चुनाव की चुनौतियां

इस विधानसभा चुनाव की दौड़ में अब तक जो हुआ है उसे देखकर  तो यही लगता है कि उत्तराखंड उसी उत्तर प्रदेश की राह पर सरपट दौड़ने लगा है जिससे अलग होकर करीब 11 साल पहले उसका जन्म हुआ था. जोड़-तोड़, अवसरवाद, टिकट के लिए घमासान, बगावत, भितरघात जैसी चीजें यहां पहले भी होती रही हैं मगर उनका इतना विकराल स्वरूप पहले कभी नहीं देखा गया था.

हालांकि इसके बावजूद जानकार मानते हैं कि फैसला कांग्रेस और भाजपा के बीच ही होना है. वरिष्ठ पत्रकार विजेंद्र रावत बताते हैं, ‘भले ही राष्ट्रीय दलों ने उत्तराखंड को अपनी चरागाह समझा हो फिर भी तीसरे और सशक्त विकल्प की अनुपस्थिति में उत्तराखंड के मतदाताओं का मोटा रुझान हमेशा राष्ट्रीय दलों और स्थिर सरकारों के साथ रहा है.’ राज्य बनने के बाद उत्तराखंड में यह तीसरा विधानसभा चुनाव है. 2014 के लोकसभा चुनावों को ध्यान में रखते हुए उत्तराखंड में चुनाव जीतना सत्ताधारी भाजपा और प्रमुख विपक्षी पार्टी कांग्रेस के लिए काफी अहम है. दोनों पार्टियां जी तोड़ से इस कोशिश में लगी भी हैं.

देश भर में भ्रष्टाचार के विरुद्ध माहौल बना रही भाजपा ने उत्तराखंड के लोकायुक्त कानून को संसद से लेकर सड़क तक भुनाने की कोशिश की है तो कांग्रेस ने राज्य में पिछले पांच साल में हुए उस भ्रष्टाचार को जमकर मुद्दा बनाया है जो भाजपा की किरकिरी कराता रहा. 2009 में राज्य की पांचों लोकसभा सीटें जीतकर कांग्रेस का आत्मविश्वास आसमान पर है तो भाजपा को भी देश भर में भ्रष्टाचार के मुद्दे पर कांग्रेस के  विरुद्ध बने माहौल से आशा है. उधर, भाजपा सरकार को समर्थन देने के मुद्दे पर दो हिस्सों में बंटे क्षेत्रीय दल उक्रांद के दिवाकर भट्ट धड़े के दो विधायक इस बार भाजपा के चुनाव चिह्न पर मैदान में हैं. इसका दूसरा धड़ा उक्रांद (पी) जनता में पैठ बना कर तीसरा विकल्प बनने में असफल रहा है. चौथे विकल्प के रूप में ले. जनरल (सेवानिवृत्त) टीपीएस रावत की पार्टी उत्तराखंड रक्षा मोर्चा है. यह चुनाव से पहले कुछ सीटों पर अपनी जोरदार उपस्थिति तो दिखा ही रही थी, अब यह भाजपा और कांग्रेस के असंतुष्टों की शरणस्थली भी बन गई है.

