मुझे क्या बेचेगा रुपैया

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वैशाली,  20 साल
27 जून 2008,  बनारस
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आखिर ग्रेजुएशन का रिजल्ट आ ही गया. अच्छे मार्क्स हैं, बीएचयू की डिग्री है लेकिन केवल ग्रेजुएशन से होता क्या है आजकल वह भी आर्ट्स से? आज मां की बहुत याद आ रही है. वह होती तो जरूर कुछ सलाह देती. उसे गुजरे पूरे छह साल हो गए. 14 कोई उम्र नहीं होती मां से अलग होने की… लेकिन बस हो गया. मां थीं तो कहा करती थीं- 20 की उम्र जिम्मेदारियां उठाने की उम्र होती है. उंह.. जिम्मेदारियां, वो तो मां के गुजरते ही बहुत नैचुरली मेरी दोस्त बन गईं. मां के जाने के बाद बुलबुल की मां मैं ही तो हूं.

टीनएज का रोमांच तो मानों किस्सों-कहानियों के साथ ही आया और चला गया. न तो उम्र के 13वें पड़ाव की शुरुआत पर कुछ खास महसूस हुआ था और न ही 19 वें के अंत में ऐसा कुछ लगा जिसे अलग फीलिंग का नाम दे सकूं. मां..ओ मां…सुन रही हो, मेरा बचपन तुम पर उधार  रहा.

रिजल्ट के बारे में सुनकर पापा ने भी कुछ रिएक्ट नहीं किया. पता नहीं उनके मन में क्या चल रहा है? दूसरों से ही सुना है कि पापा मेरी बहुत तारीफ करते हैं लेकिन मेरे कान तो तरस ही गए उनके मुंह से बेटी सुनने के लिए. पता नहीं वह कौन सा संकोच है जो उनको रोकता है? या फिर शायद लोग ही झूठ बोलते हैं मेरा दिल रखने के लिए. दादी के हावभाव देखकर तो लगता है मानो मेरी शादी ही इस समय सबसे बड़ा इश्यू है. उनका बस चले तो लड़कियों की (समय पर ) शादी को पॉलिटिकल पार्टीज के मेनिफेस्टो में ही शामिल करवा दें.

28 जून 2008, रात 12.30
बुलबुल आज फिर कुमार चाचा की शिकायत कर रही थी. ये कुमार चाचा की प्रॉब्लम क्या है? बिना टच किए कोई बात नहीं हो सकती है क्या? पचास बार बता चुकी हूं कि बुलबुल अब बच्ची नहीं है 14 साल की यंग लड़की है लेकिन उनका दुलार है कि कम होने के बजाय बढ़ता ही जा रहा है. किससे कहूं… पापा के लिए तो जैसे हम एक्जिस्ट ही नहीं करते और दादी से इस बारे में कुछ कहने का कोई मतलब नहीं है. कहा तो था चार साल पहले जब देर रात शराब पीने के बाद चाचा जबरन बुलबुल ‘बेटी’ को अपने पास सुलाने की जिद पर अड़ गए थे ….. आखिर क्या हुआ था उस वक्त भी? वही  चुप रह, ज्यादा अक्ल मत लगा, अरे चाचा है कोई राक्षस नहीं है, तुझे इन बातों की खूब समझ हो गई है. यही सब पढ़ाया जाता है स्कूल में और जाने क्या क्या  सुनना पड़ा था?  अनिकेत सही कहता है- औरतें चाहें किसी भी तबके से हों सबसे पहले वे पीड़ित, शोषित और दलित की कैटेगरी में ही आती हैं. भोपाल और लखनऊ के दो जर्नलिज्म इंस्टीट्यूट्स में एप्लाई किया है. कहीं बात बनती है तो सबसे पहले बुलबुल को बोर्डिग स्कूल में डालूंगी, उसके बाद ही खुद कहीं जाऊंगी.

25 जुलाई 2008
फाइनली भोपाल में सेलेक्शन हो ही गया. बनारस अभी छूटा नहीं है लेकिन छूट ही गया है. इस उम्र में पहली बार घर से बाहर नई जगह जाना मानो अपनी जड़ें नई जगह रोपनी हैं. बुलबुल को बोर्डिंग में डालने को लेकर खूब तनातनी हुई. पापा तो हर चीज से मानो बेजार ही हो गए हैं. चाचा को पहली बार कल आंखों में आंखंे डाल के समझाया. जाने क्यों नजर नहीं मिला पा रहे थे. जाते-जाते उनको पिंकी विरानी की बुक ‘बिटर चॉकलेट्स’ गिफ्ट करूंगी ये सोच लिया है मैंने. अनिकेत की याद बहुत आने लगी है जबकि अभी तो उससे दूर भी नहीं हुई हूं. कल शाम लाइब्रेरी में उससे कहना चाहती थी कि अपना ख्याल रखना लेकिन कह बैठी- मेरे पीछे पापा का ख्याल रखना. वह भी तो एकदम डूबा डूबा सा नजर आ रहा है. एक बार कहता भी नहीं कि वैशाली मत जाओ… लेकिन क्या मैं उसके कहने से रुक जाऊंगी?

