सहकारिता से चुनावी सबक

मध्य प्रदेश में सहकारी संस्थाओं पर सत्तासीन होने के लिए भाजपा और कांग्रेस के बीच की उठापटक के साथ ही आगामी विधानसभा का चुनावी बिगुल भी बज गया है. असल में यह 2013 के चुनाव के ठीक पहले का ऐसा मुकाबला है जिसमें दोनों पार्टियां अपनी-अपनी ताकत और जनता की नब्ज टटोल लेना चाहती हैं. ये जानती हैं कि हर गांव में अपनी मौजूदगी दर्ज करने वाली यहां की पांच हजार से अधिक सहकारी संस्थाएं एक ऐसा क्षेत्र बनाती हैं जिससे 70 लाख किसान सदस्य सीधे जुड़े हैं. यही क्षेत्र सूबे का सबसे बड़ा राजनीतिक नेटवर्क है. ग्रामीण अर्थव्यवस्था की ऐसी रीढ़ भी है जिस पर यदि किसी तरह सवार हो गए तो राजनीतिक दल इसके असीमित संसाधनों के दम पर आने वाले कई चुनावों में लाभ लेने की स्थिति में होंगे. यही वजह है कि राज्य में सत्ता की लगाम थामे भाजपा एक बार फिर कानून की आड़ लेकर इस रीढ़ पर सवार होने की तैयारी में है.

किंतु कांग्रेस भी कानून के ही कुछ ऐसे दांव खेल रही है जिससे भाजपा की सवारी तो मुश्किल में पड़ ही गई है, पहली बार सहकारिता के चुनावों के चलते राजनीति का पारा भी अचानक काफी ऊपर चढ़ गया है.
इस चढ़े हुए पारे को जानने से पहले थोड़ा इसकी अंतर्कथा को जान लेना दिलचस्प रहेगा. दरअसल सूबे की सहकारी संस्थाएं देश की सबसे पुरानी संस्थाओं में से हैं और शुरुआत से कांग्रेस के सत्ता में रहने के चलते उसके समर्थकों का ही इन पर कब्जा भी था. राजनीतिक प्रेक्षकों के मुताबिक अस्सी के दशक में पूर्व मुख्यमंत्री स्व. अर्जुन सिंह ने कांग्रेस की नींव मजबूत बनाने के लिए अपनी पार्टी के जिन सुभाष यादव को अपेक्स बैंक का अध्यक्ष बनाया था उन्होंने तीस साल से अधिक समय तक कभी अपनी कुर्सी बचाने तो कभी अपनों को कुर्सियों पर लाने के लिए कानूनों को मन-मुताबिक तोड़ा-मरोड़ा. सहकारिता को सत्ता की वैकल्पिक सीढ़ी बनाते हुए पूर्व उपमंख्यमंत्री के पद तक पहुंचने वाले यादव सहकारिता के नेटवर्क को इतना मजबूत मानते थे कि एक जमाने में उन्होंने राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ के नेटवर्क से मुकाबला करने के लिए सरस्वती शिशु मंदिर की तर्ज पर सहकारिता स्कूल खोलने तक की वकालत की थी. उनके बारे में कहा जाता है कि उन्होंने ही राज्य में सहकारिता का एक ऐसा बहुस्तरीय (प्राथमिक सहकारी समिति से लेकर अपेक्स बैंक तक) ताना-बाना बुना था जिसमें लाखों वेतनभोगी कर्मचारियों को सत्ता का साथ देने के लिए एक सहायक कैडर के तौर पर उपयोग में लाया जाने लगा.

बीते सात साल से सहकारिता पर काबिज भाजपा भी यह भलीभांति जानती है कि सहकारिता इतना बड़ा सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम है जिससे प्रदेश का 70 प्रतिशत ग्रामीण वोट बैंक जुड़ा है. वह जानती है कि यदि उसे गांवों तक अपनी जड़ंे जमानी है तो प्राथमिक सहकारी संस्थाओं पर अपने समर्थकों को बैठाना पड़ेगा. इसके पहले भी 1990 में भाजपा के सुंदरलाल पटवा मुख्यमंत्री बने तो उन्होंने सभी संस्थाओं को भंग करने का आदेश देकर सहकारिता से कांग्रेस समर्थकों को बेदखल किया था. मगर निर्वाचित संस्थाओं को अकारण भंग करने के चलते हाई कोर्ट ने सभी संस्थाएं पुनः बहाल कर दीं. इसके बाद 2003 में भाजपा जब दोबारा सत्ता में लौटी तो पूर्व मुख्यमंत्री उमा भारती ने सहकारिता पर पार्टी की पताका फहराने के लिए गोपाल भार्गव को विभागीय मंत्री नियुक्त किया. भार्गव ने एक विशेष रणनीति के तहत समयसीमा से अधिक खर्च करने के नाम पर बड़ी संख्या में पदाधिकारियों के खिलाफ जांच करवाई और उन्हें बाहर का रास्ता दिखा दिया. सहकारिता उपभोक्ता भंडार के पूर्व अध्यक्ष ब्रजमोहन श्रीवास्तव बताते हैं, ‘इस दौरान शासन के एक विशेष आदेश के तहत कई कामकाजी कमेटियां बना ली गईं और सत्ता के सूत्रों का उपयोग करते हुए कई भाजपाई उनके अंदर पहुंच गए.’

