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मनोहरी मुख्यमंत्री!

मनोहर परिकर,

उम्र-57,

मुख्यमंत्री, गोवा

2012 की घटना है. मनोहर परिकर गोवा के मुख्यमंत्री बने ही थे. राज्य के एक पांचसितारा होटल में किसी कार्यक्रम का आयोजन हो रहा था जिसमें उन्हें मुख्य अतिथि के तौर पर आमंत्रित किया गया था. तय वक्त पर परिकर आयोजनस्थल पर पहुंचे. लेकिन उनके साथ वह तामझाम नहीं था जो अमूमन मुख्यमंत्रियों के साथ देखने को मिलता है. गेट पर खड़ा सुरक्षाकर्मी उन्हें पहचान नहीं पाया और उसने परिकर को जांच के लिए रोक दिया. पूरी सुरक्षा जांच करने और हर तरह से आश्वस्त होने के बाद ही सुरक्षाकर्मी ने परिकर को अंदर जाने दिया. अगर उत्तर भारत के किसी मामूली नेता को भी कोई सुरक्षाकर्मी इस तरह रोक दे तो नतीजे का अंदाजा आसानी से लगाया जा सकता है.

लेकिन यह सरलता तो मनोहर परिकर के स्वभाव का सिर्फ एक पहलू है. ऐसी कई वजहें हैं जिनके चलते उनसे उम्मीदें जगती हैं. पिछले दिनों जब भाजपा के मौजूदा अध्यक्ष नितिन गडकरी पर भ्रष्टाचार के कई आरोप लगे और उनके दोबारा अध्यक्ष बनने की संभावनाओं पर आशंकाओं के बादल मंडराए तो विकल्प के रूप में जिन नामों की चर्चा प्रमुखता से हुई उनमें एक परिकर भी थे. कइयों का मानना था कि परिकर जैसा ईमानदार आदमी अगर पार्टी को संभालेगा तो कार्यकर्ताओं में विश्वास पैदा होगा. 

2012 में गोवा में हुए चुनावों में कांग्रेस को सत्ता से बेदखल करके भाजपा को सत्ता में लाने वाले परिकर की छवि न सिर्फ पार्टी में बल्कि पार्टी के बाहर भी बहुत अच्छी है. गोवा में हुए चुनाव के बाद पता चला कि परिकर को वहां के ईसाइयों ने भी बड़ी संख्या में वोट दिया था. मुख्यमंत्री बनने के बाद उन्होंने वहां की खनन लॉबी के खिलाफ जिस तरह का रुख अख्तियार किया है उसकी तारीफ हर कोई कर रहा है. अब भी अपने निजी मकान में रहने वाले और जरूरत पड़ने पर कहीं भी स्कूटर उठाकर चल देने वाले मुख्यमंत्री की कार्यशैली की वजह से लोगों को काफी उम्मीदें हैं.

13 दिसंबर, 1955 को जन्मे मनोहर गोपालकृष्ण प्रभु परिकर की स्कूली शिक्षा मराठी माध्यम के स्कूल में हुई. इसके बाद उन्होंने आईआईटी मुंबई से इंजीनियरिंग की पढ़ाई 1978 में पूरी की. कम ही लोगों को मालूम होगा कि आधार परियोजना के प्रमुख नंदन नीलेकणी और परिकर आईआईटी मुंबई में एक ही बैच में थे. 1994 में वे पहली दफा विधायक बने और 1999 में गोवा विधानसभा में विपक्ष के नेता. 24 अक्टूबर, 2000 को उन्होंने पहली बार गोवा के मुख्यमंत्री के तौर पर शपथ ली. 2002 में उनके नेतृत्व में भाजपा ने विधानसभा चुनावों में जीत हासिल की और परिकर दोबारा मुख्यमंत्री बने. 2005 में उनकी सरकार गिर गई और एक बार फिर वे विपक्ष के नेता की भूमिका में आ गए. 2007 में भाजपा गोवा में विधानसभा चुनाव हार गई, लेकिन 2012 में फिर से एक बार पार्टी ने जीत हासिल की और परिकर ने तीसरी दफा प्रदेश के मुख्यमंत्री का दायित्व संभाला.

भाजपा में जो लोग परिकर की कार्यशैली को जानते हैं उनका कहना है कि वे बिल्कुल वैज्ञानिक ढंग से काम करते हैं और अगर उन्होंने कोई काम किसी को सौंपा है तो वे चाहते हैं कि तय समय में वह काम पूरा हो. बहुत कम लोगों को पता होगा कि मनोहर परिकर पहले गुटखा भी खाते थे. 2003 में जब वे बतौर मुख्यमंत्री एक स्कूल में गए तो उन्होंने छह साल के एक बच्चे को अपने सामने गुटखा खाते देखा. उन्होंने उस बच्चे को डांट लगाई और तय किया कि गोवा में गुटखा प्रतिबंधित करना है. लेकिन उनके सामने दुविधा यह थी कि वे खुद गुटखा खाते थे. ऐसे में उन्होंने पहले खुद गुटखा खाना बंद किया और फिर इसे प्रतिबंधित किया. अब उनकी तैयारी ‘गोवा’ नाम से भारत के कई हिस्सों में बेचे जा रहे गुटखे को गोवा नाम का इस्तेमाल करने से रोकने की है. इसके लिए वे जरूरी कदम उठा रहे हैं.

उनके काम करने की शैली भी ‘जरा हटके’ है. बीते जून में उनसे एक पत्रकार ने गोवा के किसी थाने के बारे में शिकायत की कि उस थाने का लैंडलाइन फोन काम ही नहीं करता. फिर क्या था परिकर ने पत्रकार से नंबर पूछकर उसके सामने ही अपने मोबाइल से वह नंबर मिला दिया. फोन लग गया. इसके बाद उन्होंने मोबाइल पत्रकार महोदय को थमा दिया. इस तरह के और भी कई उदाहरण हैं. उन्होंने 2012 में मुख्यमंत्री बनने के बाद पेट्रोल की कीमतों में कटौती करके खूब वाहवाही लूटी. इंटरनेशनल फिल्म फेस्टिवल ऑफ इंडिया (आईएफएफआई) को गोवा में लाने का श्रेय भी परिकर को ही दिया जाता है.

-हिमांशु शेखर

राजनीति के 'मिस्टर क्लीन'

पृथ्वीराज चव्हाण,

उम्र-66,

मुख्यमंत्री, महाराष्ट्र

इंजीनियरिंग के विद्यार्थी रहे पृथ्वीराज चव्हाण की पॉलिटिकल इंजीनियरिंग में सफलता भविष्य के एक बेहतर राजनीतिक समाज की तरफ इशारा करती दिखती है. अब तक के अपने राजनीतिक सफर में उन्होंने अलग-अलग जिम्मेदारियों को जिस तरह से निभाया है उसे देखते हुए उनसे काफी उम्मीदें जगती हैं. पीएमओ में बतौर राज्यमंत्री रहे चव्हाण विज्ञान और प्रौद्योगिकी, कार्मिक लोक शिकायत तथा पेंशन मंत्रालय समेत और कई मंत्रालयों में राज्य मंत्री रहने के बाद दो साल से महाराष्ट्र के मुख्यमंत्री की कुर्सी संभाले हुए हैं.

विलासराव देशमुख को मुख्यमंत्री पद से हटाने के बाद जब कांग्रेस ने अशोक चव्हाण को महाराष्ट्र का मुखिया बनाया तो उसे यह भरोसा था कि उसने राज्य में नेतृत्व की समस्या हल कर ली है. लेकिन पार्टी हाईकमान ने अभी चैन की सांस ली ही थी कि आदर्श घोटाले में उसके मुख्यमंत्री पर सीधे आरोप लगने लगे. पार्टी की लगातार खराब होती छवि से चिंतित हाईकमान ने साफ-सुथरी छवि के चलते ‘मिस्टर क्लीन ’ के नाम से जाने जाने वाले पृथ्वीराज चव्हाण को प्रदेश की कमान सौंप दी. भ्रष्टाचार के आरोपों से त्रस्त कांग्रेस के लिए विवाद और भ्रष्टाचार से दूर चव्हाण राज्य में पार्टी के लिए संजीवनी साबित हुए.

हालांकि बर्कले शिक्षित एयरोस्पेस इंजीनियर चव्हाण के लिए महाराष्ट्र जैसे जटिल राज्य में बतौर मुखिया काम कर पाना बेहद कठिन था. लेकिन पिछले दो साल में उन्होंने अपने सुलझे व्यक्तित्व तथा साफ-सुथरी और सकारात्मक राजनीति की छाप छोड़ी है. हालांकि भारतीय भाषाओं के कंप्यूटरीकरण में उल्लेखनीय योगदान करने वाले चव्हाण को प्रदेश की जटिल राजनीतिक-प्रशासनिक व्यवस्था को समझने में काफी समय लगा जिसे लेकर उनकी कई हलकों में आलोचना भी हुई. लेकिन कुछ समय बाद उन्होंने जिस तरह से प्रदेश की राजनीतिक फिजा में घुली सड़ाध का स्रोत तलाशना शुरू किया उसने उन्हें एक नई ऊंचाई प्रदान की. मुंबई विश्वविद्यालय में राजनीति विज्ञान के प्रोफेसर एवं वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक सुरेंद्र जोंधाले कहते हैं, ‘उन्होंने मुंबई में व्यापारियों और बिल्डरों की अवैध गतिविधियों पर लगाम लगाई. इन लोगों के खिलाफ कार्रवाई करना बहुत हिम्मत की बात है क्योंकि इनको हमेशा से राजनीतिक संरक्षण प्राप्त रहा है. नेताओं को ये लोग मोटा चुनावी चंदा देते और बदले में नेता इन्हें संरक्षण.’ कुछ समय बाद जैसे ही एनसीपी प्रमुख शरद पवार के भतीजे और राज्य के उप-मुख्यमंत्री अजीत पवार सिंचाई घोटाले में फंसे, कांग्रेस ने एनसीपी के सामने अपने मुख्यमंत्री पृथ्वीराज चव्हाण की स्वच्छ छवि का उदाहरण रखते हुए एनसीपी पर अजीत से इस्तीफा दिलाने का दबाव बनाना शुरू किया. आखिरकार अजीत को झुकना पड़ा.

महाराष्ट्र कांग्रेस के प्रवक्ता अनंत गाडगिल कहते हैं, ‘चव्हाण ने राज्य प्रशासन को बेहद पारदर्शी और सक्षम बनाया है. उन्होंने राज्य के विकास की दिशा में कई कड़े और सकारात्मक कदम उठाए हैं. कुछ लोग उनकी आलोचना करते हुए कहते हैं कि वे धीरे काम करते हैं. फाइलों पर जल्दी हस्ताक्षर नहीं करते. हकीकत ये है कि वो हर फाइल को बहुत ध्यान से पढ़ते हैं. उनसे आप किसी अनैतिक या अवैध चीज़ पर साइन नहीं करा सकते. जो लोग देरी का आरोप लगाते हैं, उनकी पीड़ा सिर्फ ये है कि मुख्यमंत्री उनकी गलत चीजों पर स्वीकारोक्ति की मोहर नहीं लगाते.’

वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई पृथ्वीराज चव्हाण के व्यक्तित्व के एक अलग पहलू पर प्रकाश डालते हुए कहते हैं, ‘पृथ्वी चमक-दमक की राजनीति से बिल्कुल दूर रहते हैं. जिस जगह पूरा बॉलीवुड है, पैसा है, पावर है, वहां के मुखिया का इतना लो प्रोफाइल रहना एक आश्चर्य है और सुखद भी.’ एक और घटना का जिक्र करते हुए वे कहते हैं, ‘ सीएम बनने के बाद जब उनके मुख्यमंत्री निवास में जाने की बात हुई तो उन्होंने पहले इनकार कर दिया. बाद में पता चला कि निवास में बहुतायत में मौजूद सुख-सुविधाओं के साधनों पर उन्हें आपत्ति थी. पहले उन चीजों को वहां से निकाला गया. फिर पृथ्वीराज मुख्यमंत्री आवास में रहने गए.’

महाराष्ट्र की कराड लोकसभा सीट से तीन बार सांसद रह चुके पृथ्वीराज को भले ही महाराष्ट्र की स्थानीय राजनीति का कोई अनुभव न रहा हो लेकिन अपने कार्यकाल में उन्होंने जिस राजनीतिक परिपक्वता का उदाहरण प्रस्तुत किया वह उन्हें स्टेट्समैन के रूप में स्थापित करता है. किदवई कहते हैं, ‘आप देखिए जिस तरह से उन्होंने बाल ठाकरे के मामले को हैंडिल किया वो काफी सराहनीय है. शिवसेना ने शिवाजी पार्क में बाल ठाकरे की अंत्येष्टि की जगह पर मेमोरियल बनाने की मांग करते हुए वहां एक अस्थाई ढांचा खड़ा कर दिया. इसको लेकर राज्य में काफी हो हल्ला मचा. शिवसेना ने वहां से किसी भी कीमत पर ढांचा हटाने से इनकार कर दिया था. बाद में चव्हाण से बातचीत के बाद शिवसेना ढांचा हटाने पर राजी हो गई. जो राजनेता  शिवसेना को कुछ करने या न करने से रोक सकता है, उसकी परिपक्वता और क्षमता का अंदाजा लगाया जा सकता है.’   

-बृजेश सिंह

दिल्लीवाले नेता!

अजय माकन,

उम्र-49,

केंद्रीय आवास एवं गरीबी उन्मूलन मंत्री

दिल्ली प्रदेश से अपनी सियासी पारी की शुरुआत करने वाले अजय माकन को जब केंद्र की राजनीति करने का मौका मिला तो उन्होंने अपनी एक ऐसी छवि गढ़ी जिसके चलते लोग उनसे अच्छे काम की उम्मीद करते हैं. 2004 में पहली नई दिल्ली लोकसभा सीट जीतकर लोकसभा में पहुंचे माकन ने वैसे तो राजनीति की शुरुआत तब ही कर दी थी जब वे दिल्ली विश्वविद्यालय में पढ़ते थे. 1985 में वे दिल्ली विश्वविद्यालय छात्र संघ के अध्यक्ष बने थे. लोगों में उन्हें लेकर उम्मीदें तब बढ़ीं जब उन्होंने युवा एवं खेल मामलों के मंत्रालय का कार्यभार स्वतंत्र राज्य मंत्री के तौर पर संभाला. इस दौरान उन्होंने खेलों में व्याप्त राजनीति और खेलों से संबंधित पूरी व्यवस्था को साफ-सुथरा बनाने का काम शुरू किया. उन्हें तीखा विरोध झेलना पड़ा. खुद पार्टी के अंदर के कई ऐसे लोग उनके खिलाफ खड़े हो गए जो किसी न किसी खेल संगठन के आला पदों पर काबिज थे. इनके विरोध की वजह से माकन राष्ट्रीय खेल विकास कानून ला तो नहीं सके लेकिन उनकी कोशिशों से खेलों के प्रशासन को साफ-सुथरा बनाने की बहस जरूर छिड़ गई.

अपनी कार्यशैली की वजह से माकन कई बार पार्टी लाइन से अलग जाते दिखने लगते हैं,  लेकिन अच्छी बात यह है कि उनका काम लोगों के हित में दिखता है. राष्ट्रमंडल खेलों की ही बात करें. इन खेलों को सफल बनाने के लिए कांग्रेस के नेतृत्व वाली सरकार ने एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा था. जब इन खेलों के आयोजन में धांधली की बात आई तो न सिर्फ उस समय बल्कि बाद में भी कांग्रेस ने इस पर भरसक पर्दा डालने की कोशिश की. लेकिन तहलका से हुई बातचीत में अजय माकन ने कहा, ‘अगर राष्ट्रीय खेल विकास कानून होता तो कम से कम राष्ट्रमंडल खेलों के आयोजन में जो घोटाला हुआ वह नहीं होता. क्योंकि इन खेलों की आयोजन समिति के अध्यक्ष और खजांची आईओए के पदाधिकारी नहीं बन पाते. इसलिए इस कानून की बहुत ज्यादा जरूरत है.’

माकन जो कानून लाना चाह रहे थे उसमें यह प्रावधान है कि देश के सभी खेल संगठनों को राष्ट्रीय खेल संगठन के तौर पर नए सिरे से मान्यता लेनी होगी. कोई भी खेल संघ निजी तौर पर काम नहीं कर सकेगा. सभी खेल संगठन सूचना के अधिकार के तहत आएंगे. उन्हें अपने आय-व्यय का ब्योरा देना होगा. यह नीति खेल संघों के प्रशासन में खिलाड़ियों की 25 फीसदी भागीदारी सुनिश्चित करने की बात भी करती है. खेल संगठनों के पदाधिकारियों की चुनाव प्रक्रिया को पारदर्शी बनाने की बात भी प्रस्तावित विधेयक में की गई है. पदाधिकारियों के लिए 70 साल की उम्र सीमा तय करने की बात भी प्रस्तावित नीति में है. साथ ही एक स्पोर्ट्स ट्रिब्यूनल के गठन की बात भी है. इस ट्रिब्यूनल में न सिर्फ खेल संघों के झगड़ों का निपटारा होगा बल्कि खिलाड़ी भी अपनी समस्याएं यहां उठा सकते हैं.

अब माकन इस मंत्रालय में नहीं हैं और प्रस्तावित विधेयक को लेकर स्थिति साफ नहीं है. लेकिन राज्य मंत्री से प्रमोशन पाकर कैबिनेट मंत्री बने अजय माकन जिस आवास एवं शहरी गरीबी उन्मूलन मंत्रालय में गए हैं, वहां भी उनके पास छाप छोड़ने का अच्छा मौका है. गांधी परिवार से करीबी के चलते उन्हें कुछ लोग दिल्ली के भावी मुख्यमंत्री के तौर पर भी देखते हैं. उनका मानना है कि शीला दीक्षित की उम्र को देखते हुए इस साल के चुनाव के बाद अगर नेतृत्व परिवर्तन का सवाल खड़ा होता है तो संभव है कि दिल्ली की जिम्मेदारी माकन को सौंपी जाए.

29 साल की उम्र में 1993 में पहली दफा विधायक बनने वाले अजय माकन के पास सबसे कम उम्र में किसी विधानसभा का स्पीकर बनने का रिकॉर्ड है. 2003 में वे 39 साल की उम्र में इस पद पर पहुंच गए थे. दिल्ली की परिवहन व्यवस्था में सीएनजी लागू करने का श्रेय भी अजय माकन को ही जाता है. हालांकि जब वे दिल्ली के ऊर्जा मंत्री बने तो उन्होंने बिजली का निजीकरण किया. इसकी मार आज भी दिल्लीवासियों पर बढ़े हुए अनाप-शनाप बिलों के रूप में पड़ रही है.

पुलिस अधिकारी से बने नेता

अजय कुमार

उम्र-50,

सांसद, झारखंड विकास मोर्चा

अजय कुमार उस दौर में बिहार में एसपी बने जब लालू प्रसाद यादव ने राज्य की सत्ता संभाली थी. भले ही लालू प्रसाद ने राज्य के एक बड़े वर्ग को आत्मविश्वास देने का काम किया हो लेकिन उनके कार्यकाल का एक दूसरा सच यह भी है कि बिहार में अपराधियों का बोलबाला बढ़ा और राजनीतिक दबाव ने कानून-व्यवस्था को भोथरा बनाना शुरू कर दिया. इसका नतीजा यह हुआ कि प्रशासन और व्यवस्था पर से लोगों का भरोसा उठने लगा. ऐसे समय में अजय कुमार जैसे अधिकारियों ने आकर जिस तरह से अपराधियों के खिलाफ काम करना शुरू किया उससे लोगों में आत्मविश्वास पैदा हुआ. भारतीय पुलिस सेवा के 1986 बैच के अधिकारी अजय कुमार पटना के सिटी एसपी बने. दो साल के अपने कार्यकाल के दौरान वे कई ऐसे आपराधिक मामलों से सख्ती से निपटे जिनमें उन पर राजनीतिक दबाव होने की बात बिहार में की जाती है. इसके बाद उन्हें जमशेदपुर भेज दिया गया. उस समय बिहार का बंटवारा नहीं हुआ था. बिहार के ईमानदार अधिकारियों के बीच जमशेदपुर की नियुक्ति को सजा माना जाता था. जमशेदपुर के बारे में यह प्रचलित था कि वहां काफी बड़े-बड़े और रसूख वाले कारोबारी हैं और अगर किसी अधिकारी के काम से उसके हित प्रभावित होते हैं तो संबंधित अधिकारी को कई तरह की मुश्किलों का सामना करना पड़ता है. लेकिन यहां भी अजय कुमार ने बढ़िया काम किया. हालांकि, कुछ लोग यह भी कहते हैं कि टाटा समूह के आग्रह पर लालू यादव ने ही अजय कुमार को जमशेदपुर भेजा था ताकि वहां कानून-व्यवस्था दुरुस्त की जा सके. मूलतः कर्नाटक के रहने वाले अजय कुमार को बिहार में बतौर पुलिस अधिकारी अच्छे काम के लिए राष्ट्रपति पुरस्कार भी मिल चुका है.

हालांकि, औपचारिक तौर पर तो वे नहीं मानते लेकिन बिहार-झारखंड में इस बात की चर्चा होती है कि जमशेदपुर जाने के बाद ही उनका भारतीय पुलिस सेवा से मोहभंग हो गया. इसके बाद उन्होंने टाटा कंपनी के साथ काम करना शुरू किया. लंबे समय तक वे टाटा के साथ जुड़े रहे. जब 2011 में जमशेदपुर सीट के लिए उपचुनाव होना था तो भाजपा से अलग होकर झारखंड विकास पार्टी बनाने वाले और झारखंड के पहले मुख्यमंत्री रहे बाबूलाल मरांडी ने उन्हें इस सीट से चुनाव लड़ने का प्रस्ताव दिया. अजय कुमार डेढ़ लाख से अधिक वोट से यह चुनाव जीतकर लोकसभा पहुंच गए.

