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सूर्यनेल्ली बलात्कार कांड

क्या है मामला?

केरल में इदुक्की जिले के सूर्यनेल्ली गांव की रहने वाली एक 16 वर्षिया छात्रा को एक बस कंडक्टर ने ब्लैकमेल करके अपने साथ घूमने जाने पर मजबूर किया. यह 1996 की बात है. फिर 16 से 26 फरवरी तक करीब 40 दिन के दौरान उसके साथ 42 लोगों ने बार-बार बलात्कार किया. आरोपितों ने उसे करीब 4,000 किलोमीटर तक घुमाया. वह विरोध न कर सके, इसके लिए उसे जबरन शराब पिलाई गई और नशे की दवाएं दी गईं. 26 फरवरी को आरोपितों ने उसे घर जाने वाली बस में बिठा दिया.

मामले की सुनवाई में क्या हुआ?
इस मामले में सुनवाई के बाद छह सितंबर, 2000 को विशेष न्यायालय ने 36 लोगों को दंडित किया. हालांकि 2005 में उच्च न्यायालय ने इनमें से 35 लोगों को यह कहते हुए बरी कर दिया कि मामले में लड़की की सहमति थी क्योंकि उसकी ओर से प्रतिरोध का कोई संकेत नहीं मिला. केवल एक आरोपित एडवोकेट एसएस धर्मराजन की सजा बरकरार रखी गई. हालांकि इस समय वह जमानत पर रिहा होने के बाद फरार है.

राज्य सभा के उपसभापति पीजे कुरियन का मामले से क्या संबंध है और इन दिनों यह मामला क्यों चर्चा में है?
पीड़िता ने कुरियन की तस्वीर पहचान कर कहा कि 19 फरवरी, 1996 को उन्होंने भी एक गेस्ट हाउस में उसका बलात्कार किया था. पुलिस ने जांच में कहा कि कुरियन उस वक्त गेस्ट हाउस में नहीं थे. बाद में चार गवाहों ने उनके वहां होने की पुष्टि की. कांग्रेस नेता कुरियन उच्च न्यायालय में जाकर निचली अदालत की जांच बंद करवाने में कामयाब रहे. 2007 में सर्वोच्च न्यायालय ने भी उन्हें राहत दे दी. बीती 31 जनवरी को सर्वोच्च न्यायालय ने उच्च न्यायालय के रिहाई के आदेश को रद्द करते हुए कहा कि कोई भी लड़की इतने लोगों के साथ संबंध के लिए सहमति कैसे दे सकती है. उसने उच्च न्यायालय से छह माह के भीतर दोबारा फैसला सुनाने को कहा है. इस बीच मामले के एकमात्र दोषी धर्मराजन ने भी कहा है कि कुरियन उसकी कार में गेस्ट हाउस गए थे. उसने यह भी कहा है कि मुख्य जांचकर्ता ने उस पर दबाव डाला था कि वह कुरियन का नाम न ले.
– पूजा सिंह

ताजपोशी के पीछे

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उत्तराखंड में भाजपा अध्यक्ष पद पर तीरथ सिंह रावत का मनोनयन उतना ही अप्रत्याशित रहा जितना राष्ट्रीय अध्यक्ष के रूप में दोबारा नितिन गडकरी की ताजपोशी की तैयारियों के बावजूद राजनाथ सिंह का पार्टी अध्यक्ष बनना. इस पूरे घटनाक्रम ने यह भी साबित किया कि राजनीति में कोई स्थायी दोस्त या दुश्मन नहीं होता.

गडकरी की अध्यक्षता के अंतिम दिनों के दौरान उत्तराखंड में भाजपा प्रदेश अध्यक्ष के चुनाव का नाटक रचने के साथ-साथ उसका पटाक्षेप भी कर दिया गया था. अध्यक्ष पद के लिए विधायक तीरथ सिंह रावत और और पूर्व मंत्री त्रिवेंद्र रावत ने नामांकन किया था. तीरथ सिंह को पूर्व मुख्यमंत्री भुवन चंद्र खंडूड़ी और रमेश पोखरियाल निशंकके अलावा पूर्व प्रदेश अध्यक्ष बिशन सिंह चुफाल का खुला समर्थन था तो अंतिम क्षणों में नामांकन करने वाले त्रिवेंद्र रावत पर पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी का वरदहस्त था.

अध्यक्ष पद के लिए होने वाले संभावित मतदान में 74 मतदाता थे. तीरथ सिंह ने नामांकन के पांच सेट भरे थे. हर सेट में 10 मतदाताओं के हस्ताक्षर होते हैं. इस लिहाज से 50 मतदाताओं का उनके साथ होना लगभग तय था. यानी चुनाव होने की स्थिति में नतीजा उनके पक्ष में आना निश्चित था. त्रिवेंद्र रावत नामांकन के लिए अंतिम क्षणों में सामने आए थे. बताते हैं कि नामांकन तक आम सहमति न बनने पर कोश्यारी खेमा तीरथ के लिए मैदान खाली छोड़ना नहीं चाहता था. पर्यवेक्षक के रूप में वरिष्ठ नेता विजय गोयल देहरादून आए थे. आलाकमान की इच्छा थी कि सर्वसम्मति से किसी और को अध्यक्ष बनाया जाए. सूत्र बताते हैं कि जनवरी के आखिर तक पार्टी का कोर ग्रुप पूर्व मुख्यमंत्री भगत सिंह कोश्यारी को पार्टी अध्यक्ष बनाना चाहता था.

आलाकमान, प्रत्याशियों और उनके राजनीतिक गुरुओं के बीच कई दौर की वार्ताएं हुईं. इस बीच नाम वापसी का समय भी बीत गया और पर्यवेक्षक गोयल की बीमारी का बहाना बनाकर नाम वापसी की समयसीमा बढ़ा दी गई. सूत्रों के मुताबिक मान-मनौवल और आलाकमान की घुड़की के बाद दोनों प्रत्याशियों ने नाम वापस ले लिया. फिर लगभग तय हो गया था कि उत्तराखंड भाजपा के अगले अध्यक्ष की पारी भगत सिंह कोश्यारी खेलेंगे क्योंकि दिल्ली में भाजपा की कोर कमेटी उन पर मुहर लगा चुकी थी. हालांकि चतुर कोश्यारी ने चुनाव के दौरान और उसके बाद कभी भी प्रदेश अध्यक्ष बनने की इच्छा खुलकर जाहिर नहीं की थी, लेकिन उनके एक सहयोगी के शब्दों में वे इस पद के लिए चुनाव लड़ने के बजाय सर्वानुमति के रूप में आना चाहते थे.

इस बीच गडकरी के बदले राजनाथ सिंह भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष हो गए. कोश्यारी को राजनाथ का समर्थक माना जाता है. लेकिन बदली परिस्थितियों में भी तीरथ को समर्थन दे रही खंडूड़ी, निशंक और चुफाल की तिकड़ी ने हार नहीं मानी. सूत्रों के मुताबिक दिल्ली में आलाकमान के सामने शक्ति प्रदर्शन का दौर चला. पूर्व प्रदेश अध्यक्ष चुफाल कहते हैं, ‘जीत लोकतंत्र की हुई और अधिक मतदाताओं के समर्थन वाले तीरथ को आलाकमान ने भाजपा प्रदेश अध्यक्ष मनोनीत कर दिया.

इस चुनाव में भाजपा के तीन पूर्व मुख्यमंत्रियों के अक्सर बनने वाले गठबंधन ने फिर नया रूप ले लिया. कोश्यारी, खंडूड़ी और निशंक अपनी राजनीतिक मजबूरियों और नफे-नुकसान के हिसाब से कई बार गठबंधन बना चुके हैं. कई मौकों पर इन तीनों में से कोई दो हाथ मिलाकर तीसरे को धराशायी कर चुके हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में कोश्यारी और खंडूड़ी एक हो गए थे. लाख कोशिशों के बावजूद तब राजनीतिक रूप से निस्तेज से हो चुके निशंक अपने इक्का-दुक्का समर्थकों को ही टिकट दिला पाए थे. उनके प्रभाव वाले गढ़वाल लोकसभा क्षेत्र में कोश्यारी की मदद से खंडूड़ी ने सारे टिकट बांटे थे. चुनाव के नतीजे आने और खंडूड़ी के चुनाव हारने पर भितरघात के आरोप में भाजपा से जिन कई नेताओं का निष्कासन किया गया उनमें भी निशंक समर्थक अधिक थे. लेकिन चुनाव के बाद एक-दूसरे को फूटी आंख से न देखने वाले निशंक और खंडूड़ी पिछले सारे राग-द्वेष  भुलाकर कोश्यारी के खिलाफ एक हो गए.

जल्द ही राज्य में नगर पालिकाओं और उसके बाद पंचायत चुनाव होने हैं. मौजूदा हालात देखें तो 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा बढ़त में दिख रही है, इसलिए हर खेमा अपने अंक बढ़ाना चाहता है. जानकार बताते हैं कि वैसे इन तीनों क्षत्रपों का लक्ष्य 2017 का विधानसभा चुनाव है.

