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इस्लामी धर्मग्रंथों की वे अवधारणाएं जिनकी सबसे ज्यादा गलत व्याख्या की गई

किसी भी विचार की व्याख्या देश-काल और परिस्थिति के तहत भिन्न-भिन्न तरीकों से की जा सकती है. धर्म से जुड़े प्रावधानों की व्याख्या तो शायद अनगिनत तरीकों से मनुष्य ने अपने आरंभिक काल से ही की है.

इस्लामी धर्मग्रंथों में कुछ ऐसी अवधारणाएं हैं जिनकी गलत व्याख्याओं ने इस्लाम के मूल स्वरूप को विकृत किया है. गैरमुसलमानों ने यह काम अपने निहित स्वार्थों को सिद्ध करने के लिए किया तो कुछ मुसलमानों ने अपने गलत कामों को सही ठहराने के लिए इनका सहारा लिया. परिणामस्वरूप इस्लाम को एक हिंसक और कट्टर धर्म के रूप में जाना जाने लगा. इन गलत व्याख्याओं पर विचार करने से पहले इस्लाम शब्द की उत्पत्ति पर एक नजर डालते हैं.

इस्लाम शब्द अरबी भाषा के ‘स’ ‘ल’ ‘म’ धातु से बना है और जिसका अकेला और सीधा अर्थ है शांति. ‘स’ ‘ल’ ‘म’ धातु से जिन अन्य शब्दों का निर्माण हुआ है वे हैं इस्लाम, मुस्लिम, सलाम और इसी तरह के और कई शब्द. इस्लाम वह धर्म, वह पद्धति है जो शांति सिखाए, जो तस्लीम (समर्पित) होना सिखाए. शांति के धर्म को मानने वाला यानी मुसलमान. मुसलमान जब भी आपसे मिलेगा तो कहेगा सलामुनअलैकुम यानी ईश्वर आपको शांति प्रदान करे. तो इस्लाम के बारे में एक कुप्रचार तो यहीं खत्म हो जाता है कि इस्लाम तलवार का धर्म है, खूनरेजी है. क्या कोई धर्म जो इस तरह से शांति और सुलह की वकालत करे वह खूनरेजी को जायज ठहरा सकता है? तार्किक तौर पर तो यह परस्परिक विरोधी ही प्रतीत होता है.

समस्त धर्मों का मूल एक ही है, यह हर धर्म मानता है. सब धर्म उस मूल की ही आराधना करते हैं. मुसलमान उस मूल स्रोत को अल्लाह या रब्बेल आलमीन के नाम से पूजते हैं. रब्बेल आलमीन के मानी हैं समस्त ब्रह्मांडों और लोकों का स्वामी.

जब भी इस्लाम की मान्यताओं पर सवाल उठाए जाते हैं तो उनके केंद्र में दो चीजें हुआ करती हैं. एक है जेहाद और दूसरा काफिर, जिनकी गलत व्याख्याओं के परिणामस्वरूप इस्लाम को एक ऐसे धर्म के रूप में चित्रित किया जाता है जो अन्य धर्मों के प्रति सहिष्णु न हो. कुरान पर एक निगाह डालने पर हम यह पाते हैं कि जेहाद का मूल विचार इसके प्रचलित स्वरूप से बहुत भिन्न है.  

जेहाद: अरबी भाषा का शब्द जेहाद ‘जुह्द’ धातु से बना है जिसका अकेला अर्थ ‘संघर्ष करना’ है. इस धातु से जो शब्द बने हैं वे हैं जेहाद यानी संघर्ष और मुजाहिद यानी संघर्ष करने वाला. माना कि किसी व्यक्ति को तंबाकू, पान मसाला या शराब पीने की आदत है तो उसे समझाने वाला व्यक्ति मुजाहिद यानी संघर्ष करने वाला हुआ. कोई बच्चा यदि कुत्ते, बिल्ली या किसी अन्य प्राणी को अकारण ही मार रहा है और कोई आकर उसे ऐसा करने से रोकता है तो उस व्यक्ति का यह कार्य जेहाद हुआ.

दुर्भाग्यवश मीडिया एवं पश्चिमी देशों के इतिहासकारों की अनभिज्ञता या शायद अपने निहित स्वार्थों के तहत जेहाद का अर्थ धर्मयुद्ध बताया गया है. कुरान में युद्ध शुरू करना या युद्ध भड़काना – धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है. इसलिए कोई भी युद्ध यदि शुरू किया जाए तो वह धर्मयुद्ध नहीं बल्कि अधार्मिक कार्य है. लेकिन क्या कुरान में युद्ध करने की संपूर्ण मनाही है? ऐसा नहीं है.

कुरान मात्र इन संदर्भों में ही युद्ध की इजाज़त देता है :
1. जब मनुष्यों पर अत्याचार हो रहे हों
2. न्याय के लिए
3. आत्मरक्षा के लिए
4. जब शत्रु की ओर से शांति समझौता भंग कर दिया जाए

उदाहरणार्थ कुरान के अध्याय 4, आयत 74-75 में उद्धृत है- …क्यों नहीं तुम युद्ध करते जब असहाय पुरुष, महिलाएं और बच्चे ईश्वर से याचना करते हुए कह रहे हों ‘ हे ईश्वर, हमें समाज के अत्याचारियों से निजात दिला. हे ईश्वर, तू ही हमारा स्वामी है.’

कुरान की इस आयत पर ध्यान देने पर पता चलता है कि अत्याचार चाहे किसी पर भी हो रहा हो, चाहे वे किसी भी धर्म एवं संप्रदाय के हों, यह बात बिल्कुल भी मायने नहीं रखती, बस इंसान होना काफी है. चाहे वे दलित हों या गरीब, असहाय, कमजोर, पुरुष, महिलाएं या बच्चे. वे हिंदू हों, मुसलमान हों, सिख हों, ईसाई हों या यहूदी या बौद्ध. वह बोस्निया का मुसलमान हो या अमेरिका की ढहती हुई इमारत का ईसाई. हिटलर के जहरीले गैस कक्ष में यहूदी हो या कश्मीर का निर्दोष हिंदू या मुसलमान. गुजरात में आठ महीने की गर्भवती मुस्लिम मां हो जिसके अजन्मे बच्चे को आग में भूना जा रहा हो या साबरमती एक्सप्रेस के एस-6 और एस-7 डिब्बे में कोई हिंदू बिटिया या बेटा. दंगों में जलता हुआ एक सिख बूढ़ा या उड़ीसा में जीप के अंदर जलता हुआ मसीही पादरी क्यों न हो – इनका आर्तनाद सुनकर इनके न्याय के लिए पवित्र कुरान संघर्ष करने की इजाजत देती है. लेकिन युद्ध मात्र आततायी से, किसी अन्य से नहीं. कुरान के अध्याय 2, आयत 190 में कहा गया है :
तुम सिर्फ ईश्वर की राह पर युद्ध कर सकते हो और सिर्फ उनके खिलाफ जिन्होंने तुम पर आक्रमण किया हो लेकिन मानवीय सीमाओं के भीतर. ईश्वर आततायियों को अप्रिय मानता है.

इस आयत से स्पष्ट है कि युद्ध सिर्फ उनसे किया जाए जिन्होंने तुम पर आक्रमण किया है. उदाहरण के लिए, यदि ‘अ’ ने तुम पर आक्रमण किया है तो ‘अ’ से ही युद्ध किया जाए, न कि उसकी पत्नी, बेटी, बेटा या माता-पिता से. युद्ध सिर्फ़ आक्रमणकारी से.

जिहाद के ही संदर्भ में कुरान की कुछ आयतें जो कि दुष्प्रचार का माध्यम बनी हैं उनमें कुरान के नौवें अध्याय ‘तौबा’ की 5वीं आयत है जिसे बगैर किसी संदर्भ के प्रस्तुत किया जाता है.

यह आयत है: जब हराम (वर्जित) महीने बीत जाएं तो मुशरिकों (एक ईश्वर की सत्ता में अन्य को हिस्सेदार बताने वाला) के साथ युद्ध करो, उन्हें पकड़ो, घेरो और उनका वध करो.

कुरान में युद्ध शुरू करना या युद्ध भड़काना – धर्म नहीं, बल्कि अधर्म है. इसलिए कोई भी युद्ध यदि शुरू किया जाए तो वह धर्मयुद्ध नहीं बल्कि अधार्मिक कार्य है

इस आयत को पढ़कर तो सचमुच ऐसा आभास होता है कि कुरान मुसलमानों को युद्ध के लिए उकसाती है. इस आयत पर टिप्पणी करने से पहले यदि कहा जाए कि हिंदुओं के सर्वमान्य ग्रंथ गीता में श्रीकृष्ण अर्जुन को अपने ही गुरुओं, सगे संबंधियों और चचेरे भाइयों का वध करने के लिए प्रेरित करते हैं, तो क्या हमारे मन में इस तरह की शंका नहीं उठेगी कि भगवान का यह वचन जायज नहीं है क्योंकि यह श्लोक हिंसा को प्रोत्साहित करता हुआ प्रतीत होता है. बिना संदर्भों के किसी विचार को बढ़ावा देने वाला अर्ध सत्य किसी भी बड़े झूठ से खतरनाक होता है.

इस आयत को उसके संपूर्ण संदर्भ में समझने से पहले हमें इसी अध्याय की चौथी आयत को समझना होगा.

अध्याय 9 की चौथी आयत उस संदर्भ में कही गई है जब मुस्लिमों के साथ गैरमुस्लिमों का शांति समझौता था. लेकिन गैर मुस्लिमों ने वह समझौता तोड़ दिया और मुस्लिमों के विरुद्ध युद्ध घोषित कर दिया.

 अध्याय 9 आयत 4:
इल्लालज़ीना आहत्तुम मिनल मुशरिकीन सुम्मा लम यन क़ुसूकुम शैयं व लम यु ज़ाहिरू अलैकुम अहदन् फअतिमू इलैहिम आ़हदाहुम इला मुद्दतिहिम पददं संसीं यु हिब्बुल मुत्तक़ीन.

इस आयत में पैगंबर को सख्त हिदायत दी गई है कि उन मुशरिकों के साथ शांति से रहना जो तुम्हारे साथ शांति से रहते हैं. और अपने बचाव के लिए उन्हीं के साथ युद्ध करना  जिन्होंने तुम्हारे साथ शांति समझौता तोड़ दिया है और अब युद्ध पर आमादा हैं. फिर भी 5वीं आयत में कुछ संयम बरतने के लिए इशारा है, जब वह युद्ध का जवाब वर्जित महीनों के बीत जाने के बाद ही देने की बात करती है. हो सकता है इस दौरान युद्ध पर आमादा शत्रु शायद सदबुद्धि प्राप्त कर लें और शांति फिर से स्थापित हो जाए. लेकिन यदि वह तुम पर फिर भी आक्रमण करे तो तुम अपने बचाव में उस आक्रमण का प्रत्युत्तर दो. यह तो हर धर्म में कहा गया है कि आक्रमणकारी, आततायी के आगे हथियार डाल देना कायरता की निशानी है.

श्रीकृष्ण जब अर्जुन को युद्ध पर आमादा कौरवों की सेना दिखाते हैं तो अर्जुन करुणा से वशीभूत होकर हथियार डालने की बात कहता है. जिस पर श्रीकृष्ण उन्हें उपदेश देते हैं कि हे अर्जुन, आततायियों के आगे, आक्रमणकारियों के समक्ष घुटने टेक देने पर इस लोक में तुम्हे अपयश और पाप लगेगा एवं तुम्हें मोक्ष नहीं मिलेगा. (गीता: अध्याय 2 श्लोक 33-34)

अर्जुन को युद्ध के लिए प्रेरित करने के अनेकों श्लोक गीता में. यदि महाभारत युद्ध के दौरान भी कौरव दल पांडवों के अधिकार उन्हें लौटा देते और शांति स्थापित कर लेते एवं पश्चाताप कर लेते तब कृष्ण अर्जुन को शांति का ही मार्ग चुनने के लिए कहते. कुरान की आयत 5 अध्याय 9 में भी यही कहा गया है कि यदि वे तौबा कर लें, ईश्वर भक्ति करें, दान (जकात) दें तो उनका मार्ग छोड़ दें यानी युद्ध न करें.

इस्लाम की एक और संकल्पना जिसे संदर्भहीन तरीके से व्यक्त किया जाता है वह है काफिर. इस शब्द के बारे में इतना कुप्रचार हुआ कि यकायक काफिर और गैरमुस्लिम समानार्थी लगने लगे हैं. काफिर शब्द का मूल अर्थ समझने से पहले इसका शाब्दिक अर्थ समझना जरूरी है.

काफिर: यह ‘शब्द अरबी के ‘क’ ‘फ’ ‘र’ शब्दों से बना है जिसका सीधे-सीधे अर्थ है, ‘सत्य को छिपाना’. उदाहरणार्थ, यदि मैं अपने हाथ में एक सिक्का लूं और मुट्ठी बंद कर लूं और कहूं कि सिक्का नहीं है तो उस समय मैं सिक्के की सत्यता को छिपाने के लिए ‘काफिर’ हुआ.

एक उदाहरण कुरान से- ईश्वर के समक्ष मनुष्यों के लिए सबसे अच्छा पेशा किसानी यानी खेतीबाड़ी का है और एक सच्चा किसान उसे बहुत प्यारा है. कुरान में ईश्वर ने कहा कि किसान बीज को धरती में छुपा देता है तो इस संदर्भ में ईश्वर ने किसान को काफिर कहा . क्या ईश्वर अपने ‘प्रिय’ किसान को ‘काफिर’ कहकर दुत्कारेगा! नहीं. किसान ने बीज को धरती में छिपाया इसलिए वह बीज की सत्यता को छिपाने के कारण काफिर कहा गया. इस तरह काफिर का सीधा-सीधा अर्थ हुआ ‘सत्य को छिपाने वाला’ या असत्य को सत्य कहने वाला .

