक्त राज्य अमेरिका ने एक नैतिक रूख़ अपनाया है कि भारत द्वारा कच्चे तेल की ख़रीद से अमेरिकी प्रतिबंधों का उल्लंघन नहीं होगा; लेकिन भारत को चेतावनी दी जा रही है कि यह उसे इतिहास के ग़लत पक्ष में डाल सकता है।

मौत के ख़ंजर

यूक्रेनी युद्ध ने रूस और पश्चिमी शक्तियों को अपने अत्याधुनिक हथियारों का परीक्षण करने में सक्षम बनाया है। अमेरिकी राष्ट्रपति जो बाइडेन ने घोषणा की है कि अमेरिका जल्द ही यूक्रेन को और अधिक घातक हथियार प्रदान करेगा। लेकिन ऐसा प्रतीत होता है कि रूसियों ने यूक्रेनी लक्ष्यों पर हाइपरसोनिक मिसाइल हमलों की शुरुआत के साथ पहल की है; ख़ासकर हथियारों के गुप्त ठिकानों से। इसे किंजल के नाम से जाना जाता है, जिसका अर्थ है ख़ंजर। यह माइकोलाइव के काला सागर बंदरगाह के पास एक यूक्रेनी ईंधन डिपो से टकराया। यह पोलैंड से लगभग 1,500 किलोमीटर दूर है; जो यूएसएसआर युग के दौरान वारसा पैक्ट का सदस्य था। लेकिन हाल ही में नाटो में शामिल हुआ है। रक्षा विशेषज्ञों का मानना है कि किंजल मिसाइल के लगातार उपयोग के साथ, जिसमें 2,000 किलोमीटर की दूरी तक मार करने की क्षमता है; जिसकी गति ध्वनि से दस गुना अधिक है। नाटो में पूर्वी यूरोप के नये देशों के लिए चेतावनी संकेत है कि वे क्रोध से बच नहीं सकते हैं।

इस बीच घिरे बंदरगाह शहर मारियुपोल से हज़ारों यूक्रेनियनों को जबरदस्ती रूसी सीमाओं के पार ले जाया गया और उन्हें शिविरों में रखा जा रहा है। ऐसी ख़बरें हैं कि जानकारी हासिल करने के लिए उनके मोबाइल फोन और अन्य इलेक्ट्रॉनिक गैजेट्स की जाँच की जा रही है।

भगत सिंह : भारत के शाश्वत् शहीद

जब भगवंत सिंह मान ने 16 मार्च को पंजाब के 17वें मुख्यमंत्री के रूप में क्रान्तिकारी भगत सिंह के पैतृक गाँव खटकर कलां में शपथ ली, जो नवांशहर के बंगा में पड़ता है; तब उस विशाल सभा में उमड़ी भीड़ में से बहुत-से लोगों को एक अलौकिक संयोग का अहसास नहीं था। यद्यपि 23 मार्च, 1931 में भगत सिंह और उनके दो साथियों सुखदेव और राजगुरु को लाहौर सेंट्रल जेल में फाँसी दी गयी थी। हालाँकि मुख्यमंत्री ने पूरे गाँव को जोश से भर दिया, जब उन्होंने ‘इंकलाब जिंदाबाद’ के नारे के साथ अपना शपथ ग्रहण समारोह समाप्त किया, जो कि अंग्रेजों के ख़िलाफ़ युद्ध में भगत सिंह का नारा था। देश में एक्स और ज़ेड (1965 और 1995 के बाद की) पीढिय़ों में से बहुत-से लोग शायद भगत सिंह और तत्कालीन औपनिवेशिक ब्रिटिश शासकों के ख़िलाफ़ उनकी वीरतापूर्ण लड़ाई के बारे में नहीं जानते होंगे। कुछ मायनों में वह एक प्रतिभाशाली और जन्मजात नेता थे। भगत सिंह के जन्म के समय उनके पिता कृष्ण सिंह लाहौर सेंट्रल जेल में और चाचा अजीत सिंह मांडले जेल में थे। वह अपने पिता और चाचा दोनों के कारनामों की कहानियाँ सुनकर बड़े हुए थे। गदर आन्दोलन ने भी उनके प्रभावशाली मन पर गहरी छाप छोड़ी थी। उनके नायक तब एक और क्रान्तिकारी करतार सिंह सराभा थे, जिन्हें पहले लाहौर षड्यंत्र मामले में फाँसी दी गयी थी, जब वह मुश्किल से 19 वर्ष के थे। 13 अप्रैल, 1919 को अमृतसर के जलियाँवाला बाग़ में हुए नरसंहार ने भी उनके दिमाग़ पर इतना गहरा ज़ख्म छोड़ा था कि वह लाहौर से अमृतसर तक सिर्फ़ उस ज़मीन को चूमने के लिए चले आये, जिसे शहीदों के ख़ून से पवित्र माना गया था।

भगत सिंह ने शुरू में लाहौर के डीएवी स्कूल में पढ़ाई की थी (संयोग से यह मेरा भी स्कूल था)। उन्होंने सन् 1921 में राष्ट्रीय विद्यालय में प्रवेश लिया, जिसे लाला लाजपत राय, भाई परमानंद और सूफ़ी अंबा प्रसाद की तिकड़ी ने स्थापित किया था। तब वह सिर्फ़ 14 साल के थे। यहीं उनकी मुलाक़ात अपने भावी साथियों- सुखदेव, भगवती चरण वोहरा और यशपाल से भी हुई थी। नेशनल स्कूल में प्रो. जय चंद्र विद्यालंकर उनके गुरु बन गये थे, और तत्कालीन संयुक्त प्रांत (अब उत्तर प्रदेश) में क्रान्तिकारियों के कारनामे उन्हें सुनाये थे। उन सभी क्रान्तिकारी कहानियों ने इस युवा किशोर को इतने गहरे से प्रेरित किया था कि उन्होंने इसी समय वहाँ भारत माता को ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के चंगुल से मुक्त कराने के लिए अपना जीवन समर्पित करने का फ़ैसला किया।

विवाह का प्रस्ताव

जब भगत सिंह नेशनल स्कूल में थे, तब उनके पिता ने उनसे सलाह लिये बिना ही उनकी शादी तय कर दी थी; जिससे भगत सिंह एक उलझन भरी स्थिति में आ गये थे। हालाँकि उन्होंने न कहने का पर्याप्त साहस जुटाया। जब उनके पिता यह कहते हुए ज़िद करने लगे कि उन्होंने पहले ही इसे स्वीकार कर व्यवस्था कर ली है, तो 14 वर्षीय भगत सिंह ने अपने पिता को लिखा- ‘आदरणीय पिताजी! यह शादी का समय नहीं है। देश मुझे बुला रहा है। मैंने शारीरिक, मानसिक और आर्थिक रूप (तन-मन-धन) से देश की सेवा करने की शपथ ली है। यह हमारे लिए कोई नयी बात नहीं है। हमारा पूरा परिवार देशभक्तों से भरा है। सन् 1910 में मेरे जन्म के दो या तीन साल बाद चाचा स्वर्ण सिंह की जेल में मृत्यु हो गयी थी। चाचा अजीत सिंह विदेशों में निर्वासन का जीवन जी रहे हैं। आपने भी जेलों में बहुत कुछ सहा है। मैं केवल आपके पदचिह्नों पर चल रहा हूँ और इस प्रकार ऐसा करने का साहस करता हूँ। आप कृपया मुझे विवाह में न बाँधें, बल्कि मुझे अपना आशीर्वाद दें, ताकि मैं अपने मिशन में सफल हो सकूँ।’

जब उनके पिता ने यह कहते हुए विरोध किया कि उन्होंने पहले ही शादी तय कर ली है, तो भगत सिंह ने उन्हें फिर से लिखा- ‘आदरणीय पिता जी! मैं आपके पत्र की सामग्री को पढक़र चकित हूँ। जब आप जैसे कट्टर देशभक्त और बहादुर व्यक्तित्व को ऐसी छोटी-छोटी बातों से प्रभावित किया जा सकता है, तो आम आदमी का क्या होगा? हाँ, आप दादी (मेरी दादी) की देखभाल कर रहे हैं; लेकिन कल्पना कीजिए कि हमारी 33 करोड़ (लोगों) की भारत माता कितनी मुसीबत में है। हमें अभी भी उसकी ख़ातिर सब कुछ बलिदान करना है।’ घर छोडऩे से पहले भगत सिंह ने अपने पिता के लिए एक पत्र छोड़ा, जिसमें कहा गया था- ‘नमस्ते, मैं अपना जीवन मातृभूमि की सेवा के उच्च लक्ष्य के लिए समर्पित करता हूँ। इसलिए मेरे लिए घर और सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए कोई आकर्षण नहीं है। मुझे आशा है कि आपको याद होगा कि मेरे पवित्र सूत्र समारोह के अवसर पर बापूजी ने घोषणा की थी कि मुझे देश की सेवा के लिए दान दिया जा रहा है। मैं बस उस प्रतिज्ञा को पूरा कर रहा हूँ। मुझे आशा है कि आप मुझे क्षमा करेंगे।’

बौद्धिक दिग्गज

भगत सिंह को एक महान् देशभक्त और एक असाधारण क्रान्तिकारी के रूप में देश में सभी जानते थे। लेकिन हममें से बहुत-से लोग नहीं जानते थे कि वह एक बौद्धिक दिग्गज, एक उत्साही माक्र्सवादी विचारक और एक विचारक भी थे। एक उत्कृष्ट विद्वान, जिसने अपनी रचनात्मकता को अपनी उद्भुत डायरी के पन्नों में जेल में लिखा था। उस कम उम्र में भी, वह एक उत्साही पाठक थे और उन्होंने ‘पूँजीवाद, समाजवाद, विश्व क्रान्तिकारी आन्दोलनों और बोल्शेविक क्रान्ति के इतिहास की गहन समझ और अन्य जानकारी हासिल कर ली थी।’

सन् 1923 में भगत सिंह केवल 16 वर्ष के थे। सन् 1930 तक केवल सात वर्षों की अवधि में उन्होंने ईश्वर, रहस्यवाद और धर्म, कला, साहित्य, संस्कृति, अतीत और समकालीन क्रान्तिकारियों की जीवनी के साथ-साथ राजनीतिक नेताओं जैसे विभिन्न विषयों पर उग्र रूप से लिखा। अपने निबन्ध ‘मैं नास्तिक क्यों हूँ?’ में ‘धर्म की भूमिका और ईश्वर के अस्तित्व’ का विश्लेषण करते हुए भगत सिंह ने समझाया था कि आदिम मनुष्य के लिए ईश्वर एक उपयोगी मिथक बन गया। संकटग्रस्त और असहायों के लिए उन्होंने पिता, माता, बहन, भाई, मित्र और सहायक के रूप में सेवा की। इस प्रकार एक तरह से भगवान और धर्म उस व्यक्ति के बचाव में आये, जो न तो साहसी था और न ही उसके आस-पास की चीज़ों की कोई वैज्ञानिक या तर्कसंगत समझ थी।’

आधुनिक विज्ञान की प्रगति और उनकी मुक्ति के लिए उत्पीडि़तों के बढ़ते संघर्ष के साथ आदमी इस कृत्रिम बैसाखी की आवश्यकता के बिना अपने दो पैरों पर खड़ा हो गया। इस प्रकार इस काल्पनिक उद्धारकर्ता की आवश्यकता समाप्त हो गयी।

विधानसभा में बम

भगत सिंह के सबसे यादगार क्रान्तिकारी कार्यों में से एक सहायक पुलिस अधीक्षक जॉन पोयंत्ज सॉन्डर्स की हत्या थी। दुर्भाग्य से यह ग़लत पहचान का मामला था। मूल लक्ष्य पुलिस अधीक्षक जेए स्कॉट था, जिसके बारे में माना जाता था कि उसने 30 अक्टूबर, 1928 को लाहौर में एक जुलूस के दौरान लाला लाजपत राय पर हमला किया था, जो घातक साबित हुआ था। दूसरा, विजिटर्स गैलरी से 8 अप्रैल, 1929 को केंद्रीय विधानसभा में दो बम फेंकना था। बम आधिकारिक सदस्यों के क़ब्ज़ें वाली बेंचों के पास फट गये थे, जिससे कुछ को मामूली चोटें आयीं। इन दो घटनाओं के विवरण पर ध्यान देना मेरा उद्देश्य नहीं है। इतना ही कहना पर्याप्त होगा कि दोनों ही घटनाओं ‘सांडर्स की हत्या और सेंट्रल असेंबली में बम फेंकने’ की पूरी तैयारी की गयी थी। दोनों कामों को सफलतापूर्वक अंजाम भी दिया गया।

भगत सिंह जेलों में राजनीतिक बंदियों के साथ किये जाने वाले व्यवहार के बारे में बहुत सजग थे। 14 जुलाई, 1929 के द ट्रिब्यून में प्रकाशित एक पत्र में भगत सिंह और उनके साथी बटुकेश्वर दत्त ने अपने ठोस विचार व्यक्त किये थे- ‘सर! हम भगत सिंह और बटुकेश्वर दत्त को 19 मई, 1929 को दिल्ली के असेंबली बम मामले में आजीवन कारावास की सज़ा सुनायी गयी थी। जब तक हम दिल्ली जेल में विचाराधीन क़ैदी थे, हमें बहुत बेहतर तरीक़े से रखा जाता था। बेहतर उपचार किया गया और अच्छा आहार दिया गया; लेकिन उस जेल से क्रमश: मियाँवाली और लाहौर सेंट्रल जेल में हमारे स्थानांतरण के बाद से हमारे साथ सामान्य अपराधियों जैसा व्यवहार किया जा रहा है। पहले ही दिन हमने उच्चाधिकारियों को प्रार्थना-पत्र लिखकर बेहतर आहार और कुछ अन्य सुविधाओं की माँग की और हमने जेल का आहार लेने से इन्कार कर दिया।