कौन कितना दमदार

पार्टियों द्वारा प्रत्याशियों के चुनाव से लेकर नामांकन तक की प्रक्रिया को बारीकी से देखा जाए तो एक खास बात दिखती है. भाजपा और कांग्रेस दोनों ही दलों में ऐसा हुआ है कि कुछ समय पहले तक जिन नेताओं के बारे में यह माना जा रहा था कि टिकट बंटवारे में उनकी ही प्रमुख भूमिका रहेगी उनकी ऐन चुनाव के मौके पर बुरी गत हो गई. छह महीने पहले तक मुख्यमंत्री रहे रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ राज्य में भाजपा के एकछत्र नेता थे. तय था कि ज्यादातर सीटों पर उनकी पसंद के उम्मीदवारों को टिकट मिलेगा. पर खंडूड़ी के मुख्यमंत्री पद पर आते ही सब कुछ बदल गया. प्रदेश भाजपा में मोटे तौर पर खंडूड़ी, कोश्यारी और निशंक गुट हैं. फिलहाल कोश्यारी और खंडूड़ी एक तरफ हैं जिसकी मार निशंक गुट पर पड़ी है. भाजपा ने 11 वर्तमान विधायकों के टिकट काटे हैं,  इनमें दो मंत्री भी हैं. जिन विधायकों के टिकट कटे हैं उनमें से ज्यादातर निशंक समर्थक हैं. अपने समर्थकों को टिकट दिलवाने के मामले में हर बार की तरह इस बार भी बाजी कोश्यारी ने मारी. संगठन के धुरंधर कोश्यारी कुमाऊं के अलावा गढ़वाल में भी अपने समर्थकों के लिए टिकट झटकने में सफल रहे. खंडूड़ी ने गढ़वाल की कई सीटों पर राजनीतिक रूप से परिपक्व निशंक समर्थकों के टिकट कटा कर लंबे समय से ‘टिकट की बाट जोह रहे’ अपने समर्थकों को टिकट दिलाए.

उधर, कांग्रेस में टिकट वितरण प्रक्रिया में पार्टी की शीर्ष समितियों के सदस्य और कई टिकट बांटने का दावा कर रहे प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत को अंत में खुद के लिए भी मनपसंद सीट नहीं मिली. रुद्रप्रयाग में नामांकन करते हुए जब वे फूट-फूटकर रो रहे थे तो उनकी बेबसी और व्यथा साफ दिख रही थी. मुख्यमंत्री पद के कई दावेदारों वाली पार्टी कांग्रेस में सांसदों को अपने लोकसभा क्षेत्रों में खुलकर प्रत्याशी चुनने की छूट दी जाती रही है. कांग्रेस में अपने समर्थकों को टिकट बांटने के मामले में केंद्रीय राज्य मंत्री हरीश रावत ने बाजी मार ली. उनके लगभग 31 समर्थकों को कांग्रेस के टिकट मिले. अपने वर्तमान लोकसभा क्षेत्र हरिद्वार के अलावा पुराने लोकसभा क्षेत्र अल्मोड़ा के अधिकांश टिकट उनकी पसंद के लोगों को मिले.

जिनके बारे में थोड़े ही समय पहले तक माना जा रहा था कि टिकट बंटवारे में उनकी ही चलेगी उन नेताओं की बुरी गत हो गई

नैनीताल लोकसभा क्षेत्र में भी हरीश रावत गुट को अच्छी संख्या में टिकट मिले. पौड़ी और टिहरी में भी वे अपने कुछ समर्थकों के लिए टिकट झटकने में सफल रहे. अल्मोड़ा के सांसद प्रदीप टम्टा और नैनीताल के सांसद केसी सिंह ‘बाबा’ का झुकाव भी हरीश रावत की ओर है. सांसद विजय बहुगुणा के आठ समर्थकों और प्रदेश अध्यक्ष यशपाल आर्य के सात समर्थकों को टिकट मिला. इस मामले में सबसे अधिक किरकिरी सतपाल महाराज की हुई. उन्होंने जिन पांच प्रत्याशियों को टिकट दिलवाए उनमें से तीन की निष्ठा अलग-अलग खेमों में डोलती रही है. महाराज की सबसे बड़ी असफलता अपने खेमे के प्रमुख रणनीतिकार और प्रदेश महामंत्री मंत्री प्रसाद नैथानी और भरत सिंह चौधरी को टिकट न दिला पाना है. अब ये दोनों कांग्रेस से इस्तीफा देकर निर्दलीय चुनाव लड़ रहे हैं.