एसपी की भूमिका में अजय कुमार जिस तरह की उम्मीद लोगों में जगाते थे, उसी तरह की उम्मीद वे बतौर सांसद भी जगा रहे हैं. अब तक जितनी बार भी उन्होंने संसद में किसी मुद्दे पर बोला है, उसे सुनकर यह लगता है कि उनके पास समस्याओं के समाधान के लिए नए विचार हैं. विषयों को बारीकी से उठाने का उनका कौशल कई मौकों पर दिखता रहता है. 22 मार्च, 2012 को संसद में उन्होंने इस मामले को उठाया कि आखिर एकीकृत कार्ययोजनाओं में स्थानीय सांसदों से राय क्यों नहीं ली जाती. उनका तर्क था कि स्थानीय सांसद अपने यहां की स्थिति से अच्छी तरह से वाकिफ होता है, इसलिए उसकी राय ली जानी चाहिए. जब एयर इंडिया को बचाने को लेकर संसद में बहस चल रही थी तो उस दौरान भी अजय कुमार ने बिल्कुल अलग बात कही. उन्होंने कहा, ‘इस नतीजे पर मत पहुंचिएगा कि हम एयर इंडिया को बचाना नहीं चाहते. लेकिन तीन-चार मुख्य बिंदु मैं आपके सामने रखना चाहता हूं. पहले तो 2006-07 में एयर इंडिया का घाटा 770 करोड़ रुपये था. उसके बाद यह 7,200 करोड़ हो गया. 2009 में एयर इंडिया तीन प्लेन्स बेच देती है. वह बेचती है हर प्लेन सौ-सौ करोड़ रुपये में. एयर इंडिया एक प्लेन 4000 करोड़ रुपये में खरीदती है. 30,000 करोड़ रुपये देने की बात चल रही है. 1000 करोड़ रुपये में एक ऑल इंडिया इंस्टीट्यूट ऑफ मेडिकल साइंस स्थापित हो जाता है. इस आधार पर इतने में 30 एम्स स्थापित हो जाएंगे. अगर आप हिसाब लगाएं तो इतने पैसे में डेढ़ लाख गांवों में सड़क बनाई जा सकती है.’

अजय कुमार सप्ताह में तीन दिन दिल्ली रहते हैं और चार दिन अपने क्षेत्र यानी जमशेदपुर में. संभवतः प्रबंधन का यह गुर उनके अंदर उसी समय से है जब उन्होंने पांडिचेरी विश्वविद्यालय से एमबीए किया था. कुमार ने डॉक्टरी की पढ़ाई पांडिचेरी मेडिकल कॉलेज से की है लेकिन जिस तरह से वे हर मुद्दे को उठाते हैं उससे लगता है कि वे सामाजिक डॉक्टर बन गए हैं. हालांकि बतौर सांसद अब तक संसद में अच्छा प्रदर्शन करने वाले अजय कुमार को सांसद विकास निधि के जरिए अपने क्षेत्र के लोगों के कल्याण के मामले में अधिक ध्यान देने की जरूरत है. जब से वे सांसद बने हैं तब से लेकर अब तक उन्हें सांसद विकास निधि के तहत जितनी रकम मिली है, वे उसका 57 फीसदी ही इस्तेमाल कर पाए हैं.

-हिमांशु शेखर

‘यह रेडियो-अखबार पर निर्भर समाज नहीं है. इसके पास सूचना का भंडार मौजूद है’

सीताराम येचुरी उस रास्ते से राजनीति में आए हैं जहां से अब कम ही लोग आते हैं. दिल्ली स्थित जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय (जेएनयू) में छात्र राजनीति से उन्होंने राजनीतिक जीवन की शुरुआत की और अपने पहले ही पड़ाव में इतिहास रच दिया. सन 77 से 78 के बीच लगातार तीन बार वे जेएनयू छात्र संगठन के अध्यक्ष रहे. इस मामले में वे इकलौते हैं. कम्युनिस्ट विचारधारा के बावजूद लोकतंत्र के प्रति उनकी प्रतिबद्धता शानदार है. येचुरी का व्यक्तित्व एक राजनेता की सीमाओं से परे जाकर उन्हें एक विचारक और लेखक के तौर पर भी स्थापित करता है. 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस पर लिखी गई उनकी किताब सैफ्रॉन ब्रिगेड  राजनीति की बेस्ट सेलर्स में से एक है. हाल की एक घटना उनके राजनीतिक कद का अंदाजा देती है. 2006 में नेपाल में माओवादियों के विद्रोह और राजशाही के पतन के बाद वहां राजनीतिक संकट उत्पन्न हो गया था. माओवादियों का स्वाभाविक झुकाव चीन की तरफ था. नेपाल के सैनिक या तानाशाही शासन के चंगुल में फंसने के पूरे आसार थे. ऐसे वक्त में येचुरी ने शानदार राजनीतिक कौशल दिखाया. उन्होंने नेपाल के माओवादियों के साथ मध्यस्थता की और उन्हें लोकतांत्रिक प्रणाली के लिए राजी किया. इस तरह चीन, पाकिस्तान और म्यांमार के बाद भारत के पड़ोस में एक और अलोकतांत्रिक सत्ता का निर्माण नहीं हो सका. 61 वर्षीय सीपीआई(एम) नेता और राज्यसभा सदस्य सीताराम येचुरी से अतुल चौरसिया की बातचीत.

राजनेताओं की विश्वसनीयता इतनी नीचे क्यों गिर गई है?

इसके पीछे कई कारण हैं. एक तो राजनेता जो वायदे करते हैं उन्हें पूरा नहीं करते. नेताओं की खिंचाई का सिलसिला तीन साल पहले लोकपाल आंदोलन के साथ शुरू हुआ. अन्ना का आंदोलन एक टर्निंग प्वाइंट था. 1968 से अब तक नौ बार लोकपाल का मामला लटक चुका है. पिछली बार भी सबने मिलकर इसे एक बार फिर से लटका दिया. वायदे करके जब काम नहीं होता तो उससे अविश्वास पैदा होता है. दूसरा है राजनीति में अपराधी. मैं कहूंगा कि अपराधियों का राजनीतिकरण हुआ है. राजनीति में बाहुबल और धनबल के जोर से लोग आ रहे हैं. ये दो मुख्य कारण हैं नेताओं की घटती विश्वसनीयता के. लेकिन हमें समझना होगा कि जैसे इंसान-इंसान में फर्क होता है उसी तरह से नेताओं में भी फर्क है. हर नेता चोर-बेईमान नहीं है. यह निर्णायक समय है. जनता को अब फैसला करना होगा कि किसकी राजनीति सही है. चुनाव के वक्त जो लोग जाति, धर्म और संप्रदाय के नाम पर वोट डालते हैं उन्हें यह कहने का हक नहीं है कि संसद में भ्रष्ट और अपराधी बैठे हैं. इन्हें आपने ही भेजा है. 

सच है कि अपराधियों का राजनीतिकरण हो रहा है. पर इसके लिए उन्हें टिकट देने वाली पार्टियां ही जिम्मेदार नहीं हैं? जब जनता के सामने विकल्प ही नहीं होगा तो वह क्या करेगी?

यह तो पार्टियों की मौकापरस्ती है. वे ऐसे लोगों को सिर्फ इसलिए टिकट दे देती हैं क्योंकि वे जीतने की गारंटी हैं. उस आदमी की योग्यता को नजरअंदाज कर दिया जाता है. राजनीतिक पार्टियों को इस मामले में बदलाव लाना चाहिए. 

हम देख रहे हैं कि आज हर महीने-दो महीने में जनता इंडिया गेट, राजपथ, जंतर-मंतर पर पहुंच जा रही है. वह अब आश्वासनों पर यकीन करने को तैयार नहीं है. तो क्या यह राजनेताओं के लिए अपने अंदर झांकने का और आत्ममंथन करने का समय है?  

बिल्कुल, नेताओं के लिए आत्ममंथन करने का समय है. लेकिन अगर नेता आपके बीच जाता है तो उसे भगा देना भी ठीक नहीं है. जनतांत्रिक व्यवस्था के तहत ही काम होगा. नेताओं के लिए आत्ममंथन करने का समय है उससे भी ज्यादा जरूरी है कि वे जो वादे करें उन्हें पूरा करें. आज जनता के मन में ये बात बैठ गई है कि साल दर साल नेता हमें सिर्फ वादे करके बेवकूफ बना रहे हैं. इससे नेताओं के खिलाफ एक किस्म की निराशा और मोहभंग का माहौल है जनता में. 

अगर मैं बिंदुवार पूछूं तो नेताओं और जनता को बदलाव के लिए क्या-क्या करना चाहिए ताकि दोनों का विश्वास बहाल हो?

नेताओं को करना यह है कि राजनीति का मतलब सिर्फ करियर बनाना नहीं है. यह सामाजिक परिवर्तन का हथियार है. बेहतरी के लिए इसका इस्तेमाल करना है. नेताओं को दोहरा रवैया नहीं अपनाना चाहिए. कथनी और करनी में भेद होगा तो आप जनता को गलत नहीं ठहरा सकते. और जनता को भी सोचना होगा कि वह अपना नेता चुनते समय सही और गलत का फैसला करे. सिर्फ नेताओं को कसूरवार ठहराकर आप अपनी जिम्मेदारी से बच नहीं सकते. दूसरा ये कि जनता चुनावी प्रक्रिया में शामिल हो. आप देखिए कि हमारा वोटिंग का पर्सेंटेज इतना कम होता है. आज की तारीख में कोई भी सरकार ऐसी नहीं बनती जिसके पास कुल वोटिंग का पचास फीसदी समर्थन हो. 

 

‘जननेता वाली इज्जत तो खत्म हो चुकी है. नेता डरने लगे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि वे कहीं जाएं और जनता उन्हें बेइज्जत कर दे, जैसा शीला दीक्षित के साथ हुआ. नेताओं के मन में जनता का सामना करने का विश्वास नहीं बचा है’

इस समय कोई बड़ी चुनौती जिसे आप देखते हैं..

 

जो चीज मुझे महत्वपूर्ण लग रही है वह दरअसल चुनौती नहीं एक सकारात्मक शुरुआत है. जनता आज चुपचाप नहीं बैठी है. जनता सवाल उठा रही है. जिन चीजों को लेकर जनता सड़कों पर उतर रही है, वे सवाल लंबे समय से लटके हुए थे. हमारे देश में पुलिस-जनता का अनुपात पूरी दुनिया में सबसे कम है. इसे कब सुधारेंगे. यही हाल न्यायपालिका का है. जजों की कमी है. बलात्कार के मामलों को ले लीजिए यहां सजा की दर है 26 प्रतिशत. चार में से तीन रिहा हो जाते हैं. तो डर किसी को रहा नहीं है. बेसिक जरूरतें सरकार पूरी नहीं कर पाई है. मेरे ख्याल से लोगों का गुस्सा पूरी तरह जायज है. 

हाल के समय में जनता का इतना व्यापक प्रतिरोध क्यों देखने को मिल रहा है. 

मौजूदा पीढ़ी बेहद जागरूक है, दुनिया के संपर्क में है. उसकी अपेक्षाएं बहुत बढ़ गई है, उसे अपने अधिकारों और ताकत का पता है. सोशल नेटवर्किंग, ब्लॉग, इंटरनेट के रूप में उसके पास इतने हथियार हैं कि एक पल में उसकी मुहिम दुनिया भर में फैल जाती है. एक या दो दशक पहले ऐसे हालात नहीं थे. हमारा राजनीतिक वर्ग इस बदलाव को समझने में नाकाम हो रहा है. उसे इस बात की आदत ही नहीं है कि कोई मुद्दा महीनों-महीनों तक मीडिया की सुर्खी बना रहता है. यहां हम सबको विचार करना होगा कि लोगों की अपेक्षाओं को कैसे पूरा करना है. यह सिर्फ रेडियो और अखबार पर निर्भर समाज नहीं है. यह वह दौर है जब चौबीसों घंटे सूचना लोगों को उपलब्ध है. 

