सरकार को गरियाने वाले अपना काम तो ठीक से करें

दुनिया में कोई भी ऐसा लोकतंत्र नहीं है जहां की सरकार को लेकर वहां के मीडिया और विपक्ष टिप्पणी नहीं करते. यह लोकतंत्र का एक स्वाभाविक लक्षण है. लेकिन यह भी सच है कि किसी पर टिप्पणी करना बहुत आसान होता है और हकीकत को सही संदर्भों में देखना बहुत मुश्किल. विपक्ष आरोप लगा रहा है कि मनमोहन सिंह के नेतृत्व वाली यह दूसरी सरकार बेहद नाकाम है. अगर सचमुच ऐसा है तो विपक्ष की कामयाबी क्यों नहीं दिख रही है. उन्हें कई बार सरकार को घेरने के मौके मिले लेकिन किसी भी मौके पर वे कामयाब नहीं हुए. इसलिए उनके पास यह नैतिक अधिकार नहीं है कि वे मनमोहन सिंह की सरकार पर तरह-तरह के आरोप लगाएं.

2जी स्पेक्ट्रम आवंटन में भ्रष्टाचार के आरोपों की जांच के लिए संयुक्त संसदीय समिति (जेपीसी) बनवाने को लेकर विपक्ष ने संसद को तकरीबन एक साल तक ठप किए रखा. अब जेपीसी की जांच के बारे में जो खबरें आ रही हैं उनके आधार पर क्या यह कहा जा सकता है कि कसूरवार की पहचान की जा सकेगी? हमने पहले भी कहा था कि इस मामले पर भारत के महालेखा परीक्षक एवं नियंत्रक (सीएजी) की रिपोर्ट को पीएसी में भेजना ही पड़ेगा. इस समिति की अध्यक्षता भाजपा के ही वरिष्ठ नेता मुरली मनोहर जोशी कर रहे हैं. लेकिन वे नहीं माने. अब तक सबूत के साथ कोई आरोप ठोस तौर पर किसी के खिलाफ तय नहीं हो पा रहा है. अन्य कई मामले हैं जिनमें विपक्ष जमकर हो-हल्ला करता है लेकिन जब उनसे यह पूछा जाता है कि रास्ता बताइए तो वे इधर-उधर झांकने लगते हैं. राष्ट्रमंडल खेलों को लेकर भी विपक्ष ने बड़े आरोप लगाए थे. लेकिन अब जब जांच चल रही है तो सरकार के अलावा कोई भी उसमें दिलचस्पी लेकर दूध का दूध और पानी का पानी करवाने की कोशिश नहीं कर रहा. ऐसे में विपक्ष से मुझे निराशा होती है. वे एक घोटाले का मुद्दा उठाते हैं और उसमें जांच का आदेश होते ही अगले घोटाले के इंतजार में पुराने को भूल जाते हैं. कायदे से होना यह चाहिए कि जब किसी घोटाले की जांच चल रही हो तो विपक्ष के पास जितने सबूत हैं वे पेश करें. अगर जांच सही ढंग से आगे नहीं बढ़ती तो इसके लिए सरकार जितनी कसूरवार है उससे कम विपक्ष भी नहीं है.

अभी जिन घोटालों की बात हो रही है अगर वे सही में घोटाले हैं तो उनकी जड़ तो संप्रग-1 में है. जहां तक मेरी जानकारी है उसके मुताबिक संप्रग-2 के कार्यकाल में कुछ ऐसा नहीं हुआ है जिसे घोटाला कहा जा सके. अब लोग कहते हैं कि संप्रग-1 के कार्यकाल में सब अच्छा था और संप्रग-2 में सब खराब है. जबकि सच्चाई यह है कि संप्रग-2 की सारी दिक्कतें संप्रग-1 से होकर ही आई हैं. जो भी लोग आरोप लगाते हैं, उन्हें बेसिरपैर की बात करने के बजाय वे ठोस मुद्दे उठाने चाहिए जिनमें दम हो. विपक्ष इस बात को बड़ा भारी मुद्दा बना देती है कि टाइम पत्रिका ने प्रधानमंत्री को ‘अंडरअचीवर’ बता दिया इसलिए वे ऐसे ही हैं. वे इस बात पर दिमाग ही नहीं लगाते कि किसी पत्रिका के कह देने से कोई कामयाब या नाकामयाब नहीं होता. अगर टाइम की बात अंतिम सच्चाई है तो फिर उसने 2002 में तब के प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी के बारे में काफी बुरा-भला लिखा था. इस पर भाजपा की बोलती बंद हो जाती है. विपक्ष सिर्फ हंगामा करना चाहता है. उसे लगता है कि हंगामा करने से कांग्रेस की यह दीवार गिर जाएगी. लेकिन ऐसा होने वाला नहीं है. भाजपा एक धक्का लगाकर मस्जिद तो तोड़ सकती है लेकिन कांग्रेस को नहीं तोड़ सकती.