पूर्व मुख्यमंत्री और अब हाशिये में जा चुके कांग्रेसी दिग्गज नारायण दत्त तिवारी ने भी चुनाव से ऐन पहले अपने समर्थकों को निरंतर विकास समिति की ओर से प्रदेश की सभी सीटों पर लड़ाने की धमकी देकर कांग्रेस को असहज स्थिति में ला डाला. यह पार्टी भी उनके समर्थकों ने ही बनाई थी. तिवारी को समझाने के लिए प्रदेश प्रभारी और तिवारी कांग्रेस के पुराने नेता चौधरी वीरेंद्र सिंह और सतपाल महाराज की सेवाएं ली गईं. दरअसल तिवारी के ओएसडी रहे आर्येंद्र शर्मा देहरादून की सहसपुर विधानसभा सीट पर एक साल से मेहनत कर रहे थे. स्थानीय विरोध और खराब छवि के कारण टिकट पाने में असफल रह रहे आर्येंद्र को आखिरकार सहसपुर सीट से टिकट मिला. तिवारी के भतीजे मनीष तिवारी को पहले ऊधमसिंह नगर की काशीपुर विधानसभा सीट और फिर वहां से विरोध होने पर अंतिम क्षणों में गदरपुर से कांग्रेस का टिकट पकड़ा कर कांग्रेस ने तिवारी से ‘कांग्रेस का सिपाही’ होने का बयान दिलाकर राहत की सांस ली. तिवारी की देखादेखी भाजपा के बुजुर्ग नेता और पूर्व मुख्यमंत्री नित्यानंद स्वामी भी कोप भवन में चलेे गए. वे भी अपनी बेटी के लिए भाजपा का टिकट चाह रहे थे. अब उनकी बेटी ने देहरादून की कैंट विधानसभा सीट से निर्दलीय के रूप में नामांकन कराया है. उधर, बसपा के टिकट चुनाव घोषणा के तीन महीने पहले ही तय हो गए थे. पार्टी में टिकट पाने का पैमाना जिताऊ और हर दृष्टि से सामर्थ्यवान प्रत्याशी रहे.

रणछोड़ दास

उत्तराखंड में इस बार काफी ऐसे उम्मीदवार हैं जो अपनी पुरानी और परंपरागत सीटोें को छोड़कर इधर-उधर चले गए. इनमें भाजपा और कांग्रेस दोनों के कद्दावर नेता शामिल हैं. मुख्यमंत्री खंडूड़ी वर्तमान में धूमाकोट से विधायक हैं, लेकिन वे अपना क्षेत्र छोड़कर कोटद्वार से चुनाव लड़ रहे हैं. 2007 में मुख्यमंत्री बनते वक्त खंडूड़ी विधायक नहीं थे. छह महीने के भीतर उनका विधायक बनना जरूरी था. कोई भी पार्टी विधायक खंडूड़ी के लिए स्वेच्छा से विधायकी छोड़ने को राजी नहीं था. तब अप्रत्याशित रूप से कांग्रेस के धूमाकोट से विधायक और पूर्व मंत्री टीपीएस रावत ने विधानसभा से इस्तीफा देकर खंडूड़ी के लिए सीट छोड़ी थी. टीपीएस रावत कांग्रेस द्वारा हरक सिंह रावत को नेता प्रतिपक्ष बनाए जाने से नाराज थे. बाद में भाजपा ने रावत को खंडूड़ी के इस्तीफे से खाली हुई संसदीय सीट पर चुनाव लड़ाया. 2009 में लोकसभा आम चुनाव हारने के बाद पार्टी में अपनी उपेक्षा से दुखी टीपीएस ने  जुलाई, 2011 में भाजपा पर भ्रष्ट पार्टी होने का आरोप लगाते हुए  इस्तीफा दे दिया और उत्तराखंड रक्षा मोर्चा के नाम से क्षेत्रीय दल का गठन किया. नए परिसीमन में धूमाकोट विधानसभा के सारे क्षेत्र और पुरानी लैंसडाउन व बीरोंखाल के कुछ हिस्से को मिलाकर नया विधानसभा क्षेत्र लैंसडाउन बना है. इसमें 80 प्रतिशत मतदाता धूमाकोट विधानसभा के ही हैं फिर भी खंडूड़ी लैंसडाउन से चुनाव लड़ने का साहस नहीं कर पाए. वे अब मैदानी सीट कोटद्वार से भाग्य आजमा रहे हैं.