सारे घटनाक्रम में सबसे ज्यादा राजनीतिक चतुराई निशंक ने दिखाई. राजनीतिक और पारिवारिक कारणों के चलते भाजपा में अलग-थलग दिख रहे निशंक फिर राजनीति के केंद्र में आ गए. पिछली बार खंडूड़ी को मुख्यमंत्री पद से हटाने का अभियान शुरू करने के बाद वे ऐन मौके पर खंडूड़ी से मिलकर उनकी ही मदद से सीएम बनने में सफल हो गए थे. जानकारों के मुताबिक 2017 तक काफी उम्रदराज हो चुके खंडूड़ी से अधिक भाजपा नेताओं को उनमें ही संभावना नजर आएगी.

मोर्वी बांध दुर्घटना

पूरे भारत में टाइल्स के कारोबार के लिए मशहूर मोर्वी शहर गुजरात के समृद्धतम शहरों में से है, लेकिन आज से तकरीबन 34 साल पहले इसने ऐसी आपदा का सामना किया था जब यह लगभग पूरी तरह तबाह हो गया था. अगस्त, 1979 की यह आपदा माच्छू बांध ढहने का नतीजा थी.

उस साल मॉनसून के दौरान पश्चिमी भारत में भारी बारिश हो रही थी. सौराष्ट्र (मोर्वी इसी हिस्से में है) के कुछ क्षेत्रों में हल्की बाढ़ की स्थिति थी और माच्छू बांध पानी से लबालब भर चुका था. सरकारी स्तर पर किसी को यह सूचना नहीं थी कि इस बांध के टूटने का खतरा है. इन हालात में अचानक इस चार किलोमीटर लंबे बांध का टूटना शहर के लिए अचानक आई भयावह आपदा की तरह साबित हुआ. कुछ घंटों के भीतर ही क्षेत्र की 15 से 20 हजार की आबादी (कुछ अनुमानों में इसे 25 हजार तक बताया गया है) काल के गाल में समा गई.  दुनिया में इसे अपनी तरह की सबसे विध्वंसकारी दुर्घटना की तरह दर्ज किया गया.

दुर्घटना की जांच के लिए बाद में राज्य सरकार ने एक आयोग भी बनाया. लेकिन इसे 18 महीने बाद भंग कर दिया गया. राज्य सरकार के इस फैसले की काफी आलोचना हुई. मानवाधिकार कार्यकर्ताओं का कहना था कि आयोग की जांच में सिंचाई विभाग के  बड़े अधिकारियों को जिम्मेदार ठहराया जा रहा था. इस बात के पक्ष में उनके तर्क थे कि बांध निर्माण में तकनीकी गड़बड़ियां तो थी हीं साथ में अधिकारी पानी भराव और निकास के लिए जिस गणना पद्धति का उपयोग करते थे उसमें गलतियां थीं. भारी बारिश के दौरान यही गलतियां बांध टूटने का कारण बनीं. सुप्रीम कोर्ट ने आयोग को भंग करने के सरकारी फैसले को सही ठहराया. इसके बाद कभी इस मामले की जांच नहीं हो पाई और आज तक इस घटना की जिम्मेदारी तय नहीं की जा सकी है.

-पवन वर्मा

कुंभ: मोक्ष का महापर्व

कहने को तो यह बांस-बल्लियों और तंबुओं के सहारे बसाई हुई एक अस्थायी व्यवस्था है फिर भी इसके स्वभाव में एक स्थायीपन महसूस होता है. शायद ऐसा लोक के मानस में धर्म और उसके प्रतीकों की स्थायी जगह के चलते होता हो. कस्बाई संस्कृति और अत्याधुनिक तकनीक के मेल से बनी यह कुंभनगरी है जिसके फैलाव का दायरा कुछेक शहरों से भी बड़ा है. यहां डेढ़ माह के लिए बसने वाले लोगों की आबादी भी किसी शहर से ज्यादा है.  इसमें हर दिन पहुंच रहे श्रद्धालुओं के विशाल झुंडों को भी जोड़ दें तो यहां रोज एक लघु भारत आकार लेता है. तमाम दुश्वारियों के बावजूद हर रोज लाखों लोग इलाहाबाद में बसी इस नगरी में पहुंच रहे हैं. ये वे लोग हैं जिन्हें कंपकंपाती ठंड डराती नहीं. पूरी रात बालू पर सोन-जगने से इन्हें परहेज नहीं. इनकी बस एक ही आकांक्षा होती है कि गंगा, यमुना और अदृश्य हो चुकी सरस्वती के संगम में एक डुबकी लगा मोक्ष के अधिकारी बन जाएं. इस तरह देखा जाए तो आस्था की इस नगरी की जान श्रद्धालु ही हैं. वैसे यहां आकर्षण के दूसरे केंद्र भी कम नहीं. कदम कदम पर अजब-गजब नाम और धुन वाले बाबाओं का डेरा है. नंगे बदन पर भभूत लपेटे और धूनी जमाए बैठे नागा साधुओं के शिविरों में हर समय चहल-पहल रहती है. महाकुंभ में आने वाला हर व्यक्ति एक दफा उन्हें जरूर देखना चाहता है. महिला साधुओं के अलग खेमे और मठ ने इस धार्मिक आयोजन में एक नया अध्याय जोड़ा है. तस्वीरें और आलेखः विकास कुमार

रात के समय रोशनी में नहाया कुंभ परिसर

 

पहली बार नागा साधुओं के अखाड़े में महिलाओं को स्वतंत्र और अलग पहचान मिली है.

शाही स्नान के दिन महिला नागा साधुओं ने पुरूष नागा साधुओं के साथ ही संगम में स्नान किया

 

कुंभ आयोजन का जिम्मा मुख्य रूप से नागा साधुओं के हाथ में ही रहता है

 

शाही स्नान के दौरान हर अखाड़े की शोभा यात्रा निकलती है. इसे देखने के लिए श्रद्धालु बड़ी संख्या

में जुटते हैं और घंटों सड़क के दोनों किनारों पर खड़े रहते हैं.

 

श्रद्धालुओं द्वारा संगम में चढ़ाए गए सिक्कों को निकालने में कुछ लड़के जुटे रहते हैं.

दिन ढ़लने तक इनकी सौ से डेढ़ सौ रुपये की कमाई हो जाती है.

 

मजबूरी की सवारी ठेलागाड़ी

 

श्रद्धालु संगम के किनारे केवल महाकुंभ के दौरान जुटते हैं लेकिन ये प्रवासी पक्षी हर साल इस मौसम में यहां भारी संख्या में आते हैं

एक और फांसी

क्या राष्ट्रवादी भावनाओं के उभार में खबर के दूसरे पहलू दबाना जायज है?

आखिरकार संसद पर हमले का षड्यंत्र रचने के आरोप में अफजल गुरु को फांसी हो गई. न्यूज मीडिया को काफी दिनों से इसका इंतजार था.  वह इस फांसी के लिए खुलकर पैरवी भी कर रहा था. हालांकि सरकार ने एक बार फिर से बहुत गुपचुप तरीके से फांसी दी, लेकिन न्यूज मीडिया को कोई शिकायत नहीं है. आखिर फांसी की तारीख, दिन और समय तय करते हुए सरकार ने अपनी राजनीति के साथ-साथ  न्यूज चैनलों का पूरा ध्यान रखा. उसने फांसी के लिए शनिवार का दिन चुना जो खबरों के लिहाज से एक नीरस दिन (लीन डे) माना जाता है. इस दिन न्यूज चैनल खबरों और दर्शकों की तलाश में भटकते रहते हैं क्योंकि मनोरंजन चैनल हिट रीयलिटी शो से लेकर ब्लॉकबस्टर फिल्में दिखाकर सारे दर्शक उड़ा ले जाते हैं.

लेकिन ‘लोकतंत्र के मंदिर’ पर हमला करने वाले ‘देशद्रोही’ अफजल गुरु को फांसी पर लटकाकर सरकार ने चैनलों को शनिवार को सुबह-सुबह ऐसी ब्लाकबस्टर ‘खबर’ दे दी कि उनमें सबसे पहले इस खबर को ब्रेक करने का श्रेय लेने की होड़ मच गई. यह और बात है कि इन चैनलों को इसकी कोई भनक भी नहीं थी. चैनल इसकी भरपाई अति नाटकीय कवरेज से पूरा करते दिखे. आम तौर पर शनिवार को चैनलों पर नजर न आने वाले स्टार एंकर/संपादक सुबह से ही आंखें मीचते हुए चैनलों पर ‘राष्ट्रीय जनभावना’ के प्रकटीकरण में जुट गए.

फिर क्या था, देशभक्ति और राष्ट्रवाद की भावनाएं स्टूडियो में उमड़ने लगीं. रिपोर्टरों की आवाज खुशी से थरथरा रही थी. लाइव रिपोर्टिंग करते रिपोर्टरों के अंदाज ऐसे थे कि आपके रोयें खड़े हो जाएं. हमेशा की तरह चैनलों पर उन सुरक्षाकर्मियों के परिवारजनों के इंटरव्यू चलने लगे जो संसद पर हुए हमले में मारे गए थे. ‘आज तक’ ने तो ऐसे सभी परिवारजनों को उनके संरक्षक मनिंदरजीत सिंह बिट्टा के साथ स्टूडियो बुला लिया, जहां उनके स्टार एंकर घंटे भर संसद हमले के दिन को याद करते हुए फांसी में हुई देरी पर बात करने से लेकर फांसी के बाद उनकी भावनाएं टटोलने में जुटे रहे.

