चुनाव में भेदभाव

राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना पर आधारित मतों के आधार पर होने से बिहार, उत्तर प्रदेश और राजस्थान जैसे राज्यों को राष्ट्रपति चुनाव में वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाता है. हिमांशु शेखर की रिपोर्ट.

1971 की जनगणना के आंकड़े बताते हैं कि उस वक्त देश की कुल आबादी 54.81 करोड़ थी. वहीं 2011 की जनगणना  में आबादी बढ़कर 121.01 करोड़ हो गई है. इसके बावजूद राष्ट्रपति चुनाव में वोट देने वाले जनप्रतिनिधियों के मतों का निर्धारण 1971 की जनगणना के आंकड़ों के आधार पर ही किया जा रहा है. अगर आधार वर्ष को 1971 के बजाय 2011 कर दिया जाए तो पिछले 40 साल में बढ़ी आबादी को देखते हुए कई राज्यों के विधायकों के मतों की संख्या काफी बढ़ जाएगी और कुल मतों में उनकी हिस्सेदारी भी.

संविधान के जानकारों का मानना है कि 1971 की आबादी के आधार पर राष्ट्रपति चुनाव करवाए जाने से इस चुनाव में उन राज्यों को वाजिब प्रतिनिधित्व नहीं मिल पाएगा जिनकी आबादी इस दौरान दूसरे राज्यों की तुलना में तेजी से बढ़ी है. दरअसल, संविधान में राष्ट्रपति चुनाव के लिए जनप्रतिनिधियों के मतों के निर्धारण को लेकर यह साफ था कि यह काम सबसे नई जनगणना के आंकड़ों के आधार पर होगा. इसलिए 1952 का राष्ट्रपति चुनाव 1951 की जनगणना के आधार पर हुआ. जबकि 1961 की जनगणना के आंकड़े समय पर उपलब्ध नहीं होने की वजह से 1962 में राष्ट्रपति का चुनाव भी 1951 की जनगणना के आधार पर ही हुआ. इसके बाद 70 के दशक में हुए राष्ट्रपति चुनावों का आधार 1971 की जनगणना बनी. 

1971 की जनगणना पर ही लोकसभा और विधानसभा के निर्वाचन क्षेत्रों का परिसीमन हुआ. 2008 से पहले तक के लोकसभा और विधानसभा चुनाव उसी परिसीमन के आधार पर हुए. इस दौरान हुए सभी राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना के आधार पर ही होते रहे. जबकि परिसीमन का राष्ट्रपति चुनाव से कोई संबंध ही नहीं है. जब इस गड़बड़ी की ओर कुछ लोगों ने 2001 में सरकार का ध्यान आकृष्ट किया तो अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन (राजग) की सरकार ने संविधान संशोधन करके यह तय कर दिया कि 2026 तक के सभी राष्ट्रपति चुनाव 1971 की जनगणना के आधार पर ही होंगे.

संविधान विशेषज्ञ और लोकसभा के महासचिव रहे सुभाष कश्यप तहलका को बताते हैं, ‘उस वक्त जब यह बात चली तो पता चला कि नया आधार वर्ष लेते ही राष्ट्रपति चुनाव में तमिलनाडु व केरल जैसे दक्षिण भारतीय राज्यों के मतों की हिस्सेदारी घटेगी वहीं उत्तर भारत के कुछ राज्यों  की हिस्सेदारी बढ़ जाएगी. तब दक्षिण भारत के राज्यों ने केंद्र से कहा कि जनसंख्या नियंत्रण का काम सफलता से करने का पुरस्कार उन्हें इस रूप में मिलना चाहिए कि राष्ट्रपति चुनाव का आधार वर्ष पुराना ही रखा जाए.’

जानकार बताते हैं कि उस वक्त केंद्र सरकार के इस फैसले का ज्यादा विरोध नहीं हुआ क्योंकि तब तक विधायकों और सांसदों का निर्वाचन भी 1971 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन के आधार पर ही हो रहा था. लेकिन 2008 से विधानसभाओं के चुनाव नए परिसीमन के आधार पर शुरू हुए. नए परिसीमन के लिए आधार बनी 2001 की जनगणना. 2009 का लोकसभा चुनाव भी नए परिसीमन के आधार पर हुआ. इस आधार पर होना तो यह चाहिए था कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव के लिए भी 2011 को न सही 2001 की जनगणना को आधार बनाया जाता. क्योंकि राष्ट्रपति चुनाव में मत डालने वाले ज्यादातर जनप्रतिनिधि 2001 की जनगणना के आधार पर हुए परिसीमन के तहत निर्वाचित हुए हैं.