31 नवंबर 2008
भोपाल का माहौल हमारे बनारस से एकदम अलग है. लोग उतने मस्तमौला नहीं हैं. सब बहुत व्यस्त रहते हैं और रिजर्व भी. मकान मालकिन भी कहां कुछ बातचीत करती है. शायद मैं बाहर से आई हूं इसलिए ऐसा लगता है. यहां तो लगता है सारे लोग बस ऑफिस में ही काम कर रहे हैं. हर कोई या तो ऑफिस से आ रहा है या ऑफिस जा रहा है…कमाल है. मुझे बनारस से जल्दी आना चाहिए था. आने में थोड़ी देर क्या हुई हॉस्टल सारा बुक हो गया. अगर कोई कभी किराए के मकान में नहीं रहा तो वह समझ ही नहीं सकता कि यह कितनी बड़ी समस्या है. मैं जर्नलिज्म यूनिवर्सिटी में हूं, जाहिर है असाइनमेंट पर होती हूं तो कई बार आने में देर हो जाती है. मकान मालिक का परिवार कुछ कहता तो नहीं लेकिन उनकी नजरों में जो चुभता हुआ संदेह है वह मुझे अच्छा नहीं लगता. अपने बैचमेट्स को कभी घर बुला लिया तो जेंट्स को देखते ही किसी न किसी बहाने दरवाजे की घंटी बजा ही देंगे.

‘दादी का बस चले तो लड़कियों की (समय पर ) शादी को पॉलिटिकल पार्टीज के मेनिफेस्टो में ही शामिल करवा दें’

5 जनवरी 2010
अनिकेत का फोन आना धीरे-धीरे कम हो गया है. उसे मैंने फेसबुक पर भी ब्लॉक कर दिया है. भोपाल आने के बाद उससे जो नोकझोंक हुई उसने इस रिश्ते को बिल्कुल ठंडा कर दिया. आई मीन ये क्या है यार? मैं जर्नलिज्म का कोर्स कर रही हूं तो तुमने क्या डिटेटिक्व एजेंसी ज्वाइन कर ली है? 1000 किलोमीटर दूर बैठकर तुम्हें मेरे हर एक पल का हिसाब चाहिए? कहां गई थी? फोन क्यों नहीं उठाया? फेसबुक पर ये अमित कौन है जो बार बार तुम्हारी पिक्स लाइक करता है? हर बात में देखो झूठ मत बोलो. अरे यार जब तुमने तय कर ही लिया है कि मैं झूठ बोलती हूं तो तुम ये सारे सवाल करते क्यों हो? जिन अच्छी बातों ने मुझे उसकी ओर खींचा था उनमें से अब एक भी नजर नहीं आती. उसके अंदर भी वही टिपिकल मर्द दिखता है जिनके बीच मैं बड़ी हुई हूं. मुझे एक और मर्द नहीं चाहिए बॉस. लिव योर लाइफ डियर फ्रैंड एंड लेट मी लिव माइन. सच में यहीं आकर पता चला कि जिंदगी में करने के लिए कितना कुछ है. जर्नलिज्म इकलौता ऐसा फील्ड है जहां आप संतुष्टि पाने के साथ-साथ करियर भी बना सकते हैं.

21 जनवरी
अगर कभी ईश्वर से मेरा आमना सामना हुआ ना, तो एक ही चीज मांगूंगी. हे भगवान, सारे लड़कों को एक बार लड़कियां बना दो. तब इनको पता चलेगा जिंदगी कितनी कठिन है. यहां तक कि यूनिवर्सिटी के लड़के भी. किसी से थोड़ा फ्रैंडली होकर बात कर लो, बस हो गया काम. पहले नंबर प्लीज उसके बाद मैसेज पर मैसेज. कुछ भी कहने का मतलब है अपने कैरेक्टर पर लांछन लगवाने की पहल करना. मन करता है न्यू मार्केट चौराहे पर चिल्लाकर कह दूं- स्टॉप स्टेरिंग. घूरना बंद करो भाई लोग. मैं भी इंसान हूं. किसी वनविहार से भागकर आया हुआ कोई जानवर नहींं. अमित से थोड़ा बहुत राब्ता हुआ था तो वो मियां कुछ ज्यादा ही प्रोटेक्टिव बनने लगे. सारे लड़कों की एक ही प्रॉब्लम है क्या?

