‘ऐसी कोई किताब नहीं जहां जिंदगी के सारे सवालों के जवाब लिखे हों’

गुलजार के बारे में कहा जाता है कि उनके शब्दों पर उनकी मुहर लगी होती है. इस चर्चित शायर, गीतकार और फिल्मकार का कहानी संग्रह ‘ड्योढ़ी’ हाल ही में वाणी प्रकाशन से छपकर आया है. स्वतंत्र मिश्र की उनसे बातचीतः

आपने  ‘ड्योढ़ी’  सलीम आरिफ को समर्पित की है. उनके बारे में कुछ बताएं.

 सलीम आरिफ थियेटर से जुड़े रहे हैं. वे मेरे साथ फिल्मों में सहायक रहे हैं. ‘गालिब’ में भी वे मेरे साथ रहे. नेशनल स्कूल ऑफ ड्रामा से वे गोल्ड मेडलिस्ट हैं. बड़े काबिल आदमी हैं. दिल्ली में उनके नाटकों का फेस्टिवल हो चुका है. मेरी कहानी का उन्होंने कोलाज बनाकर नाटक किया. वे जब मेरे पास इस योजना को लेकर आए तब उनकी बात मेरे समझ में नहीं आ रही थी. वे नाटक में मेरी कहानी, कविता और नज्म को शामिल करना चाहते थे. वे दंगों को लेकर मेरी लिखी कहानियों और कविताओं को लेकर कोलाज तैयार करना चाहते थे. मैंने उनसे कहा कि भाई नाटक में मेरी कहानी होगी तो फिर कविता क्यों और अगर कविताएं सुनेंगे तो फिर कहानी क्यों? वे मुस्कुराते रहे. कहते रहे कि आपने इस विषय पर बहुत लिखा है. विभाजन से लेकर गुजरात दंगों को उन्होंने नाटक में समेटा. मैंने सन 1947 के विभाजन से लेकर अब तक हुए दंगों पर हमेशा रिएक्ट किया है. रिएक्ट करने के साथ कुछ लिखता भी रहा हूं. हालांकि जब नाटक देखा तो मैं दंग रह गया. मेरे रिएक्शन हर बार किताब में ही रह जाते थे, लेकिन इस बार जिंदा रिएक्शन लोगों के सामने आया. लोगों ने उस पर रिएक्ट भी किया. मैं समझता हूं कि वे इसके हकदार हैं.

आपने कुछ इस अंदाज में  ‘सलीम आरिफ और सलीम आरिफ और सलीम आरिफ के नाम!’  किताब उन्हें समर्पित की है?

 हां. यह कहने का एक अंदाज है. तीनों एक ही आदमी के नाम हैं. ऐसा नहीं है कि ये तीन अलग-अलग लोग हैं. कबूल करने का एक तरीका है. बांग्ला में भी ‘तीन सोत्ती’ का चलन है. ‘तीन सोत्ती’ का मतलब तीन बार कहो. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. मैं तुम्हें प्यार करता हूं. तीन बार नहीं कहेंगे तो कोई यकीन करने को तैयार नहीं होगा.

एक इंटरव्यू में आपने कहा था कि आपको बांग्ला जुबान से बेहद लगाव है. क्या इस लगाव की वजह सचिन देव बर्मन, हृषिकेष दा आदि के साथ काम करना तो नहीं है?

नहीं, ऐसा नहीं है. बांग्ला देश के लोगों की एक जुबान है. मैं बंगालियों से स्कूल के दिनों से मिलता रहा हूं. स्कूल से ही बांग्ला अच्छी लगती है. बांग्ला पढ़ी है. मैंने सब कुछ फिल्मों से ही नहीं सीखा है. फिल्मों के अलावा भी मेरी जिंदगी में बहुत कुछ है. 

 

‘ड्योढ़ी’  में भारत-पाक के विभाजन का दर्द बयान किया गया है. विभाजन की टीस आपके भी दिल में गहरे उतरी हुई है.

मेरी कहानियों में विभाजन का दर्द बार-बार दिखता है. उसकी वजह यह है कि भारत-पाकिस्तान विभाजन के समय में मैं कोई ग्यारह-बारह साल का रहा होऊंगा. इस उम्र के जख्म जिंदगी भर नहीं जाते हैं. इस मामले में मैं अपने पिता जी का बड़ा शुक्रगुजार हूं. वे बड़े धर्मनिरपेक्ष आदमी थे. वर्ना मैंने लोगों का कत्ल-ए-आम होते देखा. लोगों को उजड़ते देखा. ऐसे हालात में आदमी कट्टरता की तरफ बढ़ सकता है. मेरे पिता जी बहुत पढ़े-लिखे नहीं थे. लेकिन जिंदगी की तालीम बहुत बड़ी होती है. उन्होंने मुझे पूर्वाग्रही नहीं होने दिया. मां-बाप की प्रवृत्तियों का असर उनके बच्चों पर बहुत गहरा पड़ता है. ऐसे हादसे आपके भीतर पलते-पनपते रहते हैं. वे आपको परेशान करते हैं. उसे अभिव्यक्त करने के लिए कोई-न-कोई साधन चाहिए होता है. मेरी अभिव्यक्ति का जरिया लिखना हो गया और विभाजन की टीस इसके जरिए बाहर आती रही.