नीतियों के चलते जो वर्ग भेद बढ़ रहा है उसे समझना होगा. नीतियां गलत हैं. एक चमकता भारत है, दूसरा तरसता भारत है. विकास का फायदा सबको मिल नहीं रहा है. बीस साल के अंदर अमीर-गरीब की खाई कितनी बढ़ी है इसका एक नमूना देखिए. इस देश में 52 खरबपति हैं. इन 52 लोगों के पास देश की जीडीपी का एक तिहाई हिस्सा संचित है. दूसरी तरफ 80 करोड़ लोग ऐसे हैं जो 20 रुपये प्रतिदिन पर गुजारा कर रहे हैं. नीतियां इन्हीं 52 लोगों के लिए बन रही हैं. अगर इस अंतर को पाटने का काम नहीं शुरू हुआ तो यह अराजकता आगे और बढ़ेगी. 

आज के नेता जनता से इतना कटे हुए क्यों हैं. हमने यह कमी दिल्ली रेप कांड के बाद बहुत शिद्दत से महसूस की.

सामंतवादी चेतना हमारी राजनीति में अभी भी कायम है. जो नए नेता आ रहे हैं वे या तो किसी के बेटे हैं या किसी के रिश्तेदार हैं. ज्यादातर लोगों का आंदोलन या संघर्ष का कोई इतिहास नहीं है. कइयों ने तो जमीनी स्तर पर कोई महत्वपूर्ण काम तक नहीं किया है. नेताओं की जो पैराशूट लैंडिंग हो रही है उसकी वजह से हम ये कटाव देख रहे हैं. पहले एक तरीका था छात्र राजनीति के जरिए राजनीति में आने का. परिवारवाद का असर बढ़ने और छात्रसंघों को खत्म करने के बाद से यह रास्ता भी बंद होता जा रहा है. छात्र राजनीति के जरिए आने वाले नेताओं को अपने देश समाज और स्थितियों का अंदाजा होता था. आज कोई अमेरिका से आ रहा है कोई ब्रिटेन से और सीधे मंत्री-सांसद बन जाता है. हमने बीस साल तक गोलघर (संसद भवन) से दूरी बनाए रखी ताकि पहले देश को समझा जा सके. आज लेफ्ट को छोड़कर देश की सभी पार्टियां परिवारवाद की चपेट में हैं. 

एक समाज के स्तर पर किस तरह की खामियां आप पाते हैं यहां ?

यह बात बहुत चिंता में डालती है. दिल्ली गैंगरेप के मामले को ही लें. लड़की के मित्र ने जो बात टीवी पर कही है वह कितनी शर्मनाक हैं? वे लोग दो घंटे तक सड़क पर पड़े रहे और किसी ने वहां रुककर उनके ऊपर कपड़ा डालने या अस्पताल ले जाने की कोशिश नहीं की. सैकड़ों लोग वहां से गुजरे होंगे. न जाने उनमें से कितने लोग बाद में इंडिया गेट पर प्रदर्शन भी करने पहुंचे होंगे. यह दोहरापन है हमारे समाज का. इससे गलत लोगों को अपने बचाव का तर्क मिल जाता है. यह पाखंड नेता या व्यक्ति दूर नहीं कर सकते. यह खुद के दूर करने से होगा. हां, राजनीतिक व्यवस्था इसके लिए एक माहौल बनाने का काम जरूर कर सकती है.

युवा नेताओं में कौन आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करता है…

मैं खुद संसद में हूं, इसलिए किसी एक व्यक्ति का नाम लेना ठीक नहीं रहेगा. पर अच्छे और युवा नेता हर पार्टी में हैं. मीडिया को भी ध्यान देना चाहिए कि वह सही लोगों को सामने लाए, उन्हें मौका दे. युवाओं के नाम पर एक बुरा चलन हमारे यहां है. जिन लोगों को युवा कहा जा रहा है उनमें से 90 फीसदी लोग किसी न किसी परिवार से आते हैं. यह लोकतंत्र के लिए बहुत घातक है.

अनाचार के आश्रम

छह साल पुराने दिनों को याद करके सुजाता (बदला हुआ नाम) आज भी सिहर उठती है. फिलहाल छत्तीसगढ़ में बालोद जिले के एक गांव में रह रही सुजाता तब सातवीं में पढ़ती थी और आमाडुला गांव के कमला नेहरू छात्रावास  में रहती थी.  वह बताती है,  ‘छोटू नाम का एक लड़का हमारी मैडम (छात्रावास अधीक्षिका) अनीता ठाकुर से मिलने के लिए अक्सर आया करता था. एक दिन जब वह छात्रावास में ही कुछ लोगों के साथ शराब पी रहा था तब मैडम ने मुझे उसके कमरे में धकेल दिया. और उसने मेरे साथ… मैंने विरोध किया तो मुझे धमकाया गया. उस दिन के बाद से मेरे साथ आए दिन जबरदस्ती की कोशिश होने लगी.’

सुजाता अकेली नहीं है और न ही ऐसी घटनाएं नई हैं. छत्तीसगढ़ के पिछले इलाकों की महिलाओं में शिक्षा का स्तर बढ़े, इस मकसद से खोले गए आदिम जाति कल्याण विभाग के छात्रावासों में से कइयों में ऐसी घटनाएं सामने आती रही हैं. आमाडुला के ही इस छात्रावास में दर्जनों लड़कियों के साथ ऐसी घटनाएं हुई हैं. लेकिन हैरानी की बात है कि उनमें उचित कार्रवाई नहीं हुई. उलटबांसी का आलम देखिए कि एक मामले में शिकायत के बाद छात्रावास की अधीक्षिका के खिलाफ कार्रवाई तो हुई नहीं, उल्टे कुछ समय बाद उसका प्रमोशन कर दिया गया. और तो और, मामला खुलने से एक दिन पहले खुद प्रदेश के मुख्यमंत्री रमन सिंह इस अधीक्षिका को एक सार्वजनिक समारोह में सम्मानित कर चुके थे. अब हाल में कांकेर जिले के झलियामारी गांव स्थित एक आश्रम में 12 बच्चियों के साथ दुष्कर्म का मामला राष्ट्रीय स्तर पर सुर्खियों में आने के बाद अब प्रशासन के स्तर पर फौरी हरकत तो दिख रही है मगर अतीत के उदाहरण बताते हैं कि यह किसी सार्थक परिणति तक शायद ही पहुंचे.  

आमाडुला का ही मामला लीजिए. छात्राओं के शोषण की जानकारी जब दबे-छिपे छात्रावास से बाहर जाने लगी तो छह साल पहले जांच पड़ताल भी हुई. लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकला. बालौद की तहसील डोंडी के पास एक गांव की यमुना (बदला हुआ नाम) बताती है,’ जांच टीम आती तो मैडम धमकी देते हुए कहती थीं कि किसी के सामने मुंह नहीं खोलना. जांच टीम के लोग रात भर छात्रावास में रुकते थे. पूरी रात मुर्गा-मटन और शराब का दौर चलता और फिर ये लोग भी लड़कियों के साथ छेड़छाड़ करते थे.’ इन घटनाओं के बाद सुजाता ने छात्रावास छोड़ दिया. उसकी पढ़ाई बंद हो गई. सुजाता आगे कहती है, ‘मुझे छात्रावास में हर समय यही लगता था कि न जाने कब मैडम का बुलावा आ जाए. मैं आज भी उन लोगों की धमकी और जोर-जबरदस्ती नहीं भुला पाती.’

सुजाता ने वर्ष 2006 में अपने परिजनों के साथ मिलकर दुर्ग (तब आमाडुला इसी जिले में पड़ता था) जिले के आईजी आरके विज के सामने अपने साथ हुए बलात्कार की जानकारी दी थी. इस मामले की जांच का जिम्मा महिला पुलिस अफसर निवेदिता पॉल को सौंपा गया. पॉल ने पीड़िता और उसके परिजनों का बयान भी दर्ज किया था लेकिन मामला आगे नहीं बढ़ पाया. हाल ही में जब 10 जनवरी, 2013 को सुजाता ने खुद उपस्थित होकर डौंडी थाने में अनीता ठाकुर के खिलाफ शिकायत दर्ज करवाई तब जाकर इस मामले में कार्रवाई हुई. अगले दिन ठाकुर को हिरासत में ले लिया गया.

30 जुलाई, 2012 को मुख्यमंत्री रमन सिंह के साथ ही आदिम जाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप को छात्राओं ने लिखित शिकायत भेजी थी पर कोई कार्रवाई नहीं हुई

छात्रावास की पूर्व छात्राएं बताती हैं कि अधीक्षिका  ने अफसरों और नेताओं को खुश करने के लिए वहां दो अन्य लड़कियों को भी पनाह दे रखी थी. गांववालों को जब इन लड़कियों और उनके साथ अक्सर छात्रावास में ही रहने वाले एक लड़के के बारे में पता चला तो उन्होंने अधीक्षिका का घेराव किया. लेकिन ठाकुर ने प्रभावशाली लोगों से अपने कथित संबंधों की धमकी देकर गांववालों को चुप करा दिया. ठाकुर पर कार्रवाई करने वाले डौंडी थाने में पदस्थ थाना प्रभारी कृष्ण कुमार कुशवाहा कहते हैं, ‘आमाडुला छात्रावास में अधीक्षिका की हैसियत से तैनात रही अनीता ठाकुर के संपर्क-संबंध काफी बड़े लोगों से तो थे ही. उन्हें हर दूसरे-तीसरे सप्ताह किसी न किसी संस्थान से सम्मानित किया जाता था. जब इस बात की खबर अखबारों में छपती थी तो लोग उनके रुतबे-रसूख का अंदाजा लगाकर डर जाते थे.’ इस मामले का एक हैरतअंगेज पक्ष यह भी है कि अधीक्षिका अनीता ठाकुर को छात्रावास के बेहतर ढंग से संचालन के लिए बाकायदा पद्दोन्नत करके नोडल अधिकारी भी बना दिया गया था. पिछले साल जब नवंबर, 2012 में बालोद में छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण के स्थापना समारोह आयोजित हुआ तो उसमें भी उन्हें सम्मानित किया गया था. सम्मान का यह सिलसिला 10 जनवरी, 2013 को भी देखने को मिला. इस दिन नए जिलों के गठन के मौके पर बालोद में सरकारी समारोह हुआ तो मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह ने अनीता ठाकुर को बेहतर ढंग से आश्रम के संचालन के लिए सर्वश्रेष्ठ अधीक्षिका का खिताब दिया.

इस मामले में सरकारी रुख का पता इस बात से भी चलता है कि छात्रावास की लगभग 26 छात्राओं ने भी अधीक्षिका द्वारा अनैतिक कार्य किए जाने के लिए बाध्य किए जाने की लिखित शिकायत 30 जुलाई, 2012 को मुख्यमंत्री डॉक्टर रमन सिंह के साथ ही आदिम जाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप को भेजी थी. लेकिन सरकार की तरफ से कभी विशेष जांच के आदेश नहीं दिए गए. प्रशासनिक और सरकारी स्तर की इसी तरह की उपेक्षा का नतीजा यह रहा कि इस मामले में पहली आधिकारिक सूचना मिलने के छह साल बाद कार्रवाई हो पाई. क्षेत्र में हल्बा-आदिवासी समाज से जुड़े एक सामाजिक कार्यकर्ता कुशल ठाकुर कहते हैं, ‘हमने छात्रावास में रहने वाली छात्राओं के परिजनों के सहयोग से यौन शोषण किए जाने की जानकारी शासन के सभी जिम्मेदार लोगों को दी थी, लेकिन अनीता ठाकुर के रसूख के चलते हमारी शिकायतों को रद्दी की टोकरी में डाला जाता रहा. इलाके के कलेक्टर, एसपी, सांसद समेत कई छोटे-बड़े नेताओं से नजदीकियां थीं. कभी कोई विरोध करता तो उसे गुंडे-मवालियों के जरिए धमकाया जाता था.’ कुशल कहते हैं कि यदि झलियामारी में बच्चियों के साथ दुष्कर्म की घटना उजागर नहीं होती तो पुलिस का टालमटोल रवैया कायम ही रहता.

