जीत नहीं जकड़न की शुरुआत

सर्वोच्च न्यायालय के उस आदेश के बाद जिसमें शीर्ष अदालत ने गुजरात दंगों के एक मामले में गुजरात के मुख्यमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ मुकदमा चलाने या न चलाने का जिम्मा अहमदाबाद की निचली अदालत पर डाल दिया है, यह राजनीतिक बहस हो रही है कि इस आदेश का मतलब मोदी को क्लीन चिट है या नहीं. शीर्ष अदालत ने यह आदेश उस याचिका पर सुनाया था जिसमें मोदी और 62 अन्य अधिकारियों पर आरोप लगाया गया था कि उन्होंने 2002 में हुए गुलबर्ग सोसाइटी दंगों को रोकने के लिए जान-बूझ पर कोई कदम नहीं उठाया और हिंसा को बढ़ावा दिया.

नौ पृष्ठों के इस आदेश को गौर से पढ़ा जाए तो ऐसा कहीं से भी नहीं लगता कि मोदी को क्लीन चिट दी गई है. इस मामले में एमिकस क्यूरी राजू रामचंद्रन ने भी कहा है कि इस आदेश की व्याख्या मोदी को क्लीन चिट के रूप में करना पूरी तरह से गलत निष्कर्ष है (देखें साक्षात्कार). इसके बावजूद भाजपा नेता इसे मोदी की बेगुनाही और उनकी जीत के तौर पर प्रचारित करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ रहे.

एसआईटी ने जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण थान्यायपालिका के सामने अभी सबसे बड़ा सवाल यह नहीं है कि मोदी दोषी हैं या बेगुनाह. विशेष जांच दल या एसआईटी ने पिछले साल नवंबर में शीर्ष अदालत को 600 पन्नों की जो जांच रिपोर्ट सौंपी थी उसमें यह साबित करते दर्जनों उदाहरण थे कि दंगों के दौरान और बाद में मोदी का रवैया पक्षपातपूर्ण और सांप्रदायिक था और यह उनके राजनीतिक एजेंडे के हिसाब से निर्देशित हो रहा था. मसला अब यह है कि क्या मोदी की यह लापरवाही अदालत में साबित की जा सकती है. एसआईटी के सामने चुनौती है कि वह अपने पास मौजूद सबूतों की सही व्याख्या करे और उसके बाद आगे की कार्रवाई का फैसला करे. मोदी के खिलाफ यह मामला जैसे-जैसे आगे बढ़ेगा, यह एक तरह से भारतीय न्याय व्यवस्था की परीक्षा भी होगी.

तर्कों के हिसाब से देखा जाए तो अब दो ही संभावनाएं हैं. या तो एसआईटी मोदी और अन्य के खिलाफ एक बड़ी साजिश का आरोप लगाते हुए उनके खिलाफ आरोपपत्र दाखिल करेगी या फिर वह यह कहते हुए एक क्लोजर रिपोर्ट दाखिल करेगी कि उसे गुजरात के मुख्यमंत्री के खिलाफ ऐसे सबूत नहीं मिले कि उनके खिलाफ मामला चलाया जा सके.

लेकिन दूसरी संभावना में भी सर्वोच्च न्यायालय ने यह सुनिश्चित किया है कि दंगा पीड़ितों को निचली अदालत के सामने अपना पक्ष रखने का मौका मिले और इसके बाद यह तय करने का अधिकार न्यायाधीश के पास होगा कि मुकदमा चले या नहीं. और यदि पीड़ितों का पक्ष सुनने के बाद भी न्यायाधीश यह फैसला करता है कि मोदी के खिलाफ मुकदमा न चले तो भी उनके पास उससे ऊपर की अदालतों में गुहार लगाने के विकल्प मौजूद हैं. इसलिए थोड़ी भी समझ वाला व्यक्ति यह समझ सकता है कि इस मामले में मोदी का सफर अभी शुरू ही हुआ है. 12 सितंबर को मोदी ने एक खुला पत्र लिखा. इसमें उनका कहना था कि 2002 के बाद व्यक्तिगत रूप से उन पर एवं गुजरात सरकार पर लगने वाले झूठे आरोपों के कारण जो कलुषित वातावरण बन गया था उसका अंत हो गया है. लेकिन मोदी का यह दावा सच्चाई से कोसों दूर है. उनकी मुश्किलों का अंत तब होता जब सर्वोच्च न्यायालय उन दंगों में मारे गए पूर्व कांग्रेस विधायक अहसान जाफरी की विधवा जाकिया जाफरी की याचिका खारिज कर देता और कहता कि इसके बाद आगे किसी तरह की न्यायिक कार्रवाई की जरूरत नहीं है. ऐसा कुछ भी नहीं हुआ है.