यह हर हिंदू तथा हिंदू धर्म के जिज्ञासु को अच्छी तरह से मालूम है कि पांडव सत्य के साथ थे और कौरव असत्य के. श्रीकृष्ण सारथी के रूप में सत्य के योद्धा अर्जुन को महाभारत युद्ध में उपदेश देते हैं कि अपने तयेरे (ताऊ का लड़का) भाई दुर्योधन की सेना जो कि असत्य मार्ग पर है उसे नष्ट कर दो. असत्य को सत्य बतलाने वाले यानी ‘काफिर’ – कौरव और उनका साथ देने वाले तुम्हारे दुश्मन हैं.

तो कुरान में यदि यह आयत है कि निस्संदेह ‘काफिर’(सत्य को असत्य घोषित करने वाले) तुम्हारे खुले दुश्मन हैं तो यह बुरी बात कैसे है !

इस्लाम पर एक और लांछन यह लगाया जाता है कि वह दूसरे धर्मों के प्रति सहिष्णु नहीं है. जबकि यह वही धर्म है जो अन्य सभी धर्मों के प्रति समभाव रखने की हिदायत देता है.

क्या इस्लाम अन्य धर्मों के प्रति असहिष्णु है: कुरान के दूसरे अध्याय की 213वीं आयत कहती है कि ईश्वर ने हर समाज और कौम को पैगंबर व ईश्वरीय किताब दी है. कुरान ईसाइयों और यहूदियों को ‘ अहले किताब’ का खिताब देती है. यानी वे धर्म जिनकी ईश्वरीय किताब है.

कुरान के 60 वें अध्याय की 8-9 वीं आयत कहती है कि मुसलमानों को यह आदेश दिया जाता है कि उन गैरमुसलमानों के साथ सज्जनता के साथ और न्यायोचित बर्ताव करें जो उनके साथ मात्र मान्यताओं और आस्थाओं की खातिर बैर न रखते हों. लेकिन जो लोग मुसलमानों की आस्था की खातिर उनसे बैर रखते हों वे मित्रता के काबिल नहीं हैं.
इस्लाम का मूल संदेश कुरान की इन दो आयतों से अभिव्यक्त होता है:

1. ला इकराह फिद्दीन (धर्म पर किसी भी तरह जोर जबरदस्ती नहीं होनी चाहिए)

2. लकुम दीनकुम वली दीन ( तेरा धर्म तेरे लिए सही, मेरा धर्म मेरे लिए सही. और हम आपस में शांतिपूर्ण बर्ताव करें)

-राकेश

(लेखक इस्लाम के अध्येता हैं )

वे अवधारणाएं जिन्हें इस्लामी मानना सही नहीं है

निंदक या आलोचक को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति
मनुष्य का स्वभाव रहा है कि वह अपनी सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक अस्मिता की रक्षा के प्रति हमेशा सजग रहता है. कभी-कभी रक्षा की यह भावना संयम की मर्यादा को लांघ देती है. 80 के दशक में ईसा के जीवन पर बनी फिल्म द लास्ट टेंपटेशन ऑफ क्राइस्ट (ईसा मसीह की अंतिम लालसाएं) को लेकर इटली में ईसाई लोगों ने भारी प्रदर्शन किए. इनमें हिंसा भी हुई. इसी दौरान सलमान रश्दी की इस्लाम पर एक किताब आई ‘शैतानी आयतें’. जिस पर इतना बवाल मचा कि ईरान के धार्मिक नेता आयतुल्लाह खुमैनी ने रश्दी के खिलाफ मौत का फतवा दे दिया. ऐसा ही एक और प्रसंग इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून बनाने का है. सही है कि इस्लाम के अनुयायियों को ऐसी हरकतें आहत करती हैं. लेकिन इन पर कोई हिंसात्मक प्रतिक्रिया देने से पहले क्या यह सही नहीं होगा कि कुरान और इस्लाम के पैगंबर की नसीहतों पर थोड़ा ध्यान दिया जाए.
हजरत मोहम्मद के जीवनकाल में गैरमुस्लिम लोग उन पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करते थे और उपहास उड़ाते हुए उन्हें ‘अब्तर’ पुकारते थे. अरबी भाषा में अब्तर का मोटे तौर पर अर्थ होता है वंशहीन. अरब देश में किसी पुरुष के बेटा न होने पर उसके पुरुषत्व पर सवाल खड़ा होता था. चूंकि मोहम्मद साहब के कोई पुत्र न था इसलिए लोग उन्हें अब्तर पुकारते थे. इस तरह के अपशब्द सुनने पर उनके अनुयायी क्रोधित होते थे. लेकिन हजरत मोहम्मद उन्हें यह कहकर शांत करते थे कि यह मुझ पर व्यक्तिगत टिप्पणी है. इसलिए इस पर आप लोगों को क्रोधित नहीं होना चाहिए. कुछ समय बाद कुरान की वाणी मोहम्मद साहब पर अवतरित होती है. कुरान के 108 वें अध्याय ‘कौसर’ में मौजूद आयतें कुछ इस तरह हैं :

1. देखो हमने (अल्लाह ने) तुम्हें खूबियां बहुतायत में दी हैं
2. इसलिए तुम मेरी वंदना करो
3. और जो लोग तुम्हें ‘अब्तर (वंशविहीन)’ कहते हैं निश्चित तौर पर वे ही वंशविहीन होएंगे.

ईश्वर की इस वाणी को जब मोहम्मद साहब ने फरमाया तो उनके अनुयायियों ने गैरमुस्लिमों की आपत्तिजनक टिप्पणियों को नजरअंदाज किया और गैर मुस्लिमों ने भी इन टिप्पणियों से अपना नाता तोड़ दिया. क्या यही बात आज के संदर्भ में सटीक नहीं बैठती कि जब कोई इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करे तो उनका जवाब तर्कसंगत और अहिंसात्मक रूप से दिया जाए जैसा कि ऊपर लिखे उदाहरण से स्पष्ट होता है. मौत के फतवों से तो इस्लाम पर उंगलियां उठेंगी.
 

 पर्दा प्रथा

 इस्लाम में एक और आम चलन है – पर्दा प्रथा – जो इस्लाम के ही आदेशों के मापदंडों पर सही नहीं बैठती है. यूं तो हर धर्म में स्त्रियों के पहनावे और वेशभूषा के मसले पर बहस मिलती है – जैसे सिर ढकना, दुपट्टा ओढ़ना इत्यादि. लेकिन इस्लाम में पर्दा जिसे ‘हिजाब’ नाम से जाना गया है वह सिर्फ स्त्री जाति तक सीमित नहीं है. बल्कि पुरुषों के लिए भी उतना ही जायज है. कुरान में हिजाब की दो किस्में हैं – एक आंखों का हिजाब और दूसरा शरीर का. कुरान के 24 वें अध्याय ‘प्रकाश’ की 30 वीं आयत में पुरुषों के लिए हिदायत है कि ‘आस्थावान पुरुषों को अपनी निगाहें झुकाकर बात करनी चाहिए और अंग प्रदर्शन पर अंकुश लगाना चाहिए.’ इसके बाद स्त्रियों के लिए कहा गया है कि ‘आस्थावान स्त्रियों को अपनी निगाहें झुकाकर बात करनी चाहिए और अंग प्रदर्शन पर अंकुश लगाना चाहिए.’ दूसरा पर्दा है शरीर का पर्दा. कुरान यूं तो स्त्री और पुरुष में भेद नहीं सिखाता. लेकिन स्त्री शरीर की संरचना कुछ ऐसी है जो पुरुष से भिन्न है. इनमें स्त्री का वक्ष स्थल और नितंब हैं. कुरान कहती है कि स्त्रियों को ‘अपनी जीनत (सुंदरता का प्रतीक जैसे वक्ष और नितंब) को उघाड़कर प्रदर्शित नहीं करना चाहिए सिवाय उसके जो स्वाभाविक हो (जैसे चेहरा). और अपने वक्ष स्थल को पर्दे (जैसे दुपट्टा या ढीला वस्त्र) से ढककर रखना चाहिए.’

मोहम्मद साहब के वचन या उपदेशों के संकलन जिसे हदीस कहा जाता है, में भी चेहरे को ढकने की ओर इशारा नहीं किया गया है. हदीसें के संकलन की एक मान्य पुस्तक सही-अल-बुखारी में दसियों ऐसी हदीस मिलती हैं जिनमें पैगंबर मोहम्मद के सामने स्त्रियां बिना चेहरा ढके हुए आती थीं ओर मोहम्मद साहब ने इस बात को कभी नाजायज नहीं ठहराया. कुरान में शायद चेहरे को ढकने का चलन सामाजिक संदर्भों में भले ही हो लेकिन बुरका प्रथा को धार्मिक संदर्भों में देखना शायद सही नहीं है.

कुछ इफ्तार पार्टियां
एक और चलन जो इस्लाम के नाम पर हमें देखने को मिलता है वह है राजनेताओं और अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा इफ्तार पार्टियों का भद्दा प्रदर्शन. इफ्तार रमजान के महीने में रोजा खोलने (इस्लामी व्रत में शाम के समय का भोजन) को कहा जाता है. इस महीने के 30 दिन में उपवास रखने की एक वजह यह भी रही होगी कि इंसान अन्न का महत्व और भूख की वेदना को भूले नहीं. लेकिन कम से कम हिंदुस्तान की कई इफ्तार पार्टियों में अन्न का महत्व तो दूर अनादर ही देखने को मिलता है.

ऐसा नहीं है कि इस्लाम में इफ्तार पार्टियों पर रोक है बल्कि इस प्रथा को प्रोत्साहित ही किया जाता है. लेकिन किन लोगों को इफ्तार में शामिल करने की हिदायत दी है? ऐसे लोग जो कमोबेश रमजान के ही एक महीने नहीं बल्कि साल के अन्य 11 महीने भूख के साथ जिएं. एक इस्लामी हदीस है कि इफ्तार उन लोगों के साथ करें जो दुनियावी लेन-देन और आडंबर वाली जिंदगी से दूर रहते हों. एक अच्छे इफ्तार में सादा भोजन और पानी के अलावा खाने के अधिक व्यंजन न हों तो शोभनीय है. इस दौरान जो बातें हों वे दुनियावी कम और रूहानी अधिक हों. मगर हमारे यहां की राजनीतिक इफ्तार पार्टियां जिस तरह की होती हैं वे हराम न भी हों तो शोभनीय कतई नहीं हैं.
-राकेश  

 

फरमान जैसे फतवे

अरबी में ‘फतवे’ का अर्थ होता है ‘कानूनी सुझाव’, लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.

उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं जब तक वह यह स्पष्ट करता हुआ चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है. साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, ‘उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.’ (कुरान 2.79)

फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुस्लिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.’

इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं.

यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है.

(आरिफ मोहम्मद खान से अतुल चौरसिया के बातचीत के अंश)

 

कैसा हो बजट?

देश के पहले प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू की सरकार के समय जब संघीय बजट पेश होता था तो सोच यह होती थी कि यह सरकार की नीतियों के एलान का अवसर बने. आज इसकी भूमिका हिसाब-किताब की प्रक्रिया तक सिमट चुकी हैं. इतिहास टटोलें तो पता चलता है कि कई साल तक बजट में विकास के लिए नई संस्थाएं स्थापित करने और देश को नीतिगत दिशा देने की भावना प्रधान रही. आज भारत अपने 82वें सालाना बजट का इंतजार कर रहा है. सवाल उठता है कि विवादित और अहम नीतियों के एक बड़े हिस्से का निर्माण जब बजट के बाहर है तो अर्थव्यवस्था के लिहाज से इस दस्तावेज की कितनी प्रासंगिकता बचती है. जिस तरह से यह अभी बन रहा है, उसमें केंद्र के लिए चिंता की कुछ ही अहम चीजें बचती हैं मसलन वित्तीय घाटा. इसके इतर ज्यादातर आर्थिक फैसले अक्सर राज्यों के स्तर पर लिए जाते हैं और आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था के लिए यही वास्तविक महत्व के बिंदु हैं. 

भले ही बजट नीति संबंधी दस्तावेज न हो, मगर फिर भी इससे पूरी तरह इनकार नहीं किया जा सकता कि यह अर्थव्यवस्था को एक दिशा देता है. शायद हम लोगों की यह आदत हो गई है कि हम बजट की सफलता इसी बात से आंकने लगते हैं कि टैक्स घटा या बढ़ा. लेकिन क्या बजट का निहितार्थ इतना ही है? क्या बजट का मतलब सिर्फ यही है कि कंपनियों को इससे क्या फायदा या नुकसान होगा? इससे भी महत्वपूर्ण सवाल यह है कि अगर सामाजिक क्षेत्र में होने वाले खर्च की सही तरह से योजना बनाई जाए तो क्या यह अर्थव्यवस्था के जख्म भर सकता है.

यूनीलीवर के पूर्व अध्यक्ष विंदी बंगा कहते हैं, ‘ज्यादातर ग्लोबल निवेशकों की दिलचस्पी प्रशासन, राजनीतिक स्थितियों और संस्थाओं में होती है. लंबे समय तक आर्थिक मोर्चे पर अच्छे प्रदर्शन की बात करें तो ये तीनों कारक इससे मजबूती से जुड़े होते हैं. कुछ निवेशकों के सरोकार पर्यावरण संबंधी मुद्दे भी होते हैं.’