दरअसल लैंसडाउन से चुनाव लड़कर खंडूड़ी कोई जोखिम नहीं उठाना चाहते थे. भाजपा छोड़ने के बाद फिर एक बार लैंसडाउन से चुनाव लड़ने की तैयारी कर रहे टीपीएस रावत ने खंडूड़ी को खुली चुनौती दी है कि यदि वे मुख्यमंत्री और सत्ता दल द्वारा किए गए विकास कार्यों के आधार पर चुनाव लड़ रहे हैं तो लैंसडाउन से चुनाव लड़ कर देखें. वहीं खंडूड़ी कोटद्वार से उतरने के पीछे तर्क देते हैं कि कोटद्वार उनकी पुरानी लोकसभा सीट में पड़ने वाली विधानसभा सीट है और मैदानी सीट होने के कारण यहां चुनाव लड़ने में अधिक मेहनत नहीं करनी पड़ेगी.

विपक्षी नेता की चुनौती को छोड़कर विधानसभा सीट बदलने वालों में प्रतिपक्ष के नेता हरक सिंह रावत भी हैं. हरक सिंह 2002 से लेकर हाल तक लैंसडाउन विधानसभा से विधायक हैं. परिसीमन के बाद नई बनी लैंसडाउन विधानसभा में पुरानी लंैसडाउन विधानसभा के केवल 12 मतदान केंद्र आए हैं  इसलिए वे अब रुद्रप्रयाग से चुनाव लड़ेंगे. लैंसडाउन से रुद्रप्रयाग पहुंचने के बीच हरक सिंह ने कई विधानसभा सीटों को टटोला. वे पिछले तीन साल से देहरादून जिलेे की सहसपुर विधानसभा से चुनाव लड़ने का मन बना रहे थे. लेकिन सहसपुर में जमीन खरीद के एक विवादास्पद  मामले में उनकी पत्नी और उनकी एक नजदीकी महिला का नाम आने पर पिछले छह महीने से उन्होंने देहरादून की ही डोईवाला सीट से लड़ने की तैयारियां शुरू कीं. हाल ही में इस सीट पर पूर्व मुख्यमंत्री निशंक के भी चुनाव लड़ने की सुगबुगाहट बढ़ी. हरक सिंह ने निशंक को डोईवाला से चुनाव लड़ने की चुनौती भी दी. परंतु निशंक को भाजपा से टिकट मिलने के बाद हरक सिंह ने पिछले 10 दिन में नई सीट खोजनी शुरू कर दी थी. वे पौड़ी जिले की यमकेश्वर या चौबट्टाखाल सीट से लड़ना चाहते थे पर हाईकमान ने उन्हें रुद्रप्रयाग जिले की रुद्रप्रयाग विधानसभा का टिकट पकड़ा दिया जहां उनके सामने उनके ही साढू मातबर सिंह कंडारी होंगे. रुद्रप्रयाग के कांग्रेसी बाहरी प्रत्याशी होने के कारण हरक सिंह का विरोध कर रहे हैं. कांग्रेस से टिकट के दो तगड़े दावेदार अब निर्दलीय के रूप में लड़ने की तैयारी कर रहे हैं जो हरक सिंह का रास्ता रोक सकते हैं.

उम्मीदवारों को विरोधियों के अलावा अपने ही दल के बागियों और भितरघातियों से भी भिड़ना है

भाजपा के पूर्व मुख्यमंत्री रमेश पोखरियाल ‘निशंक’ भी पौड़ी जिले की अपनी परंपरागत सीट छोड़कर राजधानी देहरादून की डोईवाला सीट से चुनाव लड़ रहे हैं. परंपरागत सीट और गृह जनपद छोड़कर मैदान में उतरने के पीछे वे तर्क देते हैं, ‘राष्ट्रीय उपाध्यक्ष होने के कारण मुझे अन्य राज्यों और प्रदेश भर में भी चुनाव प्रचार में जाना है. इसलिए हाईकमान से मैदानी जिले की सीट मांगी.’ दूसरी वजह वे हरक सिंह की चुनौती को भी बताते हैं. निशंक कहते हैं, ‘नेता प्रतिपक्ष मुझे चुनौती दे कर खुद रण-भूमि छोड़कर चले गए हैं.’

