वे अवधारणाएं जिन्हें इस्लामी मानना सही नहीं है

निंदक या आलोचक को नुकसान पहुंचाने की प्रवृत्ति
मनुष्य का स्वभाव रहा है कि वह अपनी सामाजिक, राजनीतिक या धार्मिक अस्मिता की रक्षा के प्रति हमेशा सजग रहता है. कभी-कभी रक्षा की यह भावना संयम की मर्यादा को लांघ देती है. 80 के दशक में ईसा के जीवन पर बनी फिल्म द लास्ट टेंपटेशन ऑफ क्राइस्ट (ईसा मसीह की अंतिम लालसाएं) को लेकर इटली में ईसाई लोगों ने भारी प्रदर्शन किए. इनमें हिंसा भी हुई. इसी दौरान सलमान रश्दी की इस्लाम पर एक किताब आई ‘शैतानी आयतें’. जिस पर इतना बवाल मचा कि ईरान के धार्मिक नेता आयतुल्लाह खुमैनी ने रश्दी के खिलाफ मौत का फतवा दे दिया. ऐसा ही एक और प्रसंग इस्लाम के पैगंबर मोहम्मद साहब के कार्टून बनाने का है. सही है कि इस्लाम के अनुयायियों को ऐसी हरकतें आहत करती हैं. लेकिन इन पर कोई हिंसात्मक प्रतिक्रिया देने से पहले क्या यह सही नहीं होगा कि कुरान और इस्लाम के पैगंबर की नसीहतों पर थोड़ा ध्यान दिया जाए.
हजरत मोहम्मद के जीवनकाल में गैरमुस्लिम लोग उन पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करते थे और उपहास उड़ाते हुए उन्हें ‘अब्तर’ पुकारते थे. अरबी भाषा में अब्तर का मोटे तौर पर अर्थ होता है वंशहीन. अरब देश में किसी पुरुष के बेटा न होने पर उसके पुरुषत्व पर सवाल खड़ा होता था. चूंकि मोहम्मद साहब के कोई पुत्र न था इसलिए लोग उन्हें अब्तर पुकारते थे. इस तरह के अपशब्द सुनने पर उनके अनुयायी क्रोधित होते थे. लेकिन हजरत मोहम्मद उन्हें यह कहकर शांत करते थे कि यह मुझ पर व्यक्तिगत टिप्पणी है. इसलिए इस पर आप लोगों को क्रोधित नहीं होना चाहिए. कुछ समय बाद कुरान की वाणी मोहम्मद साहब पर अवतरित होती है. कुरान के 108 वें अध्याय ‘कौसर’ में मौजूद आयतें कुछ इस तरह हैं :

1. देखो हमने (अल्लाह ने) तुम्हें खूबियां बहुतायत में दी हैं
2. इसलिए तुम मेरी वंदना करो
3. और जो लोग तुम्हें ‘अब्तर (वंशविहीन)’ कहते हैं निश्चित तौर पर वे ही वंशविहीन होएंगे.

ईश्वर की इस वाणी को जब मोहम्मद साहब ने फरमाया तो उनके अनुयायियों ने गैरमुस्लिमों की आपत्तिजनक टिप्पणियों को नजरअंदाज किया और गैर मुस्लिमों ने भी इन टिप्पणियों से अपना नाता तोड़ दिया. क्या यही बात आज के संदर्भ में सटीक नहीं बैठती कि जब कोई इस्लाम की धार्मिक मान्यताओं पर आपत्तिजनक टिप्पणियां करे तो उनका जवाब तर्कसंगत और अहिंसात्मक रूप से दिया जाए जैसा कि ऊपर लिखे उदाहरण से स्पष्ट होता है. मौत के फतवों से तो इस्लाम पर उंगलियां उठेंगी.
 