उन्होंने लिखा- ‘हमारी माँगें इस प्रकार थीं- राजनीतिक क़ैदियों के रूप में हमें बेहतर आहार दिया जाना चाहिए और हमारे आहार का स्तर कम से कम यूरोपीय क़ैदियों के समान होना चाहिए। हम सिर्फ़ आहार की समानता की ही माँग नहीं करते हैं, बल्कि आहार के मानक में भी समानता होनी चाहिए। हमें कोई कठोर या अशोभनीय श्रम करने के लिए बिल्कुल भी बाध्य नहीं किया जाए। लिखित सामग्री के साथ-साथ प्रतिबंधित पुस्तकों के अलावा सभी पुस्तकों को हमें बिना किसी प्रतिबंध के अनुमति दी जानी चाहिए।’

उन्होंने लिखा- ‘हमने उपरोक्त माँगों को समझाया है, जो हमने की थीं। वे सबकी तरफ़ से वाजिब माँगें थीं। जेल अधिकारियों ने एक दिन हमसे कहा कि उच्च अधिकारी हमारी माँगों को मानेंगे। इसके अलावा वे बहुत-ही कठोरता से पेश आते हैं। भगत सिंह 10 जून, 1929 को जबरन खिलाने के बाद लगभग 15 मिनट तक बेसुध पड़े रहे, जिसे हम बिना किसी देरी के रोकने का अनुरोध करते हैं। इसके अलावा हमें पंडित जगत नारायण और ख़ान बहादुर हाफ़िज़ किदायत हुसैन द्वारा संयुक्त प्रान्त जेल समिति की सिफ़ारिशों के उल्लेख करने की अनुमति दी जाए। उन्होंने राजनीतिक क़ैदियों को बेहतर श्रेणी के क़ैदियों के रूप में व्यवहार करने की सिफ़ारिश की है।’

भगत सिंह और उनके दो साथियों ने 23 मार्च, 1931 को मौत की सज़ा और उसके निष्पादन के बीच 166 दिनों की अंतरिम अवधि को चिन्तन और अध्ययन में बिताया था। 2 फरवरी, 1931 को युवा राजनीतिक कार्यकर्ताओं को लिखे एक पत्र में उन्होंने उन्हें सलाह दी थी- ‘समझौता एक आवश्यक हथियार है, जिसे संघर्ष के विकास के साथ-साथ समय-समय पर चलाना पड़ता है। लेकिन जो चीज़ हमें हमेशा अपने सामने रखनी चाहिए, वह है- ‘आन्दोलन का विचार।’ जिस उद्देश्य की प्राप्ति के लिए हम संघर्ष कर रहे हैं, उसके बारे में हमें हमेशा स्पष्ट धारणा बनाकर रखनी चाहिए।’

उन्होंने आगे लिखा- ‘ज़ाहिर है मैंने एक आतंकवादी की तरह काम किया है; लेकिन मैं आतंकवादी नहीं हूँ। मैं पूरी ताक़त के साथ घोषणा करता हूँ कि मैं आतंकवादी नहीं हूँ और न ही कभी था। मैं वास्तव में निश्चित आदर्शों और विचारधारा के साथ एक क्रान्तिकारी रहा हूँ।’

भगत सिंह अपने परिवार से आख़िरी बार 3 मार्च को मिले थे। उन्होंने अपने छोटे भाई कुलतार को पत्र में लिखा- ‘प्रिय कुलतार! आज आपकी आँखों में आँसू देखकर मुझे बहुत दु:ख हुआ। आपकी बातों में गहरा दर्द था। मैं तुम्हारे आँसू नहीं देख सका। मेरे भाई! दृढ़ संकल्प के साथ अपनी पढ़ाई करो और अपने स्वास्थ्य की देखभाल करो।’ वह विश्वासघात के नये रूपों को गढऩे के लिए हमेशा उत्सुक रहते हैं, और लिखते हैं- ‘हम यह देखने के लिए उत्सुक हैं कि दमन की क्या सीमाएँ हैं? हम दुनिया से नाराज़ क्यों हों? और क्यों शिकायत करें? हमारी दुनिया एक न्यायसंगत (आदर्श) है। हम इसके लिए लड़ें। मैं तो बस चंद पलों का मेहमान हूँ। साथियों, मैं वह दीया हूँ, जो भोर से पहले जलता है और बुझने को तरसता है। हवा मेरे विचारों का सार फैलायेगी। यह आत्मा तो मुट्ठी भर धूल है। चाहे वह जीवित रहे या नाश हो।

अच्छा नमस्ते

ख़ुश रहो देशवासियो! मैं यात्रा के लिए निकला हूँ।

निडर होकर जियो।

नमस्ते

आपका भाई

भगत सिंह

फिर अन्त में शाम 7:15 बजे 23 मार्च, 1931 सोमवार को ‘इंकलाब ज़िंदाबाद’ के नारे लगाते हुए भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु की तिकड़ी ने फाँसी का फंदा चूमते हुए शहादत को गले लगा लिया। अगले दिन 24 मार्च को पूरे देश ने अपने वीरों की फाँसी पर शोक व्यक्त किया।

भगत सिंह के जीवन पर कुछ विचार ऑक्सफोर्ड यूनिवर्सिटी प्रेस द्वारा प्रकाशित ए.जी. नूरानी की पुस्तक ‘द ट्रायल ऑफ भगत सिंह : पॉलिटिक्स ऑफ जस्टिस’ से लिए गये थे। मैं उनका और प्रकाशकों का आभारी हूँ।

(राज कँवर 91 वर्षीय वयोवृद्ध पत्रकार और लेखक हैं। उनकी नवीनतम पुस्तकें डेटलाइन देहरादून और इसकी अगली कड़ी हैं।)

 

 

 

भगत सिंह के क्रान्तिकारी विचार

23 मार्च, 1931 का दिन था, जब भगत सिंह के साथ सुखदेव और राजगुरु लाहौर में शहीद हुए थे। साहस और भगत सिंह के नेतृत्व वाली क्रान्ति हमेशा से पूजनीय रही है। जीवन के बहुत छोटे-से समय में उन्होंने बड़ा योगदान दिया जो आज तक प्रेरक है। लेकिन उनके क्रान्तिकारी क़दमों से ज़्यादा ब्रिटिश शासन के ख़िलाफ़ काफ़ी कुछ ऐसा है, जिसके बारे में हम अनजान हैं।

चंडीगढ़ ग्रुप ऑफ कॉलेजेज (सीजीसी) के छात्र मोहम्मद गुंडरवाला एक ब्लॉग में कहते हैं- ‘भगत सिंह के बारे में जब भी कुछ कहा जाता है, इंकलाब ज़िंदाबाद का नारा लगाते हुए एक व्यक्ति की छवि हमारे मन में आती है। लेकिन वास्तव में वह अपने समय के तीव्र बुद्धि वाले व्यक्ति थे। उनके हाथ में हमेशा एक किताब रहती थी। उन्होंने ब्रिटिश, यूरोपीय, अमेरिकी और रूसी साहित्य का विस्तार से अध्ययन किया था।

अपनी गिरफ़्तारी से पहले उन्होंने लगभग 250 किताबें और अपने दो साल के कारावास के दौरान 300 से ज़्यादा किताबें पढ़ीं। उन्होंने एक बार अपने लेख में कहा था- ‘बम और पिस्तौल क्रान्ति नहीं ला सकते। क्रान्ति की तलवार विचारों पर धार पर तेज़ की जाती है।’ उनका तीन मुख्य विचारधाराओं में विश्वास था और वे समाजवादी क्रान्तिकारी से बहुत प्रभावित थे।

समाजवादी क्रान्तिकारी

वह कार्ल माक्र्स, लेनिन और अन्य समाजवादी विचारधाराओं से बहुत प्रभावित थे। उन्हें दु:ख हुआ, जब उन्होंने  देखा कि समाज किसानों, मज़दूरों और कारख़ाने के श्रमिकों के साथ कैसा व्यवहार करता है।

इन दबे-कुचले लोगों के लिए भगत सिंह लडऩा चाहते थे। लगभग सभी स्वतंत्रता सेनानियों की प्राथमिकता देश को ब्रिटिश हुकूमत से मुक्त कराना था; जबकि भगत सिंह के लिए प्राथमिकता अन्याय और शोषण का उन्मूलन करना था। उनके अनुसार, चाहे अंग्रेज हों या हमारे अपने ही ताक़तवर लोग, पूर्वाग्रह भरा उत्पीडऩ करते रहे, तो यह पूरे राष्ट्र को नीचा दिखाएगा। उनकी क्रान्तिकारी पार्टी का नाम था- ‘हिन्दुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिकन एसोसिएशन’।

वसुधैव कुटुम्बकम

अपने 1924 के लेख विश्व प्रेम में उन्होंने ऋग्वेद आधारित श्लोक वसुधैव कुटुम्बकम की प्रशंसा की, जिसका अर्थ है कि पूरी दुनिया मेरा परिवार है। उन्होंने सपना देखा था कि फ्रांस-जर्मनी, अमेरिका-जापान, जो उस समय के बड़े दुश्मन देश थे; एक दिन नहीं लड़ेंगे और एक-दूसरे के साथ व्यापार करेंगे। इसके लिए क्रान्ति और लड़ाई अन्याय, असमानता, पूर्वाग्रह और शोषण के ख़िलाफ़ होनी चाहिए, न कि एक दूसरे के अहंकार के ख़िलाफ़।

नास्तिकता

जबकि महात्मा गाँधी धर्मनिरपेक्षता के भारतीय दृष्टिकोण का पालन कर रहे थे, भगत सिंह धर्मनिरपेक्षता के फ्रांसीसी दृष्टिकोण के अधिक पक्ष में थे, जो कहता है कि धर्म और सरकार के बीच एक दूरी होनी चाहिए, जो आज के लोकतंत्र में भी बुरी तरह ग़ायब है। उनका एक घोषणा-पत्र, नौजवान भारत सभा में उन्होंने कहा कि धार्मिक उदासीनता और उच्च वर्ग के उत्पीडऩ के ख़िलाफ़ लडऩे के लिए विभिन्न समूहों के बीच मानवता और समानता का मूल्य क्यों महत्त्वपूर्ण है। भगत सिंह नास्तिक थे। अपने सन् 1927 के लेख ‘साम्प्रदायिक दंगे और उपचार’ में सभी भारतीयों के लिए उनका शक्तिशाली सन्देश धार्मिक विचारधाराओं के बेमेल पर ध्यान केंद्रित करने के बजाय अमीर और ग़रीब के बीच असन्तुलन को देखना था।

प्रधानमंत्री की स्वर्णिम योजना में करोड़ों का घोटाला

जिस कम्पनी को करोड़ों रुपये में दिया गया प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण का ज़िम्मा, वह किसी भी तरह नहीं योग्य। बिना जीएसटी और बिना स्टाफ के फ़र्ज़ी कार्यालय दिखाकर लिया गया ठेका

देश में विकास की लहर चलाने के लिए मोदी सरकार द्वारा चलाये जा रहे कार्यक्रमों को कई फ़र्ज़ी कम्पनियों ने प्रभावित करने का कार्य किया है। दरअसल इस तरह का फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाली कम्पनियों की एक चेन-सी बनी हुई है, जो सरकार की आँखों में धूल झोंककर हर साल करोड़ों रुपये का चूना लगाने का कार्य बख़ूबी कर रही हैं। एक ऐसी ही फ़र्ज़ी कम्पनी भारत सरकार को क़रीब 50 करोड़ का चूना लगा रही है, जिसकी जड़ें अगर खँगाली जाएँ, तो यह घोटाला सैकड़ों करोड़ रुपये का निक़लेगा।

दरअसल भारत सरकार के श्रम मंत्रालय ने इसी साल की शुरुआत में प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण का ज़िम्मा ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कन्सल्टेन्ट इंडिया लिमिटेड (बीईसीआईएल) को सौंपा, जिसका कार्यालय सेक्टर-62, नोएडा में स्थापित है। ब्रॉडकास्ट इंजीनियरिंग कन्सल्टेन्ट इंडिया लिमिटेड (बीईसीआईएल) ने यह ज़िम्मेदारी  उठाकर कासा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड (Kasa Technologies Limited) नाम की एक कम्पनी को दी और कासा टेक्नोलॉजीज लिमिटेड ने इसे नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म ऐंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लि. (एनएफटीसी) यानी भारतीय राष्ट्रीय पर्यटन एवं परिवहन सहकारी संघ मर्यादित को हस्तांतरित कर दिया। इस कम्पनी ने 15 फरवरी, 2022 को क़रीब 50 करोड़ रुपये का काम बिना किसी निविदा (टेंडर) निकाले पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड (PSAR COMMUNICATION Pvt. Ltd.) को बिना कोई सिक्योरिटी जमा कराये ही दे दिया। यह ठेका नेशनल फेडरेशन ऑफ टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट कम्पनी ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिडेट के जिस लेटरहैड के माध्यम से पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को हस्तांतरित किया गया, उसका हस्तांतरण नंबर एनएफटीसी/बीए/लेबर सर्वे/2022/15 (NFTC/BA/Labour Survey/2022/15) है।

कम्पनी का फ़र्ज़ीवाड़ा

 

अब यहाँ देखने वाली बात यह है कि नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिटेड ने प्रवासी मज़दूरों के सर्वेक्षण परियोजना का इतना बड़ा ज़िम्मा जिस पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को दिया, वह किस हद तक फ़र्ज़ीवाड़ा कर रही है?

