हमने क्या खोया हमने क्या पाया

 

क्या आपने कभी ध्यान दिया है कि बीते दो-तीन दशकों के भीतर हमारे घरों के स्थापत्य कितने बदल गए हैं?  क्या आपको अपने छोटे-छोटे शहरों और कस्बों के वे बड़े-बड़े घर याद आते हैं जिनमें सामने खुला बरामदा होता था, भीतर आंगन और कुआं और फिर पिछवाड़े में अमरूद, अनार, जामुन और मुनगे तक के पेड़? बहुत बचपन में जब पहली बार मैंने बड़े शहरों के ऐसे घरों के बारे में सुना था जिनमें कमरों के साथ ही बाथरूम जुड़ा होता है तो अजीब सी हैरानी हुई थी. फिर जब यह जानकारी मिली कि लोगों को घर के साथ जमीन नहीं मिलती- यानी नीचे वाला हिस्सा किसी और का हो सकता है, ऊपर वाला किसी और का, तो यह हैरानी कुछ और बढ़ गई.

आज 30 साल बाद मैं ऐसे ही फ्लैट में सहजता से रहता हूं जिसकी कल्पना ने कभी मुझे हैरान किया था. कुछ साल पहले जब मेरा बेटा छोटा था तो उसे रांची ले जाकर मैंने कुआं दिखाया. वह जमीन के इतने भीतर छलछलाता पानी देखकर कुतूहल से भरा हुआ था. मैंने उसे बताया कि गर्मियों की सुबह इस कुएं का पानी ठंडा हुआ करता है और सर्दियों की सुबह गर्म- छतों पर लगी हमारी टंकियों से उलट, जहां गर्मी में पानी बिल्कुल खौल जाता है और सर्दी में वह बिल्कुल ठंडा होता है.

इस लेख का मकसद कोई नॉस्टैल्जिया, कोई स्मृतिजीवी उछाह- पैदा करना नहीं है, बस इस तरफ ध्यान खींचना है कि हमारी बेखबरी में हमारा पूरा शहरी जीवन लगभग बदल चुका है. वे आंगन नहीं बचे, जिन्हें किसी ने हार्ट ऑफ द हाउस- घर का हृदय- कहा था. इन आंगनों में दोपहर को अनाज सुखाया जाता था, तार पर कपड़े टांगे जाते थे और सर्दियों की दोपहर और गर्मियों की शाम में परिवार एक साथ बैठा करता था. आंगन के चारों तरफ कमरे होते थे, अलग-सा कोई ड्राइंगरूम या बेडरूम नहीं होता था, जिसमें मेहमान अपनी हैसियत या आत्मीयता के हिसाब से दाखिल हो सकें. घरों के पीछे कोई न कोई ‘बारी’- जो कहीं बाड़ी भी कही जाती है- हुआ करती थी जिसमें कई तरह के पेड़ होते थे. इन पेड़ों पर चढ़ना भी एक कौशल का काम था और जो फुनगी के जितने करीब पहुंचता था वह उतना ही तेज माना जाता था. लोगों को पेड़ों की पहचान बची हुई थी. अब हालत यह है कि पेड़ों से भी हमारा रिश्ता टूटा हुआ है- हमारे लिए सब पेड़ हैं- उलझे हुए हरे धूसर रंग की एक मौजूदगी, जिन्हें बच्चे आम, अमरूद, अनार, इमली, नीम, बेल, पीपल, बड़, मुनगा, सखुआ जैसे नामों से नहीं पहचान पाते.

रसोईघर भी पूरी तरह बदल चुका है. वहां अब डेकची या देगची, लोटे, मथनी, फूल और कांसे की भारी-भरकम थालियों की जगह नहीं है. अब स्टील की नफीस प्लेटें हैं, प्रेशर कुकर है, तरह-तरह के टोस्टर हैं और माइक्रोवेव ओवन भी है. कभी रसोईघर के लिए निहायत जरूरी माना जाने वाला घड़ा गायब हो चुका है और उसकी जगह फ्रिज ने ले ली है. सबसे बड़ा बदलाव यह है कि पुराने चूल्हे खत्म हो गए हैं, उनकी जगह गैस बर्नर और गैस सिलिंडर या पाइपलाइन हैं.