‘मैं फिल्मों की दुखियारी पत्नी नहीं जो टसुए बहाते हुए अपने ‘प्राणनाथ’ की बाट जोहती है. इनके घर वालों को शायद इसी बात का गम भी है’

18 फरवरी
इस महीने के अंत तक फाइनल एग्जाम्स हो जाएंगे. उसके बाद क्या होगा? ये सवाल सोने नहीं देता. पापा के न्यूट्रल होने का ये फायदा है कि वो शादी के लिए बहुत अधिक प्रेशर नहीं डाल पाते. दादी की उतनी चल नहीं पाती. बुलबुल के बोर्डिंग जाने के बाद से उसकी ओर से कुछ निश्चिंत हो गई हूं. घर गए भी नौ महीने से ज्यादा हो गए. कुछ भी हो घर की याद तो आती ही है लेकिन सबसे ज्यादा याद मां और बुलबुल की आती है. मां तो रही नहीं. पता नहीं मेरी छोटी की बोर्डिंग में कैसी परवरिश मिल रही है.

23 मार्च
एग्जाम्स खतम हो गए हैं और गमे रोजगार शुरू. साल भर की पढ़ाई के दौरान सभी साथियों के साथ जो जनगीत गाए और वरिष्ठ पत्रकारों के साथ दुनिया को बदलने का जो हौसला जुटाया वह हवा हो चुका है. अब तो बस एक ही लक्ष्य है एक नौकरी मिल जाए ताकि दोबारा बनारस नहीं जाना पड़े. जिस अखबार में इंटर्नशिप की थी उसमें और कई जगहों पर सीवी डाल तो दिया है लेकिन हर जगह वही टका सा जवाब अभी वैकेंसी नहीं है. जैसे ही कुछ होगा कॉल करेंगे. क्या तो कॉल करोगे तुम लोग? इतने दिन में इतना तो जान ही गई हूं कि बिना जुगाड़ के कुछ नहीं होने का.

22 साल
19 अप्रैल, 2010,
हाथ कांप रहे हैं… मेरा पहला अप्वाइंटमेंट लेटर हाथ में है. दिल्ली का एक अखबार है. हां…हां महीने के 10,000 रुपये देगा तो क्या, मेरी अपनी कमाई होगी. पापा को फोन किया था. पहली बार थोड़े खुश लगे. मैं भी तो कुछ ज्यादा ही इमोशनल हो गई थी, ‘पापा छोड़ो बनारस वनारस, मेरे साथ दिल्ली आकर रहो.’ बैकग्राउंड में दादी का बड़बड़ाना जारी था. आज मैं बहुत खुश हूं. सोचा दादी को भी कह ही डालूं कि हां… हां कर लूंगी शादी भी.

दो साल बाद…. (24 साल और उसके बाद)
1 अक्टूबर 2011
आज शादी की पहली सालगिरह है और ये गायब हैं. अंदाजा लगाना मुश्किल नहीं है कि ये कहीं दोस्तों के साथ बैठे शराब पी रहे होंगे. नहीं…नहीं मैं कोई हिंदी फिल्मों की दुखियारी पत्नी नहीं हूं जो टसुए बहाते हुए अपने ‘प्राणनाथ’ की बाट जोहती है. मैंने शादी के बाद भी नौकरी छोड़ी नहीं है और इनके घर वालों को शायद इसी बात का गम भी है. कभी-कभी लगता है अरेंज मैरिज करके कहीं गलती तो नहीं कर दी? बहुत सोच समझकर इस रिश्ते के लिए हां की थी. पापा भी खूब उत्साहित थे. उन्होंने स्पेशली मेरे जॉब को ध्यान में रखते हुए दिल्ली में रहने वाला लड़का खोजा. कितना तो दहेज दिया था. इन लोगों ने भी उस वक्त तो कोई डिमांड नहीं रखी थी लेकिन धीरे-धीरे असलियत सामने आने लगी है.

मीठी बातें करके पापा को तो ये लोग जितना दुह सकते थे दुह ही लिया. अगर दादी मुझे नहीं बतातीं तो कभी पता भी नहीं चल पाता कि इन्होंने इतने पैसे लिए. यहां आकर पता चला कि इनको मेरी सैलरी भी चाहिए और घर में काम करने के लिए एक लौंडी भी. इतना खराब माहौल है कि क्या कहूं? अभी तक तो किसी तरह संघर्ष जारी है लेकिन पता नहीं कब तक ऐसे चलेगा?