दरअसल पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड साल 2020 में बनायी गयी। यह एक फ़र्ज़ी कम्पनी है, जो कि केवल काग़ज़ों पर है। आरओसी के अनुसार, इस कम्पनी के निगमन (इनकॉरपोरेशन) की तारीख़ 09 अक्टूबर, 2020 है। इस कम्पनी को एक दुकान नंबर 23/24, शीतलादेवी सीएचएस, निकट इंडियन ऑयल नगर, अँधेरी पश्चिम, मुम्बई-400053 के पते पर रजिस्टर्ड कराया गया है। इस कम्पनी का कोई भौतिक अस्तित्व नहीं है। कम्पनी की अधिकृत पूँजी मात्र एक लाख रुपये है। सबसे बड़ी बात यह है कि पसार के पास अनुबंध प्रदान करने की तारीख़ में कोई जीएसटी नंबर तक मौज़ूद नहीं था। न ही इस कम्पनी में ईएसआई और पीएफ की कोई व्यवस्था है और न ही कोई कर्मचारी इस कम्पनी में काम करता है, जबकि प्रवासी सर्वेक्षण के लिए सैकड़ों कर्मचारियों की ज़रूरत होती है। इसके अलावा कम्पनी में किसी लैंडलाइन टेलीफोन कनेक्शन, किसी बिजली कनेक्शन आदि की जानकारी भी नहीं मिली है। इतने पर भी पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को क़रीब 50 करोड़ रुपये का काम बड़ी आसानी से बिना किसी जाँच-पड़ताल के नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स प्राइवेट लिमिटेड की मदद से दे दिया गया।

गोपनीय सूत्र बताते हैं कि इस घोटाले की साज़िश नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म एंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स प्राइवेट लिमिटेड के कार्यकारी प्रबंध निदेशक की मदद से की गयी। कार्यकारी प्रबंध निदेशक को तत्कालीन चेयरमैन का समर्थन मिला हुआ है। जानकारी के मुताबिक, इस प्रकार के कार्यों के लिए कई लोग इनके सम्पर्क में रहते हैं, जो इनके लिए काम करते हैं। इस तरह ये लोग अपने निहित स्वार्थों के लिए अयोग्य लोगों और अयोग्य व फ़र्ज़ी कम्पनियों को केवल काग़ज़ात के माध्यम बिना किसी जाँच-पड़ताल के लिए फ़र्ज़ी तरीक़े से अति महत्त्वपूर्ण कार्य देकर सरकार को बड़े पैमाने पर चूना लगाकर मोदी सरकार की स्वर्णिम योजनाओं को बदनाम करने और सरकारी धन को चूना लगाने का कार्य कर रहे हैं।

पसार ने दिया अन्य कम्पनी को ठेका

हद तो यह है कि पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने सभी नियमों की धज्जियाँ उड़ाते हुए इससे क़रीब आधी रक़म में इस महत्त्वपूर्ण काम का ज़िम्मा माँ कामाख्या एसोसिएट्स को 21 फरवरी, 2022 को अपने लेटर हैड नंबर पीएसएआर/2022/03 (PSAR/2022/03) के माध्यम से सौंप दिया। इस हस्तांतरण में सबसे बड़ी कमी तो यह है कि यह काम बिना श्रम मंत्रालय की स्वीकृति के ही अगली कम्पनी को दे दिया गया।

ऊपर से पसार कम्युनिकेशन प्रा. लि. ने इस हस्तांतरण-प्रपत्र में लिखा है कि ‘हम मैसर्स माँ कामाख्या एसोसिएट्स को इस सर्वेक्षण परियोजना को लागू करने के लिए श्रम और रोज़गार मंत्रालय के दिशा-निर्देशों के अनुसार आवंटित ज़िले / प्रदेश में पूरी तरह से अधिकृत करते हैं।’ जबकि यह अधिकार भारत सरकार और उसके मंत्रालयों के पास होता है। फिर पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड किसी अन्य कम्पनी को किसी काम के लिए अधिकृत कैसे कर सकती है?

पसार कम्युनिकेशन द्वारा दिया गया रेफरेंस नंबर PSAR/2022/03 है। पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने माँ कामाख्या एसोसिएट्स को 500 रुपये प्रति इकाई के हिसाब से काम सौंपा, जिसमें जीएसटी भी शामिल है। पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड ने माँ कामाख्या एसोसिएट्स को काम होने के 30 दिन में भुगतान करने का आश्वासन दिया, जबकि नेशनल फेडरेशन फॉर टूरिज्म ऐंड ट्रांसपोर्ट को-ऑपरेटिव्स ऑफ इंडिया लिमिटेड ने पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड को यही काम 1,000 रुपये प्रति इकाई के हिसाब से दिया था और सर्वे का काम होने के 15 दिन के अन्दर भुगतान का आश्वासन दिया था।

यहाँ देखने वाली बात यह है कि एक फ़र्ज़ी कम्पनी (पसार कम्युनिकेशन प्राइवेट लिमिटेड) घर बैठे-बैठे केवल अधूरे और अयोग्य काग़ज़ात के दम पर तक़रीबन 25 करोड़ रुपये सीधे हज़म करने की योजना बना चुकी है। ज़ाहिर है भारत सरकार के वित्तीय कोष से इतनी बड़ी रक़म निकलने पर इसका बहुत विपरीत प्रभाव पड़ेगा।

क्या है प्रवासी मज़दूर सर्वेक्षण?

दरअसल भारत सरकार के श्रम मंत्रालय द्वारा अखिल भारतीय सर्वेक्षण के लिए प्रवासी श्रमिक सर्वेक्षण, त्रैमासिक स्थापना आधारित रोज़गार सर्वेक्षण (एक्यूईईएस), घरेलू कामगारों का सर्वेक्षण, पेशेवर कामगार सर्वेक्षण और परिवहन क्षेत्र का सर्वेक्षण आदि काम कराये जाते हैं, ताकि इन क्षेत्रों से जुड़े लोगों के हित में योजनाएँ बनाकर उन्हें लाभ पहुँचाया जा सके और यह आकलन किया जा सके कि किस क्षेत्र से कितने लोग जुड़े हुए हैं। यह कार्य शासनादेश एवं दिशा-निर्देशों के अनुसार नियमों के दायरे में रहकर प्रामाणिक और उच्च मापदण्ड वाली कम्पनी को ही दिया जाता है। लेकिन कुछ कम्पनियाँ इस काम को सरकार के हाथ से लेकर ऐसी कम्पनियों को हस्तांतरित कर देती हैं, जो या तो काम करने के योग्य नहीं होतीं या फिर फ़र्ज़ी होती हैं। इस तरह फ़र्ज़ीवाड़ा करने वाली कम्पनियों की एक चेन है, जो सरकार को हर साल करोड़ों रुपये का चूना लगाती हैं। इससे पता चलता है कि सरकारी कर्मचारियों और फ़र्ज़ी कम्पनियों के मालिकों के बीच किस तरह की साँठगाँठ है।

(लेखक दैनिक भास्कर के राजनीतिक संपादक हैं।)

नये मुख्यमंत्रियों की चुनौतियाँ

चुनाव से फ़ारिग़ हुए पाँच राज्यों पर है लाखों करोड़ रुपये का क़र्ज़

विधानसभा चुनाव के बाद पाँच राज्यों में नयी सरकारें बन गयी हैं और अब उनके सामने नयी चुनौतियाँ हैं। जो दो बड़ी चुनौतियाँ इन सभी राज्यों के सामने हैं, वो हैं- रोज़गार देना और अपने वित्तीय घाटों से पार पाना। रिजर्व बैंक की ‘स्टेट फाइनेंस, अ स्टडी ऑफ बजट’ रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि देश के सभी राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों पर क़रीब 70 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है। इनमें देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश, जहाँ अब दोबारा योगी आदित्यनाथ के नेतृत्व में भाजपा की सरकार बनी है; पर तकुल 6.53 लाख करोड़ की देनदारी है। जबकि अन्न-राज्य कहलाये जाने वाले पंजाब के कन्धों पर 2.62 लाख करोड़ से ज़्यादा का क़र्ज़ है। क़र्ज़ के मामले में अन्य तीन राज्यों की हालत भी कुछ ऐसे ही है।

पंजाब में आम आदमी पार्टी (आप) की सरकार बनी है और उसने जनता से मुफ़्त बिजली-पानी जैसे वादे किये हैं। मुख्यमंत्री भगवंत मान जब शपथ के बाद पहली बार दिल्ली गये, तो प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी से पहली ही मुलाक़ात में पंजाब के लिए उनकी जो सबसे बड़ी माँग थी- ‘एक लाख करोड़ रुपये का पैकेज।’ उत्तर प्रदेश में भाजपा ने भी चुनाव में लैपटॉप, स्मार्टफोन जैसी चीज़ें मुफ़्त में देने के वादे किये थे। ऐसे में जबकि इन सरकारों पर लाखों करोड़ से ज़्यादा के क़र्ज़ हैं; कैसे यह उन वादों को पूरा करेंगे और किसकी क़ीमत पर करेंगे? यह बड़ा सवाल है। सरकारी आँकड़ों से ज़ाहिर होता है कि देश की राज्य सरकारों का कुल राजकोषीय घाटा 8.19 लाख करोड़ का है। यह आँकड़ा जीडीपी के 3.7 फ़ीसदी के बराबर है। बता दें राज्य सरकारें इस घाटे की भरपाई ही बाज़ार से क़र्ज़ा उठाकर कर रही हैं। उत्तर प्रदेश की सरकार चल रहे माली साल में ही फरवरी तक 57,500 करोड़ रुपये का क़र्ज़ ले चुकी थी; जबकि पंजाब 20,814 करोड़ रुपये का। राज्य यह उधार सात फ़ीसदी से ज़्यादा ब्याज दर पर लेते हैं, जिससे अंदाज़ा लगाया जा सकता है कि उनकी क्या हालत है।

उत्तर प्रदेश देश का सबसे बड़ा राज्य है। एक ऐसा राज्य जहाँ हर साल 16 लाख युवा स्नातक और दूसरी शिक्षा के बाद बेरोज़गारों की कतार में खड़े हो जाते हैं। राज्य में रोज़गार है नहीं, लिहाज़ा रोज़गार के लिए उन्हें दूसरे प्रदेशों में जाना पड़ता है। रोज़गार देने के लिए पैसा चाहिए और प्रदेश फँसा है क़र्ज़ के जाल में। ऐसे में योगी सरकार के लिए सबसे बड़ी चुनौती है- सूबे को क़र्ज़ से उबारना। उत्तर प्रदेश पर इस वक्त पौने सात लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ है; जो छोटी रक़म नहीं है। हाल के दो साल कोरोना-काल में ये क़र्ज़ बढ़ा है। निश्चित ही दूसरी बार मुख्यमंत्री बने योगी आदित्यतनाथ के लिए यह छोटी चुनौती नहीं है। ख़ासकर यह देखते हुए कि चुनाव के वक्त बने दबाव में भाजपा ने बड़े चुनावी वादे किये हैं। इनमें कॉलेज जाने वाली छात्राओं को मुफ़्त स्कूटी, दो करोड़ युवाओं को मुफ़्त लैपटॉप-टैबलेट, किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली, संविदा कर्मचारियों के मानदेय में बढ़ोतरी जैसे बड़े वादे हैं और सभी को पूरा करने के लिए पैसा चाहिए। पहले से क़र्ज़ का इतना बड़ा बोझ ढो रहे उत्तर प्रदेश के लिए यह आसान काम नहीं होगा। उत्तर प्रदेश का बड़ा हिस्सा खेतीबाड़ी करता है। हाल के विधानसभा चुनावों में भाजपा ने किसानों को सिंचाई के लिए मुफ़्त बिजली देने का वादा किया था। उसे पूरा करना है। इसके अलावा गन्ना किसान अपनी फ़सल के अच्छे मूल्य की माँग लगातार कर रहे हैं। पिछली सरकार के समय योगी इन माँगों को सन्तोषजनक तरीक़े से पूरा नहीं कर पाये थे। अब यह चुनौती फिर उनके सामने है।

उत्तर प्रदेश में किसान छुट्टा मवेशियों की समस्या से काफ़ी परेशान हैं। साल 2017 में योगी आदित्यनाथ ने मुख्यमंत्री बनते ही सूबे में तमाम अवैध स्लॉटर हाउस बन्द करवा दिये थे। आज भी उनपर ताले चढ़े हैं। हालाँकि इसका एक नुक़सान यह हुआ कि यह पशु गाँवों में किसानों की फ़सलें नष्ट करने लगे। सरकार के पास इन आवारा पशुओं कोई विशेष योजना आज भी नहीं है।

छुट्टा पशु लोगों पर भी हमले करते रहे हैं और चुनाव में सपा और कांग्रेस ने इसे मुद्दा बनाया। योगी के अलावा उनके मंत्रियों को मजबूरी में इस बार के चुनाव में जनता से वादा करना पड़ा कि अब सरकार आने पर इसका प्रबंध किया जाएगा। देखना है कि योगी सरकार कैसे इस वादे को पूरा करती है। रोज़गार योगी सरकार के लिए बड़ी चुनौती है। उनके पिछले कार्यकाल में कुछ भर्तियों के पेपर लीक होने पर काफ़ी हंगामा मचा था। कई भर्तियों में देरी भी हुई। इन सबसे नाराज़ युवा प्रदेश में प्रदर्शन भी कर चुके हैं। विपक्ष ने इसे भुनाने के लिए चुनाव में सरकारी नौकरियों को लेकर जमकर वादे किये। ख़ुद भाजपा ने रोज़गार के बड़े वादे किये हैं। यहाँ बता दें कि मुख्यमंत्री योगी दावा करते रहे हैं कि उनकी सरकार के पाँच साल के कार्यकाल में पौने पाँच लाख नौकरियाँ दीं।

हालाँकि रोज़गार पर इसी साल में आईसीएमआईई की रिपोर्ट से ज़ाहिर होता है कि उत्तर प्रदेश में पिछले पाँच साल में बेरोज़गारी बढ़ी है। रिपोर्ट ज़ाहिर करती है कि उत्तर प्रदेश में 100 में से सिर्फ़ 32 लोगों के पास रोज़गार है। ये 100 वे लोग हैं, जो काम करते हैं या चाहते हैं और काम के योग्य उम्र वाली जनसंख्या (वर्किंग एज पॉपुलेशन) में आते हैं। उत्तर प्रदेश में रोज़गार चाहने वालों की कुल ज़रूरतमंदों की संख्या 14 फ़ीसदी (2.12 करोड़) बढक़र 17.07 करोड़ पहुँच गयी है। पाँच साल पहले यह संख्या 14.95 करोड़ थी।