हमारा समय एक विस्थापित समय है. अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ. हमारी ज्यादातर ऊर्जा खुद को इस समय के मुताबिक ढालने में जा रही है

फिर दुहराऊं कि इन पुरानी चीजों की याद दिलाने का मकसद यह बताना नहीं है कि जो पुराना था वह अच्छा था और जो नया है वह बुरा है. सच इसका उल्टा भी है. हमारी समृद्धि ने हमारी सहूलियत बढ़ाई है. गैस चूल्हा आया तो महिलाओं के लिए मुंह अंधेरे उठकर गीली आंखों से सीली लकड़ियों को फूंक मारकर जलाने की मजबूरी खत्म हो गई. रघुवीर सहाय की मशहूर कविता का बिंब जैसे बेकार हो गया- ‘पढ़िए गीता, बनिए सीता, फिर इन सबमें में लगा पलीता, किसी मूर्ख की हो परिणीता, निज घर बार बसाइए. होंय कंटीली अंखियां गीली, लकड़ी सीली, तबीयत ढीली, घर की सबसे बड़ी पतीली भर कर भात पसाइए.‘ अब चावल प्रेशर कुकर में पकता है जिसकी सीटी बता देती है कि खाना तैयार है. फ्रिज ने बार-बार दूध औटाने की मजबूरी खत्म कर दी है और बचपन में जो बर्फ हमें किसी अचरज की तरह दिखती और मिलती थी वह अब बड़ी आसानी से सुलभ है. सिलबट्टे की जगह आ गई मिक्सी की वजह से कई तरह के शेक संभव होने लगे हैं और माइक्रोवेव ओवन के साथ मिलने वाली रेसिपी बुक्स ने डाइनिंग टेबल पर कांटिनेंटल डिशेज की नई गुंजाइश पैदा की है जो हमारे पुराने रसोईघरों में कल्पनातीत थी.

बेशक, इन नए बनते घरों की अपनी सहूलियतें हैं- लोगों को अपना-अपना ‘स्पेस’ मिल रहा है. बच्चे कम हैं और उनके पास सहूलियतें ज्यादा हैं. पहले एक ही मेज पर एक ही टेबल लैंप के नीचे सिर झुकाकर तीन-चार बच्चों को पढ़ना पड़ता था और कई घरों में तो पढ़ने की मेजें भी अलग से नहीं हुआ करती थीं, वहां बिस्तर ही मेज का काम करती थी. अब सबकी अपनी मेज है, और मेज के साथ पूरी व्यवस्था जुड़ी हुई है. इस ढंग से देखें तो जो लोग पुराने दिनों, पुराने घरों, पुरानी रसोई को याद करते हैं वे भावुक स्मृतिजीवी लोग हैं, वे तरक्की को कोसने वाले पोंगापंथी हैं और हर बदलाव को शक की निगाह से देखने वाले परंपराभीरू हैं.

मुश्किल यह है कि यह कह कर हम काम चला नहीं पाते. एक तरफ हम अपना-अपना ‘स्पेस’ बना रहे हैं और दूसरी तरफ पा रहे हैं कि घुटन बढ़ती जा रही है. यह घुटन किस चीज की है?  पारिवारिक या सामाजिक सामूहिकता की जगह जिस निजता का हमने वरण किया था उससे वह एकांत हासिल नहीं होता जिससे सुकून का एहसास हो, उससे अकेलापन मिलता है जो असुरक्षा बोध देता है.

दूसरी बात यह कि हमने जो असबाब जुटा लिया है वह हमारे काम नहीं आ रहा, हमारी जरूरत के मुताबिक नहीं ढल रहा, हम उसके काम आ रहे हैं, उसकी जरूरत के मुताबिक ढल रहे हैं. यह ज्यादातर लोगों का अनुभव है कि जब पहली बार उन्होंने फ्रिज में रखा पानी पिया तो उसके बेस्वाद ठंडेपन ने उन्हें कुछ मायूस किया. इसके मुकाबले सुराहियों और घड़ों में रखा पानी कितना शीतल, मीठा और मिट्टी की खुशबू देने वाला हुआ करता था, अब यह ठीक से याद भी नहीं है. जाड़ों में नौबत यह आ जाती है कि फ्रिज डब्बा हो जाता है और दूध-पानी, फल-सब्जी, आटा, सब मौसम की सहजता के साथ बाहर पड़े रहते हैं.