 पर्दा प्रथा

 इस्लाम में एक और आम चलन है – पर्दा प्रथा – जो इस्लाम के ही आदेशों के मापदंडों पर सही नहीं बैठती है. यूं तो हर धर्म में स्त्रियों के पहनावे और वेशभूषा के मसले पर बहस मिलती है – जैसे सिर ढकना, दुपट्टा ओढ़ना इत्यादि. लेकिन इस्लाम में पर्दा जिसे ‘हिजाब’ नाम से जाना गया है वह सिर्फ स्त्री जाति तक सीमित नहीं है. बल्कि पुरुषों के लिए भी उतना ही जायज है. कुरान में हिजाब की दो किस्में हैं – एक आंखों का हिजाब और दूसरा शरीर का. कुरान के 24 वें अध्याय ‘प्रकाश’ की 30 वीं आयत में पुरुषों के लिए हिदायत है कि ‘आस्थावान पुरुषों को अपनी निगाहें झुकाकर बात करनी चाहिए और अंग प्रदर्शन पर अंकुश लगाना चाहिए.’ इसके बाद स्त्रियों के लिए कहा गया है कि ‘आस्थावान स्त्रियों को अपनी निगाहें झुकाकर बात करनी चाहिए और अंग प्रदर्शन पर अंकुश लगाना चाहिए.’ दूसरा पर्दा है शरीर का पर्दा. कुरान यूं तो स्त्री और पुरुष में भेद नहीं सिखाता. लेकिन स्त्री शरीर की संरचना कुछ ऐसी है जो पुरुष से भिन्न है. इनमें स्त्री का वक्ष स्थल और नितंब हैं. कुरान कहती है कि स्त्रियों को ‘अपनी जीनत (सुंदरता का प्रतीक जैसे वक्ष और नितंब) को उघाड़कर प्रदर्शित नहीं करना चाहिए सिवाय उसके जो स्वाभाविक हो (जैसे चेहरा). और अपने वक्ष स्थल को पर्दे (जैसे दुपट्टा या ढीला वस्त्र) से ढककर रखना चाहिए.’

मोहम्मद साहब के वचन या उपदेशों के संकलन जिसे हदीस कहा जाता है, में भी चेहरे को ढकने की ओर इशारा नहीं किया गया है. हदीसें के संकलन की एक मान्य पुस्तक सही-अल-बुखारी में दसियों ऐसी हदीस मिलती हैं जिनमें पैगंबर मोहम्मद के सामने स्त्रियां बिना चेहरा ढके हुए आती थीं ओर मोहम्मद साहब ने इस बात को कभी नाजायज नहीं ठहराया. कुरान में शायद चेहरे को ढकने का चलन सामाजिक संदर्भों में भले ही हो लेकिन बुरका प्रथा को धार्मिक संदर्भों में देखना शायद सही नहीं है.

कुछ इफ्तार पार्टियां
एक और चलन जो इस्लाम के नाम पर हमें देखने को मिलता है वह है राजनेताओं और अन्य प्रभावशाली व्यक्तियों द्वारा इफ्तार पार्टियों का भद्दा प्रदर्शन. इफ्तार रमजान के महीने में रोजा खोलने (इस्लामी व्रत में शाम के समय का भोजन) को कहा जाता है. इस महीने के 30 दिन में उपवास रखने की एक वजह यह भी रही होगी कि इंसान अन्न का महत्व और भूख की वेदना को भूले नहीं. लेकिन कम से कम हिंदुस्तान की कई इफ्तार पार्टियों में अन्न का महत्व तो दूर अनादर ही देखने को मिलता है.

