पार्टी, परिवार, अखबार और भ्रष्टाचार

कांग्रेस पार्टी और नेशनल हेरल्ड की स्थितियों में एक अदभुत समानता है. दोनों ही संस्थाएं आज पूरी तरह से नेहरू-गांधी परिवार के उत्तराधिकारियों की संपत्ति में बदल चुकी हैं. दोनों का ही आरंभिक स्वरूप ऐसा नहीं था. 1885 में देश को आजादी दिलाने के मकसद से बनी कांग्रेस 1947 में आजादी मिलने के बाद एक राजनीतिक-आंदोलनकारी संगठन से पूर्णकालिक राजनीतिक दल में बदल गई. 1947 के बाद से कांग्रेस ने जो रास्ता अख्तियार किया उसके सारे रास्ते नेहरू-गांधी परिवार के इर्द गिर्द आकर समाप्त हो जाते हैं. आज इस परिवार के इतर कांग्रेस का कोई वजूद नहीं है. यही दशा आज नेशनल हेरल्ड की है. आजादी के आंदोलन के दौरान ही भारतीय पक्ष को तत्कालीन राजसत्ता और दुनिया के सामने मजबूती से रखने के मकसद से पंडित जवाहरलाल नेहरू ने नेशनल हेरल्ड नामक अखबार की नींव रखी थी. जिस अखबार की नींव नेहरूजी ने डाली थी उसे आजादी के आंदोलन को समर्थन दे रहे लगभग पांच हजार अन्य भारतीयों का भी समर्थन प्राप्त था. ये लोग नेशनल हेरल्ड को संचालित करने वाली संस्था एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड (एजेएल) के शेयरधारक थे. नेशनल हेरल्ड नेहरू का विचार था लेकिन कभी भी यह उनकी निजी संपत्ति नहीं रहा. लेकिन आज नेशनल हेरल्ड और उसकी संपत्तियां तकनीकी तौर पर नेहरू-गांधी परिवार की संपत्ति में तब्दील हो चुकी हैं.

भाजपा नेता सुब्रमण्यम स्वामी ने दिल्ली की पटियाला हाउस कोर्ट में एक याचिका दायर करके इस मामले में कार्रवाई की मांग की है. फिलहाल नेशनल हेरल्ड की सारी संपत्तियां यंग इंडियन नाम की कंपनी के स्वामित्व में हैं. रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी के मुताबिक यह कांग्रेस अध्यक्ष सोनिया गांधी और उपाध्यक्ष राहुल गांधी की अपनी कंपनी है. लेन देन की इस प्रक्रिया में जिस तरह की चीजें हुई हैं वह पहली नजर में कई सवाल खड़े करती हैं और एक सुनियोजित भ्रष्टाचार का इशारा देती हैं. ऐसे कई मुश्किल सवाल हैं जिनके जवाब आनेवाले समय में कांग्रेस पार्टी और उसके प्रथम परिवार को देने हैं. जवाबदेही की प्रक्रिया शुरू हो चुकी है. इस संबंध में सोनिया गांधी और राहुल गांधी को अदालती नोटिस मिल चुका है. साथ ही कांग्रेस पार्टी को आयकर विभाग ने भी एक नोटिस जारी किया है. पहले नोटिस के मुताबिक सोनिया गांधी और राहुल गांधी को आगामी सात अगस्त को अदालत में हाजिर होना है. हालांकि कांग्रेस के राष्ट्रीय प्रवक्ता अभिषेक मनु सिंघवी जो कि इस मामले में गांधी परिवार और कांग्रेस पार्टी की पैरवी कर रहे हैं, का कहना है, ‘हमारे पास अपना पक्ष साबित करने के पर्याप्त आधार हैं, लेकिन मैं कोर्ट में ही इस संबंध में सारी बातें रख पाऊंगा. फिलहाल मैं इस मामले की बारीकियों को उजागर नहीं कर सकता.’
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एजेएल के स्वामित्व में बदलाव की कवायद साल 2011 में शुरू हुई थी. इसे जानने से पहले हम नेशनल हेरल्ड के अतीत पर एक नजर डाल लेते हैं. इससे चीजों को समझने में आसानी होगी. नौ सितंबर 1938 को पं. जवाहरलाल नेहरू ने एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड की स्थापना की थी. इस कंपनी का काम था नेशनल हेरल्ड अखबार का प्रकाशन. बाद में इसमें कौमी आवाज, नवजीवन और हेरल्ड साप्ताहिक का प्रकाशन भी जुड़ गया. तब कंपनी की कैपिटल वैल्यू पांच लाख रु थी. इसमें 100 रुपये की कीमत वाले 2000 प्रिफरेंशियल शेयर थे और 10 रुपये कीमत वाले 30,000 सामान्य शेयर थे. उस वक्त करीब पांच हजार शेयरधारकों ने इसमें निवेश किया था. ये वे लोग थे जो आजादी के आंदोलन को समर्थन दे रहे थे और शिद्दत से यह महसूस कर रहे थे कि भारतीय पक्ष को मजबूती से सामने रखने के लिए एक संपूर्ण भारतीय स्वामित्व वाले मीडिया संस्थान का होना आवश्यक है. कंपनी का तत्कालीन मेमोरेंडम ऑफ एसोसिएशन कहता है, ‘इसका उद्देश्य संयुक्त प्रांत (वर्तमान उत्तर प्रदेश) समेत देश के दूसरे हिस्सों में समाचार एजेंसी, अखबार और पत्रिका के प्रकाशन, प्रिंटिंग प्रेस और इससे संबंधित समस्त दूसरे व्यवसायों को स्थापित करना और कंपनी के हित में उन्हें संचालित करना है.’

