ब्रिटिश राज की वापसी

कंपनी के तीन दर्जन से अधिक लोगों ने मेरे घर पर आकर नारेबाजी की, शीशा व दरवाजा तोड़ा और मुझे धमकी दी कि बांध का विरोध करना बंद कर दो नहीं तो तुम्हें जिंदा जला देंगे.

बीते 22 जून को जल पुरुष राजेन्द्र सिंह एवं स्वामी ज्ञानस्वरूप सानंद उत्तराखंड के श्रीनगर शहर के पास कलियासौड़ में गंगा तट पर स्थित सिद्धपीठ धारी देवी के दर्शनों को पहुंचे. यह मंदिर जीवीके कंपनी द्वारा निर्माणाधीन श्रीनगर जल विद्युत परियोजना की 30 किलोमीटर लंबी झील के डूब क्षेत्र में आता है. उन्हें स्थानीय प्रशासन ने गिरफ्तार करके हरिद्वार भेज दिया. इनके पीछे बांध कंपनी के सुरक्षाकर्मियों, कर्मचारियों और ठेकेदारों का काफिला इन्हें खदेड़ता हुआ-सा पुलिस के साथ चल रहा था. इसी मार्ग पर मेरा निवास स्थान पड़ता है. मेरे निवास के सामने से स्वामी सानंद के निकल जाने के बाद कंपनी के कर्मचारियों और पुलिस के बीच कुछ गुफ्तगू हुई. इसके बाद कंपनी के लगभग 40 लोग मेरे निवास पर उतर आए. इन लोगों ने नारेबाजी की, शीशा व दरवाजा तोड़ा और मुझे धमकी दी कि दो दिन के अंदर बांध का विरोध करना बंद कर दो नहीं तो तुम्हें इस घर में जिंदा जला देंगे. 

मामला श्रीनगर परियोजना की अवैधता का है. परियोजना को 1985 में पर्यावरण स्वीकृति मिली थी. 1994 में पर्यावरण मंत्रालय ने नोटिफिकेशन जारी किया जिसके अनुसार पहले दी गई स्वीकृतियों की क्षमता बढ़ाने पर नई स्वीकृति लेना अनिवार्य बना दिया गया. पांच वर्ष में निर्माण कार्य चालू न होने की स्थिति में भी नई स्वीकृति लेने की व्यवस्था दी गई. इसके बाद मंत्रालय ने एक और नोटिफिकेशन जारी किया जिसके अनुसार 2004 तक कंस्ट्रक्शन प्लिंथ लेवल तक नहीं आने की स्थिति में भी नई स्वीकृति लेना अनिवार्य होगा. पर अपने ही इन आदेशों को नजरअंदाज करते हुए, पर्यावरण मंत्रालय के अधिकारियों ने 2006 में 20 वर्ष पहले श्रीनगर परियोजना को दी गई स्वीकृति को वैध घोषित कर दिया.

उत्तराखंड हाई कोर्ट ने पर्यावरण मंत्रालय के इस निर्णय को अवैध ठहराया और कंपनी से नई पर्यावरण स्वीकृति लाने को कहा. लेकिन कंपनी ने सुप्रीम कोर्ट से स्टे ले लिया और गंगा पर बांध का निर्माण करती रही. इसी दौरान पर्यावरण मंत्रालय को भाजपा की नेता उमा भारती से शिकायत मिली. जून, 2011 में  मंत्रालय ने कंपनी को परियोजना पर कार्य बंद करने का आदेश जारी किया जो आज भी लागू है. लेकिन अधिकारियों की मिलीभगत से कंपनी परियोजना का काम करती रही. इन अनियमितताओं के बावजूद परियोजना का निर्माण जारी रहने के विरोध में मैं विभिन्न न्यायालयों में याचिकाएं दायर करता रहा हूं. मेरे इस काम से कंपनी और उसमें लगे स्थानीय ठेकेदार नाखुश हैं, इसलिए उन्होंने मुझ पर हमला किया.