गढ़वाल के सांसद सतपाल महाराज की पत्नी और पूर्व राज्य मंत्री अमृता रावत दो बार पौड़ी जिले की बीरोंखाल से विधायक थीं. वे भी अपना परंपरागत चुनाव क्षेत्र छोड़कर नैनीताल जिले की मैदानी सीट रामनगर से लड़ रही हैं. रामनगर विधानसभा सीट उनके पति सतपाल महाराज की संसदीय सीट में पड़ती है.

उधर, कांग्रेस अध्यक्ष यशपाल आर्य अपनी पुरानी नैनीताल की मुक्तेश्वर सीट को छोड़कर  ऊधमसिंहनगर जिले की बाजपुर सीट से चुनाव लड़ेंगे. अनुसूचित जाति के आर्य बाजपुर से चुनाव लड़ना मजबूरी बताते हैं. उनकी मुक्तेश्वर सीट हाल के परिसीमन के बाद अनारक्षित हो गई है. वे कहते हैं, ‘बाजपुर मेरे पुराने क्षेत्र खटीमा का हिस्सा था, इसलिए हाईकमान ने मुझे यहां से लड़ने का आदेश दिया है.’

इसी कड़ी में एक और नाम नैनीताल की हल्द्वानी सीट को छोड़कर कालाढ़ूंगी से चुनाव लड़ रहे मंत्री वंशीधर भगत का भी है. पिछले चुनावों में बदरीनाथ से चुनाव हारने के बाद भी कर्णप्रयाग से टिकट पाने में सफल महाराज समर्थक कांग्रेसी नेता अनुसुया प्रसाद मैखुरी भी इस सूची में हैं. देहरादून की राजपुर सीट आरक्षित होने पर निशंक के मुकाबले डोईवाला से चुनाव लड़ रहे पूर्व मंत्री हीरा सिंह बिष्ट हैं. बिष्ट रायपुर से टिकट मांग रहे थे, लेकिन उन्हें डोईवाला का टिकट पकड़ा दिया गया. मैदानी सीट ऋषिकेश से पिछला चुनाव हारे पूर्व कांग्रेसी मंत्री शूरवीर सिंह सजवाण इस बार फिर अपनी पहाड़ की पुरानी सीट देवप्रयाग से कांग्रेस के टिकट पर लड़ रहे हैं.

आया राम-गया राम

पांच साल तक भाजपा सरकार में सत्ता सुख लेने वाले मंत्री राजेंद्र भंडारी ने उत्तराखंड में आया राम-गया राम की नई संस्कृति शुरू की है. चमोली जिले की नंदप्रयाग सीट से पिछला चुनाव निर्दलीय लड़े भंडारी को मुख्यमंत्री खंडूड़ी भाजपा के टिकट पर चुनाव लड़वाना चाहते थे. परंतु हवा का रुख भांप कर ऐन मौके पर भंडारी ने खंडूड़ी को झटका देकर सतपाल महाराज की उंगली पकड़ कर कांग्रेस में प्रवेश किया. पहले कभी कांग्रेसी रहे भंडारी के कांग्रेस में आने का चमोली जिले के कांग्रेसियों ने जमकर विरोध किया पर ‘महाराज के जोर’ के सामने उनकी एक नहीं चली. भंडारी कांग्रेस में आने को ‘घर वापसी’ बता रहे हैं. तो उनके आने से असंतुष्ट स्थानीय कांग्रेसी उन्हें उत्तराखंड का ‘बाबू राम कुशवाहा’ घोषित करने की हर कोशिश कर रहे हैं.
भंडारी के कांग्रेस में आने का जवाब भाजपा ने हल्द्वानी की नगर पालिका अध्यक्ष व यशपाल आर्य की समर्थक रेणु अधिकारी और हरिद्वार की पूर्व नगर पालिका अध्यक्ष बरखा रानी को पार्टी में शामिल करके दिया. रेणु को भाजपा ने हल्द्वानी से कांग्रेस की पूर्व मंत्री इंदिरा हृदयेश के मुकाबले में मैदान में उतारा है. भाजपा के टिकट पर टिहरी लोकसभा से चुनाव लड़ चुके निशानेबाज जसपाल राणा ने भी विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कांग्रेस का दामन थाम लिया है. राणा वरिष्ठ भाजपा नेता और उत्तराखंड में भाजपा के चुनाव संयोजक राजनाथ सिंह के दामाद हैं.