सबसे पहले कृषि क्षेत्र की बात करते हैं जिसमें विकास की स्थिति शोचनीय है और अनगिनत किसानों ने बीते कुछ समय के दौरान आत्महत्या की है. जो अब भी जिंदगी से लड़ रहे हैं, उनका एक अच्छा-खासा हिस्सा अकुशल श्रम की तरफ मुड़ रहा है और इस तरह शहरी गरीबों की आबादी में और बढ़ोतरी कर रहा है. पिछले साल के बजट ने इस क्षेत्र में नया निवेश लाने की कोशिश की थी, लेकिन खेती में नई जान फूंकने की यह कोशिश बहुत देर से हुई. दरअसल हमें खेती को बदलने के लिए एक क्रांति की जरूरत है. क्रिसिल के मुख्य अर्थशास्त्री डीके जोशी कहते हैं, ‘सुधारों की प्रक्रिया ने कृषि क्षेत्र की उपेक्षा की है. बढ़ती महंगाई बता रही है कि यह क्षेत्र अपनी क्षमता के मुताबिक प्रदर्शन नहीं कर रहा. बजट दर बजट इसके हल के लिए सिर्फ छोटे कदम ही उठाए गए. हमें हरित क्रांति जैसे किसी बदलाव की जरूरत है.’

‘ बजट में पैसा देने का कोई लाभ नहीं यदि योजनाओं को जमीन पर उतारने वाली संस्थाएं ठीक से काम न कर रही हों’

अब आधारभूत ढांचे की बात. यह क्षेत्र भी भयानक संकट का सामना कर रहा है. सड़क, बिजली, पानी का बुरा हाल है. निजी क्षेत्र निवेश करे, इसके लिए प्रोत्साहन उपायों की कमी है. काम नौकरशाही की जटिलताओं के जाल में फंसे हैं. कई बार पैसा आता है और बिना इस्तेमाल हुए ही वापस चला जाता है. चाहे वह सड़क बनाने वाला लोकनिर्माण विभाग हो या अलग-अलग राज्यों के बिजली और जल बोर्ड, सभी प्रक्रियाओं की जटिलता में फंसे हैं. ये सभी संस्थाएं बुनियादी सुविधाओं को विकसित करने के लिए बनाई गई थीं, लेकिन इनका अच्छा प्रदर्शन सुनिश्चित करने की कोई व्यवस्था नहीं है. फीडबैक इन्फ्रास्ट्रक्चर से जुड़े विनायक चटर्जी कहते हैं, ‘आप पानी को पाइप से अलग करके नहीं देख सकते. बजट आवंटित करने का कोई मतलब नहीं है अगर योजनाओं को जमीन पर उतारने वाली संस्थाएं ठीक से काम न कर रही हों.’ उनका मानना है कि व्यवस्था को ठीक किए बिना यह संसाधनों की बर्बादी ही है. साफ है कि सिर्फ अच्छी नीयत से किसी काम के लिए पैसा आवंटित कर देने से बात नहीं बनने वाली. और बात सिर्फ सड़क, बिजली और पानी की नहीं है. स्वास्थ्य और शिक्षा जैसे उन क्षेत्रों पर भी यह बात उतनी ही शिद्दत से लागू होती है जिन्हें किसी देश का भविष्य बदलने वाली शक्तियों के तौर पर देखा जाता है. अगर भारत को अपनी एक बड़ी नौजवान आबादी का फायदा उठाना है तो स्वास्थ्य और शिक्षा को सुधारे बिना बात नहीं बनने वाली. लेकिन अर्थव्यवस्था की गति को सुस्त कर रहे ये असल मुद्दे बजट से बाहर के हैं.

पर्यावरण में बदलाव संबंधी मुद्दों से जुड़े कुछ कार्यक्रम सही दिशा में एक कदम हो सकते हैं. चुनौती यह है कि पर्यावरण भी लंबे समय तक ठीक रहे और उद्योग भी ऐसे मानकों के दायरे में चलें जिनसे विकास समान और संतुलित हो. पर्यावरण को लेकर केंद्र और राज्यों के बीच के वे मुद्दे जो अक्सर उद्योग की गाड़ी पटरी से उतार देते हैं, उनका हल अभी होना बाकी है. हालांकि पर्यावरण और वन मंत्रालय की कमान संभाल रही जयंती नटराजन ने कुछ समय पहले कहा था कि उनका मंत्रालय विकास की राह का रोड़ा नहीं रहा है, लेकिन यह भी सच है कि इस दिशा में स्पष्ट नीति का अभाव है. इससे न सिर्फ पर्यावरण और उन लोगों के अधिकारों पर खतरा है जो विकास के लिए अपनी जमीन देते हैं बल्कि यह उद्योग जगत को भी मोहभंग की स्थिति में ले जा रहा है.

बजट अगर अपने अस्तित्व से जुड़े सवालों का सामना कर रहा है तो इसका एक कारण यह भी है कि वे नीतियां और कारक जो बजट की सीमा से बाहर हैं, लगातार अहम होते गए हैं. एचडीएफसी बैंक से जुड़े अर्थशास्त्री अभीक बरुआ कहते हैं, ‘भूमि अधिग्रहण जैसे मुद्दे जिनमें नियामक प्रक्रियाएं और निवेश के मानक शामिल होते हैं, उन पर अब ज्यादा जोर है.’

पिछले कुछ सालों के दौरान बजट उस मकसद से बहुत दूर होता गया है जो नेहरू ने इसके लिए सोचा था. अगर आप आंकड़ों के संदर्भ में भी देखें तो इसका ज्यादातर हिस्सा तनख्वाहों, पेंशनों, सरकार पर चढ़े कर्ज और इसके ब्याज की अदायगी से बनता है. इसके चलते सरकार के लिए बाकी बचे पैसे को कुशलता से खर्च करने की गुंजाइश काफी कम हो जाती है.  वित्तीय घाटा पहले ही सकल घरेलू उत्पाद के 5.9 फीसदी के करीब पहुंच गया है. इसमें अगर राज्यों और बैलेंसशीट से बाहर के आंकड़े जोड़ दें तो घाटे का यह आंकड़ा नौ फीसदी को छू सकता है. अगर टैक्स बढ़ाए न गए, सब्सिडियां घटाई न गईं और दूसरे खर्चों में कमी न की गई तो तीन साल के भीतर इसे चार फीसदी तक लाने का सरकार का मकसद अभी दूर की कौड़ी लगता है. लेकिन चुनाव नजदीक हैं और इसे देखते हुए लगता नहीं कि इनमें से कुछ भी होने जा रहा है.

उदारीकरण की प्रक्रिया ने शुरुआत में लोगों में उम्मीद जगाई थी,  लेकिन आज हम जिसे आर्थिक समृद्धि कहते हैं उससे उनका मोहभंग हो चुका है. भारतीय व्यवस्था की छवि देश-दुनिया के उन उद्योगपतियों के बीच ही नहीं गिरी है जो दावोस में शैंपेन के ग्लास खड़काते हैं, देश के भीतर भी उसका ह्रास हुआ है. 2014 का आम चुनाव अब ज्यादा दूर नहीं है. पी चिदंबरम के बजट का मकसद एक वर्ग को संतुष्ट करना नहीं होना चाहिए. जरूरत यह भी है कि बजट लोकलुभावन फैसलों से दूर रहे और उन बुनियादी चुनौतियों पर ज्यादा ध्यान दे जिनसे अर्थव्यवस्था जूझ रही है.  हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि फिलहाल भारत में विदेश से जो पूंजी आ रही है उसका मकसद जल्द से जल्द मुनाफा वसूलकर निकल जाना है. हमें ऐसे निवेशकों को खुश करने की जरूरत नहीं है. हमें दीर्घकालिक पूंजी को आकर्षित करने की जरूरत है. यह इस पर भी निर्भर करता है कि हम अपनी अर्थव्यवस्था में फिर से जान फूंक पाते हैं या नहीं और बुनियादी ढांचे में विकास पर भी.

पिछले साल बजट पेश करते हुए तत्कालीन वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने शेक्सपियर के उपन्यास हैमलेट से एक पंक्ति उद्धृत करते हुए कहा था, ‘दयालु होने के लिए मुझे कठोर होना पडे़गा.’ न दयालु होने की जरूरत है न कठोर होने की. हमें एक विवेकपूर्ण बजट चाहिए जो अर्थव्यवस्था को स्थिरता दे सके और इसे सुस्ती से उबार सके.                         

फरमान जैसे फतवे

अरबी में ‘फतवे’ का अर्थ होता है ‘कानूनी सुझाव’, लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.

उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं जब तक वह यह स्पष्ट करता हुआ चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है. साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, ‘उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.’ (कुरान 2.79)

फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुस्लिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.’

इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं.

यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है.
(अतुल चौरसिया से बातचीत के अंश)

क्या इस्लाम में बदलाव और सुधारों के लिए कोई गुंजाइश है?

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आरिफ मोहम्मद खान,
वरिष्ठ राजनेता और इस्लामी मामलों के जानकार
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इस्लाम में सुधारों और बदलाव से जुड़े सवाल का जवाब दो हिस्सों में दिया जाना चाहिए. एक हिस्सा इस्लाम के बुनियादी सिद्धांतों से जुड़े बदलावों से संबंधित होगा और दूसरा अन्य बदलावों से.

जहां तक धर्म के उन सिद्धांतों का सवाल है जो कुरान के मुताबिक बुनियादी या शाश्वत हैं और सभी धार्मिक परंपराओं में एक समान हैं उनमें बदलाव की न तो कोई आवश्यकता है और न ही ऐसा करना वांछनीय है. कुरान कहता है, ‘अल्लाह ने तुम्हारे लिए वही दीन (धर्म) मुकर्रर किया है जिसका उसने नूह (पैगंबर) को हुक्म दिया था और जिसकी वाही (आकाशवाणी) हमने तुम्हारी तरफ की है, और जिसका हुक्म हमने इब्राहिम (पैगंबर), मूसा (पैगंबर और यहूदी धर्म के प्रवर्तक) और ईसा (पैगंबर और ईसाई धर्म के प्रवर्तक) को दिया था कि दीन को कायम रखो और उसमें बिखराव न डालो.’ (कुरान 42.13)

धर्म की इस कल्पना के बारे में मौलाना आजाद अपनी किताब ‘तर्जुमानुल कुरान’ में लिखते हैं,  ‘सत्य एक है और सभी परंपराओं में समान है. परंतु उसके आवरण अलग-अलग हैं. हमारा दुर्भाग्य यह है कि दुनिया शब्दों की पुजारी है और अर्थ को अनदेखा कर देती है. सभी लोग एक परमेश्वर की उपासना करते हैं लेकिन उस परमेश्वर के अलग-अलग नामों को लेकर झगड़ते हैं.’  मौलाना आजाद इस साझी आध्यात्मिकता को मुश्तरक हक (साझा सत्य) कहते हैं. वे कहते हैं कि धर्म का उद्देश्य ऐसा मानस निर्मित करना है जिससे दैविक करुणा और सुंदरता प्रतिबिंबित हो सके. वे इस बात पर अफसोस जाहिर करते हैं कि धर्म, जो कि मानवीय एकता पैदा करने का माध्यम है उसका इस्तेमाल एकता को तोड़ने के लिए किया जाता रहा है. मौलाना आजाद जिस साझा सत्य और धर्म के उद्देश्य की बात करते हैं उन्हें कैसे बदला जा सकता है?

इन बुनियादी सिद्धांतों के बाद जो दूसरी बातें हैं उनका संबंध समय से है जोकि निरंतर बदल रहा है. कुरान निरंतर होने वाले परिवर्तनों-जैसे रात और दिन का बदलना, समंदर के ज्वार-भाटे, नदियों का सैलाब, बढ़ती हुई उम्र, इंसानों के अलग-अलग रंग और भाषाएं, विभिन्न सभ्यताओं के उत्कर्ष और पतन आदि – को अल्लाह की निशानियां कह कर पुकारता है और इनका गंभीर अध्ययन करने का आह्वान करता है.

परिवर्तनों के अध्ययन के इस आह्वान से एक बात स्पष्ट होती है. कुरान यह चाहता है कि हमें न सिर्फ परिवर्तनों का बोध रहे बल्कि हम इनके कारण पैदा हुई नई परिस्थितियों और चुनौतियों का सामना करने के लायक भी बन सकें. कुरान की आयत है- ‘अगर तुम आगे नहीं बढ़ोगे तो अल्लाह तुम्हें दर्दनाक सजा देगा और तुम्हारी जगह दूसरे लोगों को ले आएगा.’ (कुरान 9.39)

आज से 800 साल पहले इब्ने खल्दून ने और 400 साल पहले इब्ने कय्यिम ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि कानून का उद्देश्य केवल और केवल लोक कल्याण है

निरंतर परिवर्तन हमारे जीवन की सच्चाई है. अगर किसी बेजान वस्तु जैसे किसी पत्थर को पर्यावरण के प्रभावों से बचाकर सुरक्षित रख दिया जाए तो संभव है कि वह हजार साल बाद भी वैसी ही मिल जाए. लेकिन कोई भी ऐसी वस्तु जिसमें जीवन है, वह चाहे मानव हो या पशु या पेड़-पौधे, वह हर दिन के साथ या तो बढ़ेगी या घटेगी. वह एक सी हालत में रह ही नहीं सकती. प्रसिद्ध मुस्लिम विद्वान इब्ने खल्दून ने अपनी किताब ‘मुकद्दिमा’ में लिखा है, ‘दुनिया के हालात और विभिन्न देशों की आदतें हमेशा एक जैसी नहीं रहती हैं.  दुनिया परिवर्तन और संक्रांतियों की कहानी का नाम है. जिस तरह से ये परिवर्तन व्यक्तियों, समय और शहरों में होते हैं, उसी तरह दुनिया के तमाम हिस्सों, अलग-अलग दौर और हुकूमतों में होते रहते हैं. खुदा का यही तरीका है जो उसके बंदों में हमेशा से जारी है.’