हमेशा की तरह सभी चैनलों पर कांग्रेस और भाजपा के नेता ‘आतंकवाद से लड़ाई के मुद्दे पर एकजुटता’ और इस पर  ‘राजनीति न करने’  की कसमें खाते हुए और ‘तू-तू,मैं-मैं’ करते हुए खुलेआम राजनीति करते रहे. सच पूछिए तो यह राजनीति ही असल बात थी. लेकिन अफजल गुरु की फांसी की 24×7 कवरेज में उसी की सबसे कम चर्चा थी. सभी चैनलों और एकाध अपवादों को छोड़कर सभी अखबारों में इस फांसी के पीछे की राजनीति और उसके मायनों को खोलने की वैसी कोशिश नहीं की गई जिससे इस जटिल मामले के विभिन्न पहलू सामने आ सकें. कुछ चैनलों और अखबारों में सवाल उठाए गए लेकिन खानापूरी के अंदाज में.

आश्चर्य नहीं कि जिस कश्मीर को भारत का अभिन्न अंग बताने में चैनल थकते नहीं हैं, अफजल गुरु को फांसी के बाद उस कश्मीर घाटी में कर्फ्यू और एसएमएस व संचार सेवाओं को ठप करने के केंद्र सरकार के एकतरफा फैसले पर चैनलों की भौंहें नहीं खींचीं. क्या यह सिर्फ संयोग था या फांसी की खबर की उत्तेजना में हुई एक चूक? जाहिर है कि यह सिर्फ संयोग नहीं था और न ही कोई चूक. यह बहुत सोचा-समझा फैसला था. क्या यह चूक भर थी कि अफजल गुरु को फांसी देने के बाद कश्मीर घाटी से बहुत दूर दिल्ली में कश्मीरी पत्रकार इफ्तिखार गिलानी को घर में नजरबंद कर दिया गया लेकिन यह खबर किसी चैनल की सुर्खी नहीं बनी?
क्या यह सिर्फ संयोग है या सोच-समझकर लिया गया संपादकीय फैसला कि अफजल गुरु के परिवारजनों की इन शिकायतों को कोई तवज्जो नहीं दी गई कि उन्हें पूर्व सूचना नहीं दी गई? ऐसे कई गंभीर सवाल हैं लेकिन हमेशा की तरह इस बार भी न्यूज मीडिया और चैनलों पर ‘राष्ट्रीय जनभावना’ के उभार में वे बेमानी हो गए या बना दिए गए.

न सख्त न नरम, बस नाकाबिल

प्रतिशोध को न्याय मानने की भूल हम पहले ही करते रहे हैं, अफजल की फांसी ने इसे प्रहसन में बदल डाला है

यह सच है कि अफजल गुरु को देश के सर्वोच्च न्यायालय से सजा हुई थी. लेकिन इसी सर्वोच्च न्यायालय ने हाल ही में माना है कि पिछले दिनों कम से कम 14 मामले ऐसे रहे जिनमें फांसी की गलत सजा सुनाई गई. देश के 14 महत्वपूर्ण जजों ने इसीलिए बाकायदा पत्र लिखकर राष्ट्रपति से अपील की कि इन फैसलों को उम्रकैद में बदला जाए.

अफजल के मामले में ऐसी कोई अपील नहीं हुई हालांकि उसके मामले की असंगतियां सबसे प्रखरता से दिखती रहीं. अदालत ने भी माना कि पुलिस ने मामले की ठीक से जांच नहीं की. इंदिरा जयसिंह और नंदिता हक्सर जैसी वकीलों ने कहा कि अगर अफजल को कायदे का वकील मिल गया होता तो उसे फांसी नहीं होती. उसे वकील तक नहीं मिला क्योंकि वकीलों ने तय कर रखा था कि संसद पर हमले के आरोपितों को वे कोई कानूनी मदद नहीं देंगे. एक तरह से यह पुलिस के लिए सुनहरा मौका था कि वह जिसे चाहती उसे संसद भवन का आरोपित बना डालती. इन सबके बावजूद सरकार ने राष्ट्रपति को यही सलाह दी कि वे उसकी माफी याचिका खारिज कर दें. जाहिर है, अफजल को सजा उस जुर्म की नहीं मिली जो उसने किया, उस पहचान की मिली जो उस पर थोप दी गई- एक आतंकवादी की पहचान, जिसने देश की संप्रभुता पर हमला किया. यह पहचान उस पर चिपकाना इसलिए भी आसान हो गया कि वह मुसलमान था, कश्मीरी था और ऐसा भटका हुआ नौजवान था जिसने आत्मसमर्पण किया था.

यह सवाल बेमानी नहीं है कि अफजल गुरु को लेकर नफरत भरी जो राष्ट्रवादी आंधी दिखती रही, क्या उसके पीछे उसकी इस पहचान का भी हाथ था. वरना जो बीजेपी यह मासूम तर्क देती है कि आतंकवादियों से बिल्कुल आतंकवादियों की तरह निपटा जाना चाहिए, उनका मजहब नहीं देखा जाना चाहिए, वही पंजाब में अदालत द्वारा सजायाफ्ता एक ऐसे आतंकवादी को बचाने के काम में अकाली दल के साथ शामिल होती है जो खुलेआम कहता है कि वह न भारतीय लोकतंत्र पर भरोसा करता है और न भारतीय न्यायतंत्र पर. यह मामला बलवंत सिंह राजोआना का है जो बेअंत सिंह की हत्या का मुख्य अभियुक्त है. उसे न अपने किए पर कोई पछतावा है और न ही अपने रवैये पर कोई संदेह. लेकिन अफजल के मामले में देरी की शिकायत कर रही बीजेपी राजोआना के मामले में जैसे आंखें मूंदे बैठी है.

इस मामले में सरकार का घुटनाटेकू या अवसरवादी रवैया ज्यादा अफसोसनाक रहा. जिस दौर में फांसी पर पुनर्विचार की बहस सबसे तीखी है, उस समय अफजल को फांसी पर चढ़ा दिया गया. क्या इसलिए कि सरकार को बीजेपी के उग्र राष्ट्रवाद का एक सटीक राजनीतिक जवाब देना था?  या इसलिए कि 2014 के चुनाव आने से पहले उसे महंगाई, भ्रष्टाचार और गैरबराबरी का मुकाबला करने में अपनी नाकामी की तरफ से जनता का ध्यान खींचना था? 

अफजल की फांसी से वे लोग पुनर्जीवित नहीं होने वाले हैं जिन्हें 13 दिसंबर, 2001 की सुबह संसद परिसर पर हमले के दौरान अपनी जान गंवानी पड़ी. मृत्यु अंततः सब कुछ हमेशा-हमेशा के लिए खत्म कर देती है. लेकिन राजनीति मातम की भी दुकान लगा लेती है. जो परिवार आतंकवाद या ऐसे किसी भी हादसे के शिकार होते हैं, उनके दिमाग में प्रतिशोध कूट-कूट कर भरा जाता है, इस प्रतिशोध में दिखने वाली अमानवीयता को देशभक्ति के मुलम्मे से ढका जाता है, उनके जख्मों को हरा रखा जाता है ताकि उनका राजनीतिक इस्तेमाल हो सके.

लेकिन यह प्रहसन उस विराट ट्रैजडी का एक छोटा-सा हिस्सा भर है जो हमारे लोकतंत्र के साथ घटित हो रही है हम बहुत बुरे दिनों से गुजर रहे हैं

अंततः इन सबसे एक ऐसे अंधराष्ट्रवाद का निर्माण होता है जो बेईमान और तानाशाह प्रवृत्तियों को सबसे ज्यादा रास आता है क्योंकि इसके बाद हर असुविधाजनक सवाल गद्दारी में बदल जाता है, हर संशय को देशद्रोह करार दिया जाता है और हर असहमति पर एक सजा नियत कर दी जाती है, जिसे कोई भी सड़कछाप संगठन अमल में लाने को तैयार रहता है और व्यवस्था उसके संरक्षण में जुटी रहती है.

अफजल के मामले में भी यही होता दिख रहा है. जिन लोगों ने इस फांसी का विरोध करने की लोकतांत्रिक कोशिश की, उनके चेहरों पर पुलिस की मौजूदगी में कालिख पोती गई. अमन-चैन कायम रखने के नाम पर नागरिकों को नजरबंद किया गया, एक पूरे राज्य का केबल-मोबाइल नेटवर्क ठप कर दिया गया, वहां कर्फ्यू लगा दिया गया. कैसे कोई यह पूछने की हिम्मत दिखाए कि इस फैसले से कश्मीर करीब आया या कुछ और दूर चला गया? कैसे कोई इस दावे पर सवाल उठाए कि यह आतंकवाद के खिलाफ एक बड़ी जीत है? कैसे कोई याद दिलाए कि हमारे लोकतंत्र में न्याय के वास्तविक तकाजे अभी बाकी हैं? कैसे कोई पूछे कि 1984 की सिख विरोधी हिंसा में मारे गए 3000 लोगों और 2002 के गुजरात में मारे गए 2000 लोगों की मौत का भी कोई इंसाफ होगा या नहीं?