मोदी को बेगुनाह बताने की बजाय शीर्ष अदालत ने एसआईटी से कहा है कि इस मामले में अपनी आखिरी रिपोर्ट वह अहमदाबाद की निचली अदालत को सौंपे और मामले की सुनवाई वहीं हो. शीर्ष अदालत ने यह भी सुनिश्चित किया है कि एसआईटी की पहली रिपोर्ट में जो विसंगतियां रह गई हैं उन्हें वह अपनी आखिरी रिपोर्ट तैयार करने से पहले सुधार ले.

गौरतलब है कि एसआईटी ने मोदी को पुलिस कंट्रोल रूम में अवैध रूप से अपने दो विवादास्पद मंत्रियों को भेजने, दंगों के दौरान भड़काऊ भाषण देने, दंगों के दौरान लापरवाही बरतने वाले अधिकारियों को पुरस्कृत करने और सख्ती बरतने वाले अधिकारियों को दंडित करने, दंगों के संवेदनशील मामलों में विश्व हिंदू परिषद और राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ की पृष्ठभूमि वाले लोगों को सरकारी वकील बनाने, पुलिस कंट्रोल रूम के अहम रिकॉर्ड नष्ट करने और इसके अलावा अन्य दर्जन भर मोर्चों पर दोषी पाया है जो पूरी तरह से उनके सांप्रदायिक और पक्षपाती रवैये को दर्शाता है. इसके बावजूद एसआईटी का निष्कर्ष था कि मोदी के खिलाफ मामला चलाने का आधार नहीं बनता.

लेकिन इस साल मार्च में जब एमिकस क्यूरी ने एसआईटी रिपोर्ट की समीक्षा की तो उन्होंने अदालत को बताया कि एसआईटी की पड़ताल के तथ्य उसके निष्कर्षों से मेल नहीं खाते. इसके बाद न्यायालय ने एमिकस क्यूरी से कहा कि वे गुजरात जाएं और स्वतंत्र रूप से गवाहों से मिलकर एसआईटी द्वारा जुटाए गए तथ्यों का व्यापक आकलन करें.

इसी साल जुलाई में एमिकस क्यूरी ने अपनी रिपोर्ट अदालत को सौंपी. माना जाता है कि इसमें उन्होंने एसआईटी से असहमति जताई है. उनका मतभेद इस बिंदु को लेकर है कि किसे मुकदमा चलाने लायक सबूत माना जा सकता है और किसे नहीं. अपने आदेश में शीर्ष अदालत ने कहा है कि अपनी रिपोर्ट सौंपने से पहले एसआईटी चाहे तो एमिकस क्यूरी की रिपोर्ट की प्रतियां हासिल कर सकती है. कानूनी जानकारों का मानना है कि इसका अर्थ यह है कि एसआईटी को न सिर्फ रामचंद्रन द्वारा उठाए गए बिंदुओं पर ध्यान देना होगा बल्कि अपने और एमिकस के निष्कर्षों में एक तालमेल भी बैठाना होगा.

आने वाले दिनों में एसआईटी और एमिकस क्यूरी दोनों के निष्कर्षों पर निचली अदालत में जोरदार कानूनी बहस होगी. बड़े नामों को कटघरे में खड़ा करती कई जानकारियां सार्वजनिक होकर सुर्खियां बनेंगी जो इस बड़े मुद्दे पर जोरदार कानूनी और संवैधानिक बहस को जन्म देंगी कि जान-बूझकर अपने कर्तव्य की उपेक्षा करने वाले बड़ी कुर्सियों पर बैठे व्यक्तियों को दंडित कैसे किया जाए.
क्या यह सब कहीं से भी मोदी के लिए गुजरात दंगों के मामले का अंत और सात रेसकोर्स रोड की यात्रा की शुरुआत जैसा लगता है?