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विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन

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फोटोः विकास कुमार

नरेंद्र मोदी के प्रधानमंत्री बनने के बाद एक संस्था बेहद तेजी से चर्चा में आई है. नाम है विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ). दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में स्थित यह थिंक टैंक (विचार समूह) वैसे तो 2009 से ही सक्रिय था लेकिन इसके बारे में कहीं कोई खास चर्चा सुनाई नहीं देती थी. आज यह संस्थान राजनीतिक-प्रशासनिक गलियारों में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. इस चर्चा के जन्म का कारण हैं तीन नियुक्तियां. वे तीन लोग जिन्हें प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने अपनी सरकार में महत्वपूर्ण भूमिका निभाने के लिए चुना है.

इनमें से एक हैं आईबी के पूर्व प्रमुख अजित डोवाल जिन्हें मोदी ने राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (एनएसए) बनाया है. डोवाल अनौपचारिक रूप से सरकार बनने के पहले ही सक्रिय हो गए थे. कहा जाता है कि सार्क प्रमुखों को मोदी के शपथ ग्रहण समारोह में बुलाने का आईडिया उनका ही था. दूसरी नियुक्ति है ट्राई के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्रा की जिन्हें मोदी ने अपना प्रमुख सचिव बनाया है. नृपेंद्र मिश्रा की नियुक्ति में कानून आड़े आ रहा था जिसके मुताबिक ट्राई का चेयरमैन रह चुका व्यक्ति किसी सरकारी पद पर नहीं बैठ सकता. आड़े आ रहे कानून को मोदी ने पहले अध्यादेश लाकर और फिर कानून में ही बदलाव करके सीधा कर दिया. तीसरा नाम है पूर्व केंद्रीय कृषि सचिव पीके मिश्रा का जिन्हें मोदी ने एडिशनल प्रिंसिपल सेक्रेटरी बनाया है. इन तीनों लोगों में एक खास समानता है. ये तीनों विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) से जुड़े रहे हैं. एनएसए बनने से पूर्व अजित डोवाल जहां वीआईएफ के निदेशक थे वहीं नृपेंद्र मिश्रा संस्था की कार्यकारिणी परिषद के सदस्य थे. पीके मिश्रा भी संस्था से बतौर सीनियर फैलो जुड़े हुए थे.

डोवाल के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बनने के बाद पूर्व सेना प्रमुख जनरल एनसी विज को संस्था का निदेशक बनाया गया है. सूत्र बताते हैं कि विवेकानंद फाउंडेशन से और भी कई लोग सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर जानेवाले हैं. खबर है कि डीआरडीओ के पूर्व महानिदेशक वीके सारस्वत जो वीआईएफ में सेंटर फॉर साइंटिफिक एंड टेक्नोलॉजिकल स्टडीज के डीन हैं, मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार आर चिदंबरम की जगह ले सकते हैं. इसके अलावा रॉ के पूर्व प्रमुख सीडी सहाय, पूर्व शहरी विकास सचिव अनिल बैजल, रूस में भारत के राजदूत रह चुके प्रभात शुक्ला, पूर्व वायु सेना प्रमुख एसजी इनामदार और बीएसएफ के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह भी उस सूची में शामिल हैं जो वीआईएफ से मोदी सरकार का सफर तय कर सकते हैं. प्रधानमंत्री बनने के बाद जिस पहली किताब ‘गेटिंग इंडिया बैक ऑन ट्रैक’ का प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने विमोचन किया उसके संपादकों में से एक बिबेक देबोरॉय वीआईएफ स्थित सेंटर फॉर इकोनॉमिक स्टडीज के डीन हैं.

दिल्ली के सत्ता गलियारों में यह कहा जाने लगा है कि सरकार के लिए वीआईएफ एक ऐसा नियुक्ति केंद्र बन गया है जहां मोदी के मनमाफिक लोगों की एक पूरी फौज है. सरकार की हर जरूरत का आइडिया और इंसान वीआईएफ में मौजूद है. ऐसे में मोदी सरकार में वीआईएफ से कैंपस प्लेसमेंट जारी रहने वाला है.

यहीं से यह प्रश्न खड़ा होता है कि ऐसा क्या है वीआईएफ में जिसने इसे मोदी का चहेता बना दिया है?  क्या काम करती है यह संस्था?  कौन लोग इससे जुड़े हैं?

वीआईएफ अजित डोवाल के दिमाग की उपज है. 2005 में आईबी प्रमुख के पद से रिटायर होने के बाद 2009 में डोवाल ने इसकी स्थापना की थी. इसका उद्घाटन उस साल दिसंबर माह में माता अमृतानंदमयी और न्यायमूर्ति एमएन वेंकटचलैया ने किया था. वीआईएफ कन्याकुमारी स्थित उस विवेकानंद केंद्र से संबद्ध है जिसकी स्थापना 1970  में राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के सरकार्यवाहक एकनाथ रानाडे ने की थी. दिल्ली के चाणक्यपुरी इलाके में 1993 में तत्कालीन नरसिम्हा रॉव सरकार ने दिल्ली में भी इस संस्थान को जमीन आवंटित की थी. बाद में यहीं वीआईएफ की स्थापना हुई.

वीआईएफ की वेबसाइट पर फाउंडेशन का परिचय देते हुए लिखा है, ‘नई दिल्ली स्थित थिंक टैंक विवेकानंद इंटरनेशनल फाउंडेशन (वीआईएफ) विवेकानंद केंद्र के तत्वावधान में भारत के अग्रणी सुरक्षा विशेषज्ञों, राजनयिकों, उद्योगपतियों और परोपकारियों के सामूहिक प्रयास से स्थापित किया गया है. वीआईएफ का उद्देश्य एक ऐसा उत्कृष्ट केंद्र बनना है जहां से नवीन विचारों और एक नई सोच के साथ एक मजबूत, सुरक्षित और समृद्ध भारत अपनी अंतरराष्ट्रीय भूमिका का सही से निर्वहन कर सके.’

संस्था अपने विजन और मिशन के बारे में बताते हुए लिखती हैं,  ‘वीआईएफ एक स्वतंत्र और निष्पक्ष संस्थान है जो गुणवत्तापूर्ण अनुसंधान और गहन अध्ययन को बढ़ावा देता है. इसका प्रयास है कि भारत के सभी प्रतिभाशाली लोगों को प्रमुख राष्ट्रीय एवं अंतरराष्ट्रीय विषयों पर गहनता से चर्चा करने के लिए एक मंच पर लाया जाए. इसका प्रयास ऐसी पहलों को बढ़ावा देना है जो शांति और वैश्विक सद्भाव को मजबूत करती हैं. संस्था का काम उन सामाजिक, आर्थिक और राजनीतिक गतिविधियों पर नजर बनाए रखना है जो भारत की एकता और अखंडता पर असर डाल सकती है…’

वीआईएफ के सलाहकार परिषद और कार्यपरिषद में शिक्षाविदों के साथ ही सेना के पूर्व प्रमुख, पूर्व राजदूत, विदेश सचिव, रॉ और आईबी से जुड़े सेवानिवृत अधिकारी, नौकरशाह एवं तमाम अन्य विभागों में बड़े पदों पर रह चुके पूर्व अधिकारियों की भरमार है.

संस्था के सलाहकार बोर्ड में पूर्व सेना प्रमुख वीएन शर्मा, रॉ के भूतपूर्व मुखिया एके वर्मा, बीएसएफ के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह, पूर्व एयरचीफ मार्शल एस कृष्णास्वामी, पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल, एस गुरुमूर्ति, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बेंगलोर के प्रोफेसर आर वैद्यनाथन, पूर्व सेना प्रमुख शंकर रॉय चौधरी, पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार एवं जम्मू-कश्मीर के पूर्व गवर्नर एसके सिन्हा शामिल हैं.

कार्यकारिणी परिषद में पूर्व एयर मार्शल एसजी ईनामदार, अजित डोवाल, फ्रांस और जर्मनी में भारत सरकार के दूत रहे टीसीए रंगचारी, पूर्व गृह सचिव अनिल बैजल, पूर्व रॉ प्रमुख सीडी सहाय, पूर्व केंद्रीय सचिव धनेंद्र कुमार, पूर्व सेना प्रमुख एनसी विज, ट्राई के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्रा, विदेश मंत्रालय के पूर्व सचिव राजीव सीकरी जैसे नाम शामिल हैं.

संस्थान से जुड़े लोग बताते हैं कि फाउंडेशन प्रमुख रूप से आठ क्षेत्रों में काम करता है. इनमें राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक अध्ययन, अंतरराष्ट्रीय संबंध/कूटनीति, तकनीकी और वैज्ञानिक अध्ययन, पड़ोस अध्ययन, गवर्नेंस और राजनीतिक अध्ययन, आर्थिक अध्ययन, ऐतिहासिक और सभ्यता अध्ययन तथा मीडिया स्टडीज जैसे क्षेत्र शामिल हैं.

जानकारों के मुताबिक वीआईएफ देश और विदेशों से तमाम स्कॉलर्स और विषय विशेषज्ञों को अपने यहां कॉंफ्रेंस और लेक्चर्स के लिए आमंत्रित करता है, दिल्ली स्थित राजनयिक समुदाय के सामने भारत का दृष्टिकोण रखता है और उनकी सोच को जानने का प्रयास करता है जिससे भारत के राजनीतिक, सामरिक, आर्थिक और सांस्कृतिक हितों को मजबूत किया जा सके. संस्थान सामयिक महत्व के मुद्दों पर नीति निर्माताओं के साथ संवाद करता है. वह नीति संबंधी सुझावों को सरकार के नुमाइंदों, सांसदों, न्यायपालिका के सदस्यों तथा शीर्ष संवैधानिक और सिविल सोसायटी के सदस्यों को भेजता है. संस्थान देश-विदेश के विभिन्न शैक्षणिक संस्थानों, रिसर्च सेंटरों, भारतीय और विदेशी थिंक टैंकों समेत तमाम शैक्षणिक और अकादमिक इदारों से विचारों के आदान-प्रदान हेतु संबंध स्थापित करता है.

सलाहकार बोर्ड के सदस्य और खुफिया संस्था रॉ के पूर्व प्रमुख आनंद वर्मा कहते हैं, ‘इस संस्था ने पिछले पांच-छह सालों में शानदार काम किया है. यहां विभिन्न क्षेत्रों में बहुत उच्च स्तर की रिसर्च हुई हैं. अनगिनत राष्ट्रीय-अंतरराष्ट्रीय महत्व के सेमिनार यहां आयोजित हुए हैं. और इसने विश्व भर के विभिन्न थिंक टैंक्स के साथ संवाद किया है. दुनिया के तमाम देशों के उच्च अधिकारी यहां बातचीत के उद्देश्य से आते रहते हैं. इनमें गैर-सरकारी लोगों के साथ ही विभिन्न देशों की सरकारों में महत्वपूर्ण पदों पर मौजूद लोग भी शामिल हैं. चूंकि थिक टैंक के अपने कुछ नियम होते हैं इस कारण बहुत सी चर्चाओं को सार्वजनिक नहीं किया जा सकता.’

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आरएसएस समर्थक माने जाने वाले इस फाउंडेशन से नरेंद्र मोदी का संबंध काफी पुराना है. सूत्र बताते हैं कि बतौर मुख्यमंत्री, मोदी इस संस्था से आर्थिक एवं अन्य मसलों पर लगातार सलाह करते रहते थे. यही नहीं उन्होंने दिल्ली कूच करने की जब सोची तो उसकी विस्तृत रूपरेखा इसी संस्था में बनाई गई. वीआईएफ से जुड़े एक सदस्य कहते हैं, ‘मोदी जी का प्रधानमंत्री बनना तय था. इसलिए हम लोग बहुत पहले से ही विदेश नीति, रक्षा नीति से लेकर आर्थिक नीति समेत तमाम विषयों पर काम शुरू कर चुके थे. चुनाव प्रचार के दौरान भी मोदी जी को संस्था की तरफ से विभिन्न मसलों पर तमाम इनपुट्स मुहैया कराए गए थे. यही नहीं असम, अरूणाचल, जम्मू आदि में चुनाव प्रचार से लेकर चुनाव के समय बौद्धिक मैनेजमेंट का एक बड़ा हिस्सा संस्था की तरफ से ही किया गया था.’

संस्थान से जुड़े लोग बताते हैं कि नरेंद्र मोदी संस्था के काम से बहुत पहले से ही प्रभावित हैं. मोदी ही नहीं बल्कि भाजपा और संघ के तमाम नेता समय-समय पर विभिन्न विषयों पर संस्था से सलाह मशविरा करते रहे हैं.

नरेंद्र मोदी और वीआईएफ के बीच किस तरह का संबंध है उसका पता इस बात से भी चलता है कि जब कांग्रेस पार्टी के नेतृत्ववाली पिछली सरकार ने इशरत जहां मुठभेड़ मामले में नरेंद्र मोदी को घेरना शुरू किया उस वक्त मोदी के बचाव में बेहद मजबूती से फाउंडेशन के निदेशक अजित डोवाल आए थे. डोवाल ने मोदी का बचाव करते हुए कहा कि इशरत लश्कर-ए-तैय्यबा की सदस्य थी और सरकार बेवजह इस मामले का राजनीतिकरण कर रही है.

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जो सरकार में महत्वपूर्ण पदों पर जा सकते हैं

पूर्व डीजी (डीआरडीओ) वीके सारस्वत बतौर मुख्य वैज्ञानिक सलाहकार आर चिदंबरम की जगह ले सकते हैं. रॉ के पूर्व प्रमुख सीडी सहाय, पूर्व शहरी विकास सचिव अनिल बैजल, रूस में भारत के राजदूत रहे प्रभात शुक्ला, पूर्व वायु सेना प्रमुख एसजी ईनामदार और बीएसएफ के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह भी जल्द महत्वपूर्ण पदों पर जा सकते हैं.

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लोकसभा चुनावों के पहले अरविंद केजरीवाल ने नरेंद्र मोदी पर निशाना साधते हुए उन्हें भ्रष्ट ठहराया और कहा कि गुजरात में कोई विकास ही नहीं हुआ है, वहां सिर्फ उद्योगपतियों ने अपनी जेबें भरी हैं. इसके बाद ‘कंसर्नड सिटिजन्स’ नामक एक ग्रुप अपनी अपील के साथ सामने आया. उनकी अपील को भाजपा नेता विनय सहस्रबुद्धे ने भाजपा कार्यालय से जारी किया. अपील में कहा गया था कि मोदी पर  नए राजनीतिक दल का आरोप पूरी तरह निराधार है. यह दल और उसके नेता लोकसभा चुनाव में कांग्रेस को फायदा पहुंचाने के उद्देश्य से काम कर रहा है. ‘कंसर्नड सिटिजन्स’ नामक ग्रुप में जो बारह लोग शामिल थे उनमें अजित डोवाल के अलावा लेखक और टिप्पणीकार एमवी कामथ, एमजे अकबर, जम्मू-कश्मीर के पूर्व गवर्नर एसके सिन्हा, पूर्व नौकरशाह एमएन बुच तथा अर्थशास्त्री बिबेक देबोरॉय शामिल थे. जाहिर सी बात है कि मोदी के बचाव के लिए यह काम वीआईएफ की कोशिशों का ही नतीजा था.