इस्लामी कानून के विशेषज्ञ डॉ. सिबही मेहमसानी ने इब्ने खल्दून के विचारों के आधार पर अपनी किताब ‘फलसफा शरियते इस्लाम’ में लिखा है, ‘इसमें कोई संदेह नहीं है कि दुनिया की इस परिवर्तनशीलता का नतीजा यह है कि मानव समाज का जीवन स्तर बदलने से उसके कल्याण के पैमाने भी बदल जाते हैं. चूंकि मानव की बेहतरी ही कानून की बुनियाद है, इसलिए अक्ल का फतवा यही है कि समय और समाज में तब्दीलियों के साथ-साथ कानून में भी मुनासिब और जरूरी परिवर्तन होते रहें और वह अपने पास-पड़ोस से भी प्रभावित होता रहे.’

एक अन्य इस्लामी विद्वान इब्ने कय्यिम अल जौज़ी ने जोरदार शब्दों में इस बात को रेखांकित किया है, ‘कानून की तब्दीली, समय और काल के परिवर्तन, बदलते हुए हालात और इंसानों के बदलते हुए व्यवहार के साथ जुड़ी है.’ इसी बात को इब्ने कय्यिम ने आगे बढ़ाते हुए कहा है कि मानव समाज और कानून का एक रिश्ता है और इस रिश्ते को न जानने के कारण एक गलतफहमी पैदा हो गई है. इसने इस्लामी कानूनों के क्षेत्र को सीमित कर दिया है. इस्लामी कानूनों के दायरे को सीमित करने वालों के बारे में इब्ने कय्यिम लिखते हैं कि जिस कानून में मसालेह इंसानी (लोक कल्याण) का सबसे ज्यादा लिहाज रखा गया हो उसमें ऐसे तंग नजरियों की कोई गुंजाइश नहीं है. यह बात अपने आप में महत्वपूर्ण है कि आज से 800 साल पहले इब्ने खल्दून ने और 400 साल पहले इब्ने कय्यिम ने इस बात को स्पष्ट कर दिया था कि कानून का उद्देश्य केवल और केवल लोक कल्याण है.

इस स्थिति को मुजल्लातुल अहकामुल अदालिया (इस्लामी कानून नियमावली) के अनुच्छेद 39 में और ज्यादा साफ कर दिया गया है. वहां कहा गया है, ‘ला युंकिर तघाय्युरिल अहकाम बित लघाय्युरिज्जमन’, अर्थात इस बात को नकारा नहीं जा सकता कि जमाना बदलने के साथ-साथ कानून भी बदल जाते हैं. इस संदर्भ में मौलाना अलाई की बात भी बहुत महत्वपूर्ण है, ‘कानून का प्रावधान किसी विशेष कारक पर आधारित होता है. उस कारक के समाप्त हो जाने पर वह प्रावधान भी स्वतः समाप्त हो जाता है.’

जब हम इस्लामी कानून के इतिहास पर नजर डालते हैं तो हमें ऐसे अनेक मामले मिलते हैं जहां विभिन्न कारकों के परिवर्तनों के साथ कानून के प्रावधानों में भी जरूरी परिवर्तन किए गए हैं. इसकी कुछ मोटी-मोटी मिसालें हैं:

  • खिराज वह टैक्स है जो खेती करने वालों को देना होता था. इसकी दरें हजरत उमर (इस्लाम धर्म के दूसरे खलीफा या शासक) के जमाने में तय कर दी गई थीं, लेकिन इमाम अबू यूसुफ ने समय बदलने के साथ इन दरों को कम कर दिया.
  •  इमाम शाफई उन चार इमामों में से हैं जिनके नाम चारों सुन्नी न्याय व्यवस्थाओं के साथ जुड़े हैं. उन्होंने बहुत-सी यात्राएं कीं और वे अपनी विद्वता के लिए प्रसिद्ध हैं. अपनी यात्राओं के बाद इमाम शाफई ने अपनी बहुत -सी मान्यताओं, जिनको इतिहास में इराकी मजहब कहा गया है, को छोड़कर नया मिस्री मजहब इख्तियार कर लिया.
  • मुस्लिम हुकूमत के पहले दौर में स्कूल में पढ़ाने वाले उलेमा के लिए बड़े-बड़े वजीफे मुकर्रर थे. इस आधार पर इमाम अबू हनीफा और उनके साथियों ने कुरान और दूसरे धार्मिक ग्रंथों को पढ़ाने के लिए उन्हें मेहनताने देने पर पाबंदी लगा दी थी. बाद में जब वजीफे बंद हो गए तो उस समय के उलेमा ने फतवे देकर इस प्रकार की तनख्वाह को जायज करार दे दिया.

काल और समय के परिवर्तन के साथ कानून में परिवर्तन के सिद्धांत को इस्लामी न्यायसंहिता में पूरी मान्यता है. लेकिन ऊपर जितने उदाहरण दिए गए हैं वे उन कानूनों से संबंधित हैं जो मुस्लिम विधि शास्त्रियों की राय और फतवों के आधार पर बनाए गए थे. इनके अतिरिक्त वे कानून भी हैं जिनका आधार कुरान और सुन्नत (परंपराएं) है. इनकी महत्ता इस्लामी कानूनों में सबसे ज्यादा है. हालांकि यह माना जाता है कि कुरान और सुन्नत पर आधारित किसी भी कानून को बदला नहीं जा सकता, लेकिन इतिहास में ऐसी कई मिसालें मिलती हैं. खास तौर से हजरत उमर की खिलाफत के दौर में जहां उन्होंने समय और परिस्थितियों में बदलाव के कारण उन कानूनों और नियमों में परिवर्तन किए जिनका संबंध सीधे कुरान और सुन्नत से था. ऐसे कुछ उदाहरण हैं:

खिराज (खेती पर लगने वाला कर) की दरें हजरत उमर के जमाने में तय कर दी गई थीं, लेकिन इमाम अबू यूसुफ ने समय बदलने के साथ इन दरों को कम कर दिया

  • कुरान में खैरात और सदकात (दान-दक्षिणा) के लिए स्पष्ट प्रावधान है: “सदकात दरअसल फकीरों और मिसकीनों (वंचितों) के लिए है, नेक काम में लगे लोगों के लिए, उनके लिए जिनको तकलीफ-ए-कल्ब (दिल भराई) की जरूरत है, गुलामों को आजाद कराने और दूसरों के कर्जे अदा करने के लिए और अल्लाह के रास्ते पर चलने वाले मुसाफिरों की मदद के लिए. (कुरान 9.60)

यहां दिल भराई से मतलब वे लोग या नए मुसलमान थे जिनको पैगंबर साहब कुछ रकम दिया करते थे. इस्लामी टीकाकार बैहक्की ने लिखा है कि कुरान के इस प्रावधान के बावजूद हजरत उमर ने दिल भराई वालों का हिस्सा देना बंद कर दिया और कहा कि पैगंबर साहब यह रकम तुम्हें इसलिए दिया करते थे कि तुम्हारी दिल भराई करके तुम्हें इस्लाम पर कायम रख सकें. लेकिन अब ऐसा करने की जरूरत नहीं है.

  • हदीस (हजरत मुहम्मद साहब के वचनों का संकलन) की प्रसिद्द किताब ‘सही मुस्लिम’ के मुताबिक पैगंबर साहब, हजरत अबू बक्र (इस्लाम धर्म के पहले खलीफा) और हजरत उमर की खिलाफत के आरंभिक दौर में एक साथ तीन बार कहे गए तलाक को एक ही माना जाता था बाद में जब लोग तलाक में जल्दी करने लगे तो हजरत उमर ने उन्हें एक ही बार में तीन तलाक देने की इजाजत दे दी. (मुस्लिम किताब 009, हदीस नंबर 3493)

हजरत उमर ने अपने जमाने के लिहाज से जिस राय को बेहतर समझा उसको लागू किया लेकिन यह भी सही है कि बहुत-से उलमा ने हजरत उमर की इस राय से सहमत नहीं थे और आज भी इस्लामी कानून की कई धाराओं में एक वक्त के तीन तलाक को एक तलाक ही माना जाता है. शेख अहमद मोहम्मद शाकिर ने अपनी किताब ‘निजामे तलाक फी इस्लाम’ में लिखा है कि हजरत उमर का यह फैसला एक हंगामी हुकुम की हैसियत रखता है जो उन्होंने सियासती जरूरत के चलते दिया था.

  • इस्लामी कानून में चोरी की सजा हाथ काटना है और इसका प्रावधान कुरान में है – ‘और चोर मर्द और चोर औरत दोनों के हाथ काट दो, यह उनकी कमाई का बदला है’ (कुरान 5.38)

खुद पैगंबर साहब ने इस प्रावधान के तहत चोरी करने वालों को यही सजा दी थी, लेकिन हजरत उमर ने अकाल के समय जनहित में इस सजा को निलंबित कर दिया और इस को आम तौर पर स्वीकार कर लिया गया.

  • किसी अविवाहित व्यक्ति द्वारा अवैध यौन संबंध की सजा इस्लामी कानून के अनुसार 100 कोड़े और एक साल के लिए उस स्थान से बाहर भेज देना है. लेकिन हजरत उमर के बारे में आया है कि जब उन्होंने राबिया बिन उमय्या को शहर से निकाला तो वह जा कर रोमन लोगों से मिल गया जिनके साथ उस समय जंग चल रही थी. इस पर हजरत उमर ने कहा कि अब मैं कभी किसी को शहर से बाहर नहीं निकालूंगा. हजरत उमर का यह फैसला भी वक्त और हालात के हिसाब से राज्य के हित में लिया गया फैसला था जो साफ तौर पर इस्लामी कानून के प्रावधानों से अलग था.
  • इस्लामी कानून उन अपराधों के मामले में शासक को सजा तय करने का अधिकार देते हैं जहां साफ तौर पर किसी सजा का प्रावधान नहीं है. लेकिन एक हदीस में यह साफ कर दिया गया है कि यह सजा 10 कोड़ों से ज्यादा नहीं हो सकती. मगर हजरत उमर ने एक मामले में, जहां एक आदमी ने सरकारी खजाने की जाली मोहर बना ली थी, 100 कोड़ों की सजा सुनाई. इमाम मालिक जो हदीस के पहले संकलनकर्ता हैं उन्होंने इस मामले में कहा है कि 10 कोड़ों की सजा पैगंबर साहब के समय के हिसाब से सही थी. यह हर दौर में लागू नहीं होती है.
  • हत्या के मामले में इस्लामी कानून में ‘खून बहा’ का प्रावधान है. इसके अनुसार हत्या करने वाले या उसके कबीले पर यह जिम्मेदारी आती है कि वह एक निर्धारित रकम मारे गए व्यक्ति के परिजनों को दे. लेकिन हजरत उमर ने इस तरीके को बदल दिया. इसका कारण यह था कि उन्होंने पहली बार शासन और फौज को संगठित किया तो सामूहिक सत्ता कबीलों के हाथ से निकलकर सरकार के पास आ गई. इमाम सरखासी ने इस फैसले की तारीफ करते हुए कहा कि यह नहीं कहा जा सकता कि हजरत उमर का यह फैसला पैगंबर साहब की परंपरा से हट जाना था. वास्तव में यह उसी परंपरा के अनुसार था क्योंकि वे यह जानते थे कि पैगंबर साहब ने यह जिम्मेदारी कबीले पर इसलिए डाली थी कि उनके समय कबीला ही शासन और सत्ता की बुनियादी इकाई था. लेकिन सरकारी फौज के संगठित होने के बाद सत्ता फौज के हाथ में आ गई और बहुत बार फौजी होने के नाते आदमी कभी-कभी अपने ही कबीले के खिलाफ जंग करने के लिए मजबूर होता था. दूसरी तरफ इमाम शाफई ने इस तर्क को पैगंबरी परंपरा के खिलाफ कह कर रद्द कर दिया. इस बहस से इतना तो साफ है कि इस्लामी परंपरा में कानून कोई जड़ संस्था नहीं है बल्कि हर प्रसंग के प्रति अत्यंत संवेदनशील है. ऐतिहासिक दृष्टि से यह कहा जा सकता है कि इस्लामी कानून में इतनी जीवंतता और लोच है कि यह बदलते हुए वक्त के हर तकाजों और चुनौतियों का सकारात्मक उत्तर दे सके. इस सिलसिले में सबसे मजबूत और दिलचस्प तर्क सर सैयद अहमद खान (1817-1898) ने दिया है. उन्होंने कहा कि कुरान खुदा का शब्द है और जो कुछ हम दुनिया में देखते हैं वह खुदा का कर्म है. उन्होंने कहा कि यह असंभव है कि खुदा की कथनी और करनी में विरोधाभास हो. अगर हमें दोनों में अंतर नजर आता है तो इसका एक ही मतलब है कि हमने खुदा के कहे को सही तरह से समझा नहीं है. इसलिए हमें उस प्रावधान विशेष के बारे में अपनी समझ की पुनर्समीक्षा करनी होगी और शब्द और कर्म के बीच सामंजस्य स्थापित करना होगा. सामंजस्य स्थापित करने और नई परिस्थितियों व चुनौतियों के बीच रास्ता तलाश करने के प्रयासों को कुरान बहुत प्रशंसनीय निगाहों से देखता है और कहता है, ‘और जो हमारे लिए अथक प्रयास करेंगे उन्हें हम अपने रास्ते दिखाएंगे. निस्संदेह अल्लाह अच्छे काम करने वालों के साथ है.’ (कुरान 30.69)

(आरिफ मोहम्मद खान की अतुल चौरसिया से बातचीत के आधार पर इस आलेख से जुड़े कुछ और बिंदु आगे हैं.)

तो फिर कट्टरपंथ का भ्रम क्यों?