विपक्ष एक घोटाले का मुद्दा उठाता है और उसमें जांच का आदेश होते ही अगले घोटाले के इंतजार में पुराने को भूल जाता है

अगर देश में एक मजबूत विपक्ष होता तो उनके पास अपनी ताकत दिखाने का सबसे अच्छा मौका राष्ट्रपति चुनाव था. इस चुनाव के बारे में सबको बहुत पहले से पता था. अगर विपक्ष एकजुट होकर हमारे उम्मीदवार को हरा देता तो हम बहुत ही दिक्कत में पड़ते. लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं करके अपनी कमजोरी को खुद ही सार्वजनिक कर दिया. विपक्ष की ओर से जिन अब्दुल कलाम का नाम आगे किया जा रहा था उनसे पूछा भी नहीं गया था कि आप चुनाव में खड़ा होना चाहते हैं या नहीं. सरकार को गाली देने वाला राजनीतिक वर्ग खुद तो सही प्रतिपक्ष बनना नहीं चाहता लेकिन सरकार पर दिन-रात नए-नए आरोप लगाता रहता है. विपक्ष की नाकामी का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि वे खुद को देश की जनता के सामने विकल्प के तौर पर पेश करने में कामयाब नहीं हो रहे. भाजपा में तो इस बात पर आपसी सहमति नहीं है कि कौन उनका नेतृत्व करेगा. ऐसे में मुझे यह नहीं लगता कि प्रतिपक्ष से इस सरकार को किसी तरह का कोई खतरा है. 

सरकार पर जो भी लोग आरोप लगा रहे हैं उन्हें यह समझना चाहिए कि जब वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता होती है तो उस वक्त किसी भी सरकार के लिए काम करना मुश्किल होता है. जब वैश्विक स्तर पर अनिश्चितता का माहौल नहीं था तो इन्हीं मनमोहन सिंह की सरकार ने बढ़िया विकास दर बनाए रखी थी. मनमोहन सिंह ने हमेशा यह साबित किया है कि वे बतौर वित्त मंत्री या प्रधानमंत्री देश को अच्छे ढंग से चला सकते हैं. मैं ऐसा इसलिए भी मानता हूं कि भाजपा के बड़े नेता लालकृष्ण आडवाणी ने  2009 के आम चुनाव में कोशिश की थी कि झगड़ा मनमोहन सिंह बनाम आडवाणी बन जाए. लेकिन नतीजा क्या हुआ? मनमोहन सिंह को जनादेश मिला और आडवाणी को देश की जनता ने नकार दिया. मुझे लगता है कि इस सरकार के कार्यकाल में जो दो साल का वक्त बचा हुआ है उसमें मनमोहन सिंह वैसे कदम उठाएंगे जिससे इस सरकार की छवि और अच्छी हो. मैं ऐसा इसलिए भी मानता हूं कि दो साल पहले कोई यह नहीं कह सकता था कि इस सरकार को लेकर इतने तरह के सवाल उठाए जाएंगे. राजनीति में दो साल बहुत लंबा वक्त होता है. ब्रिटेन के प्रधानमंत्री हैरल्ड विल्सन कहते थे कि राजनीति में एक हफ्ता भी बहुत लंबा समय है. मुझे भरोसा है कि जो कमियां अभी दिख रही हैं उन्हें अगले दो साल में दूर कर लिया जाएगा.