ये तो मोदी के व्यक्तिगत स्तर पर समर्थन और बचाव करने के उदाहरण हैं. वीआईएफ ने पिछले सालों में सबसे बड़ा काम यूपीए (कांग्रेस पढ़ें) सरकार के खिलाफ माहौल बनाने का किया है. यूपीए-2 के कार्यकाल में कांग्रेस पार्टी और सरकार के खिलाफ जो आक्रामक माहौल बना उसे तैयार करने में फाउंडेशन की भी एक महत्वपूर्ण भूमिका रही है.

फाउंडेशन से जुड़े लोग बताते हैं कि 2011 में पूरे देश में भ्रष्ट्राचार विरोधी माहौल बनाने में वीआईएफ की एक महत्वपूर्ण भूमिका थी. संस्था के एक सदस्य कहते हैं, ‘अप्रैल 2011 में यहीं पर बाबा रामदेव के नेतृत्व में एक भ्रष्टाचार विरोधी मंच बनाने का निर्णय लिया गया था. इसकी प्लानिंग साल भर पहले से चल रही थी. फाउंडेशन ने केएन गोविंदाचार्य के राष्ट्रीय स्वाभिमान आंदोलन के साथ मिलकर काला धन और भ्रष्टाचार पर एक अप्रैल से एक दो दिवसीय सेमिनार का आयोजन किया था. उस कार्यक्रम में रामदेव के साथ अरविंद केजरीवाल और किरण बेदी भी शामिल हुए थे. सेमिनार के अंत में एक भ्रष्टाचार विरोधी मोर्चे का गठन किया गया. बाबा रामदेव उसके संरक्षक बने और गोविंदाचार्य संयोजक. मोर्चे के सदस्यों में अजित डोवाल, एनडीए सरकार में अमेरिका में भारत के ‘एम्बेस्डर-एट-लार्ज’ रहे भीष्म अग्निहोत्री, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बेंगलोर के प्रोफेसर आर वैद्यनाथन, पत्रकार और रामदेव के करीबी वेद प्रताप वैदिक तथा एस गुरुमूर्ति शामिल थे.’

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विवेकानंद फाउंडेशन के सदस्य

सलाहकार बोर्ड पूर्व सेना प्रमुख वीएन शर्मा, रॉ के भूतपूर्व मुखिया एके वर्मा, बीएसएफ के पूर्व प्रमुख प्रकाश सिंह, पूर्व एयरचीफ मार्शल एस कृष्णास्वामी, पूर्व विदेश सचिव कंवल सिब्बल, एस गुरुमूर्ति, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ बेंगलोर के प्रोफेसर आर वैद्यनाथन, पूर्व सेना प्रमुख शंकर रॉय चौधरी, पूर्व केंद्रीय मंत्री आरिफ मोहम्मद खान, पूर्व कैबिनेट सचिव प्रभात कुमार एवं जम्मू-कश्मीर के पूर्व गवर्नर एसके सिन्हा आदि

कार्यकारिणी परिषद पूर्व एयर मार्शल एसजी ईनामदार, पूर्व आईबी प्रमुख अजित डोवाल, फ्रांस और जर्मनी में भारत सरकार के दूत रहे टीसीए रंगचारी, पूर्व गृह सचिव अनिल बैजल, पूर्व रॉ प्रमुख सीडी सहाय, पूर्व केंद्रीय सचिव धनेंद्र कुमार, लेखक एवं समकालीन अध्ययन के स्कॉलर डॉ. ए सूर्यप्रकाश, पूर्व सेना प्रमुख एनसी विज, पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल गौतम बैनर्जी, पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल आरके साहनी, ट्राई के पूर्व चेयरमैन नृपेंद्र मिश्रा, रूस में भारत के पूर्व राजदूत प्रभात शुक्ला, जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय के पूर्व कार्यकारी उप कुलपति प्रोफेसर कपिल कपूर, विदेश मंत्रालय में पूर्व सचिव राजीव सीकरी आदि

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सेमिनार के अंत में जारी किये गए पत्र में बताया गया कि रामदेव ने ‘भ्रष्टाचार के खिलाफ चौतरफा युद्ध करने की घोषणा की है. और तत्काल ही यह मोर्चा लोगों के बीच जाएगा. और अन्य भ्रष्टाचार विरोधी संगठनों और व्यक्तियों तक पहुंचेगा.’ इसी दौरान गोविंदाचार्य ने रामदेव और अन्ना के बीच मीटिंग कराई. वीआईएफ का प्रयास था कि दोनों एक साथ मिलकर भ्रष्टाचार की लड़ाई को आगे बढ़ाएं. वीआईएफ में संपन्न हुए सेमिनार के तीन दिनों के बाद ही पांच अप्रैल से जंतर-मंतर पर अन्ना हजारे की पहली भूख हड़ताल शुरु हुई. अप्रैल के अंत में रामदेव ने भी चार जून से रामलीला मैदान में सरकार विरोधी आंदोलन की घोषणा कर दी.

सूत्र बताते हैं कि कांग्रेस सरकार को घेरने की यह रणनीति भाजपा और संघ के इशारे पर वीआईएफ ने ही तैयार की थी. इसके तहत सामाजिक क्षेत्र में एक तरफ अन्ना हजारे और रामदेव ने सरकार पर हमला बोला तो दूसरी तरफ राजनीतिक स्तर पर भाजपा ने भ्रष्टाचार विरोधी आग में राजनीतिक घी डालने का काम किया. यही कारण है कि कांग्रेस के वरिष्ठ नेता दिग्विजय सिंह भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन को बार-बार संघ का एजेंडा बता रहे थे. दिग्विजय सिंह का कहना था कि कांग्रेस सरकार को टीम अन्ना और रामदेव द्वारा संघ और भाजपा के इशारे पर घेरा जा रहा है और इसकी रणनीति विवेकानंद फाउंडेशन में बनाई गई है. लेकिन भ्रष्टाचार आंदोलन के चरम पर, सरकार की उससे निपटने की अजीबो-गरीब कोशिशों और तरह-तरह की सीएजी रिपोर्टों के बीच दिग्विजय सिंह की बात किसी ने नहीं सुनी.

फाउंडेशन के ऊपर संघ का समर्थक होने और उसके लिए काम करने के आरोप और भी लोगों ने लगाए हैं. इसके एक नहीं अनेक कारण है. वीआईएफ में आरएसएस से जुड़े तमाम पदाधिकारियों का आना लगा रहता है. संघ प्रमुख मोहन भागवत, गोविंदाचार्य, गुरुमूर्ति, लालकृष्ण आडवाणी से लेकर संघ व भाजपा से जुड़े तमाम नेता फाउंडेशन की गतिविधियों में शामिल रहते हैं. हाल ही में पूर्व राजनयिक ओपी गुप्ता की किताब ‘डिफाइनिंग हिंदुत्व’ का विमोचन यहां आकर खुद संघ प्रमुख मोहन भागवत ने किया.

संस्था को संघी प्रतिष्ठान ठहराने वालों का तर्क है कि चूंकि फाउंडेशन विवेकानंद केंद्र कन्याकुमारी का हिस्सा है, जिसकी स्थापना एकनाथ रानाडे ने की थी, ऐसे में इसे संघ से अलग समझना नादानी होगी. संस्था के एक आलोचक कहते हैं, ‘वीआईएफ आरएसएस का प्रोजेक्ट है. वहां घुसते ही आपको एकनाथ रानाडे की तस्वीर दिखाई देगी. सारे दक्षिणपंथी रुझानवाले अधिकारी वहां भरे पड़े हैं. चूंकि ये लोग बौद्धिक जगत में हाशिए पर थे इसलिए इन्होंने अपना खुद का थिंक टैंक खोल लिया है. यह बौद्धिक जगत में अपनी स्वीकार्यता बनाने की छटपटाहट है. अगर ऐसा नहीं है तो फिर संघ प्रमुख का एक थिंक टैंक में क्या काम जो वो वहां हमेशा आते-जाते रहते हैं.’

वे कुछ लेखों का हवाला देते हैं ‘संस्थान से जुड़े सीनियर फेलो माखन लाल ने अपने एक लेख में वेंडी डोनिगर की किताब ‘द हिंदूज : एन ऑल्टरनेटिव हिस्ट्री’ पर उठे विवाद पर लिखा कि इस घटना से सूडो सेक्यूलरों और हिंदू विरोधियों को अपना पुराना खेल फिर से खेलने का मौका मिल गया है. जिसमें वे अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर हिंदुओं की कटु आलोचना करते है. संस्था के ज्वाइंट डायरेक्टर प्रभात पी शुक्ला ने हाल ही में अपने एक लेख में लोकसभा चुनाव के परिणामों का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि ये चुनावी प्रतिक्रिया पिछले कई दशकों से हिंदुओं के साथ हो रहे दुर्व्यवहार का नतीजा है. संस्था से ही जुड़े अनिर्बन गांगुली अपने रिसर्च पेपर ‘मैन एंड एनवायर्नमेंट इन इंडिया- पास्ट ट्रेडिशंस एंड प्रेजेंट चैलेंजेस’ में लिखा है कि कैसे हिंदू धर्म की ये आंतरिक विशेषता है कि वो पर्यावरण को लेकर सजग रहता है. इस परंपरा की चर्चा वेद और अर्थशास्त्र तक में मिलती है. ये दक्षिणपंथ का उदाहरण नहीं तो क्या है.’

संघ समर्थित होने के आरोप पर फाउंडेशन की पत्रिका विवेक के संपादक केजी सुरेश कहते हैं, ‘मैं समझ नहीं पा रहा हूं कि क्यों इतनी निगेटिव रिपोर्टिंग हो रही है. लोगों ने ऐसा माहौल बनाया है मानो फाउंडेशन के अंदर सारे अधिकारी खाकी निकर पहन के बैठे रहते हैं. आरएसएस से फाउंडेशन को जोड़ना गलत है. हम पूरी तरह से अराजनीतिक हैं. न हमने बीजेपी से फंड लिया न आरएसएस से.’ संघ के करीब होने के सवाल पर आनंद वर्मा कहते हैं, ये थिंक टैंक पूरी तरह से गैर-राजनीतिक है. पूरी तरह सेक्यूलर है. आरएसएस से इसका कोई मतलब नहीं है. इसका अपना कोई एजेंडा नहीं है. इसका एकमात्र उद्देश्य है कैसे देश के सामने उपस्थित चुनौतियों का हल निकाला जाए.’

टाइम्स नाउ से जुड़े रक्षा विशेषक्ष मारूफ रजा जो संस्था के कई कार्यक्रमों में भाग लेते रहे हैं, मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘ वैसे तो संघ के साथ वीआईएफ के संबंध की बातें दबी जुबान में होती रहती हैं लेकिन खुले तौर पर किसी तरह का दक्षिणपंथी रूझान सामने नहीं दिखता है. संस्था का काम बहुत बढ़िया है.’

संघ और फाउंडेशन में कोई संबंध न होने की चर्चा करते हुए वर्मा संघ की चर्चा शुरू कर देते हैं. वे कहते हैं, ‘देखिए मैं आरएसएस को उस दृष्टि से नहीं देखता जिस दृष्टि से कांग्रेस उसे देखती है. आरएसएस क्या गलत कर रहा है. वो तो हिंदू समाज को उसके गरिमापूर्ण स्थान पर वापस स्थापित करने का काम कर रहा है. जो इसे नहीं समझते संघ को गालियां देते हैं. वो पुराने सांस्कृतिक मूल्यों को दोबारा स्थापित कर रहा है. अच्छा काम कर रहा है. ’

वर्मा संघ को फाउंडेशन से जोड़ने की चर्चाओं को एक षड़यंत्र के रूप में देखते हैं. वो कहते हैं, ‘विवेकानंद ने जब शिकागो में अपना भाषण दिया तो उसकी पूरी दुनिया में चर्चा हुई. उस भाषण के बाद कुछ लोग उन पर ये आरोप लगाते हुए उनकी आलोचना करने लगे कि उन्होंने न्यू हिंदुइज्म की शुरूआत की है. उनके लिए विवेकानंद भी सेक्यूलर नहीं थे तो फिर दूसरा कौन होगा.’

कैसे वीआईएफ संघ-भाजपा समर्थित नहीं है, सही अर्थों में एक थिंक टैंक है इसकी चर्चा करते हुए सुरेश बताते हैं, ‘हम न भाजपा समर्थक हैं न कांग्रेस विरोधी. हम सही निर्णय का समर्थन करते हैं. यूपीए सरकार के दौरान देवयानी खोबरागड़े मामले पर हमने यूपीए सरकार का समर्थन किया था. ऐसे ही जब बांग्लादेश के साथ जमीन का मामला सामने आया तो हमने यूपीए सरकार को सपोर्ट किया. जबकि उस समय सदन में विपक्ष ने इसका विरोध किया था. ऐसे में हमें कांग्रेस विरोधी ठहराना गलत है. ये सही है कि उच्च स्तर पर बीजेपी और आरएसएस के लोग हमसे  विभिन्न विषयों पर इनपुट लेते हैं. लेकिन ये भी उतना ही सही है कि कांग्रेस के नेता भी हमारे सेमिनारों में भाग लेते हैं.’

फाउंडेशन के लोग बताते हैं कि कैसे भाजपा और संघ के अलावा अन्य पार्टियों और विचारधारा से जुड़े लोग भी संस्था के साथ जुड़े रहे हैं. वर्मा कहते हैं, ‘कुछ समय पहले ही कश्मीर के विषय पर हमने कॉंफ्रेंस का आयोजन किया था. पीडीपी के लोग उसमें आए थे. कांग्रेस और नेशनल कांफ्रेंस के लोग भी थे. उन सभी ने बहस में हिस्सा लिया. कुछ समय पहले ही मौलाना महमूद मदनी भी वीआईएफ आए थे. पाकिस्तान में जमीयत उलमा-ए-इस्लाम के मुखिया मौलाना फजलुर रहमान यहां आ चुके हैं. दलाई लामा यहां कार्यक्रमों में भाग ले चुके हैं.’ फाउंडेशन से जुड़े एक सदस्य कहते हैं,, ‘यूपीए के कार्यकाल में भी पीएमओ से कई अधिकारी वीआईएफ द्वारा आयोजित विभिन्न सेमिनारों में आया करते थे. यहां तक कि पूर्व संस्कृति मंत्री कुमारी सैलजा खुद एक पुस्तक का विमोचन करने यहां आईं थीं.’