सुब्रमण्यम स्वामी की याचिका इस पर सवाल उठाती है. इसके शब्दों में, ‘जिस यंग इंडियन नाम की कंपनी ने नेशनल हेरल्ड का अधिग्रहण किया है उसके लक्ष्य में दूर-दूर तक किसी अखबार, पत्रिका या प्रिंटिंग प्रेस को स्थापित करना नहीं है. तो फिर किस नीयत से यह लेनदेन हुआ है.’ कंपनी के मेमोरेंडम पर जवाहरलाल नेहरू के अलावा पुरुषोत्तमदास टंडन, जे नरेंद्र देव, कैलाश नाथ काटजू, रफी अहमद किदवई, कृष्ण दत्त पालीवाल और गोविंद बल्लभ पंत जैसी हस्तियों के हस्ताक्षर हैं. जाहिर है न तो यह व्यक्ति विशेष की कंपनी थी, न ही इसका उद्देश्य समाचारों के अलावा किसी और व्यवसाय से जुड़ना था.

आजादी के बाद भी यह अखबार कांग्रेस की बैसाखी पर चलता रहा. 2008 तक आते-आते स्थितियां ऐसी हो गईंं कि नेशनल हेरल्ड का प्रकाशन संभव नहीं रहा. लिहाजा एजेएल ने इसे बंद करने की घोषणा कर दी. तीन वर्षों तक नेशनल हेरल्ड लोगों की स्मृतियों से ओझल रहा.

इसी बीच पर्दे के पीछे कुछ ऐसे काम हुए जिसने कांग्रेस पार्टी की अपनी साख और उसके प्रथम परिवार की साख पर संदेह खड़ा कर दिया है. साल 2011 की शुरुआत में यंग इंडियन नाम की एक कंपनी का गठन हुआ. इस कंपनी की 76 प्रतिशत हिस्सेदारी सोनिया गांधी और राहुल गांधी के पास है. तकनीकी तौर पर किसी कंपनी मे 74 फीसदी से ज्यादा हिस्सेदारी जिस व्यक्ति की होती है वह उस कंपनी का मालिक होता है. उसके पास कंपनी के सारे फैसले करने और किसी भी निर्णय को रद्द करने का अधिकार होता है. बाकी 24 फीसदी में कंपनी के चार दूसरे हिस्सेदार सुमन दुबे, सैम पित्रोदा, मोतीलाल बोरा और ऑस्कर फर्नांडिज हैं. इस कंपनी का गठन कंपनी एक्ट 1956 के सेक्शन 25 के तहत हुआ है. ऐसी कंपनी नॉन प्रॉफिट संस्था होती है यानी यह कंपनी किसी भी तरह की व्यावसायिक गतिविधि में हिस्सा नहीं ले सकती. साथ ही वह तमाम स्रोतों से होने वाली आय का इस्तेमाल सिर्फ कंपनी के मूल उद्देश्यों के प्रचार-प्रसार में कर सकती है.