आज अर्थव्यवस्था की हालत को लेकर सरकार पर तरह-तरह के सवाल उठाए जा रहे हैं. लेकिन अर्थव्यवस्था की कमजोरियों को दूर करने के लिए दो साल का वक्त बहुत होता है. मनमोहन सिंह के बारे में ही यह कहा जाता है कि यह उन्हीं का बनाया हुआ आर्थिक कार्यक्रम है जिस पर चलते हुए देश ने नौ फीसदी तक की विकास दर हासिल की. इसलिए भरोसे के साथ यह कहा जा सकता है कि अभी जो स्थिति थोड़ी गड़बड़ हुई है उसे वे वापस अच्छे स्तर पर ले जा सकते हैं. माइकल औशियन नाम के एक अमेरिकी पत्रकार हैं. उन्होंने अपने एक हालिया लेख में जानकारी दी है कि औपचारिक तौर पर चीन ने यह स्वीकार किया है कि इस साल उसके आर्थिक विकास की दर मात्र 7.5 फीसदी होगी. इसका मतलब यह हुआ कि चीन और भारत की विकास दर में अब कोई फर्क नहीं रहा. इस बात को कोई नकार नहीं सकता है कि दुनिया में जो अभी की आर्थिक स्थिति है वह किसी के लिए भी अच्छी नहीं है. भारत भी इसका अपवाद नहीं है. लेकिन मनमोहन सिंह ने कभी नहीं कहा कि आज की हमारी हालत दुनिया की वजह से ही है. वे अपने हिसाब से स्थिति सुधारने का काम कर रहे हैं. जहां तक आर्थिक वृद्धि को गति देने का मामला है तो इस बारे में मनमोहन सिंह से अधिक जानकार व्यक्ति देश में कोई नहीं है. उन्होंने पहले भी ऐसा किया है और इसे एक बार फिर से साबित करेंगे. 

महंगाई को लेकर इस सरकार की काफी आलोचना हो रही है. हमें यह समझना होगा कि हर साल का कुछ समय ऐसा होता है जब खाने-पीने की चीजें महंगी होती हैं और कुछ समय ऐसा होता है जब इनकी कीमतों में कमी आती है. कई बार सरकार को वैसी नीतियां अपनानी पड़ती हैं जिससे महंगाई तो घटती है लेकिन इसका बुरा असर औद्योगिक मोर्चे पर होता है. भारतीय रिजर्व बैंक ने ब्याज दर ऊंचे रखे तो इसका अच्छा असर तो यह हुआ कि कीमतें नहीं बढ़ीं लेकिन औद्योगिक विकास पर इसका बुरा असर इस तरह से पड़ा कि उद्योगपति कर्ज नहीं ले पाए. इन बातों को देखते हुए कई बार सरकार महंगाई को कम करने वाले कदम नहीं उठा पाती. ऐसा नहीं है कि सरकार को नहीं पता है कि महंगाई कम करने के लिए क्या कदम उठाने होंगे. लेकिन सरकार को यह भी पता है कि उन कदमों का दूसरे क्षेत्रों पर क्या असर पड़ेगा. मनमोहन सिंह इन दोनों के बीच संतुलन साधते हुए चल रहे हैं. महंगाई एक समस्या है और इसको लेकर सरकार की संवेदनशीलता का अंदाजा इस बात से भी लगाया जा सकता है कि तकरीबन हर संसद सत्र में इस पर चर्चा की जाती है. विपक्ष के लोग जब महंगाई को लेकर हो-हल्ला मचाते हैं तो मुझे सबसे अधिक अफसोस इस बात का होता है कि इसे रोकने के लिए एक भी रचनात्मक सुझाव अब तक न तो लोकसभा में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने दिया है और न ही राज्यसभा में विपक्ष के नेता अरुण जेतली ने. जब अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार थी तो उस वक्त भी महंगाई दर काफी ऊंची थी. अगर विपक्ष में इतने ही जानकार लोग हैं तो उस वक्त उन लोगों ने महंगाई को काबू में करने के लिए कोई कदम क्यों नहीं उठाया था. यह समझने वाली बात है कि एक विकासशील देश में थोड़ी-बहुत महंगाई की जरूरत होती है लेकिन ज्यादा महंगाई की स्थिति पैदा होने से रोकना भी उतना ही जरूरी है. मनमोहन सिंह इस बात को समझते हैं और इसलिए वे इन दोनों बातों में संतुलन साधते हुए चल रहे हैं.