संस्था के उद्देश्यों पर प्रकाश डालते हुए वर्मा कहते हैं,  ‘बहुत सारे कामों के साथ ही जो एक बड़ा काम फाउंडेशन कर रहा है वो है हिंदुस्तान की सभ्यता, संस्कृति और आध्यात्म को सही रूप में सामने रखना. जिन किताबों से हमने पढ़ाई की है उन्होंने हमारे इतिहास को गलत तरीके से रखा है. हम आज ब्रिटिश और मैकाले द्वारा तैयार कराया गया इतिहास पढ़ते हैं. इनका उद्देश्य हम लोगों में हीन भावना पैदा करना और हमारे हिंदुस्तानी मूल्यों को नेस्तनाबूद करना था. हमें अपना सही इतिहास जानना है. इस दिशा में फाउंडेशन काम कर रहा है. 10-11 वाल्यूम में नए सिरे से भारत का इतिहास लिखा जा रहा है. जिसमें 5-6 वॉल्यूम तैयार हो चुके हैं.’

केजी सुरेश मीडिया से बातचीत में कहते हैं, ‘हमने पांच वाल्यूम में प्रचीन भारत का इतिहास पब्लिश किया है. इतिहास का राष्ट्रीयकरण करना ही होगा. वामपंथ राजनीतिक रूप से हाशिए पर चला गया है. अब वही उसके साथ बौद्धिक क्षेत्र में भी होने वाला है. अभी तक हम हाशिए पर थे, अब उनकी बारी है.’

फाउंडेशन के महत्व पर चर्चा करते हुए वर्मा कहते हैं, ‘इस संस्था का जन्म जरूरी था. स्थिति ये थी कि कोई भी जब हिंदुस्तानी संस्कृति की बात करता था तो अपने यहां वामपंथियों से भरा बुद्धिजीवी तबका उसे दक्षिणपंथी ठहराकर खारिज करने लगता था. उन्हें लगता था सामने वाला हिंदू धर्म का प्रचार कर रहा है. संस्कृति से जुड़ी हर चीज में वामपंथी इतिहासकारों को आरएसएस की साजिश नजर आती है.’

विभिन्न विभागों के अध्यक्षकंवल सिब्बल (पूर्व विदेश सचिव) डीन,
अंतरराष्ट्रीय संबंध और कूटनीति केन्द्र
सतीश चंद (पूर्व उप राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार) डीन, राष्ट्रीय सुरक्षा और सामरिक अध्ययन केंद्र
डॉ. बिबेक देबरॉय (अर्थशास्त्री और लेखक) – डीन, आर्थिक अध्ययन केंद्र
डॉ. दिलीप चक्रवर्ती (पूर्व प्रोफेसर, पुरातत्व विभाग, कैम्ब्रिज विश्वविद्यालय) डीन, ऐतिहासिक और सभ्यता अध्ययन केंद्र
डॉ. एम.एन. बुच (भारत सरकार के पूर्व सचिव) डीन, गवर्नेंस एवं राजनीतिक अध्ययन केंद्र
डॉ. वीके सारस्वत (डीआरडीओ के पूर्व डीजी) डीन, तकनीकी एवं वैज्ञानिक अध्ययन केंद्र

संस्था से जुड़े एक अन्य सदस्य कहते हैं, ‘देश में अधिकांश थिंक टैंक और अकादमिक संस्थानों पर वामपंथी सोच वालों का कब्जा हैं. ऐसे में वीआईएफ उन गैर-वामपंथी और राष्ट्रवादी सोच वाले लोगों के लिए एक प्लेटफॉर्म है जो बौद्धिक जगत में अभी तक अछूत समझे जाते थे.’

अजित डोवाल और नृपेंद्र मिश्रा के सरकार में जाने के बाद ऐसे लोगों कि तादाद कम नहीं है जो कहते हैं कि इन लोगों को मोदी सरकार में मिली बेहद महत्वपूर्ण भूमिका के पीछे संघ का ही हाथ है. वर्मा ऐसे किसी आरोप को कूड़ेदान में फेंकने की बात करते हुए कहते हैं, ‘मैं नौकरशाही को ऊपर से नीचे तक जानता हूं. मैं पूरी दृढ़ता के साथ ये कह सकता हूं कि इनकी टक्कर का आदमी पूरी सिविल सेवा में नहीं है.’ अजित डोवाल की चर्चा करते हुए वे कहते हैं, ‘जैसे कुछ लोग ये मानते हैं कि मोदी जैसा दूसरा कोई नहीं है वैसे मैं मानता हूं कि अजित जैसा कोई दूसरा नहीं हो सकता.’ लेकिन क्या संघ से उनकी नजदीकी नहीं है?  इस सवाल के जवाब में वर्मा कहते हैं, ‘ वो पूरी तरह से गैर-राजनीतिक व्यक्ति हैं. हां, व्यक्तिगत जीवन में उनकी सांस्कृतिक प्राथमिकता हो सकती है लेकिन सार्वजनिक जीवन में वो बेहद प्रोफेशनल व्यक्ति हैं.’

डोवाल, नृपेंद्र मिश्रा और पीके मिश्रा के मोदी सरकार में शामिल होने के बाद वीआईएफ राजनीतिक-राजनयिक-प्रशासनिक गलियारों में चर्चा का केंद्र बना हुआ है. संस्था की तरफ रुख करनेवालों की कतार लंबी होती जा रही है. संस्था से जुड़े लोग बताते हैं कि पिछले एक महीने में विदेश से चर्चा के लिए वीआईएफ आने वाले राजनयिकों एवं सरकारी और गैरसरकारी विशेषज्ञों की संख्या में तेजी से इजाफा हुआ है. डोवाल का एनएसए के लिए नाम फाइनल होने के तीन दिन बाद ही दो चीनी प्रतिनिधिमंडल – जिनमें चीन के दक्षिण एशिया विशेषज्ञ शामिल थे – वीआईएफ आए थे. उसी दिन ब्रिटेन का 17 लोगों का एक प्रतिनिधिमंडल वीआईएफ आया जिसमें वहां के रॉयल कॉलेज ऑफ डिफेंस स्टडीज के कमांडेंट तथा पूर्व लेफ्टिनेंट जनरल डेविड बिल भी थे. यूएस आर्मी वॉर कॉलेज का एक प्रतिनिधिमंडल भी यहां हाल ही में आया था जिसने नाभकीय हथियारों के विषय में यहां के रक्षा विशेषज्ञों से चर्चा की. कुछ समय पहले ही फ्रेंच एटॉमिक एनर्जी एजेंसी के विशेषज्ञ एवं फ्रांस के राजदूत ने भी यहां आकर सुरक्षा समेत विभिन्न मुद्दों पर बात की.

जहां तक संस्थान की फंडिग का सवाल है तो उसका बड़ा हिस्सा डोनेशन से आता है. वर्मा कहते हैं, ‘देश-विदेश से लोग इस संस्थान को अनुदान देते हैं. ये किसी सरकारी संस्था से अनुदान नहीं लेता है. हम और आप जैसे लोग इसे अनुदान देते हैं.’  साल 2013 में फाउंडेशन को एक करोड़ 49 लाख 56 हजार रुपये डोनेशन के तौर पर मिला.

जिस तरह से मोदी सरकार में वीआईएफ से जुड़े लोग महत्वपूर्ण पदों पर काबिज हो रहे हैं, चर्चाओं का बाजार गर्म है कि देश की विदेश, आर्थिक और सुरक्षा नीति समेत तमाम नीतियों को तय करने में फाउंडेशन की प्रमुख भूमिका रहनेवाली है.

हिंदी मीडिया का ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन…

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अगर कोई आंदोलन यानी धरना-प्रदर्शन-भूख हड़ताल दिल्ली में हो, उसमें हजारों युवा शामिल हों, उसमें शामिल होने के लिए सांसद-विधायक-नेता-लेखक-बुद्धिजीवी पहुंच रहे हों और आंदोलन के मुद्दे से देशभर में लाखों युवा प्रभावित हों तो पूरी सम्भावना है कि वह आंदोलन अखबारों/न्यूज चैनलों की सुर्खी बने. यही नहीं, यह भी संभव है कि अखबार/चैनल खुलकर उस आंदोलन के समर्थन में खड़े हो जाएं. लेकिन दिल्ली में संघ लोकसेवा आयोग (यूपीएससी) की परीक्षाओं में अंग्रेजी के बढ़ते वर्चस्व और हिंदी समेत सभी भारतीय भाषाओं की उपेक्षा और बेदखली के खिलाफ चल रहा आंदोलन शायद इतना भाग्यशाली या कहिए कि टीआरपी बटोरू नहीं है कि वह अखबारों/चैनलों की सुर्खी बन सके.

नतीजा, यह आंदोलन न्यूज चैनलों की सुर्खियों और प्राइम टाइम चर्चाओं/बहसों में नहीं है. यहां तक कि उनकी 24 घंटे-चौबीस रिपोर्टर या न्यूज बुलेट/न्यूज हंड्रेड में भी जिनमें जाने कैसी-कैसी ‘खबरें’ चलती रहती हैं, इस खबर को कुछेक चैनलों में एकाध बार जगह मिल पाई है. यह समझा जा सकता है कि यूपीएससी में अंग्रेजी के बढ़ते दबदबे के खिलाफ चल रहे इस आंदोलन को अंग्रेजी न्यूज चैनलों/अखबारों में जगह न मिले या उसकी अनदेखी हो लेकिन हिंदी के अखबारों और न्यूज चैनलों में भी इस खबर की उपेक्षा को समझना थोड़ा मुश्किल है. हिंदी के अखबारों/चैनलों के लिए यह एक बड़ी ‘खबर’ क्यों नहीं है? ज्यादा समय नहीं गुजरा जब यही चैनल/अखबार नए प्रधानमंत्री और एनडीए सरकार के हिंदी प्रेम की बलैय्यां ले रहे थे. लेकिन यूपीएससी में हिंदी के परीक्षार्थियों के साथ अन्याय और उनकी बेदखली के खिलाफ शुरू हुए आंदोलन के प्रति हिंदी के अखबार/चैनल इतनी बेरुखी क्यों दिखा रहे हैं?

कहीं यह हिंदी अखबारों/चैनलों की उस ‘हीनता ग्रंथि’ के कारण तो नहीं है जिसमें वे खुद को अंग्रेजी के ‘अपमार्केट’ के सामने गंवार ‘हिंदीवाला’ नहीं दिखाना चाहते हैं? सच यह है कि हिंदी के अधिकांश अखबार/चैनल आज ‘अंग्रेजी लाओ’ आंदोलन चला रहे हैं. पिछले एक-डेढ़ दशक में हिंदी के ज्यादातर अखबारों/चैनलों में खुद को ‘अपमार्केट’ दिखने के लिए अंग्रेजी के ज्यादा करीब जाने और उसके ही सरोकारों, मुहावरों और प्रस्तुति पर जोर बढ़ा है. आश्चर्य नहीं कि आज कई हिंदी अखबारों/चैनलों की भाषा हिंदी नहीं बल्कि हिंगलिश है. अखबारों के संपादकीय पृष्ठों पर अंग्रेजी के बड़े बुद्धिजीवियों की छोडि़ए, औसत दर्जे के पत्रकारों/स्तंभकारों को अनुवाद करके छापने और चैनलों की बहसों/चर्चाओं में अंग्रेजी के पत्रकारों/बुद्धिजीवियों/सेलिब्रिटी को बुलाने की कोशिश की जाती है.

यहां तक कि हिंदी के एक बड़े अखबार ने काफी पहले न सिर्फ धड़ल्ले से अंग्रेजी के शब्दों को इस्तेमाल करना शुरू किया बल्कि शीर्षकों में रोमन लिपि का प्रयोग करने से भी नहीं हिचकिचाया. एक और बड़े अखबार ने अपने पाठकों को अंग्रेजी पढ़ाने का अभियान चलाया. हिंदी के ज्यादातर चैनलों के एंकरों/रिपोर्टरों की हिंदी के बारे में जितनी कम बात की जाए, उतना अच्छा है. जाहिर है कि हिंदी के जिन चैनलों/अखबारों के न्यूजरूम पर मानसिक/व्यावसायिक रूप से अंग्रेजी और अंग्रेजी मानसिकता हावी है और हिंदी मजबूरी जैसी है, वहां उनकी दिलचस्पी एक ऐसे आंदोलन में कैसे हो सकती है जो अंग्रेजी के वर्चस्व के खिलाफ भारतीय भाषाओं के हक में आवाज उठा रहा हो?

लेकिन कल्पना कीजिए कि अगर यही अखबार/चैनल देश की आजादी के आंदोलन के समय रहे होते तो उनका रवैया क्या आज से कुछ अलग होता?

फिर मंडल की हांडी

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बात करीब डेढ़ साल पहले की है. पटना के श्रीकृष्ण मेमोरियल हॉल में राष्ट्रीय जनता दल का एक आयोजन था. इसमें अध्यक्ष और दूसरे पदाधिकारी चुनने की परंपरा निभाई जानी थी. कार्यकर्ताओं और नेताओं से खचाखच भरे हॉल में पार्टी के कर्ता-धर्ता लालू प्रसाद यादव ने अपने लोगों को कुछ नसीहतें दीं. उन्होंने एक बात पर बार-बार जोर दिया कि सामंती शब्द का इस्तेमाल नहीं करना है. वे यह भी साफ-साफ समझा रहे थे कि सवर्णों को भी साथ लेकर चलना है, सब अपने हैं. लालू राजपूतों पर विशेष बल दे रहे थे और कह रहे थे कि ये तो बिल्कुल अपने हैं. लालू यहीं नहीं रुके. सवर्णों को अपनी तरफ करने की कवायद में वे यह भी कह गए कि अगर कभी कोई गलती हुई होगी तो माफी चाहते हैं. उस सम्मेलन के बाद लालू प्रसाद यादव ने तहलका से एक विशेष बातचीत की थी. इसमें भी उन्होंने कुछ यही बातें दोहराई थीं. उनका कहना था कि भूराबाल यानी भूमिहार, राजपूत, ब्राह्मण, लाला को साफ करनेवाला नारा जो उनके नाम से जोड़ा गया है, वह एक साजिश है. इसके बाद कई खबरें आती रहीं जिनसे यह साफ होता रहा कि नीतीश से नाराज चल रहे सवर्णों को अपने पाले में करने के लिए लालू प्रसाद दिन-रात एक कर रहे हैं.

लेकिन यह सब पुरानी बातें हुई. वहीं लालू अब एक पुराने रंग के साथ नये अवतार में आने की कोशिश में हैं. लोकसभा चुनाव में हार के बाद पिछले दिनों वैशाली में अपनी पार्टी के प्रशिक्षण शिविर में उन्होंने 180 डिग्री की पलटी मारते हुए ऐलान किया कि मंडलवादी राजनीति को उभारना ही उनका लक्ष्य होगा. लगे हाथ उन्होंने यह भी मांग कर दी कि सरकारी ठेके में 60 प्रतिशत आरक्षण पिछड़ों के लिए होना चाहिए. अपनी पार्टी के उन्हीं कार्यकर्ताओं को उन्होंने एक हिसाब भी समझाया. बताया कि बीते लोकसभा चुनाव में  जदयू, राजद और कांग्रेस को मिलाकर 45 प्रतिशत मत मिले हैं. लालू का कहना था, ‘अगर हम साथ होते, पिछड़े मतों का बिखराव नहीं होता तो भाजपा कहीं की नहीं होती.’

