ये चिराग बुझ रहे हैं…

मद्धम उजाले में डूबी बुरहानपुर की एक उमस भरी शाम. मुगलिया दौर में छिपी अपनी जड़ों को आज भी इलाके के जर्जर कोठों में संजोए 20 साल के इमरान शहर की तंग गलियों में तांगा हांकते हुए हमें अपने अलग हो चुके माता-पिता के बारे में बताते हैं. उत्तर प्रदेश के रामपुर जिले में रहने वाले उनके पिता दशकों पहले उनकी मां का मुजरा सुनने बुरहानपुर आया करते थे. शहर में मशहूर कालीन मिल से सटी एक अंधेरी गली की तरफ तांगा मोड़ते हुए इमरान कहते हैं, ‘शुरुआत में हमारे वालिद लगातार यहां आते थे और कुछ साल पहले तक अम्मी को खर्च के पैसे भी देते थे. फिर धीरे-धीरे उन्होंने आना पूरी तरह बंद कर दिया. अब पैसे भी नहीं भेजते.’  

इस बीच लकड़ी के छोटे-छोटे बंद-बदरंग दरवाजों, टूटते झरोखों, गिरते छज्जों और बिजली के तारों के उलझे झोलों से पटी संकरी गलियों में सरकते हुए तांगा धीरे-धीरे आगे बढ़ता है. घोड़े के पैरों की चाप के बीच इमरान बात आगे बढ़ाते हुए कहते हैं, ‘मुजरा पिछले साल तक तो खूब होता था यहां, परंपरा ही है हमारी. मैंने तो आंखें ही गजलों, कव्वालियों और मुजरों की गूंज के बीच खोलीं. पर अब पुलिस की सख्ती की वजह से माहौल पहले की तरह नहीं रहा. मैंने 9वीं के बाद ही पढ़ाई छोड़ दी और फिर तांगा चलाने लगा. अम्मी तो नानी, बहनों और मौसियों के साथ रहती हैं. अब घर के सभी लोग कोई न कोई  काम करते हैं ताकि खर्च निकल सके.’

इस दौरान, आगे बढ़ते हुए हमें घरों के छज्जों पर लटकी पुराने कव्वालों की रंगीन नाम-तख्तियां दिखाई देने लगती हैं.

शुरुआत में तो पीले बल्बों की रोशनी में डूबे पर्दों के पीछे से आती घुंघरुओं की आवाज आपको अचानक से मुगल काल में ले जाती है. पर अगले ही पल, ‘दिल मेरा मुफ्त का’ जैसी खांटी बॉलीवुड धुनों पर होते मुजरों की आवाज झकझोर कर बताती है कि यह गालिब की गजलों पर थाप जमाने वाले पैरों का नहीं, नए जमाने के डिस्को-मुजरे का दौर है. हम एशिया की सबसे पुरानी मुजरा बस्ती ‘बोरवाड़ी’ में हैं. मध्य प्रदेश के दक्षिण-पूर्वी छोर पर बसे बुरहानपुर शहर के बीचोबीच मौजूद बोरवाड़ी मोहल्ला मुगल बादशाह शाहजहां के दौर से ही केंद्रीय भारत में शास्त्रीय रक्कास (नृत्य) कला का मुख्य केंद्र रहा. इतिहास टटोलने पर पता चलता है कि दक्षिण भारत की यात्राओं के दौरान अक्सर बुरहानपुर में रुकने वाले मुगल बादशाहों ने यहां अपने मनोरंजन के लिए मुजरा कलाकारों और तवायफों का यह बोरवाड़ी मोहल्ला बसाया था. लेकिन लगभग 350 साल पहले कुरैशी नवाबों और मुगल शहजादों का दिल बहलाने के लिए बसाई गई बुरहानपुर की यह मुजरा बस्ती आज अपनी चमक खोती जा रही है.   

लगभग उजड़ चुकी बोरवाड़ी के इन झरोखों में जब-तब खामोशी से रोशन होने वाले चिरागों को खुद महसूस करने के लिए और इन गलियों के बारीक अनुभव के लिए हम इमरान से यहीं विदा लेते हैं और पैदल ही घूमना शुरू करते हैं. एशिया की सबसे पुरानी मुजरा बस्ती के तौर पर पहचानी जाने वाली  बोरवाड़ी के रास्ते कभी घुंघरुओं की गूंज से आबाद रहते थे. लेकिन आज यहां के मशहूर मुजरे की खामोशी के साथ-साथ लोक रक्कास कला और मुजरा कलाकारों की एक पूरी आबादी भी खात्मे के कगार पर है. इन गलियों में घूमते वक्त इमरान की कहानी बार-बार याद आ जाती है.  लगभग दो साल पहले तक उनके घर दूर-दूर से मुजरा सुनने आने वाले कद्रदानों की भीड़ लगी रहती थी, लेकिन ‘माहौल’ धीमा होने की वजह से अब घर के ज्यादातर सदस्य रोजगार के दूसरे विकल्पों की तरफ मुड़ चुके हैं. दशकों से मुजरे की कमाई पर पल रहे इस मातृसतात्मक परिवार के पुरुषों ने भी अब पान की गुमटियां खोलने से लेकर तांगे चलाने जैसे नए काम शुरू कर दिए हैं.

