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' सरकारी खरीद से मोटे मुनाफे की दृष्टि हिन्दी प्रकाशकों को ‘उद्यमी’ बनने से रोके हुए है '

आपकी पसंदीदा विधा कौन-सी है ?

मुझे लगता है कि कविता अधिकांश रचनाकारों की प्रथम प्रेयसी होती है किन्तु कविता का विधागत रूप एक ही साथ सरल है तो अत्यन्त सूक्ष्म-जटिल-दुरूह भी. दूसरी ओर विषयों का आत्यान्तिक-आन्तरिक दवाब अपने अनुरूप विधा और शिल्प की तलाश कर लेता है. इन्हीं कारणों से मैं भी कविता से उपन्यास लेखन तक पहुँचा हूँ किन्तु पहले प्यार को कौन भूलता है.

इन दिनों क्या पढ़ रहे हैं ?

शताब्दी वर्ष के महाकवियों में केदारनाथ अग्रवाल उपेक्षित से रहे हैं. उन पर सामग्री खोज-खोज कर पढ़ रहा हूँ. फेलिक्स पैडल की दोनों किताबें ‘सेक्रिफाइसिंग पीपुल’ और ‘आउट ऑफ दिस अर्थः ईस्ट इन्डिया आदिवासिज एड द अल्युमिनियम कार्टेल’ अभी मेरे सामने हैं. मेरे नये उपन्यास का नायक मुण्डा जनजाति का है इसीलिए फादर हॉफमैन की ‘एन्साक्लोपीडिया मुन्डारिका’ में भी रह-रह कर डुबकी लगा रहा हूँ. साहित्य अकादमी से पुरस्कृत मैथिल कवि विवेकानन्द ठाकुर की अद्भुत काव्य रचना ‘अकेला खड़ा’ अभी खत्म की है.

आपके पसंदीदा रचनाकार कौन से हैं ?

पूर्वज, वरिष्ठ, वरीय और समकालीन सभी रचनाकारों की सुकृतियाँ मन को छूती रही हैं अतएव किन्ही का नाम लूँ किन्ही को छोड़ दूँ यह उचित नहीं है. सच कहूँ तो हिन्दी ही क्यों अन्य भारतीय भाषाओं, अंग्रेजी, रूसी, स्पेनिस, तुर्की आदि के भी सर्वकालिक महान रचनाकारों ने मेरे अभ्यान्तर को गढ़ने में जो भूमिका निभाई है उनसे उऋण नहीं हुआ जा सकता. 
किन्तु देश के जिस खनिज-वन क्षेत्र में जिन आदिवासी जनों के बीच साँसे लेता हूँ उनकी पीड़ा को शब्द देने वाले रचनाकार महाश्वेता, अरुंधति, संजीव, मैत्रेयी पुष्पा और समकालीन पंकज मित्र थोड़े ज्यादा नजदीक लगते हैं.

बेवजह मशहूर हो गई कोई रचना या लेखक ?

यह वाद-ववाद-संवाद प्रिय लोगों का प्रियतम प्रश्न है. मुझे लगता है कि विषयगत या शिल्पगत नवीनता किसी रचना को चर्चा में लाती है किन्तु उसकी गहराई ही उम्र तय करती है. लेकिन यह भी सत्य है कि केदारनाथ अग्रवाल , राही मासूम रजा, अमृतलाल नागर जैसे अनेक रचनाकार भिन्न-भिन्न कारणों से किनारे खिसका दिए गए. इनके पुनर्मूल्यांकन की आवश्यकता है.

हिन्दी में पढ़ने की रवायत कायम रहे इसके लिए क्या किया जाए ?

मेरे मित्र प्रसन्न कुमार चौधरी ठीक ही कहते हैं कि प्रकाशकों ने हिन्दी के बाजार की ताकत को अभी समझा ही नहीं है. छोटे शहरों-कस्बों में जो लाखो पाठक हैं  उन तक निरन्तर और सहज पहुँच बनाने की कोई कोशिश नहीं की गई. हिन्दी पट्टी के हजारो कस्बों में हिन्दी साहित्य का जुनूनी पाठक है, इनके सर्वेक्षण, पाठ्य पुस्तकों की दूकानों में साहित्यिक पुस्तकों  के लिए स्थायी जगह, आपूर्ति की निरन्तर प्रवाह, आक्रमक प्रचार-प्रसार चन्द वर्षों में ही पाँच सौ प्रतियों के संस्करण को लाख प्रतियों तक पहुँचा सकता है. पूँजी की कमी नहीं, बल्कि सरकारी खरीद से मोटे मुनाफे की दृष्टि हिन्दी प्रकाशकों को ‘उद्यमी’ बनने से रोके हुए है. यह एक साथ पढ़ने की रवायत, पाठक, रचना और रचनाकार के साथ किया जा रहा अक्षम्य अपराध है.

रेयाज़ उल हक़

कोई नृप होय…

दरभंगा जिले के कुशेश्वरस्थान प्रखंड से चलने वाली नाव दो घंटे में 12 किमी दूर समोरा घाट पहुंचाती है. यहां से हमें रामचंद्र सदा के घर जाना है. आशंका के विपरीत हमें उनका घर ढूंढ़ने में कोई दिक्कत नहीं होती क्योंकि इस इलाके में लगभग हर कोई उन्हें जानता है. कुछ देर पैदल चलकर हम मुसहरटोला पहुंचते हैं, यहीं एक किनारे पर अपनी फूस की झोपड़ी के आगे रामचंद्र से हमारी मुलाकात होती है. बीमारी से दुबले हो गए शरीर पर बैठ रही मक्खियों को भगाते हुए वे हमें बैठने को कहते हैं.

बैठते ही हमें पता चल जाता है कि हम एक ऐसे इलाके में हैं जहां गीदड़ के काटने और गोली लगने में कोई फर्क नहीं किया जाता. रामचंद्र हमें अपने 12 वर्षीय बेटे पंकज की पोस्टमार्टम रिपोर्ट दिखाते हैं. रिपोर्ट बताती है कि पंकज सदा की मौत गोली लगने से हुई थी. लेकिन दरभंगा मेडिकल कॉलेज व अस्पताल की इस रिपोर्ट और पंकज के अंतिम इलाज में कोई समानता नहीं है. कुशेश्वरस्थान प्रखंड के प्राथमिक चिकित्सा केंद्र में इस 12 वर्षीय किशोर को लगाया गया अंतिम इंजेक्शन उस दवा का था जिसे गीदड़ के काटने पर लगाया जाता है. चिकित्सा केंद्र के डॉक्टर सहित सारे गांववालों को पता था कि पंकज को गीदड़ ने नहीं काटा है बल्कि उसे गांव के एक भूस्वामी नारायण यादव के बेटे ने गोली मारी है. लेकिन इससे डॉक्टर को कोई फर्क नहीं पड़ा. उसने गीदड़ के काटने का ही इलाज किया क्योंकि उसे इलाके के प्रभावशाली लोगों से दुश्मनी मोल नहीं लेनी थी. आखिरकार इलाज के दौरान ही पंकज की मौत हो गई. इससे नाराज गांववाले लाश को लेकर दरभंगा मेडिकल कॉलेज एवं हॉस्पिटल ले गए, जहां से यह पोस्टमार्टम रिपोर्ट आई. लोगों के काफी दबाव के बाद किसी तरह प्राथमिकी तो दर्ज हुई लेकिन पुलिस अभी तक आरोपित हत्यारे को नहीं पकड़ सकी है. पंकज ही रामचंद्र के घर में आमदनी का एकमात्र जरिया था. वह इसी गांव के नारायण यादव के यहां काम करता था, जिनके यहां उसकी तीन साल की मजदूरी भी बाकी थी. इस साल मई में जब उसने बकाया मजदूरी मांगी तो उसे गोली मार दी गई.

यह परियोजना 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाने के लिए शुरू की गई थी, लेकिन आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद इसके कारण 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती है

इसके पहले रामचंद्र के घर में एक और मौत हो चुकी है. एक ही साल पहले उन्होंने अपनी पत्नी को भी खोया है. वे समझ भी नहीं पाए कि उनकी पत्नी को कौन-सी बीमारी हुई थी. इलाज कराने के लिए पर्याप्त पैसे नहीं थे. वह कमजोर होती जा रही थी और फिर एक दिन उसकी मौत हो गई. आप चाहें तो रामचंद्र सदा के साथ घटी इन घटनाओं के लिए कई वजहें गिना सकते हैं. लेकिन इलाके में ऐसी नियति वाले वे अकेले नहीं हैं. 46 साल के रामचंद्र सदा वास्तव में इतनी ही साल पुरानी एक परियोजना की कीमत चुका रहे करीब 12 लाख लोगों में से एक हैं.

दरअस्ल पिछली कई सदियों से बिहार में बाढ़ की तबाही ला रही कोसी नदी को नियंत्रित करने के लिए 1955 में कोसी परियोजना शुरू की गई थी. इसके तहत कोसी के पूर्वी और पश्चिमी, दो तटबंधों का निर्माण किया गया था. इसका 125 किलोमीटर लंबा पूर्वी तटबंध वीरपुर से कोपड़िया तक फैला हुआ है और 126 किलोमीटर लंबा दूसरा पश्चिमी तटबंध नेपाल के भारदह से सहरसा के घोंघेपुर तक है. इन परियोजनाओं से 10 लाख हेक्टेयर भूमि की सिंचाई की योजना भी बनाई गई और साथ में सुपौल के कटैया में एक जल विद्युत परियोजना स्थापित करके 16 मेगावाट बिजली पैदा करने के सपने भी देखे गए. लेकिन कोसी को नियंत्रित नहीं किया जा सका.

1893 में कोसी में आने वाली बाढ़ और तबाही का अध्ययन करने आए बंगाल के तत्कालीन मुख्य इंजीनियर डब्ल्यूए इंग्लिश का कहा पूरा हुआ. इंग्लिश ने कोसी पर किसी भी निर्माण कार्य से मना किया था, क्योंकि उसके अनुसार ये तटबंध इन नदियों की प्रकृति को देखते हुए तबाही लाने वाले साबित होंगे. इंग्लिश को सही ठहराते हुए बनने के बाद से इन तटबंधों ने जितनी तबाही को रोका है, उससे कहीं अधिक तबाही ये इन इलाकों में लेकर आए हैं. तटबंधों के ऊपरी इलाकों में बाढ़ और कटाव की भयानक समस्या न सिर्फ आज भी मौजूद है बल्कि यह साल दर साल बढ़ती ही जा रही है. बिहार के लोग 2008 की प्रलयंकारी बाढ़ को अब भी नहीं भूले हैं. दूसरी ओर तटबंधों के निचले इलाके में जलजमाव शुरुआत से ही एक बड़ी समस्या के रूप में उभरा. यह परियोजना 2.14 लाख हेक्टेयर जमीन को बाढ़ से बचाने के लिए शुरू की गई थी, लेकिन आधी सदी से अधिक समय बीत जाने के बाद इसके कारण 4.26 लाख हेक्टेयर जमीन पानी में डूबी रहती है. कोसी परियोजना के दूसरे फायदों की बात ही क्या की जाए. परियोजना की दोनों नहरें ही बमुश्किल अपने लक्ष्य की 6 से 10 फीसदी जमीन ही सिंचित कर पाती हैं. कोसी की धारा के साथ आने वाली गाद के कारण जलविद्युत परियोजना भी ठप पड़ी हुई है. हम इसमें पुनर्वास के उन वादों को भी शामिल नहीं करेंगे जो इस योजना से विस्थापित हुए लोगों से किए गए और कभी पूरे नहीं हुए. इन वादों में जो कुछ पूरा हुआ उसमें मुआवजे के रूप में मिली जमीन थी, लेकिन वह दशकों से जलजमाव में डूबी हुई है.

कुशेश्वरस्थान भी उन जगहों में से एक है जहां साल भर पानी जमा रहता है. और इसके लिए अकेले कोसी जिम्मेदार नहीं है. इस इलाके में तीन नदियां मिलती हैं- कोसी, कमला और बागमती. पहले कोसी पर तटबंध बना और इसके बाद 1968 में आई बाढ़ के बाद कमला पर. तीसरा तटबंध बागमती पर बना है जिसमें लगभग 8 मील तक तटबंध को खुला छोड़ दिया गया है. बाढ़-सूखे से जुड़े मामलों के जानकार दिनेश कुमार मिश्र इसे परियोजना से जुड़े अध्ययनकर्ताओं और इंजीनियरों की नाकामी का नतीजा बताते हैं. वे कहते हैं, ‘तीन नदियों के संगम स्थल पर तटबंधों का जाल बिछा दिया गया और इस पर जरा भी ध्यान नहीं दिया गया कि पानी की निकासी कैसे होगी.’

कोसी का तटबंध कुशेश्वरस्थान से 4 कोस दक्षिण में खत्म हो जाता है. इसके बाद नदी की मुक्त हुई धारा आसपास के इलाकों में फैल जाती है. पास ही में कमला नदी की धारा कोसी में मिलती है और इसका पानी भी इलाके में फैल जाता है. बागमती के तटबंध के खुले बांध से निकली गाद और पानी भी इसी इलाके में जमा होता है. बिहार राज्य खेल प्राधिकरण के पूर्व महानिदेशक और सामाजिक कार्यकर्ता रामचंद्र खां इसी इलाके के हैं. वे भी इस परियोजना के पीड़ितों में से हैं. वे बताते हैं, ‘कोसी, कमला, बलान और बागमती आदि सात नदियों को कुशेश्वरस्थान में लाकर छोड़ दिया गया है. 1956 के बाद एक-एक कर बने तटबंधों के जरिए पूर्णिया, सहरसा से डायवर्ट करके इन्हें कुशेश्वरस्थान के माथे पर छोड़ दिया गया है. कोसी, कुरसेला में गंगा से जाकर मिलती थी. पर फरक्का में बांध बनने के बाद कोसी के गंगा में जाकर मिलने का रास्ता बंद हो गया. कोसी के गंगा में मिलने के सात रास्ते पूर्णिया और भागलपुर में थे. लेकिन उसका जो मुख्य रास्ता था वह फरक्का बांध के कारण बंद हो गया. अब यह पानी खगड़िया से उत्तर घूमता रहता है. इसकी वजह से 400 वर्ग किमी इलाका डूबा हुआ है.’

जब लोगों के संसाधन जलजमाव के कारण खत्म हुए तो लोग बाहर चले गए. सरकार के लिए भी यह सुविधाजनक स्थिति थी कि लोग इस हालत के खिलाफ लड़े नहीं

इस डूबे हुए इलाके में फैले सैकड़ों गांवों में से अधिकतर नदियों के घाट पर ही बसे हुए हैं. और रामचंद्र सदा का गांव समोरा घाट इन सैकड़ों गांवों में से एक है. टापू की तरह दिखने वाले इस गांव को बाकी दुनिया से सिर्फ एक नाव ही जोड़ती है. रामचंद्र के पास अपनी कोई जमीन नहीं है. परंपरागत रूप से वे बंटाई या अधिया पर खेती करके आजीविका कमाते थे. लेकिन जब से इलाके में पानी भरना शुरू हुआ तो खेती करने की संभावनाएं कम होती गईं. जिनके पास अधिक जमीन थी और जो सामर्थ्यवान थे वे किसी तरह अपनी जमीन आदि बेच कर दूसरी जगह चले गए. लेकिन रामचंद्र सदा जैसे हजारों परिवारों के पास एक धुर जमीन भी नहीं थी. वे कहीं और जाकर कैसे बसते?  इसलिए उनके घर यहीं बने रहे और उन्होंने मजदूरी के लिए दूसरी जगहों पर पलायन शुरू कर दिया. रामचंद्र सदा भी पंजाब चले गए. दिनेश कुमार मिश्र के अनुसार इस इलाके में 1958 में जब नदियों का पानी खेतों में जमा होना शुरू हुआ, पलायन तब से शुरू हो गया था. वे कहते हैं, ‘जब लोगों के संसाधन जलजमाव के कारण खत्म हुए तो लोग बाहर चले गए. सरकार के लिए भी यह सुविधाजनक स्थिति थी कि लोग इस हालत के खिलाफ लड़े नहीं. इसके साथ ही सामाजिक संतुलन चरमराने के साथ असामाजिक तत्वों का बोलबाला भी बढ़ा.’

हालांकि परियोजना की शुरुआत में सरकार ने पुनर्वास और मुआवजे के वादे किए थे, लेकिन जब वे जमीन पर उतरे तो लोगों को उनकी निरर्थकता का एहसास हुआ. सरकार ने उन इलाकों को पुनर्वास कार्यक्रम से बाहर रखा जिनमें सिर्फ तीन महीनों तक पानी जमा रहता था. सरकार का तर्क था कि बाकी महीनों में उन पर खेती की जा सकती है. इस प्रकार परियोजना से प्रभावितों की एक बहुत बड़ी संख्या को किसी भी तरह की राहत से वंचित कर दिया गया. बाकी जिन पीड़ितों को दो किस्तों में मुआवजा मिलने की घोषणा हुई उन्हें मुआवजे की एक ही किस्त मिली. जिनके घर पानी में डूब गए थे उन्हें घर के लिए दूसरी जमीन मिली जो उनके खेतों से कई किलोमीटर दूर थी और इतनी दूर से खेती संभव न होने के कारण लोगों को अपने खेत बेच देने पड़े.

यह लगभग चार दशक पुरानी बातें हैं. अब तो लोग साल भर ही पानी से घिरे रहते हैं. बाढ़ के दिनों में नाव ही 12 लाख लोगों की सवारी होती है. पानी से घिरे लोग किसी ऊंचे टीले या तटबंध पर शरण लेते हैं. बाढ़ आए या न आए, उन्हें इससे फर्क नहीं पड़ता. उनकी स्थिति में कोई सुधार नहीं होता. लंबे समय से यह स्थिति बनी रहने के कारण इलाके का आर्थिक-सामाजिक तानाबाना तबाह हो चुका है. रोजगार के जो थोड़े-बहुत साधन थे वे भी अब खत्म हो गए हैं. यही नहीं, सरकारी सुविधाएं और सेवाएं भी इस इलाके से लगभग नदारद हैं.

लेकिन विडंबना यह है कि सरकार कुशेश्वरस्थान के गांवों को कोसी से पीड़ित गांवों में शुमार नहीं करती है. बल्कि वह तो कई गांवों के अस्तित्व तक को स्वीकार नहीं करती है. सरकार के मुताबिक सिर्फ 380 गांव ही दोनों तटबंधों के भीतर हैं जबकि तटबंध के भीतर और बाहर जलजमाव से पीड़ित गांवों की संख्या लगभग 950 है.

