क्या सोचा क्या पाया

 नौ नवंबर को उत्तराखंड राज्य दस साल का हो गया. दस साल की उम्र किसी राज्य का भविष्य तय करने के लिए काफी नहीं होती, पर ‘पूत के पांव पालने में ही दिख जाते हैं’ वाली कहावत के हिसाब से देखा जाए तो उस भविष्य का अंदाजा लगाने के लिए इतना समय काफी होता है.

ये दस साल कैसे रहे यह जानने से पहले यह जानना जरूरी होगा कि अलग राज्य की जरुरत पड़ी क्यों थी. दरअसल, तब उत्तर प्रदेश का हिस्सा रहे यहां के लोगों के मन में एक कसक थी कि काश उनकी भी एक विधानसभा होती जो यहां की विशिष्ट भौगोलिक परिस्थितियों आाैर जरुरतों के अनुसार कानून और विधान बनाती और उनके पारदर्शिता से क्रियान्वयन पर नजर रखती. लोगों को तब उत्तर प्रदेश में यह भी शिकायत थी कि योजनाओं का क्रियान्वयन करने वाले कर्मचारी भी यहां के नहीं हैं, इसलिए उनका यहां से लगाव ही नहीं है. उन सबसे ऊपर योजनाओं के लिए तब दृष्टि (विजन) ही नहीं थी. जिस राज में ये सब तत्व गायब थे तो उससे ‘विकास कार्यों के क्रियान्वयन और लोकहित के लिए समर्पण’ की आशा ही नहीं की जा सकती थी. आंदोलन का तात्कालिक कारण बना पिछड़े वर्गों को 27 प्रतिशत आरक्षण जो उस समय पहाड़ी जिलों में 4 प्रतिशत भी नहीं थे. इन सभी कारणों से पहाड़ी जिलों के लोगों ने अलग राज्य की जरूरत महसूस की. जोरदार पृथक राज्य आंदोलन और बलिदानों के बाद उत्तराखंड राज्य मिला.

अब लोगों के पास अपना विधानमंडल था. नेता यहीं के थे और प्रशासकों पर उनकी अच्छी पकड़ होने की आशा थी. लोगों को लगा कि उनकी विधानसभा राज्य की जरूरतों के अनुसार कानून बनाएगी. मंत्रिमंडल द्वारा महत्वपूर्ण नीतियां बनेंगी, उनके हिसाब से शासन नियम बनाएगा और आखिर में संबंधित विभाग विधायिका द्वारा जनभावनाओं केअनुरूप बनी इन नीतियों, नियमों का क्रियान्वयन करेंेगे.

पर सपने आंखों में ही रह गए. इन 10 साल में राज्य के महत्वपूर्ण विभागों की नीतियां ही नहीं बन पाई हैं. इस दौरान न तो शिक्षा नीति बनी, न स्वास्थ्य नीति बनी और न ही राज्य की जल नीति है. राज्य का पंचायत ऐक्ट अभी तक नहीं आया तो डीपीसी के गठन न होने से राज्य के तीन जिलों को हर साल केंद्र से मिलने वाले 50 करोड़ रुपए का नुकसान हो रहा है. यहां राज चलाने वालों को विकास करने के लिए अपना नियोजन तंत्र विकसित करने की पूरी आजादी थी, पर इसे विकसित करने की समझ और इच्छाशक्ति होती तो कुछ होता.

दरअसल, कहने को सब कुछ अपना होने के बावजूद दृष्टि (विजन) अब भी उधार ली हुई थी. इन 10 सालों में हुए कामों और निर्णयों को देखें तो यही समझ में आता है कि अंग्रेजों से लेकर संयुक्त प्रांत व उत्तर प्रदेश वाला दृष्टिकोण अभी भी नहीं बदला है. वांछित दृष्टि न होने से हम इस पर्वतीय राज्य की आवश्यकताओं और भावनाओं के अनुरूप न तो विधान बना सके और न ही उनका क्रियान्वयन तंत्र खड़ा कर सके. इसलिए यह कहा जा सकता है कि राज्य बनने का मूलभूत मकसद पूरा नहीं हो सका.