मैंने अपने लेख में जितने उदाहरण दिए हैं वे सब पहली सदी हिजरी अर्थात सातवीं शताब्दी से लेकर दसवीं शताब्दी तक के हैं. इन्हीं में वे तीन शताब्दियां भी हैं जिनको इस्लाम का स्वर्णिम काल कहा जाता है, खास तौर से आठवीं और नौवीं शताब्दी जब भारतीय और यूनानी किताबों के अनुवाद किए गए. पहली भारतीय पुस्तक ‘सूर्य सिद्धांत’ का अनुवाद फजारी ने 771 में अरबी में किया जिसको “सिंधहिंद” का नाम दिया गया. यह पुस्तक बाद में स्पेन के जरिए पूरे यूरोप में गई और फजारी को अरब खगोलशास्त्र के पिता के तौर पर जाना गया.

लेकिन यह भी सत्य है कि दसवीं शताब्दी से ऐसी प्रवृत्तियां खड़ी हो गईं विशेषकर अशअरी आंदोलन के नतीजे में जिनकी वजह से बौद्धिक वातावरण पर कुप्रभाव पड़ा और नई सोच व अनुसंधान एक तरह से गंदे शब्द बन गए. यह माहौल बगदाद पर मंगोल आक्रमण के बाद और अधिक संकुचित हो गया और सिर्फ पुरानी परंपराओं के पालन को धार्मिक आस्थाओं का अभिन्न अंग मान लिया गया. जस्टिस अमीर अली ने अपनी प्रसिद्ध किताब ‘स्पिरिट ऑफ इस्लाम’ में एक अरब संपादक की टिप्पणी उद्धृत की है, ‘अगर अशअरी और गजाली न हुए होते तो अरबों का समाज गेलिलियो, केप्लर और न्यूटन का समाज होता. उन्होंने विज्ञान और दर्शन के अध्ययन की निंदा की और यह आह्वान किया कि धर्मशास्त्र और धार्मिक कानून के अध्ययन के अलावा किसी और विषय की पढ़ाई समय की बर्बादी है.’ अरब संपादक के अनुसार इस आह्वान से मुस्लिम दुनिया का विकास अवरुद्ध हो गया और अज्ञानता और रूढ़िवाद की जड़ें गहरी होती चली गई.’

शाहबानो के मामले में कई मुस्लिम राजनेताओं ने कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें इसके लिए जमकर पुरस्कृत कियलेकिन यह नहीं मानना चाहिए कि गतिशीलता पूरी तरह समाप्त हो गई है. पूरी दुनिया में जो प्रगति और परिवर्तन हो रहे हैं मुस्लिम उससे कटे हुए नहीं . मगर वे ज्यादातर उस परिवर्तन का लाभ उठाने वालों में शामिल हैं परिवर्तन लाने वालों में नहीं. शैक्षिक विकास के साथ यह स्थिति बदल रही है. मगर उलमा (पेशेवर धर्मगुरु) का एक वर्ग अब भी पुरानी लीक पर जमा हुआ है. इससे इस तर्क को बल मिल जाता है कि पूरा मुस्लिम समाज कट्टरपंथी है.

मुस्लिम उलमा में हमेशा से दो वर्ग रहे हैं. एक, जिनको उलमा-ए-हक कहा गया है जिनमें वे महान सूफी भी हैं जिन्होंने अपनी पूरी जिंदगी किसी संप्रदाय विशेष के लिए नहीं बल्कि अल्लाह की इबादत के लिए समर्पित कर दी. उसी के साथ दूसरा वर्ग भी रहा है जिन्होंने दीन को पेशे के तौर पर इस्तेमाल किया. उन्होंने बादशाहों और हुकूमतों की नौकरियां की और उनकी मर्जी के अनुसार ठकुर-सुहाती फतवे देकर बादशाहों के हर सही और गलत काम को जायज ठहराया. इन्हीं उलमा के फतवों के नतीजे में सरमद जैसे अल्लाह के बंदे को फांसी की सजा दी गई, हजरत निजामुद्दीन औलिया पर दिल्ली के दरबार में मुकदमा चलाया गया. यह भी छोडिए, कर्बला के मामले में जहां पैगंबर साहब के पूरे परिवार को बेदर्दी के साथ शहीद किया गया था – सिर्फ इस जुर्म में कि उन्होंने खानदानी बादशाहत को स्वीकार करने से इनकार कर दिया था – फतवे देकर इस जुल्म को जायज ठहराया गया. मौलाना आजाद ने अपने एक इंटरव्यू में इन्हीं उलमा के लिए कहा है, ‘इस्लाम की पूरी तारीख उन उलमा से भरी पड़ी है जिनके कारण इस्लाम हर दौर में सिसकियां लेता रहा है.’

राजनीति की भूमिका

मुसलमान और इस्लाम की छवि हिंदुस्तान में अगर आज ऐसी बन गई है कि यह अतीत में ठहरा हुआ है, तो इसे समझने के लिए हिंदुस्तान के राजनीतिक पक्ष को भी समझना होगा. यहां जो लोग मुसलमानों का नेता होने का दावा करते हैं उनकी व्यक्तिगत आस्था तो कुछ और होती है लेकिन अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षाओं की वजह से वे इसके बिल्कुल विपरीत आचरण करते हैं. इसके चलते कई कट्टरपंथी आम लोगों की आस्थाओं को भड़काने में कामयाब हो जाते हैं. एक जमाने से ऐसे लोग बहुत व्यवस्थित तरीके से यह काम कर रहे हैं. जिन्ना से इसकी शुरुआत हुई थी. उनकी व्यक्तिगत आस्था कुछ और थी. वे पैदा तो एक मुसलमान के घर में हुए लेकिन सबका यह मानना है कि वे जीवन भर नॉन-प्रैक्टिसिंग मुसलमान रहे. उन्होंने अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए मुसलमानों का जमकर इस्तेमाल किया. हमने देखा कि शाहबानो के मामले में कई आधुनिक मुस्लिम राजनेताओं ने कट्टरपंथियों के साथ कंधे से कंधा मिलाकर काम किया और हमारी राजनीतिक व्यवस्था ने उन्हें इसके लिए जमकर पुरस्कृत किया. ऐसे में मुस्लिम समाज किस तरफ बढ़ेगा और इसके लिए जिम्मेदार कौन होगा? व्यवस्था बार-बार एक ही संदेश दे रही है कि अगर किसी मुसलमान को हिंदुस्तान की राजनीति में आगे बढ़ना है तो आप कट्टरपंथियों के साथ खड़े होइए, बंद दिमागों को आगे बढ़ाइए. जब यह संदेश एक पढ़े-लिखे मुसलमान को मिलेगा तो हालात कैसे बदलेंगे. 1986 में शाहबानो के मामले के बाद से ही तो इस देश की राजनीति में कट्टरपंथियों का असर बढ़ा है, उसके पहले कहां था यह. यह स्थिति इसलिए भी पैदा हुई क्योंकि आम आदमी को अशिक्षित रखा गया, और इस हद तक कि उसे कुरान को अनुवाद के साथ पढ़ने पर भी पाबंदी लगा दी गई. जबकि इस्लाम में हर मर्द और औरत को इल्म हासिल करना जरूरी है. अगर हम  शिक्षा का विस्तार करने में सफल हो सकें और साधारण व्यक्ति शिक्षित होकर अपने फैसले खुद करने की स्थिति में आ सके तो पेशेवर उलमा पर उनकी निर्भरता ख़त्म हो जाएगी और स्थितियां खुद-ब-खुद सुधरने लगेंगी. यह काम हो रहा है क्योंकि मुसलमानों में शिक्षा का विस्तार बहुत तेज़ी से हो रहा है, खास तौर से महिलाओं में.

कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम और ओवैसी

यह सही है कि संगीत के संदर्भ में उलमा के बीच शुरू से मतभेद रहा है. हज़रत निजामुद्दीन पर चलने वाले जिस मुक़दमे का जिक्र मैंने किया है उसका संबंध संगीत ही से था. उलमा के एक वर्ग की मजबूत राय रही है कि संगीत जायज़ नहीं है. वहीं दूसरी तरफ हमें वे उलमा नजर आते हैं (खास तौर से सूफी परंपरा से संबंध रखने वाले) जो संगीत को आध्यात्मिक विकास का माध्यम मानते थे. हमारी अपनी परम्परा में अमीर खुसरो न सिर्फ कवि थे बल्कि संगीत के कई आले (वाद्ययंत्र) खुद उनकी अपनी ईजाद हैं.

इस्लामी अरब में गाने और संगीत का इतिहास प्रसिद्ध किताब ‘किताबुल अगना’ में मिलता है जो अबुल फराज इस्फहानी (897-966) ने लिखी है. इस किताब में विस्तार से पुरुष और महिला संगीतकारों का विवरण दिया गया है. महिला संगीतकारों में प्रमुख नाम ‘अज्जा अल्मैला’ और ‘जमीला’ के हैं. ये दोनों महिला संगीतकार अपनी कला में निपुण थीं और मदीने में रहती थीं.

कश्मीर के मुफ्ती-ए-आजम बशीरुद्दीन अहमद के फतवे के संदर्भ में इतना ही कहा जा सकता है कि यह फतवा मुसलमानों के एक हिस्से की राय तो हो सकता है लेकिन इसे इस्लामी नहीं कहा जा सकता. कश्मीर, जो मशहूर सूफी लल्ला आरिफा और शेख नूरुद्दीन (नन्द ऋषि) की सरजमीन है वहां से अगर ऐसा फतवा आता है तो यह अपने आप में विरोधाभास है. पूरी दुनिया में कहीं भी किसी भी मस्जिद में इबादत के समय स्थानीय भाषा में सामूहिक गान नहीं होता है लेकिन कश्मीर की मस्जिदों में नमाज़ के बाद ‘औरादे फतहिया’ का सामूहिक गान होता है. यह गाना कश्मीरियों की इबादत का हिस्सा है. ऐसे कश्मीर में लड़कियों के गाने पर पाबंदी दुर्भाग्यपूर्ण है.

जहां तक अकबरुद्दीन ओवैसी के भाषण से जुड़ा विवाद है तो उस पर कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए. ओवैसी का संबंध मजलिस से है जो पुराने हैदराबाद के रजाकार संगठन का राजनीतिक मंच था. यह वही संगठन है जो हैदराबाद के भारत में विलय के विरुद्ध था, जिसके नतीजे में पुलिस एक्शन हुआ और हैदराबाद के लोगों को एक बड़ी त्रासदी से गुजरना पड़ा. जिस पार्टी का लीडर कासिम रिजवी हैदराबाद के नौजवानों को कलमा पढ़ कर भारतीय टैंकों के सामने कूदने का आह्वान करके खुद कराची भागने में संकोच महसूस नहीं करता, उस पार्टी का एक नातजुर्बेकार कारकुन अगर अपने भाषणों में दूसरी धार्मिक परम्पराओं का अपमान करता है तो मुझे कोई ताज्जुब नहीं है. इस मामले में सवाल ओवैसी से नहीं बल्कि कांग्रेस पार्टी से पूछा जाना चाहिए कि आखिर उन्होंने मजलिस को यूपीए में शामिल क्यों किया. ओवैसी को तो शायद यह भी नहीं मालूम है कि कुरान हकीम सख्ती के साथ यह कहता है , ‘और जो लोग अल्लाह के सिवा किसी और को पूजते हैं उन्हें गाली न दो वर्ना वे लोग अज्ञानता की बुनियाद पर अल्लाह को गाली देने लगेंगे. ऐसा करने से उनके कर्म लोगों को जायज लगने लगेंगे.’ (कुरान 6.108)

मजलिस ही नहीं मुझे तो मुस्लिम लीग का भी यूपीए में रहना अटपटा लगता है. मुस्लिम लीग ने देश का विभाजन कराया, लाखों लोगों का खून बहा, परिवार विस्थापित हुए और आज वही मुस्लिम लीग कांग्रेस के साथ सरकार में हिस्सेदार है. मैं मानता हूं कि केरल की मुस्लिम लीग पुरानी मुस्लिम लीग से भिन्न है लेकिन मुस्लिम लीग नाम अपने आप में अस्वीकार्य है और केरल मुस्लिम लीग पर दबाव डाला जा सकता था कि वे अपना नाम तो बदल लें. मौलाना आज़ाद ने 23 अक्टूबर, 1947 को दिल्ली में जामा मस्जिद के सामने अपने भाषण में कहा था, ‘अब हिंदुस्तान की सियासत का रुख बदल चुका है, मुस्लिम लीग के लिए यहां कोई जगह नहीं है.’

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अव्यवस्था की आहुतियां

मौनी अमावस्या का स्नान. इलाहाबाद के संगम तट पर देश ही नहीं बल्कि विदेशों तक से उमड़ी करीब तीन करोड़ श्रद्धालुओं की भीड़. स्नान के बाद सभी को अपने-अपने घर जाने की जल्दी. इन सब के बीच प्रशासन व रेलवे की आधी अधूरी तैयारी. इस सबका परिणाम 10 फरवरी की रात रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नंबर छह पर भगदड़ के रूप में देखने को मिला, खामियाजा 36 श्रद्धालुओं को अपनी जान देकर चुकाना पड़ा. घटना क्यों और कैसे हुई, इसमें दोष किसका था, इस पर मंथन करने के बजाए केंद्र व उत्तर प्रदेश सरकार दोनों ने ही एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप का दौर शुरू कर दिया.