समोरा घाट के अलावा कुशेश्वरस्थान प्रखंड में 40 और गांव हैं जो बदहाली और तबाही लाने वाली सरकारी परियोजनाओं की कीमत चुका रहे हैं. उनमें कोई अंतर नहीं है, यहां तक कि उनके नाम भी एक जैसे हैं- कोलाघाट, टोकाघाट, तेगछाघाट, महादेवमठ घाट, कुंजभवनघाट, फुलझारीघाट, गईजोरीघाट…

उजवा घाट की दूरी समोरा घाट से दस किलोमीटर है. यहां पहुंचने के लिए एक बार फिर पैदल चलना पड़ता है. इसी पंचायत के तहत ये 40 गांव आते हैं. सात बजे शाम में ही उजवा में श्मशान जैसी शांति पसरी हुई है. हमारी मुलाकात यहां जनता दल (यू) के महादलित प्रकोष्ठ के उपाध्यक्ष रघुनाथ सदा से होती है. रघुनाथ के पास इलाके के दलितों की जमीनी जानकारी है. वे बताते हैं, ‘कुशेश्वरस्थान में दलित मुसहरों की आबादी पचास हजार के करीब है. सब भूमिहीन हैं. उनके घर भी मालिक के खेत में या सरकारी गैरमजरूआ जमीन पर बने हुए हैं. इलाके में मजदूर तो हैं लेकिन उन्हें कोई काम नहीं मिलता है. इसलिए दिल्ली, पंजाब जाने वालों की संख्या इलाके में बहुत ज्यादा है.’ रघुनाथ सदा के पास एक और खास जानकारी है. उनके अनुसार कोसी तटबंध के भीतर सैकड़ों ऐसे गांव हैं जिनका कोई नाम ही नहीं है. ऐसे गांव को नवटोला कहा जाता है. बाढ़ के दिनों में बांध पर या ऊंचे स्थान पर नवटोले बस जाते हैं. उजड़ने और बसने का सिलसिला चलता रहता है.

कोसी तटबंध के भीतर सैकड़ों ऐसे गांव हैं जिनका कोई नाम नहीं है. इन नवटोलों के उजड़ने और बसने का सिलसिला साल भर चलता रहता है

महेंद्र सदा भी उजवा में रहते हैं. सूद ने इलाके के जीवन को दीमक की तरह चाटकर किस तरह खोखला कर दिया है, महेंद्र उसके बारे में बताते हैं, ‘हमलोगों के पास न बसने की जमीन है और न खेत-पथार. मालिक से सूद लेकर घर चलाते हैं. उस सूद को चुकाने के लिए महाजन से कर्ज लेकर बाहर कमाने जाना पड़ता है. फिर कमाते रहते हैं और सूद चुकाते रहते हैं.’ और जैसा कि उजवा के ही एक बुजुर्ग रामसेवक सदा का अनुभव है, ‘मालिक का सूद जिनगी भर नहीं चुकता है.’

इन इलाकों में लंबे समय से जलजमाव ने समाज के सबसे निचले तबके के लोगों से उनके रहे-सहे संसाधन और जीविका के परंपरागत तरीके छीन लिए हैं. खेती चौपट है और बड़े पैमाने पर पलायन ने गांवों के पुराने संबंधों और संगठनों को ध्वस्त कर दिया है. लोग प्रायः बाहर रहते हैं जिनके लिए संभव नहीं होता कि वे अपने ऊपर हो रहे अत्याचारों का विरोध कर पाएं. वे संगठित होकर अपने अधिकारों और योजनाओं में हिस्सेदारी की मांग भी नहीं कर पाते.

धान और दलहन इस इलाके की सबसे प्रमुख फसलें थीं. लेकिन अब वे सपना हो गई हैं. कभी पानी उतरा तो मक्के की फसल हो जाती है वरना वह भी नहीं. बहुसंख्यक आबादी मछली बेचकर जीवन गुजारती है. पहले जिनके पास खेत नहीं होते वे मवेशी पालकर इसकी भरपाई कर लेते थे. लेकिन जलजमाव ने चरागाहों और घास के मैदानों को तबाह करने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी है. अब पशुपालन से होने वाली आय की संभावना भी खत्म हो गई है. यहां निश्चितता सिर्फ घोंघों को लेकर है, जो भरपूर मिलते हैं और लोगों के भोजन में वे लगभग नियमित जगह पा गए हैं. घोंघों के अलावा यहां लगभग हर घर में एक जैसा ही भोजन बनता है, मक्के की रोटी और नमक के साथ लाल मिर्च.

लेकिन इस जलजमाव में एक फसल खूब लहलहा रही है. वह है कालाजार की फसल. पानी जमा होने के कारण मच्छर इस इलाके में भरपूर संख्या में मिलते हैं. अर्जुन सदा पास के दिघिया घाट के हैं. उनके अपने 10 परिजनों की मौत कालाजार से हुई है- पांच भाई, पत्नी, दो बेटियां, भाभी और पिता धनिक सदा. अकेले इस गांव में पिछले एक साल में 40 से अधिक मौतें कालाजार से हुई हैं. 90 परिवारों वाले दलितों के इस गांव में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसके किसी न किसी सदस्य की मौत हाल के कुछ वर्षों में कालाजार से नहीं हुई हो. लेकिन इन गांवों में कालाजार से मरने वाले लोगों का कोई लेखा-जोखा सरकार के पास नहीं है. प्रखंड का प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्र ऐसी मौतों को दर्ज नहीं करता. इसी तरह डूबकर मरने, सांप के काटने से मौत और बीमारी से होने वाली मौतें भी कहीं दर्ज ही नहीं हैं. उनके ब्योरे सिर्फ गांव के लोगों को याद हैं.

दूसरे राज्यों में गए लोगों की बीमारी या दुर्घटना से जब मौत हो जाती है तो इसकी खबर तक उनके गांव नहीं पहुंच पाती. दिघिया के महेंद्र सदा बताते हैं, ‘पंजाब, हरियाणा से जब पुलिस लावारिश लाशों की सूची लेकर आती है तो वह पटना से ही लौट जाती है. ढाई सौ किलोमीटर दूर रह रहे गांववालों को जिंदगी भर अपनों की मौत की पक्की खबर नहीं मिल पाती.’ जाहिर है कि लापता लोगों की संख्या भी इस इलाके में बहुत अधिक है. रघुनाथ सदा कहते हैं, ‘असमय मौत इस इलाके में एक रूटीन खबर की तरह है.’

उजवा से बारह किलोमीटर पैदल चलने पर आता है घोंघेपुर गांव. कोसी पर बना पश्चिमी तटबंध यहीं खत्म होता है. यह घोंघेपुर दरभंगा जिले के कीरतपुर प्रखंड में पड़ता है. यहां तीन जिलों सहरसा, मधुबनी और दरभंगा की सीमाएं आकर मिलती हैं. मुसलमानों और मुसहर महादलितों का गांव भुभोल शेख भी यहीं है. तटबंध और नदियों के पानी को यहां पहुंचे आधी सदी हो चुकी है, लेकिन कोई सरकारी योजना अब तक इस गांव में नहीं पहुंची है. भूमिहीनों के इस गांव में पलायन और सूद पर लिए गए कर्जे ही जिंदगी को आगे बढ़ाते हैं. यहां की निवासी गुलशन परवीन का परिवार दस लोगों का है. उनके पति बाहर रहते हैं और वहां से कमाकर जो वे भेजते हैं वह सारी रकम इलाज और लिए गए कर्ज का सूद चुकाने में चली जाती है. यहां की रहीमा खातून बताती हैं, ‘गांव के 11 आदमियों से पाली गांव के पंचायत सेवक गंगा पासवान ने इंदिरा आवास के नाम पर दो-दो हजार रुपए लिए. लेकिन किसी को अब तक घर नहीं मिला.’ जिन लोगों ने कर्ज लेकर पंचायत सेवक को रिश्वत दी थी वे अब पंजाब-हरियाणा में मजदूरी करते उसका सूद चुका रहे हैं.

गांव में मुसहरों के 70 परिवार हैं. भूखे, निर्धन और फटेहाल परिवार. यही हालत कीरतपुर में भी है. कीरतपुर, 1967 से विधायक और मंत्री रहे महावीर प्रसाद यादव का गांव है. लेकिन इसमें और दूसरे गांवों में कोई फर्क नहीं. यहां भी नाव से ही पहुंचा जा सकता है. बेघरों और बेरोजगारों की संख्या यहां भी उतनी ही है. पलायन और कुपोषण यहां भी है. बीमारियों का इलाज यहां भी दैवी ताकतों और जंगली जड़ी-बूटियों पर अधिक निर्भर है.

जिस इलाके में सामाजिक संगठनों का अभाव हो वहां भ्रष्टाचार का हदें पार कर जाना सामान्य बात है. इन इलाकों में चल रही सभी सरकारी योजनाएं भ्रष्टाचार के चलते दम तोड़ चुकी हैं.

इसी प्रखंड में बूढ़ी इनायतपुर पंचायत के मुखिया सुधीर कुमार के प्रति लोगों में काफी रोष है. ग्रामीणों का आरोप है कि इतनी बदहाली के बावजूद उन्हें किसी योजना का लाभ नहीं मिलता. सभी योजनाओं की राशि, अनाज और राहत सामग्री प्रखंड अधिकारी और मुखिया मिलकर आपस में बांट लेते हैं. हालांकि सुधीर कुमार इन आरोपों को खारिज करते हुए कहते हैं, ‘इलाके में इतनी गरीबी है कि सबको भरपेट भोजन रिलीफ फंड से नहीं दिया जा सकता है.’ वे महात्मा गांधी राष्ट्रीय रोजगार गारंटी योजना (मनरेगा) में राशि गबन करने के आरोपों को भी खारिज करते हैं. लेकिन इस पंचायत में मनरेगा के तहत 100 से अधिक लोगों के दो लाख सतहत्तर हजार रुपए की राशि को अवैध ढंग से निकाल लेने की सूची तहलका के पास है. यहां 97 महिलाओं ने आरोप लगाया है कि उनसे काम करवा लिया गया और पैसा नहीं दिया गया. दूसरी सरकारी योजनाओं अंत्योदय अनाज योजना, इंदिरा आवास योजना, वृद्धावस्था पेंशन योजना, फसल क्षति पूर्ति योजना, विधवा पेंशन योजनाओं आदि का जमीन पर पता नहीं है. बूढ़े इनायतपुर पंचायत के 120 लोगों ने वृद्धावस्थापेंशन के लिए 2007 में ही आवेदन प्रखंड विकास पदाधिकारी को दिया गया था, लेकिन पेंशन आज तक नहीं मिली है जबकि आवेदन देने वालों में से कम से कम आठ लोगों की इस दौरान मृत्यु ही हो गई. लोगों की बदहाली को थोड़ा कम किया जा सकता था, अगर योजनाएं ढंग से काम करतीं. लेकिन कोसी तटबंध के गांवों में सरकारी योजनाओं में लूट के हजारों किस्से हैं.

90 परिवारों वाले दलितों के इस गांव में कोई भी परिवार ऐसा नहीं है जिसके किसी न किसी सदस्य की मौत हाल के कुछ वर्षों में कालाजार से नहीं हुई हो

ऐसी बदहाली परिवारों को तोड़ रही है, रिश्तों को कमजोर कर रही है. कुशेश्वरस्थान से बनारस और भदोही के लिए सीधी बसें चलती हैं. इन बसों में भरकर बच्चे कालीन उद्योगों और दियासलाई के कारखानों में काम करने के लिए भेजे जाते हैं. फैक्टरी के दलाल कर्ज में गले तक डूबे माता-पिताओं के हाथ में कुछ सौ रुपए थमाकर बच्चों को ले जाते हैं. कुशेश्वरस्थान में बालमुक्ति अभियान के कार्यकर्ता घुरन सदा के अनुसार यहां बच्चों को बेचने के सैकड़ों मामले भी सामने आए हैं.

जलजमाव के इस संकट पर लगभग हर विधानसभा सत्र में चर्चा होती है लेकिन नतीजा कुछ नहीं निकलता. दो दशक पहले राज्य सरकार ने इस इलाके को बर्ड सेंक्चुरी बनाने की घोषणा की थी, जिसके तहत यहां पर्यटन को भी बढ़ावा दिया जाना था. लेकिन दिनेश कुमार मिश्र इससे सहमत नहीं हैं. वे कहते हैं, ‘पीसा की मीनार का टेढ़ा होना ढांचागत नाकामी थी. यह इंजीनियरों की गलती थी. लेकिन इस पर शर्म करने की बजाय गर्व किया गया. इससे पैसा बनाया जाने लगा. इसी तरह यह जलजमाव एक बड़ी ढांचागत नाकामी है, जिस पर शर्म की जानी चाहिए. सरकार इसे भी पीसा की मीनार बनाना चाहती है. इसके नतीजे बहुत बुरे होंगे. पर्यटन के साथ फैलने वाली बुराइयां भी फैलेगी जैसे- वेश्यावृत्ति.

इसके एक समाधान के रूप में पिछले कुछ समय से मांग की जा रही है कि खगड़िया के अलौली प्रखंड के फुहिया गांव में तीनों नदियों पर तटबंध बनाकर उन्हें वहां पहुंचा दिया जाए. लेकिन मिश्र इसके और भी बुरे नतीजों की ओर इशारा करते हैं, ‘यह समस्या का कोई समाधान नहीं है. बल्कि भविष्य में यह संकट को और बढ़ाएगा क्योंकि तब वर्षा के पानी को निकलने के लिए रास्ता नहीं मिलेगा और फिर नया जलजमाव शुरू हो जाएगा.’

इस यातना से भरे त्रासद जीवन से निजात दिलाने की जिनसे उम्मीद की जाती है वे पूरी तरह संवेदनहीन हो चुके हैं. उन्हेंे गेंद को एक-दूसरे के पाले में फेंकने के सिवा कोई रास्ता नहीं दिखता. झंझारपुर से जदयू के विधान पार्षद विनोद सिंह इस त्रासदी के लिए केंद्र सरकार को जिम्मेदार मानते हैं. वे कहते हैं, ‘तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू और राष्ट्रपति राजेंद्र प्रसाद ने परियोजना का विरोध कर रहे लोगों को आश्वासन दिया था कि तटबंध के भीतर और कछार पर पड़ने वाले गांवों को पुनर्वासित किया जाएगा. कुछ गांवों को पुनर्वासित किया गया लेकिन सैकड़ों गांव आज तक पुनर्वासित नहीं हो सके. जिसके कारण इस क्षेत्र की स्थिति विकराल बनी हुई है.’

वहीं कोसी प्रभावित सिंघिया विधानसभा क्षेत्र के विधायक व कांग्रेस के वरिष्ठ नेता अशोक कुमार इससे सहमत नहीं हैं. उनका कहना है, ‘कोसी क्षेत्र के लोग बिहार सरकार के भरोसे नहीं बल्कि भगवान के भरोसे जीते हैं. लालू और नीतीश सरकारों ने तो इनका बेड़ा गर्क कर दिया है. केंद्र पोषित कोई भी योजना तटबंध के भीतर लागू नहीं हो पाई है. स्कूल, स्वास्थ्य केंद्र और थाने सब कागज पर चलते हैं.’

और इन सबके बीच रामचंद्र सदा हमेशा के लिए पंजाब से लौट आए हैं. वे अब कोई काम नहीं कर पाते. पत्नी की ही तरह उन्हें भी एक अनजान-सी बीमारी है. उनके पास उतने पैसे नहीं हैं कि वे डॉक्टर को दिखा सकें. दिन ब दिन बढ़ती जा रही कमजोरी उन्हें उनकी पत्नी की मौत की याद दिलाती है.

रामचंद्र दलितों के उस तबके से आते हैं जिसे सरकार ने महादलित घोषित कर रखा है. पटना में बैठे विशेषज्ञ मान रहे हैं कि विधानसभा चुनाव में जीत-हार का दारोमदार महादलितों के वोटों के झुकाव पर भी निर्भर करेगा. लेकिन शायद रामचंद्र सदा के लिए इसका कोई मतलब नहीं है. उनके साथ ही कोसी क्षेत्र के उन 12 लाख दूसरे लोगों के लिए भी, जो इस बार का वोट भी नाव पर चढ़कर देने जाएंगे या हो सकता है न भी जाएं.

'…पर क्या आजाद भारत किसी लिहाज से संपूर्ण है?'

आपने दिल्ली और कश्मीर में जो बयान दिए उनके आधार पर सरकार आपके खिलाफ राजद्रोह का मुकदमा चलाने पर विचार कर रही है. राजद्रोह आपकी नजर में क्या है? क्या आप खुद को राष्ट्रद्रोही मानती हैं? दिल्ली और श्रीनगर में ऐसे मंच से बयान देने के पीछे आपकी मंशा क्या थी जिसका शीर्षक था – आजादी: द ओनली वे?

राजद्रोह एक आदिम और लुप्तप्राय विचार है जिसे टाइम्स नाउ ने हमारे लिए दोबारा से जिंदा कर दिया है. चैनल पागलों की तरह मेरे पीछे पड़ा हुआ है और मुझे भीड़ के गुस्से के हवाले कर देना चाहता है. मेरी बिसात क्या है? इतने बड़े चैनल के लिए एक तिनका. इस तरह के माहौल में किसी लेखक को जान से मार देना बड़ी बात नहीं है, लगता है चैनल यही करना चाहता है. अगर मैं सरकार होती तो थोड़ा-सा रुककर पूछती कि कैसे एक टीवी चैनल इतने आदिम विचारों के सहारे इस तरह की हलचल मचाने और सबको अंतर्राष्ट्रीय शर्मिंदगी की राह पर ले जाने में सफल हुआ. इस वजह से कश्मीर मुद्दे का काफी हद तक अंतर्राष्ट्रीयकरण हो गया है. एक ऐसी स्थिति जिससे भारत सरकार बचना चाहती रही है.

ऐसा इसलिए भी हुआ कि भाजपा किसी भी सूरत में इंद्रेश कुमार को आरोपित करने के मामले से ध्यान भटकाना चाहती थी. उन्हें बिलकुल सटीक मौका मिल गया और टाइम्स नाउ की अगुआई में मीडिया की  मुराद पूरी हो गई. मुझे ऐसा कभी नहीं लगा कि मैं राजद्रोह कर रही हूं. दिल्ली के सेमिनार में शामिल होने के लिए मैंने तब हामी भरी थी जब इसका शीर्षक भी तय नहीं हुआ था. मेरे खयाल से यह उनके लिए थोड़ा उत्तेजक था जो ऐसा होने के लिए तैयार ही बैठे थे. आधी सदी से भी ज्यादा समय से कश्मीर में जो चल रहा है उसे देखते हुए मुझे यह कोई बड़ी बात नहीं लगती. श्रीनगर में आयोजित सेमिनार का विषय था- ‘कश्मीर किस ओर? दासता या आजादी?’ यह इसलिए था कि कश्मीरी युवा इस बात पर गहराई से बहस कर सकें कि उनके लिए आजादी का मतलब क्या है.  इसका मकसद लोगों को हथियार उठाने के लिए भड़काने से उलट विचार करना और  बहस को और भी संजीदा बनाना और असहज सवाल पूछना था.

आपने सैयद अली शाह गिलानी और वारवरा राव के साथ मंच साझा करने का फैसला क्यों किया? यदि आपने यह बयान व्यक्तिगत तौर पर एक लेखक के नाते दिया होता तो शायद लोग इसे ऐसे न लेते.

यह आम लोगों का मंच था जो किसी सरकारी तंत्र का हिस्सा नहीं हैं. इनके अपने-अपने व्यक्तिगत विचार हैं. वारवरा राव और गिलानी दो बिलकुल अलग विचारधाराओं के लोग हैं. यह अपने आप में इस बात का सबूत है कि वहां अलग-अलग सोच के लोग मौजूद थे. मैंने ऐसा तो नहीं कहा कि मैं हुर्रियत (गिलानी) या फिर सीपीआई (माओवादी) से जुड़ने जा रही हूं. मैंने वही कहा जो मैं सोचती हूं.

