मुश्किलों से मिसाल तक

‘झारखंड की राजधानी रांची से करीब 190 किलोमीटर दूर है सिमडेगा. वहां से तकरीबन 55 किलोमीटर पथरीले और उबड़-खाबड़ रास्ते तय करने के बाद आता है नोनगडा. वही है मेरा गांव. वहीं के ऊबड़-खाबड़ मैदान में मैंने बांस के फट्टे से हॉकी खेलना शुरू किया था. वहीं रहते हुए सारे ख्वाब देखे. अब उन्हीं ख्वाबों को पूरा करना चाहती हूं. फिलहाल एक ही सपना है- ओलंपिक में भारतीय महिला हॉकी टीम पहुंचे और कप लेकर आए.’

भारतीय महिला हॉकी टीम की नई कप्तान असुंता लकड़ा जब इस मुकाम तक पहुंचने की अपनी कहानी सुनाती हैं तो उनकी इस कहानी में संघर्ष और प्रेरणा की परछाई एक साथ दिखती है. असुंता बताती हैं, ‘हमारे बाबा किसान हैं. हमने बचपन में वे दिन भी देखे हैं जब हमारे घर में खाने के लिए चावल तक नहीं होता था. कुछ साल तो हमारे परिवारवालों ने गोंदली (एक खास किस्म का अनाज) खाकर दिन गुजारे. मुझे तो तब भी जरा भी नहीं भाता था गोंदली का स्वाद, लेकिन करती तो क्या करती! पेट जो भरना होता था.’

लेकिन मुश्किलों के वे दिन उन्हें रोक नहीं पाए. आज असुंता के कंधों पर भारतीय महिला हॉकी टीम को नई बुलंदियों पर ले जाने की जिम्मेदारी है. अपने सफर को याद करते हुए वे बताती हैं, ‘पास के ही गांव टैंनसेर में संत अन्ना बालिका उच्च विद्यालय से प्राथमिक तक पढ़ाई की. फिर रांची के बरियातू हाईस्कूल में 1997 में सातवीं कक्षा में दाखिला लिया. रांची आने का एक ही मकसद था कि वहां रहकर हॉकी के गुर सीख सकूंगी. लेकिन रांची आने के बाद भी कई मुश्किलें थीं. कई बार हॉस्टल की फीस तक चुकाने के पैसे नहीं होते थे. बाहर खेलने जाने के कारण भी पढ़ाई बाधित होती रही. घरवाले भी क्या करते? छह भाई-बहनों में पांचवें नंबर की हूं. घोर गरीबी में इतने सदस्यों का पालन-पोषण करना ही सबसे बड़ी चुनौती थी, फिर भी घरवालों ने मानसिक तौर पर हर कदम पर साथ दिया. मैं टूटी नहीं. शायद इसीलिए यहां तक पहुंच सकी हूं.’

असुंता जिस गांव से आती हैं उसके बारे में कहा जा सकता है कि हॉकी वहां की मिट्टी में बसती है. खुद असंुता अपने घर में हॉकी को करियर बनाने वाली पांचवीं खिलाड़ी हैं. उनके तीनों भाई वीरेंद्र लकड़ा, सुनील लकड़ा, विमल लकड़ा और भाभी कांति भी हॉकी खिलाड़ी रहे हैं. किस्मत से असुंता को रांची के बरियातू हाईस्कूल में ख्यातिप्राप्त नरेंद्र सिंह सैनी जैसे कोच भी मिले जिन्होंने उनकी प्रतिभा को पहचानकर उन्हें प्रोत्साहन दिया.

विमल लकड़ा बताते हैं, ‘असुंता बचपन से ही हॉकी की दीवानी थी.’ झारखंड से ही ताल्लुक रखने वाली पूर्व हॉकी खिलाड़ी और फिलहाल जूनियर हॉकी महिला टीम की चयनकर्ता सावित्री पूर्ति कहती हैं, ‘मैं असुंता को बचपन से देख रही हूं और उसमें एक अच्छे खिलाड़ी के सारे गुण हैं.’

लेकिन उत्कृष्टता तक पहुंचने की इस राह में रोड़ों की भी कमी नहीं थी. कई ऐसे मौके आए जब असुंता ने हॉकी को बाय बोलने का मन भी बना लिया. वे बताती हैं, ‘पढ़ाई के दौरान या बाद तक हम जब कभी बाहर खेलने जाते थे तो सारा खर्च हमें जेब से भरना होता था. हमारे पास पैसे नहीं होते थे. ऐसा भी कई बार हुआ कि हम रेलवे की बोगी में वॉशरूम के पास बैठकर खेलने गए. लेकिन हॉकी को लेकर जुनून था, जिद थी इसलिए कभी खेलना नहीं छोड़ा. हॉकी के कारण ही पढ़ाई भी दरकिनार कर दी.’ हालांकि असुंता ने पढ़ाई से पूरी तरह नाता नहीं तोड़ा. 2006 में कॉमनवेल्थ गेम्स खेलने के बाद उन्होंने इंटरमीडिएट की परीक्षा दी और अब वे रांची के ही गोस्सनर कॉलेज से स्नातक कर रही हैं. 2004 में उन्हें रेलवे की नौकरी मिल गई जिससे खेल के सिलसिले में आने-जाने के आर्थिक संकट से थोड़ी निजात मिल गई.

