अकाल कभी अकेले नहीं आता…

देश के अनेक हिस्सों में भूजल का स्तर भारतीय राजनीति के स्तर से भी बहुत नीचे गिर चुका है

बादल गरजे पर कई जगह खेतों में बरसे नहीं. हमारे खेती मंत्री भी गरजे लेकिन बिल्कुल नहीं बरसे. उनका गरजना मंत्रिमंडल में अपने घटते असर को लेकर था. केंद्र की सत्ता में उनका दल एक बटाईदार की हैसियत से शामिल है. इस हैसियत में कुछ कमी आते देख वे गरजे थे. उन्हें लगता है कि अनाज की फसल से ज्यादा अपने वोटों की फसल का ध्यान रखना होगा. उसके ठीक होने के संकेत मिलते ही उनके बरसने की गुंजाइश खत्म हो गई. 

लेकिन देश के खेतों में बादलों का गरजना और बरसना दोनों जरूरी हैं. लेकिन इस बार ऐसा हो नहीं सका है. समय तेजी से बीत रहा है. मौसम विभाग ने अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए गुणा-भाग करके अखबारों और पीएमओ को बता दिया है कि इस बार पूरे देश के स्तर पर कम से कम 20 प्रतिशत और कई जगह 60 प्रतिशत तक की कमी आंकी गई है. कुल मिलाकर चित्र बहुत दर्दनाक है. 

इधर भाखड़ा भी चीं बोल गया है. इस बड़े बांध में जमा पानी अब इतना कम बचा है कि भाखड़ा ब्यास प्रबंध बोर्ड ने बांध से होने वाली सिंचाई में फिलहाल 10 प्रतिशत की कटौती कर दी है. इसका सीधा असर पंजाब और हरियाणा के किसानों पर पड़ेगा. खरीफ की बुवाई और फिर बोई गई फसल की सिंचाई – दोनों पर इसका कैसा प्रभाव पड़ेगा, इसे अभी समझने में मंत्रालयों की फाइलों को और देर लग सकती है. 

भाखड़ा के अलावा देश के कोई 80 बड़े बांधों की हालत भी ऐसी ही है. इनको देखने वाले प्रबंध बोर्डों ने बताया है कि इनमें बरसात के मौसम में जितना पानी आता है उसमें 80 फीसदी तक की कमी दर्ज हो चुकी है. इस तरह पंजाब और हरियाणा के अलावा महाराष्ट्र, गुजरात भी अकाल की चपेट में कभी भी आ सकते हैं. अकाल की पदचाप सुनाई दे रही है, लेकिन कहीं जातीय हिंसा तो कहीं आंदोलनों की आवाजों में इसकी तरफ भला कैसे ध्यान जाएगा?

अकाल कोई पहली बार नहीं आ रहा है. हमारे यहां एक पुरानी कहावत है – ‘आग लगने पर कुंआ खोदना.’ कई बार आग लगी और कई बार कुएं खोदे गए होंगे तब जाकर अनुभवों की मथानी से मथकर ऐसी कहावतें मक्खन की तरह ऊपर आई होंगी. लेकिन अब जब हम आग लगने पर कुआं खोदते हैं तो उन कुंओं में पानी मिल जाए इसकी कोई गारंटी नहीं है. देश के अनेक हिस्सों में भूजल का स्तर देश की राजनीति के स्तर से भी बहुत नीचे गिर चुका है. हमारे योजनाकारों को इस बात का बहुत भरोसा था कि बड़े बांध अकाल से निपटने का सबसे कारगर तरीका हैं. कई बार हमने इस घमंडी बयान को सुना है कि किसानों को हम मानसून के भरोसे नहीं छोड़ सकते, हमारे बांधों में इतना पानी होगा कि उनसे अकाल से भी निपटा जा सकता है और बाढ़ से भी. लेकिन इतने सालों का अनुभव बताता है कि जब खेतों को पानी चाहिए तब इन बांधों में पानी नहीं रहता  और जब तेज बरसात होती है तब इन बांधों को बचाने के लिए इनके सारे दरवाजे खोल देने पड़ते हैं. आंकड़े बताते हैं कि सब आधुनिक उपायों के बाद भी हमारे कई बड़े शहर और अनगिनत गांव बांधों से अचानक पानी छोड़े जाने के कारण देखते-देखते डूब जाते हैं. 

इससे पहले चलन यह था कि लोग बिना सरकार की तरफ देखे अपने गांव और शहरों में जहां ठीक जगह मिलती थी, वहां छोटे-बड़े तालाब बना लिया करते थे. अच्छी वर्षा हो तो इनमें खूब पानी भर जाता जो उन्हें अगले मानसून तक ले जाता था. इस दौरान भूजल स्तर भी उन छोटे-बड़े तालाबों से इतना ऊंचा उठ जाता था कि जरूरत पड़ने पर यदि वे कहावत का कुआं खोदें तो उसमें पानी भी मिल जाए. 

सिर्फ हमारे यहां ही नहीं, दुनिया भर के कई देशों में विकास की नई योजनाओं ने समयसिद्ध और स्वयंसिद्ध तरीकों को ताक पर रख कर नई-नई योजनाओं को अपनाया है. नतीजे चारों तरफ एक से दिख रहे हैं. रूस जैसे संपन्न देश में बाढ़ आई और दो सौ लोग अपनी जान से हाथ धो चुके हैं. पड़ोसी देश चीन में भी ऐसा ही हो रहा है. असम में, बंगाल में पहले पानी न गिरने की शिकायत थी और  अब पानी गिरते ही ऐसी बाढ़ आई है कि आदमी तो आदमी काजीरंगा के जानवर भी बह गए. वहां परिस्थिति अभी भी उतनी ही खराब है लेकिन पहले छेड़छाड़ और फिर हिंसा की दुखद घटनाओं ने बाढ़ की खबरों को बहा दिया है. 

कई बातें बार-बार कहनी पड़ती हैं और इन्हीं में से एक बात है कि अकाल कभी भी अकेले नहीं आता. उससे बहुत पहले विचारों का अकाल पड़ने लगता है. अच्छे विचारों का मतलब है– अच्छी योजनाएं और अच्छे काम. ऐसी अच्छी योजनाओं का अकाल पड़ने लगता है और बुरे कामों की भी बाढ़-सी आ जाती है. देश को स्वर्ग बना देने की तमन्ना में तमाम नेताओं ने स्पेशल इकोनॉमिक जोन, सिंगूर, नंदीग्राम और न जाने इतनी बड़ी-बड़ी योजनाओं का पूरा ध्यान रखा.बीच में यह भी सुना गया था कि इतने सारे लोगों को खेती नहीं करनी चाहिए. एक जिम्मेदार नेता ने यह भी कहा था कि भारत को कब तक गांवों का देश कहते रहेंगे.

गांव में रहने वाले लोग शहरों में आकर रहने लगें तो हम उन्हें आसानी से बेहतर चिकित्सा, बेहतर शिक्षा और एक बेहतर जीवन की तमाम सुविधाएं दे सकेंगे. इन्हें लगता होगा कि शहरों में रहने वाले सभी लोगों को ये सभी सुविधाएं मिल ही चुकी हैं. इसका उत्तर तो शहर वाले ही दे सकेंगे.  इसलिए अच्छा तो यह हो कि बादल फिर से गरजें और खूब बरसें. लेकिन यदि दुर्भाग्य से ऐसा न हो पाए, अकाल आने लगे तो हम सब एक बार इस बात को याद रखें कि अकाल अकेले नहीं आता. अगली बार हम इसकी पूरी तैयारी करें.