आज सरकार पर यह आरोप भी लग रहा है कि नीतियों के स्तर पर गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही है. मेरी राय इस मामले में थोड़ी अलग है. जिन नीतियों को आगे बढ़ाने की बात विपक्ष कर रहा है, उनमें ज्यादातर तो मध्य वर्ग की जेबें भरने वाली हैं. गरीबों की बात कोई नहीं कर रहा है. मेरा मानना है कि सबसे ज्यादा अगर किसी नीति को लेकर गाड़ी आगे नहीं बढ़ रही तो वह है पंचायती राज. लेकिन इसकी बात कोई नहीं कर रहा है. हर कोई उन्हीं नीतियों को आगे बढ़ाने की बात कर रहा है जिससे पूंजीपतियों का भला हो. आज विपक्ष के लोग इस बात को लेकर सरकार पर निशाना साध रहे हैं कि खुदरा में विदेशी निवेश को लेकर सरकार ने सही रवैया नहीं अपनाया. लेकिन वे इस बात को भूल जाते हैं कि जब उनकी सरकार थी तो उन्होंने क्या किया. खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का पक्ष लेने और विरोध करने वालों के पास अपने-अपने तर्क हैं. किसी भी पक्ष के तर्कों को सिरे से खारिज करना समस्या का समाधान नहीं है. लेकिन इस मामले में एक रास्ता यह हो सकता है कि केंद्र सरकार यह तय करे कि खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश आए और राज्य सरकारें यह तय करें कि वे ऐसे स्टोर अपने राज्य में चाहती हैं या नहीं. मेरे मन में भी खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश को लेकर कुछ शंका है. खुदरा क्षेत्र में विदेशी निवेश का पक्ष लेने वाले यह तर्क देते हैं कि वे कोल्ड स्टोरेज बनाएंगे. मेरे समझ में यह नहीं आता कि कोल्ड स्टोरेज भारत सरकार क्यों नहीं बना सकती. सरकार ऐसे गोदाम बनाए और इसके प्रबंधन की जिम्मेदारी पंचायतों को दी जाए. 

दो साल में मनमोहन सिंह कोई ऐसा चमत्कार करेंगे कि भारत-पाकिस्तान के रिश्ते सुधरेंगे और तीस्ता का विवाद भी सुलझ जाएगा