कांकेर के सिविल सर्जन डीके तुर्रे तहलका को बताते हैं कि पहले पुलिस-कर्मियों की ओर से यह कहा गया था कि लगभग 44-45 बच्चियों का परीक्षण किया जाना है लेकिन जांच-पड़ताल के लिए केवल 15 बच्चियां लाई गईं. बाकी बच्चियों का परीक्षण क्यों नहीं किया गया, यह सवाल अब भी अनुत्तरित है

ठाकुर की गिरफ्तारी के बस कुछ दिन पहले ही कांकेर जिले में नरहरपुर विकासखंड के ग्राम झलियामारी आश्रम में 12 बच्चियों (पहली से पांचवीं कक्षा तक की छात्राएं) के साथ दुष्कर्म का मामला सामने आया था. यह मामला इस मायने में काफी गंभीर था कि यहां छोटी-छोटी लड़कियों के साथ दुराचार किया गया था. छत्तीसगढ़ की राजधानी रायपुर से लगभग 157 किलोमीटर दूर इस गांव के आश्रम में बच्चियों के साथ दुष्कर्म के घिनौने खेल की शुरूआत कब हुई इसकी जानकारी न तो बच्चियों को है न ही उनके परिजनों को. आश्रम में अधीक्षिका की हैसियत से भभीता मरकाम की तैनाती की गई थी, लेकिन वह बच्चियों के साथ रहने के बजाय अक्सर आश्रम से 80 किमी दूर भानुप्रतापपुर चली जाया करती थीं. अपनी गैर-मौजूदगी में उन्होंने शिक्षाकर्मी मन्नूराम गोटी, सागर कतलम और चौकीदार दीनानाथ को बच्चियों की देखरेख की जिम्मेदारी सौंप रखी थी.अधीक्षिका से मिली छूट के चलते शिक्षाकर्मी और चौकीदार रात में आश्रम के बरामदे में शराब पीते और फिर बच्चियों का यौन शोषण करते. ऐसी घिनौनी हरकतों से जब बच्चियां बीमार रहने लगीं तो देवगांव की एक बच्ची मंगलेश्वरी ( परिवर्तित नाम ) ने गांव के उपसरपंच सुकालुराम नेताम को सब कुछ बताया. अगस्त, 2012 में गांव में एक बैठक आयोजित की गई. इस बैठक में शिक्षाकर्मी मन्नूराम और चौकीदार दीनानाथ को पांच-पांच हजार रुपये और आश्रम अधीक्षिका भभीता मरकाम को तीन हजार रुपये का आर्थिक दंड पंचायत कोष में जमा करने के लिए कहा गया. लेकिन जब इस घटना की जानकारी लेने के लिए यहां मीडियाकर्मियों की आवाजाही बढ़ गई तो सुकालुराम को लगा कि उनकी पंचायत का फैसला गलत था.

इसके बाद उन्होंने एक लिखित शिकायत विकासखंड शिक्षा अधिकारी एमएस नवर्जी को सौंप दी. शिक्षा अधिकारी ने मामले की जांच का जिम्मा अपने एक सहयोगी जेके नायक को दिया.  नायक ने आश्रम की बच्चियों के बयानों को कलमबद्ध करने के बाद शिक्षा अधिकारी को इस बात से अवगत कराया कि दुष्कर्म की बात सही प्रतीत होती है. लेकिन इसके बाद भी शिक्षा अधिकारी ने चुप्पी साधे रखी. अभी हाल ही में तीन जनवरी, 2013 को जब एक मीडियाकर्मी ने कांकेर जिले की कलेक्टर अलरमेल मंगई से मामले की जानकारी चाही तो कलेक्टर ने आनन-फानन में महिला एवं बाल विकास अधिकारी शैल ठाकुर को जांच अधिकारी तैनात कर दिया.  इस जांच अधिकारी ने बच्चियों के बयान के आधार पर आश्रम अधीक्षिका, चौकीदार, शिक्षाकर्मी सहित कुछ अन्य लोगों पर कार्रवाई को जरूरी बताया. कलेक्टर के निर्देश के बाद महिला एवं बाल विकास अधिकारी शैल ठाकुर की ओर से दर्ज करवाई गई रिपोर्ट के आधार पर अब तक आश्रम अधीक्षिका भभीता मरकाम, शिक्षाकर्मी मन्नूराम, सागर कतलम, चौकीदार दीनानाथ, उपसरपंच सुकालुराम के अलावा बच्चियों को जुबान बंद रखने के लिए धमकाने वाले ग्रामीण लच्छूराम सलाम को गिरफ्तार करके जेल भेजा जा चुका है. मामले में चुप्पी साधने वाले विकासखंड शिक्षा अधिकारी की गिरफ्तारी को लेकर कुछ दिनों तक ऊहापोह की स्थिति कायम रही लेकिन कुछ दिन पहले एमएस नवर्जी और जेके नायक को भी पुलिस ने दोषी मानते हुए गिरफ्तार कर लिया है.

इस मुद्दे पर उठे शोर के बावजूद कोई खास उम्मीद नहीं जगती. जब हम आश्रम में पहुंचे तब हमें वहां 43 बच्चियों के अध्ययनरत रहने की बात प्रशासन की ओर से कही गई थी. इन बच्चियों में से महज 15 का ही डॉक्टरी परीक्षण किया गया है. सूत्र बताते हैं कि मामले के उजागर होने के बाद विभिन्न आयोगों के दौरे आदि से घबराई सरकार ने मामले को ठंडा करने के लिए जिला प्रशासन पर दबाव बनाया. कांकेर के सिविल सर्जन डीके तुर्रे बताते हैं कि जब वे बच्चियों के परीक्षण की तैयारियों में लगे थे तब अस्पताल आने वाले पुलिसकर्मियों की ओर से यह कहा गया था कि लगभग 44-45 बच्चियों का परीक्षण किया जाना है लेकिन जांच-पड़ताल के लिए केवल 15 बच्चियां लाई गईं. फिलहाल 15 में से 12 बच्चियों के यौन शोषण की बात प्रमाणित हुई है. सवाल यह है कि प्रशासन ने शेष 28 बच्चियों के परीक्षण की जरूरत क्यों नहीं समझी. कांकेर की कलेक्टर अलरमेल मंगई यह पूछने पर इतना ही कहती हैं कि वे फिलहाल कुछ भी बोलने की स्थिति में नहीं है.

राज्य के कन्या छात्रावासों और आश्रमों में यौन शोषण के ये सबसे बड़े मामले हैं जो राष्ट्रीय स्तर पर भी चर्चा में रहे. लेकिन छत्तीसगढ़ में पिछले सालों के दौरान ऐसे कई मामले सामने आए हैं. हर मामले में प्रशासन को कई महीने पहले इस बात की जानकारी मिल गई थी कि आश्रम में रहने वाली छात्राओं के साथ यौन उत्पीड़न घटनाएं हो रही हैं लेकिन इसके बाद भी कार्रवाई नहीं की गई या फिर जांच कभी पूरी नहीं हो पाई. उदाहरण के लिए, 2011 में बलरामपुर-रामानुजगंज जिले के विकासखंड रामचंद्रपुर कन्या छात्रावास में अध्ययनरत एक छात्रा को रामविचार सिंह नाम के एक युवक ने अपनी हवस का शिकार बनाया था. इस घटना की जानकारी छात्रावास में कार्यरत बहुत-से लोगों को थी, लेकिन छात्रा की बार-बार की गुहार के बावजूद युवक के खिलाफ किसी भी तरह की कोई शिकायत थाने में दर्ज नहीं की गई. 27 फरवरी, 2012 को जब छात्रा ने छात्रावास में ही एक बच्चे को जन्म दिया तब जाकर मामला थाने पहुंचा और युवक को गिरफ्तार जेल भेजा गया. कुछ इसी तरह का वाकया बैकुंठपुर जिले के एक आश्रम का भी है. पंडो-बैगा जनजाति समुदाय के लिए बनाए गए आश्रम में तैनात अधीक्षक केके कुर्रे के एक रिश्तेदार ने एक छात्रा के साथ बलात्कार करने की कोशिश की थी. छात्रा ने साहस दिखाते हुए मामले की शिकायत थाने में दर्ज करवाई, लेकिन पुलिस ने जांच करने में ही लगभग सात महीने लगा दिए. अभी कुछ दिन पहले जब जिला कलेक्टर अविनाश चंपावत ने आश्रमों की व्यवस्था के संबंध में आदिम जाति कल्याण विभाग के अफसरों को तलब किया तब उन्हें इस घटना के बारे में पता चला. इसके बाद अधीक्षक कुर्रे और उसके रिश्तेदार को हिरासत में लिया गया.

छत्तीसगढ़ में लगभग एक हजार छात्रावास या आश्रम बालिकाओं के लिए हैं. लेकिन इनमें से किसी की दशा ऐसी नहीं है जिसे देखकर यह कहा जा सकता हो कि वहां छात्राएं महफूज रह सकती हैं. तहलका को आमाडुला और झलियामारी गांव में मौजूद आश्रमों में बुनियादी सुविधाओं का जबरदस्त अभाव देखने को मिला था. झलियामारी आश्रम का आलम यह है कि बच्चियां जिन कमरों में विश्राम करती थीं वहां के गद्दे पुरानी चिंदियों से बने हुए थे और दरवाजों में कुंडियां तक नहीं थीं. आमाडुला आश्रम की छात्राओं को कहना था कि सफाई कर्मियों के होने के बावजूद उन्हें ही झाड़ू-पोंछा लगाना पड़ता है. झलियामारी आश्रम के कुल जमा तीन तंग कमरों में 43 बच्चियों को ठूंस-ठूंसकर रखा जाता था. इसके भीतर न तो शौचालय है न स्नानागार. बच्चियों को नित्यकर्म के अलावा स्नान आदि के लिए आश्रम से डेढ़ किलोमीटर दूर एक तालाब तक आना-जाना पड़ता था. फिलहाल इस आश्रम की सभी छात्राओं को पास के ही एक दूसरे गांव के आश्रम में भेज दिया गया है.

इन दोनों मामलों की अंतिम जांच का नतीजा अब चाहे जो भी हो लेकिन इससे राज्य के आदिवासी इलाकों के अभिभावकों को अपनी बेटियों की फिक्र हो गई है. तहलका ने जब देवरी, रिसेवाड़ा, साल्हेबाट गांव में कुछ पीड़ित बच्चियों के परिजनों से मुलाकात की तो सबने गुस्से में यही कहा कि वे अब अपनी बच्चियों को दोबारा आश्रमों में भेजना नहीं चाहते. संभव है पहले से महिला शिक्षा के क्षेत्र में पिछड़े इस राज्य में आने वाले दिनों में इस मोर्चे पर और गिरावट देखने को मिले.   