आखिर कितने लोगों ने रतन टाटा और मुकेश अंबानी से तब सवाल किए जब उन्होंने नरेंद्र मोदी से गुजरात गरिमा पुरस्कार ग्रहण किया और उन्हें गले लगाया

गिलानी बेहद मुखर पाकिस्तान समर्थक, शरिया समर्थक और जमात समर्थक हैं. अतीत में उनके हिज्बुल से रिश्ते रहे हैं, कश्मीर की अंदरूनी राजनीति में उनकी हिंसक भूमिका रही है. कश्मीर के बारे में नजरिया रखना अलग बात है लेकिन गिलानी के साथ मिलकर ऐसा करने की क्या जरूरत थी? आप भारत सरकार की तरह गिलानी की भी निंदा क्यों नहीं करतीं?

बहुत-से ऐसे कश्मीरी हैं जो गिलानी के विचारों से सहमत नहीं हैं लेकिन उनकी इज्जत करते हैं क्योंकि उन्होंने खुद को भारत के हाथों बेचा नहीं. खुद मैं उनकी कई बातों से इत्तेफाक नहीं रखती, मैंने इनके बारे में लिखा भी है. जब मैं बोल रही थी उस वक्त भी मैंने यह बात साफ कर दी थी. अगर वे एक देश के प्रमुख हों जहां मैं रहती हूं और वे अपने विचार मुझ पर थोपें तो मुझसे जितना बन पड़ेगा उनका विरोध करूंगी.

लेकिन जैसे हालात आज कश्मीर में हैं, उनकी तुलना भारत से करना और उसी अनुपात में उनकी आलोचना करना मेरे खयाल से हास्यास्पद है. भारत सरकार, सर्वदलीय प्रतिनिधिमंडल के सदस्य और हाल ही में गए वार्ताकार, सबको पता है कि कश्मीर में जो हो रहा है गिलानी की उसमें अहम भूमिका है. जहां तक कश्मीर के अंदरूनी संघर्ष के पीछे उनकी भूमिका की बात है तो यह भी एक सच्चाई है. नब्बे के दशक में वहां भयावह घटनाएं हुईं, दिल दहलाने वाली हत्याएं हुईं, कुछ में तो गिलानी को अरोपी भी बनाया गया. लेकिन आंतरिक वर्चस्व का संघर्ष हर आंदोलन का हिस्सा होता है. आप इसकी तुलना राज्य प्रायोजित हिंसा से नहीं कर सकतीं. दक्षिण अफ्रीका में अफ्रीकी नेशनल कांग्रेस और काले समूहों के बीच हिंसक संघर्ष हुए जिसमें स्टीव बीको सहित सैकड़ों लोग मारे गए. तो क्या आप यह कहेंगी कि नेल्सन मंडेला के साथ किसी मंच पर बैठना अपराध है?

लेकिन सेमिनारों के जरिए उनके किए पर सवाल उठाकर, लेख लिखकर उनमें बदलाव लाने के प्रयास किए जा रहे हैं. वे अब जो बातें कहते हैं उनमें और पहले में काफी अंतर है. लेकिन मुझे यह अजीब लग रहा है कि आखिर कितने लोगों ने रतन टाटा और मुकेश अंबानी से तब सवाल किए जब उन्होंने नरेंद्र मोदी से गुजरात गरिमा पुरस्कार ग्रहण किया और उन्हें गले लगाया. वह तो कोई सेमिनार नहीं था… उन्होंने मोदी को महान प्रधानमंत्री के लायक बताया. यह सही है?

यही तर्क तो वारवरा राव पर भी लागू हो सकता है. वे आपकी तरह सामाजिक न्याय की बात और भारत राज्य की आलोचना कर सकते हैं. लेकिन माओवादी दर्शन में क्रांति का रास्ता हथियार और हिंसा से निकलता है. जबकि आप ऐसा नहीं सोचतीं. तो ऐसे में जब कश्मीर में स्थितियां नाजुक हैं आपने राव और गिलानी के साथ मंच साझा करने का विकल्प क्यों चुना?

माओवादियों के बारे में मैंने अपने विचार काफी विस्तार से लिखे हैं और यहां एक वाक्य में उसका वर्णन नहीं कर सकती. मैं वारवरा राव की कई बातों के लिए प्रशंसा करती हूं. हालांकि मैं उनकी हर बात से सहमत नहीं हूं. लेकिन आज मैं माओवाद और कश्मीर की हालत पर जो भी कह रही हूं वह मौजूदा संवेदनशील समय को देखते हुए बेहद जरूरी है, विशेषकर तब जब हमारा मीडिया भ्रांतियां फैलाने की मशीन बन गया है. यह लोगों के दिमाग को कुंद करने की कोशिश में लगा है. ये किताबी बातें नहीं हैं; ये आम जनता के जीवन, उसकी सुरक्षा और सम्मान से जुड़े मसले हैं.

मैंने कभी भारतीय सेना को बलात्कारियों का संस्थान नहीं कहा. मैंने सिर्फ यह कहा था कि सभी औपनिवेशिक ताकतें अपनी सत्ता की स्थापना स्थानीय निवासियों के एक कुलीन समूह द्वारा करती हैं

आप एक बार फिर से राष्ट्र और उसको हासिल ताकत की आलोचना कर रही हैं. आप ऐसे व्यक्ति का समर्थन क्यों कर रही हैं जो कश्मीर को भारत से छीनकर पाकिस्तान में मिलाना चाहता है, जो हमसे भी ज्यादा अराजक और अस्थिर है?

क्या आप मुझे एक भी ऐसा सबूत दे सकती हैं जिसमें मैंने कश्मीर को भारत से छीनकर पाकिस्तान से मिलाने का समर्थन किया हो? क्या सिर्फ गिलानी ही कश्मीर में आजादी की मांग कर रहे हैं? मैं कश्मीरी जनता के आत्मनिर्णय के अधिकार का समर्थन कर रही हूं. यह गिलानी का समर्थन करने से अलग है.

और अब सवाल के दूसरे हिस्से का जवाब- हां, मैं उन लोगों में हूं जिन्हें राष्ट्र के विचार से परेशानी होती है लेकिन यह सवाल पहले उन लोगों से पूछा जाना चाहिए जो सुरक्षित व सुखमय जीवन बिता रहे हैं न कि उन लोगों से जो बर्बर कब्जे को उखाड़ फेंकने के लिए संघर्ष कर रहे हैं. हो सकता है आजाद कश्मीर एक असफल राज्य बनकर रह जाए, पर क्या आजाद भारत किसी लिहाज से संपूर्ण है? क्या आज हम कश्मीरियों से वही सवाल नहीं पूछ रहे हैं जो कभी हमसे हमारे साम्राज्यवादी शासक पूछा करते थे – क्या यहां के लोग आजादी के लिए तैयार हैं?

सारा विवाद आपके भाषण के सिर्फ एक हिस्से से पैदा हुआ है-  ‘कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है. यह ऐतिहासिक सच्चाई है.’  आपने ऐसा किस आधार पर कहा (क्योंकि इतिहास और वास्तविक शिकायतें दो अलग-अलग चीजें हैं)?

इतिहास सबको पता है. मैं यहां लोगों को प्राइमरी स्तर का इतिहास बताने नहीं जा रही हूं. क्या यह बात सही नहीं है कि जिन संदिग्ध परिस्थितियों में कश्मीर का विलय भारत में हुआ वह मौजूदा विवाद की वजह है? आखिर भारत सरकार ने वहां सात लाख सुरक्षा बल क्यों तैनात कर रखे हैं? आखिर आपके वार्ताकार क्यों आजादी के रोडमैप की बात कर रहे हैं या इसे विवादित क्षेत्र कह रहे हैं? जब भी हमारे सामने कश्मीर की जमीनी हकीकत आती है, हम आंखें क्यों फेर लेते हैं?

जो लोग आपके अभिव्यक्ति के अधिकार का समर्थन कर रहे हैं उनमें भी कइयों का मानना है कि आपका बयान दूसरे तरीके से आ सकता था मसलन- ‘कश्मीरी खुद को भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं मानते’, या फिर ‘कश्मीरी आत्मनिर्णय का अधिकार चाहते हैं जो उन्हें मिलना चाहिए.’

अगर यही बात अंग्रेज कहते कि ‘भारतीय भले ही खुद को ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा नहीं मानते हों लेकिन भारत ब्रिटिश साम्राज्य का हिस्सा है’ तब हमें कैसा लगता? मेरे ये शुभचिंतक क्या नहीं जानते कि आम आदमी का अपनी जमीन से किस तरह का जुड़ाव होता है? क्या यही सुझाव बस्तर के आदिवासियों पर भी लागू होता है? क्या उन्हें ऐसा सोचने की आजादी है कि वे भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है, लेकिन उनकी प्रचुर संपदा वाली जमीनें भारत का हिस्सा हैं? आदिवासी अपनी सारी परंपरा और विचार लेकर शहरी झुग्गियों में चले जाएं और अपनी जमीनें खनन कंपनियों के हवाले छोड़ दें?

आजादी के बारे में आपकी क्या राय है? आप राष्ट्र के सिद्धांत की आलोचना करती हैं तो फिर एक नए राष्ट्र के निर्माण का समर्थन कैसे कर रही हैं? आप एक ऐसे देश का विचार रख सकती हैं जिसमें सीमाएं महत्वहीन हों, पहचान का मुद्दा गौण हो.

मैं आजादी को किस तरह परिभाषित करती हूं यह बात मायने नहीं रखती. मायने रखता है कश्मीरी लोग इसे किस रूप में देखते हैं. जहां तक राष्ट्र को लेकर मेरे आलोचनात्मक नजरिए का सवाल है तो इसे कमजोर करने की प्रक्रिया हमें अपने घर से शुरू करनी होगी. नाभिकीय हथियारों को नष्ट कर, झंडे को खत्म करके, सेना को बैरक में भेजकर और राष्ट्रवादी नारेबाजी पर पाबंदी लगाकर. तभी हम दूसरों को भाषण दे सकते हैं.

आपके ऊपर आरोप है कि आपने लोगों से सेना में भर्ती होकर बलात्कारी न बनने की अपील की. यह एक सेना जैसे बड़े संस्थान को एक बड़े ब्रश से बिना देखे रंगने सरीखा है. क्या आपके बयान को तोड़-मरोड़कर पेश किया गया? क्या आप बता सकती हैं कि आपने अपने भाषण में क्या कहा था?

मैं जो कहती हूं उसे न जाने कितनी बार तोड़ा-मरोड़ा गया है. मैंने कभी वह नहीं कहा जिसे टीवी की बहस दर बहस मेरे द्वारा कहा बताया जा रहा है. कई बार तो ऐसा जान-बूझकर किया गया. द पायनियर ने हेडलाइन दी कि मैंने कश्मीर को ‘भूखे नंगे हिंदुस्तान’ से अलग करने की वकालत की है. मैंने जो कहा और लिखा था वह इसके बिलकुल उलट था. 2008 में कश्मीर की सड़कों पर जब मैंने नारा सुना ‘भूखा, नंगा हिंदुस्तान, जान से प्यारा पाकिस्तान’ तब मुझे बहुत दुख हुआ था. मैंने कहा था कि इस घटना से मुझे बहुत धक्का लगा कि कश्मीरी उन लोगों का मजाक उड़ा रहे हैं जो उसी राज्य के हाथों पीड़ित थे जिनसे कि खुद कश्मीरी. मैंने कहा कि यह सतही राजनीति है. मुझे पता है कि इसके बाद भी द पायनियर मुझसे माफी नहीं मांगेगा. वे अपना झूठ जारी रखेंगे. पहले भी उन्होंने यही किया है. मैंने कभी भी भारतीय सेना को बलात्कारियों का संस्थान नहीं कहा. मैं कोई पागल नहीं हूं. मैंने सिर्फ यह कहा था कि सभी औपनिवेशिक ताकतें अपनी सत्ता की स्थापना स्थानीय निवासियों के एक कुलीन समूह द्वारा करती हैं. कश्मीर में भी यही हुआ है. वे कश्मीरी ही हैं जो स्थानीय पुलिस, सीआरपीएफ और सेना आदि में शामिल होकर खुद पर कब्जा जमाने वाली ताकत का साथ दे रहे हैं. मैंने कहा था कि अगर वे लोग इस कब्जा जमाने वाली ताकत को खत्म करना चाहते हैं तो उन्हें पुलिस में भर्ती नहीं होना चाहिए. इस तरह का मूर्खतापूर्ण घालमेल और बेतुकापन बेहद खतरनाक है. कभी-कभी मुझे लगता है कि मेरी लड़ाई इसी मूर्खपने से है. जो कुछ आज टीवी पर दिखाया जा रहा है उसे अगर देश की बुद्धिमत्ता का पैमाना मान लें तो हम गंभीर संकट में हैं. आवाज का स्तर आईक्यू के स्तर का व्युत्क्रमानुपाती होता है. किस्मत से मैं खूब यात्राएं करती हूं और हर दिन ढेरों लोगों से बातचीत करने पर लगता है कि स्थितियां इतनी बुरी नहीं हैं.

आपके आलोचक हमेशा आपके ऊपर यह आरोप लगाते हैं कि आप कश्मीरी पंडितों के प्रति कभी संवेदना नहीं दिखातीं.

मेरे आलोचकों को मेरा लिखा पढ़ना चाहिए और मैं जो बोलती हूं उसे सुनना चाहिए. यहां मैं एक बात साफ कर दूं- कश्मीरी पंडितों के साथ जो हुआ वह बेहद दुखद है. मेरा मानना है कि कश्मीरी पंडितों की दुखद कहानी की पूरी जटिलताओं को सामने लाने का काम अभी बाकी है. इसमें सबकी गलती थी, आतंकवाद की, घाटी में इस्लामी विद्रोह की और भारत सरकार की भी जिसने घाटी से कश्मीरी पंडितों के पलायन को शह दी जबकि उसे उन्हें हर हालत में सुरक्षा देनी चाहिए थी. गरीब कश्मीरी पंडित आज भी जम्मू के विस्थापन शिविरों में नारकीय जीवन जी रहे हैं. उनके अधिकारों की लड़ाई पर कुछ धूर्त नेताओं का कब्जा हो गया है. इन लोगों को गरीब बनाए रखने में इनका हित छिपा है. चिड़ियाघर के जानवरों की तरह ये इनकी गरीबी की नुमाइश करते रहते हैं. अगर सरकार ईमानदारी से चाहती तो क्या इन लोगों की दुर्दशा को दूर नहीं किया जा सकता था? मैं जब भी कश्मीर जाती हूं मुझे इस बात का एहसास होता है कि पंडितों के जाने का आम कश्मीरी मुसलमानों को गहरा दुख है. अगर यह बात सही है तो कश्मीर संघर्ष के मौजूदा नेताओं की यह जिम्मेदारी बनती है कि वे पंडितों की वापसी के प्रयास करें. सिर्फ भाषणबाजी से काम नहीं चलेगा. इससे सिर्फ एक बढ़िया काम का संतोष ही नहीं मिलेगा बल्कि उनके संघर्ष को जबर्दस्त नैतिक बल भी मिलेगा. इससे उनके उस कश्मीर के विचार को भी एक आकार मिलेगा जिसके लिए वे संघर्ष कर रहे हैं. यहां इस बात को ध्यान में रखना होगा कि पंडितों की थोड़ी आबादी अभी भी घाटी में तमाम संकटों के बावजूद रह रही है, उन्हें किसी ने नुकसान भी नहीं पहुंचाया है.

भारत और उसकी क्षमताओं के प्रति आपके नकारात्मक रुख और विश्वासघाती रवैए के चलते लोग आपकी आलोचना करते हैं, बावजूद इसके कि आप इसकी सभी सुविधाओं का पूरा फायदा भी उठाती हैं. भारत के साथ आप अपने संबंधों को किस तरह से परिभाषित करेंगी?

अपने आलोचकों से मैं ऊब चुकी हूं. वे खुद ही इसका फैसला कर सकते हैं. मैं इस देश और यहां के लोगों के साथ अपने संबंधों की व्याख्या नहीं कर सकती. मैं कोई नेता नहीं हूं जिसे इन सबसे कोई फायदा उठाना है.

‘जाति का सवाल इस देश में आगे भी रहेगा’

अब तो चुनावी इंटरवल खत्म हो गया, क्या लगता है आपको?

लगना क्या है, हम बेहतर करेंगे, मुझे पूरा विश्वास है.

क्या इस बार वाकई में बिहार चुनाव विकास के मुद्दे पर लड़ा जा रहा  है?

चुनाव कभी एक मुद्दे पर नहीं लड़ा जाता. विकास के साथ ही मंडल इफेक्ट है. महंगाई है. सामाजिक विषमता है. भ्रष्टाचार है. केंद्र सरकार को सुप्रीम कोर्ट लगातार फटकार लगा रहा है भ्रष्टाचार के मसले पर. लेकिन यह पहली बार हो रहा है कि सरकार पर कोई असर नहीं हो रहा. कॉमनवेल्थ गेम्स में हम शुरू से कहते रहे कि इसमें घपले ही घपले हैं. अब बातें सामने आ रही हैं. हां, यह है कि इस बार बिहार चुनाव में विकास धुरी की तरह है.

इन मुद्दों से तो ऐसा लगता है कि आप इस चुनाव में केंद्र से राजनीतिक लड़ाई लड़ रहे हैं, कांग्रेस से मुकाबला कर रहे हैं.

बात मुकाबले की नहीं है. मैं समग्रता में मुद्दों की बात कर रहा हूं. देश की सीमा महफूज नहीं. पड़ोस में किसी भी देश से हमारे रिश्ते अच्छे नहीं हैं. क्या यह सब मसले नहीं हैं? आज हर जगह राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय कंपनियों के स्वार्थों के लिए आदिवासियों को विस्थापित किया जा रहा है. उनके जल, जंगल, जमीन को हड़पा जा रहा है जिससे तनाव की स्थिति है. मजबूरी में आदिवासी हथियार उठा रहे हैं. क्या यह सब मसले नहीं हैं!

अगर यह मसला है तो फिर आपकी सहयोगी भाजपा इसके लपेटे में आएगी, जिसने छत्तीसगढ़, झारखंड में ऐसे करार किए.

सवाल यह नहीं कि कौन दोषी है. सवाल मसलों का है. देश की समस्या का है.

क्या बिहार चुनाव में ये सब मुद्दे कारगर औजार साबित होंगे?

बिहार क्या देश के बाहर का राज्य है? गंगा का मैदानी इलाका है. हमेशा से अहम राज्य रहा है. और फिर हम चुनावी मैदान में तो मुख्य रूप से विकास के मुद्दों के साथ हैं ही. हम यह नहीं कह रहे कि हमने बिहार का कायाकल्प कर दिया लेकिन बुनियाद रख दी है. ऊसर जमीन से खर-पतवार निकाल दी है, उसमें हल जोत दिया है और उसे खेती योग्य बना दिया है.

इसके बावजूद जाति का सवाल ही सबसे अहम है इस चुनाव में!

जाति का सवाल आजादी के पहले भी इस देश में था, अब भी है और आगे भी हमेशा रहेगा. आर्थिक और सामाजिक विषमता जब तक है तब तक यह रहेगा ही. हां, समय-समय पर चुनावी मुद्दे बदलते जाएंगे.

आप जिस तरह कांग्रेस को बार-बार लपेटे में ले रहे हैं उससे लगता है कि कांग्रेस भी इस बार चुनाव में खेल बिगाड़ने की स्थिति में है.

कांग्रेस कहीं नहीं है. हमारा मुकाबला उनसे ही है, जिनको हमने बनाया, खड़ा किया. राष्ट्रीय जनता दल और रामविलास पासवान से मुकाबला है.

पर लालू प्रसाद तो खुद को खुद के दम पर स्थापित हुए नेता बताते हैं…!