यही नहीं, प्रदेश में नौकरी कर रहे लोगों की संख्या 16.20 लाख से ज़्यादा घट गयी, जिसके फलस्वरूप राज्य में रोज़गार दर (रोज़गार वाले लोग और रोज़गार के इंतज़र में लोगों की दर) दिसंबर, 2016 के 38.5 फ़ीसदी से घटकर दिसंबर, 2021 में 32.8 फ़ीसदी पर पहुँच गयी थी। पिछले साल कोरोना महामारी की दूसरी लहर में योगी सरकार को काफ़ी अलोचना झेलनी पड़ी थी। उत्तर प्रदेश की नदियों में कोरोना से मरने वालों के शव नदियों में मिलने से सरकार को बहुत फ़ज़ीहत झेलनी पड़ी थी।

इसके अलावा अस्पतालों में बिस्तरों, डॉक्टरों और मेडिकल स्टाफ और सबसे ज़्यादा ऑक्सीजन की कमी ने योगी सरकार को लगातार आलोचनाओं के घेरे में रखा। चुनाव में सपा और कांग्रेस ने लगातार इस मुद्दे को जनता के सामने लाया। हालाँकि 2017 के विधानसभा चुनाव से पहले हर ज़िले में मेडिकल कॉलेज के अपने वादे पर सरकार ज़रूर काम कर रही है। हालाँकि अभी काफ़ी कुछ किया जाना बाक़ी है।

जहाँ तक राजनीतिक चुनौती की बात है मुख्यमंत्री योगी के सामने गठबंधन दलों को सन्तुष्ट रखने की भी चुनौती है। हाल के विधानसभा चुनाव से पहले कई विधायक गठबंधन तोडक़र सपा में चले गये थे। साल 2017 में सुहेलदेव भारतीय समाज पार्टी ने भाजपा के साथ मिलकर चुनाव लड़ा था। ओम प्रकाश राजभर मंत्री भी बनाये गये; लेकिन दो साल में ही वह बग़ावत पर उतर आये थे। योगी सरकार पर कई आरोप भी उन्होंने लगाये और बाद में भाजपा से बाहर चले गये। अब अपना दल (एस) और निषाद पार्टी को गठबंधन के साथ रखने की ज़िम्मेदारी योगी पर है।

दूसरे विधानसभा और बाहर सरकार पर हमले ज़्यादा होंगे। कारण यह है कि प्रमुख विरोधी दल समाजवादी पार्टी (सपा) की संख्या में बड़ा इज़ाफ़ा हुआ है। ऊपर से पार्टी के नेता अखिलेश यादव ने लोकसभा सीट के इस्तीफ़ा देकर अब राज्य में सक्रिय रहने का फ़ैसला किया है, जिससे सरकार के लिए चुनौती बढ़ेगी। अखिलेश यादव सरकार को घेरने का कोई मौक़ा नहीं छोड़ेंगे।

योगी सरकार ने पाँच साल में राज्य में फ्लाईओवर, अंडरपास, हाईवे बनाये हैं; लेकिन सडक़ों के मामले में वह फिसड्डी साबित हुई है। गड्ढा मुक्त सडक़ों का वादा अभी भी वादा ही है। शहरों की सडक़ों की हालात ख़राब है। ज़ाहिर है विपक्ष सरकार पर दबाव बनाएगा।

पंजाब में भगवंत मान ने मुख्यमंत्री बनने के बाद दिल्ली की पहली यात्रा में ही जिस तरह प्रधानमंत्री मोदी से मुलाक़ात में एक लाख करोड़ का पैकेज माँगा, उससे ज़ाहिर होता है कि सूबे की माली हालत क्या है। मान के सामने सबसे बड़ी चुनौती प्रदेश पर 2.62 लाख के क़र्ज़ के बावजूद जनता से किये गये वादे पूरे करना है। इस क़र्ज़ से बाहर निकलने की चुनौती अलग से उनके सामने है। साल 2017 में कैप्टेन अमरिंदर सिंह के नेतृत्व में कांग्रेस की सरकार सत्ता में आयी थी, तब अकाली सरकार उस पर 1.82 लाख करोड़ रुपये का क़र्ज़ छोड़ गयी थी; जो अब लगभग एक लाख करोड़ तक हो चुका है। ज़मीनी हक़ीक़त देखी जाए, तो चालू वित्त वर्ष में राज्य को क़रीब 95,257 करोड़ रुपये का राजस्व मिला है, जिसका 40 फ़ीसदी उसके ऊपर चढ़े क़र्ज़ चुकाने में ही निकल जाएगा। पंजाब वर्तमान में अपने संसाधन जुटाने, घटती प्रति व्यक्ति आय, केंद्रीय धन पर बढ़ती निर्भरता, पूँजी निर्माण में कम निवेश, टैक्स और ग़ैर-कर राजस्व का संग्रह, उच्च सब्सिडी की लाभ और मौज़ूदा क़र्ज़ों के कारण बाज़ार से उधार लेने को मजबूर है। पंजाब स्टेट पॉवर कॉरपोरेशन लि. को 31 मार्च को ख़त्म हुए माली साल की बिजली सब्सिडी, जो करीब 9,600 करोड़ रुपये है; अगले साल के लिए छोड़ दी थी।

इस 2022 में पंजाब की आबादी तीन करोड़ होने का अनुमान है, ऐसे में राज्य पर पौने तीन लाख करोड़ रुपये से अधिक का क़र्ज़ ज़ाहिर करता है कि हरेक पंजाबी पर एक लाख रुपये का क़र्ज़ है। साल 2003 तक राज्य की प्रति व्यक्ति आय सबसे अधिक थी; लेकिन नीति आयोग की आर्थिक और सामाजिक संकेतकों की रिपोर्ट के अनुसार, पंजाब की प्रति व्यक्ति आय घटकर 1,15,882 रुपये रह गयी, जो राष्ट्रीय औसत 1,16,067 रुपये से कम है। विशेषज्ञ इसका एक बड़ा यह भी मानते हैं कि राज्य में औद्योगिकीकरण को बढ़ावा देने के लिए कुछ नहीं किया गया है। सिर्फ़ कृषि पर निर्भर रहकर पंजाब ऐसा नहीं कर पाएगा।

मान के नेतृत्व वाली आम आदमी पार्टी की सरकार ने जनता से बड़े वादे किये हैं, जिनके लिए पैसे की ही ज़रूरत रहेगी। आम आदमी पार्टी ने पंजाब के किसानों, युवाओं, महिलाओं, कामगारों से लेकर हर वर्ग तक के लिए तमाम वादे किये हैं। दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप प्रमुख अरविंद केजरीवाल के फ्री मॉडल ने पंजाब में पार्टी के उभार में अहम भूमिका निभायी है। वादों की बात करें, तो आम आदमी पार्टी ने पंजाब में जनता से 300 यूनिट मुफ़्त बिजली का वादा किया है। इसके अलावा मुफ़्त शिक्षा, हर महिला को हर महीने 1,000 रुपये, मुफ़्त जाँच और दवाइयाँ और हर व्यक्ति के लिए हेल्थ कार्ड का वादा भी है। पार्टी ने राज्य में 16,000 मोहल्ला क्लीनिक भी खोलने का वादा किया है। इसके तहत केजरीवाल ने हर गाँव में एक क्लीनिक खोलने, सरकारी अस्पतालों की हालत दुरुस्त करने और प्रदेश में बड़े स्तर पर नये अस्पतालों की शुरुआत करने की बात भी कही है।

पार्टी ने अपने वादों को पूरा करने के लिए पाँच साल का समय निर्धारित किया है; लेकिन कई वादे ऐसे हैं, जिन्हें भगवंत मान को तुरन्त करना है। निश्चित ही इसमें पैसे की बड़ी भूमिका रहेगी। पंजाब में 24 घंटे बिजली की आपूर्ति सुनिश्चित करना भी एक बड़ी चुनौती है। दिल्ली में केजरीवाल सरकार 200 यूनिट बिजली मुफ़्त देती है। इसकी तर्ज पर पंजाब में हर माह 300 यूनिट बिजली मुफ़्त देना और घरेलू बिजली बिल का पुराना बक़ाया बिल माफ़ करना छोटे वादे नहीं हैं। बिजली के तारों को ज़मीन के नीचे बिछाने का काम भी बड़े बजट से होगा। दिल्ली के मोहल्ला क्लीनिक की तर्ज पर पंजाब के हर गाँव और क़स्बे के वार्ड और गाँवों में 16,000 क्लीनिक बनाना, जहाँ सस्ता और मुफ़्त में लोगों का इलाज हो सके और 18 वर्ष से अधिक आयु की प्रत्येक महिला के लिए 1,000 रुपये प्रति महीने की गारंटी भी बजट उपलब्ध होने पर निर्भर है।

आम आदमी पार्टी ने राज्य में अनुसूचित जाति के बच्चों के लिए व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में प्रवेश के लिए कोचिंग शुल्क का भुगतान ख़ुद करने, अगर अनुसूचित जाति का छात्र बीए, एमए की पढ़ाई के लिए विदेश जाना चाहता है, तो इसका पूरा ख़र्च सरकार की तरफ़ से देने, अस्थायी शिक्षकों को स्थायी करना, रिक्त पदों को भरना, झुग्गी-बस्तियों में रहने वालों के लिए पक्के घर बनाना जैसे वादे भी पैसे से ही पूरे होंगे।

जहाँ तक उत्तराखण्ड की बात है, राज्य की अर्थ-व्यवस्था ख़राब हालत में है। प्रदेश पर 65,000 करोड़ रुपये का क़र्ज़ चढ़ चुका है। कर्मचारियों का वेतन तक बाज़ार से क़र्ज़ लेकर देने की नौबत कई बार आयी है। यही हालत क़र्ज़ का ब्याज चुकाने के मामले में है। पलायन राज्य की बड़ी समस्या है। रोज़गार के अभाव में लोगों को शहरों और दूसरे राज्यों को पलायन करना पड़ रहा है और सन् 2011 के आख़िर तक राज्य के 968 गाँव ख़ाली हो गये थे। वर्ष 2011 के बाद इनमें 734 गाँव और जुड़ चुके हैं। सीमांत क्षेत्रों के विकास के लिए ठोस योजनाएँ न होने की वजह से पलायन का सिलसिला लगातार जारी है। प्रदेश में आठ लाख से ज़्यादा बेरोज़गार पंजीकृत हैं। पिछले पाँच साल में भाजपा सरकार महज़ 11,000 ही नौकरियाँ दे पायी। उत्तराखण्ड के 20,000 से ज़्यादा सरकारी बेसिक, जूनियर, माध्यमिक स्कूलों में न तो पर्याप्त शिक्षक हैं और न पर्याप्त संसाधन। कई स्कूलों में न बिजली सुविधा है, न पानी और टायलेट। माध्यमिक स्तर पर ही 6,000 से ज़्यादा पद रिक्त हैं। इनमें 4,500 पर अतिथि शिक्षकों से काम चलाया जा रहा है।

पहाड़ी राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं की गम्भीर स्तर की कमी है। परिवहन सेवाओं की हालत ख़राब है। पिछले पाँच साल में रोडवेज़ की 200 से ज़्यादा बसें घट चुकी हैं। राज्य में इस वक्त 465 गाँव ऐसे हैं, जहाँ संचार की कोई सुविधा ही नहीं। भ्रष्टाचार भी राज्य में बड़ा मुद्दा है। राज्य के 6.46 लाख घरों में पेयजल कनेक्शन नहीं है। भाजपा के चुनावी घोषणा-पत्र पर अमल कराना मुख्यमंत्री धामी के लिए बड़ी चुनौती रहेगा।

गोवा छोटा और पर्यटन राज्य है। लेकिन इसके बावजूद उस पर काफ़ी क़र्ज़ है। सन् 2017 में गोवा पर क़रीब 16,903 करोड़ रुपये का क़र्ज़ था, जो 2022 में बढक़र क़रीब 28,509 करोड़ रुपये होने का अनुमान है।

मणिपुर में मुख्यमंत्री बीरेन सिंह का अब तक का सफ़र भले आसान रहा हो; लेकिन उनके लिए आगे बड़ी चुनौतियाँ हैं। राज्य को देश के बाक़ी हिस्सों से जोडऩे वाली सडक़ों, नेशनल हाईवे-2 और 37 पर वाहनों की आवाजाही ठप रही है। यह पर्वतीय राज्य सब्ज़ियों और खाने-पीने की दूसरी चीज़ों के लिए दूसरे राज्यों पर निर्भर है। राज्य में एक और बड़ी चुनौती नगा उग्रवादी संगठन नेशनल सोशलिस्ट काउंसिल ऑफ नगालैंड (एनएससीएन) के इसाक-मुइवा गुट और केंद्र सरकार के बीच हुई शान्ति समझौते को लेकर भी राज्य के बहुसंख्यक मैतेयी तबक़े में संशय की है। यहाँ आये दिन हिंसा के घटनाएँ सामने आती रहती है। मणिपुर में विकास की गति ठप होने और व्यापक स्तर पर भ्रष्टाचार के भी आरोप लगते रहे हैं। मणिपुर पर इस समय क़रीब 13,510.6 करोड़ रुपये का क़र्ज़ होने का अनुमान है।

पंजाब में भ्रष्टाचार पर अंकुश की क़वायद

पंजाब में प्रचंड बहुमत वाली आम आदमी पार्टी (आप) सरकार राज्य की व्यवस्था में आमूलचूल परिवर्तन की इच्छाशक्ति दिखा रही है। मतदाताओं ने इसी उम्मीद से उन्हें वोट देकर सत्ता सौंपी है, ताकि ख़राब हो चुकी व्यवस्था को नया बनाया जा सके, जिसमें आम आदमी सरकारी तंत्र से प्रताडि़त न हो। सरकार को न केवल इच्छाशक्ति, बल्कि धरातल पर ठोस करके दिखाना होगा; क्योंकि इससे पहले की सरकारों ने तो सत्ता मिलने पर व्यवस्था में बदलाव लाने की घोषणाएँ करते रहे हैं।