मध्य भारत के इस अनजाने और गुमनाम-से शहर में सैकड़ों साल पहले मुजरेवालियों की एक बस्ती बसने की वजहों की तलाश में हमें कई लोक-कहानियों के साथ-साथ बोरवाड़ी से जुड़े कई रोचक ऐतिहासिक तथ्य भी मिलते हैं. शहर के मशहूर इतिहासकार होशंगसोराबजी हवालदार बताते हैं कि मुजरेवालियों की एक मशहूर बस्ती के तौर पर बोरवाड़ी का आकर्षण और प्रसिद्धि मुगल बादशाह शाहजहां के दौर में चोटी पर थी. वे आगे कहते हैं, ‘यूं तो कुरैशी शासकों के दौर में ही बोरवाड़ी बसने लगा था लेकिन बाद में आए मुगल शासकों का दौर उसका स्वर्णिम काल था. असल में दक्षिण की ओर जाते वक्त मुगल बादशाहों के ज्यादातर काफिले बुरहानपुर से होकर ही गुजरते थे. ऐसे ही एक सफर के दौरान बादशाह शाहजहां ने गुलारा बाई नामक एक रक्कासा का नृत्य देखा और उस पर फिदा हो गए. गुलारा बाई बहुत अच्छा गाती भी थीं और शाहजहां उनके सौन्दर्य और समझदारी से इतने प्रभावित हुए कि उन्होंने उनसे शादी कर ली. गुलारा बाई के नाम पर उन्होंने बुरहानपुर से लगभग 21 किलोमीटर दूर ‘महल गुलारा’ नाम का एक महल भी बनवाया. बस यही वह वक्त था जब पहली बार बोरवाड़ी मोहल्ला एक भव्य और प्रतिष्ठित मुजरा बस्ती के तौर पर स्थापित हुआ.’ फिर वक्त गुजरता गया लेकिन बोरवाड़ीकी शान में कोई कमी नहीं हुई. आजादी के बाद भी यहां मुजरेवालियों के साथ-साथ सारंग वादक, कव्वाल, बन्नाट वाले, गजल गायक, मृदंग वादक और लोक नृत्य जैसी अलग-अलग शैलियों के फनकार मौजूद हुआ करते थे.’

होशंगसोराबजी आगे बताते हैं, ‘लेकिन पिछले एक साल के दौरान बढ़ी पुलिसिया निगरानी, सामाजिक बहिष्कार और प्रशासनिक उदासीनता की वजह से यह ऐतिहासिक मुजरा बस्ती लगभग उजाड़ सी हो गयी है’.  पिछले साल तक बुरहानपुर में लगभग 20 कोठे हुआ करते थे, जिनमें लगभग 50 मुजरा कलाकार नृत्य किया करती थीं. आम दिनों में ये लड़कियां रोजाना 500 से 1000 रुपए तक कमा लिया करती थीं. इनकी कमाई का एक बड़ा हिस्सा महफिलों में वाद्य यंत्र बजाने वाले साजिंदों को जाता था. बाकी रकम मुजरा कलाकारों के हिस्से आती थी. बोरवाड़ी के स्थानीय लोग बताते हैं की यहां की मुजरा कलाकार अपनी कमाई का एक बड़ा हिस्सा दान में भी दिया करती थीं. मोहल्ले के एक निवासी नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं, ‘यहां के कई मदरसे मुजरेवालियों के दान से ही चला करते थे. इसके सिवा बाढ़ या भूकंप आने पर भी राष्ट्रीय राहत कोशों में इनका दान जाता था. आपको यह जानकर भी अचरज होगा की राष्ट्रीय शोक के दिनों में यहां कभी मुजरा नहीं होता था’.