इस सरकार पर विपक्ष के लोग यह आरोप भी लगाते हैं कि विदेश नीति के मामले में यह बहुत अधिक अमेरिकापरस्त हो गई है. आरोप यह भी है कि अमेरिका के चक्कर में हमने ईरान को भी नाराज कर दिया है. लेकिन वास्तविकता यह है कि अब भी हम सबसे ज्यादा तेल ईरान से ही खरीदते हैं. हां, पहले की तुलना में थोड़ी कमी आई है. अमेरिका तो चाहता है कि हम ईरान से तेल खरीदना बंद कर दें लेकिन मनमोहन सिंह की सरकार ने तो ऐसा नहीं किया. ईरान को तेल का भुगतान करने को लेकर जब अमेरिका ने प्रतिबंध का रास्ता अपनाया तो हमने अपने रास्ते निकाले. भारत की कंपनियां वहां जाकर कारोबार कर रही हैं और हम ईरान को तेल का भुगतान अब रुपये में भी कर रहे हैं. अमेरिका चाह रहा था कि भारत की फौज अफगानिस्तान जाए लेकिन भारत सरकार ने इसे नहीं स्वीकारा. अमेरिका हमारे जवानों को ईराक भेजना चाह रहा था लेकिन हमने यह भी नहीं माना. लीबिया को लेकर भी अमेरिका के उलट हमारा रुख रहा. अमेरिका ने पूरी कोशिश कि चीन के खिलाफ उनका जो अभियान है उसमें भारत उनका साथ दे. लेकिन भारत सरकार ने अमेरिका को यह साफ-साफ बता दिया कि हम चीन से दोस्ती चाहते हैं न कि दुश्मनी. यह सच है कि अभी रुस के साथ उतना करीब का रिश्ता भारत का नहीं है जितना सोवियत संघ के जमाने में था लेकिन अब भी हम उनके करीब हैं और यह रिश्ता आगे बढ़ रहा है. कभी-कभार मेरे मन में भी यह शंका पैदा होती है कि कहीं भारत अमेरिकापरस्त तो नहीं होता जा रहा लेकिन मैं जब इन उदाहरणों को देखता हूं तो मुझे यह जवाब मिलता है कि ऐसा नहीं हुआ है. मनमोहन सिंह सरकार की विदेश नीति की सबसे अच्छी बात यह है कि पाकिस्तान के साथ दोस्ती के लिए जिस तरह के कदम इस सरकार ने उठाए उतने कदम शायद किसी सरकार ने नहीं उठाए. राजीव गांधी ने कई कदम इस दिशा में उठाए थे और बेनजीर भुट्टो के साथ वे इस दिशा में बढ़ भी रहे थे लेकिन वीपी सिंह की सरकार सत्ता में आ गई और यह काम पूरा नहीं हो पाया. मुझे ऐसा लगता है कि अगले दो साल में मनमोहन सिंह कोई ऐसा चमत्कार करेंगे कि भारत-पाकिस्तान के रिश्ते अच्छे हो जाएंगे और बांग्लादेश के साथ तीस्ता का विवाद भी सुलझ जाएगा. 

मनमोहन सिंह की इस सरकार पर सीबीआई के दुरुपयोग का आरोप कुछ लोग लगाते हैं. लेकिन ऐसे लोग यह भूल जाते हैं कि सीबीआई तब भी थी जब वीपी सिंह, चंद्रशेखर और अटल बिहारी वाजपेयी समेत अन्य गैरकांग्रेसी सरकारें केंद्र की सत्ता पर काबिज थीं. अगर सीबीआई एक ऐसी घटिया एजेंसी है जिसका राजनीतिक दुरुपयोग हो सकता है तो गैरकांग्रेसी सरकारों ने इसे ठीक क्यों नहीं किया? किसी गैरकांग्रेसी सरकार ने ऐसा कोई कदम नहीं उठाया जिससे सीबीआई के कामकाज में या संचालन में कोई बड़ा बदलाव हुआ हो. यह कहना बड़ा आसान है कि केंद्र सरकार सीबीआई का दुरुपयोग करती है. लेकिन दूसरी तरफ हम यह भी देखते हैं कि राज्य सरकारें जब दिक्कत में पड़ जाती हैं तो फिर वे खुद ही कहती हैं कि इस मामले की सीबीआई जांच हो. अगर सीबीआई का इस्तेमाल केंद्र सरकार अपने हिसाब से ही करती तो फिर राज्य सरकारें कई मामले सीबीआई के हाथ में नहीं देतीं. इसलिए जो लोग केंद्र पर इस तरह के आरोप लगा रहे हैं वे सुविधा की राजनीति कर रहे हैं. 