राजनीतिक दलों को सत्ता में आने के लिए वादे बहुत करने पड़ते हैं; लेकिन उन्हें पूरा करने के लिए जैसी कार्य योजना चाहिए, नहीं बन पाती है। फिर आम आदमी पार्टी ने तो एक-से-एक लोक लुभावन और मुफ़्त के वादे कर डाले हैं। ऐसे में उसके सामने चुनौतियाँ अपेक्षकृत ज़्यादा हैं। रोज़गार देने से लेकर राज्य को भ्रष्टाचार मुक्त करना इतनी बड़ी चुतनौती नहीं, जितनी राज्य को क़र्ज़ से मुक्ति दिलाने की है। रोज़गार का मतलब केवल सरकारी नौकरी नहीं, बल्कि युवा को रोज़गार से जोडऩा भी है।

सभी को रोज़गार सरकारी क्षेत्र में मिले, यह सम्भव नहीं है। इसे हर सरकार भली-भाँति जानती है। इसलिए केंद्र और राज्य सरकारों को पूरा ज़ोर स्वरोज़गार पर रहता है। पंजाब में भी स्वरोज़गार से जुड़ी कई योजनाएँ आने वाले समय में सामने आएँगी। मुख्यमंत्री भगवंत मान ने शपथ लेने के बाद 25,000 सरकारी नौकरियाँ निक़लाने की घोषणा की है; लेकिन मौज़ूदा बेरोज़गारी की दर को देखते हुए यह ऊँट के मुँह में जीरे के समान ही है। हाँ, इसे अच्छी शुरुआत कहा जा सकता है, जिससे युवाओं में रोज़गार मिलने का कुछ भरोसा ज़रूर पैदा होगा। रही बात भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने या राज्य को इससे मुक्त करने की, तो यह सम्भव है।

पंजाब में भ्रष्टाचार किस क़दर है? इसे पीडि़त लोग बख़ूबी जानते हैं। सरकारी दफ़्तरों में अपनी फाइल को आगे बढ़ाने, राशन कार्ड में नाम जुड़वाने से लेकर तहसील में रजिस्ट्री कराने आदि से लेकर घोर भ्रष्टाचार है। एक निजी सर्वे में पाया गया है कि पंजाब में 65 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अपने सरकारी कार्य कुछ ले देकर ही करवाने पड़ते हैं। बाक़ी 35 फ़ीसदी में सिफ़ारिश, जान पहचान या दबाव काम में आते हैं। यह आँकड़ा पंजाब का है, बिहार, उत्तर प्रदेश, झारखण्ड, राजस्थान में 70 फ़ीसदी से ज़्यादा लोगों को अपने सरकारी काम घूस देकर पूरा कराने को विवश है।

दिल्ली के मुख्यमंत्री और आप संयोजक की राय में पंजाब में 99 फ़ीसदी सरकारी कर्मचारी ईमानदार हैं; केवल एक फ़ीसदी में खोट है, जिन्हें ठीक किया जा सकता है। उनकी राय में सख़्ती से नहीं, बल्कि एक फ़ीसदी अधिकारियों और कर्मचारियों को समझाने-बुझाने से भ्रष्टाचार पर काफी हद तक अंकुश लग सकता है। एक फ़ीसदी भ्रष्ट सरकारी कर्मचारियों से 65 फ़ीसदी लोग प्रभावित नहीं हो सकते। इसे केजरीवाल को नहीं, बल्कि भगवंत मान को समझना होगा; क्योंकि दिल्ली और पंजाब में बहुत फ़र्क़ है। 23 मार्च को हुसैनीवाला (फ़िरोज़पूर) में शहीदी दिवस के मौक़े पर मुख्यमंत्री मान ने भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए मोबाइल नंबर 9501200200 जारी कर दिया, जिस पर व्हाट्स ऐप के माध्यम से भ्रष्ट सरकारी कर्मी की जानकारी आडियो-वीडियों के माध्यम से दी जा सकती है।

मज़ेदार बात यह कि नंबर जारी होने के बाद पहली शिकायत लगभग एक घंटे बाद ही उन तक पहुँच भी गयी। बठिंडा गौशाला के सचिव साधू राम ने बताया कि दान में दिये गये भूमि के टुकड़े को गौशाला भूमि में शामिल करने के लिए कैसे तलवंडी साबो के एक राजस्व अधिकारी ने 3,000 रुपये की घूस ली। शिकायत पर ज़िला राजस्व अधिकारी ने कोई कार्रवाई नहीं की। मामला जनवरी 2022 का है। काम गौशाला का था, और किसी भी तरह ग़ैर-क़ानूनी नहीं था; इसलिए सस्ते में निपट गया। वरना पंजाब में ज़मीन-ज़यदाद आदि की रजिस्ट्री के लिए घूस के रेट बहुत ज़्यादा हैं; लेकिन तय हैं। फाइलें अपने आप आगे बढ़ती जाती हैं। सभी का अपना-अपना हिस्सा होता है। घूसख़ोरी भ्रष्ट अधिकारियों और कर्मचारियों के ख़ून में रच-बस गयी है। इसे वे पहले-से चलती आ रही व्यवस्था का हिस्सा मानते हैं। सरकारी दफ़्तर से काग़ज़ की नक़ल निक़लवाने से लेकर बिजली ख़रीद अनुबंध तक में घूस और कमीशन तय रही है।

व्यवस्था को बदलना आसान नहीं होता; लेकिन भ्रष्टाचार के ख़िलाफ़ संघर्ष से सत्ता में आयी आम आदमी पार्टी सरकार को नयी व्यवस्था बनानी होगी, जिसमें आम से लेकर ख़ास व्यक्ति तक भ्रष्ट सरकारी तंत्र से राहत महसूस करे। भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने के लिए सतर्कता (विजिलैंस) विभाग ज़्यादातर मुख्यमंत्री अपने पास ही रखते हैं। बाक़ायदा हर सरकारी दफ़्तर में बोर्ड पर सतर्कता विभाग के अधिकारियों के दूरभाष और मोबाइल नंबर आदि लिखे होते हैं।

पंजाब में भ्रष्टाचार पर रोक के लिए मुख्यमंत्री का जारी नंबर क्या बेहतर नतीजे दिखाएगा? आने वाले समय में क्या घूस लेने वालों पर सरकार शिकंजा कसेगी? यह समय बताएगा। लेकिन फ़िलहाल उसने एक अच्छी शुरुआत कर दी है। लेकिन यह चुनौती बड़ी है। क्योंकि रोज़ हज़ारों शिकायतें मिलेंगी। ऐसा नहीं कि शिकायत मिलते ही तुरन्त कार्रवाई हो जाएगी; क्योंकि सीधे तौर पर मुख्यमंत्री इसे देख रहे हैं। बाक़ायदा तौर पर उनकी जाँच होगी और सही पाये जाने पर कोई कार्रवाई होगी। राज्य के सबसे बड़े मुद्दे रोज़गार, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि हैं। 18 वर्ष से ज़्यादा की आयु की लड़कियों और महिलाओं को 1,000 रुपये प्रतिमाह देने के अलावा 300 यूनिट बिजली मुफ़्त देने जैसी योजनाओं से हज़ारों करोड़ रुपये का ख़र्च सरकार पर आएगा। इसकी व्यवस्था काग़ज़ी है, हक़ीक़त में कितना राजस्व मिल सकेगा? यह तो आने वाला समय ही बताएगा।

अगर आप सरकार पहले से ज़्यादा राजस्व कमाने और सब्सिडी कम करने में सफल होती है, तो नतीजे अच्छे निक़ल सकते हैं। राज्य के कुल राजस्व का बड़ा हिस्सा क़र्ज़ के ब्याज, सरकारी कर्मचारियों के वेतन और पेंशन आदि में ख़र्च हो जाता है। पंजाब पर क़रीब तीन लाख करोड़ रुपये का भारी भरकम क़र्ज़ है। लगभग चार दशक से यह क़र्ज़ दिन-दुने, रात-चौगुने के हिसाब से बढ़ रहा है। हर वर्ष यह क़र्ज़ 20,000 रुपये बढ़़ रहा है। पूर्व की सरकारों ने इसमें कटौती करने की दिशा में बहुत ठोस प्रयास नहीं किये। लेकिन भगवंत मान सरकार को इस दिशा में काम करना पड़ेगा। हज़ारों करोड़ रुपये के रेत और बजरी आदि के धंधों को रोक दिया गया, तो इससे बहुत बड़ा राजस्व मिल सकता है।

पहले सरकार की शह पर यह सब होता रहा है। जब बाड़ (खेत की बाड़बंदी) ही खेत को खाने लगे, तो खेत में कुछ नहीं बचेगा। पूर्व की सरकारों पर ऐसे आरोप लगते रहे हैं। बेनामी नामों से मंत्री और सत्ता पक्ष के लोग रेत की खदानों के काम लेते और ख़ूब चाँदी काटते रहे हैं। आप सरकार का लक्ष्य रेत खनन में पारदर्शिता लाकर इससे हज़ारों करोड़ रुपये का राजस्व पैदा करने का है। ऐसे में यक्ष प्रश्न यही है कि हर वर्ष 20,000 करोड़ रुपये के बढ़ते क़र्ज़ में कमी की शुरुआत कैसे हो पाएगी? अगर यह और न बढ़े और इसमें धीरे-धीरे कमी आती जाए, तो भी बड़ी बात होगी। सन् 1981 में पंजाब प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से देश का पहले नंबर का राज्य था और तब राज्य पर क़र्ज़ नहीं, बल्कि अतिरिक्त धन होता था।

वर्ष 2001 में प्रति व्यक्ति आय के हिसाब से राज्य चौथे स्थान पर रहा, पर उसके बाद तो पंजाब जैसे क़र्ज़ की दलदल में फँसता ही चला गया। चार दशक में राज्य की आर्थिक स्थिति कहाँ से कहाँ पहुँच गयी। पंजाब अब दिल्ली की राह पर चलेगा या फिर उससे बेहतर प्रदर्शन करेगा। दिल्ली मॉडल वहाँ की जनता और आम आदमी पार्टी के लिए आदर्श है; ठीक वैसा ही, जैसा भाजपा और प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी या अमित शाह के लिए गुजरात मॉडल। राज्य में आम आदमी पार्टी की ज़ोरदार सफलता के पीछे कहीं-न-कहीं दिल्ली मॉडल का भी प्रभाव रहा है।

मुख्यमंत्री भगवंत मान दिल्ली मॉडल से बेहद प्रभावित रहे हैं; लेकिन उन्हें दिल्ली मॉडल से इतर भी बहुत कुछ नया करना होगा, जिसका पंजाब की जनता को इंतज़ार है।

 

“उनकी सरकार भ्रष्टाचार पर अंकुश लगाने में सफल होगी। अब राज आम आदमी पार्टी का है। जनता जब तय कर लेती है, तो सब ठीक हो जाता है। जिस जनता ने हमें इतनी बड़ी ज़िम्मेदारी दी है, उसी के सहयोग से हम भ्रष्टाचार रूपी जिन्न को भी क़ाबू कर लेंगे। हम सख़्ती से नहीं, बल्कि नये प्रयोग से व्यवस्था में बदलाव लाएँगे।’’

भगवंत मान

मुख्यमंत्री, पंजाब

 

“पंजाब में 99 फ़ीसदी सरकारी मुलाज़िम ईमानदार हैं। एक फ़ीसदी व्यवस्था को बिगाडऩे वाले और घूस लेने वाले हैं। वे लोग भी हमारे अपने ही हैं। जिस तरह से हमने दिल्ली के सरकारी स्कूलों का कायाकल्प शिक्षकों के सहयोग से किया, उसी तरह का प्रयोग पंजाब में भी होगा। मुख्यमंत्री भगवंत मान शपथ लेने के बाद बेहतर काम कर रहे हैं। अब भ्रष्ट अफ़सरों और कर्मचारियों के ख़िलाफ़ ऑनलाइन शिकायतें की जा सकेंगी। यह देश में नया प्रयोग है। मुझे पूरी उम्मीद है कि पार्टी लोगों की कसौटी पर खरी उतरने में सफल रहेगी।’’

अरविंद केजरीवाल

मुख्यमंत्री, दिल्ली

राष्ट्रपति चुनाव की चुनौती

विपक्ष की संख्या से आगे जाने की कोशिश में भाजपा

पाँच में से चार राज्यों में विधानसभा के चुनाव जीतने के बाद भाजपा ने अब राष्ट्रपति चुनाव पर नज़र गड़ा दी है। उसके पास आज की तारीख़ में 9,194 वोट-वैल्यू (मत-मूल्य) की कमी है, जिसे वह दूसरे दलों से जुटाने की कोशिश कर रही है; जबकि विपक्ष उसे कड़ी चुनौती देने के लिए मैदान में उतरना चाहता है। हालाँकि एकजुटता की कमी से ऐसा करना विपक्ष के लिए आसान काम नहीं होगा।

राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद का कार्यकाल 24 जुलाई को ख़त्म हो रहा है और भाजपा में अभी से पार्टी उम्मीदवार को लेकर चर्चा शुरू हो गयी है। भाजपा के लिए राष्ट्रपति का चुनाव निश्चित ही इज़्ज़त का सवाल है।

चर्चा है कि भाजपा देश में विधानसभा के सबसे ज़्यादा वोट-वैल्यू वाले राज्य उत्तर प्रदेश में विपक्ष के एक घटक दल के अलावा वाईएसआर कांग्रेस, बीजू जनता दल से भी सहयोग की कोशिश कर रही है। उत्तर प्रदेश में भाजपा और उसके सहयोगी दलों के पास 273 विधायक हैं। इसका महत्त्व इसलिए भी ज़्यादा है, क्योंकि उत्तर प्रदेश में आबादी के सापेक्ष प्रति विधायक वोट-वैल्यू 208 है, जो देश की किसी के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा है। हाल में जो चुनाव हुए हैं, उनमें उत्तर प्रदेश विधानसभा के वोटों की कुल वैल्यू 83,824, पंजाब की 13,572, उत्तराखण्ड की 4,480, गोवा की 800 और मणिपुर की 1,080 है। इनमें से चार (उत्तर प्रदेश, उत्तराखण्ड, गोवा और मणिपुर) राज्य भाजपा ने जीते हैं। हालाँकि पिछली बार के मुक़ाबले उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में उसकी सीटें घटी हैं। इस बार उत्तर प्रदेश में भाजपा को 57 सीटों का नुक़सान हुआ है, तो उत्तराखण्ड में भी नौ सीटें कम हुई हैं।