सबसे पहले हम बात शुरू करते हैं घटना वाले दिन यानि 10 फरवरी की जिस दिन मौनी अमावस्या का स्नान था. दरअसल उस दिन रेलवे स्टेशन के प्लेटफार्म नम्बर छह पर पौने दो घंटे के अंतराल पर दो बार भगदड़ मची थी. पहली बार भगदड़ देर शाम करीब सात बजे हुई थी. स्टेशन पर दस प्लेटफार्म हैं जिसमें से छह नम्बर प्लेटफार्म सबसे बड़ा है. इस प्लेटफार्म से बिहार, झारखंड सहित पश्चिम बंगाल की तरफ जाने वाली रेलगाडि़यों को चलाया जाता है. शाम सात बजे इस प्लेटफार्म पर पटना को जाने वाली रेलगाड़ी खड़ी थी. दूसरे प्लेटफार्मों से इस प्लेटफार्म को जोड़ने वाले फुटब्रिज पर यात्रियों की भारी भीड़ पटना जाने वाली रेलगाड़ी को पकड़े के लिए बढ़ी आ रही थी. इसी बीच यात्रियों में किसी तरह यह अफवाह फैल गई कि गाड़ी छूट रही है. फुटब्रिज पर चलने वाले यात्रियों को जैसे ही पता चला कि ट्रेन छूट रही है वे एक दूसरे से आगे निकलने के चक्कर में धक्का-मुक्की करते हुए बढ़ने लगे और पल भर में ही वहां अव्यवस्था फैल गई जिसके कारण भगदड़ मच गई.

इस घटना के बाद भी न तो रेलवे ने और न ही प्रशासन ने कोई सबक लिया. घटना के समय मौके पर ड्यूटी दे रहे उत्तर प्रदेश पुलिस के दो सिपाहियों ने तहलका को बताया, ‘सात बजे वाली घटना के बाद भी स्टेशन पर आने वाली भीड़ को व्यवस्थित करने के लिए न तो अतिरिक्त पुलिस बल लगाया गया और न ही भीड़ का डायवर्जन किया गया. जिससे भीड़ का दबाव प्लेटफर्मों पर कुछ कम हो सके.’ इसका नतीजा यह रहा कि रात करीब पौने नौ बजे दूसरी बार प्लेटफार्म नम्बर छह पर उतरने वाले फुटब्रिज की सीढि़यों पर दोबारा भगदड़ मच गई.

इस घटना के बाद भी न तो रेलवे ने और न ही प्रशासन ने कोई सबक लिया.फुटब्रिज से नीचे जाने वाली सीढ़ियों से आने वाले और जाने वाले दोनों ही तरफ के रास्तों यात्रियों का भारी दबाव था. पुलिस के चंद सिपाहियों ने मानव श्रंखला बनाते हुए एक दूसरे का हाथ पकड़ कर आने व जाने वाले यात्रियों को अलग-अलग करने का पहले प्रयास किया लेकिन कुछ देर में ही भारी भीड़ के कारण पुलिस का यह प्रयोग धराशाई हो गया. भीड़ अनियंत्रित होते देख जवानों ने लाठी पटकना शुरू किया जिससे स्थिति और भी विकराल हो गई. लोग एक दूसरे पर गिरने लगे और सीढ़ी पर भगदड़ की स्थिति उत्पन्न हो गई. दोनों ही भगदड़ों में 36 लोगों की मौत हुई और 100 से अधिक लोग घायल हुए. मौके पर मौजूद रेलवे के कर्मचारी बताते हैं कि स्टेशन पर ऐसी स्थिति इस लिए हुई क्योंकि सिविल लाइंस साइड और सिटी साइड दो ओर से यात्रियों का दबाव बढ़ने लगा जिससे भारी भीड़ आमने सामने आ गई और स्थिति अनियंत्रित हो गई.

रेलवे व जिला प्रशासन दोनों ने ही घटना को छुपाने का भरसक प्रयास किया. घटना की जानकारी बाहर तक न जाए इस बात को ध्यान में रखते हुए अधिकारियों ने तत्काल शवों को हटवा कर साफ-सफाई करवा दिया. इसके बावजूद घटना कितनी वीभत्स थी इसका अंदाजा इसी बात से लगाया जा सकता है कि दूसरे दिन भी प्लेटफार्म नम्बर छह से लेकर फुटब्रिज की सीढि़यों तक पर जगह-जगह बिखरे जूते-चप्पल, यात्रियों के सामान व खून से रंगे कपड़े 10 फरवरी के रात की कहानी बयां कर रहे थे.

मेला प्रशासन व प्रदेश सरकार दोनों ने ही मौनी अमावस्या के स्नान वाले दिन करीब तीन करोड़ श्रद्धालुओं के संगम तट पर एकत्र होने का अनुमान लगाया था. श्रद्धालुओं को स्नान के बाद सकुशल उनके गंतव्य तक पहुंचाने के लिए राज्य सकार ने उत्तर प्रदेश परिवहन निगम की बसों व केंद्र सरकार ने रेलगाडि़यां उपलब्ध कवाने का वायदा किया था. स्नान के बाद श्रद्धालुओं को उनके गंतव्य तक पहुंचाने की दोनों ही सरकारों की यह कवायद सिर्फ कागजों तक ही सीमित रही.

यदि हम राज्य सरकार की व्यवस्था पर नजर डालें तो यात्रियों के आवागमन के लिए उसके पास परिवहन निगम की बसों का संसाधन उपलब्ध था. मौनी अमावस्या के स्नान के लिए करीब छह हजार बसों को चलाने की तैयारी थी. लेकिन ऐन मौके पर राज्य सरकार की यह व्यवस्था धरी की धरी रह गई. 10 फरवरी को सरकार व परिवहन निगम श्रद्धालुओं के लिए मात्र 3445 बसें ही उपलब्ध करा पाया. इन बसों के माध्यम से मात्र ढ़ाई लाख के करीब श्रद्धालु ही निकल पाए. परिवहन निगम के सूत्र बताते हैं कि पूरे प्रदेश से दो हजार बसें स्नान वाले दिन इलाहाबाद पहुंचनी थी लेकिन पहुंच नहीं सकीं. यात्रियों के लिए जो 3445 बसें उपलब्ध भी थीं उनमें से भी सैकड़ों बसें सड़कों पर यात्रियों की भारी भीड़ के कारण शहर के भीतर ही प्रवेश नहीं कर सकीं. इन बसों से मात्र ढ़ाई लाख यात्री ही रवाना किए जा सके. बसें उपलब्ध न होने के कारण भीड़ निराश होकर रेलवे स्टेशन की ओर रवाना होने लगी.

भगदड़ मचने की वजह से काफी संख्या में श्रद्धालु हताहत हुए

स्नान वाले दिन रेलवे ने हर आधे घंटे पर एक रेलगाड़ी चलाने का प्लान बनाया था लेकिन यह व्यवस्था भी शुरू नहीं हो सकी. अप-डाउन मिला कर कुल 58 रेलगाडि़यां ही चल सकीं. रेलवे की लापरवाही का आलम यह रहा कि रूटीन की जो रेलगाडि़यां इलाहाबाद से चलती थीं उनमें भी कटौती कर दी गई. प्रयाग पैसेंजर, इंटर सिटी एक्सप्रेस और बरेली पैसेंजर जैसी नियमित गाडि़यों को रद्द कर दिया गया. जो गाड़ियां चलीं उनसे मात्र ढाई से तीन लाख के बीच ही यात्रियों को रेलवे इलाहाबाद से बाहर निकालने में सफल रहा. इस तरह देखा जाए तो इतने बड़े स्नान वाले दिन मात्र पांच से साढ़े पांच लाख यात्रियों को ही बस व रेलगाड़ी से उनके गंतव्य तक पहुंचाने की व्यवस्था राज्य व केंद्र सरकार कर सकी थी. ऐसी स्थिति तब थी जब कि कुंभ का स्नान शुरू होने से पहले ही इस बात का आंकलन लग चुका था कि मौनी अमावस्या के स्नान पर करीब तीन करोड़ श्रद्धालुओं की भीड़ तीर्थराज प्रयाग में उमड़ेगी.

घटना का एक बड़ा कारण यह भी रहा कि स्नान के बाद भीड़ को लगातार स्टेशनों की ओर रवाना करने पर मेला प्रशासन ने जोर दिया. इसके लिए बाकायदा माइक से मेले में एनांउंस किया जा रहा था कि श्रद्धालु जल्द से जल्द नहा कर घाट खाली कर के रेलवे स्टेशन व बस स्टेशन की ओर प्रस्थान करें. वहां से उनके गंतव्य को जाने के लिए पर्याप्त संख्या में बस व रेलगाडि़यां मौजूद हैं. पुलिस विभाग के एक अधिकारी कहते हैं,’ भीड़ एक साथ स्टेषनों पर न पहुंचे इसके लिए प्रशासन को चाहिए था कि इलाहाबाद के अन्य दर्शनीय स्थलों का भी प्रचार प्रसार किया जाता. ताकि श्रद्धालु इन स्थानों को देखते हुए स्टेशनों तक पहुंचते तो भीड़ का दबाव रेलवे स्टेशन पर एक साथ न बढ़ता.’ रेलवे स्टेशन के आसपास जो फोर्स लगा था उसे भी इस बात का प्रषिक्षण नहीं दिया गया था कि अलग-अलग दिशाओं में जाने वाले यात्रियों को किन-किन रास्तों से स्टेशन परिसर में प्रवेश कराना है. जबकि अलग-अलग दिशाओं में जाने वाले यात्रियों के लिए अलग-अलग गेट स्टेशन परिसर में आने के लिए बनाए गए थे. फिलहाल मेला प्रशासन जागा लेकिन घटना के बाद. घटना के अगले दिन यानि 11 फरवरी को मेले में बार बार एनाउंस किया जा रहा था कि बस व रेलवे स्टेशन पर यात्रियों की भारी भीड़ है तथा दोनों स्थानों पर अभी साधन भी उपलब्ध नहीं है. लिहाजा श्रद्धालुओं से अनुरोध है कि वे अगली सूचना तक मेला परिसर में ही बने रहें.

ऐसी स्थिति तब थी जब कि कुंभ का स्नान शुरू होने से पहले ही इस बात का आंकलन लग चुका था कि मौनी अमावस्या के स्नान पर करीब तीन करोड़ श्रद्धालुओं की भीड़ तीर्थराज प्रयाग में उमड़ेगी.दस फरवरी को सिर्फ रेलवे स्टेशन पर ही भगदड़ नहीं मची बल्कि मेला परिसर में भी श्रद्धालुओं को ऐसी स्थिति का सामना करना पड़ा. पहली घटना सेक्टर 12 में दोपहर करीब एक बजे की है. वहां भारी भीड़ के कारण अचानक अफरा-तफरी का माहौल उत्पन्न हो गया जिससे भगदड़ मच गई. भारी भीड़ व भगदड़ में दबने से प. बंगाल से आए 62 साल के गोविंद राय की मौत हो गई. इस घटना के एक घंटे बाद ही सेक्टर दो में त्रिवेणी बांध के नीचे भगदड़ मच गई. गनीमत यह रही कि यहां किसी भी श्रद्धालु की मौत तो नहीं हुई, कई लोग घायल जरूर हुए.

घटना के बाद मृतकों के परिवारों को भी कम अव्यवस्था का सामना नहीं करना पड़ा. जालंधर के राजागार्डेन से एक ही परिवार के 11 लोग गंगा स्नान को आए थे. इन सभी का महाबोधि एक्सप्रेस से वापस जाने का टिकट था. परिवार के सदस्य फुटब्रिज होते हुए प्लेटफार्म नम्बर छह पर जाने की तैयारी कर रहे थे तभी भगदड़ मच गई. जिसमें परिवार के साथ आई किरन नाम की महिला की मृत्यु हो गई. किरन के भाई सतीश कुमार बताते हैं कि घटना के काफी देर बात तक प्राथमिक उपचार नहीं मिला. काफी देर बाद एक नर्स आई भी तो उसने घायलों को हाथ तक नहीं लगाया. काफी देर बाद एम्बुलेंस आई जिसमें किरन को डाल कर सीधे स्वरूपरानी अस्पताल पहुंचाया जहां डाक्टरों ने उसे मृत घोषित कर दिया. सतीश बताते हैं, ‘घटना के बाद अस्पताल तक पहुंचने में करीब तीन घंटे का समय लग गया. समय रहते यदि किरन को अस्पताल पहुंचाया जाता तो शायद उसकी जान बचाई जा सकती थी.’ सतीश और उनके परिवार की मुश्किलें यहीं खत्म नहीं हुई. 11 फरवरी को पोस्टमार्टम के बाद दूसरे राज्य से आए इस परिवार को प्रशासन की ओर से कफन तक नहीं दिया गया. थक हार कर परिवार के लोग खुद ही पता करते करके कहीं से 1200 रुपये में किरन के लिए एक कफन लेकर आए जिससे शव को ढका जा सका.

पोस्टमार्टम के बाद परिजनों को कहा गया कि शव ले जाने के लिए वाहन की व्यवस्था वे खुद करें. जिस पर मोर्चरी पर मौजूद किरन के परिवार सहित दूसरे लोगों ने विरोध प्रदर्शन शुरू कर दिया. इतने में इलाहाबाद मंडल के कमिश्नर मौके पर पहुंच गए. स्थिति बिगड़ते देख प्रशासन ने शवों को उनके घरों तक पहुंचाने के लिए वाहन की व्यवस्था करने का आश्वासन दिया. सतीश व विनोद कुमार जैसे लोगों ने अपने परिजनों के शव के साथ जाने के लिए तो दूसरे वाहन की व्यवस्था कर ली लेकिन वहां ऐसे परिवार भी थे जिनके पास किराया तक नहीं बचा था.