यह सब पूछना देशद्रोह है- यह बताना भी कि अपने आप को सख्त राज्य साबित करने में जुटी सरकार दरअसल अपनी असली चुनौतियों से आंख चुरा रही है. आतंकवाद से लड़ने के लिए पुलिस तंत्र, खुफिया तंत्र और न्याय तंत्र में जो बदलाव जरूरी हैं उनका दूर-दूर तक कुछ अता-पता नहीं है. हम एक तार-तार सुरक्षा वाली व्यवस्था में रह रहे हैं जिसका फायदा कोई भी उठा सकता है. इस व्यवस्था को सुधारने की जगह, उसे अचूक और अभेद्य बनाने की जगह, सरकार अफजल को फांसी पर चढ़ाकर वाहवाही लूटने में लगी है.

हकीकत यह है कि भारत न सख्त राज्य है न नरम राज्य, यह एक नाकाबिल राज्य है जो अपना निकम्मापन ढकने के लिए फांसी का इस्तेमाल कर रहा है.

आखिरी गढ़ बचाने की चुनौती

45 साल के प्रणव देबबर्मा करीब पांच सौ आदिवासियों की एक रैली की अगुवाई कर रहे हैं. इनमें से किसी के पास लाल झंडे हैं तो किसी ने लाल टोपी पहन रखी है. ऊंची-नीची सड़कों वाला यह पश्चिम त्रिपुरा का सिमना निर्वाचन क्षेत्र है. देबबर्मा यहां से लगातार चार बार विधानसभा के लिए चुने जा चुके हैं. 1993 में अपने पहले निर्वाचन के महज 25 साल के रहे देबबर्मा राज्य में सबसे कम उम्र के विधायक थे. देबबर्मा कहते हैं, ‘मुझे यकीन है कि पांचवीं बार भी जीत मेरी होगी. आदिवासी समुदाय का वाममोर्चे पर काफी विश्वास है. स्थिर शासन, विकास और उग्रवाद के खिलाफ लड़ाई के मोर्चे पर हमारा राज्य सबसे आगे है. आदिवासी वाममोर्चे को फिर से सत्ता में लाएंगे.’

एक वक्त था जब सिमना उग्रवाद से त्रस्त था. आठ साल पहले तक यहां ऑल त्रिपुरा टाइगर्स फोर्स (एटीटीएफ) की तूती बोलती थी. खुद देबबर्मा का 1997 में भूमिगत विद्रोहियों ने अपहरण कर लिया था. इसका मकसद वाममोर्चा सरकार पर दबाव बनाना था. लेकिन 2011 आते-आते हालात बिल्कुल बदल गए. इस पूर्वोत्तर राज्य में उग्रवाद से हुई मौतों का आंकड़ा एक पर सिमट गया. 2000 में यह 514 था. सीपीएम कार्यकर्ता कमला देबबर्मा कहते हैं, ‘अब कोई शाम को भी अगरतला से सिमना आ सकता है. उग्रवाद के दौर में इसका मतलब था मौत को दावत देना. आदिवासी समुदाय पार्टी को वोट देगा क्योंकि पार्टी ने हमारा सशक्तिकरण किया है.’
इतिहास और तथ्य इस बात को वजन देते हैं. पिछले विधानसभा चुनावों में माणिक सरकार के नेतृत्व वाले वाम मोर्चे ने कुल 60 सीटों में से 49 जीतीं थीं. आदिवासियों के लिए सुरक्षित 20 सीटों में से 19 पर उसने जीत हासिल की. ग्रामीण त्रिपुरा, विशेष रूप से आदिवासी क्षेत्रों में वाममोर्चे की मजबूत पकड़ है जो राज्य के कुल क्षेत्रफल का 83 फीसदी है. हालांकि आदिवासी राज्य में अल्पसंख्यक हैं और त्रिपुरा की 36.71 लाख जनसंख्या में उनकी संख्या 9.93 लाख है, फिर भी त्रिपुरा में अब तक वाम मोर्चे की छह सरकारें बनाने में उनकी अहम भूमिका रही है. 1972 में त्रिपुरा को राज्य का दर्जा मिला था. आदिवासी क्षेत्रों में 17 विधानसभा क्षेत्र ऐसे हैं जहां 1977 से 2008 के बीच वाम मोर्चा कभी नहीं हारा. जानकारों की मानें तो उग्रवाद की विदाई के साथ इन इलाकों में वह पहले से भी ज्यादा मजबूत स्थिति में है. सीपीएम के राज्य सचिव बीजन धर बताते हैं, ‘आदिवासी हमारा मजबूत आधार रहे हैं. त्रिपुरा में साम्यवादी आंदोलन आदिवासियों के भरोसे के बिना सफल नहीं हो सकता था. ग्रामीण हमारे साथ हैं क्योंकि गांवों में सड़क, पेयजल, स्वच्छता, स्कूल जैसी बुनियादी सुविधाएं जो 20 साल पहले नदारद थीं अब मौजूद हैं.’

1949 में त्रिपुरा रजवाड़े का भारत में विलय होने से पहले से भी वहां के आदिवासी समाज में वाम विचारधारा की मजबूत मौजूदगी थी. तब वहां दशरथ देब और उनकी गणमुक्ति परिषद का बोलबाला था. 1952 में दशरथ देब पूर्वी त्रिपुरा की सुरक्षित सीट से सीपीआई के टिकट पर सांसद बने. 1964 में जब पार्टी में ऐतिहासिक दोफाड़ हुआ तो दशरथ ने सीपीएम का दामन थामा और त्रिपुरा राज्य उपजाति गणमुक्ति परिषद का गठन किया. यह अब वाममोर्चे का आनुषंगिक संगठन है. दशरथ और त्रिपुरा में वाममोर्चे के पहले मुख्यमंत्री नृपेन चक्रवर्ती की जोड़ी का ही कमाल था कि राज्य के ग्रामीण और आदिवासी इलाकों में पार्टी की मजबूत पैठ बन गई. कांग्रेस का आधार शहरी वर्ग तक ही सीमित रहा खासकर सरकारी कर्मचारियों में. 20 साल की सत्ता के बाद 1988 में कांग्रेस और वाम विरोधी आदिवासी राजनीतिक दल त्रिपुरा उपजाति युवा समिति के गठबंधन ने इसे उखाड़ फेंका. लेकिन 1993 में यह फिर सत्ता में आ गया. दशरथ राज्य के पहले आदिवासी मुख्यमंत्री बने. दशरथ और नृपेन दोनों आज नहीं हैं, लेकिन करीब ढाई लाख सदस्यों वाली गणमुक्ति परिषद आज भी त्रिपुरा में वाममोर्चे का आधार स्तंभ है.

पिछले 20 साल के दौरान त्रिपुरा ने कई मोर्चों पर तरक्की की है. मगर यह भी सच है कि शिक्षा और स्वास्थ्य के मोर्चे पर राज्य चुनौतियों से जूझ रहा है

अब सवाल उठता है कि क्या वाममोर्चे ने त्रिपुरा के आदिवासी और ग्रामीण इलाकों के गरीब लोगों के लिए पर्याप्त काम किया है. सीपीएम के आदिवासी विधायक और मंडई बाजार सीट से लड़ रहे मनोरंजन देबबर्मा कहते हैं, ‘ग्रामीण विद्युतीकरण और स्वच्छ पेयजल के मामले में हम 60 फीसदी काम करने में सफल हुए हैं. अभी बहुत कुछ बाकी है, लेकिन फिर भी मैं कह सकता हूं कि पिछले 20 साल में जितना काम हमने किया है उतना देश में किसी और राज्य में नहीं हुआ होगा.’

पिछले 20 साल के दौरान कांग्रेस का आधार शहरी और गैरआदिवासी इलाकों तक सीमित रहा है. पार्टी आंतरिक गुटबाजी की समस्या से भी जूझती रही है. कांग्रेस ने इस बार क्षेत्रीय पार्टियों आईएनपीटी और नेशनल कॉन्फ्रेंस ऑफ त्रिपुरा के साथ गठबंधन किया है. त्रिपुरा में आदिवासी समाज के प्रतिनिधित्व का दावा करने वाली और भी कई पार्टियां हैं लेकिन हमेशा उनका वोट बंट जाता है. ऐसी ही एक पार्टी त्रिपुरा स्थानीय जन मोर्चा  (आईपीएफटी) के मुखिया एनसी देबबर्मा कहते हैं, ‘त्रिपुरा की छोटी आदिवासी पार्टियों में फूट डलवाने में वाममोर्चे की बड़ी भूमिका रहती है. वे फूट डालकर राज करने की नीति जानते हैं और इस काम में कांग्रेस के कुछ नेता भी उनकी मदद करते रहे हैं.’