लालू प्रसाद के कहने से होगा या जो इतिहास में दर्ज है वह सच होगा. पूरा देश जानता है कि लालू प्रसाद ने किस मजबूरी में राष्ट्रीय जनता दल का गठन किया था. उनको हमने अध्यक्ष पद के चुनाव में हराया तो उन्होंने रास्ता तलाश लिया. लालू, रामविलास दोनों को जनता दल ने ही बनाया.

चर्चा है कि आपकी पार्टी चुनाव के बाद कांग्रेस के साथ भी जा सकती है!

भाजपा के साथ हमारा गठबंधन है. हमने चुनाव में साथ कैंपेन किया है. ऐसी किसी स्थिति का सवाल ही नहीं.

आपने हाल ही में कहा कि राहुल गांधी को बांधकर गंगा में फेंक देना चाहिए तो बड़ा बवाल मचा. आप जैसे नेता की जबान फिसली या…

हमने ऐसा कभी नहीं कहा. मेरे पूरे वाक्य को सुनना होगा, संदर्भ को समझना होगा. मैंने यह कहा था कि देश की राजनीति में परिवारवाद हावी होता जा रहा है. पंजा पार्टी मां-बेटे की पार्टी है, लालटेन पार्टी पति-पत्नी की पार्टी है और बंगला छाप भाई-भाई की पार्टी है. तो पंजे में बंगले को लपेटकर, उसमें लालटेन को टांगकर, इन तीनों का भसान गंगाजी में कर देना चाहिए.

इस बार चुनाव में चार नेता केंद्र में हैं. नीतीश कुमार, लालू प्रसाद, रामविलास पासवान और सुशील मोदी. चारों जेपी मूवमेंट से जुड़े रहे हैं. इस बीच समाजवाद कहां है?

सुशील मोदी सदा से भाजपा के अंग रहे हैं. कायदे से लालू की भी कभी समाजवादी राजनीति की स्कूलिंग नहीं हुई. रही बात जेपी आंदोलन की तो उसमें सभी पार्टियों से लोग आए थे. समाजवाद तो एक दर्शन है. उसके प्रणेता राममनोहर लोहिया जी थे. समाजवाद कहां है इसे जानने के लिए यह जानिए कि आज देश में गांधी से ज्यादा लोहिया के अनुगामी हैं.

बिहार के इस चुनाव में नया क्या है?

नया यही है कि आपस में कभी एक रहे लोग ही गुत्थम-गुत्थी कर रहे हैं.

सच और असहमति को जेल भेजो

अरुंधती रॉय से शब्द उधार लेकर कहूं, तो सचमुच, तरस आता है इस देश के समाचार मीडिया खासकर समाचार चैनलों पर जो लेखकों और बुद्धिजीवियों को अपने मन की बात कहने के जुर्म में जेल भेजने की मुहिम चला रहे हैं. कई चैनलों की चली होती तो अरुंधती समेत अन्य कई बुद्धिजीवी देशद्रोह के आरोप में अब तक जेल में होते. उन पर तरस इसलिए आता है कि उन्हें पता नहीं कि उनकी इस मुहिम का क्या मतलब है. कहने की इच्छा होती है कि ‘हे दर्शकों-पाठकों-श्रोताओं, माफ करना, इन्हें पता नहीं कि ये क्या कर रहे हैं?’

आखिर अरुंधती ने ऐसा क्या कह दिया कि चैनलों पर हंगामा-सा बरपा हो गया है? क्या कश्मीर के बारे में कथित ‘राष्ट्रीय सहमति’ की लाइन से अलग असहमति में बोलना जुर्म है? क्या अरुंधती के बयान से सचमुच देश टूटने की नौबत आ गई है? सवाल यह भी है कि क्या सच पर सिर्फ चैनलों की ही इजारेदारी है. क्या अब किसी लेखक और बुद्धिजीवी को बोलने से पहले सच के ठेकेदारों से इजाजत लेनी पड़ेगी? और सबसे बढ़कर अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को कौन परिभाषित करेगा?

ये सवाल उठाने इसलिए जरूरी हैं कि पिछले कुछ वर्षों में कभी राष्ट्रवाद की आड़ में, कभी आतंकवाद से लड़ाई के बहाने, कभी लोगों की धार्मिक आस्थाओं और कभी समाज में नैतिकता की रक्षा के नाम पर अभिव्यक्ति की आजादी को दबाने और एक अघोषित सेंसरशिप थोपने की कोशिशें काफी तेज हो गई हैं. अभिव्यक्ति की आजादी के दायरे को लगातार संकुचित और सीमित करने की मुहिम चल रही है. खासकर अगर आपके विचार शासक वर्गों द्वारा गढ़ी गई ‘आम सहमति’ (जहां राजनीतिक रूप से कांग्रेस-भाजपा-सीपीएम से लेकर सभी किस्म के उदारवादी-मध्यमार्गी-दक्षिणपंथी एकमत हों) के दायरे को चुनौती देते हों तो फिर अरुंधती रॉय की तरह आपकी खैर नहीं है.

चिंता की बात यह है कि अब असहमत आवाजों को दबाने की ऐसी ज्यादातर कोशिशें सरकार या पुलिस की बजाय सांप्रदायिक फासीवादी अपराधी समूहों या भगवा देशभक्ति और कॉरपोरेट ‘विकास’ के ठेकेदारों द्वारा भीड़ को भड़काकर की जा रही है. पुलिस और सरकार आज्ञाकारी सेवक की तरह इस भीड़ के साथ खड़ी रहती है. लेकिन सबसे अधिक अफसोस की बात यह है कि अब इस भीड़ में समाचार मीडिया खासकर न्यूज चैनल भी शामिल हो गए हैं. उन्होंने आतंकवाद के खिलाफ देशभक्ति, विकास और नैतिकता का झंडा एक साथ उठा लिया है और जो भी उनके सुर में सुर मिलाने के लिए तैयार नहीं है वह उनके मुताबिक आतंकवाद का समर्थक, देशविरोधी और विकासविरोधी है.

क्या अब किसी लेखक और बुद्धिजीवी को बोलने से पहले सच के ठेकेदारों से इजाजत लेनी पड़ेगी

ऐसे में, अगर आपने कश्मीर से लेकर उत्तर-पूर्व और आदिवासी इलाकों में मानवाधिकारों की बात कर दी या विकास योजनाओं के बहाने कॉरपोरेट लूट पर गंभीर सवाल उठा दिए तो आपको देशविरोधी साबित करने में जरा भी देर नहीं लगती. वैसे तो हमारे समाचार चैनल बोलने की आजादी और सच के साथ खड़े होने के दावे करते नहीं थकते हैं और कई बार यह भ्रम भी होता है कि गोया वे सच और अभिव्यक्ति की आजादी के सबसे बड़े चैंपियन हों. आखिर मंत्रियों-अफसरों के भ्रष्टाचार के खुलासे हों या पुलिसिया ज्यादतियों को चुनौती देने का मामला हो या इस जैसे अन्य मामले, मीडिया और न्यूज चैनलों के ‘साहस’ की दाद देनी पड़ेगी!

लेकिन यही उनकी आजादी का दायरा है. इतनी आजादी पर आम सहमति है. लोकतंत्र और अभिव्यक्ति की आजादी के भ्रम को बनाए रखने के लिए मीडिया की स्वतंत्रता का यह दायरा बनाया गया है.  जब भी कोई लेखक, कलाकार या बुद्धिजीवी इससे बाहर जाने की कोशिश करता है, मीडिया और न्यूज चैनलों में उसे देश और समाज से बहिष्कृत करने की मुहिम शुरू हो जाती है. आश्चर्य नहीं कि इस कारण जब भी वास्तव में, सच और अभिव्यक्ति की आजादी के लिए लड़ने का मौका आता है, समाचार मीडिया ‘आम सहमति’ की तानाशाही के आगे रेंगता नजर आता है.

इस तरह, जिस समाचार मीडिया का अस्तित्व अभिव्यक्ति की आजादी से जुड़ा हुआ है और जिसकी विश्वसनीयता उसकी सच्चाई पर टिकी हुई है, वह खुद जाने-अनजाने बोलने की आजादी और सच का दुश्मन बनता जा रहा है. लेकिन सच पर किसी की बपौती नहीं है. मीडिया की भी नहीं. चैनलों को एक बात याद रखनी चाहिए कि जिस सच की वे कसमें खाते रहते हैं उस तक पहुंचने की यह अनिवार्य शर्त है कि अभिव्यक्ति की अधिकतम संभव आजादी की गारंटी की जाए. अगर कश्मीर सचमुच भारत का ‘अभिन्न अंग’ है तो देश के हर नागरिक को उसकी सच्चाई जानने का अधिकार है.

लेकिन यह सच्चाई तब तक सामने नहीं आ सकती जब तक सबकी बात न सुनी जाए, चाहे वह सैय्यद अली शाह गिलानी हों या अरुंधती रॉय या कोई और. यही लोकतंत्र का तकाजा है और अभिव्यक्ति की आजादी की परीक्षा भी.

हमें देश की सुरक्षा से खतरा है

कहते हैं, रूसी क्रांति के सूत्रधार ब्लादिमीर इल्यीच लेनिन को दो-दो जारों का सामना करना पड़ा. जार निकोलस द्वितीय को उसने हरा दिया, लेकिन दूसरे जार के आगे घुटने टेक दिए. यह दूसरा जार कौन था? यह थे महान रूसी उपन्यासकार लियो टॉल्स्टॉय जो रूसी जनता के दिलों पर राज करते थे. टॉल्स्टॉय कम्युनिस्ट नहीं थे. लेकिन लेनिन ने अपने कार्यकर्ताओं से कहा कि वे टॉल्स्टॉय का सम्मान करें. क्या बस इसलिए कि टॉल्स्टॉय लोकप्रिय थे? या इसलिए कि लेनिन टॉल्स्टॉय के लेखन में सत्य के उस अंश को पहचान पाते थे जो उनको बताता था कि अपने आकार-प्रकार, विषय, विधा और दृष्टि के फर्क के बावजूद अंततः अपने लक्ष्यों में वार ऐंड पीस और कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो बहुत भिन्न नहीं हैं? सत्तर साल बाद रूस की क्रांति बिखर गई तो शायद इसलिए भी कि उसमें लेनिन की वह उदार विश्व दृष्टि नहीं बची जो अपने समाज की आत्मा को पहचान पाती.
दरअसल जो समाज अपने लेखकों का सम्मान करते हैं वे अपनी संकीर्णताओं से उठना जानते हैं. फ्रांस में पांचवें गणतंत्र की नींव रखने वाले राष्ट्रपति चार्ल्स द गाल के समय महान फ्रेंच दार्शनिक और लेखक ज्यां पॉल सार्त्र को गिरफ्तार करने की मांग उठी थी. क्योंकि सार्त्र ने तब फ्रांस के उपनिवेश रहे अल्जीरिया की स्वाधीनता का समर्थन किया था. चार्ल्स द गाल ने कहा कि सार्त्र हमारे समय के वाल्टेयर हैं और फ्रांस अपने वाल्टेयर को गिरफ्तार नहीं कर सकता.

अरुंधती रॉय न लियो टॉल्स्टॉय है न ही वाल्टेयर या सार्त्र. बदकिस्मती से इस उदार बाजारवादी समय में हमारी निरंतर अनुदार होती राजनीति और राष्ट्र-दृष्टि अरुंधती को उतना भी सुनने को तैयार नहीं है जितना रूस अपने टॉल्स्टॉय और फ्रांस अपने सार्त्र को सुना करता था. अरुंधती रॉय लोगों को डरा रही हंै. पुलिस उनके भाषण के टेप सुन रही है कि उसमें देशद्रोह का अंश कितना है और सरकार उन पर मुकदमा करने से डर रही है कि इससे वे नायिका बन जाएंगी. दूसरे सिरे पर देशभक्ति की मारी भारतीय जनता पार्टी है जो थाने जाकर एफआईआर कराने की अर्जी दे आई है और अरुंधती के खिलाफ केस न दर्ज करने पर आंदोलन चलाने की धमकी दे रही है.

सवाल यह उठता है कि क्या हम वह भारत बचा पाए हैं जो कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर ही सही, लेकिन अपने साथ रखता था

निश्चय ही अरुंधती रॉय के लेखन और वक्तव्यों में एक तरह की निश्चयात्मकता है जो कई बार आक्रामक हो उठती है. जब वे इतिहास के हवाले से कहती हैं कि कश्मीर कभी भारत का हिस्सा नहीं रहा तो वे उस राजनीतिक भारत की बात करती हैं जिसका कभी वजूद ही नहीं रहा. मैं इतिहास का विद्यार्थी नहीं हूं, इसलिए ठीक-ठीक नहीं बता सकता कि इस वक्तव्य में कितनी तथ्यात्मकता है या फिर कितना अधूरापन है. लेकिन साहित्य के अपने अध्ययन से यह जानता हूं कि कश्मीर सांस्कृतिक तौर पर उस विशाल भारत से लगातार संवादरत और संबद्ध रहा जिसके दायरे में पाकिस्तान, बांग्लादेश और अफगानिस्तान तक चले आते हैं. लोकस्मृति में रामायण की कैकेयी कैकस प्रदेश की मानी जाती हैं जो शायद काबुल है और महाभारत की गांधारी गांधार प्रदेश, यानी कंधार की. मोहन राकेश के नाटक आषाढ़ का एक दिन का नायक कवि कालिदास काश्मीर- या कश्मीर- का शासक बनता है. यानी कश्मीर भारतीय स्मृति और संस्कृति का अभिन्न हिस्सा रहा है, लेकिन उसी तरह जैसे लाहौर और रावलपिंडी रहे हैं, जैसे काबुल और कांधार रहे हैं. 

लेकिन असली सवाल इसके बाद पैदा होते हैं और अरुंधती रॉय के सवालों से जुड़ते हैं. क्या हम वह भारत बचा पाए हैं जो कश्मीर को सांस्कृतिक तौर पर ही सही, लेकिन अपने साथ रखा करता था? और अगर वह भारत नहीं बचा है तो क्या कश्मीर को बंदूकों के सहारे अपने साथ रखने की हमारी जिद जायज है? क्या आधुनिक और आजाद भारत सिर्फ अंग्रेजों का दिया हुआ एक नक्शा है जिसके भूगोल की हिफाजत हमें करनी है और इसके लिए कुछ भी दांव पर लगा देना है? या भारत वह सांस्कृतिक स्मृति भी है, राजेंद्र माथुर के शब्दों में `सदियों की स्मृति के सिलिंडर में सिझाई गई वह शराब` जिससे देश बनता है? दुर्भाग्य से हम देश को भूल गए हैं और अंग्रेजों के दिए राष्ट्र को बचाने में अपने सारे संसाधन झोंक रहे हैं. यह काम भी हम बिलकुल अंग्रेजी कायदों से कर रहे हैं- यानी उन्हीं कानूनों के सहारे, उसी पुलिसतंत्र के सहारे, उसी अफसरशाही और दफ्तरशाही के सहारे और उसी लूटतंत्र के सहारे, जिसका काम बस एक इंतजाम बनाए रखना था, भारत नाम की एक भौगोलिक इकाई को चारों तरफ से बांधे रखना था, उसकी क्षेत्रीय इच्छाओं और जरूरतों को अपने बूटों तले रखना था और नागरिक अधिकारों को कुचलते हुए कुछ गिने-चुने लोगों के लिए सारी सहूलियतें जुटा लेना था.

आज के भारत में यही हो रहा है. अंग्रेजों का छोड़ा हुआ, अंग्रेजी शिक्षा से अंग्रेजियत के अहंकार का मारा हुआ, और पहले इंग्लैंड और अब अमेरिका को आदर्श मानने की ग्रंथि का शिकार एक अल्पतंत्र इस भारत पर शासन कर रहा है. एशिया और अफ्रीका की ऐसी अल्पतंत्रीय शासन-व्यवस्थाओं की कुछ कलई न्गूगी वा थ्योंगो ने अपनी किताब भाषा, संस्कृति और राष्ट्रीय अस्मिता  में बड़े करीने से खोली है.

अरुंधती रॉय के वक्तव्य को इस आलोक में भी देखने की जरूरत है कि वे सिर्फ कश्मीर की आजादी की बात नहीं कर रहीं. वे भारत की भी आजादी की बात कर रही हैं. वे एक निरंकुश भारत के उपनिवेश की तरह काम कर रहे एक गुलाम भारत की आजादी की बात कर रही हैं. वे बता रही हैं कि भारत नाम का यह उपनिवेश, यह गरीब भारत कश्मीरियों की त्रासदी के साथ है.

लेकिन यह बात डरी हुई सरकारों को परेशान करती है, यह बात विचारधारा की खुराक से अघाई हुई पार्टियों को डराती है. राष्ट्र का नाम लेने वाली भारतीय जनता पार्टी को लगता है कि अरुंधती रॉय को गिरफ्तार नहीं किया गया तो ऐसी आवाजें और ऊंची होंगी, राष्ट्रवाद का वह परदा और झीना होगा जिसके पीछे वह अपने गुनाह छिपाती है. यूपीए सरकार अगर डरती है कि अरुंधती की गिरफ्तारी उन्हें नायक बनाएगी तो वह उसी संवाद से डरती है जो अरुंधती की बहस पैदा करती है.

सबसे ज्यादा राष्ट्रवाद दुनिया के इसी हिस्से में बचा हुआ है और यहीं सबसे ज्यादा नागरिक और बुनियादी अधिकार कुचले जा रहे हैं

यह एक अलग सवाल है कि भारत से अलग होकर कश्मीर का क्या होगा. या फिर कश्मीर का मौजूदा नेतृत्व क्या इस लायक है कि वह कश्मीरियों को संभाल सकेगा? अंग्रेज जब भारत न छोड़ने के तर्क खोज रहे थे तो उनका भी डर यही था कि भारत को संभालेगा कौन और यह कि भारत की हालत कहीं ज्यादा खराब हो जाएगी. तभी महात्मा गांधी ने यह प्रसिद्ध वाक्य कहा कि हमें स्वराज नहीं, सुराज चाहिए.

लेकिन मैं फिलहाल उस कश्मीर की नहीं, इस भारत की बात कर रहा हूं जहां मुझे रहना है. क्या हम ऐसा भारत चाहते हैं जो देश और राष्ट्र पर एक बहस तक नामंजूर कर दे?  राष्ट्रवाद कोई ईश्वर या प्रकृति की दी हुई चीज नहीं है. वह सिर्फ ढाई सौ साल पुरानी एक ऐतिहासिक निर्मिति है जो इतिहास के आगे बढ़ने के साथ ही खत्म हो रही है. जिस यूरोप में यह अवधारणा परवान चढ़ी, वही इसका कब्रिस्तान भी बन रहा है. बीसवीं सदी इस प्रक्रिया की गवाह है. इंग्लैंड और फ्रांस, इटली और जर्मनी, इंग्लैंड और स्पेन आपस में न जाने कितने युद्ध लड़ते रहे. कहते हैं, जोनाथन स्विफ्ट ने जब गुलीवर्स ट्रैवल्स लिखी तो दो बौने देशों, लिलिपुट और ब्लेफुस्कू के बीच की लड़ाई दिखाते हुए उनके दिमाग में इंग्लैंड और फ्रांस की लड़ाइयां ही थीं. इन सारी लड़ाइयों को, बीसवीं सदी के दो-दो महायुद्धों को पीछे छोड़ यूरोप के राष्ट्र, अपना झंडा झुकाकर और सिक्का गलाकर, एक हो चुके हैं. बीसवीं सदी में ही सोवियत संघ बिखरा, जर्मनी एक हुआ, चेकोस्लोवाकिया और युगोस्लाविया पहले जुड़े और फिर टूटे, कई देश दुनिया के नक्शे से गायब हो गए तो कई नए देश उग आए.