जून, 2011 के दौरान बुरहानपुर से सटे खंडवा जिले में प्रतिबंधित संगठन ‘सिमी’ के 10 संदिग्धों की गिरफ्तारियों के बाद से ही बुरहानपुर के मुजरे पर एक तरह का अघोषित प्रतिबंध लग गया. स्थानीय सूत्रों की मानें तो जिला पुलिस-प्रशासन को संदेह था कि बोरवाड़ी में सिमी आतंकियों को पनाह दी जा रही है. मोहल्ले के ‘डेरेदार संगीत संघ’ के उपाध्यक्ष अल्ताफ खान का मानना है कि पुलिसिया प्रतिबंधों की वजह से आज बोरवाड़ी का मुजरा आखिरी सांसें ले रहा है. तहलका से बातचीत में वे कहते हैं, ‘2011 की सिमी गिरफ्तारियों के बाद से यहां रजिस्टर रखा जाने लगा है. उन्हें लगा कि यहां आतंकवादी आकर योजनाएं बनाते हैं. इसलिए हर घर के बाहर एक सिपाही तैनात करवा दिया गया और कहा गया कि जो भी मुजरा सुनने आएगा वह रजिस्टर में अपना नाम-पता दाखिल करेगा, तभी अंदर जाएगा.

शुरुआत में कुछ पुराने कद्रदान आए भी मगर पता चला कि उनके भी घरों पर फोन जाने लगे. अब ऐसे में कौन आता मुजरा सुनने? साल भर से ऊपर हो गया तलाशियों और तहकीकातों से दौर से गुजरते-गुजरते. हमारा मुजरा तो बंद हो ही गया पर उन्हें आज तक कुछ नहीं मिला.’

हालांकि जानकारों का मानना है कि प्रशासनिक कड़ाई से इतर, कुछ दूसरे कारणों ने भी बुरहानपुर के मुजरे को धीरे-धीरे खत्म करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है.  खान बताते हैं, ‘पुराने जमाने में यहां का माहौल बिल्कुल अलग था. फारुखी नवाबों से लेकर मुगलों के दौर तक यहां बादशाहों का डेरा लगा रहता था. आजादी के बाद भी महाराष्ट्र और उत्तर प्रदेश जैसे दूर-दराज के राज्यों से लोग यहां मुजरा सुनने आते रहे. बड़े-बड़े इज्जतदार घरानों के लोग अपने बच्चों को हमारे यहां तहजीब सीखने भेजा करते थे. तब यहां ठुमरी, दादरा, केरवा और अलग-अलग रागों पर आधारित गजलें गाई जाती थीं. सुनने वाले भी गालिब और मीर के शेरों की फरमाइशें करते थे और गानेवालियां रियाज करके नज्में पेश किया करती थीं. पर अब सब बदल गया है. आज तो ठुमरियों की जगह बॉलीवुड के गानों ने ले ली हैं. अब आप ही बताइए, ‘धूम मचाले’ पर कोई मुजरा कैसे पेश कर सकता है. पर हमारे कलाकार करते हैं क्योंकि सुनने वाले यही सुनना चाहते हैं.’

पुलिसिया सख्ती की वजह से बोरवाड़ी के ज्यादातर लोग हमसे बात करने को तैयार नहीं होते. मोहल्ले में थोड़ा और आगे जाने पर हमें इस जर्जर-से मकान के आगे ‘सायरा रंगीली कव्वाल’ नाम की तख्ती लटकी दिखाई देती है. पूछने पर मालूम होता है कि इस घर की पिछली सात पुश्तें मुजरा और कव्वाली से जुड़ी हुई हैं. घर में हमें सायरा की बड़ी बहन शमीम बानो मिलती हैं. सायरा एक सफल कव्वाल के तौर पर क्षेत्र में काफी शोहरत कमाने के बाद अब शादी करके जा चुकी हैं. परिवारवाले बताते हैं कि अब वे सिर्फ बड़े कार्यक्रमों में कव्वाली गाती हैं. लगभग 40 वर्षीया शमीम अपना पूरा जीवन एक मुजरा कलाकार के तौर पर बिताने के बाद अब प्रस्तुति देना छोड़ चुकी हैं. थोड़ी कोशिश के बाद वे बातचीत के लिए तैयार हो जाती हैं. हम उनके घर की पहली मंजिल पर मुजरे के लिए बनाए गए एक खास कमरे में बैठते हैं. कमरे में मौजूद एक झरोखेनुमा खिड़की के किनारे बैठ कर शमीम हमें उनकी पुरानी तस्वीरें दिखाती हैं और कुछ नज्में भी गाकर सुनाती हैं.