आंकड़े बताते हैं कि त्रिपुरा के 8,132 गांवों में से 2,877 में आज भी स्वच्छ पेयजल का अभाव है. 1,513 गांव अब भी सड़क से दूर हैं. करीब 60,000 परिवार भूमिहीन हैं और इनमें एक बड़ी जमात आदिवासियों की है. केरल और मिजोरम के बाद त्रिपुरा देश का तीसरा सबसे साक्षर राज्य है. यहां साक्षरता दर 87.8 फीसदी है. लेकिन आदिवासियों में साक्षरता देखें तो यह आंकड़ा 56.5 फीसदी पर सिमट जाता है. और यह भी तथ्य है कि साक्षर लोगों में सिर्फ नौ फीसदी ऐसे हैं जिन्होंने दसवीं के आगे तक पढ़ाई की है. अगरतला में डेंटिस्ट और आदिवासी समुदाय के कहाम्नक जमतिया कहते हैं, ‘आदिवासी इलाकों के विकास की जो बात राज्य सरकार करती है वह खोखली है. सिर्फ कुछ सड़कें या स्कूल बनाने से आदिवासी समाज का भला नहीं होगा. सरकार सिर्फ फौरी उपाय करके आदिवासियों का तुष्टीकरण करना चाहती है. उसके पास दूरदृष्टि नहीं है.’  

वाममोर्चा सिर्फ आदिवासी नहीं बल्कि अनुसूचित जाति के वोटों के सहारे भी चुनावी वैतरणी पार करने की उम्मीद कर रहा है. राज्य में 10 सीटें अनुसूचित जाति के उम्मीदवारों के लिए आरक्षित हैं. जानकारों का मानना है कि इस मोर्चे पर भी वाममोर्चा अपने प्रतिद्वंद्वियों से आगे है. हालांकि एक झटका उसे 2012 में तब लगा जब आरएपी के एक विधायक पार्थदास पर 2008 का चुनाव अनुसूचित जाति के जाली प्रमाणपत्र के सहारे लड़ने की बात सामने आई. तब सरकार की काफी किरकिरी हुई थी. बाद में गुवाहाटी हाई कोर्ट की अगरतला खंडपीठ ने भी विधायक को फर्जी जाति प्रमाणपत्र पर चुनाव लड़ने का दोषी पाया था. त्रिपुरा में कांग्रेस के मुखिया सुदीप रॉय बर्मन कहते हैं, ‘वाममोर्चा सरकार को चाहिए था कि वह विधायक को इस्तीफा देने को कहती. लेकिन मुख्यमंत्री ने उन्हें क्लीन चिट देने की कोशिश की. इससे पता चलता है कि 20 साल के शासन ने इस सरकार की नैतिकता खत्म कर दी है.’ कई बार यह आरोप लगते रहे हैं कि चुनावी लाभ के लिए अपने कैडर और नौकरशाही के गठजोड़ के जरिए वाममोर्चा दूसरे समुदाय के लोगों को फर्जी अनुसूचित जाति प्रमाणपत्र देने का रैकेट चला रहा है. पार्थ दास प्रकरण इन आरोपों को बल देता है.

हालांकि यह भी है कि भले ही त्रिपुरा में वाममोर्चा सरकार के खिलाफ मामलों की भीड़ बढ़ रही हो, लेकिन फिर भी वह उन गलतियों से बची रही है जो उसने प. बंगाल में कीं और जिनकी वजह से उसे आखिरकार सत्ता से बाहर होना पड़ा. त्रिपुरा में भी औद्योगीकरण हो रहा है मगर सावधानी के साथ. मुख्यमंत्री माणिक सरकार कहते हैं, ‘हमने विशेष औद्योगिक उन्नति केंद्र सरकारी जमीन पर स्थापित किए हैं.’ सीपीएम के एक नेता बताते हैं कि सरकार ने कुछ निजी जमीन का भी अधिग्रहण किया है लेकिन उसके लिए पर्याप्त मुआवजा दिया गया है.  त्रिपुरा में गैस का विशाल भंडार है और ओएनजीसी पलाटना में 726 मेगावॉट उत्पादन वाला ऊर्जा संयंत्र लगा रही है. ग्रामीण विकास के लिए सरकार ने रबड़ की खेती का मॉडल अपनाया है जो काफी सफल रहा है. आज केरल के बाद त्रिपुरा देश का दूसरा सबसे बड़ा रबड़ उत्पादक राज्य है. खोवाई जिले में रहने वाले और कभी बगावत की राह चले साधन देबबर्मा कहते हैं, ‘कभी मैंने हथियार उठाए थे क्योंकि आदिवासी  खाने और दवाइयों के अभाव में मर रहे थे. जब मैंने हथियार छोड़े तो सरकार ने रबड़ की खेती के जरिए मेरे पुनर्वास में मदद की. पिछले साल मैंने इससे छह लाख रुपये कमाए थे. वाम मोर्चा सरकार रहनी चाहिए.’

हालांकि तस्वीर के स्याह पहलू भी हैं. राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है. मुख्यमंत्री भले ही दावा करें कि राज्य में दो-दो मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन सच यह है कि पथरी के छोटे-से ऑपरेशन के लिए भी आदमी को गुवाहाटी या कोलकाता जाना पड़ता है क्योंकि विशेषज्ञों की कमी है. राज्य में अब भी 2,759 डॉक्टरों और 5,679 नर्सों की कमी है. आदिवासी इलाकों में कम से कम 23 प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसे हैं जहां मरीजों को लाने-ले जाने के लिए एंबुलेंस की व्यवस्था नहीं है. 17 स्वास्थ्य केंद्रों में तो बेड तक नहीं है.

हालांकि तस्वीर के स्याह पहलू भी हैं. राज्य में स्वास्थ्य सुविधाओं का बुरा हाल है. मुख्यमंत्री भले ही दावा करें कि राज्य में दो-दो मेडिकल कॉलेज हैं, लेकिन सच यह है कि पथरी के छोटे-से ऑपरेशन के लिए भी आदमी को गुवाहाटी या कोलकाता जाना पड़ता है क्योंकि विशेषज्ञों की कमी है.

पूर्व सरकारी कर्मचारी पीके डे कहते हैं, ‘शिक्षा का भी यही हाल है. उच्च शिक्षा के लिए भी सबको बाहर जाना पड़ता है. वाममोर्चा सरकार को इससे कोई मतलब नहीं.’ सुदीप बर्मन कहते हैं, ‘राज्य सरकार खुद ही कह रही है कि 1,167 स्कूलों में हेडमास्टर नहीं हैं. 1,047 स्कूलों में पेयजल की सुविधा नहीं है, 2,368 स्कूल बिजली से वंचित हैं. 2001 में मैट्रिक की परीक्षा में 26 स्कूल ऐसे थे जहां एक भी छात्र पास नहीं हुआ. ये सभी स्कूल ग्रामीण इलाकों में हैं. नौजवान बदलाव चाहते हैं.’

बेरोजगारी एक और बड़ा मुद्दा है. 36.71 लाख की जनसंख्या में करीब छह लाख बेरोजगार युवा हैं. सीपीएम के पूर्व सांसद और अब पार्टी छोड़ चुके अजय बिश्वास कहते हैं, ‘यहां निजी निवेश न के बराबर है और ऐसे में सरकारी नौकरी की पूछ बहुत बढ़ जाती है. पिछले दस साल से 35 फीसदी सरकारी पद खाली पड़े हैं. सरकार इन्हें हर चुनाव में लॉलीपॉप की तरह इस्तेमाल करती है, शोषण के विरोध का दावा करने वाला वाममोर्चा यहां खुद शोषक की तरह काम कर रहा है.’

तो क्या वाममोर्चा अपनी सरकार बचा पाएगा? क्या आदिवासी वोट इस बार भी उसके साथ जाएगा? कांग्रेसनीत गठबंधन को इस बार त्रिपुरा राजपरिवार के उत्तराधिकारी प्रद्योत देबबर्मन का भी साथ मिल रहा है. वे खुद तो चुनाव नहीं लड़ रहे मगर वाममोर्चे के विरोध की अगुवाई कर रहे हैं. वे कहते हैं, ‘वामपंथियों के विचारों में जड़ता है. नौजवान हो या आदिवासी समाज, वह अपनी जरूरतों के हिसाब से विकास चाहता है, न कि सीपीएम कैडर की सनक के हिसाब से.’ पर आखिरी फैसला तो वोटर को ही करना है.    

तो हमें तुम्हारी जरूरत ही क्या है मौलाना?

कश्मीर की तीन मुसलमान लड़कियों को खामोश करके खुश तो बहुत होगे तुम! तुम दुनिया को यह बताना चाहते हो कि उनके गिटार को चुप करवा कर तुमने इस्लाम को बचा लिया भारत में, कश्मीर में. लेकिन असलियत तुम जानते हो, और दूसरे भी कि तुमने इस्लाम को नहीं बल्कि अपनी सत्ता को बचाया है. अगर आम मुसलमान अपनी जिंदगी के फैसले खुद करने लगेगा, खुद सोचने-समझने लगेगा तो फिर तुम किस मर्ज की दवा रह जाओगे? आखिर उन लड़कियों को कहना पड़ा कि ‘मुफ्ती ही बेहतर जानते हैं कि अल्लाह का हुक्म क्या है, इसलिए हम मुफ्ती की बात मानते हुए अपना म्यूजिक बंद करते हैं.’ वैसे अल्लाह ने ईरान, तुर्की, पाकिस्तान, बांग्लादेश और ट्यूनीशिया के मौलानाओं को म्यूजिक पर पाबंदी क्यूं नहीं बताई? सिर्फ भारतीय मौलाना से अल्लाह यह राजदारी क्यूं करता है? अपनी बेटियों से इतना डरे हुए क्यूं हो, मौलाना?