असंतुष्टों का आश्रय : रक्षा मोर्चा

टीपीएस रावत, कुछ रिटायर्ड नौकरशाहों और पूर्व सैन्य अधिकारियों की पार्टी रक्षा मोर्चा इन चुनावों में दोनों राष्ट्रीय दलों से टिकट पाने में असफल उम्मीदवारों का नया ठिकाना है. टिहरी के जिला पंचायत सदस्य रतन सिंह गुनसोला ने विधानसभा चुनाव से चार महीने  पहले पार्टी छोड़ दी थी. वे अब रक्षा मोर्चा के टिकट पर टिहरी से चुनाव लड़ रहे हैं. बदरीनाथ के विधायक व वरिष्ठ भाजपा नेता रहे केदार सिंह फोनिया ने भी टिकट न मिलने पर अंतिम समय में रक्षा मोर्चे से चुनाव लड़ने का फैसला किया है. करीब तीन दशक तक राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के प्रचारक रहे राजेंद्र पंत भी देहरादून की कैंट विधानसभा सीट से मैदान में उतरे हैं जहां से भाजपा ने अपने वरिष्ठ नेता हरबंस कपूर को प्रत्याशी बनाया है. यमकेश्वर विधानसभा सीट से टिकट न मिलने पर कांग्रेस की पूर्व ब्लॉक प्रमुख और वर्ष 2007 में कांग्रेस से चुनाव लड़ चुकी रेणु बिष्ट भी रक्षा मोर्चा का दामन थाम चुकी हैं. इस सीट पर कांग्रेस की महिला प्रदेश अध्यक्ष सरोजनी कैंतुरा, कैबिनेट मंत्री विजया बड़थ्वाल व रक्षा मोर्चा की रेणु बिष्ट के सामने त्रिकोणीय मुकाबला है. साल 2007 के विधानसभा चुनाव में रेणु बिष्ट भाजपा की विजया बड़थ्वाल से 2,841 वोटों से हार गई थीं. नैनीताल की भीमताल सीट से भाजपा के सुदर्शन शाह बगावत कर चुके हैं. टिकट न मिलने से खफा शाह अब रक्षा मोर्चा के सिपाही हैं.

खेल बिगाड़ते बागी

छोटे राज्य की विधानसभाओं का आकार छोटा होने से नेताओं की राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी बढ़ गई हैं. इसलिए बड़े राजनीतिक दलों के उम्मीदवारों को प्रमुख विपक्षी दलों के अलावा अपने ही दलों के बागियों और भितरघातियों से भी भिड़ना है. प्रदेश में हर सीट पर कांग्रेस और भाजपा के बागी खड़े हैं. धनोल्टी सीट पर कांग्रेस के जोत सिंह बिष्ट ,मसूरी पर गोदावरी थापली, यमनोत्री पर महावीर सिंह रावत, गंगोत्री सीट पर सुरेश चौहान, डोईवाला पर एसपी सिंह, रुद्रप्रयाग सीट पर कांग्रेस के प्रदेश महामंत्री बीरेंद्र बिष्ट व भरत चौधरी, देवप्रयाग सीट पर प्रदेश महामंत्री प्रसाद नैथानी, कर्णप्रयाग से सुरेंद्र सिंह नेगी, बाजपुर पर राजकुमार, किच्छा में सुरेश अग्रवाल, खटीमा में राजू जोशी, कफकोट में कुंती परिहार और कालाढूंगी में महेश शर्मा कांग्रेस के प्रमुख बागी उम्मीदवारों में से हैं.

