एक तीर दो शिकार

पीए संगमा ने 2008 में जब तूरा लोकसभा सीट से इस्तीफा देकर विधानसभा चुनाव लड़ा था तब उनका एजेंडा साफ था. मेघालय की राजनीति में राष्ट्रवादी कांग्रेस पार्टी (एनसीपी) को मजबूत करना और अपने बच्चों (पुत्र कॉनरेड और जेम्स व पुत्री अगाथा) का राजनीतिक भविष्य सुरक्षित करना. 2008 में एनसीपी ने क्षेत्रीय पार्टियों से गठजोड़ कर सरकार तो बनाई लेकिन यह गठबंधन ज्यादा दिन नहीं चला. राज्य की बागडोर फिर कांग्रेस के हाथ में आ गई. तब संगमा तूरा विधानसभा क्षेत्र के विधायक तो बने रहे लेकिन राज्य और राष्ट्रीय स्तर पर हाशिये पर पहुंच गए. हाल के दिनों तक जब राष्ट्रपति पद की दौड़ में वे शामिल नहीं हुए थे, ऐसा माना जा रहा था जैसे उनकी सारी योजना पर पानी फिर गया हो. लेकिन अब राष्ट्रपति पद का प्रत्याशी बनने के बाद राजनीतिक हलकों में  उनके इस कदम के कई निहितार्थ निकाले जा रहे हैं. 

वरिष्ठ पत्रकार और मेघालय के विधायक मानस चौधरी कहते हैं, ‘संगमा के राष्ट्रपति भवन की दौड़ में शामिल होने की खबर सुनते ही मेरी तरह बहुत सारे लोग अचरज में पड़ गए. अगले साल होने वाले चुनाव में संगमा परिवार को गारो हिल्स में ही कड़ी चुनौतियों का सामना करना पड़ सकता है. जबकि यह संगमा परिवार का गढ़ है. कांग्रेस शासन में यहां काफी बढ़िया काम हुआ हैं.’ शिलांग के एक बड़े तबके का मानना है कि 2013 के विधानसभा चुनाव में प्रदर्शन में पिछले चुनाव से ज्यादा गिरावट दिख सकती है. दरअसल डॉ मुकुल संगमा के नेतृत्व में कांग्रेस ने राज्य में स्थिर सरकार दी है. अन्यथा 1998-2003 के दौरान मेघालय चार मुख्यमंत्रियों के नेतृत्व में छह सरकारें देख चुका है. 

अपनी स्थिति मजबूत करने के लिए इस बार एनसीपी को खासी और जयंती हिल्स की छोटी पार्टियों के साथ गठजोड़ करना होगा. पर पिछले महीनों में मुख्यमंत्री मुकुल संगमा ने गारो हिल्स अपनी पकड़ काफी मजबूत की है. यही वजह है कि घर वापसी करने के बाद संगमा की चिंताओं में इजाफा हुआ है. क्षेत्रीय सहयोगी पार्टियों का भरोसेमंद नहीं होना भी इसकी एक वजह है. संगमा के बच्चे अभी तक वे अपने-अपने राजनीतिक क्षेत्र में प्रभाव नहीं जमा पाए हैं. संगमा को भी पता है कि वे अपनी लोकप्रियता का लबादा ओढ़कर लंबे समय तक काम नहीं चला सकते. मेघालय में एनसीपी के 13 विधायक हैं और 2013 में मेघालय के 60 सदस्यों वाली विधानसभा में बड़ी भूमिका निभाने के लिए एनसीपी को कम से कम 20 सीटों की दरकार होगी. संगमा का लोकप्रिय होना भी कुछ हद तक उनके लिए दिक्कत पैदा करता है. मानस चौधरी कहते हैं, ‘राजनीति में संगमा के कुछ करीबी मित्र उन्हें आदिवासियों की तुलना में तेज-तर्रार मानते हैं. यही वजह है क्षेत्रीय पार्टियां उन्हें विश्वसनीय नहीं मानतीं. इससे वे राज्य की राजनीति में पिछड़ते जा रहे हैं.’ 

राष्ट्रपति चुनाव की दौड़ में होने की वजह से फिलहाल संगमा और उनका परिवार सुर्खियों में हैं. भाजपा और दक्षिण से जयललिता का समर्थन उन्हें मिल रहा है. क्षेत्रीय राजनीतिक पार्टियां शिरोमणि अकाली दल और उड़ीसा में पटनायक का समर्थन मिलने से उनकी स्वीकार्यता राष्ट्रीय स्तर की हो गई है. वे जानते हैं कि गारो के मतदाताओं की नजरें उनपर हैं. राष्ट्रपति चुनाव में आदिवासी और ईसाइयों के प्रतिनिधि के तौर पर खुद को पेश करना मेघालय में उन्हें फायदा पहुंचा सकता है. संगमा ने अपनी पार्टी एनसीपी को भी अच्छी तरह टटोल लिया है. एनसीपी का केंद्रीय नेतृत्व भी उत्तर-पूर्व में अपनी बुनियाद को हिलने नहीं देेगा. गारो हिल्स के एनसीपी के एक विधायक तहलका को बताते हैं, ‘उत्तर-पूर्व में संगमा के बगैर पार्टी को आगे बढ़ाना मुश्किल है. पार्टी का दरवाजा उनके लिए खुला रहेगा.’ राष्ट्रपति चुनाव के दौरान संभव है कि अब संगमा क्षेत्रीय आदिवासियों के मंच के विचार को आगे बढ़ाएं. इससे उन्हें नवीन पटनायक और यहां तक कि ममता बनर्जी से भी समर्थन मिल सकता है. उन्हें इस बात का भी भरोसा हो चुका है कि भाजपा खुद को धर्मनिरपेक्ष दिखाने के लिए उनके समर्थन में जरूर खड़ी रहेगी. 

मुख्यमंत्री डॉ मुकुल संगमा कहते हैं, ‘पीए संगमा राज्य की राजनीति में असफल हो चुके हैं. यह कदम उनकी हताशा के परिणामस्वरूप लिया गया जान पड़ता है. उनके निर्वाचन क्षेत्र गारो हिल्स में अराजकता का आलम पसरा हुआ है. गारो को छोड़ दें. संगमा या उनकी पत्नी के गांव चले जाएं तो देखेंगे कि उन्होंने अपने क्षेत्र को क्या दिया है.’ आरोप-प्रत्यारोपों को एक किनारे कर दें तो फिलहाल रायसीना की दौड़ में संगमा द्वारा लगाए गए जोर का असर 2013 में मेघालय के विधानसभा चुनाव पर पड़ने की संभावना तो है लेकिन इससे संगमा परिवार की राज्य की राजनीति में वापसी होगी यह कहना मुश्किल जान पड़ता है.