20 दिसंबर
राहुल को मैं आजतक समझ नहीं पाई. एक पल लगता है कि ये मुझसे बहुत प्यार करता है, लेकिन दूसरे ही पल यह बिल्कुल अजनबी है. मां-पापा के सामने तो यह ऐसा घबराता है जैसे प्रिंसिपल के सामने फर्स्ट स्टैंडर्ड का बच्चा खड़ा हो. अगर वो उनके सामने मेरे लिए स्टैंड ही नहीं ले सकता तो फिर काहे का पति और काहे का जीवनसाथी? आज सुबह उठने में थोड़ी देर हो गई तो मांजी किचन में जाकर नाश्ता बनाने का ड्रामा करने लगीं. अरे भई मैं भी काम करके आती हूं? रात देर से सोती हूं…रोज तो करती ही हूं न, एक दिन अगर आंख लग गई तो इतना तमाशा क्यों? एकदम रेस के घोड़े की तरह दिन रात भागना पड़ रहा है. आज वो रिश्तेदारों के सामने ताने दे रही थीं तो राहुल को कुछ बोलना चाहिए था. लेकिन मेरे जवाब देने पर वह उलटा मुझ पर बरस पड़ा. मैंने इसलिए अरेंज मैरिज की थी ताकि लोग ये न कहें कि फलाने की लड़की घर से पढ़ने निकली थी लेकिन वहां जाकर ‘नाक’ कटा आई. बिरादरी की नाक का भी तो ख्याल रखना था ना. मुझे नहीं पता था यहां इतनी तरह के ड्रामे होंगे.

29 जनवरी
सुबह एक असाइनमेंट पर जल्दी जाना है. राहुल से उसकी कार मांगी तो कहने लगा, बाप के घर से लाई हो क्या? वह बार बार अपनी नौकरी छोड़कर बिजनेस करने की बात कहता है. ये लोग जो रोज नया ड्रामा करते हैं कहीं और पैसे के लिए तो नहीं है? वह पहले भी बुरा बोलता था लेकिन अब हद हो रही है. ताने मारने की यह स्टाइल उसने अपनी मां से सीखी है. इन छोटे छोटे तानों का असर इतना है कि जी में आता है  किसी दिन खाने में जहर मिलाकर मार डालूं या खुद ही किसी दिन मेट्रो के आगे कूद जाऊं. जब वी मेट फिल्म का वह सीन देखकर मैं बहुत हंसी थी जिसमें स्टेशन मास्टर करीना कपूर से बोलता है कि अकेली लड़की खुली हुई तिजोरी के समान होती है. लेकिन नौकरी करने के बाद समझ में आया कि यह मजाक बिल्कुल नहीं था. बल्कि इसके अलावा सबकुछ मजाक ही है.

27 फरवरी
जैसे इतना ही काफी नहीं था.  अब इनको (या शायद इनके मां बाप को) बच्चा चाहिए. जी में आया कह दूं कि राहुल तुमने बेसिक साइंस भी नहीं पढ़ा है क्या? हमें सीधे मुंह बात किए हुए भी जमाना गुजर गया है तो बच्चा क्या ‘भगवान जी’ मेरी गोद में डालेंगे? अजीब नॉनसेंस लोग हैं. और मैं क्यूं पैदा करूं बच्चा-बच्ची? इसलिए कि उसे भी मेरे जैसा ही ‘शानदार’ जीवन मिले? कान खोलकर सुन लो राहुल एक बार नहीं… हजार बार नहीं.
दोस्त कहते हैं कि अभी बहुत देर नहीं हुई है, ये रिश्ता तोड़ ले. सच भी है न कोई लगाव है न जुड़ाव. लेकिन शादी तोड़ने के बाद के जीवन की कल्पना तो और भी रूह कंपाने वाली है.  n

डायरी लेखन:पूजा सिंह

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राबिया, 25 साल

20 सितंबर 2012,  अजमेर

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मैं शादी क्यों करूं? क्या इसलिए कि सब कर रहे हैं? अगर ऐसा है तो सब धोखेबाजियां, जालसाजियां भी कर रहे हैं. तो आज से ही शुरु कर देती हूं. बड़ी खाला पिछले दिनों घर आईं तो कह रही थीं ‘दुनिया की ज़रूरत है शादी.’ मैंने कहा ‘दुनिया की ज़रूरत तो पेट्रोल भी है, अब क्या कूंआ खोदने लगूं.’ खाला चिढ़कर बड़बड़ाने लगीं ‘अरे, भई कोई साथी तो होना चाहिये ना, पूरी 25 की हो गई हो’ मैंने इतराते हुए खाला के कंधे में हाथ डाला ‘साथी की फिक्र क्यों करती हैं, बिटिया आपकी इतनी बुरी भी नहीं’ ये खाला के सब्र की इन्तेहा थी ‘सारा दिमाग पढ़ाई ने खराब किया है,’ अब तक मैं मैदान में उतर चुकी थी ‘लो, मानो जब आदम-हौआ ज़मीन पर आए तो अल्लाह ने साथ में काज़ी भी भेजा था.’