सहकारिता इतना बड़ा सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रम है कि इससे प्रदेश का 70 प्रतिशत ग्रामीण वोट बैंक जुड़ा है. इस बात को दोनों पार्टियां बहुत अच्छे से जानती हैं

लेकिन हाल ही में केंद्र की कांग्रेसनीत यूपीए सरकार ने संविधान में संशोधन करते हुए सहकारिता को मूलभूत अधिकारों में शामिल कर लिया है और इसी में सहकारिता चुनाव से जुड़ा एक ऐसा प्रावधान भी है जिसने इन दिनों भाजपा सरकार की नींद उड़ा दी है. प्रावधान के मुताबिक राज्य में सहकारी संस्थाओं का चुनाव एक स्वतंत्र प्राधिकरण के माध्यम से किया जाना है. अभी तक इसके चुनाव विभाग के ही आयुक्त पंजीयक के जरिए संपन्न कराए जाते रहे हैं. इस क्षेत्र की रिपोर्टिंग से जुड़े जानकार बताते हैं कि मुख्यधारा के चुनावों से ठीक उलट सहकारिता के चुनाव ‘जिसकी लाठी उसी की भैंस’ यानी जिसकी सत्ता उसी की सहकारिता की तर्ज पर कराए जाते रहे हैं. मगर केंद्र के इस संशोधन के बाद राज्य सरकार का निर्वाचन की प्रक्रिया पर किसी तरह का कोई नियंत्रण नहीं रह जाएगा और यही वजह है कि सूबे में जहां कांग्रेसी नेताओं की बांछंे खिली हुई हैं वहीं भाजपा ऊहापोह की स्थिति में है.

इस संशोधन का कानूनी पहलू यह है कि यह फरवरी, 2013 तक राज्य में प्रभावी हो जाएगा. यानी इसके पहले यदि चुनाव नहीं हुए तो राज्य की भाजपा सरकार अपने मुताबिक चुनाव नहीं करा सकती और उसे नई व्यवस्था के तहत चुनाव में उतरना पड़ेगा. इसलिए ऐसी स्थिति से बचने के लिए वह अपनी निर्वाचित सूची के आधार पर किसी भी सूरत में जनवरी के पहले चुनाव कराने की ताक में है. वहीं कांग्रेस की कवायद है कि जनवरी के पहले किसी भी सूरत में चुनाव न हो पाएं और इसी कवायद को लेकर दोनों दल कानून के मैदान पर अपनी-अपनी तलवारें भांज रहे हैं. कांग्रेस के सहकारिता नेता भगवान सिंह यादव कहते हैं, ‘जब एक बार केंद्र से संशोधन किया ही जा चुका है तो राज्य सरकार नई व्यवस्था लागू होने तक क्यों नहीं रुक सकती?’ दूसरी तरफ, सहकारिता मंत्री गौरीशंकर बिसेन का कहना है, ‘सभी सहकारी संस्थाओं का कार्यकाल समाप्त हो चुका है और ऐसे में निर्वाचन के लिए लंबा इंतजार नहीं किया जा सकता.’