देखें मौलाना, ऐसा है कि आपका औरतों से दुश्मनी वाला रवैया अब किसी तरह परदे में रहने वाला नहीं. अब मुसलमान औरत को समझ में आ रहा है कि पहले तो आपने मजहब को, उसकी जानकारियों को, उसकी राहतों को अगवा कर अपने अंधेरे पिंजरों में कैद कर लिया जहां सिर्फ आपके हमखयाल ही दाखिल हो सकते हैं. जिसने भी जरा सी चूं-चां की, वह भटका हुआ करार दिया गया यानी कि मुसलमान औरत को पहले तो मजहब की उम्दा और आला तालीम से दूर रखा गया, उसके लिए अच्छे और बाकायदा मजहबी तालीम देने वाले संस्थान ही कायम नहीं होने दिए गए. मजहब के मामलों पर गौर-ओ-फिक्र से मुसलमान औरत को अलग रखा. किसी पर्सनल लॉ बोर्ड, किसी फिकह अकादमी, किसी मुशावरत, किसी कजियात में मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती.

इसके बाद मुसलमान औरत पर तुमने अपनी मनचाही मर्दाना शरियत थोपी. यहां पर भी वही जिद कि हम जो बताएं वही शरियत है और उस पर तुर्रा यह भी कि शरियत बदल नहीं सकती, हिमालय की तरह अटल है. किसको बेवकूफ बना रहे हो, मौलाना? शिया, मेमन, बोहरा, देवबंदी, बरेलवी, हनफी, शाफई, मलिकी, महदवी और न जाने कितनी तरह की शरियतें रचने के बाद औरतों को बताते हो कि शरियत अटल है? शरियत के नाम पर तीन तलाक की मानसिक हिंसा तुम करो और करवाओ और हम यह मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है औरत के लिए? चार बीवियां तुम रखो और रखवाओ और हम मान लें कि यही अल्लाह का इंसाफ है? अरे, अल्लाह को क्यों बदनाम करते हो अपने मतलब के लिए?

मुसलमान औरत को कभी कोई ऐसी फैसला लेने लायक भागीदारी नहीं दी गई कि वह इस्लाम में औरत को राहत देने वाले इंतजामों से बाखबर हो कर उनका अपने पक्ष में इस्तेमाल कर पाती

हमें पता है कि तुमने इसी लिए भारत में मुसलमान औरतों को मस्जिद में नहीं आने दिया. अगर मुसलमान औरतें भी सारी दुनिया के मुस्लिम मुल्कों की तरह मस्जिदों में उसी हक से दाखिल हो जाएं जिस हक से मर्द होते हैं तो क्या आसमान टूट पड़ेगा कौम पर? लेकिन यह कोई मासूम- सी पाबंदी नहीं है, मौलाना. तुम्हें पता है कि अगर ये औरतें हर रोज एक छत के नीचे इकट्ठी होकर आपस में बातचीत कर लेंगी, अपने हाल एक-दूसरे पर जाहिर कर देंगी तो संगठित हो जाएंगी. अभी वे उन जुल्मों को सिर्फ ‘अपनी बदनसीबी’ और ‘अल्लाह का इम्तेहान’ समझ कर एक निजी दुख की तरह झेल लेती हैं. मगर वे एक जगह इकट्ठी हो गईं तो उन्हें पता चल जाएगा कि ये तो वे तारीखी ज़ुल्म हैं जो उनकी नानी-दादी-मांओं ने
भी झेले हैं.

आखिर ‘कौम’ की तमाम मुश्किलों पर मस्जिदों के भीतर ही तो एक राय बनाई जाती है न? यहां तक कि देहली की एक मस्जिद तो यह तक तय कर देती है कि कौम अगले चुनाव में वोट किसे देगी. तो मौलाना, तुम्हें भी पता है और हमें भी पता है कि मस्जिद में अगर औरतें इकट्ठी हो गईं तो सबसे पहले खतरा तुम पर ही आना है.

 मौलाना पूरी कौम के नाम पर या कौम के लिए तुम जो भी बोर्ड, मजलिस, मदरसा, स्कूल, नदवा, वगैरह बनाते हो उसमें मुसलमान औरतों को 50 फीसदी नुमाइंदगी क्यूं नहीं देते? तुम लगातार भारत सरकार को कोसते रहते हो कि वह मुसलमानों की तादाद के मुताबिक उन्हें नुमाइंदगी न दे कर उनके साथ नाइंसाफी करती है, उनकी तरक्की में रुकावट डालती है. लेकिन जहां तुम पॉवर में हो वहां भारत सरकार से भी बड़े वाले हुक्मरां बन जाते हो. तब तुम्हें यह खयाल नहीं आता कि मुसलमान औरतें आबादी का आधा हिस्सा हैं? अपने जलसों में जब तुम पूरी कौम के मामलात तय करते हो तो देहली की वजीर-ए-आला शीला दीक्षित और कांग्रेस सदर सोनिया गांधी को तो मंच के बीचोबीच जगह देते हो, लेकिन इसी जलसे में एक भी मुसलमान औरत तुम्हें नहीं मिलती शामिल रखने के लिए?

 लेकिन मौलाना उस ऊपरवाले का सितम देखो कि जब कौम पर मुश्किल आती है तो कोई तीस्ता सीतलवाड़, कोई मनीषा सेठी, कोई जमरूदा, कोई सीमा, कोई सहबा, कोई नंदिता, कोई अरुंधती ही सड़कों से ले कर मीडिया तक पर उतरती है अपने हमवतनों को बचाने के लिए. तब तुम चुप्पी साधे ताकते रहते हो औरतों के इस अहसान को. तब बरसों से जमा किया गया तुम्हारा इक्तेदार, सरकारों के साथ तुम्हारी वोट वाली सांठ-गांठ, या तुम्हारा ‘खास इल्म’ किसी काम नहीं आता कौम के. तुम लाखों की रैलियां करके जिन सियासी दलों को यह जताते हो कि देखो हमारे पास इतना बड़ा वोट-बैंक है लिहाजा हमसे सौदा करो, वे सियासी पार्टियां तुम्हें बस
एक बार भुनाने लायक बैंक-चेक से ज्यादा कुछ समझती नहीं.

किस्सा-कोताह यह कि तुम्हारे होने से कौम को राहत तो कोई मिलती नहीं, इसकी इज्जत और हिफाजत में तो कोई इजाफा होता नहीं, इसकी छवि एक सहनशील और इंसाफ-पसंद कौम की बनती नहीं, तुम्हारी अपनी औरतें और कमजोर और पसमांदा खुद तुमसे खुश नहीं, तुम्हारे जरिये चलाए जा रहे इदारों, मदरसों, स्कूलों से समाज के काम के इंसान तो निकलते नहीं. तो फिर तुम हो किस काम के? कोई ऐसी सामाजिक बुराई जो तुम्हारे होने से मिट गई हो उसका नाम बताओ, मौलाना? तुम उन खाप पंचायतों से किस तरह अलग हो जो जुल्म की शिकार औरतों पर ही उस जुल्म की जिम्मेदारी थोप देती हैं? दहेज घरेलू हिंसा, बेटियों-बहनों को जायदाद में हक, जात-बिरादरी की ऊंच-नीच जैसे मामलों पर तो कभी तुम्हारी आवाज बुलंद होते सुनी नहीं. वक्फ की जायदादों पर नाग की तरह कुंडली मारे बैठो हो जो  बेवाओं-यतीमों-तलाकशुदा औरतों का हक था.
अगर किसी तरह का कोई अच्छा काम तुमसे हो ही नहीं सकता तो हमें तुम्हारी जरूरत क्या? सिर्फ मर्दाने मदरसे चलाओ और बंद करो अपनी ये सामाजिक दुकानें, मौलाना !   

अल्पसंख्यकों के लिए

अल्पसंख्यक दो प्रकार के होते हैं: एक वे जो बहुसंख्यक हैं पर अपने को अल्पसंख्यक कहकर, उम्दा रोजगार और उम्दा तालीम के सिवा, अपनी सनक और समझ के अनुसार सरकार से कोई भी मांग कर सकते हैं, दूसरे वे जो इतने अल्पसंख्यक हैं कि अपनी पहचान बनाए रखने के लिए वे सरकार को बराबर कुछ देते रहते हैं, उससे कुछ खींच नहीं पाते. उदाहरण के लिए, दूसरी कोटि के अल्पसंख्यक उत्तर प्रदेश के रोमन कैथोलिक हैं, उनकी संख्या सिर्फ हजारों में है, लाखों में नहीं. वे प्राय: विपन्न पर खामोश, परिश्रमी और आत्मसम्मानी लोग हैं. उत्तर प्रदेश की सबसे उम्दा शिक्षा संस्थाएं उन्होंने स्थापित की हैं, उन्हें वही चला रहे हैं.