ऐसा नहीं है कि इस्लाम में इफ्तार पार्टियों पर रोक है बल्कि इस प्रथा को प्रोत्साहित ही किया जाता है. लेकिन किन लोगों को इफ्तार में शामिल करने की हिदायत दी है? ऐसे लोग जो कमोबेश रमजान के ही एक महीने नहीं बल्कि साल के अन्य 11 महीने भूख के साथ जिएं. एक इस्लामी हदीस है कि इफ्तार उन लोगों के साथ करें जो दुनियावी लेन-देन और आडंबर वाली जिंदगी से दूर रहते हों. एक अच्छे इफ्तार में सादा भोजन और पानी के अलावा खाने के अधिक व्यंजन न हों तो शोभनीय है. इस दौरान जो बातें हों वे दुनियावी कम और रूहानी अधिक हों. मगर हमारे यहां की राजनीतिक इफ्तार पार्टियां जिस तरह की होती हैं वे हराम न भी हों तो शोभनीय कतई नहीं हैं.
-राकेश  

 

फरमान जैसे फतवे

अरबी में ‘फतवे’ का अर्थ होता है ‘कानूनी सुझाव’, लेकिन कालांतर में लोगों ने अपने हितों के मुताबिक इसमें बदलाव और व्याख्या करनी शुरू कर दी, और अंतत: फतवे के प्रति लोगों के मन में यह छवि बना दी गई कि यह एक कानूनी आदेश है जिसे मानना सबकी मजबूरी है. जबकि यह पूरी तरह से फतवे के मूल विचार और इस्लामी मान्यताओं के खिलाफ है.

उस हद तक फतवे में कोई बुराई नहीं जब तक वह यह स्पष्ट करता हुआ चले कि यह उस व्यक्ति का निजी विचार है. साथ ही यह बात भी साफ होनी चाहिए कि वह व्यक्ति संबंधित मामले का जानकार है. समस्या तब होती है जब फतवा कानूनी आदेश के रूप में धार्मिक चोला ओढ़कर सामने आता है. कुरान ऐसे लोगों की पुरजोर मुजम्मत करता है, ‘उन पर मुसीबत आना तय है जो खुद के शब्द गढ़ते हैं और अपने तुच्छ फायदे के लिए उन्हें अल्लाह के शब्द बताते हैं.’ (कुरान 2.79)

फतवों का बेजा इस्तेमाल पहली दफा नहीं हो रहा. पेशेवर मुल्ला-मौलाना हमेशा से ही फतवे का मजाक बनाते आ रहे हैं. अगर आप अरबी साहित्य पर थोड़ी निगाह डालें तो पाएंगे कि वहां सबसे ज्यादा बदनाम पद काजी का रहा है. मौलाना आजाद ने अपने एक लेख में लिखा है, ‘मुफ्ती की कलम (फतवा जारी करने वाला व्यक्ति) हमेशा से मुस्लिम आतताइयों की साझीदार रही है और दोनों ही तमाम ऐसे विद्वान और स्वाभिमानी लोगों के कत्ल में बराबर के जिम्मेदार हैं जिन्होंने इनकी ताकत के आगे सिर झुकाने से इनकार कर दिया.’

इस्लाम स्पष्ट शब्दों में हर स्त्री और पुरुष को इजाजत देता है कि वह धर्म के मूल सिद्धांतों की समझ के साथ अपनी सोच और ज्ञान का दायरा बढ़ाए ताकि अपनी जिंदगी से जुड़े मसलों पर वह खुद फैसले ले सके. अगर वह खुद किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुंच पाता है तो जानकारों से सलाह ली जा सकती है. पर यहां जोर व्यक्ति के ऊपर ही है. अपने मसलों में मुफ्ती, काजी सब कुछ वह व्यक्ति ही है. किसी तीसरे को उसके निजी जिंदगी से जुड़े फैसले करने का अधिकार नहीं.

यह जरूरी है कि फतवे सभी पक्षों की बात सुनकर परिस्थितियों और सबूतों का सम्यक मूल्यांकन करने के बाद ही दिए जाएं. पर दुर्भाग्य से ऐसा नहीं हो रहा. फतवा एक पक्ष के सवालों के जवाब के रूप में होता है और इसे सुझाव की बजाय बाध्यता के रूप में प्रचारित किया जाता है.

(आरिफ मोहम्मद खान से अतुल चौरसिया के बातचीत के अंश)