मां बताती है, बचपन में मैं अपने टिफ़िन बॉक्स में चाय ले जाने की जिद करती थी. जब टीवी पर कुकिंग ऑयल का विज्ञापन आता भाग कर किचन में जाती और प्लेट लेकर आ जाती कि टीवी में से पूड़ियां और पकौड़े निकालेंगे. वो बचपना था. 18 साल की उम्र में दुनिया जीत लेने वाला एहसास टीन-ऐज का जोश था. यानि अब तक सब नॉर्मल ही था. किसी को बताऊंगी तो वो इन बातों से इत्तेफ़ाक रखेगा कि सबके साथ ऐसा ही होता है. फिर आज मेरा हर कदम, मेरी हर बात सबको खटकती क्यों है? बचपन में ज़्यादातर बच्चियां शादी के जिक्र पर शर्माकर बुदबुदाती हैं ‘मुझे शादी नहीं करनी.’ उस वक्त सब हंस देते हैं. लेकिन जब यही बात 25 साल की कोई लड़की कहती है तो उसे फुंकार समझा जाता है.

‘तुम शादी कब करोगी?’ ये सवाल हर बार एक अलग शक़्ल लिए मेरी चौखट पर घंटी बजाता है. जब दादी सर पर हाथ रखकर ‘बिटिया’ कह कर पूछती हैं तो मैं दरवाजा खोलती हूं और कहती हूं, ‘दादी अभी तो बच्ची हूं, देखिये ना मेरा कद सिर्फ पांच फुट ही है’ दादी मुस्कुराती हैं और बताती हैं, ‘बहनी, हम तेरह साल की थीं जब बिदा हो गई थीं, हम तब चार फ़ुट की रहीं. तुम्हरे दादा पंद्रह साल के रहे, ओ वक़्त हमसे लम्बे थे, पांच फुट के रहे. फिर धीरे-धीरे हम छ: फुट की हो गईं और वो छोटे ही रह गए’. दादी के इस मज़ेदार किस्से के साथ बात का रुख घूम जाता. अपने से छोटी किसी लड़की की शादी में जाना भी एक चैलेंज है. पिछले महीने जरीन की छोटी बहन ज़ैनब का निकाह था. स्टेज पर जब उससे मिलने गयी तो कहने लगी, ‘बाजी, अब आप भी निकाह पढ़वा ही लो.’ मैं उसके चेहरे से भी बड़ी नथ को देखती रही जो बार-बार उसके गोटे वाले दुपट्टे की झालर में फंस रही थी. उसके पर्स से मैचिंग, कस्टम- मेड जूती ने मेरा ज़ायका इतना बिगाड़ दिया कि कबाब का लुत्फ भी नहीं उठा सकी.

हर जगह बगावत का झंडा बुलंद करने से अच्छा होता है, बस बालकनी से झांक कर सवाल को रफ़ा-दफ़ा कर दो, जैसे किसी सहकर्मी के पूछने पर कह दो, अच्छा रिश्ता मिलेगा तो ज़रूर कर लूंगी. बैंगलोर से जब बड़ी बहन फोन करती है तो बिना लाग लपेट वाला जवाब देती हूं, ‘पहले इतने पैसे हो जाएं कि अपना घर खरीद सकूं, तब शादी पर गौर फरमाया जाएगा.’ वो परेशान होकर कहती है, ‘बहना, उसमें तो सदियां लग जायेंगी, क्या बुढ़ापे में शादी करेगी.’  मैं पलटकर पूछती हूं ‘शादी का जवानी से क्या लेना देना’ तो वो कुछ ना कहना ही बेहतर समझती है.

हद तो आज हुई जब मेरे रेडियो प्रोग्राम के दौरान लिसनर का मैसेज आया, ‘ईश्वर से प्रार्थना करूंगी कि आपकी शादी जल्दी हो जाये’ मानो मुझे कोई जानलेवा बीमारी हुई हो जिसे ठीक करने के लिये दुआ की ज़रूरत हो. चार शादीयाफ़्ता सलमान रुश्दी ने कहा था कि लड़कियां शादी इसलिए करती हैं क्योंकि उन्हें शादी का जोड़ा पहनने का शौक होता है. सोच रही हूं करीना ने तो कोई खास जोड़ा नहीं पहना था…हां, लेकिन उसके पास अपना घर खरीदने जितने पैसे ज़रूर होंगे. 