ठेके में आरक्षण वाला लालू का बयान सुर्खियां तो बना, लेकिन पटना के कुछ गलियारों और राजनीति में भी कुछ गिने-चुने लोगों को छोड़कर किसी ने इस पर ज्यादा उत्साह नहीं दिखाया. भाजपा का तुंरत बयान आया कि वह तो पिछड़ों की राजनीति की हमेशा हिमायती रही है. अतिपिछड़े कोटे से मंत्री बने सत्ताधारी जदयू के भीम सिंह जैसे लोगों ने फॉर्मूला बनाया कि कैसे ठेके में आरक्षण सुनिश्चित किया जा सकता है. पटना में कुछ चुनिंदा जगहों पर ठेके में 60 प्रतिशत आरक्षण की बात को अच्छे दिन आने के संकेत के तौर पर देखा गया और उसके सच होने की परिकल्पना के साथ ही भविष्य के ताने-बाने तक बुन लिये गए. लेकिन इसके अलावा लालू प्रसाद के मंडल बम की कोई खास गूंज नहीं सुनाई दी. राजनीति के पटल पर थक-हार जाने और चारों तरफ से परास्त हो जाने के बाद लालू ने यह बम इस उम्मीद से फोड़ने की कोशिश की थी कि इसकी धमक से पूरे बिहार का राजनीतिक गलियारा हिलने-डोलने लगेगा.

‘एक अलग पहचान गढ़ चुके नीतीश तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर एक बार फिर विशुद्ध जाति की राजनीति के दायरे में नहीं लौट सकते’

अब सवाल कई हैं. पहला तो यह कि 1990 में जिस मंडल की राजनीति पर सवार होकर लालू प्रसाद देश के बड़े नेता बनने और 15 साल तक बिहार पर राज करने में सफल रहे थे, 2014 में अचानक वे फिर वही पुराना राग छेड़ने को क्यों मजबूर हुए. दूसरा सवाल यह है कि क्यों पूरी ऊर्जा लगाकर भी यह राग छेड़ने के बाद वह हलचल पैदा नहीं हो सकी जिसकी उम्मीद लालू या उनके पार्टी के नेताओं ने की थी. और इन दोनों सवालों के बीच बड़ा सवाल यह भी कि जिन नीतीश कुमार और उनकी पार्टी को लेकर लालू प्रसाद 45 प्रतिशत वोट की बात बार-बार कह रहे हैं, उन नीतीश कुमार या उनकी पार्टी की ओर से इस कवायद पर कोई गर्मजोशी वाले बयान क्यों नहीं आए. आखिर इस मंडल बम पर नीतीश ने क्यों पूरी तरह मौन साध लिया?

इन सवालों का जवाब अलग-अलग लोग, अलग-अलग तरीके से देते हैं. राजनीतिक विश्लेषक प्रोफेसर नवल किशोर चौधरी कहते हैं, ‘चीजें समय के साथ आगे बढ़ती हैं. लालू प्रसाद अपने फायदे के लिए चीजों को पीछे ले जाना चाहते हैं. वे अगर मंडलवादी राजनीति की ही बात करते और ठोस आंकड़ों के साथ कहते कि पिछड़ों की शिक्षा की स्थिति में सुधार होना चाहिए, भूमि सुधार को पिछड़ों के हित के लिए लागू किया जाना चाहिए या फिर पिछड़ों के कौशल आदि का विकास होना चाहिए तो लगता कि वे सच में पिछड़ों या अतिपिछड़ों की हिमायत करते हुए राजनीति करने का मन बना रहे हैं. लेकिन उन्होंने तो सिर्फ मंडलवादी राजनीति का नाम लिया और ठेके में आरक्षण की बात कह दी.’ चौधरी आगे कहते हैं, ‘ पिछड़ों को यह समझ में आ रहा है कि ठेके में इस आरक्षण से किसे फायदा होनेवाला है. लालू प्रसाद ने अपने कार्यकाल में ठेके-पट्टे के जरिये ही एक नया सामंत और प्रभु वर्ग खड़ा किया था. एक बार फिर वे वैसा ही करना चाहते हैं जिससे मुट्ठी भर लोगों को फायदा हो. बिहार की तो छोड़िए, इससे खुद लालू प्रसाद की पार्टी का भी भला नहीं होगा. नीतीश कुमार के साथ गठजोड़ की जो उम्मीदें बंध रही हैं, दो और दो मिलाकर चार का जो ख्वाब लालू प्रसाद दिन-रात देख रहे हैं, वह भी अधूरा रह जाएगा. ऐसा इसलिए होगा कि नीतीश कुमार ने पिछले नौ सालों में बिहार की राजनीति में अपनी एक अलग पहचान बनायी है और राजनीति को सामाजिक न्याय, विकास और पूंजीवाद की ओर ले जाने की कोशिश की है. तथाकथित सामाजिक न्याय के नाम पर नीतीश एक बार फिर विशुद्ध जाति की राजनीति के दायरे में नहीं लौट सकते.’

प्रो चौधरी जो कहते हैं वह सिर्फ एक आलोचक का विरोधी बयान भर नहीं माना जा सकता. राजनीतिक जानकार मानते हैं कि लालू के इस बयान के बाद नीतीश कुमार के लिए जवाब देना इसलिए भी आसान नहीं होगा क्योंकि इससे लालू ने कमंडल को मंडल के जरिये खत्म करने की चाल चलने के साथ ही नीतीश की राजनीति पर भी कब्जा जमाने का एक दांव खेला है. नीतीश अगर कहते हैं कि हां, ऐसा होना चाहिए तो पूछा जाएगा कि इतने सालों तक सत्ता में रहते हुए ऐसा करने से उन्हें किसने रोका था. अगर न कहते हैं तो लालू यह प्रचार करेंगे कि हमने तो पिछड़ों की भले की बात कही, नीतीश ने ही साथ नहीं दिया. नीतीश के लिए मुश्किलें इतनी भर नहीं हैं. अपने पहले कार्यकाल में सवर्ण आयोग का गठन कर और इस बार लोकसभा चुनाव के घोषणा पत्र में सवर्णों को विशेष तरजीह दिए जाने की बात कहकर वे पिछड़ों की पहचान वाली राजनीति से बहुत आगे निकल चुके हैं. इसलिए तुरंत उसी खोल में लौटना अब उनके लिए उतना आसान नहीं रह गया है.

लालू प्रसाद अपने कहे को लगातार हवा पानी दे रहे हैं. वे बयान पर बयान दिये जा रहे हैं. लेकिन नीतीश लगातार इस पर मौन साधे हुए हैं. लालू के इस नये शिगूफे पर उनकी पार्टी के भीतर भी बहस हो रही है. पार्टी से जुड़े वरिष्ठ नेता व राजनीतिक विश्लेषक प्रेम कुमार मणी कहते हैं, ‘लालू प्रसाद ने 21वीं सदी के दूसरे दशक में यह बात कही है जब मंडल के प्रतीकों की राजनीति का समय बीत गया है. अगर उन्हें ठेके में आरक्षण की बात ही करनी थी तो यह लड़ाई तो बहुत पहले से ही लड़ी जा रही है.’ मणी के मुताबिक 2003 में वे खुद इस मसले पर धरने पर बैठे थे. वे यह भी बताते हैं कि मध्यप्रदेश में जब दिग्विजय सिंह मुख्यमंत्री थे तो उन्होंने कहा था कि सरकारी खरीद में से अधिकांश हिस्सा पिछड़ों और दलितों के दुकान-प्रतिष्ठान से खरीदा जाए. मणी कहते हैं, ‘तब लालू प्रसाद कहां थे. तब उन्होंने क्यों एक बार भी साथ नहीं दिया था. अब थक-हारकर अपनी राय मिला रहे हैं. लेकिन मार्क्स ने कहा था कि इतिहास कभी दुहराता नहीं है अपने को और दुहराता है तो कभी प्रहसन के रूप में तो कभी ट्रेजडी के रूप में. लालू प्रसाद अगर उम्मीद करते हैं कि एक बार फिर इतिहास दुहरा लेंगे तो इतिहास प्रहसन के रूप में ही दुहरायेगा.’

जानकारों के मुताबिक इस मुद्दे पर लालू और नीतीश का मेल कोई खास फलदायी नहीं होने वाला क्योंकि मंडलवादी राजनीति का नया चेहरा अब भाजपा है

मणी सहित कई जानकारों से लंबी बातचीत होती है. उनके मुताबिक मान भी लिया जाए कि लालू प्रसाद या फिर नीतीश कुमार मंडल की राजनीति का दौर बिहार में वापस लाना चाहते हैं. लेकिन सिर्फ जुबानी जमा खर्च करने से तो होगा नहीं. सवाल पूछा जाएगा कि पिछले करीब 25 साल से सामाजिक न्याय के नाम पर ही लालू प्रसाद और नीतीश कुमार की सत्ता बिहार में रही है. किसने रोका था उन्हें ठेके में आरक्षण लागू करने से और अब जब मुश्किल दौर में पहुंच गए हैं तो यह सब क्यों याद आ रहा है.

राजनीतिक जानकार बताते हैं कि घोर मंडलवादी राजनीति की सिफारिश करके भी लालू प्रसाद अपनों से ही घिरते जा रहे हैं. दूसरी ओर मौन साधकर नीतीश कुमार भी उसी चक्र में फंसते जा रहे हैं. लालू के इस नये पैंतरे से दोनों के बीच संबंध बनने के जो आसार बने हैं, उसमें भी अगर-मगर लगने की संभावनाएं बढ़ गई हैं. राजनीतिक जानकार बताते हैं कि जाति की राजनीति करने के बावजूद नीतीश कुमार खुलकर अब इस तरह जाति की राजनीति करने सामने नहीं आएंगे. तब सवाल यह उठता है कि आखिर दोनों करेंगे क्या. नीतीश कुमार क्या करेंगे ? क्या लालू प्रसाद की इस कवायद का खंडन करेंगे या मौन साधकर साथ हो जाएंगे. मणी कहते हैं, ‘दोनों के पास कोई विकल्प नहीं है. मजबूरी में साथ हो रहे हैं. लेकिन बहुत संभावनाएं अब नहीं दिखती क्योंकि मंडलवादी राजनीति का नया चेहरा अब भाजपा है जिसका नेता, जो अब पीएम बन चुका है,  पिछड़े समूह का है. वह आर्थिक रूप से भी पिछड़ी श्रेणी का है. चाय बेचनेवाला है और भाजपा की ओर से पीएम बन चुका है.’

बातचीत के आखिर में मणी एक और सवाल उठाते हैं. कहते हैं, ‘बिहार में मगध विश्वविद्यालय सबसे बड़े दायरेवाला विश्वविद्यालय है. उसका नाम कुशवाहा जाति से आनेवाले और बिहार आंदोलन में अहम भूमिका निभाने वाले दिग्गज नेता जगदेव प्रसाद के नाम पर करने की मांग वर्षों से होती रही. लेकिन अभी कुछ दिनों पहले उस विश्वविद्यालय का नामकरण बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री सत्येंद्र नारायण सिन्हा के नाम पर करने की घोषणा कर दी गई. मगध में या पिछड़ों की राजनीति में या फिर शिक्षा के क्षेत्र में क्या सत्येंद्र नारायण सिन्हा की भूमिका जगदेव प्रसाद से ज्यादा थी? फिर क्यों लालू प्रसाद या नीतीश कुमार ने नहीं कहा कि जगदेव प्रसाद के नाम पर ही विश्वविद्यालय का नाम होगा. वीपी सिंह के नाम पर ही रखा जाता तो भी एक बात होती. वीपी सिंह का इतना हक तो बिहार पर बनता ही है और मंडल की राजनीति को आगे बढ़ानेवालों से इतनी उम्मीद भी की ही जाती है. वे पहचान के तौर पर ही सही, वीपी सिंह का सम्मान करें. मणी कहते हैं, ‘मंडल या आरक्षण अब बूढ़ी गाय हो चुकी है, इसका दोहन अब बात बनाकर उस तरह से नहीं किया जा सकता.’

लालू प्रसाद के संगी-साथी या राजनीतिक विश्लेषक जो सवाल उठा रहे हैं, वह हवाबाजी जैसी बात भी नहीं. लालू के एक सहयोगी कहते हैं, ‘उन्होंने इस चुनाव में देख लिया कि उनके तीन दिग्गज राजपूत नेता जगदानंद सिंह, रघुवंश प्रसाद सिंह और प्रभुनाथ सिंह हार गए. सवर्णों की एक ही जाति पर लालू प्रसाद को ज्यादा भरोसा था. वे मानकर चल रहे थे कि राजपूत पहले की तरह उनका साथ देंगे. लेकिन इस बार उलटा हुआ. जहां-जहां राजपूत उम्मीदवार थे वहां यादवों ने तो राजद के नाम पर राजपूत उम्मीदवारों का साथ दिया, लेकिन राजपूतों ने राजद के नाम पर गैर राजपूत राजद उम्मीदवारों का साथ नहीं दिया.’ जानकारों की मानें तो लालू प्रसाद को लग रहा है कि अब सवर्णों के किसी खेमे से मोह रखने से कुछ हासिल नहीं होनेवाला इसलिए एक बार पिछड़ी राजनीति पर बाजी लगाई जाए. शायद कुछ हासिल किया जा सके. इसीलिए लालू प्रसाद ककहरा रट रहे हैं और कह रहे हैं कि राजद, जदयू और कांग्रेस को मिलाकर 45 प्रतिशत मत मिले हैं, तीनों साथ होते या आगे होंगे तो भाजपा की हवा निकल जाती या निकल जाएगी.

साफ है कि लालू दो और दो चार का हिसाब लगा रहे हैं. उनके और नीतीश, दोनों के ही साथ रहे शिवानंद तिवारी कहते हैं, ‘राजनीति में दो और दो चार कभी-कभी सिर्फ संयोग से ही होता है. लालू प्रसाद अब यदि सिर्फ जाति की राजनीति और मंडल के जरिये नैया पार लगाना चाहते हैं और नीतीश उस पर सवार होना चाहते हैं तो सिवाय घाटे के कुछ नहीं होनेवाला.’ तिवारी आगे कहते हैं, ‘लोकसभा चुनाव में तमाम कोशिशों के बाद यादवों तक का वोट लालू प्रसाद अपने पक्ष में नहीं रख सके तो दूसरों को क्या समेट पाएंगे? पिछड़ी-अतिपिछड़ी जातियों का वोट भाजपा के साथ गया है. उससे लड़ने के लिए 1990 का फॉर्मूला नहीं आजमाया जा सकता. वह एक समय की बात थी. अब बहुत पानी बह चुका है. मंडल का राग गाकर या ठेके में आरक्षण की बात भर करने से पिछड़ी जाति के युवा आकर्षित नहीं होनेवाले. उन्हें रोजगार चाहिए, अच्छी पढ़ाई चाहिए, सारी सुविधाएं चाहिए. ठेका सार्वजनिक तौर पर आर्थिक सशक्तिकरण नहीं करता. इसका दायरा सीमित होता है.’ तिवारी जो कहते हैं उसका विस्तार प्रेम कुमार मणी भी करते हैं. वे कहते हैं, ‘लालू प्रसाद को कुछ भी कहने से पहले आंकड़ों को विस्तार से देखना चाहिए. बीते लोकसभा चुनाव में अतिपिछड़ों के मतों में भाजपा ने जबर्दस्त सेंधमारी की है. अतिपिछड़ों का 42 प्रतिशत वोट भाजपा को गया है, 26 प्रतिशत जदयू को और महज नौ प्रतिशत राजद को. ऐसा क्यों हुआ, इस पर सोचना चाहिए.’