यानी देश इतिहास की प्रक्रिया में टूटते-बनते रहते हैं. क्या पता, अगर अंग्रेजों ने भारत पर कब्जा नहीं किया होता तो भारत भी यूरोप की ही तरह अलग-अलग भाषाएं बोलने वाले कई देशों का एक समूह होता जो एक या कई सांस्कृतिक सूत्रों से आपस में बंधा होता. वैसे भी पिछले 63 साल में यह देश तीन हिस्सों- भारत, पाकिस्तान और बांग्लादेश में बंट ही चुका है. देखें तो सबसे ज्यादा राष्ट्रवाद दुनिया के इसी हिस्से, यानी दक्षिण एशिया में बचा हुआ है और यहीं सबसे ज्यादा नागरिक और बुनियादी अधिकार कुचले जा रहे हैं. विकास के मानकों पर सबसे पिछड़े इलाके यही हैं. इस पिछड़ेपन को पीछे छोड़ना है तो हमें अपनी राष्ट्रवादी जिदों को भी पीछे छोड़ना होगा. राष्ट्र की मूर्ति बनाने और उसके नाम पर राजनीति करने की आदत छोड़नी होगी. तभी हम बेहतर भारत, पाकिस्तान, बांग्लादेश या श्रीलंका होंगे, और कश्मीर जहां भी रहे, उसके साथ बेहतर सलूक कर पाएंगे.

देश हो या कोई और संस्था- वह मनुष्य के लिए ही है और मनुष्य अपने ढंग से उसका निर्माण करता है और जरूरत पड़ने पर बदलता है. जयशंकर प्रसाद के नाटक चंद्रगुप्त का चाणक्य एक जगह बोलता है, `मगध-मगध! इतना अत्याचार? क्या मनुष्य ने राष्ट्र की शीतल छाया का संगठन इसीलिए किया था?’ वह सौगंध खाता है कि इस मगध को नष्ट करके नया मगध बनाएगा. उसकी चुटिया खींचने वाले महानंद का हश्र हमें मालूम है.
लेकिन यह सब भुलाकर हम राष्ट्र को बचाने में लगे हैं. इस बात से बेखबर कि राष्ट्र ऐसे नहीं बचते. इस ढंग से वे बेईमान और बदमाश ही बचते हैं जो राष्ट्रवाद की ओट में खड़े होते हैं. अरुंधती रॉय से नाराज दिल्ली पूछ रही है कि बोलने की आजादी में जिम्मेदारी भी शामिल होनी चाहिए या नहीं. यह सवाल वह तब नहीं पूछती जब इस आजादी का दुरुपयोग करते हुए झूठ बोले जाते हैं, अंधविश्वास फैलाए जाते हैं, नफरत पैदा की जाती है और ऐसा नकली शोर पैदा किया जाता है जिसमें असली आवाजें दब जाती हैं. जब हम आंखों पर देश, राष्ट्र या धर्म की पट्टी बांध लेते हैं तो एक लीक से बाहर जाने को तैयार नहीं होते. हमारी आंखों पर यह पट्टी बांधने वाली सरकारें हमारी सुरक्षा के नाम पर देश को और हमारे नागरिक अधिकारों को बंधक रख लेती हैं और कोई यह पट्टी खोलना चाहता है तो उसे जेल में डालना चाहती हैं. ऐसे ही मौकों पर अवतार सिंह पाश की यह कविता पंक्ति याद आती है कि `अगर देश की सुरक्षा यही होती है / तो हमें देश की सुरक्षा से खतरा है.

मध्यांतर के बाद

बिहार विधानसभा का मध्यांतर हो चुका है. छह चरणों में होने वाले चुनाव के चार चरण पूरे हो चुके हैं, दो अभी बाकी हैं और सरकार बनाने की राह के दो अहम चरण भी पार किए जाने हैं – पहला, चुनाव के बाद मतों की गणना और दूसरा, सरकार बनने की प्रक्रिया की जोड़-तोड़. इंटरवल तक और बाद के बिहार चुनाव पर निराला की रिपोर्ट

इसे समय का फेर भी कह सकते हैं. इस बार के बिहार विधानसभा चुनाव में दो खेमों में बंटे जिन चार नेताओं के नाम बार-बार दोहराए जा रहे हैं वे उलटी हुई स्थिति में हैं. 1974 के आंदोलन के समय रामविलास पासवान लालू प्रसाद से सीनियर नेता के तौर पर स्थापित थे, अब लालू प्रसाद यादव उनके अगुआ हैं. रामविलास छाया युग में हैं. सुशील मोदी बतौर छात्र संगठन सचिव, नीतीश से आगे हुआ करते थे, अब नीतीश कुमार फ्रंट पर हैं, मोदी पीछे. ठीक किसी परछाई की तरह. दोनों ही खेमों के कप्तान खुद को खांटी समाजवादी के साथ लोहिया-जेपी के चेले कहना-कहलाना पसंद करते हैं, एक ही राजनीतिक स्कूल से निकले हुए हैं. कभी राजनीतिक दोस्ती इतनी गहरी थी कि अब जिसे लालू प्रसाद का 15 वर्षों का जंगल राज कहा जाता है, उसमें से चार-पांच साल नीतीश कुमार उनके साथ रहे थे. लेकिन यह सब अब पुराने जमाने की बात हुई. नए जमाने का सच यही है कि दोनों दोस्त फिलहाल आपस में चुनावी गुत्थमगुत्थी कर रहे हैं. मकसद एक है, सत्ता पाना. संयोग देखिए कि कुछ चरणों के चुनावी इंटरवल के बाद दोनों के मंजिल पाने का रास्ता भी करीब-करीब एक-सा ही होता जा रहा है.

वाम फैक्टर करेगा काम
बिहार की चुनावी जंग में दो दिग्गजों और दो मजबूत गठबंधनों के बीच छिड़ी जंग में तीसरे की बात उस तरह नहीं की जा रही जितने की गुंजाइश बनती है. लेकिन तीसरे खेमे के रूप में इस बार वाम दलों का गठजोड़ नए रूप में और नई ऊर्जा के साथ आमने-सामने की लड़ाई लड़ रहा है. इस गठजोड़ की दावेदारी 190 सीटों के लिए है. फिलहाल बिहार में वाम दलों का मात्र नौ सीटों पर ही कब्जा है, लेकिन औरंगाबाद, बेगूसराय, सासाराम आदि जिलों में कई सीटें ऐसी रही हैं जहां वाम दलों की आपसी टकराहट ही उनका नुकसान करती रही है. इस बार उनके साथ होने से उन्हें फिर से बढ़त मिल सकती है. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी के यूएन मिश्र कहते हैं, ‘आप उदाहरण के तौर पर बेगूसराय जिले की बात कर सकते हैं. यहां हम जिले की सात में से पांच सीटों पर चुनाव लड़ रहे हैं. पांचों सीटें ऐसी हैं जिन पर कभी न कभी हमारे प्रत्याशी विजयी रहे हैं. उम्मीद है, हम बेहतर करेंगे.’ मिश्र बताते हैं कि 24 ऐसी सीटें हैं, जहां उनका कैडर वोट किसी भी किस्म की चुनावी आंधी में इधर से उधर नहीं होता. वे कहते हैं, ‘करीब 20 हजार से ज्यादा वोट हम इन सीटों पर पाते रहे हैं. इस बार के चुनाव में चूंकि किसी की लहर नहीं है और न ही कास्ट उस तरह का फैक्टर रह गया है तो हम उन सीटों पर मजबूत होंगे.’ बिहार के चुनावी इतिहास को देखें तो यहां वाम दल भी कभी मजबूत स्थिति में रहे हैं. 1972-77 तक एक तरीके से 35 विधायकों के साथ भाकपा ही यहां मुख्य विपक्षी पार्टी की भूमिका में थी. लेकिन बाद के दिनों में धीरे-धीरे इनके वोट बिखरते गए. वाम दलों में यहां भाकपा माले का प्रभाव अच्छा-खासा है, जिसके खाते में फिलहाल पांच ही सीटें हैं. इससे पहले इस पार्टी के सात विधायक थे. इस बार के वाम दलों के पास ठोस बात यह भी है कि वे एकला चलो की तर्ज पर भूमि सुधार को ही अपना चुनावी मुद्दा बनाए हुए हैं, जो निस्संदेह बिहार के सामने सबसे बड़ा सवाल है. बिहार के पूर्व डीजीपी और चर्चित आईपीएस अधिकारी डीएन गौतम कहते हैं कि बिहार के चुनाव में वोटिंग का मुख्य आधार प्रत्याशी होगा. उसी के आधार पर वोटिंग होगी. यदि गौतम अपने अनुभव के आधार पर ऐसी बातें कर रहे हैं तो यह वाम दलों के लिए खुश होने वाली बात है क्योंकि ज्यादातर सीटों पर उनके प्रत्याशी चर्चित दलों के प्रत्याशियों से ज्यादा स्वच्छ छवि वाले और जनता के बीच रहने वाले हैं.

चुनाव शुरू होने के पहले जिस तरह का माहौल बनाने की पैंतरेबाजी हुई थी, वह चौथे चरण का चुनाव आते-आते असली धरातल पर आ चुका है. विकास, रेल-रोड वार में सिमटता जा रहा है. नीतीश कुमार जब विकास के पैमाने के तौर पर सड़कों को अपनी उपलब्धि बताते हैं तो लालू प्रसाद कहते हैं कि हमने रेल को चमकाया. नीतीश जब अतिपिछड़ा और महादलित की बात करते हैं तो लालू प्रसाद कहते हैं सबका कंठ हमने ही खुलवाया. नीतीश जब लॉ ऐंड ऑर्डर की बात करते हैं तो लालू प्रसाद पिछले पांच साल में बिहार में फैले नक्सलवाद के जाल का जिलावार आंकड़ा सामने रखने लगते हैं और उनके साथ रामविलास पासवान राज्य में दर्ज हुए आपराधिक मामलों का हवाला देते हैं. वर्षों पहले रघुनाथ झा या शिवानंद तिवारी को अपने दाएं-बाएं रखकर लालू प्रसाद कहा करते थे कि ब्राह्मणों और यदुवंशियों का रिश्ता तो महाभारत काल से ही अजर-अमर है तो अब नीतीश कुमार कह रहे हैं कि चंद्रगुप्त तो बगैर चाणक्य के मार्गदर्शन के एक कदम भी नहीं चल सकता. अब खुल्लम-खुल्ला बिहार की राजनीति पुराने और पारंपरिक ढर्रे पर है. विकास का मुद्दा केंद्र में रहते हुए भी हाशिये पर जा रहा है. बात यहीं खत्म हो जाती तो और बात थी. जुबानी जंग में भी एक-दूसरे को पछाड़ने की होड़ मच गई है. अपनी पत्नी राबड़ी देवी को दो जगहों से चुनाव लड़ाने पर तर्क देते हुए लालू प्रसाद का कहना था कि मेरी राबड़ी नारी नहीं चिंगारी है, अगर नीतीश माई के लाल हैं तो यहां से लड़कर दिखाएं, हवा गुम हो जाएगी. इसका जवाब देने के लिए नीतीश खुद सामने आए, कहा कि राबड़ी के खिलाफ जो हमारे उम्मीदवार हैं, सतीश यादव- वे माई के भी लाल हैं और वाई के भी. वाई यानी यादव. राबड़ी फिर से अपने परिचित अंदाज में आईं और नीतीश को चोर-बेईमान कह गईं तो दूसरी ओर जद (यू) के राष्ट्रीय अध्यक्ष और खुर्राट नेता शरद यादव एक चुनावी सभा में कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी को बांधकर गंगा में फेंक देने की नसीहत दे आए. अब लालू प्रसाद की ओर से एक नई बात भी सामने आई है. लालू ने कहा है कि उन्होंने नीतीश को गलती से बता दिया था कि चारा घोटाले में उन्हें भी एक करोड़ रुपए दिए जाने की बात सार्वजनिक हो गई है और इसीलिए नीतीश भाजपा की गोद में जाकर बैठ गए. यानी गड़े मुरदे उखाड़ने का सिलसिला भी शुरू हो चुका है.

चुनाव में मतदान की प्रतिशतता बढ़ती जा रही है पर किसी दल के पक्ष में लहर जैसी बात भी नहीं दिखती. बढ़ा हुआ वोट बेहतर शासन की इच्छा से उपजा है या सत्ता-शासन के सुख से वंचित लोगों की सामूहिकता का प्रतिफल है, विश्लेषक आकलन नहीं कर पा रहे हैं

एक-दूसरे को घेरने का खेल चरम पर है. विकास पर भ्रष्टाचार भी धीरे-धीरे भारी पड़ता जा रहा है. हाल की चुनावी सभाओं में नीतीश कुमार भ्रष्टाचार पर भी बोलने लगे हैं. वे कहते फिर रहे हैं कि अगर मौका मिला तो भ्रष्टाचार भी खत्म करेंगे. वरिष्ठ पत्रकार राघवेंद्र कहते हैं कि यह नीतीश का बैकफुट पर आना हुआ. वे  स्वीकार कर रहे हैं कि उनके कार्यकाल में जो विकास हुआ है उसमें अधिकारियों ने भ्रष्टाचार के मानक स्थापित कर दिए हैं. दूसरी ओर लालू शुरू से ही बैकफुट पर हैं. वे लगभग अपनी हर सभा में पश्चातापी शैली में कहते हैं कि मुझे एक मौका दीजिए, मैं सब करूंगा.
लालू प्रसाद अतीत से मुक्ति की छटपटाहट में हैं तो नीतीश भटकाव के दौर में. यह छटपटाहट या भटकाव यूं ही नहीं है. लालू प्रसाद को पता है कि वे एक प्रकार से अपने राजनीतिक जीवन की आखिरी बाजी लड़ रहे हैं. उनकी उम्र 60 के पार हो गई है. इस बार नहीं तो कभी नहीं जैसा प्रश्न उनके सामने है. यदि वे नीतीश को मात देने में सफल नहीं हो सके तो बिहार की राजनीति में इतिहास बनने की राह पर अग्रसर हो जाएंगे. केंद्र की राजनीति में भी उनके लिए दरवाजा बंद हो जाएगा. लालू प्रसाद केंद्र की राजनीति में चमकदार सितारे की तरह उभरे थे. पीएम की बात करने लगे थे. अब फिर सीएम के लिए खुद को आगे रखकर लड़ाई लड़ रहे हैं. फिर अगले पांच साल में बहुत कुछ बदलने वाला भी है. जैसा कि जाने-माने समाजशास्त्री डॉ एस नारायण कहते हैं, ‘सामाजिक दृष्टि से देखें तो बिहार में पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जातीय शादियों का चलन तेजी से बढ़ा है. कोर्ट मैरेज बढ़े हैं. जाहिर-सी बात है कि जाति की दीवार टूट रही है, जिसका असर चुनाव में भी पड़ेगा. 50 प्रतिशत मतदाता युवा ही हैं, जिनका अपना नजरिया होगा.’

दूसरी ओर नीतीश कुमार हैं, जो उम्र के 60वें साल में प्रवेश करने वाले हैं. अगर चुनाव हारते हैं तो न नरेंद्र मोदी से ईर्ष्या करने की स्थिति में होंगे न राज्य के रास्ते केंद्र में नेता के तौर पर स्थापित होने के सपने को पूरा कर पाएंगे. हालांकि हारने की स्थिति में उनका सीधे तौर पर यह तुर्रा और तर्क होगा कि कास्ट पोलिटिक्स से वे पार नहीं पा सके जबकि जीतने पर वे विकास का गुणगान करेंगे.

 

बिहार का यह चुनाव इस मायने में तो खास है ही कि चुनाव में मतदान की प्रतिशतता बढ़ती जा रही है, कहीं किसी दल के पक्ष में लहर जैसी बात भी नहीं दिखती. सब कुछ अंडरकरेंट है, जिससे कुछ भी अंदाजा लगाना मुश्किल है. बढ़ा हुआ वोट बेहतर शासन को बनाए रखने की इच्छा से उपजा है या पांच साल सत्ता-शासन के सुख से वंचित लोगों की सामूहिकता का प्रतिफल है, विश्लेषक आकलन नहीं कर पा रहे हैं. हालांकि गया में रहने वाले प्रसिद्ध कथाकार और फिल्म लेखक शैवाल या बेतिया में रहने वाले वरिष्ठ समाजवादी सामाजिक कार्यकर्ता पंकज की मानें तो उनका आकलन यह कहता है कि बढ़ा हुआ मत प्रतिशत नीतीश के पक्ष में जाने की गुंजाइश ज्यादा है. जबकि अब तक ज्यादातर विशेषज्ञों की स्थापित मान्यता यह है कि जब वोट प्रतिशत बढ़े तो समझिए कि ऐंटी इनकंबैंसी फैक्टर काम कर रहा है. दिग्गज अपने दांव का आकलन इस बार इसलिए भी नहीं कर पा रहे कि परिसीमन के बाद 243 विधानसभा सीटों वाले बिहार में 40 पुरानी सीटों का इतिहास और भूगोल बदल गया है. इन सीटों पर पार्टियां अपनी हैसियत की थाह नहीं लगा पा रही हैं.

इस चुनाव के बहाने बिहार में फिर से बदलाव की कसमसाहट है. इतिहास को देखें तो यहां के मतदाताओं का स्वभाव जिद्दी जैसा रहा है. बिहार में 1961 से 1990 के बीच 23 मुख्यमंत्री बदले. पांच बार राष्ट्रपति शासन लगा. इन 23 में से 17 मुख्यमंत्री कांग्रेस के ही रहे. कांग्रेस ने अपने उफान के दिनों में आलाकमानी तर्ज पर बिहार को राजनीतिक प्रयोग झेलने को विवश किया तो बिहार की जनता ने उसे पिछले 20 साल से सत्ता से बेदखल कर रखा है. अब कांग्रेस तमाम फजीहतों के बाद भी खेल बनाने नहीं तो बिगाड़ने की स्थिति में आती

गुड़ खाएं नीतीश, गुलगुले से परहेज
भाजपा और जनता दल यूनाइटेड के गठबंधन पर इतनी बार तनातनी की स्थिति बनी है और इतनी बार सफाई दी जा चुकी है कि सहज सत्ता के लिए बना यह असहज गठबंधन हमेशा गले की फांस जैसा लगता है. लेकिन 1998 से ये दोनों एक-दूसरे को धक्का देते हुए, धसोरते हुए चल ही रहे हैं. इस बार के चुनाव में ही तब बड़ा बवाल मचा जब नरेंद्र मोदी के चुनाव प्रचार में आने की बात दिल्ली से मुख्तार अब्बास नकवी ने कर दी. जद (यू) की ओर से गठबंधन की समीक्षा तक की बात हुई. कुछ भाजपाई विधायकों ने आत्मसम्मान की दुहाई दी, लेकिन निष्कर्ष यह निकला कि नरेंद्र मोदी चुनाव प्रचार में नहीं आ रहे हैं. इसके पहले भी नरेंद्र मोदी और नीतीश कुमार की तस्वीर साथ में छप जाने से बवाल मचा था. तब नीतीश ने न जाने क्या-क्या कहा था. छात्र युवा संघर्ष वाहिनी के प्रमुख सिपाही रहे वरिष्ठ पत्रकार श्रीनिवास कहते हैं, ‘नीतीश के साथ यह दुविधा हमेशा रहेगी, लेकिन वे जो कर रहे हैं वह हमेशा कैसे चल सकता हैै?’ वाजपेयी युग का अंत होने के बाद आडवाणी भी साइड लाइन में हैं. राजनाथ भी हाशिये पर जा चुके हैं. मुरली मनोहर जोशी को किनारे लगाया जा चुका है. नीतिन गडकरी अस्थायी सेनापति हैं. कल को जब लोकसभा चुनाव होगा तो नरेंद्र मोदी ही सबसे बड़े मास लीडर के रूप में भाजपा के नेता होंगे. आज भी भाजपा के लिए नरेंद्र मोदी बड़े नेता हैं. अगले चुनाव में यदि भाजपा मोदी को प्रधानमंत्री के तौर पर पेश करे या बनाए तो नीतीश का स्टैंड क्या होगा? यह बड़ा हास्यास्पद है कि नीतीश कुमार उस दल के एक बड़े नेता से अछूत की तरह व्यवहार करते हैं और दल से गले मिले रहते हैं. राम मंदिर का विरोध तो करते हैं लेकिन भाजपा को विजयी बनवाने के लिए वोट भी मांगते हैं. भाजपा की अभी मजबूरी है तो इस अपमान को सह रही है, लेकिन इसे लेकर कई नेताओं में नाराजगी तो होगी ही. इस चुनाव से यह भी तय होगा कि नीतीश कुमार नवीन पटनायक की हैसियत में आएंगे या नहीं. हैसियत में आ भी गये तो उतना साहस दिखा पाएंगे या नहीं.