बातचीत: ‘सिस्टम में कमियां तो रहती ही हैं..’
छत्तीसगढ़ के आदिम जाति कल्याण मंत्री केदार कश्यप यौन शोषण की घटनाओं पर विपक्ष को राजनीति न करने की सलाह देते हुए यह मानते हैं कि छात्रावासों में सतत निरीक्षण की आवश्यकता है.

छात्रावासों में लगातार हो रहे यौन शोषण के खुलासों पर क्या कहेंगे?
कांकेर के झलियामारी और बालोद के आमाडुला की घटना समाज की बीमार मानसिकता का प्रतीक है.

लेकिन व्यभिचार तो हुआ है
हां, इस बात का अफसोस है कि विपक्ष इस संवेदनशील मामले पर भी राजनीति कर रहा है. उसे सुझाव देना चाहिए कि हम अपनी व्यवस्था को कैसे और किस ढंग से बेहतर कर सकते हैं.

क्या आपको नहीं लगता कि यदि आपके विभाग की व्यवस्था ठीक-ठाक होती तो इन घटनाओं को रोका जा सकता था?
अब हम इस बात की पूरी कोशिश करेंगे कि घटनाओं की पुनरावृत्ति न हो. समय-समय पर छात्राओं की सुध ली जाती रहेगी. अफसरों को इस बात के लिए निर्देशित किया जाता रहेगा कि वे आश्रमों और छात्रावासों का औचक निरीक्षण करें. आश्रमों में पुलिस की तैनाती भी की जाएगी.

लेकिन कांकेर के झलियामारी गांव में तो निरीक्षण करने वाले अफसरों की लापरवाही ही उजागर हुई है.
हां, यह सही है कि गांव के उपसरपंच सहित कुछ लोगों को मामले की जानकारी थी. बीईओ (विकासखंड शिक्षा अधिकारी) ने मामले की तहकीकात के लिए अपने एक सहयोगी को काम पर लगाया था. सहयोगी की रिपोर्ट मिल जाने के बाद भी शिक्षा अधिकारी ने चुप्पी साधे रखी थी.

क्या यह अपराध नहीं है?
बिल्कुल है.

चलिए, यह बताइए कि जब आमाडुला आश्रम की छात्राओं ने आपके पास शिकायत भेजी थी तो फिर आपने उनकी शिकायतों पर विचार क्यों नहीं किया?
मुझे कोई शिकायत नहीं मिली. मुझे इसकी जानकारी भी नहीं है.

आमाडुला की एक छात्रा ने अपने साथ हुए दुष्कर्म की शिकायत एक वरिष्ठ पुलिस अफसर से वर्ष 2006 में की थी. शिकायत की जांच हो जाने के बाद भी मामले को क्यों दबाकर रखा गया?
इन आरोपों में कोई सच्चाई है या नहीं, मैं इसका पता लगाऊंगा. जो भी दोषी होगा, उस पर कार्रवाई के लिए मुख्यमंत्री को लिखूंगा.

प्रदेश के तीन हजार छात्रावासों में से एक हजार छात्रावास बालिकाओं के लिए बनाए गए हैं, लेकिन इन छात्रावासों में कहीं शौचालय नहीं है तो कहीं पेयजल की समस्या मौजूद है.
हम लगातार कोशिश कर रहे हैं कि आश्रमों और छात्रावासों की दशा सुधरे.

क्या आपको नहीं लगता कि आपके महकमे की घटिया व्यवस्था भी एक तरह से आदिवासी बालिकाओं के साथ बुरा सलूक ही करती है?
सिस्टम में कमी तो रहती है. हम अपनी कमियों को जल्द ही दूर कर लेंगे.

‘राजनीति में आकर भी अगर हम नौकरी बजाएं तो इसका कोई लाभ नहीं है’

बिहार की आईएएस बिरादरी में एक किस्सा सुनने को मिलता है. साठ के दशक की बात है. यशवंत सिन्हा प्रशासनिक सेवा में नए-नए भर्ती हुए थे. राजधानी पटना में उनकी बिहार के तत्कालीन मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा के साथ बैठक में किसी बात को लेकर कहासुनी हो गई. यशवंत सिन्हा ने मुख्यमंत्री महोदय को टका सा जवाब दिया, ‘आप चाहकर भी कभी आईएएस नहीं बन सकते, मैं मुख्यमंत्री जरूर बन सकता हूं.’ सिन्हा का प्रतिरोधी व्यक्तित्व आज भी कायम है. झारखंड में राज्यसभा के टिकटों के बंटवारे का विरोध हो या हाल ही में पार्टी के पूर्व अध्यक्ष नितिन गडकरी के खिलाफ चुनाव लड़ने का फैसला, जिसके चलते राजनाथ सिंह की अध्यक्ष पद पर नियुक्ति हुई. जब नेता पार्टीलाइन के दाएं-बाएं जाने से भी कतराते हैं तब इस तरह का गुण उन्हें भीड़ से अलग खड़ा करता है. एनडीए के शासनकाल में वित्तमंत्री के तौर पर उन्होंने अपनी छाप छोड़ी थी. अगर जीडीपी का प्रतिशत किसी नेता की सफलता का पैमाना है तो सिन्हा सफलतम हैं. एनडीए के पूरे शासनकाल में विकास की रफ्तार आठ प्रतिशत के आस-पास बनी रही. विपक्ष में रहते हुए उन्होंने कई मौकों पर जिस तरह से मौजूदा केंद्र सरकार को संसद भवन में कटघरे में खड़ा किया है वह उन्हें उन राजनेताओं की कतार में शामिल करने के लिए पर्याप्त है जिनसे यह देश उम्मीदें बांध सकता है. भारतीय जनता पार्टी के 76 वर्षीय वरिष्ठ नेता और पूर्व केंद्रिय मंत्री यशवंत सिन्हा से अतुल चौरसिया की बातचीत

राजनेताओं की विश्वसनीयता इतनी नीचे क्यों गिर गई है?

इसकी कई वजहें हैं. अगर आप देश के राजनीतिक इतिहास को देखें तो आजादी के बाद जिन लोगों ने राजनीति की कमान संभाली थी वे सिर्फ देश की सेवा के लिए राजनीति में आए थे. उन्हें सत्ता का लोभ नहीं था, वे तपे-तपाए, विद्वान लोग थे. हम सब उनके सामने बहुत तुच्छ हैं. इसके बाद जो पीढ़ी आई उसमें सत्ता से फायदा लेते हुए देश का भला करने की मानसिकता थी. नेताओं के बेटे बेटियां भी राजनीति में आने लगे. इन्हें सत्ता के फायदे का अंदाजा हो गया था. उन्हें सत्ता में बने रहना जरूरी लगने लगा. इसके लिए वे तमाम गलत तरीके भी अपनाने लगे. पैसे और बाहुबल का असर तेजी से इस दौरान चुनावों में बढ़ा. अब  हम तीसरे चरण में हैं जहां राजनीति सिर्फ व्यक्तिगत स्वार्थों की पूर्ति और सत्ता के लालच में करने वालों के लिए रह गई है. पहले राजनीति पथभ्रष्ट हुई, उसके बाद वह भ्रष्ट हुई और अब इसका अपराधीकरण हो गया है.

हम देख रहे हैं कि आज हर महीने-दो महीने में जनता इंडिया गेट, राजपथ, जंतर-मंतर पर पहुंच जा रही है. वह अब आश्वासनों पर यकीन करने को तैयार नहीं है. तो क्या यह राजनेताओं के लिए अपने अंदर झांकने का और आत्ममंथन करने का समय है? 
राजनीति को लेकर जो अविश्वास है उसकी वजह से युवा राजनीति की तरफ नहीं आ रहे हैं. परिवार और खानदान के दम पर ज्यादा लोग राजनीति में आ रहे हैं, इसलिए जनता से एक कटाव हो सकता है. लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है. मेरा मानना है कि 35 से 50 वर्ष के बीच दूसरे क्षेत्रों के लोग अगर राजनीति में आए तो उनका अनुभव देश के भी काम आएगा और उनके भी काम आएगा राजनीति में. कहने का मतलब कि सिर्फ परिवार के आधार पर राजनीति में एंट्री नहीं होनी चाहिए. जो भी नए चेहरे आ रहे हैं वे सब परिवार के हैं. यह गलत है. वे संघर्ष करके नहीं आ रहे हैं. मैं अपना उदाहरण दूं कि जब मैं कलेक्टर था तो सारे नीचे के अधिकारी सम्मान करते थे और जब मैंने आईएएस छोड़कर राजनीति करना शुरू किया तो उन्हीं अधिकारियों के सामने जाकर गिड़गिड़ाना पड़ता था. तो इन चीजों से एक सीख मिलती है, अपनी मानसिकता में उस तरह का बदलाव करना पड़ता है. देश-समाज और भाषा को समझने में आसानी होती है.

अगर मैं बिंदुवार पूछूं तो नेताओं और जनता को बदलाव के लिए क्या-क्या करना चाहिए ताकि दोनों का विश्वास बहाल हो?
नेताओं की तरफ से पहला कदम चुनाव प्रणाली में सुधार के लिए उठाना होगा. इसकी पहली कड़ी है पॉलिटिकल फंडिंग में पारदर्शिता. हमारे यहां राजनीतिक पार्टियों को जो चंदा मिलता है उसमें पारदर्शिता नहीं है. अगर यह पारदर्शी हो गया तो भ्रष्टाचार का आरोप नहीं लगेगा. हमें एक लाइन खींचनी पड़ेगी. चुनाव जीतने के लिए सिर्फ पैसा ही आज पैमाना बन गया है. इससे भ्रष्टाचार बढ़ रहा है. चुनाव आयोग इसकी भी सीमा तय करे और उसका कड़ाई से पालन करवाए. टीएन शेषन जब चुनाव आयुक्त थे तब उन्होंने इस दिशा में बहुत अच्छी पहल की थी. यहां से शुरुआत करके हम धनबल पर भी अंकुश लगा सकते हैं. साथ ही हमें चुनाव जीतने के लिए असामाजिक तत्वों का सहारा नहीं लेना है, शराब और मुर्गा वोट पाने के लिए नहीं बंटवाना है. इन सुधारों से राजनेताओं को बहुत सहूलियत होगी और उनकी छवि भी सुधरेगी. आज जो हम सुनते हैं कि लोग 25 से 50 करोड़ रुपया लगाते हैं चुनाव जीतने के लिए. हमारे जैसे लोगों को यह बड़ी अजीब बात लगती है. 2009 के लोकसभा चुनाव अभियान के दौरान मेरे सामने अजीब हालात पैदा हो गए. एक महिला ने वोट के बदले में पैसा मांग लिया. मैंने कहा पैसा तो नहीं दूंगा तो उसका जवाब था कि तब वोट भी नहीं मिलेगा.