स्थानीय लोगों की आपत्ति है कि परियोजना का विरोध पहले क्यों नहीं किया गया? सच यह है कि परियोजना के खिलाफ 2008 में मैंने पहली याचिका डाली थी. इसके बाद क्रमवार तीसरी याचिका पर चार साल के बाद उच्च न्यायालय ने पर्यावरण स्वीकृति को अवैध ठहराया है. सिद्धपीठ धारी देवी के सदस्य 700 से अधिक दिन से धरने पर बैठे हुए हैं. इस बीच राज्य सरकार को ज्ञापन भी दिए गए. पर्यावरण मंत्रालय एवं राज्य सरकार ने इन विरोधों को अनदेखा किया.  

दूसरी आपत्ति है कि परियोजना बंद होने की स्थिति में स्थानीय लोगों के रोजगार और ठेकों का हनन होगा. यह सही है. पर ये रोजगार के अवसर कंस्ट्रक्शन के दौरान मात्र पांच साल तक रहते हैं. इससे ज्यादा दीर्घकालीन रोजगार का हनन खुद परियोजना से हो रहा है. लगभग 400 हेक्टेयर जमीन डूब क्षेत्र में आ रही है. इस भूमि पर जंगल और कृषि से उत्पन्न होने वाले रोजगार का हनन होगा. उत्तराखंड की बहती नदियों के नैसर्गिक सौंदर्य के बीच अस्पताल, विश्वविद्यालय और सॉफ्टवेयर पार्क बनाए जा सकते हैं जो हजारों स्थायी रोजगार उत्पन्न कर सकते हैं. क्षेत्र के सौंदर्य एवं पर्यावरण के नष्ट होने से विकास की इस संभावना पर ब्रेक लग जाएगा. उत्तराखंड की पहचान चारधाम यात्रा से है. तमाम होटल और टैक्सी चालक इस देवत्व की रोटी खाते हैं. गंगा को बांधने, सुखाने और सड़े हुए पानी की झीलों में तब्दील करने से उत्तराखंड का यह देवत्व समाप्त हो जाएगा और चारधाम यात्रा प्रभावित होगी. 

तीसरी आपत्ति यह है कि उत्तराखंड के आर्थिक विकास के लिए जल विद्युत अति उपयुक्त स्त्रोत है. मेरा विरोध जल विद्युत का नहीं है. मैंने सुझाव दिया था कि 30 किलोमीटर लंबी झील बनाने के स्थान पर रुद्रप्रयाग से नहर लाकर जल विद्युत बनाई जा सकती है. इससे गंगा का स्वच्छंद बहाव कायम रहेगा और धारी देवी मंदिर भी नहीं डूबेगा. मैने ऐसी परियोजनाओं के पर्यावरणीय प्रभावों का आर्थिक आकलन किया है. मैंने पाया कि झील में पनपते मलेरिया के कीटाणु, मछली और बालू के नुकसान आदि की गणना की जाए तो ऐसी परियोजनाओं के कारण देश को 700 करोड़ रुपये की हानि होगी जबकि 155 करोड़ रुपये का लाभ होगा. फिर भी इस परियोजना को बनाया जा रहा है. नुकसान आम आदमी उठाता है लेकिन लाभ दिल्ली और देहरादून के नागरिकों एवं नौकरशाहों को होता है. सरकार द्वारा कंपनी को दिया जा रहा समर्थन अनुचित है. सरकार को चाहिए कि बांध समर्थकों और विरोधियों के बीच संवाद स्थापित कराए, दोनों पक्षों को सुने और ऐसा रास्ता निकाले जो दोनों पक्षों के सही तर्कों को जोड़े.

जनहित स्वतंत्र एवं पारदर्शी रूप से तय किया जाना चाहिए. सरकार का मंसूबा राज्य के प्राकृतिक संसाधनों को दिल्ली और देहरादून पहुंचाना है. इसके लिए सरकार जनता को अस्थायी रोजगार का प्रलोभन देकर अपनी संस्कृति, पर्यावरण और अर्थव्यवस्था को नष्ट करने को उकसा रही है बिल्कुल वैसे ही जैसे ब्रिटिश सरकार ने भारतीयों को प्रलोभन देकर स्वतंत्रता सेनानियों पर गोली चलवाई थी.