ऐसे उदाहरण ढेर सारे हैं. रसोईघर की पुरानी जानी-पहचानी खुशबू नहीं बची है. वहां दादी और मां के जमाने में जितनी तरह के व्यंजन चले आते थे, अब नहीं दिखते. सब्ज़ी बनाने की कई विधियां लगता है खत्म होती जा रही हैं. जो नया रेसिपी कल्चर पैदा हो रहा है उसमें उत्सवप्रिय और आयोजनबद्ध उत्साह तो है, वह दैनिक सहजता नहीं है जिसमें कई तरह के मीठे-नमकीन-खट्टे व्यंजनों में खाने की थाली छोटी पड़ जाती थी. फिलहाल यहां मैं सिर्फ स्वाद की बात कर रहा हूं- स्वास्थ्य या साधनों का पक्ष इसमें शामिल नहीं है- क्योंकि मैं यह समझने की कोशिश कर रहा हूं कि क्या यह जीवन हमारे लिए ज्यादा उल्लास, ज्यादा सहजता लेकर आया है, या इसने हमारी मुश्किलें बढ़ाई हैं, हमारा आस्वाद घटाया है.

बेशक, साधनों के हिसाब से कोई कमी आज नहीं है- उल्टे वे बढ़ गए हैं. बच्चों के हाथों में आज इतने और इतनी तरह के खिलौने हैं जिनकी हम कल्पना तक नहीं करते थे. लेकिन अपने सारे अभावों के बावजूद लट्टू नचाते, पतंग उड़ाते, गिल्ली-डंडा से लेकर फुटबॉल, क्रिकेट तक खेलते हुए हमारा जो बचपन कटा, क्या वह आज के मुकाबले कम रचनात्मक या उल्लसित था?  पहले घरों में साइकिल आम होती थी, स्कूटर भी बड़ी बात मानी जाती थी, अब छोटी कार छोटी बात मानी जाती है. लेकिन इन गाड़ियों से हम कहां जाते हैं? ज्यादातर ऐसे दफ्तरों में जिनकी ऊब, यंत्रणा और एकरसता को कोसने में हमारा काफी वक्त जाता है या फिर ऐसे चमचमाते बाजारों में, जहां कोई सामान ख़रीद कर, जहां कुछ खाकर हम अपने भीतर का खालीपन भरने की कोशिश करते हैं.

क्या यह जीवन हमारे लिए ज्यादा उल्लास, ज्यादा सहजता लेकर आया है, या इसने हमारी मुश्किलें बढ़ाई हैं?

लोगों से मिलना-जुलना कम हुआ है. सिर्फ इसलिए नहीं कि हमारे पास समय नहीं है- अगर समय नहीं होता तो हम बाजार और रेस्टोरेंट और सिनेमाघरों में क्यों होते- बल्कि इसलिए कि हमारे पास सरोकार नहीं बचे हैं. न हम किसी को बुलाना चाहते हैं न किसी के घर जाना चाहते हैं- क्योंकि ऐसा आना-जाना हमें अपना और उसका दोनों का वक्त बर्बाद करने जैसा लगता है. आखिर हम एक-दूसरे के बारे में एक-दूसरे को जानकर और बता कर करेंगे भी क्या, क्योंकि वह दूसरा हमारा कोई लगता तो नहीं.

दरअसल कायदे से सोचें तो हमारा समय एक विस्थापित- अपनी जड़ों से उखड़ा हुआ- समय है. हमारी ज्यादातर ऊर्जा खुद को इस समय के मुताबिक ढालने में जा रही है. हम पुराने मकानों को बेच कर छोटे फ्लैट ले रहे हैं, हम घड़ा छोड़कर फ्रिज ले रहे हैं, हम कुओं और आंगनों की जगह बालकनी और गराज जुटा रहे हैं, हम अपनी भाषा छोड़ रहे हैं, अपने गीत-नृत्य, अपनी कलाएं सब भूल रहे हैं- इस भयानक शून्य में हिंदी की औसत फिल्में और टीवी चैनल हमारा इकलौता सहारा रह गए हैं. जीवन बस हमारे लिए शैली है, दृष्टि नहीं.

मैंने यह सब किसी निर्णायक ढंग से नहीं लिखा है. इस दौर में हमने जो पाया है, वह तो बहुत स्पष्ट है. यह लेख इस बात का हिसाब लगाने की कोशिश है कि जो कुछ हमने हासिल किया है उसकी किस-किस रूप में कैसी-कैसी कीमत चुकाई है क्योंकि कोई चीज़ मुफ़्त में नहीं मिलती- कम से कम इस नई अर्थव्यवस्था में तो नहीं ही. अगर सारी तरक्की के बावजूद कोई तनाव हमें तोड़ रहा है, सारी संपन्नता के बावजूद कोई कमी हमें साल रही है तो उसका हिसाब भी लगाना जरूरी है. हो सकता है, यह हिसाब पक्का न हो, या आधा-अधूरा हो लेकिन इसके बारे में सोचिए.