26 फरवरी 2011 को एजेएल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर्स की बैठक में एक प्रस्ताव पारित हुआ. यह प्रस्ताव कई सवाल खड़े करता है. इसका मजमून कुछ इस तरह है–एजेएल ने कांग्रेस पार्टी से 90,21,68,980 रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज लिया था. इस लेनदारी को कांग्रेस पार्टी ने यंग इंडियन नाम की कंपनी को स्थानांतरित कर दिया लिहाजा अब उसे यह लोन यंग इंडियन को देना था. एजेएल ने इस लोन को खत्म करने के एवज में यंग इंडियन को एजेएल की 10 रुपये कीमत वाले 90,216,898 शेयर जारी कर दिए. इस प्रकार एजेएल का पूरा मालिकाना हक यंग इंडियन के पास चला गया. कांग्रेस पार्टी ने अपने 90,21,68,980 रुपये की जो लेनदारी यंग इंडियन को सौंपी थी उसका निपटारा यंग इंडियन ने उसे 50 लाख रुपये देकर कर दिया. इस पूरे लेनदेन का विवरण 26 फरवरी 2011 को एजेएल द्वारा पास प्रस्ताव में मौजूद है. इस पर एजेएल के तत्कालीन चेयरमैन मोतीलाल बोरा के हस्ताक्षर हैं.

इस पूरे खेल में दिलचस्प तालमेल और हितों का टकराव नजर आता है. यंग इंडियन के एक निदेशक मोती लाल वोरा एजेएल के चेयरमैन मोतीलाल वोरा के सामने एक प्रस्ताव रखते हैं कि वे कांग्रेस पार्टी के कोषाध्यक्ष मोतालाल वोरा से कहकर 90,21,68,980 रुपये के ब्याजरहित लोन की लेनदारी अपने ऊपर यानी यंग इंडियन के ऊपर करवा देंगे. इस सहमति के बाद उन्हीं मोतीलाल वोरा ने 26 फरवरी 2011 को एजेएल के बोर्ड ऑफ डायरेक्टर की एक असाधारण बैठक में यह प्रस्ताव पास करके सारे शेयर यंग इंडियन प्रा. लिमिटेड को दे दिए. इन तीन संस्थाओं में से कांग्रेस पार्टी और यंग इंडियन ऐसी हैं जहां मोतीलाल बोरा सीधे सोनिया गांधी, राहुल गांधी के मातहत की तरह काम करते हैं और इन्हीं दोनों लोगों को इस इस लेन देन में सबसे ज्यादा लाभ होता दिख रहा है.

स्वामी की याचिका यहां पर कुछ सवाल खड़े करती है जिनके जवाब कांग्रेस और उसके शीर्ष नेतृत्व को देने हैं. मसलन एक राजनीतिक दल जो चंदे के रूप में पैसा लेता है वह अपने कोष का इस्तेमाल किसी व्यावसायिक गतिविधि में नहीं कर सकता क्योंकि इस चंदे पर कोई कर नहीं दिया जाता है. आयकर अधिनियम के सेक्शन 13ए और जनप्रतिनिधित्व अधिनियम के सेक्शन 29 ए और सी में विस्तार से विवरण है कि राजनीतिक दल किसी व्यावसायिक गतिविधि में न तो शामिल हो सकते हैं, न ही वे ऐसे किसी उपक्रम में अपने कोष का इस्तेमाल कर सकते हैं. तो फिर कांग्रेस ने कैसे एक निजी कंपनी को 90,21,68,980 रुपये का ब्याजमुक्त कर्ज दे दिया? किस आधार पर कांग्रेस पार्टी ने एक अन्य निजी कंपनी के पास 90,21,68,980 रुपये की लेनदारी ट्रांसफर कर दी और फिर 90 करोड़ की उधारी का निपटारा कैसे सिर्फ 50 लाख रुपये में कर दिया. स्वामी इस प्रक्रिया में कर कानूनों के अलावा चुनाव आयोग के नियमों की भी धज्जियां उड़ाए जाने का आरोप लगाते हैं. उनकी मांग है कि चुनाव आयोग को कांग्रेस पार्टी की मान्यता समाप्त कर देनी चाहिए.