हुई दिख रही है. कांग्रेस लालू प्रसाद और नीतीश दोनों के लिए ‘कॉमन एनेमी’ की तरह हो गई है. दोनों ही नेता अपनी सभाओं में कांग्रेस पर प्रहार जरूर करते हैं. राजनीतिक कार्यकर्ता महेंद्र सुमन कहते हैं कि इस बार के चुनाव में यही नया है कि कांग्रेस एक प्लेटफॉर्म की तरह सामने है. नाराज अल्पसंख्यकों, खिन्न सवर्णों और लालू प्रसाद-नीतीश कुमार से नाउम्मीद मतदाताओं के लिए. सुमन कहते हैं कि कांग्रेस के लिए बेहतर यह है कि इस बार के चुनाव में विकास ही केंद्र में आ गया है और पारंपरिक रूप से कांग्रेस उसी की राजनीति करती रही है. न तो वह कभी आक्रामक होकर धर्म-संप्रदाय की राजनीति कर पाती है न जाति की. इसलिए विकास के मुद्दे पर कांग्रेस नीतीश को घेरने में सक्षम है और वह नीतीश को घेरने की कोशिश भी कर रही है. सुमन की बातों को और विस्तारित करके देखें तो स्पष्ट होगा कि कांग्रेस ने बाबरी मस्जिद का ताला तो खुलवा दिया लेकिन उस पर आक्रामक राजनीति करने, उससे फायदा उठाने भाजपा सामने आ गई. कांग्रेस ने वर्षों चौधरी चरण सिंह की सरकार द्वारा तैयार मंडल कमीशन की रिपोर्ट को खारिज नहीं किया, उस पर दुविधा में कुंडली मारकर बैठी रही, उसकी राजनीतिक फसल काटने वीपी सिंह सामने आ गए. लालू प्रसाद की भी यह शुरू से इच्छा रही कि कांग्रेस नीतीश की घेराबंदी विकास के सवाल पर करे. कांग्रेस ने ऐसा किया भी लेकिन साथ ही शीला दीक्षित ने बिहार के चुनाव प्रचार में यह भी कह दिया कि भविष्य में राजद और भाजपा को छोड़ किसी से, किसी को सहयोग संभव है. लालू प्रसाद के लिए यह जले पर नमक जैसा है.

बिहार में पिछले कुछ वर्षों में अंतर्जातीय शादियों का चलन तेजी से बढ़ा है. कोर्ट मैरेज बढ़े हैं. जाहिर-सी बात है कि जाति की दीवार टूट रही है, जिसका असर चुनाव पर भी पड़ेगा. 50 प्रतिशत मतदाता युवा ही है, जिनका अपना नजरिया होगा

यह साफ तौर पर दिख रहा है कि लालू प्रसाद को अपने 15 वर्षों के कार्यकाल के लिए कई मोर्चों पर चुप हो जाना पड़ रहा है. वे खुलकर विकास की बात नहीं कर पाते, लेकिन उनके साथी रामविलास पासवान की मानें तो बिहार के मतदाता माफ करने में सबसे आगे रहे हैं. रामविलास ने अभी हाल ही में एक संदर्भ के हवाले से यह कहकर लालू प्रसाद को उम्मीद की किरण दिखाई कि जैसे जेपी मूवमेंट के बाद इंदिरा जी की सत्ता चली गई थी और वापसी की गुंजाइश नहीं दिखती थी लेकिन तीन साल में ही लोगों ने इंदिरा जी को माफ कर दिया, वैसा ही लालू प्रसाद के साथ होगा. लोगों ने इनकी गलती को माफ कर दिया है. अधिकांश चुनावी सर्वेक्षणों और मीडिया की बेरुखी के बावजूद लालू प्रसाद को ऐसे ही किसी करिश्मे की उम्मीद भी है. रामविलास पासवान यह भी कह रहे हैं कि नीतीश के महादलित कार्ड का टेस्ट विगत वर्ष हुए उपचुनावों में ही हो चुका है, जहां उन्हें 18 सीटों में से सिर्फ तीन सीटों पर संतोष करना पड़ा और उनके सहयोगी दल भाजपा को दो पर. इतना ही नहीं नीतीश के महादलित राजनीति के तुरूप के पत्ते श्याम रजक को भी चुनावी मुकाबले में शर्मनाक हार का सामना करना पड़ा.

बिहार में यह चुनाव सत्ता परिवर्तन के लिए लड़ी जा रही लड़ाई भर नहीं है. महादलित और अतिपिछड़ों के साथ सवर्णों की जो नई राजनीति शुरू हुई है उसका भी लिटमस टेस्ट होने वाला है. गया के रहने वाले प्रभात शांडिल्य, जो खांटी-जमीनी सामाजिक कार्यकर्ता हैं और जिन्हें पानी पुरुष कहा जाता है, बातों-बातों में बिहार चुनाव का गणित समझाने के लिए लालबुझक्कड़ की तरह कवितानुमा पांच पंक्तियां सुनाते हैं –

ब्राह्मण, राजपूत, भूमिहार,लाला
सैयद, शेख, पठान, अंसारी
यादव, कोइरी, कुरमी, बनिया
चमार, दुसाध, पासी, धोबी
हो, संथाल, उरांव, मुंडा

फिर पूछते हैं कि इन 20 जातियों के अलावा बिहार में किसी 21वीं जाति के बड़े नेता का नाम बताओ. कर्पूरी ठाकुर को छोड़कर. राजनीति में कोई बड़ा चेहरा बताओ इन जातियों से बाहर का. जल्दी, फटाफट पांच मिनट में. शांडिल्य जी कहते हैं- नहीं बता पाओगे. कोई नहीं बता पाता. बिहार की इन्हीं बीस विषधर जातियों की गोलबंदी को तोड़ने की छटपटाहट ही इस चुनाव में और अगले एक-दो और चुनावों में नएपन को बनाए रखेगी. शांडिल्य कहते हैं कि 20 साल पहले तक सत्ता सवर्णों के पाले में रहती थी. 20 साल से पिछड़े राज कर रहे हैं. अब फिर करवट का दौर आया है तो इन 20 जातियों की परिधि से जो बाहर वाले हैं वे भी अपनी राजनीतिक हिस्सेदारी चाहेंगे, जिससे समीकरण बदलेगा. इन सभी मुख्य दलों के अलावा बसपा जैसी पार्टियां भी हैं, जिसने पिछले चुनाव में चार सीटों पर कब्जा जमाया था और इस बार पूरा संगठन बिखर जाने के बावजूद टिकट बंटवारे में सधी हुई रणनीति अपनाई है. उत्तर प्रदेश से सटे हिस्से में इस दल का प्रभाव दिख भी रहा है. और इन सबके बाद कहीं-कहीं निर्दलीय भी मजबूती से मैदान में हैं जो दल, दौलत और दलालों से सावधान रहने का साझा नारा दे रहे हैं.

स्वच्छंद या स्वतंत्र

कश्मीर पर अरुंधती रॉय के हालिया बयान के बाद एक बार फिर चौतरफा उनकी निंदा का दौर शुरू हो गया है. उनके नाम के साथ देशद्रोही, अलगाववादी, आतंकवादी, अपराधी, भड़काऊ, ‘पब्लिसिटी की भूखी’ सरीखे विशेषण भी सुनने को मिल रहे हैं. कुछ दिन पहले टीवी चैनलों पर उनके खिलाफ जिस तरह का गुस्सा बरस रहा था उससे एक बार तो यह याद रखना ही मुश्किल हो गया था कि अरुंधती रॉय एक लेखिका और बुद्धिजीवी हैं और उन्होंने पहले भी कई अहम मौकों पर उन दरारों की ओर हमारा ध्यान खींचा है जो इस देश के टुकड़े-टुकड़े करने की क्षमता रखती हैं

देखा जाए तो पिछले एक दशक के दौरान रॉय हर बड़े मुद्दे पर मुखर रही हैं. कभी चीरफाड़ करतीं, कभी चेतावनी देतीं और कभी भविष्यवाणी करतीं. वे अमीरों पर तंज कसती रही हैं और गरीबों की लड़ाई को मजबूत आवाज देती रही हैं. उनके समकालीन बहुत कम लेखक ऐसे हैं जिन्होंने भारत के विचार और उसकी जमीनी हकीकत पर इस कदर डटकर लिखा और बोला है.

रॉय के राजनीतिक लेखन और देश से जुड़ी नीतियों पर उनके बयानों का इतना  तीखा असर क्यों होता है इसे तब तक नहीं समझा जा सकता जब तक हम उनकी एकाएक प्रसिद्धि से हममें उपजे उत्साह और फिर उस यात्रा की विडंबना को याद न करें जिसे उन्होंने बाद में अपने लिए चुना. कम ही लोगों को याद होगा कि रॉय सबसे पहले चर्चा में तब आई थीं जब उन्होंने एक मशहूर भारतीय पत्रिका में एक विचारोत्तेजक लेख लिखा था. यह 1996 की बात है. उदारीकरण को आए तब पांच बरस ही हुए थे. उस समय उत्साह से भरा हमारा नया-नकोर मध्यवर्ग अपने लिए नायकों की तलाश में था. रॉय इसके सभी मापदंडों पर खरा उतरती थीं. एक तो वे बला की आकर्षक थीं, दूसरे उनकी किताब पर पूरी दुनिया फिदा हो रही थी. भारत में उनके लिए दीवानगी द गॉड ऑफ स्माल थिंग्स के छपते ही फैलने लगी थी. फिर जब इस उपन्यास का 40 भाषाओं में अनुवाद हो गया और आखिर में इसने प्रतिष्ठित बुकर पुरस्कार भी झटक लिया तो अरुंधती रॉय मानो सारी दुनिया में भारत का विजयी चेहरा हो गईं. पहली बार यह पुरस्कार भारत में ही रह रहे किसी भारतीय ने जीता था. उन दिनों जिसे देखिए उसकी जबान पर रॉय का नाम था. वे सपनों की राजकुमारी थीं.
अगर वे धारा के साथ चलती रहतीं तो सफलता की सरगमों का पहला और यादगार सुर बनी रहतीं. ऐश्वर्या राय के मिस वर्ल्ड बनने की घटना की तरह. यह वह दौर था जब भारतीय कॉरपोरेट जगत कामयाबी के नए झंडे गाड़ रहा था. यहां के कारोबारी दुनिया में अगुआ धनकुबेरों की सूची में शामिल हो रहे थे. विकास दर आठ फीसदी को छू रही थी और उपभोक्ताओं का एक विशाल बाजार तैयार हो रहा था. भारत के सुनहरे भविष्य की इबारत लिखी जा रही थी और हर कोई इसका जश्न मनाने के मूड में था.

लेकिन किसी को भी अंदाजा नहीं रहा होगा कि सपनों की यह राजकुमारी देश की तल्ख हकीकतों पर शोर मचाकर जश्न का यह मूड किरकिरा करने की कोशिश करेगी, मखमल के पैबंद की जगह सड़ी टाट की तरफ ध्यान खींचने लगेगी, कालीन को हटाकर उसके नीचे की गंदगी दिखाने लगेगी. और वह भी इतनी जल्दी.

लेकिन राजकुमारी ने ऐसा ही किया. मई, 1998 में जब रॉय को बुकर सम्मान मिले चंद महीने ही हुए थे, भारत ने परमाणु परीक्षण किया. उसी साल अगस्त में रॉय ने इसके विरोध में द एंड ऑफ इमैजिनेशन नामक शीर्षक से एक लेख लिखा. अपने उपन्यास के बाद उनकी कलम पहली बार चली थी. तब से लेकर आज तक वे लगातार लिखती और बोलती रही हैं. द एंड ऑफ इमैजिनेशन से शुरू हुई उनकी यात्रा जारी है. शुरुआत के उनके लेखों में कुछ हद तक भावुक अतिशयोक्तियां दिखा करती थीं, मगर धीरे-धीरे वे नैतिक रूप से और ज्यादा मजबूत व स्पष्ट होते गए हैं.

दरअसल, सच्चाई यह है कि इक्कीसवीं सदी का भारत एक देश है ही नहीं. यह दो अलग-अलग महाद्वीप हैं. अगर आपके पास पैसा है, आप मध्यवर्ग में गिने जाते हैं या फिर गिटपिट अंग्रेजी बोलते हैं तो आपका महाद्वीप रहने के हर लिहाज से एक शानदार जगह है. ऐसी जगह जहां अवसरों की भरमार है, शानदार नौकरियां हैं, बढ़िया शराबखाने हैं, भव्य मकान हैं और शाही छुट्टियां हैं. ऐसी जगह जहां चुनाव पूरी आजादी के साथ होते हैं और जहां लोकतंत्र अपनी पूरी रवानी में फलता-फूलता दिखाई देता है.

और अगर आप इस गिनती में नहीं आते, यानी आप गरीब हैं, पिछड़े हैं, आदिवासी हैं या फिर मुसलमान तो आपका महाद्वीप दूसरा है. अंधेरे से भरा. रॉय दरअसल इसी अंधेरे महाद्वीप की ओर चली गई थीं. तब से लेकर आज तक अपने हर लेख में वे मुख्यधारा के भारत द्वारा उनके बारे में पाली गई हर कल्पना को हवा में उड़ाती रही हैं. भारत के मध्यवर्ग को इस अंधेरे महाद्वीप के प्रति उनका यह अनुराग समझ नहीं आता. आए भी कैसे, उसने कभी यह दुनिया पहले तो देखी नहीं और देखी तो समझी नहीं. इसलिए कभी रॉय को सिर-आंखों पर बिठाने वाला यह मध्यवर्ग अब लगातार उनकी आलोचना कर रहा है.

क्या अरुंधती रॉय इस देश की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या विदेश मंत्री हैं? क्या उनका आधिकारिक राष्ट्रीय सहमति से सुर मिलाना जरूरी है

रॉय की आलोचनाएं कई तरह से होती हैं. कहा जाता है कि वे सीधे इधर या उधर वाली बात करती हैं, वे कुछ ज्यादा ही विवादप्रिय हैं, वे जरूरत से ज्यादा एकपक्षीय हो जाती हैं, भारत की बात करते हुए उन्हें बस इसकी कमियां ही याद आती हैं. वे एक से दूसरे मुद्दे पर कूदती रहती हैं जबकि उनका उन मुद्दों से वास्तव में कोई लेना-देना ही नहीं होता. वे पाखंडी हैं क्योंकि वे खुद दिल्ली के एक पॉश इलाके में रहती हैं और अपनी किताब की शोहरत से उन्होंने अकूत पैसा कमाया है. वे उसी देश की आलोचना करती हैं जिसके द्वारा दिए गए विशेषाधिकारों और आजादी का वे आनंद उठाती हैं. वे किसी भी मुद्दे पर अचानक कूद पड़ती हैं, वे बातों को बढ़ा-चढ़ाकर कहती हैं और इसका मकसद होता है अपनी तरफ ध्यान खींचना. साथ ही वे यह नहीं समझ सकतीं कि एक देश को चलाना कितना जटिल काम है क्योंकि उनका कहीं भी कुछ भी दांव पर नहीं. उनका एक ही काम है और वह है विरोध करना.

इनमें से बहुत-से आरोपों के पीछे गुस्से के अलावा कोई और वजह नहीं. लेकिन बारीकी से देखें तो कुछ में सच्चाई है. उदाहरण के लिए, रॉय में उन लोगों को लेकर जरा भी धीरज नहीं जिन्होंने भारत के अंधेरे कोने नहीं देखे. वे रवैया नर्म रखते हुए अपनी बात मनवाने की कोशिश नहीं करतीं, धीरे-धीरे मध्यवर्ग की अंतरात्मा से संवाद करने का प्रयास नहीं करतीं. उन्हें लोगों को सहज रखने में कोई दिलचस्पी नहीं. वे सीधा हथौड़े से चोट करती हैं.

वे हमेशा सहमत करने की कोशिश तो करती नहीं ऊपर से चुनौती-सी और दे देती हैं. इसलिए पिछले हफ्ते इलेक्ट्रॉनिक मीडिया द्वारा उन्हें अलग-थलग करने और उन पर बरसने को देखना दुखद था. बहस इस पर नहीं हो रही थी कि रॉय ने जो कहा वह क्यों कहा, बल्कि इस पर हो रही थी कि क्या उन्होंने लक्ष्मणरेखा पार की है या क्या उन्हें राष्ट्रद्रोह के लिए जेल में नहीं डाल दिया जाना चाहिए.

सवाल यह है कि आप रॉय की बात या उनके अंदाज से असहमत हो सकते हैं मगर क्या इससे वह बात गलत साबित हो जाती है. क्या हमें अपने समाज के बुद्धिजीवियों के साथ संवाद नहीं करना चाहिए? उनसे बहस नहीं करनी चाहिए? लोकतंत्र कुछ बुनियादी खंभों पर टिका होता है. अभिव्यक्ति और चुनाव की आजादी ऐसे ही खंभे हैं. जो देश खुद को दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र कहता है वहां लोगों को यह तो समझना ही चाहिए कि शांतिपूर्ण असहमति किसी भी नागरिक का बुनियादी अधिकार है. एक लेखक का तो सबसे पहले. सरकार किसी राष्ट्र की सीमाओं की सुरक्षा कर सकती है, मगर उस राष्ट्र की आत्मा को बचाने का जिम्मा लेखकों और बुद्धिजीवियों पर ही होता है. एक समाज के रूप में हमें खुद को किस तरह देखना और समझना चाहिए इसकी हदें तय करने के लिए सोचने, लिखने और बोलने का काम इन्हीं लोगों का होता है. वे दरबार में बैठकर सत्ता का राग गाने के लिए नहीं बने होते. अरुंधती के बयान पर आ रही प्रतिक्रियाएं बताती हैं कि हम भूल गए हैं कि लेखक समाज में एक उत्प्रेरक की तरह होता है.