विपक्ष की तरफ़ से हाल में पश्चिम बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ने भाजपा को चुनौती दी थी कि विपक्ष उसे कड़ी टक्कर देगा। उन्होंने यह भी कहा था कि विपक्ष के पास भाजपा गठबंधन के मुक़ाबले ज़्यादा वोट हैं। हालाँकि विपक्ष में जैसा बिखराव है, उससे भाजपा की राह आसान लगती है। लेकिन यदि विपक्ष ठान लेता है कि भाजपा को मात देनी है, तो भाजपा के लिए परेशानी खड़ी हो सकती है; क्योंकि बीजू जनता दल (बीजद) जैसे दलों ने हाल के महीनों में भाजपा से कुछ दूरी बनायी है।

राष्ट्रपति चुनाव के लिए लोकसभा, राज्यसभा और राज्यों की विधानसभाओं के मिलाकर कुल 10,92,639 वोट हैं, जिसमें जीत के लिए 5,46,000 वोट चाहिए। एनडीए के पास वर्तमान में 5,36,467 वोट हैं। इस तरह उसके पास 10,000 से कुछ वोट कम हैं। हालाँकि मार्च के आख़िर में भी राज्यसभा के चुनाव होने हैं, जिसके बाद संख्या ऊपर-नीचे होगी। आम आदमी पार्टी की सरकार पंजाब में बनने के बाद उसके राज्यसभा सदस्यों की संख्या बढ़ जाएगी। कुछ और सीटों के लिए भी चुनाव हैं, जिनमें भाजपा की संख्या भी बढ़ेगी। हालाँकि उसे फिर भी वोटों की ज़रूरत रहेगी।

भाजपा का प्रबंधन मज़बूत

हाल के वर्षों का रिकॉर्ड देखें, तो भाजपा का प्रबंधन विपक्ष से कहीं बेहतर दिखा है। चाहे राज्यसभा के चुनाव का मसला हो या राज्यसभा में बहुमत के अभाव में बिलों को पास कराने की बात, भाजपा ने कभी मात नहीं खायी है। सिर्फ़ एक बार ऐसा हुआ था, जब गुजरात के राज्यसभा चुनाव में उसे दिवंगत अहमद पटेल की रणनीति के आगे हार माननी पड़ी थी। ऐसे में भाजपा को बहुमत के लिए और वोटों की ज़रूरत होते हुए भी विपक्ष उसे राष्ट्रपति चुनाव में मात देने के प्रति सन्देह में है। इसका कारण भाजपा का मज़बूत प्रबंधन है। उसने अभी से एनडीए से बाहर कुछ दलों को अभी से साधना शुरू कर दिया है। जबकि विपक्ष में अभी राष्ट्रपति चुनाव के लिए यही पता नहीं है कि क्या उसका कोई साझा उम्मीदवार होगा? होगा भी, तो कौन? ममता को छोडक़र किसी अन्य विपक्षी नेता ने राष्ट्रपति चुनाव की बात नहीं की है।

भाजपा शासित उत्तर प्रदेश की आबादी सबसे अधिक होने के चलते इसके एक विधायक की सर्वाधिक वोट-वैल्यू 208 है। इस तरह से 403 विधायकों की कुल वोट वैल्यू 83,824 है। वहीं 80 लोकसभा सदस्य और 30 राज्यसभा सदस्य हैं। एक सांसद की वोट-वैल्यू 708 है। इस तरह से सांसदों की कुल वोट-वैल्यू 77, 880 है। ज़ाहिर है भाजपा का पलड़ा यहाँ भारी है।

उत्तर प्रदेश में विपक्षी सपा गठबंधन की बात करें, तो समाजवादी पार्टी के पास 111 विधायक हैं। सपा के कुल विधायकों की वोट-वैल्यू 23,088 है।

इसी गठबंधन के एक अन्य दल रालोद के पास आठ विधायक हैं, तो उनकी वैल्यू 1,664 हो जाती है। यह चर्चा रही है कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए भाजपा रालोद पर डोरे डाल सकती है। इस गठबंधन के सुभासपा के पास छ: विधायक हैं, जिनकी वोट-वैल्यू 1,248 होती है। राज्य में बसपा के 10 सांसद हैं, जिनकी वोट-वैल्यू 7,080 है। इसके अलावा सपा के पाँच सांसदों की वोट-वैल्यू 3,540 है। इसके अलावा बसपा के पास राज्य में मात्र एक विधायक है, तो उसके विधायक की वोट-वैल्यू 208 है। वहीं कांग्रेस के दो विधायकों की वोट-वैल्यू 416 और राजा भैया के जनसत्ता दल लोकतांत्रिक पार्टी के दो विधायकों की वोट-वैल्यू भी 416 है। उसका एक सांसद भी है, जिसकी वोट-वैल्यू 708 है।

बता दें कि राष्ट्रपति चुनाव के लिए सांसदों और विधायकों के लिए वोट-वैल्यू 1971 की जनगणना के आधार तय किया गया है। हर राज्य के विधायक का वोट-वैल्यू वहाँ की जनसंख्या के चलते अलग-अलग होता है। जबकि प्रत्येक लोकसभा और राज्यसभा सदस्यों का वोट-वैल्यू 708 निर्धारित है।

चुनाव की प्रक्रिया

देश का कोई भी नागरिक, जिसकी उम्र 35 साल या इससे अधिक है, राष्ट्रपति पद का चुनाव लड़ सकता है। उम्मीदवार को राज्य या केंद्र सरकार के तहत किसी लाभ के पद पर नहीं होना चाहिए। राष्ट्रपति का चुनाव अप्रत्यक्ष प्रक्रिया के तहत होता है। चुनाव करने के लिए एक निर्वाचक मंडल होता है। संविधान के अनुच्छेद-54 में इसके बारे में बताया गया है। राष्ट्रपति चुनाव में जनता सीधे तौर पर चुनाव में शामिल नहीं होती।

जनता द्वारा चुने गये प्रतिनिधियों (सांसद और विधायक) राष्ट्रपति चुनने के लिए वोट डालते हैं। राष्ट्रपति चुनाव में सभी राज्यों के विधायक, लोकसभा सदस्य और राज्यसभा सदस्य वोट डालते हैं। राष्ट्रपति द्वारा संसद में नामित (मनोनीत) सदस्य वोट नहीं डाल सकते। विधान परिषद् के सदस्य भी राष्ट्रपति चुनाव में वोट नहीं डाल सकते, क्योंकि वे जनता द्वारा चुने हुए नहीं होते। चुनाव के लिए ख़ास तरीक़े से वोटिंग होती है, जिसे एकल संक्रमणीय मत व्यवस्था (सिंगल ट्रांसफेरेबल वोट सिस्टम) कहते हैं।

इस प्रक्रिया में वोट देने के साथ ही वोटर अपनी प्राथमिकता भी तय कर देते हैं। मतलब वोट देने वाले सदस्य वोट देते वक़्त बैलेट पेपर पर अपनी पसन्द क्रमानुसार लिख देते हैं। यदि उनकी पहली पसन्द वाले वोटों से विजेता का फ़ैसला नहीं हो पाता है, तो उनकी दूसरी पसन्द वाले उम्मीदवार को एकल मत (सिंगल वोट) की तरह मान लिया जाता है।

 

कौन हो सकता है उम्मीदवार?

चर्चा है कि क्या एनडीए रामनाथ कोविंद को फिर से राष्ट्रपति के पद के लिए उम्मीदवार बनाएगा? भाजपा इसे लेकर अपने सहयोगी दलों के साथ विचार करके आम सहमति बनाने की कोशिश करेगी। कोविंद के अलावा पार्टी उपराष्ट्रपति वेंकैया नायडू का नाम भी चर्चा में है। भाजपा के हलक़ों में यह भी चर्चा है कि किसी महिला को उम्मीदवार बनाया जा सकता है। प्रधानमंत्री मोदी की टीम की पसन्द देखें, तो उत्तर प्रदेश की राज्यपाल आनंदीबेन पटेल और केंद्रीय मंत्री निर्मला सीतारमण के नाम सामने आ सकते हैं। हाँ, पटेल के नाम पर यह दिक़क़त हो सकती है कि वह भी प्रधानमंत्री और गृह मंत्री अमित शाह के गृह राज्य गुजरात से हैं। लेकिन महिला के नाम पर विपक्ष में भी सर्वसम्मति बन सकती है। कांग्रेस अपना उम्मीदवार देने के लिए जोर डाल सकती है। जहाँ तक विपक्ष की बात है, उसके ख़ेमे से शरद पवार, नीतीश कुमार जैसे नेता का नाम उभर सकता है। विपक्षी दलों में टीएमसी, डीएमके, शिवसेना, टीआरएस उम्मीदवार खड़ा करने में अहम रोल निभा सकते हैं।

जल संकट को हल्के में लेना पड़ेगा भारी

हाल ही में 22 मार्च को विश्व जल दिवस मनाया गया। इस दिवस की शुरुआत 22 मार्च, 1993 से हुई थी। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने हर किसी को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराने के लिए इस अभियान की शुरुआत की थी। इस दिवस पर विश्व भर में लोगों को जल संरक्षण और गंदे पानी से होने वाली बीमारियों के बारे में जागरूक किया जाता है। विश्व जल दिवस के मक़सद से साफ़ हो जाता है कि दुनिया में पानी का संकट दिन-ब-दिन गहराता जा रहा है। आज दुनिया में 220 करोड़ लोगों के पास पीने का स्वच्छ पानी तक नहीं है। इधर संयुक्त राष्ट्र ने सतत विकास लक्ष्य-6 के तहत जल संकट का सामना कर रहे करोड़ों लोगों को साल 2030 तक पीने का स्वच्छ पानी मुहैया कराने का बड़ा लक्ष्य रखा है। बडा़ सवाल यह है कि क्या दुनिया के तमाम देश इस लक्ष्य को हासिल करने की दिशा में ईमानदारी से प्रयास कर रहे हैं। लेकिन उन प्रयासों से क्या अपेक्षित नतीजों की उम्मीद की जा सकती है?

दरअसल जल संकट के समाधान में जल प्रबंधन की अहम भूमिका होती है। इस समस्या को अक्सर एक सामाजिक समस्या के तौर पर देखा जाता है, जिसके स्वास्थ्य पर तात्कालिक व दूरगामी प्रभाव की पुष्टि कई अध्ययन भी करते हैं। विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) के अनुसार, दुनिया भर में क़रीब 200 करोड़ लोग गंदा पानी पीने से बीमार होते हैं। दूषित जल के कारण हर साल डायरिया से 4.85 लाख मौतें होती हैं। दुनिया भर में 36.8 करोड़ लोग असुरक्षित कुओं व अन्य खुले स्रोतों से पानी लेते हैं। जहाँ तक भारत का सवाल है, यहाँ पीने के साफ़ पानी की कमी की समस्या की गम्भीरता को इन आँकड़ों से समझा जा सकता है कि दुनिया की 19 फ़ीसदी आबादी भारत में रहती है, जिसके पास पीने के लिए स्वच्छ जल नहीं है। एक अन्य रिपोर्ट के अनुसार, देश की महज़ 50 फ़ीसदी आबादी को ही साफ़ पानी मिलता है।

नीति आयोग की एक रिपोर्ट के अनुसार, देश में साल 2030 तक 60 करोड़ लोगों को भयंकर जल संकट से जूझना पड़ सकता है। यानी महज़ 10 साल बाद यह समस्या और भी बढ़ सकती है। इस और भी ध्यान देना होगा कि आने वाले कुछ वर्षों में भारत ऐसा देश बनने जा रहा है, जहाँ दुनिया के हर देश से अधिक आबादी होगी। आबादी बढऩे का मतलब अधिक पानी की ज़रूरत। इसमें कोई दो-राय नहीं कि देश के सामने खड़ी कई बड़ी चुनौतियों में से एक जनता को स्वच्छ पेयजल मुहैया कराना भी है। इसी चुनौती के मद्देनज़र प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 15 अगस्त, 2019 को जल जीवन मिशन (जेजेएम) की घोषणा की थी। इस मिशन के तहत देश के सभी ग्रामीण घरों (क़रीब 19.22 करोड़ घरों) में 2024 तक नल से जल पहुँचाने का लक्ष्य रखा गया है। मगर साथ ही साथ जल-स्रोतों की निरंतरता बनाये रखना भी इसका अनिवार्य हिस्सा है। इसके अंतर्गत वर्षाजल संचयन और जलसंरक्षण के ज़रिये जल-स्रोतों के पुनर्भरण को सुनिश्चित किया जाता है। इसके साथ ही ग्रेवॉटर प्रबंधन के द्वारा गंदे पानी का पुनरुपयोग किया जाता है। सन् 2019 में मिशन की शुरुआत में देश के 19.22 करोड़ ग्रामीण परिवारों में से केवल 3.23 करोड़ यानी महज़ 17 फ़ीसदी के पास तक ही नल से जल की आपूर्ति थी।