इस बार ज्यादातर कद्दावर नेता अपनी परंपरागत सीट छोड़कर दूसरी जगहों से भाग्य आजमा रहे हैं

अनुशासित मानी जाने वाली भाजपा में भी बागियों की कमी नहीं. अल्मोड़ा से पूर्व विधायक कैलाश शर्मा, काशीपुर से पूर्व विधायक राजीव अग्रवाल,  थराली से विधायक जीएल शाह, कर्णप्रयाग से विधायक अनिल नौटियाल प्रमुख बागियों में से हैं. इनके अलावा देवप्रयाग से महिपाल बुटोला, प्रतापनगर से राजेश्वर पैन्यूली आदि भाजपा के प्रमुख बागी उम्मीदवार हैं. आलाकमान के हस्तक्षेप से पूर्व मंत्री गोविंद बिष्ट, वरिष्ठ नेता मोहन सिंह गांववासी और कोटद्वार के विधायक शैलेंद्र रावत ने निर्दलीय लड़ने का विचार छोड़कर पार्टी का ही सिपाही रहने का फैसला किया है.

पिछले चुनाव में कई सीटों में इकाई के अंकों से जीत-हार हुई है. मुख्यमंत्रियों के उम्मीदवारों से लेकर टिकट पाने में असफल उम्मीदवारों के अंतर्दलीय संबंध किसी भी सीट के समीकरण बिगाड़ने के लिए काफी हैं. ऐसे में लड़ाई राजनीतिक विचारधारा की न रह कर अपने राजनीतिक समीकरणों की है. आंकडे़ गवाह हैं कि दो प्रतिशत के मत अंतर से उत्तराखंड में सरकारें बनी या बिगड़ी हैं. ऐसे में राज्य की राजनीति का भविष्य इस बार भी बागियों को मिले मत और असंतुष्टों का भितरघात तय करे तो हैरत नहीं होनी चाहिए.

2002 में हुए पहले विधानसभा चुनाव में 70 विधायकों वाली विधानसभा में 26.91 फीसदी वोट के साथ कांग्रेस ने 36 सीटें जीतकर अपने दम पर सरकार बनाई थी. उससे सिर्फ 1.10 फीसदी मतों से पीछे रहने के बाद भी भाजपा की झोली में केवल 19 सीटें आईं. 2007 में भाजपा के मतों में सात फीसदी की बढ़ोतरी हुई, लेकिन 31.90 प्रतिशत मत पाने के बाद भी उसे सामान्य बहुमत से एक कम यानी 34 विधानसभा सीटें ही मिलीं. उस चुनाव में भाजपा से 2.31 प्रतिशत कम मत पाने के बाद कांग्रेस ने 21 सीटें जीतीं. सामान्य बहुमत का आंकड़ा छूने में नाकामयाब रहने पर भाजपा ने उत्तराखंड क्रांति दल के तीन विधायकों व तीन निर्दलीयों की मदद से सरकार बनाई.

अब तक हुए दो विधानसभा चुनावों में तीसरी बड़ी पार्टी के रूप में बसपा सामने आई है. 2002 में 11.20 फीसदी मत पाकर बसपा ने सात सीटें जीतीं. ये सभी सीटें मैदानी जिलों में थीं. 2007 के चुनावों में उसका मत प्रतिशत 11.76 हो गया और सीटें बढ़कर आठ हो गईं. 2002 के चुनाव में लगभग 6.36 फीसदी मत पाने वाला क्षेत्रीय दल उक्रांद ने चार सीटें जीतीं. 2007 के चुनाव में उसके मत प्रतिशत में मामूली बढ़ोतरी हुई, लेकिन विधानसभा में उसकी एक सीट घट गई. उसके तीन प्रत्याशी ही चुनाव जीत पाए. 2002 के चुनाव में 4.02 फीसदी पाकर एक निर्दलीय जीता तो 2007 में 6.38 फीसदी मतों के साथ इनकी संख्या तीन हो गई. राज्य में सदन और सड़क पर हमेशा सत्ता और विपक्ष से बराबर दूरी बनाकर चली बसपा के मुख्य गढ़ हरिद्वार में कांग्रेस ने लोकसभा चुनावों में ही सेंध लगा दी थी. पार्टी के दो विधायक कांग्रेस पार्टी का दामन थाम चुके हैं. ऐसे में सबसे अधिक 10 विधानसभा सीटों वाले बसपा के गढ़ हरिद्वार जिले से इस बार चौंकाने वाले नतीजे आ सकते हैं.                                        l