ईमानदारी का ठिकाना पागलखाना

उत्तर प्रदेश की राजधानी लखनऊ में पिछले दिनों ऐसा वाकया हुआ जिसने राज्य में बार-बार कही-सुनी जा रही घपले, मनमानी और अराजकता की अनगिनत कहानियों पर मुहर लगाने का काम किया. इस घटना ने यह बात भी उजागर कर दी कि राज्य की प्रशासनिक मशीनरी कितने दबाव और मजबूरी में काम कर रही है. चार नवंबर को उत्तर प्रदेश पुलिस के डीआईजी (फायर) देवदत्त मिश्रा ने अपने विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ झंडा बुलंद कर दिया. मिश्रा ने मीडिया को अपने दफ्तर में बुलाकर सरकार पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए. उन्होंने कंट्रोल रूम के रजिस्टर में यह टिप्पणी लिख दी कि शासन में सभी कुछ अवैध है, इससे बड़ा स्कैम संभव नहीं है. इस खबर ने सरकार को मुसीबत में डाल दिया.

वरिष्ठ अधिकारी का बयान टीवी चैनलों पर दौड़ने लगा. मजबूरन पुलिस के कुछ अधिकारी मिश्र को समझाने उनके दफ्तर पहुंचे. लेकिन मिश्रा दफ्तर से बाहर न निकलने पर अड़ गए. काफी मान-मनौव्वल के बाद भी जब बात नहीं बनी तब उनके अपने ही विभाग यानी पुलिस के जवानों ने जबरन घसीटते हुए उन्हें दफ्तर से बाहर निकाला. इस समय तक रात के दस बज चुके थे. यहां से उन्हें सीधे मेडिकल कॉलेज के मानसिक रोग विभाग में पहुंचा दिया गया. यह सारा नाटकीय घटनाक्रम मीडिया के जमावड़े के सामने हुआ. तत्काल सरकार की तरफ से बयान जारी करते हुए मिश्रा को मानसिक रूप से बीमार (बाइपोलर इफेक्टिव डिसऑर्डर) करार दिया और उनके कृत्य को सरकारी आचरण सेवा नियमावली का उल्लंघन भी माना. जबकि घटना के वक्त से ही मिश्रा के सहकर्मी उनके पूरी तरह से स्वस्थ होने का दावा कर रहे थे.

मिश्र ने जो बातें चार तारीख को मीडिया के सामने रखी थीं वे कुछ यूं हैं- ‘यहां सबकुछ भ्रष्ट है. कल तक मुझे भी यह सब करना पड़ता था, लेकिन आज मैं सच कहने का खतरा उठा रहा हूं. एडीजी मुझ पर करोड़ों रुपये के अवैध वाटर टैंकर की खरीद के आदेश पर दस्तखत करने के लिए दबाव डाल रहे हैं. मैंने इन गड़बड़ियों का विरोध किया तो मेरा प्रमोशन रोक दिया गया.’ उन्होंने एक और सनसनीखेज आरोप लगाया कि पूर्व आईएएस अधिकारी हरमिंदर राज सिंह ने खुदकुशी नहीं की थी बल्कि सरकार ने अपना भ्रष्टाचार उजागर होने के डर से उनकी हत्या करवाई थी. इसके अलावा मिश्रा ने राज्य के प्रधान गृह सचिव फतेह बहादुर सिंह पर भी भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप लगाए.

जवाब में सरकार का रवैया अत्यंत विरोधाभासी रहा. पहले सरकार ने मिश्रा को पागल बताकर अपनी मुश्किलें सीधे-सीधे कम करने की कोशिश की और दूसरी तरफ आनन-फानन में बुलाई गई प्रेस कॉन्फ्रेंस में प्रधान गृह सचिव फतेह बहादुर सिंह ने कहा, ‘उनके आरोपों की जांच करने का फैसला सरकार ने किया है. इस संबंध में डीजी (एंटी करप्शन) अतुल कुमार को जांच का जिम्मा सौंपा गया है.’ जांच का काम तूफानी गति से शुरू भी हो गया. घटना के अगले ही दिन अग्निशमन विभाग के एडीजी डा. हरिश्चंद्र सिंह का तबादला प्रशिक्षण मुख्यालय कर दिया गया. दूसरी तरफ अस्पताल में मिश्रा के वार्ड के बाहर भारी मात्रा में पुलिसबल तैनात किया गया जिससे मीडिया समेत किसी के भी उनसे मिलने पर प्रतिबंध लग गया.  प्रशासन का यह रवैया समझ से परे है.

यहां विरोधाभासों का अंत नहीं हुआ. जिस दिन मिश्रा को अस्पताल में भर्ती किया गया उसी दिन कह दिया गया कि बीमारी का पता चलने में कम से कम दस दिन लगेंगे. लेकिन चार दिन बाद ही उन्हें अस्पताल से डिस्चार्ज कर दिया गया. मिश्रा की हालत के बारे में पूछने पर छत्रपति शाहूजी महाराज मेडिकल यूनिवर्सिटी के मानसिक रोग विभागाध्यक्ष पीके दलाल कहते हैं, ‘वे जब यहां आए थे तब गहरे अवसाद में थे, संभवत: इसी वजह से उन्होंने यह सब किया. हमने उन्हें दस दिन निगरानी में रखने की बात कही थी लेकिन वे ठीक महसूस कर रहे थे और घर जाने की जिद कर रहे थे इसलिए उन्हें डिस्चार्ज करना पड़ा.’ लेकिन सच्चाई इसी विभाग के एक दूसरे डॉक्टर नाम न छापने की शर्त पर बताते हैं कि मिश्रा की जांच के नाम पर जो हुआ उसकी रिपोर्ट उसी दिन सरकार के पास भेज दी गई थी. पूर्व पुलिस अधिकारी एसआर दारापुरी सरकार की पागलपन की थ्योरी पर गंभीर सवाल खड़े करते हैं, ‘पहली बात तो अवसाद और पागलपन में अंतर है. दूसरी बात यह कि अगर वे अवसाद में थे तो हमें जानना होगा कि वे कौन सी परिस्थितियां थीं जिन्होंने मिश्रा को गहरे अवसाद में ढकेल दिया. जाहिर है उनकी परेशानी की वजह विभाग में व्याप्त भ्रष्टाचार और उसे जारी रखने के लिए उन पर पड़ रहा भयंकर दबाव था.’ इस प्रकरण पर सभी विरोधी दलों ने भी सरकार पर जमकर हमला बोला है और सरकार ने दबाव में मामले की जांच के आदेश दिए हैं.