हर आंदोलन और भाषण में उत्तराखंड के जल, जंगल और जमीन की बात होती है. बात भी सच थी. जब तक राज्य में उपलब्ध प्राकृतिक संसाधनों के अनुरूप हम अपने मानव संसाधन का भला नहीं कर पाएंगे तब तक राज्य में आर्थिक विकास व खुशहाली का आना असंभव है. पानी उत्तराखंड का सबसे प्रमुख संसाधन है, परंतु राज्य में सबसे अधिक जल धारण करने वाले सीमांत जिले चमोली में कुल कृषि भूमि की छह प्रतिशत भूमि ही सिंचित भूमि है. कुमाऊं के पहाड़ी जिले चंपावत की भी केवल चार प्रतिशत भूमि सिंचित है. आज भी पूरे राज्य में सिंचित कृषि भूमि का औसत केवल 14 प्रतिशत है. राज्य में उपलब्ध जल संसाधनों का प्रयोग करके राज्य को ‘ऊर्जा प्रदेश’ बनाने के सपने भी शुरुआती सालों से ही खूब दिखाए गए. राज्य की सारी नदियां निजी कंपनियों को दी जाती रहीं. सरकारों ने कंपनियों के साथ ‘लोक सहभागिता’ को जोड़ने की कोशिश ही नहीं की. इसलिए आज हर नदी पर आंदोलन हो रहे हैं. परियोजनाओं के कारण घर-घर विवाद खड़े हो उठे हैं. निजी कंपनियां कर्ज लेकर जल विद्युत परियोजनाएं बना रही हैं और सरकारी सब्सिडियों का भरपूर सुख ले रही हैं जबकि राज्य का आम आदमी उनका मुंह ताक रहा है. कहने को तो ऊर्जा नीति के अनुसार पांच मेगावाट तक की परियोजनाओं को स्थानीय निवासी बना सकते हैं, पर सरकार ने न तो इनके लिए स्थानीय लोगों को मार्गदर्शन दिया, न ही प्रोत्साहन. उचित प्रोत्साहन ही तो अपने राज्य में यहां के लोगों को चाहिए था. किसी भी सरकार ने स्थानीय समुदाय को इन परियोजनाओं से मिलने वाले लाभांश में भागीदार नहीं बनाया. किसी ने भी स्थानीय लोगों की हिस्सेदारी की बात नहीं की. यह अधिकार तो राज्य के लोगों को ही होना था कि वे तय कर सकें कि उनके पानी से घराट (पनचक्की) चलें या बिजली बने. पानी कोे राज्य का बड़ा संसाधन तब माना जाता जब उसका उपयोग स्थानीय लोग लाभकारी कामों के लिए कर पाते.

यही हाल जंगलों के भी हैं. वन निगम या अन्य माध्यमों से जंगल तो कट ही रहे हैं पर इन लकड़ियों को बेचने वाले वन निगम के ये डिपो पहाड़ के छोटे कस्बों में नहीं हैं. पूरे पहाड़ में आरा मशीन पर प्रतिबंध लगा है. पहाड़ से कटकर आई महंगी लकड़ी रायवाला, हल्द्वानी और काठगोदाम में आकर चिरने के बाद बरेली तथा सहारनपुर में महंगा फर्नीचर बनकर देश भर में जाती है, पर पहाड़ों में निम्न कोटि की यूकेलिप्टस की लकड़ी के पॉलिश करे फर्नीचर पहुंच रहे हैं. दुनिया को सुख देने वाले जंगल पहाड़ के लिए वैधानिक रूप से परेशानी का कारण हो गए हैं.

जल, जंगल के बाद जमीन के लिए भी राज्य बनने के बाद कुछ नहीं हुआ. पहाड़ अभी भी पुराने भू-कानूनों के अभिशापों को झेल रहा है. एक राज्य में दो भू-कानून हैं. इन पेचीदे कानूनों के कारण राज्य में पर्याप्त भूमि होने के बाद भी आपदा पीड़ितों को आवंटित करने तक के लिए भूमि उपलब्ध नहीं है. अनिवार्य चकबंदी अभी तक नहीं हो पाई है. तराई में थारू, बोक्सा जनजाति की जमीनें कानूनों के बावजूद बड़े किसानों और माफियाओं ने हथिया लिए हैं. हरिद्वार से लेकर रामनगर तक पूरी तराई में वन भूमियों में बसे ‘खत्तों’ को आज तक राजस्व गांवों में तब्दील नहीं किया जा सका है.

मुख्यमंत्री कहते हैं कि राज्य शिक्षा का हब बन गया है, पर राज्य के दूरस्थ पहाड़ी जिलों के गांवों के स्कूल अध्यापकविहीन हैं. वहां के कस्बों के बच्चे सरकारी स्कूलों में जाते ही नहीं हैं. उच्च शिक्षा का हाल तो और बुरा है. राज्य में कुकुरमुत्ते की भांति खुले व्यावसायिक शिक्षण संस्थान अभिभावकों को लूटने के अलावा कुछ भी काम नहीं कर रहे. लाखों रु चुकाकर इन संस्थानों से निकले इंजीनियर और व्यावसायिक शिक्षा प्राप्त युवक-युवतियां अच्छी नौकरी और वेतन पाने में असफल साबित होते हैं. शिक्षा के खराब स्तर के कारण राज्य के बेरोजगार प्रतियोगी परीक्षाओं में सफल नहीं होते हैं. उत्तराखंड राज्य लोक सेवा आयोग के परिणामों की सूची में राज्य के निवासी मुश्किल से मिलते हैं. कभी इसी बेरोजगारी और बाहरी लोेगों द्वारा राज्य में उपलब्ध रोजगारों को हड़पने की आशंका से ही राज्य आंदोलन शुरू हुआ था.

इस तरह देखें तो राज्य के दस साल की यात्रा को कतई आशाजनक नहीं कहा जा सकता. इन दस साल में सरकारों और उसके तंत्र को चलाने वालों पर आम आदमी का भरोसा कम होता गया है. राज्य में एक ‘विशिष्ट शासक वर्ग’ पैदा हो गया है जो अब आम जन की इन नाराजगियों के लिए संवेदनहीनता की सीमा को पार कर ‘जनता की कौन परवाह करता है’ या ‘जनता तो कहती रहती है’ की बेशर्मी तक पहुंच चुका है. यह बेशर्मी जारी रही तो राज्य को ले डूबेगी.