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एक नवंबर 2012 को एक प्रेस कॉन्फ्रेंस में इस लेन-देन को उजागर करते हुए  स्वामी यह मामला अदालत में ले गए थे. दिलचस्प तथ्य यह है कि स्वामी के आरोप का जवाब देते हुए कांग्रेस के वरिष्ठ नेता जनार्दन द्विवेदी ने तब कहा था, ‘हां, हमने एजेएल को 90 करोड़ रुपये का लोन दिया है. हम नेहरू जी के सपने को फिर से जिंदा करना चाहते हैं. कांग्रेस का हेरल्ड से भावनात्मक रिश्ता है.’ यह बात किसी के गले नहीं उतरी क्योंकि इस घटना के महज 20 दिन पहले ही नौ अक्टूबर 2012 को राहुल गांधी ने पीटीआई से बातचीत में कहा था कि नेशनल हेरल्ड को दोबारा शुरू करने की उनकी कोई योजना नहीं हैं. जाहिर है जनार्दन द्विवेदी ऐसी चादर से अपना और पार्टी का चेहरा छिपाने की कोशिश कर रहे थे जो पूरी तरह से पारदर्शी थी.

सवाल उठता है कि जब हेरल्ड को दोबारा से शुरू करने की कोई योजना नहीं थी तब किस मकसद से एजेएल का मालिकाना हक यंग इंडियन को स्थानांतरित करने की कवायद हुई. स्वामी के मुताबिक यह सारी कवायद हेरल्ड की संपत्तियों पर अधिकार करने के लिए हुई. एजेएल के पास दिल्ली, लखनऊ, महाराष्ट्र और मध्य प्रदेश में अचल संपत्तियां हैं. दिल्ली के फिरोजशाह रोड, जहां ज्यादातर प्रमुख अखबारों के दफ्तर मौजूद हैं, पर स्थित सात मंजिला हेरल्ड हाउस की मौजूदा कीमत बाजार भाव के हिसाब से 1600 करोड़ रु के आस पास बतायी जाती है. याचिका के मुताबिक देश भर में फैली हेरल्ड की संपत्तियों की कीमत करीब 5000 करोड़ रुपये है. दिल्ली स्थित हेरल्ड हाउस में फिलहाल कई कंपनियों के दफ्तर काम कर रहे हैं. इसके भूतल और पहली मंजिल पर विदेश मंत्रालय द्वारा पासपोर्ट सेवा केंद्र चल रहा है. इसका उद्घाटन यूपीए-2 की सरकार में विदेशमंत्री रहे एसएम कृष्णा ने किया था. विश्वसनीय सूत्रों के मुताबिक विदेश मंत्रालय किराए के रूप में 60 लाख रुपये प्रति माह की मोटी रकम अदा करता है. इसके अलावा तीसरी और चौथी मंजिल पर टाटा कंपनी की शाखा टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज़ (टीएसीएस) का दफ्तर है. सूत्रों के मुताबिक टीसीएस प्रति माह 27 लाख रुपये किराया अदा कर रही है. हेरल्ड हाउस की पांचवी मंजिल पर उस यंग इंडियन कंपनी का दफ्तर भी है जिसके पास फिलहाल इसका मालिकाना हक है.

यहां प्रश्न खड़ा होता है कि इन सभी स्रोतों से हो रही लाखों की आय जा कहां रही है. एक टीवी चैनल से बात करते हुए हाल ही में कांग्रेस प्रवक्ता रणदीप सिंह सुरजेवाला का कहना था, ‘नेशनल हेरल्ड को पुनर्जीवित करने के लिए किराया वसूला जा रहा है.’ सवाल वही है कि जब खुद राहुल गांधी कह चुके हैं कि हेरल्ड को शुरू करने की उनकी कोई योजना नहीं है तब सुरजेवाला किस आधार पर यह दावा कर रहे हैं.