सोसायटी फॉर एशियन इंटीग्रेशन ने इस बाबत चुनाव आयोग के पास शिकायत की है. संविधान विशेषज्ञ सीके जैन तहलका को बताते हैं, ‘अब अगर  2001 की जनगणना को राष्ट्रपति चुनाव का आधार बनाना है तो इसके लिए संविधान में फिर से संशोधन करना होगा.’ चुनाव आयोग के पास भेजी गई शिकायत की एक प्रति लेकर जब कुछ लोग जनता दल यूनाइटेड के अध्यक्ष शरद यादव से मिले तो उन्होंने कहा कि राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन की बैठक में वे इस मसले पर चर्चा करने के बाद इस मामले को उठाएंगे. सूत्र बताते हैं कि जब शरद यादव ने यह मामला राजग की बैठक में उठाया तो भाजपा के वरिष्ठ नेताओं ने कहा कि यह संशोधन तो अपनी ही सरकार ने किया था इसलिए इस मामले को लोगों के बीच उठाना ठीक नहीं है. इसके बाद राष्ट्रपति चुनाव में समर्थन को लेकर भाजपा और जदयू दोनों अलग-अलग राह चल पड़े और यह मामला जहां था वहीं रह गया.

इस गड़बड़ी की वजह से हो रहे भेदभाव की ओर ध्यान दिलाते हुए सोसायटी फॉर एशियन इंटीग्रेशन ने अपनी शिकायत में चुनाव आयोग को लिखा है, ‘बिहार, राजस्थान और उत्तर प्रदेश जैसे राज्यों की अनदेखी करके दक्षिण भारतीय राज्यों के विधायकों के मतों को अधिक महत्व मिलना जनप्रतिनिधित्व की जमीनी हकीकतों के अनुरूप नहीं है.’

संविधान और राजनीति के जानकार मानते हैं कि राष्ट्रपति की चयन प्रक्रिया में मौजूद इस खामी का असली प्रभाव उस वक्त दिखेगा जब कभी दो उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर होगी. इस बार अगर प्रणब मुखर्जी के खिलाफ एपीजे अब्दुल कलाम चुनाव मैदान में उतर जाते तो शायद इसका असर दिख सकता था. क्योंकि कांटे की टक्कर की स्थिति में कुछ सौ वोट भी बने खेल को बिगाड़ने और बिगड़े खेल को बनाने की कुव्वत रखते हैं. ऐसी स्थिति पैदा होने पर वह उम्मीदवार फायदे में रहेगा जिसे दक्षिण भारत के राज्यों के विधायकों का समर्थन हासिल हो. जबकि उत्तर भारतीय राज्यों के विधायकों के समर्थन वाला उम्मीदवार घाटे में रहेगा. 

1971 की आबादी के हिसाब से राष्ट्रपति चुनाव में पड़ने वाले राज्यों के कुल मतों में राजस्थान, उत्तर प्रदेश और बिहार की हिस्सेदारी क्रमशः 4.69, 15.25 और 7.65 फीसदी है. जबकि अगर 2001 की जनगणना को आधार बनाया जाए तो इन तीनों राज्यों के कुल मतों की संख्या तकरीबन दोगुनी हो जाएगी और हिस्सेदारी बढ़कर क्रमशः 5.5, 16.19 और 8.08 फीसदी हो जाएगी. नया आधार वर्ष तय होने के बाद घाटे में रहने वाले तीन प्रमुख राज्य होंगे तमिलनाडु, केरल और आंध्र प्रदेश. 1971 की जनगणना के हिसाब से इन राज्यों की हिस्सेदारी क्रमशः 7.49,  3.87 और 7.91 फीसदी थी. जो 2001 की जनगणना के आधार पर घटकर क्रमशः 6.04, 3.09 और 7.39 फीसदी रह जाएगी.  

ऐसे चुने जाते हैं महामहिम

भारत के राष्ट्रपति का चुनाव सांसद और विधायक करते हैं. अलग-अलग राज्यों के विधायकों की वोट की कीमत अलग-अलग होती है. विधायकों के वोट की कीमत तय करने के लिए राज्य की कुल आबादी को हजार से विभाजित किया जाता है. इसके बाद जो संख्या आती है उसे राज्य के कुल विधायकों की संख्या से विभाजित  करने पर जो संख्या आती है वही संबंधित राज्य के एक विधायक के वोट की कीमत होती है. राज्यों के सभी वोटों को जोड़कर उसे संसद के दोनों सदनों के सदस्यों की संख्या से विभाजित करने पर जो संख्या आती है वह एक सांसद के वोट की कीमत होती है. राष्ट्रपति बनने के लिए कुल वोटों के आधे से अधिक वोट के कोटे को हासिल करना जरूरी होता है. सांसदों और विधायकों को राष्ट्रपति पद के सभी उम्मीदवारों को वरीयता देनी होती है. दो से अधिक उम्मीदवार होने की स्थिति में पहले दौर की गिनती में अगर किसी उम्मीदवार को जीतने के लिए जरूरी वोट नहीं मिलते तो सबसे कम वोट पाने वाले के दूसरी वरीयता के वोट बाकी सभी उम्मीदवारों में बंटेंगे और ऐसा तब तक होगा जब तक किसी को कोटा नहीं हासिल हो जाए. चयन प्रक्रिया में मौजूद इस खामी का असली प्रभाव उस वक्त दिखेगा जब कभी दो उम्मीदवारों के बीच कांटे की टक्कर होगी