फिर बोरवाड़ी के सबसे पुराने मुजरा-परिवारों में से एक अपने परिवार और एक मुजरा कलाकार के तौर पर अपने जीवन के बारे में बताते हुए कहती हैं, ‘यह तो पेशा ही जवानी का है. अब सिर्फ तभी गाती हूं जब कोई बहुत पुराना सुनने वाला आ जाए. खैर, हमने आठ बरस की उम्र से ही रियाज शुरू कर दिया था. लगभग आठ  साल की ट्रेनिंग के बाद ही हमें कद्रदानों के सामने पेश किया गया. असल में हमारे वालिद ‘थिरकवा काहा’ (चर्चित स्थानीय कलाकार) के शागिर्द रहे. वे बहुत ही अच्छा तबला बजाते थे. उनको चार मुंह वाले तबले याद थे. दिन भर रियाज करते रहते और तबला खुला रहता. पूरे माहौल में ही संगीत था तो हमें भी शौक चढ़ा. एक दीवानगी-सी थी उस वक्त सीखने की. तो हमें गाना और नाचना सिखाने वाले उस्ताद और कव्वाल, सभी आने लगे. हम सुबह दो घंटे गाने का रियाज करके ही दिन शुरू करते. बड़ी-बड़ी नज्में याद करते और कभी-कभी तो शाम को ही उन्हें सुनाना पड़ जाता था.’

बोरवाड़ी के मुजरे की एक पूरी पीढ़ी को अपनी आंखों के सामने देख चुकी शमीम कहती हैं कि फिल्मी दुनिया ने मुजरे को सबसे ज्यादा नुकसान पहुंचाया है. वे कहती हैं, ‘पहले कद्रदान बड़े-बड़े शायरों की गजलों की फरमाइशें किया करते थे. और अगर हमें याद न हो तों यह बहुत शर्मिंदा होने वाली बात हुआ करती थी. पर अब तो लोग फिल्मी गाने ही सुनना चाहते हैं. पहले राजे-रजवाड़े हमें पेंशन दिया करते थे. मौजूदा सरकार हमारी कला को सहेजने के लिए कुछ नहीं कर रही है. हमारे दौर में तो महफिल में शराब की सख्त मनाही थी और कोई गानेवाली के साथ बदतमीजी नहीं कर सकता था. सब हमें एक कलाकार की हैसियत से मिलने वाला सम्मान देते थे. पर पाकीजा और उमराव जान जैसी फिल्मों ने भी माहौल बहुत बिगाड़ दिया. अरे आज मुजरे वालियों के पास मीना कुमारी या रेखा जैसे महंगे अनारकली सूट और जेवर नहीं होते. हमारी महफिलों में महंगे झाड़-फानूस भी नहीं होते. हमारे पास कभी इतना पैसा ही नहीं रहा. फिल्मी मुजरे और असली मुजरे में जमीन-आसमान का फर्क है.’

धीरे-धीरे गुमनामी के अंधेरे में खो रही बुरहानपुर की इस ऐतिहासिक मुजरा बस्ती के खात्मे के पीछे कुछ सामाजिक कारण भी जिम्मेदार हैं. बोरवाड़ी की रक्कासाओं की व्यथा बताते हुए होशंग सोराबजी आगे जोड़ते हैं, ‘रक्कासाएं आज अपने आखिरी दौर में हैं. पुलिस और सिनेमा के साथ-साथ समाज भी इनकी समाप्ति की एक बड़ी वजह है. इन रक्कासाओं के पास हमेशा से एक विशेष नृत्यकला रही जिसका आनंद तो सभी ने उठाया पर इन्हें एक कलाकार का दर्जा कभी नहीं दिया गया. फिल्मी दुनिया में भी जितने मशहूर मुजरे हुए उन सभी की पैदाइश बुरहानपुर के मुजरों से हुई. उन गीतों का बीज बोरवाड़ी बस्ती ही है लेकिन आज वे फिल्मी गीत इतने मशहूर हैं जबकि यहां के कलाकार अपने दिन गिन रहे हैं. हालांकि मुजरा कुछ ऐसी पुरानी कलाओं में से है जिन्हें सहेजा जाना चाहिए था लेकिन ‘मुजरा’ शब्द सुनते ही समाज इसे एक अलग नजर से देखने लगता है–एक ऐसी कला के तौर पर जिसे देखना तो सभी चाहते हैं, पर कोई स्वीकार नहीं करना चाहता.’ 

रात के लगभग 12 बज चुके हैं. अब हम बोरवाड़ी से विदा ले रहे हैं. अभी भी चुनिंदा घरों से पीले बल्बों की रोशनी फूट रही है और फिल्मी गानों पर थिरकते कुछ आखिरी घुंघरुओं की आखिरी धुनें हमारे कानों में गूंज रही हैं.