पहली कोटि के अल्पसंख्यक हमारे बहुसंख्यक मुसलमान भाई हैं. अपनी पहचान या अस्मिता कायम रखने की चिंता अगर किसी को है तो इन्हीं को, उत्तर प्रदेश के कैथोलिक ईसाइयों, महाराष्ट्र के पारसियों या गुजरात के यहूदियों को नहीं. मुसलमान दंगे-फसाद से घबराए रहते हैं जो कि सचमुच ही चिंतनीय है, पर उससे भी ज्यादा वे घबराए हुए हैं कि हिंदुस्तान की सरकार कहीं उन पर एक से ज्यादा बीवियों को तलाक देने की प्रक्रिया दिक्कततलब न बना दे, कहीं उर्दू का नामोनिशान न खत्म कर दे, हजयात्रियों को मिलने वाले अनुदान में कहीं कटौती न हो जाए, आदि-आदि.

इस हालत में केंद्र सरकार और राज्यों को क्या करना चाहिए? यह सवाल ज्यादा मुश्किल नहीं है. अगर इन अल्पसंख्यकों के नेताओं की मांगें जांची जाएं तो साफ है कि उनको आधुनिक तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा की खास जरूरत नहीं है, कुरान की तालीम देने वाले मदरसों से वे संतुष्ट हैं, रोटी की जगह कुछ उत्तरी और मध्यवर्ती राज्यों में उर्दू को राजभाषा बनाकर उन्हें परोस दीजिए, उनका काम चल जाएगा. फिर भी अगर उन्हें लगे कि उनकी सही पहचान नहीं हो रही है तो, जैसा कि केरल में हुआ है, उन्हें शुक्रवार की छुट्टी देना शुरू कर दीजिए.

यही छुट्टी वाली तरकीब काफी पुरानी और आजमाई हुई है. अंग्रेजी हुकूमत में मालाबार के मुस्लिम बहुल स्कूल शुक्रवार को काफी देर बंद रहते थे. 1967 में मार्क्सवादी मुख्यमंत्री नंबूदरीपाद महाशय ने कुछ क्षेत्रों में शुक्रवार का अवकाश घोषित किया. उनकी निगाह में यह धर्मनिरपेक्षता की और उनकी सहयोगी मुस्लिम लीग की निगाह में मुस्लिम अस्मिता की जीत थी. यह कायदा तब मल्लापुरम इलाके में लागू हुआ. अब केरल की मौजूदा सरकार ने मुस्लिम शिक्षालयों में शुक्रवार को छुट्टी का पुख्ता इंतजाम कर दिया है.

अगर राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, भारतीय जनता पार्टी और उसी रंग-रेशे के दूसरे संगठन-जो अपनी अस्मिता के लिए मुसलमानों ही की तरह व्याकुल हैं- इसे अल्पसंख्यकों का तुष्टीकरण बताएं तो इसका भी इलाज है. उनके स्कूलों में मंगलवार का अवकाश दे दें ताकि उस दिन वे लाल लंगोटे वाले की आराधना कर सकें. शर्त सिर्फ यह रहे कि चाहे हिंदू हो या मुसलमान, रविवार की छुट्टी सबके लिए बरकरार रहे.

इसके अलावा और क्या किया जाए? आप चाहे भाजपा के अध्यक्ष ही क्यों न हों, मुस्लिम नेताओं को बुलाकर रमजान में इफ्तार की दावत जरूर दें. संक्षेप में, अगर अपने समाज की पहचान पक्की बनाने के लिए उसके नेता उसे पंद्रहवीं सदी में लिए जा रहे हों तो सरकार की नीति उन्हें और पीछे खिसकाकर तेरहवीं सदी में ले जाने की हो सकती है. यह अल्पसंख्यकों का आदर्श तुष्टीकरण होगा. पीछे जाने की उनकी महत्वाकांक्षा को इतना उत्तेजित किया जाए कि वे एक आधुनिक सभ्य समाज की जगह गुलिवर ट्रैवल्सके याहू बनने का भरपूर मौका पा सकें.

 

आज की पांच जरूरी चीजें जिन पर गैरइस्लामी होने का ठप्पा है

बेहतर तो यही होता कि कुछ चीज़ें इस्लामी या गैर इस्लामी होने की अंतहीन बहस में न खींची जातीं. ऐसी बहस में तब तक कोई बुराई नहीं जब तक कि इसका निष्कर्ष ज़रूरी चीजों को गैरइस्लामी न बताता हो. वे चीजें जो किसी प्रगतिशील समाज के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक हैं. लेकिन जब एक बड़ी तादाद अंधे तरीके से इन चीजों पर गैरइस्लामी होने की मुहर लगा रही हो तो इसकी पड़ताल बहुत जरूरी हो जाती है. इसलिए भी कि ये ठप्पा मुसलमानों के विकास के आड़े आकर खड़ा हो सकता है. साथ ही इस्लाम के विषय में भी एक बंधी-बंधाई और गफलत भरी सोच बनाने का जोखिम भी पैदा हो जाता है. 
राहत देने वाली बात यह है कि इस्लाम के मूलभूत सिद्धांतों का अध्ययन करने और मुस्लिम विद्वानों से बात करने पर जल्द ही पता चल जाता है कि ज्यादातर जरूरी चीजें जिनको गैरइस्लामी मान लिया गया है, इस्लाम में उनकी कोई मनाही नहीं है. सिर्फ अज्ञान और कुछ लोगों के निहित स्वार्थ के चलते इन्हे इस्लाम के खिलाफ प्रचारित किया जाता है.

1परिवार नियोजन-सामान्यत: परिवार नियोजन को गैरइस्लामी माना जाता है. इसी वजह से कई मुसलमान परिवार नियोजन से सख्त गुरेज करते हैं. इसके चलते समाज में मुसलमानों की ‘लंबा-चौड़ा परिवार रखने वाले’ की एक स्टीरियोटाइप छवि भी बन गई है. जबकि मुस्लिम विद्वानों से बात करने पर हम पाते हैं कि इस्लाम में परिवार नियोजन की बिल्कुल भी मनाही नहीं है. प्रख्यात मुस्लिम धर्मगुरु मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं- ‘कुरआन शरीफ कहता है कि मुफलिसी के खौफ से अपने बच्चे का कत्ल मत करो. बहुत से लोगों ने परिवार नियोजन से जोड़कर इसकी गलत व्याख्या पेश कर दी है. ये आयत एक निश्चित समय के बाद गर्भपात करवाने से मना करती है. जो कि डाक्टर भी करते हैं. ये परिवार नियोजन के बारे में नहीं है. क्योंकि परिवार नियोजन से बच्चे का कत्ल नहीं होता. इस्लाम के मुताबिक और डाक्टरों के मुताबिक भी, संभोग के बाद हुए गर्भ को एक निश्चित समय सीमा बीतने के बाद ही बच्चा कहा जा सकता है इसलिए परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करना गैरइस्लामिक कतई नहीं.’ यानी कि इस्लाम में बच्चे को नुकसान पहुंचाने की मनाही है मगर बच्चे हों ही नहीं इसके लिए परिवार नियोजन के तरह-तरह के साधन अपनाना इस्लाम के खिलाफ बिल्कुल भी नहीं है. इस मामले में हमारे देश का कानून भी एक निश्चित समय के बाद गर्भपात कराने को गैरकानूनी कहता है.

‘अगर इस्लाम में संगीत हराम होता तो अल्लाह मियां हज़रत दाऊद को सुरीली आवाज क्यों अता करता’

2पोलियो वैक्सीन-मुस्लिम समुदाय में पोलियो वैक्सीन जैसी अनिवार्य रूप से ज़रूरी चीज़ के प्रति भी गहरा असंतोष और विरोध रहा है. खासकर उत्तर प्रदेश में. सबसे ज्यादा मुस्लिम आबादी वाले इस राज्य में एक लंबे समय तक पोलियो वैक्सीनेशन प्रोग्राम कामयाब नहीं हो सका क्योंकि मुस्लिम-बहुल इलाकों में लोग पोलियो की दवा पिलाने से मना कर देते थे. उनका तर्क था कि इस दवा को बाहरी ताकतों के इशारे पर कोई ऐसा तत्व मिलाकर तैयार किया गया है जो कि गैरइस्लामी है और इससे मुसलमानों की बच्चे पैदा करने की क्षमता खत्म हो जाएगी. लाख समझाने के बाद भी मुसलमानों के बीच टीकाकरण कामयाब नहीं हो रहा था. आखिरकार सरकार ने मुसलिम धर्मगुरुओं से लोगों के बीच यह गलतफहमी दूर करने की अपील की. इसके बाद उलेमा की एक कमेटी बनी जिसने पूरे सूबे में घूम-घूम कर मुसलमानों को पोलियो वैक्सीन के फायदे बताए साथ ही यह भी कि वैक्सीन में गैरइस्लामी होने जैसी कोई बात नहीं है. कुछ ही दिनों में चौंकाने वाले नतीजे सामने आए. 2010-11 में उत्तर प्रदेश पूर्णत: पोलियो मुक्त राज्य बन गया. उलेमा कमेटी के सदस्य धर्मगुरु खालिद रशीद फिरंगी महली कहते हैं, ‘मैने खुद अपने एक साल के बच्चे को मुसलमानों के एक गांव में ले जाकर भीड़ के सामने पोलियो ड्राप पिलवाई ताकि इसके नुकसानदायक और गैरइस्लामी होने की गलतफहमी दूर की जा सके. मुझे खुशी है कि हमारी कोशिश कामयाब हुई.’