कोरोना महामारी और उसके कारण होने वाली तालाबंदी का असर तक़रीबन हरेक गतिविधि पर पड़ा। जल जीवन मिशन का कार्य भी कुछ हद तक प्रभावित हुआ। लेकिन प्रतिकूल पारिस्थितियों के बावजूद इस मिशन के तहत अब तक नौ करोड़ से अधिक ग्रामीण घरों में नल से जल आपूर्ति शुरू हो चुकी है। यानी 47.83 फ़ीसदी ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति हो रही है। भारत सरकार की चिन्ता ग्रामीण घरों के साथ-साथ शहरों के उन घरों तक भी नल से जल की आपूर्ति का बंदोबस्त करना है, जहाँ यह उपलब्ध नहीं है। वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 1 फरवरी, 2021 को संसद में पेश आम बजट में शहरी क्षेत्रों के लिए एक सार्वभौमिक जल आपूर्ति योजना की घोषणा की। इस मिशन का लक्ष्य एक सर्वव्यापी जलापूर्ति योजना के तहत 4,378 शहरी निकायों के 2.86 करोड़ शहरी घरों में नल के ज़रिये पीने का साफ़ पानी उपलब्ध कराना है। इस योजना की अवधि 2021-2026 यानी पाँच साल है। जल जीवन मिशन (ग्रामीण) की अवधि 2019-2024 यानी पाँच साल ही है। आँकड़े महत्त्वपूर्ण होते हैं, क्योंकि आँकड़े सुधार करने के साथ-साथ कार्यक्रमों के प्रदर्शन को आँकने का एक मौक़ा मुहैया कराते हैं। बहरहाल जेजेएम ग्रामीण के 21 मार्च, 2022 के आँकड़ों के अनुसार, वर्तमान में नौ करोड़ से अधिक ग्रामीण परिवारों को नल से जल उपलब्ध कराया जा रहा है। ध्यान देने वाली बात यह है कि देश के तीन राज्यों- तेलगांना, हरियाणा व गोवा और तीन केंद्र शासित प्रदेशों- अंडमान और निकोबार द्वीप समूह, दादरा और नागर हवेली, दमन और दीव तथा पुडुचेरी के सभी ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति की गयी है।

वैसे भारत के मानचित्र पर ग्रामीण इलाक़ों के घरों में नल से जल की आपूर्ति को लेकर निगाह डालें, तो 15 अगस्त, 2019 की स्थिति और 21 मार्च, 2022 की स्थिति के फ़र्क़ दिखता है। लेकिन फिर भी चिन्ता बनी हुई है। घरेलू नल कनेक्शन प्रदान करने के मामले में विभिन्न राज्यों की 21 मार्च, 2022 तक तुलनात्मक स्थिति बताती है कि देश का सबसे बड़ा राज्य उत्तर प्रदेश, जिसकी आबादी क़रीब 23 करोड़ है; जल जीवन मिशन में सबसे पीछे है। डबल इंजन की सरकार वाले इस राज्य में ग्रामीण घरों में नल से जल की आपूर्ति का आँकड़ा 13.42 फ़ीसदी है। हाल ही में सम्पन्न विधानसभा चुनाव में किसी भी चुनावी रैली में न तो प्रधानमंत्री मोदी ने और न ही प्रदेश के मुख्यमंत्री योगी ने जनता को इस बाबत बताया। वहीं पंजाब, गुजरात, बिहार और हिमाचल प्रदेश ने नल जल में 90 फ़ीसदी से ऊपर का लक्ष्य हासिल कर लिया है। इस मामले में राजस्थान ने 23.14 फ़ीसदी और पश्चिम बंगाल ने 20.96 फ़ीसदी लक्ष्य ही अब तक हासिल किया है। छत्तीसगढ़ ने 20.06 फ़ीसदी व झारखण्ड ने 19.53 फ़ीसदी ग्रामीण घरों तक ही नल से जल मुहैया कराया है। उत्तर प्रदेश इन सबसे भी पीछे खड़ा है। जल शक्ति मंत्री गजेंद्र सिंह शेखावत के अनुसार, मणिपुर, मेघालय और सिक्किम चालू वर्ष यानी 2022 के अन्त तक हर ग्रामीण घर में नल से जल वाला लक्ष्य हासिल कर लेंगे। असम 2024 में इस लक्ष्य को हासिल करेगा। वैसे जल जीवन मिशन जैसे सामाजिक आन्दोलन के तहत बच्चों के स्वास्थ्य और उनकी देखभाल पर ध्यान केंद्रित करते हुए स्कूलों, आँगनबाड़ी केंद्रों में नल से शुद्ध जल की आपूर्ति को प्राथमिकता के आधार पर लागू किया जा रहा है।

जल जीवन मिशन अब जन आन्दोलन के रूप में चलाया जा रहा है। सिर्फ़ पानी ही उपलब्ध नहीं कराया जाए, बल्कि पानी की गुणवत्ता पर निगरानी रखने की भी व्यवस्था की गयी है। फील्ड टेस्ट किट का इस्तेमाल करके पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए 8.5 लाख से अधिक महिला स्वयं सेवकों को प्रशिक्षित किया गया है। वे नमूने इकट्ठे कर पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करते हैं, ताकि यह सुनिश्चित किया जा सके कि आपूर्ति किया जा रहा जल निर्धारित मानकों के अनुसार है या नहीं। आज देश में 2,000 से अधिक जल परीक्षण प्रयोगशालाएँ हैं, जो पानी की गुणवत्ता का परीक्षण करने के लिए मामूली क़ीमत पर जनता के लिए उपलब्ध हैं। लेकिन एक बड़ा सवाल यह है कि पानी तो कम हो रहा है, जल संसाधनों पर जलवायु परिवर्तन का प्रतिकूल असर साफ़ नज़र आ रहा है। ऐसे में सरकारी मिशनरी क्या करेगी? नल लग रहे हैं, ठीक है। लेकिन उन नलों में सतत स्वच्छ पानी की व्यवस्था करना भी बहुत बड़ी चुनौती है। संयुक्त राष्ट्र के अनुसार, अगले तीन दशक में अगर पानी का उपभोग एक फ़ीसदी की दर से भी बढ़ता है, तो दुनिया को गम्भीर जल संकट का सामना करने के लिए तैयार रहना चाहिए। इसका कारण जलवायु परिवर्तन और झील और जलाशयों का ख़त्म होना होगा। भारत में सन् 1947 में 24 लाख तालाब थे। लेकिन आज यह संख्या घटकर महज़ पाँच लाख रह गयी है। इसमें से 20 फ़ीसदी तालाब बेकार वाली सूची में आ चुके हैं। कई नदियाँ सूख चुकी हैं और कई सूखने के कगार पर हैं। नदियों में गन्दगी तो ख़ैर चरम पर है। इस ओर भी सरकार तथा लोगों को भी ध्यान देना चाहिए।

कांग्रेस को खड़ा करने की कोशिश

नाराज़ नेताओं को साथ जोडऩे की क़वायद में जुटा गाँधी परिवार

कांग्रेस 2024 के लोकसभा चुनाव के लिए बचे दो साल में पार्टी संगठन को दोबारा खड़ा करने की क़वायद में जुट गयी है। इसके तहत युवा नेतृत्व और युवा टीम की मुहिम को ठंडे बस्ते में डालने की तैयारी है। पाँच राज्यों के चुनाव नतीजों ने चिन्तित कांग्रेस को झिंझोडक़र रख दिया है। गाँधी परिवार भी महसूस कर रहा है कि साझे नेतृत्व के साथ आगे बढऩा अब पार्टी की ज़रूरत है। हालाँकि यह नहीं कह सकते कि कांग्रेस का युवा नेतृत्व फेल हो गया। लेकिन इस नेतृत्व को माहिर रणनीति बना सकने वाले सलाहकार नहीं मिल सके। जी-23 नेता भले गाँधी परिवार पर अब सवाल उठाते हों; लेकिन परिवार के समर्थक कहते हैं कि भाजपा के नेता जब भी कांग्रेस पर हमला करते हैं, उनके सामने राहुल गाँधी ही खड़े रहते हैं। सरकार को देश के हर महत्त्वपूर्ण मुद्दे पर पूरे विपक्ष में यदि किसी नेता ने पूरी ताक़त से घेरा है, तो वह राहुल गाँधी ही हैं।

कांग्रेस में अब साझे नेतृत्व की गम्भीर कोशिश होने लगी है और जी-23 के वरिष्ठ नेता ग़ुलाम नबी आज़ाद पार्टी की कार्यकारी अध्यक्ष सोनिया गाँधी के साथ मिलकर संगठन चुनाव तक पार्टी की नयी टीम गठित में जुट गये हैं। सितंबर के संगठन चुनाव में कांग्रेस इस नयी टीम की घोषणा करेगी। लेकिन उससे पहले ही कुछ आमूल-चूल परिवर्तन संगठन में किया जा सकता है।

पार्टी से बाहर किये गये लोगों को वापस लाने की कोशिश शुरू करने के साथ-साथ अनुभवी नेताओं को संगठन में उच्च पद देने की तैयारी पार्टी करने जा रही है। ऐसे में हो सकता कि अभी तक बिना किसी बड़े ओहदे पर बैठे होने के बावजूद पार्टी के सभी फ़ैसले लेने वाले राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी को उनकी भूमिकाएँ समझा दी जाएँ। हाँ, यह हो सकता है कि सितंबर में होने वाले अध्यक्ष के चुनाव में राहुल गाँधी को ही उतारा जाए। लेकिन उन्हें संगठन को चला सकने और चुनाव जिता सकने वाले सलाहकार दिये जाएँगे, न कि उनकी मर्ज़ी के।

हाल के वर्षों में कांग्रेस से बाहर किये गये नेताओं को वापस संगठन में लाने के क़वायद भी हो सकती है, ताकि अनुभवी और युवा नेताओं को मिलाकर एक मज़बूत टीम खड़ी की जा सके, जो भाजपा को चुनौती दे सके। हाल के वर्षों में दो दर्ज़न से ज़्यादा प्रभावशाली नेता कांग्रेस से बाहर गये हैं। इनमें से कुछ ऐसे भी थे, जिनका अच्छा जनाधार था। वरिष्ठ नेता चाहते हैं कि संगठन चुनाव से पहले पार्टी से बाहर गये वरिष्ठ नेताओं को साथ जोडऩे की मुहिम शुरू की जाए।

कांग्रेस इस बात को लेकर दुविधा में है कि भाजपा के ख़िलाफ़ सामूहिक गठबंधन का हिस्सा हुआ जाए या नहीं। कारण यह है कि टीएमसी नेता ममता बनर्जी, जो तीसरे मोर्चे के गठन के लिए काफ़ी उत्सुक हैं; कांग्रेस को साथ लेने के लिए गम्भीर नहीं हैं। ममता ग़ैर-कांग्रेस, ग़ैर-भाजपा गठबंधन बनाने के हक़ में दिखती हैं, जिसमें कांग्रेस और वाम दलों को वह नहीं चाहतीं। कांग्रेस में इस समय जी-23 के नेता तीन तरह के हैं। एक वे, जो गाँधी परिवार से पार्टी को मुक्त करने के हक़ में हैं। दूसरे वे, जो गाँधी परिवार के साथ मिलकर और सभी वरिष्ठ नताओं को तरजीह देकर इसे मज़बूती देने के समर्थक हैं। तीसरे वे हैं, जो मौक़ा देखकर किसी भी दल में जा सकते हैं। जी-23 गुट में सबसे ज़्यादा वो नेता हैं, जो सभी वरिष्ठ नेताओं को तरजीह देकर और गाँधी परिवार के साथ मिलकर कांग्रेस को मज़बूती देना चाहते हैं। ग़ुलाम नबी आज़ाद के ज़रिये इसकी कोशिश शुरू होती भी दिखी है।

राहुल-प्रियंका की भूमिका

गाँधी परिवार के वे वफ़ादार, जो राहुल-प्रियंका के ज़रिये पार्टी में मज़बूत हैं; वरिष्ठ नेताओं की वापसी नहीं चाहते। लेकिन जो नेता गाँधी परिवार के नज़दीकी इन नेताओं के कटु आलोचक हैं, वे पार्टी की वर्तमान हालत के लिए उन्हें ज़िम्मेदार मानते हैं। उनका आरोप है कि पार्टी जनता से कट गयी है और आम आदमी पार्टी (आप) के रूप में कांग्रेस के लिए गम्भीर राजनीतिक चुनौती सामने है। यह वरिष्ठ नेता मानते हैं कि कांग्रेस का अभी भी व्यापक जनाधार है। लेकिन इसे सँभाला नहीं गया, तो पार्टी को सिमटते देर नहीं लगेगी। लिहाज़ा इसे सँभालने का बेहतर समय है। कई नेता इसे लेकर आवाज़ उठाते रहे हैं।

जी-23 के नेता हिमाचल के पूर्व मंत्री और पूर्व प्रदेश अध्यक्ष कौल सिंह ने ‘तहलका’ से बातचीत में कहा- ‘आम आदमी पार्टी निश्चित ही कांग्रेस का विकल्प बनने की कोशिश में है। लेकिन देश की जनता कांग्रेस को ही भाजपा के विकल्प के रूप में देखती है। लेकिन इसके यह मायने नहीं कि कांग्रेस को मज़बूत करने की कोशिश न की जाए। हम हाल के वर्षों में कई बड़े चुनाव हारे हैं और हमारा संगठन लचर हुआ है। जनता का हमसे मोह भंग होना गम्भीर चिन्ता की बात है।’

कांग्रेस में राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी की वर्तमान भूमिकाओं को लेकर भी सवाल हैं। पार्टी में कई नेता मानते हैं कि दोनों निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं और उनके ज़रिये ही राज्यों में नियुक्तियाँ और अन्य फ़ैसले होते हैं। नाराज़ नेताओं का सवाल यह है कि वे किसी ओहदे पर नहीं, फिर वे किस अधिकार से यह फ़ैसले कर रहे हैं? पंजाब का उदाहरण देते हुए यह नेता कहते हैं कि राहुल-प्रियंका के यह फ़ैसले कारगर नहीं रहे। नाराज़ पार्टी नेताओं का मानना है कि संगठन की मज़बूती और कार्यकर्ताओं को सक्रिय रखने के लिए हाल के वर्षों में कुछ नहीं हुआ है। बस नेताओं को हटाने और अपनी पसन्द के नेताओं को ओहदों पर बैठाने के अलावा कुछ नहीं हुआ है। इससे संगठन लचर हो गया है और पार्टी में बड़े ओहदों पर ऐसे लोग बैठ गये हैं, जो न तो बेहतर रणनीतिकार हैं और न ही चुनाव जिता सकने वाले नेता।