डायरी लेखन: फौजिया रियाज

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मंजरी,  26 साल
23 नवंबर 2012, मुंबई, रात 11.30 बजे.
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आखिर मानव उसी होशंगाबाद वाली लड़की से शादी कर रहा है. मुझे शक तो पिछले चार महीने से था, लेकिन आज शाम की लड़ाई के बाद आखिर ये बात कन्फर्म भी हो गई. पूरा शरीर बुखार में तप रहा है और आंसू हैं कि रुकने का नाम नहीं ले रहे. मुझे ये फ्लैट भी जल्दी से बदलना पड़ेगा क्योंकि इस घर के कमरों में मेरी और मानव की बहुत मीठी यादें बसीं हैं…और शायद कड़वी भी.

मुझे याद है, कल शाम मैं बालकनी में खड़ी थी और बहुत टूटा हुआ महसूस कर रही थी. मानव पीछे ही खड़ा था. मैंने हमेशा की तरह उससे कहा, ‘मानव, प्लीज़ होल्ड मी’! लेकिन वो बिना कुछ कहे ही कमरे में चला गया. पहले मेरे ऐसा कहते ही हम तुरंत प्रेम से गले लग जाते थे. मैं कभी रोती..कभी खुश हो जाती…उसके कपड़ों पर अपनी उंगलियों से पहाड़ियां और फूल बनाती रहती और फिर हम खूब हंसते. कल शाम उसके जाने के बाद मैं चीखकर रोई थी. जैसे मेरे अंदर मेरा ही कोई हिस्सा धीरे-धीरे मर रहा हो. मानव मेरी आवाज़ सुन रहा था लेकिन मुझे चुप कराने नहीं आया. मेरी भावनात्मक तीव्रता उसे कभी समझ में ही नहीं आई. वो कभी प्रेम की उस वंचना को महसूस ही नहीं कर सकता था जो मैं कर रही थी. जब मैं उससे खुद को होल्ड करने के लिए कहती हूं तो मुझे उससे शारीरिक सुख से कहीं ज्यादा एक ईमानदार सांत्वना की दरकार होती है. एक दिलासा कि कोई है जो जानता है कि मेरे अस्तित्व का एक हिस्सा पागल है और उससे बहुत प्रेम करता है. कोई है जो मुझे मेरे पागलपन, मूड स्विंग्स, चिल्ला-चोट और काम की डेडलाइंस में फंसे होने के बाद भी स्वीकार करता है. कोई है जो मुझमें अक्सर बेवक्त जाग जाने वाले इमोशनल इम्पल्सेस के साथ मुझसे प्यार करता है.

और अगर मैं उसे पब्लिकली गले लगा लूं या उसे किस कर लूं तो उसे सिर्फ मेरा प्रेम समझे…क्योंकि वो शुद्ध प्रेम है..एकदम खालिस. शुरू-शुरू में तो मानव ऐसा ही था लेकिन पिछले चार महीनों के दौरान उसमें बहुत बदलाव आए हैं. उसने पहली बार मुझसे कहा था कि वो किसी ऐसी लड़की से ही शादी करेगा जिसका पहले कोई संबंध न रहा हो. मैं सुनकर चौंक गई थी कि मानव शादी के लिए कोई वर्जिन ढूंढ रहा है ! हमारे साथ आने से पहले उसकी दो रिलेशनशिप्स टूट चुकी थीं और मुझे भी एक बार प्यार हो चुका था. मैं और मानव पिछले चार साल से साथ थे और शादी के बारे में भी अक्सर बात करते थे. लेकिन लगभग छह महीने पहले उसके पापा ने उसे धमकी दी थी की अगर उसने अपनी मर्जी से शादी की तो वे उसे प्रॉपर्टी से बेदखल कर देंगे. उसकी मां उसे हमेशा ‘गृहकार्य में दक्ष पढ़ी-लिखी कन्याओं’ की तस्वीरें भेजती रहती और वो मेरी चिंता को हंसी में उड़ा देता. मुझे मानव पर कितना विश्वास था…उसपर और उसकी बातों पर. जब उसने कहा कि उसके पास मेरे लिए बहुत सारा स्पेस है…मैंने सच मान लिया. जब उसने कहा कि हर किसी का पास्ट होता है उसे मेरे पास्ट से कोई प्रॉब्लम नहीं…मैंने सच मान लिया. जब उसने कहा कि वो मेरी पढाई-लिखाई..अपने काम को लेकर मेरे पैशन और प्रोफेशनल फ्रंट पर मेरी लगतार हो रही तरक्की का बहुत सम्मान करता है और मेरे लिए बहुत खुश है..तब भी मुझे लगा कि वह सच बोल रहा है. मुझे लगा वो आज के ज़माने का सुलझा हुआ लड़का है. लेकिन आज वो शादी के लिए किसी वर्जिन की तलाश में है!