हाल के समय में जनता का इतना व्यापक प्रतिरोध क्यों देखने को मिल रहा है.
जनता का विश्वास उठ गया है. उन्हें लगता है कि डायरेक्ट एक्शन ही एकमात्र तरीका है अपना काम करवाने का. पिछले हफ्ते मैं रांची जा रहा था. धुंध की वजह से हमारा जहाज रांची नहीं उतर सका. हमें कोलकाता ले जाया गया. अब सारे यात्री प्लेन के क्रू पर टूट पड़े कि हम अपने घर कैसे जाएंगे. जबकि उन्हें पता था कि एयर होस्टेस इस मामले में कुछ नहीं कर सकती है. पर जनता के मन में ये बात घर कर गई है कि हर चीज लड़कर ही मिल सकती है. बाद में लोग हमारे पास आ गए कि आप रास्ता निकालिए. हमने प्लेन के अधिकारियों से बात करके यात्रियों को बस से उनके गंतव्य तक पहुंचाने का रास्ता निकाला. इससे मैंने भी यह सीख ली कि अगर आप उस स्थिति में है तो जनता भले ही निराश है लेकिन फिर भी वह उम्मीद करती हंै कि नेता हमारी समस्या का समाधान करेगा. हमें इस उम्मीद को मजबूत करना है. यह अलग समय है. लोगों के पास सूचना का भंडार है. वे देख रहे हैं कि उसकी जरूरतें पूरी हो नहीं रही हैं. इसलिए जनता और नेता के बीच ये टकराव देखने को मिल रहा है. लेकिन यह बात सभी नेताओं पर लागू नहीं होती. 

आज के नेता जनता से इतना कटे हुए क्यों हैं. हमने यह कमी दिल्ली रेप कांड के बाद बहुत शिद्दत से महसूस की.
मास लीडर वाली इज्जत तो समाप्त हो गई है. महात्मा गांधी, नेहरू या पटेलजी गए होते तो जनता उनकी बात मान लेती पर आज वह विश्वास खत्म हो गया है. आज नेता भी डरने लगे हैं कि कहीं ऐसा न हो कि हम जाएं और वे हमें बेइज्जत कर दें, जैसा शीला दीक्षित के साथ हुआ. राजनेताओं के मन में वह आत्मविश्वास बचा नहीं है. जनता का सामना करने की क्षमता कम हो गई है. एक समस्या ये है कि लोग भी ये घोषित कर देते हैं कि किसी आयोजन में कोई नेता हिस्सा नहीं लेगा. जैसा कि हमने अन्ना के आंदोलन में देखा. इससे नेता डरने लगता है कि कहीं हमारा मजाक न उड़ जाए. यह कहना सही नहीं होगा कि नेता जनता से कट गए हैं. आखिर चुनाव के समय उन्हें उनके पास जाना ही होगा.

युवा नेताओं में कौन आपको सबसे ज्यादा प्रभावित करता है…

बहुत-से युवा नेता हैं जो आगे अच्छा कर सकते हैं. हालांकि उनमें से कई लोग परिवार की बदौलत ही राजनीति में आए हैं लेकिन यह महत्वपूर्ण नहीं है, अगर वे चुनाव लड़कर राजनीति में आए हैं तो ठीक है. कई लोग कांग्रेस सरकार में मंत्री हैं. कांग्रेस में ऐसे कई लोग हैं जो आज मंत्री हैं और ठीक काम कर रहे हैं. हमारे यहां शाहनवाज है जिनकी कोई राजनीतिक पृष्ठभूमि नहीं है, अनुराग ठाकुर हैं जो हिमाचल प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री के पुत्र हैं, उदय सिंह हैं जो पुनिया के सांसद हैं. ये लोग काफी प्रतिभावान हैं, निशिकांत दुबे हैं.

पार्टीलाइन से अलग हटना या स्वतंत्र सोच रखना किसी नेता के लिए कितना जरूरी है?
यह बहुत ही महत्वपूर्ण है. जहां भी मैं रहा हूं वहां मैंने सही बात पर खड़े होने की कोशिश की है. चाहे वो मेरा सिविल सर्विस का समय रहा हो या आज राजनीति में. मुझे लगा कि राज्यसभा सीट के बंटवारे में पारदर्शिता नहीं है तो मैंने पार्टी में विरोध किया. इसी तरह मैंने अपने अध्यक्ष जी के ऊपर भ्रष्टाचार के आरोप पर भी एक स्टैंड लिया था. सन 1965 में बिहार के मुख्यमंत्री महामाया प्रसाद सिन्हा से मैंने कहा था कि आप कभी आईएएस नहीं बन सकते लेकिन मैं मुख्यमंत्री बन सकता हूं. यह बिहार के आईएएस सर्किल में दंतकथा बन गई है. मैंने उसकी कीमत भी चुकाई. लेकिन अपनी बात बेबाकी से रखना एक नेता के लिए बहुत जरूरी है. यहां आकर भी अगर हम किसी की नौकरी ही कर रहे हैं तो क्या फायदा. स्वतंत्र रूप से, स्वतंत्र मस्तिष्क से काम करना नेताओं के लिए जरूरी है. आज ज्यादातर पार्टियों में इस तरह की सहनशीलता नहीं बची है. पर इस तरह की संस्कृति बढ़नी चाहिए राजनीतिक दलों में.

क्या राजनेता मौजूदा आईटी एजुकेटेड पीढ़ी से तालमेल नहीं बिठा पा रहे हैं?
यह सिर्फ इंटरनेट या फेसबुक इस्तेमाल करने वालों के साथ नहीं है. हमारा निर्वाचन क्षेत्र पिछड़ा इलाका है लेकिन वहां भी लोग उतने ही जागरूक और ताकतवर हुए हैं. पुरुषों से कहीं ज्यादा हिम्मत वहां महिलाएं दिखाती हैं. वे हमसे सीधे पूछ लेती हैं कि आपने फलां काम क्यों नहीं करवाया, हमें जवाब देना पड़ता है. वे डांट देती हैं. जागृति वहां भी आई है. यह जागृति सिर्फ आईटी एजुकेटेड वर्ग तक सीमित नहीं है.

खेवनहार जयराम!

जयराम रमेश,

उम्र-59,

केंद्रीय ग्रामीण विकास मंत्री

जयराम रमेश अपनी पार्टी और सरकार के खेवनहार हैं. जब लोकलुभावन और जनहितकारी योजनाओं से जुड़े मंत्रालयों की बात आती है तब सरकार पहले उन्हें याद करती है. यूपीए-दो इसी रणनीति के तहत उन्हें उत्तर प्रदेश के विधानसभा चुनावों से पहले ग्रामीण विकास मंत्रालय में ले आया था, ताकि भूमि अधिग्रहण का नया कानून जल्द से जल्द लागू किया जाए. इससे पहले पर्यावरण एवं वन मंत्रालय में अपने प्रवास के दौरान रमेश सर्वव्यापी हो गए थे. कानकुन, लवासा, उड़ीसा, ब्रह्मपुत्र की घाटी से लेकर हिमालय के ग्लेशियर तक जयराममय हो गए थे. स्वतंत्र प्रभार और दो साल की अल्पावधि में ही उन्होंने पर्यावरण भवन की धमक चहुंओर स्थापित कर दी थी. उनके कार्यकाल के दौरान अचानक से ही पर्यावरण उदारीकृत भारत में सबसे अहम मसला बन गया था. गोवा में उन्होंने अवैध खनन परियोजनाओं पर नकेल कसी जबकि वहां उनकी अपनी पार्टी की सरकार थी.

रमेश ने उत्तराखंड में गंगा पर बन रहे विनाशकारी बांधों के निर्माण पर रोक लगाई और वेदांता जैसी विशाल कंपनी को कारण बताओ नोटिस भेज दिया. उनकी अतिसक्रियता ने उन्हें विपक्ष से लेकर खुद की पार्टी और औद्योगिक घरानों की आंख की किरकिरी बना दिया. लेकिन मुंबई आईआईटी का यह इंजीनियर डिगा नहीं. नतीजे में उन्हें तमाम परियोजनाओं से हुए विस्थापितों का जबरदस्त प्यार भी मिला. अपने छोटे-से कार्यकाल में उन्होंने पर्यावरण और वन मंत्रालय में पारदर्शिता लाने की पहल की.

पश्चिमी घाट में औद्योगिक इकाइयां स्थापित करने का मसला रहा या फिर बीटी बैंगन से जुड़ा विवाद इन सबके समाधान के लिए उन्होंने सामुदायिक राय-मशवरे की परंपरा की नींव डाली. कानकुन में हुए पर्यावरण सम्मेलन में उन्होंने आगे बढ़कर जिस तरह से विकसित और विकासशील देशों के बीच की खाई को पाटने की सकारात्मक कोशिशें कीं उसकी तारीफ पूरी दुनिया में हुई. एक छोटा-सा आंकड़ा उनकी सक्रियता की बानगी पेश करता है. पर्यावरण और वन मंत्रालय में उनके पूर्ववर्तियों ने अब तक जितने नोटिस औद्योगिक घरानों को नहीं भेजे थे उससे कहीं ज्यादा नोटिस रमेश ने अकेले साल 2010 में औद्योगिक घरानों को भेज दिए थे.

उनकी खरी वाक्पटुता अक्सर विवादों को जन्म देती रही है. ग्रामीण विकास मंत्रालय में आने के बाद उनका सबसे चर्चित बयान था, ‘इस देश को मंदिरों से ज्यादा शौचालयों की जरूरत है.’ उनकी सक्रियता का ही परिणाम है कि योजना आयोग ने स्वच्छता के मद में इस साल 36,000 करोड़ रुपये आवंटित किए हैं. इतनी बड़ी राशि पहली बार आवंटित हुई है. उनकी खेवनहार वाली प्रतिभा का ही कमाल था कि 2011 में जब मंत्रिमंडल का फेरबदल हुआ तब उन्हें ग्रामीण विकास के साथ पेयजल और स्वच्छता मंत्रालय का अतिरिक्त प्रभार भी दिया गया. ऐसा इसलिए हुआ कि गुरुदास कामत को यह मंत्रालय अपने ‘कद’ के अनुरूप नहीं लगा था. हालांकि ग्रामीण विकास मंत्रालय में उनका सबसे महत्वपूर्ण काम यानी भूमि अधिग्रहण अधिनियम पारित होना अभी बाकी है.

-अतुल चौरसिया

राजनीति का अजातशत्रु!

शिवराज सिंह चौहान

उम्र-54,

मुख्यमंत्री, मध्य प्रदेश

2010 की बात है. मध्य प्रदेश में कांग्रेस की वरिष्ठ नेता और नेता प्रतिपक्ष जमुना देवी की मृत्यु के बाद भोपाल स्थित कांग्रेस भवन में प्रार्थना सभा का आयोजन था. अचानक मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान वहां पहुंच गए. कांग्रेसियों के आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा. इसलिए कि भाजपा के किसी नेता के कांग्रेस मुख्यालय आने की यह पहली घटना थी और इसलिए भी कि चौहान बिना बुलाए ही वहां पहुंच गए थे. और तो और तब तक कांग्रेस का भी कोई वरिष्ठ नेता वहां नहीं पहुंचा था.

अब इसे एक परिपक्व राजनेता का गुण कहें या संवेदनशीलता या फिर मैदान मार लेने की कला, विरोधियों को भी अपना बना लेने का शिवराज सिंह चौहान का यही गुण उन्हें पांत से अलग खड़ा करता है. यहां तक कि जिन उमा भारती के निशाने पर वे कई बार रहे उनके खिलाफ भी शायद ही उन्होंने सार्वजनिक तौर पर कोई टिप्पणी की हो. उत्तर प्रदेश विधानसभा चुनावों के दौरान उमा भारती के लिए चुनाव प्रचार करने वे चरखारी भी गए.

मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री के तौर पर शिवराज पिछले सात साल से काबिज हैं. शासन और व्यक्तित्व की तमाम सीमाओं के बाद भी इस अवधि के दौरान वे ऐसे राजनेता के रूप में उभरे हैं जो उम्मीद जगाता है. जानकार मानते हैं कि विकास और सुशासन के फ्रंट पर तमाम सीमाओं के बाद भी अपने राजनीतिक संवाद के कौशल तथा व्यक्तित्व की सादगी से शिवराज ने राज्य की आम जनता से एक बेहद आत्मीय संबंध स्थापित कर लिया है. जानकारों के मुताबिक उनकी जो विशेषता उन्हें अपनी पार्टी के दूसरे मुख्यमंत्रियों और नेताओं से बहुत आगे लाकर खड़ा करती है, वह है अल्पसंख्यकों के प्रति उनका नजरिया. भले ही मध्य प्रदेश की राजनीति में अल्पसंख्यकों का राजनीतिक प्रभाव बेहद कम हो उसके बावजूद शिवराज ने कभी उनको हाशिये पर नहीं रखा.

जहां एक तरफ मोदी खुलेआम कहते दिखाई दिए कि उन्हें अल्पसंख्यकों के वोट की जरूरत नहीं है वहीं शिवराज जिनके मानसिक कल-पुर्जों का निर्माण भी मोदी की तरह संघ की वैचारिक फैक्टरी में ही हुआ है, इस मामले में एक नई लकीर खींचते हुए दिखाई देते हैं. वरिष्ठ राजनीतिक विश्लेषक रशीद किदवई कहते हैं, ‘शिवराज सिंह ने राज्य में फिरकापरस्ती को बढ़ावा नहीं दिया. भले ही प्रदेश में सुशासन नहीं आया हो लेकिन दंगे और दबंगई भी नहीं होने दी. जैसे पहले इंदौर में खूब दंगे हुआ करते थे लेकिन शिवराज सिंह के कार्यकाल में उन पर रोक लगी.’ क्रिसमस के अवसर पर शिवराज ईसाई समाज को अपने आवास पर दावत देते हैं. हर साल जब मुसलमान हज के लिए जाते हैं तो वे यात्रियों को एयरपोर्ट छोड़ने जाते हैं. 

राजनीतिक विश्लेषक गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘यह बिल्कुल संभव है कि 2014 का चुनाव वे ही लीड करें. उनकी स्वीकार्यता है. आरएसएस का होकर भी उनमें कट्टरता नहीं है. आज बीजेपी को ऐसे ही नेता की जरूरत है.’ रशीद भी इस बात से इत्तेफाक रखते हैं कि अगर 2013 में बीजेपी ने विधानसभा चुनाव जीतने की हैट्रिक पूरी कर ली, जिसकी पूरी संभावना नजर आ रही है तो फिर ऐसी स्थिति में शिवराज भी पीएम के दावेदारों में होंगे. 

गिरिजाशंकर बताते हैं कि राज्य सरकार की तमाम योजनाओं में राज्य में रहने वाले सभी वर्गों को शिवराज ने बेहतर तरीके से शामिल किया है. विशेष रूप से महिलाओं और अल्पसंख्यकों को. रशीद की मानें तो शिवराज ने कभी भेदभाव की राजनीति नहीं की. यही कारण है कि वे एक उम्मीद पैदा करते हैं.  पार्टी के एक नेता कहते हैं, ‘भले ही शिवराज 3डी में नहीं दिखें लेकिन जब आप धरातल पर देखेंगे तो वे सबसे आगे आपको दिखेंगे.’ गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘शिवराज की एक और विशेषता है कि वे टकराव की राजनीति से हमेशा दूर रहते हैं. इस कारण से राज्य में सकारात्मक राजनीतिक माहौल नजर आता है.’

जानकार बताते हैं कि एक तरफ जहां शिवराज की अपनी पार्टी में स्वीकार्यता है वहीं दूसरी तरफ विपक्ष भी उन्हें एक भले व्यक्ति के तौर पर देखता है. स्थिति यह है कि विपक्ष भले गाहे बगाहे राज्य सरकार को कटघरे में खड़ा करता रहता हो लेकिन उसके निशाने पर मुख्यमंत्री शायद ही कभी होते हैं. शिवराज के सकारात्मक पहलुओं की जब बात होती है तो उसमें इस बात को भी शामिल किया जाता है कि वे उन गिने-चुने मुख्यमंत्रियों में से हैं जिनका अपने प्रदेश की आम जनता से एक बेहद भावनात्मक संबंध है. गिरिजाशंकर कहते हैं, ‘शिवराज फाइव स्टार संस्कृति से दूर रहते हैं. उनकी दुनिया चमक-धमक की दुनिया नहीं है. राज्य की नब्ज पर शिवराज की मजबूत पकड़ है. प्रदेश का शायद ही कोई गांव बचा हो जहां शिवराज नहीं गए हों.’

किदवई बताते हैं, ‘खुद को लड़कियों का मामा कहने और लाडली लक्ष्मी योजना तथा कन्यादान जैसी योजनाएं शुरू करने तथा महिलाओं के खिलाफ अपराध के दोषी लोगों को ड्राइविंग लाइसेंस और पासपोर्ट नहीं मिलेगा, जैसी घोषणाओं के चलते शिवराज राज्य की आधी आबादी की नजरों में भी काफी ऊपर आ गए हैं.’ उनकी सरकार की कई योजनाओं से प्रभावित होकर दूसरे राज्यों ने वैसी योजनाएं अपने यहां भी लागू की हैं.  

-बृजेश सिंह 

सुशासन बाबू!

नीतीश कुमार

उम्र-62,

मुख्यमंत्री, बिहार

वे सात जनवरी को बौद्ध धर्मगुरु दलाईलामा के साथ अंतरराष्ट्रीय बौद्ध समागम में घंटों बैठे रहते हैं तो दूसरे दिन मॉरीशस के राष्ट्रपति राजकेश्वर परयाग के साथ पटना से 25 किलोमीटर दूर पुनपुन के पास बाजितपुर गांव में भी उसी शिद्दत से कई घंटे गुजारते हैं. और फिर अगले दिन इन नामचीन लोगों की दुनिया से निकलकर अपने सरकारी आवास एक अणे मार्ग के पिछवाड़े कड़कड़ाती ठंड में जनता दरबार में भी घंटों हाजिर रहते हैं. लॉर्ड मेघनाथ देसाई, अमर्त्य सेन जैसे अंतरराष्ट्रीय स्तर के बौद्धिक लोग उनके बुलावे पर बार-बार बिहार आना चाहते हैं. उनके राज में भारत के पूर्व राष्ट्रपति एपीजे अब्दुल कलाम की उपस्थिति बिहार में ऐसी रही है जैसे वे बिहार के ही बाशिंदे रहे हों. आंकड़ों का गुणा-गणित चाहे जितना भ्रम पैदा करे, विरोधी उसकी काट भी निकाल लें लेकिन वे इस बात को नहीं झुठला पाते कि बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने खूंखारपन, अराजकता और रंगदारी के पर्याय बने बिहार को उस अंधेरे से निकालकर कम से कम उस मुकाम पर जरूर पहुंचा दिया है जहां राजनीति विकास के इर्द-गिर्द घूमने लगी है. और असंतोष दिखता है तो इसके लिए नहीं कि कुछ नहीं हुआ बल्कि इस बात पर कि ‘इतना ही क्यों’, ‘ऐसा क्यों’, ‘और क्यों नहीं’!

आने वाले एक मार्च को नीतीश कुमार उम्र के 63वें साल में प्रवेश कर जाएंगे. अगर वे इंजीनियरिंग की पढ़ाई के बाद कहीं नौकरी कर रहे होते तो दो साल पहले ही रिटायर हो जाते, लेकिन राजनीति में उनकी चुस्ती, चाल और चतुराई उन्हें उन नेताओं की कतार में खड़ा करती है जो इस उम्र में एक और पारी खेलने के लिए खुद को तैयार कर रहे हैं. 1985 में पहली बार विधायक और 2000 में पहली बार सात दिन के लिए मुख्यमंत्री बनने के बाद केंद्र की राजनीति में पांच सालों तक रहने वाले नीतीश पिछले सात साल से अधिक समय से बिहार की कमान संभाल रहे हैं. बेशक उनके इस कार्यकाल के दौरान कई अनियमितताओं और घपलों की भी खबरें आती रहीं लेकिन इन सात साल में ही बिहार में कुछ ऐसा भी हुआ जिससे बिहार देश भर में किसी न किसी बहाने सकारात्मक रूप से चर्चा में बना रहा और नीतीश उसके केंद्रबिंदु . चाहे वह पंचायत चुनावों में महिलाओं को आरक्षण देने की बात हो या भ्रष्टाचारी अधिकारियों की संपत्ति जब्त करने की कार्रवाई, उनके कई कदमों को एक आदर्श की तरह देखा गया. 

वरिष्ठ पत्रकार हरिवंश कहते हैं, ‘आलोचक नीतीश की लाख आलोचना कर लें लेकिन यह तो सब देख रहे हैं कि हालिया वर्षों में बिहार में वे इकलौते नेता हुए जिन्होंने राजनीति को परिवार की सुख-समृद्धि का साधन नहीं बनाया और उसे गैंग-गिरोह की परिधि से बाहर निकाला.’ यह सही भी है. नीतीश कुमार के बड़े भाई सतीश कुमार और नीतीश के बेटे निशांत राजनीति से दूर ही रहते हैं. उनके गांव कल्याण बिगहा, बख्तियारपुर में भी जाने पर यह गर्व का भाव तो जरूर दिखता है कि उनके गांव से ही बिहार के मुखिया हैं लेकिन इस बिना पर वहां दलालों-नेताओं की फौज तैयार नहीं होती.

राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘हर राजनेता अपने हिसाब से राजनीति तो करता ही है, लेकिन नीतीश को इसलिए अलग पंक्ति का नेता माना जाना चाहिए क्योंकि उन्होंने सामाजिक न्याय की राजनीति वाली पाठशाला से प्रशिक्षण लेने के बाद उसमें विकास और गवर्नेंस को जोड़ा और सिर्फ बिहार नहीं बल्कि पूरे उत्तर भारत में सामाजिक न्याय के साथ विकास का एक नया राजनीतिक जुमला दिया. इस लिहाज से वे लालू प्रसाद, मुलायम सिंह, मायावती जैसे दिग्गज नेताओं से भी आगे खड़े नजर आते हैं.’ एशियन डेवलपमेंट रिसर्च इंस्टीट्यूट के सदस्य सचिव शैबाल गुप्ता कहते हैं, ‘बिहार में शासनतंत्र स्थापित करना, बिहारी अस्मिता को जगाना महज बिहार का मामला हो सकता है लेकिन बिहार समेत तमाम पिछड़े और अविकसित राज्यों के मसले को राष्ट्रीय एजेंडा बनाना उन्हें देश का एक महत्वपूर्ण नेता बनाता है.’

हालांकि आलोचकों के पास इन सभी बातों के जवाब हैं, लेकिन जब सभी सवालों के बाद उनसे पूछा जाता है कि नीतीश नहीं तो फिलहाल कौन है विकल्प, तो वे तुरंत कोई जवाब नहीं दे पाते. शायद यह भी एक बड़ी बात है कि उनके व्यक्तित्व और नेतृत्व के सामने बिहार को तुरंत कोई विकल्प नहीं दिखता.

-निराला