मंडलवादी राजनीति का दौर लौटाने की लालू की इस बात पर जितने लोगों से बात होती है, उनमें ज्यादातर यही कहते हैं कि सबकुछ आजमा कर थक चुके लालू प्रसाद एक बार चित या पट की राजनीति करना चाहते हैं. राजनीतिक विश्लेषक महेंद्र सुमन कहते हैं, ‘वक्त बहुत आगे निकल चुका है. इसे न तो लालू समझ रहे हैं, न नीतीश. लालू प्रसाद की तरह नीतीश कुमार भी आजकल सामाजिक न्याय और धर्मनिरपेक्षता को ही मूल मसला बनाने की राह पर दिखते हैं, लेकिन अब इतने से युवा पीढ़ी साथ नहीं आनेवाली. विकास एक अहम एजेंडा होगा. इसके इर्द-गिर्द ही सबको रखना होगा.’ अर्थशास्त्री टीएन झा कहते हैं, ‘बिहार में मंडलवादी ताकतों के एकजुट होने, सामाजिक न्याय की धारा को और गति देने की जरूरत है. लेकिन इसके रास्ते क्या होंगे इस पर सोचना होगा. मंडल की राजनीति से एक और सामंती वर्ग का उदय भर न हो, इसका ध्यान रखना होगा. ‘

सवाल सबके सही होते हैं, विश्लेषण भी सबके सही लगते हैं. लेकिन अहम सवाल यह है कि लालू तो अपनी चाल चल चुके हैं. इस चाल से उन्हें क्या फायदा होगा, क्या नुकसान, यह खुद लालू या उनके दल के नेता भी नहीं जानते. हां, इतना तय है कि यह बयान देकर वे भाजपा को मुख्य पार्टी के तौर पर मजबूत करने की एक कोशिश कर रहे हैं. एक ओर भाजपा, दूसरी तरफ लालू या नीतीश या फिर दोनों. माना जा रहा है कि अगली लड़ाई का स्वरूप ऐसा ही होगा. जिस तरह से लोकसभा चुनाव में मुकाबला भाजपा बनाम लालू के बीच रहा, उसी तरह लालू प्रसाद यादव विधानसभा चुनाव में भी भाजपा बनाम लालू के बीच ही मुकाबला रखना चाहते हैं. नीतीश या तो लालू प्रसाद के साथ आएं या फिर अन्य की श्रेणी में रहें.

पार्टी, परिवार, अखबार और भ्रष्टाचार

कांग्रेस पार्टी और नेशनल हेरल्ड की स्थितियों में एक अदभुत समानता है. दोनों ही संस्थाएं आज पूरी तरह से नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों की संपत्ति में बदल चुकी हैं. दोनों का ही आरंभिक स्वरूप ऐसा नहीं था. 1885 में देश को आजादी दिलाने के मकसद से बनी कांग्रेस 1947 में आजादी मिलने के बाद एक राजनीतिक-आंदोलनकारी संगठन से पूर्णकालिक राजनीतिक दल में बदल गई. 1947 के बाद से कांग्रेस ने जो रास्ता अख्तियार किया उसके सारे रास्ते नेहरू-गांधी परिवार के इर्द गिर्द आकर समाप्त हो जाते हैं. आज इस परिवार के इतर कांग्रेस का कोई वजूद नहीं है. यही दशा आज नेशनल हेरल्ड की है. आजादी के आंदोलन के दौरान ही भारतीय पक्ष को तत्कालीन राजसत्ता और दुनिया के सामने मजबूती से रखने के मकसद से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नेशनल हेरल्ड नामक अखबार की नींव रखी थी. जिस अखबार की नींव नेहरूजी ने डाली थी उसे आजादी के आंदोलन को समर्थन दे रहे लगभग पांच हजार अन्य भारतीयों का भी समर्थन प्राप्त था. ये लोग नेशनल हेरल्ड को संचालित करने वाली संस्था एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) के शेयरधारक थे. नेशनल हेरल्ड नेहरू का विचार था लेकिन कभी भी यह उनकी निजी संपत्ति नहीं रहा. लेकिन आज नेशनल हेरल्ड और उसकी संपत्तियां तकनीकी तौर पर नेहरू-गांधी परिवार की संपत्ति में तब्दील हो चुकी हैं.

भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में एक याचिका दायर करके इस मामले में कार्रवाई की मांग की है. फिलहाल नेशनल हेरल्ड की सारी संपत्तियां यंग इंडियन नाम की कंपनी के स्वामित्व में हैं. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी के मुताबिक यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अपनी कंपनी है. लेन देन की इस प्रक्रिया में जिस तरह की चीजें हुई हैं वह पहली नजर में कई सवाल खड़े करती हैं और एक सुनियोजित भ्रष्टाचार का इशारा देती हैं. ऐसे कई मुश्किल सवाल हैं जिनके जवाब आनेवाले समय में कांग्रेस पार्टी और उसके प्रथम परिवार को देने हैं. जवाबदेही की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इस संबंध में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालती नोटिस मिल चुका है. साथ ही कांग्रेस पार्टी को आयकर विभाग ने भी एक नोटिस जारी किया है. पहले नोटिस के मुताबिक सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आगामी सात अगस्त को अदालत में हाजिर होना है. हालांकि कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी जो कि इस मामले में गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी की पैरवी कर रहे हैं, का कहना है, ‘हमारे पास अपना पक्ष साबित करने के पर्याप्त आधार हैं, लेकिन मैं कोर्ट में ही इस संबंध में सारी बातें रख पाऊंगा. फिलहाल मैं इस मामले की बारीकियों को उजागर नहीं कर सकता.’
rahulghandi
एजेएल के स्वामित्व में बदलाव की कवायद साल 2011 में शुरू हुई थी. इसे जानने से पहले हम नेशनल हेरल्ड के अतीत पर एक नजर डाल लेते हैं. इससे चीजों को समझने में आसानी होगी. नौ सितंबर 1938 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड की स्थापना की थी. इस कंपनी का काम था नेशनल हेरल्ड अखबार का प्रकाशन. बाद में इसमें कौमी आवाज, नवजीवन और हेरल्ड साप्ताहिक का प्रकाशन भी जुड़ गया. तब कंपनी की कैपिटल वैल्यू पांच लाख रु थी. इसमें 100 रुपये की कीमत वाले 2000 प्रिफरेंशियल शेयर थे और 10 रुपये कीमत वाले 30,000 सामान्य शेयर थे. उस वक्त करीब पांच हजार शेयरधारकों ने इसमें निवेश किया था. ये वे लोग थे जो आजादी के आंदोलन को समर्थन दे रहे थे और शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि भारतीय पक्ष को मजबूती से सामने रखने के लिए एक संपूर्ण भारतीय स्वामित्व वाले मीडिया संस्थान का होना आवश्यक है. कंपनी का तत्कालीन मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन कहता है, ‘इसका उद्देश्य संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) समेत देश के दूसरे हिस्सों में समाचार एजेंसी, अखबार और पत्रिका के प्रकाशन, प्रिंटिंग प्रेस और इससे संबंधित समस्त दूसरे व्यवसायों को स्थापित करना और कंपनी के हित में उन्हें संचालित करना है.’

सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका इस पर सवाल उठाती है. इसके शब्दों में, ‘जिस यंग इंडियन नाम की कंपनी ने नेशनल हेरल्ड का अधिग्रहण किया है उसके लक्ष्य में दूर-दूर तक किसी अखबार, पत्रिका या प्रिंटिंग प्रेस को स्थापित करना नहीं है. तो फिर किस नीयत से यह लेनदेन हुआ है.’ कंपनी के मेमोरेंडम पर जवाहरलाल नेहरू के अलावा पुरुषोत्तमदास टंडन, जे नरेंद्र देव, कैलाश नाथ काटजू, रफी अहमद किदवई, कृष्ण दत्त पालीवाल और गोविंद बल्लभ पंत जैसी हस्तियों के हस्ताक्षर हैं. जाहिर है न तो यह व्यक्ति विशेष की कंपनी थी, न ही इसका उद्देश्य समाचारों के अलावा किसी और व्यवसाय से जुड़ना था.

आजादी के बाद भी यह अखबार कांग्रेस की बैसाखी पर चलता रहा. 2008 तक आते-आते स्थितियां ऐसी हो गईंं कि नेशनल हेरल्ड का प्रकाशन संभव नहीं रहा. लिहाजा एजेएल ने इसे बंद करने की घोषणा कर दी. तीन वर्षों तक नेशनल हेरल्ड लोगों की स्मृतियों से ओझल रहा.

इसी बीच पर्दे के पीछे कुछ ऐसे काम हुए जिसने कांग्रेस पार्टी की अपनी साख और उसके प्रथम परिवार की साख पर संदेह खड़ा कर दिया है. साल 2011 की शुरुआत में यंग इंडियन नाम की एक कंपनी का गठन हुआ. इस कंपनी की 76 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पास है. तकनीकी तौर पर किसी कंपनी मे 74 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी जिस व्यक्ति की होती है वह उस कंपनी का मालिक होता है. उसके पास कंपनी के सारे फैसले करने और किसी भी निर्णय को रद्द करने का अधिकार होता है. बाकी 24 फीसदी में कंपनी के चार दूसरे हिस्सेदार सुमन दुबे, सैम पित्रोदा, मोतीलाल बोरा और ऑस्कर फर्नांडिज हैं. इस कंपनी का गठन कंपनी एक्ट 1956 के सेक्शन 25 के तहत हुआ है. ऐसी कंपनी नॉन प्रॉफिट संस्था होती है यानी यह कंपनी किसी भी तरह की व्यावसायिक गतिविधि में हिस्सा नहीं ले सकती. साथ ही वह तमाम स्रोतों से होने वाली आय का इस्तेमाल सिर्फ कंपनी के मूल उद्देश्यों के प्रचार-प्रसार में कर सकती है.

26 फरवरी 2011 को एजेएल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की बैठक में एक प्रस्ताव पारित हुआ. यह प्रस्ताव कई सवाल खड़े करता है. इसका मजमून कुछ इस तरह है–एजेएल ने कांग्रेस पार्टी से 90,21,68,980 रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज लिया था. इस लेनदारी को कांग्रेस पार्टी ने यंग इंडियन नाम की कंपनी को स्थानांतरित कर दिया लिहाजा अब उसे यह लोन यंग इंडियन को देना था. एजेएल ने इस लोन को खत्म करने के एवज में यंग इंडियन को एजेएल की 10 रुपये कीमत वाले 90,216,898 शेयर जारी कर दिए. इस प्रकार एजेएल का पूरा मालिकाना हक यंग इंडियन के पास चला गया. कांग्रेस पार्टी ने अपने 90,21,68,980 रुपये की जो लेनदारी यंग इंडियन को सौंपी थी उसका निपटारा यंग इंडियन ने उसे 50 लाख रुपये देकर कर दिया. इस पूरे लेनदेन का विवरण 26 फरवरी 2011 को एजेएल द्वारा पास प्रस्ताव में मौजूद है. इस पर एजेएल के तत्कालीन चेयरमैन मोतीलाल बोरा के हस्ताक्षर हैं.

इस पूरे खेल में दिलचस्प तालमेल और हितों का टकराव नजर आता है. यंग इंडियन के एक निदेशक मोती लाल वोरा एजेएल के चेयरमैन मोतीलाल वोरा के सामने एक प्रस्ताव रखते हैं कि वे कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष मोतालाल वोरा से कहकर 90,21,68,980 रुपये के ब्याजरहित लोन की लेनदारी अपने ऊपर यानी यंग इंडियन के ऊपर करवा देंगे. इस सहमति के बाद उन्हीं मोतीलाल वोरा ने 26 फरवरी 2011 को एजेएल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की एक असाधारण बैठक में यह प्रस्ताव पास करके सारे शेयर यंग इंडियन प्रा. लिमिटेड को दे दिए. इन तीन संस्थाओं में से कांग्रेस पार्टी और यंग इंडियन ऐसी हैं जहां मोतीलाल बोरा सीधे सोनिया गांधी, राहुल गांधी के मातहत की तरह काम करते हैं और इन्हीं दोनों लोगों को इस इस लेन देन में सबसे ज्यादा लाभ होता दिख रहा है.

स्वामी की याचिका यहां पर कुछ सवाल खड़े करती है जिनके जवाब कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व को देने हैं. मसलन एक राजनीतिक दल जो चंदे के रूप में पैसा लेता है वह अपने कोष का इस्तेमाल किसी व्यावसायिक गतिविधि में नहीं कर सकता क्योंकि इस चंदे पर कोई कर नहीं दिया जाता है. आयकर अधिनियम के सेक्शन 13ए और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के सेक्शन 29 ए और सी में विस्तार से विवरण है कि राजनीतिक दल किसी व्यावसायिक गतिविधि में न तो शामिल हो सकते हैं, न ही वे ऐसे किसी उपक्रम में अपने कोष का इस्तेमाल कर सकते हैं. तो फिर कांग्रेस ने कैसे एक निजी कंपनी को 90,21,68,980 रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज दे दिया? किस आधार पर कांग्रेस पार्टी ने एक अन्य निजी कंपनी के पास 90,21,68,980 रुपये की लेनदारी ट्रांसफर कर दी और फिर 90 करोड़ की उधारी का निपटारा कैसे सिर्फ 50 लाख रुपये में कर दिया. स्वामी इस प्रक्रिया में कर कानूनों के अलावा चुनाव आयोग के नियमों की भी धज्जियां उड़ाए जाने का आरोप लगाते हैं. उनकी मांग है कि चुनाव आयोग को कांग्रेस पार्टी की मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए.

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एक नवंबर 2012 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस लेन-देन को उजागर करते हुए  स्वामी यह मामला अदालत में ले गए थे. दिलचस्प तथ्य यह है कि स्वामी के आरोप का जवाब देते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने तब कहा था, ‘हां, हमने एजेएल को 90 करोड़ रुपये का लोन दिया है. हम नेहरू जी के सपने को फिर से जिंदा करना चाहते हैं. कांग्रेस का हेरल्ड से भावनात्मक रिश्ता है.’ यह बात किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि इस घटना के महज 20 दिन पहले ही नौ अक्टूबर 2012 को राहुल गांधी ने पीटीआई से बातचीत में कहा था कि नेशनल हेरल्ड को दोबारा शुरू करने की उनकी कोई योजना नहीं हैं. जाहिर है जनार्दन द्विवेदी ऐसी चादर से अपना और पार्टी का चेहरा छिपाने की कोशिश कर रहे थे जो पूरी तरह से पारदर्शी थी.