अरुंधती के कट्टर आलोचक भी यह दावा नहीं कर सकते कि वे महज शौक के लिए मुद्दों में कूदती हैं. पिछले 12 साल की सक्रियता के दौरान वे हमारे दौर के सभी बड़े मुद्दों पर बोलती और लिखती रही हैं. बड़े बांध, विस्थापन, भूमि अधिग्रहण, औद्योगीकरण, निजीकरण, भूमंडलीकरण, आतंकवाद, अमेरिकी साम्राज्यवाद, हिंदू राष्ट्रवाद, माओवाद और अब कश्मीर. हर बार भले ही उनकी आलोचना की जाती रही पर बाद में ज्यादातर मुद्दों पर वे सही साबित हुईं. भारत नामक पोशाक की सीवन आज जगह-जगह से उखड़ रही है. और ऐसा हो रहा है जमीन और विकास को लेकर गलत नजरिए की वजह से. इस वजह से क्योंकि उजला महाद्वीप आज अंधेरे महाद्वीप को अपना उपनिवेश बनाने पर तुला है.

इसलिए पिछले पखवाड़े मीडिया जब अरुंधती के बयान पर इतना शोर मचा रहा था तो इसका लेना-देना वास्तव में राष्ट्रदोह के अपराध से नहीं था. इसका लेना-देना देशभक्ति और नागरिकता के बारे में हमारी लगातार सिकुड़ती जा रही सोच से था. यह सबूत था कि गंभीर संवाद भी अब आजादी की जगह सुरक्षा, राष्ट्रवाद की जगह अंधराष्ट्रवाद और नागरिकता की जगह अनुपालन की तरफ मुड़ गया है. यह इस बात का भी सबूत था कि मीडिया, मध्यवर्ग और भारतीय राष्ट्र उस तरह एक-दूसरे को आईना दिखाने का काम नहीं कर रहे जिस तरह एक स्वस्थ समाज में उनसे अपेक्षा की जाती है. बल्कि वे एक ही इकाई में तब्दील हो गए हैं. हितों के मामले में ही नहीं बल्कि अपनी छवि के मामले में भी.

मध्यवर्ग को यह नहीं भूलना चाहिए कि ऐसी आवाजें ही हालात को देखने का एक नया नजरिया खोजती और बनाती हैं. भूमि अधिग्रहण और विशेष आर्थिक क्षेत्र (सेज) पर विरोध की आवाजों के साथ भी पहले ऐसा ही बर्ताव हुआ था, मगर कॉरपोरेटों की शक्ति के आगे जब विशाल जनांदोलन खड़े हो गए तो मीडिया और सरकार को इस मुद्दे पर अपना रुख बदलने के लिए मजबूर होना पड़ा. यही आवाजें एक देश की सोच को गतिशील बनने पर मजबूर करती हैं, नए विचारों को संभव बनाती हैं और नई अंतरात्मा का निर्माण करती हैं.

ऐसी आवाजों को खामोश कर दें जो तंज करती हैं, असहमति जताती हैं और चुनौती देती हैं तो रोशनी में नहाए भारत को एहसास होने लगेगा कि उनका समाज कितना गरीब हो गया है.

सवाल यह है कि अरुंधती ने कश्मीर पर ऐसा क्या कह दिया कि इसे राष्ट्रद्रोह कहा जाने लगा. रिपोर्टों के अनुसार उन्होंने कहा, ‘यह एक ऐतिहासिक सच्चाई है कि कश्मीर भारत का अभिन्न हिस्सा नहीं है.’

यही वह बयान था जिसके बाद उनके खिलाफ गुस्सा फूट पड़ा. सही-गलत की बात एकबारगी किनारे रख देते हैं. सबसे पहले बुनियादी सवाल – क्या अरुंधती रॉय इस देश की प्रधानमंत्री, गृहमंत्री या विदेश मंत्री हैं? क्या उनका आधिकारिक राष्ट्रीय सहमति से सुर मिलाना जरूरी हैै? क्या एक लेखिका के तौर पर उन्हें वैसा बोलने का अधिकार नहीं है जैसी दुनिया उन्हें दिखती हैैैै? क्या हमें लगता है कि नोबेल पुरस्कार विजेता बागी चीनी लेखक लियु श्याबाओ और तुर्की के लेखक एरहान पामुक को वहां की सरकारों द्वारा जेल में डालना सही है क्योंकि उनके विचार उनके देश की आधिकारिक नीति से मेल नहीं खातेे? क्या अमेरिकी लेखकों और बुद्धिजीवियों को विकिलीक्स द्वारा सामने लाई गई उन तल्ख सच्चाइयों पर सिर्फ इसलिए बहस नहीं करनी चाहिए कि हिलेरी क्लिंटन ने कहा है कि इससे अमेरिका के राष्ट्रीय हितों को नुकसान पहुंचेगा?

विडंबना यह है कि अगर रॉय पर राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चलता तो वे ऐसी कार्रवाई झेलने वाली ऐतिहासिक हस्तियों की सूची में शामिल हो जातीं. यंग इंडिया में प्रकाशित अपने विचारों की वजह से महात्मा गांधी पर 1922 में राष्ट्रद्रोह का मुकदमा चला था. इसकी सुनवाई के दौरान उन्होंने कहा था, ‘इस अदालत से यह तथ्य छिपाने की मेरी कोई इच्छा नहीं है कि सरकार की वर्तमान व्यवस्था के प्रति असंतोष का प्रचार मेरे लिए लगभग जुनून बन चुका है….कानून के मुताबिक राष्ट्रद्रोह जान-बूझकर किया जाने वाला अपराध है…मगर मुझे यह एक नागरिक का सबसे बड़ा कर्तव्य जान पड़ता है.’ उन्होंने आगे यह भी कहा था कि अगर किसी व्यक्ति को कोई व्यवस्था अच्छी नहीं लगती तो उसे अपनी असंतुष्टि व्यक्त करने का पूरा मौका दिया जाना चाहिए बशर्ते वह हिंसा को जरिया न बनाए.

अपने दूरदर्शी राष्ट्रपिता के विचारों को कसौटी बनाकर पूछा जा सकता है कि क्या रॉय ने लोगों को हथियार उठाने के लिए भड़काया. क्या जिन जगहों की वे बात कर रही हैं वहां असंतोष उनकी वजह से है? कश्मीर पर उनकी स्थिति पहले भी उनके लेखों में दिखती रही है. उनके मुताबिक जितना कश्मीर को भारत से आजादी चाहिए उतना ही भारत को भी कश्मीर से आजादी चाहिए. उन्हें लगता है कि घाटी में सात लाख सुरक्षा बलों की तैनाती संसाधनों और मानव जीवन की भारी बर्बादी है. वे सुरक्षा बलों द्वारा मानवाधिकारों के उल्लंघन की बात करती रही हैं और सेना की भारी उपस्थिति को कब्जे की तरह देखती रही हैं. इसके साथ ही वे कश्मीरियों से भी कहती रही हैं कि वे इस बारे में और गंभीरता से सोचें कि वे अपने लिए कैसा समाज बनाना चाहते हैं. वहां अल्पसंख्यकों की क्या जगह होगी? कश्मीरी पंडितों का क्या होगा? क्या धार्मिक आधार पर देश बनने से उनकी सारी समस्याएं खत्म हो जाएंगी?

विडंबना देखिए कि इस बयान पर उठे शोर-शराबे के बीच कई अहम बातों का जिक्र ही नहीं हो सका. मिसाल के तौर पर उस आयोजन में मौजूद रहे अलगाववादी नेता सैय्यद अली शाह गिलानी ने अपने भाषण में एक नई नरमी के संकेत दिए. इसी आयोजन के एक वक्ता शुद्धब्रत सेनगुप्ता के मुताबिक गिलानी ने कहा कि वे एक मजबूत और उभरता भारत देखना चाहते हैं. उन्होंने कश्मीरी पंडितों से घाटी में लौटने की अपील की. गांधी को उद्धृत करते हुए उन्होंने एक अहिंसक आंदोलन की बात कही और कहा कि वे बस जनमतसंग्रह की वकालत कर रहे हैं और इस निष्पक्ष जनमतसंग्रह का नतीजा जो भी हो, कश्मीरी भारत में रहना चाहें, पाकिस्तान में मिलना चाहें या अलग देश बनाना चाहें उन्हें सिर झुकाकर मंजूर होगा.
वक्त के साथ कई तरह के उतार-चढ़ावों से गुजरती हुई कश्मीर की कहानी दरअसल इतनी जटिल हो गई है कि इस पर आने वाला हर बयान पूरा सच नहीं होता. इस कहानी को समझने की कोशिश करने में भटकाव की गुंजाइश काफी रहती है. मगर कश्मीर में सिर्फ एक हफ्ता गुजारने के बाद भी आपको एहसास हो जाएगा कि यह जगह एक नए तरह के दखल के लिए बिलकुल तैयार है. पूर्व प्रधानमंत्री अटल बिहारी वाजपेयी ने कभी पूरी घाटी को यह कहकर सम्मोहित कर लिया था कि कश्मीर मुद्दे को इंसानियत के दायरे में सुलझाया जाएगा. तो क्यों न हम दूसरों को संवाद की नई राह खोलने दें.

फिर भले ही हम उनसे असहमति रखते हों.

आजाद रोशनी का बंधक सफर

देश आजाद हुआ और मध्य रात्रि को रोशनी निकल पड़ी गांव की ओर. अभी कुछ दूर पहुंची थी कि एक खद्दरधारी ने उसे टोका, ‘इत्ती रात को कहां भागी जा रही है?’ रोशनी ने बताया कि वह गांव जा रही है. खद्दरधारी हंसा. बोला, ‘पागल! इधर से कहां जा रही है, अगर सही-सलामत पहुंचना है तो हाई-वे पकड़.’ यह सुनकर रोशनी दिग्भ्रमित हो गई. खद्दरधारी बोला, ‘मेरे घर चल. इतनी रात को चोर-उचक्के मिल गए तो! सुबह अपने ड्राइवर से कहकर तुझे गांव छुड़वा दूंगा.’ रोशनी आश्वस्त होकर खद्दरधारी के साथ चल पड़ी. घर पहुंचने पर उसकी खूब आवभगत हुई. वह थकी थी, सो गहरी नींद में सो गई. जगने पर खद्दरधारी को ढूंढ़ा तो वह नहीं मिला. घरवालों ने बताया कि वह इस वक्त कैबिनेट मीटिंग में है. रोशनी भारी मन से अपने गंतव्य के लिए चली. उसने खद्दरधारी के घर को मुड़कर देखा. उसे सहसा विश्वास नहीं हुआ. वह घर नहीं बंगला था और वहां रोशनी इतनी थी कि रोशनी की आंखें भी चौंधिया गईं.

वह आगे चली. अभी कुछ दूर ही चली होगी कि फर्राटा भरती, हूटर बजाती एक कार ने उसे ओवर टेक किया. कुछ दूर जाकर कार रुकी. सूट-बूट पहने व्यक्ति ने उससे पूछा, ‘कहां जाना है आपको?’ रोशनी ने कार में बैठे व्यक्ति को गौर से देखा. वह पढ़ा-लिखा, रौबदार दिखता था, जैसे- लाटसाहब. रोशनी बोली, ‘गांव जा रही हूं सर.’ वह बोला, ‘आई सी, ऐसे तो आपको वहां पहुंचने में काफी समय लगेगा. चलिए मैं आपको ड्रॉप कर देता हूं.’ रोशनी उसकी गाड़ी में बैठ गई. कुछ देर के बाद कार एक जगह रुकी. रोशनी ने झांककर देखा. उसकी बेचैनी को समझ कार सवार बोला, ‘आप घबराइए नहीं. यह मेरा ऑफिस है. एक जरूरी फाइल निपटाकर आता हूं.’ रोशनी वहीं बैठकर काम खत्म होने को इंतजार करने लगी. सारा दिन बीत गया. रोशनी जब उन्हें ढूंढ़ने अंदर गई तो साहब के मातहतों ने उसे मिलने नहीं दिया. अंततः रोशनी बिन बताए ही वहां से निकल पड़ी.

रोशनी ने फिर अपनी राह पकड़ी. इस बार उसने मुख्य मार्ग छोड़कर पगडंडी से जाने का इरादा बनाया. कुछ दूर बाद ही गांव दिखने लगा. उसकी गति बढ़ गई. तभी उसकी नजर वीराने में बने एक बड़े फार्म हाउस पर पड़ी. जहां से जोर-जोर से आवाजें आ रही थीं जिनमें ‘कमीशन’, ‘ठेका’ शब्दों की भरमार थी. रोशनी जैसे ही फार्म हाउस के पास से गुजरी कि एक कड़क अवाज आई,’कौन है वहां?’ ‘मैं… मैं रोशनी’, रोशनी ने कांपते हुए कहा. आवाज देने वाला रोशनी के पास आ चुका था. उसने रोशनी को घूरा. रोशनी ने अपने को जितना समेट सकती थी, समेटा. वह हंसते हुए बोला, ‘इतनी रात को कहां चली छमकछल्लो.’ ‘गांव…’ रोशनी बस इतना ही कह पाई थी कि उसने रोशनी का हाथ पकड़ा और अंदर खींच लिया. रोशनी चिल्लाई मगर उसकी आवाज घुटकर रह गई. सुबह उन्होंने रोशनी को छोड़ दिया. रोशनी लड़खड़ाते हुए गांव पहुंची. गांववाले उसका जबरदस्त स्वागत करेंगे, रोशनी यह सोचकर पुलकित थी. मगर ऐसा कुछ न हुआ. वहां पहुंचने पर गांववाले उसे एकटक देखते रहे. गांव वालों ने उससे पूछा, ‘तुम कौन हो?’ रोशनी भौंचक हुई. इस सवाल का क्या मतलब! इन्हें मेरा ही तो इंतजार था, फिर ऐसी बातें क्यों! असल में वह बूढ़ी लग रही थी. गांव पहुंचने के क्रम में उसका नूर कितना छीज चुका है, उसे खुद नहीं मालूम था. अब वह थी तो रोशनी, मगर फीकी. आज भी देश के बहुतेरे गांव उसी फीकी रोशनी की कहानी सुनाते हैं.

– अनूप म‌णि त्रिपाठी

एक और दंतेवाड़ा

यह दंडकारण्य का वह दंतेवाड़ा तो नहीं जहां के एक बड़े हिस्से में माओवादियों द्वारा पीपुल्स गवर्नमेंट का राज चलता है लेकिन एशिया के सबसे बड़े साल के जंगल सारंडा की पिछले दस साल में जैसी हालत हो गई है, उसे दूसरा दंतेवाड़ा कहना गलत नहीं होगा. निराला और अनुपमा की यह विशेष रिपोर्ट 

बहादुर सिंह मुंडा एक-एक कर बातों को समझाते हैं. जब हम सारंडा के इलाके में प्रवेश करेंगे तो गाड़ी का हॉर्न कुछ-कुछ अंतराल पर लगातार बजते रहना चाहिए. गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम दुरुस्त रखना होगा. तेज आवाज में गीत-संगीत बजते रहना चाहिए, वह कानफाड़ू ही क्यों न हो. और हां, गाड़ी की खिड़कियों के शीशे बंद करने की बिलकुल जरूरत नहीं. यह सब इसलिए ताकि हर सौ कदम पर किसी न किसी रूप में मौजूद माओवादी कार्यकर्ताओं को यह कतई न लगे कि कोई पुलिसवाला जा रहा है, जिसकी गाड़ी में म्यूजिक सिस्टम नहीं होता या जिसने खिड़कियों को बंद रखा है या जो हॉर्न बजाए बिना चुपके से निकलना चाह रहा हो. ऐसा संदेह होने पर आप औसतन हरेक किलोमीटर की दूरी पर बिछे लैंडमाइन, केन बम आदि की चपेट में आ सकते हैं.

‘हम पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने तक तो तैयार नहीं था. लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती हैं तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही सारे इंतजाम हो जाते हैं’

बहादुर की ये हिदायतें सिहरन पैदा करने वाली हैं. लेकिन यात्रा में खुद बहादुर साथ हैं, इसलिए भय थोड़ा कम है. सब समझ लेने के बाद हम छोटानागरा इलाके के लिए निकलते हैं. छोटानागरा कभी धार्मिक पर्यटक स्थल के रूप में मशहूर था, बताया जाता है कि कभी यहां उड़ीसा के क्योंझर राज ने मानव निर्मित खालों से दो नगाड़े बनवाए थे, जो अब भी आस्था के प्रतीक के तौर पर विराजमान हैं. लेकिन अब छोटानागरा की एक नई पहचान भी है. यहीं से वह रास्ता शुरू होता है, जहां खून, बारूद, विस्फोट, वर्चस्व की भाषा ही अब मुख्यधारा की भाषा है. यानी माओवादियों और पुलिस के बीच मुठभेड़ का इलाका. कटे हुए रोड डरा रहे हैं क्योंकि इनका सीधा मतलब होता है कि यहां लैंडमाइन हो सकती है. डर के इस माहौल में स्वभाव से संकोची-शर्मीले बहादुर खामोशी को तोड़ते हुए पहला सवाल करते हैं, ‘आपलोग पत्रकार हैं तो यह एक बात मालूम होगी कि हमारे पुरखों ने जंगल-पहाड़ों की दुर्गमता से लड़ाई लड़ अपने रहने के लिए, अपनी खेतीबाड़ी के लिए जगह तैयार की. जानवरों की खोह में इंसानों के आने-जाने के अवसर उपलब्ध कराए. लेकिन जब इसके एवज में वर्षों से हम पानी-बिजली की मांग करते रहे तो कोई सुनने तक को तैयार नहीं था. लेकिन हमारे ही गांव के बगल में जब कंपनियां आती हैं तो उनके लिए दस दिनों के अंदर ही बिजली-पानी-सड़क का इंतजाम हो जाता है. ऐसा क्यों?’

बहादुर अपनी बात जारी रखना चाहते हैं. अगला सवाल- ‘यदि कोई ग्रामीण एक शाम का खाना माओवादियों को मजबूरी में खिला देता है तो उसे नक्सली मददगार बताकर मारा-पीटा जाता है, जेल भेजा जाता है लेकिन उद्योगपति, व्यवसायी, कारोबारी वर्षों से लाखों-करोड़ों की लेवी देते हैं, उन्हें नक्सली मददगार क्यों नहीं कहा जाता?’ अब बहादुर सिंह का स्वर मुखर होता है. अगला सवाल-‘आपने कभी सोचा है नक्सलियों और पुलिसवालों दोनों को ही सारंडा से इतना मोह क्यों है?’
हमें भी इसी सवाल का जवाब तलाशना है कि आखिर एशिया के सबसे बड़े साल के जंगल सारंडा में ही सुरक्षा बलों की इतनी रुचि क्यों जबकि नक्सलियों का खौफ तो झारखंड के दूसरे इलाकों में भी इससे कम नहीं. चतरा जिले में तो माओवादियों ने प्रतापपुर के 40 से अधिक गांवों की जिंदगियों को चार माह तक नाकेबंदी में कैद कर रखा था. लेकिन वहां कोई बड़ा ऑपरेशन नहीं चला. पलामू में भी साल की शुरूआत में काफी समय तक कई गांवों की जिंदगी माओवादी फरमान के कारण रुकी रही. लातेहार इलाके में कई प्रखंड ऐसे हैं, जहां पत्ता तक माओवादियों की मर्जी के बिना नहीं खड़कता. गुमला के इलाके में जहां पाट और पहाड़ी क्षेत्रों के बीच नक्सली संगठन अपना राज चलाते हैं, वहां भी कोई बड़ा ऑपरेशन होता नहीं दिखता. रांची से सटे बुंडू-तमाड़ के इलाके में तो विधायक रमेश सिंह, इंस्पेक्टर फ्रांसिस इंदवार की हत्या हुई, कई-कई बड़े लूट कांड हुए. यहां माओवादी नेता कुंदन पाहन की इजाजत के बगैर इलाके के गांवों में कुछ नहीं होता. लेकिन वहां भी इतना बड़ा ऑपरेशन कभी क्यों नहीं चलाया गया जबकि कुछ माह पूर्व वहां के 40 गांवों के ढाई हजार ग्रामीणों ने पुलिस को यह भरोसा दिलाया था कि यदि आर-पार की लड़ाई लड़नी है, इलाके से नक्सलियों को खदेड़ना है तो दो-तीन माह तक सघन अभियान चलाएं हम साथ देंगे. लेकिन वैसा कुछ नहीं हो सका. तो फिर सारंडा में ही इतनी रुचि क्यों?