संग्रह में बदहवासी का जिक्र है. अपनी एक कविता में भी आप कहते हैं कि एक जिंदगी नौवें आसमान में और दूसरी जिंदगी दलदल में है. गरीबी कम होने की बजाय बढ़ी है.

जी हां, ऐसा हुआ है. लेकिन कहानी की कथावस्तु यह नहीं है. अन्ना हजारे पर जब कहानी लिखूंगा तब इस बारे में कहूंगा. मेरी कहानियां गरीब लोगों के संघर्ष के बारे में हैं. मैं इस जिंदगी के अनुभवों से होकर गुजरा हूं. मैंने उन्हें महसूस किया है. ऐसा नहीं है कि मैंने सिर्फ नोट्स लेकर कहानियां लिखी हैं. इस संग्रह में मेरी ‘शाप’, ‘झड़ी’ और ‘बास’ गरीबी की कहानियां नहीं हंै. गरीबी में लोग कैसे जिंदा रहते हैं, उस बारे में ये कहानियां हैं. झोपड़पट्टी तोड़कर पक्के मकान बना दिए गए हैं. लेकिन वहां भी इन कहानियों के पात्र जिंदगी ढूंढ़ते हैं. वे वहां भी फलियां और करेले ढूंढ़ते हैं. वे इस बात को लेकर चिंतित हैं कि यहां मंजी (खटिया) नहीं बिछाई जा सकती है. समझने की बात यह है कि जिंदगी महल और बिल्डिंग में नहीं है. खोई हुई चीज को जिंदगी ढूंढ़ती रहती है. ये आर्थिक तंगी के सवाल नहीं हैं. यहां तो हर हाल में जिंदगी पाने की ख्वाहिश है. ऐसा नहीं है कि किसी के दोनों पैर कट गए हों और पटि्टयां बंधी हों और रेहड़ी पर चलता हो तो वह कभी हंसा नहीं होगा. वे रोते भी हैं, हंसते भी हैं और गालियां भी देते हैं.

कहानी  ‘सारथी’  में मुख्य किरदार मारुति है. उसकी माली हालत बहुत खराब है. काम के बाद घर लौटने पर अपने बेटे को चोटिल देख कहता है –  ‘साला रोज पिट के आता है. घाटी कहीं का. मराठीयांचि नाक कापली.’  ऐसी प्रतिक्रिया का क्या मतलब?

मराठों की नाक कटा दी. आप पाएंगे सरदार भी अपने बच्चों से ऐसे ही कहते हैं. ‘ओए मार खाके आ गया. सरदारां दी बेसती करा दीत्ती.’ लोग ऐसे ही रिएक्ट करते हैं. दूसरी ओर बीवी मना करती है और कहती है कि क्यों उलटा-सीधा सिखाता है. बाप बेटे से कहता है कि चल छोड़. कौन सा तुझे तुकाराम बनना है. मालिश कर. मार खाके आ जाता है. इसमें कोई दर्शन मत ढूंढि़ए. यह जीवन में घटने वाली सामान्य बातें हैं. ऐसा थोड़े ही होता है कि हर समय आप किताब देखकर जवाब ढूंढ़ते हैं. शिव कुमार रे की एक बहुत ही खूबसूरत नज्म है – ‘कि मुझे वह किताब हाथ लग गई जिसमें जिंदगी के हर सवाल का जवाब लिखा हो.’ वे लिखते हैं कि मुझे जब भी मुश्किल पेश आती है तब मैं उसमें जवाब ढूंढ़ लेता हूं. मुश्किल तब हुई जब मेरे पीछे एक पागल सांड लग गया और मैं किताब के पन्ने पलटता रहा. जिंदगी एक सांड की तरह है जो पता नहीं कहां सींग मार बैठे. 

‘तलाश’  कहानी आपने हुमरा कुरैशी को समर्पित की है. हुमरा कौन हैं?