सवाल उठता है कि जब हेरल्ड को दोबारा से शुरू करने की कोई योजना नहीं थी तब किस मकसद से एजेएल का मालिकाना हक यंग इंडियन को स्थानांतरित करने की कवायद हुई. स्वामी के मुताबिक यह सारी कवायद हेरल्ड की संपत्तियों पर अधिकार करने के लिए हुई. एजेएल के पास दिल्ली, लखनऊ, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में अचल संपत्तियां हैं. दिल्ली के फिरोजशाह रोड, जहां ज्यादातर प्रमुख अखबारों के दफ्तर मौजूद हैं, पर स्थित सात मंजिला हेरल्ड हाउस की मौजूदा कीमत बाजार भाव के हिसाब से 1600 करोड़ रु के आस पास बतायी जाती है. याचिका के मुताबिक देश भर में फैली हेरल्ड की संपत्तियों की कीमत करीब 5000 करोड़ रुपये है. दिल्ली स्थित हेरल्ड हाउस में फिलहाल कई कंपनियों के दफ्तर काम कर रहे हैं. इसके भूतल और पहली मंजिल पर विदेश मंत्रालय द्वारा पासपोर्ट सेवा केंद्र चल रहा है. इसका उद्घाटन यूपीए-2 की सरकार में विदेशमंत्री रहे एसएम कृष्णा ने किया था. विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक विदेश मंत्रालय किराए के रूप में 60 लाख रुपये प्रति माह की मोटी रकम अदा करता है. इसके अलावा तीसरी और चौथी मंजिल पर टाटा कंपनी की शाखा टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (टीएसीएस) का दफ्तर है. सूत्रों के मुताबिक टीसीएस प्रति माह 27 लाख रुपये किराया अदा कर रही है. हेरल्ड हाउस की पांचवी मंजिल पर उस यंग इंडियन कंपनी का दफ्तर भी है जिसके पास फिलहाल इसका मालिकाना हक है.

यहां प्रश्न खड़ा होता है कि इन सभी स्रोतों से हो रही लाखों की आय जा कहां रही है. एक टीवी चैनल से बात करते हुए हाल ही में कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना था, ‘नेशनल हेरल्ड को पुनर्जीवित करने के लिए किराया वसूला जा रहा है.’ सवाल वही है कि जब खुद राहुल गांधी कह चुके हैं कि हेरल्ड को शुरू करने की उनकी कोई योजना नहीं है तब सुरजेवाला किस आधार पर यह दावा कर रहे हैं.

एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड द्वारा 2008 में रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी को दी गई शेयरधारकों की सूची इसकी दुर्दशा और गैर पेशेवर कामकाज पर कुछ हद तक रोशनी डालती है. कंपनी के शेयरधारकों में जवाहरलाल नेहरू (मृत्यु 1964), फिरोज गांधी (मृत्यु 1960), इंदिरा गांधी (मृत्यु 1984), घनश्यामदास बिड़ला (मृत्यु 1983), सुचेता कृपलानी (मृत्यु 1974), विजय लक्ष्मी पंडित (मृत्यु 1990) जैसे तमाम नाम शामिल हैं. ये पांच हजार शेयरधारकों में शामिल कुछेक महत्वपूर्ण नाम हैं. तथ्य यह है कि इस सूची में शामिल लगभग 80 प्रतिशत लोग आज इस दुनिया में नही हैं. लेकिन एजेएल ने उन शेयरों को कभी भी उनके वारिसों के नाम स्थांतरित करने की कोई कार्रवाई नहीं की जबकि यह कानूनन जरूरी था. एक तरफ तमाम शेयर धारकों की मृत्यु के बाद भी उनके उत्तराधिकारियों को उनके हिस्से का शेयर कभी जारी नहीं किया गया दूसरी तरफ समय-समय पर गांधी परिवार के उत्तराधिकारी शेयरधारकों की सूची में शामिल किए जाते रहे. इनमें इंदिरा गांधी, फिरोज गांधी से लेकर राहुल गांधी तक शामिल हैं. इस मामले के याचिकाकर्ता स्वामी के मुताबिक राहुल गांधी को एजेएल के शेयरधारकों की सूची में 2008 में शामिल किया गया. एजेएल की सूची के 14वें पन्ने पर राहुल गांधी बतौर शेयरधारक उपस्थित हैं. उनके पास एजेएल के 2,62,411 शेयर थे. लेकिन अपने 2009 के लोकसभा चुनाव के संपत्ति विवरण में राहुल गांधी ने किसी भी तरह के शेयर न होने की घोषणा की थी. बाद में जब 2012में  सुब्रमण्यम स्वामी ने यह मामला चुनाव आयोग के सामने रखा तब राहुल गांधी ने ये सारे शेयर अपनी बहन प्रियंका गांधी को स्थांतरित कर दिए. स्वामी का आरोप है कि मामला सामने आने के बाद दबाव में राहुल गांधी ने यह काम बैक डेट में अंजाम दिया.

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यहां कुछ और जरूरी सवाल हैं. एजेएल को नेशनल हेरल्ड के प्रकाशन के लिए जो संपत्तियां कौड़ी के भाव लीज पर दी गईं थी, और प्रत्यक्षत: उन्हीं पर अधिकार के लिए यह सारी कवायद चल रही थी, वे कुछ अखबारों के प्रकाशन के लिए थीं. यह बात सर्वविदित है कि 2008 से नेशनल हेरल्ड ठप पड़ा था तब इसकी संपत्तियों को कानूनन जब्त करने की कार्रवाई होनी चाहिए थी. बजाय इसके इनमें तमाम तरह के दूसरी व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर दी गईं.जबकि इसका आवंटन अखबार के प्रकाशन के लिए हुआ था.  सुरजेवाला कहते हैं, ‘इस इलाके में स्थित तमाम मीडिया हाउस अपने भवनों को किराए पर देते हैं. इसमें नया क्या है.’ महत्वपूर्ण सवाल यही है कि अव्वल तो एजेएल के शेयर ऐसी किसी कंपनी के पास जाने ही नहीं चाहिए थे जो इस अखबार को निकालना ही नहीं चाहती थी. दूसरा एजेएल के शेयरधारकों को विश्वास में लिए बिना और उन्हें जानकारी दिए बिना ही कंपनी को एक व्यक्तिगत कंपनी के हाथ में कैसे स्थांतरित कर दिया गया.

कानूनी जवाबदेहियों और तकनीकी बारीकियों से अलग इस पूरे मामले में देश के उस प्रथम परिवार की अपनी नीयत और विश्वसनीयता गहरे संकट में है जिसने इस देश को तीन प्रधानमंत्री दिए हैं. सोनिया और राहुल गांधी के सामने कौन सी परिस्थितियां थीं जो उन्हें एजेएल का स्वामित्व अपनी निजी स्वामित्व वाली कंपनी में ट्रांसफर करना पड़ा. कांग्रेस पार्टी पर गांधी-नेहरू परिवार की निजी संपत्ति हो जाने के जो आरोप लगते रहे हैं उन पर इस मामले ने मुहर लगाने का काम किया है. वरना 90 करोड़ रुपये कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से एजेएल को सोनिया गांधी और राहुल गांधी की संपत्ति बनाने के लिए न्यौछावर कर दिए उसे और किस तरह से पार्टी न्यायोचित ठहराएगी. कानूनी पेचीदगियां तो हैं ही, जिन सोनिया और राहुल गांधी को उनकी पार्टी त्याग की प्रतिमूर्ति और देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर रही है उन्हें इस पूरे विवाद का उत्तर नैतिकता के पैमाने पर भी देना होगा .

मीडिया में लड़कियां

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इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव
इलेस्ट्रेशन: मनीषा यादव

29 जुलाई 1993 की रात कई पुलिसवाले किसी चोरी के संदिग्ध को खोजते हुए पुड्डुचेरी के अतियुर में रहने वाली विजया के घर घुस आए. तब वह सिर्फ 17 साल की थी. उसे परिवार सहित उठा लिया गया.  पुड्डुचेरी के एक थाने में छह पुलिसवालों ने उसके साथ बलात्कार किया. बाद में यह मामला अखबारों में भी आया और अदालतों में भी. विजया को अदालत से बाहर मामला खत्म करने की पेशकश भी मिली, जिसे उसने ठुकरा दिया. बाद में निचली अदालत से अभियुक्तों को सजा भी हुई. लेकिन अभियुक्तों की अपील पर 2008 में हाई कोर्ट ने सबको बरी कर दिया क्योंकि तब विजया समय पर अदालत में अपना पक्ष नहीं रख पाई. इंसाफ के लिए विजया तब लड़ती जब जीवन के लिए लड़ने से फुरसत मिलती. अपने आखिरी वर्षों में वह नरेगा के तहत रोजगार की गारंटी खोज रही थी. बीमार-परेशान वह, इस गुरुवार को जीवन से अपनी लड़ाई हार बैठी. यह एक लंबी एकाकी लड़ाई का दारुण अंत रहा.

12 जुलाई के ‘द हिंदू’ में एक छोटी सी खबर छपी तो विजया के जीवन की इस त्रासदी, उसकी यातना, लड़ाई और मौत से मेरा परिचय हुआ. उसकी कोई खबर 20 बरस पहले कहीं पढ़ी भी होगी तो याद नहीं. हममें से बहुतों ने पहले उसका नाम भी नहीं सुना होगा. यह खबर बस याद दिलाती है कि हमारे चारों तरफ कई विजयाएं हैं- बहुत सारी लड़कियां- जो तरह-तरह के शोषण और उत्पीड़न झेल रही हैं और इसके विरुद्ध अपनी एकाकी लड़ाई एक दिन हार जा रही हैं.

विजया आदिवासी थी, सुदूर दक्षिण के एक गांव की थी, उसके साथ जो कुछ हुआ, वह 21 बरस पहले हुआ था, लेकिन आज भी हालात बहुत अलग नहीं दिखते. उल्टे यह दिखता है कि जैसे-जैसे लड़कियां चुनौती भरे क्षेत्रों में आ रही हैं, अपने बारे में चली आ रही मान्यताओं की धज्जियां उड़ा रही हैं, परंपरा को अंगूठा दिखा रही हैं और आधुनिकता को मुंह चिढ़ा रही हैं, वैसे-वैसे उनके इम्तिहान बढ़ते जा रहे हैं. पिछले दो दशकों में मीडिया में बहुत सारी लड़कियां आई हैं. वे अपने छोटे-छोटे शहरों से, भाइयों को मनाती, पिताओं को समझाती, मां की चिंताओं और सबके उलाहनों को पीछे छोड़ दिल्ली में तमाम छोटे-बड़े मीडिया संस्थान संभाल रही हैं, अपनी नई पहचान बना रही हैं, अपनी नई जिंदगी जी रही हैं. लेकिन लड़कियों के साथ जितना पुरुषों को बदलना चाहिए, वे बदलते नहीं दिख रहे. रोज एक के बाद एक ऐसी कहानियां सुनाई पड़ती हैं जहां लगता है कि मीडिया में लड़कियों को आने की सजा दी जा रही है. पिछले दिनों इंडिया टीवी की एक ऐंकर तनु शर्मा ने आत्महत्या करने की कोशिश की. जाहिर है, वह इस क्षेत्र में आत्महत्या करने नहीं आई थी. लेकिन यह पूरा माहौल उसे शायद इतना शत्रुतापूर्ण और हताश करने वाला लगा होगा कि उसने यह विकल्प आजमाने की कोशिश की. हाल की ही एक खबर यह है कि कुछ समय पहले खड़ा हुआ एक अन्य छोटा सा चैनल अपनी एक पत्रकार पर अनर्गल किस्म का आरोप लगा रहा है क्योंकि उसने चैनल के भीतर चल रही गड़बड़ियों का विरोध किया था.

जैसे-जैसे लड़कियां चुनौती भरे क्षेत्रों में आ रही हैं, अपने बारे में चली आ रही मान्यताओं की धज्जियां उड़ा रही हैं, उनके इम्तिहान भी बढ़ते जा रहे हैं

सवाल है, ये लड़कियां क्या करें. वे दफ्तर में शिकायत कर सकती हैं या फिर अदालत की शरण ले सकती हैं. लेकिन वे इस महानगर में केस-मुकदमे के लिए नहीं आई हैं और न ही अपने साथ इतना पैसा लाई हैं कि बिना नौकरी किए यह सब कर सकें. फिर वे अपने समूह के भीतर ही शिकायत करें तो उनके खिलाफ अचानक एक शत्रुतापूर्ण माहौल बन जाता है. और बहुत सारे उत्पीड़न ऐसे सूक्ष्म और बारीक होते हैं कि उन्हें सिर्फ महसूस किया जा सकता है. इसके अलावा एक बार यह बात खुली कि उन्होंने किसी की शिकायत की है या किसी के खिलाफ महिला आयोग या अदालत में गई है तो उनके लिए कहीं और नौकरी मुश्किल है.

तो सामूहिक बलात्कार का मामला हो या एकल उत्पीड़न का- लड़कियां अक्सर अपनी लड़ाई अकेले लड़ने को मजबूर होती हैं. शुरू में वे पूरे हौसले से लड़ती हैं, लेकिन अंततः थक कर तरह-तरह के विकल्प चुनती हैं- खुदकुशी तक के. जाहिर है, ये लड़ाइयां अकेले नहीं लड़ी जा सकतीं. इन्हें एक सांगठनिक शक्ल देने की जरूरत है. क्या ही अच्छा हो कि दिल्ली में अब सैकड़ों की संख्या में हो चुकी महिला पत्रकार एक ऐसा संगठन बनाएं जो तमाम संस्थानों में यौन उत्पीड़न की घटनाओं और शिकायतों पर नजर रखे और जरूरत पड़ने पर उसके खिलाफ लड़ाई भी लड़े. ऐसे संगठन में एक हिस्सा पत्रकारिता की पढ़ाई कर रही छात्राओं का भी हो, जिन्हें अपने लिए एक सुरक्षित भविष्य चाहिए.

फिलहाल कई महिला संगठन हैं, महिला प्रेस क्लब भी है, लेकिन एक ऐसा संगठन जरूरी है जो सिर्फ मीडिया में लड़कियों के साथ हो रहे यौन-उत्पीड़न को रोकने का काम करे. इसके दायरे में मीडिया संस्थानों के भीतर लैंगिक संवेदनशीलता पैदा करने का काम भी शामिल हो. क्योंकि लड़कियां जो कुछ झेलती हैं, उनमें कई बार सीधा उत्पीड़न भले न हो, लेकिन अश्लीलता को छूती फब्तियां, छुपे हुए आमंत्रण और कई बार किसी के भीतर समर्पण की संभावना टटोलने के बारीक प्रयास तक शामिल होते हैं. एक संगठन होगा तो पुरुष सहकर्मियों की यह आदत भी छूटेगी और धीरे-धीरे उनमें साथ काम करने का एक संस्कार भी पैदा होगा. बेशक, यह लड़ाई मीडिया तक सीमित नहीं है, दूसरे क्षेत्रों और संस्थानों में भी शायद यह सब होता हो- लेकिन अगर कहीं से शुरुआत करने की बात हो तो वह मीडिया से ही क्यों न हो.