मुझे आश्चर्य होता है कि मैं इतने सालों में उसके अंदर छिपे इन दकियानूसी ट्रेट्स को पकड़ क्यों नहीं पाई. आज शाम की आखिरी लड़ाई के दौरान उसने ऐसी बातें कहीं जिन्हें मैं जिंदगी भर नहीं भूल पाऊंगी. उसने कहा कि उसे शुरू से मेरा सेक्सुअली लिबरेटेड व्यवहार पसंद नहीं था. और फिर जैसे दुनिया की सारी नफरत अपनी आंखों में भरते हुए बोला, ‘और तुम हो ही खराब लड़की. तुम्हारे पुराने बॉय-फ्रेंड ने भी तो तुम्हें इसलिए छोड़ा था न ! अरे इंडियन लड़कों को ऐसी बंदियां पसंद नहीं जिनमें कोई शर्म या नजाकत नहीं हो और जो खुद ही खुलेआम लड़के को गले लगा ले. वो तो मैं था जो तुम जैसी पागल और अन-प्रेक्टिकल लड़की को इतने दिन झेल गया. मैंने तय किया है कि कस्बे की किसी ‘नार्मल’ लड़की से शादी करूंगा. ज्यादा पढ़ी-लिखी नहीं होगी तो क्या हुआ? ज्यादा समझदार चाहिए भी नहीं. लड़कियां बेवकूफ होती हैं और ऐसे ही अच्छी लगती हैं. ज्यादा पढ़-लिख जाए तो हमें ही समझाने लगेंगी. फिर वही ‘फ्रीडम और स्पेस’ की बकवास करती रहेंगी-तुम्हारी तरह. और बराबरी से पैसे कमाने का गुरूर रहता है वो अलग. जिससे मैं शादी करूंगा..उसकी जिंदगी में सिर्फ एक आदमी होगा..वो मैं. तुम्हारी तरह 25 अफेयर रख चुकी लड़कियों के साथ कौन रहेगा?

एक-एक शब्द याद है मुझे. मानव मेरी जिंदगी का सबसे बड़ा और बदसूरत एक्सीडेंट हैं. मुझे बहुत दुःख हो रहा है कि एक गलत आदमी के साथ अपने आप को इतना इमोशनली जोड़ लिया.

लेकिन मुझे खुद को संभालना होगा. ऐसे 10 मानव भी मुझे अपनी सामंतवादी सोच और अपने मानसिक दिवालियापन की वजह से बुरा महसूस नहीं करवा सकते. मुझे अगले महीने की अपनी जेनेवा कांफ्रेंस पर ध्यान देना चाहिए और कैलीफोर्निया से आए उस जॉब ऑफर के मेल का जवाब लिखना चाहिए.  

डायरी लेखन: प्रियंका दुबे

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महक,  25 साल
20 अक्तूबर 2012,  बनारस
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उसके जिस्म पर कहीं कोई जला निशान नहीं है जिसे वो अपने मां-बाप को दिखाए. उसका चेहरा भी किसी प्रताड़ित की गई औरत जैसा सूजा हुआ नहीं रहता. बल्कि उसकी आंखें आज भी बिल्कुल वैसी हैं जैसी स्कूल में थीं, चमकती हुईं. वो अपने मजाजी खुदा आतिफ के खिलाफ समाज की अदालत में किसी तरह का कोई सुबूत नहीं जुटा सकती. शादी के कुछ रोज़ बाद जब जरीन ने अपनी मां से दबे-छुपे लफ्जों में खुद पर हर रात गुज़रने वाली तकलीफ़ें बयान करनी चाहीं तो मां ने ये कह कर खामोश कर दिया था ‘मर्द की मोहब्बत धीरे-धीरे चढ़ती है पगली, कड़वी-कसेली बीतेगी तब मीठा-सौंधा आयेगा.’