इन्हीं में से एक मध्य प्रदेश के जबलपुर से आई चैनबाई भी थीं. स्टेशन पर हुई भगदड़ में चैनबाई की आठ साल की पुत्री मुस्कान सहित परिवार उनकी मां बिपता बाई व चाची फूलबाई की मौत हुई है. प्रशासन की ओर से मुहैया कराई जा रही एम्बुलेंस में परिवार के तीन शव रखने के बाद इतनी जगह नहीं बच रही थी कि और लोग बैठ कर घर को जा सकें. लिहाजा प्रशासन की ओर से मोर्चरी पर मौजूद कर्मचारियों ने अपने स्तर पर दूसरा वाहन करने की सलाह दी. चैनबाई बताती हैं, ‘रेलगाड़ी तक का किराया अब पास बचा नहीं है ऐसे में दूसरे वाहन का बोझ परिवार कैसे उठा पाएगा.’ लिहाजा चैनबाई ने परिवार के तीनों सदस्यों का अंतिम संस्कार इलाहाबाद के ही किसी घाट पर करने का निर्णय लिया.

भगदड़ के बाद दर्जनों की संख्या में ऐसे परिवार भी थे जिनके परिजन गायब थे. गायब लोगों का न तो मोबाइल ही काम कर रहा था और न ही परिजनों से संपर्क हो पा रहा था. सेना में सूबेदार मेजर रामेश्वर प्रसाद यादव अपनी पत्नी कुंती देवी के साथ 9 फरवरी को इलाहाबाद गंगा स्नान के लिए पहुंचे थे. पहले मेडिकल कालेज फिर स्वरूपरानी अस्पताल तक अपने पति को खोजते हुए पहुंची कुंती बताती हैं कि 10 फरवरी की शाम करीब सवा सात बजे वे पति के साथ प्लेटफार्म नम्बर छह पर बैठी थीं. उसी समय उनके पति ने अपनी जैकेट, घड़ी व मोबाइल निकाल कर देते हुए कहा कि वे शौच करने जा रहे हैं. रामेश्वर दोबारा वापस नहीं आए. कुंती बताती हैं कि पति न तो बलिया स्थित अपने घर पहुंचे हैं और न ही कोई संपर्क हो पा रहा है. लिहाजा किसी अनहोनी को सोच कर कुंती के आंसू थमने का नाम नहीं लेते.

भारी अव्यवस्था और तालमेल के अभाव के कारण हुई घटनाओं पर अब बारी केंद्र व राज्य सरकार की एक दूसरे पर आरोप प्रत्यारोप की थी. उत्तर प्रदेश सरकार घटना का ठीकरा जहां रेलवे पर फोड़ रही है तो केंद्र सरकार पूरी घटना के पीछे मेला प्रशासन की खामियां बता रही है. 

बसंत और फागुन के बीच प्रेम दिवस

बासंती बया और फागुन का पागलपन उधार लेकर बसंत पंचमी और होली के उमंग भरे त्योहारों के बीच हर वर्ष 14 फरवरी को प्रेम का नया त्योहार दस्तक देता है, वैलेंटाइंस डे. प्रेम का यह नया त्योहार आर्थिक उदारीकरण का सह उत्पाद ही तो है. 1991 के बाद से हमारे जीवन में काफी बदलाव आ चुका है. कुछ चीजें हमारे जीवन में रिक्त होती जा रही हैं और हमें उसका अहसास तक नहीं हो पा रहा. हमारे पास वस्तुएं बढ़ी हैं लेकिन रिश्ते? उनका क्या?

पहले त्योहार अपनों से मिलने के बहाने हुआ करते थे लेकिन अब वह बाजार के लिए अपना प्रॉडक्ट बेचने का एक जरिया भर हैं. इसी तरह वैलेंटाइन डे भी आता है और अचानक आसपास और बाजारों में गुलाब के फूल छा जाते हैं.

फरवरी महीने के शुरुआती दिनों बाग में गुलाब के फूलों को देखकर पता नहीं क्यों लगता है कि वह बेचारे अपनी जान की भीख मांग रहे हों. खिले हुए फूल अधखिली कलियों को अपनी पत्तियों के आंचल में छिपाते नजर आते हैं. लेकिन अंत में सब बेकार. ऐसा नहीं है कि वैलेंटाइंस डे के आने से पहले इतनी सदियां हमने बिना प्रेम के गुजार दीं. प्रेम तो हमेशा से था. यहीं हमारे बीच हमारी सांसों में हवा की तरह घुला हुआ जिसके लिए एक दिन तय करने की बात हमारे जेहन में कभी भूल से भी नहीं आई. बात अगर प्रतीकों से ही बनती हो तो हमारे पास वसंतोत्सव जैसे विनम्र आयोजन तो थे ही. लेकिन एक दिन सागर पार के आसमान से यह आक्रामक त्योहार अचानक डैने फैलाए उतरा और हमारे नन्हे मुन्ने त्योहारों को बुहार कर जाने कहां फेंक दिया. फिर भी अगर वे सामने आएं और उनको भी बाजार में बेचने की जरा सी भी गुंजाइश हो तो यह उनको कम से कम अपने उपनिवेश का दर्जा तो दे ही देगा. इतनी दरियादिली तो है ही इसमें.

वैलेंटाइंस डे यानी भावनाओं पर जेब की ताकत की स्थापना का त्योहार. दिल की नाजुकी की बातों पर चमकीली पन्नियों की जीत का त्योहार. जितना महंगा तोहफा, उतना गहरा प्रेम. इसके शब्दकोश में भावनाओं के लिए कोई जगह नहीं है. और ऐसा हो भी क्यों न आखिर इसने प्रेम की शाश्वत भावना को एक दिन के आयोजन में जो तब्दील कर दिया है. ऐसे में स्वाभाविक ही है कि 13 फरवरी की रात तक जो केवल लड़कियां होती हैं, 14 फरवरी की सुबह नींद खुलने पर वे सब प्रेमिकाएं बन चुकी होती हैं. इसके बाद शुरू होगा धावों का सिलसिला.

प्रेमीगण अपनी प्रेमिकाओं के लिए फूलों पर धावा बोलेंगे, संस्कृति के ठेकेदार इन प्रेमी-प्रेमिकाओं पर धावा बोलेंगे और भारतीय संस्कृति को ‘नष्ट’ होने से बचा लेंगे. वैलेंटाइंस डे की आलोचना का आधार केवल छद्म सांस्कृतिक राष्ट्रवादी चिंता नहीं है. वैश्विक ग्राम की अवधारणा के बीच ऐसे सांस्कृतिक मेल से बचना संभव नहीं है. लेकिन क्या वाकई यह प्रेम का त्योहार है, या फिर पहले से ही अपनी आजीविका के लिए संघर्ष कर रही जनता का दम निकालने वाला बाजार का एक और औजार भर है? अगर यह प्रेम का त्योहार है तो इसका तोहफों से इतना गहरा नाता क्यों है?

जिस तरह महंगी चॉकलेटों ने हमारी देसी मिठाइयों को चलन से बाहर करने का काम किया है मुझे डर लगता है कि यह बाजारू त्योहार जो अपने साथ रोज डे, प्रपोज डे, चॉकलेट डे और न जाने कौन-कौन से डे लाता है वह कहीं हमारे लिए होली और दिवाली के विकल्प भी न पेश कर दे. प्यार केवल दिखावा और मात्रा बनकर न रह जाए बल्कि बचा रहे हमारे अंतर्मन में हमारी ताकत बनकर. इसके लिए थोड़ी उम्मीद और थोड़ी प्रार्थना तो बनती है.

‘अफजल की फांसी एक सियासी कत्ल है’

अफजल गुरु की फांसी को आप किस रूप में देखते हैं?
देखिए, जब 2001 में संसद पर हमला हुआ था तो उस समय हमने इसकी कड़े शब्दों में निंदा की थी. जहां तक अफजल गुरु का संबंध है तो वो उस हमले में शामिल नहीं थे. उनके खिलाफ हमले की साजिश में शामिल होने का कोई पुख्ता प्रमाण नहीं था. ट्रायल कोर्ट में जब यह मामला गया तो उनको न तो कोई वकील मिला और न ही अफजल को अपनी सफाई पेश करने का कोई मौका दिया गया. बिना अपना पक्ष रखने का मौका दिए एक व्यक्ति को फांसी पर लटका दिया गया.

लेकिन अफजल का केस सभी न्यायिक चरणों से गुजरा है. सभी कानूनी विकल्प समाप्त हो चुके थे. 
ये अलग बात है. लेकिन ये पूरी तरह सच है कि ट्रायल कोर्ट में उसको अपनी सफाई पेश करने का मौका नहीं दिया गया. ऐसे में जब अफजल के मामले की शुरुआत ही अन्याय से हुई तो फिर उसके बाद सेशन कोर्ट या हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट में क्या हुआ इसका कोई मतलब नहीं रह जाता. फिर जब उसको फांसी दे दी गई तो फांसी से पहले उसका हक बनता था कि उसको अपने परिवारवाले, अपनी बीवी, अपने बच्चे से मिलने का मौका दिया जाता. सरकार ने फांसी की सूचना वाली जो चिट्ठी अफजल के परिवारवालों को भेजी वो फांसी लगने के दो दिन बाद उन्हें मिली.

क्या आपको लगता है कि अफजल को अभी फांसी देने का फैसला राजनीति से प्रेरित था?
बिल्कुल.अफजल को फांसी देने के लिए बीजेपी की तरफ से लगातार दबाव बना हुआ था. ये लोग कांग्रेस और उसकी सरकार पर लगातार हमला करते हुए कहते कि आप अफजल गुरु को बचा रहे हो. बीजेपी का दबाव एक बड़ा कारण है जिसकी वजह से यह फैसला हुआ. कांग्रेस ने बीजेपी के हाथ से अफजल का मुद्दा छीनने के उद्देश्य से अफजल को फांसी दी. ये सब 2014 लोकसभा चुनाव को ध्यान में रखते हुए किया गया. इस तरह से अफजल की फांसी एक सियासी कत्ल भी है. पहले ये ज्यूडिशियल मर्डर बनता है क्योंकि उनको अपनी सफाई पेश करने का मौका नहीं दिया गया. दूसरा ये सियासी मर्डर भी इसलिए बनता है क्योंकि यह राजनीतिक लाभ को ध्यान में रखकर किया गया.

जम्मू-कश्मीर के मुख्यमंत्री उमर अब्दुल्ला ने कहा है कि गिलानी समेत अन्य पृथकतावादी नेता जो फांसी पर आज घड़ियाली आंसू बहा रहे हैं उन्होंने अफजल के जीते जी उसकी मदद क्यों नहीं की. अगर उसे ट्रायल कोर्ट में वकील नहीं मिला तोइन्होंने अपनी तरफ से वकील की व्यवस्था क्यों नहीं कराई?
उमर अब्दुल्ला की बातें छोड़ दीजिए. वो तो इक्तेदार (सत्ता) के पुजारी लोग हैं. इन लोगों को पावर और अपनी कुर्सियों से मतलब हैं. इन्हें जम्मू-कश्मीर के लोगों से कोई हमदर्दी नहीं है. उनकी बात रद्देअमल (प्रतिक्रिया) के लायक नहीं है. ये लोग इक्तेदारपरस्त रहे हैं हमेशा से. इनके पिता को देखा, इनके दादा को भी देखा है और अब इन्हें भी देख रहा हूं. मैं इन्हें अच्छी तरह से जानता हूं.

लेकिन फिर भी ये प्रश्न तो है ही कि अगर आप लोगों को लगता था कि अफजल को वकील नहीं मिल रहा है, न्याय नहीं मिल रहा, तो आपलोगों ने उसके लिए क्या किया.
जो कुछ हो सकता था वो सब हमने अफजल के लिए किया.   

आपके हिसाब से अफजल गुरु की फांसी का जम्मू-कश्मीर पर क्या असर पड़ेगा?
देखिए, वहां के लोगों का अब तक जो ये ख्याल रहा है कि हम भारत सरकार के कब्जे में है, जो हमारे ऊपर बंदूक के दम पर शासन कर रही हैं. अफजल की फांसी के बाद यह ख्याल और भावना और गहरी तथा मजबूत होगी. अलगाव की भावना और भारत के प्रति नफरत और बढेगी. इसकी झलक आपको दिखाई दे रही है. घाटी में कर्फ्यू लगने के बाद से अब तक चार जवानों को शहीद कर दिया गया है. 50 के करीब लोग जख्मी हो चुके हैं.    

अफजल गुरु के परिवारवालों से क्या आपकी कभी कोई मुलाकात हुई है?
हां, हम उनसे मिलते रहे हैं. वो तो हमारे हमसाया है. 

जम्मू-कश्मीर लिबरेशन फ्रंट के सह-संस्थापक मकबूल भट की फांसी से अफजल की फांसी की तुलना की जा रही है. क्या घाटी में अब भी वो हालात हैं जिससे भट के समय की अराजकता दोबारा पैदा हो सके?
पूरी घाटी में 9 फरवरी से ही कर्फ्यू लगा हुआ है. इससे ज्यादा हालात की खराबी का और क्या सूचक हो सकता है? लोगों को बुनियादी जरूरतों से वंचित रख जा रहा है. उन्हें घरों से बाहर नहीं आने दिया जा रहा. कश्मीरियों के मन में मकबूल भट के समय से भी ज्यादा आज गुस्सा है. बहुत ज्यादा नफरत है. भारत के साम्राज्यवाद के खिलाफ लोगों के अंदर सालों से गुस्सा जमा होता जा रहा है. ऐसे माहौल में वहां के लोगों की तरफ से मैं आपसे एक बात कहना चाहता हूं. आपकी हुकूमत आपकी लीडरशीप, आपका मीडिया जम्मू-कश्मीर के लोगों को इंसान नहीं मानता.

हड्डियां कमजोर क्यों हो जाती हैं ?