भाजपा की दूसरी बेचेनी सहकारी अधिनियम, 1960 की धारा 48(7) को समाप्त करने से जुड़ी है. दरअसल 2007 के अधिनियम संशोधन में अऋणी (जिसने संस्थाओं से कभी लेन-देन नहीं किया) को भी चुनाव में भाग लेने का अधिकार दिया गया है. पर्दे के पीछे माना जा रहा है कि इन्हें कांग्रेस के प्रभाव से मतदाता सूची में शामिल किया गया था और यह गाहे-बगाहे उसी की तरफदारी करेंगे. एक तिहाई से अधिक अऋणी सदस्य होने के चलते भाजपा नेताओं को डर है कि यह संख्या कहीं सरकार का पांसा न पलट दें. उनके डर का अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि राज्य सरकार आनन-फानन में एक ऐसा अध्यादेश भी ले आई है जिसमें सभी अऋणी सदस्यों को चुनाव से दूर कर दिया जाएगा. अपेक्स बैंक के उपाध्यक्ष कैलाश सोनी की मानें तो इससे सहकारिता की सेहत सुधरेगी. सोनी के मुताबिक, ‘अऋणी सदस्यों का सहकारिता से कोई लेना-देना नहीं है. इसलिए संचालक मंडल में यदि इनकी संख्या बढ़ी तो यह सहकारिता का ही बेड़ा गर्क कर डालेंगे.’ वहीं कांग्रेस जानती है कि यदि ऋणी सदस्यों को ही शामिल किया गया तो इसका सीधा लाभ सत्तारूढ़ दल को मिलेगा. कांग्रेसी नेताओं को लगता है कि जिन किसानों ने सरकार से ऋण नहीं लिया वे तो उनकी तरफ रहेंगे लेकिन जिन्होंने जीरो प्रतिशत ब्याज दर जैसी लुभावनी योजना से ऋण लिया है वे सरकार की तरफ जाएंगे. इसीलिए अध्यादेश के खिलाफ वह राज्यपाल की परिक्रमा तो लगा रही है, हाई कोर्ट का दरवाजा भी खटखटा आई है. कांग्रेसी विधायक गोविंद सिंह का कहना है, ‘किसी भी किसान का ऋण नहीं लेना इतनी बड़ी गलती नहीं है कि केवल इसी आधार पर उससे उसका मताधिकार छीन लिया जाए.’

भाजपा की दूसरी बेचेनी सहकारी अधिनियम, 1960 की धारा 48(7) को समाप्त करने से जुड़ी है.

भाजपा की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं होतीं. सहकारिता चुनाव कराने में सबसे बड़ी भूमिका अधिकारियों को निभानी है, लेकिन प्रशासनिक सूत्रों के मुताबिक लंबे समय तक सत्ता के शीर्ष पर बैठने के चलते इनमें से कईयों को सत्ता का चस्का लग गया है और वे चाहते हैं कि दोनों दल और अधिक उलझें ताकि कई संस्थाओं के अध्यक्ष या उपाध्यक्ष के पद पर बैठे रहने का उन्हें और अधिक मौका मिल सके. इसी के साथ भाजपा की एक अड़चन सहकारिता जैसी बड़ी सल्तनत में अपने और पराये की सही पहचान से जुड़ी है. पार्टी सूत्रों के मुताबिक सहकारिता में एक बड़ा तबका भाजपा के ही कैडर का है लेकिन इसमें खासी संख्या ऐसी भी है जो भाजपाई का छदम रूप धरकर घुस गई है. नौबत यह है कि जबलपुर, पन्ना, होशंगाबाद और सीधी जैसी कई सहकारी संस्थाओं में भाजपा को अपने द्वारा ही बनाए गए अध्यक्षों से लड़ना पड़ रहा है. यानी भाजपा में आपसी समन्वय का अभाव भी चुनाव थमने की एक वजह बन रहा है.

इन सबके बावजूद भाजपा को सहकारिता चुनाव में उतरना ही पड़ेगा. दरअसल भाजपा सूबे में तीसरी बार सरकार बनाने की जद्दोजहद में है और सरकार के खिलाफ बढ़ते रुख को भांपते हुए वह सहकारिता पर अपना शिकंजा कसना चाहती है. वरिष्ठ पत्रकार शिवअनुराग पटेरिया बताते हैं, ‘किसी भी चुनाव के पूर्व हर पार्टी अपने आपको जांचती-परखती है और जनता को मतदान तक खींचने के लिए एक तंत्र भी बनाती है. मध्य प्रदेश में सहकारिता बना-बनाया तंत्र है और इसलिए भाजपा अपने समर्थन में इस तंत्र को साध रही है.’ इसे साधने की और एक वजह है. प्रदेश में सरकार के मुकाबले सहकारिता के विभागों की संख्या कहीं अधिक है. इसलिए आगामी विधानसभा या लोकसभा चुनावों में भाजपा को यदि उम्मीद के मुताबिक नतीजे नहीं मिले तो भी वह राज्य की इस समानांतर सत्ता पर आने वाले पांच साल तक बैठना चाहती है.