एसोसिएटेड जर्नल लिमिटेड द्वारा 2008 में रजिस्ट्रार ऑफ कंपनी को दी गई शेयरधारकों की सूची इसकी दुर्दशा और गैर पेशेवर कामकाज पर कुछ हद तक रोशनी डालती है. कंपनी के शेयरधारकों में जवाहरलाल नेहरू (मृत्यु 1964), फिरोज गांधी (मृत्यु 1960), इंदिरा गांधी (मृत्यु 1984), घनश्यामदास बिड़ला (मृत्यु 1983), सुचेता कृपलानी (मृत्यु 1974), विजय लक्ष्मी पंडित (मृत्यु 1990) जैसे तमाम नाम शामिल हैं. ये पांच हजार शेयरधारकों में शामिल कुछेक महत्वपूर्ण नाम हैं. तथ्य यह है कि इस सूची में शामिल लगभग 80 प्रतिशत लोग आज इस दुनिया में नही हैं. लेकिन एजेएल ने उन शेयरों को कभी भी उनके वारिसों के नाम स्थांतरित करने की कोई कार्रवाई नहीं की जबकि यह कानूनन जरूरी था. एक तरफ तमाम शेयर धारकों की मृत्यु के बाद भी उनके उत्तराधिकारियों को उनके हिस्से का शेयर कभी जारी नहीं किया गया दूसरी तरफ समय-समय पर गांधी परिवार के उत्तराधिकारी शेयरधारकों की सूची में शामिल किए जाते रहे. इनमें इंदिरा गांधी, फिरोज गांधी से लेकर राहुल गांधी तक शामिल हैं. इस मामले के याचिकाकर्ता स्वामी के मुताबिक राहुल गांधी को एजेएल के शेयरधारकों की सूची में 2008 में शामिल किया गया. एजेएल की सूची के 14वें पन्ने पर राहुल गांधी बतौर शेयरधारक उपस्थित हैं. उनके पास एजेएल के 2,62,411 शेयर थे. लेकिन अपने 2009 के लोकसभा चुनाव के संपत्ति विवरण में राहुल गांधी ने किसी भी तरह के शेयर न होने की घोषणा की थी. बाद में जब 2012में  सुब्रमण्यम स्वामी ने यह मामला चुनाव आयोग के सामने रखा तब राहुल गांधी ने ये सारे शेयर अपनी बहन प्रियंका गांधी को स्थांतरित कर दिए. स्वामी का आरोप है कि मामला सामने आने के बाद दबाव में राहुल गांधी ने यह काम बैक डेट में अंजाम दिया.

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यहां कुछ और जरूरी सवाल हैं. एजेएल को नेशनल हेरल्ड के प्रकाशन के लिए जो संपत्तियां कौड़ी के भाव लीज पर दी गईं थी, और प्रत्यक्षत: उन्हीं पर अधिकार के लिए यह सारी कवायद चल रही थी, वे कुछ अखबारों के प्रकाशन के लिए थीं. यह बात सर्वविदित है कि 2008 से नेशनल हेरल्ड ठप पड़ा था तब इसकी संपत्तियों को कानूनन जब्त करने की कार्रवाई होनी चाहिए थी. बजाय इसके इनमें तमाम तरह के दूसरी व्यावसायिक गतिविधियां शुरू कर दी गईं.जबकि इसका आवंटन अखबार के प्रकाशन के लिए हुआ था.  सुरजेवाला कहते हैं, ‘इस इलाके में स्थित तमाम मीडिया हाउस अपने भवनों को किराए पर देते हैं. इसमें नया क्या है.’ महत्वपूर्ण सवाल यही है कि अव्वल तो एजेएल के शेयर ऐसी किसी कंपनी के पास जाने ही नहीं चाहिए थे जो इस अखबार को निकालना ही नहीं चाहती थी. दूसरा एजेएल के शेयरधारकों को विश्वास में लिए बिना और उन्हें जानकारी दिए बिना ही कंपनी को एक व्यक्तिगत कंपनी के हाथ में कैसे स्थांतरित कर दिया गया.

कानूनी जवाबदेहियों और तकनीकी बारीकियों से अलग इस पूरे मामले में देश के उस प्रथम परिवार की अपनी नीयत और विश्वसनीयता गहरे संकट में है जिसने इस देश को तीन प्रधानमंत्री दिए हैं. सोनिया और राहुल गांधी के सामने कौन सी परिस्थितियां थीं जो उन्हें एजेएल का स्वामित्व अपनी निजी स्वामित्व वाली कंपनी में ट्रांसफर करना पड़ा. कांग्रेस पार्टी पर गांधी-नेहरू परिवार की निजी संपत्ति हो जाने के जो आरोप लगते रहे हैं उन पर इस मामले ने मुहर लगाने का काम किया है. वरना 90 करोड़ रुपये कांग्रेस पार्टी ने जिस तरह से एजेएल को सोनिया गांधी और राहुल गांधी की संपत्ति बनाने के लिए न्यौछावर कर दिए उसे और किस तरह से पार्टी न्यायोचित ठहराएगी. कानूनी पेचीदगियां तो हैं ही, जिन सोनिया और राहुल गांधी को उनकी पार्टी त्याग की प्रतिमूर्ति और देश के भावी प्रधानमंत्री के रूप में पेश कर रही है उन्हें इस पूरे विवाद का उत्तर नैतिकता के पैमाने पर भी देना होगा .