इलस्टेशन:मनीषा यादव

gyan--skeletonबुढ़ापे में तो हड्डियां कमजोर हो ही जाती हैं, पर इस कमजोरी के तात्पर्य क्या हैं? इसका कारण तथा इलाज क्या है? क्या जवानी या अधेड़ उम्र में हड्डियां कमजोर हो सकती हैं? आजकल ‘हर डॉक्टर कह देता है’ कि ‘बोन डेन्सिटी’ की जांच करा लें जिससे पता चल सके कि आपकी हड्डियां कमजोर तो नहीं हो रहीं? हर मरीज को खून में विटामिन-डी का लेवल जांच करने को भी बोल देते हैं साहब- ये विटामिन-डी का क्या चक्कर है? बहुत-सी बातें हैं, बहुत-सी गलतफहमियां हैं, बहुत-सी धंधे वाली बातें हैं और बहुत सी ऐसी सूचनाएं हैं जिनको आप जानें तो बेहतर रहेगा.

मैं अगले एक-दो अंकों तक आपको हड्डी कमजोर होने का फंडा समझाने की कोशिश करूंगा.

इसे चिकित्सा शास्त्र में आस्टियोपोरोसिस कहते हैं.  मतलब यह कि शरीर की हड्डियों की शक्ति इतनी कम हो जाए कि हड्डी टूटने का खतरा कई गुना बढ़ जाए. हड्डियां खोखली-सी होने लगें. ढांचा तो खड़ा हो और पलस्तर झर-सा जाए. फिर छोटी-सी चोट से, या कभी-कभी तो पता ही न चले और हड्डी टूट जाए. जी हां, ऐसा भी हो सकता है कि दर्द न हो और आपका मेरुदंड या रीढ़ की कोई हड्डी टूट जाए. आपने शायद कभी ध्यान दिया हो कि मीनोपॉज (रजोनिवृति) के बाद, बुढ़ापे में कई औरतों का कद छोटा हो जाता है. यह बौनापन कैसे? रीढ़ की कई हड्डियां धीरे-धीरे टूटकर पिचक जाती हैं तो रीढ़ छोटी हो जाती है. इससे कद कई इंच तक छोटा हो सकता है. प्राय: आस्टियोपोरोसिस में सबसे ज्यादा फ्रैक्चर रीढ़ की हड्डियों के ही होते हैं, या फिर कूल्हे की हड्डी के. रीढ़ की हड्डी का टूटना इस मामले में थोड़ा अनोखा है कि हड्डी टूटने से वैसा दर्द कभी नहीं भी होता है जैसा हम हड्डी टूटने पर होने की सोचा करते हैं.

हां, टूटी हड्डी से कोई नस दब जाए तब बहुत दर्द होगा, अन्यथा हल्का या तेज कमर दर्द हो सकता है. हो सकता है कि विशेष दर्द हो ही न, लेकिन रीढ़ के टूटने पर दर्द को छोड़कर अन्य बहुत सी और तकलीफें हो सकती हैं. मानो कि छाती की हड्डी यदि टूट जाए तो सांस फूलने की तकलीफ हो सकती है, पेट तथा कमर के हिस्से की  हड्डी टूट जाए तो पेट की तकलीफें हो सकती हैं.

यदि आपको गैस से पेट फूला लगे, भूख लगे पर एक रोटी खाकर ही लगे कि बहुत सारा खा लिया, यदि आपको कब्जियत होने लगी हो- और आपकी जांच करके यदि डॉक्टर कहे कि यह सब इसीलिए हो रहा है कि आपकी रीढ़ की हड्डी टूट गई है तो आप विश्वास ही नहीं करेंगे. पर ऐसा हो सकता है फिर कमर टेढ़ी होना, कमर का झुक जाना आदि भी प्राय: रीढ़ की हड्डी कई जगह से टूट जाने के कारण होता है.

और यह सब कुछ रोका जा सकता था! कैसे?

वैसे तो बढ़ती उम्र में यह रोग पुरुष और स्त्री दोनों को हो सकता है परंतु स्त्रियों में यह बहुत आम है. 50 वर्ष से ऊपर की स्त्री को इसका खतरा होता है. और फिर बढ़ता ही जाता है. ऐसा मान लें कि 70-80 वर्ष की उम्र की हर स्त्री को आस्टियोपोरोसिस होता ही है.

आंकड़े बताते हैं कि कूल्हे की हड्डी टूटने का खतरा 70 वर्ष की उम्र के बाद हर पांच वर्ष में दोगुना होता जाता है. 50 से 60 वर्ष की उम्र में तो हाथों की हड्डी का फ्रैक्चर ज्यादा होता है, 60 वर्ष के बाद कूल्हे की हड्डी का. यह शायद इसलिए भी कि 70 वर्ष की उम्र के बाद आदमी के लड़खड़ा कर गिरने की आशंका बढ़ जाती है. देखा गया है कि 60 वर्ष तक का आदमी प्राय: गिरते समय, बचने के लिए अपने हाथ फैला लेता है- सो हाथ के बल गिरने से उसकी हाथ की हड्डी ज्यादा टूटती है. इसके विपरीत सत्तर या उसके आस-पास का आदमी, सीधे ही, धड़ाम से गिरता है तो सीधी चोट कूल्हे और कमर पर लगती है. इसी कारण यह हाथ और कूल्हे की हड्डी टूटना उम्र के हिसाब से अलग हो सकता है.

यदि बुढ़ापे के साथ आदमी का वजन कम हो, वह खूब दारू पीता रहा हो और धकाधक सिगरेट भी पीता है- तब उसकी हड्डियां और भी कमजोर हो जाती हैं. वास्तव में डॉक्टर मानते हैं कि 50 वर्ष से ऊपर के आदमी की हड्डी किसी भी चोट से (चाहे छत से गिरकर ही क्यों न टूटी हो!) टूटे, हम मानेंगे कि इस टूटने में आस्टियोपोरोसिस का भी हाथ है. हड्डी जोड़ने के साथ हम उसकी यह जांच तथा इलाज भी करेंगे.

अब प्रश्न यह उठता है कि आस्टियोपोरोसिस होती क्यों है. क्या यह मात्र कैल्शियम की कमी से हो जाती है? हड्डियां, बढ़ती उम्र के साथ हल्की तथा कमजोर क्यों होने लगती हैं?

इसे समझेंगे तभी हम समझ पाएंगे कि इसे कैसे रोकें, या कम करें? इसे यूं समझिए कि बचपन से लेकर किशोरावस्था तक तो हमारी हड्डियां बनती हैं. बढ़ती हैं. विकसित होती हैं. मोटी होती हैं. विभिन्न गतिविधियों (चलने, दौड़ने, कूदने, वजन उठाने आदि) के हिसाब से हड्डियों का आकार तथा मजबूती तय होती है. खास तौर पर जवान होते-होते शरीर में जो सेक्स हार्मोंस बनने लगते हैं, वे भी हड्डी के विकास में मदद करते हैं. तो यूं समझें कि पैदा होने से लेकर किशोर अवस्था तक तो हड्डियां विकसित होती हैं, मजबूत होती हैं, बड़ी होती हैं. उसके बाद हड्डियों का बढ़ना बंद हो जाता है. अब केवल मरम्मत का ही काम चलता है. जवानी के बाद आपकी हड्डी मजबूत नहीं हो रही. जितनी मजबूत हो चुकी थी, वैसी बनी रहे, इसके लिए शरीर उसकी मरम्मत करता रहता है, बस. दिन भर की उठापटक, भागदौड़ में हड्डियों को जो सूक्ष्म चोटें पहुंचती हैं, उनकी मरम्मत चलती रहती है. इसके अलावा खून में यदि कभी, किसी भी कारण से कैल्शियम कम हो जाए तो हड्डी में जमा कैल्शियम निकालकर काम चलाया जाता है.

इसमें हड्डी गलने और बनने (रिपेयर) का काम साथ-साथ चलता रहता है. उम्र के साथ इन दो कामों का संतुलन बिगड़ जाता है. तब हड्डी गलती ज्यादा है, बनती कम है- यही आस्टियोपोरोसिस पैदा करता है.

री-मॉडलिंग में सेक्सहार्मोंस, विटामिन डी, कैल्शियम, पैराथायरायड हार्मोंस अन्य बीमारियों (लीवर, किडनी, डायबिटीज आदि) तथा कई दवाईयों (जिनमें स्टेरॉयड्स प्रमुख हैं) का बड़ा रोल होता है. इनको अगली बार समझाऊंगा. तब तक यह जान लें कि दादी या नानी ठीक ही कहती थीं कि बचपन में जो शरीर बना लोगे वही जीवन भर साथ देगा. बचपन में खान-पान और व्यायाम का बहुत अधिक महत्व इसीलिए है.

शेष, अगली बार.

इनके दामन पर भ्रष्टाचार के छींटे नहीं हैं.

नवीन पटनायक,

उम्र-66,

मुख्यमंत्री, उड़ीसा

बीजू पटनायक की मृत्यु के बाद जब 1997 में उनके 51 वर्षीय नवीन पटनायक ने राजनीति की दुनिया में अपना पहला कदम रखा तो उनके सामने सबसे बड़ी समस्या थी भाषा. वह भाषा जो उड़ीसा की आम जनता बोलती और समझती थी लेकिन नवीन नहीं. हल निकला कि वे रोमन में लिखे उड़िया भाषण पढ़ें. इधर, नवीन पटनायक रोमन में लिखे उड़िया भाषण पढ़ते और उधर सामने खड़ी जनता हंसी के मारे लोटपोट हुई जाती. तत्कालीन राजनीतिक पंडित कहते कि जो नेता जनता से उसकी भाषा में संवाद नहीं कर सकता, जो अपनी युवावस्था को कभी का पीछे छोड़ चुका है वह इस उम्र में राजनीतिक अनुभव और राजनीति से लगाव के बिना कैसे राज्य की जनता से जुड़ पाएगा. और जो जुड़ नहीं पाएगा वह चुनाव कैसे जीतेगा. कहा गया कि उनकी कुल जमा यही योग्यता है कि वे कुल (पटनायक) के दीपक हैं.

वही नवीन पटनायक पिछले 13 साल से उड़ीसा के मुख्यमंत्री हैं. जनता दल से हटते हुए उन्होंने पिता बीजू पटनायक के नाम पर दिसंबर, 1997 में बीजू जनता दल का गठन किया. 2009 में लगातार तीसरी बार मुख्यमंत्री बने नवीन ने न केवल खुद को सफल मुख्यमंत्री वरन एक ऐसे राजनेता के रूप में भी स्थापित किया है जिसकी ईमानदारी, नेतृत्व और व्यक्तित्व की चर्चा आज राष्ट्रीय स्तर पर हो रही है. राजनीति में आने से पूर्व वे लेखन के क्षेत्र में थे. उनके राजनैतिक जीवन में संभवतः सबसे बड़ी परीक्षा उस समय आई जब 2008 में कंधमाल में सांप्रदायिक दंगे हुए. कंधमाल में विश्व हिंदू परिषद से जुड़े स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद भड़के सांप्रदायिक दंगे में लगभग 38 लोगों की मौत हुई थी. इस मुद्दे पर सत्तासीन बीजेडी-भाजपा गठबंधन सरकार में दरार पड़ने लगी. एक तरफ जहां नवीन के नेतृत्व वाली बीजेडी दंगे में भाजपा और उससे जुड़े समूहों की भूमिका होने की बात कर रही थी, वहीं भाजपा का मानना था कि सरकार लक्ष्मणानंद के हत्यारों को न सिर्फ खुली छूट दे रही है बल्कि ईसाई समुदाय के सांप्रदायिक तत्वों के आगे घुटने टेक रही है. दोनों दलों के बीच हुए संघर्ष का नतीजा अलगाव के रूप में सामने आया. नवीन का कहना था कि वे किसी कीमत पर सांप्रदायिकता बर्दाश्त नहीं करेंगे, सरकार रहे या जाए.  उस समय कहा गया कि भाजपा से अलग होने पर बीजेडी को काफी नुकसान होगा. लेकिन नवीन ने  2009 के लोकसभा और विधानसभा के चुनावों में अकेले जाने का फैसला किया. चुनाव में न सिर्फ बीजेडी विजयी हुई बल्कि 2004 के मुकाबले उसे प्रचंड बहुमत मिला. इसका श्रेय नवीन की चुनावी तैयारियों के साथ ही उनके भाजपा के अलग होने के कठोर निर्णय को भी मिला. जानकारों का कहना था कि जनता ने एक मजबूत और गैरसांप्रदायिक व्यक्ति को वोट दिया जो उसकी सुरक्षा के लिए राजनीतिक नफे-नुकसान का गणित नहीं देखता था.

नवीन को आज राष्ट्रीय स्तर पर एक ऐसे व्यक्ति के रूप में देखा जाता है जिसमें देश को नेतृत्व देने की संभावना है. जो पढ़ा-लिखा, संवेदनशील तथा प्रगतिशील है. जिसके दामन पर भ्रष्टाचार के छींटे नहीं हैं. स्थानीय वरिष्ठ पत्रकार मोहंती चंद मोहंती कहते हैं, ‘नवीन बिना किसी के दबाव में आए कड़े कदम उठाने और उस पर टिके रहने के लिए जाने जाते हैं. उन्होंने समय-समय पर आधे दर्जन से अधिक मंत्रियों को भ्रष्टाचार के मामले में लिप्त होने की आशंका के आधार पर ही मंत्रिमंडल से बाहर का रास्ता दिखाया है. वित्त मंत्री घादेई को नवीन ने मंत्री पद से उस समय चलता कर दिया था जब उनके खिलाफ आय से अधिक संपत्ति होने की बात सामने आई थी.’ घादेई नवीन के बेहद करीबी लोगों में से थे. अपने पिता बीजू पटनायक के समान ही ब्यूरोक्रेसी पर मजबूत पकड़ के लिए भी नवीन की सराहना की जाती है.    

-बृजेश सिंह