जरीन की शादी को दो साल हो चुके हैं लेकिन अभी तक ऐसा कुछ भी मीठा-सौंधा नहीं सुना. बस यही, इस महीने चार सलवार-कमीज़ सिलवाई, कल नये बुंदे बनवाए या आज ‘बालिका वधू’ में क्या हुआ. अगर वो मेरी बचपन की दोस्त ना होती तो मैं भी उसके घर के नये फि्रज और नयी चादरों को देखकर सुकून पा लेती कि जरीन खुश है. दुनिया के सामने जान छिड़कने वाला आतिफ असल में उसे किस-किस तरह तहस-नहस करता है ये मुझ तक भी न पहुंचता. शुक्र है मैं उसकी मां नहीं हूं.

बचपन में जरीन जब घर आती थी तो हम सीधा मेरे कमरे में घुस कर दरवाजा अंदर से बंद कर लेते थे. उस वक्त ये कॉमिक्स पढ़ने या दुपट्टों से साड़ी बांधने के लिये होता था. कुछ सालों बाद दरवाज़े के पीछे वाली सहेलियां इस उधेड़बुन में रहतीं कि फलां जरीन के घर की बालकनी में रोज कागज की पर्चियां क्यों फेंकता है. पर अब दरवाज़ा बन्द होने पर जरीन ऐसे मुर्झाती है जैसे किसी फूल के मुर्झाने के सीन को फास्ट-फ़ॉर्वड कर दिया गया हो. अभी पिछले हफ्ते ही कितनी बेबसी से कह रही थी, ‘यार क्या बताऊं, मेरा ज़रा भी दिल नहीं चाहता. बस आफत है जो रोज रात गुजरती है.’ मेरे पूछने पर कि महीने के उन दिनों आतिफ का क्या रवैया होता है, उसने बताया, इन्हें फर्क नहीं पड़ता, रोकने पर भी नहीं सुनते, हालांकि डॉक्टर मुझे डांट चुकी है, इंफेक्शन हो गया था.’

आज जब मैंने गुस्से में कहा कि तेरे मुंह में जबान नहीं है? चिल्ला नहीं सकती? शोर क्यों नहीं मचा देती? उसकी मनमानी क्यों सहती है? ये तो रेप है! जरीन मुझे तंज से देखते हुए बोली ‘ये शादी है, बालकनी में आने वाली पर्चियां नहीं कि जिसका चाहा जवाब दिया और जिसका नहीं चाहा कूड़े में डाल दी. उसका हक है मुझपर, आतिफ जैसे चाहे वैसे खुद को हाजिर करना होगा. अगर नहीं करती तो वो करवाना जानता है. मुझसे दस गुना ज्यादा ताकत है उसमें. फिर इस्लाम भी तो मर्द से यही कहता है ‘बीवी तुम्हारी कोई बात ना माने तो पहले उसे समझाओ, ना समझे तो दोबारा समझाओ और फिर भी ना समझे तो बस समझा ही दो’ 

शायद जरीन कल भी आये और बैठते वक्त फिर से तकलीफ़ होने की शिकायत करे. जरीन से जब भी मिलती हूं दिल लरज जाता है, पूरे जिस्म में झुरझुरी दौड़ जाती है. मैं जानती हूं बंद दरवाज़े के पीछे मैं उसे कल भी सुनूंगी. फर्क यह होगा कि अब मुझे उस पर पहले से ज़्यादा तरस आएगा.

जरीन मेरे बचपन का साथ है जो आज रोज सुबह आईने में संवरती है और देर रात बिस्तर में बिखरती है. अक्सर ये कह कर खुद को बहलाने की कोशिश करती हूं कि उसकी ‘अरेंज्ड मैरिज’ है. पर मेरी इस कोशिश पर वंदना की फोन कॉल पानी फेर देती है. वंदना को तो जरीन का साया छू कर भी नहीं गुजरता. वो कोई सहने, मरने, खटने वाली लड़की नहीं है. ऑफिस में कोई उसके सामने जबान खोलने से पहले दस दफा सोचता था. वंदना की ‘लव मैरिज’ का लव पहली रात ही उड़न-छू हो गया. कहती है ‘उमेश वैसे तो बहुत प्यार करता है, बस ‘उस वक्त’ ही उसे कुछ हो जाता है. पर कोई बात नहीं, वैसे भी खींच-तान नोच-खसोट मर्दों पर जंचती है.’
दिन की रोशनी में जरीन और वंदना बेहद मुख्तलिफ हैं. सच तो ये है कि आतिफ का मोहल्ले वाला जिमखाना, उमेश के शीशे वाली बिल्डिंग के कॉन्फ्रेंस हॉल से कोसों दूर है. पर अंधेरा सारे भेद मिटा देता है.

डायरी लेखन:फौजिया रियाज; इलेस्ट्रेशन: मनीषा सिंह और सामिया सिंह