‘पुलिस या तो आर-पार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पिसकर बर्बाद हो रहे हैं. यहां की नई पीढ़ी से दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है’24 से 27 सितंबर के बीच करीबन तीन से चार हजार पुलिसबलों ने सारंडा एरिया के थोलकोबाद, मनोहरपुर, छोटानागरा, जराईकेला, दीघा, भालूलता, बिमलागढ़, राउरकेला और किरीबुरू के रास्ते इलाके को अपने नियंत्रण में लेने की कोशिश की. दीघा, तिरिलपोसी जैसे गांवों में तीन दिनों तक जिंदगी ठहरी रही. कोबरा पुलिस के नेतृत्व में पहुंचे पुलिसबलों की इतनी संख्या के बावजूद माओवादियों ने 25 सितंबर को सात लैंडमाइन विस्फोट करके दो जवानों को उड़ा दिया. कोबरा का भी एक जवान शहीद हुआ. कोबरा बटालियन के असिस्टेंट कमांडेंट नितेश कुमार घायल हो गये. इसके बाद पुलिसवालों के कई विरोधाभासी बयान सुनने को मिले. कभी कहा गया कि दर्जन भर माओवादी मार दिए गए हैं, आधे दर्जन से अधिक कैंप ध्वस्त कर दिए गए हैं. फिर कहा गया कि चार माओवादी मारे गए हैं. इसके बाद अचानक से ऑपरेशन को रोक दिया गया और सारे पुलिसवाले बीहड़ से वापस आ गये तो एक लाश को दिखाया गया. कहा गया कि केवल एक माओवादी की लाश हमारे हाथ लग सकी, बाकियों को माओवादी उठा ले गए लेकिन इस बात का खंडन करते हुए माओवादी प्रवक्ता समरजी का कहना है कि इस मुठभेड़ से उनके संगठन को कोई नुकसान नहीं हुआ. न ही कोई कैंप ध्वस्त हुआ, न ही कोई मारा गया, पुलिस गलतबयानी कर रही है. इस बाबत पूछे जाने पर चाईबासा जिले के एसपी अरुण कुमार कुछ भी बताने से इनकार करते हैं. वे कहते हैं कि इस संबंध में राज्य के वरीय पुलिस पदाधिकारी ही कुछ बता सकते हैं. वरीय पुलिस पदाधिकारियों में डीजीपी नेयाज अहमद कहते हैं कि हमने सफलता पाई है, अब फिर नए सिरे से बड़े स्तर पर ऑपरेशन की शुरुआत होगी. माओवादी प्रवक्ता समरजी या पुलिस पदाधिकारियों की बात को परे कर दें तो इलाके में अधिकांश लोग यह मानने को तैयार ही नहीं कि करीबन 72 घंटे तक इलाके को घेरकर अंधाधुंध फायरिंग आदि करने के बाद पुलिस ने कुछ हासिल भी किया होगा. सिवाय इसके कि इन दिनों यहां का इलाका बेहद अशांत रहा. जैसा कि छोटानागरा में हमें मिले प्रमोद सिंकू कहते हैं, ‘पुलिस या तो आर-पार की लड़ाई लड़े या हमें माओवादियों के भरोसे छोड़ दे. हमलोग तो दोनों के बीच पिसकर बर्बाद हो रहे हैं. यहां की नई पीढ़ी दहशत और हिंसा के बीच पैदा हो रही है. उससे भविष्य में एक सभ्य, जिम्मेवार भारतीय नागरिक बनने की उम्मीद कैसे की जा सकती है?’

झारखंड से होकर 1,500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1,300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में से 168 उनके निशाने पर है

सिंकू सच ही कहते हैं. सारंडा हमेशा से ही शिकारगाह बना रहा है. पहले यह सरायकेला एस्टेट की शिकारगाह हुआ करता था, अब बड़ी कंपनियों, दलालों, माओवादियों की शिकारगाह है. इतिहास में जाएं तो 19 दिसंबर, 2001 को पुलिस ने इस इलाके में नक्सली ईश्वर महतो को मार गिराया था, जिसके बाद नक्सलियों ने एक का बदला सौ से लेने की बात कही थी. सौ तो नहीं लेकिन आधिकारिक तौर पर अब तक 70 का आंकड़ा पार हो चुका है. सुरक्षाबलों के लिए कब्रगाह बन चुके सारंडा में 19 दिसंबर 2002 को नक्सलियों ने बिटकलसोय में बम विस्फोट कर 12 पुलिसकर्मियों को मार गिराया था. कुछ ग्रामीण भी मारे गये थे. उसके दो साल बाद ही बलिवा कांड हुआ, जिसमें करीब तीस पुलिसकर्मी शहीद हो गए. दो साल बाद 2006 में फिर नक्सलियों ने एक बड़े कांड को अंजाम दिया, जिसमें 12 पुलिसवाले शहीद हुए. पुलिसवालों की शहादत, गोली-बारूदों की आवाज ने शांत सारंडा को अशांत इलाके में तब्दील कर दिया.

प्रसिद्ध पर्यटन स्थल को जानलेवा जंगल में बदलने में सबसे बड़ी भूमिका नक्सलियों की रही और उतनी ही राजनीति की भी. इसी इलाके से मधुकोड़ा जैसे नेता मुख्यमंत्री पद तक पहुंचे लेकिन उन्होंने खानों-खदानों का जो खेल किया, सबने देखा. वर्तमान मुख्यमंत्री अर्जुन मुंडा भी सारंडा के पड़ोस से ही हैं. दूसरी ओर नक्सलियों का ट्रेंड देखें तो पता चलेगा कि वे किसी एक इलाके में बहुत दिनों तक डेरा नहीं डालते, लेकिन सारंडा एक ऐसी जगह है, जहां से नक्सली किसी भी कीमत पर जाना नहीं चाहते. सबसे बड़ा कारण है यहां से मिलने वाली मोटी लेवी. खुफिया विभाग ने दो साल पहले पुलिस मुख्यालय को जो जानकारी दी थी, उसके अनुसार पश्चिमी सिंहभूम से ही सबसे ज्यादा लेवी की वसूली माओवादी करते हैं. एक आंकड़े के अनुसार यह रकम 4 करोड़ 46 लाख 30 हजार रुपये सालाना है. हालांकि जानकार बताते हैं कि खुफिया विभाग की यह जानकारी सही नहीं बल्कि इस इलाके से लगभग एक करोड़ रुपये प्रतिमाह की लेवी दी जाती है. मनोहरपुर में मिले सामाजिक कार्यकर्ता और मानकी-मुंडा समिति के सलाहकार डाहंगा बताते हैं कि ‘यह सब धीरे-धीरे हुआ. पहले यहां के लोग बहुत शांत थे, अब भी शांत हैं. लेकिन जब से खनन कंपनियों के साथ दलालों का आना शुरू हुआ तब से पूरी व्यवस्था ही बदल गई. यहां के नौजवानों को माओवादी संगठन यह फरेबियत दिखाने लगे कि यदि थोड़ी कोशिश करो तो पैसे की भरमार है. उसी के फेरे में नौजवान इसमें जुड़ते चले गये’.

सारंडा के जंगलों में घूमते हुए रास्ते में आपको हाथियों के समूह, टेढ़े-मेढ़े रास्ते मिलेंगे. चारों ओर पहाड़ियां ही पहाड़ियां. लगभग 80 हजार हेक्टेयर में फैले एशिया के इस सबसे बड़े साल के जंगल में जितने किस्म के संकट हैं, उनसे भयभीत होना स्वाभाविक है. कई जगहों पर सड़क को ही खलिहान बने देखना साफ बताता है कि इस रास्ते कभी-कभार ही कोई आता-जाता होगा. कई जगहों पर उड़ी हुई सड़कें बताती हैं कि यहां कभी विस्फोट हुआ है. अंदर के गांव के रास्तों में पेड़ पर स्थायी तौर पर लगे नक्सली पोस्टर बताते हैं कि यहां पोस्टरों को हटाने वाला कोई नहीं. इन सबके बीच एक स्कूल में फुटबॉल मैच खेलती लड़कियों को देख एक अजीब- से रोमांच का भी अनुभव होता है. सारंडा तबाही और बर्बादी के उस मुहाने पर पहुंच चुका है, जहां से वापस आने की उम्मीदें नहीं दिखतीं. माओवादियों के बारे में या पुलिसवालों के बारे में बच्चे तक कुछ नहीं बताना चाहते. लेकिन निराशा के गहरे गर्त में भी कहीं-कहीं टिमटिमाती उम्मीदें दिखती हैं. जैसा कि मनोहरपुर में मिले हितेंद्र कहते हैं, ‘नक्सली कोई क्रांति नहीं कर रहे न ही उन्हें बदलाव आदि से कोई लेना-देना रह गया है. उनका मुख्य काम पैसे की उगाही है. सारंडा का ही एक हिस्सा है बंदगांव का इलाका. यहां जंगल माफियाओं ने पिछले दस वर्षों से तबाही मचा रखी है. बच्चों से जंगल कटवाते हैं. ग्रामीणों का घर जला देते हैं. महिलाओं से दुष्कर्म करते हैं. लेकिन कहां कभी कोई माओवादी नेता उन माफियाओं को सजा देने सामने आया.’ हितेंद्र आगे बताते हैं कि इसी सारंडा को ठेकेदारों ने लूटा, लेकिन माओवादियों ने कुछ नहीं किया. उनकी तो सिर्फ पुलिसवालों से दुश्मनी है. लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि पुलिसवाले भी अपनी नौकरी करते हैं. हितेंद्र हमें माओवादियों और ठेकेदारों-बिचौलियों के रिश्ते को समझने के लिए गोइलकेरा जाने के लिए कहते हैं.

रास्ते में बहादुर मुंडा बताते हैं कि ‘इतना ही नहीं एक और खेल भी चलता है. ठेकेदारों और माओवादियों की दोस्ती इतनी गहरी होती है कि आप विश्वास नहीं कर सकते. ठेकेदार किसी पुल-पुलिया का निर्माण करवा रहे होते हैं तो माओवादियों से सेटिंग कर वे बीच में ही उसे उड़वा देते हैं. फायदा यह होता है कि ठेकेदार सरकारी फाइलों में यह दिखा देते हैं कि हमने तो 90 फीसदी कार्य पूरा करवा लिया था. अब उन्हें भुगतान 90 प्रतिशत कार्य के आधार पर होता है जबकि असल कार्य केवल दस फीसदी ही हुआ था. दिखावे के लिए या फिर जनता को जोड़े रखने के लिए नक्सलियों ने किरीबुरू के इलाके में किसानों को कुछ पंपिंग सेट वगैरह भी दिए हैं’.

मनोहरपुर से वापसी में हम हितेंद्र के सुझाए गोइलकेरा में रुकते हैं. गोइलकेरा की एक चाय की दुकान पर मिले वंशीधर ठेकेदारों-बिचौलियों और नक्सलियों के बीच के समीकरण और सांठ-गांव को समझाते हैं. वे कहते हैं, ‘आप यह सोच सकते हैं कि इतने घनघोर जंगल में पुलिस की इतनी मुस्तैदी के बीच माओवादियों को खाद्य सामग्री किस तरह पहुंचती होगी. उनके पास अत्याधुनिक चीजें कैसे पहुंच जाती हैं.’ कभी इस खेल में खुद शामिल रह चुके वंशीधर कहते हैं, ‘माओवादियों की जरूरतों को पूरा करने के लिए कई चैनल बने हुए हैं. सबसे बड़े चैनल ठेकेदार हैं जो निर्माण कार्य के लिए ले जाई जा रही सामग्री के बीच या मजदूरों को खिलाने-पिलाने के बहाने खाद्य सामग्री माओवादियों तक पहुंचा देते हैं. बाकी बची कसर रेल से पूरी की जाती है. इस इलाके में रेलगाड़ियों का परिचालन माओवादियों के इशारे पर ही होता है. वह जहां चाहते हैं वहीं रुकती है, फिर उनमेंें सामग्री लोड की जाती है और निर्धारित पड़ाव पर उसकी डिलीवरी कर दी जाती है. रेल ड्राइवर या गार्ड कुछ नहीं कह पाते क्योंकि उन्हें पता है कि झारखंड से होकर 1,500 किलोमीटर की रेल लाइन गुजरती है, जिसमें करीब 1,300 किलोमीटर की यात्रा नक्सल प्रभावित क्षेत्रों से ही होती है. 292 रेलवे स्टेशनों में से 168 उनके निशाने पर हैं.

खैर! इन सारी बातों के साथ बहादुर सिंह मुंडा के सवाल सारंडा यात्रा में बढ़ते ही जाते हैं. बहादुर बताते हैं कि अभी तो स्थिति कम भयावह है लेकिन कुछ वर्षों बाद यहां सिर्फ और सिर्फ खून की नदियां ही बहनी हैं. पुलिस हथियारों के बल पर नक्सलियों से पार पाना चाहती है, जो संभव नहीं. गांववालों को भरोसे में लेना होगा. विकास करना होगा. जब हम किरीबुरू के इलाके में जा रहे होते हैं तो बीच में ही कहीं रुककर बहादुर किसी के घर से कागज का एक टुकड़ा लाते हैं. उसे बांचते हुए कहते हैं, ‘आपको मालूम न कि यहां एक चिड़िया माइंस है, जहां एशिया का सबसे बढ़िया लौह अयस्क मौजूद हैं. दुनिया में इतना बढ़िया लोहा सिर्फ अमेरिका में ही पाया जाता है. वे बताते हैं कि सारंडा खनन से खोखला हुआ है. 80 हजार हेक्टेयर वाले इलाके में फिलहाल 14,022 हेक्टेयर खनन से प्रभावित इलाका है. नई खदानों के लिए 37,814 हेक्टेयर में प्रस्ताव मिला है. दोनों को मिला दें तो यह खेत्रफल 51,836 हेक्टेयर पहुंच जाता है. इस तरह मात्र 28,164 हेक्टेयर इलाका ही वैसा बचेगा जिसमें जंगल रहेंगे, इंसानों को भी रहना होगा और जानवरों को भी.

गोइलकेरा से चक्रधरपुर आने के क्रम में कई-कई सवालों से मुठभेड़ होती है. हम चाईबासा जाते हैं जहां प्रसिद्ध प्राध्यापक प्रो अशोक सेन से मुलाकात होती है. प्रो सेन कहते हैं कि यह अभिशप्त इलाका है. अंग्रेजों के जमाने में यहां उनका जुल्म था, अब नए शासकों का जुल्म है. वे कहते हैं कि पुलिस बार-बार तमाशा क्यों करती है. यदि कोई अभियान चलाना है तो गंभीरता से चलाओ या नहीं चलाओ. यह क्या है कि चलाया, इलाका मानसिक तौर पर तैयार हुआ तो बीच में रोक दिया. वे बताते हैं, ‘आप इसी से समझ सकते हैं कि चाईबासा कोल्हान का एक प्रमुख स्थान है. यहां से जमशेदपुर के बीच अंग्रेजों के जमाने में भी एक ही सवारी गाड़ी चलती थी, हाल तक एक ही चलती रही. अभी हाल ही में आंदोलन के बाद एक और गाड़ी का ठहराव हुआ है. अंग्रेजों ने इसे मालगाड़ी के लिए बनाया था, अब के शासक भी इंसानों की बजाय माल को ही ज्यादा तरजीह देते हैं. विकास ही नहीं हुआ तो क्या होगा, विनाश तो तय है, चाहे जिस रूप में हो.’ लेकिन मध्य प्रदेश कैडर के पूर्व वरिष्ठ आईपीएस अधिकारी और वर्तमान में केंद्र सरकार के गृह मंत्रालय की नक्सल मैनेजमेंट डिविजन के सदस्य डीएम जॉन मित्रा कहते हैं कि माओवादियों को दमन से तो खत्म नहीं ही किया जा सकता लेकिन विकास से भी वे खत्म नहीं होंगे. राजनीतिक सक्रियता जरूरी है और असमानता की लकीर जो वर्षों से खींची गई है, उसे धीरे-धीरे पाटना होगा. छल और फरेब सार्वजनिक संस्थानों ने भी किया है, उसे सुधारना होगा और लौंग टर्म प्लानिंग के तहत काम करना होगा.

सारंडा की खाक छानने के बाद हम चक्रधरपुर पहुंचते हैं. वहां बहादुर सिंह मुंडा विदा लेते हैं. कहते हैं, ‘सेवा समाप्त. अब यह भूलकर जाएं कि हम और आप कभी मिले भी हैं.’ रात के आठ बजे हैं. बहादुर समझाते हैं, ‘आगे टैबोघाटी में भी वही फॉर्मूला अपनाइएगा. वह भी सारंडा का ही हिस्सा है. तेज म्यूजिक, तेज और रूक-रूककर लगातार हॉर्न बजाना.’ टैबोघाटी यानी बंदगांव से टैबो थाना तक का वह इलाका, जहां चाईबासा, चक्रधरपुर, सारंडा इलाके में जाने की मुख्य सड़क है. इन दोनों थाना क्षेत्रों के बीच करीब 30 किलोमीटर के इलाके में कोई मोबाइल काम नहीं करता. जो टावर लगाए जाते हैं उन्हें उड़ा दिया जाता है. सड़क की हालत यह है कि आप 50 की गति से भी नहीं चल सकते. बंदगांव की बंद गलियां और टैबो की दुर्गम घाटी फिर से रोंगटे खड़ी करती हैं. भय के इस माहौल से निकलते यानी टैबोघाटी पार करते ही एक बार बहादुर सिंह मुंडा का फोन आता है, ‘कहां पहुंचे?’ फिर बहादुर कहते हैं कि आप असल सारंडा तो जा ही नहीं सके, जिसके लिए यह कभी मशहूर रहा है. आप न तो कायदे से छोटानागरा का मंदिर देख सके, न दक्षिण कोयल नदी में सुवर्ण कणों को, न थोलकोबाद, जहां ज्वालामुखी फटने के अवशेष हैं, न टायबो जलप्रपात देखने गए, जहां 116 प्रकार की प्रजाति के पौधे मौजूद हैं. फिर बहादुर कहते हैं, ‘कोई बात नहीं, समीज आश्रम तो देख लिए न, जो शंकराचार्य द्वारा स्थापित है और जहां पूर्व प्रधानमंत्री पीवी नरसिंह राव भी आ चुके हैं. कम से कम आपने मनोहरपुर से सूर्यास्त होते तो देख लिया न, जिसे देखने के लिए दस साल पहले तक सैकड़ों की संख्या में उड़ीसा, बंगाल, बिहार के पर्यटक पहुंचते थे.’