राह में रोड़ों की कमी नहीं थी. कई ऐसे मौके आए जब असुंता ने हॉकी को बाय बोलने का मन भी बना लिया था

लेकिन यह सिर्फ एक मुश्किल का अंत था. असुंता बताती हैं, ‘ नेशनल टीम में मैं भेदभाव का शिकार होती रही. एक समय ऐसे हालात बना दिए गए थे कि लगता था अब खेलना मुश्किल होगा. मैंने भी मन बना लिया कि मुझे अब खेल छोड़ देना चाहिए.’

असुंता को आदिवासी होने की सजा भी भुगतनी पड़ी. वे बताती हैं, ‘आदिवासी होने के नाते मुझे कई बार कोसा गया. रास्ते में छेड़खानी होती ही थी, कमेंट किए जाते थे, हमारे एक पूर्व कोच ने तो हद ही कर दी थी. पता नहीं मुझसे क्या खुंदक थी उन्हें. मुझसे कहते थे कि तुम्हारे जैसी बहुतों को देखा है हमने. कई बार ऐसा भी हुआ कि मैं टीम में सेलेक्ट हो गई और जाने के वक्त मेरा टिकट नहीं लिया गया. कई बार तो बिना टेस्ट के ही टीम बना ली जाती थी. मानसिक दबाव व उपेक्षा के कारण मैंने यह मन बना लिया था कि अब मुझे भारतीय टीम से नहीं खेलना चाहिए. यदि वे कोच अब भी होते तो मैं शायद टीम में नहीं होती.’

यह सब बताने के बाद लंबी और गहरी सांस लेते हुए असुंता ऊपर वाले का शुक्रिया अदा करती हैं कि उन्हें इतनी बड़ी जिम्मेदारी मिली है. वे कहती हैं, ‘मुझे उसे बखूबी निभाना है. मैं तो कैप्टन चुने जाने की सूचना मिलने पर विश्वास ही नहीं कर रही थी. मुझे लगा कि शायद मैं गलत सुन रही हूं  यह मेरे जन्मदिन यानी 20 नवंबर का अनमोल तोहफा था.’

असुंता इसकी एक वजह वर्तमान कोच को भी बताती हैं जिन्होंने उनका हौसला बढ़ाया और उन्हें खेल न छोड़ने की सलाह भी दी. वे कहती जतहैं, ‘मैंने लीग मैच में बढ़िया प्रदर्शन किया. फिर अर्जेंटीना में भी बढ़िया खेल दिखाया और जब मैं लौटकर आई तो 20 नवंबर को कोच सर ने बताया कि मैं महिला हॉकी टीम की कैप्टन चुनी गई हूं.’ असुंता आगे कहती हैं, ‘एक कोच से ही कितना कुछ बदल गया. कहां मैं पूर्व कोच की वजह से खेल छोड़ने का फैसला कर चुकी थी, कहां एक कोच की वजह से ही मैं ओलंपिक जीतने का सपना देख रही हूं.’

यह सब बताने के बाद असुंता हंसते हुए कहती हैं, ‘खैर, अब पुराने कोच वाली बात पुरानी हो गई. वैसे ही जैसे कि नौ साल की उम्र में मुर्गा टूर्नामेंट जीतने वाली बात. फिर डबल खस्सी टूर्नामेंट जीतने वाली बात. और मुर्गा-खस्सी के रास्ते 1998 में सब-जूनियर नेशनल हॉकी में बिहार का प्रतिनिधित्व करने वाली बात.’ फिर बच्चों- सी खिलखिलाकर हंसती हैं असुंता.

पुरानी बातों पर अब वे ज्यादा नहीं बोलतीं. जानती हैं कि अब वे कप्तान हैं. उनके ज्यादा बोलने से उनसे ज्यादा उनके खेल और उनके राज्य झारखंड की साख को धक्का लगेगा, जिसकी खेल की दुनिया में एक बड़ी पहचान हॉकी को लेकर ही है.  झारखंड हॉकी का हब रहा है. जयपाल सिंह, सिलवानुस डुंगडुंग, सावित्री पूर्ति, सुमेराय टेटे, पुष्पा टोपनो, एलेन समेत कई खिलाड़ी राज्य से निकलकर देश-दुनिया के स्तर पर अपना जलवा दिखाते रहे हैं. जयपाल सिंह मुंडा ओलंपिक में भारतीय हॉकी टीम का प्रतिनिधित्व कर चुके हैं तो सुमराय टेटे सीनियर भारतीय महिला हॉकी टीम की कप्तान रह चुकी हैं.