हुमरा कुरैशी एक वरिष्ठ पत्रकार हैं. उन्होंने कश्मीर के बारे में बहुत लिखा है. वे अंग्रेजी अखबारों में सालों से कॉलम लिखती रही हैं. कश्मीर के बारे में अंग्रेजी में उनकी एक बहुत अच्छी किताब (कश्मीरः द अनटोल्ड स्टोरी) भी है. उनकी कई किताबें छप चुकी हैं. कश्मीर को लेकर मेरी उनसे बातचीत होती रही है. वे बहुत अच्छा लिखती हैं.

कहानी  ‘ओवर’  में राजस्थान के  ‘पोचीना’  गांव का जिक्र है. एक कमरा है जिसमें एक सिपाही बंदूक लिए खड़ा है. आप लिखते हैं कि  ‘खामख्वाह’  खड़ा है. ऐसा क्यों कहते हैं?

सिपाही की ड्यूटी है. हर चार घंटे में बदलती रहती है. बोरे वगैरह रखे हुए हैं. सिपाही पाकिस्तान की ओर बंदूक ताने खड़ा है. ड्यूटी पर जो आदमी है वही सिर्फ वरदी में है. बाकी सब कच्छे और बनियान में घूमते रहते हैं. यहां से वहां तक कोई नहीं दिखता है. लेकिन उसकी ड्यूटी है कि बस नजर रखो. पता नहीं कहां से कौन आ जाए? इधर और उधर दोनों ओर खालीपन पसरा हुआ है. दोनों ओर एक-एक पत्थर लगा दिए गए और एक ओर भारत, दूसरी ओर पाकिस्तान लिखा है. न कोई तार लगी है. कोई लकीर भी नहीं है. कोई दीवार नहीं है. यहां से वहां तक सब कुछ साफ दिखाई दे रहा है. फिर दीवार खड़ी करके उसमें छेद बनाकर सिपाही के खड़े रहने की कोई वजह बनती है? जाहिर-सी बात है कि जिसकी वजह नहीं बनती है उसको हम खामख्वाह ही कहते हैं. बॉर्डर पर बिजली नहीं है. रात भर फौजी लालटेन में पहरा देते हैं. झगड़े कोई नहीं हैं. बस सियासतदानों के झगड़े चलते रहते हैं. इधर का सैनिक उधर जाता है तब एक गोली हवा में चलाई जाती है. उधर से कोई आता है तो दो गोली चलाता है. इशारों में बातचीत होती है. महीने में दोनों ओर के फौजियों के बीच मीटिंग होती है. इस मीटिंग में उनके बीच जानवर की आपसी-वापसी होती है. रात में वे एक साथ बैठकर शराब पीते हैं. बार्डर के दोनों पार एक से गाने गाए जाते हैं. वे आपस में रोटियां भी बांटते हैं. वे बहुत दिलचस्प तरीके से जीते हैं. लोग, लोगों की तरह जीना चाहते हैं. उनके एक तरह के गाने हैं. खाने भी एक तरह के हैं. मैं समझता हूं कि वे जिस तरह जीते हैं, वह बहुत ही खूबसूरत है. हम अखबारों में रोज पढ़ते हैं कि वहां गोलियां चल रही हैं. उनकी सेना हमारी सीमा में घुस आई. वगैरह, वगैरह. लेकिन आप इन सबके बीच झांककर देखिए कि वे कितना खूबसूरत जीवन जीते हैं. जिंदगी ने वहां अपनी खूबसूरती बनाई हुई है. बाकी सुर्खियां हैं. मेरी भूमिका लेखक होने के नाते यह बनती है कि मैं अपने पाठकों को उन खूबसूरत जिंदगियों के बारे में बताऊं.

आपने बहुत सारे फॉर्मेटों पर काम किया है. गाने लिखे. फिल्म की पटकथा लिखी. नज्म लिखे. इस संग्रह में आप कहानियाें के साथ आए हैं. ये सच्ची मालूम पड़ती हैं.

जी हां. संग्रह की सारी कहानियां मेरे अनुभव की कहानियां हैं. पश्चिमी देशों में ‘बायोग्राफिकल नॉवेल’ लिखने का चलन बहुत ज्यादा रहा है. मिसाल के तौर पर, ‘लस्ट फॉर लाइफ’, ‘एगॉनी ऐंड एक्सटेसी’, ‘सेलर ऑन द हॉर्स बैक’. बायोग्राफिकल नॉवेल में तथ्य तो होते हैं लेकिन उसकी तस्वीर भी बना दी जाती है. मैंने मंजरकशी करने की कोशिश की है. मैं समझता हूं कि अगर बायोग्राफिकल नॉवेल लिखे जा सकते हैं तब बायोग्राफिकल शॉर्ट स्टोरीज क्यों नहीं लिखी जा सकती हैं? इससे पहले भी मैंने माइकल एजेंलो पर इस तरह की एक कहानी लिखी थी जो सीबीएससी के पाठ्यक्रम में लगी हुई है.