पूरी रात यही कशमकश थी कि जाऊं या फिर इस नई पहचान से हार मान लूं’

 

मैं उत्तर प्रदेश के एक छोटे-से कस्बे से ताल्लुक रखती हूं. वहां जिंदगी के गुजारे कई सालों में मैंने हमेशा यह अनुभव किया कि इंसानियत सभी धर्मों से बड़ी होती है. हमारे यहां आपसी रिश्तों की जगह भगवान या अल्लाह से पहले थी. लेकिन मेरी इंसानियत से परे एक दूसरी पहचान भी है यह मुझे दिल्ली में हुए बटला हाउस एनकाउंटर के बाद महसूस हुआ. वह थी मेरी धार्मिक पहचान. तब तक मैं भी दिल्ली आ चुकी थी और इस जगह के पास ही रहती थी. अब हर रोज घर से  बाहर जाते हुए यह पहचान भी मेरे साथ चलती थी जिसे ढोने की अब आदत-सी पड़ती जा रही थी. मैं अपने गैरमुस्लिम दोस्तो के बीच रोज अपनी पहचान को खड़ा करने की जद्दोजहद करती. उनसे किसी भी ऐसी बहस करने से खुद को रोज बचाने की नाकाम कोशिश करती जो मेरी नई पहचान से जुड़ी थी.

 उन दिनों कहीं न कहीं मेरे मन में यह बात घर करने लगी थी कि अगर इसी तरह का माहौल रहा तो फिजा बद से बदतर होती जाएगी ओर अन्य धर्मों के लोग मुसलमानों से सच में नफरत करने लगेंगे. शायद इसके कुछ बीज पड़ने भी लगे थे जब मेरी एक सहपाठी ने मुंह बनाकर कहा था कि मुसलमान तो लड़ने ओर खाने में ही आगे होते हैं बस. लेकिन कहते हैं न कि हालात आपकी सोच पर कितना भी असर क्यों न डालें, कभी-कभी आपके साथ कुछ ऐसा भी हो जाता है जो फिर से आपकी सकारात्मक सोच को और पुख्ता बना देता है. मेरे साथ भी ऐसा ही कुछ हुआ. इसके बाद मैं दोबारा यह सोचने लगी कि इंसानी रिश्तों की बुनियाद धर्म से कहीं ज्यादा मजबूत होती है. शायद मेरे लिए इस बात को अब कभी भी भुला पाना संभव नहीं होगा.

बात दो साल पहले की है. मुझे अपने कुछ साथियों के साथ एक विश्वास बहाली संवाद प्रकिया (इंटर फेथ डायलॉग) में हिस्सा लेने के लिए मथुरा जाने का निमंत्रण मिला. हमें दिल्ली से मथुरा के लिए अगली सुबह निकलना था, अगले ही दिन बाबरी मस्जिद पर भी फैसला आना था इसलिए वह रात मेरे लिए अहम थी. देश के बहुत सारे राजनेताओं, मौलवियों और धर्म गुरुओं के लिए भी वह रात अहम थी जो कई सालों से लोगों की भावनाओं से सियासी रोटियां सेंक रहे थे. हर आम इंसान की तरह मेरे परिवार वाले भी चिन्तित थे. उन के मन में एक अजीब-सा डर भी था. उन्हें लग रहा था कि मथुरा तो हिंदू बहुल इलाका है और इसलिए मेरा वहां जाना ठीक नहीं है. उन्होंने मुझे बहुत समझाया कि मैं इस सेमिनार में ना जाऊं क्योंकि अपने ग्रुप में मैं अकेली मुसलिम छात्रा थी. मैंने उन्हें काफी समझाया मगर परिवार वालों की मुखालफत पुरजोर तरीके से जारी रही. 

‘मुझे लग रहा था कि अगर मैं इस आयोजन में न आती तो मेरे मन की गलतफहमियां शायद ही कभी दूर हो पातीं’

उस दिन मुझे रह-रह कर यही अफसोस हुआ कि आखिर कब तक धर्म की यह राजनीति चलेगी. पहली बार उन टेलीविजन चैनलों पर भी बहुत गुस्सा आया जो मेरी मां की परेशानी को अपने नाटकीय अन्दाज में और बढ़ाने पर तुले हुऐ थे. इस अंदाज में कि दंगा न भी होता तो पक्का करवा देते. पूरी रात मैं इसी कशमकश में रही कि जाऊं या फिर इस नई पहचान से हार मान लूं. सुबह होते-होते मैं अपनी नई पहचान से जीत चुकी थी. मैं अपने मन के फैसले पर अडिग रही और घरवालों को बिना इत्तिला दिए कृष्ण की नगरी मथुरा पहुंच गई.

मथुरा पहुंचने पर हमारा गर्मजोशी के साथ स्वागत किया गया. हमारे ठहरने का इंतजाम एक स्थानीय आश्रम में किया गया था. यह जगह मेरी कल्पनाओं से बिल्कुल अलग थी. यहां बहुत सारे मंदिरों की घंटियां समवेत होकर मधुर ध्वनि उत्पन्न कर रही थीं जो बहुत सुकून दे रही थी. हम लोग मथुरा में पांच दिन रहे. आश्रम के गुरु से लेकर आम सेवक तक ने हमें बहुत आदर व सम्मान दिया. मैं भी और साथियों के साथ बैठकर प्रवचन सुनती थी. मैंने एक दिन भी यह महसूस नहीं किया कि मेरी पहचान वहां मौजूद लोगों से अलग है.

फिर एक दिन मैंने हिम्मत जुटा कर आश्रम के गुरू जी, जिनका नाम मुझे याद नहीं आ रहा, से अयोध्या फैसले पर बात की. मैंने उनसे पूछा कि क्या वजह है जो साथ-साथ रहने वाले हिंदू-मुसलमान इतने दूर होते जा रहे हैं. उन्होंने मेरे सिर पर हाथ रख कर सिर्फ इतना कहा कि मंदिर-मस्जिद को लेकर होने वाली सियासत से वह अब ऊब चुके हैं. उन्होंने आगे यह भी जोड़ा कि मंदिर-मस्जिद से ज्यादा उनके लिए मानवता अहमियत रखती है.  

मथुरा से वापस दिल्ली लौटते समय इंटर फेथफुल डायलॉग में जाने के फैसले को लेकर मेरे मन में एक आत्मसंतुष्टि का भाव था. मुझे लग रहा था कि अगर मैं वहां नहीं जाती तो मेरे मन में जो गलतफहमियां घर करने लगी थीं वह शायद ही कभी दूर हो पातीं. मानवीयता के इस रूप के दर्शन से भी मैं वंचित रह जाती. थोड़े-से भटकाव के शिकार लोगों की सोच को मैं आम लोगों की सोच मानती रहती और मानवता पर शर्मसार होती रहती.  आखिर धर्म के नाम पर आम आदमी को लड़वाकर उससे सियासी फायदा लेने का यह खेल कब रुकेगा?