बेशक, यह लिखने का आशय यह नहीं है कि मीडिया लड़कियों के लिए असुरक्षित जगह है. बल्कि यहीं से वे वह मोर्चा खोल सकती हैं जो जीवन के हर क्षेत्र में उनके लिए सहज सम्मान और बराबरी का भाव सुनिश्चित करे.

एक और अंतरिम बजट

Arunबजट बनाते वक्त केंद्र सरकार के सामने देश की अर्थव्यवस्था से जुड़ी मुख्यतः चार समस्याएं रही होंगीः कभी नौ प्रतिशत तक पहुंचने के बाद पांच फीसदी पर लुढ़क चुकी विकास दर, आम आदमी की जेब से बाहर जाती महंगाई (जो कि मानसून की गड़बड़ी की अवस्था में और ज्यादा गंभीर हो सकती है), बढ़ा हुआ वित्तीय घाटा (जिसे पिछली सरकार ने कुछ कम तो किया, लेकिन तरीका विकास की दर को पीछे धकेलने वाला रहा) और पिछली सरकार के निर्णयों और अनिर्णयों के चलते पाताल के स्तर पर पहुंच चुका देशी और बाहरी निवेशकों का विश्वास.

जब सरकार ने 10 जुलाई को केंद्रीय बजट देश के सामने रखा तो उसे जैसा कि इतने बड़े और विविधताओं वाले देश में होना ही था – दोनों तरह की प्रतिक्रियाएं मिलीं. इनमें से ज्यादातर नकारात्मक प्रतिक्रियाओं का ऊपर लिखी समस्याओं से दूर का भी संबंध नहीं था. इनमें से भी मोटे तौर पर चार-पांच कुछ इस तरह थीं: पूरे बजट में धमाकेदार कुछ नहीं है, बजट पुरानी सरकार का ही लग रहा है, बजट में सौ-करोड़ी योजनाओं की भरमार है जिनमें से ज्यादातर का 100 करोड़ में कुछ हो ही नहीं सकता, बजट में कई महत्वपूर्ण योजनाओं से ज्यादा धन सरदार पटेल की मूर्ति की स्थापना के लिए दिया गया है और वित्तमंत्री ने पिछली सरकार द्वारा जबरिया लागू किए गए ‘पिछली तारीख से लागू होनेवाले कर कानून’ को समाप्त नहीं किया.

इन प्रतिक्रियाओं पर वित्तमंत्री स्पष्टीकरण दे चुके हैं, लेकिन कुछ पर और बात करना चाहें तो इस सरकार ने 26 मई को शपथ ली थी. स्वाभाविक है कि बधाइयों-सम्मान आदि के चलते सही तरह से कार्यभार संभालने में केंद्रीय मंत्रियों को दो-चार दिन लग ही गए होंगे. तो कहा जा सकता है कि काम के दिन उसे 35-40 ही मिले होंगे. ऐसे में कितना बड़ा धमाका और वह भी अलग तरह का किया जा सकता था? जल्दी का काम शैतान का होता है इस कहावत को यहां क्यों लागू नहीं होना चाहिए? सरकार से बाहर या चुनाव प्रचार के दौरान सरकारी नीतियों का विरोध करना अलग बात है, लेकिन सरकार होकर बड़े और सही तरह के बदलाव 40 दिन में तो नहीं ही लाए जा सकते है.

इसीलिए कई लोगों को बजट में यूपीए सरकार की झलक भी मिल रही है. हालांकि परेशानी तो तब होनी चाहिए थी जब ऐसा नहीं होता. यदि वर्तमान सरकार ने बिना सोचे-समझे सिर्फ दिखाने के लिए पुरानी सरकार से ज्यादा अलग जाने की कोशिश नहीं की तो इसे राजनीति के सकारात्मक पक्ष की तरह भी देखा जा सकता है. चाहें तो अपनी इस सोच पर हम अपने ऊपर ही हंस सकते हैं कि चुनाव प्रचार के दौरान कही बातों को अक्षरशः लेकर हम रातों-रात बदलाव की नौसिखिया उम्मीद लगाए बैठे थे. अगर हमने एक दिन में चांद पर पहुंचाने वाले चुनावी वादों पर आंख-मूंदकर भरोसा किया तो यह हमारी भी गलती थी. आज अगर हम उन्हीं नारों के गलत आधार पर किसी तर्कसंगत चीज को गलत ठहराते हैं तो यह हमारी एक और गलती होगी. पांच साल चलने की सोच रखने वाली सरकारों के काम करने का तरीका दूसरा होना चाहिए, वैसा नहीं जैसा दिल्ली पर सिर्फ 50 दिन राज करने वाली केजरीवाल सरकार का था.

अगर मानें तो इस बजट को भी अंतरिम माना जा सकता है. सरकार को मिले कम समय की वजह से भी और बजट को मिलने वाले कम समय (आठ महीने) के लिए भी. फिलहाल तो इसमें अगर कुछ बड़ा कहने लायक नहीं है तो कुछ बुरा कहने लायक भी नहीं है. बल्कि कई चीजें ऐसी हैं जो सकारात्मक हैं या ऐसी उम्मीद जगाती हैं. मसलन सरकार ने टैक्स में छूट आदि देकर आम आदमी की बढ़ी हुई क्रय-शक्ति के जरिये अर्थव्यवस्था की उत्पादकता बढ़ाने की कोशिश की है. और पिछली सरकार की मनरेगा सरीखी योजनाओं को न केवल चालू रखने बल्कि सही मायनों में लोगों और अर्थव्यवस्था के लिए उपयोगी बनाने की बात भी कही है.

आने वाले समय में, सरकार ने, जो बजट में किया है, करने को कहा है और जो वह बिना कहे करेगी, उस सबके सम्मिलित आधार पर उसके बारे में कोई निष्कर्ष निकालना ज्यादा उचित होगा. केवल इस बजट में लिखे हुए को पढ़ने से निकलने वाले निष्कर्षों की प्रवृत्ति भी बजट की तरह ही अंतरिम से ज्यादा शायद ही कुछ और होगी.

एलबमः किक

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एलबमः किक
गीतकार » कुमार, शब्बीर अहमद, मयूर पुरी
संगीतकार » हिमेश रेशमिया, हनी सिंह

चूंकि हम किक के गीतों को छोड़ कई तरह की बेजा बातें करेंगे, इसलिए यह जानना जरूरी है कि हम चार के चौदह किए गीतों की बात क्यों नहीं करेंगे. जब सलमान ने अपना पहला गाना गाया, ‘चांदी की डाल पर सोने का मोर’, यार-रकीबों ने कहा था, ‘भाई ने पिंक पैंट पहन क्या भन्नाट गाया है भाई मियां’. उन दिनों के बाद ही जाना कि भाई के गानों के बारे में गंभीरता से सोचने-लिखने से बेहतर है दोजख में बैठ चांदी की डाल सुनना. वक्त के साथ यह भी समझे कि जिन गानों में वे थे, और गाने अच्छे थे, वे सलमान के नहीं, लेखक/ संगीतकार/ गायक के गाने थे.

चांदी की डाल के वक्त की बात और थी. तब संगीत के सॉफ्टवेयर काफी हार्ड हुआ करते थे. आज के संगीत सॉफ्टवेयर की कोडिंग बेहद नफीस है.‘ऑटो ट्यून’ ऑटो की किरकिरी आवाज भी मधुर बना सकता है. इसलिए सलमान की असल आवाज को महसूस कर खड़े रोंगटों को दो-चार मील चलाना चाहते हैं तो चांदी की डाल अवश्य सुनें. किक के सलमान-गीतों में वैसी किक कहां!

एलबम आर्गेनिक केमिस्ट्री के संसार का भी अहम हिस्सा है. जितना मुश्किल वहां नामनक्लेचर हुआ करता था उतनी ही मुश्किलों के किले पार कर इस एलबम ने गानों के नाम रखे हैं. गाने के हर नाम के दो वर्जन हैं, और हर वर्जन का एक रीमिक्स. साथ रीप्राइस, हाउस मिक्स, एमबीए स्वैग भी हैं. तभी किक में सलमान के गाए तीन गाने छः अवतारों में प्रकट होते हैं, हाहाकार मचाते हैं.

फिल्म में एक खूबसूरत गाना भी है. नीति मोहन का ‘तू ही तू’. इसमें नीति को सुन दिन वैसा ही गुलजार होता है जैसा दिन-भर आंच पर तपते-तपते काले तवे का चंद ठंडे पानी के छींटे पड़ने के बाद होता होगा. अहा! शुक्रिया भाई!

प्यार पूंजीवादी नहीं चाहिए…

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िफल्म » हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया
निर्देशक» शशांक खेतान
लेखक » शशांक खेतान
कलाकार » वरुण धवन, आलिया भट्ट, आशुतोष राणा, सिद्धार्थ शुक्ला

हमारी फिल्मी प्रेम कहानियों में, ज्यादातर में, परतें नहीं होती, परत-दर-परत खुलते-बनते-बिगड़ते-सिसकते रिश्ते नहीं होते. वे सतह पर ही टहलती हैं, वहीं बिखरे पड़े पॉपकार्न खाने में व्यस्त रहती हैं. हंप्टी शर्मा की दुल्हनिया, जो अपने कुछ हिस्सों में मजेदार है, प्यार को पूंजीवाद का शिकार बना देती है, ऐसा प्यार जो हमें नहीं चाहिए. हीरोइन को हीरो से प्यार होता है तब जब हीरो हीरोइन की शादी, जो हीरो के साथ नहीं किसी और के साथ होनी है, के लिए ‘हीरोइन का सपना’ लाखों का महंगा डिजाइनर लहंगा खरीदने के वास्ते पैसों का बंदोबस्त कर देता है, और जब हीरोइन की झोली में हीरो उन लाखों रुपयों को डालता है प्रेम परवान चढ़ता है. जब हीरोइन हृदय परिवर्तन के बाद उन पैसों से लहंगा न खरीद हीरो के घर तोहफे में ‘हीरो का सपना’ लाखों की कार पहुंचवाती है, और खुद किसी और से शादी के लिए निकल जाती है, कार देख हीरो रोता है और अपना प्यार वापस पाने अंबाला निकलता है. रास्ते में अगर वह, मीटर पर न चढ़ सका यह गाना भी गा देता तो फिल्म का संदेश ज्यादा स्पष्ट हो जाता, ‘प्यार पूंजीवादी ही चाहिए, कार मिल चुकी है, अब अंबाला में एक बंगला चाहिए’.

हमारी फिल्मी प्रेम कहानियों में, ज्यादातर में, एक चीज है जो प्रेम को सफल बनाती है. हास्य. हास्य अच्छा हो तो प्रेम कहानी सफल लगती है. है यह प्लेसिबो इफेक्ट, लेकिन जब से होम्योपेथी ने प्लेसिबो प्रभाव से आशातीत सफलता हासिल की है, अफसानानिगारों को लगता है हास्य भी प्रेम को वैसी ही सफलता दिला देगा. फिल्म ऐसे ही हास्य की टेक लेकर मनोरंजन करती है. दर्शक खुश भी होते हैं, लेकिन इस त्वरित तृप्ति में प्रेम अपना अस्तित्व खो देता है, रोता है, हंसी-ठहाकों में वह रोना भी दर्शकों को हंसना लगता है. फिल्म प्रेम की टेक भी लेती है, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएंगे’ से, और श्रद्धा से आदरांजलि देते हुए उसे पूरी तरह आत्मसात करती है. ऐसा करना फिल्म के सिर्फ पहले एक घंटे को दिलचस्प बनाता है, हास्य यहां भी उसका संकटमोचन है, लेकिन दूसरा हिस्सा, जहां (मेलो) ड्रामा शुरू होता है, और ‘मैंने प्यार किया’,‘प्यार किया तो डरना क्या’ बीच-बीच में पॉप-अप विंडो की तरह फुदकते हैं, संकटमोचन भी मोच का शिकार होता है.

हास्य, चतुर संवाद और छद्म प्रेम ने जिस शुरुआती हिस्से को मजेदार बनाया है, वहां, और बाकी की फिल्म में भी, आलिया-वरुण के बीच की केमिस्ट्री ही इस फिल्म की खूबसूरत रंगोली है. वरुण अगर अपनी ऊर्जा के साथ थोड़ा मितव्यय हो जाएं, ताकि ठहराव आए और गोविंदा उनपर से जाएं, तो वे बेहतर अभिनेता बनेंगे. फिल्म बेहतर नहीं है इसलिए उनके बेहतरीन अभिनय की उसे जरूरत नहीं है, लिहाजा जो वे करते हैं, अच्छे लगते हैं. आलिया जाहिर है हर फिल्म के साथ बेहतर हो रही हैं, और वे हमारी फिल्मों का भविष्य हैं, दोबारा लिखना जरूरी है. आलिया के पास करीना वाला तोहफा भी है, कम मेहनत में स्क्रीन पर नेचुरल लगना, लेकिन कुछ दृश्यों में जब वे लापरवाह होती हैं, अभिनय में लगने वाली मेहनत से जी चुराने की कोशिश साफ दिखती है. आशुतोष राणा फिल्म में साधारण हैं, यह लिखना और उनका जिक्र करना सिर्फ इसलिए आवश्यक है कि वे एक असाधारण अभिनेता हैं.

फिल्म असाधारण नहीं है क्योंकि जिन प्रेम कहानियों में इश्क लहंगे, पैसे और कार पर निर्भर हो, कुछ अरसे बाद उन कहानियों में प्रेम का अंत ही होता है. और ऐसा प्रेम हमें नहीं चाहिए. फिल्मों में भी नहीं.

‘गैरसरोकारी बनाम गैरसरकारी संगठन!’

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वेदांता कंपनी का विरोध करते सामाजिक कार्यकर्ता

इस समय गैरसरकारी या स्वयंसेवी संगठनों (एनजीओ) की भूमिका पर बड़ी बहस छिड़ी है. इस पूरी बहस में एनजीओ के समर्थक और विरोधी दोनों पक्षों की राय में बड़ी दिलचस्प समानता है. वह यह कि इन दोनों की ही बातें काफी बड़ी-चढ़ी हैं. जबकि असलियत में विदेशी चंदे से चलने वाले सारे के सारे एनजीओ किसी अलग एजेंडे को लेकर काम नहीं कर रहे हैं तो वहीं जो कुछ ठीक-ठाक काम कर रहे हैं उन्हें भी एकतरफा छूट नहीं दी जा सकती. साफ-साफ कहा जाए तो यह ऐसा मसला नहीं है जिसपर इतनी आसानी से विश्लेषणकर नतीजे निकाल लिए जाएं जैसा कि पिछले दिनो इंटेलीजेंस ब्यूरो (आईबी) की रिपोर्ट से जाहिर हुआ. दरअसल विदेशी चंदे से चलने वाले इन संगठनों को सीधे-सीधे ‘राष्ट्र विरोधी’ कह देना हमारी उस मानसिकता को मजबूत करता है जहां हम घरेलू हलचलों में तुरंत विदेशी हाथ देख लेते हैं, जबकि बुनियादी रूप से गलती नीति निर्धारकों या सरकार की होती है.