कभी नरेंद्र सिंह सैनी जैसे कोच की बदौलत झारखंड के गांवों से हॉकी की प्रतिभाएं थोक के भाव निकल रही थीं. एक समय ऐसा भी आया जब भारतीय महिला हॉकी टीम में 50 फीसदी से अधिक खिलाड़ी झारखंड की ही रहने लगीं. फिलहाल टीम में असुंता और प्रीति, दो ही खिलाड़ी झारखंड से हैं.  इसमें कुछ क्रिकेट के बुखार का हाथ है और कुछ बड़े स्तर पर पिछले कई वर्षों से लगातार होती उपेक्षा. झारखंड से हॉकी की प्रतिभाओं की जोरदार दस्तक सुनाई पड़नी बंद हो रही थी लेकिन अब असुंता ने एक ऐसी दस्तक दी है, जिससे संभावनाओं के द्वार फिर तेजी से खुलते नजर आ रहे हैं.

हालांकि चुनौतियां अब भी हैं. असुंता कहती हैं, ‘हॉकी टर्फ ग्राउंड पर खेलने का खेल है. उसमें ज्यादा स्टेमिना और प्रैक्टिस की जरूरत होती है. लेकिन हमलोगों को बमुश्किल ही उस पर प्रैक्टिस करने को मौका मिल पाता है. नेशनल गेम्स कराने के लिए झारखंड में एस्ट्रोटर्फ ग्राउंड भी बन गया है लेकिन हालत यह है कि कई बार प्रैक्टिस के दौरान मोटर खराब होने के कारण पानी नहीं रहता. ऐसे में ग्राउंड पर खेलने पर बॉल में बंपिंग ज्यादा होती है.’ वे कहती हैं कि क्रिकेट का देश दीवाना है मगर कुछ ध्यान हॉकी पर भी दिया जाए तो अकेले झारखंड की प्रतिभाएं ही इसे दुनिया के फलक पर बुलंदी तक पहुंचाने में सक्षम हैं. बगैर किसी काॅरपोरेट घराने के सहयोग के, बिना ग्लव्स, स्पाइक्स और हॉकी के स्टीक के सिर्फ बांस के फट्टे से प्रैक्टिस करके जब झारखंड के खिलाड़ी इस कदर प्रदर्शन करते रहे हैं तो सोचिए कि अगर सुविधाएं मिलेंगी तो वे क्या कमाल दिखाएंगे!

असुंता कहती तो ठीक हैं लेकिन उन्हें भी पता है कि कॉरपोरेट जगत की उपेक्षा के साथ राष्ट्रीय खेल होने के बावजूद आज यदि हॉकी हाशिये पर है तो उसमें राजनीति और खेल संघों की राजनीति की भूमिका भी कोई कम नहीं रही है. हालांकि खेल संघों और राजनीति पर नहीं बोलना चाहतीं. वे कहती हैं, ‘यह वक्त सिर्फ अपने खेल पर ध्यान देने का है. मैं ओलंपिक के लिए क्वालीफाई करने पर ही सारा ध्यान लगाना चाहती हूं. मुझे ओलंपिक गोल्ड लाना है..’

उसके बाद की प्राथमिकताएं भी तय हैं. वे बताती हैं, ‘इस लक्ष्य को भेदने के बाद फिर वापस अपने गांव आऊंगी. वहां हॉकी अकादमी खोलना चाहती हूं. सरकार से आरजू करूंगी कि प्रशिक्षण कैंप लगे. कोशिश करूंगी कि अल्बर्ट एक्का, बिरसा मुंडा, जयपाल सिंह मुंडा जैसे टूर्नामेंट, जो बंद हो चुके हैं, फिर शुरू हों. लेकिन यह सब होगा ओलंपिक का लक्ष्य प्राप्त करने के बाद. फिलहाल सारा ध्यान वहीं है.’ ओलंपिक-ओलंपिक की रट इतनी बार लगाती हैं असुंता और इतने उत्साह और जोश से कि सच में उनकी बातों से लगता है कि इस बार ओलंपिक गोल्ड वे लेकर आ ही रही हैं.

विदा लेते वक्त रुकवाकर असुंता कहती हैं, ‘आपने मेरे बाबा और मां का नाम नहीं पूछा. मेरे बाबा मारकुस लकड़ा हैं और मां सिलवंती लकड़ा. मेरी चर्चा हो तो उनकी चर्चा जरूर कीजिएगा. उन्होंने मुझे बनाने में खुद को खपा दिया है. मैं जो हूं, उनकी वजह से ही हूं..’

मारकुस लकड़ा को अपनी बेटी पर गर्व है.  वे कहते हैं, ‘मैं चाहता हूं कि असुंता ओलंपिक में अच्छा खेले और देश को हॉकी में ओलंपिक विजेता बनाए. वह मेहनती है और मुझे लगता है कि वह टीम के साथ जीत हासिल करेगी. इसके अलावा जैसे वह आगे बढ़ी है, वैसे ही गांव के अन्य लोगों को भी सिखाए और आगे बढ़ाए.’ सीनियर भारतीय महिला हॉकी टीम की पूर्व कप्तान व वर्तमान में टीम की सहकोच सुमराय टेटे कहती हैं,  ‘अगर उसने थोड़ी और कोशिश की तो वह इस खेल के बेहतरीन खिलाड़ियों में से एक होगी.’