इस सरकार पर विपक्ष का एक बड़ा आरोप है कि कहने को मनमोहन सिंह सरकार के मुखिया हैं लेकिन नियंत्रण कहीं और है इसलिए वे खुलकर काम नहीं कर पा रहे हैं. अब इसमें देखने वाली बात यह है कि अगर मनमोहन सिंह राय-मशविरा नहीं करें तो उन पर यह इल्जाम लगेगा कि वे विचार-विमर्श नहीं करते. अगर वे विभिन्न मामलों को लेकर राय-सलाह करते हैं तो उन पर विपक्ष के लोग यह आरोप लगाते हैं कि ये तो बलहीन प्रधानमंत्री हैं. तो आखिर मनमोहन सिंह करें क्या? हम सबको यह समझना चाहिए कि यह सरकार न तो मनमोहन सिंह की है और न ही कांग्रेस की. यह संयुक्त प्रगतिशील गठबंधन की मिली-जुली सरकार है जिसमें कई पार्टियां शामिल हैं. ऐसे सरकार में सभी घटकों की बातों को सुनने की आवश्यकता होती है. अगर गठबंधन सरकार में सबको साथ लेकर नहीं चला जाए तो कोई न कोई दिक्कत रास्ते में निश्चित तौर पर आएगी. जो लोग मनमोहन सिंह की नेतृत्व क्षमता पर सवाल उठाते हैं उन्हें यह देखना चाहिए कि जब भी सरकार पर खतरा मंडराया तो उन्होंने किस तरह की राजनीतिक सूझ-बूझ का परिचय दिया. 2008 में जब परमाणु समझौते को लेकर वाम दलों ने सरकार का साथ छोड़ दिया तो लगा कि अब तो यह सरकार आगे नहीं बढ़ पाएगी. लेकिन मनमोहन सिंह ने समाजवादी पार्टी को साथ लिया. इसके बाद उन्होंने परमाणु समझौता भी किया और न सिर्फ कार्यकाल पूरा किया बल्कि दोबारा जीतकर भी आए. लोकपाल के हंगामे के दौरान भी लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया कि अब इस सरकार के गिने-चुने दिन बचे हैं. इसके बावजूद मनमोहन सिंह की सरकार मजबूती के साथ आगे बढ़ती रही.

लोग तो यह भी आरोप लगाते हैं कि हम घटक दलों को साथ लेकर नहीं चलते. अगर यह आरोप सही होता तो मनमोहन सिंह की सरकार आठ साल तक नहीं चल पाती. एक गठबंधन के अलग-अलग दलों के बीच मतभेद रहना स्वाभाविक है. यदि ममता बनर्जी और कांग्रेस में कोई अंतर नहीं होता तो फिर वे कांग्रेस में या कांग्रेस के लोग उनकी पार्टी में क्यों नहीं होते? हमें यह समझना होगा कि इस गठबंधन सरकार में अलग-अलग पार्टियां हैं और उनकी अलग-अलग राजनीति है. इसलिए इस तरह की सरकार को चलाने में थोड़ी मुश्किल होती है और कई बार मतभेद सतह पर आते दिखते हैं. लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कांग्रेस अपने सहयोगियों को साथ लेकर नहीं चलती है. सबको साथ लेकर चलने की कला को अटल बिहारी वाजपेयी ‘गठबंधन धर्म’ कहते थे और कांग्रेस इसका पालन बहुत अच्छे से करती है. कांग्रेस इस गठबंधन सरकार को चलाते हुए इस बात को सही ढंग से समझती है कि बाएं हाथ और दाएं हाथ के मिलने से ही नमस्ते बनता है. एक हाथ से यह काम नहीं हो सकता. 

दो बहुत बुनियादी सुधार 1990-91 में हुए. मनमोहन सिंह ने आर्थिक नीतियों के स्तर पर जो बदलाव किए उन्हें आर्थिक सुधार कहा गया. इसके पहले राजीव गांधी के समय में पंचायती राज को लेकर सुधार की शुरुआत हुई थी जिसके लिए जरूरी संविधान संशोधन दो तिहाई बहुमत में पांच वोट कम पड़ जाने से नहीं हो पाया था. 1992 में नरसिंह राव के कार्यकाल में 73वां और 74वां संविधान संशोधन करके प्रशासनिक सुधारों का रास्ता साफ किया गया. उस समय यह धारणा बनी कि हम जो बदलाव रूपी रथ चलाना चाहते हैं उसका एक पहिया है आर्थिक सुधार और दूसरा है प्रशासनिक सुधार. लेकिन एक पहिया बहुत आगे बढ़ गया है और दूसरा घिसटते हुए बहुत धीमी गति से आगे बढ़ रहा है. मेरी समझ से देश की बुनियादी समस्या यह है. अगर इन दोनों का समन्वय यह सरकार सही ढंग से करे तो मैं इस बात का भरोसा दिला सकता हूं कि अगले आम चुनाव में कांग्रेस को न सिर्फ 200 से अधिक सीटें बल्कि अपने बूते बहुमत हासिल होगा.