पिछले दिनों केंद्र सरकार ने कुडानकुलम में परमाणु विद्युत परियोजना का विरोध कर रहे संगठनों के खाते सील कर दिए. सरकार का यह कदम पाखंड के अलावा कुछ नहीं है. देश में और भी कई संगठन हैं जो विदेशी चंदे पर फल-फूल रहे हैं. लेकिन सरकार की नजर इनपर नहीं है. कहा जाता है कि इनमें से बहुत से सरकार के करीबी हैं. किसी कंपनी द्वारा एनीजीओ के जरिए अपने हित पूरे करने और कुछ अन्य लोगों द्वारा संगठनों की आड़ में अपना प्रभाव फैलाने के बीच एक बहुत महीन रेखा है. लेकिन हर परिस्थिति में दांव पर बड़ी चीजें हैं. ‘एडवोकेसी’ या ‘विकास’ के नाम पर विदेशों से जो पैसा संगठनों को मिल रहा है जाहिरतौर पर उसका उद्देश्य बड़े बदलाव लाना है.

केंद्र ने भले ही अभी संगठनों को मिलने वाले विदेशी चंदे पर भारी हो-हल्ला मचाया हो लेकिन उसका अतीत बताता है कि वह कभी इस विषय पर गंभीर नहीं रहा. सरकारों के पास आज तक इसका पक्का अनुमान नहीं है कि गैरसरकारी संगठनों को विदेशी संस्थानों से चंदे में हर साल कितना धन मिलता है. कहा जाता है कि भारत में इस समय तकरीबन 35 लाख एनजीओ काम कर रहे हैं. यानी 400 लोगों पर एक. इस क्षेत्र को मिलने वाले पैसे का अनुमान तो और भी अनिश्चित है. माना जाता है कि हर साल इस क्षेत्र को कम से कम 40 हजार करोड़ रुपये से लेकर 80 हजार करोड़ रुपये मिलते हैं. तीन साल पहले की एक रिपोर्ट के मुताबिक उस समय दिल्ली में काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों को सबसे ज्यादा पैसा मिला था. इन्हें 5,800 करोड़ रुपये मिले थे. वहीं दूसरे स्थान पर तमिलनाडु के संगठन थे जिन्हें कुल मिलाकर 4,800 करोड़ रुपये मिले थे.

देश में ऐसे एनजीओ की कमी नहीं है जो सरकार को धोखा देने के लिए अपने अंतर्गत कई अलग-अलग नाम से संगठन चलाते हैं और उनके लिए मिला पैसा अपने खाते में जमा करते हैं. आईबी की हालिया रिपोर्ट के बारे में यही कहा जा सकता है कि इसके माध्यम से उसने हल्ला-गुल्ला मचानेवाले दक्षिणपंथी गुटों को शांत करने की कोशिश की है. लेकिन यह काम आनन-फानन में किया गया. बिना किसी पूर्व तैयारी के. गृहमंत्रालय में एक अलग शाखा होती है जिसका काम ही है कि वह विदेश से आ रहे धन पर नजर रखे. मंत्रालय संदिग्ध गतिविधियों में लिप्त रहने वाले ऐसे संगठनों को हर साल काली सूची में डालता है. आज से 25 साल पहले राजीव गांधी सरकार में जब चिदंबरम मंत्री थे और उसके बाद इस साल उनके मंत्री रहने तक ऐसे संगठनों की संख्या तीन गुना तक हो गई है. यह भी हास्यास्पद है कि सरकार एक से ज्यादा बार यह स्वीकार कर चुकी है कि प्रतिबंधित संगठन कई बार प्रतिबंध के बाद भी विदेशी संस्थानों से चंदा लेने में कामयाब हो जाते हैं.

रिपोर्टें बताती हैं कि विदेशों से सबसे ज्यादा चंदा जिन भारतीय संगठनों को मिलता है उनमें अंतरराष्ट्रीय आर्थिक अनुसंधान परिषद (आईसीआरआईईआर) पहले स्थान पर है. इसे 2007 से 2012 तक एशियायी विकास बैंक, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष और सासाकावा पीस फाउंडेशन जैसे संगठनों से 11.5 करोड़ रुपये मिले. इसके अलावा कई दूसरे थिंक टैंकों को भी विदेशों से डोनेशन मिलता है. ये अपनी-अपनी विचारधारा में अलग-अलग हो सकते हैं लेकिन सरकार की कार्रवाई से एक बात साफ है कि वह राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ या उससे संबद्ध किसी संगठन के प्रति ऐसी कार्रवाई नहीं कर सकती जबकि इनमें से भी बहुतों को विदेशों से भारी पैसा मिलता है.

अंतरराष्ट्रीय स्तर पर सबसे बड़ी दानदाता संस्थाओं में फोर्ड फाउंडेशन, गूगल फाउंडेशन, इंटरनेशनल डेवलपमेंट रिसर्च सेंटर, हेवलेट फाउंडेशन, इकॉनॉमिक एंड सोशल रिसर्च काउंसिल आदि हैं. आज से लगभग तीन दशक पहले तक विदेशी चंदा गरीबी उन्मूलन या झुग्गी-झोपड़ी विकास के कामों के लिए मिलता था. लेकिन आज इसका दायरा बहुत विस्तृत हो गया है. अब इसमें राष्ट्रीय विकास परियोजनाओं से जुड़े काम जैसे- बांध या परमाणु ऊर्जा परियोजनाएं भी शामिल हैं. थिंक टैंकों या सरकारी संगठनों के बारे में एक बात यह भी कही जा सकती है कि वे भले यह आरोप लगाते रहे हैं कि सरकार का काम पारदर्शी नहीं है लेकिन इनके बारे में भी लगभग यही बात कही जा सकती है.

ब्राजील के प्रसिद्ध समाजशास्त्री और बुद्धिजीवी जेम्स पेत्रास ने विकासशील देशों में काम कर रहे गैरसरकारी संगठनों का काफी अध्ययन किया है. उनके मुताबिक ये लोकप्रिय सामाजिक-राजनीतिक आंदोलनों पर सवार होकर अपना प्रभाव बढ़ाते हैं और उन आंदोलनों को जमीनी स्तर पर फैलने से रोकते हैं. इन संगठनों का मकसद अपनी पहुंच उन क्षेत्रों तक बढ़ाने की होती है जहां पहले से उग्र सुधारवादी आंदोलन चल रहे हैं. इन देशों में ऐसे सैकड़ों विवादित संगठन हैं जो विदेशी चंदे पर चल रहे हैं और अपना प्रभाव बढ़ाकर जनोन्मुखी परियोजनाओं को रोकने का काम कर रहे हैं. ये अपनी संबंधित सरकारों के हितों में यथास्थिति बनाए रखने के लिए काम करते हैं. आमतौर पर राजनीतिक प्रतिष्ठान परंपरागत वामपंथी विधारधारा से थोड़ा अलग जाकर जनता के बीच काम करने वाले संगठनों को माओवादी या वामपंथी उग्रवादी करार दे देते हैं. इसी लीक पर चलते हुए मीडिया भी जनता के बीच चल रहे असली आंदोलन को दबा देती है.

एक उदाहरण हमारे पड़ोसी बांग्लादेश से है. वहां लगभग ढाई दशक पहले एक सामाजिक कार्यकर्ता और पेशे से डॉक्टर जफारुल्लाह चौधरी ने राष्ट्रीय दवा नीति का खाका तैयार किया था. इसका मकसद था कि गरीब से गरीब व्यक्ति को भी जरूरी दवाएं आसानी से मिल सकें. लेकिन जल्दी ही उनको निशाना बनाया जाने लगा. उनके खिलाफ कई केस शुरू हो गए. आखिर में इस नीति को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया. इस सबके पीछे बहुराष्ट्रीय कंपनियां और विदेशी डोनेशन से चलने वाले गैरसरकारी संगठन ही थे. विकासशील देशों में ऐसे उदाहरणों की भरमार है जहां जनोन्मुखी कार्यक्रमों या आंदोलनों को विदेशी चंदा पाने वाले संगठनों ने अपनी-अपनी संबंधित सरकारों के इशारों पर खत्म कर दिया. हालांकि सभी संगठनों को एक ही नजर से देखना पक्षपाती रवैया होगा. ऐसा ही कुछ इस समय मोदी सरकार और आईबी कर रहे हैं. कई सामाजिक क्षेत्रों में बदलाव लाने में इन संगठनों ने बड़ी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है. ऐसे में इन संगठनों पर कार्रवाई के लिए अतिरिक्त सतर्कता बरतना जरूरी है. हम इस तथ्य से भी इनकार नहीं कर सकते कि जमीनी स्तर पर सामाजिक बदलाव लाने की दिशा में सरकार और कॉर्पोरेट क्षेत्र की भूमिका ऐसी नहीं रही है जिसे आदर्श कहा जा सके. फिर हमारे यहां रतन टाटा और अजीम प्रेमजी जैसे लोग भी संख्या में इतने नहीं हैं कि दहाई का आंकड़ा पा सके. विदेशी चंदे से चलने वाली एनजीओ पर एकतरफा प्रतिबंध काफी नुकसानदेह साबित हो सकता है क्योंकि हमारे यहां इस खाई को पाटने के लिए चंदा देने वाले भारतीयों की संख्या इतनी ज्यादा नहीं है.

जहां तक एनजीओ की बात है, चाहे वे विदेशी चंदे से चलते हो या नहीं, उन्हें इस बहस की दिशा खुद तय करनी होगी. सरकार इस दिशा में अपना पक्ष अपने हिसाब से रख सकती है जिसके जवाब में गैरसरकारी संगठनों को अपनी बात कहने के लिए उतनी ही मजबूती से आगे आना होगा.

चाट मसाला

deepika-padukoneदिल फंटूश, दीपिका संतुष्ट
एक लेखक की यूरोप में जरूरत है. जोया अख्तर की ‘दिल धड़कने दो’ के सेट्स पर.‘ऑन-लोकेशन’ प्यार-मोहब्बत पर इतनी हाहाकार कहानी वहीं मिलेगी. व्यस्त दीपिका बार-बार सिक लीव लेकर जोया के क्रूज पर अपने प्यार रणवीर सिंह से मिलने जो जा रही हैं.  क्योंकि क्रूज पर रणवीर की पुरानी गर्लफ्रेंड अनुष्का शर्मा भी हैं, जो फिल्म में उनकी हीरोइन हैं और महीनों तक दोनों साथ रहेंगे. दीपिका को डर है कि कहीं पुराना प्यार रिन्यू न हो जाए और उनके साथ रणबीर कपूर वाला धोखा फिर न हो जाए. इसलिए वे हमसाये की तरह रणवीर के साथ हैं. लेकिन लेखक की कहानी में रोमांच तब आया जब रोमांस करने अनुष्का के अभी के प्रेमी विराट कोहली भी क्रूज पर पहुंच गए. नये-पुराने-टूटे-बिखरे-लड़ते-झगड़ते रिश्तों के बीच के फ्रिक्शन पर इससे रियल कहानी कहां मिलेगी. जोया वैसे रणवीर की जगह पहले रणबीर कपूर को हीरो लेना चाहती थीं. तब क्या दीपिका क्रूज पर जातीं? पता नहीं. लेकिन अगर जातीं, तो लेखक को कहानी लिखने में जबर मजा आता.

ajayदर्शकों को दिए जख्मों का क्या?     
अजय देवगन को वक्त-बेवक्त ‘जख्म’ याद आती है. जख्म के बाद ढेरों खराब फिल्में कर दर्शकों को दिए जख्म वे याद नहीं रखते, बस कहते-फिरते हैं कि जख्म के बाद से आज तक उन्होंने जख्म जैसी स्क्रिप्ट नहीं देखी. अब नए-नवेलों से मिलेंगे नहीं तो उनकी अच्छी स्क्रिप्ट कहां से देखेंगे, रोहित शेट्टी की ही फिल्में करेंगे. वहीं सैफ अली खान हमशकल्स के बाद शर्म से लाल हुए चेहरे को छुपाने के लिए चेहरे पर दाढ़ी बढ़ा रहे हैं और अगली फिल्म को जल्द से जल्द रिलीज करने की कोशिश कर रहे हैं. हमशकल्स, जिसके बारे में सभी फिल्म ग्रंथों के नए संस्करण में ये जोक लिखा जाएगा, ‘कोई हिम्मतवाला ही देख सकता है हमशकल्स’ में सैफ ने इतनी खराब एक्टिंग (कॉमेडी) की है, कि राम कपूर भी उनके आगे गोविंदा लगे हैं और वे शक्ति कपूर. अब हो चुके इस पाप पर गंगाजल डालने के लिए सैफ राज-कृष्णा की अगली हैप्पी एंडिंग्स से उम्मीद पाले हैं, ताकि घर से निकलें, तो इज्जत तो न निकले.

ektakapoorअठ्ठारह सौ तेतीस चांद की रातें
एकता कपूर के दफ्तर में इन दिनों हंगामा बरपा है. पावर प्वॉइंट प्रजेंटेशन्स की बाढ़ आई है. उनका हर कारीगर उन्हें समझाने की कोशिश में है कि जो आप टीवी पर देख रही हैं वह असत्य है, जो हम बना रहे हैं वही परमसत्य है. सुना है एकता उस नए चैनल को देखकर भौचक्क हैं जिसपर चार पाकिस्तानी धारावाहिक दिखाए जाने अभी-अभी शुरू हुए हैं. ये कैसे लोग हैं, कैसे घर, कैसे रिश्ते, ये किस तरह का अभिनय करते कलाकार हैं, कैसा अंदाज-ए-गुफ्तगू है, बैकग्राउंड स्कोर इतना मंद्दा क्यों है और ये मेरी तुलसी-पार्वती-प्रिया जैसी सशक्त महिलाएं इनमें क्यों नहीं हैं, मैंने जो मध्यम वर्ग सपने में देख धारावाहिकों में बनाया, वैसा इनमें क्यों नहीं है. चच्चा पंचायती ने बताया कि जवाबों से असंतुष्ट एकता अब ‘क्योंकि सास भी कभी बहू थी’ के सभी 1833 एपिसोड की लाखों डीवीडी बनवाकर पाकिस्तान में बंटवाने का मन बना चुकी हैं. कहती हैं, वहां के लोगों को भी तो पता चले, असल धारावाहिक क्या होते हैं.