3विज्ञान और तकनीक-विज्ञान और तकनीक के बिना आज के दौर में किसी भी समाज की तरक्की संभव नहीं लेकिन दुर्भाग्यपूर्ण है कि कुछ गलतफहमियों और चंद मौलानाओं की तंगनजरी की वजह से इस पर भी गैरइस्लामी होने की छाप-सी लगी है. एक दौर में जब आदमी ने चांद पर पहला कदम रखा तब भी कुछ मौलवियों ने अव्वलन तो इस घटना पर यकीन करने से ही इनकार कर दिया और फिर इसे गैरइस्लामी बता दिया. इसी तरह कुछ लोगों ने वीडियोग्राफी और फोटोग्राफी को भी गैरइस्लामी करार दे दिया. यह सही है कि 21 वीं सदी में साइंस और टेक्नोलॉजी से पूरी तरह बच पाना असंभव है और इसलिए मुस्लिम समुदाय के बीच भी चीजें पहले से थोड़ी-बहुत तो बदली ही हैं लेकिन फिर भी विज्ञान और तकनीक के प्रति मुसलमानों में वह उत्साह नहीं जाग पाया है जैसाकि जरूरी है. आज भी ज्यादातर मदरसों में विज्ञान और तकनीक की पढ़ाई नहीं होती. मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं, ‘अधिकतर मदरसों में बच्चों में वैज्ञानिक सोच विकसित नहीं की जाती. साइंटिफिक अप्रोच बहुत जरूरी है. लेकिन कुछ लोग हैं जो मुसलमानों को समय के साथ नहीं चलने देना चाहते. ये लोग विज्ञान और तकनीक के खिलाफ लोगों में गलतफहमियां फैलाते हैं. उन्हें समझना पड़ेगा कि आधुनिक दौर में बैलगाड़ी से यात्रा करना न तो संभव है और न ही उचित.’

4संगीत-पिछले दिनों कश्मीर में मुफ्ती बशीरूद्दीन ने लड़कियों के रॉक बैंड के खिलाफ यह कहते हुए फतवा दिया कि रॉक बैंड गैरइस्लामी है और इसके जरिए जनमानस में ‘गलत भावनाएं’ उभरती हैं. इसके बाद सोशल नेटवर्किंग साइट्स पर बैंड के सदस्यों को इस कदर धमकियां मिलीं कि उन्हे कश्मीर छोड़ने पर मजबूर होना पड़ा. संगीत को गैरइस्लामी करार दिए जाने का यह अकेला मामला नहीं है. संगीत हमेशा से इस्लामी कट्टरपंथियों के निशाने पर रहा है. जबकि उदारवादी विचारक इससे इत्तेफाक नहीं रखते. उनके मुताबिक इस्लाम सिर्फ उस तरह के संगीत से बचने को कहता है जो इंसान को अपने कर्तव्यों से विमुख कर रहा हो और नेकी के रास्ते से हटा रहा हो. ‘ये गलतफहमी है कि इस्लाम संगीत की इजाजत नहीं देता. अगर इस्लाम में संगीत हराम होता तो अल्लाह मियां हज़रत दाऊद को सुरीली आवाज क्यों अता करते. आज भी जब मुसलमानों में कोई अच्छा गाता है जो कहा जाता है कि उसके पास दाऊदी गला है.’ मुस्लिम मामलों के जानकार मशहूर पत्रकार हसन कमाल कहते हैं, ‘मोहम्मद साहब के जीवन की भी कई घटनाएं इस बात का खंडन कर देती हैं कि इस्लाम में संगीत हराम है. एक बार जब रसूल अपने घर में दाखिल हुए तो घर की महिलाएं कुछ गा रही थीं, हुज़ूर को देखकर वे रूक गईं. इस पर रसूल ने उनसे कहा कि तुम लोग अच्छा गा रहे थे, रुक क्यों गए. गाना जारी रखो.’ रॉक बैंड पर फतवे के संदर्भ में लेखिका शीबा असलम फहमी जोर देकर कहती हैं कि उन्होंने आज तक कोई बलात्कारी ऐसा नहीं देखा-सुना जो संगीत सुनने के बाद बलात्कार करने के लिए प्रेरित हो गया हो. उनके मुताबिक असल में इस्लामी या गैरइस्लामी होने की परिभाषाएं मौलवी अपनी सहूलियत के हिसाब से गढ़ते हैं.

‘गर्भ को एक निश्चित समय सीमा बीतने के बाद ही बच्चा कहा जा सकता है इसलिए परिवार नियोजन के साधनों का उपयोग करना गैरइस्लामिक कतई नहीं है’

5फिल्में- धर्म के खिलाफ होने का विरोध अगर कोई एक चीज़ सबसे ज्यादा झेलती है तो वह है फिल्में. फिल्मों को सभी धर्मों के कट्टरपंथियों का विरोध बराबर झेलना पड़ता है. इस्लामी कट्टरपंथी तो फिल्म को इस्लाम के ऐतबार से हराम तक बता देते हैं. क्योंकि इसमें संगीत, वीडियोग्राफी और अश्लीलता होती है. इसके अलावा कई फिल्मों के कथानक को भी मुस्लिम विरोधी करार देकर बखेड़ा कर दिया जाता है. ऐसे में अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर अमल बहुत मुश्किल होता जाता है. पिछले दिनों दक्षिण के कुछ मुस्लिम संगठनों ने कमल हासन की फिल्म विश्वरूपम को बिना देखे इसे इस्लाम विरोधी करार देकर बवाल खड़ा किया इससे फिल्म जगत में काफी रोष था. कमल हासन ने तो यहां तक कह डाला कि अगर उनकी फिल्म को रिलीज़ नहीं होने दिया गया तो वे देश छोड़ने पर मजबूर हो जाएंगें. मुस्लिम फिल्मकारों और अभिनेता-अभिनेत्रियों के खिलाफ फतवा जारी किए जाने की खबरें गाहे-ब-गाहे अखबारों में आती ही रहती हैं जिसमें मजहबी ऐतबार से फिल्म को हराम बताया जाता है. ऐसे में सिनेमा जैसे प्रभावी और चमत्कारी माध्यम के सामने गंभीर चुनौतियां खड़ी हो जाती हैं. अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता भी खतरे में पड़ती दिखती है. फिल्मी गीतकार और उर्दू पत्रकार हसन कमाल कहते हैं, ‘असल में फिल्मों का ज्यादातर विरोध अलोकतांत्रिक तरीके से अपने निहित स्वार्थों के कारण होता है. बगैर फिल्म को देखे और उसकी मूल भावना को समझे उसके विरोध का क्या औचित्य है. हकीकतन ये लोग इस्लाम को ही ठीक ढंग से नहीं समझते.’

साफ है कि मानव सभ्यता के लिए कल्याणकारी और अनिवार्य रूप से जरूरी चीजों को गैरइस्लामी बताए जाने के पीछे या तो परले दर्जे का अज्ञान है अथवा शातिराना किस्म का निहित स्वार्थ. मौलाना कल्बे सादिक कहते हैं, ‘इस्लाम रीजनिंग को सर्वोपरि मानता है. यह आस्था पर नहीं विश्वास पर आधारित मजहब है. विश्वास रीजनिंग के बाद उत्पन्न होता है. यह कहता है कि जब तक तुम्हारी अक्ल न गवाही दे किसी चीज को न मानो.’ शीबा फहमी बताती हैं कि कुरान में चालीस से ज्यादा जगह पर अक्ल का इस्तेमाल करने पर जोर दिया गया है. जो चीजें मोहम्मद साहब के जमाने में थीं ही नहीं उनके इस्लामी या गैर इस्लामी होने का फैसला तो हम अपने विवेक के आधार पर ही कर सकते हैं और ये अधिकार कुरआन भी हमें देता है. हसन कमाल भी बताते हैं, ‘जब मोहम्मद साहब से उनके एक शिष्य ने पूछा कि अगर किसी बात को लेकर शंका हो तो क्या किया जाए? हुजूर बोले कुरान देखो. शिष्य ने पूछा फिर? हुजूर बोले- मेरी जिंदगी में इसका हल ढूंढ़ने की कोशिश करो. शिष्य ने पूछा  फिर? हुजूर बोले- मेरे साथियों की जिंदगी में इसका हल ढूंढ़ो. शिष्य ने पूछा अगर फिर भी हल न मिले तो? हुजूर बोले- अल्लाह ने तुमको अक्ल किस वक्त के लिए दी है?   
हिमांशु बाजपेयी