नाम न छापने की शर्त पर पार्टी के एक सांसद ने कहा- ‘राहुल-प्रियंका तब तक कुछ नहीं कर सकते, जब तक राज्यों में संगठन मज़बूत नहीं होगा। मज़बूत नेता, बिना मज़बूत कार्यकर्ताओं के नहीं बन सकता। लेकिन अफ़सोस की बात है कि वर्तमान में गाँधी परिवार के आसपास ऐसे नेता नेता जमे हुए हैं, जिनमें अनुभव और क्षमता दोनों की कमी है। गाँधी परिवार के युवा प्रतिनिधियों (राहुल-प्रियंका) को इन लोगों से पीछा छुड़ाकर अनुभवी नेताओं को साथ जोडऩा होगा।’

इसके अलावा कांग्रेस के भीतर हाल के महीनों में एक और चर्चा से पार्टी को नुक़सान हुआ है। यह है कांग्रेस के भीतर राहुल गाँधी और प्रियंका गाँधी के अलग-अलग गुट बनना। पंजाब के मामले में यह साफ़ दिखा था कि राहुल गाँधी चरणजीत सिंह चन्नी के साथ थे, जबकि प्रियंका गाँधी नवजोत सिंह सिद्धू के साथ। आधिकारिक रूप से कभी इसकी पुष्टि नहीं हुई, क्योंकि प्रियंका गाँधी हमेशा ख़ुद को राहुल गाँधी के समांतर दिखाने से बचती रही हैं। कांग्रेस के कुछ नेता यह भी मानते हैं कि राहुल-प्रियंका के बीच खाई पैदा करने की यह भाजपा की चाल थी, वास्तव में दोनों मिलकर काम करते थे। हालाँकि इन सब बातों से इतर कांग्रेस का एक बड़ा सच यह भी है कि उसके पास राष्ट्रव्यापी छवि वाले नेता राहुल गाँधी ही हैं। राहुल गाँधी के आलावा पार्टी में कोई ऐसा नेता नहीं, जिसे पूरे देश में जाना जाता हो। कांग्रेस का एक बड़ा वर्ग है, जो यह मानता है कि भाजपा का नेतृत्व राहुल गाँधी से ही ख़ुद के लिए ख़तरा मानता है। लिहाज़ा एक सुनियोजित योजना के तहत राहुल गाँधी की छवि को ख़राब करने की कोशिश हुई है। उन्हें पप्पू के रूप में बदनाम करना भी इसी का एक हिस्सा है।

इसमें कोई दो-राय नहीं कि आज भी कांग्रेस में राहुल गाँधी के ही सबसे ज़्यादा समर्थक हैं। उन्हें पसन्द करने वाले कहते हैं कि राहुल भाषा में सौम्य हैं और वह विपक्षियों पर कटु तरीक़े से हमला नहीं करते। दूसरा सच यह है कि उन्होंने जनता से जुड़े मुद्दों को मरने नहीं दिया है और अकेले ही इन पर हमेशा बोलते रहे हैं। उनके अलावा बंगाल की मुख्यमंत्री ममता बनर्जी ही ऐसी नेता हैं, जो भाजपा और मोदी के ख़िलाफ़ मुखर दिखती हैं। अभी यह साफ़ नहीं है कि क्या जी-23 के नेता राहुल गाँधी को अध्यक्ष पद के लिए स्वीकार करेंगे? या फिर वे प्रियंका गाँधी के नाम पर या अपने किसी नेता के नाम पर ज़ोर देंगे?

कांग्रेस में ऐसे लोगों की कमी नहीं, जो जी-23 के कुछ नेताओं को ‘भाजपा का एजेंट’ बताते हैं। उनका आरोप है जब भी राहुल गाँधी पर भाजपा के नेताओं ने हमला किया या कांग्रेस को कोसा, यह नेता (जी-23) चुपचाप बैठे रहे। कांग्रेस के एक नेता ने कहा- ‘पार्टी में राहुल गाँधी ही सबसे ज़्यादा लोकप्रिय हैं। चुनाव हुए और जी-23 ने किसी को उनके ख़िलाफ़ उतारा, तो भी राहुल गाँधी बड़े बहुमत से जीतेंगे।’

कार्यकर्ता मानते हैं कि 2004 में जब कांग्रेस के नेनृत्व में यूपीए सत्ता में आयी थी, तो लगातार दो बार लोकसभा चुनाव जीती थी। उस दौरान विधानसभा चुनावों में भाजपा का भी वही हाल होता था, जो आज कांग्रेस का हो रहा है। केरल से कांग्रेस के एक सांसद ने कहा कि भाजपा के चुनाव जीतने को लेकर भी देश के एक बड़े वर्ग में सवाल हैं। क्योंकि यह सोचने वालों की संख्या लगातार बढ़ी है, जो यह मानते हैं कि चुनावों में गड़बड़ होती है।

राज्यों में कमज़ोर हुई कांग्रेस

कांग्रेस राज्यों में लगातार कमज़ोर हुई है। सिर्फ़ दो राज्यों में उसकी सरकार है, जबकि कुछ जगह वह गठबंधन में है। ऐसा नहीं कि जहाँ उसकी सरकार नहीं, वहाँ उसका जनाधार शून्य हो गया है। कांग्रेस भाजपा के बाद अभी भी देश में सबसे ज़्यादा विधायकों वाली पार्टी है। भाजपा के मुक़ाबले कांग्रेस विधायकों की संख्या देश में लगभग आधी है। हाल के विधानसभा चुनाव के नतीजों के बाद देश के 18 राज्यों में भाजपा की सरकार है। वैसे जो बड़े राज्य हैं और जहाँ भाजपा जीती है, वे राज्य देश की क़रीब 50 फ़ीसदी आबादी वाले हैं। कांग्रेस का देखें, तो क़रीब 22 फ़ीसदी आबादी वाले राज्यों में उसकी सरकारें या गठबंधन वाली सरकारें हैं। हाल के वर्षों में राज्यों में कांग्रेस से छिटककर गये नेताओं के क्षेत्रीय दल ही सत्ता में हैं। इनमें तेलंगाना और आंध्र प्रदेश भी शामिल हैं, जहाँ कांग्रेस के पास एक भी सीट नहीं, जबकि वहाँ इससे पहले दशकों कांग्रेस की सत्ता रही है। कांग्रेस ने इन राज्यों में संगठन को फिर से खड़ा करने की कोई कोशिश नहीं की। संगठन को मज़बूत करने के लिए वहाँ के नेताओं की कोई बैठक तक नहीं हुई। ऐसे में क्षेत्रीय दल ही कांग्रेस पर भारी पड़ चुके हैं और तमिलनाडु जैसे राज्यों की तरह वहाँ कांग्रेस सहयोगी दल की भूमिका निभा रही है, जबकि वहाँ उसकी ख़ुद की वर्षों तक सत्ता रही है।

अब राज्यों में क्षेत्रीय दलों के नेता कांग्रेस को किसी भी सूरत में मज़बूत नहीं होने देना चाहते। उन्हें पता है कि ऐसा होने का मतलब होगा, उनका ख़ुद का कमज़ोर होना। लिहाज़ा इन राज्यों में यह दल कांग्रेस के विरोधी की भूमिका निभा रहे हैं। बिहार में यही हालत है, जहाँ जेडीयू, आरजेडी और भाजपा आज प्रमुख दल हैं; जबकि कांग्रेस पिछलग्गू की भूमिका में। लोकसभा में कांग्रेस संसदीय दल के नेता अधीर रंजन चौधरी भी मानते हैं कि कांग्रेस मोलभाव की ताक़त हासिल किये बिना क्षेत्रीय दलों से बातचीत नहीं कर सकती। चौधरी कहते हैं कि क्षेत्रीय दलों के साथ चुनावी गठबंधन पर ज़ोर दिया जाना चाहिए; लेकिन मोलभाव की ताक़त हासिल करना ज़्यादा ज़रूरी है। कांग्रेस नेता ने कहा- ‘अगर हम यह सोचते हैं कि क्षेत्रीय दल हमें सत्ता हासिल करने देंगे, तो मुझे ऐसा लगता है कि हम लोग मूर्खों के स्वर्ग में रह रहे हैं। सत्ता पाने के लिए किसी की दयालुता की नहीं, बल्कि मज़बूत होने की ज़रूरत है।’

ऐसे में यदि अरविन्द केजरीवाल की आम आदमी पार्टी (आप) का विस्तार और होता है, तो कांग्रेस के लिए निश्चित ही अस्तित्व का संकट खड़ा हो जाएगा। दिलचस्प और कांग्रेस के लिए चुनौतीपूर्ण सच यह है कि आम आदमी पार्टी ऐसे राज्यों में ख़ुद को विकल्प के रूप में सामने लाने की कोशिश कर रही है, जहाँ भाजपा की मुख्य विरोधी कांग्रेस है। गुजरात, हिमाचल और राजस्थान में आम आदमी पार्टी ने अपने संगठन के विस्तार के लिए पंजाब में जीत के बाद काफ़ी तेज़ी दिखायी है, जिससे उसकी मंशा ज़ाहिर होती है।

तेलंगाना के मुख्यमंत्री चंद्रशेखर राव, जो कभी कांग्रेस में ही थे; हाल के तीन महीनों में काफ़ी सक्रिय हुए हैं। उन्होंने चुनाव रणनीतिकार प्रशांत किशोर की सेवा तीसरे मोर्चे के गठन के लिए ली है। ममता बनर्जी के विपरीत राव कांग्रेस के प्रति नरम दिखते हैं और उनका कहना है कि बिना कांग्रेस के भाजपा के ख़िलाफ़ कोई भी मज़बूत तीसरा मोर्चा नहीं बनाया जा सकता। यह राव ही थे, जिन्होंने एक भाजपा नेता की राहुल गाँधी के प्रति विवादित टिप्पणी पर भाजपा नेता को लताड़ लगायी थी।

 

“कांग्रेस ने हमेशा समावेशी और सामूहिक नेतृत्व वाले मॉडल का पालन किया है। पार्टी लगातार आंतरिक चुनाव करा रही है और कोई भी इसमें भाग ले सकता है। यह सही है कि कांग्रेस लगातार चुनाव हारी है। लेकिन यह नहीं कहा जा सकता कि इसके लिए सिर्फ़ नेतृत्व ज़िम्मेदार है। नियमित अंतराल पर सीडब्ल्यूसी की बैठकें भी हो रही हैं। भाजपा का लक्ष्य कांग्रेस को ख़त्म करना है। क्योंकि उसे पता है कि उसे सिर्फ़ यही पार्टी टक्कर दे सकती है।’’

                                   अधीर रंजन चौधरी

लोकसभा में कांग्रेस दल के नेता

 

“हमारा मक़सद देश की सबसे पुरानी पार्टी कांग्रेस को बचाना है। मिलकर ही हम ऐसा कर सकते हैं। देश की जनता की कांग्रेस से ढेरों अपेक्षाएँ हैं। भाजपा जिस तरह देश का बँटबारा कर रही है, उसका बहुत नुक़सान आने वाली पीढिय़ों को झेलना होगा। पार्टी में जी-23 जैसा कोई गुट नहीं है। हम कांग्रेस को पुरानी ताक़त देना चाहते हैं। इतनी बड़ी पार्टी में कुछ मतभेद होना स्वाभाविक है। लेकिन इसका यह मतलब नहीं कि कोई पार्टी को तोडऩे की कोशिश कर रहा है। मज़बूत होकर ही हम भाजपा का मुक़ाबला कर सकते हैं।’’

                                  ग़ुलाम नबी आज़ाद

वरिष्ठ कांग्रेस नेता, (‘तहलका’ से बातचीत में)

अब नहीं चलेगी मेयर और पार्षदों की एमसीडी में

दिल्ली नगर निगम (एमसीडी) के तीनों जोनों का काम-काज आज से मेयर और पार्षदों के अधिकारों के अधीन नहीं होगा। इससे अब एमसीडी मेंं सारा काम-काज प्रशासन के हाथ में आ गया है। संसद से मुहर लगने के बाद तीनों जोनों को वैसे ही एक करने का आदेश पारित हो चुका है।
ऐसे हालत में चुने हुये पार्षदों और मेयर  के हाथ में न अब तो वित्तीय और विधायी शक्तियां बची है। एमसीडी की राजनीति के जानकारों का कहना है कि दिल्ली की राजनीति में एमसीडी में ऐसा पहला मौका आया है जब एमसीडी का कार्यकाल समाप्त हो गया है। और अगले चुनाव को लेकर अभी तक न तो एमसीडी के चुनाव को लेकर कोई आहट आ रही है।
ऐसे में जो चुनाव में लड़ने के उम्मीदवार है उनको भी इस बात का अंदेशा है कि नये परिसीमन मे कौन सी सीट आरक्षित होती है और कौन सी नहीं होती है। और तो और कौन सी महिला सीट होगी है।  अब ये भी स्पष्ट है कि 272 की जगह 250 सीटों पर चुनाव होगे। नाम न छापने की शर्त पर भाजपा के पार्षद ने बताया कि अगर तीनों जोनों को हटाकर एक ही जोन करना था तो ये काम तो पहले से ही हो सकता था। लेकिन न जाने किसने ये सलाह दी है।
अब ऐसी स्थिति में भाजपा को आप पार्टी के आरोपों का सामना करना पड़ रहा है। उनका कहना है कि आप पार्टी की हवा भर बनी थी। जमीनी स्तर पर कुछ नहीं था। भाजपा को उत्तर प्रदेश में मिली जीत का लाभ मिलता। अब एमसीडी पार्षदों की जब नहीं चलेगी तो मौजूदा हालात में मतदाता के खिसकने का कारण बन सकता है। क्योंकि प्रशासन से जुड़े जो अधिकारी वे अपने सीनियर अफसरों की बात मानेगे। न कि पार्षदों और मेयर की । ऐसे में चुनाव में जितना विलम्ब होगा उतना ही भाजपा को सियासी नुकसान होगा।